Tuesday, April 22, 2014

कार-कथा

 रमेश उपाध्याय की कहानी

‘‘अरे, कपूर साहब, आप? नमस्ते! आइए, बैठिए, कैसे हैं?’’

‘‘अहा, नमस्ते, वर्मा जी! बस में सीट और आप जैसे सज्जन का साथ मिल जाये, तब तो सब ठीक होना ही हुआ!’’

‘‘लेकिन आज आप बस में कैसे?’’

‘‘कार पुरानी हो गयी थी, बेच दी।’’

‘‘लेकिन पिछली बार आप मिले थे, तब तो कह रहे थे कि उसकी जगह नयी खरीद ली है?’’

‘‘हाँ, खरीदी थी, लेकिन वह मैंने अपनी छोटी बहू को दे दी। क्या है कि मेरे दोनों लड़कों के पास तो अपनी-अपनी गाड़ी थी ही और बड़ी बहू अपने लिए अपने दहेज में ले आयी थी। छोटी बहू थोड़े कमजोर घर की है, वह नहीं ला सकी, तो अपनी उसे मैंने दे दी।’’

‘‘मतलब, आपके घर में चार गाड़ियाँ हैं?’’

‘‘वैसे तो पाँच होनी चाहिए। चार बेटों-बहुओं की और पाँचवीं मेरे और मेरी वाइफ के लिए। बड़ा तो कह रहा है कि आप मेरी वाली ले लो। क्या है कि उसे नये मॉडल की कारें खरीदने का खब्त है। एक पुरानी हो नहीं पाती कि तब तक उसे बेचकर नये मॉडल की दूसरी ले लेता है। कह रहा था--मुझे तो बेचनी ही है, आप ले लो।’’

‘‘तो आप ले लेते! बसों में क्यों धक्के खाते फिर रहे हैं?’’

‘‘अब क्या है कि मैं और वाइफ जब से रिटायर हुए हैं, हम दोनों की कोई पब्लिक लाइफ तो रही नहीं। वाइफ दिन-रात नौकरानी की तरह घर में खटती रहती हैं और मैं दिन भर घरेलू नौकर की तरह बाहर के कामों के लिए दौड़ता रहता हूँ। जिनको पैदा किया, पाला-पोसा, पढ़ाया-लिखाया; जिनके लिए तमाम जायज-नाजायज तरीकों से पैसा कमाकर मकान बनवाया; जिनका कैरियर बनाने और घर बसाने के लिए दुनिया भर की भाग-दौड़ और जोड़-तोड़ की; वे आज हमारे घर के ही नहीं, हमारे भी मालिक बन बैठे हैं। मैं और वाइफ दिन-रात उनकी सेवा में लगे रहते हैं। अपने लिए कोई वक्त ही नहीं बचता। सो जब कहीं आना-जाना ही नहीं, तो गाड़ी रखकर क्या करें?’’

‘‘तो इस समय आप कहाँ जा रहे हैं?’’

‘‘क्या है कि सुबह-सुबह दूध लाने गये। फिर बच्चों के बच्चों को उनकी स्कूल बस तक छोड़ने गये। फिर सब्जियाँ, फल, अंडे, मक्खन, ब्रेड वगैरह लेने गये। नाश्ता करके बिजली का बिल जमा कराने गये। लौटकर नहाने-खाने के बाद थोड़ा आराम करने की सोच ही रहे थे कि बड़ी बहू का फोन आ गयाµमेरे लिए कनॉट प्लेस के खादी भंडार से हर्बल शैंपू ले आओ!’’

‘‘तो आप कनॉट प्लेस जा रहे हैं! मैं भी वहीं जा रहा हूँ। चलिए, अच्छा है। बहुत दिन हो गये आपसे मिल-बैठकर बातें किये। कॉफी होम चलेंगे, वहाँ बैठकर कॉफी पियेंगे, गपशप करेंगे और आपकी बहू के लिए हर्बल शैंपू लेकर साथ-साथ ही लौट आयेंगे।’’

‘‘मगर आप कनॉट प्लेस किस काम से जा रहे हैं?’’

‘‘समझिए कि आपकी बहू के लिए हर्बल शैंपू लेने।’’

‘‘मजाक मत कीजिए। वैसे आप न बताना चाहें, तो...’’

‘‘अरे, नहीं-नहीं, कपूर साहब! आप जैसे भले पड़ोसी से क्या छिपाना! बात यह है कि हमारे बच्चे तो, आप जानते हैं, दिल्ली में हैं नहीं। बेटा-बहू बंगलौर में हैं और बेटी सिंगापुर में। यहाँ हम मियाँ-बीवी दो ही हैं। भाभीजी की तरह मेरी बीवी तो नौकरी में थी नहीं। घर की मालकिन कहिए या नौकरानी, सब कुछ शुरू से वही है। लेकिन मेरी पेंशन हम दोनों के लिए काफी है। फ्लैट उस समय ले लिया था, जब मकान सस्ते थे और दफ्तर से इतना लोन मिल जाता था कि छोटा-सा फ्लैट लिया जा सके। गाड़ी-वाड़ी पहले भी कभी नहीं रखी। अपने लिए तो हमेशा दिल्ली परिवहन निगम ही जिंदाबाद रहा। अब तो अपने इलाके में मेट्रो भी आ गयी है, लेकिन मेट्रो स्टेशन हमारे लिए थोड़ा दूर पड़ता है, इसलिए ज्यादातर बस से ही आते-जाते हैं। वैसे, सीट मिल जाये, तो बस से बेहतर कोई सवारी नहीं। अंदर-बाहर के नजारे देखिए, लोगों से बातें कीजिए, आराम करना चाहें तो आँखें बंद करके एक झपकी ले लीजिए। और अब कहीं टाइम पर हाजिरी देने तो जाना नहीं। दोपहर के खाने के बाद श्रीमती जी शाम तक आराम करती हैं। मैं थोड़ा सैर-सपाटा करने और दोस्तों के साथ कॉफी पीने कनॉट प्लेस चला जाता हूँ। घंटे-डेढ़ घंटे बैठे, गपशप की, तरोताजा हुए और शाम तक वापस घर।’’

‘‘आप खुशकिस्मत हैं, वर्मा जी! बेटा-बहू बंगलौर में क्या करते हैं?’’

‘‘दोनों सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। अच्छा कमाते हैं, लेकिन घूमने-फिरने के अलावा उन्हें कोई शौक नहीं। पैसा जोड़ा, छुट्टी ली और देश या विदेश में कहीं घूम आये। दो-तीन बार हम दोनों को भी घुमा लाये हैं।’’

‘‘और आपकी लड़की?’’

‘‘वह एम.बी.ए. करके दिल्ली में एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने लगी थी। वहीं एक लड़का मिल गया, जिससे उसने प्रेम विवाह कर लिया। शादी के बाद दोनों को सिंगापुर में बेहतर जॉब मिल गयी, तो वहाँ चले गये। इसी तरह लड़के ने भी अपने साथ काम करने वाली लड़की से प्रेम विवाह किया है और वे दोनों भी खुश हैं।’’

‘‘आप वाकई खुशकिस्मत हैं, वर्मा जी! आपके बच्चे आपकी अकेले की कमाई के बावजूद अच्छी तरह पढ़-लिखकर काबिल बन गये। इधर मैंने और मुझसे ज्यादा वाइफ ने दोनों लड़कों पर पानी की तरह पैसा बहाया। लेकिन वे पढ़ाई-लिखाई में मन लगाने की जगह मौज-मस्ती में ही डूबे रहे। हमारे यहाँ शुरू से दो गाड़ियाँ थींµएक मेरी, एक वाइफ की। लेकिन लड़कों ने कॉलेज के जमाने में ही दोनों हथिया लीं। साथ के लड़कों और लड़कियों को अपनी गाड़ियों में घुमाना, एक्सीडंेट और लड़ाई-झगड़े करना, बेकार में पेट्रोल और पैसा फूँकना। कई बार पुलिस के चक्कर में भी फँसे। ऐसे लड़कों को अच्छी जॉब कैसे मिलती? मैंने ही जैसे-तैसे जुगाड़ लगाकर उनको नौकरियाँ दिलायीं और उनकी शादियाँ करायीं। बहुएँ दोनों बेहतर पढ़ी-लिखी हैं और लड़कों से बेहतर जॉब में हैं। बड़ी बहू तो काफी पैसे वाले परिवार की है। छोटी बहू, जैसा कि मैंने आपको बताया, जरा कमजोर घर की है, लेकिन छोटे लड़के से ज्यादा पढ़ी है और ज्यादा कमाती है। मगर छोटा लड़का उसकी कद्र नहीं करता। दहेज न लाने के लिए ताने देता रहता है। सबसे बड़ा ताना यह कि वह दहेज में कार क्यों नहीं लायी। मुझे डर लगा कि यह लड़का कार के कारण कहीं बहू को मार न डाले, इसलिए अपनी नयी कार मैंने उसे दे दी।’’

‘‘अच्छा किया।’’

‘‘लेकिन, वर्मा जी, इससे एक नयी मुसीबत खड़ी हो गयी है। मैंने आपको बताया न, बड़े लड़के को नये-नये मॉडलों की कारें खरीदने का खब्त है। मुझसे कह रहा है कि मेरी पुरानी कार आप ले लो। जानते हैं, क्यों? पुरानी कार बेचने से उसे उतने पैसे नहीं मिलेंगे, जितने नयी कार के लिए चाहिए। इसलिए वह चाहता है कि मैं उसकी कार ले लूँ और उसे उतना पैसा दे दूँ, जितने में नयी गाड़ी आ जाये। मैंने कहा कि मुझे गाड़ी की जरूरत नहीं है, तो बोला कि तुमने छोटे भाई को गाड़ी दी है, तो मुझे भी दो। समझे आप? मेरे जीते जी मेरे पैसे पर अपना हक जता रहा है और मुझे नैतिकता सिखा रहा है!’’


‘‘फिर आपने क्या सोचा?’’

‘‘मैंने तो साफ कह दिया कि जब तक जिंदा हूँ, मेरी मर्जी कि मैं अपने पैसे का क्या करूँ। मुझे तेरी कार नहीं चाहिए। वैसे ही हमारे घर में चार कारें होने से पार्किंग की ऐसी प्रॉब्लम पैदा हो गयी है कि आये दिन पड़ोसियों से झगड़े होने लगे हैं। मुझे तो डर लगता है। आजकल ऐसे झगड़ों में गोलियाँ तक चल जाती हैं।’’


‘‘वैसे गाड़ी न रखना अच्छा ही है। अब दिल्ली में ड्राइव करना टेंशन और परेशानी मोल लेने के सिवा कुछ नहीं। बाहर देखिए, सड़क पर कितनी गाड़ियाँ हैं और दौड़ने के बजाय कैसे रेंग रही हैं।’’

‘‘वाकई हद हो गयी है। अब तो कारों की खरीद-बिक्री पर कोई रोक लगनी ही चाहिए।’’

‘‘जी, हाँ, अब उससे कार कंपनियों के अलावा किसी को कोई फायदा नहीं।’’

‘‘फायदा? कहिए कि नुकसान ही नुकसान है। एक तरफ तो बेशुमार पैसे और पेट्रोल की बर्बादी और दूसरी तरफ पॉल्यूशन, क्राइम और करप्शन में दिन दूनी बढ़ोतरी!’’

‘‘बिलकुल सही कहा आपने। कारों के कारण सड़कों पर क्राइम कितना बढ़ गया है!’’

‘‘सही कहने वाले तो बहुत हैं, भाई, पर सुनता कौन है?’’

‘‘क्यों? मैं सुन रहा हूँ। ये भाईसाहब सुन रहे हैं। वो बहनजी सुन रही हैं। कंडक्टर साहब भी सुन रहे हैं। क्यों, कंडक्टर साहब? सुन रहे हैं न?’’

‘‘जी, साहब जी! सब सुन रहे हैं और समझ भी रहे हैं। लेकिन बुरा न मानें तो एक बात कहें? जिनके घरों में चार-चार गाड़ियाँ हैं, पहले उनको ही कुछ सोचना और करना चाहिए।’’