tag:blogger.com,1999:blog-1496071818736613491.post8791564720168085344..comments2023-09-06T03:33:21.690-07:00Comments on behtar duniya ki talaash: ramesh upadhyayhttp://www.blogger.com/profile/05054633574501788701noreply@blogger.comBlogger4125tag:blogger.com,1999:blog-1496071818736613491.post-24942345751520879452016-03-07T21:48:24.844-08:002016-03-07T21:48:24.844-08:00रमेश जी मेरी कहानी 'भोला बबवा के पैर' पर आ...रमेश जी मेरी कहानी 'भोला बबवा के पैर' पर आपकी बहुमूल्य टिप्पणी के लिए आभार। आपने जिस गहराई से कहानी पढ़ी और उसके मर्म की गंभीर प्रासंगिक संदर्भों में व्याख्या की, मेरे लिए उत्साहवर्धक ही नहीं ज्ञानवर्धक भी है। जान ब्रेमन की पुस्तक के बहाने आपने‘फुटलूज लेबर’ की जो याद दिलाई वो मेरे लिए बिल्कुल नई और रोमांचक है। कहानी बेशक फुटलूज लेबर के इर्दगिर्द घूमती है, लेकिन इस टर्म और अवधारणा से आपकी टिप्पणी के बाद परिचित हो पाया। यह भी जाना कि एम्सटर्डम विश्वविद्यालय में तुलनात्मक समाजशास्त्र के प्रोफेसर जान ब्रेमन ने कई बार भारत आकर यहाँ के असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों का अध्ययन किया था। मैं आपका वह लेख ‘भूमंडलीय यथार्थवाद की पृष्ठभूमि’भी पढ़ना चाहूंगा। कहानी की इससे स्तरीय समीक्षा या टिप्पणी की कल्पना मैंने नहीं की थी। शायद यही वजह है कि यह समीक्षा फेसबुक पर शेयर करने से पहले कई बार सोचा कि पहले कुछ और अच्छी कहानियां लिखकर उस आत्मविश्वास के स्तर तक पहुंचा जाए। एक बार फिर शुक्रिया और आभारPK RAIhttps://www.blogger.com/profile/03828917730361933167noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1496071818736613491.post-38556217536109212142015-07-15T01:10:53.441-07:002015-07-15T01:10:53.441-07:00This comment has been removed by the author.PK RAIhttps://www.blogger.com/profile/03828917730361933167noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1496071818736613491.post-5187926077262239762015-03-16T08:09:12.939-07:002015-03-16T08:09:12.939-07:00धन्यवाद, प्रज्ञा.धन्यवाद, प्रज्ञा.ramesh upadhyayhttps://www.blogger.com/profile/05054633574501788701noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1496071818736613491.post-92118069070112007922015-03-15T10:13:29.582-07:002015-03-15T10:13:29.582-07:00तस्स्थता के विरुद्ध पक्षधरता कलावादीपन की बजाय कथ्...तस्स्थता के विरुद्ध पक्षधरता कलावादीपन की बजाय कथ्यपरकता जादुई यस्थार्थवाद की जगह कहानी का फिर से कथ्य की रक्षा लेखकीय प्रतिबद्धता और यथार्थवाद की वापसी को आपने एकदम नयी कहानियों के जरिये पकड़ा। उन कहानियों को बताकर बल्कि अपनेशब्दों में पढ़ाकर आपने उन ज़रूरी सवालों के सन्दर्भ में अपनी बात रखी जो साहित्य की बड़ी ज़मीन से बेदखल किये जा रहे हैं। इस लेख ने ठोस परिप्रेक्ष्य में साम्प्रदायिकता दलित किसान स्त्री असंगठित क्षेत्र के मज़दूर आर्थिक आत्मनिर्भरता खोजती औरत अल्पसंख्यको के सवाल इनके अंदर बहते करन्ट को भी आपकी नज़र ने पकड़ा। इन कझनियों के साथ आपने बदलाव के समय और कहानी के समय में आ रहेबदलाव दोनों पर बात की है। ये एक गम्भीर लेख तो है ही साहित्य के प्रति सकारत्मक ऊर्जा से भरा लेख भी है। इस लेख और इसमें विवेचित कहानियाँ के जरिये आपने यथार्थवाद की मज़बूत वापसी की आहट को सुना है। जाहिर है ये बात चुनींदा कहानियों के हवाले से कही गयी है पर आपने जो वैचारिक पहलू उभारे हैं उनके आधार पर कई और कहानियाँ भी इस और आती दिखेंगी। हैं ही। लेख के लिये बधाई।प्रज्ञाhttps://www.blogger.com/profile/03031155939204863000noreply@blogger.com