tag:blogger.com,1999:blog-14960718187366134912024-02-06T18:55:45.168-08:00behtar duniya ki talaashramesh upadhyayhttp://www.blogger.com/profile/05054633574501788701noreply@blogger.comBlogger75125tag:blogger.com,1999:blog-1496071818736613491.post-5718774116620198472019-04-07T04:31:00.001-07:002019-04-23T20:31:28.192-07:00काठ में कोंपल <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<b>6 अप्रैल, 2019 को दिल्ली के गाँधी शांति प्रतिष्ठान में 'कथा-कहानी' के आयोजन में मैंने अपनी कहानी 'काठ में कोंपल' का पाठ किया. यहाँ आप सभी मित्रों के लिए यह कहानी प्रस्तुत है. </b></div>
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<b><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj9XS1-NV5zo339tq9_tOWhrZqbXwQOTjox_f3DArloxcsJySMctCzt7YTzsJFXeYKZR2XcONDDy3WuAdfeeOs4QwPKeQ_xqfZnMJhHpTnqAvD-BTGRUySTBV-W4TOUsDxjdhA-TlPo8Xd9/s1600/56669518_370400133562801_1441064589843234816_n.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="710" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj9XS1-NV5zo339tq9_tOWhrZqbXwQOTjox_f3DArloxcsJySMctCzt7YTzsJFXeYKZR2XcONDDy3WuAdfeeOs4QwPKeQ_xqfZnMJhHpTnqAvD-BTGRUySTBV-W4TOUsDxjdhA-TlPo8Xd9/s200/56669518_370400133562801_1441064589843234816_n.jpg" width="145" /></a></b></div>
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<span style="color: blue;"><b><span style="color: #444444;"><span style="color: #cc0000;"><span style="font-size: large;">काठ में कोंपल</span></span> </span></b></span></div>
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<span style="color: blue;"><b><span style="color: #444444;"><span style="color: black;">रमेश उपाध्याय </span> </span></b></span></div>
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<br /><span style="color: blue;"><b>समीरा: बीते कल का इतिहास</b></span><br /><br />मेरे पति प्रणव कुमार मेरे शिक्षक थे और उम्र में मुझसे आठ साल बड़े थे। लेकिन वे मुझे हमेशा हमउम्र ही लगते थे। वे प्रोफेसर कम लगते थे, सहपाठी मित्र अधिक। दूसरे प्रोफेसरों की तरह वे लेक्चर नहीं देते थे, बातचीत करते थे। बीच-बीच में हल्के-फुल्के हास्य-व्यंग्य से पूरी कक्षा को हँसाते रहते, लेकिन गंभीर प्रश्न उठाकर कोई न कोई बहस भी छेड़ते रहते। किसी और प्रोफेसर की क्लास में हम खुलकर हँस तो क्या, बोल भी नहीं सकते थे, जबकि उनसे हम बाकायदा बहस करते थे। क्लास में ही नहीं, क्लास के बाहर भी हम उनसे मिल सकते थे। उनसे कुछ भी पूछ सकते थे। उन्हें घेरकर कैंटीन में ले जा सकते थे और उनके साथ चाय पीते हुए हँसी-ठट्ठा भी कर सकते थे। </div>
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<br />उन दिनों लोग रिटायर होने के करीब पहुँचने पर प्रोफेसर बना करते थे। बहुत-से तो बन ही नहीं पाते थे। बेचारे लेक्चरर नियुक्त होते थे और अधिक से अधिक रीडर बनकर रिटायर हो जाते थे। इसलिए लोग आश्चर्य करते थे कि प्रणव कुमार तीस की उम्र में ही प्रोफेसर कैसे बन गये। लेकिन इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं थी। अट्ठाईस साल की उम्र में उन्होंने पीएच.डी. कर ली थी। सो भी ऐसे कठिन और अनोखे विषय पर कि उसके लिए उन्हें गाइड मिलना मुश्किल हो गया था। अव्वल तो उनके शोध का विषय ही बड़ी मुश्किल से स्वीकृत हुआ था, क्योंकि विषय स्वीकृत करने वाली समिति का कहना था--यह तो इतिहास का नहीं, राजनीतिशास्त्र का विषय है। जो विषय प्रणव कुमार ने चुना था, वह था शीतयुद्ध का इतिहास। सोचिए जरा, यह तब की बात है, जब सोवियत संघ मौजूद था और शीतयुद्ध जारी था। इतिहास विभाग के सब लोगों ने, विभागाध्यक्ष तक ने, उनसे कहा कि मूर्खता मत करो, कोई और विषय ले लो। जो चीज अभी इतिहास बनी ही नहीं, उसका इतिहास तुम कैसे लिखोगे? उसके लिए सामग्री कहाँ से जुटाओगे? कौन तुम्हें गाइड करेगा? कौन तुम्हारी परीक्षा लेगा? मगर प्रणव कुमार नहीं माने, अपनी जिद पर अड़े रहे। </div>
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<br />खैर, जैसे-तैसे विषय स्वीकृत हुआ और विषय को देखते हुए उनके दो गाइड बनाये गये। एक इतिहास विभाग के प्रोफेसर, दूसरे राजनीतिशास्त्र विभाग के प्रोफेसर। वे दोनों अपने शोध छात्र को गाइड कम करते थे, आपस में लड़ते ज्यादा थे। प्रणव कुमार ने अपनी ही सूझ-बूझ और मेहनत से अपना काम पूरा किया और पीएच.डी. हो गये। उस काम से बनी उनकी पुस्तक भी जल्दी ही प्रकाशित हो गयी। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />अब, एक तो विषय एकदम नया और चुनौती भरा, दूसरे, पुस्तक बहुत अच्छे ढंग से लिखी गयी थी। इसलिए प्रकाशित होते ही उसकी धूम मच गयी। हालाँकि उसकी आलोचना भी हुई, उस पर विवाद भी छिड़ा, खास तौर से इस बात को लेकर कि उसमें पूँजीवाद और समाजवाद में से, या अमरीका और रूस में से, किसी एक का पक्ष लेने के बजाय दोनों की, और दोनों के बीच जारी शीतयुद्ध की, आलोचना की गयी थी। आलोचना और विवाद का मुद्दा यह था कि प्रणव कुमार ने रूसी या अमरीकी दृष्टिकोण अपनाने के बजाय तीसरी दुनिया वाला, बल्कि उसमें भी भारत और दूसरे गुटनिरपेक्ष देशों वाला दृष्टिकोण अपनाया था, जो न रूस के समर्थकों को पसंद था, न अमरीका के समर्थकों को। दोनों ने अपने-अपने पक्ष से पुस्तक की आलोचना की। मगर लेखक को इससे लाभ ही हुआ। प्रणव कुमार अपनी पहली ही पुस्तक से चर्चित हो गये। इतिहास पढ़ने-पढ़ाने वालों के बीच ही नहीं, लेखकों, पत्रकारों, राजनीतिक नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच भी उनकी पुस्तक लोकप्रिय हुई। </div>
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<br />लेकिन पुस्तक के पहले संस्करण में उन्होंने जो लिखा था, दूसरे संस्करण में बदल दिया। यदि आप पुस्तक के पहले संस्करण का मिलान पाँच साल बाद छपे उसके दूसरे संस्करण से करें, तो पायेंगे कि वह एक प्रकार का संशोधित, परिवर्तित, परिवर्द्धित या कहें कि पुनर्लिखित इतिहास है। उसमें नये तथ्य हैं, उनके नये विश्लेषण हैं और साथ-साथ एक नयी दृष्टि भी है। पहले संस्करण में उस इतिहास का लेखक शीतयुद्ध में शामिल दोनों पक्षों के दृष्टिकोण से लगभग समान दूरी बनाये रखते हुए अपने एक तीसरे ही दृष्टिकोण से शीतयुद्ध को देखता है और भारतीय संदर्भ में उससे निकलने वाले निष्कर्षों की रोशनी में दुनिया के संभावित भविष्य की परिकल्पना करता है। लेकिन दूसरे संस्करण में वह पूँजीवाद और समाजवाद में से समाजवाद की तरफ झुका हुआ दिखायी देता है। अमरीका और रूस में से रूस की तरफ झुका हुआ दिखायी देता है और अपने भारतीय दृष्टिकोण को एक प्रकार के वैश्विक दृष्टिकोण में बदलता या विकसित करता दिखायी देता है। </div>
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<br />इस बदलाव से यह निष्कर्ष बड़ी आसानी से निकाला जा सकता है कि लेखक के विचार बदल गये हैं। लेकिन यह बदलाव क्यों आया, और क्यों आना जरूरी था, इसका उत्तर देश और दुनिया में आये बदलावों के साथ-साथ लेखक के निजी जीवन में आये बदलावों को भी देखने पर मिलेगा। </div>
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<br />मैंने उस बदलाव को अपनी आँखों से देखा था। बल्कि यों कहें कि उसमें मेरी भी भागीदारी थी। मैं जब एम.ए. में पढ़ रही थी, तभी से अपने प्रोफेसर प्रणव कुमार पर मुग्ध थी। मुझे लगता था कि वे भी मुझे पसंद करते हैं। कारण यह था कि उनके सब छात्रों में अकेली मैं ही थी, जिसने उनकी शीतयुद्ध वाली पुस्तक पढ़ी थी और उस पर उनसे बात की थी। उन्हें यह सुनकर विश्वास नहीं हुआ था कि मैंने उनकी पुस्तक पढ़ी है। बोले, ‘‘तुम ऐसी किताबें पढ़ती हो?’’ मैंने उन्हें बताया कि मेरे पिता कम्युनिस्ट हैं, एक कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता हैं और उस पार्टी के साप्ताहिक अखबार में काम करने वाले पत्रकार हैं। मैंने उन्हें यह भी बताया कि मेरे पिता नयी से नयी किताबें पढ़ते हैं और घर आते रहने वाले अपने मित्रों और साथियों से उन पर खूब बात-बहस करते हैं। उन लोगों की बातें-बहसें सुन-सुनकर मैं भी राजनीति को कुछ-कुछ समझने लगी हूँ। जो बातें मेरी समझ में नहीं आतीं, मैं अपने पिता से पूछ लेती हूँ। मेरे पिता मेरे सवालों के जवाब खुद तो देते ही हैं, मुझे कुछ किताबें भी बता देते हैं, या अपनी किताबों में से खुद ही निकालकर दे देते हैं। मैंने बड़े गर्व के साथ कहा था, ‘‘सर, हमारे घर में बहुत किताबें हैं। समझिए कि एक पूरी लाइब्रेरी है।’’ </div>
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<br />‘‘तब तो किसी दिन तुम्हारे घर आना पड़ेगा।’’ प्रोफेसर प्रणव कुमार ने मुझसे कहा था। </div>
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<br />उस दिन के बाद जब भी मिलते और मैं नमस्ते करती, तो वे ‘‘हैलो, काॅमरेड!’’ कहकर मुस्कराते। पता नहीं उस मुस्कान में मजाक उड़ाने वाला भाव होता था या मेरी सराहना का, लेकिन जो भी हो, मुझे वह मुस्कान बहुत अच्छी लगती थी। कहूँ कि उनके मुँह से ‘‘हैलो, काॅमरेड!’’ सुनकर मैं धन्य हो जाती थी। मगर मैं मन ही मन उनसे प्रेम करते हुए भी सोचती थी कि मेरा प्रेम एकतरफा है और अव्यक्त ही रहेगा। कहाँ तीस-इकत्तीस साल का एक प्रोफेसर और कहाँ बाईस-तेईस साल की उसकी एक छात्रा! कहाँ एक सुंदर और शानदार व्यक्तित्व, कहाँ साधारण रूप-रंग वाली एक दुबली-पतली मध्यवर्गीय लड़की! हालाँकि वे युवा प्रोफेसर कहलाते हैं, लेकिन हैं तो उम्र में मुझसे आठ साल बड़े। और फिर सबसे बड़ी बाधा तो यह कि वे हिंदू हैं और मैं मुसलमान! </div>
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<br />यही सब सोचकर मैं अपने एकतरफा प्रेम को मन में कसकर बंद किये रहती थी। सचेत रहती थी कि वह कहीं खुलकर व्यक्त न हो जाये। मगर मन मानता नहीं था। नतीजा यह हुआ कि एम.ए. करने के बाद मैंने पीएच.डी. करने की ठानी और शोध के लिए ऐसा विषय लेने की सोची कि गाइड के रूप में मुझे प्रोफेसर प्रणव कुमार ही मिलें। विषय सोचकर मैं उनके पास गयी कि सिनाॅप्सिस बनाने में वे मेरी मदद कर दें। उन्होंने अपने चिर-परिचित अंदाज में मुस्कराते हुए ‘‘हैलो, काॅमरेड!’’ कहकर मेरा स्वागत किया और विषय पूछा। मैंने बताया, ‘‘भारतीय वामपंथ का उदय और विकास।’’ सुनकर हँसे और बोले, ‘‘तुम्हारे पापा ने सुझाया है?’’ मैंने कहा, ‘‘नहीं। मुझे खुद सूझा है।’’ फिर कुछ सोचकर बोले, ‘‘सोच लो, ऐसे विषय पर पीएच.डी. करोगी, तो नौकरी मिलना मुश्किल होगा।’’ मैंने कहा, ‘‘देखा जायेगा, सर, अभी तो आप मेरी सिनाॅप्सिस बनवा दीजिए और हो सके, तो मेरे गाइड भी आप ही रहिएगा।’’ </div>
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<br />विषय स्वीकृत हो गया था और गाइड भी मुझे वे ही मिले थे। मैंने सुन रखा था कि शोध छात्राओं को अपने गाइडों से अक्सर मिलना पड़ता है और उनमें से कुछ बदमाश प्रोफेसर उन्हें अपने घर पर या अन्यत्र कहीं एकांत में बुलाकर उनका यौन शोषण करते हैं। मैंने सोच लिया था कि प्रणव कुमार की ओर से ऐसा कोई संकेत भी मिला, तो मैं उन्हें खरी-खरी सुना दूँगी और शोध करने का विचार ही त्याग दूँगी। मगर उन्होंने मुझे अपने घर या अन्यत्र कहीं नहीं बुलाया। वे मुझे हमेशा इतिहास विभाग में ही मिलने के लिए बुलाते थे और वहाँ दूसरे प्रोफेसरों के सामने ही मुझसे बात करते थे। हम एक कोने में बैठ जाते और शोध के विषय पर बातें करते रहते। अक्सर वे ही बोलते रहते और मैं नोट्स लेती रहती। </div>
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<br />लेकिन इतिहास विभाग के दूसरे लोगों को ज्यों ही पता चला कि मैं मुसलमान ही नहीं, एक कम्युनिस्ट पिता की बेटी भी हूँ, उनमें से कई लोग मेरे वहाँ आकर बैठने पर आपत्ति करने लगे। उनमें एक तरफ वे पुरुष थे, जिन्हें प्रणव कुमार के तीस साल की उम्र में ही प्रोफेसर बन जाने से तकलीफ हुई थी और दूसरी तरफ वे महिलाएँ थीं, जो अविवाहित थीं और प्रणव कुमार से शादी करना चाहती थीं। इन दोनों तरह के लोगों में कुछ ऐसे भी थे, जो मुसलमानों के प्रति घृणा और कम्युनिस्टों के प्रति शत्रुता का भाव रखते थे। वे सब मेरे और प्रणव कुमार के बारे में तरह-तरह के दुष्प्रचार करने लगे। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />मैं तो परेशान हो गयी, लेकिन प्रणव कुमार ने हिम्मत दिखायी। एक दिन जब मैं विभाग में उनसे मिलने के बाद अपने घर जाने के लिए बस स्टैंड की तरफ जा रही थी, वे पीछे से अपनी मोटरसाइकिल पर आये और मेरे पास रुककर बोले, ‘‘तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ दूँ?’’ मैं रोमांचित हो उठी। शुक्रिया कहकर उनके पीछे बैठ गयी। रास्ते में एक रेस्तराँ के सामने रुककर उन्होंने पूछा, ‘‘चाय पियोगी? तुम से मुझे कुछ बात भी करनी है।’’ चाय पीते समय उन्होंने कोई भूमिका बाँधे बिना सीधे ही पूछ लिया, ‘‘मुझसे शादी करोगी?’’ मैं तो खुशी से पागल-सी हो जाने को हुई, मगर मैंने संयम बरतते हुए कहा, ‘‘मुझे अपने अब्बू-अम्मी से पूछना पड़ेगा।’’ यह सुनकर वे बोले, ‘‘चलो, अभी चलकर पूछ लेते हैं।’’ </div>
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<br />मैंने पूछा, ‘‘लेकिन, सर, यह अचानक इतना बड़ा फैसला? बात क्या है?’’ उन्होंने अपने सहकर्मियों द्वारा फैलायी जा रही अफवाहों के बारे में बताकर कहा, ‘‘तुम ने ‘करेला और नीम चढ़ा’ वाली कहावत सुनी है? विभाग में कुछ लोग मुझे देखते ही एक फब्ती कसते हैं--करेली और नीम चढ़ी! यानी तुम! इस तरह वे तुम पर और तुम्हारे पिता पर ही नहीं, मुझ पर भी हँसते हैं। ऐसी हँसी, जिसमें जहर भरा होता है। यह मुझसे बर्दाश्त नहीं होता। अपनी बदनामी तो मैं शायद बर्दाश्त कर भी लूँ, तुम्हारी बदनामी हरगिज बर्दाश्त नहीं कर सकता।’’ </div>
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<br />‘‘मैं भी यह बर्दाश्त नहीं कर सकती कि मेरे कारण आपको परेशानी हो। मैं विभाग में आकर आपसे मिलना बंद कर दूँगी। या शोध करने का विचार ही छोड़ दूँगी।’’ मैंने कहा और साथ ही यह भी जोड़ दिया कि ‘‘आप मुझे बदनामी से बचाने के लिए मुझसे शादी कर लें, यह तो मुझ पर एहसान करने या मेरे लिए शहीद हो जाने जैसा होगा। यह मैं कभी नहीं चाहूँगी।’’ यह सुनकर उन्होंने कहा, ‘‘इसमें एहसान या शहादत की क्या बात है?’’ तो मैंने कहा, ‘‘मैं आपके सामने क्या हूँ? ऐसी लड़की से शादी करना, जो आपके लायक नहीं है, उस पर एहसान करना ही हुआ!’’ तब उन्होंने पहली बार बताया कि वे मुझे चाहते हैं और मुझसे शादी करके मुझ पर कोई एहसान नहीं करेंगे, क्योंकि मुझ में उन्हें वह लड़की मिल गयी है, जिसे वे अपना जीवन-साथी बनाने के लिए खोज रहे थे। </div>
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<br />उन्होंने मानो अपने शब्दों की सच्चाई का विश्वास दिलाने के लिए मेरे दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर हौले से दबाते हुए कहा, ‘‘मैं पत्नी के रूप में कोई घरेलू औरत या बाहर उड़ती फिरती रहने वाली फैशनेबल तितली नहीं चाहता। मैं ऐसी जीवन-साथी चाहता हूँ, जो मुझे और मेरे काम को समझ सके। उसमें मेरा सहयोग कर सके। और वह तुम ही हो सकती हो, यह मैं तभी से जानता हूँ, जब तुमने मेरी किताब पढ़कर मुझसे बात की थी। तुम जैसी बौद्धिक लड़की मुझे न तो अपने साथ पढ़ने वाली लड़कियों में मिली, न साथ पढ़ाने वाली लड़कियों में।’’ </div>
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<br />‘‘लेकिन मजहब...? उसका क्या?’’ मैंने पूछा, तो वे हँसकर बोले, ‘‘तुम ही सारी बातें तय कर लोगी या अपने अब्बू-अम्मी के लिए भी कुछ छोड़ोगी? चलो, मुझे अपने घर ले चलो। मैं आज उनसे मिलकर बात करने के पक्के इरादे के साथ निकला हूँ।’’ </div>
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<br />मैंने भी हँसकर कहा, ‘‘बात करने के पक्के इरादे से या बात पक्की करने के इरादे से?’’ </div>
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<br />खैर, बात पक्की हो गयी और हमारी शादी हो गयी। मेरी माँ को कुछ आपत्ति थी, लेकिन मेरे पिता ने उन्हें समझा-बुझाकर मना लिया। </div>
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<br />शादी कोर्ट में हुई थी। मेरी तरफ से गवाह बने अब्बू की पार्टी के कुछ काॅमरेड और प्रणव की तरफ से विश्वविद्यालय के कुछ वामपंथी शिक्षक। प्रणव ने अपने माता-पिता की संभावित आपत्ति को ध्यान में रखते हुए उन्हें सूचना नहीं दी। उनकी तरफ से उनकी एक बुआ आयीं, जो विधवा थीं, ससुराल से निकाल दी गयी थीं और प्रणव के पास आकर रहने लगी थीं। सामान्य परिस्थिति में शायद वे भी हिंदू-मुसलमान का सवाल उठाकर हमारी शादी का विरोध करतीं, लेकिन वे प्रणव की आश्रित थीं, इसलिए--और इसलिए भी कि वे बहुत ही भली महिला थीं--उन्होंने मुझे प्यार से अपना लिया। </div>
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<br />इसी तरह मेरे माता-पिता भी प्रणव को प्यार से अपना लेना चाहते थे, लेकिन पुरानी दिल्ली में, जहाँ हम लोग रहते थे, हमारे मुहल्ले-पड़ोस के मुसलमानों को यह अच्छा नहीं लगा कि उन्होंने अपनी बेटी की शादी एक हिंदू से कर दी। प्रणव ने अब्बू से पहली मुलाकात में ही कह दिया था कि वे अब्बू के निजी पुस्तकालय का लाभ लेने के लिए आया करेंगे, लेकिन शादी के बाद सांप्रदायिक मिजाज वाले कुछ पड़ोसी लड़कों ने ऐसी धमकियाँ दीं कि अब्बू ने प्रणव से कह दिया, ‘‘बेटा, तुम यहाँ नहीं, पार्टी के ऑफिस में आ जाया करो। वहाँ भी बहुत किताबें हैं और वहाँ मेरे अलावा दूसरे कई लोगों से भी तुम मिल सकोगे।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />प्रणव वहाँ जाने लगे। वहाँ से लेकर किताबें पढ़ने लगे। पार्टी के लोगों से मिलने लगे। पार्टी की विचारधारा और राजनीति से प्रभावित होकर एक नयी दृष्टि से दुनिया को देखने लगे। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />अब आप समझ सकते हैं कि हमारी शादी के बाद प्रणव की शीतयुद्ध वाली पुस्तक का जो दूसरा संस्करण निकला, वह एक प्रकार का पुनर्लिखित इतिहास क्यों था। वह सही था या गलत, यह सवाल मैं नहीं उठा रही हूँ, क्योंकि जहाँ एक तरफ उसे सही मानने वालों ने प्रणव की दृष्टि और विचारधारा में आये बदलाव की प्रशंसा की, वहीं दूसरी तरफ उसे गलत मानने वालों ने उस बदलाव की निंदा की। वह भारतीय प्रकाशक भी, जिसने प्रणव की पुस्तक का पहला संस्करण छापा था, निंदा से प्रभावित हुआ और उसने दूसरा संस्करण छापने से इनकार कर दिया। मगर लंदन के एक प्रकाशक ने दूसरा संस्करण खुश होकर प्रकाशित किया। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पुस्तक के दूसरे संस्करण को पहले से बहुत बेहतर माना गया। वह पुस्तक खूब बिकी। कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में लगी। दुनिया की कई भाषाओं में उसके अनुवाद हुए। प्रणव को उससे इतिहासकार के रूप में अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली। </div>
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<br />लेकिन अपने देश और अपने विश्वविद्यालय में प्रणव का विरोध हुआ। कारण यह था कि दूसरे संस्करण में प्रणव ने राष्ट्र और राष्ट्रवाद की आलोचना की थी। उनका कहना था कि राष्ट्र एक कल्पना है, जो यथार्थ मान ली गयी है और उस पर आधारित राष्ट्रवाद संपूर्ण मानवता को एक अखंड इकाई न मानकर अलग-अलग टुकड़ों में बाँटता है और उन्हें आपस में लड़ाता है। इससे अकादमिक जगत के लोग ही नहीं, कई लेखक और पत्रकार भी, राजनीतिक नेता और कार्यकर्ता भी प्रणव के विरोधी हो गये। और जब कुछ वामपंथी इतिहासकार, लेखक, पत्रकार आदि प्रणव के समर्थन में आ खड़े हुए, तो प्रणव के विरोधी प्रणव को कम्युनिस्ट और राष्ट्रद्रोही आदि कहने लगे, जबकि वास्तव में प्रणव पार्टी पाॅलिटिक्स से दूर रहने वाले एक देशभक्त किस्म के आदमी थे। वे माक्र्स-एंगेल्स के विचारों से प्रभावित थे, लेकिन बुद्ध और गांधी के विचारों से भी कम प्रभावित नहीं थे। मेरे अब्बू और उनके कई काॅमरेड चाहते थे कि प्रणव उनकी पार्टी में आ जायें, लेकिन प्रणव का एक ही जवाब होता था, ‘‘राजनीति मेरा क्षेत्र नहीं है। मेरा क्षेत्र इतिहास है और मैं उसी में रहकर काम करना चाहता हूँ।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />उन दिनों या तो देश में मुसलमानों के खिलाफ वैसी भावनाएँ नहीं भड़की थीं, जैसी आज हैं, या जाति और धर्म के बंधन तोड़कर प्रेम-विवाह करना ज्यादा बुरा नहीं माना जाता था। हमारी शादी हुए तकरीबन दस साल हो चुके थे। मैं एक बेटी की माँ बन चुकी थी, पीएच.डी. कर चुकी थी और एक काॅलेज में पढ़ाने लगी थी। मैं और प्रणव अपनी-अपनी नौकरी करने जाते। प्रणव की बुआ घर का काम सँभालतीं और हमारी बेटी दीक्षा को प्यार से पालतीं। घर की ओर से नि¯श्चत होने के कारण प्रणव बाहर के झगड़े-झंझट झेल लेते थे। हालाँकि मुसलमान होने के कारण काॅलेज में कुछ लोग मुझे नीची नजर से देखते थे, लेकिन मैं अपने काम से काम रखती थी। काॅलेज में पढ़ाने के बाद सीधी घर लौटती थी और घर-परिवार के कामों से निपटने के बाद अपने पढ़ने-लिखने में व्यस्त हो जाती थी। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />दिन ठीक-ठाक कट रहे थे कि एक दिन अचानक बुआ को दिल का दौरा पड़ा और वे चल बसीं। बुआ का हम लोगों को बड़ा सहारा था। उनके मरने के बाद हमारे सामने समस्या खड़ी हो गयी कि जब मैं और प्रणव अपनी-अपनी नौकरी करने या कहीं और जायें, तो घर और दीक्षा को कौन सँभाले। प्रणव के माता-पिता, भाई-बहन और नाते-रिश्ते के तमाम लोग मुझसे शादी कर लेने के कारण प्रणव से अपने नाते तोड़ चुके थे और मेरी तरफ से भी मेरे माता-पिता के सिवा हमारा साथ देने वाला कोई नहीं था। समझ में नहीं आ रहा था कि हम क्या करें। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />प्रणव ने इस समस्या का समाधान यह निकाला कि एक दिन वे मेरे माता-पिता को समझा-बुझाकर हमारे साथ रहने के लिए ले आये और बुआ वाले कमरे में उनके रहने की व्यवस्था कर दी। लेकिन इस समाधान से एक और समस्या, बड़ी विकट समस्या, खड़ी हो गयी। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />अभी तक हमारे पड़ोसी अपनी उदारता, सहिष्णुता और प्रगतिशीलता का परिचय देते हुए हम लोगों को बर्दाश्त करते आ रहे थे। हमारा मकान मालिक तो, जो हिंदू लड़कियों के मुसलमान लड़कों से शादी करने को बहुत बुरा मानता था, यह जानकर खुश भी था कि एक हिंदू लड़का मुसलमान लड़की को ले आया। लेकिन मेरे अब्बू और अम्मी को हमारे घर में रहते देख पड़ोसियों को ऐसा लगा, मानो पाकिस्तान उनके पड़ोस में आ बसा हो। उनमें से किसी ने हमारे मकान मालिक को जा भड़काया और वह मकान खाली कराने आ गया। हमने वजह पूछी, तो बोला, ‘‘तुम्हारा ग्यारह महीने का एग्रीमेंट खत्म हो चुका।’’ प्रणव ने हँसकर कहा, ‘‘किराया बढ़ाना है न? बढ़ा दीजिए और नया एग्रीमेंट कर लीजिए।’’ सालों-साल से यही चला आ रहा था, लेकिन इस बार मकान मालिक ने मुँह टेढ़ा करके कहा, ‘‘अब मुझे मकान किराये पर देना ही नहीं। मुझे अपना मकान अपने लिए चाहिए। खाली करना पड़ेगा।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />बड़ी मुश्किल से उसने हमें एक महीने का वक्त दिया। मेरे माता-पिता समझ गये कि यह परेशानी उनके आने की वजह से पैदा हुई है, इसलिए वे वापस अपने घर में रहने चले गये। हमने एक कामवाली रख ली और दूसरा मकान तलाशने में जुट गये। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />कामवाली का नाम श्यामा था। वह साँवले रंग की एक दुबली-पतली सुंदर लड़की थी, जिसकी नयी-नयी शादी हुई थी। उसका पति बढ़ई था। वे दोनों बिहार के थे और हमारे घर से कुछ ही दूरी पर बसी एक झुग्गी बस्ती में रहते थे। पति जहाँ-तहाँ बढ़ई का काम करता और श्यामा हमारी काॅलोनी के तीन-चार घरों में बर्तन माँजने और सफाई का काम करती थी। वह भरोसेमंद थी, इसलिए मैंने अपनी अनुपस्थिति में उसे घर सँभालने और दीक्षा की देखभाल करने की जिम्मेदारी सौंप दी। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />मकान खोजने कभी मैं और प्रणव ही जाते, तो कभी अपने मित्रों के साथ, जिनमें से ज्यादातर हमारे तीन शिक्षक साथी होते थे। वे तीन अलग-अलग कम्युनिस्ट पार्टियों से जुड़े हुए थे, लेकिन हमारे साझे मित्र थे। हम किसी पार्टी से जुड़े नहीं थे और वे हमें अपनी-अपनी पार्टी से जोड़ना चाहते थे।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />लेकिन इधर समाज को न जाने क्या हो गया था कि हम चाहे प्राॅपर्टी डीलर के पास जायें, या सीधे मकान मालिक से जाकर मिलें, सबसे पहले यह पूछा जाता कि हम कौन हैं। हमने तय कर रखा था कि झूठ नहीं बोलेंगे, सच-सच बता देंगे कि प्रोफेसर प्रणव कुमार हिंदू हैं, प्रोफेसर समीरा खान मुसलमान और दोनों ने प्रेम-विवाह किया है। हमारे मित्रों का भी यही कहना था, ‘‘पहले से बता देना ठीक है, ताकि बाद में पता चलने पर अचानक मकान खाली न करना पड़े।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />उन दिनों प्रणव अपनी पुस्तक ‘राष्ट्र और राष्ट्रवाद’ लिख रहे थे। उनके दिमाग में मकान खोजते समय भी इतिहास की खोजबीन चलती रहती थी। मुझसे और मित्रों से भी इसी पर चर्चा करते रहते थे। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />एक दिन जब हम एक मकान मालिक से मुसलमानों के लिए दी गयी गालियाँ सुनने के बाद लौट रहे थे, संयोग से तीनों काॅमरेड हमारे साथ थे। तीनों उस बदतमीज मकान मालिक को अच्छी तमीज सिखाकर आ रहे थे, लेकिन अब भी गुस्से में थे। उनका ध्यान बँटाने के लिए प्रणव ने बात इतिहास और राजनीति की ओर मोड़ दी। बातें चलीं, तो धर्म, जाति, रंग, नस्ल, भाषा आदि से चलकर यहाँ तक आ पहुँचीं कि समाज में बढ़ती सांप्रदायिकता से निपटना आज का सबसे बड़ा सवाल है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />कुछ समय पहले हमने नयी कार खरीदी थी। प्रणव कार चला रहे थे। मैं उनके साथ वाली अगली सीट पर बैठी पीछे बैठे तीनों मित्रों से होती उनकी बातचीत चुपचाप सुन रही थी और ऊब रही थी, इसलिए मैंने तुकबंदी-सी करते हुए कहा, ‘‘थकान के मारे अपना बुरा हाल है। फिलहाल एक कप चाय का सवाल है।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />इस पर चारों मित्र ठहाका लगाकर हँसे और प्रणव ने ज्यों ही चाय की दुकान देखी, गाड़ी रोक दी। चाय पीते समय एक काॅमरेड ने कहा कि किराये पर लेने के बजाय कहीं एक मकान किस्तों पर खरीद लेना बेहतर होगा। दूसरे काॅमरेड ने सुझाव दिया कि मकान किसी ऐसी नयी काॅलोनी में लिया जाये, जहाँ रहने वाले लोग पड़ोसियों की निजी जिंदगी में ज्यादा दिलचस्पी न रखते हों। तीसरे काॅमरेड ने आश्वासन दिया कि वे कोई न कोई जुगाड़ लगाकर हमें ऐसा मकान किस्तों पर दिला देंगे। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />कुछ दिन बाद हमें एक अच्छा-सा मकान किस्तों पर मिल गया। मकान नयी-नयी बसी एक अच्छी काॅलोनी में था और काफी बड़ा था। इकमंजिला, जिसके सामने लाॅन और फूलों की क्यारियाँ थीं और पिछवाड़े की तरफ एक सर्वेंट क्वार्टर। सामने की चारदीवारी के पास जामुन का पेड़ था, जो बरसात के मौसम में खूब फलता था। दीक्षा को जामुन बहुत पसंद थे। अपने घर में ही जामुन का पेड़ पाकर वह बेहद खुश हुई। </div>
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<br />हम अपने मकान में रहने गये, तो हमने अपनी कामवाली श्यामा से कहा कि वह और उसका पति भी हमारे साथ चलें और सर्वेंट क्वार्टर में रहें। श्यामा खुशी-खुशी राजी हो गयी और अपने पति रामकुमार के साथ सर्वेंट क्वार्टर में रहने लगी। दीक्षा को हमने घर के पास ही एक अच्छे स्कूल में दाखिल करा दिया। मैं और प्रणव पहले की तरह अपने पठन-पाठन और लेखन में व्यस्त हो गये। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />कुछ दिन बाद पता चला कि अम्मी बहुत बीमार हैं। हम लोग उन्हें देखने गये। उनकी हालत बहुत खराब थी। दो दिन बाद वे नहीं रहीं। अब्बू अकेले रह गये। मैंने प्रणव से कहा, ‘‘अब तो हम अपने मकान में हैं। अब्बू को अपने साथ रख सकते हैं?’’ प्रणव राजी हो गये और हम अब्बू को अपने घर ले आये।</div>
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<br />लेकिन तभी एक ऐसी घटना घटी, जिसके घटित होने में हमारा कोई हाथ नहीं था और वह हमारे घर-परिवार में नहीं, हमारे देश में भी नहीं, बल्कि दूर किसी दूसरे देश में घटी थी, लेकिन उसने मेरे अब्बू की जान ले ली।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />अब्बू सोवियत संघ को दुनिया का सबसे महान देश और लेनिन को दुनिया का सबसे महान क्रांतिकारी मानते थे। लेकिन वहाँ गोर्बाचेव के पेरेस्त्रोइका की आँधी चलते ही समझ गये थे कि यह आँधी बहुत कुछ उड़ा ले जाने वाली है। उनकी पार्टी के काॅमरेड भी येल्त्सिन की कारगुजारियों से बौखला गये थे। एक दिन, जब अब्बू हमारे साथ रह रहे थे, टेलीविजन पर समाचार देखते हुए हम सबने देखा कि मास्को में लेनिन की विशाल प्रतिमा तोड़कर गिरायी जा रही है। अब्बू हाथों में अपना चेहरा छिपाकर फूट-फूटकर रो पड़े थे। </div>
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<br />अब्बू के लिए सोवियत संघ का न रहना उनकी जिंदगी का सबसे बड़ा सदमा था। उसे वे बर्दाश्त नहीं कर पाये और ऐसे बीमार पड़े कि फिर उठ ही नहीं सके। नहीं, बुझने से पहले जैसे शमा की लौ एक बार तेज हो जाती है, उनमें भी जिंदगी की चमक और जीने की ललक दिखायी पड़ी थी। वे अस्पताल में थे। रोज की तरह एक दिन जब मैं प्रणव के साथ उन्हें देखने गयी, तो वे स्वस्थ और चहकते-से मिले। तकियों के सहारे ऊँचे होकर अधलेटे-से बैठे हुए वे अपने दो-तीन काॅमरेडों से बातचीत कर रहे थे। हमें देखकर खुश हुए और खुशी-खुशी उन्होंने हमें बताया कि अगले हफ्ते तीनों कम्युनिस्ट पार्टियों ने मिलकर एक आम सभा बुलायी है, जिसमें सोवियत संघ के विघटन पर विचार किया जायेगा और तय किया जायेगा कि आगे क्या करना है। उन्होंने कहा, ‘‘मेरा यही सपना था कि हिंदुस्तान की कम्युनिस्ट पार्टियाँ मिलकर एक हो जायें। सोवियत संघ गया तो गया, मेरा यह सपना पूरा होने जा रहा है। मैं तो बीमार पड़ा हूँ, जा नहीं पाऊँगा, मगर तुम लोग जरूर जाना और दीक्षा बिटिया को भी जरूर साथ ले जाना, ताकि वह अपने देश के कम्युनिस्टों के एक होने की ऐतिहासिक घटना की चश्मदीद गवाह बन सके।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />फिर उन्होंने अपने साथियों से कहा, ‘‘मैं ठीक होता, तो वहाँ कुछ बातें कहता। उन बातों को मैं यहीं आप लोगों के सामने कह रहा हूँ। इन्हें आप लोग वहाँ खुद कह दें या किसी और से कहला दें।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />साथियों में से एक ने कहा, ‘‘क्यों नहीं, प्रोफेसर प्रणव यहाँ हैं, प्रोफेसर समीरा यहाँ हैं। आप इन्हें बता दीजिए, ये आपकी बातें वहाँ कह देंगे। हम इन दोनों को बाकायदा वक्ताओं के रूप में आमंत्रित करेंगे। बोलिए, आपको क्या कहना है?’’</div>
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<br />अब्बू ने कहा, ‘‘मेरे चार सुझाव हैं। सबसे पहले तो देश की सभी कम्युनिस्ट पार्टियों को मिलकर एक हो जाना चाहिए। दूसरे, कम्युनिस्टों को अपने संगठन और कामकाज के तरीकों को बदलना चाहिए। तीसरे, रूसी रास्ते या चीनी रास्ते पर चलने जैसी बातें छोड़कर अपना एक नया और अलग रास्ता बनाना चाहिए। चैथे, समाजवाद लाना है, तो सबसे पहले जात-पाँत और हिंदू-मुसलमान के झगड़ों में टूटते-बिखरते अपने समाज को बचाना चाहिए।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />उस समय दीक्षा नौ साल की थी। मैं और प्रणव उसे साथ लेकर उस आम सभा में गये। हमने चकित होकर देखा कि अब्बू भी अस्पताल से विशेष अनुमति लेकर व्हील चेयर पर बैठकर आये हैं। उनके साथियों ने उनकी कुर्सी हाॅल की सबसे अगली कतार में एक कोने पर लगा दी और हम लोगों को उनके पास वाली कुर्सियों पर बिठा दिया। हम दोनों को बोलने के लिए बुलाया गया था, लेकिन हमें मंच पर अन्य वक्ताओं के साथ नहीं बिठाया गया। </div>
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<br />शायद काॅमरेडों ने यह फैसला कर लिया था कि अब्बू की बातें पार्टी की रीति-नीति के खिलाफ हैं, उन्हें मंच से नहीं कहा जाना चाहिए। नतीजा यह हुआ कि मुझे और प्रणव को तो बोलने के लिए नहीं ही बुलाया गया, अब्बू के कई बार हाथ उठाकर बोलने की अनुमति माँगने पर भी उन्हें अनदेखा कर दिया गया।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />हम बहुत क्षुब्ध होकर वहाँ से अब्बू के साथ अस्पताल गये। उन्होंने हम दोनों से क्षमा माँगी और अपना क्षोभ व्यक्त करते हुए बोले, ‘‘आज मैंने देख लिया कि वाम एकता का मेरा सपना कभी पूरा नहीं होगा। ये लोग ‘नौ कनौजिया तेरह चूल्हे’ वाली कहावत को सही साबित करते हुए वही करते रहेंगे, जो करते आये हैं और कमजोर होते गये हैं।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />अगले दिन अब्बू अस्पताल में ही चल बसे।<br /><br /><span style="color: blue;"><b>दीक्षा: आने वाले कल का इतिहास</b> </span><br /><br />माँ और पापा में बहुत-सी समानताएँ थीं, लेकिन भिन्नताएँ भी कम नहीं थीं। माँ स्वयं को, पापा को, अपने परिवार को और हम सबके भविष्य को असुरक्षित समझती थीं। इसलिए वे हमेशा आशंकित और डरी-डरी-सी रहती थीं। दूसरी तरफ पापा एक निर्भीक और साहसी व्यक्ति थे। वे हिंदुओं के उन शुभ कहलाने वाले विवाहों को सख्त नापसंद करते थे, जिनमें पति-पत्नी का, खास तौर से पत्नी का, अशुभ करने वाली तमाम चीजें भरी होती थीं, जैसे जात-पाँत, ऊँच-नीच, दान-दहेज वगैरह। वे जानते थे कि दूसरे धर्मों के अंदर होने वाले विवाहों में भी कमोबेश यही होता है, इसलिए विवाह के किसी भी पारंपरिक रूप को वे उचित नहीं मानते थे। उनका विचार था कि प्रेम और केवल प्रेम के आधार पर किया जाने वाला विवाह सामाजिक कुरीतियों का एक बेहतर जवाब और सांप्रदायिक सद्भाव का एक मजबूत आधार हो सकता है। इसलिए पापा का निश्चय था कि प्रेम-विवाह ही करेंगे और हो सका, तो जाति-धर्म के बंधन तोड़कर करेंगे। इसी बात पर वे अपने माता-पिता और बहन-भाइयों से लड़े थे, घर छोड़कर निकल पड़े थे और मेरी माँ से शादी करते समय उन्हें मालूम था कि एक मुसलमान लड़की से शादी करने पर उनके सब लोग उनसे नाते-रिश्ते तोड़कर उन्हें अकेला छोड़ देंगे। लेकिन, जैसा मैंने कहा, पापा निडर और साहसी थे। कठिन से कठिन परिस्थिति में भी उनका एक ही कहना होता था, ‘‘जो होगा, देखा जायेगा।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />दूसरी भिन्नता माँ और पापा के बीच यह थी कि माँ महत्त्वाकांक्षी थीं, जबकि पापा महत्त्वपूर्ण कार्य करने में विश्वास करते थे। माँ सफलता को बहुत महत्त्व देती थीं, जबकि पापा सफलता-असफलता की परवाह नहीं करते थे। यह और बात है कि उन्हें अपने कार्यों से सफलता सहज ही मिल जाती थी, जबकि माँ को उसके लिए प्रयास करना पड़ता था। माँ को यह बात कचोटती थी कि पापा अपनी पीएच.डी. की थीसिस से बनी पुस्तक ‘शीतयुद्ध का इतिहास’ से विश्वविख्यात इतिहासकर बन गये थे, जबकि माँ की पीएच.डी. की थीसिस से बनी पुस्तक ‘भारतीय वामपंथ’ छप तो गयी थी, लेकिन अंतरराष्ट्रीय तो दूर, राष्ट्रीय स्तर पर भी उसकी कोई खास चर्चा नहीं हुई थी। इससे माँ को बड़ी निराशा और तकलीफ होती थी। पापा ने माँ को समझाया कि पुस्तक लिख लेना तो अपने वश में होता है, किसी हद तक प्रकाशित करा लेना भी, लेकिन प्रसिद्ध होना अपने हाथ में नहीं होता। यश और प्रसिद्धि मिलने में बहुत दूर तक संयोगों, परिस्थितियों, संबंधों, संपर्कों आदि के अलावा बाजार का अदृश्य हाथ भी होता है। भारतीय वामपंथ शीतयुद्ध जैसा विवादास्पद और बिकाऊ विषय नहीं था। इतना ही नहीं, इतिहास के क्षेत्र में जमे बैठे बहुत-से लोगों के लिए तो वामपंथ नितांत अप्रिय विषय था। वे यही जानते और मानते थे कि भारत के स्वाधीनता आंदोलन में भारतीय वामपंथ की या तो कोई भूमिका थी ही नहीं, या कुछ थी, तो नकारात्मक थी। माँ ने पापा के निर्देशन में जो शोध किया था, उसके आधार पर वामपंथ की सकारात्मक भूमिका दिखायी थी और उसे नकारात्मक बनाने वाले इतिहास के पुनर्लेखन की जरूरत बतायी थी। लेकिन लकीर के फकीर लोगों को नयी दृष्टि से लिखा गया वह नया इतिहास ठोस तथ्यों से युक्त और प्रमाणों से पुष्ट होते हुए भी पसंद नहीं आया था। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />पापा ऐसे लोगों के बारे में माँ से कहा करते थे, ‘‘इन जड़ लोगों के लिए इतिहास एक ऐसी पवित्र नदी है, जो प्रदूषित होने पर भी पूज्य है। वे उसमें नहा-धोकर अपने शरीर और कपड़ों का मैल उसमें डालते हैं। वे उसके किनारे अपने मुर्दे जलाकर उनकी राख और हड्डियाँ उसमें डालते हैं। वे अपने देवी-देवताओं की मूर्तियाँ उसमें विसर्जित करके उनका कचरा उसमें डालते हैं। वे अपनी बस्तियों के गंदे नाले और कारखानों के जहरीले पदार्थ उसमें डालते हैं। इस तरह इतिहास की नदी को प्रदूषित करते समय उसकी पवित्रता की परवाह उन्हें नहीं होती। लेकिन कोई उस नदी को साफ करने चले, तो उन्हें तुरंत नदी की पावनता की रक्षा करने की याद आ जाती है। ऐसे ही लोगों के कारण तुम्हारी इतनी महत्त्वपूर्ण पुस्तक का भी उचित मूल्यांकन नहीं हो पाया।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />यह उन दिनों की बात है, जब इतिहास के पठन-पाठन की दुनिया में भारी उथल-पुथल मची हुई थी। पिछली सरकार के समय पाठ्यक्रमों में लगी इतिहास की कई पुस्तकों को नयी सरकार पाठ्यक्रमों से निकलवाकर उनकी जगह दूसरी पुस्तकें लगा रही थी या अपने ढंग से नयी पुस्तकें लिखवा रही थी। अनेक इतिहासकार इससे रुष्ट और क्षुब्ध थे, इसका विरोध कर रहे थे, लेकिन उनका विरोध बेअसर साबित हो रहा था। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />थोड़े ही दिन बाद पता चला कि पापा की शीतयुद्ध वाली पुस्तक ही नहीं, माँ की वामपंथ वाली पुस्तक भी पाठ्यक्रमों से हटा दी गयी है। पापा तो केवल यह कहकर रह गये थे कि ‘‘यह तो होना ही था’’, लेकिन माँ चिंतित हो गयी थीं, ‘‘अब क्या होगा?’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />दरअसल माँ बचपन से ही अपने अब्बू और उनके साथियों से यह सुनती आयी थीं कि धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के सिद्धांतों पर चलकर ही देश में शांति और सद्भाव का बने रहना संभव है और मुसलमान शांति और सद्भाव के माहौल में ही सुरक्षित रह सकते हैं। इसीलिए माँ इन मूल्यों की रक्षा करना जरूरी बताने वाली कांग्रेस की प्रशंसक और कम्युनिस्ट पार्टी की समर्थक थीं। मगर अब वे देख रही थीं कि धर्मनिरपेक्षता की जगह सांप्रदायिकता बढ़ रही है। समाजवाद का गढ़ सोवियत संघ ढह गया है और पूँजीवाद इसे अपनी जीत समझकर बगलें बजा रहा है। शांति और सद्भाव की जगह देश में ही नहीं, पूरी दुनिया में अशांति और वैरभाव का बोलबाला है। पहले उन्हें लगता था कि वे धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के कवच के भीतर सुरक्षित हैं, मगर अब उन्हें लगने लगा था कि वह कवच टूट गया है और वे पहले से कहीं अधिक वेध्य हो गयी हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />पापा उन्हें समझाते थे, ‘‘न तो हमारा देश सच्चा धर्मनिरपेक्ष देश है, न सोवियत संघ ही सच्चा समाजवादी देश था। जब तक हमारे देश में समाज को बाँटने वाली और दुनिया में मानवता को बाँटने वाली व्यवस्था कायम है, तब तक न तो सच्ची धर्मनिरपेक्षता संभव है, न सच्चा समाजवाद। इसलिए देश और दुनिया को जरूरत है एक ऐसी विश्व-व्यवस्था की, जिसमें समस्त मानवता एक और एकजुट हो। स्त्री और पुरुष, ब्राह्मण और शूद्र, हिंदू और मुसलमान, गोरा और काला जैसे भेद करके मनुष्यों को बाँटा और बाँटकर आपस में लड़ाया न जाये। यह ऐतिहासिक जरूरत है, इसलिए दुनिया उसी विश्व-व्यवस्था की तरफ जा रही है। उसके कायम होने में समय लगेगा, लेकिन एक दिन वह कायम होगी जरूर। इसलिए धीरज रखो और सोचो कि ऐसी विश्व-व्यवस्था कैसे कायम की जा सकती है और हम उसके लिए क्या कर सकते हैं।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />माँ को पापा की ये बातें सैद्धांतिक रूप से सही, किंतु अव्यावहारिक लगती थीं। उन्होंने एक दिन चिंतित स्वर में पापा से कहा, ‘‘सुनो, आज हमारी किताबें पाठ्यक्रमों में से निकाली गयी हैं, कल को हमें नौकरी से भी निकाला जा सकता है। कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि मुसलमानों और कम्युनिस्टों पर कभी भी कोई कहर टूट सकता है...’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />पापा ने जरा ऊँची आवाज में कहा, ‘‘बकवास है! ऐसा कुछ नहीं होने वाला। और हुआ भी, तो तब की तब देखी जायेगी। अभी से तुम क्यों परेशान हो?’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />माँ ने कहा, ‘‘अपने विभाग के ही कुछ लोग कह रहे हैं कि धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद की दृष्टि से इतिहास का पुनर्लेखन बहुत हो चुका। वे कह रहे हैं कि अब हम वामपंथी हैं न दक्षिणपंथी, हम केवल इतिहासकार हैं और ऐसी किताबें लिखेंगे, जो दुनिया भर के बाजारों में बिकें और तमाम विश्वविद्यालयों में पढ़ायी जायें। वे मुझे भी यही सलाह दे रहे हैं कि मैं भी ऐसी ही कोई पुस्तक लिखूँ और उसे भारतीय प्रकाशक से नहीं, किसी बड़े विदेशी प्रकाशक से प्रकाशित कराऊँ।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘लेकिन यह तो वर्तमान व्यवस्था से समझौता कर लेना, अपने काम को भूल जाना और स्वयं को बाजार के हवाले कर देना हुआ।’’ पापा ने माँ को समझाते हुए कहा, ‘‘तुम इतिहास के पुनर्लेखन वाले काम को ही आगे बढ़ाओ। उसमें अभी बहुत काम करने की गुंजाइश है और बहुत आगे बढ़ने की संभावनाएँ हैं। फिर यह काम पढ़ने-पढ़ाने के लिहाज से ही नहीं, देश और दुनिया को बेहतर बनाने के लिहाज से भी बहुत जरूरी है। भारतीय वामपंथ पर तुम्हारा काम बहुत अच्छा है। अब तुम वैश्विक वामपंथ पर आलोचनात्मक दृष्टि से एक किताब लिखो। मैं उसमें भरसक तुम्हारी सहायता करूँगा।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />माँ ने पापा की बात मान तो ली, मगर पूरी तरह आश्वस्त नहीं हुईं। पापा ने उन्हें समझाया, ‘‘देखो, इतिहासकार होना किसी विषय पर शोध करके एक नयी-सी और पाठ्यक्रमों में पढ़ायी जाने लायक पुस्तक लिख लेना नहीं है। इतिहास चाहे पुराना हो या नया, एक जीवंत शक्ति के रूप में लोगों को प्रेरित और प्रभावित करता है। लेकिन यह काम अच्छा इतिहास ही कर सकता है। इसलिए ऐसा इतिहास लिखो, जो हमें अपने अतीत को जानने, वर्तमान को समझने और भविष्य को बनाने में समर्थ बनाये।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />माँ ने प्रतिवाद किया, ‘‘जिसे तुम अच्छा इतिहास कहकर पढ़ते और पढ़ाते रहे हो, उसका हाल देख रहे हो? पुरानी सरकार को वह पसंद था, इसलिए पढ़ा और पढ़ाया जा रहा था। नयी सरकार उसे पाठ्यक्रमों से निकाल रही है। उसके इस कदम का विरोध हो रहा है, मगर वह परवाह नहीं कर रही है। इतिहास का पाठन-पाठन राजनीतिक लड़ाई का मैदान बन गया है। मगर होगा वही, जो नयी सरकार चाहेगी। तुम्हारे अच्छे इतिहास को पाठ्यक्रमों से निकालकर कूड़ेदान में फेंक दिया जायेगा। मुझे अपनी यह नियति मंजूर नहीं।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />पापा ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘तो ठीक है, जो तुम्हें मंजूर हो, वही करो।’’ मगर माँ उनसे बहस करने लगीं, ‘‘देखो, दुनिया बदल रही है। हमें भी उसके मुताबिक बदलना चाहिए। हमें पढ़ाना तो वही इतिहास पड़ेगा, जो पाठ्यक्रम में लगा होगा। और पाठ्यक्रम में कैसी किताबें लग रही हैं, तुम देख रहे हो। मैंने तो सोच लिया है कि मैं ऐसी किताबें लिखूँगी, जो पाठ्यक्रमों में पढ़ायी जायें। मैं तुम्हारी तरह आदर्शवादी नहीं हूँ। मैं किताबें लिखकर पैसा कमाना चाहती हूँ।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />पापा ने हँसते हुए पूछा, ‘‘हम दोनों की अच्छी-खासी नौकरी है और संतान के नाम पर एक ही बेटी। हमें क्या करना है ज्यादा पैसा कमाकर?’’ माँ ने उत्तर दिया, ‘‘मैं चाहती हूँ कि दीक्षा को बाहर भेजकर पढ़ाऊँ। इसके लिए बहुत पैसा चाहिए।’’ पापा ने पूछा, ‘‘दीक्षा को बाहर भेजकर ही पढ़ाना क्यों जरूरी है?’’ माँ ने कहा, ‘‘मैं चाहती हूँ कि पढ़-लिखकर वह बाहर ही कहीं बस जाये।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />माँ मेरे भविष्य को लेकर कुछ ज्यादा ही चिंतित थीं। उन्होंने खुद तो प्रेम-विवाह किया था, लेकिन मुझे प्रेम की हवा भी नहीं लगने देना चाहती थीं। पापा का एक शोध छात्र बसंत उनसे मिलने घर आया करता था। मैं उससे उम्र में लगभग उतनी ही छोटी थी, जितनी माँ पापा से। उन दिनों मैं अपने तन और मन में हो रहे परिवर्तनों से एक ही साथ भयभीत और आनंदित रहती थी। बसंत मुझे अचानक और अकारण अच्छा लगने लगा था। उसके आते ही मैं खिल उठती थी। जितनी देर वह घर में रहता--पापा के पास बैठक में या उनकी स्टडी में--मैं किसी न किसी बहाने उसके आसपास मँडराती रहती। ऐसा अवसर न मिलता, तो कहीं छिपकर उसे दूर से ही देखती रहती और खुश होती रहती। नितांत अतार्किक ढंग से मुझे बसंत ऋतु सबसे प्रिय हो गयी थी। इतनी प्रिय कि फिल्म या टी.वी. देखते समय, कोई कहानी या उपन्यास पढ़ते समय, या किसी की बातचीत में ही बसंत शब्द आ जाता, तो मैं रोमांचित हो उठती थी। अपने घर के बगीचे या स्कूल के अहाते में खिले हुए फूलों को देखती, तो मन होता कि बसंत-बसंत गाते हुए नाचने लगूँ। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />माँ ने एक-दो बार टोका, एक-दो बार डाँटा, फिर एक बार प्यार से भी समझाया कि मैं अपनी पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान दूँ। मगर बसंत के प्रति मेरा आकर्षण कम ही नहीं होता था। उसके आते ही मैं माँ की सारी टोका-टाकी, डाँट-फटकार और समझाइशें-हिदायतें भूल जाती थी। खास तौर से तब, जब माँ घर में न होतीं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />एक दिन माँ घर में नहीं थीं। बसंत आया हुआ था और पापा के साथ बैठक में बैठा था। श्यामा रसोईघर में चाय बना रही थी। वह जब चाय की टेª लेकर रसोईघर से निकली, मैंने उसके हाथ से टेª ले ली और बैठक में जाने लगी। उसी समय माँ ने घर के अंदर आते हुए मुझे श्यामा के हाथ से टेª लेते देख लिया। उन्होंने मुझे आँखें तरेरकर देखा और कहा, ‘‘नहीं! टेª वापस दो श्यामा को! वही लेकर जायेगी।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />फिर, उसी दिन, जब बसंत चला गया, उन्होंने पापा से कहा, ‘‘सुनो, लड़कों को घर मत बुलाया करो, लड़की बड़ी हो रही है।’’ पापा हँसकर बोले, ‘‘अरे भई, अभी से कहाँ बड़ी हो गयी!’’ लेकिन माँ ने तेज-तीखे स्वर में कहा, ‘‘मैंने कह दिया न! अब कोई लड़का घर में नहीं आयेगा।’’ पापा ने फिर हँसते हुए कहा, ‘‘मैंने तो तुम से कितना कहा था कि दीक्षा का एक भाई आने दो। तुम ही अड़ गयीं कि एक ही बच्चा बहुत है। चलो, यह तुम्हारा फैसला था, तुम्हारा अधिकार था, मगर मेरे छात्र मेरे घर न आयें, यह कैसे...?’’ पापा अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाये थे कि माँ ने लगभग चिल्लाते हुए कहा, ‘‘घर सिर्फ तुम्हारा नहीं, मेरा भी है। मेरी बेटी की भलाई किस में है, मैं तुमसे ज्यादा जानती हूँ। तुम अपने छात्रों से विभाग में मिलो या कहीं और, घर में कोई लड़का नहीं आयेगा।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />और इसके बाद का एक दिन तो मैं कभी नहीं भूल सकती। तीसरे पहर का समय था। पापा घर पर नहीं थे। माँ अपने कमरे में थीं और मैं अपने कमरे में स्कूल से मिला होम वर्क कर रही थी। अचानक दरवाजे की घंटी बजी। श्यामा ने दरवाजा खोला। माँ ने अपने कमरे से ही पूछा, ‘‘कौन है?’’ श्यामा ने उत्तर दिया, ‘‘बसंत भैया।’’ यह सुनते ही मैंने अपनी किताब-कापी परे फेंकी और दौड़ी। मगर मैं अपने कमरे के दरवाजे पर ही पहुँची थी कि देखा, माँ घर के मुख्य दरवाजे पर पहले ही पहुँच चुकी हैं और बाहर खड़े बसंत से कह रही हैं, ‘‘उनसे विभाग में ही मिला करो, यहाँ मत आया करो।’’ माँ का यह कहना और भड़ाक् से दरवाजा अंदर से बंद कर लेना मुझे आज तक ऐसे याद है, जैसे बसंत की जगह मैं ही दरवाजे के बाहर खड़ी थी और माँ ने मेरे ही मुँह पर दरवाजा भड़ाक् से बंद किया था। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />उस दिन माँ ने जो बात कही थी, और जिस स्वर में कही थी, मैं कभी नहीं भूल सकती। उन्होंने कहा था, ‘‘पहले पढ़-लिखकर कुछ बन लो, तब स्वयंवर रचा लेना। बाप हिंदू, माँ मुसलमान। वैसे ही शादी में हजार मुश्किलें आयेंगी। कुछ गलत हो गया, तब तो अल्लाह ही जाने तुम्हारा क्या होगा!’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />माँ चाहती थीं कि मुझे अमरीका भेजकर पढ़ायें, लेकिन पापा ने मना कर दिया। कहा, ‘‘हमारी एक ही संतान है। उसे भी हम खुद से अलग करके दूर भेज देंगे, तो यहाँ किसका मुँह देखकर जियेंगे? नहीं, दीक्षा यहीं रहकर पढ़ेगी।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />माँ किसी तरह मान गयीं। लेकिन मेरे भविष्य को लेकर चिंतित बनी रहीं। वे चाहती थीं कि मैं इतिहास में ही एम.ए., पीएच.डी. करूँ और उनकी तरह इतिहास की प्रोफेसर बनूँ। उनका विचार था कि सुरक्षित जीवन जीने के लिए स्थायी नौकरी जरूरी है और माता-पिता दोनों इतिहास वाले हैं, इसलिए इतिहास पढ़ने पर मुझे नौकरी मिलने में सुविधा होगी। मगर मैंने कहा, ‘‘आजकल स्थायी नौकरी में जिंदगी भर सड़ना कौन चाहता है? मैं तो एम.बी.ए. करूँगी और प्राइवेट सेक्टर में काम करूँगी, जहाँ आगे बढ़ने के मौके ही मौके हैं।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />मेरा यह फैसला सामान्य स्थिति में शायद उन्हें स्वीकार्य न होता, लेकिन उन दिनों हमारे घर में स्थितियाँ असामान्य बनी हुई थीं। माँ और पापा दो भिन्न और विपरीत दिशाओं में जा रहे थे। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />माँ कहतीं, ‘‘तुम्हारे साथ के तमाम लोग विजिटिंग प्रोफेसर होकर विदेश जाते हैं, तुम क्यों नहीं जाते?’’ पापा कहते, ‘‘उन्हें वहाँ जाना जरूरी लगता होगा, मुझे नहीं लगता।’’ माँ पूछतीं, ‘‘क्यों?’’ पापा उत्तर देते, ‘‘हर किसी की अपनी प्राथमिकताएँ होती हैं।’’ माँ कटाक्ष करतीं, ‘‘तुम्हारी प्राथमिकता कुएँ का मेंढक बने रहना है?’’ पापा गंभीरता से उत्तर देते, ‘‘किताबें कुआँ नहीं होतीं और उनमें डूबकर कहीं भी जाया जा सकता है। आज की ही नहीं, कल की और आने वाले कल की दुनिया में भी।’’ माँ झुँझलाकर कहतीं, ‘‘तुम तनिक भी महत्त्वाकांक्षी नहीं हो। क्यों नहीं हो?’’ पापा मुस्कराते हुए कहते, ‘‘महत्त्वाकांक्षा एक प्रकार की गुलामी है। उन लोगों की गुलामी, जो आपको महत्त्व देते हैं या दे सकते हैं। फिर, महत्त्वाकांक्षा एक दौड़ की होड़ है, जिसमें आगे निकलने के लिए आप निहायत गैर-जरूरी समझौते करते हैं, निरर्थक लड़ाइयाँ लड़ते हैं और फिर भी कभी नि¯श्चत नहीं रह पाते कि आप आगे निकल ही जायेंगे; जहाँ पहुँचना चाहते हैं, पहुँच ही जायेंगे; जो पाना चाहते हैं, पा ही जायेंगे!’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />माँ कहतीं, ‘‘तुम कुछ भी कहो, जिंदगी एक दौड़ की होड़ ही है। जो आगे निकल जाते हैं, वे ही इतिहासों में जाते हैं।’’ पापा कहते, ‘‘वे इतिहास ही गलत होते हैं, जिनमें वे जाते हैं।’’ माँ तीखे स्वर में कहतीं, ‘‘मतलब, महान लोग महान नहीं होते?’’ पापा हँसकर कहते, ‘‘नहीं, महान लोग तो महान होते हैं, लेकिन यह देखो कि वे किस प्रक्रिया में महान बनते हैं। किसी को महान बताने के लिए कहा जाता है कि वह तो लाखों में एक है। यानी वह लाखों को पीछे छोड़कर अकेला महान बना। इतिहास ने उसे अपने अंदर रख लिया और बाकी लाखों को बाहर छोड़ दिया। क्या कोई इतिहासकार दावे से कह सकता है कि वे लाखों लोग महान नहीं थे या अनुकूल परिस्थितियों में महान नहीं बन सकते थे?’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />पापा की ऐसी बातें सुन माँ उन्हें पागल समझती थीं। माँ पर एक और ही धुन सवार थी--विजिटिंग प्रोफेसर बनकर कहीं बाहर जाना है और वाम-दक्षिण का विचार छोड़कर एक ऐसी किताब लिखनी है, जो उन्हें विश्वविख्यात इतिहासकार बना दे। इसलिए वे बड़ी मेहनत से अपनी नयी किताब ‘दुनिया का इतिहास और इतिहास की दुनिया’ लिख रही थीं और बाहर जाने के लिए प्रयास कर रही थीं। </div>
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<br />अंततः वे विजिटिंग प्रोफेसर बनकर तीन साल के लिए पोलैंड चली गयीं। उनकी पुस्तक ‘दुनिया का इतिहास और इतिहास की दुनिया’ पूरी हो चुकी थी। उसकी पांडुलिपि वे अपने साथ ही ले गयीं। उन्हें अपने मित्रों और शुभचिंतकों की सलाह याद थी कि पुस्तक को पश्चिम के किसी बड़े प्रकाशक से प्रकाशित कराना है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />जाने से पहले माँ ने पापा से कहा था, ‘‘वैसे तुम हमेशा अपने ही मन की करते हो, मगर इस बार मेरी एक बात मान लो। मैं तीन साल बाहर रहूँगी। इस बीच दीक्षा का खास खयाल तुमको रखना है। हो सके, तो तीन साल की स्टडी लीव ले लो और आंदोलन-फांदोलन छोड़कर घर बैठो, अपना पढ़ो-लिखो। भूमंडलीकरण के इतिहास वाली जो किताब तुम लिखना चाहते हो, उसे शांति से बैठकर लिख डालो। जब तक मैं लौटूँगी, दीक्षा एम.बी.ए. कर चुकी होगी और तुम्हारी किताब पूरी हो चुकी होगी।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />और आश्चर्य, इस बार पापा ने माँ की बात तनिक भी ना-नुकुर किये बिना मान ली। वे तीन साल की छुट्टी लेकर अपनी नयी किताब लिखने और मेरी देखभाल करने में व्यस्त हो गये। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />माँ का घर-परिवार से अलग एक दूसरे देश में अकेले रहने का यह पहला अनुभव था। लेकिन अकेलेपन और अजनबीपन की जगह उन्हें ऐसा लगा, जैसे वे पापा से दूर जाकर उनके और ज्यादा निकट हो गयी हैं। दिन में कई-कई बार फोन करतीं। कभी पापा को, कभी मुझे। कभी दोनों को एक साथ। अकेले में पापा से मेरे बारे में पूछतीं और मेरा ध्यान रखने के लिए कहतीं। मुझसे पापा के बारे में पूछतीं और पापा का ध्यान रखने के लिए कहतीं। जब दोनों से एक साथ बात करतीं, तो फोन करते ही स्पीकर आॅन करने के लिए कहतीं और वहाँ के अपने अनुभव सुनातीं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />एक दिन उन्होंने अपने अध्यापन का अनुभव बताते हुए कहा, ‘‘शीतयुद्ध खत्म नहीं हुआ। वह जारी है और यहाँ बड़े विचित्र रूप में जारी है। ज्यों ही मैं कक्षा में किसी मुद्दे पर बोलना शुरू करती हूँ, मेरे छात्र मानो दो खेमों में बँट जाते हैं--एक पूँजीवादी खेमा, दूसरा समाजवादी खेमा। लेकिन विचित्र बात यह है कि पूँजीवाद के पक्षधरों को आज का पूँजीवाद पसंद नहीं है और समाजवाद के पक्षधरों को बीते कल का समाजवाद। दोनों को एक-दूसरे के पक्ष से शिकायत है, लेकिन अपने पक्ष से भी भारी शिकायतें हैं। मैं उनसे पूछती हूँ कि तुम्हारी शिकायतें कैसे दूर हो सकती हैं, तो दोनों ही पक्ष भविष्य की बात करने लगते हैं। ‘जो है’, उसकी आलोचना करने लगते हैं और ‘जो होना चाहिए’ उसकी आकांक्षा व्यक्त करने लगते हैं। सबसे विचित्र बात यह है कि वे अपनी समस्याओं के समाधान अपने देश के शिक्षकों से नहीं, मुझसे माँगते हैं और कुछ इस अंदाज में माँगते हैं, मानो मैं बुद्ध की वंशज और गांधी की रिश्तेदार हूँ!’’ </div>
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<br />फिर एक दिन उन्होंने बताया कि वे पढ़ाती और रहती तो वारसा में हैं, लेकिन उन्हें यूरोप के कई विश्वविद्यालयों में व्याख्यान देने के लिए बुलाया जाता है। वहाँ के अखबारों और टी.वी. चैनलों के लिए भी वे एक महत्त्वपूर्ण भारतीय इतिहासकार बन गयी हैं। वहाँ के लोग उनसे भारतीय इतिहास के बारे में ही नहीं, भारत के वर्तमान और भविष्य के बारे में भी तरह-तरह के प्रश्न पूछते हैं, जिनसे पता चलता है कि भारतीय सभ्यता, संस्कृति, समाज, राजनीति आदि के बारे में उनके अंदर कितनी प्रबल रुचि और जिज्ञासा है। </div>
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<br />एक दिन उन्होंने यह भी बताया कि यूरोपीय देशों में उनके कई मित्र बन गये हैं, जो उनसे मिलने आते हैं और उन्हें अपने यहाँ बुलाते हैं। उनसे तरह-तरह की बातें और बहसें होती हैं और पता चलता है कि उनके दिमागों में भारत के बारे में बहुत-सी गलत और बेबुनियाद बातें भरी हुई हैं। इसके लिए इतिहास की वे पुस्तकें जिम्मेदार हैं, जो उनके देशों के इतिहासकारों ने ही नहीं, स्वयं भारतीय इतिहासकारों ने भी लिखी हैं। ऐसी ही एक चर्चा के दौरान माँ को पता चला कि पापा की शीतयुद्ध वाली पुस्तक से ही नहीं, ‘राष्ट्र और राष्ट्रवाद’ वाली नयी पुस्तक से भी वे लोग परिचित हैं और पापा के बारे में बहुत कुछ जानना चाहते हैं। </div>
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<br />पापा ने एक दिन माँ से पूछा, ‘‘तुम जो किताब यहाँ से लिखकर ले गयी थीं, उसके प्रकाशन का क्या हुआ?’’ माँ ने कहा, ‘‘यहाँ के अनुभवों की रोशनी में मैंने उस पांडुलिपि को पढ़ा, तो मुझे बड़ी शर्म आयी। मैंने अमरीकी या यूरोपीय दृष्टि से लिखे जाने वाले इतिहासों की तर्ज पर दुनिया का इतिहास लिखा था और यह सोचकर लिखा था कि इसके प्रकाशित होने पर मैं इतिहास की दुनिया में छा जाऊँगी, लेकिन यहाँ आकर मुझे लगा कि दुनिया का इतिहास भविष्य की उस दुनिया को ध्यान में रखकर लिखना पड़ेगा, जो बननी चाहिए, बनायी जा सकती है और किसी हद तक बन भी रही है। और अचानक मैंने पाया कि यह तो मैं ठीक तुम्हारी तरह सोच रही हूँ और मुझे तुम पर ऐसा प्यार उमड़ा कि बता नहीं सकती।’’ पापा ने पूछा, ‘‘तो क्या किया उस पांडुलिपि का?’’ माँ ने कहा, ‘‘मैं उसे फिर से लिख रही हूँ। किताब का नाम तो यही रखूँगी, लेकिन बाकी सब बदल दूँगी।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />पापा ने कुछ ऐसे भाव से ‘‘शाबाश!’’ कहा, जैसे वे अपनी पत्नी से नहीं, शिष्या से कह रहे हों। उधर से माँ ने कहा, ‘‘हम तो घर के जोगी को जोगना ही समझते रहे, आन गाँव आकर पता चला कि वह तो सिद्ध है! सो, हे सिद्ध पुरुष, आप किसी दौड़ की होड़ में नहीं हैं, तो यही आपके लिए और हम सबके लिए ठीक है।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />माँ में आया यह बदलाव पापा को ही नहीं, मुझे भी बहुत अच्छा लगा। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />इधर पापा के और मेरे जीवन में भी नये बदलाव हो रहे थे। मैं एम.बी.ए. करते ही दवाइयाँ बनाने और बेचने वाली एक अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनी में मार्केटिंग एक्जीक्यूटिव के रूप में काम करने लगी थी और बहुत व्यस्त रहती थी। पापा की ‘भूमंडलीकरण का इतिहास’ वाली पुस्तक पूरी हो चुकी थी। उसे अपने लंदन वाले प्रकाशक को भेजकर वे खाली-खाली महसूस कर रहे थे। उन्होंने बाहर निकलना शुरू कर दिया था। घर पर भी लोग उनसे मिलने आने लगे थे, जिनमें इतिहास पढ़ने-पढ़ाने वाले लोग ही नहीं, लेखक, पत्रकार, सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता भी होते थे। मैं आम तौर पर व्यस्त रहती थी, लेकिन फुर्सत में होती, तो मैं भी उनके साथ होने वाली बातों-बहसों में शामिल हो जाती। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />माँ साल में एक बार छुट्टियों में पोलैंड से आती थीं और जब तक रहतीं, मुझे खूब प्यार करतीं। उनके विचार से अब मैं बड़ी यानी प्रेम और विवाह करने लायक हो गयी थी। वे बातों-बातों में टोह लेने की कोशिश करतीं कि क्या मेरा कोई प्रेम-प्रसंग चल रहा है। मैं इनकार करती, तो वे उदारतापूर्वक कहतीं, ‘‘अब या तो तुम खुद ही कोई लड़का ढूँढ़ लो, या हमें बता दो कि हम ढूँढ़ें।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />उन दिनों मैं अपने साथ काम करने वाले एक लड़के मयंक से प्रेम करने लगी थी। लेकिन वह कुछ अजीब किस्म का प्रेम था। मयंक के लिए उसका करियर, अतिसमृद्ध लोगों का-सा जीवन, कोठी-कार-नौकर-चाकर वाला रहन-सहन, परिवार की प्रत्येक इच्छा या जरूरत पूरी करने लायक धन और उसे कमाने के लिए जी-तोड़ परिश्रम कर सकने वाला सदा स्वस्थ तन ही प्राथमिक और जरूरी था। शेष सब दोयम-सोयम दरजे का या गैर-जरूरी। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />पुस्तकें पढ़ना, फिल्में देखना, संगीत सुनना, माता-पिता के साथ बैठकर बातें-बहसें करना, उनके साथ सैर-सपाटे के लिए हर साल यात्राओं पर जाकर ऐतिहासिक स्थलों को देखना, उनकी अचल-सचल फोटोग्राफी करना, फिर घर लौटकर उन जगहों के बारे में किताबें और नेट खँगालना--जो मेरा अब तक का जीवन, शौक और मुख्य मनोरंजन था--मयंक के लिए बेमानी था। राजनीति में तो उसे रत्ती भर रुचि नहीं थी, जबकि मेरे परिवार में जब तक ताजा समाचारों के आधार पर माता-पिता के बीच थोड़ी राजनीतिक नोक-झोंक न हो ले, उनका खाना ही हजम नहीं होता था। मैं मयंक से जब कोई राजनीतिक चर्चा करना चाहती, वह मुझे झिड़क देता, ‘‘राजनीति जैसी गंदी चीज में तुम्हारी इतनी रुचि क्यों है? मुझे तो राजनीति और राजनीतिक लोगों से सख्त नफरत है। लोकतंत्र ने इस देश के विकास को रोक रखा है। इस देश को तो एक तानाशाह चाहिए।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />मुझे मयंक के विचार पसंद नहीं थे, लेकिन मैं सोचती थी कि शादी के बाद मयंक को सही रास्ते पर ले आऊँगी। मैं अपने माता-पिता के प्रेम-विवाह के उदाहरण से और देखी हुई फिल्मों, सुनी हुई कहानियों और पढ़ी हुई किताबों के आधार पर यह मानकर चल रही थी कि प्रेम की परिणति प्रेम-विवाह में होती है। लेकिन मयंक मुझे पुरानी और नयी पीढ़ी का अंतर बताया करता था, ‘‘देखो, हमारे माता-पिता बीसवीं सदी की स्थानीय पीढ़ी के लोग थे, जबकि हम इक्कीसवीं सदी की भूमंडलीय पीढ़ी के युवा हैं। हमारे माता-पिता स्थायित्व वाला जीवन जीने वाले लोग थे, जबकि हम अस्थायित्व को ही अपना जीवन मानकर चलते हैं। हमारे माता-पिता के लिए एक नौकरी, एक शादी, एक रुचि, एक राजनीति पूरा जीवन गुजार देने के लिए काफी होती थी। लेकिन हमारे लिए ऐसी सब चीजें, जो हमें कहीं बाँधकर रख दें, पैरों की बेड़ियाँ हैं, जिनको हमें तोड़ना ही है।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />उसकी ऐसी बातों के कारण मैं असमंजस में थी कि उससे शादी करना ठीक होगा या नहीं। इसी कारण मैंने माँ-पापा को उसके बारे में कुछ नहीं बताया था। लेकिन जब माँ पोलैंड में थीं, एक दिन मुझे पता चला कि अपनी लापरवाही से मैं गर्भवती हो गयी हूँ। मैं बेहद चिंतित और भयभीत हो गयी। पापा को पता चला, तो क्या होगा? और माँ जब सुनेंगी? मुझे बरसों पहले कहे गये उनके शब्द याद हो आये--‘‘पहले कुछ बन लो, तब स्वयंवर रचा लेना। बाप हिंदू, माँ मुसलमान। वैसे ही शादी में हजार मुश्किलें आयेंगी। कुछ गलत हो गया, तब तो अल्लाह ही जाने, तुम्हारा क्या होगा!’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />अगले दिन जब पापा घर पर नहीं थे और श्यामा दोपहर की छुट्टी में अपने क्वार्टर में थी, मैंने फोन करके मयंक को बुलाया। वह छुट्टी का दिन था और मयंक फुर्सत में था, तुरंत चला आया। मैंने उसे बताया कि मैं गर्भवती हो गयी हूँ, तो वह लापरवाही से बोला, ‘‘दिक्कत क्या है? एबाॅर्शन करा लो!’’ मैंने कहा, ‘‘ठीक है, बच्चा अभी मैं भी नहीं चाहती, लेकिन मुझे इसका प्रमाण चाहिए कि प्रेम के नाम पर तुम मेरा शोषण नहीं कर रहे थे।’’ वह बौखलाकर बोला, ‘‘क्या प्रमाण चाहती हो?’’ मैंने कहा, ‘‘शादी।’’ वह भड़क उठा, ‘‘शादी? और तुझसे?’’ मुझे उसका यह कहना बहुत अपमानजनक लगा। मैंने कहा, ‘‘क्यों? तू मुझसे प्रेम नहीं करता?’’ वह बोला, ‘‘प्रेम? सेक्स की बात कर। सेक्स के लिए तू ठीक है, अच्छी है, लेकिन यह तूने कैसे सोच लिया कि मैं एक मुसल्ली की लड़की से शादी करूँगा?’’ मुझे इतना गुस्सा आया कि मैं उसे मारने के लिए झपटी। अगर उसकी गर्दन मेरे हाथों में आ जाती, तो मैं उसे सचमुच जान से मार देती। लेकिन वह डर गया। उठकर तेजी से मेरे कमरे से और दौड़कर घर के मुख्य दरवाजे से बाहर हो गया। मैं उसके पीछे दौड़ी, लेकिन वह जा चुका था। मैंने मुख्य दरवाजा वैसे ही भड़ाक् से बंद किया था, जैसे कभी माँ ने बसंत के लिए किया था। वापस अपने कमरे में आकर मैं बिस्तर पर औंधे मुँह गिर पड़ी और फूट-फूटकर रोने लगी। पता नहीं, कब तक रोती रही। श्यामा ने आकर मुझे सँभाला और जैसे वह पहले से ही सब कुछ जानती हो, मुझे छाती से लगाकर बड़ी देर तक चुप कराती रही। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />मैं चुप हुई, तो मुझे गुस्सा चढ़ आया। मैंने श्यामा से कहा, ‘‘मैं उसे जिंदा नहीं छोड़ूँगी।’’ श्यामा ने मुझे अपने से सटाकर मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए समझाया कि चुपचाप गर्भपात करा देना और इस कांड को भूल जाना ही ठीक होगा। उसने कहा, ‘‘कुछ भी और करने में तुम्हारी ही फजीहत होगी, बिटिया!’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />पापा के आने पर मैंने संक्षेप में पूरी बात बताकर उनसे कहा, ‘‘मयंक ने मुझे धोखा देने के साथ-साथ मेरा जो अपमान किया है, मैं उसका बदला लेकर उसे सबक सिखाना चाहती हूँ।’’ पापा ने पूछा, ‘‘कैसे? उसके घर जाकर उसके माता-पिता से या थाने जाकर पुलिस से उसकी शिकायत करोगी? या गुंडे भेजकर उसे पिटवाओगी? या कोई उपदेशक भेजकर उसे नैतिक उपदेशों से सुधरवाओगी? अच्छा, मान लो, इनमें से किसी भी तरीके से वह सुधरकर तुमसे शादी करने को तैयार हो जाये, तो क्या तुम उसे क्षमा करके उससे शादी कर लोगी? शादी करके भी क्या उसके द्वारा किये गये अपने अपमान को भूल सकोगी?’’ मैंने कहा, ‘‘नहीं।’’ तो पापा बोले, ‘‘तो इसे किसी दुर्घटना में लगी चोट समझो, मरहम-पट्टी कराओ और स्वस्थ होकर चोट को भूल जाओ।’’ मुझे श्यामा की बात याद आयी, ‘‘कुछ भी और करने में तुम्हारी ही फजीहत होगी, बिटिया!’’ और मैंने पापा से कहा कि वे मुझे तुरंत किसी नर्सिंग होम में ले चलें, मुझे आज और अभी गर्भपात कराना है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />लेकिन गर्भपात कराने के बाद मैं कुछ समय के लिए अवसादग्रस्त हो गयी थी। मानो जीने की इच्छा ही मर गयी हो। मैंने नौकरी छोड़ दी और घर में ही पड़ी रहने लगी। न कहीं आती-जाती, न कुछ पढ़ती-लिखती। न टी.वी. देखती, न कंप्यूटर पर बैठती। न किसी को फोन करती, न किसी से चैट। अपना मोबाइल हमेशा बंद रखती और लैंडलाइन की घंटी बजती, तो बजने देती। पापा दिन-रात मेरी देखभाल करते। कुछ मनोचिकित्सक के बताये हुए तरीकों से और कुछ अपने द्वारा आविष्कृत उपायों से वे मुझे तन-मन से स्वस्थ बनाने में लगे रहते। माँ को दुख होगा और गुस्सा आयेगा, यह सोचकर माँ को न उन्होंने कुछ बताया, न मुझे ही बताने दिया। <br />लेकिन अगली बार छुट्टियों में माँ पोलैंड से आयीं, तो मैंने उन्हें संक्षेप में सब कुछ बता दिया। तनिक भी भावुक हुए बिना, नितांत तथ्यात्मक ढंग से, जैसे मैं अपने बारे में नहीं, किसी और के बारे में बता रही थी। और आश्चर्य, माँ ने भी कोई आवेश या आवेग व्यक्त नहीं किया। बस, मुझे अपने से सटाया, मेरा सिर अपने कंधे पर रखकर सहलाया और प्यार से कहा, ‘‘अच्छा हुआ कि पहले ही उसका नकाब उतर गया। शादी के बाद उतरता, तो बहुत बुरा होता।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />मगर माँ के प्रयासों के बाद भी मेरी हँसी-खुशी नहीं लौटी। उनके वापस चले जाने के बाद तो मेरा अवसाद और बढ़ गया। पापा पहले की तरह मेरा मानसिक उपचार करने में लग गये। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />एक दिन अचानक उन्होंने मुझसे पूछा, ‘‘मैं मनुष्य और प्रकृति के संबंधों के इतिहास की एक नयी किताब लिखना शुरू कर रहा हूँ। उसके लेखन में तुम मेरी सहायता करोगी?’’ मैंने कहा, ‘‘मैं? कैसे?’’ तो बोले, ‘‘कल रात मैंने सोचा, यह किताब मैं किसके लिए लिख रहा हूँ? बूढ़ों के लिए तो नहीं न! अगर आज की और आने वाली पीढ़ियों के लिए लिख रहा हूँ, तो क्या मुझे यह जानने की कोशिश नहीं करनी चाहिए कि आज की नयी पीढ़ी मेरे लिखे हुए के बारे में क्या सोचती है? फिर मैंने अपने-आप से कहा--संयोग से आजकल नयी पीढ़ी की एक प्रतिनिधि घर में है और फुर्सत में है। उसे पढ़कर सुनाओ कि तुम क्या लिख रहे हो और उससे पूछो कि वह तुम्हारे लिखे के बारे में क्या सोचती है। इससे तुम दोनों को लाभ होगा।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />मुझे नहीं मालूम कि पापा को क्या लाभ हुआ, मगर मुझे सचमुच हुआ। शुरू-शुरू में अनमनेपन से, और यह समझने के कारण कि पापा मुझे मेरे अवसाद से उबारने का जतन कर रहे हैं, कुछ खीझ और विरोधभाव के साथ मैं चुपचाप लेटी हुई सुनती रहती। अपनी तरफ से कुछ न कहती। पापा के पूछने पर भी अपनी कोई राय व्यक्त न करती। लेकिन धीरे-धीरे उनके द्वारा लिखे जा रहे एक नये ढंग के इतिहास में मेरी रुचि जागने लगी। मैं उनसे पूछने लगी कि वे जो लिख रहे हैं, उसे ठीक-ठीक समझने के लिए मुझे क्या-क्या पढ़ना चाहिए। पापा अपने निजी पुस्तकालय से पुस्तकें निकालकर देते और मैं उन्हें पढ़ती रहती। लेटे-लेटे पढ़ने से थक जाती, तो बैठकर पढ़ने लगती। कभी लिखने-पढ़ने की मेज पर, कभी सोफे या दीवान पर, कभी बाहर लाॅन में बैठकर। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />घर के सामने वाले लाॅन में माली ने तरह-तरह के फूलों के पौधे लगा रखे थे। उतरती सर्दियों की सुहावनी धूप में मखमली हरी घास पर फूलों की क्यारियों के पास बैठकर पढ़ते हुए मैं अक्सर सोचने लगती कि मैं जो नौकरी कर रही थी, वह तो निपट गुलामी थी। ऐसी गुलामी, जिसने मुझसे सारी आजादियाँ छीन ली थीं। जैसे छुट्टी के दिन देर तक सोये पड़े रहने की आजादी। माता-पिता के साथ बैठकर मनचाही चीजें खाते-पीते ढेर सारी बातें करने की आजादी। किताबें पढ़ने और संगीत सुनने की आजादी। टी.वी. और फिल्में देखने की आजादी। मित्रों के साथ घूमने-फिरने की आजादी। और सबसे बड़ी आजादी तो यह--अपने घर के लाॅन में, फूलों की क्यारियों के पास, हरी घास पर सुहावनी धूप में चित्त लेटकर नीले आसमान को देखते रहने की आजादी। या आँखें बंद करके एक साथ आती कई पक्षियों की आवाजों को अलग-अलग करके सुनने की आजादी। या एक साथ आती कई फूलों की खुशबुओं में से एक-एक को अलग करके पहचानने की आजादी। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />एक दिन जब मैं लाॅन में बैठी कुछ पढ़ने का प्रयास कर रही थी और बार-बार जी उचट जाने के कारण किताब बंद करके सामने देख रही थी, अचानक मुझे लगा कि मैंने कुछ ऐसा देखा है, जो कल तक वहाँ नहीं था। सहसा मैं समझ नहीं पायी और सोचने लगी--वह क्या था? </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />मुझे याद आया कि वहाँ जामुन का पेड़ था, जिसके जामुन मैंने बरसों खाये और अपने दोस्तों को खिलाये थे। फिर एक दिन ऐसी जोरदार आँधी आयी कि जामुन का वह पेड़ टूटकर गिर पड़ा। आँधी थमने पर हम सबने टूटकर गिरे पेड़ को ध्यान से देखा, तो यह पता चला कि हम सब पेड़ को लेकर काफी समय से परेशान क्यों थे। परेशान थे, लेकिन समझ नहीं पा रहे थे कि पेड़ सूखता क्यों जा रहा है। पतझड़ न होने के बावजूद उसके पत्ते पीले पड़-पड़कर झड़ते क्यों जा रहे हैं? खाद-पानी देने पर भी पेड़ हरा-भरा क्यों नहीं हो रहा है? कारण यह था कि पेड़ के तने के पिछले हिस्से में, जो चारदीवारी से सटा था और सामने से दिखायी नहीं देता था, न जाने कब दीमक लग गयी थी और उस तरफ से तना खोखला हो चुका था। खोखला और इतना कमजोर कि आँधी का झटका झेल नहीं पाया, टूट गया। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />श्यामा के बढ़ई पति रामकुमार ने पहले तो पेड़ की टहनियाँ काट-काटकर फेंकीं और फिर तने पर आरी चलाते हुए कहा, ‘‘तनिक भी जान बाकी नहीं रही इसमें। निरा काठ हो चुका है!’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />मैंने कहा, ‘‘तो तने को आरी से काट क्यों रहे हो? उखाड़कर फेंक दो न!’’ रामकुमार ने कहा, ‘‘अगर जमीन में इसकी जड़ें सही-सलामत हैं, तो किसी दिन इस काठ में से कोई कल्ला फूट सकता है और उससे जामुन का एक नया पेड़ बन सकता है।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />उसने तने को टूटी हुई जगह पर इतनी सफाई से काटा कि वह बैठने लायक बन गया। हम कटे हुए तने को काठ की कुर्सी कहने लगे। श्यामा के बच्चे लाॅन में खेलते समय उस पर कूदकर चढ़ते-उतरते थे और खेल-खेल में कभी राजा बनकर न्याय करने, तो कभी मास्टर बनकर पढ़ाने के लिए बैठते थे। मैं भी कभी-कभी जाकर उस पर बैठ जाती थी। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />उस दिन मुझे लगा कि काठ की कुर्सी मुझे बुला रही है। मैं उठी और उस पर बैठने के लिए चल दी। लेकिन पास पहुँची, तो चकित, विस्मित और इतनी हर्षित हो उठी कि वहीं से चिल्लायी, ‘‘पापा...पापा...जल्दी आइए, आपको एक चीज दिखाऊँ!’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />पापा आये, तो मैंने उन्हें दिखाया कि काठ की कुर्सी में से एक कल्ला फूट आया है, जिसके सिरे पर एक बहुत ही प्यारी कोंपल निकली हुई है। पापा ने देखा और प्रसन्न होकर कह उठे, ‘‘वाह! काठ में कोंपल!’’ और मुझसे हाथ मिलाकर बोले, ‘‘बधाई हो!’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />धीरे-धीरे मैं स्वयं को स्वस्थ और प्रसन्न अनुभव करने लगी। मयंक के साथ की और उसके बाद की स्थितियों पर विचार करती, तो गर्भपात वाला दिन अवश्य याद आता, लेकिन विचित्र बात यह थी कि उस दिन की स्मृति में मयंक बिलकुल अप्रासंगिक हो जाता और मन में पापा के प्रति गर्वमिश्रित प्यार उमड़ आता। लगता, जैसे उन्होंने मुझे फिर से एक नया जन्म और जीवन दिया है। साथ ही एक कर्तव्य-बोध जैसा भी होता कि मुझे अपना यह नया जन्म सार्थक करना है, नया जीवन बेहतर तरीके से जीना है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />अब पापा जब अपना लिखा पढ़कर सुनाते, तो मैं पूरी रुचि के साथ सुनती। बीच-बीच में उन्हें टोककर तरह-तरह के प्रश्न करती, अपनी राय व्यक्त करती, जिसमें कभी प्रशंसा होती, तो कभी आलोचना भी। फिर तो उनकी पुस्तक के विषय में मेरी रुचि इतनी बढ़ी कि मैं घर में अपने काम की कोई किताब न पाकर बाजार से खरीदकर लाने लगी। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />एक दिन मैं खान मार्केट में पुस्तकों की एक दुकान पर गयी। दुकानदार से पर्यावरण संबंधी एक पुस्तक के बारे में पूछ रही थी कि अचानक दुकान के अंदर पुस्तक उलटते-पलटते एक व्यक्ति पर मेरी नजर पड़ी। हुलिया कुछ बदला हुआ था--शर्ट-पैंट की जगह खादी का कुरता-पाजामा और सफाचट चेहरे की जगह दाढ़ी-मूँछ--लेकिन पहली नजर में ही मैं उसे पहचान गयी। बसंत! सिर से पाँव तक एक सुखद सिहरन मेरे भीतर दौड़ गयी। वर्षों बाद अचानक उसे देखकर मैं अस्थिर-सी हो गयी। समझ नहीं पा रही थी: उसे देखती रहूँ या नजरें फेर लूँ? खड़ी रहूँ या वहाँ से चल दूँ? पुकारे जाने की प्रतीक्षा करूँ या पुकार लूँ? </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />तभी वह दुकानदार से कुछ पूछने के लिए मुड़ा और मुझे देखकर चैंक गया। आगे बढ़कर बोला, ‘‘अरे ...तुम?’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैंने कहा, ‘‘हाँ, मैं दीक्षा।’’ उसने मुझे नाटकीय ढंग से निहारते हुए कहा, ‘‘बिलकुल अपनी माँ जैसी हो गयी हो--सुंदर! शानदार!’’ मेरी स्मृति में क्षणांश के लिए वह दृश्य कौंध गया, जब माँ ने उसके मुँह पर दरवाजा भड़ाक् से बंद किया था। मैंने कहा, ‘‘माँ के उस दिन के व्यवहार के लिए मैं आपसे क्षमा चाहती हूँ।’’ उसने आँखें सिकोड़कर पूछा, ‘‘किस दिन के...?’’ और हँस पड़ा, ‘‘अच्छा, उस दिन के? यानी तुम्हें किसी ने बताया नहीं कि वह मामला तो अगले दिन ही रफा-दफा हो गया था?’’ मैंने चकित होकर पूछा, ‘‘कैसे?’’ तो उसने दुकान से बाहर निकलकर कहा, ‘‘वहाँ सामने बहुत अच्छी काॅफी मिलती है, पियोगी?’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />काॅफी पीते हुए उसने बताया कि उन दिनों वह मेरे प्रति एक विकट सम्मोहन की स्थिति में जा पहुँचा था। जानता था कि अपने गुरु की बेटी से, जो उससे आठ-नौ साल छोटी है, प्रेम करना ठीक नहीं है। अनुचित है। अनैतिक है। लेकिन लाख समझाने पर भी उसका मन मानता ही नहीं था। मेरा खयाल उसके दिमाग से उतरता ही नहीं था। इसीलिए कोई काम हो या न हो, वह पापा से मिलने चला आता था। मुझसे बात नहीं करता था, लेकिन मुझे देखने के लिए तड़पता रहता था। एक बार आने पर मैं उसे दिखायी न देती, तो उसी दिन दूसरी बार आ जाता। मानो किसी तरह मेरी एक झलक ही देखने को मिल जाये, तो उसका जीवन धन्य हो जाये। पापा ने तो शायद इस पर ध्यान नहीं दिया, लेकिन माँ समझ गयीं और...</div>
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<br />‘‘तो मामला रफा-दफा कैसे हुआ?’’ मैंने पूछा, तो उसने कहा, ‘‘अगले दिन सर ने मुझे इतिहास विभाग में मिलने के लिए बुलाया। मैम भी वहीं थीं। दोनों मुझे काॅफी हाउस ले गये। सामने बिठाकर समझाया कि मैं ही नहीं, तुम भी अपनी किशोर भावुकता में मेरे लिए पागल हो। मैं तो समझदार हूँ, पढ़ाई पूरी कर चुका हूँ, लेकिन तुम्हारा पागलपन तुम्हारी पढ़ाई-लिखाई चैपट कर देगा। इसलिए मुझे तुमसे दूर ही रहना चाहिए। सर और मैम बारी-बारी से कुछ कह रहे थे, लेकिन मैं वह सब नहीं, एक ही बात बार-बार सुन रहा था कि तुम भी मेरे लिए पागल हो। वे तुम्हारे पागलपन की बात कर रहे थे और मैं अपने पागलपन को समझ रहा था। समझ रहा था और मुझे इतना अच्छा लग रहा था कि मैं एक ही साथ स्वयं को भाग्यशाली और संजीदा और समझदार और जिम्मेदार महसूस करते हुए फैसला कर रहा था कि अब तुम्हारे घर नहीं जाऊँगा।’’ </div>
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<br />मैंने कुछ शरारत के-से अंदाज में कहा, ‘‘उस दिन जो दरवाजा आपके लिए बंद हुआ था, अगर फिर से खुल जाये?’’ काॅफी के प्याले को मुँह की ओर ले जाता उसका हाथ वहीं थम गया। उसने मेरी आँखों में देखा और मुस्कराया, ‘‘तो मैं उस घर में जरूर आना चाहूँगा।’’ मैंने पूछा, ‘‘अकेले आयेंगे या किसी के साथ?’’ मेरा अभिप्राय समझकर वह मुस्कराया, ‘‘मैं तो अभी तक अकेला ही हूँ। तुम?’’ मैंने कहा, ‘‘मैं भी।’’ </div>
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<br />मैंने उसके कामकाज के बारे में पूछा, तो उसने कहा, ‘‘एक बार मैं एक न्यूज चैनल में काम करने वाले अपने एक कैमरामैन मित्र के साथ विदर्भ चला गया, जहाँ के गाँवों में जाकर उसे किसान आत्महत्याओं के बारे में कुछ शूटिंग करनी थी। वहाँ उसके साथ घूमते-फिरते एक दिन मैंने आंदोलनकारी किसानों की एक रैली में एक युवा किसान नेता का भाषण सुना। उसकी बातें मुझे इतनी नयी और अच्छी लगीं कि मैंने अपने मित्र से कहा कि इसे रिकाॅर्ड कर लो। वापस दिल्ली आकर मैंने उसका एक वीडियो बनाया और यूट्यूब पर डाल दिया। उसे दुनिया भर में देखा और सराहा गया।’’ </div>
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<br />‘‘ऐसा क्या था उसमें?’’ मैंने पूछा, तो उसने बताया, ‘‘उस युवा किसान नेता का कहना था कि हम सरकार की गलत नीतियों के चलते अपनी खेती-किसानी पर हावी हो बैठी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के गुलाम होकर रह गये हैं। सरकार विकास की बात करती है, लेकिन उसके विकास का मतलब है गाँवों को उजाड़कर बड़े शहर बसाना, बड़े उद्योग लगाना, खेती को बड़े पैमाने पर कराना और इसके लिए जरूरी बड़ी पूँजी जुटाने के लिए इन सारे कामों को बड़े पूँजीपतियों और बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सौंप देना। इन कामों को करने के लिए छोटे किसानों को, ग्रामीणों को और आदिवासियों को उजाड़ देना। खेती को इतना महँगा कर देना कि किसान हमेशा कर्ज में डूबा रहे और आत्महत्या करता रहे। क्या यह विकास है? नहीं। यह विकास नहीं, विनाश है। और हम किसानों का तो सर्वनाश है। लेकिन अब हम अपना सर्वनाश नहीं होने देंगे। हम खेती-बाड़ी की नीतियाँ खुद बनायेंगे। हम कौन-सी फसलें उगायें, कौन-से बीज बोयें, कौन-सी खाद डालें और किन तरीकों से खेती करें, यह सब हम तय करेंगे। अपनी उपज का मूल्य भी हम ही तय करेंगे। लेकिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों की कठपुतली सरकार हमें आसानी से ऐसा करने नहीं देगी। इसके लिए हमारा जो मजबूत संगठन बनना चाहिए, वह आसानी से बनने नहीं देगी। इसके लिए वह हमें स्वार्थी और अकेला बनायेगी कि हम सिर्फ अपने बारे में सोचें, अपनी समस्याओं को खुद ही हल करने की कोशिश करें और न कर पायें, तो आत्महत्या कर लें।’’ </div>
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<br />‘‘वाह! आपको तो उसका पूरा भाषण याद है!’’ मैंने कहा, तो बसंत ने हल्की-सी झेंप के साथ कहा, ‘‘इसका </div>
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वीडियो बनाते और बार-बार लोगों को दिखाते हुए मैंने इस भाषण को इतनी बार सुना है कि यह मुझे जबानी याद हो गया है। लेकिन पूरा भाषण सुनाकर मैं तुम्हें बोर नहीं करूँगा, बस वह बात सुन लो, जिसके कारण वीडियो लोगों को, दुनिया भर के करोड़ों लोगों को पसंद आया। उस युवा किसान नेता ने कहा--‘किसान की आत्महत्या को उसकी निजी समस्या के रूप में न तो समझा जा सकता है, न हल ही किया जा सकता है। उसको हमें हम सबकी साझी समस्या के रूप में समझना होगा। मगर सरकार नहीं चाहती कि हम अपनी समस्याओं को एक साथ मिलकर सबकी साझी समस्याओं के रूप में समझें। इसलिए वह हमें आपस में लड़ाती है। कभी जाति के नाम पर, तो कभी धर्म के नाम पर। कभी मंदिर के नाम पर, तो कभी मस्जिद के नाम पर। वह समाज में हिंसा भड़काती है और फिर उस हिंसा को खत्म करने के नाम पर खुद सबसे बड़ी हिंसा करती है। लेकिन अब हम उसके इस खेल को समझेंगे और इसे जारी नहीं रहने देंगे। हम किसी की हत्या नहीं करेंगे, लेकिन आत्महत्या भी नहीं करेंगे, क्योंकि आत्महत्या भी हत्या ही है।’ यह बात लोगों को पसंद आयी। उस वीडियो को मिली सफलता से उत्साहित होकर मैंने अपने कैमरामैन मित्र से कहा कि आओ, अपनी एक टीम बनायें और कुछ डाॅक्यूमेंटरी फिल्में बनायें। फिल्में भी सफल रहीं। अब मैं यही काम करता हूँ। सर को मेरा काम पसंद है।’’ </div>
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<br />‘‘पापा को? कैसे?’’ मैंने पूछा, तो इत्मीनान से अपनी काॅफी खत्म करके उसने जवाब दिया, ‘‘एक दिन मैं सर को अपने घर ले गया। उन्हें अपनी फिल्में दिखायीं। वे बहुत खुश हुए और उन्होंने मुझे एक सुझाव दिया, जो मुझे जँच गया। उन्होंने कहा कि भविष्य में ये फिल्में इतिहास लिखने के लिए बहुत अच्छी स्रोत सामग्री हो सकती हैं। आज का मीडिया किसानों और मजदूरों को अछूत मानता है। वह उनके जीवन को, संघर्षों को, आंदोलनों को दिखाता ही नहीं है। मानो उनका कोई अस्तित्व ही नहीं है। अगर तुम सारे देश में घूम-घूमकर यह काम कर सको, तो बहुत बड़ा ऐतिहासिक काम होगा। मैंने उनसे कहा कि सर, इस काम के लिए मैं पूरे देश में तो क्या, पूरी दुनिया में घूम सकता हूँ। यह सुनकर सर ने कहा--तब तो तुम फाह्यान, इब्न बतूता, मार्को पोलो, बर्नियर, ट्रैवर्नियर जैसे घुमक्कड़ इतिहासकारों के वंशज बनकर निकल पड़ो। उन्होंने अपने इतिहास कलम से लिखे, तुम अपना इतिहास कैमरे से लिखो। उन्होंने यह भी कहा कि आज हम इतिहास के बहुत ही महान दौर से गुजर रहे हैं। एक तरफ दुनिया के नष्ट हो जाने की विकट आशंका है, तो दूसरी तरफ यह प्रबल संभावना कि दुनिया बनी रहेगी और बेहतर भी बनेगी। सर पक्के आशावादी हैं। बोले--मुझे लगता है कि पुरानी विश्व-व्यवस्था के काठ में से एक नयी विश्व-व्यवस्था की कोंपल फूट रही है। उसे देखना और दिखाना हम इतिहासकारों का काम है।’’ </div>
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<br />मैं एकटक उसकी ओर देखती हुई उसे सुन रही थी और शायद मुस्करा भी रही थी। यह देखकर वह सचेत-सा होकर बोला, ‘‘अरे, मैं ही बोले जा रहा हूँ, तुम भी तो अपने बारे में कुछ बताओ!’’ मैंने मयंक वाले प्रसंग से लेकर नौकरी छोड़ देने तक के बारे में सब कुछ बताया और कहा, ‘‘आजकल बेरोजगार हूँ। क्या मैं आपकी टीम में शामिल हो सकती हूँ?’’ बसंत खुश हो गया, ‘‘वाह! नेकी और पूछ-पूछ! अभी तक हमारी टीम में कोई लड़की नहीं है। तुम आ जाओगी, तो कमेंटरी और इंटरव्यूज तुम से ही करायेंगे। हमारी फिल्मों के रूखे-सूखे यथार्थ में भी कुछ ग्लैमर आ जायेगा।’’ </div>
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<br />उस मुलाकात के बाद बसंत घर आने लगा और हम बाहर भी मिलने लगे। </div>
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<br />अब, या तो यह मात्र संयोग था, या पापा ने उसे पहले से बता रखा था, वह उस दिन भी आया, जिस दिन माँ तीन साल का प्रवास पूरा करके पोलैंड से लौटीं। माँ उसे देखकर प्रसन्न हुईं। मुझे लगा कि पापा फोन पर माँ को मेरे और बसंत के बारे में बताते रहे हैं। इसलिए जब उसने माँ और पापा से कहा कि हम दोनों शादी करना चाहते हैं, तो माँ ने हँसकर कहा, ‘‘मेरी बेटी ने भी मेरी ही तरह उम्र में काफी बड़ा लड़का ढूँढ़ा है।’’ लेकिन अगले ही पल संजीदा होकर बोलीं, ‘‘सुनो, बसंत, बाद में तुम्हें पता चले, इससे बेहतर है कि पहले ही बता दिया जाये। दीक्षा एक लड़के से...’’ माँ की बात पूरी होने के पहले ही बसंत हँस पड़ा। बोला, ‘‘वह मयंक वाला किस्सा, मैम? दीक्षा उसके बारे में, अपने गर्भपात तक के बारे में, मुझे सब कुछ बता चुकी है। आप डरें नहीं, हम किसी बीते कल के लोग नहीं, आने वाले कल के लोग हैं। और थोड़े-से पागल भी। आप ने ही तो एक दिन हम दोनों को पागल कहा था!’’ पापा ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘अरे, बसंत, बुरा न मानो! ये तो मुझे भी पागल कहती रहती हैं।’’ माँ भी मुस्करायीं, ‘‘तो ठीक है। तुम सारे पागलों के बीच अकेली समझदार मैं तुम सब को आशीर्वाद देती हूँ--खुश रहो!’’</div>
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<br />और मैं खुश हूँ। अब मैं बसंत के साथ दुनिया देखने वाली, कैमरे से इतिहास लिखने वाली, एक घुमक्कड़ इतिहासकार हो गयी हूँ। मैं देख रही हूँ कि आज की दुनिया को बेहतर बनाने के लिए लोग हर देश में तरह-तरह के आंदोलन चला रहे हैं और एक उम्मीद जगा रहे हैं कि यह दुनिया सचमुच बेहतर बनायी जा सकती है। वे जन-आंदोलनों के जरिये दुनिया का नया इतिहास लिख रहे हैं और हम उन आंदोलनों की डाॅक्यूमेंटरी फिल्में बनाकर कैमरे के जरिये उनका इतिहास लिख रहे हैं। <br /><br /><br /></div>
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ramesh upadhyayhttp://www.blogger.com/profile/05054633574501788701noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-1496071818736613491.post-84627391858687818122019-01-25T07:19:00.000-08:002019-01-25T07:20:48.678-08:00"मेरे आशावाद का आधार है भूमंडलीय यथार्थवाद"<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<span style="color: blue;"><span style="color: blue;"><span style="color: red; font-size: small;"><b><span style="color: black;">'परिकथा' पत्रिका के जनवरी-फरवरी, 2019 के अंक में संपादक शंकर द्वारा लिया गया इंटरव्यू</span></b></span></span></span></div>
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<br /></div>
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</div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: red;"><b>शंकर :</b></span> रमेश जी, आप 1970 के आसपास उभरे एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक व्यक्तित्व हैं। आपने स्तरीयता और मात्रा दोनों ही दृष्टियों से पर्याप्त से अधिक रचनाकर्म किया है। आपने जितना रचनात्मक लेखन किया है, उतना ही आलोचना कर्म भी किया है। आपने न सिर्फ साहित्यिक आलोचना, बल्कि समाज और संस्कृति के जरूरी प्रश्नों पर सशक्त समाजशास्त्रीय आलोचना भी की है। समाजशास्त्रीय आलोचना का आपका काम तो इतना विशिष्ट है कि रचनात्मक लेखन करने वाला आपके साथ का या आपके बाद का भी कोई दूसरा लेखक उसकी बराबरी में नहीं दिखायी पड़ता है। आपने कई प्रचलित अवधारणाओं पर अपनी नयी स्थापना दी, कई मौलिक व्याख्याएँ दीं। साहित्य के समाजशास्त्रीय पक्ष को सर्वोपरि मानने और बताने में आपने अपनी तर्कशक्ति लगायी, अनेक बहसों में हिस्सेदारी निभायी, नयी बहसें शुरू कीं। आपने अपनी बातें बिना लाग-लपेट के रखीं। जो बात अच्छी नहीं लगी, उसे अच्छा नहीं बताया, असहमति जाहिर की; और जो बात अच्छी लगी, उसका खुलकर समर्थन किया। आपकी निर्भीकता और साहस के अनेक दृष्टांत आपके समूचे लेखन में मौजूद हैं। जहाँ आवश्यक होता है, आप अपनी आलोचना करने में भी पीछे नहीं रहते। आपके जीवन और लेखन में ऐसी पारदर्शिता है कि गलतफहमी के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। फिर भी, जैसा कि हर लेखक आम तौर पर कभी न कभी सोचता है, क्या आपको कभी यह सोचने की जरूरत महसूस हुई कि दूसरों ने आपके कृतित्व को सही तरह से या अच्छी तरह से नहीं समझा? </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<span style="color: red;"><b>रमेश उपाध्याय :</b></span> (हँसकर) शंकर जी, मुझे तो यह लगता है कि दूसरे मुझे मुझसे ज्यादा समझते हैं। उनसे मुझे अपने बारे में कई ऐसी बातें पता चलती हैं कि मैं चकित रह जाता हूँ। फिर भी, अगर कभी ऐसा लगता है कि मुझे गलत समझा जा रहा है, तो मैं मन ही मन दुखी होते रहने या पीठ पीछे शिकायतें करने के बजाय साफ-साफ कह देता हूँ कि महोदय, आप मुझे गलत समझ रहे हैं। या महोदया, आप मुझे गलत समझ रही हैं। (ठहाका) </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<span style="color: red;"><b>शंकर :</b></span> आपके संस्मरणों से पता चलता है कि पारिवारिक परिस्थितियों के चलते हाई स्कूल के बाद आपको पढ़ाई छोड़कर प्रेस में कंपोजीटर का काम करना पड़ा। लेकिन आपने पढ़ना जारी रखा, प्राइवेट परीक्षाएँ दीं और धीरे-धीरे एम.ए. और पीएच.डी. करके दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक-प्रोफेसर बने। जाहिर है, आपके लेखकीय मानस के निर्माण में आपके इन जीवन-संघर्षों की भूमिका रही है। आप इसे किस तरह व्यक्त करना चाहेंगे? </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<span style="color: red;"><b>रमेश उपाध्याय :</b></span> मैं ‘जीवन-संघर्षों’ की जगह ‘जीवन-अनुभवों’ की बात करना चाहूँगा। संघर्ष से ऐसा लगता है कि जैसे आप किसी रणभूमि में शत्रुओं से लड़-भिड़कर विजयी हुए हैं, जबकि अनुभव लोगों से मिल-जुलकर, उनके साथ प्रेमपूर्वक जीने से प्राप्त होते हैं। मैं सोचता हूँ कि मेरी पारिवारिक परिस्थितियाँ यदि सामान्य होतीं, मैंने सामान्य ढंग से शिक्षा पायी होती, सामान्य ढंग से नौकरी पाकर और सामान्य ढंग से गृहस्थी बसाकर सामान्य जीवन जिया होता, तो आज मैं क्या होता? जो भी होता, शायद लेखक न होता और लेखक होता भी, तो शायद वैसा लेखक न होता, जैसा मैं हूँ। मुझे तो लगता है कि मैंने एक बँधी-बँधायी जिंदगी से जल्दी ही मुक्ति पाकर आजादी से जीते हुए, खूब यात्राएँ करते हुए, तरह-तरह के लोगों के संपर्क में आते हुए और तरह-तरह की परिस्थितियों से गुजरते हुए जो अनुभव प्राप्त किये, वे एम.ए. और पीएच.डी. से कहीं ज्यादा शिक्षाप्रद थे। मैंने राजस्थान विश्वविद्यालय से एम.ए. और दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की, लेकिन जैसे गोर्की की आत्मकथा के एक खंड का नाम है ‘मेरे विश्वविद्यालय’, वैसे ही मेरे वास्तविक विश्वविद्यालय तो वे शहर रहे, जहाँ मैं रहा और जिन्होंने मुझे प्रेम से अपनाया। मेरे वास्तविक शिक्षक तो वे लोग रहे, जिनके साथ मैं रहा और जिनसे मैंने नितांत अजनबी होते हुए भी भरपूर प्यार पाया। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<span style="color: red;"><b>शंकर :</b></span> आपने लेखन की शुरुआत कहानियों से की थी। आपने जिस समय लिखना शुरू किया, उस समय तक आप विचारधारात्मक रूप से सजग या प्रबुद्ध हो चुके थे या आपकी सजगता लिखने के दौरान बाद में आयी?</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<span style="color: red;"><b>रमेश उपाध्याय :</b></span> मेरी पहली कहानी बीस साल की उम्र में, 1962 में छपी थी। बीस साल का लड़का विचारधारात्मक रूप से बहुत सजग या प्रबुद्ध तो नहीं हो सकता, लेकिन चैदह साल की उम्र में पढ़ाई छोड़कर परिवार की जिम्मेदारी उठा लेने वाला लड़का, कई शहरों में मेहनत-मजदूरी करने वाला लड़का, टेªड-यूनियन वगैरह के अनुभवों से गुजरा हुआ लड़का, प्रेमचंद और दूसरे प्रगतिशील लेखकों के लेखन से प्रभावित लड़का चाहे किसी विचारधारा से प्रतिबद्ध न हो, वर्गीय पक्षधरता के कुछ पाठ तो पढ़ ही चुका था, जिनका असर आप मेरी पहली कहानी ‘एक घर की डायरी’ पर देख सकते हैं। बाकी सजगता बाद में लिखने के दौरान ही आयी। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<span style="color: red;"><b>शंकर : </b></span>आपकी कहानियों से गुजरते हुए जो चीज सबसे पहले और सबसे अधिक आकर्षित करती है, वह है विविधता। आपकी शायद ही कोई दो कहानियाँ एक जैसी हों। आपकी कहानियों में गाँव हैं, कस्बे हैं, शहर हैं और महानगर भी हैं। आपकी कहानियों के पात्रों में किसान हैं, मजदूर हैं, तरह-तरह के काम करने वाले मध्यवर्गीय लोग हैं और उच्चवर्गीय शासक लोग भी हैं। स्त्रियों में शिक्षित और अशिक्षित, विवाहित और अविवाहित, विधवाएँ और परित्यक्ताएँ, शहरी और ग्रामीण, मेहनत-मजदूरी करने वाली या नौकरी-चाकरी करने वाली, उच्चवर्गीय या शासकवर्गीय स्त्रियाँ भी हैं। उनमें बच्चे हैं, किशोर हैं, युवा हैं, प्रौढ़ हैं और वृद्ध भी हैं। फिर, आपकी कहानियों में पात्रों की पृष्ठभूमि, परिस्थितियों और उनकी निजी विशेषताओं से संबंधित भिन्नताएँ और विचित्रताएँ भी हैं। यह विविधता आपकी कहानियों में अनायास आयी है या सायास लायी गयी है? </div>
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<br />
<span style="color: red;"><b>रमेश उपाध्याय :</b></span> शंकर जी, मैंने अब तक के अपने आधी सदी से अधिक के लेखन काल में दो सौ से अधिक कहानियाँ लिखी हैं। मगर मुझे या मेरे पाठकों को कभी ऐसा नहीं लगा कि मैं स्वयं को दोहरा रहा हूँ। लेकिन मेरी कहानियों में विविधता सायास लायी गयी नहीं है, अनायास ही आयी है। मैं समझता हूँ, इसके दो कारण हैं। एक यह कि मैं बहुत-से भिन्न परिवेशों और परिस्थितियों में जिया हूँ, मैंने विभिन्न प्रकार के काम किये हैं, विभिन्न प्रकार के लोगों के साथ जीवन जिया है। और दूसरा यह कि मैं अक्सर अपने आसपास के यथार्थ में अचानक मिल जाने वाली नयी चीजों से प्रेरित होकर कहानी लिखता हूँ। मुझे नयी चीजें, जैसे कहानी के नये विषय, खोजने के लिए कहीं जाना नहीं पड़ता। वास्तव में वे यथार्थ में पहले से मौजूद होती हैं। लेकिन मुझे उनके होने का ज्ञान या अनुभव नहीं होता। जब किसी नयी चीज का सहसा ज्ञान या अनुभव होता है, तो मैं चकित रह जाता हूँ। मसलन, आप जिस रास्ते से रोजाना आते-जाते हों, उसके किनारे खड़ा कोई पेड़ या मकान आपको पहली बार दिखे, या आपका ध्यान खींच ले, और आप विस्मित हो जायें कि अरे, यह यहाँ कहाँ से आ गया! हमारे जीवन में, हमारे आसपास के लोगों में, उनकी बातों में, उनकी भाषा में, उस भाषा में व्यक्त होने वाले उनके संबंधों में और उन संबंधों में नित्यप्रति होने वाले बदलावों में मेरे ज्ञान और अनुभव से बाहर की इतनी चीजें होती हैं कि मैं हैरान रह जाता हूँ और सोचता हूँ कि जीवन के इस पक्ष को या मनुष्य के इस रूप को मैंने पहले क्यों नहीं देखा! और मेरी यह हैरानी मुझे एक नयी कहानी लिखने के लिए प्रेरित करती है। चूँकि यह प्रेरणा पहले की प्रेरणाओं से भिन्न होती है, इसलिए वह कहानी भी पहले की कहानियों से भिन्न होती है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<span style="color: red;"><b>शंकर :</b></span> आपकी कहानियों में कथ्य की ही नहीं, रूप और शिल्प की विविधता भी खूब है। जैसे कि आप कहीं परंपरागत आख्यान वाली कहानी लिखते हैं, तो कहीं उस आख्यान में नये-नये प्रयोग करते हैं। कभी ‘पैदल अँधेरे में’ और ‘चिंदियों की लूट’ जैसी छोटी-छोटी सूक्ष्म सांकेतिक कहानियाँ लिखते हैं, तो कभी ‘अंधा कुआँ’ और ‘पानी की लकीर’ जैसी विस्तृत विवरणों वाली लंबी कहानियाँ। कभी पौराणिक आख्यानों को नया रूप देकर नये अर्थों-संदर्भों वाली ‘कल्पवृक्ष’, ‘कामधेनु’ और विश्वामित्र वाली ‘प्रतिसृष्टि’ जैसी कहानियाँ लिखते हैं, तो कभी लोककथा वाले रूप में ‘प्रजा का तंत्र’ और ‘मायानगरी में एक दिन’ जैसी कहानियाँ। कभी हास्य-व्यंग्य वाली ‘दूसरी पत्नी’ और ‘परथम श्रेणी सबको दो!’ जैसी कहानियाँ लिखते हैं, तो कभी ‘मेरे दोस्त का सपना’ या ‘एक झरने की मौत’ जैसी करुण कहानियाँ। और आपकी प्रयोगशीलता का सबसे बड़ा प्रमाण तो है आपकी कहानी-शृंखला ‘किसी देश के किसी शहर में’, जिसमें आपने लोककथा के शिल्प में यथार्थ और फैंटेसी तथा व्यंग्य और विडंबना के अद्भुत प्रयोग किये हैं। ऐसी कहानी-शंृखला हिंदी कहानी में न आपसे पहले किसी ने लिखी है, न आपके बाद के किसी लेखक ने। तो यह बताइए कि कहानी में ऐसे प्रयोग करने की आवश्यकता आप क्यों महसूस करते हैं? </div>
<div style="text-align: justify;">
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<span style="color: red;"><b>रमेश उपाध्याय :</b></span> देखिए, हिंदी कहानी में यथार्थवाद और यथार्थवादी कहानी को लेकर बहुत सारे विभ्रम फैले हुए हैं। जैसे आम तौर पर यह माना जाता है कि यथार्थ और कल्पना परस्पर-विरोधी हैं, इसलिए यथार्थवादी कहानी में कल्पना या फैंटेसी का, अलौकिक चीजों या पौराणिक पात्रों का कोई काम नहीं। फिर, यह भी माना जाता है कि यथार्थ रूखा-सूखा, रूप-रस-गंध-स्पर्श आदि के आनंद से रहित होता है, इसलिए यथार्थवादी कहानी में इन सब चीजों का और हास-परिहास का या व्यंग्य-विनोद का कोई काम नहीं। लेखक ने जो देखा है, उसी को यथावत लिख देना, या उसने जो जिया-भोगा है, उसी को लिख देना यथार्थवादी कहानी लिखना माना जाता है, चाहे ऐसी कहानी महाबोर और नितांत अपठनीय ही क्यों न हो। ब्रेख्त की तरह मेरा मानना है कि यथार्थ को किसी एक ही तरीके से नहीं, हजारों तरीकों से व्यक्त किया जा सकता है। हाँ, इसमें नये प्रयोगों के असफल हो जाने की जोखिम है, पर यह जोखिम उठाये बिना आप साहित्य में नया क्या कर सकते हैं? </div>
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<span style="color: red;"><b>शंकर :</b></span> आपकी शुरू की कहानियों में, मसलन ‘आने वाले के लिए’, ‘आत्मघात’, ‘दूसरी पवित्रा’, ‘शेष इतिहास’, ‘पानी की लकीर’, ‘पैदल अँधेरे में’, ‘बराबरी का खेल’, ‘माटीमिली’, ‘देवीसिंह कौन?’ आदि में, आपकी लेखकीय पक्षधरता या वैचारिक प्रतिबद्धता कहानी में अंतर्धारा के रूप में मौजूद है, जबकि आपकी बाद की कहानियों में, जैसे ‘प्राइवेट पब्लिक’, ‘त्रासदी...माइ फुट!’, ‘अर्थतंत्र’ या ‘हम किस देश के वासी हैं’ आदि में उसकी मुखरता ज्यादा है। संभव है, बाद की इन कहानियों को लिखते हुए आपने महसूस किया हो कि बिना मुखर हुए कहानी के माध्यम से जो बात कही जानी है, वह नहीं कही जा सकेगी। आप इन कहानियों को किस रूप में देखते हैं? </div>
<div style="text-align: justify;">
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<span style="color: red;"><b>रमेश उपाध्याय :</b></span> देखिए, कहानी में लेखकीय पक्षधरता या वैचारिक प्रतिबद्धता का अंतर्निहित रहना या खुलकर व्यक्त होना, या कहानी का सूक्ष्म अथवा स्थूल होना, या अंग्रेजी में कहें तो उसका सटल या लाउड होना कई चीजों पर निर्भर करता है। जैसे, कहानी के लिखे जाने के समय का सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक वातावरण। मैंने जिस समय कहानियाँ लिखना शुरू किया, राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के समय जनता द्वारा देखे गये स्वप्नों के भंग होने का समय था, जिसे साहित्य में मोहभंग कहा जाता था। हालाँकि मध्यवर्ग में देश के नवनिर्माण से बेहतर भविष्य या समाजवादी समाज बनने की आशाएँ मौजूद थीं, सरकारी नौकरियाँ आसानी से मिल जाती थीं, पत्रकारिता और प्रकाशन जगत में आज की-सी व्यावसायिकता नहीं थी और पत्र-पत्रिकाओं के संपादक प्रायः साहित्यकार हुआ करते थे। लाखों की पाठक संख्या वाले ‘धर्मयुग’ और ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ जैसे साप्ताहिक पत्रों और टाइम्स आॅफ इंडिया तथा हिंदुस्तान टाइम्स जैसे बड़े प्रकाशन समूहों से निकलने वाली ‘सारिका’ और ‘कादंबिनी’ जैसी मासिक पत्रिकाओं में भी साहित्य के लिए काफी जगह होती थी। फिर, इनके साथ-साथ ‘कल्पना’, ‘लहर’, ‘माध्यम’, ‘ज्ञानोदय’, ‘कहानी’, ‘नयी कहानियाँ’ आदि साहित्यिक पत्रिकाएँ भी थीं, जिनमें नये-पुराने सभी तरह के लेखक अपना मनचाहा लिख सकते थे। उदाहरण के लिए, ‘नयी कहानी’ आंदोलन के समय परिमल वाले धर्मवीर भारती ‘धर्मयुग’ में प्रगतिशील लेखकों की और प्रगतिशील भैरवप्रसाद गुप्त ‘कहानी’ और ‘नयी कहानियाँ’ में गैर-प्रगतिशील लेखकों की भी कहानियाँ सम्मान के साथ प्रकाशित करते थे। इसलिए रचना में लेखकीय पक्षधरता या वैचारिक प्रतिबद्धता का मुखर होना या न होना ज्यादा मायने नहीं रखता था। मगर बाद में, जब सामाजिक-राजनीतिक जीवन में निराशा छाने लगी, युवाओं में कुछ देशी-विदेशी प्रभावों से विद्रोह के स्वर उभरने लगे, शीतयुद्ध की राजनीति के तहत साहित्य में खेमेबंदी होने लगी, तब वाम राजनीति और विचारधारा पर आक्रमण होने लगे। कम्युनिस्ट आंदोलन में विभाजन-दर-विभाजन से भी साहित्यिक वातावरण बहुत बदला। ‘बड़ी’ पत्रिकाओं के विरुद्ध ‘लघु’ पत्रिकाओं का आंदोलन शुरू हुआ। और फिर आया आपातकाल, जिसमें लेखकों ने पाया कि लिखने-बोलने की आजादी पर लगे हुए जो प्रतिबंध पहले नजर नहीं आते थे, अब स्पष्ट होकर लेखन को बाधित और नियंत्रित करने लगे हैं। हिंदी कहानी इन परिवर्तनों से अप्रभावित कैसे रह सकती थी? मेरी कहानियाँ भी अप्रभावित नहीं रहीं। आपने मेरी जिन तीन कहानियों--‘प्राइवेट पब्लिक’, ‘त्रासदी...माइ फुट!’ और ‘हम किस देश के वासी हैं’--में ज्यादा मुखरता देखी है, वे तीनों कहानियाँ निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण की प्रक्रियाओं में बदलते हुए भूमंडलीय यथार्थ की कहानियाँ हैं। इन कहानियों में जो यथार्थ है, वह लेखकीय पक्षधरता और वैचारिक प्रतिबद्धता की मुखरता के बिना व्यक्त किया ही नहीं जा सकता था। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<span style="color: red;"><b>शंकर :</b></span> आपको अपनी कहानियों में से कौन ज्यादा प्रिय हैं? </div>
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<span style="color: red;"><b>रमेश उपाध्याय :</b></span> यह बताना बहुत मुश्किल है। फिर भी, जिन कहानियों के नाम आपने लिये हैं, वे तो मुझे पसंद हैं ही, उनके अलावा भी कई कहानियाँ मुझे अपनी दूसरी कहानियों से ज्यादा पसंद हैं। जैसे, ‘गलत-गलत’, ‘ब्रह्मराक्षस’, ‘कहीं जमीन नहीं’, ‘नदी के साथ एक रात’, ‘कामधेनु’, ‘दूसरा दरवाजा’, ‘अविज्ञापित’, ‘डाॅक्यूड्रामा’, ‘लाला बुकसेलर’, ‘एक झरने की मौत’ आदि। इससे याद आया कि जब कमलेश्वर साहित्य अकादमी के लिए ‘बीसवीं सदी की हिंदी कथा-यात्रा’ का संपादन कर रहे थे, उन्होंने फोन करके मुझसे पूछा था कि मेरे संग्रह ‘डाॅक्यूड्रामा तथा अन्य कहानियाँ’ में मुझे कौन-सी कहानी ज्यादा पसंद है। मेरे लिए अपने एक संग्रह में भी अपनी सबसे प्रिय कहानी बताना मुश्किल हो गया। जैसे-तैसे मैंने एक कहानी का नाम बताया। ‘प्रजा का तंत्र’। और कमलेश्वर ने कहा, ‘‘मुझे भी यह कहानी बहुत पसंद है। मैं इसी को ले रहा हूँ।’’ <br />
शंकर: आप ‘प्रजा का तंत्र’ को किस रूप में देखते हैं? </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<span style="color: red;"><b>रमेश उपाध्याय :</b></span> ‘प्रजा का तंत्र’ में मैंने समकालीन भूमंडलीय यथार्थ को भारतीय और विशेष रूप से हिंदी की यथार्थवादी कथा-परंपरा में कुछ नया जोड़ते हुए लोककथा के रोचक रूप में व्यक्त किया है। इस यथार्थ का एक सिरा जनता के शोषण और दमन के इतिहास से जुड़ा है, तो दूसरा सिरा मानव-मुक्ति के भविष्य-स्वप्न से। इस कहानी में मैंने अपने देश और बाकी दुनिया में प्रायः सर्वत्र चल रही वह जन-विरोधी तथा जनतंत्र-विरोधी प्रक्रिया दिखायी है, जिसमें राज्यतंत्र उत्तरोत्तर अधिक दमनकारी होता जाता है और जनतंत्र निरंतर कमजोर पड़ता जाता है। इसके चलते जनतंत्र के नाम पर निरंकुश राजा और विवश प्रजा वाली पुरानी व्यवस्था ही आधुनिक रूप में चलती दिखायी देती है। लेकिन यह दिखाने के लिए कि यथार्थ इकहरा नहीं, द्वंद्वात्मक होता है, मैंने इस व्यवस्था को बदल सकने वाली एक नयी जनतांत्रिक प्रतिरोध-प्रक्रिया का संकेत भी एक यथार्थ संभावना के रूप में कर दिया है। मैंने इस छोटी-सी कहानी में देश-काल की दृष्टि से अत्यंत विस्तृत भौगोलिकता तथा अत्यंत गहन ऐतिहासिकता वाले भूमंडलीय यथार्थ को सहज संप्रेषणीय बनाने के लिए भारतीय लोककथाओं वाली शैली तथा व्यंग्यात्मक भाषा अपनायी है, जिससे कहानी में पुरानी किस्सागोई के साथ व्यंग्य, विडंबना, पैरोडी, फैंटेसी, ऐलेगरी आदि के नये प्रयोग सहजता से होते चले गये हैं। शायद इसी कारण मेरी यह प्रिय कहानी लोकप्रिय भी है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<span style="color: red;"><b>शंकर :</b></span> ‘त्रासदी...माइ फुट!’ आपकी एक बहुत महत्त्वपूर्ण और उत्कृष्ट कहानी है। भोपाल गैस कांड पर तो शायद यह अपने ढंग की अकेली ही कहानी है। इसमें कंपनी के क्रियाकलाप के बारे में वे तथ्य आये हैं, जिनको कंपनी ने छिपाने की कोशिशें कीं। कहानी के पात्र नूर भोपाली ने इस कांड को लेकर बहुत सारे तथ्य जुटाये हैं। वे उन्हें गजल में नहीं ढाल पा रहे हैं, लिहाजा इस कांड पर वे उपन्यास लिखना चाह रहे हैं, लेकिन वे उपन्यास का रूपबंध तैयार नहीं कर पा रहे हैं। शायद यह दिक्कत आपको भी इस कहानी को लिखते समय आयी और इसीलिए आपने नूर से कहलाया है--‘‘उपन्यास के लिए मसाला तो मैंने बहुत सारा जमा कर लिया है। लेकिन यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि इसे कहानी के रूप में किस तरह ढालूँ। मैं जो कहानी कहना चाहता हूँ, वह किसी एक व्यक्ति की, एक परिवार की, एक शहर की या एक देश की नहीं, बल्कि सारी दुनिया की कहानी होगी। मुझे लगता है, ग्लोबलाइजेशन के दौर में साहित्य को भी ग्लोबल होना पड़ेगा। मगर किस तरह?’’ इस पर नूर का कहानीकार मित्र राजन कहता है--‘‘मैं भी आजकल इसी समस्या से जूझ रहा हूँ।’’ इस कहानी में राजन शायद आपका ही प्रतिरूप है, क्योंकि आपने ही भूमंडलीय यथार्थवाद की नयी अवधारणा प्रस्तुत की है और इस कहानी में तथा ‘प्राइवेट पब्लिक’ और ‘हम किस देश के वासी हैं’ जैसी अन्य कहानियों में भूमंडलीय यथार्थवाद के सफल उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। हिंदी कहानी में यह एक सर्वथा नयी चीज है। ‘त्रासदी...माइ फुट!’ की रचना-प्रक्रिया के बारे में बताते हुए आप इसके बारे में बतायें। </div>
<div style="text-align: justify;">
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<span style="color: red;"><b>रमेश उपाध्याय : </b></span>शंकर जी, भोपाल गैस कांड में मारे गये और जीवन भर के लिए बीमार और अपाहिज हो गये सर्वथा निर्दोष लोगों के साथ उस रात जो हुआ, उसका प्रत्यक्षदर्शी तो मैं नहीं था, लेकिन उससे मैं बहुत विचलित हुआ। बाद में उसके बारे में मैंने जो पढ़ा-सुना, उससे मुझे लगा कि यह कोई त्रासदी नहीं, जान-बूझकर किया गया हत्याकांड था। इससे मेरे मन में एक तरफ अथाह दुख और दूसरी तरफ अपार क्रोध उत्पन्न हुआ। उस विक्षोभ की अभिव्यक्ति के लिए मैंने 1985 में ‘अनदीखती’ कहानी लिखी, जो ‘पहल’ के कहानी विशेषांक में छपी थी। मगर मैं उस कहानी से संतुष्ट नहीं था। इसलिए उस कहानी को लिख चुकने के बाद भी मैं उस कांड के बारे में कुछ शोध जैसा करता रहा। बीसवीं सदी के अंतिम दशक से पूँजीवादी भूमंडलीकरण की जो आँधी चली, उसके अनुभव ने भी मुझे झकझोरा और मुझे लगा कि अब यथार्थ को किसी एक व्यक्ति के, एक परिवार के, एक शहर के या एक देश के यथार्थ के रूप में नहीं, बल्कि संपूर्ण विश्व के यथार्थ के रूप में देखना होगा, क्योंकि आज की दुनिया में जो कुछ हो रहा है, उसका संबंध समूचे वैश्विक या भूमंडलीय यथार्थ से है। लेकिन भूमंडलीय यथार्थ को कहानी में ढालना बहुत मुश्किल काम था और ऐसी कहानियों के कोई उदाहरण भी मेरे सामने नहीं थे। इसलिए यह एक बड़ी रचनात्मक चुनौती थी, जिसे स्वीकार करते हुए मैंने 2006 में यह कहानी लिखी। इस प्रकार आप कह सकते हैं कि इस कहानी की रचना-प्रक्रिया लगभग बीस बरस जारी रही। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<span style="color: red;"><b>शंकर :</b></span> हिंदी की कहानी समीक्षा में आम तौर पर यह माना जाता है कि कहानी में लेखकीय पक्षधरता और वैचारिक प्रतिबद्धता अंतर्निहित रहनी चाहिए, मुखर होकर व्यक्त नहीं होनी चाहिए। आपकी ‘शेष इतिहास’, ‘पानी की लकीर’, ‘पैदल अँधेरे में’, ‘माटीमिली’, ‘बराबरी का खेल’, ‘देवीसिंह कौन?’ आदि बहुत ऊँचे दरजे की कहानियाँ हैं। इन कहानियों में आपकी लेखकीय पक्षधरता और वैचारिक प्रतिबद्धता बिलकुल स्पष्ट है। फिर भी ये ऊँचे दरजे की कहानियाँ हैं। इस विषय में आपको क्या कहना है? </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<span style="color: red;"><b>रमेश उपाध्याय :</b></span> शंकर जी, मेरे विचार से यह एक मिथ्या धारणा है कि कहानी में लेखकीय पक्षधरता और वैचारिक प्रतिबद्धता स्पष्ट या मुखर होने से कहानी खराब हो जाती है। यह धारणा वाम विचारधारा और यथार्थवादी लेखन का विरोध करने के लिए इस्तेमाल और प्रचारित की जाती रही है। दिक्कत यह है कि हिंदी के प्रगतिशील और जनवादी कहानी समीक्षक भी इसे सही मानते रहे हैं। लेकिन आधुनिक काल से पहले, बल्कि आधुनिकतावादी साहित्य समीक्षा से पहले, यह धारणा आपको कहीं नहीं मिलेगी। ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ से लेकर संस्कृत और दूसरी तमाम भारतीय भाषाओं के साहित्य में ही नहीं, पश्चिम के पुराने साहित्य में भी लेखकीय पक्षधरता और वैचारिक प्रतिबद्धता स्पष्ट दिखायी देती है। मैं आपकी पत्रिका ‘परिकथा’ के जनवरी-फरवरी, 2018 के अंक में प्रकाशित अपने लेख ‘साहित्यिक आंदोलन और लेखक संगठन’ में भक्तिकाल के कवियों के उदाहरणों से यह बात स्पष्ट कर चुका हूँ। कहानी की गुणवत्ता और मूल्यवत्ता का निर्णय उसमें लेखकीय पक्षधरता और प्रतिबद्धता के मुखर या अंतर्निहित रहने के आधार पर नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसे चाहे कितना भी छिपाया जाये, जरा-सा प्रयत्न करते ही वह स्पष्ट हो जाती है। कहानी की गुणवत्ता और मूल्यवत्ता के मानदंड दूसरे हैं, जो कहानी की विषयवस्तु के साथ-साथ कहानी कहने की कला से भी संबंध रखते हैं। कहानी में क्या कहा गया है, यह तो महत्त्वपूर्ण है ही; कैसे कहा गया है, यह भी महत्त्वपूर्ण है। दुर्भाग्य से हिंदी की कहानी समीक्षा में विषयवस्तु ही मुख्य मानी जाती रही है, उसके रूप पर बहुत कम ध्यान दिया गया है। रूप पर ध्यान देने वाले कहानी समीक्षक चाहे प्रगतिशील और जनवादी ही क्यों न हों, रूपवादी, कलावादी, अनुभववादी आदि यथार्थवाद-विरोधी युक्तियाँ अपनाते रहे हैं। लेकिन कहानी ऐसी कला है, जिसका जादू सिर चढ़कर बोलता है। अगर वह कला कहानी में है, तो लेखकीय पक्षधरता और वैचारिक प्रतिबद्धता के मुखर होने पर भी उसका जादू सिर चढ़कर बोलेगा। </div>
<div style="text-align: justify;">
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<span style="color: red;"><b>शंकर : </b></span>आपने हमेशा कहा है कि यथार्थवादी कथाकारों को कलावादी नहीं होना चाहिए, लेकिन कहानी में कलात्मकता का ध्यान अवश्य रखना चाहिए। आप अपनी कहानियों में निरंतर नये, गतिशील और परिवर्तनशील यथार्थ को कलात्मक रूप में सामने लाते रहे हैं। इसके लिए आपने अपनी कहानियों में मिथक, रूपक, प्रतीक, व्यंग्य, विडंबना आदि के प्रयोगों के साथ कथा कहने की विभिन्न शैलियों का उपयोग भी किया है। जैसे वर्णन और चित्रण की शैली, आत्मकथात्मक शैली, लोककथाओं वाली शैली इत्यादि। इस दृष्टि से आपकी कहानी-शंृखला ‘किसी देश के किसी शहर में’ एक अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करती है। विजयदान देथा ने लोककथाओं को लोककथा की तरह लिखा है, जबकि आपने अद्यतन जीवन-प्रसंगों, स्थितियों और घटनाओं को लोककथा की तरह लिखा है। आपने इस सिलसिले को आगे क्यों नहीं बढ़ाया? </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<span style="color: red;"><b>रमेश उपाध्याय :</b></span> ‘किसी देश के किसी शहर में’ कहानी-शृंखला कथा पत्रिका ‘सारिका’ के संपादक अवध नारायण मुद्गल के आग्रह पर लिखी गयी थी और ये कहानियाँ ‘सारिका’ में धारावाहिक रूप से छपी थीं। ऐसा अवसर कोई और संपादक देता, तो मैं इस सिलसिले को आगे बढ़ाना अवश्य पसंद करता। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<span style="color: red;"><b>शंकर :</b></span> लगभग सभी महत्त्वपूर्ण कथाकारों ने अपनी रचना-प्रक्रिया बतायी है--कभी किसी इंटरव्यू में, कभी किसी वक्तव्य में, कभी किसी किताब की भूमिका में, कभी किसी लेख या टिप्पणी में। आपने अपने उपन्यास ‘दंडद्वीप’ की भूमिका में और कहानी संग्रह ‘किसी देश के किसी शहर में’ की लंबी भूमिका में यह काम किया है। इन दोनों भूमिकाओं से पता चलता है कि आपकी कहानियाँ कभी आपके अनुभवों से निकलती हैं, तो कभी दूसरों के अनुभवों से। इसे आपने कहीं ‘‘आपबीती को जगबीती बनाकर और जगबीती को आपबीती बनाकर लिखना’’ कहा है। क्या अलग से किसी लेख में आपने अपनी रचना-प्रक्रिया के बारे में लिखा है? </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<span style="color: red;"><b>रमेश उपाध्याय :</b></span> जी, हाँ। मेरी आत्मकथात्मक पुस्तक ‘मेरा मुझ में कुछ नहीं’ में मेरा एक लेख है ‘कैद से निकलने की कोशिश है रचना’। उसमें मैंने ‘जुलूस’, ‘कामधेनु’, ‘डाॅक्यूड्रामा’, ‘माटीमिली’ आदि कहानियों की रचना-प्रक्रिया के बारे में लिखा है। कथ्य और रूप की दृष्टि से मेरी ये कहानियाँ एक-दूसरी से सर्वथा भिन्न हैं और लिखी भी गयी हैं अलग-अलग समयों पर, अलग-अलग तरह से। जैसे ‘जुलूस’ कहानी लिखने का विचार एक दिन एक बाजार से गुजरते हुए अचानक आया और मैंने तपती दोपहरी में एक बस स्टैंड पर, भीड़-भाड़ के बीच बैठकर वह पूरी कहानी एक बार में ही लिख डाली, जबकि ‘माटीमिली’ मैंने ग्यारह वर्षों में कम से कम ग्यारह बार लिखी, तब कहीं जाकर वह मुझे संतुष्ट करने वाले रूप में लिखी जा सकी। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<span style="color: red;"><b>शंकर :</b></span> कहानियाँ अंतर्वस्तु, कथानक और कथ्य के आधार पर तो जनोन्मुखी या अभिजनोन्मुखी ठहरायी जाती रही हैं, लेकिन आपका मानना है कि कहानियाँ रूप या कला पक्ष के स्तर पर भी जनोन्मुखी या अभिजनोन्मुखी ठहरती हैं। क्या इस बात को ‘परिकथा’ के पाठकों के लिए कुछ और स्पष्ट करेंगे? </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<span style="color: red;"><b>रमेश उपाध्याय :</b></span> देखिए, कहानी की विधा तो आदिकाल से आज तक जनोन्मुखी ही है, पर कुछ इलीटिस्ट किस्म के लोग जान-बूझकर उसे अभिजनोन्मुखी बनाया करते हैं। मैं यह मानता हूँ कि कहानी आधुनिक युग में लिखी और पढ़ी जाने वाली चीज बन जाने के बावजूद अपनी मूल प्रकृति के अनुसार आज भी सुनी और सुनायी जाने वाली चीज है। किसी कहानी को पढ़ते समय हम एक प्रकार से उसे सुन ही रहे होते हैं। जैसे कहानीकार सामने बैठकर हमें कहानी सुना रहा हो। मुझे कहानी लिखते समय महसूस होता है कि मैं सामने बैठे श्रोताओं को कहानी सुना रहा हूँ। लेकिन जैसे किसी सभा या गोष्ठी के सभी श्रोता या किसी कक्षा के सभी छात्र एक जैसे नहीं होते, और वक्ता या प्रवक्ता को ध्यान रखना पड़ता है कि उसकी बात सभी सुन-समझ सकें, वैसे ही कहानीकार चाहता है कि उसकी कहानी प्रबुद्ध और साधारण दोनों प्रकार के पाठक रुचिपूर्वक पढ़ें और पसंद करें... </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<span style="color: red;"><b>शंकर :</b></span> आप प्राध्यापक भी तो रहे हैं...</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<span style="color: red;"><b>रमेश उपाध्याय :</b></span> (मुस्कराते हुए) हाँ, अध्यापन के अनुभव से मैंने कहानी लेखन के बारे में कई बातें सीखीं। जैसे मैं गोष्ठियों में, सम्मेलनों में और रेडियो पर कहानियाँ पढ़ता रहा हूँ। एक बार मेरे नाटककार मित्र और ‘अभिव्यक्ति’ के संपादक शिवराम ने राजस्थान में कई हजार मजदूरों के सामने मेरा कहानी पाठ कराया और मुझे खुशी हुई कि कहानी लंबी होने के बावजूद, शहरी मध्यवर्गीय लोगों की कहानी होने के बावजूद, श्रोताओं ने ध्यान से सुनी और अगले दिन मिलने पर मुझसे उसके बारे में बात की। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<span style="color: red;"><b>शंकर :</b></span> आप कहानी के जनोन्मुखी होने के बारे में जो बात बता रहे थे, उसे जारी रखें। </div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: red;"><b><br />रमेश उपाध्याय : </b></span>हाँ, मैं कह रहा था कि कहानी मेरे विचार से प्रबुद्ध और साधारण दोनों तरह के पाठकों द्वारा रुचिपूर्वक पढ़ी और पसंद की जानी चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि कहानी की भाषा साहित्यिक होते हुए भी बोलचाल की भाषा जैसी हो, उसमें कलात्मक बारीकियाँ तो हों, पर उसे समझने में किसी को दिक्कत न हो। लेकिन कुछ उच्चभ्रू कहानीकार कहानी को सुनी-सुनायी जाने वाली चीज नहीं, बल्कि लिखी और पढ़ी जाने वाली चीज ही समझते हैं। वे साधारण पाठकों के स्तर तक उतरना अपनी तौहीन समझते हैं और उस तथाकथित प्रबुद्ध पाठक के लिए लिखते हैं, जो उनकी कहानी को समझ और सराह सके। लोकप्रिय कहानी और कहानीकारों को वे नीची नजर से देखते हैं और चंद विशिष्ट पाठकों, यानी आलोचकों से प्राप्त प्रशंसा को ही पर्याप्त समझते हैं। मगर मैं तो चाहता हूँ कि मेरी कहानी ज्यादा से ज्यादा लोग पढ़ें, समझें और सराहें। मेरी ‘किसी देश के किसी शहर में’ शृंखला की कहानियों के बारे में मेरे कई लेखक मित्रों ने बताया कि उनके बच्चों को भी ये कहानियाँ पसंद हैं। कुछ मित्रों ने अपने बच्चों से मुझे पत्र भी लिखवाकर भेजे। मुझे ऐसी प्रतिक्रियाएँ किसी बड़े पुरस्कार से कम नहीं लगतीं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<span style="color: red;"><b>शंकर : </b></span>कई कहानीकार कहानी में नयापन लाने के लिए विषयवस्तु और भाषा के स्तर पर कुछ अतिरिक्त प्रयास करते दिखायी पड़ते हैं... </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<span style="color: red;"><b>रमेश उपाध्याय :</b></span> हाँ, लेकिन वे कहानी में नयापन लाने के लिए प्रायः विदेशी कहानियों की नकल करते पाये जाते हैं। भाषा के स्तर पर तो शब्दों, वाक्यों और कुछ खास अभिव्यक्तियों की नकल करना आम बात है। लेकिन वे शायद यह नहीं देख पाते कि ऐसा करने से कहीं उनकी कहानी की भाषा अनुवाद जैसी, कहीं झूठे पांडित्य-प्रदर्शन जैसी, कहीं भौंडे हास्य और छिछोरे व्यंग्य जैसी, कहीं गाली-गलौज करने वाले सड़कछाप लोगों की-सी, तो कहीं अतिबौद्धिकता या अतिआंचलिकता की मारी-सी हो जाती है। ऐसी भाषा कुछ चमत्कार पैदा करके पाठक को आतंकित भले ही कर दे, कहानी की रोचकता और पठनीयता को कम कर देती है। मैं यह मानता हूँ कि कहानी में नयापन जन-जीवन के सतत परिवर्तनशील यथार्थ की अभिव्यक्ति से आता है, जो अपने लिए उचित भाषा स्वतः ही खोज लेती है। नयी भाषा का निर्माण लेखक नहीं करता, जनता करती है। इसलिए जन-भाषा के नित्यप्रति बदलते रूपों पर अपनी पकड़ बनाने वाला यथार्थवादी कहानीकार ही कहानी में भाषा के स्तर पर कुछ नया कर पाता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<span style="color: red;"><b>शंकर :</b></span> आपकी पुस्तक ‘साहित्य और भूमंडलीय यथार्थ’ में एक निबंध है ‘आगे की कहानी’, जिसमें आपने ‘आज की कहानी’ की जगह ‘आगे की कहानी’ की बात की है और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना द्वारा दिये गये पाँच सूत्रों में अपने भी पाँच सूत्र जोड़े हैं। सर्वेश्वर जी के पाँच सूत्र हैं--1. पश्चिमी फैशनपरस्त अंधानुकरण से बचो। 2. शिल्प को आतंक मत बनाओ। 3. उनके लिए भी लिखो जो अर्द्धशिक्षित हैं और उनके लिए भी जो अशिक्षित हैं, जिन्हें तुम्हारी कहानी पढ़कर सुनायी जा सके। 4. इस देश की तीन-चैथाई जनता की सोच-समझ को वाणी दो, जो वह खुद नहीं कह सकती। और, 5. कहानी को लोककथाओं और ‘फेबल्स’ की सादगी की ओर मोड़ो, उनके विन्यास से सीखो, और उसे आम आदमी के मन से जोड़ो। और आपके पाँच सूत्र हैं--1. चालू विमर्शों की कहानी लिखने से बचो। 2. बदलते हुए यथार्थ को देखो और यथार्थ को बदलने के लिए लिखो। 3. दुनिया भर के उत्कृष्ट कहानी-लेखन से सीखो, पर अपनी कथा परंपरा में और अपनी जनता के लिए लिखो। 4. साहित्य की बदली हुई शब्दावली को आँख मूँदकर मत अपनाओ। 5. वैश्विक पूँजीवाद के विरुद्ध वैश्विक समाजवाद का स्वप्न साकार करने के लिए अच्छी कहानियाँ बेखटके गढ़ो। इन दस सूत्रों को एक कसौटी मान लिया जाये, तो पिछले ढाई दशकों के दौर के कहानी लेखन पर क्या राय बन सकती है? </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<span style="color: red;"><b>रमेश उपाध्याय :</b></span> सच कहूँ, तो कोई ज्यादा अच्छी राय नहीं बनती। पश्चिमी फैशनों का अंधानुकरण कम होने के बजाय बढ़ा है। शिल्प को आतंक बनाने वालों की संख्या तो ज्यादा नहीं बढ़ी है, पर वे बहुत महत्त्वपूर्ण माने गये हैं। अर्द्धशिक्षितों और अशिक्षितों में तो दलित, स्त्री, आदिवासी, अल्पसंख्यक आदि सभी होते हैं, जिन्हें एक शब्द में गरीब कहा जा सकता है और ‘गरीब’ एक वर्गीय अवधारणा है। लेकिन पिछले ढाई दशकों में समाज को वर्गीय दृष्टि से देखा जाना कम हुआ है और उसे जाति, लिंग, समुदाय, संप्रदाय आदि के आधार पर ज्यादा देखा गया है। इसलिए किसान और मजदूर हिंदी कहानी से गायब-से हो गये हैं। कहानी को आम आदमी के मन से जोड़ने वाली सीधी-सच्ची जनभाषा के निकट की भाषा अपनाने के बजाय अखबारी या अनुवाद की-सी भाषा में कहानी लिखी जा रही है। साहित्यिक आंदोलनों की जगह जो अस्मिता विमर्श चले, उनसे कहानी लेखन एक प्रकार के चालू अनुभववादी लेखन में बदल गया है, जिससे यथार्थवादी रचना और आलोचना की बहुत हानि हुई है। कुल मिलाकर आज की कहानी का परिदृश्य काफी निराशाजनक है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<span style="color: red;"><b>शंकर :</b></span> लेकिन अच्छी कहानियाँ भी लिखी जा रही हैं। आपने स्वयं ‘नया ज्ञानोदय’ के अपने स्तंभ ‘लगे हाथ’ में आज की कई अच्छी कहानियों की चर्चा की है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<span style="color: red;"><b>रमेश उपाध्याय :</b></span> अच्छी-बुरी दोनों तरह की कहानियाँ हर दौर में लिखी जाती हैं। लेकिन अच्छी कहानियाँ अपना प्रभाव तभी छोड़ पाती हैं, जब कहानी-समीक्षा अपना काम सही ढंग से कर रही हो या कहानीकार स्वयं अच्छी कहानियों के पक्ष में एक वातावरण बना पा रहे हों। आज ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। इसलिए खराब कहानियाँ खोटे सिक्कों की तरह अच्छी कहानियों के खरे सिक्कों को चलन से बाहर कर देती हैं। आज की कहानी का परिदृश्य तो यही है, लेकिन आगे की कहानी अब भी एक संभावना है, क्योंकि स्थानीय और भूमंडलीय यथार्थ स्वयं को बुनियादी तौर पर बदले जाने की माँग कर रहा है और हिंदी कहानी ने भूमंडलीय यथार्थवाद की दिशा में आगे बढ़ना शुरू कर दिया है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<b><span style="color: red;">शंकर :</span></b> आप भूमंडलीय यथार्थवाद पर इतना जोर क्यों देते हैं? </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<span style="color: red;"><b>रमेश उपाध्याय :</b></span> मुझे लगता है, जीवन के हर क्षेत्र में आज एक निराशा-सी छायी हुई है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि आशा लोगों में तब जागती है, जब कोई दल, संगठन, नेतृत्व या आंदोलन अपने सही होने का विश्वास दिलाता है, अपने सफल होने की उम्मीद जगाता है, बेहतर भविष्य का सपना दिखाता है और लोगों को यह अहसास कराता है कि वे मिल-जुलकर अपने सपने को साकार कर सकते हैं। आज ऐसा कुछ भी होता नजर नहीं आता। लोग वर्तमान व्यवस्था का कोई बेहतर विकल्प चाहते हैं, लेकिन वे विकल्प खोजते हैं केवल स्थानीय स्तर पर। जैसे चुनावों के जरिये एक दल को सत्ता से हटाकर दूसरे दल को सत्ता सौंप देना। लेकिन यह कोई विकल्प नहीं होता। इससे सरकार तो बदल सकती है, व्यवस्था नहीं बदल सकती। तब नयी सरकार से भी लोगों का मोहभंग होता है और उन्हें लगता है कि कुछ भी कर लो, कुछ नहीं होता; क्योंकि व्यवस्था नहीं बदलती। लेकिन व्यवस्था बदले कैसे? वे उसे स्थानीय स्तर पर बदलना चाहते हैं, जबकि वह भूमंडलीय हो चुकी है। भूमंडलीय व्यवस्था को बदलने का काम स्थानीय स्तर पर नहीं, भूमंडलीय स्तर पर ही किया जा सकता है। इसलिए मैं भूमंडलीय यथार्थवाद पर जोर देता हूँ। और मैं चाहता हूँ कि इस बात को साहित्यकार तो समझें ही, मुक्तिकामी दल और संगठन भी समझें। </div>
<div style="text-align: justify;">
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<span style="color: red;"><b>शंकर :</b></span> हिंदी में प्रेमचंद के ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ को यथार्थवाद से कुछ कमतर मानने की प्रवृत्ति रही है, लेकिन आपने उसे सही यथार्थवाद माना है। इसे कुछ स्पष्ट करेंगे? </div>
<div style="text-align: justify;">
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<span style="color: red;"><b>रमेश उपाध्याय :</b></span> (हँसकर) इसे स्पष्ट करने का काम मैं कई वर्षों से विभिन्न रूपों में करता आ रहा हूँ। यहाँ संक्षेप में इतना ही कहना काफी होगा कि हिंदी में यथार्थवाद को लेकर काफी भ्रम रहे हैं और आज भी व्यापक स्तर पर फैले हुए हैं। कई लोगों को तो मालूम ही नहीं है कि यथार्थवाद हिंदी में कब आया और कैसे आया। उन्हें बताना पड़ता है कि हिंदी में यथार्थवाद ‘नेचुरलिज्म’ (प्रकृतवाद) के रूप में आया था, जिसमें जीवन को रचना में जस का तस चित्रित करने की कोशिश की जाती थी। उसमें प्रायः समाज की गंदगी, अपराध, व्यभिचार आदि के चित्र होते थे, इसलिए उसे पसंद नहीं किया जाता था और ‘नग्न यथार्थवाद’ कहा जाता था। लेकिन पश्चिम से यथार्थवाद का एक और रूप आया था, जिसमें समाज की आलोचना की जाती थी और जिसे ‘क्रिटिकल रियलिज्म’ (आलोचनात्मक यथार्थवाद) कहा जाता था। प्रेमचंद ने प्रकृतवाद या नग्न यथार्थवाद की जगह आलोचनात्मक यथार्थवाद को अपनाया और उसे आदर्शोन्मुख यथार्थवाद का नाम दिया। लेकिन हिंदी साहित्य में यथार्थवाद संबंधी भ्रमों में से एक बड़ा भ्रम यह भी रहा है कि यथार्थ और कल्पना, यथार्थ और स्वप्न, यथार्थ और आदर्श परस्पर-विरोधी हैं; यथार्थवादी साहित्य में कल्पना, स्वप्न और आदर्श के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए; लेखन में इनके होने से यथार्थवाद यथार्थवाद नहीं रहता; इत्यादि। इसी तर्क से प्रेमचंद के अधिकांश लेखन को आदर्शवादी कहकर खारिज किया गया और उनकी कुछ अंतिम रचनाओं को ही यथार्थवादी माना गया। मेरा कहना यह है कि यथार्थवादी साहित्य कल्पना, स्वप्न और आदर्श के बिना रचा ही नहीं जा सकता। प्रेमचंद बाद की कुछ रचनाओं के कारण नहीं, बल्कि अपने संपूर्ण लेखन के कारण महान हैं, जो आदर्शोन्मुख यथार्थवादी लेखन है। </div>
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<span style="color: red;"><b>शंकर :</b></span> हिंदी में ‘यूटोपिया’ को भी यथार्थवाद के विलोम जैसा कुछ माना जाता रहा है। मगर आपके अनुसार पूँजीवाद और समाजवाद हमारे समय के दो बड़े यूटोपिया हैं और इनके इर्द-गिर्द गांधीवाद, अंबेडकरवाद, नारीवाद, पर्यावरणवाद, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जैसे कई यूटोपिया हैं। समाज की पुनर्रचना के संदर्भ में साहित्यिक रचना और आलोचना में इन यूटोपियाओं की क्या भूमिका हो सकती है? </div>
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<span style="color: red;"><b>रमेश उपाध्याय :</b></span> मुझे लगता है कि हर लेखक का कोई न कोई यूटोपिया होता है, जिसके अनुसार वह अपने दृष्टिकोण से भविष्य के एक आदर्श समाज की कल्पना करता है कि वह कैसा समाज होना चाहिए। जैसे तुलसीदास रामराज्य की कल्पना करते हैं। या गांधीजी हिंद स्वराज की कल्पना करते हैं। हर लेखक अपने यूटोपिया के अनुसार दुनिया को बदलने और भविष्य का निर्माण करने की कोशिश करता है। देखने की बात यह है कि यह कोशिश वस्तुपरक दृष्टि से कितनी नैतिक और कितनी ऐतिहासिक है। बहुत-से लोग, जिनमें से कुछ स्वयं को क्रांतिकारी भी मानते हैं, इतिहास और नैतिकता में कोई संबंध नहीं देखते। इसीलिए वे नैतिक आदर्श और ऐतिहासिक जरूरत के बीच कोई सार्थक तालमेल बिठाने में असफल होते हैं। ‘‘पे्रम और युद्ध में सब चलता है’’ की तर्ज पर ‘‘राजनीति में सब चलता है’’ वाली अनैतिकता के साथ भविष्य का निर्माण करने की ऐतिहासिक जरूरत कम से कम साहित्य में तो कभी पूरी नहीं की जा सकती, क्योंकि साहित्य अंततः एक व्यक्तिगत कर्म है और उसमें निजी पहल का बड़ा महत्त्व है। यह निजी पहल किसी नैतिक आदर्श के बिना संभव नहीं है। मगर देखना यह चाहिए कि नैतिक आदर्श का ऐतिहासिक जरूरत से क्या, कितना और कैसा संबंध है। साहित्य के सौंदर्यशास्त्र में अभी इस दृष्टि से बहुत कम काम हुआ है, लेकिन इन दोनों के संबंध पर गहराई से विचार किया जाये, तो पता चलेगा कि यह संबंध रचना के साहित्यिक मूल्य और ऐतिहासिक महत्त्व को समझने में बहुत सहायक हो सकता है। </div>
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<span style="color: red;"><b>शंकर :</b></span> भारतीय समाज के संदर्भ में कौन-सा यूटोपिया ज्यादा कारगर होगा? </div>
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<span style="color: red;"><b>रमेश उपाध्याय :</b></span> मैं तो समाजवादी यूटोपिया को ही अपने देश और सारी दुनिया के लिए कारगर मानता हूँ। भूमंडलीय पूँजीवाद की जगह भूमंडलीय समाजवाद मेरा यूटोपिया है। भले ही जब उसकी स्थापना हो, तब उसका नाम समाजवाद की जगह कुछ और ही हो। </div>
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<span style="color: red;"><b>शंकर :</b></span> आपने ‘जनवादी कहानी: पृष्ठभूमि से पुनर्विचार तक’ पुस्तक लिखी है, जिसे डाॅ. नामवर सिंह ने ‘‘साहित्य का एक जीवंत इतिहास’’ कहा है। जनवादी कहानी प्रेमचंद की परंपरा की प्रगतिशील कहानी या यथार्थवादी कहानी जैसी ही कहानी है या कुछ भिन्न किस्म की कहानी है? यदि भिन्न है, तो किस रूप में? </div>
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<span style="color: red;"><b>रमेश उपाध्याय :</b></span> जनवादी कहानी प्रेमचंद की परंपरा की प्रगतिशील और यथार्थवादी कहानी का ही अगला विकास है। उस विकास को चिह्नित करने के लिए ही उसे यह नाम दिया गया है। लेकिन कई लोग इस विकास को सामाजिक और साहित्यिक संदर्भों में समझने के बजाय दलगत राजनीति के संदर्भ में समझने की गलती करते हैं। जैसे, वे प्रगतिशील कहानी को प्रगतिशील लेखक संघ तथा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े लेखकों की कहानी मानते हैं और जनवादी कहानी को जनवादी लेखक संघ तथा माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े लेखकों की कहानी। यह निहायत गलत समझ है। प्रगतिशील कहानी प्रगतिशील लेखक संघ के बनने के पहले से लिखी जा रही थी, जिसके सबसे बड़े उदाहरण स्वयं प्रेमचंद हैं। इसी तरह जनवादी कहानी जनवादी लेखक संघ के बनने के पहले से लिखी जा रही थी। जनवादी लेखक संघ की स्थापना 1982 में हुई, जबकि दिल्ली में जनवादी लेखक मंच की स्थापना उसके एक दशक पहले 1973 में हो चुकी थी और उस मंच से पढ़ी गयी जनवादी कहानियाँ चर्चित हो चुकी थीं। 1976 में मेरा तीसरा कहानी संग्रह ‘नदी के साथ’ आया था, जिसे जनवादी कहानियों का पहला संग्रह कहा गया था। और 1978 में दिल्ली के ही जनवादी विचार मंच द्वारा एक बड़े लेखक सम्मेलन में ‘जनवादी साहित्य के दस वर्ष’ विषय पर कई सत्रों में विचार किया गया था और उनमें पढ़े गये परचों को इसी नाम से पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया था। इस प्रकार जनवादी लेखक संघ बनने के बहुत पहले जनवादी कहानी अस्तित्व में आ चुकी थी। जहाँ तक प्रगतिशील कहानी और जनवादी कहानी के भिन्न होने का प्रश्न है, उसमें ज्यादा भिन्नता नहीं है, सिवाय इसके कि दोनों में यथार्थ के विश्लेषण की भिन्नता के कारण यथार्थवाद की समझ कुछ भिन्न हो सकती है। </div>
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<span style="color: red;"><b>शंकर :</b></span> आपका बहुत महत्त्वपूर्ण उपन्यास ‘हरे फूल की खुशबू’ दो जीवन-दृष्टियों, दो तरह के मूल्यों और दो तरह के उद्देश्यों के बीच के अंतर्विरोधों को कलाकार रमणीक लाल और उसकी कलाकार पत्नी अलका के माध्यम से सामने लाता है। लेकिन सूक्ष्म संवेदनाओं वाला यथार्थवादी उपन्यास होते हुए भी इसमें किसी प्रकार की आदर्शोन्मुखता नजर नहीं आती। आरंभ में रमणीक लाल एक सकारात्मक पात्र लगता है, किंतु बाद में वह बिलकुल नकारात्मक हो जाता है। इस पर आपको क्या कहना है? यह भी बतायें कि इस उपन्यास के लिखे जाने की प्रेरणा या पृष्ठभूमि क्या है? </div>
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<span style="color: red;"><b>रमेश उपाध्याय :</b></span> ‘हरे फूल की खुशबू’ की पृष्ठभूमि यह है कि मैं सातवें दशक में दिल्ली में कुछ समय बेरोजगार रहा था। उन दिनों मैं फ्रीलांसिंग करता था और पत्र-पत्रिकाओं, आकाशवाणी और दूरदर्शन के लिए तरह-तरह के काम किया करता था। उन कामों में से एक था दिल्ली में होने वाली कला-प्रदर्शनियों की समीक्षाएँ लिखना और कलाकारों के इंटरव्यू लेना। इसके चलते मैंने देशी-विदेशी चित्रकला के बारे में खूब पढ़ा और दिल्ली के कला-जगत तथा कलाकारों के जीवन को निकट से देखा। उसी समय के अनुभवों को मैंने 1990 में उपन्यास के रूप में लिखा। लेकिन इसके पात्र रमणीक लाल और अलका कोई वास्तविक व्यक्ति नहीं, बल्कि उस समय के दिल्ली के कला-जगत के दो प्रातिनिधिक चरित्र हैं, जिनकी रचना अनेक वास्तविक व्यक्तियों की चारित्रिक विशेषताओं को मिलाकर की गयी है। मैंने इस उपन्यास में दिखाया है कि कला के क्षेत्र में एक ओर संगठित व्यावसायिकता है, तो दूसरी ओर व्यक्तिगत अराजकता। दोनों के बीच एक सतही किस्म का द्वंद्व या संघर्ष दिखायी पड़ता है, जो बाद में समझौते में बदल जाता है और अराजक व्यक्तिवादी कलाकार अंततः संगठित व्यावसायिकता को समर्पित हो जाता है। </div>
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<span style="color: red;"><b>शंकर :</b></span> रमणीक लाल की निस्संदेह बहुत सारी दुविधाएँ हैं, किंतु इस उपन्यास के अंत को मैं इस तरह नहीं देख पा रहा हूँ। समझौता और समर्पण उस स्थिति को कहा जायेगा, जब कोई सुचिंतित रूप से ऐसा करे। यहाँ रमणीक लाल दुविधा में है और उपन्यास के अंतिम प्रसंग में वह बेमन से एक अदृश्य आक्रोश के साथ कैनवस पर रंग फेंकता है, जिससे अनायास एक पेंटिंग बन जाती है और व्यावसायिकता के तंत्र को यह पेंटिंग बहुत काम की लगती है, क्योंकि रमणीक लाल एक जाना-माना नाम है और कला का व्यवसाय-तंत्र ऐसे नामों की तलाश में रहता है, ताकि वह उन्हें इस्तेमाल कर सके। इस प्रकार यह उपन्यास वास्तव में रमणीक के चरित्र के एक्सपोजर का नहीं, व्यावसायिकता के चरित्र के एक्सपोजर का उपन्यास है। मेरे विचार से यही इस उपन्यास की सही व्याख्या है। क्या इस उपन्यास को इस तरह नहीं समझा जाना चाहिए? </div>
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<span style="color: red;"><b>रमेश उपाध्याय :</b></span> शंकर जी, आपने उपन्यास को बिलकुल सही समझा है। उसमें मेरी कोशिश कला के व्यावसायिक तंत्र के वास्तविक चरित्र को सामने लाने की ही रही है और रमणीक लाल के माध्यम से उसे ही सामने लाया गया है। मगर मैं यह भी दिखाना चाहता था कि कला जगत में एक तरफ संगठित व्यावसायिकता है, जिसका एक पूरा तंत्र देश से विदेशों तक फैला हुआ है, तो दूसरी तरफ है एक अद्वितीय प्रतिभाशाली कलाकार की व्यक्तिगत अराजकता। रमणीक लाल पूरी ‘ईमानदारी’ के साथ ‘विद्रोही’ हो सकता है और व्यावसायिकता के विरुद्ध उसमें सच्चा ‘आक्रोश’ हो सकता है। लेकिन कला को जन-जन तक पहुँचाने की अपनी सदिच्छा पूरी करने के लिए वह कुछ करता नहीं है। उसके लिए किसी वैकल्पिक व्यवस्था के बारे में सोचने और उसके लिए कुछ करने के बजाय अंततः ‘बेमन से’ ही सही, वह उसी व्यवस्था को समर्पित हो जाता है। </div>
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<span style="color: red;"><b>शंकर :</b></span> आपके उपन्यास ‘स्वप्नजीवी’ का मुख्य पात्र शिवेंद्र सान्याल भी लगभग रमणीक लाल जैसा ही एक विद्रोही चरित्र है, जो सिनेमा की दुनिया में दूसरों से भिन्न अपना कुछ नया करना चाहता है और नहीं कर पाता। वह भी अत्यंत प्रतिभाशाली है और व्यावसायिक सिनेमा की दुनिया से समझौता न कर पाने के कारण अंततः पागलपन की-सी स्थिति में पहुँच जाता है। लेकिन स्वप्नजीवी की चर्चा मैं उसे लेकर नहीं, बल्कि इसलिए कर रहा हूँ कि आपके लेखन में स्वप्नों का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। ‘स्वप्नजीवी’ उपन्यास के अलावा आपकी स्वप्न-संबंधी कहानियाँ हैं ‘स्वप्न-कथा’, ‘आप जानते हैं’ और ‘मेरे दोस्त का सपना’; आपके स्वप्न-संबंधी निबंध हैं ‘हमारे समय के स्वप्न’ तथा ‘भविष्य-स्वप्न का लोप और उसकी पुनप्र्राप्ति’; और अंततः आपकी पुस्तक है ‘मुक्तिबोध का मुक्तिकामी स्वप्नद्रष्टा’। आप यथार्थवादी लेखक होकर भी अपने लेखन में स्वप्नों को इतना महत्त्व क्यों देते हैं? </div>
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<span style="color: red;"><b>रमेश उपाध्याय :</b></span> पाश की वह कविता है न--‘‘सबसे खतरनाक होता है हमारे स्वप्नों का मर जाना।’’ मुझे लगता है कि हम ऐसे ही खतरनाक समय में जी रहे हैं। शायद इसीलिए साहिर लुधियानवी ने अपनी एक नज्म में कहा था--‘‘आओ कि आज गौर करें इस सवाल पर, देखे थे हमने जो वो हसीं ख्वाब क्या हुए? दौलत बढ़ी तो मुल्क में इफलास क्यों बढ़ा? खुशहालि-ए-अवाम के असबाब क्या हुए?’’ मेरे उपन्यास ‘स्वप्नजीवी’ का शिवेंद्र सान्याल अपने साथ के लोगों से व्यंग्यपूर्वक कहता है--‘‘मुझे लगता है कि तुम सबके सपनों की आधारशिलाएँ रखी जा चुकी हैं और मैं अभी तक प्लाॅट ही ढूँढ़ रहा हूँ।’’ मुझे लगता है, आज बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है, जो ठेठ वर्तमान में जीते हैं और भविष्य का कोई स्वप्न उनके पास नहीं है। मैं अपने समय के इस यथार्थ को देखता हूँ और दहशत से भर जाता हूँ, क्योंकि मैं अतीत और वर्तमान के साथ-साथ भविष्य के बारे में भी सोचता हूँ। स्वप्न का संबंध भविष्य से होता है। शायद इसीलिए मैं अपने लेखन में बार-बार स्वप्नों की बात करता हूँ। जहाँ तक स्वप्न और यथार्थ का संबंध है, मेरा मानना है कि एक बेहतर भविष्य का स्वप्न देखने वाला ही यथार्थवादी हो सकता है। मुक्तिबोध महान स्वप्नद्रष्टा हैं, इसी कारण वे महान यथार्थवादी हैं। साहित्य और कला की दुनिया में व्याप्त व्यावसायिकता के विरुद्ध यथार्थवादी लेखक-कलाकार ही लड़ सकते हैं, भले ही वे उस लड़ाई में हार जायें और दूसरों की नजरों में सिरफिरे या पागल होकर ही रह जायें। </div>
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<span style="color: red;"><b>शंकर :</b></span> हल्की-फुल्की मनोरंजन प्रधान सामग्रियों से ज्यादा से ज्यादा पाठक हासिल करके व्यवसाय करने वाली पत्रिकाओं की काट में साहित्यिक लघु पत्रिकाएँ सामने आयी थीं। आप एक उत्कृष्ट संपादक रहे हैं और आपने ‘कथन’ जैसी स्तरीय विचार-प्रधान साहित्यिक पत्रिका का संपादन किया है। आपने एक लेख में साहित्यिक लघु पत्रिकाओं को भी दो रूपों में देखा है--एक सिर्फ लेखकों के लिए निकलने वाली साहित्यिक लघु पत्रिकाएँ और दूसरी लेखकों के साथ-साथ पाठकों के लिए भी निकलने वाली साहित्यिक लघु पत्रिकाएँ। साहित्यिक लघु पत्रिकाओं के इन दोनों रूपों को कुछ और स्पष्ट करें। </div>
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<span style="color: red;"><b>रमेश उपाध्याय :</b></span> शंकर जी, आप स्वयं एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक लघु पत्रिका ‘परिकथा’ के कुशल संपादक हैं। आपने लघु पत्रिकाओं के विभिन्न रूप देखे हैं और उनके बीच अपनी पत्रिका की एक अलग पहचान बनायी है, जो एक जनोन्मुख साहित्यिक पत्रिका की पहचान है। लेकिन हिंदी में निकलने वाली कुछ लघु पत्रिकाएँ ‘‘लेखकों की, लेखकों के द्वारा, लेखकों के लिए’’ निकलने वाली अभिजनोन्मुखी पत्रिकाएँ हैं। मैं यह मानता हूँ कि साहित्यिक लघु पत्रिका साधारण और विशिष्ट दोनों तरह के पाठकों के लिए होनी चाहिए। आप और मैं लघु पत्रिका आंदोलन में शामिल रहे हैं और उस राष्ट्रीय लघु पत्रिका समन्वय समिति में भी सक्रिय रहे हैं, जिसमें आज के बाजारवाद और मीडिया को ध्यान में रखते हुए लघु पत्रिकाओं की एक नयी भूमिका पर जोर दिया गया था। उसके अनुसार साहित्यिक लघु पत्रिकाओं को अव्यावसायिक रहते हुए भी व्यापक पाठक समुदाय तक पहुँचने का प्रयास करना चाहिए। </div>
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<span style="color: red;"><b>शंकर :</b></span> प्रगतिशीलता, जनवाद और समाजवाद में विश्वास न करने वाले उन लेखकों के लिए, जो किसी राजनीतिक दल या लेखक संगठन से न जुड़े होने पर भी पूँजीवाद, साम्राज्यवाद और संप्रदायवाद के विरुद्ध मानवीय मूल्यों के पक्षधर हो सकते हैं, वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध साहित्यिक पत्रिकाओं की जिम्मेदारी बनती है या नहीं? </div>
<div style="text-align: justify;">
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<span style="color: red;"><b>रमेश उपाध्याय :</b></span> क्यों नहीं? उन्हें ऐसे लेखकों को साथ लेकर चलना चाहिए। </div>
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<span style="color: red;"><b>शंकर :</b></span> रमेश जी, आपके चिंतन और लेखन में एक गहरा आशावाद मौजूद है। आपका यह लेखकीय विश्वास कि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी बहुत कुछ संभव है, बार-बार सामने आता है। आपने साहित्य को भूमंडलीय यथार्थवाद की जो नयी और महत्त्वपूर्ण अवधारणा दी है, उसका आधार भी आपका यह आशावाद है कि वैश्विक पूँजीवाद को वैश्विक समाजवाद में बदला जाना आवश्यक ही नहीं, बल्कि संभव भी है। यह बतायें कि आपके इस आशावाद का आधार क्या है? </div>
<div style="text-align: justify;">
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<span style="color: red;"><b>रमेश उपाध्याय :</b></span> (व्यंग्यपूर्वक मुस्कराते हुए) दुनिया के बदल सकने के बारे में आशावादी होना आजकल अच्छा नहीं माना जाता, बल्कि यथार्थ को न समझने की निशानी माना जाता है। शायद यह मान लिया गया है कि दुनिया जितनी बदलनी थी, बदल चुकी, अब और कभी नहीं बदलेगी। यानी अब हमेशा पूँजीवाद ही चलेगा। लेकिन दुनिया हमेशा बदलती रही है और छोटे-छोटे निराशाजनक बदलावों के बाद अचानक किसी बड़े गुणात्मक बदलाव के हो जाने पर बेहतर भी बनती रही है। यह इतिहास और विज्ञान दोनों का सच है और यह सच ही मुझे आशावादी बनाता है। किसी व्यवस्था के बने रहने के कुछ आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक आधार होते हैं। लेकिन उसका एक आधार नैतिक भी होता है। जब कोई व्यवस्था अपने बने रहने का नैतिक आधार खो देती है, तो वह ज्यादा देर टिकी नहीं रह सकती। आज के भूमंडलीय पूँजीवाद के पास स्वयं को टिकाये रखने के लिए दमन और ध्वंस की दानवीय शक्तियाँ तो हैं, पर मानवीय मूल्यों वाली कोई नैतिक शक्ति उसके पास नहीं रह गयी है। लेकिन ऐसी व्यवस्था ज्यादा देर चल नहीं सकती। देर-सबेर उसका बदलना और उसकी जगह एक बेहतर व्यवस्था का बनना अवश्यंभावी है। यही आज का भूमंडलीय यथार्थ है और इसी से उद्भूत भूमंडलीय यथार्थवाद मेरे आशावाद का आधार है। </div>
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<b><span style="color: red;">शंकर :</span></b> पाठक आपसे यह जानना चाहेंगे कि पूँजीवाद की वैश्विक व्यवस्था की जगह कोई बेहतर वैश्विक व्यवस्था किन आधारों पर, किन शक्तियों के द्वारा और किन तरीकों से बनायी जा सकती है। </div>
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<span style="color: red;"><b>रमेश उपाध्याय :</b></span> पूँजीवाद से बेहतर जो भी वैश्विक व्यवस्था बनेगी, मनुष्यों के द्वारा और मनुष्यता के आधार पर ही बनेगी। लेकिन यह भविष्यवाणी नहीं की जा सकती कि वह व्यवस्था कब और कैसे बनेगी। हम यह भी नहीं कह सकते कि भविष्य में बनने वाली उस व्यवस्था का नाम क्या होगा। फिलहाल हम भूमंडलीय पूँजीवाद की जगह लेने वाली व्यवस्था को भूमंडलीय समाजवाद ही कह सकते हैं। ऐसी व्यवस्था किसी भूमंडलीय क्रांति से ही बन सकती है। अब तक दुनिया में जो क्रांतियाँ हुई हैं, उनका आधार राष्ट्रीय रहा है--जैसे फ्रांस की क्रांति, रूस की क्रांति, चीन की क्रांति। माक्र्सवाद ने वैश्विक क्रांति का स्वप्न देखा और उसका आधार राष्ट्रीयता को नहीं, अंतरराष्ट्रीयता को बनाया। इसलिए समाजवाद का एक आधार अंतरराष्ट्रीयतावाद रहा। माक्र्स-एंगेल्स या लेनिन-माओ के समय तक दुनिया को बदलने की सोच राष्ट्रीयता से ऊपर उठकर अंतरराष्ट्रीयता तक ही पहुँची थी, इसलिए समाजवादी क्रांति राष्ट्रीय स्तर पर घटित होने वाली परिघटना होती थी, जिसे व्यापक बनाने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर क्रांति की बात सोची जाती थी। लेकिन अंतरराष्ट्रीयता में राष्ट्र तो निहित रहता ही है, जो एक पूँजीवादी अवधारणा है। राष्ट्र में अपने भीतर अधिनायकवादी वर्चस्व और अपने से बाहर साम्राज्यवादी प्रभुत्व कायम करने की प्रवृत्ति होती है। रूस और चीन की समाजवादी क्रांतियाँ राष्ट्रीय स्तर की क्रांतियाँ थीं और उनसे जो व्यवस्थाएँ बनीं, उनमें ये दोनों प्रवृत्तियाँ थीं, इसलिए वहाँ जो व्यवस्था बनी, वह वास्तव में समाजवादी व्यवस्था नहीं, बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था का ही एक भिन्न रूप थी। इसीलिए उसे पुनः पूँजीवाद में बदल जाने में ज्यादा देर नहीं लगी। लेकिन पूँजीवादी भूमंडलीकरण ने राष्ट्र की अवधारणा को हिला दिया है और वैश्विक क्रांति के लिए अंतरराष्ट्रीयता की जगह भूमंडलीयता के आधार पर वैश्विक पूँजीवाद की जगह वैश्विक समाजवाद की व्यवस्था को आवश्यक और संभव बना दिया है। मेरा खयाल है कि अब जो क्रांतियाँ होंगी, वे राष्ट्रीय स्तर से आगे बढ़कर वैश्विक या भूमंडलीय स्तर की होंगी। </div>
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<span style="color: red;"><b>शंकर :</b></span> अंतिम सवाल: आप इन दिनों क्या लिख रहे हैं और आगे क्या करना चाहते हैं? </div>
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<span style="color: red;"><b>रमेश उपाध्याय :</b></span> इन दिनों मेरे बच्चे मेरे इंटरव्यू के रूप में मेरा साहित्यिक सफरनामा तैयार कर रहे हैं। आजकल मैं उसी में व्यस्त हूँ। आगे ‘भूमंडलीयता और परिपूर्ण मनुष्यता’ नामक एक पुस्तक लिखने का विचार है। यह विचार मेरे मन में ‘मुक्तिबोध का मुक्तिकामी स्वप्नद्रष्टा’ पुस्तक लिखते समय आया था और धीरे-धीरे पक रहा है। </div>
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ramesh upadhyayhttp://www.blogger.com/profile/05054633574501788701noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1496071818736613491.post-80223441897298936812018-12-15T07:59:00.001-08:002018-12-15T08:01:15.467-08:00मौत से पहले आदमी <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="color: blue;">'वागर्थ' के दिसंबर, 2018 के अंक में हमारी कहानी 'मौत से पहले आदमी' प्रकाशित हुई है. पढ़ें और प्रतिक्रिया से अवगत करायें.-- रमेश उपाध्याय</span><br />
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चारों ओर एक मनहूस धुंध छायी हुई थी। साफ-साफ कुछ भी देख पाना मुश्किल था। उसे महसूस हुआ कि अब वह कुछ भी साफ-साफ नहीं देख पायेगा। ‘‘हो सकता है, ये मेरा वहम ही हो।’’ उसने सोचा। उसे लगा कि वह बेहोश है, या कम से कम इतना तो है ही कि नींद पूरी तरह नहीं खुली है। ‘‘नींद और बेहोशी में क्या कोई फर्क नहीं होता?’’ उसने स्वयं से पूछा। ‘‘क्या दोनों स्थितियों में धुंध ही दिखायी देती है?’’ उसने दिमाग पर जोर दिया। ‘‘लेकिन मैं सोया था या बेहोश हुआ था? सोया था तो कहाँ और बेहोश हुआ था तो क्यों? ये जगह कौन-सी है, जहाँ मैं पड़ा हूँ?’’<br />
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उसने हाथ-पैरों को तानकर उठने की कोशिश की, लेकिन उस कोशिश में उसका अंग-अंग दर्द से कराह उठा। ‘‘यह दर्द?’’ उसकी आँखें मुँद गयीं और उस मनहूस धुंध की जगह कुछ लाल-काले धब्बे उभर आये। रेशमी-से वे लाल-काले धब्बे आँखों में थोड़ी देर फैलते-सिकुड़ते रहे और फिर न जाने किस रास्ते से कहीं बह गये। उसे लगा, वह अवसन्न होता जा रहा है। ‘‘अचेत होते जाने की अनुभूति स्वयं की जा सकती है क्या!’’ उसने फिर सोचा और स्वयं से पूछा, ‘‘मैं अचेत क्यों हो रहा हूँ?’’<br />
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‘‘सपना है। डरावना सपना। कभी-कभी ऐसा हो जाता है। अभी ये सपना टूट जायेगा। आँखें खुल जायेंगी और सब ठीक हो जायेगा। सारी असंभाव्यता की जगह वास्तविकताएँ लौट आयेंगी और मैं स्वयं को बिस्तर पर पड़ा हुआ मिलूँगा। जागता हुआ। सना पास ही सोयी हुई होगी। उसे जगा लूँगा और कहूँगा--उठकर मुझे एक गिलास पानी पिला दो। पानी पीने के बाद नींद ठीक से आ जायेगी।’’ इस राहत तक पहुँचकर भी वह सही-सही निश्चय नहीं कर पाया कि वह नींद में है या बेहोशी में, सोया हुआ है या जाग रहा है। ‘‘मेरे हाथ कहाँ हैं? सीने पर तो नहीं रखे हुए हैं? सना कहा करती है कि सीने पर हाथ रखा रह जाये, तो डरावने सपने आते हैं। सना सच कहती है। मैं कई बार के अनुभव से उसकी बात की सच्चाई को परख चुका हूँ...लेकिन जब मैं ये जान रहा हूँ कि ये सपना है तो ये सपना कैसे हो सकता है? कहीं, कुछ गड़बड़ है, सना...’’<br />
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उसने देखा, वह एक पहाड़ी पर चढ़ रहा है। पहाड़ी पर हर तरफ अनगढ़ और नुकीले पत्थर हैं और कँटीली झाड़ियाँ हैं, जिनमें उसके पायजामे के पाँयचों का खुलापन उलझ रहा है। हालाँकि पास ही एक साफ-सुथरा सीमेंट का बना रास्ता है, जिस पर आराम से चला जा सकता है, लेकिन रास्ते के किनारे एक तख्ती लगी हुई है, जिस पर लिखा है--केवल नीचे जाने के लिए। यह पढ़कर उसे बुरा लगा है। उसे अपने दफ्तर की लिफ्ट याद आ गयी है, जिसके बारे में न जाने किस अहमक ने ये नियम बना दिया था कि लिफ्ट सिर्फ ऊपर जाने के लिए है, उतरने के लिए सीढ़ियों का प्रयोग कीजिए। इस नियम पर उसे बहुत क्रोध आया करता है, क्योंकि जब वह जल्दी में सीढ़ियों से उतरा करता है, उसे हमेशा आशंका बनी रहती है कि वह किसी दिन यों ही उतरते हुए गिर पड़ेगा और सीढ़ियों पर गोल-गोल लुढ़कता हुआ नीचे जा पड़ेगा--औंधे मुँह। और नीचे पहुँचने तक उसके प्राण निकल चुके होंगे।<br />
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लेकिन यहाँ तो उलटा नियम है--चढ़ने के लिए यह ऊबड़-खाबड़ कँटीली-पथरीली पहाड़ी और उतरने के लिए यह सीधा-सपाट सीमेंटी रास्ता। फिर भी वह मन में बड़ी कोफ्त महसूस करते हुए पहाड़ी पर चढ़ता रहा। ‘‘जगह यह जरूर जानी-पहचानी है।’’ उसने सोचा, ‘‘नींद खुलने पर मैं सोचकर इस जगह का नाम बता सकता हूँ, लेकिन अभी उसकी जरूरत नहीं है। अभी तो यह देखूँ कि इस पहाड़ी पर बनी उस इमारत के भीतर क्या है।’’<br />
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उसे आश्चर्य हुआ कि अगले ही क्षण वह उस इमारत के अंदर था और उसे महसूस हुआ कि अंदर का मौसम बदला हुआ है। गर्म और चमकीली धूप से भरा हुआ, और सामने एक ऊँची-लंबी दीवार के सिवा कुछ भी नहीं है। दीवार सपाट है और उसमें ऊपर की ओर एक--सिर्फ एक--अंधी खिड़की है, जिसमें कोई रोशनी, कोई चेहरा नहीं है। ‘‘क्या दीवार के उस पार रात हो गयी है?’’ उसने स्वयं से सवाल किया, लेकिन जवाब नहीं दे पाया। उसी समय उस अंधी खिड़की से एक झंडे की शक्ल में कोई चीज बाहर निकली और झूल गयी। झंडा ही था। लाल और उस पर एक स्वस्तिक का चिह्न। ‘‘ये हिटलर का झंडा है क्या? तो क्या मैं नात्सी जर्मनी में हूँ?’’ उसने स्वप्न की असंभाव्यता पर जोर से हँसना चाहा, लेकिन तभी वह अजीब-से खौफ से जकड़-सा गया और उसे लगा, किसी ने उसे उठाकर ‘केवल नीचे जाने के लिए’ वाले रास्ते पर लुढ़का दिया है और वह लुढ़कता जा रहा है। लहूलुहान होता जा रहा है...थोड़ी देर और...और वह नीचे जा पड़ेगा...औंधे मुँह...और नीचे पहुँचने पर उसके प्राण निकल चुके होंगे...<br />
<br />
हड़बड़ाकर उसने आँखें खोल दीं। फिर वही मनहूस धुंध दिखायी दी, लेकिन अपने घर की परिचित दीवारें नहीं। एक ओर कुछ पीलापन-सा दिखायी दिया। गौर से देखा, तो कुछ सरसों के फूल बिखरे दिखायी दिये। हरियाली और पीलापन। ‘‘हरे पत्ते और पीले फूल? ये मैं कहाँ आ गया हूँ? सना कहाँ है? सना...।’’ उसने फिर उठने की कोशिश की, लेकिन फिर उसके अंग भयंकर पीड़ा से कराह उठे। उसे लगा कि दर्द मोटी-मोटी रस्सियों की शक्ल में उसके सारे जिस्म पर बँधा हुआ है। हाथों को शायद लकवा मार गया है कि वे हिल भी नहीं सकते। वह सिर भी नहीं उठा सकता। ऐसा हो सकता, तो वह उचककर कम से कम अपनी हालत तो देख सकता। ‘‘यह क्या हो गया है मुझे?’’ उसने अंदर ही अंदर चीखकर पूछा और अपनी बेबसी पर एक वहशी पागलपन से भर उठा कि उसका वश चले, तो स्वयं को मार-मारकर अधमरा कर दे।<br />
<br />
‘‘मार-मारकर अधमरा...?’’ उसे कुछ याद आया? मुँदती आँखों में बंद फैलते-सिकुड़ते लाल-काले रेशमी धब्बों की शक्ल में हल्का-सा कुछ याद आया, लेकिन कुछ भी साफ नहीं हो सका। ‘‘मारेगा कोई क्यों मुझे? मैंने किसी का क्या बिगाड़ा है? बचपन से अब तक कोई अपराध नहीं किया। किसी को छेड़ा-सताया नहीं। पढ़ता था तब भी, और पढ़ाई के बाद अब इतने वर्षों से नौकरी कर रहा हूँ, सो अब भी पूरे अनुशासन में रहता हूँ। किसी से कोई कड़वी बात नहीं कहता। सबके साथ प्यार और आदर से पेश आता हूँ। यथासंभव सबकी सेवा और सहायता करता हूँ। उनकी भी, जो मुझसे बेवजह नफरत करते हैं। फिर कोई क्यों मारेगा मुझे? गलत है। बकवास है। सपना है। अभी नींद टूटने पर सब ठीक हो जायेगा। सना, तुम जरा उठकर मुझे झकझोर दो न! सुनो, तुम मुझे झिंझोड़कर जगा दो और एक गिलास पानी पिला दो...’’<br />
<br />
उसे लगा कि सना बहुत गहरी नींद में है। जाग नहीं सकती, जब तक कि उसे खूब झिंझोड़कर जगाया नहीं जाये। क्या मुसीबत है! इस स्वप्न को देखते चले जाने के सिवा कोई चारा नहीं है। लेकिन ये सरसों के पीले फूल यहाँ क्यों हैं?...नाइजर नदी के किनारे उसका गाँव था, उसका अपना घर था, जहाँ से पकड़कर उसे बेच दिया गया था और एक दिन अपने मालिक के खेत में काम करते-करते वह सो गया था और सपने में वह नीग्रो गुलाम नाइजर नदी के किनारे पहुँच गया था।...लेकिन मेरा घर तो सरसों के फूलों के पास नहीं था। मैं तो...मैं तो...हाँ, याद आया, मैं तो महात्मा गांधी लेन के आखिरी स्क्वायर में रहता हूँ...अपने फ्लैट की हर चीज को मैं अच्छी तरह पहचानता हूँ। फिर ये हरे पत्ते और पीले फूल? यह सब क्या है? मेरी नींद क्यों नहीं टूटती है? यह सपना कब तक चलेगा?’’<br />
<br />
अचानक उसे अपने दाहिने हाथ में, हाथ की उँगलियों में कुछ हरकत होती हुई-सी महसूस हुई। ‘‘क्या मेरी चेतना लौट रही है? हाँ। अभी सब कुछ स्पष्ट हो जायेगा। लेकिन मेरी उँगलियाँ ये क्या टटोल रही हैं? घास? लेकिन मेरे बिस्तर पर घास कहाँ से आ गयी? सना के बाल तो नहीं? सना के बालों की छुअन को तो मैं अच्छी तरह पहचानता हूँ। यह घास ही है--ताजा गीलापन, नुकीलापन--लेकिन मेरे न चाहते हुए भी मेरे हाथ की उँगलियाँ थोड़ी-सी घास तोड़कर आँखों के सामने क्यों ले आती हैं?’’<br />
<br />
दूर से आती हुई घूँ-घर्रर्रर्र की आवाज पास आकर दूर चली गयी। ‘‘शायद कोई ट्रक था!? तो क्या मैं किसी सड़क के किनारे...? ओफ्फ...!’’<br />
<br />
जैसे अँधेरे में भक्क से कोई बल्ब जल उठे, उसे याद आया कि वो फिल्म का नाइट शो देखकर सना के साथ घर लौट रहा था...अपनी कार में...पीछा करती एक जीप ने आगे आकर रास्ता रोक लिया था...वे कई थे। उनमें से कुछ उसे मार रहे थे...कुछ सना को उठाकर ले जा रहे थे...सना चीख रही थी, ‘‘छोड़ो मुझे, दरिंदो, छोड़ो मुझे!’’<br />
स्मृति का बल्ब फिर बुझ गया। उसे फिर महसूस हुआ कि वह अभी तक अपने दुःस्वप्न से उबर नहीं पाया है। वही मनहूस धुंध आँखों में फिर से घिर आयी। उसे फिर अपनी चेतना लुप्त होती हुई महसूस हुई। राहत-सी मिली। ‘‘नहीं, यह सच नहीं हो सकता। मैं स्वप्न में हूँ और उस बर्बर युग में पहुँच गया हूँ, जिसमें कभी भी किसी लुटेरे की फौज अँधेरे की तरह घिर आती थी, रक्तपात होता था, लूट मचती थी और भूखे फौजी परास्त देश की स्त्रिायों पर सामूहिक बलात्कार करते थे...<br />
<br />
उसे याद आया, उसने अपनी कार से उस जीप का पीछा किया था...फिर एक जगह उसने अपनी कार रोकी थी और सना को उन बदमाशों के चंगुल से छुड़ाने के लिए उतरा था और वे भी उतरे थे और वे उसे मारकर फेंक गये थे...सना चीख रही थी, ‘‘छोड़ो मुझे, उसके पास जाने दो...वह मर जायेगा...’’ वे उसकी कार भी ले गये थे।<br />
<br />
उसने पूरा जोर लगाकर उठने का प्रयत्न किया। चीखना भी चाहा। लेकिन शरीर का कोई भी हिस्सा उठ नहीं रहा था और गले में कोई गाढ़ी-सी तरल चीज भरी हुई थी, जिसे उगलना या निगलना संभव नहीं लग रहा था। उसकी साँस घुट रही थी। एक बार फिर उसने स्वयं को अचेत होते हुए महसूस किया। अब उसे अपने ऊपर आसमान में उड़ती हुई चील दिखायी दे रही थी। रोशनी, जो कुछ-कुछ साफ हो आयी थी, फिर बुझने लगी और आँखों में आतिशबाजी के गरम फूल खिलने लगे। ‘‘यह मुझे क्या हो गया है?’’ उसने दिमाग पर जोर देकर सोचने की कोशिश की। यह सपना तो हरगिज नहीं है। ‘‘फिर क्या है? फिर क्या है यह? कोई मुझे बताता क्यों नहीं है?’’<br />
उसने तड़पकर उठने की कोशिश की। उसे अपने लहूलुहान जिस्म की एक झलक दिखायी दी और उसके सारे जख्म एक साथ दहक उठे। उसे लगा कि उस पर मक्खियाँ भिनभिना रही हैं और किसी किस्म के कीड़े उसे जगह-जगह से कुतर रहे हैं...<br />
<br />
वह उलटा लेटकर अपना चेहरा घास में छिपा लेना चाहता था, लेकिन उलटते ही उसका मुँह खुल गया और आँखों के करीब कोई लाल चीज बिखर गयी। ‘‘खून है...मेरा खून...’’ उसने सोचा और अपने-आपको बेहद कमजोर महसूस करते हुए आँखें मूँद लीं।<br />
<br />
बंद आँखों के बड़े परदे पर सना के चेहरे का क्लोजअप उभर आया।<br />
<br />
--<br />
<br /></div>
ramesh upadhyayhttp://www.blogger.com/profile/05054633574501788701noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1496071818736613491.post-15773337651583387142018-02-01T07:18:00.000-08:002018-02-01T07:18:32.862-08:00साहित्यिक आंदोलन और लेखक संगठन<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;"><span style="background-color: white;">पिछले दिनों प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच तीनों ही लेखक संगठनों में एक उत्साहवर्धक सक्रियता दिखायी दी है. किन्हीं भी कारणों से, किन्ही भी उद्देश्यों से और
किन्हीं भी लोगों के प्रयासों से यह संभव हुआ हो, स्वागतयोग्य है. इस संदर्भ में 'परिकथा' पत्रिका के नए अंक (जनवरी-फरवरी, 2018) में प्रकाशित हमारा लेख 'साहित्यिक आंदोलन और लेखक संगठन' प्रस्तुत है.</span></span><span style="color: red;"><b>--रमेश उपाध्याय</b></span><br />
<br />
<br />
‘परिकथा’ के सितंबर-अक्टूबर, 2017 के अंक में शंकर ने अपने संपादकीय ‘लेखक संगठन और यह समय’ में बीसवीं सदी के अंतिम तीन दशकों और इक्कीसवीं सदी के पहले दो दशकों के हिंदी साहित्य की तुलना करते हुए कहा है कि तब के लेखन के एक बड़े हिस्से में जो गुण थे, वे अब के लेखन के एक बड़े हिस्से में या तो अनुपस्थित हैं या दुर्गुणों में बदल गये हैं। उनके अनुसार तब के लेखन में यथार्थवाद, लोकोन्मुखता और सामाजिक सरोकारों को सर्वोच्चता प्राप्त थी, अब के लेखन में या तो इनसे इनकार है या इनकी उपस्थिति बहुत धुँधली है। तब के लेखन में अंतर्वस्तु को प्रमुखता दी जाती थी, अब के लेखन में रूप को प्राथमिकता दी जाती है। तब के लेखन में निजी या वैयक्तिक किस्म के विषय कम होते थे, अब के लेखन में वे बहुतायत में पाये जाते हैं और महिमामंडित भी किये जाते हैं। तब के लेखन में आत्मालोचना दिखती थी, अब के लेखन में उसकी जगह गहरी आत्ममुग्धता दिखती है। तब की साहित्यिक आलोचना में जरूरी और उत्कृष्ट रचनाओं को महत्त्व दिया जाता था, अब की साहित्यिक आलोचना में गैर-जरूरी और घटिया रचनाओं को महत्त्वपूर्ण बताने की जिद भरी कोशिश की जाती है। तब के लेखन में अनुभवों की पुनर्रचना, सकारात्मक स्थितियों की परिकल्पना और बेहतर स्थितियों की कामना की जाती थी, अब के लेखन में विभ्रम, विफलता और विकल्पहीनता के ही आख्यान दिखायी देते हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
आज के हिंदी साहित्य में आयी इस गिरावट के कारणों को आज के समय में खोजते हुए शंकर ने आज के समय को बाजार, उच्चस्तरीय भोग-संस्कृति, विलासितापूर्ण परिवेश की चकाचैंध, किसानों की आत्महत्याओं, असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए रोजगार के अभाव तथा दलितों, स्त्रियों और अल्पसंख्यकों के लिए मुश्किलों और अनिश्चितताओं का समय बताया है, जिसके कारण साहित्य, कला और संस्कृति के क्षेत्र में अवांतर मूल्य सर्वोपरि बन गये हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
ऐसे समय की चुनौतियों का सामना करने की आशा और अपेक्षा शंकर विवेकवान और प्रबुद्ध सामाजिक इकाइयों के साथ-साथ लेखक संगठनों तथा उनके समानधर्मा संगठनों से करते हैं, जो उनके अनुसार इन्हीं प्रतिकूलताओं में आगे चलते रहेंगे, क्रियाशील बने रहेंगे और जो लोग जोखिमों के इस दौर में भी अपनी प्रतिबद्धता के अनुसार कुछ कर रहे हैं, उनके पीछे सुरक्षा-पंक्ति बनकर खड़े रहेंगे। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
‘‘विवेकवान और प्रबुद्ध सामाजिक इकाइयों’’ से उनका क्या आशय है, यह स्पष्ट नहीं है, लेकिन यह स्पष्ट है कि वे वाम-जनवादी लेखक संगठनों की बात कर रहे हैं और उनसे कुछ ज्यादा ही आशा और अपेक्षा कर रहे हैं। शायद उन्हें लगता है कि लेखक संगठन आज की प्रतिकूल परिस्थितियों में भी सक्रिय हैं, आगे बढ़ रहे हैं और प्रतिबद्ध लेखकों, लघु पत्रिकाओं के संपादकों और साहित्य को जनता तक पहुँचाने के कार्यों में लगे लोगों की सुरक्षा करने में समर्थ हैं। लेकिन उनका यह आकलन यथार्थ से बहुत दूर का लगता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
हिंदी साहित्य आंदोलनधर्मी रहा है। उसमें ‘छायावाद’ और ‘प्रगतिवाद’ से लेकर ‘नयी कविता’, ‘नयी कहानी’, ‘अकविता’, ‘अकहानी’, ‘सचेतन कहानी’, ‘समांतर कहानी’ आदि कई साहित्यिक आंदोलन चले हैं। इनमें से प्रगतिवादी आंदोलन को छोड़कर, जो साहित्यिक के साथ-साथ सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन भी था, सभी आंदोलन निरे साहित्यिक और प्रायः किसी एक साहित्यिक विधा के आंदोलन रहे हैं। आजादी से पहले चले प्रगतिवादी आंदोलन जैसा ही एक आंदोलन आजादी के बाद बीसवीं सदी के आठवें और नवें दशकों में चला, जिसे वाम-जनवादी आंदोलन कहा जाता है। इन दोनों की विशेषता यह रही कि इनका जोर ‘लिखने’ के साथ-साथ कुछ ‘करने’ पर भी रहा। मसलन, साहित्य को समाज से जोड़ने के लिए सभाएँ, सम्मेलन, नाटक, नुक्कड़ नाटक आदि करना, जलसों-जुलूसों में गाकर सुनाये जाने वाले जनगीत लिखना और उन्हें हजारों श्रोताओं के बीच गाकर सुनाना, व्यावसायिक रंगमंच के विरुद्ध जन-रंगमंच का विकास करना, व्यावसायिक पत्रिकाओं के विरुद्ध जन-चेतना जगाने वाले साहित्य की लघु पत्रिकाओं तथा पुस्तकों का प्रकाशन करना इत्यादि। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
पुराने प्रगतिवादी आंदोलन से प्रगतिशील लेखक संघ और ‘इप्टा’ (इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन) का जन्म हुआ था। नये वाम-जनवादी आंदोलन से जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच जैसे नये लेखक संगठन बने तथा जन नाट्य मंच और निशांत नाट्य मंच जैसी नयी नाटक मंडलियाँ अस्तित्व में आयीं। इस नये आंदोलन ने पुराने प्रगतिशील लेखक संघ में तो नये प्राण फूँके ही, लेखन के पुराने तौर-तरीके भी बदले, जिससे साहित्य में एक नवोन्मेष हुआ और पोस्टर कविता, किस्सागोई, जनगीत तथा नुक्कड़ नाटक जैसी नयी साहित्यिक विधाओं का जन्म हुआ। इस आंदोलन से साहित्यिक आलोचना भी अभूतपूर्व रूप से समृद्ध हुई। लेखकीय पक्षधरता, प्रतिबद्धता, साहित्य के समाजशास्त्र, सौंदर्यशास्त्र आदि पर जैसा व्यापक विचार-विमर्श इस आंदोलन के दौरान हुआ, वैसा उसके बाद आज तक नहीं हुआ। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
वाम-जनवादी आंदोलन में शामिल लेखकों ने अपने समय और समाज की जरूरतों के मुताबिक साहित्य में कुछ नया करने का प्रयास किया। उन्होंने नये के नाम पर पुराने सब कुछ को नकारने के बजाय पुरानी रूढ़ियों को त्यागकर उसकी जीवंत परंपरा को अपनाया और आगे बढ़ाया। उन्होंने जो आंदोलन चलाया, वह किसी नये दशक, नयी पीढ़ी या किसी नये साहित्यिक फैशन के आधार पर नया नहीं था। वह नये विचारों, नये सरोकारों और साहित्य में एक नवोन्मेष करने के कारण नया था। उसमें विभिन्न पीढ़ियों के, विभिन्न विधाओं के और विभिन्न प्रकार की लेखन शैलियों वाले लेखक एकजुट थे। उसमें प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच नामक तीनों लेखक संगठनों से जुड़े हुए तथा इन तीनों से स्वतंत्र भी ऐसे बहुत-से लेखक शामिल थे, जो वाम-जनवादी साहित्य में एक नवोन्मेष करना चाहते थे। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
आज लेखक संगठन तो हैं, पर कोई साहित्यिक आंदोलन नहीं है। और दिक्कत यह है कि आंदोलन से संगठन बनते हैं, संगठनों से कोई आंदोलन नहीं चलता। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
आज कोई साहित्यिक आंदोलन नहीं है, जबकि उसकी साहित्य को ही नहीं, समाज को भी सख्त जरूरत है। आज देश और दुनिया में प्रायः सर्वत्र यथार्थवाद, प्रगतिशीलता और जनवाद की विरोधी शक्तियाँ शासन कर रही हैं, जो वाम-जनवादी साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों पर ही नहीं, सच बोलकर यथार्थ को सामने लाने की आजादी तक पर प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रतिबंध लगा रही हैं। वे अज्ञान तथा अंधविश्वास फैलाने वाली अपनी विचारधाराओं तथा जन और जनतंत्र का दमन करने वाली अपनी तानाशाही नीतियों के चलते यथार्थवादी लेखकों-कलाकारों को आतंकित करने से लेकर उनकी हत्याएँ तक कराने से नहीं चूक रही हैं। आम लोगों के बीच फैले अज्ञान और अंधविश्वास को दूर करने तथा उन्हें बढ़ाने वाली राजनीति का विरोध करने वाले नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे, एम.एम. कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्याएँ इसके ताजा उदाहरण हैं। लेखकों को आतंकित और प्रताड़ित करके उन्हें साहित्यकार के रूप में जीते जी मार डालने के उदाहरण (जैसे पेरुमल मुरुगन) भी सामने आ रहे हैं। इन स्थितियों के चलते एक नये साहित्यिक आंदोलन की जरूरत स्वतः स्पष्ट है। <br />
और एक नये साहित्यिक आंदोलन की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता। हम देख सकते हैं कि आज की अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों में भी देश और दुनिया के जनगण सब कुछ सहते हुए चुपचाप नहीं बैठे हैं। सतही तौर पर सर्वत्र भय और आतंक का साम्राज्य नजर आता है, पर सतह के नीचे देखें, तो किसान, मजदूर, दलित, आदिवासी, स्त्रियाँ, छात्र, बेरोजगार युवा, लेखक, पत्रकार, कलाकार, रंगकर्मी, शिक्षक आदि अपने देश में और दुनिया के सभी देशों में तरह-तरह के आंदोलन चला रहे हैं। उन्हें आतंकित और गुमराह करके आंदोलन से विरत करने की तमाम कोशिशों और साजिशों के बावजूद उनके आंदोलनों की संख्या और आवृत्ति उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। पूँजीपतियों का खरीदा हुआ मीडिया चाहे उनके समाचार न देता हो, पर देश और दुनिया में आज ऐसे असंख्य आंदोलन चल रहे हैं। वे अभी अलग-अलग बहने वाली छोटी-छोटी धाराएँ हैं, जो भविष्य में मिलकर एक वेगवान और शक्तिशाली प्रवाह बन सकती हैं। इसी प्रकार साहित्य में यथार्थवादी, प्रगतिशील और जनवादी लेखन करने वाले लेखकों, उनके लेखन को सामने लाने वाली पत्रिकाओं के संपादकों तथा लेखक संगठनों के छोटे-छोटे प्रयास अलग-अलग जारी हैं। अनुकूल परिस्थिति पैदा होने पर ये प्रयास भी आपस में जुड़ सकते हैं और एक सशक्त साहित्यिक आंदोलन का रूप ले सकते हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
मैं वाम-जनवादी आंदोलन में शामिल रहने, लगभग दो दशकों तक जनवादी लेखक संघ की केंद्रीय कार्यकारिणी के सदस्य के रूप में सक्रिय रहने तथा वाम-जनवादी साहित्य की पत्रिका ‘कथन’ के संस्थापक संपादक के रूप में उसके साठ अंक संपादित करने के अपने अनुभव के आधार पर कुछ बातें आज के वाम-जनवादी लेखकों, लेखक संगठनों और लघु पत्रिकाओं के संपादकों के समक्ष विचार-विमर्श के लिए रखना चाहता हूँ, ताकि एक नया साहित्यिक आंदोलन शुरू करने के बारे में सोचा जा सके और वाम-जनवादी आंदोलन में रही कमजोरी से बचा जा सके। मेरे विचार से उसकी मुख्य कमजोरी थी: नवीनता, यथार्थवाद, पक्षधरता और प्रतिबद्धता की सही समझ का न होना या कम होना। <br />
<br />
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<span style="color: red;"><b>नवीनता</b></span> <br />
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मैंने 2000 में एक निबंध लिखा था ‘साहित्य में फैशन और नवोन्मेष’, जो मेरी पुस्तक ‘साहित्य और भूमंडलीय यथार्थ’ (2008) में संकलित है। उसमें मैंने लिखा था कि फैशन को अक्सर परिवर्तन और नयेपन के रूप में समझा जाता है, पर उसमें कोई वास्तविक परिवर्तन या नयापन नहीं होता। फैशन बहुत बड़े पैमाने पर किया जाने वाला अनुकरण होता है। साहित्य में भी फैशन चलते हैं। उदाहरण के लिए, बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के हिंदी साहित्य को देखें। एक समय आता है, जब बहुत-से लेखक सात्र्र, कामू, काफ्का आदि की चर्चा करते हुए ऊब, कुंठा, अकेलेपन, अजनबीपन आदि पर लिखने-बोलने लगते हैं। फिर एक समय आता है, जब बहुत-से लेखक माक्र्स, लेनिन, माओ आदि की चर्चा करते हुए वर्ग-संघर्ष, क्रांति, पक्षधरता, प्रतिबद्धता आदि पर लिखने-बोलने लगते हैं। इसी तरह फिर एक समय आता है, जब बहुत-से लेखक ल्योतार, फूको, दरीदा आदि की चर्चा करते हुए आख्यान, पाठ, अंत, विमर्श आदि पर लिखने-बोलने लगते हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
फैशनपरस्त लेखक अन्य लेखकों से भिन्न और विशिष्ट दिखने के लिए कोई नयी-सी विचारधारा तथा रचना-शैली अपनाकर स्वयं को नवीनतम सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। फैशनपरस्त आलोचक भी चूँकि भिन्नता, विशिटता और नवीनता को बहुत मूल्यवान मानते हैं, इसलिए फैशनपरस्त लेखकों का ऊँचा मूल्य आँकते हैं। इससे प्रभावित होकर बहुत-से लेखक फैशनपरस्त लेखकों की नकल करते हुए उनके जैसा लिखने की चेष्टा करने लगते हैं। यह न जानते हुए--या जानते हुए भी--कि फैशनपरस्त लेखक स्वयं किन्हीं और लेखकों की नकल कर रहे हैं। इस प्रकार नकल-दर-नकल का एक सिलसिला चल पड़ता है, जिसमें साहित्यिक फैशन तेजी से पुराना पड़ता जाता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
साहित्यिक फैशन और साहित्यिक आंदोलन में फर्क करना आवश्यक है। फैशनपरस्त लेखक हमेशा अद्वितीय होना चाहते हैं, अतः अन्य लेखकों के साथ एकजुट या संगठित होने में अपनी अद्वितीयता की हानि समझते हैं। इसी कारण वे स्वयं कोई आंदोलन चलाने या किसी आंदोलन में शामिल होने में विश्वास नहीं रखते। हाँ, ऐसा हो सकता है कि जब कोई आंदोलन अपने उत्कर्ष पर हो, तो वे उसे भी कोई नया फैशन मानकर उसके साथ चलते नजर आने लगें। मगर उत्कर्ष के समय वे जितनी तेजी के साथ उसमें आते हैं, अपकर्ष के समय उतनी ही तेजी के साथ उससे अलग भी हो जाते हैं। हिंदी के वाम-जनवादी आंदोलन में आने तथा उससे अलग हो जाने वाले लेखकों के उदाहरण से इस तथ्य को समझा जा सकता है। आंदोलन में आते समय ऐसे लेखक स्वयं को सबसे अधिक प्रगतिशील, सबसे अधिक जनवादी, सबसे अधिक क्रांतिकारी जताते हैं और उससे अलग होते समय उसकी निंदा करने या उसका मजाक उड़ाने में भी सबसे आगे दिखायी देते हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
हिंदी साहित्य में नवीनता को दशकों और पीढ़ियों से जोड़कर भी देखा जाता है और यह माना जाता है कि हर दशक के बाद लेखकों की जो ‘नयी’ या ‘युवा’ पीढ़ी आती है, वह साहित्य में नयापन लाती है। लेकिन यह बहुत ही गलत और भ्रामक मान्यता है। साहित्य में वास्तविक नयापन तब आता है, जब बहुत-से लेखक मिलकर रचना और आलोचना के पुराने तौर-तरीकों को बदलते समय की जरूरतों के मुताबिक बदलने का प्रयास करते हैं। उनका यह सामूहिक प्रयास ही साहित्यिक आंदोलन कहलाता है और इसी से साहित्य में एक नवोन्मेष होता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
वाम-जनवादी आंदोलन की शक्ति यही नवोन्मेष था, पर उसकी कमजोरी यह थी कि उसमें ऐसे भी बहुत-से लेखक शामिल थे, जो उसे एक नया साहित्यिक आंदोलन नहीं, बल्कि एक नया साहित्यिक फैशन मानकर चल रहे थे। इसीलिए बीसवीं सदी के अंतिम दशक में जब सोवियत संघ के विघटन और पूँजीवादी भूमंडलीकरण से वाम-जनवादी आंदोलन को एक जबर्दस्त धक्का लगा, तो उसमें शामिल फैशनपरस्त लोगों ने नये फैशन अपना लिये। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
वाम-जनवादी आंदोलन की कमजोरी यह रही कि उसने भूमंडलीय पूँजीवाद की विचारधारा उत्तर-आधुनिकतावाद के ‘पोस्ट-माकर््िसस्ट’ (माक्र्सवादोत्तर) और ‘पोस्ट-रियलिस्ट’ (यथार्थवादोत्तर) जैसे फैशनेबल नारों का सक्षम प्रतिकार नहीं किया और माक्र्सवाद तथा यथार्थवाद को दृढ़तापूर्वक अपनाये रखकर किसी नवोन्मेष के जरिये स्वयं को आगे नहीं बढ़ाया। उलटे, सोवियत संघ के विघटन को समाजवाद के अंत और पूँजीवादी भूमंडलीकरण को दुनिया की नयी नियति के रूप में स्वीकार कर लिया। इस प्रकार वह आंदोलन विघटित हो गया और हिंदी साहित्य में नयेपन को पुनः नये दशक और नयी पीढ़ी से जोड़कर या नये विमर्शवादी फैशन से जोड़कर देखा जाने लगा। अतः नये आंदोलन को नवीनता की सही समझ के साथ यह देखना होगा कि उसमें फैशन वाली नकली नवीनता नहीं, नवोन्मेष वाली असली नवीनता हो। <br />
<br />
<span style="color: red;"><b>यथार्थवाद</b></span> <br />
<br />
सोवियत संघ के विघटन और पूँजीवादी भूमंडलीकरण के बाद अत्यंत आवश्यक था कि वाम-जनवादी लेखक और उनके संगठन यथार्थवाद को नये संदर्भों में पुनः परिभाषित करते हुए पूँजीवाद के इस मिथ्या प्रचार का जोरदार खंडन करते कि सोवियत संघ के विघटन के साथ ही माक्र्सवाद अप्रासंगिक हो गया है, पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के बीच की लड़ाई में समाजवाद हार गया है और अब सारी दुनिया में और हमेशा पूँजीवाद ही चलेगा, क्योंकि उसका कोई विकल्प नहीं है। लेकिन वे न तो इस दुष्प्रचार का खंडन कर पाये और न ही नये पूँजीवाद का कोई नया विकल्प प्रस्तुत कर पाये। पूँजीवादी भूमंडलीकरण के बाद शीतयुद्ध के समय वाला पूँजीवाद बदल गया था। अतः उसका विकल्प रूसी या चीनी किस्म का समाजवाद नहीं, एक नया समाजवाद ही हो सकता था। नये पूँजीवाद और नये समाजवाद को स्पष्ट करने के लिए एक नये यथार्थवाद की जरूरत थी। मगर वाम-जनवादी लेखकों ने अपने बीच यथार्थवाद पर कोई बहस चलाना तक जरूरी नहीं समझा। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
हिंदी में उत्तर-आधुनिकतावाद के आने से पहले ही तरह-तरह के यथार्थवाद-विरोधी साहित्य-सिद्धांत प्रचारित किये जाने लगे थे, जिनमें सबसे सशक्त और प्रभावशाली साबित हुआ अनुभववाद, जो सतही तौर पर यथार्थवाद से मिलता-जुलता था, लेकिन वास्तव में उसका विरोधी था। अनुभववाद हिंदी में ‘नयी कहानी’ आंदोलन के दौरान ही बहुत-से लेखकों-आलोचकों ने अपना लिया था। उसके अनुसार लेखक के अनुभवों को (उसके ‘‘अपने जिये-भोगे यथार्थ’’ को) ही यथार्थ, बल्कि ‘‘प्रामाणिक यथार्थ’’, और उसकी अभिव्यक्ति को ही यथार्थवाद माना जाता था। उसके अनुसार वर्तमान में ‘जो है’, उसी का चित्रण करने वाले लेखकों को यथार्थवादी माना जाता था। ‘जो होना चाहिए’ की बात करने वाले लेखकों को आदर्शवादी या नैतिकतावादी बताकर और भविष्य में ‘जो हो सकता है’ की बात करने वाली रचनाओं को काल्पनिक, गढ़ी हुई या गैर-यथार्थवादी कहकर खारिज किया जाता था। इससे रचना में यथार्थ को देखने-दिखाने की दृष्टि अत्यंत संकुचित हुई तथा वाम-जनवादी रचना और आलोचना, दोनों की अपार क्षति हुई। वाम-जनवादी लेखक यथार्थवाद को दृढ़तापूर्वक अपनाये रहकर नयी परिस्थिति में एक नया यथार्थवाद विकसित नहीं कर पाये, इसलिए वे स्वयं को उत्तर-आधुनिकतावाद के हमले से नहीं बचा सके, जो साहित्य में ‘यथार्थवादोत्तर’ लेखन की सैद्धांतिकी प्रचारित कर रहा था। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
जरूरत इस बात की थी कि यथार्थवाद पर व्यापक बहस चलाकर देश और दुनिया के बदले हुए यथार्थ को सामने लाने के लिए यथार्थवाद को पुनः परिभाषित किया जाता और उसे एक नया नाम देकर आगे बढ़ाया जाता। इसके लिए यह समझना आवश्यक था कि वाम-जनवादी साहित्य उस माक्र्सवादी विश्व-दृष्टि से प्रेरित-परिचालित था, जो पूँजीवाद को ही नहीं, उसके विकल्प समाजवाद को भी एक विश्व-व्यवस्था के रूप में देखती थी। पूँजीवादी भूमंडलीकरण से यह बात स्पष्ट हो गयी थी कि अब पूँजीवाद का विकल्प किसी एक देश या कुछ देशों के स्तर पर नहीं, बल्कि भूमंडलीय स्तर पर ही खोजना होगा और यथार्थवादी लेखकों को अपने स्थानीय यथार्थ को भूमंडलीय यथार्थ से जोड़कर समझना होगा। इस प्रकार नया यथार्थवादी साहित्य अब भूमंडलीय यथार्थवादी साहित्य होगा और वह भूमंडलीय समाजवादी विश्व-व्यवस्था को भूमंडलीय पूँजीवादी विश्व-व्यवस्था का विकल्प मानकर चलेगा। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
जरूरत इस बात की भी थी कि भूमंडलीय यथार्थवाद को हिंदी साहित्य की अपनी परंपरा में विकसित किया जाये। हिंदी के वाम-जनवादी लेखन की आधारभूत विशेषता यथार्थवाद थी और यथार्थवाद का अर्थ यथार्थ का चित्रण करना मात्र नहीं, वर्तमान यथार्थ को बेहतर भविष्य की परिकल्पना के साथ बदलने के उद्देश्य से चित्रित करना भी था। लेकिन यथार्थ निरंतर बदलता रहता है, इसलिए उसे बदलने के तौर-तरीके भी बदलते रहते हैं। तदनुसार साहित्य में यथार्थवाद के रूप भी बदलते रहते हैं, जो साहित्यिक आलोचना तथा सौंदर्यशास्त्र को भी बदलते हैं। यह बात 1930 के दशक से 1950 के दशक तक जर्मनी में यथार्थवाद पर चली उस महान बहस से बखूबी स्पष्ट हो गयी थी, जिसमें भाग लेने वाली हस्तियाँ थीं--जाॅर्ज लुकाच, बर्टोल्ट बे्रष्ट, अंस्र्ट ब्लाॅख, वाल्टर बेंजामिन तथा थियोडोर एडोर्नो। हिंदी में प्रेमचंद ने भी अपने समय के बदलते यथार्थ के अनुसार यथार्थवाद को ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ का नया नाम दिया था। लेकिन अधिकतर वाम-जनवादी लेखक यथार्थवाद के नाम पर प्रायः अनुभववाद को ही अपनाये रहे। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
उन्हें गर्व होना चाहिए था कि हमारे प्रेमचंद ने साहित्य को ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ दिया। उन्हें प्रेमचंद की इस अद्भुत देन के लिए कृतज्ञ होना चाहिए था और इसे अपनाकर आगे बढ़ाना चाहिए था। लेकिन उन्होंने आदर्शवाद को प्रेमचंद की कमजोरी माना और खुद को खरा यथार्थवादी मानते हुए प्रेमचंद में भी खरा यथार्थवाद खोजा। नतीजा यह हुआ कि उन्हें प्रेमचंद की अंतिम कुछ रचनाओं में ही यथार्थवाद नजर आया। शेष रचनाओं कोे आदर्शवादी मानते हुए या तो उन्होंने खारिज कर दिया, या उनका मूल्य बहुत कम करके आँका। इससे उन्हें या साहित्य को फायदा क्या हुआ, यह तो पता नहीं, पर नुकसान यह जरूर हुआ कि स्वयं को यथार्थवादी समझने वाले लेखक ‘जो है’ उसी का चित्रण करने को यथार्थवाद समझते रहे और ‘जो होना चाहिए’ उसे आदर्शवाद समझकर उसका चित्रण करने से बचते रहे। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
लेखक के सामने जब कोई आदर्श नहीं होता, तो उसकी समझ में नहीं आता कि वह क्या लिखे और क्यों लिखे। किसी बड़ी प्रेरणा के अभाव में वह या तो लिखना छोड़कर कोई ऐसा काम करने लगता है, जो उसे ज्यादा जरूरी, ज्यादा लाभदायक या ज्यादा संतुष्टि देने वाला लगता है; या वह निरुद्देश्य ढंग का कलावादी अथवा पैसा कमाने के उद्देश्य से लिखने वाला बाजारू लेखक बन जाता है। आदर्शोन्मुख यथार्थवादी लेखक कुछ नैतिक मूल्यों से प्रेरित-परिचालित होने के कारण अपनी रचना में सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय, उचित-अनुचित, आवश्यक-अनावश्यक तथा सुंदर-असुंदर के बीच विवेकपूर्वक फर्क करने में जितना समर्थ होता है, उतना आदर्शरहित निरा यथार्थवादी लेखक कभी नहीं हो सकता। इतना ही नहीं, निरा यथार्थवादी लेखक अपनी रचना को उस पूर्णता तक कभी नहीं पहुँचा सकता, जिससे उसे आत्मसंतोष और पाठक को आनंद मिलता है। कहानी, उपन्यास और नाटक के लेखन पर तो यह बात कुछ ज्यादा ही लागू होती है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
मैंने अपनी पत्रिका ‘कथन’ के जरिये वर्षों तक भूमंडलीय यथार्थ के विभिन्न पक्षों को सामने लाते हुए एक नये यथार्थवाद की जरूरत बतायी। दो पुस्तकें भी लिखीं--‘साहित्य और भूमंडलीय यथार्थ’ (2008) तथा ‘भूमंडलीय यथार्थवाद की पृष्ठभूमि’ (2014)। मेरा मानना है कि साहित्य और कला में वास्तविक नयापन तो यथार्थवाद ही लाता है, क्योंकि नये यथार्थों को सामने लाना या पुरानी वास्तविकताओं को नयी दृष्टि से देखना-दिखाना ही उसका काम है। यह काम हिंदी साहित्य में प्रेमचंद के बाद मुक्तिबोध ने सबसे ज्यादा और सबसे अच्छे ढंग से किया। उनके समय में भूमंडलीय शब्द नहीं था, लेकिन उनकी रचनाओं में जो यथार्थवाद है, वह भूमंडलीय यथार्थवाद ही है। यह बात मैंने अपनी पुस्तक ‘मुक्तिबोध का मुक्तिकामी स्वप्नद्रष्टा’ (2017) में विस्तार से स्पष्ट की है। अतः आज के हिंदी साहित्य को भूमंडलीय यथार्थवाद का विकास प्रेमचंद और मुक्तिबोध की यथार्थवादी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए करना होगा। <br />
<br />
<span style="color: red;"><b>पक्षधरता</b></span><br />
<br />
किसी भी युग का और किसी भी देश का साहित्यकार सत्य, न्याय, नैतिकता, सुंदरता, प्रेम, समता, स्वतंत्रता जैसी सकारात्मक चीजों का पक्षधर और असत्य, अन्याय, अनैतिकता, कुरूपता, घृणा, विषमता, पराधीनता जैसी नकारात्मक चीजों का विरोधी होता है। यदि ऐसा नहीं है, तो वह साहित्यकार कहलाने का अधिकारी ही नहीं है। सच्चा साहित्यकार वह है, जिसे बड़े से बड़ा दमन या प्रलोभन भी ऐसी पक्षधरता से विचलित न कर सके। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
बीसवीं सदी के आठवें-नवें दशकों में हिंदी के वाम-जनवादी लेखकों के बीच मुक्तिबोध के दो कथन बहुत प्रचलित थे। एक यह कि ‘‘पार्टनर, तुम्हारी पाॅलिटिक्स क्या है?’’ और दूसरा यह कि ‘‘बशर्ते तय करो किस ओर हो तुम’’। मुक्तिबोध ऐसी बातें पूँजीवादी और समाजवादी व्यवस्थाओं के बीच चलने वाले उस शीतयुद्ध के संदर्भ में कहा करते थे, जो विचारधारात्मक और प्रचारात्मक हथियारों से लड़ा जाता था। साहित्यकार भी, चाहे वे प्रतिबद्ध साहित्यकार हों या अप्रतिबद्ध साहित्यकार, अपनी वर्गीय स्थितियों अथवा सामाजिक परिस्थितियों के चलते अनजाने ही या सचेत रूप से उस युद्ध में शामिल रहते थे। जो लेखक सचेत रूप से समाजवाद के पक्ष में और पूँजीवाद के विरुद्ध लड़ते थे, वे अपनी पक्षधरता को छिपाते नहीं थे, क्योंकि वे स्वयं को देश और दुनिया के तमाम शोषित-उत्पीड़ित जनों की मुक्ति के लिए लड़ने वाला सिपाही मानते थे। प्रेमचंद की तरह ‘कलम का सिपाही’। वे शोषण, दमन, अन्याय और अत्याचार पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध एक शोषणमुक्त समतामूलक और न्यायपूर्ण व्यवस्था के लिए लड़ने वाले लेखक के रूप में अपने पक्ष को नैतिक आधार पर उचित समझते थे, इसलिए अपनी राजनीति को दूसरे पक्ष के साहित्यकारों की तरह छिपाते नहीं थे। जो लेखक अपनी राजनीति को छिपाते थे, उनसे वे पूछते थे कि ‘‘पार्टनर, तुम्हारी पाॅलिटिक्स क्या है?’’ और उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय, सही-गलत आदि में फर्क न कर पाने के कारण दुविधा में पड़े साहित्यकारों को बताते थे कि लड़ाई तो तुम्हें लड़नी ही पड़ेगी, चाहे इस पक्ष में रहकर लड़ो या उस पक्ष में रहकर, इसलिए तय करो कि तुम किस पक्ष में हो। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
मुक्तिबोध जिस यथार्थ के संदर्भ में ऐसे प्रश्न उठा रहे थे, वह उनके समय का भूमंडलीय यथार्थ था। उस समय दुनिया तीन दुनियाओं में बँटी हुई थी--पूँजीवादी देशों वाली पहली दुनिया, समाजवादी देशों वाली दूसरी दुनिया और औपनिवेशिक गुलामी से नये-नये आजाद हुए देशों वाली तीसरी दुनिया। पहली और दूसरी दुनियाओं के बीच शीतयुद्ध चल रहा था, जिसके एक पक्ष का नेतृत्व अमरीका कर रहा था और दूसरे पक्ष का नेतृत्व सोवियत संघ। तीसरी दुनिया के देशों के सामने एक विकल्प यह था कि वे पूँजीवादी खेमे में रहें, दूसरा विकल्प यह था कि समाजवादी खेमे में चले जायें और तीसरा विकल्प यह कि वे दोनों गुटों से अलग रहें। भारत ने तीसरा विकल्प अपनाया और गुटनिरपेक्ष देशों का आंदोलन ही नहीं चलाया, उसका नेतृत्व भी किया। लेकिन वाम-जनवादी लेखक चाहते थे कि भारत वैश्विक राजनीति में खुल्लमखुल्ला पूँजीवाद के विरुद्ध समाजवाद के पक्ष में खड़ा हो। इसीलिए वे मुक्तिबोध के उपर्युक्त कथनों को बार-बार दोहराते थे। इसमें कहीं न कहीं यह भाव भी शामिल होता था कि जो हमारे साथ नहीं है, वह निश्चय ही दूसरे खेमे का है और हमारा शत्रु है। यदि ऐसा नहीं है, तो वह समाजवादी खेमे के पक्ष में खुलकर खड़ा हो। अर्थात् हमारे साथ आकर अपनी पक्षधरता का प्रमाण दे। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
आगे चलकर जब समाजवादी शिविर के अंदर आपसी मतभेद उभरे और भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में यह सवाल उठा कि भारत में क्रांति रूसी रास्ते पर चलकर होगी या चीनी रास्ते पर चलकर, और इस सवाल पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन तथा पुनर्विभाजन होने से एक की जगह तीन-तीन कम्युनिस्ट पार्टियाँ बन गयीं, और बाद में तीनों के अपने अलग-अलग लेखक संगठन भी बन गये, तो साहित्यकार की पक्षधरता का प्रश्न एक जटिल समस्या बन गया। लेखकों के लिए यह तय करना मुश्किल हो गया कि वे किसके पक्षधर हों। नेताओं ने इस समस्या का एक सरल समाधान यह बताया कि साहित्यकार उस दल और संगठन से जुड़ें, जो सबसे सही हो। लेकिन इससे हुआ यह कि वामपंथी दलों और उनसे जुड़े लेखक संगठनों में स्वयं को सही और दूसरों को गलत साबित करने की होड़ मच गयी। संकीर्णता और कट्टरता बढ़ी और इस विचार ने जोर पकड़ा कि जो लेखक हमारे दल और संगठन को सबसे सही नहीं मानता, वह हमारा शत्रु है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
वाम-जनवादी साहित्यिक आंदोलन शोषित-उत्पीड़ित सभी मुक्तिकामी जनों का, अर्थात् किसानों, मजदूरों, स्त्रियों, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों आदि का साझा आंदोलन था, जो इनके सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों से जुड़कर चलता था। भूमंडलीय पूँजीवाद और उसकी विचारधारा उत्तर-आधुनिकतावाद ने इस समग्रता को तोड़कर इन्हें अलग किया और इनकी मुक्ति के साझे आंदोलन को अस्मिता के अलग-अलग विमर्शों में बाँट दिया। वाम-जनवादी लेखकों को यथार्थवादी ढंग से इस खेल को समझकर ‘आंदोलन’ और ‘विमर्श’ में फर्क करके इसके विरुद्ध वैचारिक संघर्ष चलाना चाहिए था। लेकिन वे ऐसा नहीं कर सके और नतीजा यह हुआ कि स्त्रियाँ, दलित, आदिवासी आदि सबकी पक्षधरताएँ अलग-अलग हो गयीं। मसलन, स्त्रियाँ पुरुषों के विरुद्ध स्त्रियों की पक्षधर होकर लिखने लगीं और दलित सवर्णों के विरुद्ध दलितों के पक्षधर होकर लिखने लगे। इससे सबका साझा संघर्ष, जो भूमंडलीय पूँजीवाद का एक सशक्त प्रतिरोध बन सकता था, विभाजित होकर कमजोर हो गया और ऐसा प्रतीत होने लगा कि जैसे भूमंडलीय पूँजीवाद का कोई विकल्प ही नहीं रह गया हो। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
आज विकल्पहीनता के निराशाजनक विचार के विरुद्ध विकल्प का आशाजनक विचार ही वाम-जनवादी आंदोलन को पुनर्जीवित कर सकता है। इसी विचार के आधार पर वह स्त्रियों, दलितों, आदिवासियों आदि को विमर्शों के विभ्रम से निकालकर आंदोलन के यथार्थ से जोड़ने में समर्थ हो सकता है। <br />
<br />
<span style="color: red;"><b>प्रतिबद्धता</b></span><br />
<br />
साहित्य में प्रतिबद्धता कोई नयी चीज नहीं है। और वह केवल वाम-जनवादी साहित्य की ही विशेषता नहीं है। यह विशेषता भी प्रत्येक देश-काल के महान साहित्य में मौजूद रही है। उदाहरण के लिए, भक्तिकाल के हिंदी साहित्य को देखें। उसमें सगुण भक्ति वाले कवि हों या निर्गुण भक्ति वाले कवि, रामभक्त कवि हों या कृष्णभक्त कवि, संत कवि हों या सूफी कवि--सब में वैचारिक प्रतिबद्धता देखी जा सकती है। सूर, तुलसी, कबीर, जायसी, मीरा आदि में से किसी को भी देख लीजिए। सभी में यह चीज मिलेगी। मीराबाई जब कहती हैं कि ‘‘मेरे तो गिरधर गुपाल दूसरो न कोई’’, तो अपनी प्रतिबद्धता ही व्यक्त करती हैं। इसी प्रकार तुलसीदास जब कहते हैं कि ‘‘जाके प्रिय न राम-वैदेही, तजिए ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही’’, तो अपनी प्रतिबद्धता ही प्रकट करते हैं। मुझे मीराबाई की-सी प्रतिबद्धता बेहतर लगती है, जिसमें अपनी प्रतिबद्धता की अभिव्यक्ति तो है, उसके लिए लोकलाज की परवाह न करने से लेकर विष का प्याला तक पी लेने की दृढ़ता भी है, लेकिन तुलसीदास की तरह दूसरों को यह उपदेश या आदेश देने वाली बात नहीं है कि जो हमारे राम-वैदेही से प्रेम नहीं करते--अथवा हमारी विचारधारा से सहमत नहीं हैं--उन्हें करोड़ों शत्रुओं के समान मानकर त्याग देना चाहिए। वाम-जनवादी लेखन की कमजोरी यह रही कि उसमें मीराबाई की-सी प्रतिबद्धता कम और तुलसीदास की-सी प्रतिबद्धता अधिक थी। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
प्रतिबद्धता दरअसल एक नैतिक निर्णय और उस पर आधारित नैतिक आचरण है। बीसवीं सदी के आठवें-नवें दशकों का वाम-जनवादी आंदोलन लेखकों को प्रतिबद्ध होने के लिए प्रेरित करता था। उस आंदोलन के समाप्त होने पर यह जिम्मेदारी स्वयं लेखकों पर आ पड़ी कि वे अपनी प्रतिबद्धता को बचाये रखें और उस पर दृढ़ रहें। प्रश्न उठता है--कैसे? मैं इसके उत्तर में वही कहना चाहता हूँ, जो अक्सर अपने-आप से कहता हूँ। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
मैं अपने-आप से कहता हूँ--क्या तुमसे किसी डाॅक्टर ने कहा था कि तुम्हें लेखक बनना है और प्रतिबद्ध लेखक ही बनना है? तुम स्वेच्छा से लेखक बने थे और प्रतिबद्ध लेखन करने का निर्णय तुम्हारा अपना निर्णय था। तुम जब चाहो, अपने इस निर्णय को बदल भी सकते हो। अगर तुम लिखना बंद कर दो, अथवा यह घोषणा कर दो कि अब तुम प्रतिबद्ध लेखक नहीं हो, तो तुम पर, समाज पर और साहित्य पर कोई कहर नहीं टूट पड़ेगा। उलटे, हो सकता है, तुम्हें इससे कुछ फायदा ही हो जाये। लेकिन जब तक तुम अपने निर्णय पर कायम हो, अपनी प्रतिबद्धता में कमी या शिथिलता आ जाने के लिए दूसरों को दोषी नहीं ठहरा सकते। प्रतिबद्ध लेखक बने रहने के लिए जो भी करना जरूरी है, तुमको ही करना है। परिस्थितियाँ प्रतिकूल हैं, तो उनको अनुकूल बनाने का काम किसी और का नहीं, तुम्हारा ही है। माना कि तुम्हारी सीमाएँ हैं, तुम अकेले सब कुछ नहीं कर सकते, लेकिन उस काम को तो ढंग से करो, जिसे करने का निर्णय तुमने लिया है। तुम वही करो, जो कर सकते हो; मगर उसे बेहतरीन ढंग से करना तुम्हारी जिम्मेदारी है। उसको न कर पाने के लिए वातावरण और परिस्थितियों को दोष देकर तुम अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। तुम लेखक हो और नहीं लिख पा रहे हो, या अच्छा नहीं लिख पा रहे हो, तो लिखना बंद कर देने का विकल्प तुम्हारे सामने हमेशा खुला है। यदि तुम प्रतिबद्ध लेखक नहीं बने रहना चाहते, तो अप्रतिबद्ध लेखक बन जाने का विकल्प भी तुम्हारे सामने हमेशा खुला है। मगर जब तक तुम लेखक हो, बेहतरीन ढंग से लिखने की कोशिश करना तुम्हारा काम है। जब तक तुम प्रतिबद्ध लेखक हो, प्रतिबद्ध लेखन के लिए अनुकूल वातावरण बनाना भी तुम्हारा काम है। प्रतिबद्ध लेखक का काम यथार्थ को केवल देखना-दिखाना ही नहीं, उसे बदलना भी है। मौजूदा परिस्थितियाँ वास्तव में प्रतिकूल हैं और उनसे जो निराशा पैदा होती है, वह भी एक यथार्थ है। लेकिन यथार्थ कभी इकहरा नहीं होता। वह द्वंद्वात्मक होता है। कोई भी स्थिति या परिस्थिति सर्वथा और सदा-सर्वदा के लिए निराशाजनक नहीं होती। घना अँधेरा, जिसमें रास्ता नहीं सूझता, एक यथार्थ है। उसमें भटकते हुए लोगों को यदि ऐसा लगता है कि कहीं कोई रास्ता नहीं है, तो उनका यह अनुभव भी यथार्थ है। इस अनुभव से उत्पन्न होने वाली उनकी निराशा भी यथार्थ है। लेकिन यथार्थ यही और इतना ही नहीं है। यथार्थ यह भी है कि प्रत्येक अंधकार में प्रकाश की संभावना मौजूद रहती है। उदाहरण के लिए, घने अँधेरे में माचिस की एक नन्ही-सी तीली या एक छोटी-सी टाॅर्च भी प्रकाश पैदा कर सकती है। यह संभावना भी यथार्थ है। इसलिए केवल अंधकार को देखना और उसमें प्रकाश की संभावना को न देखना यथार्थवाद नहीं है। यथार्थ को उसके द्वंद्वात्मक रूप में देखना ही यथार्थवाद है। <br />
<br />
<br /></div>
</div>
ramesh upadhyayhttp://www.blogger.com/profile/05054633574501788701noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1496071818736613491.post-46358161204999096742017-10-18T08:48:00.004-07:002017-10-18T08:48:51.090-07:00पागलों ने दुनिया बदल दी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<h2>
<span style="font-size: small;"><span style="font-weight: normal;"><span style="color: red;"><span style="color: black;">आज मित्रों के लिए प्रस्तुत है मेरी नवीनतम कहानी : </span></span></span></span></h2>
<h2>
<span style="color: red;">पागलों ने दुनिया बदल दी</span></h2>
<div class="wp-caption alignright" id="attachment_4561" style="width: 207px;">
<div class="wp-caption-text">
</div>
</div>
<div style="text-align: justify;">
मैं पूछती, ‘‘आप कैसे हैं?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
और वे हँसने लगते, ‘‘हा-हा-हा!’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैं पूछती, ‘‘आपकी यह हालत कब से है?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
और वे हँसने लगते, ‘‘हा-हा-हा!’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैं पूछती, ‘‘आप क्या थे? डॉक्टर, इंजीनियर, पत्रकार, प्रोफेसर…?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
और वे हँसने लगते, ‘‘हा-हा-हा!’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैं पूछती, ‘‘आप लोग यह सामूहिक आत्महत्या क्यों कर रहे हैं?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
और वे हँसने लगते, ‘‘हा-हा-हा!’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैं पूछती, ‘‘आप लोग तो असमर्थों में समर्थ थे, आपको जैविक कूड़ा बन जाने की क्या सूझी?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मेरे इस सवाल पर वे और भी जोर से हँसते, ‘‘हा-हा-हा!’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैं ‘सभूस’ की पत्रकार थी। ‘सभूस’ यानी
समर्थों की भूमंडलीय समाचारसेवा। मुझे देश-देश जाकर पागलों की गतिविधियों
के समाचार देने का काम सौंपा गया था। काम खतरनाक था, पर मैंने खुशी-खुशी
करना मंजूर कर लिया था। मुझे शुरू से ही शक था कि पागलपन की वह बीमारी, जो
इधर भूमंडलीय महामारी का रूप ले चुकी थी, बीमारी या महामारी नहीं, कोई और
ही चीज है। मैं निजी तौर पर उसका पता लगाना चाहती थी। दूसरे, मुझे हल्की-सी
एक उम्मीद थी कि मेरे देश की तबाही के साथ मेरे सब लोग शायद तबाह न हुए
हों। शायद मेरे दादा-दादी, नाना-नानी, माता-पिता, मामा-मौसी और
भाइयों-बहनों में से कोई बचकर भागने और किसी दूसरे देश में शरण पाने में
सफल हो गया हो। निजी तौर पर तो मैं देश-देश घूमकर अपने लोगों का पता लगा
नहीं सकती थी, सो मैंने सोचा कि पत्रकार के रूप में शायद मैं उन्हें पा
सकूँ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अपने-अपने कामों में लगे स्वस्थ लोगों के
पागल होने का सिलसिला ठीक-ठीक कब और कहाँ शुरू हुआ, यह तो शायद कोई नहीं
जानता, लेकिन वह समर्थ और असमर्थ दोनों तरह के देशों में और दुनिया भर में
एक साथ शुरू हुआ था। सामान्य जीवन जीते, रोजमर्रा के काम करते, अच्छे-भले
लोग अचानक हँसना शुरू कर देते और हँसते ही चले जाते। वे अपने घरों,
दफ्तरों, खेतों, कारखानों वगैरह से निकलकर सड़कों पर आ जाते। उनमें पुरुष और
स्त्रियाँ, बूढ़े और बूढ़ियाँ, प्रौढ़ और प्रौढ़ाएँ, युवक और युवतियाँ सभी
होते।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
ठीक तारीख बताना तो संभव नहीं, पर लोगों
के पागल होने का सिलसिला जब शुरू हुआ, तब अखिल भूमंडल पर समर्थों के शासन
का सत्रहवाँ साल चल रहा था। सोलह साल पहले समर्थ शासकों ने अपनी विश्व संसद
बनायी थी और अपना नया संवत् शुरू किया था। उसके अनुसार वह समर्थ संवत् का
सत्रहवाँ साल था। उसके पहले समर्थों और असमर्थों के बीच एक भूमंडलीय युद्ध
हुआ था, जिसमें समर्थों की विजय और असमर्थों की पराजय हुई थी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैं एक असमर्थ देश की लड़की थी, जो युद्ध
के समय एक समर्थ देश में पढ़ रही थी। मैं अपने देश लौटना चाहती थी, लेकिन
मेरे माता-पिता ने सख्ती से मना कर दिया था। उनके विचार से मेरी सुरक्षा
इसी में थी कि मैं जहाँ हूँ, वहीं बनी रहूँ। युद्ध में असमर्थ देश हार रहे
थे और तबाह हो रहे थे।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
उन्हें हारना ही था, क्योंकि उस युद्ध में
दुनिया के सभी समर्थ देश एक होकर लड़े थे, जबकि असमर्थ देश आपस में लड़ते
हुए लड़े थे। यों समर्थ देशों में भी कुछ देश कम और कुछ अधिक शक्तिशाली थे
और उनके भीतर भी रंग, नस्ल, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र और भाषा वगैरह के तमाम
झगड़े थे, लेकिन उस समय उनका लक्ष्य एक हो गया था–जैसे भी हो, असमर्थ देशों
पर विजय पाना। दूसरी तरफ असमर्थ देश उस निर्णायक युद्ध में भी अपने भीतर
के झगड़ों को छोड़कर–यानी धर्म-संप्रदाय, खान-पान, रहन-सहन, बोली-बानी,
ऊँच-नीच, छूत-अछूत जैसे झगड़ों को छोड़कर–अपना एक लक्ष्य तय करके नहीं लड़ सके
थे। उनका लक्ष्य समर्थों पर विजय प्राप्त करना नहीं, केवल स्वयं को बचाना
था। उन्हें एक-दूसरे की चिंता नहीं थी, सबको अपनी-अपनी पड़ी थी। नतीजा वही
हुआ, जो होना था। समर्थ जीते, असमर्थ हारे। जीतने के बाद समर्थों ने अपनी
भूमंडलीय समर्थ संसद कायम की, अपना नया संवत् चलाया और अखिल भूमंडल पर शासन
करने लगे।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
समर्थों ने जो भूमंडलीय संविधान बनाया,
उसकी सर्वप्रमुख धारा, जिससे समस्त उपधाराएँ निकलती थीं, यह थी कि समर्थों
को ही जीवित रहने का अधिकार है। असमर्थ लोग और असमर्थ देश तभी जीवित रह
सकते हैं, जब वे समर्थ बनने के लिए प्रयत्नशील होकर पूरी निष्ठा से समर्थों
की सेवा करें। जो असमर्थ लोग या देश ऐसा नहीं करेंगे, उन्हें जीवित रहने
का अधिकार नहीं होगा। इतना ही नहीं, वे समर्थों के प्रति कितने निष्ठावान
हैं, यह भी समर्थ तय करेंगे और उन्हें पूरा अधिकार होगा कि निष्ठा में कमी
पायी जाने पर वे असमर्थ लोगों को जैसे चाहें मारें-पीटें, जेलों में डाल
दें या गोली-गोलों से उड़ा दें और असमर्थ देशों को जैसे चाहें लूटें और तबाह
करें।</div>
<div style="text-align: justify;">
अब, जीवित और सलामत रहना कौन नहीं चाहता?
दुनिया भर के लोगों और देशों ने समर्थों की सेवा करते हुए स्वयं समर्थ बनने
का प्रयास करना शुरू कर दिया। लेकिन समर्थों को यह अधिकार भी था कि वे
किसे अपनी सेवा में रखें और किसे न रखें, और रखें, तो किस दर्जे का सेवक
बनाकर रखें।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इस अधिकार के चलते असमर्थ लोगों में से
योग्य सेवक छाँटे गये। भूख और कुपोषण से कमजोर तथा रोगों से जर्जर लोगों को
सेवा के अयोग्य पाया गया। समर्थों की संसद में विचार किया गया और तय पाया
गया कि अयोग्य लोग किसी काम के नहीं हैं, दुनिया में फैला हुआ कूड़ा हैं,
उन्हें बुहारकर फेंक देना चाहिए। हाँ, इस प्रश्न पर कुछ बहस हुई कि उन्हें
‘ह्यूमन वेस्ट’ (मानव कूड़ा) कहा जाये अथवा ‘बायो वेस्ट’ (जैविक कूड़ा)। बहस
के बाद तय हुआ कि उन्हें जैविक कूड़ा ही कहा जाना चाहिए, क्योंकि मानव कूड़े
को तो श्मशान में ले जाकर जलाना या कब्रिस्तान में ले जाकर दफ्नाना होगा,
और उसमें बेकार का खर्च होगा, जबकि जैविक कूड़ा खुद-ब-खुद सड़-गलकर मिट्टी
में मिल जायेगा। उसे निपटाने का खर्च तो बचेगा ही, उससे कंपोस्ट खाद भी
बनेगी, जो जमीन को अधिक उपजाऊ बनायेगी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इस प्रकार चुने गये योग्य सेवकों से कहा
गया कि योग्य सेवक बन जाना ही पर्याप्त नहीं है, उन्हें योग्यतम सेवक बनने
का प्रयास करना चाहिए और इसके लिए आपस में होड़ लगाकर सर्वोच्च समर्थ-भक्ति
का प्रमाण देना चाहिए। इसके लिए उन्हें हर समय अपना सर्वस्व समर्थों को
समर्पित कर देने के लिए, यहाँ तक कि अपने प्राण तक दे देने के लिए, तैयार
रहना चाहिए। जिस की समर्थ-भक्ति में तनिक भी कमी पायी गयी, उस पर कड़ी नजर
रखी जायेगी। जिस किसी के मन में समर्थों के विरुद्ध कोई विचार पाया गया,
हल्की-सी भावना भी पायी गयी, उसे कठोर दंड दिया जायेगा, जो आजीवन कारावास
या तत्काल मृत्युदंड भी हो सकता है। ऐसे विचार या भावनाएँ रखने वालों की
सूचना देने, उनको पकड़वाने या स्वयं ही घेरकर मार डालने वाले समर्थ-भक्तों
को पुरस्कृत किया जायेगा।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
असमर्थों को बताया गया कि उनमें से जो लोग
सच्ची निष्ठा और भक्ति के साथ समर्थों की सेवा करेंगे, वे ही समर्थों के
कृपापात्र बनकर समर्थों में शामिल हो सकेंगे। उन्हें समझाया गया कि जीवन एक
दौड़ है, जिसमें उन्हें अपने तमाम प्रतिस्पर्धियों को पीछे छोड़कर आगे
निकलना है। इसके लिए दूसरों को टँगड़ी मारकर गिराना भी पड़े, तो जायज है,
क्योंकि पिछड़ जाने का अर्थ होगा अशक्त, अक्षम और अयोग्य सिद्ध होकर दौड़ से
बाहर हो जाना और जैविक कूड़ा बनकर रह जाना।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
समर्थों की यह व्यवस्था इतनी बढ़िया थी कि
दूसरों के आगे निकल जाने के लोभ और दूसरों से पिछड़ जाने के भय से असमर्थ
लोग जी-जान से समर्थों की सेवा दूसरों से बढ़-चढ़कर करने लगे। वे दिन-रात
एक-दूसरे की, यहाँ तक कि अपने घर-परिवार के लोगों तक की जासूसी करने लगे और
प्रमाण सहित उन्हें पकड़वाकर पुरस्कार प्राप्त करने लगे। इसके चलते तमाम
लोग इतने भयभीत और संत्रस्त रहने लगे कि अपने-आप को भी भूल गये। वे भूल गये
कि कल तक इन्हीं समर्थों से लड़ रहे थे। अब समर्थ उन पर चाहे जितना अन्याय
और अत्याचार करें, वे उनके विरुद्ध विद्रोह करना तो दूर, विरोध का विचार भी
मन में न लाते। वे उनके विरुद्ध धरना, प्रदर्शन, हड़ताल, भूख हड़ताल, आमरण
अनशन आदि करना तो दूर, उनसे असहमति व्यक्त करना तक भूल गये थे।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
असमर्थों के मन में अपना आतंक जमाये रखने
के लिए समर्थों ने प्रत्येक देश में विभिन्न धर्मों के आतंकी संगठन बनवाये,
उन्हें खूब हथियार दिये, उनका खूब प्रचार किया और उन्हें खूब बढ़ावा दिया।
दूसरी तरफ, यह सोचकर कि ये सशस्त्र आतंकी संगठन किसी दिन समर्थों के ही
विरुद्ध न हो जायें, उन्होंने हर देश में पुलिस और फौज के अलावा तरह-तरह के
आतंक-विरोधी सशस्त्र बल संगठित किये और उन्हें भी खूब हथियार दिये, उनका
भी खूब प्रचार किया और उन्हें भी खूब बढ़ावा दिया। इससे एक तरफ तो पूरी
दुनिया में धार्मिक संगठनों की अपनी-अपनी निजी सेनाएँ बनीं और दूसरी तरफ
हथियारों की माँग बेतहाशा बढ़ी, जिसकी पूर्ति के लिए हथियारों का उत्पादन और
व्यापार अत्यंत तेजी से बढ़ा। इससे असमर्थों में असुरक्षा की भावना बढ़ी।
कोई नहीं जानता था कि कौन कब कहाँ और कैसे मार डाला जायेगा। असमर्थ लोग
साँस भी लेते, तो डर-डरकर।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इसके साथ ही समर्थों ने सत्य, न्याय,
नैतिकता, शांति, अहिंसा, प्रेम, सहयोग, सद्भाव आदि शब्दों के अर्थ अपने हित
में बदल दिये और घोषणा कर दी कि जो लोग पुराने मानव-मूल्यों के अर्थ में
इन शब्दों का प्रयोग करेंगे, वे मूल्य-अपराधी माने जायेंगे।
मूल्य-अपराधियों के लिए उन्होंने विशेष पुलिस थानों और जेलों की व्यवस्था
की। उन्हें नवीनतम हथियारों से लैस किया और मूल्य-अपराधियों को क्रूरतम
यातनाएँ तथा भीषण दंड देने की व्यवस्थाएँ कीं। फिर भी पता नहीं क्यों और
कैसे, मूल्य-अपराध और मूल्य-अपराधी बढ़ते जा रहे थे। शुरू-शुरू में व्यक्ति
ही, जैसे स्त्रियाँ और पुरुष ही, मूल्य-अपराधी होते थे। बाद में उनके संगठन
भी मूल्य-अपराधी होने लगे। फिर पूरे के पूरे इलाके और यहाँ तक कि पूरे के
पूरे देश भी मूल्य-अपराधी होने लगे। मसलन, प्रेम करने वाली लड़कियाँ और लड़के
मूल्य-अपराधी। अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले संगठन मूल्य-अपराधी।
स्वायत्तता की माँग करने वाले इलाके मूल्य-अपराधी। स्वतंत्रता की माँग
करने वाले देश मूल्य-अपराधी। आतंक और युद्ध के विरुद्ध शांति की माँग करने
वाले सभी लोग और देश मूल्य-अपराधी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
समर्थों की सेवा से मुक्त होकर आत्मनिर्भर
होकर जीना चाहने वाले लोग और देश तो सबसे बड़े मूल्य-अपराधी माने जाने लगे।
उन्हें दंड देने के लिए स्थानीय स्तर पर पुलिस और कई दूसरे सशस्त्र बलों
की व्यवस्था थी, जबकि भूमंडलीय स्तर पर समर्थों की भूमंडलीय सेनाएँ हमेशा
तैयार रहतीं और इशारा पाते ही जल, थल और वायु मार्गों से जाकर उन पर टूट
पड़तीं। गोली-गोलों से लेकर अत्यंत विनाशकारी बमों तक का इस्तेमाल करके वे
अपराधी देशों को धूल में मिला देतीं। जो देश धूल में मिलाये जाते, उन देशों
के खेत-खलिहान, बाग-बगीचे, कल-कारखाने, स्कूल-कॉलेज, पुस्तकालय और
संग्रहालय आदि सब धूल में मिला दिये जाते। उनके साथ-साथ करोड़ों लोग और उनके
अरबों-खरबों सपने भी धूल में मिला दिये जाते।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मेरा असमर्थ देश भी इसी तरह धूल में
मिलाया गया था। मेरे देश के करोड़ों लोग मारे गये थे। करोड़ों लोग लापता हो
गये थे। उनमें मेरे माता-पिता, भाई-बहन, सगे-संबंधी, मित्र-परिचित तथा बचपन
में मेरे साथ पढ़ने और खेलने वाले मेरे सहपाठी भी थे। मैं बच गयी थी,
क्योंकि मैं एक समर्थ देश में रहकर पढ़ रही थी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
बाद में मुझे पता चला कि धूल में मिलाये
जा चुके मेरे देश के कुछ लोग बच गये थे, मगर बड़ी मुश्किल से बचे थे। उनका
बाकी सब तो नष्ट हो चुका था, बस उनकी और उनके कुछ लोगों की जान बाकी थी,
जिसे बचाने के लिए वे भागे थे। गोलियों और गोलों से, छोटे और बड़े बमों से,
बचते-बचाते जब वे भाग रहे होते, तभी किसी के पिता की, किसी की माँ की, किसी
के भाई की, किसी की बेटी या बेटे की जान चली जाती। अपने मृतकों को वहीं
पड़ा छोड़ भागते-भागते–समुद्री, पहाड़ी और रेगिस्तानी रास्तों से
भागते-भागते–वे कहीं समुद्रों में जल-समाधि ले लेते, कहीं बर्फ की कब्रें
बनाकर उनमें दफ्न हो जाते, तो कहीं अपने ऊपर रेत के पिरामिड बनाकर उनके
नीचे अदृश्य हो जाते। और इतनी मुसीबतें उठाने के बाद जब वे हजारों-लाखों की
संख्या में समर्थ देशों में शरण लेने पहुँचते, तो उन देशों की सीमाओं पर
खड़ी फौजें उन्हें रोक देतीं। वे कँटीले तारों की बाड़ तोड़कर जबर्दस्ती घुसने
की कोशिश करते, तो फौजें उनका सामूहिक संहार कर डालतीं।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
सौभाग्य से जिन्हें समर्थ देशों में शरण
मिल जाती, उन्हें कई कठिन अग्नि-परीक्षाओं से गुजरना पड़ता। पहले उन्हें
ठोक-बजाकर देखा जाता कि उनमें कौन सशक्त है, कौन अशक्त। अशक्तों को शरण न
दी जाती और जैविक कूड़ा मानकर खुद-ब-खुद मरने के लिए छोड़ दिया जाता। सशक्तों
में देखा जाता कि कोई मूल्य-अपराधी तो नहीं है। जिसमें सत्य, न्याय,
नैतिकता आदि के मूल अर्थों वाले कीटाणु पाये जाते, उसे तुरंत मृत्युदंड
देकर खत्म कर दिया जाता। इसके बाद जो बच जाते, उन्हें भी संदिग्ध माना जाता
और उन पर कड़ी नजर रखी जाती। उन्हें ढेर सारी शर्तों के साथ और अत्यंत सख्त
निगरानी में समर्थों की सेवा में लगाया जाता।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैं धूल में मिलाये जा चुके अपने देश
लौटकर क्या करती? मैंने मान लिया, या कल्पना कर ली, कि मैं वहाँ से अपनी
जान बचाकर भागी हूँ और जहाँ पढ़ रही हूँ, वहाँ मैंने शरण ले रखी है। मैंने
पढ़ाई पूरी करके नौकरी कर ली और पत्रकार बनकर देश-देश घूमने लगी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
समर्थ संवत् सोलह तक ऐसा लगता था, जैसे
पूरी दुनिया पर समर्थों का शासन सदा के लिए कायम हो गया है और दुनिया की
कोई ताकत उसे हिला नहीं सकती। लेकिन अगले साल ही उसकी नींव हिल गयी। समर्थ
संवत् सत्रह में दुनिया के हर देश में एक अजीब-सा परिवर्तन होने लगा।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
असमर्थों में दो तरह के लोग थे–सामान्य
असमर्थ और विशिष्ट असमर्थ। सामान्य असमर्थ पुराने जमाने के अकुशल श्रमिकों
जैसे थे, जबकि विशिष्ट असमर्थ कुशल श्रमिकों तथा अपने-अपने कार्यक्षेत्र के
विशेषज्ञों जैसे। उन्हें असमर्थों में समर्थ कहा जाता था और यह माना जाता
था कि देर-सबेर वे भी समर्थ बन जायेंगे और अखिल भूमंडल पर शासन करने वाली
विश्व संसद के सदस्य बन जायेंगे। मगर उन्होंने पाया कि वे एक तरफ तो समर्थ
बन जाने के लोभ में समर्थों की सेवा में दिन-रात एक किये रहते हैं और दूसरी
तरफ उन्हें असमर्थ हो जाने का या कूड़ा ही बनकर रह जाने का डर सताता रहता
है। इस विकट स्थिति से उत्पन्न उनका तनाव इतना बढ़ जाता कि वे एक दिन पागल
हो जाते और हँसने लगते–हा-हा-हा!</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वे प्रायः सामूहिक रूप से हँसते थे। मसलन,
उनमें से कोई कहता, ‘‘सत्य।’’ और बाकी सब हँसने लगते, ‘‘हा-हा-हा!’’ कोई
कहता, ‘‘न्याय।’’ और बाकी सब हँसने लगते, ‘‘हा-हा-हा!’’ कोई कहता,
‘‘नैतिकता।’’ और बाकी सब हँसने लगते, ‘‘हा-हा-हा!’’ कोई कहता, ‘‘आजादी।’’
और बाकी सब हँसने लगते, ‘‘हा-हा-हा!’’ कोई कहता, ‘‘बराबरी।’’ और बाकी सब
हँसने लगते, ‘‘हा-हा-हा!’’ वे कहते कुछ नहीं थे, बस हँसते और हँसते ही चले
जाते, ‘‘हा-हा-हा!’’ स्पष्ट था कि वे मूल्य-अपराधी हैं, लेकिन उन्हें
मृत्युदंड नहीं दिया जा सकता था, क्योंकि वे समर्थों के काम के लोग थे।
डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, शिक्षक,
प्रशिक्षक, उद्योगों-व्यापारों के व्यवस्थापक आदि। उनके बिना समर्थों का
काम नहीं चल सकता था, इसलिए उन्हें मारा नहीं जाना था, उनके पागलपन का इलाज
ही किया जाना था।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
समर्थों ने पागलों के इलाज के लिए
पागलखाने बना रखे थे। कोई पागल नजर आता, तो सरकारी कर्मचारी आते और उसे
पकड़कर पागलखाने में ले जाते। शुरू-शुरू में समर्थों ने उस पागलपन को मामूली
बीमारी समझा था, लेकिन वह पागलपन धीरे-धीरे छूत के रोग की तरह बढ़ने लगा और
फिर महामारी की तरह तेजी से फैलने लगा। कोई सोच भी नहीं सकता था कि अचानक
दुनिया में एक साथ इतने पागल पैदा हो जायेंगे। ऐसा लगता था, मानो जिसे वे
बहुत देर से समझ नहीं पा रहे थे, वह जोक, मजाक या चुटकुला अचानक उनकी समझ
में आ गया हो और उसे इतनी देर से समझ पाने पर वे उस पर कम और अपने-आप पर
ज्यादा हँस रहे हों। पहले वे धीरे से हँसते–हा-हा-हा! फिर जोर से–हा-हा-हा!
फिर और जोर से–हा-हा-हा!</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
जरा सोचिए, दुनिया के हर हिस्से में
हजारों-लाखों-करोड़ों लोग अचानक जोर-जोर से, पूरा गला फाड़कर हँसने लगे
होंगे, तो दुनिया का क्या हाल हुआ होगा!</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
हुआ यह कि समर्थों की नींद उड़ गयी। वे
अपनी सरकारों के भरोसे चैन से सोते थे। जागकर उन्होंने सरकारों से पूछा,
‘‘यह क्या हो रहा है?’’ लेकिन सरकारों की अपनी ही नींद उड़ी हुई थी। वे
पुलिस-थानों, अदालतों, जेलों, पागलखानों आदि की व्यवस्थाओं के भरोसे चैन से
सोती थीं। अब वे जागकर उन व्यवस्थाओं से पूछ रही थीं, ‘‘यह क्या हो रहा
है?’’ व्यवस्थाएँ भी, जो प्रायः सोती रहती थीं, अब जाग उठी थीं और सारी
दुनिया की एक-एक हलचल से निरंतर अवगत कराते रहने वाले भूमंडलीय खुफिया
तंत्र से पूछ रही थीं, ‘‘यह क्या हो रहा है?’’ और खुफिया तंत्र के लोग
नवीनतम तकनीकों से प्राप्त फुटेज खँगालते हुए तीव्रतम गति वाले कंप्यूटर
खटखटाकर एक-दूसरे से पूछ रहे थे, ‘‘यह क्या हो रहा है?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
समर्थों की समझ में कुछ नहीं आ रहा था और
पागलों की संख्या और उनकी हँसी का शोर पल-प्रतिपल बढ़ता जा रहा था। असमर्थ
लोग भी चैन से नहीं सो पा रहे थे। वे लगातार बनी रहने वाली बेचैनी में
दुःस्वप्न देखते हुए सोते थे। अब उनकी दुःस्वप्नों वाली नींद भी हराम हो
गयी और वे अपने घरों से निकलकर सड़कों पर आ गये। देखते-देखते उनमें से भी कई
पागल होने लगे और उनमें भी पागलों की संख्या बढ़ने लगी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
समर्थों ने अपनी विश्व संसद की आपातकालीन
बैठक बुलायी और उसमें तय किया कि दिन-दूने और रात-चैगुने बढ़ते पागलों का
इलाज संभव नहीं है, अतः उन्हें नियंत्रित करने के लिए त्वरित कार्रवाई की
जाये।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
पहली कार्रवाई हर देश में पुलिस की तरफ से
हुई। उसने बड़े पैमाने पर धावा बोलकर पागलों को गिरफ्तार किया, लेकिन पहली
बार यह देखा कि पागल न तो डरे, न गिरफ्तार होने से बचने के लिए भागे। वे
हँसते-हँसते, ठहाके लगाते हुए, ठाठ से गिरफ्तार हुए। यह देखकर पुलिस घबरा
गयी। उसे पता था कि पागलखानों में पहले ही जरूरत से ज्यादा पागल भरे हुए
हैं। नये पागलखाने तत्काल बनवाना संभव नहीं है और तब तक इतने सारे पागलों
को कहीं और रखना भी संभव नहीं है। उसने सोचा, गिरफ्तार पागल उसकी गिरफ्त से
छूटकर भागने की कोशिश करेंगे, तो वह उन्हें भाग जाने देगी। किसी-किसी देश
में तो पुलिस पागलों से प्रार्थना भी करती पायी गयी कि वे भाग जायें। लेकिन
पुलिस की इस प्रार्थना पर पागल इतने जोर से हँसे कि वह डर गयी। उसने
अपने-अपने देशों की सरकारों से पूछा, ‘‘पागल काबू में नहीं आ रहे हैं। क्या
किया जाये?’’ सरकारों ने समर्थों की विश्व संसद से पूछा, ‘‘पागल काबू में
नहीं आ रहे हैं। क्या किया जाये?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
समर्थों की विश्व संसद ने समस्त सरकारों
को और सरकारों ने अपने-अपने देश की पुलिस को आदेश दिया, ‘‘पागलों को दूर
जंगल में ले जाकर छोड़ आओ।’’ पुलिस ने आदेश का पालन किया। लेकिन पागलों को
जंगलों में छोड़कर हर जगह की पुलिस अपनी गाड़ियों में वापस आयी, तो उसने देखा
कि पहले से भी ज्यादा पागल हाथ उठाकर हँसते हुए उसका स्वागत कर रहे हैं।
पुलिस हैरान रह गयी। इतनी दूर जंगल में छोड़े हुए पागल पैदल उससे पहले वापस
कैसे पहुँचे? सरकारों को बताया गया, तो उन्होंने कोई और उपाय न देख आदेश
दिया, ‘‘पागलों को फिर से गाड़ियों में भरकर फिर से दूर जंगल में छोड़कर
आओ।’’ पुलिस ने पुनः आदेश का पालन किया। लेकिन घोर आश्चर्य! जंगलों में
पहले छोड़े गये पागल वहाँ पहले से ही हाथ उठाकर अट्टहास करते हुए नये पागलों
के स्वागत में खड़े थे!</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
यह चमत्कार कैसे हुआ? न पुलिस की समझ में आया, न सरकारों की समझ में।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
दरअसल किसी की भी समझ में कुछ नहीं आ रहा
था। दुनिया के हर शहर, हर गाँव में जोर-जोर से हँसने वाले नये-नये पागल
पैदा हो रहे थे और न जाने कब से वीरान-सुनसान पड़े जंगल उनसे आबाद हो रहे
थे। वे वहाँ अपनी बस्तियाँ बसा रहे थे और खेती, बागवानी, पशु पालन जैसे काम
करते हुए अपनी नयी जिंदगी शुरू कर रहे थे। दुनिया की सरकारों को लगा कि यह
तो भारी गड़बड़ है। इस तरह गाँव-गाँव और शहर-शहर असमर्थ लोग पागल होते रहे
और जंगलों में जाकर अपनी अलग दुनिया बसाकर अपने ढंग से जीने लगे, तो
समर्थों की व्यवस्था का क्या होगा? उनके खेतों और कारखानों में काम कौन
करेगा? उनके उद्योग और व्यापार कौन चलायेगा? उनके लिए भोजन-वस्त्र कौन
जुटायेगा? उनकी सुरक्षा के लिए पुलिस और फौज में भर्ती होने कौन आयेगा?
उनके दफ्तर, स्कूल, काॅलेज, अस्पताल वगैरह कौन चलायेगा?</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
पागलों की बढ़ती संख्या से सबसे पहले पुलिस
प्रभावित हुई। समर्थों के शासन में पुलिस वालों को वेतन बहुत कम दिया जाता
था, लेकिन असमर्थों को डरा-धमकाकर लूटने की पूरी छूट दी जाती थी। इसलिए
पुलिस की नौकरी में ‘ऊपर की कमाई’ असली कमाई मानी जाती थी। मगर ऊपर की कमाई
का कम-ज्यादा होना इस बात पर निर्भर करता था कि असमर्थ पुलिस से कम डरते
हैं या ज्यादा। ज्यादा कमाई के लिए पुलिस असमर्थों को ज्यादा से ज्यादा
डराकर रखती थी। वह पागलों को भी डराना चाहती थी, मगर पागल थे कि पुलिस से
डरते ही नहीं थे। वह उन्हें आधी रात उनके घरों से उठाकर ले जाये, थानों में
ले जाकर उनकी पिटाई करे, हवालात में उन्हें थर्ड डिग्री की यातनाएँ दे, या
उनका एनकाउंटर ही क्यों न कर दे, पागल उससे डरते ही नहीं थे। पुलिस द्वारा
दी जाने वाली हर धमकी, हर गाली, हर लाठी, हर गोली का जवाब वे गलाफाड़ हँसी
से देते।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
पागलों के इस रवैये से पुलिस की ऊपर की
कमाई बहुत घट गयी। उसी अनुपात में पागलों को पकड़-धकड़कर जंगलों में छोड़ आने
के काम में उसकी रुचि भी घट गयी। होते-होते यह होने लगा कि सरकारें जब
पुलिस को पागलों से निपटने के आदेश देतीं, तो पुलिस उनसे निपटने की झूठी
रिपोर्टें सरकारों को देकर अपना कर्तव्य पूरा हुआ मान लेती। नतीजा यह हुआ
कि पुलिस नाकारा हो गयी और सभी देशों की सभी सरकारों के प्रशासन ठप्प हो
गये। पुलिस थाने बेकार हुए, तो अदालतें और जेलें भी बेकार हो गयीं। यह पूरा
तंत्र इतना बड़ा था कि उसके बेकार हो जाने से कई काम एक साथ हुए। एक तरफ
सरकारें, जो इसी तंत्र के बल पर टिकी थीं और इसी से लोगों को आतंकित रखकर
उन पर शासन करती थीं, अचानक बेहद कमजोर हो गयीं। दूसरी तरफ हर देश में
पुलिस के अफसर और सिपाही, अदालतों के जज और वकील, जेलों के जेलर और जल्लाद
एक साथ बेकार हो गये। करोड़ों-करोड़ लोग बेरोजगार हो गये।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अब इतने सारे बेरोजगार लोग करें तो क्या
करें? जायें तो कहाँ जायें? कोई और उपाय न देख वे पागलों के पास गये और
उनसे पूछा, ‘‘हम कहाँ जायें और क्या करें?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
पागलों ने हँसकर उनसे कहा, ‘‘सत्ता के आसमान में बहुत उड़ लिये, अब श्रम की जमीन से जुड़ो। मेहनत करो और खुद कमाओ-खाओ।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘कैसे?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘जहाँ भी खाली जमीन मिले, वहाँ खेती और
बागवानी करके अन्न और फल पैदा करो। गाय, भैंस, भेड़, बकरी, मुर्गी, मछली आदि
पालकर दूध, मांस आदि पैदा करो। बेचने के लिए नहीं, खुद खाने और दूसरों को
खिलाने के लिए। खुद जीने के लिए और दूसरों को जिलाने के लिए।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मरता क्या न करता! थानों, अदालतों और
जेलों से मुक्त हुए लोगों ने जगह-जगह छोटी-छोटी देहाती बस्तियाँ बसायीं और
आत्मनिर्भर होकर जीना शुरू कर दिया। प्रशासन और न्याय व्यवस्था द्वारा बड़े
पैमाने पर किये जाने वाले काम उनकी पंचायतें छोटे पैमाने पर करने लगीं।
अपराध एकदम कम या खत्म ही हो गये थे। अदालतों और जेलों की जरूरत ही नहीं
रही थी, छोटे-मोटे झगड़े पंचायतों में ही निपटा लिये जाते।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
तब सरकारों ने पागलों से निपटने का काम
फौजों को सौंपा। समर्थ-असमर्थ हर देश के पास अपनी फौज थी। फौजें अपने-अपने
देश की सीमाओं की सुरक्षा करती थीं, दूसरे देशों के हमलों को रोकती थीं और
कभी-कभी खुद भी दूसरे देशों पर हमले करती थीं। ज्यों ही पता चलता, किसी
असमर्थ देश में अशांति है, समर्थ देशों की फौजें शांति स्थापित करने पहुँच
जातीं और वहाँ मरघट की-सी शांति स्थापित कर देतीं। ज्यों ही पता चलता, किसी
असमर्थ देश में जनतंत्र खतरे में है, वे जनतंत्र की रक्षा करने पहुँच
जातीं और वहाँ निहायत सख्त और मजबूत तानाशाही वाला जनतंत्र स्थापित कर
देतीं। ज्यों ही पता चलता, कोई असमर्थ देश समर्थों की सेवा से मुक्त होकर
स्वतंत्र और स्वायत्त होना चाहता है, समर्थों की फौजें उसे समर्थ-भक्ति का
पाठ पढ़ाने पहुँच जातीं और वहाँ की सरकार को डरा-धमकाकर, या खुले बाजार में
खरीदकर, उसकी जगह समर्थों के लिए काम करने वाली कोई कमजोर-सी कठपुतली सरकार
बनाकर बिठा देतीं।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
लेकिन पागलों से निपटने का मामला बड़ा टेढ़ा
था। वे न तो आजादी या अपने लिए अलग राज्य जैसी कोई माँग करते, न ऐसी किसी
माँग के लिए अहिंसक आंदोलन या हिंसक विद्रोह करते। वे बस इतना करते कि
समर्थों की सेवा करना छोड़ हँसने लगते। वे सिर्फ हँसते थे और समर्थों का
बताया हुआ कोई काम नहीं करते थे। उन्होंने खेतों और कारखानों, दुकानों और
दफ्तरों, स्कूलों और अस्पतालों आदि में काम करने जाना बंद कर दिया था। उनसे
काम करने को कहा जाता, तो वे हँसने लगते। भूखों मर जाने का डर दिखाया
जाता, तो हँसने लगते। जेलों और पागलखानों में भेजे जाने का डर दिखाया जाता,
तो हँसने लगते। उन्हें दूर जंगलों में छुड़वा दिया जाता, तो भी वे हँसते और
हँसते ही रहते।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
आखिरकार समर्थों की विश्व संसद में एक
प्रस्ताव पास हुआ कि पागलों को मौत से डराया जाये, क्योंकि मौत से बड़ा डर
कोई नहीं होता। प्रस्ताव के अनुसार समर्थ और असमर्थ, सब देशों की सरकारों
ने अपनी फौजों को आदेश दिया कि वे जाकर अपने-अपने देश के पागलों को मौत से
डरायें। गाँव-गाँव, शहर-शहर, मुहल्ले-मुहल्ले और गली-गली में जायें,
इक्के-दुक्के पागलों को गोली से उड़ा दें और उनकी लाशें पेड़ों या खंभों पर
लटका दें, ताकि दूसरे पागल डरें और पागलपन छोड़कर काम पर लौटें। अगर कहीं एक
से अधिक पागल मिलें, तो उनमें से कुछ को गोली चलाकर खत्म कर दें। अगर
पागलों की भीड़ें मिलें, तो जरूरत के मुताबिक उन पर छोटे बम डालकर उनमें से
कुछ को मार डालें। पागलों को हर हाल में डराकर उनका हँसना बंद कराना है और
उन्हें काबू में लाकर काम पर लगाना है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
आदेश पाकर सभी देशों की फौजें अपने-अपने
देश के पागलों को पागलपन छोड़कर काम पर लौटने के लिए तैयार करने निकल पड़ीं।
मगर पागल इतने ज्यादा पागल हो चुके थे कि उन्हें मरने से डर ही नहीं लगता
था। गोली लगने पर वे चीखते नहीं थे, गला फाड़कर हँसते थे–हा-हा-हा! गोले
बरसाये जाने पर वे भागते नहीं थे, तोपों के सामने निहत्थे खड़े रहकर हँसते
थे–हा-हा-हा! ऊपर से बम बरसाये जाने पर जब उनकी लाशों के चिथड़े उड़ने लगते,
तब भी उनके सामूहिक ठहाके सुनायी पड़ते–हा-हा-हा! उन ठहाकों का ऐसा गगनभेदी
शोर उठता कि फौजियों के दिल दहल जाते। जंगलों में छोड़े गये पागलों पर जब
गोली-गोले बरसाये जाते, तब तो पागलों की हँसी में जंगल के पशु-पक्षियों,
पेड़-पौधों और नदी-नालों की आवाजें भी शामिल होकर उसे ऐसे विकट हास्य की
भयंकर गड़गड़ाहट में बदल देतीं कि हथियारों के बल पर स्वयं को परम शक्तिशाली
समझने वाले फौजी डरकर भाग खड़े होते।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
एक बार मैं पागलों की रिपोर्टिंग के लिए
एक जंगल में गयी, तो मैंने देखा कि जंगल में छोड़ दिये गये हजारों पागल
जिंदा रहने की जुगत में लगे हैं। कोई जमीन खोद रहा है, कोई पेड़ पर चढ़कर फल
तोड़ रहा है, कोई आग जला रहा है, तो कोई उस पर कुछ भून रहा है। फौजियों को
आते देख वे इकट्ठे होकर सामने आये और हँसकर बोले, ‘‘मारोगे? मारो!’’ और
हँसने लगे, ‘‘हा-हा-हा!’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
फौजी हैरान होकर देखते रह गये कि सामने
मौत देखकर भी ये लोग हँस रहे हैं। उन्होंने ऐसे लोग पहले कभी नहीं देखे थे,
जो मारे जाने से डरते न हों, बल्कि हँसते हों। फौजियों को लगा, यह तो लड़ाई
नहीं, निर्दोष निहत्थे लोगों की हत्या है। सामूहिक हत्या। जनसंहार।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
फौजी भी आखिर थे तो मनुष्य ही। उन्होंने
हथियार फेंक दिये और घुटनों के बल बैठकर, हाथों में चेहरे छिपाकर,
फूट-फूटकर रोने लगे। उन्हें रोते देख पागल आगे बढ़े, उनके पास पहुँचे, उनके
गले मिले और वे भी रोने लगे।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
फौजियों ने रोते-रोते कहा, ‘‘हम कितने
पागल थे, जो तुम को पागल समझते थे! असली पागल तो हम हैं, जो मरने और मारने
की वह नौकरी करते हैं, जिसने हमें इंसान से हैवान और शैतान बना दिया है!’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘तो समझ लो कि आज से तुम्हारी मरने और
मारने वाली नौकरी खत्म, जीने और जिलाने वाली जिंदगी शुरू! तुम्हें इंसान से
हैवान और शैतान बनाने वाले हैं ये हथियार। इनको दुनिया से विदा करो।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘मगर कैसे?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘यह तुम खुद सोचो। लेकिन यह समझ लो कि जब तक हथियारों का बनना और बिकना बंद नहीं होगा, लोग डरते रहेंगे और पागल भी होते रहेंगे।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
फौजियों ने पागलों को गौर से देखा, फिर आपस में एक-दूसरे को देखा, मुस्कराये और पागलों से बोले, ‘‘हम समझ गये।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘तो आज की रात तुम हमारे मेहमान रहो। मिलकर जंगल में मंगल करते हैं।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
और उस रात जंगल में जो जश्न पागलों और
फौजियों ने मिलकर मनाया, उसमें उन्होंने मुझे भी शामिल किया। ऐसा जश्न
मैंने पहले कभी नहीं देखा था।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अगले दिन मैंने इस घटना की विस्तृत
रिपोर्टिंग की और वह सभूस (समर्थों की भूमंडलीय समाचारसेवा) के जरिये एक
बड़ी खबर बनकर सारी दुनिया में प्रकाशित और प्रसारित हुई। इस खबर से समर्थों
की हालत खराब हो गयी। उन्होंने झटपट समर्थों की विश्व संसद की एक
आपातकालीन बैठक बुलायी और उसमें आनन-फानन यह फैसला किया कि पागलों को खत्म
करने के लिए भेजी गयी फौजें वापस बुला ली जायें और पागलों के प्रतिनिधियों
को बातचीत के लिए बुलाया जाये।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
फैसले के मुताबिक तुरंत सारी दुनिया के
पागलों को अपने प्रतिनिधि चुनकर भेजने के संदेश और फौजियों को अपने ठिकानों
पर वापस लौटने के आदेश भेजे गये। लेकिन पागलों तक यह संदेश और फौजियों तक
यह आदेश पहुँचा, तो पागल और फौजी दोनों एक साथ हँसे। दोनों की सम्मिलित
हँसी दुनिया भर में ऐसी गूँजी कि जैसे दुनिया भर के पूरे आसमान में छाये
घने बादल गड़गड़ा उठे हों। उस गड़गड़ाहट में बिजली-से चमकते और तड़तड़ाते कुछ
समवेत शब्द भी थे :</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘मरेंगे और मारेंगे नहीं, जियेंगे और जिलायेंगे।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘डरेंगे और डरायेंगे नहीं, हँसेंगे और हँसायेंगे।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अब, यह उस सम्मिलित हँसी का असर रहा हो या
उन समवेत शब्दों का, दुनिया भर में तमाम असमर्थ हँसने लगे। जो असमर्थ पागल
और फौजी नहीं थे, वे भी हँसने लगे। और उसी विश्वव्यापी समवेत हँसी के बीच
वह घटना घटी, जो दुनिया में न तो पहले कभी घटी थी और न आगे कभी घटेगी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
फौजियों ने अपने भूमंडलीय संचार-तंत्र के
जरिये न जाने कैसे सारी दुनिया की सारी फौजों के बीच एक सहमति बनायी और एक
दिन प्रत्येक देश की फौज ने अपने देश के हथियार-कारखानों और आयुध-भंडारों
पर कब्जा कर लिया। उन्होंने अपने पास के तथा आयुध-भंडारों में भरे सब
छोटे-बड़े अस्त्रों-शस्त्रों और परम विनाशकारी बमों के साथ-साथ उन्हें बनाने
वाली मशीनों को भी ले जाकर गहरे महासागरों में डुबो दिया। हथियार बनाने के
कारखानों की जगहों पर उन्होंने सस्ते खाद्य पदार्थों, पोषक आहारों,
औषधियों और चिकित्सा संबंधी उपकरण आदि बनाने के कारखाने खुलवा दिये।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
दुनिया भर के हथियारों के कारखाने बंद हो
गये, तो हथियारों का भूमंडलीय बाजार और व्यापार भी खत्म हो गया। पुलिस,
दूसरे सशस्त्र बलों और आतंकी संगठनों के पास जो हथियार थे, वे भी कुछ दिन
बाद गोला-बारूद न मिलने से बेकार हो गये। इस प्रकार दुनिया भर के लोग
हथियारों द्वारा पैदा किये जाने वाले भय और आतंक से मुक्त हो गये। इसके साथ
ही भय और आतंक के सहारे अनंत काल तक अखिल भूमंडल पर शासन करने के लिए
समर्थों द्वारा बनायी गयी संस्थाएँ और व्यवस्थाएँ भी बेकार हो गयीं।
समर्थों की वह विश्व-संसद, जिसने हजारों साल आगे की सोचकर अपना नया संवत्
चलाया था, वह भी नहीं रही।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मेरा और दूसरे बहुत-से लोगों का खयाल था
कि अब पागल लोग समर्थों की बनायी विश्व संसद पर कब्जा करेंगे और उसमें
बैठकर समर्थों की भाँति ही अखिल भूमंडल पर शासन करेंगे। लेकिन उन्होंने ऐसा
कुछ नहीं किया। किया सिर्फ यह कि विश्व संसद की इमारत को ऐतिहासिक वस्तुओं
का संग्रहालय बनाकर उसे हमेशा के लिए ‘इतिहास की वस्तु’ बना दिया।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
हथियारों के कारखाने नष्ट हो जाने के बाद
फौजों का भी कोई काम नहीं रहा। सो फौजियों ने यह किया कि जिन सीमाओं की
सुरक्षा वे किया करते थे, उन्होंने हँसते-हँसते मिटा दीं और यह काम सीमाओं
के इस पार और उस पार के फौजियों ने, जो पहले एक-दूसरे के दुश्मन हुआ करते
थे, दोस्त बनकर साथ-साथ किया। सीमाएँ मिटा देने के बाद फौजियों ने अपनी
वर्दियाँ उतारकर सादा कपड़े पहने, वर्दियों के ढेर लगाये, उनकी होलियाँ
जलायीं और एक-दूसरे के गले मिले। देशों और दिलों को बाँटने वाली सीमाओं से
दुनिया को मुक्त करने की खुशी में वे पागलों की तरह हँसे। उन्होंने जमकर
जाम छलकाये, मुक्ति के गीत गाये, जी भरकर नाचे और एक-दूसरे से विदा लेकर
पागलों के पास यह पूछने गये कि अब वे क्या करें। पागलों ने उनसे कहा,
‘‘तुमने मरने और मारने का काम छोड़कर जीने और जिलाने का काम करने की कसम
खायी थी। अब उस काम को कर दिखाने का समय आ गया है। लोगों के बीच जाओ और
भूख, कुपोषण, बीमारी और बेरोजगारी के कारण मर रहे उन मनुष्यों को जिलाओ, जो
समर्थों की विश्व व्यवस्था द्वारा मानव कूड़ा और जैविक कूड़ा बना दिये गये
हैं। इसके लिए उत्पादन और वितरण की एक नयी व्यवस्था बनाओ, जिसका मूल मंत्र
हो–अपना उत्पादन और अपना उपभोग। बड़े-बड़े शहरों में केंद्रित बड़े-बड़े
उद्योगों की बड़ी-बड़ी मशीनों वाली उत्पादन प्रणाली को बदलकर छोटी-छोटी
ग्रामीण बस्तियों में विकेंद्रित छोटे-छोटे उद्योगों और हाथ से या हवा,
पानी, धूप, भाप और पशुओं की शक्ति से चलने वाली छोटी-छोटी मशीनों वाली
उत्पादन प्रणाली शुरू करो।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
भूतपूर्व फौजियों में एक नयी जिंदगी शुरू
करने और एक नयी व्यवस्था बनाने का उत्साह पैदा हुआ, तो वे मुक्त मन, स्वस्थ
तन और सुंदर भावनाओं और योजनाओं के साथ दुनिया भर में फैल गये। उन्होंने
सबसे पहले उन ऊँची इमारतों, बड़े कारखानों, बड़े बाजारों, मॉलों, मनोरंजन
केंद्रों आदि को बंद किया, जिनमें नाहक ही ऊर्जा की भारी फिजूलखर्ची होती
थी। उनमें लगने वाली ऊर्जा को उन्होंने ग्रामीण बस्तियों की ओर मोड़ा, जहाँ
खेती-बाड़ी और उससे जुड़े छोटे-छोटे उद्योगों के लिए तथा घरों, स्कूलों,
अस्पतालों आदि के लिए उसकी जरूरत थी। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी
छूमंतर हो गयी और वहाँ रोजगार इतने बढ़ गये कि शहरों के बेरोजगार वहाँ जाकर
अपना उत्पादन और अपना उपभोग करने लगे। मनुष्यों को कूड़ा बनाने वाली
व्यवस्था को अतीत की वस्तु बनाकर वे मनुष्यता का भविष्य बनाने लगे।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
पहले के लोग गाँवों से शहरों की ओर भागते
थे, अब उलटा होने लगा। शहर खाली होने लगे। ऊँची-ऊँची इमारतें बेकार हो
गयीं। बड़े-बड़े कारखाने या तो बंद हो गये, या बेहद जरूरी चीजों का उत्पादन
करने लगे। बाजारों में विज्ञापन के बल पर गैर-जरूरी चीजों का बिकना बंद हो
गया। दुनिया की पूरी व्यवस्था ही बदलती नजर आने लगी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अब कुछ और तरह के पागलों ने एक चमत्कार
किया। एक दिन दुनिया भर के अर्थशास्त्री, वित्त विशेषज्ञ, मुद्रा विशेषज्ञ,
बैंकिंग विशेषज्ञ, सट्टा बाजार विशेषज्ञ और दुनिया भर की वित्त व्यवस्था
से जुड़े कंप्यूटरों के विशेषज्ञ मिले, जो अपने-अपने काम करते हुए ही किसी
दिन हँस पड़े थे और पागल हो गये थे। उन्होंने एक-दूसरे से कहा, ‘‘मनुष्यों
को पागल बनाने वाली दो चीजें हैं–भय और लालच। फौजी पागलों ने दुनिया को भय
से मुक्त कर दिया है, अब लालच से मुक्त करने की बारी हमारी है। भय से
मुक्ति के लिए उन्होंने हथियारों को दफ्नाया और सीमाओं को मिटाया, लालच से
मुक्ति के लिए हम दुनिया से धन का सफाया करेंगे।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘कैसे?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इस प्रश्न पर उनके बीच लंबी बहस हुई और एक
योजना बनी, जिसके अनुसार एक दिन बैंकों और दूसरे वित्तीय संस्थानों की
भूमंडलीय संचार-व्यवस्था एकदम ठप्प हो गयी। दुनिया भर के बैंकों और दूसरे
वित्तीय संस्थानों के कंप्यूटर खराब हो गये। उनमें पल-पल में अरबों-खरबों
का जो धन दुनिया में इधर से उधर होता रहता था, उसका आना-जाना बंद हो गया।
दुनिया भर के बैंक अकाउंट बंद हो गये। बैंकों में जितने भी खाते थे, उन सब
में जमा राशियाँ शून्य हो गयीं।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इससे दुनिया में ऐसी खलबली मची, जैसी
हथियारों के दफ्नाये जाने और सीमाओं के मिटाये जाने के समय भी नहीं मची थी।
कल तक जो धनी और महाधनी थे, रातोंरात धनहीन हो गये। जिन लोगों के घरों,
दुकानों और दफ्तरों में लाखों-करोड़ों की नकदी रखी हुई थी, वह सब बेकार हो
गयी। सट्टा बाजार सहित सारा बाजार और व्यापार ठप्प हो गया। सिक्के धातुओं
के और नोट कागजों के बेकार टुकड़े होकर रह गये।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
पहले लोग हँसते-हँसते पागल हुए थे, इस बार बहुत-से लोग रोते-रोते पागल हुए।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अगला कदम कुछ और पागलों ने उठाया। दुनिया
के हर देश में लोगों की आबादी, जनसंख्या के घनत्व और नगर-नियोजन आदि का
हिसाब रखने से संबंधित विभागों में काम करने वाले जो विशेषज्ञ हँसते-हँसते
पागल हुए थे, उन्होंने मिलकर हिसाब लगाया कि दुनिया में कहाँ आबादी बहुत कम
है और कहाँ बहुत ज्यादा। हालाँकि दुनिया से धन का सफाया हो जाने के बाद
धनी-निर्धन जैसे भेद खत्म हो गये थे, फिर भी कहीं अधिकांश लोग अब भी बेघर
थे और कहीं बहुत थोड़े लोग अब भी बहुत बड़ी-बड़ी जगहों में रहते थे। कहीं
लोगों के पास खाने-पहनने की चीजों के भंडार भरे हुए थे और कहीं बहुत-से लोग
भूखे-नंगे घूम रहे थे। पागलों ने घनी आबादी वाले इलाकों के बेघर, बेरोजगार
और भूखे-नंगे लोगों से कहा, ‘‘यह पृथ्वी उन थोड़े-से लोगों की बपौती नहीं
है, जो इस पर इतनी बड़ी-बड़ी जगहें घेरकर बैठे हुए हैं। यह पृथ्वी सबकी है और
इस पर सबको आराम से रहने-बसने का हक है। जाओ, जहाँ बहुत ज्यादा जगह में
थोड़े-से लोग रहते हों, वहाँ जाकर रहो और जो लोग जरूरत से ज्यादा खाते-पहनते
हों, उनके साथ मिल-बाँटकर खाओ-पहनो।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
भय और आतंक तो अब दुनिया में रह ही नहीं
गया था, सीमाएँ मिट जाने से अब लोग वीजा और पासपोर्ट के बिना दुनिया में
कहीं भी आ-जा सकते थे। समर्थों की विश्व व्यवस्था में लोग दूसरे देशों में
नौकरी करने या शरण लेने के लिए दीन-हीन होकर जाया करते थे। अब वे
अधिकारपूर्वक रहने-बसने के लिए जाने लगे। इससे बहुत बड़ी-बड़ी जगहों में रहने
वाले और जरूरत से ज्यादा खाने-पहनने वाले थोड़े-से लोगों को थोड़ी तकलीफ
हुई, लेकिन बहुत छोटी-छोटी जगहों में बहुत बड़ी संख्या में रहने वाले और
खाने-पहनने को बहुत कम पाने वाले बहुत-से लोगों को बहुत राहत मिली।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इसके बाद वे साहित्यकार, कलाकार, शिक्षक
और अन्य संवेदनशील लोग सक्रिय हुए, जो अपने-अपने समाजों में ऊँच-नीच के भेद
और उनके आधार पर किये जाने वाले अन्याय-अत्याचार देखकर पागल हुए थे।
हालाँकि अब काफी आजादी और बराबरी हो गयी थी, जिससे अमीर-गरीब, मर्द-औरत,
गोरा-काला, सवर्ण-शूद्र, बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक जैसे भेदों के आधार पर किये
जाने वाले अन्याय-अत्याचार काफी कम हो गये थे, फिर भी पुरानी आदतों और
मान्यताओं के चलते इस प्रकार के कुछ अन्याय-अत्याचार अब भी होते थे। यह
देखकर उन पागलों ने औरतों से कहा कि वे मर्दों को घेरें, कालों से कहा कि
वे गोरों को घेरें, शूद्रों से कहा कि वे सवर्णों को घेरें और अल्पसंख्यकों
से कहा कि वे उन बहुसंख्यकों को घेरें, जो लैंगिक, नस्ली, धार्मिक,
सांप्रदायिक और खान-पान, वेश-भूषा, रहन-सहन आदि के भेदों के आधार पर उनके
प्रति अन्याय और अत्याचार करते हैं। पागलों ने उनसे कहा कि उन लोगों को
घेरकर मारना-पीटना नहीं है, बस उन्हें घेरकर उन पर हँसना है और तब तक हँसते
रहना है, जब तक वे शर्मिंदा होकर मनुष्यों को मनुष्य न समझने की अपनी भूल
स्वीकार करके उसे सुधार न लें।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इस तरह दुनिया भर में सामाजिक अन्याय के विरुद्ध हँसी के हथियार से लड़ाई लड़ी गयी और जीती गयी।</div>
<div style="text-align: justify;">
हाँ, मैं अपने बारे में बताना तो भूल ही
गयी। मैं अब भी पत्रकार थी, मगर अब मैं ‘सभूस’ (समर्थों की भूमंडलीय
समाचारसेवा) की नहीं, बल्कि उसे बदलकर बनायी गयी ‘अभूस’ (अखिल भूमंडलीय
समाचारसेवा) की पत्रकार थी। अब मेरा काम दुनिया में हो रहे नये बदलावों की
रिपोर्टिंग करना था। दुनिया में इतने बड़े-बड़े बदलाव इतनी तेजी के साथ हो
रहे थे कि मैं उनकी रिपोर्टिंग के लिए दिन-रात यहाँ से वहाँ भागती रहती थी।
इधर मेरी रुचि प्रकृति और पर्यावरण से संबंधित बदलावों में अनायास बढ़ गयी
थी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अपने काम के साथ-साथ मैं अपने माता-पिता,
भाई-बहन और दूसरे सगे-संबंधियों की तलाश भी करती रहती थी। मगर उनमें से कोई
भी मुझे कहीं भी नहीं मिला। हाँ, एक बार जब मैं दुनिया भर में घूम-घूमकर
पागलों द्वारा शुरू की गयी नये ढंग की सामूहिक खेती-बाड़ी, बागवानी और खाने
योग्य पशुओं, पक्षियों, मछलियों आदि के उत्पादन के साथ-साथ पर्यावरण की
रक्षा से संबंधित कार्यक्रमों की रिपोर्टिंग कर रही थी, तब मुझे एक
पर्यावरण सम्मेलन में एक पागल दिखा, जो मुझे अपने बड़े भाई जैसा लगा। लेकिन
मुझे अपने परिवार से बिछुड़े इतना लंबा अरसा हो चुका था और वह जिस देश में
मुझे दिखा था, वह मेरे देश से इतनी दूरी पर था कि वहाँ मुझे अपने भाई का
होना संभव नहीं लगा। फिर भी मैंने उससे मिलकर उसके अतीत के बारे में जानना
चाहा। लेकिन वह हँस दिया। मैं समझ गयी, यदि वह मेरा भाई होता, तो अवश्य ही
मुझे पहचान लेता।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
लेकिन उस पागल से मिलने के बाद मैंने
सोचा, कम से कम एक बार मुझे उस देश में अवश्य जाना चाहिए, जो कभी मेरा देश
था और जिसे कभी समर्थों ने धूल में मिला दिया था। दुनिया में इतने बड़े-बड़े
परिवर्तन हो गये हैं, क्या पता वहाँ जाकर मुझे अपने परिवार के लोगों के
बारे में कुछ पता चले या शायद वहाँ कोई मुझे मिल ही जाये।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
और एक दिन मैं वहाँ पहुँच गयी, जहाँ मेरा
शहर हुआ करता था। उस जगह का नाम तो वही था, लेकिन मेरा जाना-पहचाना वह शहर
वहाँ नहीं था, जो नदी के दोनों किनारों पर घनी बस्तियों, बहुमंजिली
ऊँची-ऊँची इमारतों और बड़े-बड़े उद्योगों वाला एक बड़ा शहर था। नदी अब भी वहाँ
थी, लेकिन उसके दोनों तरफ घनी बस्तियों की जगह हरी-भरी खेतियाँ थीं।
बहुमंजिली इमारतों की जगह इकमंजिले मकान थे। दिन में धूप और रात में चाँदनी
के लिए खुले-खुले मकान। बड़ी-बड़ी मशीनों वाले बड़े कारखानों की जगह
छोटे-छोटे कारखाने थे, जिनमें हाथ से या छोटी मशीनों से रोजमर्रा के काम की
चीजें बनायी जा रही थीं। जहाँ फौजी छावनी हुआ करती थी, वहाँ स्कूल, काॅलेज
और अस्पताल बन गये थे। परेड मैदानों को खेल के मैदानों में बदल दिया गया
था। हथियार बनाने का कारखाना दवाइयाँ बनाने का कारखाना बन गया था।
आयुध-भंडार खाद्य सुरक्षा के लिए बनाया गया अन्न भंडार बन गया था। रेलवे
स्टेशन था, लेकिन पहले जितना बड़ा, बंद और भीड़भाड़ वाला नहीं, बल्कि छोटा-सा
खुला हुआ और शांत। पेट्रोल और डीजल से चलने वाले वाहन जब सारी दुनिया में
ही चलने बंद हो गये थे, तो पहले की तरह उनसे घिरी सड़कें अब मुझे वहाँ कहाँ
दिखतीं? उनकी जगह मुझे वे वाहन दिखे, जो मैंने बचपन में शहरों से दूर
गाँव-देहात में चलते देखे थे–बैलगाड़ी, भैंसागाड़ी, घोड़ागाड़ी, ऊँटगाड़ी। लोग
ज्यादातर पैदल चल रहे थे या साइकिलों पर।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैं संवाददाता वाली जिज्ञासा के साथ लोगों
से पूछताछ करती, अपने बदले हुए शहर के बारे में नयी जानकारियाँ जुटाती घूम
रही थी और साथ-साथ उस जगह का पता भी लगा रही थी, जहाँ कभी मेरा घर था। बड़ी
देर बाद मुझे एक बूढ़ा आदमी मिला, जिसे मैं पहचान गयी। उसने भी मेरे
माता-पिता के नाम से मुझे पहचान लिया। मैंने उससे अपने घर के बारे में
पूछा, तो वह मुझे एक टीले पर ले गया और वहाँ से नदी किनारे के हरे-भरे
खेतों के बीच बने खूबसूरत मकानों वाली छोटी-सी बस्ती की तरफ इशारा करते हुए
बोला, ‘‘वहाँ है तुम्हारा घर।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मेरे पूछने पर उसने बताया कि युद्ध के
दिनों में जब शहर पर भारी बम बरसाये जा रहे थे, दूसरे लोगों की तरह मेरे
परिवार के लोग भी जान बचाने के लिए भागे थे। वे कहाँ-कहाँ गये, कहाँ-कहाँ
रहे, उसे मालूम नहीं था। कब और कैसे लौटे, यह भी वह नहीं बता सका। मगर उससे
मुझे यह मालूम हो गया कि लौटने वालों में मेरी माँ थीं, मेरे पिता नहीं
थे। मेरी छोटी बहन नहीं थी, पर मेरे बड़े भाई थे। माँ और बड़े भाई ने दूसरे
लोगों के साथ मिलकर नदी के किनारे खाली पड़ी जमीन को सामुदायिक खेती के लायक
बनाया, खेतों के बीच सामूहिक श्रम से मकान बनाये, जो सुंदर थे और एक जैसे
नहीं थे। उनमें से ही एक मकान में मेरी माँ मेरे भाई, मेरी भाभी और मेरी
एक भतीजी के साथ सुख से रहती हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
विदा लेते समय मैंने शुक्रिया कहा, तो उस भले बूढ़े ने मेरा सिर थपथपाकर आशीर्वाद दिया, ‘‘खुश रहो। जाओ, मिलो अपने लोगों से।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मुद्दतों बाद मुझसे मिलकर माँ और भाई तो
खुश हुए ही, पहली बार मिली भाभी और भतीजी भी बहुत खुश हुईं। भतीजी को देखकर
मुझे लगा कि जैसे मैं उसमें अपनी किशोरावस्था देख रही हूँ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैं शाम को घर पहुँची थी। शाम से देर रात
तक खाना-पीना चलता रहा और दुनिया भर की बातें होती रहीं। बातों ही बातों
में मुझे पता चला कि माँ, भाई और भाभी तीनों मिलकर सामुदायिक खेती और
बागवानी करते हैं और मेरी भतीजी स्कूल में पढ़ती है। मगर इसके अलावा चारों
सार्वजनिक जीवन में भी खूब सक्रिय रहते हैं। माँ की रुचि शुरू से ही संगीत
में थी, सो वे एक संगीतशाला में बच्चों को संगीत सिखाती हैं। भाई को बचपन
से ही चित्रकला में रुचि थी और अब वे एक अच्छे चित्रकार बन गये हैं। भाभी
की रुचि इतिहास लेखन में है और वे एक पुस्तक लिख रही हैं–‘पागलों ने दुनिया
बदल दी’। भतीजी की रुचि तैराकी में है और उसने तैराकी की कई प्रतियोगिताओं
में पदक प्राप्त किये हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अगले दिन सुबह सबने मुझे पूरा घर दिखाया,
अपने पड़ोसियों से मिलवाया और अपने सामुदायिक खेतों और बागों में घुमाया।
वहाँ से नदी पास ही थी। भाई ने मुझसे कहा, ‘‘आओ, नदी पर चलते हैं।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘नहीं, नदी पर नहीं।’’ सहसा मेरे मुँह से निकल गया।</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘क्यों? नदी पर क्यों नहीं?’’ भाई को
आश्चर्य हुआ, लेकिन अगले ही क्षण उन्होंने मेरी तरफ देखा और हँस पड़े,
‘‘डरती हो कि फिसलकर उसमें गिर न पड़ो?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैं शरमा गयी। मुझे बचपन की वह घटना याद
थी, जब मैं माता-पिता और भाई-बहन के साथ एक बार नदी पर घूमने आयी थी और
किनारे पर से फिसलकर नदी में गिर गयी थी। नदी शहर की गंदगी और कारखानों से
निकलने वाले काले गंधाते पानी के मिलने से बदबूदार गंदे नाले जैसी हो गयी
थी और गहरी होने के बावजूद बड़ी मंथर गति से बहती थी। मैं उसमें गिरकर डूबने
लगी, तो पिता उसमें कूद पड़े और उन्होंने मेरे बाल पकड़कर मुझे पानी में से
निकाला। पिता और मैं नदी में से निकलकर आये, तो काले बदबूदार पानी में भीगे
हुए थे और उसमें बहते सड़े-गले खर-पतवार के तिनके हमारे बालों में, मुँह और
हाथ-पैरों पर चिपके हुए थे। हमें इस हालत में देखकर मेरे भाई-बहन ही नहीं,
माँ भी खूब हँसी थीं।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मुझे शरमाते देख भाई ने कहा, ‘‘डरो नहीं, दूसरी तमाम चीजों की तरह हमारी नदी भी बहुत बदल गयी है।’’</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
और मैंने पास जाकर नदी को देखा, तो देखती
ही रह गयी। काले बदबूदार पानी वाली और मंथर गति से बहने वाले गंदे नाले-सी
नदी अब एकदम स्वच्छ जल और तेज बहाव वाली सुंदर नदी बन गयी थी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
उसमें कुछ ऐसा आकर्षण और आमंत्रण था कि
मैंने कहा, ‘‘मैं नहाऊँगी।’’ और जो कपड़े मैं पहने हुए थी, उन्हीं को
पहने-पहने मैंने छलाँग लगा दी। मुझे मालूम नहीं था कि पानी का बहाव इतना
तेज होगा। तैरना जानते हुए भी मैं नदी की तेज धार में बह चली और डूबने लगी।
यह देखकर मेरी भतीजी नदी में कूदी, तेजी से तैरती हुई मेरे पास आयी और
मुझे बाहर निकाल लायी।</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘याद है, माँ, जब यह बचपन में फिसलकर नदी में गिर गयी थी और पिता इसे निकालकर लाये थे?’’ भाई ने मुस्कराते हुए कहा।</div>
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<br /></div>
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‘‘हाँ, याद है। तब यह कैसी भूतनी बनकर निकली थी!’’ माँ हँस पड़ीं।</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
उनको हँसते देख मेरी भी हँसी छूट गयी और मैं खूब हँसी। बहुत दिनों बाद इतना हँसी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
हँसते-हँसते मैंने नदी की ओर देखा। स्वच्छ
जल की वेगवती धारा के उस पार खड़े घने दरख्तों के ऊपर उठते सुबह के सूरज को
देखा। पीछे मुड़कर हरे-भरे खेतों के एक तरफ फलदार पेड़ों के बागों को और
दूसरी तरफ बने सुंदर इकमंजिले मकानों को देखा। फिर मैंने अपने परिवार को
देखा और सभी कुछ मुझे इतना सुंदर लगा, इतना सुंदर लगा कि बता नहीं सकती!</div>
</div>
ramesh upadhyayhttp://www.blogger.com/profile/05054633574501788701noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-1496071818736613491.post-61844856697387330902017-07-08T23:16:00.000-07:002017-07-08T23:16:55.087-07:00माटीमिली<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
यह कहानी मैंने 1977 में लिखी थी और मेरे कहानी-संग्रह 'बदलाव से पहले' (1981) में संकलित है. इसका पंजाबी अनुवाद प्रसिद्ध पंजाबी कथाकार अमरजीत चन्दन ने 'खेह पैणी' नाम से किया था. वह अनुवाद पंजाबी में प्रकाशित मेरी कहानियों के संग्रह 'त्रासदी...माइ फुट!' में प्रकाशित है. </div>
<div style="text-align: justify;">
इधर साहित्यिक पत्रिका 'परिकथा' के जुलाई-अगस्त, 2017 के अंक में इसे पुनः प्रकाशित किया गया है. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: purple;"><b>कहानी</b></span><br /><br /><span style="color: #4c1130;"><span style="font-size: large;"><b>माटीमिली</b></span></span><br /><br />‘‘इस तरह मुँह काला करायेेगी, रधिया, तो गाँव में तेरा टिकना मुश्किल हो जायेगा।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />जाड़े की आधी रात है। चाँदनी में कोहरा घुला हुआ है। खेतों से गाँव की ओर जाने वाला दगड़ा धुँधलाये उजास में सुनसान और डरावना लग रहा है। लेकिन यहाँ एक धर्मप्राण व्यक्ति एक गिरी हुई औरत को उपदेश दे रहा है। धर्मप्राण व्यक्ति हैं पंडित शिवदत्त और गिरी हुई औरत है रधिया कुम्हारिन।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘अगर भली औरत की तरह नहीं रह सकती, तो कहीं और जा मर।’’ पंडित शिवदत्त कह रहे हैं और रधिया सुन रही है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />जूते-मोजे और कोट-कंबल डाटे, सिर पर ऊनी टोपी और उसके ऊपर से कसकर मफलर बाँधे पंडित शिवदत्त रधिया पर गर्म हो रहे हैं और रधिया पैरों में सिर्फ दो रुपये वाली प्लास्टिक की चप्पलें पहने, धोती-कुर्ती पर बस एक सूती खेस लपेटे खड़ी काँप रही है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />खेत में सोबरन से मिलकर वह जल्दी-जल्दी अपने घर की ओर लपकी जा रही थी कि पीपल के नीचे से आते पंडित शिवदत्त अचानक हाथ में लोटा लिये प्रकट हो गये। इतनी रात और इतनी ठंड में तो कुत्ते-सियार भी कहीं दुबके रहते हैं, लेकिन पंडित शिवदत्त आ रहे थे। पहचानकर बोले, ‘‘रधिया, तू? इतनी रात को कहाँ से आ रही है?’’ और सहमी हुई रधिया चुप खड़ी रह गयी, तो सब कुछ जानते-बूझते भी कहने लगे, ‘‘तो सोबरन से तेरी यारी चल रही है, क्यों?’’ और फिर शायद भूल ही गये कि लोटा लेकर घर से किसलिए निकले हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />न ठंड की परवाह है, न रात के सन्नाटे की। रधिया के चारित्रिक पतन की समस्या उनके लिए सर्वप्रमुख हो उठी है और वे उसे उपदेश दिये जा रहे हैं। उनके विचार से रधिया अपने दुराचार से गाँव की नाक कटवा रही है, गाँव में घोर कलियुग ले आयी है, बालकों को रात में अकेले छोड़कर यहाँ खेतों में रासलीला रचाने आती है, लोक-परलोक की कुछ भी चिंता नहीं...</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />रधिया यह सब न समझती हो, सो बात नहीं; लेकिन रधिया के अपने तर्क हैं। उसके हिसाब से जवान औरत को मर्द चाहिए और बिन बाप के बालकों को बाप। उसका आदमी जिंदा होता, तो वह भी किसी सती-सावित्री से कम नहीं थी। हालाँकि वह जानती है कि सोबरन वह मर्द-बाप नहीं है, लेकिन अकेली औरत को, जिसे सब चींथ खा जाना चाहते हों, सुरक्षा का कोई साधन तो चाहिए।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />लेकिन गाँव रधिया के तर्क नहीं मानता। उसके लिए तो रधिया बस एक गिरी हुई औरत है। शुरू में जब रधिया अपनी बदनामी से डरती थी, कोई कुछ कहता तो सफाइयाँ देने लगती थी और झूठी कसमें खा जाती थी। फिर भी कहा-सुनी बंद न होती, तो लड़ने लगती। झूठी तोहमतें लगाकर सामने वाले की आबरू मिट्टी में मिला देती। कहती, ‘‘कौन दूध का धोया है, मैं भी तो जानूँ। मुझे तो सब समझाते हैं, कोई उन लोगों को क्यों नहीं समझाता, जो हमेशा मेरी मिट्टी खराब करने की ताक में रहते हैं?’’ रधिया की इतनी बात सच होती और इस सच के आधार पर वह किसी के भी बारे में बड़े से बड़ा झूठ बोल जाती। इसलिए लोग उससे डरने लगे थे। आज भी डरते हैं। मगर नफरत भी करते हैं, इसलिए चुप भी नहीं रह सकते। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />रधिया ने जब देखा कि गाँव वालों के मुँह किसी तरह बंद नहीं किये जा सकते, तो अपना ही मुँह बंद कर लिया। अब कोई कुछ कहता है, तो कहता रहे। वह किसी को जवाब नहीं देती। सारे लांछन, सारे उपदेश चुपचाप सुन लेती है। इस समय भी सुन रही है। सुन रही है, वरना ठेंगा दिखाकर चली गयी होती, तो पंडित शिवदत्त क्या कर लेते उसका?</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />पंडित शिवदत्त रधिया की चुप्पी से चिढ़ रहे हैं। कह रहे हैं, ‘‘कितनी ढीठ हो गयी है तू! कोई कुछ भी कहता रहे, तुझे किसी की परवाह नहीं।’’ उनकी चिढ़ स्वाभाविक है। जवाब न मिले, तो लांछन धरने वाले का मजा नहीं आता। गुस्सा और चढ़ता है, ‘‘नहीं मानती तो जा, मर, हमें क्या है! जैसा करेगी वैसा भुगतेगी। देखती जा, तेरी देह में नरक फूटेगा। बुढ़ापे में भीख माँगती डोलेगी।’’ लेकिन जानते हैं कि उपेक्षा से भी तो काम नहीं चलेगा, इसलिए फिर कहते हैं, ‘‘तू चाहती है कि हम इस अनर्थ को चुपचाप देखते रहें? सो नहीं होगा। इसका मतलब तो यह है कि तू जो पाप करती है, गाँव की रजामंदी से करती है। पर गाँव यह सब बर्दाश्त नहीं करेगा। पंच-प्रधान लोग तेरा बहिष्कार करने की सोच रहे हैं। खैर चाहती है, तो अब भी सँभल जा।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />रधिया सुन रही है और चुप है। उसे गाँव से निकाल देने की कोशिश आज से नहीं, तभी से चल रही है, जब से वह विधवा हुई है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />सरूपा कुम्हार मरा था, तो लोगों ने अंदाजा लगाया था कि अकेली रधिया यहाँ नहीं रहेगी। गाँव में कोई दूसरा घर कुम्हारों का नहीं है। सरूपा भी सात-आठ साल पहले ही इस गाँव में आकर बसा था। पहले वह अपने गाँव से गधे पर बरतन लादकर यहाँ बेचने आता था, लेकिन शादी के बाद ही भाइयों में बँटवारा हो गया, तो सरूपा यहाँ के मुखिया ठाकुर नूरसिंह के सामने आकर रोया था, ‘‘ताल के किनारे एक झुपड़िया डाल लेने दो मुखिया, जिंदगी-भर तुम्हारे बासन बनाऊँगा।’’ मुखिया ने इजाजत दे दी थी और सरूपा अपनी नयी ब्याहुली रधिया के साथ गाँव में आ बसा था। कच्ची ईंटें पाथकर दोनें ने खुद ही ताल के किनारे अपना घर बना लिया था और गाँव ने उन्हें ऐसे अपना लिया था, जैसे वे सदा से यहीं रहते आये हों। लेकिन एक बेटी और एक बेटा पैदा करके सरूपा जब पिछले साल हैजे से मर गया, तो लोगों ने सोचा था, अकेली रधिया अब क्या रहेगी यहाँ? सरूपा के भाई उसे लेने आये थे। एक रँडुआ देवर तो रधिया से नाता करके यहीं रह जाने की बात भी करता था, लेकिन रधिया ने लड़कर सबको भगा दिया था। कहा था, ‘‘जब चार दिन की ब्याहुली को घर से निकाला था, तब कहाँ गयी थी तुम्हारी दया-माया? चले जाओ, मैं अकेली ही अपनी जिंदगी काट लूँगी।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />कुम्हारों में सदा के लिए विधवा बनकर रहना जरूरी नहीं। रधिया चाहती, तो कहीं भी नाता कर लेती, लेकिन अपने हाथों बनाये घर और रोटी-कपड़ा दे सकने वाले जमे-जमाये चाक से उसे इतना मोह हो गया था कि न तो उसे छोड़कर कहीं जाना चाहती थी, न उसे यह पसंद था कि सरूपा का घर किसी और का घर कहलाये। डरती भी थी कि दूसरे आदमी ने अगर सौत लाकर छाती पर बिठा दी, तो वह अपने बालकों को लेकर कहाँ जायेगी?</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />गाँव वालों को रधिया का रह जाना अच्छा लगा था, लेकिन मुखिया को अखर गया था। रधिया के चले जाने की संभावना सामने आते ही उसके घर पर उनकी नजर गयी थी। भले ही वह उनकी अपनी सीर-पट््टी पर नहीं, गाँव की पंचायती जमीन पर बना था, लेकिन उनकी इजाजत से बना था, इसलिए खाली हो जाने पर वे उस पर कब्जा कर सकते थे। उन्होंने सोच लिया था कि पंच लोग न माने, तो वे उसे चैपाल बना देंगे, पर उसका इस्तेमाल तो कर ही सकंेगे। लेकिन रधिया जब कहीं नहीं गयी, तो उन्हें लगने लगा, जैसे वह उनके अपने घर पर कब्जा किये बैठी है। अहसान जताकर रधिया से कुछ और वसूल करना चाहा, तो वह भी नहीं कर सके। उलटे एक नुकसान और हो गया। सरूपा से उन्होंने चाहे जितने बरतन बनवाये, कभी दाम नहीं दिया था, लेकिन रधिया ने फोकट में बरतन देने से इनकार कर दिया। तब से मुखिया बहुत चिढ़े हुए हैं रधिया से। पंच-प्रधान लोगों को उकसाते रहते हैं कि रधिया को गाँव से निकाला जाये, लेकिन गाँव वाले रधिया का ही पक्ष लेते हैं--पड़ी रहने दो, मुखिया! विधवा है बेचारी, अपना कमाती-खाती है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />रधिया को नहीं मालूम, लेकिन गाँव के लड़कों को मुखिया ने ही रधिया के पीछे लगाया था। रधिया ने लड़कों को हाथ नहीं धरने दिया, तो उन्होंने ही गाँव के गुंडा पहलवान सोेबरन को उकसाया था, ‘‘कुम्हरिया बहुत इतराकर चलती है, सोबरन। लगता है, कोई उसके कस-बल ढीले करने वाला नहीं मिला।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />नजर तो सोबरन की भी थी रधिया पर, लेकिन डरता था। मुखिया की शह पाकर उसकी झिझक जाती रही थी। उसी शाम उसके घर पानी का गगरा फूट गया था और नया गगरा लेने वह रधिया के घर जा पहुँचा था। लेकिन उसे आश्चर्य हुआ था कि रधिया ने उसकी छेड़खानी का विरोध नहीं किया। गालियाँ नहीं दीं। शोर नहीं मचाया। रोने लगी। रो-रोकर उसने सोबरन को बताया कि गाँव के बड़े लोगों के लड़के उसे तंग करते हैं और वह कई दिनों से खुद ही सोबरन से उनकी शिकायत करने की सोच रही थी। सोबरन ने आश्वासन दिया था, ‘‘फिकर मत करो, राधे, अब किसी की हिम्मत नहीं कि तुम्हारी तरफ आँख उठाकर भी देखे। सब सालों को देख लूँगा मैं।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />रधिया जानती थी कि सोबरन बदमाश है। हनुमान के अखाड़े में पहलवानी करता है, लेकिन दारू पीता है, जुआ खेलता है, ठाकुर नूरसिंह की पाल्टी में होने के कारण उनके विरोधियों से लड़ाई-झगड़ा और मार-पीट करता रहता है, कोई और नहीं मिलता तो अपनी औरत को ही कसाइयों की तरह पीटता है। फिर भी उसने सोबरन का हाथ पकड़ा था और उसके बाद गाँव के लफंगे लड़कोें से सचमुच सुरक्षित हो गयी थी। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />मुखिया ने यह नहीं सोचा था कि सोबरन से रधिया की ऐसी यारी हो जायेगी। उन्हेें लगा, सोबरन को जिस काम पर उन्होंने लगाया था, सोबरन ने किया नहीं। वे सोबरन से नाराज रहने लगे थे और रधिया के कस-बल ढीले करने के लिए उन्होंने अपने लड़के मलखान सिंह को प्रेरित किया था। नतीजा यह हुआ कि सोबरन और मलनखान सिंह में लड़ाई हो गयी और सोबरन ने मलखान सिंह का सिर फोड़ दिया। खुंस में मुखिया ने सोबरन को झूठमूठ एक डकैती के केस में फँसा दिया। थानेदार को रुपया खिलाकर सोबरन छूट तो आया, लेकिन इसके लिए उसे मुखिया से ही कर्ज लेना पड़ा और अपने खेेत रेहन रख देने पड़े। तब से वह मुखिया की पाल्टी से अलग हो गया है और बदला लेने की सोच रहा है, लेकिन मौका नहीं पा रहा है। मुखिया रधिया और सोबरन दोनों से खफा हैं, लेकिन सोबरन से डरते हैं, इसलिए अब उन्होंने धरम-करम की बातें शुरू कर दी हैं। परसों उन्होंने पंडित शिवदत्त से कहा था, ‘‘रधिया ससुरी बड़ा अनर्थ कर रही है, पंडित! हम तो समझा-बुझाकर हार गये। अब तो तुम ही उसे समझाओ। नहीं माने तो गाँव से साली का बहिष्कार कर दो।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />पंडित शिवदत्त को नहीं मालूम था कि रधिया को समझाने का मौका उन्हें इतनी जल्दी मिल जायेगा। रधिया से वे डरते भी थे। एक बार कुछ कहा था, तो रधिया ने सबके सामने उसका पानी उतार दिया था। इसलिए उन्होंने मजाक में लोगों से कहा था, ‘‘हम समझाने गये, तो तुम ही लोग कहोगे कि पंडित भी रधिया से जा फँसे।’’ मुखिया की चैपाल पर बैठे लोग उनकी बात सुनकर हँसे थे। कहा था, ‘‘अरे पंडितजी, तुम अब साठ से ऊपर के हुए, अब तुम क्या फँसोेगे किसी से!’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />मन में यह सरस वार्तालाप चल रहा है और मुँह से धाराप्रवाह उपदेश निकल रहा है। एक पंथ दो काज वाली कहावत को मन ही मन गुनते हुए पंडित शिवदत्त एक साथ दो बातें सोच रहे हैं। रधिया को समझा-बुझाकर सुमार्ग पर लाना है और मौका लगे, तो यह परीक्षा भी कर देखनी है कि इस उम्र में किसी से फँस सकते हैं या नहीं।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />लेकिन रधिया ठंड में सुन्न हुई जा रही है। पैरों में चढ़ता शीत उसकी टाँगों को काठ न बना दे, इसलिए कभी एक पाँव पर जोर देकर खड़ी होती है, कभी दूसरे पाँव पर। कह कुछ नहीं रही, लेकिन समझ सब रही है। मुखिया की चैपाल पर हुई बातचीत वह सुन चुकी है। सोबरन से भी अभी यही बात करके आ रही है। सोबरन ने उसे आश्वासन दिया है, लेकिन उसने कहा है कि वह नूरसिंह को तो देख लेगा पर पंडित शिवदत्त से कुछ नहीं कह पायेगा। पंडित शिवदत्त उसके गुरु हैं। उन्हीं के हनुमान मंदिर वाले अखाड़े में वह पहलवान बना है। रधिया शिवदत्त को मँगता बामन ही कहती-मानती है, लेकिन सोबरन से बात करने के बाद उनसे डर रही है। जानती है, यह मँगता बामन गाँव के मुखिया और पंच-प्रधान लोगों से मिलकर उसे गाँव से निकलवा सकता है। अपने बालकोें की चिंता है उसे। गाँव से निकाल दी गयी, तो कहाँ जायेगी उनको लेकर? पीहर में भी तो कोई नहीं बचा, नहीं तो...</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘तू कुछ बोलेगी भी? हम इतनी देर से तुझसेे सिर मार रहे हैं और तू एकदम चुप्प खड़ी है।’’ पंडित शिवदत्त जोर से डाँटते हैं, तो रधिया को लगता है, अब तो कुछ बोलना ही पड़ेगा। कहती है, ‘‘तुम ठीक कह रहे हो, पंडितजी। कान पकड़ती हूँ, अब उसकी तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखूँगी।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘पर तेरा क्या विश्वास? कल को फिर तू...?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘नहीं पंडितजी, अपने बालकों की सौंह।’’ जानती है कि झूठी कसम खा रही है, लेकिन इसके अलावा जान छुड़ाने का और उपाय भी क्या है? कसम खाते-खाते रुआँसी हो आयी है। इस समय तो वह इस मँगते बामन के पाँव भी पकड़ सकती है। लेकिन पंडित शिवदत्त इतने से ही संतुष्ट हो गयेे हैं। कहते हैं, ‘‘तो जा, अब घर जा। जिन बालकों की सौगंध खायी है, उन्हें जाकर सँभाल।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />रधिया तेज-तेज कदमों से गाँव की ओर चल दी है और पंडित शिवदत्त ‘हरिओम-हरिओम’ कहते हुए खेत की तरफ बढ़ गये हैं। एक पतिता को पाप से बचा लेने और स्वयं पाप में पड़ते-पड़ते बच जाने के संतोष और आनंद के साथ वे खेत की मेंढ़ पर लोटा रखकर हगने बैठ गये हैं, लेकिन रधिया का गोरा रंग और सुंदर चेहरा उनकी आँखों में बसा हुआ है। थोड़ी देर पहले रधिया और सोबरन ने खेत में बने मचान पर जो लीला की होगी, उसकी कल्पना से वे उत्तेजित हो जाना चाह रहे हैं, लेकिन जाड़े की रात में खुले मैदान की यह ठंड...हरिओम-हरिओम... </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />**<br />गाँव सोया पड़ा है। बुझे हुए अलावों की राख से थोड़ी गरमाई पाते हुए कुत्तों ने रधिया की आहट पर जागकर गुर-गुर ही है, लेकिन भौंके नहीं हैं। ताल के किनारे गाँव से अलग-थलग बना रधिया का घर एकदम भूतवासा लग रहा है। एक मड़हे और एक छप्पर वाले इस घर के गज-भर ऊँची सपील से घिरे आँगन में ही चाक चलता है और उसी के एक कोने में आँवाँ सुलगता है। विधवा हो जाने के बाद से रधिया ही मिट्टी खोदने-गोेेड़ने से लेकर बरतन पकाने तक का सारा काम करती है। हुनर हाथ में ऐसा है कि उसे अपने बरतनों पर गेरू पोतने की जरूरत कभी नहीं पड़ी। आँच ही ऐसी देती है कि काली मिट््टी में भी दमकता हुआ लाल रंग खिल उठता है। इस समय सारा आँगन आज ही चाक से उतारे गये कच्चे सकोरों की पाँतों से भरा हुआ है। कल जब ये सूख जायेंगे, तब रधिया इन्हें पकायेगी। अभी तो ये ऐसे लग रहे हैं, जैसे इनमें चाँदनी भरने के लिए इन्हें आँगन में सजा दिया गया हो। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />सकोरों को देखकर रधिया मुस्कराती है। पंडित जी की सारी धमकियाँ और सारे उपदेश बिसर जाते हैं। शाम की वह घड़ी याद आ जाती है, जब वह यहाँ बैठी चाक चला रही थी। थकान से उसकी कमर टूट रही थी, जब सोबरन ताल में बैलों को पानी पिलाकर खँखारता हुआ घर के सामने से गुजरा था। रधिया समझ गयी थी और काम खत्म करने के बाद वह बेहद ठंड के बावजूद गरम पानी और खुशबूदार साबुन से नहायी थी। बच्चों को खिला-पिलाकर उन्हें सुलाते हुए खुद भी थोड़ी देर ऊँघ ली थी कि रात भी हो जाये और कुछ थकान भी उतर जाये। फिर अपने-आप ही जागी थी और घर का दरवाजा भेड़कर दबे पाँव निकल गयी थी। खेत में सोबरन उसकी प्रतीक्षा में जागता मिला था। रधिया ने मचान केे नीचे पहुँचकर सियार की बोली उतारी थी और सोबरन हुर्र करता हुआ फौरन उठ बैठा था। वह मचान पर चढ़ गयी थी और जब सोबरन ने उसे अपनी रजाई में लेकर सीने से चिपटाया था, ठंड के मारे उसके दाँत बज रहे थे और उत्तेजना में उसकी रग-रग काँप रही थी। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />वह सुख मिट्टी हो चुका है। ठंड से काँपती हुई रधिया चुपके से घर में घुसती है। देखती है, दोनों बच्चे चैन से सो रहे हैं। वह अपनी खाट पर रजाई में दुबक जाती है। रजाई ठंडी है और रधिया के पैर तो बरफ हो रहे हैं। जब तक बाहर थी, इतनी ठंड नहीं लग रही थी, लेकिन रजाई ओढ़ लेने के बाद अब उसके दाँत किटकिटा रहे हैं। थोड़ी देर वह पंडित शिवदत्त की बातों पर विचार करती है, लेकिन उसे पता नहीं चलता कि कब रजाई भरक गयी, कब उसकी कँपकँपी बंद हुई और कब उसे नींद आ गयी। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />**<br />पंडित शिवदत्त रधिया को समझाकर ही संतुष्ट नहीं हुए। न जाने उन्हें क्या सूझा कि जंगल-झाड़े से निबटकर खाली लोटा लटकाये खेत की मेढ़-मेढ़ चलते वे सोबरन के मचान तक जा पहुुँचे। सोबरन खर्राटे भर रहा था, पंडित शिवदत्त की ललकारती-सी आवाज सुनकर जागा। लाठी सँभालकर ऊपर से झाँकता हुआ बोला, ‘‘कौन है?’’ और पंडित शिवदत्त को पहचानकर बोला, ‘‘क्या बात है, गुरूजी?’’ कहता हुआ अपनी रजाई लपेटे नीचे उतर आया। मन में खुटका तो हो रहा था कि पंडित ने शायद रधिया को यहाँ से जाते देख लिया है, लेकिन यह नहीं जानता था कि वे इस बात को इतना तूल देंगे।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘तुमको शरम नहीं आती, सोबरन?’’ पंडित शिवदत्त कोई भूमिका बाँधे बिना लताड़ने लगे, ‘‘घर में सुंदर-सुशील बहू है, ठाकुर नेगसिंह जैसे मातबर आदमी के तुम लड़के हो, हमारे अखाड़े में बीस बरस ब्रह्मचारी रहकर तुमने पहलवानी और हनुमान-पूजा की है, और एक नीच कुम्हारिन पर अपना ईमान बिगाड़ लिया है तुमने, ऐं?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />सोबरन कुछ बोला नहीं, पर उसे हँसी आ गयी। आधी रात को, इतनी ठंड में, और इस तरह सुनसान खेत में आकर, सोबरन को सोते से जगाकर पंडितजी यह सब कहेंगे, यह बात उसे बहुत ही मजेदार लगी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />लेकिन पंडित शिवदत्त पगला रहे थे। पहले वे रधिया की नीचता बताते रहे, फिर न जाने क्या हुआ कि बोेले, ‘‘रधिया के पास ऐसा क्या है, जो तुम्हारी बहू के पास नहीं है?’’ इसके बाद वे रधिका के अंग-प्रत्यंग की तुलना सोबरन की बहू से करने लगे। अपने जाने वे सोबरन को सुमार्ग पर लाने के लिए ही ऐसा कर रहे थे, लेकिन सोबरन को उनके मुँह से रधिया की छातियों के साथ अपनी बहू की छातियों का बखान अच्छा नहीं लगा। उसे गुस्सा आ गया। उसने अपनी रजाई उतार फेंकी और पंडित शिवदत्त को उठाकर खेत में पटक दिया। गेहूँ और सरसों के हाथ-हाथ भर ऊँचे पौधों पर जमी ओस में पंडित शिवदत्त नहा-से गये और भयार्त स्वर में चिल्लाने लगे। सोबरन ने उनका मुँह बंद कर दिया और बुढ़ऊ कहीं मर न जाये, इस डर से उन्हें पीटने के बजाय झकझोरकर बोला, ‘‘कहे देता हूँ पंडित, आगे कुछ बोले तो जबान खेंच लूँगा। सोबरन को समझ क्या रखा है तुमने? अब खैर चाहते हो, तो चुपचाप चले जाओ यहाँ से।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />पंडित शिवदत्त लटपटाते हुए उठकर चले गये। बासठ की उम्र हुई, आज तक इतना अपमान उनका कभी नहीं हुआ। भृगु, विश्वामित्र और दुर्वासा जैसे तमाम क्रोधी ऋषि-मुनियों को याद करते हुए वे खेत से निकलकर दगड़े में आये और घूमकर खड़े हो गये। मचान के नीचे सोबरन अभी भी खड़ा था। ठाकुर के लौंडे ने ब्राह्मण पर हाथ उठाया। पंडित शिवदत्त को अपने अंदर परशुराम की आत्मा उतरती महसूस हुई और उन्होंने खाली लोटे को फरसे की तरह उठाकर चिल्लाते हुए प्रतिज्ञा की, ‘‘तेरा वंश न मेट दिया तो नाम शिवदत्त नहीं।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />खेत में छायी खामोशी पर तैरते उनके शब्द दूर खड़े सोबरन तक पहुँचे और वह दगड़े की तरफ बढ़ा। लेकिन उसकी आकृृति हिलती दिखाई दी, तो पंडित शिवदत्त फिर से पकड़ लिये जाने के डर से गिरते-पड़ते गाँव की तरफ दौड़ पड़े। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />**<br />पंडित शिवदत्त चले गये, पर सोबरन को नींद नहीं आ रही है। वह मचान पर बनी झोंपड़ी में घुसकर रजाई ओढ़कर बैठ गया है और बीड़ी फूँक रहा है। सुन रहा है कि नीचे खेत में कोई जानवर घुस आया है और चर रहा है, लेकिन वह उसे भगाने के लिए उठ नहीं पा रहा है। लड़ाई-झगड़ा उसके लिए नयी चीज नहीं है, लेकिन पंडित शिवदत्त पर हाथ उठाना उसे अखर रहा है। अपने गुस्से को सही ठहराने के लिए वह पंडित शिवदत्त की बातें याद कर रहा है, लेकिन उनकी बातें उसे गलत भी लग रही हैं और सही भी। रधिया और अंगूरी की जिस तुलना पर वह बिगड़ उठा था, खुद तब से कई बार कर चुका है। रधिया कभी उन्नीस लगती है, कभी इक्कीस। अंगूरी उसकी बहू है, रधिया से ज्यादा जवान है, उसके लड़के की माँ है। फिर रधिया? लेकिन रधिया में जो बात है, अंगूरी में नहीं। रधिया प्यार करती है, अंगूरी अधिकार जमाती है। अंगूरी सोबरन के दारू पीने पर चिढ़ती है और लड़ती है, रधिया दारू को बुरा नहीं समझती, बल्कि पीने के लिए दो-चार रुपये भी दे देती है। आज भी तीन रुपये दे गयी है। लेकिन...</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />सोबरन को लगता है, बात सिर्फ देह और दारू की नहीं, बात कुछ और है। लेकिन क्या?</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />उसे रधिया की बातें याद आ रही हैं। मुखिया उसे गाँव से निकाल देने की फिराक में हैं, यह सोबरन भी जानता है। लेकिन वह इसमें क्या कर सकता है? रधिया का कोई कानूनी हक तो यहाँ है नहीं। और होता भी तो क्या? कानून तो पैसे का है सब। मेरे ही मामले में क्या हुआ? झूठा मुकद्दमा था, फिर भी जेल हो गयी होती, अगर पैसा न होता...और पैसा तो साले मुखिया जैसे लोगों के पास ही है। उनकी पहुँच भी ऊपर तक है। थाना-कचहरी से लेकर असेंबली तक। सोबरन उनसे अपनी ही लड़ाई नहीं लड़ पा रहा है, रधिया के लिए कैसे लड़े?</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />मगर उसकी यह कमजोरी रधिया जाने, यह सोबरन को मंजूर नहीं। वह कौन होती है उस पर ताना कसने वाली कि वह कुछ नहीं कर सकता? अरे, जब मैं कह रहा हूँ कि मैं सब देख लूँगा तो विश्वास कर। नहीं करती तो मर। उस मास्टर साले को बीच में क्यों लाती है?</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />दरअसल गुस्सा सोबरन को मास्टर पर ही था, मारे गये पंडित शिवदत्त। रधिया ने सोबरन को कच्चा पड़ता देख कहा था, ‘‘देख लो, सोबरन, कहीं मास्टर की ही बात सच्ची न निकले कि तुम कुछ नहीं कर पाओगे।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />सोबरन ने रधिया को डाँट दिया था, ‘‘उस पाजी की बात मत करो, राधे! मैं उसका नाम भी तुम्हारे मुँह से नहीं सुनना चाहता।’’ रधिया हँस दी थी, ‘‘मैं उसका नाम क्यों लूँ, बात आयी तो मैंने कह दी। तुम्हें नहीं पसंद है, तो छोड़ो। पर यह सोच लो कि अब तुम्हें कुछ करना जरूर पड़ेगा। मुखिया मुझे गाँव से निकालने पर तुले हैं।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />रधिया हँस दी थी और सोबरन ने कह दिया था, ‘‘तुम फिकर मत करो, मैं सब देख लूँगा।’’ लेकिन कहते समय उसे लगा था कि वह झूठ बोल रहा है और रधिया उस झूठ को समझ रही है। रधिया के जाने के बाद भी सोबरन इस अहसास से तिलमिला रहा था। उसे लगा, मास्टर से रधिया की बातचीत आजकल कुछ ज्यादा ही होने लगी है। मास्टर जरूर उसे मेरे खिलाफ भड़काता होगा। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘मुखिया के खिलाफ तुम कुछ नहीं करोगे। तुम्हें अपने मौज-मजे से फुर्सत मिले तब न!’’ गाँव के स्कूल में पढ़ाने आने वाले मास्टर की यह बात सोबरन को अक्सर याद आती है। हालाँकि मास्टर ने उसका कभी कुछ बुरा नहीं किया, फिर भी उसे मास्टर पर गुस्सा आता है। उसकी समझ में नहीं आता कि जब दुनिया में सभी बदमाश हैं, तो मास्टर ही एक शरीफ कैसे हो सकता है? फिर गाँव के लोग आनगाँव के इस आदमी की इतनी इज्जत क्योें करते हैं? यहाँ तक कि मुखिया भी उससे दबते हैं, जबकि वह खुलेआम मुखिया की मुखालफत करता है। बातें उसकी सोबरन को भी सही लगती हैं, लेकिन उसमें कुछ ऐसा है कि सोबरन को उससे डर लगता है। और डेढ़ पसली के उस आदमी से सोेबरन डरना नहीं चाहता। हालाँकि मास्टर से डरने की कोई बात नहीं है, मास्टर जब भी मिलता है, हँसकर बात करता है, लेकिन उसकी बातों में कुछ ऐसा होता है कि सोबरन उसके सामने खुद को बहुत छोटा और कमजोर समझने लगता है। यह चीज उसे तिलमिला देती है। तिलमिलाकर वह गुस्से से भर उठता है। गुस्से में किसी से लड़ाई-झगड़ा कर लेता है। कोई और नहीं मिलता, तो अंगूरी को ही पीट देता है। अपने लड़के को ही मार बैठता है। फिर भी तिलमिलाहट जाती नहीं। दारू पीता है, रधिया को भोगता है, फिर भी नहीं। भीतर एक आग-सी लगी रहती है। सोचता है, जब तक नूरसिंह से बदला नहीं ले लेगा, यह आग बुझेगी नहीं। लेकिन मुखिया नूरसिंह रात-बिरात कभी निकलते नहीं, निकलें भी तो तमंचा हर वक्त उनकी जेब में रहता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />इसी उधेड़-बुन में पड़ा सोबरन जागता रहा और बीड़ियाँ फूँकता रहा। उसके लिए यह एक अजीब और परेशानी वाली बात थी। वह कभी उधेड़-बुन में नहीं पड़ता। या तो सीधा सोचता है, या सोचता ही नहीं। सही-गलत जो होता है, कर डालता है। भुगतना पड़ता है, तो भुगत लेता है। चिंता और पहलवानी का कोई साथ नहीं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />हारकर सोबरन ने सीधी बात सोच ली है: सुबह होते ही वह पंडित शिवदत्त के पास जायेगा। उनके चरण छूकर क्षमा माँगेगा। रधिया का जो होना हो सो हो, उसकी परवाह नहीं करेगा। सोबरन ने उसकी सुरक्षा का ठेका थोड़े ही ले रखा है! मास्टर के गुण गाती है, तो जा, मास्टर से मदद माँग। मास्टर की भगतिन...साले को मारा नहीं तो नाम सोबरन नहीं!</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />**<br />सुबह रोज की-सी सुबह थी। रात को जो घटना खेत में घट गयी थी, उसका रंचमात्र भी प्रभाव रधिया के मन पर नहीं था। आँख खुलने पर राधे-राधे कहकर बातें करने वाले सोबरन की आवाज उसके कानों में जरूर गूँजी थी, उठकर अँगड़ाई लेते समय एक सुखद सिहरन भी उसने महसूस की थी, दगड़े में खड़े पंडित शिवदत्त का उपदेश भी उसे याद आया था, लेकिन इस सबको उसने मन पर टिकने नहीं दिया था।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />रोज की तरह उठी और बाजरा पीसने बैठ गयी। पीसती रही और जो मन में आया, गाती रही। बच्चों के जागने का समय हुआ, तो छप्पर के नीेचे बने चैके में आकर चूल्हा चेताया और पानी का बटुला गरम होने को रख दिया। ठंडे पैरों को आँच के सामने रखकर तपाने लगी। अरहर की सूखी डंडियाँ भरभराकर जल रही थीं और लपट लेती आँच को देखना उसे अच्छा लग रहा था। कल खरीदी हुई गुड़ की भेली उसके ध्यान में थी और वह सोच रही थी कि बालक उठ जायें, तो उनके लिए बाजरे का मीठा दलिया पका देगी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />तभी पाँच बरस की उसकी बिटिया उसके पास आ बैठी। रधिया ने ओढ़ा हुआ खेस खोलकर बेटी को ढँक लिया और अपने साथ सटा लिया। फिर बोली, ‘‘अपने मास्साब की बात भूल गयी, बिट्टो?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />सुनकर बिट्टो को सहसा ध्यान आया और उसने मुस्कराते हुए छोटे-छोटे हाथ जोड़कर माँ से कहा, ‘‘अम्मा, नमस्ते।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />रधिया खिल उठी। बिट्टो पर असीसें बरसा दीं। आशीर्वादों में बिट्टो खूब बड़ी हो गयी, पढ़-लिखकर मास्टरनी बन गयी, अच्छे-से दूल्हे के साथ उसकी शादी भी हो गयी। बिट्टो ने माँ की गोद में लेटकर आँखों में बची रह गयी नींद में फिर सपने खोजना शुरू कर दिया, लेकिन माँ चुप होकर चूल्हे में लकड़ियाँ सरकाती हुई, आँच की लपटों को एकटक देखने लगी। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />माँ का सपना बहुत बड़ा है, इसलिए खुली आँखों से देखना पड़ता है उसे। वह जानती है कि एक मेहनत-मजूरी करने वाली, नीच जात, अकेली विधवा को अपने बच्चों को पढ़ा-लिखाकर किसी लायक बनाने का सपना नहीं देखना चाहिए, लेकिन वह देखती है। वह जानती है कि उसका सपना कहीं भी टूट सकता है या तोड़ दिया जा सकता है; लेकिन कच्चे बरतन टूट जायेंगे इस डर से क्या कोई बरतन बनाना छोड़ देता है? उसके बच्चे तो चाक पर चढ़ी गीली मिट्टी हैं। वह उन्हें अच्छे से अच्छा बनाकर चाक सेे उतारेगी, बढ़िया से बढ़िया आँच देकर उन्हें पकायेगी, सुंदर से सुंदर बेल-बूटों से उन्हें सजायेगी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />स्कूल में बिट्टो को दाखिल कराने गयी थी, तो उसने मास्टर से कहा था, ‘‘खूब अच्छी तरह पढ़ाना, मास्टर, मैं अपनी बिट्टो को मास्टरानी बनाऊँगी।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />मास्टर एक विधवा कुम्हारिन की इस महत्त्वाकांक्षा पर मुस्कराया था। मूँछों में हँसते हुए उसने कहा था, ‘‘सो तो ठीक है, रधिया, लेकिन यह ठहरी लड़की जात। मास्टरनी बन भी गयी, तो क्या इसकी कमाई तुम्हारे हाथ आयेगी?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />रधिया बात समझकर भी तिलमिलायी नहीं थी। हँसकर कहा था, ‘‘इतने गगरे-सुराहियाँ बनाती हूँ, मास्टर, सबका ठंडा पानी मैं ही पीती हूँ क्या? और तुम भी तो यही काम करते हो। तुम्हारे पढ़ाये हुए बालकों में से कोई मास्टर बनेगा, कोई पटवारी, कोई थानेदार। क्या उनकी कमाई तुम्हें खाने को मिल जायेगी?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />मास्टर अचकचाकर रधिया का मुँह देखने लगा था। रधिया जैसी औरत के मुँह से ऐसी ज्ञान की बात सुनने की उम्मीद उसे नहीं थी। उस समय कुछ नहीं कहा था उसने, पर एक दिन बिट्टो ने स्कूल से लौटकर माँ को बताया था कि मास्साब ने क्या कहा है--अपनी माँ से खूब प्यार किया करो। रोज सुबह उठकर नमस्ते किया करो। तुम्हारी माँ बहुत समझदार औरत है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />रधिया चूल्हेे की आँच को देखती है और मुस्कराती है। अपने बारे में सोचती है--कितनी गिरी हुई और बदनाम औरत है वह, लेकिन कोई तो है, जो उसे ठीक समझता है। मास्टर के लिए उसके मन में आदर ही आदर है। उसे वह बिट्टो के संदर्भ से ही नहीं, अपने संदर्भ से भी जानती है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />गाँव में सोबरन के साथ रधिया को सबसे पहले मास्टर ने ही देखा था। उस दिन मास्टर को गाँव में कुछ देर हो गयी थी। शाम के झुटपुटे में रेतीले दगड़े में अपनी साइकिल रौंदता वह अपने गाँव जा रहा था कि अमराई के साथ वाले अरहर के खेत में से सोबरन और रधिया अचानक एक साथ निकल पड़े थे। गाँव में अरहर के खेत बदनाम होते हैं। रधिया के साथ सोबरन को अरहर के खेत से निकलते देख अनुमान के लिए कुछ बचा ही नहीं था। मास्टर मुस्कराता हुआ आगे बढ़ गया था, लेकिन सोबरन ने उसे पुकार लिया था, ‘‘सुनो मास्टर!’’ और मास्टर के रुक जाने पर सोबरन ने पास आकर उसकी साइकिल का हैंडिल पकड़ लिया था। कहा था, ‘‘तुमने देख तो लिया और देखकर मुस्करा भी लिये, पर आगे बात फैली, तो इस गाँव में मास्टरी नहीं कर पाओगे। मेरा नाम सोबरन है।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />धमकी तगड़ी थी, क्योंकि सोबरन तगड़ा था, लेकिन मास्टर हँस दिया था। बोला, ‘‘हाँ, भाई, तुम सोबरन ही हो। मैं तुम्हें जानता हूँ। नामी पहलवान हो। लेकिन गाँव में शायद एक सोबरन और भी तो है, जो किसी डकैती-वकैती में पकड़ा गया था? सुना है, वह थानेदार के जूते चाटकर जेल जाने से बच आया था।’’ सोबरन को झटका लगा था, लेकिन मास्टर उसे बोलने का मौका दिये बिना कहता गया था, ‘‘मुझे तो तुम यहाँ मास्टरी करने नहीं दोगे, पर नूरसिंह ने तुमको डाके में फँसाकर जबर्दस्ती तुम्हारे खेत रेहन रख लिये, तब तुम्हारी मर्दानगी कहाँ गयी थी?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘उस बात से तुमको कोई मतलब नहीं, मास्टर!’’ सोबरन को गुस्सा चढ़ आया था और साइकिल के हैंडिल को झकझोरते हुए उसने कहा था, ‘‘तुमने मेरे खिलाफ कुछ किया, तो काटकर नहर में फेंक दूँगा।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘तुम्हारा क्या खयाल है, मैं तुम्हारे खिलाफ क्या करूँगा?’’ मास्टर ने गंभीर होकर पूछा था। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘बदनामी करोगे, और क्या करोगे तुम! पर मैं भी देख लूँगा।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘निश्चिंत रहो, तुम्हारी बदनामी करते फिरने की मुझे फुरसत नहीं है। लेकिन तुम्हें देखना ही हो, तो अपने को देखो। क्या हो तुम? अच्छे-भले किसान के लड़के थे, दारूबाजी और गुंडागर्दी में पड़ गये और जिनके लिए लड़े-मरे, उन्हीें के बनाये झूठे मुकद्दमे में फँसकर अपनी जमीन से हाथ धो बैठे। अपने ही खेतों में तुम ठाकुर नूरसिंह के नौकर बनकर रह गये हो, इस चीज को भी देखते हो तुम?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘सब देख रहा हूँ, मास्टर! मौका देख रहा हूँ। नूरा को एक दिन ठिकाने लगाकर ही रहूँगा। देख लेना।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘देख लिया! मुखिया के खिलाफ तुम कुछ नहीं करोगे। तुम्हें अपने मौज-मजे से फुरसत मिले तब न!’’ कहते हुए मास्टर ने सोबरन का हाथ पकड़कर अपनी साइकिल के हैंडिल से हटा दिया था।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />रधिया देखती रह गयी थी। सोबरन कुछ नहीं बोल पाया था। सोबरन को किसी के सामने इतना फीका पड़ते रधिया ने कभी नहीं देखा था। उसे आश्चर्य हुआ था, इस पतले सींक-से आदमी में कौन-सी ताकत है, जो सोबरन जैसे खूनी आदमी का हाथ झटककर चला गया? रधिया की समझ में एक ही बात आयी थी कि मास्टर के पास विद्या है और विद्या की ताकत सोबरन की खूनी ताकत से बड़ी है। उसने सोचा था, अगर वह पढ़ी-लिखी होती और कहीं मास्टरानी होती, तो क्या उसे किसी से डरना पड़ता?</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />उस दिन से रधिया मास्टर की इज्जत करने लगी थी और उसे अपनी बिट्टो को मास्टरनी बनाने की धुन सवार हो गयी थी। और जिस दिन से रधिया ने बिट्टो के मुँह से मास्टर द्वारा की गयी अपनी प्रशंसा सुनी है, वह उसका और भी आदर करने लगी है। मास्टर सुबह-शाम गाँव में आते-जाते रधिया के घर के सामने से ही गुजरता है। स्कूल रधिया के घर से जरा दूर है, इसलिए जाते समय बिट्टो को साइकिल पर बिठा ले जाता है, लौटते समय छोड़ जाता है। रधिया से दो-चार बातें भी कर लेता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />एक दिन उसने पूछा था, ‘‘सोबरन तुम्हें कैसा आदमी लगता है, रधिया?’’<br />‘‘मेरे लिए तो अच्छा ही है, मास्टर!’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘उसे दारू-पानी के लिए पैसा तुम देती हो?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘कभी-कभार हाथ में कुछ रह जाता है तो...’’ रधिया सकुचा गयी थी। उस दिन मास्टर से न जाने क्यों उसे कुछ डर-सा लगा था। लेकिन मास्टर ने फिर और कुछ नहीं पूछा था, मुस्कराकर रह गया था। रधिया का मन हुआ था, कह दे--सोबरन का हाथ मैंने अपनी हिफाजत के लिए पकड़ा है, मास्टर! गाँव के लोगों को तो तुम जानते हो, उनका बस चले तो मुझे चींथकर खा जायें। सोबरन बदमाश आदमी है, उससे सब डरते हैं, इसीलिए उसकी होकर रहती हूँ। इसीलिए चार पैसे भी उस पर खरच देती हूँ। लेकिन मास्टर से यह सब कह नहीं पायी थी। कहना जरूरी भी नहीं लगा था। सोचा था, मास्टर इतना विद्वान आदमी है, क्या इतनी बात नहीं समझता होगा?</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘सोबरन की बहू को यह सब मालूम है?’’ मास्टर ने पूछा था।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘मालूम है। एक दिन आकर मुझसे लड़ी भी थी, पर सोबरन ने उसे पीट दिया था। फिर नहीं आयी। हाँ, राह-बाट कभी मिल जाती है, तो गालियाँ देती है। मैं जवाब नहीं देती।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘ऐसा कब तक चलेगा, रधिया?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘जब तक जिंदा हूँ, जब तक ये हाथ-गोड़ चलते हैं, तब तक ऐसा ही चलेगा, मास्टर! मेरे लिए दुनिया में और कहीं ठौर नहीं है। बस, ये बालक पल जायें, कुछ पढ़-लिख जायें।’’ रधिया ने कहा था और फिर एकाएक पूछ लिया था, ‘'बिट्टो कुछ पढ़ती-पढ़ाती है कि नहीं?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘पढ़ती तो है, पढ़ाने भी लगेेगी कभी।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘मास्टरानी बन जायेगी?’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘तुम बनाना चाहती हो, तो क्यों नहीं बनेगी? तुम मास्टरनी की अम्मा जरूर बनोगी।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />तब से मास्टर रधिया को ‘मास्टरनी की अम्मा’ कहने लगा है। रधिया को उसका यह मजाक अच्छा लगता है। एक दिन उसने भी मजाक में कहा था, ‘‘तुम इतने बड़े, ऊँची जात के और बाल-बच्चों वाले न होते और मेरी बिट्टो बड़ी होती, तो तुमसे उसका ब्याह कर देती। फिर बिट्टो को मास्टरानी बनाये बिना ही मास्टरानी की अम्मा बन जाती।’’ मास्टर ने रधिया को झिड़क दिया था। कहा था, ‘‘क्या बात करती हो! बिट्टो मेरी छोटी लड़की के बराबर है।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />एक दिन इसी तरह हँसते और बातें करते उन्हें किसी ने देख लिया था और सोबरन से जाकर कह दिया था। सोबरन ने रधिया पर गुस्सा किया था। कहा था, ‘‘अब मास्टर से आँख लड़ाने लगी हो?’’ रधिया नाराज हो गयी थी। धारदार जबान से कह दिया था, ‘‘होश की बात करो, सोबरन! अव्वल तो ऐसी कोई बात है नहीं, और हो भी तो मैं तुम्हारी ब्याहता नहीं हूँ। तुमसे कुछ लेती नहीं हूँ, तुम्हें कुछ दे ही देती हूँ।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />कहने को कह गयी थी, लेकिन कहने के बाद डर गयी थी। सोेबरन कहीं कुछ कर न डाले। इतनी बात कौन मर्द बर्दाश्त करेगा? लेकिन सोबरन बेशरम-सा हँस दिया था और रधिया की खुशामद करने लगा था। उस रात रधिया को सोेबरन--वही गुंडा पहलवान, जिससे सारा गाँव डरता था--एकदम नामर्द-सा लगा था और रधिया को अपनी चिंता हो आयी थी। मुखिया अगर मुझे गाँव से निकाल देने पर तुल जायें, तो क्या वह मुझे बचा लेगा? और कोई सहारा न देख उसने अपने डर को मन में ही दबा लिया था। लेकिन उस रात सोबरन के साथ का सुख रधिया को सुख-सा नहीं लगा था। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />कल रात भी कुछ-कुछ ऐसा ही...</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />अंदर से छोटे बच्चे के जागकर रोने की आवाज सुनकर सोच में डूबी रधिया का ध्यान भंग हुआ। गोद में ऊँघती बिट््टो को जगाकर उसने कहा, ‘‘उठ बिट्टो, लाला जाग गया है। तू यह गरम पानी ले ले। हाथ-मुँह धोकर स्कूल जाने को तैयार हो।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />**<br />मास्टर ओस-भीगे दगड़े में साइकिल चलाता हुआ खेतों के बीच से निकलकर गाँव की तरफ आ रहा है। तेजी से चलती हुई उसकी साँस धुएँ की शक्ल में बाहर निकल रही है। नौ बजने वाले हैं और धूप निकल आयी है, लेकिन रात कोहरा इतना घना पड़ा है कि अभी तक नहीं छँटा है। मास्टर ताल की ओर देखता है। कोहरे को भेदकर जल तक पहुँचती किरणों का दृृश्य उसे अच्छा लगता है। जल पर भाप-सी उठ रही है, जैसे ताल में नहाने के लिए गरम किया हुआ पानी भरा हो।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />मास्टर मुग्ध होकर ताल की तरफ देख रहा था, इसलिए देख नहीं पाया कि सोबरन कब सामने आ गया और कब उसने पास आकर उसकी साइकिल को पकड़ लिया। मास्टर ने चैंककर देखा और दारू की तीखी गंध उसके नथुनों में घुस पड़ी। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />कोई और होता तो डर जाता, लेकिन मास्टर को सोबरन से डर नहीं लगता। सोबरन सामने आता है, तो मास्टर को हँसी आने लगती है। सोचता है, यह बैल कभी नहीं समझ पायेगा कि इसकी जिंदगी किस तरह बर्बाद हो रही है। पंडित शिवदत्त के धर्म और ठाकुर नूरसिंह की राजनीति के मिक्सचर ने इसे एक तरफ निहायत बौड़म, निकम्मा और डरपोक बना दिया है, तो दूसरी तरफ एकदम लंपट, हिंसक और दुस्साहसी। ऐसे लोगों से किस तरह पेश आया जाता है, मास्टर को मालूम है। सोबरन की चर्चा चलने पर वह कहा करता है, ‘‘ऐसे लोगों से डरे तो मरे।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /> ‘‘आज सुबह-सुबह कहाँ से पी आये, ठाकुर सोबरन सिंह?’’ मास्टर ने साइकिल से उतरकर मुस्कराते हुए कहा, ‘‘लगता है, रधिया आजकल पैसे कुछ ज्यादा देने लग गयी है!’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />क्षण-भर पहले तक सोबरन का खयाल था कि वह मास्टर को मारेगा। इतना मारेगा कि मास्टर इस गाँव में आना भूल जायेगा। वह काफी देर से पुलिया पर बैठा मास्टर की ही प्रतीक्षा कर रहा था, जिसकी बातों ने उसे सारी रात सोने नहीं दिया था। रात को ही उसने एक सीधी बात सोच ली थी: रधिया के खयाल के साथ मास्टर का खयाल आता है, और यह ठीक नहीं है, इसलिए वह मास्टर को मारेगा। इसके बाद कुछ भी सोचना जरूरी नहीं था। रात को रधिया तीन रुपये दे गयी थी। खेत से उठकर सोबरन सुबह सीधा छिद्दा के घर चला गया था, जिसके यहाँ कच्ची दारू खिंचती और बिकती है। तीन रुपये में जितनी आ सकती थी, खडे़-खड़े पीकर सोबरन चला आया था और मास्टर को मारने के लिए पुलिया पर बैठकर उसकी प्रतीक्षा करने लगा था। लेकिन मास्टर की बात सुनकर वह भौंचक-सा बस उसे देखता रह गया। न हाथ उठा, न मुँह से कोई गाली निकली। उसे लगा, यह सुबह-सुबह ठंड में खाली पेट नशा कर लेने के कारण है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘पुलिया पर बैठो और धूप खाओ।’’ मास्टर ने कहा और साइकिल खड़ी कर दी। सोबरन के हाथ से हैंडिल छुड़ाया और उसे पकड़कर पुलिया पर ले आया। बिठाकर चलने लगा था कि सोबरन औंधे मुँह उसके पैरों पर गिर पड़ा। मास्टर ने समझा, नशे के कारण गिर गया है। उठाने की कोई जरूरत न समझकर उसने अपने पैर खींचे, लेकिन देखा कि सोबरन उसके पैर पकड़े हुए है और कह रहा है, ‘‘मुझे माफ कर दो, गुरूजी! अब कभी तुम पर हाथ नहीं उठाऊँगा।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />मास्टर मुस्कराया। बोला, ‘‘चलो, कर दिया माफ। अब उठो।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘नहीं-नहीं, पहले वचन दो, वचन।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘क्या वचन लेना चाहते हो मुझसे?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘नहीं, पहले वचन दो, वचन।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘अच्छा, वचन दिया। अब बोलो, क्या चाहते हो?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />कुछ देर मास्टर उत्तर की प्रतीक्षा में खड़ा रहा। कोई जवाब नहीं आया, तो उसने झुककर सोबरन को उठाया। सोबरन की आँखें बंद थीं और मुँह में दगड़े की धूल भरी हुई थी। वह या तो सो गया था, या बेहोश हो गया था। उसे वहीं छोड़कर मास्टर गाँव की तरफ चल दिया।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />**<br />रधिया का घर रास्ते में ही पड़ता है और स्कूल जाने के लिए तैयार बिट्टो अक्सर मास्टर को घर के बाहर खड़ी मिलती है। बिट्टो को अपने साथ स्कूल ले जाना मास्टर का नियम-सा बन गया है। लेकिन यह क्या? आज बिट्टो नहीं, रधिया के घर के सामने गाँव के कई लोग खड़े दिखायी दे रहे हैं। पंडित शिवदत्त, चैधरी रामसेेवक, मुखिया नूरसिंह, और भी कई लोग। घूँघट वाली एक औरत हाथ नचा-नचाकर ऊँची आवाज में रधिया को गालियाँ दे रही है, ‘‘तेरे बालकों को साँप डस जाये, नासपीटी नागिन! रंडी, छिनाल, मेरा ही आदमी रह गया था तेरी आग बुझाने को?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />मास्टर ने साइकिल से उतरकर देखा, रधिया छोटे बच्चे को गोद में चिपकाये और एक बाँह से बिट््टो को अपने-से सटाये अंदर दरवाजे के पास खड़ी भय से काँप रही है। पंडित शिवदत्त ने बिना पूछे ही मास्टर को बता दिया कि गालियाँ देने वाली औरत सोबरन की बहू है, कि रात को उन्होंने अपनी आँखों से रधिया को सोबरन के खेत में देखा था, कि सोबरन सुबह खेत से घर नहीं लौटा और खेत पर भी नहीं है। मास्टर को स्थिति से अवगत कराने के बाद पंडित शिवदत्त रधिया की ओर मुड़ गये, ‘‘अब बोलती क्यों नहीं? कहाँ भेज दिया है सोबरन को?’’<br />मास्टर कुछ कहता कि गाँव के दो-तीन लोग उसे खींचकर एक तरफ ले गये। संतू धीमर जल्दी-जल्दी कहने लगा, ‘‘मास्साब, मुखिया लोग रधिया को गाँव से निकालने की मिसकौट करके आये हैं। हमारे खयाल से इन्होंने सोबरन को कहीं छिपा दिया है और उसकी बहू को भड़काककर यहाँ ले आये हैं। अब बताओ, क्या किया जाये?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘तुम मेरे साथ आओ।’’ मास्टर ने संतू से कहा। दूसरों से वहीं रुकने को कहकर उसने साइकिल वहीं खड़ी कर दी और संतू केे साथ पुलिया की ओर चल दिया। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />मुखिया नूरसिंह उस समय रधिया से कह रहे थे, ‘‘तुझे क्या हम जानते नहीं हैं! तू कुछ भी कर सकती है। तू तो ऐसी है कि जिंदा आदमी को खा जाये। अब सीधे-सीधे बता दे कि सोबरन कहाँ है, नहीं तो पुलिस बुलाकर जूते पड़वाऊँगा साली पर।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />रधिया चुप है। उसकी चुप्पी से अंगूरी का हौसला और बढ़ गया है। गालियाँ बकती हुई वह रधिया के घेर में घुस आयी है। आँगन में सूखने के लिए रखे सकोरों को उसने लात मारकर इधर-उधर छितरा दिया है। पाँव पटक-पटककर उन्हें तोड़ रही है। रधिया क्रोध से थरथर काँपती हुई भी अपनी मेहनत की यह बरबादी देख रही है, मगर चुप है। अपनी जगह से हिल भी नहीं पा रही है। बच्चों को उसने और ज्यादा अपने साथ सटा लिया है। शायद वह खतरे को भाँप गयी है कि अंगूरी अब उसके बच्चों पर झपटने वाली है। लेकिन उसकी समझ में यह बात नहीं आ रही है कि जब रात को वह सोबरन को अच्छा-भला छोड़ आयी थी, तो सुबह होते ही वह कहाँ चला गया? क्यों चला गया? और चला गया, तो क्या इसका दुख रधिया को नहीं होगा? जिसकी छाया में वह अपने को सुरक्षित समझती है, उसे वह कहाँ भेज देगी? क्यों भेज देगी? फिर ये लोग उसके पीछे क्यों पड़े हैं?</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />रधिया के कच्चे सकोरों को चूर-चूर करने के बाद अंगूरी रधिया पर झपटी और गोद के बच्चे को छीनने लगी। अब उसे घूँघट का खयाल नहीं रह गया था और क्रोध में बिफरती हुई वह रधिया को एकदम डायन लग रही थी। लगता था, बच्चा उसके हाथ आ गया, तो वह उसे धरती पर पटककर मार डालेगी या दूूर ताल में फेंक देगी। छीना-झपटी में छोटा बच्चा चीखा, तो घबराकर बिट्टो भी चीखने लगी। बच्चे को छीनने के लिए जब अंगूरी रधिया को नोचने-काटने लगी, तो रधिया उसे धक्का देकर चीख उठी, ‘‘छोड़ मुझे, चुड़ैल! मुझे क्यों खाने आ रही है? तेरा आदमी मेरी गाँठ में तो बँधा नहीं है। घर में बैठा हो, तो तू खुद जाकर देख ले।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />एक तरह से खुद ही अंगूरी को अपने घर के भीतर ठेलकर रधिया बाहर घेर में निकल आयी। जबान खुल ही गयी, तो अब क्या है! वह एक-एक को देख लेगी। गाँव के पंच-प्रधान लोगों से उसे नफरत हो रही थी, जो सोबरन की बहू को समझाने के बजाय खड़े-खड़े तमाशा देख रहे थे। सबसे ज्यादा नफरत हो रही थी उसे पंडित शिवदत्त से। रात को कैसे उपदेश दे रहे थे, और अब झूठा इल्जाम लगा रहे हैं कि मैंने सोबरन को कहीं भगा दिया है। मैं कहाँ भगा दूँगी उसे?</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />बाहर आकर उसने पंडित शिवदत्त को लताड़ा, ‘‘क्यों रे मँगते, तूने ही लगायी है न यह आग? तू कहता है, तूने मुझे रात में सोबरन के साथ खेत में देखा था। अब खोल दूँ तेरी पोल-पट्टी?’’ पंडित शिवदत्त को उम्मीद नहीं थी कि रधिया इतने दिन बाद फिर अपने पुराने चंडी रूप में लौट आयेगी। वे कुछ कहते, तब तक तो रधिया ने अन्य लोगों को सुनाते हुए कह दिया, ‘‘इससे पूछो, आधी रात को यह मँगता आनगाँव के एक आदमी लेकर मेरे घर पर क्या अपनी बिटिया की दलाली करने आया था? मैंने इसे फटकार दिया, तो यह बगुला भगत बदला निकालने आया है? झूठे, मक्कार, तुझे कोेढ़ फूटे, मेरे बासनों का नास करा दिया। एक-एक फूटे सकोरे की पाई-पाई टेंट से न निकलवा ली, तो नाम रधिया नहीं। गाँव वालों को तमाशा दिखाने लाया है तू? पर गाँव वालों की आँखें फूट गयी हैं क्या? सोबरन से दुश्मनी रही होगी, तो तेरी रही होगी। उसको कुछ किया होगा, तो तूने किया होगा।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />पंडित शिवदत्त नहीं जानते थे कि रधिया इतना साफ झूठ इतनी सफाई से बोल जायेगी। वे कब किसके लिए दलाली करने आये थे इसके द्वार पर? उन्होंने लोगों से कहा कि रधिया झूठ बोल रही है, लेकिन रधिया ने बात इस ढंग से कही थी कि लोगों को पंडित शिवदत्त की बात पर विश्वास नहीं हुआ। सबूत यह था कि रात को पंडित शिवदत्त के यहाँ सचमुच कोई बाहर का आदमी आया था, जो सुबह होते ही चला गया था। पंडित शिवदत्त सफाई देने लगे कि वह तो उनकी जिजमानी का नाई था, जो एक बारात का न्यौता देने आया था। लेकिन वह तो उनके साथ कहीं नहीं निकला। और उसे लेकर रधिया के घर आने का तो सवाल ही नहीं उठता। वे इतने धरम-करम वाले आदमी क्या रंडी की दलाली करने आयेंगे? कहते-कहते उनकी आँखों में आँसू आ गये। रात को सोबरन ने उन्हेें खेत में उठाकर पटक दिया था और अब रधिया ने यह झूठा इल्जाम उन पर लगा दिया है। हे भगवान, सचमुच कलियुग आ गया है। सत्य का कोई मूल्य नहीं रहा।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />रधिया ने देखा कि पंडित शिवदत्त फँस गये हैं, तो उसकी आवाज और ऊँची हो गयी, ‘‘एक-एक पाई धरा लूँगी, एक-एक पाई। मुझ पर कोई बस नहीं चला, तो इस घोड़ी को भड़काकर ले आया। नासपीटे, मेरे सारे बासन खुँदवा दिये। सारे दिन हाड़-गोड़ तोड़कर बनाये थे। माँग-माँगकर फोकट का माल खाने वाले मँगते, तुझे क्या मालूम कि इनको बनाने में कितनी मेहनत लगती है। और मुझे धमकाने के लिए इन मुखिया-चैधरी लोगों को अपने साथ लाया है तू? तू समझता है, मैं इनकी दाब-डाँट में आ जाऊँगी? अरे, मैं किसी का दिया नहीं खाती। ढैया-पँसेरी नाज देते हैं, तो ढाई मन की मेहनत के बासन बनवा लेते हैं। ऊपर से बेगार। कभी रधिया इनका आँगन लीपे, कभी रधिया इनके घरों में मिट्टी पहुँचाये। इतनी मेहनत तो चमार-टोले के लिए करूँगी, तो भी अपना और अपने बालकों का पेट भर लूँगी। तू यह मत समझ कि मुझे तू गाँव से निकलवा देगा। यहाँ सब कितने बड़े धर्मात्मा हैं, सो मैं खूब जानती हूँ। कहे तो एक-एक के गुन बखान दूँ?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘चलो भाई, चलो। अब रधिया किसी को नहीं बोलने देगी।’’ चौधरी रामसेवक ने मुखिया नूरसिंह से कहा। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मुखिया नूरसिंह पंडित शिवदत्त का हाथ पकड़कर बोले, ‘‘छोड़ो पंडित, तुमको वहम हो गया होगा। रधिया की जगह किसी और को देख लिया होगा तुमने।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />पंडित शिवदत्त की स्थिति बड़ी विचित्र हो गयी थी। अब वहाँ से चल देेने में ही उन्हें कुशल दिखायी दी। लेकिन सोबरन की बहू उन्हें खिसकते देख आगे बढ़ आयी। सोबरन को रधिया के घर में न पाकर वह कब की बाहर निकल आयी थी और चुपचाप खड़ी हुई नासमझ-सी यह सब देख-सुन रही थी। अब वह पंडित शिवदत्त की ओर लपकी, ‘‘जाते कहाँ हो, पंडित, पहले यह बताओ कि मेरा आदमी कहाँ है?’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘यह रहा तुम्हारा आदमी।’’ मास्टर की आवाज ने सबको चौंका दिया।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />सबने देखा, नशे में धुत्त सोबरन को एक-एक बाँह से कंधे पर उठाये मास्टर और संतू धीमर उसे घसीटते-से ला रहे हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘पुलिया के पास पीये पड़ा था।’’ संतू ने कहा और सोबरन को वहीं जमीन पर डाल दिया। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />अंगूरी सोबरन को देखकर सिहर गयी। उसने घूँघट खींच लिया और जहाँ की तहाँ खड़ी रह गयी। क्या कहे-करे, उसे कुछ नहीं सूझा। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘ले जाओ, भाई, कोई इसे इसके घर पहुँचा दो।’’ मुखिया ने कहा। लेकिन कोई आगे नहीं आया। संतू हाथ झाड़ चुका था और मास्टर अपनी साइकिल थाम चुका था। बाकी लोग मुखिया से नजर बचाकर मास्टर की तरफ देख रहे थे। स्थिति समझ कर मुखिया ने कहा, ‘‘मास्टर, तुम कहो, कोई दो आदमी इसे यहाँ से उठाकर इसके घर ले जायें।’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />मास्टर का इशारा पाकर जवाहर नाई और सीतो मुसहर ने सोबरन को उसी तरह कंघों पर डाला और घसीट ले चले। सोबरन की बहू भी चुपचाप उनके पीछे चली गयी। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘कोई बात न बात की जड़।’’ किसी ने कहा और अपनी साइकिल से टिके खड़े मास्टर को छोड़कर बाकी सब लोग भौंचक, डरे-सहमे और बेवकूफ-से बने वहाँ से चल पड़े।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />मास्टर चकित-सा खड़ा था और रधिया के चेहरे पर बदलते भावों को पढ़ रहा था। फिर आँगन में फूटे पड़े कच्चे सकोरों की ओर देखते हुए उसने कहा, ‘‘आज तो तुम्हारा बहुत नुकसान हो गया, मास्टरनी की अम्मा!’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘नहीं मास्टर, यह कोई खास नुकसान नहीं है।’’ रधिया ने कहा और बिट्टो को मास्टर के पास छोड़कर गोद के बच्चे को चूमती हुई भीतर चली गयी। जब वह मुड़ी थी, मास्टर ने उसकी डबडबायी आँख में चमकता एक आँसू देख लिया था। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />मास्टर कुछ पल ठिठका-सा खड़ा रहा, फिर बिट्टो के साथ स्कूल की तरफ चल दिया। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />रधिया भीतर जाकर बच्चे को सीने से लगाये फूटकर रो पड़ी। वह रो रही थी और अपने को ही कोस रही थी, ‘‘माटीमिली, तूने हाथ भी पकड़ा तो किसका!’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;"><b>--रमेश उपाध्याय</b></span><br /><br /></div>
</div>
ramesh upadhyayhttp://www.blogger.com/profile/05054633574501788701noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1496071818736613491.post-82635051639140535252017-05-20T22:01:00.000-07:002017-05-20T22:02:40.777-07:00मेरे और तुम्हारे बीच<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #cc0000;">अंबाला शहर (हरियाणा) से एक पत्रिका निकलती है 'पुष्पगंधा'. उसके संपादक
हैं हमारे एक पुराने मित्र विकेश निझावन. वर्षों से उनसे न मिलना हुआ था न
किसी माध्यम से संपर्क रहा था, पर अचानक कुछ समय पहले उनका फोन आया कि
उन्हें हमारी कहानी 'चिंदियों की लूट' अपनी पत्रिका के लिए चाहिए. हमने भेज
दी और वह उसके नये अंक (मई-जुलाई 2017) में छप गयी है. उस पर प्रशंसात्मक
प्रतिक्रियाओं के फोन भी आने लगे है. अंक के साथ उनका जो पत्र आया है,
उसमें उन्होंने लिखा है :</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #cc0000;"> "बहुत समय पहले का आपका एक आलेख 'म<span class="text_exposed_show">ेरे
और तुम्हारे बीच' क्या उपलब्ध हो पायेगा? उस वक्त मेरे और मित्रों के बीच
उस पर काफी चर्चा रही थी. कई वर्ष सँभाल कर रखा था, अब मिल नहीं रहा..."</span></span></div>
<div class="text_exposed_show">
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #cc0000;">
आज वह लेख खोजा तो पाया कि 1974 का लिखा हुआ है. (बहुत-से अन्य लेखों की
तरह यह भी हमारी किसी पुस्तक में नहीं है.) हम इसे लगभग भूल चुके थे, पर आज
मिलने पर पढ़ा तो बड़ा सुख मिला कि पत्र शैली में लिखा गया यह लेख आज भी
प्रासंगिक और पठनीय है.<span style="color: blue;"><b> --रमेश उपाध्याय</b></span> <span style="background-color: blue;"></span></span></div>
<span style="background-color: white;"></span><br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b> लेख</b><br />
<br />
<span style="color: purple;"><b>मेरे और तुम्हारे बीच</b></span><br />
<br />
मेरे और तुम्हारे बीच अब शायद ऐसा कोई संबंध-सूत्र नहीं रह गया है, जिसे पकड़कर मैं अपनी बात कह सकूँ, क्योंकि कल तक तुम मुझे जितना प्रिय और आत्मीय मानते थे, आज उससे भी अधिक अपना शत्रु मानने लगे हो। ऐसे में तुम्हें मेरी कोई भी बात सच और अच्छी नहीं लगेगी। फिर भी मैं निराश नहीं हूँ। मुझे अब भी आशा है कि तुम मुझे समझ सकोगे। आज नहीं तो कल। और मैं तो कहूँगा कि तुम इस पत्र को बैंक में अपने लाॅकर में रख देना और मेरी मृत्यु के बाद निकालकर पढ़ना। मुझे विश्वास है कि उस समय तुम्हें इसका एक-एक शब्द सच लगेगा। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
तुम मुझे एक सामूहिक कार्य में शामिल होने पर मिले थे। मुझे नहीं मालूम कि तुम्हें मुझमें क्या अच्छा लगा कि तुम मेरी तरफ आकृष्ट हुए, लेकिन कुछ तो अच्छा लगा ही होगा। मुझे तुममें जो अच्छा और आकर्षक लगा, वह था तुम्हारा सौहार्दपूर्ण निश्छल व्यवहार, शर्मीला-सा विनम्र स्वभाव, तुम्हारे अंदर छलकता हुआ नये यौवन का उत्साह, निःस्वार्थ भाव से सामूहिक कार्य में जी-जान से जुट पड़ने की तुम्हारी लगन और तुम्हारा वह मासूम भोलापन, जिसे बगैर मिलावट के शुद्ध सोने जैसी इंसानियत का नाम देने को जी करता है। हमारे संबंध की यह शुरुआत शायद हम दोनों को ही जिंदगी भर बहुत अच्छे दिनों के रूप में याद रहेगी। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
उन दिनों हम बहुत-से थे, मगर सब एक। सारी अलग-अलग इकाइयाँ एकजुट थीं, जैसे एक के बिना दूसरी का अस्तित्व ही न हो। फिर वह काम पूरा हो गया और हम सब बिखर गये। कोई कहीं चला गया, कोई कहीं। लेकिन इस बीच हमारे संबंध मजबूत हो चुके थे। तुम मेरे काफी नजदीक आ गये थे। मेरे अन्य मित्र भी तुम्हारे मित्र बन गये और मेरे परिवार के बीच भी तुम एक आत्मीय जन के रूप में माने जाने लगे। इसका एक कारण यह भी था कि हमारे उस ग्रुप के बिखरने के बाद मैं और तुम ही अपने-अपने परिवारों के कारण उस छोटे शहर से इस महानगर में साथ-साथ आ सके। यहाँ आकर भी हम उसी आत्मीय भाव से मिलते रहे। यह सब बहुत अच्छा लगता था--तुम्हें भी अच्छा लगता था और मुझे भी। शुरू के वे तीन वर्ष मेरे-तुम्हारे संबंधों को उत्तरोत्तर घनिष्ठ बनाते चले गये थे। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
लेकिन ऐसे संबंधों में एक भूल अक्सर हो जाया करती है। वह यह कि हम भावुकता में बह जाते हैं। अपनी भावुकता में हम यह भूल जाते हैं कि समय बीतने के साथ-साथ हमारा जीवन बदलता रहा है और अब हम बिलकुल वैसे ही नहीं रहे हैं, जैसे कुछ वर्ष पहले थे। होना तो यह चाहिए कि हम अपने जीवन में आये परिवर्तनों को देखते-जानते-समझते चलें और तदनुसार अपने संबंधों को पुनर्परिभाषित करते चलें, लेकिन हमारी भावुकता हमें ऐसा करने से रोकती है। भावुकता बुद्धि की दुश्मन है। वह तर्क को स्वीकार नहीं करती। नतीजा यह होता है कि हम अपने संबंधों में आये परिवर्तनों के अनुसार स्वयं को बदलने के बजाय (या उन्हें बदले हुए रूप में समझने के बजाय) उसी पुराने संबंध को जीते रहना चाहते हैं, जो शुरू में था और हमें प्रिय था।<br />
<br />
हमारी यह भूल, यह भावुकता, बड़ी गड़बड़ी पैदा कर देती है। हम पहले की तरह ही मिलना चाहते हैं, वैसी ही बातें करना चाहते हैं, उसी तरह साथ-साथ रहना और मीठे सपने देखना चाहते हैं, उसी तरह एकजुट होकर काम करना चाहते हैं। ऐसे में यदि हम फिर किसी सामूहिक कार्य में एक साथ शामिल हो जाते, तो शायद हमारी यह इच्छा पूरी होती रहती। लेकिन वैसा हो नहीं पाया। किसी एक समान उद्देश्य के लिए एक साथ आगे बढ़ने के बजाय हमारे काम की दिशाएँ अलग-अलग हो गयीं। हाँ, हमारा मिलना-जुलना बना रहा। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
यदि हम भावुक हों, तो किसी पुराने मित्र से मिलने जाते समय हम वैसे ही भाव मन में लेकर जाते हैं, जो उससे मिलते समय वर्षों पहले हमारे मन में होते थे। लेकिन हम पाते हैं कि उससे मिलकर हमें ठेस लगी है और हम कहते हैं--अरे, वह तो एकदम बदल गया है। वह बदलाव हमें अच्छा नहीं लगता। हम दुखी हो जाते हैं। लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता। कुछ लोग होते हैं, जिनसे हम चाहे जितने समय बाद मिलें, हमें नहीं लगता कि वे बदल गये हैं। ऐसा केवल दो स्थितियों में हो सकता है--या तो हम दोनों भावुकता में जीने वाले अतीतजीवी हों और हमारा बौद्धिक विकास समान रूप से रुका रहा हो, अथवा हम दोनों बौद्धिकता के साथ अपने वर्तमान को समझते हुए जीने वाले हों और हमारा बौद्धिक विकास एक-दूसरे को जानते-समझते हुए समान रूप से हुआ हो। लेकिन ऐसा आदर्श जोड़ बहुत कम देखने में आता है। गड़बड़ी सबसे ज्यादा वहाँ होती है, जहाँ दोनों में एक व्यक्ति भावुक हो और दूसरा बौद्धिक। बौद्धिक व्यक्ति जीवन में आने वाले बदलाव को समझता हुआ अपने पुराने संबंधों को नयी नजर से देखता है और उन्हें बदलना चाहता है, जबकि भावुक व्यक्ति पुराने संबंधों को पुरानी नजर से ही देखता है और उन्हें उसी रूप में देखते रहना चाहता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
मेरे और तुम्हारे बीच यही हुआ है। मैं स्वीकार कर लूँ कि शुरू के दिनों में मैं भी तुम्हारी तरह भावुक था। हाँ, इतना नहीं। शायद उस भावुकता के लिए मेरी परिस्थितियाँ भी जिम्मेदार थीं, क्योंकि उस समय मैं अकेला था और उस छोटे शहर में घरेलू जिम्मेदारियों से मुक्त छात्र जीवन जीते समय उस प्यार करने वाली उम्र में वह भावुकता शायद जायज भी थी। या कम से कम अस्वाभाविक नहीं थी। लेकिन फिर मैं इस महानगर में आ गया। आजीविका संबंधी तमाम समस्याएँ मेरे जीवन में आ गयीं। मेरी शादी हो गयी। बच्चे हो गये। नये-नये लोगोें से मेरा परिचय हुआ। मैं एक नयी विचारधारा के संपर्क में आया, जिसने मुझे ऐसा झकझोरा कि मेरे बहुत-से पुराने विचार और विश्वास बदल गये। मेरा लेखन बदल गया। संक्षेप में, मैं काफी बदल गया। बदले तुम भी। अपने छोटे और प्यारे शहर से इस बड़े और अजनबी शहर में आये, नौकरी की, व्यवस्थित हुए, अपना निजी जीवन शुरू किया, लेकिन... </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
तुम्हें याद है, अपनी नौकरी के कुछ दिन बाद ही तुम्हें लगने लगा था कि सब लोग बदल गये हैं? लोग सचमुच बदल गये थे। बदलते ही हैं। बदलना ही है। बदलना जीवन का नियम है। और जीवन हमें इसीलिए इतना प्रिय भी होता है कि वह बदलता रहता है। लेकिन तुमने अपने और दूसरों के जीवन में आये परिवर्तनों को समझने की कोशिश नहीं की। तुम्हें लगा, दूसरे ही बदलते हैं; तुम नहीं बदलते, तुम वही हो। लेकिन जब हम यह मान लेते हैं कि हम वही हैं, तो दूसरे सब और भी ज्यादा बदले हुए लगने लगते हैं। दरअसल, तब हम स्वयं को अपरिवर्तित मानते हुए अपने अतीत से प्यार कर रहे होते हैं और इस अतीत में जिन लोगों से हमने प्यार किया होता है, उनसे उसी रूप में प्यार करते और उसी रूप में उनसे प्यार पाते रहना चाहते हैं। उन लोगों की एक प्रिय प्रतिमा हमारे मन में बनी होती है और उस प्रतिमा में किसी प्रकार का परिवर्तन हमें उसमें आयी हुई विकृति जैसा लगता है। अपने मन की उस प्रतिमा को हम बाहर भी उसी अविकृत रूप में देखना चाहते हैं। यही भावुकता है। यह सोचने का अबौद्धिक-अतार्किक ढंग है। सारी गड़बड़ी यहीं से शुरू होती है। अपनी भावुकता में हम भूल जाते हैं कि हमारे मन में बनी प्रतिमा में और यथार्थ व्यक्ति में अंतर है। और जब ऐसा होता है कि वह अंतर हमें बाहर तो नजर आता है, पर हमारा मन उसे स्वीकार नहीं करना चाहता, तो हमारा पहला काम यह होना चाहिए कि हम इस अंतर्विरोध को समझें और अपने-आप को बदले हुए यथार्थ के साथ एडजस्ट करें। लेकिन यह बुद्धि का काम है और हमारी भावुकता बुद्धि को यह काम करने से रोकती है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
अकेलेपन, अजनबीपन, संबंधों की निरर्थकता, जीवन के ऊलजलूलपन आदि की बातें यहीं से पैदा होती हैं और उन बातों में हम जितने उलझते जाते हैं, उतनी ही यथार्थ की पकड़ हमसे छूटती जाती है। और तब यदि कोई हमें कोंचकर यथार्थ दिखाना चाहता है, तो हम क्षुब्ध हो उठते हैं। तर्क और बुद्धि का मजाक उड़ाते हुए हम दूसरों की ‘दुनियादारी’ से चिढ़ने लगते हैं। तब हम सारी बातें भावनाओं से कहना और समझना चाहते हैं। शब्द हमें व्यर्थ लगने लगते हैं और हम शब्दों के अर्थ समझने के बजाय बोलने वाले के आशय को भाँपने लगते हैं (जो पुनः एक अबौद्धिक काम है) और तब हमारे लिए आंगिक चेष्टाएँ तथा चेहरे पर आने वाले भाव अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं--अपने भी और दूसरों के भी। शब्दों के प्रति अविश्वास हमारे मन में घर कर जाता है और भाषा हमारे लिए व्यर्थ होने लगती है। तभी हम अपने संबंधों को पुनर्परिभाषित करने और उन्हें नया नाम देने से कतराने लगते हैं। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कोई भी, कैसा भी मानवीय संबंध भाषा में व्यक्त हुए बिना, यदि वह हो भी तो अस्तित्वहीन है। मानवीय संबंधों का जन्म ही भाषा के साथ हुआ है। अतः स्नेह संबंधों में भाषा के इस्तेमाल को फालतू मानना और मौन से बातों को समझाने की कोशिश करना सारे मानवीय विकास को अँगूठा दिखाकर बहुत पीछे, आदिम पशुवत जीवन-स्थिति में लौट जाना होगा। अगर तुम्हें याद हो, तुमने देखा होगा कि अकविता और अकहानी के दौर में बहुत-से हिंदी लेखक अपनी रचनाओं में उसी आदिम पशुवत जीवन-स्थिति की ओर लौटते मालूम होते थे। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
अपनी भावुकता में हम यह मान लेते हैं कि हमारे कोमल और जटिल भावों को व्यक्त करने की क्षमता भाषा में नहीं है, लेकिन वास्तव में उस समय हम अपने और अपने आसपास की चीजों के बदलते हुए संबंधों को नये नाम देने की जरूरत महसूस कर रहे होते हैं। बौद्धिक व्यक्ति के लिए यह एक चुनौती होती है, वह इस चुनौती को स्वीकार करता है और यदि उसे अपनी भाषा में इन संबंधों को नये नाम देने के लिए उचित शब्द नहीं मिलते, तो वह नये शब्द गढ़ता है, नयी भाषा का आविष्कार करता है। भाषा का विकास इसी तरह होता है। और साहित्य इसीलिए तो हर युग में नया होता हुआ विकसित होता रहता है। लेकिन भावुक लोग इस चुनौती को स्वीकार करने के बजाय पुरानी भाषा में ही अपने-आप को अभिव्यक्त करने की कोशिश करते हैं और जब इस कोशिश में कामयाब नहीं हो पाते, तो भाषा को अक्षम बताकर मौन में सार्थकता खोजते हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
तब हमें बात करना नहीं, खामोश रहना अच्छा लगता है और हम चाहने लगते हैं कि अगर हम खामोश बैठे हैं, तो दूसरे भी खामोश बैठें। हमें प्रायः महसूस भी नहीं होता और हमारी इच्छाएँ हमारे लिए सर्वोपरि होती जाती हैं। तब हम चाहते हैं कि हम हँसें तो सारी दुनिया हँसे, हम उदास हों तो सारी दुनिया उदास हो जाये, हम कोई काम करें तो हमसे संबंधित सारे लोग उस काम में हिस्सा लें, हम निष्क्रिय हो जायें तो सारे लोग हमारी तरह निष्क्रिय हो जायें। मगर जब ऐसा नहीं होता, क्योंकि ऐसा हो नहीं सकता, तो दुनिया हमें बड़ी गलत, क्रूर और बेईमान दिखायी देने लगती है। लगता है, जैसे हम एक तरफ हैं और बाकी सारी दुनिया दूसरी तरफ। हमारा अतीतजीवी होना हमारी इस धारणा को और पुष्ट करता है। हम सोचते हैं--यदि हम पहले सही थे, और इसका प्रमाण यह कि बहुत-से लोग हमारे साथ थे और हमें सही कहते थे, और आज भी हम वही हैं, तो सही क्यों नहीं हैं? और यदि हम सही हैं और नहीं बदले हैं, तो दूसरे जो बदल गये हैं, निश्चय ही गलत हैं। (भावुकता की भी अपनी एक तर्क-पद्धति होती है, जो अपने-आप को जस्टीफाइ करने के लिए इस्तेमाल की जाती है।) </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
ऐसी स्थिति में स्वाभाविक है कि हम दूसरों में आये हुए परिवर्तन को गलत या अनैतिक मानने लगें। लेकिन भावुकता में नैतिकता का मानदंड भावुक व्यक्ति स्वयं होता है, क्योंकि वह खुद को ही सही मानता है और बाकी सबको गलत। अधिक से अधिक वह उन्हीं को सही मान सकता है, जो उसी जैसे हों या उसका समर्थन करते हों। कोई वस्तुपरक मानदंड न होने के कारण वह भावना पर आधारित अपनी उस अबौद्धिक तथा अवैज्ञानिक तर्क-पद्धति को ही आगे बढ़ाता जाता है और बढ़ाते-बढ़ाते एक पूरा व्यक्तिपरक नीतिशास्त्र गढ़ लेता है। दुर्भाग्य से वह अपने द्वारा गढे़ गये उस नीतिशास्त्र में विश्वास भी करने लगता है। यहाँ तक कि उसे लगने लगता है कि उसकी तर्क-पद्धति और उसका अपना नीतिशास्त्र सर्वमान्य है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
लेकिन किसी का निजी नीतिशास्त्र दूसरों पर कैसे लागू हो सकता है? और जब वह लागू नहीं होता, तो उसके आधार पर दूसरों को गलत, बुरा या बेईमान कैसे कहा जा सकता है? मगर भावुक व्यक्ति की यह विशेषता होती है कि अपनी बनायी नैतिकता का वह खुद जितनी सख्ती से पालन करता है (और अपनी इस कोशिश में वह इतना ‘ईमानदार’ होता है कि दोस्त, प्रेमिका या देश के लिए सचमुच प्राण दे सकता है!), उतनी ही सख्ती से उसका पालन वह दूसरों से कराना चाहता है। और जब दूसरे उसका पालन नहीं करते, तो उसे बेइंतिहा गुस्सा आता है। (और अपने इस गुस्से में वह इतना ‘ईमानदार’ होता है कि दूसरों की बेईमानी बर्दाश्त न कर पाने के कारण उनकी हत्या तक कर डालता है!) दोनों तरह के पचासों उदाहरण तुम्हें मिल जायेंगे। लेकिन यहाँ सोचने की बात यह है कि अबौद्धिक-अवैज्ञानिक चिंतन के कारण एक बलिदानी और एक हत्यारे में कितना कम फर्क रह जाता है। उत्कट प्रेम करने वाले प्रेमी-प्रेमिका और एक-दूसरे पर जान देने वाले दोस्त क्यों कभी-कभी एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं? इस सवाल का जवाब उनकी भावुकता या अबौद्धिकता में ही मिल सकता है। शादी के बाद अनेक प्रेम-विवाहों के असफल हो जाने का कारण अक्सर यह होता है कि प्रेमी से दंपती बन चुके दो व्यक्ति शादी के बाद बदले हुए अपने संबंधों को बौद्धिक ढंग से स्वीकारने के बजाय प्रेम के पुराने संबंध को ही जीने की कोशिश करते हैं। प्रेम-प्रसंगों में हत्याएँ और आत्महत्याएँ प्रायः किसी एक की भावुकताजन्य नैतिकता के कारण होती हैं, जिसे वह दूसरे पर भी लागू करना चाहता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
राजनीति में इस प्रवृत्ति का सबसे बड़ा उदाहरण हिटलर है। फासिज्म आखिर क्या है? अबौद्धिक, अतार्किक, अवैज्ञानिक चिंतन से पैदा हुई विचारधारा, जिसको मानने वाले एक खास तरह की नैतिकता के कट्टर समर्थक और पालनकर्ता होते हैं। यद्यपि वह नैतिकता उनकी अपनी होती है, जिसे वे बलपूर्वक दूसरों से मनवाते हैं और जो लोग उसे मानने से इनकार करते हैं, उन्हें वे खत्म कर देते हैं। बुद्धि से काम न लेकर भावना से काम लेने वाले फासिस्टों को अपने देश में देखना हो, तो जनसंघियों को देख लो। जनसंघी लोग नैतिकता और उच्चचरित्रता की दुहाई देते मिलेंगे, पर उनकी नैतिकता है क्या? वे सारे मूल्य, जो शोषण पर आधारित समाज-व्यवस्था को बनाये रखने में सहायक हों। लेकिन जिनका शोषण हो रहा है और जो शोषण से मुक्त होना चाहते हैं, वे उस नैतिकता को कैसे स्वीकार कर लें? वे तो उसके विरुद्ध आवाज उठायेंगे। जनसंघियों को यह बर्दाश्त नहीं। यही कारण है कि देश के नाम पर प्राण देने को तैयार जनसंघी देश की करोड़ों शोषित जनता के दमन का कट्टर समर्थक बन जाता है। यही नहीं, उस दमन में वह खुद दमनकारी शक्तियों का साथ देता है। तुमने सुना होगा कि जनसंघी लोग अक्सर जनता के चारित्रिक पतन की बात किया करते हैं और उसके चारित्रिक उत्थान के लिए हिटलर जैसे किसी डिक्टेटर की जरूरत पर जोर दिया करते हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
भावुक व्यक्ति जनसंघी या फासिस्ट न हो, तो भी वह समाजवादी नहीं हो सकता। कारण यह है कि समाजवाद एक वैज्ञानिक चिंतन पर आधारित जीवन-दर्शन है और उसमें अबौद्धिकता के लिए गुंजाइश नहीं है। दूसरे, समाजवादी होने के लिए प्रगतिशील होना जरूरी है, लेकिन भावुकता इसके विपरीत हमें प्रतिगामी बनाती है। प्रगतिशील व्यक्ति के लिए जो परिवर्तन सामाजिक प्रगति और उन्नति का सूचक है, प्रतिगामी व्यक्ति के लिए वही परिवर्तन बेईमानी या चारित्रिक पतन की निशानी है। अब तुम्हीं सोचो, जो आदमी परिवर्तन को ही गलत मानता है, वह किसी महत् और व्यापक परिवर्तन (क्रांति) से अपना तालमेल कैसे बिठायेगा? </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
तुमने लेखक और लेखन के बारे में कुछ धारणाएँ बना रखी हैं या जाने-अनजाने दूसरों से लेकर अपना रखी हैं। उनमें से एक प्रमुख धारणा यह है कि लेखक को राजनीति से दूर रहना चाहिए। यदि वह पहले अराजनीतिक था और अब राजनीतिक हो गया है, तो उसमें आया यह परिवर्तन अनुचित और अनैतिक है। तुम अपनी इसी धारणा के आधार पर मुझ में आये परिवर्तन को अनुचित और अनैतिक मानते हो। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
इसी से जुड़ी हुई एक और धारणा यह है कि लेखक यदि क्रांति की बात करता है, मजदूरों और किसानों के पक्ष से उनके बारे में लिखता है, तो उसे नौकरी, गृहस्थी और साहित्य-वाहित्य छोड़कर क्रांति ही करनी चाहिए। उसे अपना सुख-सुविधासंपन्न जीवन त्यागकर मजदूरों और किसानों के बीच जाकर रहना चाहिए। उन्हीं का-सा खाना-पहनना चाहिए। और जो लेखक ऐसा नहीं करता, वह झूठा है, बेईमान है, अनैतिक है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
लेकिन ये धारणाएँ तर्कसंगत या बुद्धिसंगत नहीं, नितांत अतार्किक और अबौद्धिक हैं, जो आदमी को भावुक और कुतर्की बनाती हैं। भावुक और कुतर्की व्यक्ति भावना के आधार पर अपने मन में क्रांति और क्रांतिकारियों की एक काल्पनिक तस्वीर बना लेता है और मानने लगता है कि उसके मन में बनी हुई तस्वीर ही सच है। तुम मुझे एक ऐसा आदमी समझते हो, जो क्रांतिकारी बनता है, लेकिन है नहीं; जो कुछ करता नहीं, सिर्फ बातें बनाता है। यानी एक ऐसा आदमी, जिसकी कथनी और करनी में फर्क है; जो झूठा और बेईमान है। लेकिन मैंने कब तुमसे कहा कि मैं क्रांतिकारी हूँ? मैं क्रांति चाहता हूँ, क्योंकि शोषण, दमन और अन्याय पर टिकी वर्तमान व्यवस्था की जगह मैं भविष्य की एक बेहतर व्यवस्था चाहता हूँ। ऐसी इच्छा या कामना मेरे मन में, तुम्हारे मन में, किसी के भी मन में हो सकती है और जब वह मन में होती है, तो वाणी में व्यक्त भी होती है। मैं लेखक हूँ, सो मेरे लेखन में मेरी यह इच्छा या कामना व्यक्त होती है। कभी वर्तमान व्यवस्था की आलोचना के रूप में, तो कभी भविष्य की बेहतर व्यवस्था की परिकल्पना के रूप में। लेकिन इससे तुम यह निष्कर्ष कैसे निकाल सकते हो कि मैं क्रांति की बात करता हूँ, तो मुझे प्रोफेशनल क्रांतिकारी होना चाहिए, जो कि मैं नहीं हूँ? </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
दरअसल, तुम अपना प्रिय मित्र और आदर्श व्यक्ति मुझे नहीं, मेरी उस काल्पनिक छवि को मानते हो, जो भावुकतावश तुमने अपने मन में बना ली है। उसके अनुसार तुम मुझे जैसा देखना चाहते हो, वैसा मैं नहीं दिखता हूँ, बिलकुल बदल गया लगता हूँ, तो तुम्हें बुरा लगता है और मुझ पर गुस्सा आता है। मैं तुम्हें समझाने की कोशिश करता हूँ, तो तुम मुझे गलत और स्वयं को सही ठहराने लगते हो। तुम यह मानते ही नहीं कि कुछ भी और कोई भी हमेशा सही या हमेशा गलत नहीं होता। तुम स्वयं को हमेशा सही समझते हो, लेकिन अपने-आप को हमेशा सही कहने वाला तो कोई हिटलर ही हो सकता है। (तुम्हें पता है, हिटलर ने अपने बारे में क्या प्रचार कराया था? यह कि हिटलर हमेशा सही होता है।) </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
तो, मेरे और तुम्हारे बीच इस बात का फैसला कैसे हो कि कौन सही है और कौन गलत? इस बात का फैसला भावुकतापूर्ण ढंग से नहीं, यथार्थवादी तरीके से ही हो सकता है। मेरे और तुम्हारे बीच अगर कोई वास्तविक निर्णायक है, तो वह है यथार्थ, जो निरंतर स्वयं तो बदलता ही है, मुझे और तुम्हें भी बदलता है। लेकिन यथार्थ ही हमें नहीं बदलता, हम भी यथार्थ को बदलते हैं। हमारे उस बदलाव की दिशा यदि प्रतिगामी न होकर प्रगतिशील है, मनुष्य और समाज को बेहतर भविष्य की ओर ले जाने वाली है, तो हम सही हैं, अन्यथा गलत। मेरे और तुम्हारे बीच सही-गलत की कसौटी यही हो सकती है। </div>
</div>
ramesh upadhyayhttp://www.blogger.com/profile/05054633574501788701noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1496071818736613491.post-77149040125887569002017-02-04T08:10:00.005-08:002017-02-04T08:38:23.257-08:00स्वतंत्र लेखन की चाह का एक दुखांत<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: small;"><b>संस्मरण</b></span> <br />
<br />
<span style="color: #351c75;"><span style="font-size: large;"><b>रमेश उपाध्याय</b></span></span><br />
<br />
<br />
प्रेम की गहराई का संबंध उसकी अवधि से नहीं होता। लंबे समय तक प्रेम करने वाले दो व्यक्ति भी कभी यह महसूस कर सकते हैं कि उनके बीच जो था, वह तो प्रेम था ही नहीं। दूसरी तरफ केवल कुछ दिन साथ रहकर भी दो व्यक्तियों में इतना प्रगाढ़ प्रेम हो सकता है कि आजीवन भुलाये न भूले। मित्रता में भी ऐसा ही होता है। इब्राहीम शरीफ का और मेरा साथ तीन-चार वर्षों का ही रहा, पर उस थोड़े-से ही समय में उससे मेरी ऐसी दोस्ती हुई, जो मुझे लगता है कि आज भी कायम है, जबकि उसको गुजरे चार दशक हो चुके हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
उम्र में इब्राहीम शरीफ मुझसे पाँच साल बड़ा था। उसका जन्म 1937 में हुआ था और मेरा 1942 में। लेकिन लिखना हमने लगभग साथ-साथ शुरू किया था। हमने 1960 के दशक में कहानी लिखना शुरू किया था, लेकिन ‘साठोत्तरी’ कहलाने वाले कहानीकारों (ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह, रवींद्र कालिया आदि) के बाद के युवा कहानीकारों में हमारी गिनती होती थी। हिंदी कहानी में ‘नयी कहानी’ के आंदोलन के बाद कई कहानी आंदोलन चले थे, जैसे साठोत्तरी कहानी (1960 के बाद की या सातवें दशक की हिंदी कहानी), अकहानी, सचेतन कहानी, सहज कहानी आदि। हमारी कहानियाँ इन सब आंदोलनों से संबंधित पत्रिकाओं में प्रकाशित होती थीं, लेकिन हम इनमें से किसी भी आंदोलन में शामिल नहीं थे और अपने लेखन से अपनी एक अलग पहचान बना रहे थे। अतः हमें हमारी उम्र के आधार पर युवा कहानीकार कहा जाता था। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
दिसंबर, 1970 में पटना (बिहार) से निकलने वाली साहित्यिक पत्रिका ‘सिर्फ’ की ओर से एक युवा लेखक सम्मेलन आयोजित किया गया था, जिसमें दूसरे बहुत-से युवा लेखकों के साथ-साथ मुझे भी आमंत्रित किया गया था। उस समय मैं एम.ए. और शादी करने के बाद दिल्ली में रहता था और प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट शंकर के अंगे्रजी साप्ताहिक ‘शंकर्स वीकली’ के हिंदी संस्करण ‘हिंदी शंकर्स वीकली’ में काम करता था। ‘हिंदी शंकर्स वीकली’ का प्रकाशन उसी साल शुरू हुआ था। शंकर जवाहरलाल नेहरू के मित्र थे, उनसे उनके पारिवारिक संबंध थे, इसलिए ‘हिंदी शंकर्स वीकली’ का लोकार्पण तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने किया था। संयोग से उसके दोनों संपादक कथाकार थे और दोनों के नाम रमेश थे। प्रधान संपादक थे रमेश बक्षी और सहायक संपादक रमेश उपाध्याय। बक्षी जी ‘नयी कहानी’ आंदोलन से संबंधित वरिष्ठ कथाकार थे, जबकि मैं तब तक किसी भी आंदोलन से असंबद्ध युवा कथाकार। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
पटना में हो रहे युवा लेखक सम्मेलन में मेरा जाना तय था। दिल्ली से जा रहे कुछ अन्य लेखकों के साथ मैंने रेल-आरक्षण भी करा लिया था, लेकिन उसी समय मुझे दिल्ली छोड़कर बंबई जाना पड़ा। बंबई से एक पत्रिका निकलती थी ‘नवनीत हिंदी डाइजेस्ट’, जो अंग्रेजी ‘रीडर्स डाइजेस्ट’ की तर्ज पर निकाली जाती थी। कुछ दिन पहले ‘नवनीत’ के संपादक नारायण दत्त बंबई से दिल्ली आये थे। मैं कुछ समय स्वतंत्र लेखक के रूप में बंबई में रह चुका था और ‘नवनीत’ के लिए कुछ लेखन तथा अनुवाद कर चुका था, इसलिए वे मुझे जानते थे। वे मुझसे मिले। उन्हें ‘नवनीत’ के लिए एक ऐसे सहायक संपादक की जरूरत थी, जो संपादन के साथ-साथ लेखन और अनुवाद भी कर सके। वे जानते थे कि मैं ‘हिंदी शंकर्स वीकली’ से पहले ‘सरिता’, ‘मुक्ता’ और ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ के संपादकीय विभागों में काम कर चुका हूँ और ‘धर्मयुग’, ‘सारिका’, ‘कल्पना’, ‘ज्ञानोदय’ आदि प्रसिद्ध पत्रिकाओं में लिखने वाला चर्चित युवा लेखक हूँ। उन्होंने ‘हिंदी शंकर्स वीकली’ के मुकाबले ड्योढ़े वेतन पर ‘नवनीत’ के सहायक संपादक का पद सँभालने के लिए कहा, तो मैं राजी हो गया और पटना के युवा लेखक सम्मेलन में जाने के बजाय ‘नवनीत’ में काम शुरू करने के लिए बंबई चला गया। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
‘नवनीत’ का दफ्तर ताडदेव में एक पुरानी इमारत की ऊपरी मंजिल पर था। सहायक संपादक होने के नाते मुझे दफ्तर में एक अलग कमरा मिला हुआ था। एक दिन मैं अपने कमरे में अकेला बैठा कुछ काम कर रहा था कि बंबई का मेरा एक युवा कहानीकार मित्र जितेंद्र भाटिया एक लंबे, छरहरे, साँवले-से युवक के साथ मुझसे मिलने आया। वह युवक था इब्राहीम शरीफ। व्यक्तिगत रूप में हम पहली बार मिल रहे थे, किंतु कहानीकार के रूप में हम एक-दूसरे को पहले से जानते और पसंद करते थे। जितेंद्र हम दोनों का साझा मित्र और प्रिय कहानीकार था। शरीफ उस समय कालीकट (केरल) के सर सय्यद अहमद काॅलेज में हिंदी पढ़ाता था (एम.ए. हिंदी की पढ़ाई उसने दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज काॅलेज से की थी) और जितेंद्र बंबई के आइ.आइ.टी. में पढ़ रहा था। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
वे दोनों पटना के युवा सम्मेलन से लौटे थे। शरीफ ने मुझसे पूछा, ‘‘आप वहाँ क्यों नहीं आये? मुझे उम्मीद थी कि आप तो वहाँ जरूर मिलेंगे। वहाँ के लोग भी कह रहे थे कि आपका आना निश्चित था। फिर क्या हुआ?’’ <br />
मैंने संक्षेप में ‘हिंदी शंकर्स वीकली’ और दिल्ली छोड़कर ‘नवनीत’ में बंबई आने का किस्सा सुनाकर पूछा, ‘‘पटना में क्या-क्या हुआ?’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
जितेंद्र और शरीफ वहाँ से बहुत क्षुब्ध होकर लौटे थे। उन्हें वहाँ पर साहित्यिक राजनीति और लेखकीय गुटबंदियों के कुछ कटु अनुभव हुए थे। दोनों ने विस्तार से अपने अनुभव सुनाये और मुझसे कहा, ‘‘अब हम लोगों को कुछ करना चाहिए।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
‘‘क्या?’’ मैंने पूछा। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
‘‘हम नये लेखकों को साठोत्तरी लोगों से अलग अपनी पहचान बनानी चाहिए, क्योंकि जिस तरह ‘नयी कहानी’ वालों ने इन लोगों को ‘‘अपना ही विस्तार’’ कहा था, उसी तरह ये भी हम लोगों को ‘‘अपना ही विस्तार’’ कहकर हमारी नवीनता और भिन्नता को नकारना चाहते हैं। हमें यह मंजूर नहीं।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
मैंने चाय मँगवायी, चाय की चुस्कियों के साथ कुछ हल्की-फुल्की बातें कीं और हँसकर पूछा, ‘‘तो हम लोग भी अपना एक अलग गुट बनायें?’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
शरीफ गुटबंदी की निंदा कर चुका था, इसलिए थोड़ा अचकचाकर बोला, ‘‘नहीं, गुट तो नहीं, पर...’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
मैं शायद यही सुनना चाहता था। मैंने कहा, ‘‘तब हमें गंभीरता से एक नया कहानी आंदोलन चलाने के बारे में सोचना चाहिए। इसके लिए पहले हमें एक सूची बनानी चाहिए कि नये लेखकों में से कौन-कौन हमारे साथ आ सकते हैं। फिर यह सोचना चाहिए कि आंदोलन के जरिये हम करना क्या चाहते हैं। उसी उद्देश्य के मुताबिक हमें आंदोलन का नाम रखना चाहिए और उसी नाम से एक पत्रिका निकालनी चाहिए, जो हमारे आंदोलन का मंच बन सके।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
जितेंद्र यह सुनकर उछल पड़ा। बोला, ‘‘रमेश, तुम विश्वास नहीं करोगे, पर मैं भी ठीक ऐसा ही कुछ सोच रहा था।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
‘‘और आप क्या सोचते हैं, शरीफ साहब?’’ मैंने शरीफ से पूछा। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
‘‘पहली बात तो यह कि आप मुझे शरीफ साहब नहीं, शरीफ ही कहिए। दूसरी बात यह कि मैं आप दोनों से सहमत हूँ।’’ शरीफ ने मुस्कराते हुए कहा। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
‘‘तो शाम को कहीं मिलते हैं और इस पर विस्तार से बात करते हैं।’’ मैंने कहा। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
‘‘शाम को हम दोनों कमलेश्वर जी से मिलने ‘सारिका’ के दफ्तर में जायेंगे। चाहो, तो तुम भी वहीं आ जाओ। उनसे मिलने के बाद जहाँ तुम कहोगे, चले चलेंगे।’’ जितेंद्र ने कहा और मैं राजी हो गया। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
कमलेश्वर उन दिनों कहानी पत्रिका ‘सारिका’ के संपादक थे और हम नये कहानीकारों की कहानियाँ बड़े प्रेम से छापते थे। मैं उन्हें तब से जानता था, जब वे दिल्ली में ‘नयी कहानियाँ’ पत्रिका के संपादक थे। वे उम्र में मुझसे बड़े थे, और बड़े साहित्यकार तो थे ही, फिर भी मुझसे मित्रवत व्यवहार करते थे। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
शाम को अपने दफ्तर से मैं उनके दफ्तर पहुँचा, तो मैंने पाया कि जितेंद्र और शरीफ एक नया कहानी आंदोलन शुरू करने का विचार उन्हें बता चुके हैं और कमलेश्वर उसी के बारे में कुछ कह रहे हैं। कमलेश्वर ने खड़े होकर मेरा स्वागत करते हुए कहा, ‘‘आओ, रमेश! हम तुम्हारी ही बात कर रहे थे। नया कहानी आंदोलन शुरू करने का तुम्हारा विचार बहुत अच्छा है। मैं जितेंद्र और शरीफ से कह रहा था कि मैं तुम लोगों के साथ हूँ। तुम लोग ‘सारिका’ को अपनी ही पत्रिका समझो और इसी को अपने आंदोलन का मंच बनाओ।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
वे लोग चाय पी चुके थे, पर मेरे पहुँचने पर चाय का एक दौर और चला, जिसके दौरान आंदोलन के नाम पर विचार होने लगा। उन दिनों बंबई की फिल्मी दुनिया में ‘समांतर सिनेमा’ के नाम से एक नया आंदोलन शुरू हुआ था, जिसके अंतर्गत बंबइया सिनेमा की व्यावसायिक लीक से हटकर कुछ नये ढंग की फिल्में बनायी जा रही थीं। बातों ही बातों में कमलेश्वर ने कहा, ‘‘समांतर कहानी नाम कैसा रहेगा?’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
‘‘बहुत अच्छा रहेगा।’’ हम तीनों ने खुश होकर लगभग एक साथ कहा। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
‘‘तो मिलाओ हाथ।’’ कमलेश्वर ने अपना हाथ आगे बढ़ाया, जिस पर जितेंद्र, शरीफ और मैंने तले-ऊपर अपने हाथ रखे और कमलेश्वर ने दूसरे हाथ से हम तीनों के हाथों को दबाते हुए कहा, ‘‘समांतर कहानी जिंदाबाद!’’ <br />
शरीफ तो शायद अगले दिन अपने घर मद्रास चला गया, पर मैं और जितेंद्र समांतर कहानी आंदोलन की शुरुआत के लिए युवा कहानीकारों का एक सम्मेलन बंबई में कराने के काम में उत्साहपूर्वक जुट गये। कमलेश्वर से भी लगातार सलाह-मशविरा होने लगा। बंबई में उस समय जो अन्य युवा कहानीकार थे (जैसे सुदीप, अरविंद, निरुपमा सेवती, राम अरोड़ा आदि), उनसे व्यक्तिगत रूप से संपर्क और संवाद किया गया। दूसरी जगहों के लोगों के साथ पत्राचार के जरिये बात की गयी। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
अंततः जून, 1971 में ‘समांतर’ का पहला सम्मेलन बंबई में हुआ, जिसमें भाग लेने वाले लेखक थे--कमलेश्वर, कामतानाथ, मधुकर सिंह, रमेश उपाध्याय, जितेंद्र भाटिया, से.रा. यात्री, सुदीप, सतीश जमाली, राम अरोड़ा, दामोदर सदन, अरविंद, निरुपमा सेवती, आशीष सिनहा, विभु कुमार, श्याम गोविंद, सनत कुमार, मृदुला गर्ग, श्रवण कुमार, प्रभात कुमार त्रिपाठी, शीला रोहेकर आदि। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
इब्राहीम शरीफ को भी उस सम्मेलन में आना था, लेकिन किसी कारणवश वह आ नहीं पाया था। उसने अपना लिखित परचा भेजा था, जो एक गोष्ठी में बाकायदा पढ़ा गया था और उस पर चर्चा की गयी थी।<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgoUYeVxUVfr7ee7ctQrYVGHwivyLkOjUag_HSV-gNpt4FSMrasyvf6AFLmPsd7I8uEVYcC0x26IaR7rZbbOmjlJfXHxZA0TBZvJMrF44ZjR2t1XyeyuYIr3t_FYESuebDvCuXs4ECZbL_u/s1600/samantar-2.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="202" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgoUYeVxUVfr7ee7ctQrYVGHwivyLkOjUag_HSV-gNpt4FSMrasyvf6AFLmPsd7I8uEVYcC0x26IaR7rZbbOmjlJfXHxZA0TBZvJMrF44ZjR2t1XyeyuYIr3t_FYESuebDvCuXs4ECZbL_u/s400/samantar-2.jpg" width="400" /></a></div>
</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
सम्मेलन बहुत सफल रहा था। पूरे हिंदी जगत में उसकी धूम मची थी और ‘समांतर कहानी’ तुरंत चर्चा में आ गयी थी। अगले साल 1972 में कमलेश्वर द्वारा संपादित ‘समांतर-1’ नामक कहानी संकलन भी प्रकाशित हुआ था, जिसमें सम्मेलन की विस्तृत रपट थी और उसमें भाग लेने वाले लेखकों की कहानियाँ। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
समांतर सम्मेलन के बाद शरीफ के दो पत्र मुझे मेरे बंबई के पते पर मिले। उसका पहला पत्र यह था : <br />
<br /></div>
<div align="right" class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in; mso-layout-grid-align: none; text-align: right; text-autospace: none;">
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">54, Bazar Road,</span></span><br />
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">Mylapore, Madras-4</span></span></div>
<div align="right" class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in; mso-layout-grid-align: none; text-align: right; text-autospace: none;">
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">19-6-71 </span></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;"> <br />प्रिय भाई, <br />बंबई में दुबारा आपसे मिल नहीं सका, इसका मलाल है। बहरहाल, मैं मद्रास पहुँच तो गया था, लेकिन बहुत चाहकर भी थोड़ी-सी व्यस्तता की वजह से आपको तत्क्षण लिख नहीं सका, क्षमा करेंगे।<br />बंबई वाली गोष्ठी में आप रहे होंगे। क्या कुछ हुआ वहाँ, लिखने की कृपा करेंगे। <br />मैंने जिस योजना की बात आपसे कही थी, उस संबंध में निवेदन है कि यथाशीघ्र सुदीप का अंतरंग परिचय भेजें। साथ ही आपके पास अपनी कहानी ‘पुराने जूतों की जोड़ी’ की कटिंग हो तो भेजें, अपने चित्र के साथ। एक बात और, अपनी इस कहानी को लेकर 500 शब्दों का एक वक्तव्य भी भेजें। यह सब जितना जल्द मिल जाये उतना सुविधाजनक रहेगा मेरे लिए। <br />और? संभव हुआ तो मैं अगले महीने आपके लिए कोई कहानी भेजूँगा। <br />सानंद होंगे। <br />पत्र दीजिएगा। <br />आपका <br />इब्राहीम शरीफ</span><br />
<br />
शरीफ के पहले पत्र में जिस योजना का जिक्र है, वह यह थी कि मद्रास से निकलने वाली पत्रिका ‘अंकन’ में शरीफ एक स्थायी स्तंभ शुरू करेगा, जिसमें वह हर बार किसी युवा कहानीकार की एक कहानी, कहानी से संबंधित एक लेखकीय वक्तव्य और किसी अन्य कहानीकार द्वारा लिखा गया उसका अंतरंग परिचय दिया करेगा। बंबई में हुई पहली मुलाकात में ही उसने अपनी यह योजना मुझे बतायी थी। स्तंभ की शुरुआत वह सुदीप से करना चाहता था। सुदीप मेरा मित्र था, इसलिए उसका अंतरंग परिचय शरीफ मुझसे लिखवाना चाहता था। उस स्तंभ के लिए मेरी कहानी ‘पुराने जूतों की जोड़ी’ उसने पहले से ही चुन रखी थी। मेरा अंतरंग परिचय वह सुदीप से लिखवाना चाहता था। शायद उसकी योजना यह थी कि दो कहानीकार मित्र एक-दूसरे का अंतरंग परिचय लिखें।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
‘‘अगले महीने आपके लिए कोई कहानी भेजूँगा’’ का संदर्भ यह है कि मैंने ‘नवनीत’ में प्रकाशित करने के लिए उससे कहानी माँगी थी। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
बंबई में मुझसे हुई पहली मुलाकात होने तक वह कालीकट के काॅलेज की नौकरी छोड़कर मद्रास आ चुका था और मद्रास में अपना प्रेस लगाकर आजीविका की समस्या के स्थायी समाधान के बारे में सोच रहा था। प्रेस लगाने के बाद एक पत्रिका निकालने और पुस्तकों का प्रकाशन करने की भी उसकी योजना थी, जिसकी चर्चा उसने मुझसे और जितेंद्र से की थी। हम दोनों ने खुश होकर उसका उत्साह बढ़ाया था। अतः उसके पहले पत्र का उत्तर लिखते समय मैंने ‘नवनीत’ के लिए उसकी कहानी फिर से माँगी थी और प्रेस के बारे में पूछा था। मेरे उस पत्र के उत्तर में उसने लिखा था : <br />
<br /></div>
<div align="right" class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in; mso-layout-grid-align: none; text-align: right; text-autospace: none;">
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">54, Bazar Road,</span></span><br />
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">Mylapore, Madras-4</span></span></div>
<div align="right" class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in; mso-layout-grid-align: none; text-align: right; text-autospace: none;">
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">5-7-71 </span></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;"><br /><br />प्रिय भाई, </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;">आपका पत्र मिल गया था। उत्तर देने में देरी हुई। क्षमा करेंगे।<br />गोष्ठी के बारे में बहुत विस्तार से जितेंद्र ने लिखा है। जानकर बहुत खुशी हुई कि गोष्ठी हर दृष्टि से सफल रही। <br />अब तक कहानी, वक्तव्य और चित्र नहीं मिला है। कृपया जल्द भिजवा दीजिए। <br />अंतरंग परिचय के बारे में आपने जो लिखा है, वही बातें कमलेश्वर जी ने भी लिखी हैं। उनकी बातें ठीक ही लगती हैं। इसलिए आप सुदीप का परिचय तो लिखिए ही, लेकिन अब बदले हुए दृष्टिकोण से। यह भी अपनी कहानी वगैरह के साथ ही भेजने की कृपा करें। यह योजना यथाशीघ्र आरंभ हो जानी चाहिए। <br />मैं कहानी जब भी लिख लूँगा, आपके पास अवश्य भेजूँगा। तब तक क्षमा करेंगे। <br />प्रेस वाली बात अभी कुछ नहीं हुई है। देखिए। <br />और? पत्र दीजिएगा।<br />सानंद होंगे।<br />आपका <br />इब्राहीम शरीफ</span><br />
<br />
मैं जुलाई, 1971 में ‘नवनीत’ की सहायक संपादकी और बंबई छोड़कर दिल्ली वापस आ गया। इस बीच मैं एक बेटी का पिता बन चुका था और अब मेरा परिवार से दूर बंबई में रहना संभव नहीं था। दिल्ली आने के कुछ दिन बाद मैंने शरीफ को पत्र लिखा, जिसमें अपने बारे में बताते हुए लिखा कि जब तक कोई अच्छी नौकरी नहीं मिलती, मैं भी उसकी तरह फ्रीलांसिंग (स्वतंत्र लेखन) करूँगा। ‘अंकन’ वाली उसकी योजना के लिए उसने मेरी ‘पुराने जूतों की जोड़ी’ कहानी माँगी थी, पर इस बीच मैं कई और कहानियाँ लिख चुका था, जो मेरी नजर में उससे बेहतर थीं। इसलिए मैंने उसे लिखा कि मैं उसकी योजना के लिए अपनी दो कहानियाँ भेजँूगा। उनमें से वह जिसे चाहे चुन ले। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
मेरे पत्र के उत्तर में उसने लिखा : <br />
<br /></div>
<div align="right" class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in; mso-layout-grid-align: none; text-align: right; text-autospace: none;">
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">54, Bazar Road,</span></span><br />
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">Mylapore, Madras-4</span></span></div>
<div align="right" class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in; mso-layout-grid-align: none; text-align: right; text-autospace: none;">
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">18-8-71 </span></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;"><br />प्रिय भाई,<br />बहुत लंबी प्रतीक्षा के बाद कल शाम को आपका पत्र मिला। जितेंद्र ने लिखा तो था कि आप बंबई छोड़कर दिल्ली वापस चले गये हैं। मगर चूँकि आपका दिल्ली वाला पता मेरे पास नहीं था, इसलिए मैं खुद भी आपको लिख नहीं सका। अब आप मेरी ही तरह फ्रीलांसिंग करेंगे, यह जानकर बल मिला। <br />आपके विगत जीवन के बारे में जानकर, सच मानिए, आपसे और ज्यादा निकटता अनुभव करने लग गया हूँ। बल्कि आपके प्रति इज्जत अनुभव करने लगा हूँ। मेरा जीवन भी कुछ इसी तरह का रहा है। <br />आपकी एक कहानी अपने पास रख लूँगा, दूसरी लौटा दूँगा। जो कहानी मैं अपने पास रख लूँगा, उसके बारे में आपका वक्तव्य (500 शब्दों का) भी चाहिए होगा। साथ में आपका चित्र भी।<br />मैं आपका Social Background सुदीप को भेज रहा हूँ। वैसे, उन्होंने लिखा था कि सारा मैटर वे जल्दी ही भेजने वाले हैं। एक reminder और दूँगा।<br />‘सारिका’ में आपकी अंतर्कथा पढ़ी थी। बहुत पसंद आयी।<br />और क्या लिख रहे हैं?<br />दिल्ली का जीवन कैसा है? क्या भाभीजी कहीं काम कर रही हैं?<br />सारी बातें लिखिएगा।<br />मेरी ओर से भाभीजी को नमस्कार। बच्ची को ढेरों प्यार।<br />पत्र देते रहिएगा। <br />आपका <br />इब्राहीम शरीफ </span><br />
<br />
शरीफ के इस पत्र के उत्तर में मैंने लिखा कि मेरी पत्नी दिल्ली के एक उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में इतिहास पढ़ाती हैं। वे अपनी नौकरी तथा दिल्ली छोड़कर कहीं और नहीं जाना चाहतीं, इसलिए मुझे अब सदा के लिए दिल्लीवासी होकर रहना पड़ेगा, जबकि मुझे दिल्ली में कोई ढंग की नौकरी मिल नहीं रही है और स्वतंत्र लेखन मुझे रास नहीं आ रहा है। मैं दिल्ली छोड़कर कहीं और जाना चाहता हूँ, जहाँ मुझे कोई मनपंसद काम मिल सके। मैंने अपनी कहानियाँ और संबंधित सामग्री उसे भेज दी। कुछ समय पहले ‘अंकन’ में मेरी एक कहानी छपी थी, जिसकी प्रति मेरे पास नहीं थी। मैंने उसे लिखा कि वह मेरी उस कहानी की कतरन मुझे भेज दे। शरीफ ने मेरे इस पत्र का उत्तर काफी दिनों बाद दिया। <br />
<br />
<br /></div>
<div align="right" class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in; mso-layout-grid-align: none; text-align: right; text-autospace: none;">
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">54, Bazar Road,</span></span><br />
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">Mylapore, Madras-4</span></span></div>
<div align="right" class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in; mso-layout-grid-align: none; text-align: right; text-autospace: none;">
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">2-10-71 </span></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;"><br /><br />प्रिय भाई, <br />आपका पत्र मिल गया था। मैं बहुत लज्जित हूँ कि आपको लिखने में देरी कर दी। यहाँ आने के बाद से जिंदगी इतनी अस्त-व्यस्त हो गयी है कि क्या बताऊँ। फ्रीलांसिंग ने तो हालत खराब कर रखी है। जवाब देने में जो विलंब हो गया, उसे आप किसी भी अर्थ में उपेक्षा के रूप में मत लीजिएगा।<br />अब आपको दिल्ली का जीवन भी अच्छा नहीं लग रहा है। फिर भी दिल्ली मत छोडिए। कब तक इसी तरह घूमते रहेंगे?<br />‘धर्मयुग’ में आपका लेख देखा। पसंद आया।<br />आजकल क्या लिख रहे हैं? अपने बारे में विस्तार से लिखिए। <br />‘अंकन’ वालों से मैं बहुत दिनों से नहीं मिला हूँ। मिलकर आपकी कहानी की कटिंग जरूर भेजूँगा। <br />हमारी योजना तो सफल होगी ही। स्थायी स्तंभ में एक-एक कहानीकार को छापना संभव न हुआ, तो एक साथ सारे कथाकारों को ‘अंकन’ के एक विशेषांक में छाप देंगे। मैं कोशिश में हूँ। अगले पत्र में इस बारे में तफसील से लिखूँगा। आपकी एक कहानी लौटा रहा हूँ। दूसरी मैंने अपने पास रख ली है। उसे तेलुगु में भी करवाने का इरादा है। <br />भाभीजी को मेरी तरफ से नमस्कार कहें। बच्ची को प्यार।<br />इस महीने के आखिर में मेरे यहाँ भी एक नये सदस्य का आगमन होगा। आपको तो लिखूँगा ही। <br />पत्र दीजिएगा। व्यग्र प्रतीक्षा रहेगी। <br /> आपका <br />इब्राहीम शरीफ</span> <br />
<br />
अब याद नहीं कि शरीफ की वह कौन-सी कहानी थी, जो मुझे पसंद नहीं आयी थी और मैंने उसकी आलोचना की थी। किस पत्रिका में वह आलोचना छपी थी, यह भी मुझे याद नहीं। मैंने उसे लिख दिया था कि मैं उस कहानी पर लिख रहा हूँ। उत्तर में उसने लिखा : <br />
<br /></div>
<div align="right" class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in; mso-layout-grid-align: none; text-align: right; text-autospace: none;">
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">54, Bazar Road,</span></span><br />
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">Mylapore, Madras-4</span></span></div>
<div align="right" class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in; mso-layout-grid-align: none; text-align: right; text-autospace: none;">
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">12-10-71 </span></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;"><br />प्रिय भाई,<br />पत्र मिला। खुशी हुई।<br />शायद आपको पता होगा कि आज जितेंद्र भाटिया का जयपुर में सुधा अरोड़ा के साथ विवाह हो रहा है।<br />मेरी कहानी पर आपने जो भी लिखा हो, मुझे प्रसन्नता ही होगी। असल में, मैं खुद छपने के बाद उस कहानी से बेहद नाखुश हो गया था। मैंने जितेंद्र को इस बाबत लिखा भी था। अब आगे से ऐसी रचना नहीं लिखूँगा। किसी तरह के दबाव में आकर भी। <br />श्री चंद्रभूषण तिवारी ‘वाम’ निकाल रहे हैं। कल ही उनका पत्र आया है। आपको भी लिखा है। <br />‘कहानी’ में आपकी कहानी पढ़ी। क्या ‘कहानी’ के दीपावली अंक में आपकी कहानी आने वाली है? मेरी एक कहानी है। पढ़कर लिखिएगा। <br />आपके उपन्यास की कैसी प्रगति है? <br />फ्रीलांसिंग वाली आपकी बात से मैं सहमत हूँ। जैसा कि आपने लिखा है, क्लर्क भी, अपनी जगह, हमारी तुलना में जमा हुआ इसलिए माना जाता है कि उसे हर महीने डेढ़ सौ रुपये ही सही, बँधे हुए मिलते हैं। हम लोगों के साथ ऐसी सुविधा नहीं है। और इस तरह की सुविधा न होने में, दो तकलीफें हैं--(1) रोजमर्रे की सामान्य जरूरतों का पूरा न हो पाना (2) इन जरूरतों की पूर्ति के लिए आवश्यक रूपया कमाने के लिए अक्सर न चाहते हुए भी बहुत कुछ लिखने पर विवश हो जाना। <br />आप जानते हैं, आर्थिक दबाव बहुत तकलीफदेह होता है और वह समझौते करने पर मजबूर करता है। और समझौते लेखक के लिए घातक तो होते ही हैं। जैसे, आपने कोई साफ कहानी लिखी, पत्रिका वाले अपनी नीति और बिक्री के हिसाब से उसे छापने के लिए तैयार नहीं हैं। अब आप क्या कीजिएगा? फ्रीलांसिंग कैसे बनाये रखेंगे? नतीजा यह होता है कि या तो आप नौकरी की खोज में लग जाते हैं या कूड़ा लिखने पर विवश हो जाते हैं। ये दोनों बातें ठीक नहीं हैं, कम से कम फ्रीलांसिंग की सही ताप को हल्की कर देती हैं। और इसी कारण ले-देकर लेखक समाज के साधारण अर्थ में second rate नागरिक बन जाता है। बात ले-देकर यहीं आ जाती है कि सारी चीजें बदलें, खासकर राजनीतिक व्यवस्था। <br />आपके विचार जानना चाहूँगा। <br />भाभीजी को नमस्कार। बच्ची को प्यार। <br /> आपका <br /> इब्राहीम शरीफ</span> <br />
<br />
फ्रीलांसिंग के बारे में मैंने शरीफ को एक लंबा पत्र लिखा, जिसमें मैंने उसे बताया कि सिर्फ कहानी-उपन्यास लिखकर हिंदी का लेखक जिंदा नहीं रह सकता, क्योंकि रचनात्मक लेखन आप नियमित रूप से और इतना अधिक नहीं कर सकते कि उससे मासिक वेतन की तरह एक बँधी हुई रकम आपको लगातार मिलती रह सके। महीनों की मेहनत से आप एक कहानी और वर्षों की मेहनत से आप एक उपन्यास लिखते हैं, लेकिन इसकी कोई गारंटी नहीं कि आपकी रचना छप ही जायेगी और उसका उचित पारिश्रमिक भी आपकेा मिल ही जायेगा। इसलिए मैं अपने रचनात्मक लेखन को फ्रीलांसिंग से अलग रखता हूँ। फ्रीलांसिंग के तौर पर मैं साहित्येतर विषयों पर लेख लिखता हूँ, रेडियो और टेलीविजन के लिए नाटक लिखता हूँ, अंग्रेजी और गुजराती से अनुवाद करता हूँ। कहानी किसी बड़ी पत्रिका में छप जाये और उसका उचित पारिश्रमिक मिल जाये, तो ठीक, नहीं तो कोई बात नहीं। यही कारण है कि मेरी दो कहानियाँ बड़ी पत्रिकाओं में छपती हैं, तो चार छोटी पत्रिकाओं में, जो पारिश्रमिक नहीं देतीं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
मैंने उसे सलाह दी थी कि हो सके तो वह भी ऐसी ही फ्रीलांसिंग करे और अपने रचनात्मक लेखन को उससे अलग रखे। लेकिन मेरे पत्र का कोई उत्तर नहीं आया। बाद के पत्र से पता चला कि पत्र तो उसने लिखा था, पर किसी कारण से वह मुझ तक पहुँचा नहीं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
मेरी पहली संतान (बड़ी बेटी प्रज्ञा) 1971 के अप्रैल महीने में पैदा हुई थी और उसी साल शरीफ अपनी पहली संतान (बडे़ बेटे राहुल) का पिता बना था। इसकी सूचना देते हुए उसने लिखा था : <br />
<br />
<br /></div>
<div align="right" class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in; mso-layout-grid-align: none; text-align: right; text-autospace: none;">
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">54, Bazar Road,</span></span><br />
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">Mylapore, Madras-4</span></span></div>
<div align="right" class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in; mso-layout-grid-align: none; text-align: right; text-autospace: none;">
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">17-11-71</span></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;"><br />प्रिय भाई,<br />आपको मेरा पिछला पत्र मिल गया होगा। उत्तर की प्रतीक्षा थी, पता नहीं क्यों अब तक आपने उसका जवाब नहीं दिया। आशा करता हूँ, आप सपरिवार सकुशल होंगे।<br />आज ही मैंने आपकी टिप्पणी पढ़ी। सच मानिए, आपके सही और स्पष्ट विचारों को पढ़कर मैं बहुत खुश हुआ हूँ। असल में, मैं काफी कड़े शब्दों की प्रतीक्षा में था, लेकिन लगता है कि आपने फिर भी काफी उदारता दिखायी है। जैसा कि मैं आपको लिख चुका हूँ, मैं आपके विचारों से अक्षरशः सहमत हूँ, क्योंकि मैं खुद उस कहानी से संतुष्ट नहीं हूँ। संबंधों की ऐसी चलती हुई कहानी आगे मैं लिखने की गुस्ताखी नहीं करूँगा। <br />26-10-71 की सुबह हमारे घर नये मेहमान का आगमन हो गया है। पत्नी और बच्चा सकुशल हैं। बच्चे का नाम रखा है राहुल शरीफ। <br />आपके और क्या समाचार हैं? क्या उपन्यास वाला काम आगे बढ़ रहा है? कितना लिख लिया है? कब तक पूरा हो जायेगा? और इधर क्या लिखा है? <br />दिल्ली का जीवन कैसा है? पता चला है कि विश्वेश्वर, अशोक अग्रवाल वगैरह आजकल दिल्ली ही रह रहे हैं। क्या कभी उन लोगों से मुलाकात हुई है? <br />भाभीजी को नमस्कार कहिए। बच्ची को प्यार। <br />आपके पत्र की प्रतीक्षा रहेगी। <br /> आपका<br /> इब्राहीम शरीफ</span> <br />
<br />
1972 के आरंभ में शरीफ दिल्ली आया और चार महीने रहा। स्वतंत्र लेखन में होने वाले आर्थिक कष्ट से तंग आकर उसने दक्षिण भारत में हिंदी का प्रचार करने वाले मोटूरि सत्यनारायण (जिनके नाम से अब केंद्रीय हिंदी संस्थान द्वारा एक पुरस्कार दिया जाता है) की संस्था हिंदी विकास समिति में नौकरी कर ली, जिसका एक कार्यालय मद्रास में था और दूसरा दिल्ली में। इस संस्था के द्वारा हिंदी का पहला विश्वकोश ‘हिंदी विश्वज्ञान संहिता’ के नाम से प्रकाशित किया जाने वाला था। वहाँ विश्वकोश के संपादन का काम दो व्यक्ति पहले से करते थे--एक दक्षिण भारतीय रवींद्रन और दूसरा उत्तर भारतीय गौरीशंकर। दफ्तरी काम करने वाले क्लर्क, टाइपिस्ट, चपरासी वगैरह तो थे ही। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
शरीफ दिल्ली आते ही मेरे घर आकर मुझसे मिला और बोला, ‘‘मैं चाहता हूँ कि आप हिंदी विकास समिति द्वारा निकाले जा रहे हिंदी विश्वकोश के संपादक मंडल में शामिल होकर मेरे साथ काम करें।’’ वह मद्रास में ही मोटूरि सत्यनारायण से मेरे बारे में बात कर आया था और उनसे मेरी नियुक्ति की अनुमति लेकर आया था। मुझे नौकरी की जरूरत तो थी ही, विश्वकोश के संपादन जैसे महत्त्वपूर्ण काम के अनुभव का आकर्षण भी था, इसलिए मैंने उसका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
दिल्ली में हिंदी विकास समिति का कार्यालय तिलक मार्ग पर उच्च न्यायालय के सामने की एक कोठी में था। उसमें एक छोटा कमरा था और एक बड़ा हाॅल। कमरा प्रधान संपादक का था। मोटूरि सत्यनारायण विश्वकोश के प्रधान संपादक थे। वे जब दिल्ली में होते, उसी कमरे में बैठते और बाकी सब लोग हाॅल में। उनकी अनुपस्थिति में शरीफ उस कमरे में बैठता था। इस प्रकार वह हम सबका बाॅस था, लेकिन उसमें अफसरी अकड़ नहीं थी। उसका व्यवहार सभी के साथ दोस्ताना था। लंच के समय वह और मैं उच्च न्यायालय परिसर के एक ढाबे पर खाना खाने जाते और सर्दियों की धूप में कुछ देर सड़क पर टहलते हुए गपशप करते। शरीफ बहुत हँसमुख था और बहुत अच्छा किस्सागो। दिल्ली में उसके दो पुराने मित्र थे--उत्तर भारतीय सुधीर चौहान और दक्षिण भारतीय जे.एल. रेड्डी। वे दोनों दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी प्राध्यापक थे। शरीफ के कारण मेरी भी उनसे मित्रता हो गयी। बाद में जब मैं भी दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हो गया, तो उन दोनों से मेरी मित्रता और प्रगाढ़ हुई, जो आज तक कायम है, जबकि हम तीनों प्राध्यापकी से मुक्त हो चुके हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
शरीफ मेरे घर अक्सर आया करता था। मेरे परिवार में सब लोगों से वह खूब घुलमिल गया था। हँसी-मजाक में एक दिन हम लोगों ने फिल्मी तर्ज पर तय किया कि जब हमारे बच्चे बड़े हो जायेंगे, हम उनकी शादी करके अपनी दोस्ती को रिश्तेदारी में बदल देंगे। तभी से शरीफ मेरी बेटी प्रज्ञा को बहूरानी कहने लगा और मैं उसके बेटे राहुल को दामाद जी। यह संबंध बाद में हमारे पत्राचार में भी व्यक्त होता रहा। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
चार महीने बाद शरीफ वापस मद्रास चला गया, लेकिन वहाँ जाकर भी वह हिंदी विकास समिति का काम करता रहा। उसका वेतन दिल्ली से उसे भेजा जाता था। मद्रास जाते समय वह अपनी कुर्सी और जिम्मेदारी मुझे सौंप गया। अर्थात्, जब मोटूरि सत्यनारायण और इब्राहीम शरीफ दिल्ली में नहीं होंगे, विश्वकोश के प्रधान संपादक के कमरे में बैठकर दफ्तर का सारा कामकाज मुझे देखना होगा। लेकिन यह बात वहाँ मुझसे पहले से काम करने वाले रवींद्रन और गौरीशंकर को अच्छी नहीं लगी। वहाँ उनकी नियुक्ति मुझसे पहले हुई थी, इसलिए वे वरीयता क्रम में स्वयं को मुझसे ऊपर समझते थे। मेरे आदेशों का पालन करने में उन्हें अपनी हेठी लगती थी, इसलिए वे मेरे द्वारा बताये गये कामों को टाल देते थे या उनमें जान-बूझकर ढिलाई बरतते थे। इससे काम की गति तो धीमी होती ही थी, दफ्तर में एक तरह का तनाव भी पैदा होता था। शरीफ मद्रास से पत्र लिखकर पूछता था कि दफ्तर का कामकाज कैसा चल रहा है। उसका कहना था कि मोटूरि सत्यनारायण हर हफ्ते काम की प्रगति की विस्तृत रपट चाहते हैं। काम उसकी, और मेरी भी, अपेक्षा के मुताबिक तेजी से नहीं हो रहा था। मगर मैं अपने साथ काम करने वालों की शिकायत नहीं करना चाहता था, इसलिए शरीफ के पत्रों के उत्तर देना या तो गोल कर जाता, या बहुत संक्षेप में उत्तर देता। उसके दोस्त सुधीर चैहान और जे.एल. रेड्डी दफ्तर की दशा जानते थे, पर मैंने उनसे भी कह रखा था कि इस बाबत शरीफ को लिखकर उसे परेशान न करें। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
उधर शरीफ इसी बात से चिंतित और परेशान रहता था। इस बीच वह मुझसे बहुत निकटता और आत्मीयता अनुभव करने लगा था, इसलिए उसके पत्रों में ‘‘प्रिय भाई’’ वाला औपचारिक संबोधन बदलकर ‘‘प्रिय रमेश’’ हो गया था। पत्र के नीचे भी अब वह ‘‘आपका इब्राहीम शरीफ’’ लिखने की जगह ‘‘तुम्हारा शरीफ’’ लिखता था। उन्हीं दिनों का उसका एक पत्र है : <br />
<br /></div>
<div align="right" class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in; mso-layout-grid-align: none; text-align: right; text-autospace: none;">
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">54, Bazar Road,</span></span><br />
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">Mylapore, Madras-4</span></span></div>
<div align="right" class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in; mso-layout-grid-align: none; text-align: right; text-autospace: none;">
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">26-6-72</span></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;"><br />प्रिय रमेश,<br />मुझे ऐसी कोई घटना याद नहीं आ रही है जिसके अंतर्गत मैंने तुम्हारे प्रति इस हद तक गुस्ताखी की हो कि तुम मेरे खत का जवाब देना तक गवारा न कर सको। अगर मुझसे ऐसी कोई भूल हो गयी हो तो मुझे माफ कर दो, मेरे भाई!<br />तुम बखूबी सोच सकते हो कि चार महीने लगातार तुम्हारी आत्मीयता पाकर मैं इतनी दूर आ जाऊँ और तुम मेरे पत्र का जवाब तक न दो, तो मुझे किस हद तक तकलीफ हो सकती है। मैं यह तो बिलकुल नहीं मान सकता कि तुम्हें इतनी भी फुर्सत न मिलती हो कि चार अक्षर तुम मुझे लिख सको। इसलिए मैं यह सोचने पर विवश हूँ कि मुझसे कोई भूल हो गयी है, जिसकी वजह से तुम भरे बैठे हो। तो मेरे भाई, गाली-गलौज ही क्यों नहीं दे लेते, जिससे पता तो चले कि मैं कितना गिरा हुआ इंसान हूँ। सिर्फ दफ्तरी पत्र पाने ही के लिए तो मैंने तुमसे दोस्ती नहीं की थी न? <br />मैंने अपने 16-6-72 वाले विस्तृत पत्र में तुम्हें बहुत सारी बातें लिखी थीं। तुमने उन बातों में कोई जान नहीं देखी कि चुप्पी साध गये? आखिर तुम्हें हो क्या गया है, रमेश? क्या तुम वही रमेश हो, प्यारे, भोले और आत्मीय, जिसे मैंने चार महीने जाना और चाहा था? <br />अगर तुम इस पत्र का भी जवाब नहीं दोगे, तो याद रखो, मैं जिंदगी में किसी पर भी कोई विश्वास नहीं करूँगा। उस गधे चौहान से भी कहो कि उसने भी मेरे पत्र का उत्तर नहीं दिया है। <br />भाभीजी के क्या हाल हैं? उन्हें मेरी नमस्ते कहो और बहूरानी को ढेरों प्यार। <br />तुम्हारे पत्र की प्रतीक्षा में, </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;">तुम्हारा <br />शरीफ </span><br />
<br />
हिंदी विकास समिति मोटूरि सत्यनारायण द्वारा स्थापित एक गैर-सरकारी संस्था थी, जो सरकारी सहायता से चलती थी। वे दक्षिण में हिंदी का प्रचार करने वाले एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में विख्यात थे और हिंदी में पहला विश्वकोश निकालने की उनकी योजना बहुत प्रभावशाली थी, अतः अपनी संस्था के लिए सरकारी अनुदान प्राप्त करना उनके लिए मुश्किल नहीं था। वे संस्था के सर्वेसर्वा थे और तानाशाह की तरह उसे चलाते थे। जब जिसे चाहा, रख लिया; जब जिसे चाहा, हटा दिया। लेकिन यह काम वे सीधे नहीं करते थे, शरीफ से कराते थे और शरीफ न चाहते हुए भी उनके आदेशों का पालन करने को विवश होता था। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
शरीफ उस नौकरी में खुश नहीं था, लेकिन उसे छोड़ना भी नहीं चाहता था। वह कालीकट के जिस काॅलेज में हिंदी प्राध्यापक रह चुका था, वहाँ के हिंदी विभागाध्यक्ष डाॅ. मलिक चाहते थे कि वह पुनः काॅलेज में पढ़ाने आ जाये। लेकिन शरीफ की न जाने क्या मजबूरी थी कि वह वहाँ नहीं जाना चाहता था। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
कमलेश्वर ने शरीफ को ही नहीं, मुझे भी यह आश्वासन दे रखा था कि वे हम दोनों को टाइम्स आॅफ इंडिया में, यानी उस प्रकाशन समूह की ‘धर्मयुग’, ‘सारिका’, ‘दिनमान’ या ‘पराग’ नामक पत्रिकाओं में से किसी के संपादकीय विभाग में नौकरी दिला देंगे। लेकिन उनका कोई आश्वासन पूरा होने का नाम नहीं ले रहा था। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
शरीफ और मैं अपने लिए कोई ढंग का ठौर-ठिकाना ढूँढ़ रहे थे, लेकिन विडंबना यह थी कि अन्य लोग हमें इतना शक्तिशाली समझते थे कि हम जिसे चाहें, हिंदी विकास समिति में नौकरी पर रख या रखवा सकते हैं। मेरे और शरीफ के साझे मित्र कहानीकार सतीश जमाली को नौकरी की जरूरत थी और वह चाहता था कि हम उसे समिति में नौकरी दिला दें। मैंने शरीफ से सतीश के बारे में बात की, तो उसने किन्हीं डाॅ. सुब्रह्मण्यम् के बारे में बताया कि उन्हें नौकरी की ज्यादा जरूरत है और शरीफ उन्हें समिति के मद्रास कार्यालय में रखवाने का प्रयास कर रहा है, इसलिए फिलहाल सतीश के लिए कुछ नहीं कर सकता। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
इन सारे संदर्भों से युक्त शरीफ का एक पत्र इस प्रकार था : <br />
<br /></div>
<div align="right" class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in; mso-layout-grid-align: none; text-align: right; text-autospace: none;">
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">54, Bazar Road,</span></span><br />
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">Mylapore, Madras-4</span></span></div>
<div align="right" class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in; mso-layout-grid-align: none; text-align: right; text-autospace: none;">
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">28-6-72</span></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;"><br />मेरे रमेश,<br />आखिर तुम्हारा एक खत मिला, संक्षिप्त-सा। पढ़कर तसल्ली तो हुई मगर मजा नहीं आया।<br />यार, चैहान और तुम्हारे नाम लिखे हुए मेरे पत्र जा कहाँ रहे हैं? और लोगों को मेरे पत्र मिल रहे हैं और तुम दोनों सालो मेरे पत्र न मिलने का बहाना कर चुप्पी साधे बैठे हो। मैंने तुम दोनों के नाम और दो पत्र लिखे हैं। <br />क्या कमलेश्वर जी दिल्ली आये थे? क्या बातें हुईं? वह टाइम्स वाली बात उन्होंने कुछ नहीं लिखी है। पता नहीं क्या हुआ? <br />डॉ. मलिक कालीकट बहुत जोर देकर बुला रहे हैं, लेकिन मैं अभी तक कुछ तय नहीं कर पाया हूँ। डॉ. सुब्रह्मण्यम, जिसके बारे में मैंने बताया था कि बेचारा यहाँ सभा की नौकरी से हटा दिया गया था, उसके लिए मैंने हिंदी विकास समिति में यहाँ के लिए इंतजाम कर लिया है। जुलाई की पहली से संभवतः वह लग जाये। अब यार, सतीश जमाली की चिंता है। उसके लिए कुछ करें, तभी बात बने। उसकी नौकरी छूटने वाली है और बेकारी में बेचारा कैसे घर चला पायेगा? तुम भी कुछ सोचो उस भाई के लिए। <br />यहाँ से निकलने वाली पत्रिका का क्या सोचा है तुम लोगों ने? कमलेश्वर जी के साथ हुई बातचीत का ब्योरेवार परिचय मुझे दो। <br />मेरे वेतन में से 100 रुपये इस महीने मत काटो। मुझे घर जाना है, भाई के बच्चों के लिए कपड़े खरीदने हैं। मुझे रुपयों की जरूरत होगी। <br />और? <br />मेरी बहूरानी के क्या हाल हैं? उसे उसके ‘वो’ बहुत याद करते रहते हैं। उसकी सास को तो वह बहुत पसंद आयी है। कहती है, बहुत sweet है।<br />भाभीजी को सादर नमस्कार। मेरी बीवी की ओर से तुम दोनों को प्रणाम। <br />उस चौहान गधे के क्या हाल हैं? लिखो। <br /> तुम्हारा <br /> शरीफ</span><br />
<br />
जिस संस्था में तानाशाही और अस्थायित्व हो, उसमें काम करने वाले लोग असुरक्षा की मानसिकता में जीते हुए एक-दूसरे के प्रति ईष्र्या और द्वेष से ग्रस्त हो जाते हैं। हिंदी विकास समिति के दिल्ली कार्यालय में मेरे साथ काम करने वाले रवींद्रन और गौरीशंकर मेरे प्रति ऐसे ही ईर्ष्या-द्वेष से ग्रस्त थे। वे मेरे विरुद्ध शरीफ को भड़काने वाले पत्र तो लिखते ही थे, विश्वकोश से संबंधित काम भी मुस्तैदी से नहीं करते थे। उधर मोटूरि सत्यनारायण का शरीफ पर और शरीफ का मुझ पर निरंतर यह दबाव रहता था कि विश्वकोश के पहले खंड का प्रकाशन जल्दी से जल्दी हो जाये। शायद इसी पर सरकारी अनुदान मिलना निर्भर करता था। अंततः मुझे एक पत्र में दफ्तर का सारा हाल शरीफ को लिखना पड़ा। मेरे पत्र के उत्तर में शरीफ के दो पत्र आये, एक दफ्तरी और दूसरा निजी। निजी पत्र इस प्रकार था : <br />
</div>
<div align="right" class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in; mso-layout-grid-align: none; text-align: right; text-autospace: none;">
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">54, Bazar Road,</span></span><br />
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">Mylapore, Madras-4</span></span></div>
<div align="right" class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in; mso-layout-grid-align: none; text-align: right; text-autospace: none;">
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">13-7-72 </span></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<span style="color: blue;"></span><span style="color: blue;"> प्रिय रमेश,</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;"> तुम्हारा खत मिला। <br />आज सुबह ही मैंने तुम्हारे नाम दफ्तर के पते पर एक पत्र भेजा है, जिसमें मैंने तुम तीनों को संबोधित किया है। मैंने अब तक का सारा दफ्तर का पत्र-व्यवहार सत्यनारायण जी को दिखाया है और जो कुछ मैंने तुम लोगों को लिखा है, वह सब उन्हीं के आदेशानुसार लिखा है। तुम जानते हो, मैं भी तुम लोगों की तरह ही नौकर हूँ और मुझे जो आदेश दिया जाता है, वह करना मेरा कर्तव्य हो जाता है। <br />गौरी के बारे में तुमने जो बातें लिखी थीं, वे सारी सत्यनारायण जी पहले ही से जानते हैं। और उन्होंने मुझे बताया भी था। इस सबके बावजूद, हो सकता है, गौरी या रवींद्रन या तुम खुद भी मुझे गलत समझ सकते हो। लेकिन मेरे भाई, शायद तुम अपने चार महीनों के अनुभव के आधार पर इतना तो जान गये होगे कि मैं न किसी की बुराई चाहता हूँ, न किसी पर कोई अधिकार चलाना चाहता हूँ। गौरी खुद ये सारी बातें जानता है। मगर वह इतना रूखा इंसान है कि व्यक्तिगत संबंधों को कोई तरजीह नहीं देता है। खैर, मेरी असलियत मेरे साथ है, तुम लोग जो भी समझो। <br />मैं खुद इस नौकरी में बहुत दिन नहीं रहूँगा। ताकि तुम लोग मुझे और ज्यादा गलत समझने का मौका न पा सको। खैर, ये तो दफ्तर की बेहूदा बातें हैं। <br />कमलेश्वर जी के पत्र आये। ‘समांतर’ संग्रह के लिए उन्होंने मेरी ‘दिग्भ्रमित’ कहानी चाही है। उसकी कटिंग मेरे पास नहीं है। यहाँ मिलने की भी संभावना नहीं है। तुम्हारे पास ‘धर्मयुग’ के पुराने अंक हों, तो (4 अक्टृबर, 1970 के अंक से) कटिंग तत्काल कमलेश्वर जी के पास भेजो। श्रवण कुमार बता रहे थे कि मेरी उस कहानी की कटिंग उनके पास भी है। उन्हें भी पूछो। उनके पास हो, तो लेकर बंबई भेज दो। <br />और? <br />सतीश के बारे में अभी कोई व्यवस्था करने की स्थिति नहीं है। पहली जिल्द निकलने के बाद ही वह संभव हो पायेगा। इसलिए इस नवंबर-दिसंबर के पहले नहीं हो पायेगा। मैंने कमलेश्वर जी को भी यही बातें सूचित की हैं। तुम भी लिख दो। <br />और क्या हो रहा है? <br />भाभी जी को प्रणाम। बच्ची को प्यार। पत्र दो। कहानी बंबई भिजवाओ। <br /> तुम्हारा <br /> शरीफ</span><br />
<br />
‘प्रिय भाई’, ‘प्रिय रमेश’, ‘मेरे रमेश’ जैसे संबोधनों वाले पत्र लिखने वाले शरीफ ने एक बार मुझे ‘अप्रिय रमेश’ लिखकर भी संबोधित किया था : <br />
<br /></div>
<div align="right" class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in; mso-layout-grid-align: none; text-align: right; text-autospace: none;">
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">54, Bazar Road,</span></span><br />
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">Mylapore, Madras-4</span></span></div>
<div align="right" class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in; mso-layout-grid-align: none; text-align: right; text-autospace: none;">
<span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;"><span style="color: blue;">26-8-72 </span></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;"> <br />अप्रिय रमेश, </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;">लगता है, मुझे भाभीजी से यह जानना पड़ेगा कि तुम अपने-आपको क्या समझते हो! यार, पत्र क्यों नहीं लिखते? दफ्तर पर पत्र लिखा, जवाब नहीं। घर के पते पर लिखा, वही मौन। लगता है, निर्दयी होते जा रहे हो। खासकर मेरे साथ। खासकर तुम्हारी प्यारी बिटिया के ससुर के साथ। <br />खुश हो जाओ कि अगले महीने की दूसरी तारीख तक बंदा दिल्ली पहुँच रहा है। सत्यनारायण जी भी चाहते हैं। एक तार भिजवाया था सत्यनारायण जी ने तुम्हारे नाम--मेरे द्वारा (यानी मेरा नाम रखकर) घबराने की कोई बात नहीं। संक्षेप में लिखो कि कितना काम हुआ है। उन्हें इन बातों को बार-बार जानने की लत है। <br />यह पत्र, ध्यान रखो कि एकदम व्यक्तिगत है, इससे बढ़कर कुछ नहीं। बाहर न जाये। <br />भाभीजी को प्रणाम। <br />बिटिया को प्यार। <br />तत्क्षण लिखो। <br />तुम्हारा <br />शरीफ</span><br />
<br />
सितंबर, 1972 में शरीफ दिल्ली आ गया, तो मुझे दफ्तर की उस जिम्मेदारी से मुक्ति मिली, जिसे सँभालने के बदले में मेरा वेतन तो एक पैसा भी नहीं बढ़ा था, पर सिरदर्दी बहुत बढ़ गयी थी। शरीफ अपने कमरे में बैठने लगा और मैं वापस हाॅल में अपनी पहली वाली जगह। मुझे तो इससे तनावमुक्त हो जाने की खुशी हुई, लेकिन रवींद्रन और गौरीशंकर को इस बात की खुशी हुई कि मैं अब उनका सीनियर नहीं रहा, बल्कि नियुक्ति के तिथि-क्रम के अनुसार पुनः उन दोनों से जूनियर हो गया हूँ। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
मुझे इसकी परवाह नहीं थी, बल्कि खुशी थी कि मेरा बहुत-सा समय बच गया, जो शरीफ की जगह बैठने से विश्वकोश के लेखकों को टेलीफोन करके काम जल्दी करने के लिए कहने में, टाइपिस्ट को काम देने, उसके काम को जाँचने और उसे ठीक से काम करने की ताईद करने में तथा कारण-अकारण मिलने आने वालों के साथ बातचीत करने में चला जाता था। वापस अपनी जगह आकर मैंने संपादन का काम तेजी से करना शुरू किया। देखा-देखी रवींद्रन और गौरीशंकर भी मुस्तैदी से काम करने लगे। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
उन्हीं दिनों कानपुर में ‘समांतर’ का दूसरा सम्मेलन हुआ, जिसमें शरीफ और मैं दिल्ली से साथ-साथ गये। सम्मेलन 15, 16, 17 अक्टूबर को होना था, लेकिन कमलेश्वर ने मुझे, शरीफ, जितेंद्र और मधुकर सिंह को एक दिन पहले कानपुर पहुँच जाने के लिए कहा था, ताकि ‘‘समांतर के कोर ग्रुप’’ के लोग (अर्थात् कमलेश्वर, मैं, शरीफ, जितेंद्र, कामतानाथ और मधुकर सिंह) पहले मिलकर तय कर लें कि सम्मेलन में क्या-क्या और किस तरह किया जाना है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
मैं और शरीफ 13 अक्टूबर को रात की गाड़ी से कानपुर गये। रास्ते में समांतर को लेकर शरीफ से मेरी लंबी बातचीत हुई। हम दोनों के विचार से कमलेश्वर ने हमारे आंदोलन को चालाकी से हथियाकर अपना नेतृत्व उस पर थोप दिया था। गलती हम लोगों की भी थी कि हमने अपना आंदोलन स्वयं चलाने के बजाय उसकी बागडोर उनके हाथ सौंप दी। होना यह चाहिए था कि हम अपना आंदोलन अपने ढंग से चलाते, उसके लिए एक नया मंच बनाते और उसके जरिये कहानी के रूप तथा वस्तुतत्त्व में आ रहे नये बदलाव को उसके मूल्य और महत्त्व के साथ सामने लाते। उस समय हिंदी साहित्य में पुराने प्रगतिशील आंदोलन का जो नया उभार वाम-जनवादी लेखन के रूप में सामने आ रहा था, उससे जुड़कर हमें एक नया कहानी आंदोलन शुरू करना चाहिए था और ‘पहल’, ‘वाम’, ‘उत्तरार्द्ध’ आदि पत्रिकाओं जैसी कोई नयी पत्रिका निकालकर उस समय लिखी जा रही वाम-जनवादी कहानी को एक नये साहित्यिक आंदोलन का रूप देना चाहिए था। लेकिन हमने तत्कालीन सत्ता और व्यवस्था के समर्थक एक पुराने लेखक को अपना नेता तथा एक पूँजीवादी संस्थान से निकलने वाली व्यावसायिक पत्रिका को अपना मंच मान लिया था। समांतर आंदोलन में शामिल ज्यादातर कहानीकार अराजनीतिक किस्म के लेखक थे और कमलेश्वर ‘नयी कहानी’ आंदोलन के समाप्त हो जाने पर साहित्य में अपनी साख और धाक फिर से जमाने की फिराक में थे। फिर, एक तरफ कमलेश्वर को कहानी की एक पत्रिका चलाने के लिए लगातार अच्छी कहानियों की जरूरत थी, जो नये कहानीकार ही पूरी कर सकते थे, तो दूसरी तरफ नये कहानीकारों को ‘सारिका’ जैसी लोकप्रिय पत्रिका में निरंतर प्रकाशित होने और उसके संपादक की निकटता का लाभ उठाकर साहित्य में अपने पैर जमाने का अवसर मिल रहा था। इस प्रकार पारस्परिक लाभ के सिद्धांत पर समांतर कहानी का आंदोलन चल रहा था। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
उस समय हिंदी साहित्य में वाम-जनवादी लेखन का जो नया उभार आया हुआ था, उससे जुड़े लेखक तथा साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादक माक्र्सवादी थे और वाम दलों के सदस्य अथवा समर्थक थे। हम साहित्य की उस नयी प्रवृत्ति से जुड़कर अपना कहानी आंदोलन चलाते, तो हमारे आंदोलन की दशा और दिशा कुछ और ही होती। लेकिन समांतर आंदोलन उस नयी प्रवृत्ति के विरोधी उन लेखकों का एक गुट बनकर रह गया, जो माक्र्सवाद तथा माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के विरोधी थे। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
मैं शरीफ से दोस्ती होने से पहले से ही माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का समर्थक था (यद्यपि मैं उसका सदस्य कभी नहीं रहा) और मेरी गिनती वाम-जनवादी लेखकों में होने लगी थी। कमलेश्वर चाहते थे कि समांतरी लेखक वाम राजनीति और विचारधारा से कोई संबंध न रखें। ज्यादातर समांतरी लेखक उनसे सहमत थे। उनकी दलगत संबद्धताएँ जो भी रही हों, या न रही हों, उन सबमें एक चीज समान थी--सी.पी.एम. का विरोधी होना। कामतानाथ सी.पी.एम. वालों की तीखी आलोचना किया करता था, मधुकर सिंह सी.पी.एम. के ई.एम.एस. नंबूदिरिपाद जैसे नेताओं तक को गालियाँ दिया करता था, जितेंद्र भाटिया राजनीति से अलग और ऊपर रहने की बातें किया करता था और शरीफ सभी प्रकार की राजनीति से नफरत-सी किया करता था। (यह नफरत उसकी ‘दिग्भ्रमित’ जैसी कहानियों में भी दिखायी देती थी।) कमलेश्वर सी.पी.एम. की आलोचना करने और उसके नेताओं को गाली देने के बजाय उनका मजाक उड़ाने के जरिये अपना विरोध प्रकट करते थे। मसलन, ‘वाम’ के संपादक चंद्रभूषण तिवारी को ‘चंभूति’ कहकर वे ठहाके लगाया करते थे। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
मैंने और शरीफ ने तय किया कि हम कानपुर में होने जा रहे समांतर के दूसरे सम्मेलन में अपने आंदोलन की राजनीतिक पक्षधरता और प्रतिबद्धता स्पष्ट करने पर जोर देंगे। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
हम 14 अक्टूबर को सुबह के ढाई बजे कानपुर पहुँचे। हमें कामतानाथ के घर पहुँचना था, लेकिन इतने सवेरे उसके घर पर दस्तक देना उचित न समझ हमने स्टेशन पर अपना सामान रखा, एक रिक्शा किया और उस पर शहर में घूमते रहे। रमजान का महीना था, इसलिए मुसलमान लोग दिन भर के उपवास के लिए खा-पीकर तैयार होते दिखे। रिक्शे वाला भी मुसलमान था, पर उसने बताया कि वह रोजे नहीं रखता, क्योंकि रोजा रखकर रिक्शा नहीं चला सकता। एक जगह रुककर हमने चाय पी, उसे भी पिलायी और वह हमारे कहने पर हमें कानपुर के मुस्लिम इलाकों में ले गया। दो कब्रिस्तानों के बीच की एकदम अँधेरी सड़क से भी हम गुजरे। सुबह की शबनमी ठंड में पाँच बजे तक घूमकर हम स्टेशन लौटे। तभी कलकत्ता से दिल्ली जाने वाली राजधानी एक्सप्रेस से जितेंद्र उतरा। वह कलकत्ता से आया था। उसके साथ हम कामतानाथ के घर गये। कमलेश्वर के बंबई से और मधुकर सिंह के आरा से आ जाने पर सम्मेलन की रूपरेखा पर विचार हुआ। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
उस समय कानपुर में सी.पी.एम. का बड़ा सशक्त मजदूर संगठन था। काॅमरेड रामआसरे और सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिंद फौज में रहीं कैप्टन लक्ष्मी सहगल की बेटी सुभाषिणी सहगल (जो बाद में मुजफ्फर अली से शादी करके सुभाषिणी अली और सी.पी.एम. की बड़ी नेता बनी) वहाँ के दो बड़े लोकप्रिय मजदूर नेता थे। सुभाषिणी से कुछ दिन पहले दिल्ली में मेरी भेंट हुई थी। मैंने उसे कानपुर में होने वाले समांतर सम्मेलन के बारे में बताया था। उसे यह बात याद रही और वह सम्मेलन में मुझसे मिलने आयी। मेरे कहने पर एक गोष्ठी में उपस्थ्ति रही और बोली भी। मैंने शरीफ और जितेंद्र को अलग ले जाकर उससे मिलवाया, तो उसने हम तीनों से बात करने के लिए हमें सम्मेलन-स्थल के निकट ही रहने वाले अपने एक काॅमरेड के घर ले जाकर चाय पिलायी और यह जानकर कि शरीफ मद्रास से एक उर्दू अखबार निकालने की सोच रहा है, उसने शरीफ को मद्रास के अपने कुछ साथियों के पते दिये, जो अखबार निकालने में शरीफ की मदद कर सकते थे। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
कमलेश्वर को समांतर सम्मेलन में सुभाषिणी का आना, हम तीनों से उसका बातचीत करना और हमारा उसके साथ चाय पीने जाना अच्छा नहीं लगा। रात को कामतानाथ के घर पर हुई दारू-पार्टी में कमलेश्वर ने मुझसे कहा, ‘‘रमेश, सी.पी.एम. वाले तुम्हें ओन करने लगे हैं, यह गलत बात है।’’ उन्हें इस पर भी ऐतराज था कि मैंने शरीफ और जितेंद्र को सुभाषिणी से क्यों मिलवाया और क्यों मैं उन दोनों को लेकर उसके साथ चाय पीने गया। मुझे यह बात बहुत बुरी लगी। मैंने पूछा, ‘‘क्या समांतर के लेखकों को यह आजादी नहीं कि वे अपनी मर्जी से अपने मित्रों के साथ कहीं चाय पीने भी जा सकें?’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
गंभीर बातों को हँसी-मजाक में उड़ा देने की कूट-कला में माहिर कमलेश्वर ने इस विषय पर आगे बात नहीं होने दी और शराब की चुस्कियों के साथ उनकी चुटकुलेबाजी शुरू हो गयी। मुझे यह बात आश्चर्यजनक लगी कि शरीफ और जितेंद्र ने भी वह बात आगे नहीं बढ़ायी।<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjje071fnLKC01vORCXIiGuCIB1sXGgH3Oa8ye1kChVB5_e9JOyNJzjsRWOB4O4DaBqW42fqyxN99x40IIsJV95igIyMcxsBFqeI6irNwmyVyDi7Wpm_8XU-w8xCkV1Ivhcn7jUU7B-PxKm/s1600/samantar-1.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="273" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjje071fnLKC01vORCXIiGuCIB1sXGgH3Oa8ye1kChVB5_e9JOyNJzjsRWOB4O4DaBqW42fqyxN99x40IIsJV95igIyMcxsBFqeI6irNwmyVyDi7Wpm_8XU-w8xCkV1Ivhcn7jUU7B-PxKm/s400/samantar-1.jpg" width="400" /></a></div>
</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
मैंने कानपुर में ही फैसला कर लिया था कि मैं समांतर में नहीं रहूँगा। लेकिन शरीफ और जितेंद्र अपना भविष्य शायद समांतर में बने रहने में ही देख रहे थे। अतः दोनों मुझे समझाते रहे कि मैं समांतर छोड़ने की गलती न करूँ। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
उन दिनों बड़ी (व्यावसायिक) पत्रिकाओं के विरुद्ध लघु (साहित्यिक) पत्रिकाओं का आंदोलन जोर-शोर से चल रहा था और कई लेखकों ने, जो अभी तक बड़ी पत्रिकाओं में धड़ल्ले से छपते आ रहे थे, उनमें न लिखने का फैसला किया था। मैं उन दिनों ‘धर्मयुग’, ‘सारिका’, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ आदि बड़ी पत्रिकाओं में खूब लिखता था। ‘धर्मयुग’ और ‘सारिका’ टाइम्स आॅफ इंडिया प्रकाशन से निकलने वाली बड़ी पत्रिकाएँ थीं, जिनमें मेरी कहानियाँ खूब छपती थीं। टाइम्स आॅफ इंडिया प्रेस बंबई में बोरीबंदर के पास था। बोरीबंदर के नाम से जोड़कर रवींद्र कालिया ने मुझे कहीं ‘‘बोरीबंदर का लाडला कथाकार’’ कहा था और उसका यह जुमला खूब चला था। फिर भी मैंने लघु पत्रिका आंदोलन में शामिल होकर बड़ी पत्रिकाओं में न लिखने का फैसला किया। ‘सारिका’ बड़ी पत्रिका थी और वह समांतर आंदोलन की पत्रिका भी थी। इसलिए ‘सारिका’ से नाता तोड़ने का अर्थ अपने-आप ही ‘समांतर’ से नाता तोड़ना भी हो गया। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
शरीफ को मेरा यह निर्णय अच्छा नहीं लगा। उसने और समांतर से जुड़े अन्य लेखकों ने भी ‘सारिका’ और ‘समांतर’ से जुड़े रहने में ही अपनी भलाई देखी। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
कानपुर से लौटने के कुछ दिन बाद शरीफ पुनः मद्रास चला गया। हिंदी विकास समिति में विश्वकोश का पहला खंड छपने चला गया था और अगले खंड के संपादन का काम शुरू होने में अभी देर थी, इसलिए मोटूरि सत्यनारायण ने शरीफ से कहा कि कुछ समय के लिए दिल्ली दफ्तर से किसी एक व्यक्ति को नौकरी से हटा दिया जाये। जब जरूरत होगी, उसे फिर से रख लेंगे। तदनुसार शरीफ ने मुझे लिखा : <br />
<span style="color: blue;"><br /> </span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt; text-align: right;">
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">54, Bazar Road,</span></span><br />
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">Mylapore, Madras-4</span></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt; text-align: right;">
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">28-10-72 </span></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;"><br /> <br />प्रिय रमेश, <br />तुम्हारा लंबा पत्र मिल गया था। मुझे खुद लिखना चाहिए था। मगर लिख नहीं सका। इस बार तुमसे दूर होकर मुझे कुछ अतिरिक्त बेचैनी हो रही है। इसका सबसे बड़ा कारण यह कि जिस नौकरी पर मैंने अपनी तरफ से तुम्हें लगाया था, उसकी रक्षा मैं खुद करने की हालत में फिलहाल नहीं रह गया हूँ। तुम जानते ही हो कि अब दफ्तर में काम कम है और इसलिए किसी एक को दो-एक महीने के लिए हटाना जरूरी है। मैं चाहता, तो गौरी को भी हटा सकता था, लेकिन तुम्हारे सामने क्या छिपाना कि मैंने तुम्हें ही हटाने की बात सत्यनारायण जी से कही है। वह इसलिए कि तुम नौकरी के बगैर भी एक-दो महीने चला सकते हो, मगर वह नहीं। यह बात मैं तुम्हें साफ लिख रहा हूँ, ताकि तुम कभी भी मुझे गलत न समझो। <br />मैं वादा करता हूँ कि जनवरी से फिर से तुम्हें वहाँ रखवाऊँगा। श्री रवींद्रन के लिए मैंने कालीकट वाली व्यवस्था कर दी है। उन्हें निश्चित रूप से छात्रवृत्ति मिल जायेगी दिसंबर में। वे चले जायेंगे और मैं तुम्हें फिर से रखवा लूँगा। और इस बार कुछ महीनों के लिए नहीं, कई सालों के लिए, अगर तुम चाहोगे, तो। सत्यनारायण जी भी तुम्हें बहुत चाहते हैं। लेकिन अभी वे भी विवश हैं। तुम नवंबर की पहली तारीख से दफ्तर मत जाओ। मैं तुम्हें वििपबपंससल न लिखकर व्यक्तिगत रूप से लिख रहा हूँ, एक भाई के नाते। तुम सत्यनारायण जी से मेरे पत्र का जिक्र करो और उन्हें बता दो कि पहली नवंबर से तुम काम पर नहीं आओगे, अगली सूचना तक। <br />मेरे भाई, यह पत्र लिखते हुए मैं क्या कुछ अनुभव कर रहा हूँ, तुम्हें बता नहीं सकता। खैर, तुम मुझे गलत नहीं समझोगे, इस आशा के साथ। <br />मैंने कमलेश्वर जी को उर्दू पत्रिका वाली योजना भेज दी है। देखें, क्या होता है। तुम अपनी बातें लिखो। <br />भाभीजी को प्रणाम। बिटिया को बहुत-बहुत प्यार। <br />पत्र तत्काल दो। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;">तुम्हारा <br /> शरीफ</span><br />
<br />
हिंदी विकास समिति की नौकरी खत्म होने का मुझे दुख नहीं हुआ, बल्कि एक बेमतलब तनाव से मुक्त होने की खुशी ही हुई। मैंने मोटूरि सत्यनारायण को अपना त्यागपत्र तो भेजा ही, शरीफ को भी लिख दिया कि वह मेरी चिंता न करे, मुझे इस नौकरी में वापस कभी नहीं आना है और इस प्रसंग का हमारी दोस्ती पर कोई असर नहीं पड़ना है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
मैं फ्रीलांसिंग और अस्थायी नौकरियों के अपने अनुभव से अच्छी तरह समझ चुका था कि हिंदी में स्वतंत्र लेखन के सहारे जीना बहुत मुश्किल है। इसलिए मैंने प्राध्यापक बनने के वास्ते पीएच.डी. के लिए शोध करना शुरू कर दिया था। शरीफ मुझसे पहले ही पीएच.डी. कर चुका था। उसने आगरा विश्वविद्यालय से ‘दक्खिनी हिंदी के लोकगीत’ विषय पर पीएच.डी. की थी। उससे मैंने कई बार कहा कि वह कोई स्थायी नौकरी खोजे और आजीविका की ओर से निश्चिंत होकर अपना साहित्य-सृजन करे। यदि डाॅ. मलिक अपने काॅलेज में प्राध्यापक बनाने के लिए उसे कालीकट बुला रहे हैं, तो उसे वहाँ अवश्य चले जाना चाहिए। लेकिन शरीफ की न जाने वह कौन-सी जिद या मजबूरी थी कि वह हिंदी विकास समिति की नौकरी छोड़ने को तैयार नहीं था और उसमें रहकर खुश भी नहीं था। वह मद्रास में ही रहकर कोई ऐसा काम करना चाहता था, जिससे वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो सके। पहले उसने वहाँ प्रेस लगाने की योजना बनायी। फिर हिंदी की साहित्यिक पत्रिका निकालने की योजना बनायी। फिर उर्दू का अखबार और उसकी जगह फिर उर्दू में पत्रिका निकालने की योजना बनायी। मगर कोई योजना सफल नहीं हुई, क्योंकि ऐसा कोई काम शुरू करने के लिए जरूरी पैसा उसके पास नहीं था। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
कमलेश्वर तब तक हिंदी फिल्मों के पटकथा लेखक बन चुके थे। उन्होंने शरीफ को जिस तरह टाइम्स आॅफ इंडिया की किसी पत्रिका में नौकरी दिलाने का आश्वासन दिया था, या जैसे उसके द्वारा निकाले जाने वाले उर्दू अखबार के लिए सरकारी सहायता दिलाने का आश्वासन दिया था, वैसे ही फिल्मों में काम दिलाने का आश्वासन भी दिया। लेकिन वे सब हवाई बातें थीं, जिनके कारण अंततः कमलेश्वर और समांतर आंदोलन से भी उसका मोहभंग हुआ। फिर भी न जाने क्यों, वह मेरी तरह उससे अलग कभी नहीं हुआ। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
मैंने उससे यह भी कहा था कि वह वाम-जनवादी साहित्य और लघु पत्रिकाओं के आंदोलन से अपना संबंध स्पष्ट कर ले। किंतु वह सोचता था कि बड़ी पत्रिकाओं में लिखना छोड़कर पारिश्रमिक न देने वाली लघु पत्रिकाओं में लिखने का फैसला करके वह जिंदा नहीं रह सकेगा। समांतर आंदोलन को भी वह शायद इसीलिए छोड़ना नहीं चाहता था। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
इधर वाम-जनवादी आंदोलन में एक नया उभार आया देख प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े लोगों ने उसे पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से 1973 में ‘‘सभी रंगतों के प्रगतिशील’’ लेखकों का एक बड़ा सम्मेलन बाँदा (उत्तर प्रदेश) में आयोजित किया। मुझे भी उसमें बुलाया गया था। मैंने शरीफ को लिखा कि वह भी उस सम्मेलन में शामिल हो। मगर वह समांतर से इतना निराश हो चुका था कि बाँदा सम्मेलन को भी समांतर सम्मेलन जैसी ही कोई चीज समझ रहा था, जिसमें रात को शराब की चुस्कियों के साथ चुटकुलेबाजी होती थी। <br />
मैंने उसे एक विस्तृत पत्र लिखकर उसे समांतर सम्मेलन और बाँदा के प्रगतिशील साहित्यकार सम्मेलन का फर्क समझाते हुए बाँदा चलने के लिए कहा, तो उत्तर में उसने लिखा : <span style="color: #741b47;"><br /></span><!--[if gte mso 9]><xml>
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</div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt; text-align: right;">
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">54, Bazar Road,</span></span><br />
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">Mylapore, Madras-4</span></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0.0001pt; text-align: right;">
<span style="color: blue;"><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">9-2-73 </span><span lang="EN-IN" style="font-family: "times" , "serif"; font-size: 14.0pt;"></span></span></div>
<span style="color: blue;"><br /> <br />प्रिय रमेश, </span><br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;"> तुम्हारा विस्तृत पत्र कल शाम को मिला। <br />बाँदा वाले सम्मेलन में मैं नहीं जाऊँगा। मेरे पास इतना पैसा नहीं है कि मैं शराब पीने के लिए और चुटकुले सुनने-सुनाने के लिए उतनी दूर जाऊँ। जितेंद्र ने भी मुझसे आग्रह किया था कि मैं चलूँ। कमलेश्वर जी ने भी लिखा था। मैंने मना कर दिया है। ‘समांतर’ के अंतर्गत हम लोग दो बार मिले हैं। कोई काम हुआ है? कोई योजना पूरी हुई है? कोई महान कहानी-उपन्यास-नाटक लिखा गया है? या कम से कम सारे ‘समांतरी’ एक तरह सोच पाये हैं? एक खयाल पाल पाये हैं? या कम से कम एक-दूसरे के सही दोस्त बन पाये हैं? एक-दूसरे के आगे ईमानदार रह सके हैं? एक-दूसरे के लिए सच्ची मुहब्बत जगा पाये हैं? अब बाँदा में मिलकर कौन-सी प्रगति छाँटोगे? तुम जाओ, और सारे समाचार मुझे दो। काफी होगा। <br />स्वयं प्रकाश के बारे में विस्तृत जानकारी तुमने दी, अच्छा किया। उनका एक-डेढ़ हफ्ता पहले एक पत्र आया था, तत्काल ‘क्यों’ के लिए कहानी भेजने का आग्रह करते हुए। मैंने कोई उत्तर नहीं दिया है। वह इसलिए कि उन्होंने एक बार लिखा था कि उनका ‘क्यों’ से कोई संबंध नहीं है। और अब फिर कहानी माँग रहे हैं। अजीब मजाक है। पहले, ‘क्यों’ का समाचार पाकर, उत्साहित होकर, एक गरीब व्यक्ति के महत्त्वपूर्ण, ईमानदार प्रयासों को उत्साहित करने के लिए मैंने तत्काल बतौर चंदा उन्हें 8 रुपये भेज दिये थे। मैं सोच रहा हूँ, मैंने गलती कर दी है। खैर छोड़ो, कोई बात नहीं। <br />‘समांतर’ को लेकर तुम्हारी सोच मिली। ठीक है। रमेश, मैं अब भी तहे दिल से चाहता हूँ कि समांतर हम लोगों का ठीक मंच बने। उसके जरिये हम लोग महत्त्वपूर्ण काम करें। देखो क्या होता है। मैं चाह रहा हूँ कि संभव हुआ, तो एक बार बंबई हो आऊँ। कमलेश्वर जी से, जितेंद्र से और लोगों से मिलकर बात तो करें। देखें, कौन क्या सोच रहा है। जहाँ तक जितेंद्र की बात है, उसे कोई क्या कह सकता है। वह खुद समझदार है। खुद सोच सकता है कि उसके लेखक और व्यक्ति की अधिक से अधिक रक्षा के लिए उसे कौन-सा रास्ता अपनाना चाहिए। हम कुछ कहें, तो हो सकता है, उससे कई जगहों में कई तरह की गलतफहमी सिर उठाये। <br />रमेश, मैं बेहद अजीब-सी स्थिति से गुजर रहा हूँ। मैं बहुत अकेला हो गया हूँ, रमेश, हर दृष्टि से। इस नौकरी से भी तंग आ गया हूँ। किसी भी वक्त छोड़ दूँ। मगर, मेरे यार, यह बताओ, उसके बाद बीवी-बच्चों को कैसे पालूँ? क्या तुम कोई रास्ता दिखा सकोगे? दिखा सको, तो लिखो। मेरा लिखना-पढ़ना सब समाप्त होता जा रहा है इस माहौल में रहकर। <br />सारी बातें विस्तार से लिखो। <br />भाभीजी को प्रणाम। अरे, मैं अपनी बहूरानी को कैसे भूल सकता हूँ। जब राहुल तंग करता है, तो उसकी माँ कहती रहती है कि तुझे अपनी बीवी के पास दिल्ली भेज दूँगी, जो तुझे सुधार लेगी। मैं अगले पत्र के साथ तुम्हारे दामाद का चित्र भेजूँगा। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;"> तुम्हारा <br /> शरीफ</span> <br />
<br />
इसके बाद हमारा पत्राचार दो-चार संक्षिप्त पत्रों से अधिक आगे नहीं बढ़ सका। वह फिर कभी दिल्ली भी नहीं आया। यदि आया भी होगा, तो मुझसे मिला नहीं। सुधीर चौहान और जे.एल. रेड्डी जैसे अपने पुराने मित्रों से भी उसने लगभग नाता तोड़ लिया था। उसके जीवन के अंतिम चार वर्ष किस अवस्था में गुजरे, हम में से कोई नहीं जान सका। 1977 में हुई उसकी असामयिक मृत्यु पर सुधीर और रेड्डी मद्रास गये थे और उसके परिवार से मिलकर आये थे। मगर वे भी मुझे इतना ही बता सके कि शरीफ के अंतिम दिन बड़े आर्थिक कष्ट में गुजरे। वह बहुत अकेला और शायद अवसादग्रस्त भी हो गया था। शायद यही चीज उसकी अचानक हुई असामयिक मृत्यु का कारण बनी। <br />
<br />
<br />
<br /></div>
</div>
ramesh upadhyayhttp://www.blogger.com/profile/05054633574501788701noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-1496071818736613491.post-26507082515331541052016-08-08T22:18:00.000-07:002016-08-08T23:19:07.138-07:00निरंतर विकासमान यथार्थवाद<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;"><span style="background-color: white;"><span style="font-size: x-large;"><b><span style="font-size: small;"><span style="color: black;"><span style="background-color: #fce5cd;">पिछले साल 8 अगस्त, 2105 को भीष्म साहनी जन्मशती के अवसर पर दिया गया मेरा एक व्याख्यान 'निरंतर विकासमान यथार्थवाद के रचनाकार भीष्म साहनी' शीर्षक से प्रकाशित हुआ था. उसमें मैंने कहा था कि हमें भीष्म साहनी की जन्मशतवार्षिकी यथार्थवादी साहित्य की प्रकृति और परंपरा पर एक राष्ट्रीय बहस चलाकर मनानी चाहिए. कई लेखकों और पाठकों ने मेरे इस विचार का स्वागत करते हुए मुझे सुझाव दिया कि मैं 'निरंतर विकासमान यथार्थवाद' को स्पष्ट करते हुए एक लेख लिखूँ. उनके सुझाव के लिए आभार सहित प्रस्तुत है यह लेख. <span style="color: #cc0000;">--रमेश उपाध्याय<span style="background-color: black;"><span></span></span></span></span> </span></span></b></span></span></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;"><span style="background-color: white;"><span style="font-size: x-large;"><b>निरंतर विकासमान यथार्थवाद</b></span></span></span><br />
<br />
<br />
यथार्थवाद के पक्ष में उतना नहीं लिखा गया है, जितना उसके विरोध में। और विरोध भी कैसा? निराधार लांछन लगाने जैसा। उस पर तरह-तरह के इतने अधिक लांछन लगा दिये गये हैं कि उसका नाम लेने पर उसकी अपनी शक्ल-सूरत की जगह उस पर लगे लांछन ही नजर आते हैं। मसलन, यथार्थवाद कल्पनाशून्य होता है; वह सुंदरता को न देख कुरूपता को ही देखता है; वह जीवन की जटिलता में न जाकर उसका सरलीकरण करता है; वह महान और उदात्त को छोड़ साधारण और भदेस को अपनाता है; वह नये प्रयोग करने के बजाय पुरानी परिपाटियों पर चलता है; नये रास्ते खोजने और बनाने का कठिन काम करने के बजाय बने-बनाये रास्तों पर चलने का आसान तरीका अपनाता है; वह ऐसी सरलीकृत, घिसी-पिटी, फार्मूलाबद्ध और ‘पे्रडिक्टेबल’ रचनाओं की ओर ले जाता है, जिनके आरंभ में ही पता चल जाता है कि अंत क्या होगा...इत्यादि-इत्यादि। <br />
यथार्थवाद पर लगाये जाने वाले इस प्रकार के सरासर गलत और निराधार लांछनों की जाँच-पड़ताल करने और उनका वास्तविक अर्थ स्पष्ट करने का काम यथार्थवादियों का है, जिसे वे बहुत कम कर पाये हैं। इसलिए विरोधियों ने यथार्थवाद के विरुद्ध ऐसा वातावरण बना दिया है कि साहित्यकार या कलाकार का यथार्थवादी होना मानो उसका गुण नहीं, दोष हो; विश्वविद्यालयों में उसका अध्ययन और अनुसंधान करना-कराना मानो समय तथा संसाधनों को बेकार ही बर्बाद करना हो। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
स्वच्छंदतावादियों और आधुनिकतावादियों से लेकर उत्तर-आधुनिकतावादियों तक बेशुमार लोगों ने यथार्थवाद का विरोध किया है। साहित्य और कला में इसके विरुद्ध कई आंदोलन चलाये गये हैं। ‘इतिहास का अंत’ की भाँति ‘यथार्थवाद का अंत’ की घोषणाएँ भी की जा चुकी हैं। लेकिन जीवन के लिए जरूरी चीजें कभी खत्म नहीं होतीं। बलपूर्वक दबा दी जाने पर भी वे उभर आती हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
यथार्थवाद एक अंतरराष्ट्रीय कला आंदोलन के रूप में उन्नीसवीं सदी के मध्य में यूरोप में उभरा था। इस शब्द का पहला प्रयोग फ्रांसीसी भाषा में 1826 में हुआ, लेकिन जल्दी ही यह सर्वत्र चर्चा का विषय बन गया। चित्रकारों, उपन्यासकारों और हर प्रकार के आलोचकों के बीच इस पर सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों प्रकार की जोरदार बहसें छिड़ीं। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में इसका स्वरूप भी बदला और कटु-कठोर तथा नग्न यथार्थ को चित्रित करने वाला ‘प्रकृतवाद’ सामने आया। इसके बाद अनेक प्रकार के ‘वाद’ आकर यथार्थवाद को चुनौती देने लगे। उनमें से सबसे बड़ी टक्कर दी आधुनिकतावाद ने, जिसने यथार्थवाद के ‘‘दिखाओ और बताओ’’ के रचना-सिद्धांत की जगह ‘‘नया बनाओ!’’ का रचना-सिद्धांत चलाया और आधुनिकतावादी आलोचक यथार्थवाद को पुराना तथा बेकार घोषित करने लगे। हिंदी में ‘नयी कविता’ और ‘नयी कहानी’ के आंदोलन इसी यथार्थवाद-विरोधी आधुनिकतावाद से प्रेरित-प्रभावित थे। यह और बात है कि इन आंदोलनों में अनेक यथार्थवादी रचनाकार भी शामिल थे। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
हिंदी साहित्य में, खास तौर से 1970 और 1980 के दशकों में, ‘प्रेमचंद की यथार्थवादी परंपरा’ का जाप तो बहुत हुआ, लेकिन उसे समझने और आगे बढ़ाने के प्रयास कम ही हुए। यदि आधुनिकतावादी लेखकों तथा आलोचकों ने उसका मजाक उड़ाया, तो कई प्रगतिशील-जनवादी कहलाने वाले लेखकों तथा आलोचकों ने उस पर तरह-तरह के सवाल उठाकर उसे खारिज करने के प्रयास किये। मसलन, किसी ने कहा कि प्रेमचंद ग्रामीण यथार्थ के लेखक थे, आज के महानगरीय यथार्थ का चित्रण उनकी परंपरा में नहीं किया जा सकता; किसी ने कहा कि प्रेमचंद का समय और था, हमारा समय और है और इस बदले हुए समय में प्रेमचंद का आदर्शोन्मुख यथार्थवाद संभव नहीं है; तो किसी ने कहा कि प्रेमचंद आदर्शवादी थे, यथार्थवादी तो वे अपनी अंतिम कुछ रचनाओं में ही हुए थे! </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
दूसरी तरफ उत्तर-आधुनिकतावादियों ने अपने विखंडनवाद से यथार्थवाद के मूल आधार समग्रता का ही खंडन किया, तो जादुई यथार्थवादियों ने यथार्थवाद के सभी पुराने रूपों को वर्तमान समय के लिए बेकार हो चुका बताया और उत्तर-आधुनिकतावादियों के ‘माक्र्सवादोत्तर’ और ‘यथार्थवादोत्तर’ के नारों से उसका तालमेल बिठाकर वर्तमान में (अर्थात् सोवियत संघ के विघटन के बाद और पूँजीवादी भूमंडलीकरण के वर्तमान दौर में) उसी को एकमात्र सही और संभव यथार्थवाद बताया। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
आश्चर्य की बात यह है कि हिंदी साहित्य में वामपंथी लेखकों और लेखक संगठनों की संख्या कम न होने पर भी यथार्थवाद पर कोई बड़ी बहस नहीं चली, जबकि उनको ही साहित्य में यथार्थवाद की जरूरत सबसे ज्यादा थी। उत्तर-आधुनिकतावाद के संदर्भ में फ्रेडरिक जेमेसन का नाम अवश्य लिया जाता रहा, लेकिन इस पर ध्यान नहीं दिया गया कि उन्होंने आज के पूँजीवाद के दौर में यथार्थवाद के नये रूपों के आविष्कार की जरूरत के बारे में क्या कुछ कहा था। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
पश्चिम के साहित्य में यथार्थवाद का विरोध आधुनिकतावाद के दौर में ही होने लगा था। आधुनिकतावाद की यथार्थवाद-विरोधी प्रवृत्ति को उत्तर-आधुनिकतावाद ने विभिन्न प्रकार की नयी रणनीतियों से आगे बढ़ाया। उनमें सबसे बड़ी रणनीति थी समग्रता का विरोध, जिसे उत्तर-आधुनिकतावाद के जनक जैसे माने जाने वाले ल्योतार ने ‘‘वार अगेंस्ट टोटैलिटी’’ (समग्रता के विरुद्ध युद्ध) कहा। इस युद्ध में जिस ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया गया, वह था विखंडन। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
लेकिन 1990 के बाद से ‘लेट कैपिटलिज्म’ (आज के पूँजीवाद) ने भूमंडलीकरण के रूप में एक ऐसी आर्थिक-राजनीतिक प्रक्रिया शुरू की, जिससे एक नये ढंग के साम्राज्यवाद की वापसी हुई और उसके साथ ही एक नयी बात यह हुई कि सारी दुनिया को एक नये ढंग की गुलामी का अहसास होने लगा, जिससे वह एक नये रूप में मुक्ति के लिए छटपटाने लगी। इस छटपटाहट को व्यक्त करने वाली किताबें आने लगीं, जैसे डेविड हार्वी की ‘दि न्यू इंपीरियलिज्म’ (2003), गोपाल बालकृष्णन द्वारा संपादित ‘डिबेटिंग एंपायर’ (2003) और एलेक्स कोलिनिकाॅस की ‘दि न्यू मैंडेरिंस आॅफ अमेरिकन पाॅवर’ (2005)। उत्तर-आधुनिकतावाद ने माक्र्सवाद और यथार्थवाद के अंत की ही नहीं, इतिहास के अंत की भी घोषणा कर दी थी। मगर अब उन घोषणाओं को गलत साबित करने वाली किताबें भी आने लगीं, जैसे अंस्र्ट ब्रायसाख की ‘आॅन दि फ्यूचर आॅफ हिस्टरी: दि पोस्टमाॅडर्न चैलेंज एंड इट्स आफ्टरमैथ’ (2003), डेविड हार्वी की ‘स्पेसेज आॅफ होप’ (2003), फ्रेडरिक जेमेसन की ‘आर्कियोलाॅजीज आॅफ दि फ्यूचर: दि डिजायर काॅल्ड यूटोपिया एंड अदर साइंस फिक्शंस’ (2005), मैथ्यू बोमों द्वारा संपादित ‘एडवेंचर्स इन रियलिज्म’ (2007) इत्यादि। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
सोवियत संघ के विघटन और शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद पूँजीवाद की ओर से बड़ी विजयोल्लसित घोषणाएँ की गयीं कि पूँजीवाद जीत गया, समाजवाद हार गया, अब सारी दुनिया में और हमेशा पूँजीवाद ही चलेगा। उत्तर-आधुनिकतावादियों ने तो पहले ही कला, साहित्य और सौंदर्यशास्त्र में एक नये युग के आगमन की घोषणा कर रखी थी--मार्क्सवादोत्तर युग! यथार्थवादोत्तर युग! </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
एक यथार्थवादी लेखक के रूप में मुझे लगा कि अब एक नये यथार्थवाद के लिए संघर्ष करना जरूरी है। मैं एक रचनाकार के रूप में तो यह संघर्ष अपनी कहानियों में नये यथार्थ को नये यथार्थवादी रूपों में सामने लाकर कर ही रहा था, अब मैं एक लेखक, प्राध्यापक और पत्रकार के रूप में भी यह संघर्ष अपने लेखों, व्याख्यानों और अपनी पत्रिका ‘कथन’ के अंकों के जरिये करने लगा। मैंने कुछ नये प्रश्न उठाने शुरू किये, जैसे--यदि पूँजीवाद एक विश्व-व्यवस्था है, तो क्या समाजवाद भी एक विश्व-व्यवस्था नहीं है? यदि पूँजी का भूमंडलीकरण संभव है, तो श्रम का क्यों नहीं? जब पूँजीवादी भूमंडलीकरण हो सकता है, तो समाजवादी भूमंडलीकरण क्यों नहीं हो सकता? </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
इन प्रश्नों के उत्तर खोजते हुए मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि जब तक समाजवाद एक संभावना है, तब तक माक्र्सवाद भी जरूरी है, यथार्थवाद भी जरूरी है। अलबत्ता यह एक नया मार्क्सवाद होगा, एक नया यथार्थवाद होगा। ऐतिहासिक परिस्थितियों के बदलने के साथ-साथ इतिहास के नये बोध के साथ बदलता और विकसित होता मार्क्सवाद और यथार्थवाद। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
1930 के दशक में जर्मनी में यथार्थवाद संबंधी एक ‘‘महान बहस’’ चली थी, जिसमें अर्न्स्ट ब्लाॅख, जाॅर्ज लुकाच, बर्टोल्ट ब्रेष्ट, वाल्टर बेंजामिन और थियोडोर एडोर्नो ने भाग लिया था। यह बहस 1980 में ‘एस्थेटिक्स एंड पाॅलिटिक्स’ नामक संकलन में प्रकाशित हुई थी। उसका ‘उपसंहार’ फ्रेडरिक जेमेसन ने लिखा था, जिसमें उन्होंने ‘‘उत्तर-मार्क्सवादों’’ की चर्चा करते हुए कहा था कि इतिहास की उपेक्षा करने वाले ही उसे दोहराने के लिए अभिशप्त नहीं होते, पिछले दिनों जो तरह-तरह के ‘‘उत्तर-मार्क्सवाद’’ सामने आये हैं, वे भी इसी सत्य को सामने लाते हैं। ‘‘माक्र्सवाद के परे’’ जाने के प्रयासों का अंत ‘‘मार्क्सवाद के पहले’’ की स्थितियों में लौट जाने के रूप में सामने आ रहा है। ‘‘दबा दी गयी चीजों की वापसी’’ का जैसा नाटकीय रूप यथार्थवाद और आधुनिकतावाद के झगड़े की वापसी के रूप में दिख रहा है, अन्यत्र कहीं नहीं दिखता। लेकिन उस झगड़े में पड़े बिना हम नहीं रह सकते, चाहे आज हमें उसमें शामिल दोनों पक्षों में से एक भी पूरी तरह स्वीकार्य न लगता हो। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
जेमेसन ने यह भी कहा था कि यथार्थवाद चीजों को समग्रता में देखता था, जबकि आधुनिकतावाद चीजों को विखंडित करके उन्हें ‘‘अपरिचित’’ बनाकर ‘‘नयी’’ बनाता था। मगर नयापन पैदा करने की यह आधुनिकतावादी तकनीक आज उपभोक्ताओं को पूँजीवाद से तालमेल बिठाकर चलना सिखाने की जानी-पहचानी तकनीक बन गयी है। उसमें कोई नयापन नहीं रहा। इसलिए अब नया कुछ करने के लिए विखंडन को भी ‘‘अपरिचित’’ बनाने का प्रयास किया जा रहा है। लगता है, अमूर्तन का एक चक्र पूरा हो चुका है और उसकी जगह यथार्थवाद की वापसी का समय आ गया है। मगर यथार्थवाद का भी ऐतिहासिक आधार संदिग्ध हो गया है, क्योंकि आधारभूत अंतर्विरोध स्वयं इतिहास के भीतर है और उसकी वास्तविकताओं को समझने के लिए हम जिन अवधारणाओं से काम लेते हैं, वे चिंतन के लिए एक पहेली बन जाती हैं। इससे जो संदेह पैदा होता है, बहुत मूल्यवान है। हमें उसी को पकड़ना चाहिए, क्योंकि उसी की संरचना में इतिहास का वह मर्म छिपा है, जिसे हम अभी तक समझ नहीं पाये हैं। जाहिर है, यह संदेह हमें यह नहीं बता सकता कि यथार्थवाद की हमारी अवधारणा क्या होनी चाहिए; फिर भी इसका अध्ययन हमारे ऊपर यह जिम्मेदारी अवश्य डालता है कि हम यथार्थवाद की एक नयी अवधारणा का आविष्कार करें। आज इस जिम्मेदारी को महसूस न करना असंभव है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
जेमेसन जिस नये यथार्थवाद की जरूरत पर जोर दे रहे थे, वह उनके विचार से उपभोक्ता समाज की उस शक्ति का प्रतिरोध करने वाला यथार्थवाद होना चाहिए था, जो मनुष्य और उसकी पूरी दुनिया को वस्तुओं में बदल देती है। उपभोक्ता समाज में यह शक्ति होती है कि वह मनुष्य के शारीरिक और मानसिक श्रम से उत्पन्न तमाम चीजों के साथ-साथ मनुष्य के विचारों, भावनाओं तथा संपूर्ण जड़ और चेतन जगत से उसके संबंधों को भी बेची और खरीदी जाने वाली चीजें बना दे। इस शक्ति का प्रतिरोध समग्रता में ही किया जा सकता है। आज के मानवीय जीवन तथा सामाजिक संगठन के सभी स्तरों पर चल रहे विखंडन को व्यवस्थित रूप से समाप्त करने के लिए चीजों को समग्रता में देखना और उन्हें समग्र रूप से बदलना आवश्यक है। नये यथार्थवाद की अवधारणा समग्रता की कोटि के आधार पर ही की जा सकती है; क्योंकि यही वह चीज है, जो वर्गों के बीच के संरचनात्मक संबंधों को सामने ला सकती है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
लगभग दो दशकों के बाद जेमेसन ने अपनी पुस्तक ‘अ सिंग्यूलर माॅडर्निटी: एस्से आॅन ओंटोलाॅजी आॅफ प्रेजेंट’ (2002) में पुनः लिखा कि ‘‘प्रत्येक यथार्थवाद नया ही होता है...और यही कारण है कि समूचे आधुनिकतावादी युग में और उसके बाद भी दुनिया के कई हिस्सों तथा सामाजिक समग्रता के कई अंशों में नये और जीवंत यथार्थवादों की आहटें सुनायी पड़ती रही हैं, जिन्हें सुनना और पहचानना जरूरी रहा है।...प्रत्येक नया यथार्थवाद न केवल अपने से पहले के यथार्थवादों की सीमाओं से असंतोष होने के कारण उत्पन्न होता है, बल्कि इस कारण भी, तथा अधिक आधारभूत रूप में इसी कारण से ही, उभरकर सामने आता है कि आम तौर पर यथार्थवाद स्वयं आधुनिकता की ठीक वही गतिशील नवीनता लिये रहता है, जिसे हम आधुनिकतावाद की अद्वितीय विशेषता मानते आये हैं।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
इसके बाद ‘आर्कियोलाॅजीज आॅफ दि फ्यूचर: दि डिजायर काॅल्ड यूटोपिया एंड अदर साइंस फिक्शंस’ (2005) में उन्होंने ‘‘भूमंडलीकरण के बाद के नयी पीढ़ी के तमाम वामपंथियों’’ को संबोधित करते हुए यथार्थवाद की उन समस्याओं को उठाया, जो नये सिरे से उठ खड़ी हुई थीं और जिन पर तुरंत ध्यान दिया जाना जरूरी था। <br />
भूमंडलीकरण का वर्तमान दौर शुरू होते ही उत्तर-आधुनिकतावाद अपनी फैशनेबल चमक-दमक खोने लगा था और एक नये यथार्थवाद की जरूरत महसूस की जाने लगी थी। देखते-देखते यथार्थवाद संबंधी नयी पुस्तकें सामने आने लगीं, जैसे पीटर ब्रुक्स की ‘रियलिस्ट विजंस’ (2005) और मैथ्यू बोमों द्वारा संपादित ‘एडवंेंचर्स इन रियलिज्म’ (2007)। यथार्थवाद की इस वापसी में समकालीन पूँजीवाद की बदलती संरचना से उत्पन्न समस्याओं का बड़ा हाथ था, जिन्होंने यथार्थ को समझने तथा उसे कला और साहित्य में चित्रित करने के नये तरीके निकालने के लिए एक तरफ चिंतकों तथा आलोचकों को और दूसरी तरफ कलाकारों और साहित्यकारों को प्रेरित किया। पूँजीवाद में आये बदलाव का ही शायद यह नतीजा था कि जहाँ पहले यथार्थवाद की चर्चा में इतिहास पर जोर दिया जाता था, अब राजनीतिक अर्थशास्त्र पर जोर दिया जाने लगा। भूमंडलीकरण ने इतिहास को नये ढंग से पढ़ना जरूरी बनाया, जिससे ‘‘इतिहास का भूमंडलीकरण’’ हुआ और ‘‘भूमंडलीकरण का इतिहास’’ सामने आया। इन दोनों चीजों का असर साहित्य पर और उसमें किये जाने वाले यथार्थ-चित्रण तथा आलोचनात्मक विवेचन पर पड़ना स्वाभाविक था। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
उत्तर-आधुनिकतावादियों का सबसे ज्यादा जोर विखंडन पर रहा। उन्होंने जीवन, समाज और दुनिया को समग्रता में देखने, समझने और साहित्य में चित्रित करने के यथार्थवादी प्रयासों को इस आधार पर गलत, अनुचित और अवांछित बताया कि ऐसा करना असंभव है। उन्होंने कहा कि जीवन, समाज और दुनिया को ही नहीं, जिस कला और साहित्य में ये चित्रित या प्रतिबिंबित होते हैं, उसे भी विखंडन से या खंड-खंड करके ही समझा जा सकता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मार्क्सवादी रचनाकारों, आलोचकों तथा सिद्धांतकारों ने विखंडनवाद का खंडन करते हुए बार-बार कहा है कि द्वंद्ववाद के अनुसार एक समग्रता के भीतर जो अंतर्विरोध होते हैं, वे ही उस समग्रता को बनाते और बदलते हैं। माक्र्स ने समाज और विश्व की कल्पना एक ऐसी समग्रता के रूप में की थी, जिसमें मुख्य और ऐतिहासिक अंतर्विरोध शोषक और शोषित वर्गों के बीच है, इन वर्गों के बीच संघर्ष है और वह संघर्ष समाज और विश्व को बदल रहा है। अंततः यह बदलाव वहाँ तक जा सकता है, जहाँ समाज या विश्व नामक समग्रता में न वर्ग होंगे, न वर्ग-संघर्ष। फिर वह एक नयी ही समग्रता होगी, जिसके अपने नये अंतर्विरोध और संघर्ष हो सकते हैं, लेकिन वे वर्तमान पूँजीवादी विश्व-व्यवस्था के आमूलचूल बदल जाने के बाद के नये ही अंतर्विरोध और संघर्ष होंगे। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
वर्तमान पूँजीवादी भूमंडलीकरण ने ज्यों ही यह संभावना दुनिया के लोगों के सामने रखी कि पूँजीवाद की ही तरह समाजवाद भी एक विश्व-व्यवस्था है और उसका भी भूमंडलीकरण हो सकता है, पूँजीवादी व्यवस्था के पैरोकारों ने एक तरफ समाजवाद के अंत, माक्र्सवाद के अंत, यथार्थवाद के अंत आदि की अलग-अलग घोषणाओं के साथ-साथ समग्र रूप में ‘‘इतिहास के अंत’’ की घोषणा कर दी, तो दूसरी तरफ समग्रता के विचार के ही विरुद्ध जंग छेड़ दी। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
लेकिन 1990 के बाद से, जब से भूमंडलीकरण की प्रक्रिया और उसके आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि तमाम पक्षों पर ध्यान दिया जाने लगा, विभिन्न देशों के वामपंथी विद्वान भूमंडलीय यथार्थ को समग्रता में समझने की जरूरत पर जोर देने लगे। इससे पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के बारे में नया विचार-मंथन शुरू हुआ और एक ‘‘बेहतर दुनिया की तलाश’’ के प्रयासों के साथ-साथ यह आशाजनक नारा भी सामने आया कि ‘‘दूसरी और बेहतर दुनिया मुमकिन है’’। इससे यथार्थवाद को, जिसे उत्तर-आधुनिकतावादियों ने मृत घोषित कर दिया था, फिर से जीवंत और विचारणीय माना जाने लगा। यह विचार जोर पकड़ने लगा कि पूँजीवाद भूमंडलीय है, तो समाजवाद भी भूमंडलीय है। और अब ‘‘एक देश में समाजवाद’’ की जगह ‘‘संपूर्ण विश्व में समाजवाद’’ के बारे में सोचा जाना चाहिए तथा उसके लिए यथार्थवादी रणनीतियाँ बनायी जानी चाहिए। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
आकस्मिक नहीं था कि माक्र्सवाद में लोगों की रुचि नये सिरे से पैदा होने लगी, सोवियत संघ के विघटन के संदर्भ में समाजवाद पर पुनर्विचार होने लगा, सोवियत समाजवाद की ऐतिहासिक भूलों और गलतियों से सबक लेते हुए सच्चे समाजवाद की दिशा में आगे बढ़ने की बातें होने लगीं और यथार्थवाद पुनः चर्चा का विषय बन गया। यथार्थवादी लेखकों का ध्यान स्थानीय यथार्थ के साथ-साथ भूमंडलीय यथार्थ पर भी गया और जब यह स्पष्ट दिखने लगा कि स्थानीय यथार्थ भूमंडलीय यथार्थ का ही अंग है, तो समग्रता के विचार ने जोर पकड़ा और उत्तर-आधुनिकतावादी विखंडनवाद की माक्र्सवादी आलोचना ने उसकी सीमाएँ और असंगतियाँ उजाकर करना शुरू कर दिया। </div>
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<br />
समग्रता की अवधारणा में भी इस बीच काफी बदलाव और विकास हुआ था। हालाँकि माक्र्सवादी चिंतन में पूँजीवादी विश्व-व्यवस्था की जगह भविष्य की समाजवादी विश्व-व्यवस्था का विचार पहले से मौजूद था (जिसकी अभिव्यक्ति सर्वहारा अंतरराष्ट्रीयतावाद के सिद्धांत और ‘‘दुनिया के मजदूरो एक हो’’ के नारे में होती थी), लेकिन सोवियत शासन के दौरान ‘‘एक देश में समाजवाद’’ के विचार ने अंतरराष्ट्रीयतावाद की जगह राष्ट्रवाद पर अनावश्यक और ऐतिहासिक रूप से गलत जोर डालकर समग्रता की अवधारणा को सीमित कर दिया था। सोवियत संघ के विघटन और वर्तमान पूँजीवादी भूमंडलीकरण ने समग्रता की सीमित (राष्ट्रीय अथवा ‘स्थानीय’) अवधारणा को पुनः व्यापक (अंतरराष्ट्रीय अथवा ‘भूमंडलीय’) बना दिया। इस प्रकार यथार्थ को ‘स्थानीय’ से आगे बढ़ाकर ‘भूमंडलीय’ के रूप में देखना जरूरी और संभव हो गया। </div>
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फ्रेडरिक जेमेसन ने समग्रता की ‘‘वापसी’’ के साथ-साथ यथार्थ की ‘‘व्याप्ति’’ का विचार भी फिर से प्रस्तुत किया, जिसे वे ‘माकर््िसज्म एंड फाॅर्म’ (1971) में पहले ही व्यक्त कर चुके थे। उनका कहना था कि ‘‘यथार्थवाद इतिहास के किसी खास क्षण में परिवर्तन की शक्तियों तक पहुँचने की संभावना पर निर्भर करता है।’’ हालाँकि वे भूमंडलीकरण को एक ऐसी स्थिति मानते हैं, जो इस संभावना को बाधित करती है, लेकिन उनके विचार से आज नहीं तो कल यह संभावना साकार हो सकती है। </div>
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इसका अर्थ यह हुआ कि पूँजीवादी भूमंडलीकरण ही यथार्थ नहीं है, एक संभावना के रूप में समाजवादी भूमंडलीकरण भी यथार्थ है। यथार्थवाद की इस समझ से साहित्य की रचना में ‘‘यथार्थवादी पद्धति’’ को ही अपनाना (अर्थात् यूटोपिया, डिस्टोपिया, रूपक, फैंटेसी वगैरह को यथार्थवादी रचना के लिए त्याज्य समझना) आवश्यक नहीं रहता और यथार्थवादी रचना उन रूपों में भी की जा सकती है, जो आधुनिकतावादी माने जाने के कारण यथार्थवादियों के लिए त्याज्य समझे जाते थे। जेमेसन ने ‘‘समकालीन विश्व के थके हुए यथार्थवाद’’ की तुलना में ‘साइंस फिक्शन’ (विज्ञान कथाओं) को ‘‘अधिक विश्वसनीय सूचना लौटाकर लाने वाला’’ बताकर रचना के रूप के स्तर पर नये यथार्थवाद की संभावनाओं की ओर संकेत किया। मगर इसका मतलब न तो यह था कि वर्तमान भूमंडलीकरण के दौर में यथार्थवाद के सभी पुराने रूप ‘‘थके हुए यथार्थवाद’’ के रूप हो चुके हैं और न यह कि आधुनिकतावादी सभी रूप यथार्थवादी रचना के लिए स्वीकार्य हो गये हैं। हाँ, इसका यह मतलब जरूर था कि भूमंडलीकरण के वर्तमान दौर में यथार्थवाद पुराने ढंग का यथार्थवाद नहीं, एक नये ही ढंग का यथार्थवाद होगा और होना भी चाहिए। </div>
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जेमेसन ने यथार्थवाद पर अलग से कोई विशेष अध्ययन प्रस्तुत नहीं किया, लेकिन लगभग तीन दशकों तक अपने लेखन में जगह-जगह यथार्थवाद से संबंधित सवालों से जूझते हुए उसकी नयी संभावनाओं का पता लगाया। इसके लिए वे बार-बार जाॅर्ज लुकाच के पास गये, उनसे प्रेरित हुए, उनसे सीखा और उनसे टकराये भी; क्योंकि लुकाच ने साहित्य के रूपों और ऐतिहासिक शक्तियों के संबंध को समग्रता में देखा था और यथार्थवाद का एक सामान्य सिद्धांत निर्मित करने का प्रयास किया था। जेमेसन समग्रता की अवधारणा को जाँचने-परखने और विकसित करने के लिए रह-रहकर उसकी ओर लौटे और उन्होंने पाया कि समग्रता के आधार पर ही रचना और आलोचना में यथार्थवादी होना संभव है। </div>
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समग्रता का अर्थ यह नहीं है कि यथार्थ में जो कुछ है, या जितना दिखता है, वह सब चित्रित कर दिया जाये। यह असंभव है और आवश्यक भी नहीं। अतः समग्रता यथार्थवादी रचना के रूप या उसकी शैली (अथवा चित्रण की पद्धति) में नहीं, बल्कि रचनाकार की दृष्टि में होती है। वह यथार्थ का चाहे एक छोटा-सा अंश ही प्रस्तुत करे--जैसे किसी एक चरित्र के रूप में--लेकिन उसकी नजर उसे समग्रता में देखने वाली होनी चाहिए। अर्थात् रचना में चित्रित यथार्थ का एक अंश संपूर्ण यथार्थ के अंश के रूप में चित्रित होना चाहिए, न कि उस संपूर्णता को खंडित करके पाये गये उसके एक अंश को ही संपूर्ण मानकर। </div>
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उदाहरण के लिए, वर्तमान समाज या उसके किसी प्रातिनिधिक चरित्र को चित्रित करते समय रचनाकार उसके वर्तमान को तो देखता ही है, ऐतिहासिक दृष्टि से उसके अतीत और भविष्य को भी देखता है। आधुनिकतावादी तथा उत्तर-आधुनिकतावादी लोगों के लिए उस चरित्र के अतीत का कुछ अर्थ भले ही हो, उसके भविष्य का कोई अर्थ नहीं होता; क्योंकि उनके लिए भविष्य तो अनागत है और जो अभी आया ही नहीं है, जिसका अस्तित्व ही नहीं है, वह यथार्थ कैसे हो सकता है! भविष्य के बारे में सोचने, उसकी कल्पना करने, उसका कोई आदर्श सामने रखकर उसकी प्राप्ति के प्रयास करने या साहित्य में उसे चित्रित करने को वे एक ‘यूटोपिया’ (अयथार्थ, कल्पनालोक या असंभव आदर्श) मानते हैं। लेकिन लुकाच और जेमेसन दोनों यथार्थवाद को समग्रता में अर्थात् अतीत-वर्तमान-भविष्य को एक साथ ध्यान में रखने से बनी दृष्टि के रूप में देखते हैं। लुकाच ने यथार्थ के चित्रण में ‘‘समग्रता के प्रश्न की निर्णायक भूमिका’’ बतायी थी। जेमेसन ने उसमें एक नैतिक आयाम भी जोड़ा और ‘यूटोपिया’ को अयथार्थ नहीं, बल्कि यथार्थ ही मानते हुए ‘मार्क्सिज्म एंड फाॅर्म’ में कहा : </div>
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‘‘मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य तो उस ‘यूटोपिया’ तक ही पहुँचना है, जहाँ जीवन और उसका अर्थ पुनः अविभाज्य हो जायेंगे, इसमें मनुष्य और विश्व एकमत हो जायेंगे। लेकिन यह भाषा अमूर्त है और ‘यूटोपिया’ कोई विचार नहीं, बल्कि एक ‘विजन’ (दृष्टि) है। अतः वह अमूर्त चिंतन नहीं, बल्कि स्वयं आख्यान ही है, जो समस्त ‘यूटोपियाई’ गतिविधि को प्रमाणित करने का आधार है, और महान उपन्यासकार ‘यूटोपिया’ की समस्याओं का ठोस निरूपण प्रस्तुत करते हैं।’’ </div>
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लुकाच ने आख्यान और समग्रता के बीच का संबंध खोजा था। जेमेसन ने उस खोज को आगे बढ़ाते हुए ‘यूटोपिया’ को भावी समाजवादी विश्व-व्यवस्था के रूप में देखा और बताया कि आज जो ‘यूटोपिया’ अयथार्थ, कल्पनालोक या असंभव आदर्श लगता है, उसके भविष्य में साकार होने की संभावना को यथार्थ मानकर चलना यथार्थवादी लेखकों का एक राजनीतिक कार्यभार ही नहीं, बल्कि एक नैतिक दायित्व भी है। </div>
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<br />
जेमेसन ने काल की अवधारणा से जुड़े यथार्थवाद को ‘‘ऐतिहासिक यथार्थवाद’’ कहा है। इससे उनका आशय उन्नीसवीं सदी के बाल्जाक, स्काॅट, डिकेंस आदि के कथासाहित्य में पाये जाने वाले यथार्थवाद से है। जेमेसन के सामने ही नहीं, पश्चिम के प्रायः सभी माक्र्सवादी आलोचकों के सामने यह समस्या रही है कि बुर्जुआ वर्ग के सत्तारोहण के समय की क्रांतिकारी परिस्थिति में उदित हुए उस यथार्थवाद की परंपरा को वर्तमान समय में कैसे आगे बढ़ाया जाये। ‘‘ऐतिहासिक यथार्थवाद’’ के उदय के पहले तक यह माना जाता था कि सामाजिक यथार्थ का चित्रण करने वाले साहित्य का संबंध ज्ञानमीमांसा से तो है, किंतु सौंदर्यशास्त्र से नहीं। दूसरे शब्दों में, यथार्थवादी साहित्य ‘ज्ञान’ तो दे सकता है, ‘आनंद’ नहीं दे सकता। ‘‘ऐतिहासिक यथार्थवाद’’ ने दावा किया, जिसे बाल्जाक, स्काॅट, डिकेंस आदि के साहित्य ने सत्य भी सिद्ध किया कि वह निरा ज्ञानात्मक नहीं, सौंदर्यात्मक भी है। </div>
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<br />
हिंदी में प्रेमचंद ने आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की अवधारणा के जरिये तथा मुक्तिबोध ने ज्ञानात्मक संवेदन और संवेदनात्मक ज्ञान की अपनी कोटियों के जरिये यही दावा पेश किया था और अपनी रचनाओं में चरितार्थ भी किया था।</div>
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जेमेसन ने ‘दि पाॅलिटिकल अनकांशस: नैरेटिव ऐज अ सोशली सिंबाॅलिक एक्ट’ (2002) में यथार्थवाद की ज्ञानात्मक और सौंदर्यात्मक दोनों तरह की उपलब्धियों को देखा। यह मानते हुए भी कि उन्नीसवीं सदी का-सा ‘‘ऐतिहासिक यथार्थवाद’’ बीसवीं सदी के पूँजीवाद के अंतर्गत संभव नहीं है, उन्होंने उसकी परंपरा को नये रूप में आगे बढ़ाना संभव, उचित और आवश्यक बताया। उन्होंने नये यथार्थवादों के पैदा होने की संभावना बताते हुए अपने आशावाद का परिचय तो दिया ही, उत्तर-आधुनिकतावादी विखंडन के विरुद्ध समग्रता की अवधारणा में विश्वास भी व्यक्त किया। उन्होंने नये यथार्थवादों की संभावना ही नहीं, आवश्यकता भी बतायी और कहा कि आज के पूँजीवादी भूमंडलीकरण के दौर में यथार्थवाद को एक राजनीतिक लक्ष्य और कार्यक्रम के रूप में देखा जाना चाहिए। इसके लिए उन्होंने यथार्थवाद के नवीनीकरण की बात की और कहा कि आज का यथार्थवाद अपनी पुरानी परंपरा से बहुत कुछ ग्रहण करते हुए भी एक नया यथार्थवाद होगा। बल्कि एक नहीं, अनेक यथार्थवाद होंगे, जिनका आविष्कार किया जाना है। </div>
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<br />
मैंने भूमंडलीय यथार्थ के बारे में तभी से सोचना शुरू कर दिया था, जब अपनी पुस्तक ‘आज का पूँजीवाद और उसका उत्तर-आधुनिकतावाद’ (1999) में संकलित निबंध लिखे थे। उसके बाद लिखे गये मेरे निबंध जैसे ‘साहित्य में फैशन और नवोन्मेष’, ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की जरूरत’, ‘रूढ़ सोच के साँचों को तोड़ना जरूरी’, ‘आगे की कहानी’, ‘हिंदी में विज्ञान कथाएँ क्यों नहीं हैं?’ इत्यादि भूमंडलीय यथार्थ को ही ध्यान में रखकर लिखे गये थे। अंततः ‘भूमंडलीय यथार्थवाद’ नामक निबंध में भूमंडलीय यथार्थवाद की मेरी अवधारणा विकसित होकर सामने आयी। (ये सभी निबंध 2008 में प्रकाशित मेरे साहित्यिक निबंधों के संग्रह ‘साहित्य और भूमंडलीय यथार्थ’ में संकलित हैं।) भूमंडलीय यथार्थवाद की मेरी अवधारणा संक्षेप में यह है : </div>
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<span style="color: red;">आज की दुनिया का सबसे अहम प्रश्न है: क्या पूँजीवाद की वैश्विक व्यवस्था की जगह कोई और वैश्विक किंतु बेहतर व्यवस्था संभव है? यदि हाँ, तो उसकी रूपरेखा क्या है और वह व्यवस्था किन आधारों पर, किन शक्तियों के द्वारा और किन तरीकों से बनायी जा सकती है? इस प्रश्न का उत्तर भूमंडलीय यथार्थवाद के आधार पर ही दिया जा सकता है, क्योंकि इसका उत्तर देने के लिए यह आवश्यक है कि आज की दुनिया के यथार्थ को भौगोलिक के साथ-साथ ऐतिहासिक दृष्टि से भी देखा जाये और ऐतिहासिक दृष्टि को केवल अतीत को देखने वाली दृष्टि नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य को भी देखने वाली ऐसी सर्जनात्मक दृष्टि मानकर चला जाये, जो आने वाले कल की बेहतर दुनिया बनाने के लिए हमें आज ही प्रेरित और सक्रिय कर सके।</span> </div>
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हिंदी साहित्य में यह मान्यता न जाने कब से और क्यों चली आ रही है कि यथार्थ और कल्पना परस्पर-विरोधी हैं। मेरा कहना यह है कि यथार्थवाद कल्पना का निषेध नहीं करता। सृजनशील कल्पना तो यथार्थवादी रचना के लिए अपरिहार्य है, क्योंकि वह जिस ‘यूटोपिया’ अथवा भविष्य के स्वप्न को साकार करने के लिए की जाती है, वह सृजनशील कल्पना के बिना साकार हो ही नहीं सकता--न रचना में, न यथार्थ में। कारण यह है कि यथार्थवादी रचना के लिए इतिहास का बोध, वर्तमान का अनुभव और भविष्य का स्वप्न आवश्यक है। और आवश्यक है वह परिप्रेक्ष्य, जो इन तीनों के मेल से बनता है। जाहिर है कि ऐसा यथार्थवाद--रचनाकार के जाने या अनजाने, चाहे या अनचाहे--एक समाजवादी परियोजना है, क्योंकि भविष्य का स्वप्न पूँजीवादी व्यवस्था में समाजवाद ही हो सकता है। चाहे भविष्य में उसका नाम और रूप कुछ और ही हो जाये, आज वह पूँजीवाद का निषेध है और उसके परे जाने का प्रयत्न। </div>
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ठीक इसी कारण आज का पूँजीवाद यथार्थवाद का विरोधी है। यथार्थवाद के विकास को तरह-तरह से बाधित करना, उसे तरह-तरह से बदनाम करना, यथार्थवादियों को उपेक्षित या दंडित करना तथा तमाम प्रत्यक्ष और परोक्ष तरीकों से उनका दमन करना पूँजीवादी राजनीति का आवश्यक अंग है। </div>
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मगर यह राजनीति अक्सर अराजनीतिक प्रतीत होने वाले रूपों में की जाती है। मसलन, यथार्थवाद की जगह अनुभववाद पर जोर देना, यूटोपिया का मजाक उड़ाना, उसे असंभव बताकर खारिज करना, भविष्य के स्वप्न देखने-दिखाने वाले यथार्थवादियों को स्वप्नजीवी, आदर्शवादी या गैर-यथार्थवादी सिद्ध करना, साहित्य को ‘‘वादमुक्त’’ तथा ‘‘राजनीति से दूर’’ रखने की सलाहें देना इत्यादि। साहित्यिक आलोचना में अराजनीति की राजनीति का सबसे घातक किंतु सबसे प्रभावशाली रूप है रचना का उत्तर-आधुनिकतावादी अथवा उत्तर-संरचनावादी पाठ। सारी दुनिया में इसका प्रचार इतने जोर-शोर से और इतने बड़े पैमाने पर किया गया है कि बहुत-से आलोचकों ने इसे सर्वथा सही मानकर अपना लिया है। लेकिन इसके विरुद्ध विवेकपूर्ण स्वर भी निरंतर सुनायी देते रहे हैं, जिन्हें ध्यान से सुना जाये, तो पता चलता है कि आज दुनिया भर में ऐसे यथार्थवादी साहित्य की जरूरत महसूस की जा रही है, जो आज के भूमंडलीय यथार्थ को समझने में ही नहीं, बल्कि बदलने में भी लोगों की मदद करे। </div>
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ramesh upadhyayhttp://www.blogger.com/profile/05054633574501788701noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-1496071818736613491.post-59651022133992607902015-10-03T08:54:00.000-07:002015-10-03T08:57:10.872-07:00प्रेम के पाठ <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<span style="color: blue;"><i><b>आज मैं 'वागर्थ' पत्रिका के सितम्बर, २०१५ के अंक में प्रकाशित अपनी कहानी 'प्रेम के पाठ' आप सबके लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ. पढ़ें और अपनी राय बतायें.</b></i></span><br />
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हमारे जीवन का मूल मंत्र था मजे में रहना। और इसका तरीका हमने बचपन में ही सीख लिया था : थोड़ा-सा बेवकूफ (होना नहीं) दिखना। लोग आपको थोड़ा-सा बेवकूफ समझते रहें और आप मजे में रहते रहें, इसमें क्या बुराई है?<br />
<br />
हमारे परिवार में परीक्षाओं में प्रथम आने की परंपरा थी। पिताजी हमेशा हर कक्षा में प्रथम आये थे। भाईसाहब भी उनके नक्शे-कदम पर चलते थे और वे भी हमेशा हर कक्षा में प्रथम आते थे। हमेशा हर कक्षा का मतलब है कि क्लास टेस्ट हो, तिमाही, छमाही या सालाना इम्तिहान हो, फर्स्ट ही आना है। पिताजी अपने जमाने के फर्स्ट क्लास फर्स्ट बी.ए. पास थे। भाईसाहब भी हमेशा फर्स्ट आते थे। आगे चलकर वे एम.ए. फर्स्ट क्लास और ऊपर से गोल्ड मेडलिस्ट हुए। जाहिर है कि पिताजी और भाईसाहब ने हमारे सामने अपना-अपना आदर्श प्रस्तुत करते हुए हमसे भी इसी परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए कहा। लेकिन हमारी जीजी के लिए प्रथम आने की कोई शर्त नहीं थी, क्योंकि उनकी पढ़ाई हाई स्कूल तक ही होनी थी, जिसके बाद उनकी शादी कर दी जाने वाली थी।<br />
<br />
लेकिन हमेशा फर्स्ट आने का जो तरीका पिताजी और भाईसाहब ने हमें बताया, बालबुद्धि होते हुए भी हमें काफी मूर्खतापूर्ण लगा। टाइमपीस में चार बजे का अलार्म लगाकर सोओ। घंटी बजते ही उठ बैठो। उठते ही लोटा भर पानी पियो और पाखाने जाओ। लोटा भर से जरा भी कम पिया, तो पेट साफ नहीं होगा। पेट साफ नहीं हुआ, तो नींद आयेगी या सिर में दर्द होगा या यूँ ही पढ़ाई में मन नहीं लगेगा। पाखाने से निकलते ही गर्मी हो या कड़ाके की सर्दी, ठंडे पानी से नहा डालो। नहाकर साफ धुले हुए कपड़े पहनो और पढ़ने बैठ जाओ। बिस्तर पर नहीं, बाकायदा मेज-कुर्सी पर। पिताजी कहते थे, ‘‘तुम तो बड़े खुशकिस्मत हो कि मेज-कुर्सी और बिजली की रोशनी जैसी सुविधाएँ उपलब्ध हैं। हमारे जमाने में तो किरासिन की ढिबरी या लालटेन की रोशनी में जमीन पर बोरी बिछाकर पढ़ने बैठना पड़ता था।’’<br />
<br />
हमें आदेश था कि स्कूल जाने के समय से एक घंटा पहले तक कल का पढ़ाया गया सब कुछ इस तरह दिमाग में बैठा लो कि क्लास में जो भी पूछा जाये, फौरन बता सको। जो भी सवाल दिया जाये, फटाफट हल कर सको। अब जो एक घंटा तुम्हारे पास है, उसी में तुम्हें अपना बस्ता लगाना है, नाश्ता करना है, ब्रश करना है, यूनिफॉर्म पहननी है और स्कूल पहुँचना है। स्कूल में हर पीरियड में पूरा मन लगाकर पढ़ना है, रिसेस में टिफिन खाना है, खेल के पीरियड में खेलना है। घर आकर, कपड़े बदलकर, हाथ-मुँह धोकर, खाना खाकर एक घंटे सोना है। शाम को एक घंटा खेलने जा सकते हो, पर एक घंटे से एक मिनट भी फालतू नहीं। खेलकर आने के बाद अगर गर्मियाँ हैं तो नहाकर और सर्दियाँ हैं तो हाथ-मुँह धोकर भीगे हुए बादाम चबाते हुए एक गिलास दूध पीकर होम वर्क करने बैठ जाना है। चाहे आधी रात ही क्यों न हो जाये, उसे पूरा करके ही खाना और सोना है। वैसे मन लगाकर पढ़ोगे, तो होम वर्क फटाफट निपटा सकोगे और जल्दी से खाकर जल्दी सो सकोगे। भाईसाहब इस आदेश में अंग्रेजी की एक लाइन भी जोड़ दिया करते थे, ‘‘अर्ली टु बेड एंड अर्ली टु राइज, मेक्स अ मैन हैल्दी वैल्दी एंड वाइज।’’<br />
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भाईसाहब ने पता नहीं कैसे पिताजी के नक्शे-कदम पर चलना या उनके उपदेशों पर अमल करना सीख लिया होगा! हमें तो यह अनुशासन कड़ी सजा जैसा लगा और लगा कि ऐसी जिंदगी जीने में क्या मजा। हमेशा हर कक्षा में प्रथम आना आखिर क्यों जरूरी है? फर्स्ट क्लास फर्स्ट ही क्यों? सेकेंड क्लास फर्स्ट या फर्स्ट क्लास सेकेंड में क्या बुराई है? पिताजी पुराने जमाने के हैं, इसलिए कहते हैं, ‘‘पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे होगे खराब’’। उनके जमाने में नवाब होते होंगे, अब कहाँ होते हैं। होते भी हों, तो नवाब रामपुर या नवाब धामपुर कौन बनना चाहेगा? नवाब ही बनना है, तो क्रिकेट वाले नवाब पटौदी न बनेंगे! पढ़ेंगे-लिखेंगे, पास भी अच्छे से होंगे, लेकिन फर्स्ट क्लास फर्स्ट आने के लिए की जाने वाली कठोर तपस्या नहीं करेंगे। खेलेंगे-कूदेंगे, पर खराब नहीं होंगे। होंगे नहीं, पर थोड़े-से बेवकूफ दिखेंगे और मजे में रहेंगे। जैसा किसी लोकोक्तिकार ने कहा भी है, ‘‘जो सुख चाहे जीव को, तो हौलू बनके रह!’’<br />
<br />
अपने इस मूल मंत्र के मुताबिक हमने तय किया कि फेल नहीं होंगे, लेकिन फर्स्ट आने के चक्कर में नहीं पड़ेंगे। पहली बार सेकेंड आये, तो पिताजी ने हमारे दोनों कान उमेठकर उनमें खूब सदुपदेश भरे और भाईसाहब ने रिजल्ट देखकर हमारे गाल पर एक थप्पड़ जड़ते हुए अपना आदर्श हमारे सामने रखा। कान के दर्द और गाल की चोट के अनुपात में हम कुछ ज्यादा ही जोर से रोये, ताकि अम्मा और जीजी का कोमल नारी हृदय पसीज उठे और वे हमारी रक्षा के लिए सन्नद्ध हो उठें। वैसे भी हम अम्मा के ‘पेटपोंछना’ और जीजी के दुलारे ‘छुटकू भैया’ होने के कारण दोनों के लाड़ले थे। घर में सबसे छोटे होने के कारण सबका प्यार-दुलार पाने के न्यायोचित अधिकारी भी थे ही। अतः पिताजी और भाईसाहब ने एक लिमिट में रहकर ही हम पर सख्ती बरती।<br />
<br />
लेकिन उन्होंने हमें यह समझाने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी कि हम सेकेंड आने वालों में सबसे अधिक नंबर लाये हैं, इसलिए हम में बुद्धि और प्रतिभा कम नहीं है, केवल थोड़ी मेहनत और करने की जरूरत है; फिर हमें फर्स्ट आने से कोई नहीं रोक सकता। लेकिन हमने अगली दो-तीन कक्षाओं में सेकेंड आना और उन दोनों ने हल्की सजा और भारी उपदेश देना जारी रखा, तो हमने अगले साल थोड़ा प्रयास किया और थर्ड आ गये। परिणाम जो होना था, हुआ। सख्त सजा मिली और पहले से भी ज्यादा वजनी उपदेश सुनने पड़े। लेकिन भविष्य में सेकेंड आते रहने का हमारा रास्ता साफ हो गया, क्योंकि थर्ड से सेकेंड आना बेहतर समझा गया। हमारे परीक्षकों ने भी हम पर दया दिखायी कि पूरे शिक्षाकाल में हमें हमेशा फर्स्ट क्लास सेकेंड आने लायक नंबर दिये और दो बार तो गोल्ड मेडल जैसा भी दिया कि दो-दो नंबर कम देकर हमारी फर्स्ट डिवीजन रोक ली।<br />
<br />
हमारे परिवार में सब पढ़े-लिखे थे। अम्मा अंग्रेजों के जमाने की मिडिल पास थीं, पिताजी अंग्रेजों के जमाने के बी.ए. पास। भाईसाहब और जीजी भी आजादी से पहले पैदा हुए थे। एक हम ही थे, जो उसी साल पैदा हुए, जिस साल देश आजाद हुआ। कारण यह था कि भाईसाहब और जीजी की उम्र में तो दो ही साल का अंतर था, पर हम जीजी के छह साल बाद पैदा हुए थे। इस प्रकार जब हम पाँच साल के थे और पहली में पढ़ते थे, जीजी ग्यारह साल की थीं और छठी में पढ़ती थीं, जबकि भाईसाहब तेरह साल के थे और आठवीं में पढ़ते थे। पिताजी अध्यापक थे और एक इंटर कॉलेज में पढ़ाते थे।<br />
<br />
पिताजी पढ़ाने के बड़े शौकीन थे। बाहर तो पढ़ाते ही थे, घर में भी खूब पढ़ाते। उन्होंने हमें शुरू से ही प्रेम के पाठ पढ़ाये थे। उन असंख्य पाठों में से कुछ थे: अपने परमात्मा से प्रेम करो। अपने धर्म से प्रेम करो। अपनी जाति से प्रेम करो। अपनी भाषा से प्रेम करो। अपनी सभ्यता से प्रेम करो। अपनी संस्कृति से प्रेम करो। अपनी परंपराओं से प्रेम करो। अपने परिवार से प्रेम करो। अपने पड़ोसियों से प्रेम करो। अपने देश और देशवासियों से प्रेम करो। अपनी दुनिया और दुनिया भर के लोगों से प्रेम करो।<br />
<br />
अजीब बात थी कि जिन से प्रेम करने को कहा जाता था, वे या तो अमूर्त होते थे, या पुरुष, क्योंकि स्त्रियों से प्रेम करने का कोई पाठ हमें नहीं पढ़ाया गया। स्त्रियों को हमारे यहाँ पूज्य माना जाता था, प्रेम्य नहीं। हमें शिष्टाचार के जो पाठ पढ़ाये गये थे, उनमें से एक यह था कि गुरुजन यानी बड़े तो पितातुल्य आदरणीय होते हैं--जैसे पिताजी, भाईसाहब और तमाम तरह के दादा, बाबा, चाचा, ताऊ, मामा, मौसा, शिक्षक, साधु, संत, पुजारी इत्यादि--किंतु स्त्रियाँ बड़ी हों या छोटी, सभी माता के समान पूजनीय होती हैं। ‘‘मातृवत परदारेषु’’ का अर्थ समझाते हुए पिताजी हमसे कहा करते थे कि परायी स्त्रियों को माँ के समान मानना चाहिए, अर्थात् तुम्हारी एक संभावित पत्नी को छोड़कर संसार में जितनी भी स्त्रियाँ हैं, सब माँ के समान हैं और माँ पूजनीय होती है, इसलिए वे सब भी पूजनीय हैं। वे तुमसे उम्र में बड़ी हों या छोटी, सब माँ के समान हैं।<br />
<br />
‘‘उम्र में छोटी भी?’’ यह पूछने पर पिताजी बताते थे, ‘‘परदारा वही नहीं है, जो विवाहित होकर परायी हो चुकी है। जो कल विवाहित होकर परायी बनने वाली है, वह भी परदारा है। इसलिए उम्र में छोटी कुँवारी लड़की भी मातृवत है और पूजनीय है। वैसे ही, जैसे छोटी बहनें, सगी छोटी बहनें और अपनी बेटियाँ भी पूज्य होती हैं। राखी बँधवाते समय छोटी बहन के भी पाँव छुए जाते हैं, बेटी के विवाह के समय उसके भी पाँव छुए जाते हैं। क्यों? इसलिए कि वे भी परदारा हैं। इसीलिए उन्हें पराया धन कहा जाता है।’’<br />
<br />
हमें याद था कि जब तक जीजी की शादी नहीं हुई थी, हम अम्मा के साथ जीजी के भी पाँव छुआ करते थे। हमारी कोई छोटी बहन तो थी नहीं, इसलिए कानपुर में ही रहने वाले हमारे मामा की बेटी माधुरी हमें राखी बाँधती थी। राखी बँधवाते समय हम उसके भी पाँव छुआ करते थे और वह नटखट हमें बड़ी-बूढ़ियों की तरह आशीर्वाद दिया करती थी। जीजी की शादी हो गयी और भाभी आ गयीं, तो हमें उनके भी पाँव छूकर प्रणाम करने को कहा गया। समझाया भी गया, ‘‘बड़ा भाई पिता के समान होता है, तो भाभी माँ के समान हुई न!’’<br />
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किशोरावस्था से निकलकर युवावस्था में प्रवेश करते समय ही हमें फिल्में देखने के साथ-साथ ‘माया’ और ‘मनोहर कहानियाँ’ नामक पत्रिकाओं में प्रेम कहानियाँ पढ़ने का चस्का लग चुका था। संक्षेप में, हम चाहने लगे थे कि हम भी किसी से प्रेम करें। लेकिन पिताजी ने ‘‘परदारेषु मातृवत’’ का पाठ पढ़ाकर हमारे लिए मानो प्रेम के सभी मार्ग बंद कर दिये थे, क्योंकि उस पाठ के अनुसार हमारी दूर भविष्य में संभावित पत्नी के अतिरिक्त संसार की समस्त स्त्रियाँ परदारा या तो थीं या भविष्य में हो जाने वाली थीं। मुहल्ले-पड़ोस की और स्कूल में हमारे साथ पढ़ने वाली वे सुंदर-सुंदर लड़कियाँ भी, जिनसे प्रेम करने को हमारा मन मचलता था, पराया धन की श्रेणी में आती थीं और ‘‘परदारेषु मातृवत’’ वाले श्लोक में ही आगे का सूत्र था ‘‘परद्रव्येषु लोष्टवत’’ अर्थात् पराये धन को ‘लोष्ट’ यानी मिट्टी के ढेले के समान मानना चाहिए। इसके अनुसार जैसे रास्ते में पड़े ढेलों की तरफ ध्यान नहीं दिया जाता, वैसे ही हमें लड़कियों की तरफ ध्यान नहीं देना चाहिए था। आखिर हम अभी विद्यार्थी थे और पिताजी द्वारा बार-बार सुनाया हुआ ‘‘काकचेष्टा वकोध्यानम्’’ वाला वह श्लोक हमें हमेशा याद रखना था, जिसके अनुसार विद्यार्थी के पाँच लक्षणों में सबसे मुख्य लक्षण यह है कि वह अपनी पढ़ाई पर (केवल कोर्स की पढ़ाई पर) ही ध्यान केंद्रित किये रखने वाला हो। मगर हम नासमझ-से दिखते हुए भी यह समझ चुके थे कि पिताजी की बातें और उनके श्लोक-फिश्लोक ‘‘सब कहने-सुनने की बातें’’ हैं, उन पर अमल-वमल करना जरूरी नहीं है।<br />
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उदाहरण हमें अपने घर में ही मिल चुके थे। नन्हे-मुन्ने कासिद के रूप में हमने जीजी के प्रेमपत्र उनके प्रेमी तक और भाईसाहब के प्रेमपत्र उनकी प्रेमिका तक पहुँचाने का काम किया था और ऐसी होशियारी से किया था कि अम्मा और पिताजी को कभी भनक भी नहीं पड़ी थी। (हमारी सेवाओं के बदले में जीजी और भाईसाहब द्वारा इनाम या रिश्वत के रूप में जो पैसे चोरी-चोरी हमें दिये जाते थे, उनसे हम चोरी-चोरी फिल्में देखकर प्रेम के पाठ पढ़ते थे।) हालाँकि जीजी की शादी उनके प्रेमी से और भाईसाहब की शादी उनकी प्रेमिका से नहीं हुई, लेकिन दोनों ने प्रेम तो किया ही न! इसलिए हमने सोच लिया था कि हम भी प्रेम करेंगे।<br />
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प्रेम करने का निश्चय करने के बाद हमारे सामने समस्या उठी कि प्रेम किस लड़की से किया जाये। हमारी देखी हुई फिल्मों और पढ़ी हुई कहानियों के अनुसार लड़की सुंदर तो होनी ही चाहिए थी, साथ ही ऐसी भरोसेमंद भी अवश्य होनी चाहिए थी, जो प्रेम-प्रसंग में गोपनीयता के महत्त्व को समझती हो। अगर उसने स्कूल में या अपने घर जाकर हमारी शिकायत कर दी, तो पिटाई निश्चित थी। बाहर पिटकर हमारे बदनाम होने की और उस बदनामी के कारण पुनः घर में पिटने की प्रबल आशंका थी। हम जानते थे कि जब पिताजी के करकमलों से हमारी पिटाई होगी, तब भाईसाहब यह भूल जायेंगे कि वे भी कभी प्रेम करते थे और हम उनके कासिद बनकर उनकी सेवा किया करते थे।<br />
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ऐसी सुंदर और भरोसेमंद प्रेमिका खोजने के लिए हमने गली-मुहल्ले की लड़कियों से लेकर स्कूल में साथ पढ़ने वाली लड़कियों तक खूब नजर दौड़ायी, पर इन दोनों गुणों से युक्त कोई लड़की नजर न आयी। जो लड़कियाँ सुंदर थीं, वे भरोसेमंद नहीं थीं। जो भरोसेमंद हो सकती थीं, वे सुंदर नहीं थीं। अंततः हमें अपनी ममेरी बहन माधुरी याद आयी, जो बहुत सुंदर थी और अपने जेबखर्च के लिए मामा-मामी से मिले पैसे कभी-कभी चोरी से हमें सिनेमा देखने के लिए दिया करती थी। मामा-मामी सिनेमा कभी-कभार ही देखते थे और बड़ी होती इकलौती लड़की को सिनेमा के दुष्प्रभावों से बचाने के लिए उसे प्रायः धार्मिक फिल्में ही दिखाते थे।<br />
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माधुरी हमें सिनेमा देखने के लिए चोरी-चोरी पैसे क्यों देती थी?<br />
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बात यह थी कि तब तक भारत में टी.वी. नहीं आया था और मनोरंजन का मुख्य साधन सिनेमा या फिर रेडियो था, जिस पर रेडियो सीलोन से प्रसारित और अमीन सायानी द्वारा प्रस्तुत बिनाका गीतमाला नाम का फिल्मी गानों का कार्यक्रम लड़कियों के बीच सबसे लोकप्रिय कार्यक्रम था। माधुरी फिल्मों और फिल्मी गानों की दीवानी थी। वह फिल्मी गाने सुनती थी, याद करती थी और गाती-गुनगुनाती रहती थी। उन दिनों खारी बावली दिल्ली से छपी फिल्मी गानों की किताबें एक-एक आने में बिकती थीं। तब तक दशमलव प्रणाली शुरू नहीं हुई थी और बाजार से लेकर गणित की पुस्तकों तक में रुपया-आना-पाई, मन-सेर-छटाँक और गज-फुट-इंच वाला हिसाब चलता था। एक रुपये में सोलह आने होते थे और एक आने में हर फिल्म के गानों की सोलह पेजी किताब मिलती थी। वह ‘किताब’ दरअसल किसी घटिया प्रेस में बेशुमार गलतियों के साथ सस्ते अखबारी कागज पर छपा एक सोलह पेजी फर्मा होता था, जिसे किसी प्रकार की कटिंग-बाइंडिंग के बिना सिर्फ मोड़कर ‘किताब’ बना दिया जाता था। लेकिन ये किताबें बहुत बिकती थीं और बाजार में उनकी माँग हमेशा बनी रहती थी। ब्याह-शादी में गाने-बजाने की शौकीन महिलाएँ और लड़कियाँ उन्हें खरीदती थीं और सहेजकर रखती थीं। खुद बाजार जाकर फिल्मी गानों की किताबें खरीदना उनके लिए ‘‘हाय बेहया-बेशरम’’ वाली बात थी, इसलिए वे किसी बच्चे को इकन्नी-दुअन्नी पकड़ाकर बाजार दौड़ा देती थीं कि वह जाकर ‘आन’, ‘अंदाज’, ‘दीदार’, ‘अनारकली’ या ‘नया दौर’ के गाने ले आये। लड़कियों में तो नयी से नयी फिल्मों के गाने खरीदने की होड़ भी लगी रहती थी।<br />
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हमारी ममेरी बहन माधुरी जेबखर्च के लिए रोजाना मिलने वाली इकन्नी फिल्मी गानों की किताबें खरीदने और नयी फिल्मों की स्टोरी सुनने पर खर्च किया करती थी। वह जेबखर्च के लिए प्रतिदिन मामा या मामी से मिलने वाले एक आने को चटोरी लड़कियों की तरह चाट-पकौड़ी या गोलगप्पे खाने पर खर्च नहीं करती थी। (उन दिनों अधन्ने में चाट का पूरा पत्ता या दोना आता था और एक आने के आठ गोलगप्पे मिलते थे।) वह उन पैसों को बचाती थी और एक रुपया पूरा हो जाने पर चुपके से हमें थमा देती थी। वह हमसे एकाध साल ही छोटी थी और हमसे एक ही क्लास पीछे थी, लेकिन अपने घर में उसने हमारी विद्वत्ता के झंडे गाड़ रखे थे। वह स्वयं को पढ़ाई में कमजोर बताती थी और हमारे बारे में कहती थी कि हम बहुत अच्छा पढ़ाते हैं। मामा-मामी ने उसके लिए ट्यूशन लगाने के बजाय हमारी मुफ्त सेवाएँ इस प्रकार ले रखी थीं कि हम छुट्टी वाले दिन आकर घंटे-दो घंटे उसे पढ़ा दिया करें। सो जब हम उसे पढ़ाने जाते, वह चुपके से एक पुड़िया में बँधी सोलह इकन्नियाँ या आठ दुअन्नियाँ या चार चवन्नियाँ या दो अठन्नियाँ हमें पकड़ा देती। उसके दिये एक रुपये में से हम सिनेमा का सेकेंड क्लास का दस आने वाला टिकट लेकर नयी फिल्म देखते थे और बाकी छह आनों की फिल्मी गानों वाली ‘किताबें’ खरीदते थे। अगली बार जब हम उसे पढ़ाने जाते, अपनी किसी किताब में छिपाकर ले जायी गयी वे ‘किताबें’ उसे दे देते और पढ़ाने के बहाने देखी हुई फिल्म की पूरी स्टोरी उसे सुना देते। वह हमारे शब्दों के सहारे अपनी कल्पना में पूरी फिल्म देख लेती, उसके संवाद याद कर लेती, उसके गानों की सिचुएशंस अच्छी तरह समझ लेती, अगले दिन स्कूल जाकर अपने साथ पढ़ने वाली लड़कियों पर शान से नयी फिल्म देखने का रौब जमाती और उनके खर्चे पर चाट-पकौड़ी खाकर उसकी स्टोरी उन्हें सुनाती।<br />
<br />
इस प्रकार हम और माधुरी ममेरे-फुफेरे भाई-बहन होते हुए भी एक-दूसरे के राजदार थे और हमें लगा कि प्रेम के लिए वह उपयुक्त पात्र है। सुंदर तो है ही, भरोसेमंद भी है। हमें भी अपने घर से जेबखर्च के लिए एक आना प्रतिदिन मिलता था। हमने पाँच दिन के पाँच आने बचाये, माधुरी के लिए फिल्मी गानों की पाँच किताबें खरीदीं और चुपके से उसके हवाले करते हुए प्रेम निवेदन कर दिया।<br />
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माधुरी पहले तो हक्की-बक्की रह गयी, फिर उसकी आँखें डबडबा गयीं। टूटे-फूटे शब्दों में उसने जो कहा, उसका सार यह था कि हम बहुत अच्छे हैं, उसे बहुत अच्छे लगते हैं, फर्क यही है कि वह जो कह नहीं पा रही थी, हमने कह दिया। और कि वह हमारे प्रेम को अपना सौभाग्य मानकर स्वीकार कर लेती, मगर क्या करे, भाई-बहन का पवित्र रिश्ता बीच में आ गया। ममेरी ही सही, वह हमारी बहन है और भाई-बहन के बीच प्रेम नहीं हो सकता। उसने यह भी कहा कि काश हम लोग मुसलमान होते, जिनमें ममेरे-फुफेरे भाई-बहन में शादी हो जाती है। हमारा (और शायद अपना भी) दिल टूटने से बचाने के लिए उसने यह भी कहा कि वह भगवान से प्रार्थना करेगी कि अगले जनम में हमें फिर मिलाये, मगर हिंदू भाई-बहन न बनाये।<br />
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दिल-विल तो हमारा नहीं टूटा, लेकिन प्रेम का पहला पाठ हमने पढ़ लिया: प्रेम करने से पहले अच्छी तरह देख-भाल लेना चाहिए कि कोई पवित्र रिश्ता तो बीच में नहीं आ रहा।<br />
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जब हम नवीं कक्षा में पढ़ते थे, एक इंग्लिश टीचर स्कूल में नयी-नयी आयी थीं। वे इतनी सुंदर थीं कि उन्हें देखते ही हमें उनसे प्रेम हो गया। कक्षा में उनके आते ही हम उन्हें देखने लगते और देखते ही रह जाते। वे क्या पढ़ाती थीं, हमारे पल्ले कुछ नहीं पड़ता था। वे कई बार हमसे पूछ चुकी थीं कि हम कहाँ खोये रहते हैं। लेकिन हम उनके द्वारा पूछे जाने वाले पढ़ाई से संबंधित सवालों की तरह इस सवाल का जवाब भी नहीं दे पाते थे। हम चीजों के खो जाने या उन्हें खो देने का मतलब तो जानते थे, क्योंकि हमारी चीजें अक्सर खोती रहती थीं; एक बार हम दशहरे के मेले में खुद भी खो गये थे और बड़ी मुश्किल से पाये गये थे, इसलिए भीड़ में खो जाने का मतलब भी जानते थे; लेकिन कक्षा में अपनी जगह पर बैठा-बैठा कोई कैसे खो सकता है, यह नहीं जानते थे। हम उन्हें एकटक देखते रहकर बड़ा सुख पाते थे। लेकिन यह नहीं बता सकते थे कि हम क्या पाते हैं। जानते और बातें बनाना भी जानते होते, तो शायद उनसे कहते--मैम, यह पूछिए कि हम क्या पाये रहते हैं!<br />
<br />
एक दिन कक्षा के बाहर कहीं जाते हुए हम उन्हें अकेले में मिल गये, तो रोककर बोलीं, ‘‘तुम क्लास में मुझे घूरते क्यों रहते हो?’’<br />
<br />
उनका सुंदर चेहरा क्रोध में ऐसा तमतमाया हुआ था कि भयभीत होकर हमने सच बोल दिया, ‘‘मैम, आप हमें बहुत अच्छी लगती हैं।’’<br />
<br />
‘‘मतलब, तुम्हें मुझसे प्रेम हो गया है?’’<br />
<br />
हमने पहली बार जाना कि ‘घिग्घी बँध जाना’ और ‘सिट्टी-पिट्टी भूल जाना’ क्या होता है।<br />
<br />
तब उन्होंने वहीं खड़े-खड़े हमें समझाया कि प्रेम हो जाने वाली बात बकवास है। प्रेम होता नहीं, किया जाता है। और वह कभी भी, कहीं भी, किसी से भी नहीं किया जाता।<br />
<br />
‘‘अभी तुम्हारी उम्र मन लगाकर पढ़ाई करने की है। बड़े हो जाओ, पढ़-लिखकर कुछ बन जाओ, तब अपने लायक कोई लड़की देखकर उससे प्रेम और विवाह कर लेना।’’ कहकर वे मुस्करायीं और हमारी पीठ थपथपाकर आगे बढ़ गयीं।<br />
<br />
इस प्रकार हमने प्रेम का दूसरा पाठ पढ़ा: प्रेम होता नहीं, किया जाता है, उसे करने की एक उम्र होती है, उससे पहले कुछ बनना होता है, और प्रेम जो है सो विवाह के लिए किया जाता है।<br />
<br />
उस दिन हमने अपनी इंग्लिश टीचर को ही नहीं, किसी भी स्त्री या लड़की को घूरकर न देखने की, देखकर उसे देखते ही न रह जाने की और अपनी सुध-बुध भूलकर उसी में खोये न रह जाने की कसमें खा लीं और मन लगाकर पढ़ाई करने की, पढ़-लिखकर कुछ बन जाने की और उसके बाद अपने लायक कोई लड़की देखकर उससे प्रेम और विवाह करने की प्रतिज्ञाएँ कर लीं।<br />
<br />
हमारी कसमें न टूटें और प्रतिज्ञाएँ पूरी हों, इसका उपाय हमें यही सूझा कि स्त्रियों या लड़कियों के सामने या तो हम नीचे देखें या इधर-उधर। मगर वास्तव में हम उनकी ओर न देखते हुए भी उन्हें बहुत ध्यान से देखते थे, क्योंकि आज नहीं तो कल, हमें प्रेम और विवाह तो करना ही था और करने से पहले इन दोनों चीजों को समझना था। ममेरी बहन माधुरी ने जो पाठ हमें पढ़ाया था, उसके अनुसार हमने ‘पवित्र रिश्तों’ वाली स्त्रियों और लड़कियों को अपने अध्ययन का विषय बनाया और यह ज्ञान पाया कि उनमें से प्रायः सभी का कभी न कभी, किसी न किसी से प्रेम रहा है, लेकिन एकाध को छोड़कर किसी का भी प्रेम विवाह के रूप में सफल नहीं हुआ है।<br />
<br />
स्कूल की पढ़ाई पूरी करके कॉलेज में आ जाने पर भी हमने लड़कियों को देखते ही नजरें झुका लेना या इधर-उधर देखने लगना जारी रखा, तो हमारे बारे में मशहूर हो गया कि हम बहुत शरमीले हैं। हमारे सहपाठी हमें बुद्धू समझते थे और समझाते थे कि लड़कियों की तरफ देखो, उनसे आँखें मिलाकर बात करो, क्योंकि उनमें से कुछ तुमसे नैना मिलाना और अँखियाँ लड़ाना चाहती हैं। मगर हम अपनी कसमों और प्रतिज्ञाओं के चलते शरमीले बने रहे। यहाँ तक कि हम पर एक चुटकुला भी बन गया कि हम फिल्म देखते समय भी, जब कोई लड़की परदे पर आती है, नीचे या इधर-उधर देखने लगते हैं।<br />
<br />
इस प्रकार हम न तो प्रेम में अंधे हुए न पागल। हमेशा शरमीले और शरीफ कहलाये। लेकिन हमारे आसपास--सहपाठियों और शिक्षकों के बीच, मुहल्ले और पड़ोस में, नगर और प्रदेश में, देश और विदेश में--जो प्रेमलीलाएँ होती थीं, उनके समाचार-श्रोता के रूप में प्रत्यक्ष और साहित्य-पाठक के रूप में परोक्ष साक्षी बनकर प्रेम के विविध रूपों का हमारा अध्ययन बराबर जारी रहा। हम अंतरजातीय, अंतरवर्णीय, अंतरधार्मिक, अंतरप्रांतीय तथा अंतरदेशीय प्रेम विवाहों के बारे में पढ़ने, सुनने और जानने को विशेष रूप से उत्सुक रहते थे। ज्यों-ज्यों हम इस प्रकार के प्रेम और विवाह से संबंधित विभिन्न कॉमिक, रोमांचक और मार्मिक किंतु भयानक रूप से हिंसक पक्षों से परिचित होते जा रहे थे, त्यों-त्यों प्रेम हमारे लिए बड़ी और उससे भी बड़ी गुत्थी बनता जा रहा था।<br />
<br />
प्रेम के हिंसक पक्ष हमने फिल्मों में भी देखे थे, कहानियों और उपन्यासों में भी पढ़कर जाने थे, लेकिन समाचारों और उन पर बनी सत्यकथाओं में प्रेम से संबंधित हिंसा के जो रूप हमारे सामने आते थे, बिलकुल भिन्न होते थे। फिल्मों और कहानियों में प्रेम से जुड़ी हिंसा के तीन रूप प्रचलित थे: कॉमिक, जैसे प्रेम करने वाली लड़की के दकियानूसी बाप द्वारा की जाने वाली हल्की-सी पिटाई; रोमांचक, जैसे नायक और खलनायक के बीच लड़की को लेकर होने वाली मारामारी; या मार्मिक, जैसे प्रेम में असफल रहने पर नायक-नायिका में से किसी एक की आत्महत्या से अथवा दोनों की ‘बेदर्द जमाने’ द्वारा की जाने वाली हत्या। मगर हिंसा के ये तीनों रूप अंततः मनोरंजक होते थे। इसलिए उन्हें देख-पढ़कर हम हँसें चाहे रोयें, वे हमें अच्छे लगते थे। उनसे हमें डर नहीं लगता था, बल्कि जोश आता था कि ‘‘चाहे सिर फूटे या माथा’’ हम भी प्रेम करेंगे। लेकिन समाचारों और सत्यकथाओं में प्रेम से जुड़ी हिंसा कभी प्रेम करने वाली लड़की को उसके रूढ़िवादी माता-पिता और भाई-भाभी द्वारा ही जलाकर मार डालने या काटकर घर में ही गाड़ देने के रूप में सामने आती थी; कभी जातिवादी पंचों-सरपंचों द्वारा प्रेमी-प्रेमिका दोनों को लाठियों से पीट-पीटकर या कुल्हाड़ियों से काट-काटकर या गोलियों से भून-भूनकर मार डालने के रूप में सामने आती थी; तो कभी सांप्रदायिक नेताओं द्वारा कराये गये भयानक दंगों के रूप में सामने आती थी। तब प्रेम के ये हिंसक पक्ष हमें भयानक रूप से आतंकित करने के साथ-साथ घोर घृणा से भर देते थे।<br />
<br />
इस प्रकार हमने प्रेम का तीसरा पाठ पढ़ा: प्रेम कहानियाँ काल्पनिक होती हैं, वे मजा तो दे सकती हैं, मार्ग नहीं दिखा सकतीं; इसलिए प्रेम के इन काल्पनिक रूपों से बचकर और हिंसक रूपों से लड़कर हमें प्रेम का मार्ग स्वयं बनाना पड़ेगा।<br />
<br />
और हमने निश्चय किया कि हम प्रेम और विवाह तो अवश्य करेंगे, लेकिन यह देखकर करेंगे कि लड़की और उसके माता-पिता या अभिभावक रूढ़िवादी, जातिवादी और संप्रदायवादी न हों। ऐसा प्रेम और विवाह स्वतंत्र और आत्मनिर्भर होने पर ही किया जा सकता था, इसलिए हमने निश्चय किया कि पढ़ाई करके हम भाईसाहब के साथ नहीं रहेंगे (पिताजी इस बीच गुजर चुके थे), किसी दूसरे शहर में नौकरी करेंगे और वहीं रहकर प्रेम और विवाह करेंगे।<br />
<br />
लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हमने कानपुर में रहते हुए प्रेम के सारे रास्ते बंद कर रखे थे। हमने अपनी तरफ से बाहर जाकर किसी से प्रेम करने का रास्ता बंद कर रखा था, लेकिन बाहर से कोई हमसे प्रेम करने आये, तो उसके आ सकने का रास्ता खुला रखा था। उस रास्ते से हमारे जीवन में तीन लड़कियाँ और दो स्त्रियाँ आयीं। अर्थात् तीन भावी परदाराएँ और दो वर्तमान परदाराएँ। पाँचों एक साथ नहीं, एक-एक करके आयीं, लेकिन पाँचों ही यह घोषणा-सी करती हुई आयीं कि उन्हें ‘‘मातृवत परदारेषु’’ वाली दृष्टि से नहीं, बल्कि ‘‘मित्रवत परदारेषु’’ वाली दृष्टि से देखा जाये। मगर उनकी मित्रता कुछ नहीं, काफी अजीब थी।<br />
<br />
एक मामले में वह मित्रता जब तक शादी नहीं हो जाती, तब तक की वक्तकटी या मौज-मस्ती थी।<br />
<br />
दूसरे मामले में वह मित्रता स्वयं अपना वर खोजकर स्वयंवर रचाने निकली आधुनिका की तलाश थी।<br />
<br />
तीसरे मामले में वह मित्रता धोखा दे भागे पूर्व प्रेमी के विरुद्ध हमें सच्चा प्रेमी बनाने की चुनौती थी।<br />
<br />
चौथे मामले में वह मित्रता परदेस में रह रहे पति के अभाव में देह की भूख मिटाने की कोशिश थी।<br />
<br />
पाँचवें मामले में वह मित्रता पति की नपुंसकता के कारण सूनी गोद को संतान से भर देने की करुण पुकार थी।<br />
<br />
हम तब भी नहीं जानते थे और आज भी नहीं जानते--शायद भविष्य में भी कभी नहीं जान पायेंगे--कि प्रेम वास्तव में क्या होता है। मगर यह जानने में हमने देर नहीं लगायी कि यह और जो भी हो, प्रेम नहीं है। इसलिए हम ऐसे प्रेम को हमेशा हाथ जोड़कर विदा करते रहे। इसमें हमारे हौलूपन का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।<br />
<br />
जब हम एम.ए. में पढ़ रहे थे और भाईसाहब की इच्छा के विरुद्ध अंग्रेजी भाषा और साहित्य की जगह हिंदी भाषा और साहित्य पढ़ रहे थे, तब एक दिन अचानक हमने पाया कि हम प्रेम के कवि हैं। हुआ यह कि कॉलेज की वार्षिक पत्रिका के लिए छात्रों से रचनाएँ माँगी गयीं, तो हमने ‘यह तो प्रेम नहीं’ शीर्षक से पाँच खंडों वाली एक कविता लिखी और उन प्रोफेसर साहब के पास ले गये, जो पत्रिका के हिंदी खंड के संपादक थे। वे हिंदी के प्रोफेसर ही नहीं, साहित्यकार भी थे। जिस समय हम उनके पास गये, कॉलेज में छुट्टी होने का समय था और वे स्टाफ रूम में अकेले बैठे छात्रों की रचनाएँ पढ़ रहे थे। वे हमें पढ़ाते थे, जानते थे और अच्छा विद्यार्थी मानते थे। उन्होंने सरसरी नजर से हमारी कविता देखी और कहा, ‘‘बैठो।’’<br />
<br />
स्टाफ रूम में छात्र जा तो सकते थे, शिक्षकों से बातचीत भी कर सकते थे, लेकिन खड़े-खड़े ही। इसलिए हम बैठने का आदेश पाकर भी खड़े ही रहे। उन्होंने फिर बैठने के लिए कहा, तो हम सकुचाते हुए उनसे कुछ हटकर उसी सोफे पर बैठ गये, जिस पर वे बैठे थे। उन्हांेने हमारी कविता ध्यान से पढ़ी और पूछा, ‘‘प्रेम किया है?’’<br />
<br />
‘‘जी, नहीं।’’ हमने दोटूक उत्तर दिया।<br />
<br />
‘‘और प्रेम पर कविता लिखते हो!’’ उन्होंने व्यंग्यपूर्वक कहा।<br />
<br />
‘‘यह कविता प्रेम पर नहीं है, सर!’’ हमने विनम्र किंतु मजबूत स्वर में कहा, ‘‘इसका शीर्षक ही है ‘यह तो प्रेम नहीं’।’’<br />
<br />
‘‘जो प्रेम नहीं है, उसे वही कहो, जो वह है।’’ हमें लगा कि हमारी कविता अस्वीकृत हो गयी, लेकिन उन्होंने कहा, ‘‘लो, इसे ले जाओ। यह एक कविता नहीं, पाँच अलग-अलग कविताएँ हैं। इनके अलग-अलग शीर्षक दो। सोचो कि जो प्रेम नहीं है, वह क्या है। उसे वही नाम दो, जो वह वास्तव में है।’’<br />
<br />
हम कविता लेकर उठने लगे, तो उन्होंने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘तुम्हारी ये कविताएँ तो हम कॉलेज की पत्रिका में छाप देंगे। लेकिन तुम कुछ ऐसी कविताएँ लिखो, जिनमें प्रेम हो और जिन्हें प्रेम की कविताएँ कहा जा सके। अच्छी होंगी, तो उन्हें हम किसी साहित्यिक पत्रिका में प्रकाशित करायेंगे।’’<br />
<br />
हमने उस कविता की पाँच कविताएँ तो बनायीं, लेकिन शीर्षक एक ही रखा--‘प्रवंचना: पाँच कविताएँ’। उनके शीर्षक हमने अलग-अलग रखे: प्रवंचना-1, प्रवंचना-2, प्रवचंना-3 इत्यादि। यह काम आसानी से हो गया, लेकिन प्रेम कविताएँ लिखने में बड़ी मुश्किल पड़ी। अंततः हमने ‘मूर्खता-1’ और ‘मूर्खता-2’ शीर्षक से दो कविताएँ लिखीं। पहली कविता हमने अपनी ममेरी बहन से प्रेम निवेदन करने की मूर्खता पर लिखी और दूसरी अपनी इंग्लिश टीचर को सुध-बुध भूलकर एकटक देखते रहने की मूर्खता पर।<br />
<br />
साहित्यकार प्रोफेसर हमारे दोनों कारनामों से खुश हुए। उन्होंने हमारी पहली पाँच कविताएँ कॉलेज मैगजीन में छापीं और दूसरी दो कानपुर से ही निकलने वाली एक साहित्यिक पत्रिका में छपवायीं। आश्चर्य कि उन दो कविताओं के छपते ही हम प्रेम के कवि मान लिये गये।<br />
<br />
इस प्रकार हमने प्रेम का चौथा पाठ पढ़ा: प्रेम के नाम पर ऐसा बहुत कुछ होता है, जो प्रेम नहीं होता और प्रेम मूर्खता कहलाने पर भी प्रेम ही रहता है।<br />
<br />
एम.ए. फाइनल में हमारे साहित्यकार प्रोफेसर हमें मध्यकालीन काव्य और उसका इतिहास पढ़ाते थे। जब से उन्होंने हमारी कविताएँ प्रकाशित करायी थीं, हम उन्हें अपना साहित्यिक गुरु मानने लगे थे। वे प्रगतिवादी माने जाते थे, लेकिन हमें वे खासे परंपरावादी लगते थे। हम से कहते थे, ‘‘अच्छे कवि बनना चाहते हो, तो मध्यकालीन काव्य को ध्यान से पढ़ो। रीतिकाल और भक्तिकाल की कविता को समझे बिना तुम न तो हिंदी कविता को समझ सकते हो, न हिंदी में अच्छी कविता लिख सकते हो--खासकर प्रेम कविता--क्योंकि प्रेम और प्रेम कविता के अच्छे-बुरे तमाम तरह के रूप तुम्हें उसी में मिलेंगे, जिनसे तुम यह सीख सकते हो कि अच्छी प्रेम कविता क्या होती है। और देखो, एम.ए. के पाठ्यक्रम में जितना रीतिकालीन और भक्तिकालीन काव्य लगा हुआ है, उतना ही पढ़ने से दूसरे छात्रों का काम शायद चल जाये, तुम्हारा चलने वाला नहीं है। इसलिए उसे विस्तार से और गहराई से पढ़ो। उसके साथ-साथ उस समय के इतिहास को भी पढ़ो। वह जिन भाषाओं में लिखा गया है, उनके विकास और ह्रास को भी पढ़ो। इसके लिए तुम्हें एक तरफ संस्कृत की तरफ जाकर हिंदी तक आना पड़ेगा और दूसरी तरफ अरबी-फारसी की तरफ जाकर उर्दू तक आना पड़ेगा। और यह काम एक-दो या दस-बीस साल का नहीं, जिंदगी भर का काम है। बड़ा काम है। बोलो, करना चाहोगे?’’<br />
<br />
‘‘चाहें, तो क्या कर पायेंगे?’’ हमने डरते-डरते पूछा।<br />
<br />
‘‘मन से चाहोगे, तो कर पाओगे।’’<br />
<br />
‘‘तो बताइए, कहाँ से शुरू करें?’’<br />
<br />
‘‘उर्दू आती है?’’ उन्होंने पूछा, लेकिन अगले ही क्षण शायद हमारी पारिवारिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखकर बोले, ‘‘कहाँ से आती होगी! लेकिन उर्दू सीखना ज्यादा मुश्किल नहीं है। जल्दी सीख जाओगे। हम अपने एक मित्र का पता तुमको देते हैं। उनके पास चले जाओ। वे उर्दू साहित्य के जानकार ही नहीं, खुद भी उर्दू के शायर हैं। उनको उस्ताद बनाकर उर्दू शायरी पढ़ोगे, तो हिंदी में अच्छी प्रेम कविता लिखना अपने-आप सीख जाओगे।’’<br />
<br />
उनके दिये पते पर कॉमरेड अंसारी को खोजते हुए हम जहाँ पहुँचे, वह कानपुर का एक ऐसा इलाका था, जो हमने अभी तक नहीं देखा था। वह औद्योगिक क्षेत्र की एक मजदूर बस्ती थी।<br />
<br />
कॉमरेड अंसारी ने हमारा परिचय पाकर स्वागत करते हुए कहा, ‘‘अहा, आ गये आप! आपके प्रोफेसर साहब ने फोन पर हमें बता दिया था कि आप आयेंगे। कहिए, पहले कभी आप इस तरफ आये हैं?’’<br />
<br />
‘‘जी, नहीं।’’<br />
<br />
‘‘ठीक तो है!’’ कॉमरेड अंसारी व्यंग्यपूर्ण मुस्कान के साथ बोले, ‘‘आप उस कानपुर में रहते हैं, जो इस कानपुर की तरफ कम ही आता है।’’<br />
<br />
फिर उन्होंने बताया कि यह एक मजदूर बस्ती है, जो तब बसी थी, जब कानपुर एक बड़ा औद्योगिक शहर बना था; जब कानपुर में एक जबर्दस्त मजदूर संगठन और आंदोलन हुआ करता था; जब कानपुर में रहने वाले गरीब और दूर-पास गाँवों-कस्बों के भूमिहीन किसान और कारीगर पहली बार कारखानों के मजदूर बने थे; जब हर धर्म और हर जाति के लोगों ने मिलकर मजदूर आंदोलन खड़ा किया था और सर्वहारा वर्ग की शुरुआती लड़ाइयाँ लड़ी थीं। यों कानपुर अब भी एक औद्योगिक शहर है और यहाँ ऐसी कई मजदूर बस्तियाँ हैं, मगर वह आंदोलन इतिहास बन गया है, जो शहर के दूसरे हिस्सों को ही नहीं, बल्कि देश के दूसरे हिस्सों को भी प्रभावित करके अपने होने का अहसास कराया करता था।<br />
<br />
कॉमरेड अंसारी उस बस्ती के एक पुराने मगर बड़े-से मकान में रहने वाले संपन्न बुजुर्ग थे। पेशे से वकील थे और सिर्फ मजदूरों के मुकद्दमे लड़ते थे। उनकी बेटियों की शादियाँ हो चुकी थीं और बेटों ने दूसरे शहरों में अपने घर बसा लिये थे। वे खुद यहाँ अपनी बेगम, एक नौकर, एक नौकरानी और अपने दफ्तर के एक सहायक के साथ रहते थे। वकालत अब ज्यादा नहीं चलती थी, फिर भी गुजर-बसर हो रही थी। फालतू वक्त काफी बचता था, सो उसमें वे पढ़ने और लिखने का काम करते थे।<br />
<br />
अपने बारे में विस्तार से बताकर उन्होंने हमारे बारे में, हमारी पढ़ाई-लिखाई के बारे में, हमारे घर-परिवार के बारे में और अंततः हमारे कविता लिखने के बारे में पूछा।<br />
<br />
शायद हमारे द्वारा दी गयी जानकारी से संतुष्ट होकर उन्होंने कहा, ‘‘आप प्रेम की कविता लिखना चाहते हैं, तो प्रेम कीजिए। करते हैं? अभी नहीं? कोई बात नहीं, हम उस प्रेम की बात कर भी नहीं रहे। हम उस प्रेम की बात कर रहे हैं, जो खुद से किया जाता है; जो हमें अपनी खुदी से मिलाता है और बेखुदी तक ले जाता है। खुदी के बारे में इकबाल का शेर आपने सुना होगा--‘खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले, खुदा बंदे से खुद पूछे, बता तेरी रजा क्या है।’ खुदी को बुलंद करने का मतलब है खुद को इतना बड़ा बना लेना कि आप सारी दुनिया से, सारी कायनात से प्यार कर सकें। मगर इसका मतलब खुदा बन जाना या खुद को खुदा समझने लगना नहीं है। खुदा कौन है, क्या है, आप यह जानने के चक्कर में न पड़ें। उसे न कोई जान सका है, न जान ही सकता है। जिस चीज को आप जानते नहीं और जान भी नहीं सकते, वह चीज आप कैसे बन सकते हैं? बन नहीं सकते और फिर भी समझते हैं कि आप वह हैं, तो समझिए कि आप से बड़ा बेवकूफ कोई नहीं। खुदी को बुलंद करने का मतलब अहंकार नहीं है, खुद को औरों से या सबसे बड़ा समझने लगना नहीं है; बल्कि खुद को ऐसी ऊँचाई तक ले जाना है, जहाँ से आप सारी कायनात को देख सकें, उसे बाँहों में लेकर उससे प्यार कर सकें। जो वहाँ पहुँच जाता है, वह खुद को भूल जाता है। यही बेखुदी है। और दुनिया भर की अच्छी प्रेम कविता इसी बेखुदी के आलम में लिखी गयी है।’’<br />
<br />
इस प्रकार हमने प्रेम का पाँचवाँ पाठ पढ़ा। लेकिन वह ऐसा निकला कि खत्म ही नहीं होता। उसे हम आज तक पढ़ रहे हैं और शायद ताउम्र पढ़ते ही रहेंगे।<br />
<br />
<span style="color: blue;"><b>--रमेश उपाध्याय </b></span></div>
ramesh upadhyayhttp://www.blogger.com/profile/05054633574501788701noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-1496071818736613491.post-14656895775738994752015-05-01T09:02:00.000-07:002015-05-01T09:02:36.723-07:00अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;"><i>'बेहतर दुनिया की तलाश' पर आज प्रस्तुत है मेरा लेख 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ'। यह लेख प्रसिद्ध पत्रिका 'नवनीत के मई, 2015 के अंक की आवरण कथा 'बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे' के अंतर्गत प्रकाशित हुआ है, जिसमें मेरे लेख के अलावा संपादक विश्वनाथ सचदेव, प्रियंवद, न्यायमूर्ति चंद्रशेखर धर्माधिकारी और रमेश नैयर के लेख भी हैं. --<b>रमेश उपाध्याय </b></i></span><br /><br /><br />मैं साहित्य के साथ-साथ पत्रकारिता तथा उच्च शिक्षा के क्षेत्रों में भी सक्रिय रहा हूँ। तीनों क्षेत्रों में मैंने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रश्न का सामना किया है। आम तौर पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ‘‘बोलने की आजादी’’ के रूप में समझा जाता है, लेकिन वह सिर्फ बोलने की आजादी नहीं, उसमें और भी कई चीजें आती हैं। भाषण या वक्तव्य देने से लेकर लिखने और पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित करने, चित्र और व्यंग्य चित्र बनाकर उन्हें प्रदर्शित और प्रकाशित करने, नाटक और नुक्कड़ नाटक लिखने-करने, डॉक्यूमेंटरी और फीचर फिल्में बनाने-दिखाने, रेडियो और टेलीविजन के कार्यक्रम प्रस्तुत करने, सार्वजनिक मंच या सोशल मीडिया पर दूसरों से सहमत-असहमत होते या मतभेद और विरोध प्रकट करते हुए अपने विचार व्यक्त करने, सड़कों पर जुलूस निकालने और नारे लगाने, धरना-प्रदर्शन और घेराव-हड़ताल करने, साहित्यिक-सांस्कृतिक आंदोलन चलाकर और सामाजिक-राजनीतिक संगठन बनाकर मनुष्य को बेहतर मनुष्य तथा दुनिया को बेहतर दुनिया बनाने तक के विभिन्न काम करने की स्वतंत्रता। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br />अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को इस व्यापक अर्थ में समझने पर ही उसके दमन या हनन और उसे प्राप्त करने के लिए किये जाने वाले संघर्ष का अर्थ समझ में आता है। 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजंेसी और सेंसरशिप लगाकर केवल प्रेस की आजादी पर प्रतिबंध नहीं लगाया था। उन्होंने उसके जरिये नागरिक स्वतंत्रताओं और जनता के जनवादी अधिकारों का हनन भी किया था। वह इमरजेंसी तो 1977 में हट गयी, लेकिन एक अघोषित इमरजेंसी और सेंसरशिप अब भी लगी हुई है, जो उत्तरोत्तर सघन होती जा रही है। उसके अंतर्गत कभी कानून बनाकर और अक्सर गैर-कानूनी तरीकों से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन और हनन किया जाता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />कानून बनाकर ऐसा करने का उदाहरण है 2008 में भारत सरकार द्वारा सन् 2000 के सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम में धारा 66-ए को जोड़ा जाना (जिसे अभी मार्च, 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाया गया अनुचित अंकुश मानकर निरस्त किया है)। इस धारा के अनुसार पुलिस को यह अधिकार था कि वह चाहे जिस अभिव्यक्ति को अपराध मानकर दमनात्मक कार्रवाई कर सके। उदाहरण के लिए, फेसबुक पर एक टिप्पणी लिखने वाली लड़की को ही नहीं, उस टिप्पणी को ‘लाइक’ करने वाली एक दूसरी लड़की को भी पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। सर्वोच्च न्यायालय ने इस धारा को निरस्त कर दिया, बहुत अच्छा किया। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />लेकिन गैर-कानूनी तरीकों से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जो दमन और हनन किया जाता है, उसका क्या? पिछले काफी समय से धार्मिक या सांप्रदायिक आधारों पर बने विभिन्न प्रकार के लोगों के समूह और संगठन लेखकों, कलाकारों, संस्कृतिकर्मियों, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं, अखबारों और टी.वी. चैनलों के दफ्तरों आदि पर लगातार और उत्तरोत्तर बड़ी संख्या में हमले कर रहे हैं। यह एक प्रकार की अघोषित इमरजेंसी और नितांत गैर-कानूनी, बल्कि आपराधिक किस्म की सेंसरशिप है, जिससे किसी लेखक-पत्रकार को खामोश कर दिया जाता है, किसी अखबार या टी.वी. चैनल का स्वर बदल दिया जाता है, किसी कलाकार को देश छोड़कर दूसरे देश में जा बसने को मजबूर कर दिया जाता है, किसी सामाजिक या राजनीतिक कार्यकर्ता को जान से मार दिया जाता है, तो किसी साहित्यकार को जीते-जी अपनी साहित्यिक मृत्यु की घोषणा करने के लिए बाध्य कर दिया जाता है। इस इमरजेंसी और इस सेंसरशिप के रहते अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का क्या अर्थ रह जाता है? </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />इंदिरा गांधी द्वारा थोपी गयी इमरजेंसी का विरोध करने वाले लोगों के बीच हिंदी कवि गजानन माधव मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे में’ की ये पंक्तियाँ बहुत लोकप्रिय हुई थीं : </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे <br />उठाने ही होंगे।<br />तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />अब फिर से ये पंक्तियाँ दोहरायी जाने लगी हैं, तो एक प्रकार से यह अच्छी ही बात है। लेकिन मुझे लगता है कि इन पंक्तियों का वास्तविक अर्थ न तब समझा गया था, न अब समझा जा रहा है। मुझे याद है कि इमरजेंसी के दौरान इन पंक्तियों को अक्सर दोहराने वाले एक पत्रकार मित्र से मैंने पूछा था कि ‘‘अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने’’ और ‘‘मठ और गढ़ सब तोड़ने’’ का क्या अर्थ है। उनका उत्तर था, ‘‘प्रेस की आजादी के लिए हम सारे खतरे उठाकर भी लड़ेंगे’’ और ‘‘जिस सरकार ने यह इमरजेंसी लगायी है, उसे बदलकर रख देंगे’’। सीमित अर्थों में उनका उत्तर सही था, लेकिन मैं उससे संतुष्ट नहीं था। एक दिन मैंने उन्हें मुक्तिबोध की पूरी कविता सुनाकर पूछा कि इसमें जो ‘‘रक्तालोक स्नात-पुरुष’’ है, जिसे मुक्तिबोध ने ‘‘रहस्यमय व्यक्ति’’ कहा है, उसे ध्यान में रखते हुए बताइए कि कविता की इन पंक्तियों का क्या अर्थ है : </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />वह रहस्यमय व्यक्ति <br />अब तक न पायी गयी मेरी अभिव्यक्ति है, <br />पूर्ण अवस्था वह <br />निज-संभावनाओं, निहित प्रभाओं, प्रतिभाओं की <br />मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव, <br />हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह, <br />आत्मा की प्रतिमा। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />पत्रकार मित्र बेचारे क्या बताते! मैं तीन दशकों तक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी का प्राध्यापक रहा हूँ और मैंने हिंदी के कई प्रख्यात प्रोफेसरों तथा अग्रणी आलोचकों को इस कविता का अनर्थ करते देखा है। यहाँ कविता की व्याख्या करने का अवकाश नहीं है, इसलिए मैं संक्षेप में और संकेत में कहना चाहता हूँ कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ केवल ‘‘बोलने की आजादी’’ या ‘‘प्रेस की आजादी’’ नहीं, कुछ और है। उसका वास्तविक अर्थ मनुष्य को अभी तक प्राप्त अभिव्यक्ति की क्षमता के आधार पर नहीं, बल्कि ‘‘अब तक न पायी गयी’’ अभिव्यक्ति की क्षमता के आधार पर ही समझा जा सकता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />मेरे विचार से मुक्तिबोध यह कहना चाहते हैं कि मनुष्य अब तक अपनी संपूर्ण प्रगति और उन्नति के बावजूद पूर्ण मनुष्य नहीं बन पाया है, जबकि उसके जीवन का उद्देश्य पूर्ण मनुष्य बनना ही है। मनुष्यता की पूर्ण अवस्था वह है, जिसमें मनुष्य की अपनी संभावनाओं का, उसमें ‘‘निहित प्रभाओं, प्रतिभाओं’’ का ‘‘परिपूर्ण आविर्भाव’’ हो। जब तक ऐसा नहीं है, तब तक मनुष्य अपूर्ण है, आधा-अधूरा है, उसकी अभिव्यक्ति भी आधी-अधूरी है; क्योंकि वह अपूर्ण मनुष्य होने के कारण अपनी मनुष्यता की पूर्ण अभिव्यक्ति में सक्षम नहीं है। वर्तमान समाज और राज्य की व्यवस्था में मनुष्य को अभिव्यक्ति की जो क्षमता प्राप्त है, वह अपूर्ण है, अविकसित है। वह भविष्य की किसी बेहतर व्यवस्था में ही पूर्ण रूप से विकसित होगी। मनुष्य अपनी अभिव्यक्ति में तभी स्वतंत्र होगा, जब वह पूर्ण मनुष्य बनकर अपनी ‘‘अब तक न पायी गयी अभिव्यक्ति’’ को प्राप्त कर लेगा। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />इस प्रकार देखें, तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ है मनुष्य का मनुष्य होना और अपनी मनुष्यता को व्यक्त करने में सक्षम होना। लेकिन जो भूखा है, बीमार है, अशिक्षित है, बेरोजगार है, हर तरह से लाचार है और पशुओं का-सा जीवन जीता है, उसे आप अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दे भी दें, तो वह उसका क्या करेगा? वह स्वयं को व्यक्त करना चाहे और कर भी सके, तो क्या व्यक्त करेगा? कल्पना कीजिए कि आप एक ऐसे आदमी को देखते हैं, जो बेघर और बेरोजगार है, जो माँगकर या चुराकर या छीनकर या कूड़े-कचरे में से कुछ बीनकर खाता है। आप उसके पास जाते हैं और कहते हैं कि ‘‘तुझे बोलने की आजादी है, बोल, क्या बोलना है तुझे’’, तो वह क्या बोलेगा? बहुत मुमकिन है कि वह आपसे भीख माँगेगा और भीख न मिलने पर गंदी गालियों से आपको नवाजेगा। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />दुर्भाग्य से हमारे देश में, और आज की पूरी दुनिया में भी, ऐसे ही अमानुषिक बना दिये गये लोगों की संख्या सबसे ज्यादा है। इसी अनुपात में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या मनुष्यता की अभिव्यक्ति सबसे कम है। जो मनुष्य पशुवत जीवन जी रहा है, वह अपनी मनुष्यता की अभिव्यक्ति कैसे करेगा? वह तो पशुता को ही व्यक्त करेगा। अतः उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देने का अर्थ है पहले उसे पशु से मनुष्य बनाना और फिर उसे अपनी मनुष्यता की अभिव्यक्ति में सक्षम बनाते हुए पूर्ण मनुष्यता की ओर ले जाना। यह काम आज की पूँजीवादी विश्व-व्यवस्था नहीं कर सकती, क्योंकि वही तो मनुष्यों को ऐसा अमानुषिक बनाती है। अतः यह हमारी, हम सबकी, जिम्मेदारी है। भाग्य, भगवान, सरकार या खुद उस अभागे पर यह जिम्मेदारी डालकर हम अपनी अभिव्यक्ति में स्वतंत्र होकर भी वास्तव में क्या व्यक्त करते हैं? कम से कम मनुष्यता तो नहीं ही! </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />दूसरी तरफ उन लोगों को देखें, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सबकी नहीं, सिर्फ अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के रूप में देखते हैं। उन्हें लगता है कि जो हम जैसा नहीं है, वह मनुष्य नहीं है। जो हमारे धर्म का, हमारी जाति का, हमारी पार्टी का या हमारे विचारों का नहीं है, वह कोई मानवेतर प्राणी है, जो हमारा शत्रु है, और हमारा यह अधिकार है कि हम उसे या तो अपने वश में करके अपना गुलाम या पालतू पशु बना लें, या उसे मार डालें। आजकल अपने देश में, और दूसरे तमाम देशों में भी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का यही रूप होता जा रहा है और इसकी भयानकता बढ़ती ही जा रही है। इसे हम सरेआम बरती और फैलायी जाने वाली घृणा, असहिष्णुता, हिंसा, बर्बरता, आतंकवाद आदि के विभिन्न रूपों में रोज देखते हैं। ऐसे लोगों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ समझाना और उन्हें उनकी मनुष्यता की याद दिलाकर अमानुषिक कृत्यों से विरत करना भी हमारी, हम सबकी, जिम्मेदारी है। उन्हें मनुष्य बनाने की जिम्मेदारी हम उन व्यवस्थाओं पर नहीं डाल सकते, जो खुद ही उन्हें अमानुषिक, नृशंस और बर्बर बनाने के लिए जिम्मेदार हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />मेरे विचार से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ है स्वयं अपनी मनुष्यता को बचाते और बढ़ाते हुए दूसरों को मनुष्य बनाना। यह एक आदर्श है, किंतु असंभव आदर्श नहीं। खोजने चलें, तो हमें आज की घोर अमानुषिक परिस्थितियों में भी मनुष्यता के उदाहरण मिल जायेंगे। मसलन, आप उन लोगों को देखें, जो शिक्षित हैं, सुसंस्कृत हैं, सृजनशील हैं, सभ्य और शिष्ट हैं, उदार और सहिष्णु हैं और जो घर-बाहर दोनों जगह आजादी, बराबरी और भाईचारे के जनतांत्रिक मूल्यों के अनुसार आचरण करते हैं। ऐसे लोग दुर्लभ नहीं हैं। खोजने चलेंगे, तो आप पायेंगे कि आपके आसपास ही ऐसे अनेक लोग हैं, जो आपके धर्म, आपकी जाति या आपकी-सी राजनीति वाले न होकर भी आपको मनुष्य मानते हैं। आप पायेंगे कि वे आपसे अपनी भिन्नता के आधार पर आपको अपने वश में करके अपना गुलाम या पालतू पशु बनाना अथवा ऐसा न कर पाने पर आपको मार डालना कत्तई न चाहते होंगे। वे ‘‘सर्वाइवल ऑफ दि फिटेस्ट’’ की जगह सब मनुष्यों को समान मानकर ‘‘जियो और जीने दो’’ वाली बात में, ‘‘मारो-खाओ हाथ न आओ’’ की जगह ‘‘दुनिया को बेहतर बनाओ’’ वाली बात में और ‘‘सबसे बड़ा रुपैया’’ की जगह ‘‘प्रेेम से बढ़कर कुछ नहीं’’ वाली बात में विश्वास करते होंगे। वे दूसरों में दोष और बुराइयाँ ही नहीं, गुण और अच्छाइयाँ भी देखते होंगे। हर बुराई या खराबी के लिए समाज या सरकार को जिम्मेदार ठहराने की जगह कुछ बुराइयों और खराबियों के लिए खुद को भी जिम्मेदार मानते होंगे। वे समाज या राज्य की व्यवस्था को डंडे के जोर पर ठीक कर सकने वाले किसी तानाशाह को देश का शासक बनाने वाली बात की जगह जनतंत्र को सच्चा जनतंत्र बनाने तथा उसे बचाने-बढ़ाने वाली बात में विश्वास करते होंगे। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />आप पायेंगे कि आपके आसपास ऐसे लोग हैं और वे कम नहीं हैं। विश्वास न हो, तो उन लोगों को देखें, जिन्हें अपने परिजनों से स्नेह और गुरुजनों से प्रोत्साहन मिला है। जिन्हें अच्छे मित्रों का साथ और सहयोग प्राप्त है। जिन्होंने प्रेम किया है और प्रेम पाया है। जो ज्ञान-विज्ञान में निपुण और साहित्य-संगीत आदि के प्रेमी हैं। जिनके विचार ऊँचे और सामाजिक सरोकार बड़े हैं। जो स्वहित के साथ सर्वहित के लिए भी सक्रिय रहते हैं। जो अपने भविष्य के साथ-साथ अपने पड़ोसियों और देशवासियों के भविष्य के बारे में भी सोचते हैं। जो स्वयं को पूर्ण मनुष्य बनाने के साथ-साथ दुनिया के सभी मनुष्यों को पूर्ण मनुष्य बनाने का स्वप्न देखते हैं और उस स्वप्न को साकार करने के लिए अभिव्यक्ति की जो भी और जैसी भी स्वतंत्रता उन्हें प्राप्त है, उसका सदुपयोग करते हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />ऐसे लोग बोलेंगे, तो क्या बोलेंगे? वे एक तरफ मनुष्यों को अमानुषिक बनाने वाली व्यवस्था की आलोचना करेंगे, तो दूसरी तरफ अमानुषिक बना दिये गये लोगों को याद दिलायेंगे कि तुम्हें तुम्हारी मनुष्यता से वंचित कर दिया गया है, या पूर्ण मनुष्य बनने से रोक दिया गया है, इसलिए इस व्यवस्था को बनाये रखने के बजाय इसे बदलो। इस दुनिया को एक बेहतर दुनिया बनाओ। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />लेकिन स्थापित व्यवस्थाएँ, चाहे वे किसी भी देश की हों, ऐसी स्वतंत्र अभिव्यक्ति को अपने लिए खतरनाक मानती हैं और उसका दमन करती हैं। ऐसी स्वतंत्र अभिव्यक्ति से उनके वे सब मठ और गढ़ असुरक्षित हो जाते हैं, जिनमें बैठकर वे मनुष्यों को अमानुषिक, गुलाम या पालतू पशु बनाती हैं। वे उनकी रक्षा के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन और हनन और तेजी से करती हैं। इससे अभिव्यक्ति के लिए जो खतरे पैदा होते हैं, एक नहीं अनेक होते हैं। इसीलिए मुक्तिबोध ‘‘सारे खतरे’’ उठाने की बात करते हैं। स्थापित व्यवस्था के मठ और गढ़ भी अनेक और कई प्रकार के होते हैं। इसीलिए मुक्तिबोध उन ‘‘सब’’ को तोड़ने की बात करते हैं। <br />इस प्रकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ है ऐसी बात बोलना, जिससे बोलने वाले की मनुष्यता व्यक्त होती हो और उसके साथ-साथ दुनिया के सभी मनुष्यों के लिए ‘‘अब तक न पायी गयी अभिव्यक्ति’’ को पाने की संभावना पैदा होती हो। <br /><br /></div>
</div>
ramesh upadhyayhttp://www.blogger.com/profile/05054633574501788701noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1496071818736613491.post-87915647201680853442015-03-15T08:28:00.000-07:002015-03-15T08:31:36.365-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #990000;"><span style="font-size: small;"><b>'परिकथा' के नवलेखन अंक (जनवरी-फरवरी, 2015) में प्रकाशित कुछ कहानियों के संदर्भ में आज की हिंदी कहानी पर कुछ विचार </b></span></span><br />
<br />
<br />
<b><span style="color: #990000; font-size: x-large;"><span style="color: red;">हिंदी कहानी में फिर एक नया बदलाव</span></span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<span style="color: blue;"><span style="font-size: large;">रमेश उपाध्याय</span></span><br />
<br />
<br />
दस साल पहले, 2005 में, मैंने एक लेख लिखा था ‘आगे की कहानी’, जो मेरी पुस्तक ‘साहित्य और भूमंडलीय यथार्थ’ (2008) में संकलित है। उसमें मैंने लिखा था : </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<i>देखते-देखते कहानी क्या, दुनिया ही बदल गयी। पूँजीवादी भूमंडलीकरण की प्रचंड आँधी पहले का बहुत कुछ उड़ा ले गयी। यहाँ तक कि सोवियत संघ जैसी ‘महाशक्ति’ भी उसमें ध्वस्त हो गयी और आत्मनिर्भरता की बात करने वाले हमारे देश में निजीकरण तथा उदारीकरण की तेज धूल भरी हवाएँ चलने लगीं, जिनके कारण समाजवाद का सपना तो धूमिल हुआ ही, जनवाद को भी बेकार बताने और बनाने के सिलसिले शुरू हो गये। ‘जनवादी कहानी’ साहित्य में ‘आउट ऑफ फैशन’ हो गयी और ‘जादुई यथार्थवाद’ का नया फैशन चल पड़ा। </i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i><br />ऐसा लगने लगा, जैसे कल तक जो सामाजिक यथार्थ कहानी में आ रहा था, वह किसी जादू के जोर से अचानक गायब हो गया हो! जैसे भूख, गरीबी, बीमारी, बेरोजगारी, शोषण, दमन, उत्पीड़न आदि की समस्याएँ छूमंतर हो गयी हों! शोषक-उत्पीड़क पूँजीपतियों और भूस्वामियों को मानो आम माफी मिल गयी हो और वामपंथी-जनवादी लोग ही कटघरे में खड़े किये जाने लायक रह गये हों! कल तक हिंदी का जो कहानीकार प्रेमचंद, निराला और मुक्तिबोध के नाम जपता हुआ दबे-कुचले, सताये हुए मजदूरों, किसानों और मध्यवर्गीय मेहनतकश स्त्री-पुरुषों को क्रांति का हिरावल दस्ता समझता था, वह मानो गरीब ‘हिंदीवाला’ से अचानक अमीर अंग्रेजी वाला हो गया और किसी ऊँचे आसन पर बैठकर हिंदी के लेखकों पर हिकारत के साथ हँसने लगा। यथार्थ को समझने और बदलने से संबंधित गंभीर चिंताएँ मानो एकाएक ही बेमानी हो गयीं और खिलंदड़ापन ही सबसे बड़ा साहित्यिक मूल्य बन गया। हिंदी के बहुत-से कहानीकार एकदम पलटकर जनोन्मुख से अभिजनोन्मुख हो गये। वे अपनी कहानियों में अभिजनों की-सी भाषा बोलने लगे तथा अभिजनों के प्रिय विषयों पर चटपटी कहानियाँ लिखने लगे। </i></div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
लेकिन अब लगता है कि हिंदी कहानी में फिर एक नया बदलाव आ रहा है, फिर से एक नयापन दिखायी दे रहा है। अनुभववादी और कलावादी फैशनों से हटकर यथार्थवादी कहानियाँ लिखी जा रही हैं। उनके पात्र स्त्री, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक आदि सभी तरह के हैं, लेकिन वे विमर्शवादी कहानियाँ नहीं हैं। उनमें से ज्यादातर कहानियाँ किसी न किसी बड़ी सामाजिक समस्या को उठाती हैं और उसके कारणों को इस प्रकार सामने लाती हैं कि पाठक उसके समाधान के बारे में सोचने को प्रेरित हों। ऐसी कहानियाँ अवसरवादी किस्म के तटस्थतावाद के विरुद्ध लेखकीय पक्षधरता के साथ सामाजिक अंतर्विरोधों को सामने लाती हैं। आज के नये कहानीकार अपनी कहानियों में प्रायः जाने-पहचाने विषयों और प्रश्नों को उठाते हैं, लेकिन नये संदर्भों में उन्हें नये-नये रूपों में सामने लाते हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
उदाहरण के लिए, ‘परिकथा’ के नवलेखन अंक (जनवरी-फरवरी, 2015) की कुछ कहानियों को देखा जा सकता है। ‘परिकथा’ कई वर्षों से नवलेखन अंक निकालती आ रही है और प्रस्तुत अंक के संपादकीय में लिखी गयी संपादक शंकर की इन बातों से शायद ही कोई असहमत होगा कि नये लेखकों को एक साथ मंच पर लाने का यह उपक्रम ‘‘एक दौर की रचनाशीलता को समझने-पहचानने’’ का, ‘‘अपने समय की सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों और उनके समानांतर लेखन-सृजन में उभर रही प्रवृत्तियों को साथ-साथ देखने-परखने’’ का, ‘‘मौजूदा परिस्थितियों में लेखन की सामाजिक भूमिका को समझने’’ का और नये लेखकों के लिए ‘‘आत्म-मंथन तथा आत्म-विश्लेषण’’ का भी उपयुक्त अवसर होता है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए इस अंक की कहानियों को देखा जाये, तो कहानी की रचना और आलोचना में शायद कुछ कदम आगे बढ़ा जा सकता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
इस अंक में नये लेखकों की बीस कहानियाँ हैं। सभी पर एक लेख में विचार करना संभव नहीं, इसलिए मैं केवल पाँच कहानियों की चर्चा करूँगा और इधर हिंदी कहानी में फिर से जो एक नया बदलाव आता दिख रहा है, उसे सामने लाने का प्रयत्न करूँगा। <br />
<br />
<span style="color: #990000;"><span style="font-size: large;"><b>पूस की एक और रात : गंगा सहाय मीणा</b></span></span><br />
<b><span style="color: blue;">प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाने वाली कहानी </span></b><br />
<br />
अद्भुत संयोग है कि हाल ही में ‘पूस की एक और रात’ शीर्षक से हिंदी में दो कहानियाँ लिखी गयी हैं। एक लक्ष्मी शर्मा की, जो पिछले दिनों ‘कथादेश’ में आयी थी और दूसरी गंगा सहाय मीणा की, जो ‘परिकथा’ के प्रस्तुत नवलेखन अंक में प्रकाशित हुई है। यद्यपि दोनों कहानियों के विषय भिन्न हैं और शीर्षक के सिवा कोई और समानता उनमें नहीं है, तथापि एक ही समय में एक ही शीर्षक से दो कहानियों का लिखा जाना सिर्फ संयोग नहीं, बल्कि हिंदी कहानी में एक नये विकास तथा प्रेमचंद की यथार्थवादी कथा-परंपरा को एक बार फिर दृढ़तापूर्वक अपनाकर आगे बढ़ाने के नये संकल्प की सूचना है। यहाँ दोनों कहानियों को साथ रखकर उन पर विचार करने का अवकाश नहीं है, इसलिए मैं गंगा सहाय मीणा की कहानी पर ही बात करूँगा। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
यह कहानी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी ‘पूस की रात’ की याद दिलाती है, लेकिन यह उससे भिन्न बिलकुल आज के (इक्कीसवीं सदी के) भारत के ग्रामीण यथार्थ और किसान जीवन की और विशेष रूप से खेती-किसानी करने वाली स्त्रियों के कठिन जीवन की कहानी है। यह राजस्थान के एक जनजाति बहुल गाँव के जनजातीय किसान परिवार की कहानी है, जिसमें पिता की मृत्यु हो चुकी है, विधवा माँ बूढ़ी है, जिसके दो बेटों में से बड़ा हरकेश गाँव से दो सौ किलोमीटर दूर एक स्कूल में ‘शिक्षामित्र’ के रूप में काम करता है और उसका छोटा भाई बी.ए. करने के बाद जयपुर में प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहा है। हरकेश की युवा पत्नी भूरी तथा बूढ़ी माँ गाँव में खेती-बाड़ी सँभालती हैं। पहले खेतों की सिंचाई गाँव के तालाब और कुओं से होती थी और किसी किसान को पानी की किल्लत नहीं होती थी। लेकिन वर्तमान पूँजीवादी प्रपंच के चलते गाँव की परस्पर सहयोग वाली सामाजिक संरचना ध्वस्त हो गयी है, स्वार्थपरता पनप गयी है, जिसके कारण प्रकृति और पर्यावरण की भारी क्षति हुई है। तालाब का भरना बंद हो गया है, कुएँ सूख गये हैं और जमीन के अंदर गहराई तक बोरिंग करके निकाले गये पानी से खेतों को सींचने का नया चलन चल निकला है। </div>
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भारतीय कृषि व्यवस्था में पूँजीवाद के प्रसार ने प्रेमचंद के समय के भारतीय गाँवों को बिलकुल बदल दिया है। जब गाँवों में हमेशा भरे रहने वाले कुएँ हमेशा के लिए सूख गये, तो ‘‘बड़े किसानों ने बोरिंग करना शुरू किया। बोरिंग से सिंचाई महँगी हुई और मुश्किल भी। एक बोर करने में तीन-चार लाख तक का खर्च सामान्य था। उस पर बोर फेल होने का खतरा अलग। परिणाम यह हुआ कि बोर मालिकों ने दूसरे किसानों के खेतों में सिंचाई कर इस खर्च को निकालना शुरू कर दिया। गाँव में कुल मिलाकर आधा दर्जन ही बोर थे, इसलिए किसानों की भी मजबूरी थी उनसे महँगी रेट पर पानी लेने की। बोर मालिक दिन में अपने खेतों को भराते थे और रात में दूसरे किसानों को पानी देते।’’ </div>
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कहानी यों है कि पूस का महीना है, जब हड्डियों तक को कँपा देने वाला जाड़ा पड़ता है। हरकेश गाँव से दो सौ किलोमीटर दूर अपनी नौकरी पर है और गाँव में उसके सरसों के खेत की भराई (सिंचाई) होनी है। उसकी पत्नी भूरी हफ्ते भर से कोशिश कर रही है कि बोर का मालिक रामजीलाल पटेल, जिसके साथ चार सौ रुपये प्रति घंटे की दर से पानी लेने का सौदा तय हो चुका है, उसके खेत के लिए पानी दे दे। आखिरकार भूरी की सरसों भराने की बारी आ जाती है और रामजीलाल मोबाइल पर ‘‘मिस कॉल करके’’ हरकेश मास्टर को बताता है कि आज रात आठ बजे उसका नंबर है। हरकेश मोबाइल पर गाँव में अपनी पत्नी और माँ से बात करता है कि सरसों आज ही भरा ली जाये। सास बूढ़ी है और भूरी अकेली यह काम कर नहीं सकती, इसलिए तीन सौ रुपये में आधी रात के लिए एक मजूर तय कर लेती है। आठ बजे से पहले वह अपने दोनों बच्चों को खाना खिलाकर सुला देती है और सास तथा मजूर के साथ एक टॉर्च और गैस लेकर खेत पर चली जाती है। भयंकर शीत की रात में वह अपने खेत की सिंचाई करती है। बोर से खेत तक आने वाले पानी के पाइप के टूट जाने पर वह अपने ओढ़े हुए शॉल को ही टूटे हुए पाइप में बाँधकर उसकी मरम्मत करती है। इस प्रक्रिया में वह शीत की रात में पानी की बौछारों में भीग भी जाती है। फिर भी वह पूरे धीरज और परिश्रम के साथ अपना काम पूरा करती है। </div>
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गंगा सहाय मीणा अगर चाहते, तो विगत बीसेक वर्षों से हिंदी कहानी में चल रही चीजों की तर्ज पर इस कहानी को एक जनजाति से संबंधित और पति से दूर गाँव में अकेली रहने वाली स्त्री की कहानी के रूप में लिखकर मजे में जातिवादी या देहवादी किस्म की कहानी बना सकते थे, लेकिन उन्होंने इसे परिवार और खेती को अकेले अपने दम पर सँभालने वाली एक किसान स्त्री की कहानी के रूप में लिखकर सचेत रूप से प्रेमचंद की यथार्थवादी कथा-परंपरा को आगे बढ़ाने का नया प्रयास किया है। कहानी का शीर्षक प्रेमचंद के समय के किसान जीवन के यथार्थ की याद दिलाता है, लेकिन वे कहानी के पहले ही वाक्य में कहानी का ‘काल’ स्पष्ट रूप से बताकर (कि यह ‘‘इक्कीसवीं सदी का पहला दशक बीत जाने के बाद के एक बरस के पूस के महीने’’ की कहानी है) पाठक को सचेत कर देते हैं कि यह हमारे बिलकुल आज के समय के यथार्थ की कहानी है। यह समय निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण का समय है, जिसमें गाँव का और किसान जीवन का यथार्थ बिलकुल बदल गया है। </div>
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यह एक नया यथार्थ है। ग्रामीण जीवन और कृषि कर्म में कई नयी चीजें आ गयी हैं। जनजाति बहुल गाँव के लड़के खेती-किसानी पर निर्भर न रहकर पढ़-लिख रहे हैं और पढ़ा भी रहे हैं। वे गाँव से दूर जाकर नौकरियाँ कर रहे हैं, उच्च शिक्षा पाकर परीक्षाएँ दे रहे हैं और ऊँचे-ऊँचे पदों पर पहुँच रहे हैं। गाँव में पीछे छूटा उनका परिवार भी अब ज्यादा दिन वहाँ नहीं रहने वाला है, क्योंकि देहाती जीवन और कृषि कर्म में उच्च तकनीक वाली बड़ी पूँजी के प्रवेश ने छोटे किसानों का खेती पर निर्भर रहना मुश्किल कर दिया है। पूँजी ने देहाती लोगों को स्वार्थी बना दिया है, जिससे प्रकृति और पर्यावरण का नाश हो गया है। प्राकृतिक संसाधनों के नष्ट हो जाने से किसान नयी तकनीक से खेती करने को विवश है और नयी तकनीक के तार बड़ी भूमंडलीय पूँजी से जुड़े हैं। एक छोटे-से खेत को सींचने के लिए चार सौ रुपये प्रति घंटे की दर से पानी लेना पड़ता है और तीन सौ रुपये में आधी रात के लिए मजदूर करना पड़ता है। कहानी में मोबाइल फोन की भूमिका और ‘‘मिस कॉल’’ वाला व्यंग्य भी गौर करने लायक है। इतनी महँगी खेती के लिए जरूरी है कि किसान अपने लिए अन्न पैदा करने के बजाय बाजार के लिए नकदी फसलें उगाये। (कहानी में भूरी का खेत भी नकदी फसल सरसों का खेत है।) लेकिन जाहिर है कि यह पूँजीवादी विकास ‘सस्टेनेबल’ (टिकाऊ) नहीं है और इसमें छोटे किसान को बर्बाद होना ही है, चाहे वह कर्जदार होकर आत्महत्या करे या खेती और गाँव छोड़कर कहीं और चला जाये, कोई और पेशा अपनाये। </div>
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यह कहानी आज के इसी बदले हुए यथार्थ को सामने लाती है। लेकिन इस बदले हुए यथार्थ के दो पहलू हैं--किसानों के कष्टों और आत्महत्या के प्रयासों वाला निराशाजनक पहलू और गैर-टिकाऊ खेती से जुड़ा ग्रामीण जीवन जीते रहने के बजाय शिक्षित होकर कोई वैकल्पिक और बेहतर जीवन जीने के प्रयासों वाला आशाजनक पहलू। इस कहानी में बदलते हुए यथार्थ के आशाजनक पहलू को सामने लाया गया है। भूरी का जीवन हमेशा ऐसा ही रहने वाला नहीं है। उसका पति पढ़-लिखकर पढ़ाने लगा है, उसका देवर ऊँचे पद पर पहुँचने के लिए तैयारी कर रहा है, उसके बच्चे भी पढ़-लिख जायेंगे, तो गाँव में न रहकर बाहर चले जायेंगे। यह भी हो सकता है कि वे ‘लोकल’ न रहकर ‘ग्लोबल’ हो जायें। </div>
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इस प्रकार यह कहानी ठेठ भारतीय यथार्थ की कहानी होते हुए भी आज के भूमंडलीय यथार्थ की कहानी है और इसका यथार्थवाद प्रेमचंद की यथार्थवादी परंपरा को आगे बढ़ाने वाला भूमंडलीय यथार्थवाद है। <br />
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<span style="font-size: large;"><span style="color: #990000;"><b>तस्वीर के पीछे : प्रज्ञा </b></span></span><br />
<span style="color: blue;"><b>पितृसत्ता के पीछे छिपी अर्थव्यवस्था की कहानी</b></span><br />
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विगत बीसेक वर्षों में दलित विमर्श की भाँति स्त्री विमर्श की कहानियाँ भी हिंदी में खूब लिखी गयीं। दलित लेखन की तर्ज पर स्त्री लेखन की भी एक अलग कोटि बना ली गयी और शेष साहित्य से उसे अलगाकर देखा गया। जिस प्रकार दलित लेखन ब्राह्मणवाद के बजाय सवर्णों के विरुद्ध विद्रोह का लेखन था, उसी प्रकार स्त्री लेखन पितृसत्तावाद के बजाय पुरुषों के विरुद्ध विद्रोह का लेखन बन गया। जिस प्रकार दलित लेखन में जाति सर्वप्रमुख रही, उसी प्रकार स्त्री लेखन में देह सर्वप्रमुख रही। लेकिन दोनों प्रकार के लेखन की सबसे बड़ी सीमा यह थी कि ब्राह्मणवाद और पितृसत्तावाद को सामाजिक समस्याओं के रूप में न देखकर मनोवैज्ञानिक समस्याओं के रूप में देखा गया। दलित लेखन में यह मान्यता प्रचलित रही कि जब तक सवर्णों की मानसिकता नहीं बदलती, तब तक दलितों के प्रति अन्याय होता रहेगा। स्त्री लेखन में यह माना जाता रहा कि जब तक पुरुषों की मानसिकता नहीं बदलती, तब तक स्त्रियों पर अत्याचार होता रहेगा। </div>
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इस मान्यता के मुताबिक मानसिकता को बदलने का उपाय यह माना गया कि दलितों के द्वारा सवर्णों के प्रति और स्त्रियों के द्वारा पुरुषों के प्रति घृणा का प्रचार किया जाये। यह नहीं देखा गया कि समाज की व्यवस्था को बदले बिना लोगों की मानसिकता को नहीं बदला जा सकता। समाज की व्यवस्था को बदलने के लिए जाति और लिंग के आधार पर किये जाने वाले शोषण को समाप्त करना, शोषण को समाप्त करने के लिए वर्गों में बँटी समाज व्यवस्था को बदलना और उसे बदलने के लिए जाति, धर्म, लिंग आदि के भेद भुलाकर वर्गीय शोषण के खिलाफ लड़ना जरूरी है। यह बात प्रगतिशील-जनवादी साहित्यकार शुरू से कहते आ रहे थे, लेकिन दलित और स्त्री लेखकों ने इसे अनसुना तो किया ही, इसका विरोध भी यह कहते हुए किया कि वर्गभेद को समाप्त करने से पहले जातिभेद और लिंगभेद को समाप्त करना जरूरी है और इसके लिए समाज की व्यवस्था से पहले सवर्णों तथा पुरुषों की मानसिकता को बदलना जरूरी है। इस प्रकार उनका लेखन यथार्थ को बदलने के बजाय यथास्थिति को बनाये रखने वाला लेखन बन गया। </div>
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लेकिन इधर की कहानियों में दलितों और स्त्रियों के लेखन में एक बदलाव दिखायी दे रहा है। उदाहरण के लिए, ‘परिकथा’ के प्रस्तुत अंक में प्रज्ञा की कहानी ‘तस्वीर के पीछे’ में स्त्री के प्रति होने वाले अन्याय और अत्याचार को पुरुष मानसिकता से जोड़कर नहीं, बल्कि स्त्री की कमजोर आर्थिक स्थिति से जोड़कर देखा गया है। जैसा कि शीर्षक से ही जाहिर है, यह प्रत्यक्ष दिखायी देते यथार्थ के पीछे छिपे यथार्थ को सामने लाने वाली कहानी है। </div>
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प्रत्यक्ष दिखायी देता यथार्थ यह है कि कहानी की प्रमुख पात्र रानी रूप और गुणों की खान है। वह स्वयं को प्यार करने वाली चाची के परिवार और नाते-रिश्ते के लोगों के बीच सदा हँसती-खिलखिलाती और पूरी मुस्तैदी से, कुशलतापूर्वक तथा हँसते-हँसते काम में जुटी रहती है, जिससे लगता है कि वह एक सुखी और संतुष्ट स्त्री है। लेकिन उसका जीवन दुख भरी कथा है। छोटी उम्र में ही माँ का साया सिर से उठ गया था। पिता और दो अविवाहित भाइयों के खाने-पीने और घर की व्यवस्था का दायित्व उसके जिम्मे आ गया था। पिता ने उसकी पढ़ाई को व्यर्थ समझकर दसवीं के बाद ही स्कूल छुड़ा दिया, कई वर्षों तक विवाह के बाद की जिम्मेदारियों को सँभालने लायक और सिलाई-बुनाई जैसे कामों में पारंगत बनाने के नाम पर उसे घरेलू नौकरानी बनाये रखा और उसके बाद कम खर्च में उसके विवाह की जिम्मेदारी का बोझ सिर से उतारने के लिए उसका विवाह एक कम पढ़े-लिखे, काफी बड़ी उम्र के, कुरूप और क्रूर व्यक्ति से कर दिया। </div>
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शादी से पहले पिता शक करते थे कि रानी किसी के संग भाग न जाये, शादी के बाद रूप-गुण में रानी से हीन पति उस पर शक करने लगा। वह उस पर पहरा बिठाने लगा, बात-बात पर उसे नीचा दिखाने लगा, उसे मारने-पीटने लगा। एक बार मार-पीट के बाद रानी को प्यार करने वाली चाची उसके फोन करने पर उसे अपने साथ ले आयी, तो रानी के सगे भाई अपनी बहन को बहनोई के अत्याचार से बचाने के लिए स्वयं कुछ करने के बजाय चाची से ही लड़ने आ गये कि ‘‘आप क्यों हमारी बहन का घर तुड़वाने पर तुली हैं?’’ रानी कोई चारा न देख पति के पास लौट गयी और उसके सारे अत्याचार सहते हुए अपने बच्चों (एक बेटा, एक बेटी) को प्यार से पालने लगी। उसने तमाम दुखों और कष्टों में भी हँसते-हँसते जीने का पाठ पढ़ लिया कि ‘‘जब कोई रास्ता नहीं है और सब सहना ही है, तो खुश दिखकर ही सह लो सब।’’ </div>
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लेकिन जब उसने देखा कि उसका पति बेटे को तो प्यार करता है, बेटी को प्यार नहीं करता, बल्कि बेटी को खिलाने-पिलाने और पढ़ाने-लिखाने पर होने वाले खर्च पर कुढ़ा करता है, तो उसने ठान लिया कि वह स्वयं अपने सपनों का जो जीवन नहीं जी पायी, वह जीवन उसकी बच्ची जिये। इसके लिए वह पति से छिपाकर भी अपनी बेटी की सारी इच्छाएँ पूरी करती है। उसका पति चाहता है कि बेटी को पढ़ाने-लिखाने के बजाय वह ‘‘उसे अपनी तरह सीना-पिरोना ही सिखा दे।’’ लेकिन रानी अपनी बच्ची को स्कूल भेजने के साथ-साथ कंप्यूटर, डांस और टाइक्वांडो भी सीखने के लिए भेजती है। बेटी रुचिका जब स्कूल में फुटबॉल टीम की कप्तान चुनी जाती है, तो रानी के पति को यह बात इतनी अखर जाती है कि वह खराब खाना बनाने का दोष मढ़कर गुस्से में थाली रानी पर दे मारता है। </div>
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ऐसे अत्याचारों को सहते-सहते रानी जब बीमार हो जाती है, तो उसका पति अपना खर्च बचाने के लिए उचित ढंग से उसका इलाज नहीं कराता। वह रानी को अस्पताल ले जाने के बजाय झाड़-फूँक करने वाले ओझा को घर बुलाकर अपना खर्च बचाने का जतन करता है। रानी की हालत बिगड़ती जाती है और एक दिन रुचिका रानी की स्नेहमयी चाची को फोन करती है, ‘‘नानी, तुरंत आ जाओ, मम्मी आपको बुला रही हैं।’’ चाची आती हैं, तो रानी अपनी बेटी रुचिका को उन्हें सौंप देती है। चाची को आश्चर्य होता है कि रानी का पति ऐसा कैसे होने देगा। लेकिन रानी बताती है कि उसके पति को बेटी की कोई परवाह नहीं है। वह तो बेटी के बारे में कहता है, ‘‘नौकरी करूँगा या लड़की जात को सँभालूँगा? और कुछ जिम्मेदारी तो तेरे घर की भी बनती है आखिर?’’ लेकिन अपने बेटे को अपने पास रखने में उसे कोई ऐतराज नहीं है, क्योंकि बेटा उसके लिए लाभदायक है। </div>
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रानी शुरू से जानती है कि पुरुषों की मानसिकता को नहीं बदला जा सकता, क्योंकि वह मानसिकता आर्थिक हानि-लाभ से जुड़ी है। बेटी को पढ़ाना-लिखाना हानिकर है, उसे मुफ्त की घरेलू नौकरानी बनाकर उससे काम लेना लाभकर। इसी तरह बेटे को अपने पास रखने में फायदा है, जबकि बेटी की जिम्मेदारी दूसरों पर डाल देने में फायदा है। रानी पहले अपने पिता और भाइयों की और बाद में अपने पति की इस अपरिवर्तनीय मानसिकता को जानने के कारण उसे बदलने का प्रयास नहीं करती, लेकिन अपनी बेटी को आत्मनिर्भर बनाकर पति के परिवार की व्यवस्था को ही बदल देती है। </div>
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कहने की जरूरत नहीं कि प्रज्ञा की यह कहानी एक स्त्री के द्वारा स्त्री के बारे में लिखी हुई होने पर भी चालू स्त्री विमर्श से बिलकुल हटकर लिखी गयी कहानी है। इस कहानी की नवीनता और खूबसूरती इसका यथार्थवाद है। प्रगतिशील-जनवादी कहानी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाला यथार्थवाद। इसी यथार्थवाद के जरिये प्रज्ञा नितांत प्रतिकूल परिस्थितियों में भी शोषित-उत्पीड़ित व्यक्ति को साहसपूर्वक जीते और समझौते के बजाय संघर्ष करते हुए दिखाती हैं। कहानी की खूबी यह है कि रानी बाहर से समझौते कर चुकी स्त्री दिखती है, लेकिन भीतर से वह एक मजबूत संघर्षशील स्त्री है।<br />
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<span style="color: #990000;"><span style="font-size: large;"><b>जहाँ कर्फ्यू नहीं लगा है : सत्यम सत्येंद्र पांडेय</b></span></span><br />
<span style="color: blue;"><b>दलित प्रश्न को सांप्रदायिकता से जोड़कर दिखाने वाली कहानी</b></span><br />
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सत्यम सत्येंद्र पांडेय की कहानी ‘जहाँ कर्फ्यू नहीं लगा है’ दलितों के अपमान की तथा उनके साथ होने वाले सामाजिक अन्याय और उनके जनतांत्रिक अधिकारों के सार्वजनिक रूप से किये जाने वाले हनन की समस्या को एक नये रूप में सामने लाती है। </div>
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कहानी हिंदुओं और मुसलमानों के बीच के सांप्रदायिक तनाव, दंगे और शहर में कर्फ्यू लग जाने की खबर से शुरू होती है। कॉलेज में पढ़ने वाला एक दलित युवक राजकुमार अपनी मोटरसाइकिल पर कॉलेज जाने के लिए निकलता है कि शहर की तरफ से बदहवास लौटते उसके एक पड़ोसी उसे शहर में कर्फ्यू लग जाने की खबर देते हैं। मिडिल स्कूल में उसके सहपाठी रहे उसके ये पड़ोसी, जो आठवीं में दूसरी बार फेल होने पर पढ़ाई से तौबा कर चुके थे, कई धंधे चलाकर उनमें असफल हो चुके हैं और अब धर्म रक्षा मिशन के फुलटाइम कार्यकर्ता हैं। राजकुमार उनसे दंगे का कारण पूछता है, तो पाता है कि दंगा हिंदू हुड़दंगियों की वजह से हुआ। वह हुड़दंगियों को गलत बताता है, तो धर्मरक्षक कहते हैं, ‘‘अबे, तुम जैसों के कारण ही तो इन मुसल्लों के हौसले बढ़ते जा रहे हैं। साले तुम हिंदू होकर भी ऐसी बात करते हो, शर्म नहीं आती तुम्हें?’’ </div>
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जवाब में दलित युवक राजकुमार कहता है, ‘‘अरे काहे का हिंदू, कैसी शर्म? अपने घर में तो पानी नहीं दे सकते, मंदिर में घुसने नहीं देते। उस समय क्यों नहीं हिंदू मानते हमको?’’ </div>
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धर्मरक्षक राजकुमार को उसके जाति के नाम से गाली देते-देते रुक जाते हैं, क्योंकि ‘‘जब से हरिजन एक्ट और हरिजन थाने प्रकट हुए हैं, ये पसंदीदा शब्द मुँह से निकालने में डर लगता है।’’ तभी राजकुमार देखता है कि कॉलेज में उसकी सहपाठी दीपाली, जो उसके पड़ोसी पंडित रामधन की पाँच संतानों में सबसे छोटी है, कॉलेज जाने के लिए ऑटोरिक्शा में सवार हो रही है। राजकुमार उसे रोकता है और उससे दो मिनट बात करके उसे अपनी मोटरसाइकिल पर बिठाकर नर्मदा नदी के भेड़ाघाट की ओर चल देता है। धर्मरक्षक धर्म की रक्षा के लिए मोबाइल पर दीपाली के भाइयों को इसकी सूचना दे देते हैं। </div>
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ट्रैक्टर से खेतों की जुताई करके लौटते दीपाली के तीन भाइयों को यह सूचना मिलती है, तो वे ‘‘प्रेम से परिपूर्ण सुखद भविष्य की योजनाएँ बनाते हुए’’ चले जा रहे राजकुमार और दीपाली का रास्ता रोक लेते हैं। वे अनिष्ट के भय से काँपती बहन के सामने ही राजकुमार को लात-घूँसों से पीटने लगते हैं और गालियाँ देते हुए पूछने लगते हैं, ‘‘अब मिलेगा दीपाली से? बिठायेगा कभी मोटरसाइकिल पर?’’ राजकुमार एक नजर दीपाली पर डालता है और अपने प्रेम की शक्ति को संचित करते हुए कहता है, ‘‘हाँ, मिलूँगा। जरूर मिलूँगा।’’ उससे बार-बार यही सवाल पूछा जाता है और वह बार-बार यही जवाब देता है, तो तीनों भाई उसे और पीटते हैं। लेकिन जब वे देखते हैं कि चारों तरफ भीड़ इकट्ठी हो गयी है, तो बहन की बदनामी के डर से दीपाली का नाम लेना तो बंद कर देते हैं, लेकिन राजकुमार को ट्रैक्टर से बाँधकर घसीटते हुए नर्मदा के पुल की ओर चल देते हैं। घिसटते हुए राजकुमार की मर्मांतक चीखों के साथ टैªक्टर पुल पार करता है, जिस पर उसके खून की पट्टी बन जाती है। दीपाली भाइयों की तवज्जो अपनी ओर न देख पुल पर से नदी में छलाँग लगाकर आत्महत्या कर लेती है। </div>
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यह दृश्य जितना भयानक है, उससे भी अधिक भयानक यह है कि हजारों लोगों के सामने दिनदहाड़े एक युवक को ट्रैक्टर से बाँधकर घसीटा और मार डाला जाता है, एक युवती इस अन्याय को सह न पाने के कारण आत्महत्या कर लेती है, लेकिन हजारों की वह भीड़ पूरी तरह खामोश होकर इस दृश्य को देखती रहती है, जबकि यहाँ कोई कर्फ्यू नहीं लगा है। </div>
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यह कहानी दलित प्रश्न को बड़ी शिद्दत से उठाती है, लेकिन चालू दलित विमर्श की कहानियों से भिन्न है। यह केवल सवर्णों और दलितों के बीच के अंतर्विरोध की बात नहीं करती। इसका नयापन यह है कि यह कहानी सामाजिक अन्याय को सांप्रदायिकता की समस्या से जोड़कर देखती है और इन दोनों के बने रहने तथा बढ़ते जाने के कारणों को लोगों में सामाजिक चेतना के अभाव तथा उनकी राजनीतिक हस्तक्षेप न करने वाली निष्क्रियता में खोजती है, जिसके शिकार वे दलित भी हैं, जो सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ते-लड़ते हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक शक्तियों से हाथ मिला लेते हैं। कहानी में जो भीड़ चुपचाप तमाशा देख रही है, क्या उसमें सब सवर्ण ही होंगे? उस नौजवान की अपनी बिरादरी के लोग न होंगे? अवश्य होंगे, लेकिन वे अन्याय होते देखकर भी मूक दर्शक बने रहते हैं, उसका विरोध और प्रतिरोध नहीं करते। </div>
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इस प्रकार यह कहानी आज के इस बृहत्तर यथार्थ की ओर संकेत करती है कि हमारे समाज में ही नहीं, समूचे देश और विश्व में हिंसा और उसके सार्वजनिक प्रदर्शन में बढ़ोतरी हो रही है। युद्धों के रूप में, धर्म के नाम पर की जाने वाली आतंकवादी कार्रवाई के रूप में, राज्य द्वारा की जाने वाली जन-दमनकारी हिंसा के रूप में हम उसे नित्यप्रति देखते हैं, लेकिन चुपचाप, निष्क्रिय होकर देखते रहते हैं। जबकि हिंसा किसी के भी द्वारा किसी के भी प्रति की जा रही हो, उसके विरुद्ध नागरिक अथवा जन-हस्तक्षेप होना ही चाहिए। यह तभी हो सकता है, जब लोगों में सामाजिक चेतना हो और हिंसा के विरुद्ध राजनीतिक हस्तक्षेप करने वाली सक्रियता हो। मगर वर्तमान व्यवस्था इस प्रकार की चेतना और सक्रियता को कुंद करने के लिए धर्म का सहारा लेती है और इसके लिए इस कहानी के धर्मरक्षक जैसे लोगों का इस्तेमाल करती है। </div>
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शहर में जो सांप्रदायिक दंगा हुआ है, वह धर्मरक्षक जैसे लोगों के ही कारण हुआ है। धर्मरक्षक स्वयं भी देशी कट्टा जेब में रखकर वहाँ मुसलमानों को मारने जाता है, लेकिन कर्फ्यू लग जाने के कारण पुलिस द्वारा खदेड़ दिया जाता है। राजकुमार उससे मजाक करता है, ‘‘तो टपका देते दो-तीन पुलिस वालों को ही।’’ तो वह कहता है, ‘‘पुलिस में कौन रहता है बे, सब अपनी ही तरफ के लोग न? काहे मारें उनको?’’ वही धर्मरक्षक जहाँ कर्फ्यू नहीं लगा है, वहाँ ब्राह्मण दीपाली से प्रेम करने वाले चमार राजकुमार को मारने के लिए दीपाली के भाइयों को बुलाता है। अर्थात् दोनों जगह हो रही हिंसा में धर्मरक्षक या उस जैसे लोगों का ही हाथ है। इस दृष्टि से देखें, तो कहानी का धर्मरक्षक नामक चरित्र बहुत महत्त्वपूर्ण और कहानी का शीर्षक बहुत अर्थपूर्ण हो जाता है। </div>
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<span style="color: #990000;"><b><span style="font-size: large;">कबीर का मोहल्ला : मज्कूर आलम</span></b></span><br />
<b><span style="color: blue;">जानी-पहचानी चीजों को नये अंदाज में प्रस्तुत करने वाली कहानी</span></b><br />
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आज के नये लेखक सांप्रदायिकता की समस्या पर नये ढंग से सोचते हैं और उस पर कुछ नये ढंग की कहानी लिखने का प्रयास करते हैं। इसके चलते आज की कहानी में कई बार कुछ नये प्रयोग किये जाते दिखायी देते हैं। उदाहरण के लिए, मज्कूर आलम की कहानी ‘कबीर का मोहल्ला’ को देखा जा सकता है। यह कहानी अत्यंत जानी-पहचानी और बार-बार पढ़ी-सुनी चीजों को एक नये अंदाज में, एक नयी तरतीब देकर पेश करती है और सांप्रदायिक वैमनस्य के विरुद्ध सद्भाव का संदेश देती है। </div>
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कबीर के बारे में किंवदंती है कि हिंदू उन्हें हिंदू मानते थे और मुसलमान मुसलमान। इसलिए जब कबीर की मृत्यु हुई, तो हिंदुओं ने कहा कि वे उनकी चिता जलायेंगे और मुसलमानों ने कहा कि वे उनकी कब्र बनायेंगे। लेकिन दोनांे की मंशा पूरी न हुई, क्योंकि कबीर की लाश फूलों में बदल गयी। यह किंवदंती स्वयं ही सांप्रदायिक सद्भाव का संदेश देती है। मज्कूर आलम ने इसी का इस्तेमाल करते हुए कहानी में एक नया प्रयोग किया है। </div>
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एक मोहल्ला है, जिसमें गली की एक तरफ हिंदू रहते हैं और दूसरी तरफ मुसलमान। यह सांप्रदायिकता पर लिखी जाने वाली कहानियों की एक चिर-परिचित स्थिति है और भारत के कई शहरों-कस्बों की हकीकत भी। कहानीकार भी कहता है कि ‘‘यह जैसा मोहल्ला है, वैसे मोहल्ले गंगा-जमुनी तहजीब वाले वतन के कई शहरों में आपको देखने को मिल जायेंगे।’’ ऐसे मोहल्लों में सांप्रदायिक तनाव तो रहता ही है, इसलिए ‘‘चार-पाँच साल में यहाँ दंगे हो ही जाते हैं।’’ लेकिन ‘‘कमाल की बात है कि तमाम तनावों के बाद भी गली की दोनों तरफ के बीच रिश्ते की डोर भी उतनी ही मजबूत और यकीनी है।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
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ऐसे मोहल्ले में एक दिन एक बच्चा कहीं से चला आया। लोगों से उसका नाम पूछा, तो तोतली भाषा में उसने जो बताया, किसी की समझ में न आया। मोहल्ले के लोगों ने उसे आश्रय दे दिया और वह अलग-अलग दिन अलग-अलग परिवार के साथ रहने लगा। लोगों ने उसे छोटू कहना शुरू कर दिया। बच्चा बड़ा होता गया, लेकिन वह कौन है, कहाँ से आया है, उसकी जाति और धर्म क्या है, कुछ भी पता नहीं चला। ‘‘जब वह थोड़ा बड़ा हुआ, तो मोहल्ले वालों ने ही नीम के पेड़ के नीचे उसके रहने की व्यवस्था कर दी। उसके फूस के छप्पर के ऊपर ही मोहल्ले के नाम का बैनर भी लगा दिया--कबीरगंज।’’ उस बैनर के चलते उस लड़के का नाम कबीर पड़ गया। वह किस जात-मजहब का है, यह तो उसे तब भी नहीं पता था, जब यहाँ आया था और अब वह जानना भी नहीं चाहता था, क्योंकि वह भीख माँगकर गुजारा करता था। यदि वह किसी एक धर्म का हो जाता, तो ‘‘धर्म उसके कर्म के मार्ग की बाधा’’ बन जाता, जबकि किसी भी धर्म का न होने से उसे हिंदू, मुसलमान, सिख और ईसाई सभी धर्मस्थलों के बाहर खड़े होकर भीख माँगने की सुविधा थी। वह किसी धर्म का नहीं था, ‘‘शायद यही वजह थी कि वह गली के दोनों तरफ दुलारा था।’’ जब कोई सांप्रदायिक तनाव भड़काने वाली घटना हो जाती, तो लोग एक-दूसरे पर शक करते, लेकिन कबीर पर कभी शक न करते। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
कहानी उस रात की है, जब भयंकर बारिश हो रही थी और बर्फ पड़ रही थी। कबीर जिस पेड़ के नीचे सोता था, उसके नीचे एक साँड़ बारिश और बर्फ से बचने के लिए आ खड़ा हुआ। संयोग से उसी पेड़ पर मधुमक्खियों का छत्ता था, जो बर्फबारी के कारण टूट गया और इससे गुस्सायी मधुमक्खियों ने कबीर और साँड़ दोनांे पर हमला बोल दिया। उनके हमले से बचने के लिए दोनों भागे, लेकिन अँधेरे में दोनों एक नाले में जा गिरे। साँड़ का एक सींग कबीर के पेट में घुस जाने से कबीर की और नाले में गिर जाने से साँड़ की मौत हो गयी। मरने से पहले दोनों चिल्लाये। साँड़ के रँभाने और कबीर के चीखने की दर्द भरी आवाजें मोहल्ले के लोगों ने सुनीं, तो हिंदुओं ने समझा कि मुसलमानों ने किसी गाय को मार डाला है और मुसलमानों ने समझा कि हिंदुओं ने किसी मुसलमान को। बस, अनुमान के आधार पर ही दोनों तरफ सांप्रदायिक तनाव फैल गया और एक तरफ से ‘‘हर-हर महादेव’’ के और दूसरी तरफ से ‘‘अल्लाहो अकबर’’ के नारे लगने लगे। दंगे की आशंका से पुलिस आ पहुँची। तब तक बारिश बंद हो चुकी थी और सुबह भी हो चुकी थी। पुलिस की जीप आयी देख घरों में छिपे डरे-सहमे लोग निकल पड़े। लेकिन उन्होंने देखा कि पुलिस की जीप नाले के पास खड़ी है, जहाँ कबीर और साँड़ दोनों मधुमक्खियों के काटने और उनसे बचने के प्रयास में नाले में गिर जाने के कारण मारे गये हैं। </div>
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<br />
कहानी में घटना का वर्णन इस प्रकार पूरा किया जाता है कि ‘‘लाश का पंचनामा कर इनवेस्टिगेशन रिपोर्ट तैयार करने के बाद पुलिस ने लोगों से पूछा कि इसका कोई अपना है, जो अंतिम संस्कार कर सके। दोनों तरफ के लोग आगे आ गये ...हाँ, हम करेंगे इसका अंतिम संस्कार...पूरा मोहल्ला है इसका...इसके बाद दोनों तरफ के लोगों में एक बार फिर कमान खिंच गयी कि शव को दफनाया जाये कि लाश को जलाया जाये...दोनों तरफ के लोग एक बार फिर से बाँहें फड़काने लगे थे, लेकिन आज कबीर की लाश फूलों में तब्दील नहीं हुई।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती। इसके बाद कहानी में एक ‘उत्तर कथा’ भी है, जो कहानी लेखन में एक नया प्रयोग है। यह प्रयोग आज के मीडिया और सोशल मीडिया के द्वारा बड़े पैमाने पर फैलायी जाने वाली सांप्रदायिकता का, लेकिन लोगों में मौजूद आपसी सद्भाव का यथार्थ सामने लाने के लिए किया गया है। सांप्रदायिकता की आग भड़काने वाले तत्त्व इस घटना के काल्पनिक वीडियो बनाते हैं, जिनमें दिखाया जाता है कि कैसे मुसलमानों ने एक गाय की हत्या कर दी और कैसे हिंदुओं ने एक मुसलमान लड़के को मार डाला। ये वीडियो आननफानन सोशल साइट्स पर वायरल हो जाते हैं और उन्हें देखकर देश में कई जगह सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठती है। यह सच्चाई सामने आ जाने पर भी कि साँड़ और कबीर की मौत मधुमक्खियों के काटने से हुई है, मीडिया में मनगढ़ंत ‘समाचार’ और ‘कार्यक्रम’ दिखाये जाते रहते हैं, जो देशी मीडिया से चलकर विदेशी मीडिया तक में जा पहुँचते हैं। सांप्रदायिक तनाव लंबे समय तक बना रहता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
कहानी का अंत इस प्रकार किया जाता है कि एक साल बाद ‘‘कबीर की पुण्यतिथि पर मोहल्ले वालों ने एक बार फिर इस अहद को दोहराया कि वे हर समस्या का हल आपस में मिल-बैठकर करेंगे, किसी के बहकावे में नहीं आयेंगे।’’ </div>
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<br />
मीडिया की कार्यप्रणाली को व्यंग्यात्मक रूप में दिखाते हुए जो प्रयोग कहानी में किया गया है, वह सांप्रदायिक राजनीति, बाजारवादी मीडिया तथा उसके द्वारा फैलाये जाने वाले तनावों और दंगों को रोकने में अक्षम विधि-व्यवस्था के यथार्थ को एक नये रूप में सामने लाता है। <br />
<br />
<span style="color: #990000;"><span style="font-size: large;"><b>भोला बबवा के पैर : प्रमोद राय </b></span></span><br />
<span style="color: blue;"><b>‘फुटलूज लेबर’ के यथार्थ को सामने लाने वाली कहानी</b></span><br />
<br />
अनुभववादी और कलावादी किस्म की हिंदी कहानियों में चित्रित पात्र या तो केवल अपने तन, मन और निजी जीवन में व्यस्त लोग होते हैं, या ऐसे लोग, जिनकी कोई सामाजिक पहचान ही नहीं होती। या फिर वे स्त्री, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक आदि होते हैं, जिनकी पहचान केवल लिंग, जाति या धर्म से होती है। ऐसे पात्रों की कहानियाँ पढ़कर लगता है कि जैसे कहानीकारों ने अमीर-गरीब या मालिक-मजदूर जैसी वर्गीय स्थितियों वाले पात्रों के यथार्थ-चित्रण को सर्वथा अनावश्यक मान लिया हो। शायद इसका एक कारण विगत बीसेक वर्षों की कहानी समीक्षा भी है, जो अनुभववाद और कलावाद पर जोर देती है। वह कहानी में विचारधारा, पक्षधरता और प्रतिबद्धता को पुरानी और गैर-जरूरी चीज ही नहीं, बल्कि साहित्य के लिए हानिकारक चीज भी मानकर चलती है। शायद यही कारण है कि इधर की हिंदी कहानी में किसानों, मजदूरों और छोटे-मोटे काम-धंधे करने वाले गरीब श्रमजीवी लोगों के जीवन के यथार्थ को सामने लाने वाले चरित्र दुर्लभ हो गये हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
इस दृष्टि से ‘परिकथा’ में प्रस्तुत अंक में प्रकाशित प्रमोद राय की ‘भोला बबवा के पैर’ एक उल्लेखनीय कहानी है। यह उन लोगों की कहानी है, जो गाँवों से शहरों में आकर असंगठित क्षेत्र में मजदूरी करते हैं, घरेलू नौकर, दरबान, ड्राइवर वगैरह बनते हैं, ठेलों पर छोटी-मोटी चीजें बेचते हैं या राज-मिस्त्री, रिक्शाचालक वगैरह बनकर अपना पेट भरते हैं--बल्कि अपना पेट काटकर गाँव में पीछे छूटे अपने परिवारों को पैसा भेजकर जीवित रखते हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
इस कहानी को पढ़ते हुए मुझे ‘टेेमिंग दि कुली बीस्ट’, ‘बियोंड पैट्रोनेज एंड एक्सप्लॉयटेशन’, ‘वेज हंटर्स एंड गैदरर्स’ आदि पुस्तकों के लेखक जान ब्रेमन की पुस्तक ‘फुटलूज लेबर’ की याद आयी। एम्सटर्डम विश्वविद्यालय में तुलनात्मक समाजशास्त्र के प्रोफेसर जान ब्रेमन ने कई बार भारत आकर यहाँ के असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों का अध्ययन किया था। उनकी पुस्तक ‘फुटलूज लेबर वर्किंग इन इंडिया’ज इनफॉर्मल इकॉनॉमी’ (भारत की अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में काम करने वाले घुमंतू श्रमिक) के बारे में मैंने 2003 में एक लेख लिखा था, जो मेरी पुस्तक ‘भूमंडलीय यथार्थवाद की पृष्ठभूमि’ (2014) में संकलित है। प्रमोद राय की कहानी के संदर्भ में अपने उस लेख का प्रारंभिक अंश उद्धृत करना मुझे जरूरी लग रहा है : </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<i>भारतीय श्रम का भूमंडलीकरण एक बार औपनिवेशिक शासन काल में हुआ और दूसरी बार निजीकरण की नीति के चलते अब हो रहा है, क्योंकि यह नीति भारत पर (और लगभग सारी दुनिया में) विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन जैसी भूमंडलीय संस्थाओं द्वारा थोपी गयी है। इस नीति का संबंध पूँजीवादी भूमंडलीकरण और आज के उस पूँजीवाद से है, जो कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को त्याग चुका है और उससे जुड़ी तमाम चीजों को नष्ट करने में लगा है। अब उसे राज्य का हस्तक्षेप केवल पूँजी की रक्षा करने, पूँजीपतियों के हित में नीतियाँ बनाने और उन्हें सख्ती से लागू करने में ही चाहिए, जनहित की नीतियाँ बनाने और उन्हें लागू करने के लिए नहीं। राज्य के हस्तक्षेप से बन सकने वाली जनहित की नीतियों को न बनने देने के लिए ही मुक्त बाजार की वैश्विक नीति अपनायी गयी है, जिसके तहत श्रम के बाजार को भी राज्य के हस्तक्षेप से मुक्त रखने का आग्रह किया जा रहा है। इसी नीति के तहत सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों में विनिवेश की या उन उद्योगों को निजी क्षेत्र के हाथों बेचने की नीति अपनायी गयी है और कहा जा रहा है कि श्रमिकों को ‘औपचारिक’ तथा ‘अनौपचारिक’ दो क्षेत्रों में बाँटने के बजाय केवल अनौपचारिक क्षेत्र में रहने देना चाहिए।</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i><br />व्यवहार में इस नीति का अर्थ यह है कि सरकार न तो श्रमिकों को रोजगार देने की चिंता करे और न उनके हित में कोई नियम-कानून बनाकर उन्हें लागू करे। मसलन, न्यूनतम वेतन या मजदूरी तय करने, श्रमिकों को जरूरी सुविधाएँ और सामाजिक सुरक्षाएँ देने-दिलाने के उन कामों से, जिनसे ‘औपचारिक अर्थव्यवस्था’ का निर्माण होता है, सरकार को अलग रहना चाहिए। उसे श्रम के बाजार को माँग और पूर्ति के अपने नियमों से ही चलने देना चाहिए और इस बात की चिंता नहीं करनी चाहिए कि श्रमिकों को स्थायी रोजगार, न्यूनतम वेतन, शिक्षा, आवास, चिकित्सा, बीमा, पेंशन आदि देने से संबंधित नियम-कायदों का पालन किया जा रहा है या नहीं। ऐसे कोई नियम-कायदे होने ही नहीं चाहिए। जो बने हुए हैं, उन्हें भी समाप्त कर देना चाहिए, क्योंकि उनके रहने पर श्रमिक उन्हें लागू कराने की कोशिश करते हैं और इसके लिए संगठित होकर संघर्ष करते हैं। इस चीज को रोकने के लिए श्रमिकों के संगठनों को भंग कर देना चाहिए और ऐसे कानून बना देने चाहिए कि श्रमिक संगठित न हो सकें। इसके अलावा ऐसी परिस्थितियाँ पैदा करनी चाहिए कि श्रमिकों का संगठित होना स्वतः ही मुश्किल हो जाये। इसका एक कारगर तरीका यह हो सकता है कि श्रमिक किसी एक स्थान पर इकट्ठे और टिककर न रह सकें, बल्कि जहाँ उनकी जरूरत हो, वहाँ जायें और जब तक उनकी जरूरत हो, तभी तक वहाँ रहें। </i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i><br /></i>‘भोला बबवा के पैर’ ऐसे ही श्रमिकों की कहानी है। यह बिहार के एक गाँव के भोलानाथ दुबे और उनके तेरह वर्षीय पुत्र गोल्डेन कुमार दुबे की कहानी है। भोलानाथ दुबे थोड़ा पढ़े-लिखे थे, पर कोई अच्छी नौकरी नहीं पा सके। जमीन-जायदाद ज्यादा थी नहीं, सो गाँव के एक धरमदेव के साथ दिल्ली चले गये, जो दिल्ली में एक सेठ के यहाँ नौकरी करता था और सेठ या उसके संबंधियों को किसी भरोसेमंद नौकर की जरूरत होने पर गाँव आकर किसी लड़के को अच्छी नौकरी दिलाने का वादा करके दिल्ली ले जाता था। उसने भोलानाथ दुबे को नौकरी दिलायी, लेकिन वे वहाँ टिके नहीं। उन्होंने दिल्ली में कई तरह के काम किये और एक दिन अचानक कहीं गायब हो गये। तीन साल बीत गये, पर न तो वे गाँव लौटे और न उनके मर जाने की खबर मिली। गाँव में उनकी पत्नी उन्हें जीवित मानती रही और इस इंतजार में कि वे पैसा कमाकर लौटेंगे, तो कर्ज चुका दिया जायेगा, खेत गिरवी रखकर लिये गये कर्ज से किसी तरह काम चलाती रही और अपने बेटे गोल्डेन कुमार को पढ़ाती रही। उधर धरमदेव के मालिक की बेटी को भरोसेमंद घरेलू नौकर की जरूरत महसूस हुई, तो वह गाँव आया और अच्छी नौकरी दिलाने का वादा करके गोल्डेन कुमार को अपने साथ दिल्ली ले गया। वह भोलानाथ दुबे को भोला बाबा कहता था (‘बाबा’ प्यार और तिरस्कार दोनों में ‘बबवा’ हो जाता है) और गोल्डेन कुमार को गोल्डेन बाबा कहता है। वही गोल्डेन को बताता है कि उसके पिता कहीं टिककर नहीं रहते थे, ‘‘उनके पैरों में चक्कर था।’’ इसीलिए कहानी का शीर्षक है ‘भोला बबवा के पैर’। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
लेकिन तेरह वर्षीय गोल्डेन कुमार केवल नौकरी करने दिल्ली नहीं जाता, बल्कि दिल्ली में अपने खोये हुए पिता को खोजने जाता है। दिल्ली की खोड़ा कॉलोनी में उसके गाँव के कई लोग रहते हैं, जो तरह-तरह के छोटे-मोटे काम या नौकरी-चाकरी करते हैं। गोल्डेन वहाँ जाकर उनसे मिलता है। वे लोग उसे बताते हैं कि भोला बबवा कहीं टिककर कोई काम नहीं करते थे। कभी किसी फैक्टरी में काम किया, तो कभी किसी स्कूल में चौकीदारी की। कभी किसी सिक्योरिटी एजेंसी में भरती होकर एटीएम गार्ड बने, तो कभी दिल्ली की प्राइवेट बसों में कंडक्टर। कभी किसी ठेकेदार के नौकर रहे, तो कभी जूस बेचने की अपनी ठेली लगायी। हालाँकि नौकरी की मजबूरी में उन्होंने फैक्टरी के संगठित मजदूरों की हड़ताल तोड़ने वाले के रूप में भी काम किया, मगर अपनी ईमानदारी और गलत कामों को रोकने की प्रवृत्ति के चलते वे नौकरी से या तो खुद निकले या निकाले गये; हर जगह लड़े-भिड़े और मारे-पीटे गये। कभी चाकू से घायल होने पर अस्पताल ले जाये गये, तो कभी पुलिस को हफ्ता न देने पर पुलिस चौकी में ले जाकर पीटे गये। भोला बबवा के गायब हो जाने या मर जाने के बारे में गाँव वालों को ठीक-ठीक कुछ मालूम नहीं। केवल अटकलें हैं कि उन्हें किसी ने मारकर नाले में फेंक दिया था या उन्हें एड्स-वेड्स हो गया था। लेकिन लोगों को यह विश्वास भी है कि ‘‘सब फालतू बात है, भोला बबवा वैसा आदमी नहीं था।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
गोल्डेन जिस कोठी में काम करता है, वहाँ से खोड़ा कॉलोनी जाकर अपने गाँव के लोगों से मिलने के बाद जब लौटता है, तो उसे तरह-तरह के काम करते लोगों में अपने पिता नजर आते हैं। इस प्रकार कहानीकार बड़ी कुशलता और कलात्मकता के साथ गाँवों से शहरों में आकर तरह-तरह के काम करने वाले लोगों के जीने और मरने का भयावह यथार्थ सामने लाता है। कहानी से पता चलता है कि चक्कर सिर्फ भोला बाबा के पैरों में नहीं था, इन तमाम लोगों के पैरों में है। ये सब एक अस्थिर और अस्थायी जीवन जी रहे हैं और भोला बाबा की तरह शहर में आकर खो गये हैं। कहानी का नयापन इसमें है कि यह भारत की उस ‘अनौपचारिक अर्थव्यवस्था’ पर हमारा ध्यान केंद्रित करती है, जो अस्थायी श्रमिकों के बल पर चलती है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
इस प्रकार आज की हिंदी कहानी में कई नये स्वर उभर रहे हैं। पिछले कुछ समय से हिंदी कहानी अपनी यथार्थवादी परंपरा से कटकर भटक-सी गयी थी। लेकिन अब वह फिर पटरी पर लौट रही है और आगे बढ़ रही है। इसमें नये कहानीकारों के साथ-साथ ‘परिकथा’ जैसी पत्रिकाओं की भी भूमिका है, जो नयी रचनाशीलता को निरंतर सामने लाने का सार्थक और जरूरी काम करती हैं। </div>
</div>
ramesh upadhyayhttp://www.blogger.com/profile/05054633574501788701noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-1496071818736613491.post-73170161552771867542014-04-22T09:26:00.000-07:002014-04-22T09:29:15.020-07:00कार-कथा <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="color: blue;"><i>रमेश उपाध्याय की कहानी</i></span><br />
<br />
‘‘अरे, कपूर साहब, आप? नमस्ते! आइए, बैठिए, कैसे हैं?’’ <br />
<br />
‘‘अहा, नमस्ते, वर्मा जी! बस में सीट और आप जैसे सज्जन का साथ मिल जाये, तब तो सब ठीक होना ही हुआ!’’ <br />
<br />
‘‘लेकिन आज आप बस में कैसे?’’ <br />
<br />
‘‘कार पुरानी हो गयी थी, बेच दी।’’ <br />
<br />
‘‘लेकिन पिछली बार आप मिले थे, तब तो कह रहे थे कि उसकी जगह नयी खरीद ली है?’’ <br />
<br />
‘‘हाँ, खरीदी थी, लेकिन वह मैंने अपनी छोटी बहू को दे दी। क्या है कि मेरे दोनों लड़कों के पास तो अपनी-अपनी गाड़ी थी ही और बड़ी बहू अपने लिए अपने दहेज में ले आयी थी। छोटी बहू थोड़े कमजोर घर की है, वह नहीं ला सकी, तो अपनी उसे मैंने दे दी।’’ <br />
<br />
‘‘मतलब, आपके घर में चार गाड़ियाँ हैं?’’ <br />
<br />
‘‘वैसे तो पाँच होनी चाहिए। चार बेटों-बहुओं की और पाँचवीं मेरे और मेरी वाइफ के लिए। बड़ा तो कह रहा है कि आप मेरी वाली ले लो। क्या है कि उसे नये मॉडल की कारें खरीदने का खब्त है। एक पुरानी हो नहीं पाती कि तब तक उसे बेचकर नये मॉडल की दूसरी ले लेता है। कह रहा था--मुझे तो बेचनी ही है, आप ले लो।’’ <br />
<br />
‘‘तो आप ले लेते! बसों में क्यों धक्के खाते फिर रहे हैं?’’ <br />
<br />
‘‘अब क्या है कि मैं और वाइफ जब से रिटायर हुए हैं, हम दोनों की कोई पब्लिक लाइफ तो रही नहीं। वाइफ दिन-रात नौकरानी की तरह घर में खटती रहती हैं और मैं दिन भर घरेलू नौकर की तरह बाहर के कामों के लिए दौड़ता रहता हूँ। जिनको पैदा किया, पाला-पोसा, पढ़ाया-लिखाया; जिनके लिए तमाम जायज-नाजायज तरीकों से पैसा कमाकर मकान बनवाया; जिनका कैरियर बनाने और घर बसाने के लिए दुनिया भर की भाग-दौड़ और जोड़-तोड़ की; वे आज हमारे घर के ही नहीं, हमारे भी मालिक बन बैठे हैं। मैं और वाइफ दिन-रात उनकी सेवा में लगे रहते हैं। अपने लिए कोई वक्त ही नहीं बचता। सो जब कहीं आना-जाना ही नहीं, तो गाड़ी रखकर क्या करें?’’ <br />
<br />
‘‘तो इस समय आप कहाँ जा रहे हैं?’’ <br />
<br />
‘‘क्या है कि सुबह-सुबह दूध लाने गये। फिर बच्चों के बच्चों को उनकी स्कूल बस तक छोड़ने गये। फिर सब्जियाँ, फल, अंडे, मक्खन, ब्रेड वगैरह लेने गये। नाश्ता करके बिजली का बिल जमा कराने गये। लौटकर नहाने-खाने के बाद थोड़ा आराम करने की सोच ही रहे थे कि बड़ी बहू का फोन आ गयाµमेरे लिए कनॉट प्लेस के खादी भंडार से हर्बल शैंपू ले आओ!’’ <br />
<br />
‘‘तो आप कनॉट प्लेस जा रहे हैं! मैं भी वहीं जा रहा हूँ। चलिए, अच्छा है। बहुत दिन हो गये आपसे मिल-बैठकर बातें किये। कॉफी होम चलेंगे, वहाँ बैठकर कॉफी पियेंगे, गपशप करेंगे और आपकी बहू के लिए हर्बल शैंपू लेकर साथ-साथ ही लौट आयेंगे।’’ <br />
<br />
‘‘मगर आप कनॉट प्लेस किस काम से जा रहे हैं?’’ <br />
<br />
‘‘समझिए कि आपकी बहू के लिए हर्बल शैंपू लेने।’’ <br />
<br />
‘‘मजाक मत कीजिए। वैसे आप न बताना चाहें, तो...’’ <br />
<br />
‘‘अरे, नहीं-नहीं, कपूर साहब! आप जैसे भले पड़ोसी से क्या छिपाना! बात यह है कि हमारे बच्चे तो, आप जानते हैं, दिल्ली में हैं नहीं। बेटा-बहू बंगलौर में हैं और बेटी सिंगापुर में। यहाँ हम मियाँ-बीवी दो ही हैं। भाभीजी की तरह मेरी बीवी तो नौकरी में थी नहीं। घर की मालकिन कहिए या नौकरानी, सब कुछ शुरू से वही है। लेकिन मेरी पेंशन हम दोनों के लिए काफी है। फ्लैट उस समय ले लिया था, जब मकान सस्ते थे और दफ्तर से इतना लोन मिल जाता था कि छोटा-सा फ्लैट लिया जा सके। गाड़ी-वाड़ी पहले भी कभी नहीं रखी। अपने लिए तो हमेशा दिल्ली परिवहन निगम ही जिंदाबाद रहा। अब तो अपने इलाके में मेट्रो भी आ गयी है, लेकिन मेट्रो स्टेशन हमारे लिए थोड़ा दूर पड़ता है, इसलिए ज्यादातर बस से ही आते-जाते हैं। वैसे, सीट मिल जाये, तो बस से बेहतर कोई सवारी नहीं। अंदर-बाहर के नजारे देखिए, लोगों से बातें कीजिए, आराम करना चाहें तो आँखें बंद करके एक झपकी ले लीजिए। और अब कहीं टाइम पर हाजिरी देने तो जाना नहीं। दोपहर के खाने के बाद श्रीमती जी शाम तक आराम करती हैं। मैं थोड़ा सैर-सपाटा करने और दोस्तों के साथ कॉफी पीने कनॉट प्लेस चला जाता हूँ। घंटे-डेढ़ घंटे बैठे, गपशप की, तरोताजा हुए और शाम तक वापस घर।’’ <br />
<br />
‘‘आप खुशकिस्मत हैं, वर्मा जी! बेटा-बहू बंगलौर में क्या करते हैं?’’ <br />
<br />
‘‘दोनों सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। अच्छा कमाते हैं, लेकिन घूमने-फिरने के अलावा उन्हें कोई शौक नहीं। पैसा जोड़ा, छुट्टी ली और देश या विदेश में कहीं घूम आये। दो-तीन बार हम दोनों को भी घुमा लाये हैं।’’ <br />
<br />
‘‘और आपकी लड़की?’’ <br />
<br />
‘‘वह एम.बी.ए. करके दिल्ली में एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने लगी थी। वहीं एक लड़का मिल गया, जिससे उसने प्रेम विवाह कर लिया। शादी के बाद दोनों को सिंगापुर में बेहतर जॉब मिल गयी, तो वहाँ चले गये। इसी तरह लड़के ने भी अपने साथ काम करने वाली लड़की से प्रेम विवाह किया है और वे दोनों भी खुश हैं।’’ <br />
<br />
‘‘आप वाकई खुशकिस्मत हैं, वर्मा जी! आपके बच्चे आपकी अकेले की कमाई के बावजूद अच्छी तरह पढ़-लिखकर काबिल बन गये। इधर मैंने और मुझसे ज्यादा वाइफ ने दोनों लड़कों पर पानी की तरह पैसा बहाया। लेकिन वे पढ़ाई-लिखाई में मन लगाने की जगह मौज-मस्ती में ही डूबे रहे। हमारे यहाँ शुरू से दो गाड़ियाँ थींµएक मेरी, एक वाइफ की। लेकिन लड़कों ने कॉलेज के जमाने में ही दोनों हथिया लीं। साथ के लड़कों और लड़कियों को अपनी गाड़ियों में घुमाना, एक्सीडंेट और लड़ाई-झगड़े करना, बेकार में पेट्रोल और पैसा फूँकना। कई बार पुलिस के चक्कर में भी फँसे। ऐसे लड़कों को अच्छी जॉब कैसे मिलती? मैंने ही जैसे-तैसे जुगाड़ लगाकर उनको नौकरियाँ दिलायीं और उनकी शादियाँ करायीं। बहुएँ दोनों बेहतर पढ़ी-लिखी हैं और लड़कों से बेहतर जॉब में हैं। बड़ी बहू तो काफी पैसे वाले परिवार की है। छोटी बहू, जैसा कि मैंने आपको बताया, जरा कमजोर घर की है, लेकिन छोटे लड़के से ज्यादा पढ़ी है और ज्यादा कमाती है। मगर छोटा लड़का उसकी कद्र नहीं करता। दहेज न लाने के लिए ताने देता रहता है। सबसे बड़ा ताना यह कि वह दहेज में कार क्यों नहीं लायी। मुझे डर लगा कि यह लड़का कार के कारण कहीं बहू को मार न डाले, इसलिए अपनी नयी कार मैंने उसे दे दी।’’ <br />
<br />
‘‘अच्छा किया।’’ <br />
<br />
‘‘लेकिन, वर्मा जी, इससे एक नयी मुसीबत खड़ी हो गयी है। मैंने आपको बताया न, बड़े लड़के को नये-नये मॉडलों की कारें खरीदने का खब्त है। मुझसे कह रहा है कि मेरी पुरानी कार आप ले लो। जानते हैं, क्यों? पुरानी कार बेचने से उसे उतने पैसे नहीं मिलेंगे, जितने नयी कार के लिए चाहिए। इसलिए वह चाहता है कि मैं उसकी कार ले लूँ और उसे उतना पैसा दे दूँ, जितने में नयी गाड़ी आ जाये। मैंने कहा कि मुझे गाड़ी की जरूरत नहीं है, तो बोला कि तुमने छोटे भाई को गाड़ी दी है, तो मुझे भी दो। समझे आप? मेरे जीते जी मेरे पैसे पर अपना हक जता रहा है और मुझे नैतिकता सिखा रहा है!’’ <br />
<br />
<br />
‘‘फिर आपने क्या सोचा?’’ <br />
<br />
‘‘मैंने तो साफ कह दिया कि जब तक जिंदा हूँ, मेरी मर्जी कि मैं अपने पैसे का क्या करूँ। मुझे तेरी कार नहीं चाहिए। वैसे ही हमारे घर में चार कारें होने से पार्किंग की ऐसी प्रॉब्लम पैदा हो गयी है कि आये दिन पड़ोसियों से झगड़े होने लगे हैं। मुझे तो डर लगता है। आजकल ऐसे झगड़ों में गोलियाँ तक चल जाती हैं।’’ <br />
<br />
<br />
‘‘वैसे गाड़ी न रखना अच्छा ही है। अब दिल्ली में ड्राइव करना टेंशन और परेशानी मोल लेने के सिवा कुछ नहीं। बाहर देखिए, सड़क पर कितनी गाड़ियाँ हैं और दौड़ने के बजाय कैसे रेंग रही हैं।’’ <br />
<br />
‘‘वाकई हद हो गयी है। अब तो कारों की खरीद-बिक्री पर कोई रोक लगनी ही चाहिए।’’ <br />
<br />
‘‘जी, हाँ, अब उससे कार कंपनियों के अलावा किसी को कोई फायदा नहीं।’’ <br />
<br />
‘‘फायदा? कहिए कि नुकसान ही नुकसान है। एक तरफ तो बेशुमार पैसे और पेट्रोल की बर्बादी और दूसरी तरफ पॉल्यूशन, क्राइम और करप्शन में दिन दूनी बढ़ोतरी!’’ <br />
<br />
‘‘बिलकुल सही कहा आपने। कारों के कारण सड़कों पर क्राइम कितना बढ़ गया है!’’ <br />
<br />
‘‘सही कहने वाले तो बहुत हैं, भाई, पर सुनता कौन है?’’ <br />
<br />
‘‘क्यों? मैं सुन रहा हूँ। ये भाईसाहब सुन रहे हैं। वो बहनजी सुन रही हैं। कंडक्टर साहब भी सुन रहे हैं। क्यों, कंडक्टर साहब? सुन रहे हैं न?’’<br />
<br />
‘‘जी, साहब जी! सब सुन रहे हैं और समझ भी रहे हैं। लेकिन बुरा न मानें तो एक बात कहें? जिनके घरों में चार-चार गाड़ियाँ हैं, पहले उनको ही कुछ सोचना और करना चाहिए।’’<br />
<br /></div>
ramesh upadhyayhttp://www.blogger.com/profile/05054633574501788701noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1496071818736613491.post-64493370429573651742014-03-16T08:28:00.000-07:002014-03-16T21:05:20.405-07:00बाजारूपन के खतरों के बीच एक अलग पगडंडी की खोज : राजेश जोशी <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="color: purple;">'समावर्तन' के मार्च, 2014 के अंक में राजेश जोशी ने मेरी आत्मकथात्मक पुस्तक 'मेरा मुझ में कुछ नहीं' पर जो लिखा है, वह मैं यहाँ साझा कर रहा हूँ.--रमेश उपाध्याय </span><br />
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEitV-puCl8cgQk-TUUjdnUDo6INb889s7pff0AbYEWcJYTJpRHjJuIBPHni_yW2GM-R4ZENChYZTIAV5dBspfiOBJQ65gevu24X4pL0CnzAVEfvh7hKfrIkxFoo3m3pDGYVC_CRS7E9RCzo/s1600/rj.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEitV-puCl8cgQk-TUUjdnUDo6INb889s7pff0AbYEWcJYTJpRHjJuIBPHni_yW2GM-R4ZENChYZTIAV5dBspfiOBJQ65gevu24X4pL0CnzAVEfvh7hKfrIkxFoo3m3pDGYVC_CRS7E9RCzo/s1600/rj.jpg" height="200" width="135" /></a><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgun-kbRKrh6tlJqZ2yT6Co-DFe0DH3OlYEouTWfEZ9u__iM52aPRKID-RbUpkP63_eaQHnTRdP_Nh3UBdlPGtGYUwmUMgXfSXuCjSNUIX8qO9OIDWAz4etFgfYO3AqX8DW2VME2-MBT1wx/s1600/mmkn.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgun-kbRKrh6tlJqZ2yT6Co-DFe0DH3OlYEouTWfEZ9u__iM52aPRKID-RbUpkP63_eaQHnTRdP_Nh3UBdlPGtGYUwmUMgXfSXuCjSNUIX8qO9OIDWAz4etFgfYO3AqX8DW2VME2-MBT1wx/s1600/mmkn.jpg" height="200" width="128" /></a><span style="color: purple;"> </span><br />
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<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: red;"><span style="font-size: large;"><b>'मेरा मुझ में कुछ नहीं' को पढ़ते हुए</b></span></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: red;"><b>(कुछ टूटी-बिखरी-सी टीपें)</b></span></div>
<div style="text-align: center;">
<b>राजेश जोशी</b> </div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
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‘मेरा मुझ में कुछ नहीं’ को पढ़ते हुए लगता है, जैसे रमेश उपाध्याय ने समानांतर चलती तीन समवर्ती प्रक्रियाओं को बिना किसी अतिरिक्त बलाघात के सहजता के साथ इसमें दर्ज कर दिया है। इस महाजीवन के बीच उम्र के फासलों को नापते हुए एक व्यक्ति के बनने की प्रक्रिया, व्यक्ति के रचनाकार बनने की प्रक्रिया और रचना के बनने की प्रक्रिया। आत्मकथात्मक अंश हों या जीवन, समाज और साहित्य के सवालों से जूझते विमर्श हों, सब एक-दूसरे से गुँथे-बुने हैं। इसलिए किसी भी एक अंश को दूसरे से अलगाकर नहीं देखा जा सकता। अक्षरों, मात्राओं, संयुक्ताक्षर, विरामचिह्न आदि से शब्द और वाक्य बनाते हुए बायें और दायें हाथ के बीच, शब्दों के बीच एक सही-सही स्पेस बनाते हुए गेज नापकर वे पेज बनाते चले गये हैं। बिना किसी प्रसंग को अलग से अंडरलाइन करते हुए भी उन्होंने सारी स्थितियों और वृत्तांतों को डोरी से बाँध दिया है। उन्होंने इसके प्रूफ पढ़कर यहाँ रख दिये हैं। जुजे सरामागु के उपन्यास ‘लिस्बन की घेराबंदी का इतिहास’ का प्रूफ रीडर जैसे अपनी ही आत्मकथा को कंपोज भी कर रहा है और उसका प्रूफ भी पढ़ रहा है। यह एक ऐसी आत्मकथा है, जो आत्मकथा नहीं है। किताब का प्रारंभ ही इस कथन से होता है कि ‘‘मुझे अपने बारे में लिखना-बोलना पसंद है, लेकिन मैं आत्मकथा नहीं लिखना चाहता’’। <br />
<div style="text-align: left;">
<br />
आत्मकथात्मक अंशों को भी रमेश उपाध्याय कथात्मक होने से बचाते हैं। उनमें आत्म के विस्तार के कई वृत्तांत हैं, लेकिन उन्हें कथात्मक होने या बनाने से रमेश उपाध्याय बचाते-से लगते हैं। वे आत्मकथा के खतरों के प्रति भी सतर्क हैं और कथा के खतरों के प्रति भी। पहले ही अध्याय में यह आत्मस्वीकृति दर्ज है कि अपने बारे में लिखना-बोलना मुझे पसंद है, लेकिन मैं आत्मकथा नहीं लिखना चाहता। रिचर्ड सेन्नेट की पुस्तक ‘दि फॉल ऑफ पब्लिक मैन’ के एक अंश का उन्होंने हवाला दिया है, जिसमें वह कहता है कि ‘‘वर्तमान ‘पॉपुलर कल्चर’ ने आत्मकथात्मक लेखन को एक बाजारू चीज बना दिया है। इसने सार्वजनिक जीवन को नष्ट कर दिया है और निजी तथा सार्वजनिक के बीच का भेद मिटा दिया है। पहले सार्वजनिक जीवन में सभ्य और शिष्ट आचरण करने वाला व्यक्ति ‘अच्छा’ माना जाता था, जबकि इस संस्कृति के चलते ‘अच्छा’ व्यक्ति वह है, जो सार्वजनिक रूप से (मसलन, टेलीविजन के चैट शो में) सबको सब कुछ बताने को तैयार रहता है। अब लोग ‘सच्चा’ और ‘प्रामाणिक’ उसी व्यक्ति को मानते हैं, जो अंतरंग संबंधों का व्यापार करता हैµयानी अपने निजी जीवन में दूसरों को ताक-झाँक करने की खुली छूट देता है और दूसरों के निजी जीवन में ताक-झाँक करके उसकी ‘प्रामाणिक सूचना’ बाजार में बेचने का काम करता है।’’ </div>
<div style="text-align: left;">
<br />
रमेश उपाध्याय की यह एक बड़ी खूबी है कि वे अपनी दिक्कतों की बात भी एक बड़े परिप्रेक्ष्य में करते हैं। समस्या सिर्फ खुद के द्वारा आत्मकथा लिखने तक सीमित नहीं है, सवाल इस समय में आत्मकथात्मक लेखन के खतरों को समझने का है। यह खतरा सिर्फ आत्मकथा तक महदूद नहीं है, कथा पर भी यह खतरा मँडरा रहा है। कथा और बाजारवाद में टकराव की स्थिति बन रही है। ‘कथा को साहित्य बनाये रखने के लिए’ वाली टिप्पणी में भी इस खतरे की ओर संकेत करते हुए रमेश उपाध्याय ने लिखा है कि ‘‘कथासाहित्य के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती यह है कि ‘कथा’ को ‘साहित्य’ कैसे बनाये रखा जाये। बाजारवाद ने यों तो साहित्य की सभी विधाओं को पण्यवस्तु बना दिया है, लेकिन कहानी को (चाहे वह ‘कहानी’ के रूप में लिखी जाये, या ‘उपन्यास’ के रूप में, या फिल्म और टेलीविजन कार्यक्रमों की पटकथा के रूप में) सबसे ज्यादा बाजारू बनाया है।’’ कथा पर मँडराते इस खतरे से जूझने की एक मुसलसल कोशिश उनके लेखों और टिप्पणियों में हर जगह नजर आती है। इस समय सवाल सेलेब्रिटी बनने से इनकार करके बाजारू लेखन में शामिल होने से इनकार करने का है। </div>
<div style="text-align: left;">
<br />
किताब की भूमिका में उन्होंने इस बात से इनकार करते हुए कि वे कोई ‘सेल्फमेड मैन’ हैं, पाओलो फ्रेरे का यह कथन उद्धृत किया है कि ‘‘दुनिया में कोई व्यक्ति अपना निर्माण स्वयं नहीं करता। शहर के जिन कोनों में ‘स्वनिर्मित’ लोग रहते हैं, वहाँ बहुत-से अनाम लोग छिपे रहते हैं।’’ इस पूरी किताब की संरचना को समझने के लिए भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है, जितना रमेश उपाध्याय के बनने की प्रक्रिया को समझने के लिए। इस किताब में ऐसे अनेक मित्रों, परिचितों और रचनाओं तथा उनके पात्रों का जिक्र आता है, जिन्होंने रमेश उपाध्याय के व्यक्तित्व और उनके रचनाकार के मानस को बनाने में तरह-तरह से अपनी भूमिका अदा की है। </div>
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<br /></div>
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<span style="color: red;"><b>: दो :</b></span></div>
<div style="text-align: left;">
<br />
मैं इस किताब का क्रम तैयार कर रहा होता, तो शायद ‘मेरे अध्ययन का विकास-क्रम’ वाले अध्याय को पहले रखना चाहता और ‘अजमेर में पहली बार’ को उसके बाद। यूँ तो जीवनानुभव और जीवन-प्रसंगों के अनेक टुकड़े यहाँ-वहाँ पूरी किताब में ही बिखरे हुए हैं, लेकिन ‘मेरे अध्ययन का विकास-क्रम’ में बचपन की और बाद के जीवन की कुछ मार्मिक छवियाँ थोड़ी कोताही बरतने के बावजूद सिलसिलेवार ढंग से मौजूद हैं। इस किताब को पढ़ते हुए कई बार लगता है कि रमेश उपाध्याय का कहानीकार रमेश और विमर्शकर्ता उपाध्याय जूझते-भिड़ते हुए एक-दूसरे से ज्यादा से ज्यादा जगह हथिया लेने पर आमादा हैं। कथाकार विमर्शकार को धकेलता है, तो विमर्शकार कथाकार की गर्दन नाप लेना चाहता है। इन दोनों की टकराहट से आत्मकथा का पारंपरिक और बाजार में चलने वाला लोकप्रिय ढाँचा जगह-जगह से टूट-फूट जाता है और एक नया स्वरूप आकार लेता दिखता है। शायद यही इस किताब की सबसे बड़ी उपलब्धि भी है कि उसने इस समय के बाजारूपन के खतरों के बीच अपने लिए एक अलग पगडंडी खोज ली है, जिससे वह अपने समय के बाजारवाद को चुनौती भी दे सकती है, देती है। </div>
<div style="text-align: left;">
<br />
जो हिस्से बचपन या जवानी के वृत्तांतों को सामने रखते हैं, उनमें भी अपने और अपने समय से एक बहस लगातार चलती रहती है। कंपोजीटर बनने और एक कंपोजीटर की तरह काम करने का वृत्तांत बहुत दिलचस्प है। कंप्यूटर और ऑफसेट के समय में जनमे और बड़े हुए पाठकों और लेखकों के लिए यह वृत्तांत महत्त्वपूर्ण होगा। रमेश उपाध्याय ने संक्षेप में ही सही, लेकिन उस पूरी प्रक्रिया को और उसकी पूरी टर्मिनोलॉजी को यहाँ दर्ज कर दिया है। प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी में छपाई की उस पुरानी तकनीक की एक बहुत बड़ी भूमिका है। आज भी दुनिया की लाखों महान किताबें उस पुरानी तकनीक से छपी हुई हमारे पास हैं। </div>
<div style="text-align: left;">
<br />
रमेश उपाध्याय ने अपने इस अनुभव पर ‘गलत-गलत’ शीर्षक से कहानी भी लिखी है। कहीं यह प्रश्न भी मन में उठता है कि कहानी या उपन्यास भी तो कहीं न कहीं आत्मकथात्मक ही होता है, चाहे अंशतः हो या पूर्णतः, पर होता तो है ही। बल्कि कहा जा सकता है कि पूरा लेखन कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में आत्मकथात्मक होता ही है। अगर रमेश उपाध्याय अपने उन जीवनानुभवों को अपनी कहानियों में लाते हैं, तो फिर आत्मकथा लिखने में क्या हर्ज है? उन्होंने जो खतरे गिनाये हैं, वे खतरे मौजूद हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन बाजार तो कुछ भी बेच सकता है। क्या इसलिए हमें लंबी प्रक्रियाओं से पाये गये अपने फॉर्म्स को बदल देना चाहिए? बाजार से टकराने का क्या कोई और उपाय हम नहीं ईजाद कर सकते? ऐसे कई सवाल मन में उठते हैं, उठ सकते हैं। </div>
<div style="text-align: left;">
<br />
‘मेरे अध्ययन का विकास-क्रम’ में पिता की मृत्यु और वापस गाँव लौटने का प्रसंग बहुत मार्मिक है और उसके साथ ही रमेश उपाध्याय का जीवन-संघर्ष शुरू होता है। इस किताब में रमेश उपाध्याय को जानना, बिना किसी अतिशयोक्ति के, एक जीवन-संघर्ष की वृहत् गाथा से गुजरना है। कंपोजीटर बनने, फिर अलग-अलग पत्रिकाओं में साहित्यिक पत्राकारिता करने और वहाँ से अध्यापन की नौकरी तक आने का एक लंबा इतिहास यहाँ टुकड़ों-टुकड़ों में दर्ज है। इसी सब के बीच एक लेखक बनने की प्रक्रिया भी इसमें शामिल है। कहानी लिखने का एक दिलचस्प प्रसंग ‘कैद से निकलने की कोशिश है रचना’ वाले अध्याय में आया है। उनकी कहानी में अंतर्निहित आवेगµजिसकी रास वे अपनी भाषा और कथा-कौशल से एक हद तक हमेशा थामे रखते हैं या कहें कि खींचे रखते हैंµको समझने में यह प्रसंग मदद कर सकता है। इस प्रसंग का एक छोटा-सा हिस्सा है : </div>
<div style="text-align: left;">
<br />
‘‘उस जुलूस पर कहानी लिखने के बारे में मैंने बिलकुल नहीं सोचा था। मगर उस दिन, करोल बाग के उस बस-स्टैंड पर बैठे-बैठे अचानक लगा कि उस पर कहानी लिखनी चाहिए। और कहानी लिखने की वह ‘अर्ज’ इतनी जबर्दस्त थी कि मैं उठा, स्टेशनरी की एक दुकान से एक कापी और कलम खरीदी, और वापस बस-स्टैंड पर आकर कहानी लिखने बैठ गया। गर्मियों के दिन थे। बस-स्टैंड के ऊपर एस्बेस्टस की शीट वाला शेड तप रहा था और नीचे तप रही थी सीमेंट से बनी वह पटिया, जिस पर मैं बैठा था। लेकिन परवाह नहीं। मैंने कापी खोलकर घुटनों पर रखी और लिखना शुरू कर दिया।’’ </div>
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<br />
इस प्रसंग से उनकी रचना-प्रक्रिया में स्वतःस्फूर्तता और सामाजिक संघर्षों के प्रति उनके लगाव को समझा जा सकता है। </div>
<div style="text-align: left;">
<br />
‘अजमेर में पहली बार’ में मनमोहिनी जी से एकतरफा प्रेम का एक दिलचस्प प्रसंग भी रमेश जी ने बहुत बेबाकी से लिखा है। मैंने रमेश उपाध्याय की कविताएँ कभी नहीं देखीं। जीवन के इस तरह के अनुभव कहीं न कहीं उनकी कविता में शायद ज्यादा मुलायम ढंग से आये हों। यूँ प्रेम-प्रसंग कवियों की संपत्ति नहीं है। इस प्रेम-प्रसंग में और ‘दंडद्वीप’ में क्या संबंध है, यह मुझे इस किताब को पढ़ने के बाद ही मालूम हुआ। ‘दंडद्वीप’ उपन्यास बहुत पहले पढ़ा था। शायद इस रहस्य का पता चलने के बाद उसे दोबारा पढ़ने का कुछ अलग आनंद हो सकता है। प्लेजर ऑफ रीडिंग का एक संबंध कहीं किताब में वर्णित वृत्तांत के पीछे छिपे अनुभव को वास्तविक रूप में जान लेने में भी होता है। किताब के स्रोत जान लेने से धीरे-धीरे किताब के साथ दोस्ती ज्यादा गहरी होती जाती है। </div>
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<br />
रमेश उपाध्याय की इस किताब में एक अध्याय है ‘साहित्य सृजन और चेतना के स्रोत’। यह अध्याय कई दृष्टियों से बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह अध्याय एक स्तर पर पिछले दो दशकों से चली आती कई बहसों के बारे में बहुत सारी बातों को स्पष्ट कर देता है। इतिहास का अंत, लौंग नाइनटींथ सेंचुरी और दि शॉर्ट ट्वेंटियथ संेचुरी, कींसीय अर्थशास्त्रा, जनतंत्रा को बचाने में साम्यवाद की भूमिका आदि अनेक सवालों को इस छोटे-से व्याख्यान में समेट लिया गया है। इसी अध्याय में हॉब्सबॉम को उद्धृत करते हुए रमेश उपाध्याय का मानना है कि बीसवीं सदी अतीत की दृष्टि से तो अत्यंत महत्त्वपूर्ण है ही, भविष्य की दृष्टि से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। हॉब्सबॉम का कहना है--‘‘हम नहीं जानते कि आगे क्या होगा और तीसरी सहस्राब्दी कैसी होगी, लेकिन वह जैसी भी होगी, इस संक्षिप्त बीसवीं सदी (1914-1991) से ही अपना रूपाकार ग्रहण करेगी।’’ </div>
<div style="text-align: left;">
<br />
<span style="color: red;"><b>: तीन :</b></span></div>
<div style="text-align: left;">
<br />
‘मेरी नाट्य-लेखन यात्रा’ में नाट्य-लेखन के क्षेत्रा में रमेश उपाध्याय के कामों का ब्यौरा मौजूद है। उनके अनेक नुक्कड़ नाटकों से मैं परिचित रहा हूँ। लेकिन रेडियो के लिए ध्वनि नाटकों के क्षेत्रा में भी उन्होंने इतना काम किया है, इसकी जानकारी मुझे इस किताब से ही मिली। उन्होंने सेमुअल बैकेट के नाटक ‘वेटिंग फॉर गोदो’ का रूपांतर ‘प्रतीक्षा और प्रतीक्षा’ के नाम से किया और दिलचस्प यह है कि इस नाटक में रमेश उपाध्याय और स्वयं प्रकाश दोनों ने अभिनय भी किया था। ‘पेपरवेट’, ‘सफाई चालू है’ और ‘भारत-भाग्य-विधाता’ नामक मौलिक नाटकों के लेखन के साथ-साथ अनेक विश्व प्रसिद्ध कहानियों के नाट्य रूपांतर भी उन्होंने किये हैं। इस किताब की एक खूबी यह भी है कि कहीं विस्तार से और कहीं कोताही के साथ रमेश उपाध्याय के सभी पक्ष इस किताब में आ गये हैं। </div>
<div style="text-align: left;">
<br />
रमेश उपाध्याय मनचाहे ढंग से मनचाहा काम करना चाहने वाले लेखक हैं। उन्हें अपने कमरे में, अपनी किताबों के बीच, अपनी मेज-कुर्सी पर बैठकर और कमरे का दरवाजा खुला रखकर लिखना प्रिय है। अपने कमरे में जिस कुर्सी पर बैठकर वे लिखते हैं, उसके अलावा किसी और कुर्सी का मोह या चाह उन्हें नहीं है। इस सादगी के साथ ही उनका मानना है और उनका स्वप्न भी है कि ‘‘मार्क्स ने ‘दुनिया के मजदूरो, एक हो!’ का जो नारा दिया था, उसको वास्तविकता में बदलने का समय आ गया है। पूँजीवाद एक वैश्विक व्यवस्था है, तो समाजवाद भी एक वैश्विक व्यवस्था ही है। अतः स्वाभाविक तर्क यह बनता है कि जब पूँजी का भूमंडलीकरण हो सकता है, तो श्रम का भूमंडलीकरण क्यों नहीं हो सकता? पूँजीवाद सारी दुनिया में फैल सकता है, तो समाजवाद भी सारी दुनिया में फैल सकता है। अतः अब ‘एक देश में समाजवाद’ का सीमित स्वप्न देखने की जगह ‘‘सभी देशों में समाजवाद’’ का असीमित स्वप्न देखने का समय आ गया है।’’ (‘हमारे समय के स्वप्न’) </div>
</div>
ramesh upadhyayhttp://www.blogger.com/profile/05054633574501788701noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1496071818736613491.post-4369307935262155662013-12-18T07:05:00.001-08:002013-12-18T07:15:37.235-08:00प्रतिसृष्टि<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<b><span style="color: blue; font-size: large;">रमेश उपाध्याय की नयी कहानी </span></b><br />
<br />
शिखर सुकुमार के नाटक ‘असत्य हरिश्चंद्र’ का विरोध। विरोधियों ने प्रेक्षागृह में घुसकर नारेबाजी, हाथापाई और कुछ तोड़-फोड़ भी की। पुलिस बुलानी पड़ी। गिरफ्तार किये गये लोगों के नेता ने कहा कि इस नाटक में सत्यवादी हरिश्चंद्र का मजाक उड़ाकर भारतीय संस्कृति का अपमान किया गया है। सरकार को इस नाटक पर अविलंब प्रतिबंध लगाना चाहिए।<br />
<br />
कल इसी अखबार में नाटक की समीक्षा छपी थी, जिसमें नाटक को ‘‘पौराणिक कथा के ढाँचे में वर्तमान के यथार्थ को हास्य-व्यंग्य की शैली में मनोरंजक ढंग से सामने लाने वाला नाटक’’ बताते हुए लेखक की प्रशंसा की गयी थी कि ‘‘शिखर सुकुमार एक दलित लेखक होने के बावजूद वेदों और पुराणों के अध्येता तथा संस्कृत नाटकों और महाकाव्यों के मर्मज्ञ हैं’’। लेकिन आज उस पर ‘‘अविलंब प्रतिबंध’’ लगाने की माँग करने वाले समाचार के साथ-साथ ‘बॉक्स आइटम’ बनाकर बड़े ध्यानाकर्षक ढंग से यह भी छापा गया था कि ‘‘दलित लेखकों ने पल्ला झाड़ा: शिखर सुकुमार को ब्राह्मणवादी लेखक बताया’’।<br />
<br />
रविवार की छुट्टी का दिन था। सुबह के आठ बज चुके थे, लेकिन जय और विजय अभी तक अपने कमरे में सोये पड़े थे। मैं और प्रभा सुबह की ताजी हवा और खुशनुमा धूप का आनंद लेते हुए बालकनी में बैठे चाय पी रहे थे और अखबार पढ़ रहे थे। मैंने हिंदी अखबार में छपा समाचार पढ़कर प्रभा से कहा, ‘‘देखना, सुकुमार जी के नाटक के बारे में अंग्रेजी में भी कुछ छपा है क्या?’’<br />
<br />
‘‘क्यों, क्या हो गया?’’ पूछकर प्रभा अंग्रेजी अखबार के पन्ने पलटने लगी और अगले ही क्षण चौंककर बोली, ‘‘हें, यह क्या?’’<br />
<br />
अंग्रेजी अखबार में भी प्रदर्शनकारियों को पकड़कर ले जाती पुलिस का वैसा ही चित्र छपा था, लेकिन समाचार कुछ भिन्न था। विरोध-प्रदर्शन करने वालों के द्वारा नाटक पर प्रतिबंध लगाने की माँग की खबर तो थी, लेकिन दलित लेखकों द्वारा शिखर सुकुमार को ब्राह्मणवादी लेखक बताये जाने की खबर उसमें नहीं थी। हाँ, उसमें नाटक की सराहना उसे ‘‘पुरानी कहानी का नया कॉमिक रूप’’ और ‘‘हिलेरियस कॉमेडी’’ बताते हुए अलग से की गयी थी।<br />
<br />
मैंने शिखर सुकुमार को फोन करने के लिए मोबाइल उठाया, लेकिन नंबर मिलाने के पहले ही वह बजने लगा।<br />
रामाधार ठाकुर का फोन था। एक प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित पत्रिका के प्रधान संपादक रामाधार ठाकुर का, जो पत्रकार ही नहीं, प्रसिद्ध साहित्यकार भी हैं।<br />
<br />
‘‘अहा, रामाधार जी, नमस्कार! कहिए, सुबह-सुबह कैसे याद किया?’’<br />
<br />
‘‘चंडीप्रसाद जी, आपसे एक निवेदन करना था।’’<br />
<br />
‘‘आज्ञा कीजिए।’’<br />
<br />
‘‘क्या बात करते हैं! आप इतने बड़े लेखक हैं, उम्र में भी मुझसे बड़े हैं, मैं आपको आज्ञा दूँगा?’’<br />
<br />
‘‘फिर भी। आप संपादक ठहरे और मैं लेखक!’’ मैंने हँसते हुए कहा।<br />
<br />
लेकिन रामाधार ठाकुर विनम्रता के साथ बोले, ‘‘आपको पता नहीं, चंडीप्रसाद जी, मैं आपका पुराना पाठक और प्रशंसक हूँ। आपकी पुस्तक ‘शिखर सुकुमार: एक औघड़ साहित्यकार’ मैंने खरीदकर पढ़ी थी और वह आज भी मेरे पास है। सुकुमार जी मेरे प्रिय लेखक हैं और आपने उन पर इतनी अच्छी किताब लिखी है, इसलिए आप भी मेरे प्रिय लेखक हैं...’’<br />
<br />
‘‘मैं भी आपका प्रशंसक हूँ, रामाधार जी! आपके पत्रकार और साहित्यकार दोनों रूपों का। खैर, बताइए, क्या बात है?’’<br />
<br />
‘‘सुकुमार जी का नया नाटक ‘असत्य हरिश्चंद्र’ आपने देख लिया होगा...?’’<br />
<br />
‘‘अभी नहीं देखा, लेकिन देखना है।’’<br />
<br />
‘‘तब तो मेरा निवेदन है कि आप उसे आज ही देख लें। उस पर कुछ विवाद छिड़ गया है।’’<br />
<br />
‘‘हाँ, मैंने अभी-अभी अखबार में पढ़ा...लेकिन कारण समझ में नहीं आया। किस्सा क्या है?’’<br />
<br />
‘‘कल का किस्सा तो इतना ही है कि शाम के शो में कुछ उपद्रवी लोगों ने हॉल में घुसकर नाटक बंद कराने की कोशिश की। मौके पर पहुँची पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। दर्शकों के हित में अच्छी बात यह रही कि तकरीबन आधे घंटे के इस व्यवधान के बावजूद वे पूरा नाटक देख पाये। लेकिन आज क्या होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। हो सकता है, आज और आगे के शो कैंसिल हो जायें, या नाटक पर प्रतिबंध ही लग जाये। इसलिए मेरा निवेदन है कि आप आज ही और पहला ही शो देख लें और हमारी पत्रिका के लिए उसकी समीक्षा लिख दें।’’<br />
<br />
‘‘ठीक है, मैं आज ही देख लूँगा।’’ मैंने कहा, ‘‘समीक्षा कब तक लिखकर देनी होगी?’’<br />
<br />
‘‘पत्रिका, आप जानते हैं, पाक्षिक है। अगला अंक आने में अभी दस दिन हैं। इसलिए आप आराम से एक सप्ताह का समय ले सकते हैं। बाकी टिकट वगैरह की चिंता आप न करें। दफ्तर की गाड़ी आपको लेने आ जायेगी और शो के बाद आपको वापस घर पहुँचा देगी। गाड़ी में ड्राइवर के अलावा दो लोग और रहेंगेµएक रिपोर्टर, एक फोटोग्राफर। अगर कोई गड़बड़ी हुई, तो वे एक तरह से आपके अंगरक्षक भी होंगे।’’<br />
<br />
‘‘क्या इतना खतरा है?’’<br />
<br />
‘‘घबराइए नहीं। मजाक कर रहा हूँ। मामला मीडिया में उछल गया है, इसलिए फुटेज चाहने वाले नेता लोग विरोध-प्रदर्शन तो जरूर करेंगे। लेकिन पुलिस का बंदोबस्त भी तगड़ा होगा। लगता तो नहीं कि कोई गड़बड़ी होगी, फिर भी सावधानी तो हमें बरतनी ही चाहिए। आप नि¯श्चत रहें, आपकी सुरक्षा हमारी जिम्मेदारी है। बस, दुआ करें कि आज का पहला शो कैंसिल न हो। छुट्टी का दिन है। आप घर पर ही रहें। शो तीन बजे शुरू होगा, गाड़ी दो बजे आपके घर पहुँच जायेगी। ठीक है?’’<br />
<br />
‘‘जी, रामाधार जी, ठीक है। मैं दो बजे तैयार मिलूँगा।’’<br />
<br />
खतरे वाली बात सुनकर प्रभा चौकन्नी हो गयी थी। मैंने ज्यों ही फोन रखा, उसने पूछा, ‘‘क्या बात है? कहाँ जाना है?’’<br />
<br />
मैंने पूरी बात उसे बता दी। उपद्रव की आशंका और अंगरक्षकों वाली बात सुनकर वह डर गयी। बोली, ‘‘कोई जरूरत नहीं इस तरह जान जोखिम में डालने की! फौरन फोन उठाओ और मना कर दो।’’<br />
<br />
मैंने चाय की एक चुस्की ली, प्याला नीचे रखा और फोन उठा लिया। प्रभा मुझे अपने आदेश का पालन करते देख संतुष्ट-सी होकर बच्चों को जगाने चली गयी। लेकिन मैंने रामाधार ठाकुर का नहीं, शिखर सुकुमार का नंबर मिलाया।<br />
<br />
अपने फोन पर मेरा नंबर देखते ही उन्होंने कहा, ‘‘हाँ, चंडीप्रसाद! कैसे हो?’’<br />
<br />
‘‘मैं तो ठीक हूँ, गुरुजी, लेकिन आपने यह क्या बवाल खड़ा कर दिया?’’<br />
<br />
‘‘सवाल उठेंगे, तो बवाल भी खड़े होंगे।’’ कहकर उन्होंने ठहाका लगाया।<br />
<br />
‘‘ऐसा क्या सवाल उठा दिया आपने?’’<br />
<br />
‘‘इसका मतलब है, तुमने नाटक अभी तक देखा नहीं है!’’<br />
<br />
‘‘आज जा रहा हूँ देखने। पहला ही शो।’’<br />
<br />
‘‘तो ठीक है, नाटक देखने के बाद बात करना। मैं वहीं मिलूँगा।’’ कहकर उन्होंने फोन काट दिया।<br />
<br />
प्रभा बच्चों के कमरे से निकलकर रसोईघर की तरफ जा रही थी, लेकिन उसके कान शायद मेरी तरफ ही लगे हुए थे। शिखर सुकुमार से बात करके ज्यों ही मैंने फोन रखा, उसने ठिठककर पूछा, ‘‘मना कर दिया न?’’<br />
<br />
मैंने झूठ बोला, ‘‘वे नहीं मान रहे। नाटक देखने जाना ही पड़ेगा।’’<br />
<br />
प्रभा कुछ और कहे, इसके पहले ही मैंने कहा, ‘‘डरो मत। दो अंगरक्षक मेरे साथ रहेंगे। मामला मीडिया में उछल गया है, इसलिए प्रशासन भी चुस्त हो गया होगा। वहाँ पुलिस का अच्छा बंदोबस्त होगा। डरने की कोई बात नहीं है।’’<br />
<br />
‘‘मेरी कोई बात मत सुनना!’’ प्रभा ने गुस्से में पैर पटककर जाते हुए कहा, ‘‘हमेशा अपने ही मन की करना!’’<br />
<br />
उसके जाते ही बड़े बेटे जय ने आकर मुझसे पूछा, ‘‘पापा, आप हमारे साथ टी.वी. देखेंगे या घूमने जायेंगे?’’<br />
<br />
रविवार की सुबह जय और विजय दोनों नियम से टी.वी. देखते हैं। प्रभा नाश्ते और दोपहर के खाने की तैयारी में लगती है और मैं कभी बाहर घूमने चला जाता हूँ, कभी बच्चों के साथ टी.वी. देखने बैठ जाता हूँ।<br />
<br />
‘‘तुम लोग देखो, मैं तो आज घूमने जाऊँगा।’’ मैंने अपनी चाय खत्म की और अपने ही बनाये नियम के अनुसार अपना जूठा प्याला स्वयं धोकर रखने के लिए रसोईघर में जा पहुँचा।<br />
<br />
प्रभा की नाराजगी दूर करने के लिए मैंने कहा, ‘‘घूमने जा रहा हूँ। बाजार से कुछ लाना है?’’<br />
<br />
प्रभा ने उत्तर नहीं दिया, तो मैंने पीछे से उसके कंधों पर दोनों हाथ रखते हुए कहा, ‘‘गुस्सा मत करो। नि¯श्चत रहो, मुझे कुछ नहीं होगा। यह सोचो कि तुम्हारा पति अचानक कैसा वी.आइ.पी. बन गया है! इतना बड़ा संपादक खुद फोन करके अपनी पत्रिका में लिखने के लिए कह रहा है। आने-जाने के लिए गाड़ी भेज रहा है। साथ में दो अंगरक्षक भी। कभी सुने हैं किसी हिंदी लेखक के ऐसे ठाठ? फिर, शिखर सुकुमार के नाटक पर लिखने का अवसर मिल रहा है। सो भी एक विवादास्पद नाटक पर लिखने का अवसर। नाटक तो चर्चित होगा ही, लगे हाथ नाट्य समीक्षक के भी चर्चित हो जाने का अच्छा अवसर है!’’<br />
<br />
‘‘तो ठीक है! जाओ, बनो अवसरवादी, हमें क्या!’’ प्रभा ने अपने कंधों पर से मेरे हाथ हटाते हुए कहा। उसके स्वर और स्पर्श से मैं समझ गया कि उसकी नाराजगी दूर हो गयी है।<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
पब्लिक पार्क में घूमते समय मैं सोचता रहा कि शिखर सुकुमार ने आखिर ऐसा क्या लिख दिया होगा, जिस पर इतना बखेड़ा खड़ा हो गया है। अचानक मुझे उनकी एक बात और उनसे अपनी पहली मुलाकात याद आ गयी।<br />
<br />
यह तब की बात है, जब मैंने पीएच.डी. के लिए अपना शोधकार्य शिखर सुकुमार के नाटकों पर करने का निश्चय किया था। संयोग से मेरे शोध निर्देशक प्रोफेसर डी.के. राय भी शिखर सुकुमार के मित्र और प्रशंसक थे। उन्होंने मुझसे कहा कि काम शुरू करने से पहले उनके नाटकों को अच्छी तरह पढ़ लो और एक बार उनसे मिल भी लो। मैंने प्रोफेसर राय को बताया कि सुकुमार जी के तीनों नाटक मैं पढ़ चुका हूँ और पढ़कर बहुत प्रभावित हुआ हूँ, तो उन्होंने प्रसन्न होकर अपने मित्र का फोन मिलाकर कहा, ‘‘सुुकुमार, मेरे एक शोधछात्र चंडीप्रसाद तुम्हारे नाटकों पर काम कर रहे हैं। वे तुमसे मिलना चाहते हैं। उन्हें तुम्हारे पास कब भेजूँ?’’<br />
<br />
निर्धारित तिथि और समय पर मैं सुकुमार से मिलने गया, तो मन में एक भय-सा था। इतने बड़े साहित्यकार हैं, मुझसे उन्होंने कुछ पूछा और मैं जवाब न दे पाया, तो? कहीं मुझे डाँटकर भगा न दें। इसलिए जब मैंने उनके दरवाजे की घंटी बजायी, तो घंटी के स्विच पर मेरी उँगली काँप रही थी।<br />
<br />
एक अधेड़ आदमी ने दरवाजा खोला, जो नीले चारखाने की लुंगी और सफेद बनियान पहने हुए था। साँवले रंग के, स्वस्थ शरीर वाले, लंबे कद के उस आदमी के सिर के खिचड़ी बालों में से गंजापन दिख रहा था। मुझे उसका चौड़ा माथा गंजेपन में जा मिलने से कुछ ज्यादा ही चौड़ा लगा। ठक् से मेरी चेतना में कहीं पढ़ा हुआ एक शब्द आ टकरायाµप्रशस्त ललाट! मैंने देखा, उस आदमी की दाढ़ी-मूँछ सफाचट थीं और काले रंग के मोटे फ्रेम के चश्मे में से उसकी छोटी-छोटी पैनी आँखें मुझसे पूछ रही थीं--कहिए?<br />
<br />
‘‘सर, मैं चंडीप्रसाद पंडित, मुझे...’’<br />
<br />
‘‘आइए, आइए। देवेंद्र ने, मतलब आपके प्रोफेसर डी.के. राय ने आपको भेजा है न?’’<br />
<br />
‘‘जी, सर!’’ कहते हुए मैं उनके पैर छूने के लिए झुका।<br />
<br />
‘‘नहीं-नहीं।’’ कहते हुए शिखर सुकुमार पीछे हट गये, ‘‘मैं पैर छूना-छुआना पसंद नहीं करता।’’ फिर मुझे सोफे पर बैठने के लिए कहकर मेरे सामने बैठते हुए उन्होंने व्यंग्यपूर्ण मुस्कान के साथ कहा, ‘‘वैसे भी मैं शूद्र, आप ब्राह्मण। आप से पैर छुआकर मैं नरक में जाऊँ न जाऊँ, आपका धर्म तो भ्रष्ट हो ही जायेगा न!’’<br />
<br />
‘‘क्षमा करें, सर, आपके नाटकों को पढ़कर तो लगता है कि आप जात-पाँत और छुआछूत कुछ नहीं मानते। आप साहित्यकार हैं, मेरे गुरुजी के मित्र हैं, गुरु समान हैं, आपके पैर छूना मेरा धर्म है। और जहाँ तक स्वर्ग और नरक में जाने की बात है, आपने अपने नाटक ‘देवासुर संग्राम’ में लिखा है कि ये तो कपोल कल्पनाएँ हैं। स्वर्ग राजा द्वारा प्रजा को लुभाने के लिए दिखाये जाने वाले सब्जबाग की कल्पना है और नरक उसे डराने के लिए दिखाये जाने वाले यातनागृह की कल्पना!’’<br />
<br />
‘‘अरे वाह! लगता है, आप खासी तैयारी करके मुझसे मिलने आये हैं!’’ सुकुमार प्रसन्न होकर हँसते हुए बोले, ‘‘देवेंद्र ने मुझे बता दिया था कि आप वामपंथी छात्र संगठन में सक्रिय रहे हैं। ऐसा माना जाता है कि वामपंथी लोग जात-पाँत नहीं मानते। लेकिन मैं ऐसे कई वामपंथियों को जानता हूँ, जो बातों में मार्क्सवादी और व्यवहार में ब्राह्मणवादी होते हैं। इसलिए मैंने सोचा कि पानी पिलाने से पहले आपको अपनी जात बता दूँ!’’<br />
<br />
‘‘तो पहले पानी ही पिला दीजिए, सर! बस स्टैंड से आपके घर का पता पूछता पैदल चला आ रहा हूँ और बाहर बड़ी तेज धूप और गर्मी पड़ रही है।’’<br />
<br />
‘‘अभी लाया।’’ कहकर सुकुमार घर के अंदर चले गये।<br />
<br />
जब तक वे पानी लेकर आये, मैं उनकी बैठक को देखता रहा। एक तरफ सोफा सेट। दूसरी तरफ डाइनिंग टेबल। एक कोने में टेलीफोन। दूसरे कोने में टेलीविजन। एक दीवार में बनी बड़ी खिड़की के बंद शीशों के पार धूप में चमकते नीम और जामुन के पेड़। दूसरी लंबी दीवार पर लेटे हुए बुद्ध की विशाल प्रतिमा का बहुत बड़ा फोटोग्राफ। सोफों के बीच छोटी मेज की शीशे वाली टॉप पर खुली हुई मगर औंधाकर रखी हुई एक पुस्तक, जिसके नीले आवरण पर छपा नाम पढ़ने में आ रहा था--‘सोशल मूवमेंट्स इन इंडिया’। कमरे में ए.सी. की ठंडक थी, लेकिन ए.सी. कहीं दिखायी नहीं दे रहा था।<br />
<br />
थोड़ी देर बाद सुकुमार अंदर आये। उनके एक हाथ में पानी का गिलास था और दूसरे में फ्रिज से निकाली गयी ठंडे पानी की बोतल। पीछे-पीछे एक ट्रे में लाल शर्बत के चार गिलास लिये उनकी पत्नी दमयंती जी आयीं और उनके पीछे मिठाई और नमकीन की ट्रे उठाये उनका युवा बेटा अतुल।<br />
<br />
बातों-बातों में पता चला कि दमयंती जी एक सरकारी दफ्तर में बड़ी अधिकारी हैं और अतुल दिल्ली विश्वविद्यालय में एम.ए. मनोविज्ञान का छात्र। सुकुमार कोई नौकरी नहीं करते, ‘शिखर’ नामक अपनी एक नाट्य संस्था चलाते हैं और उसकी गतिविधियों में व्यस्त रहते हैं। आज छुट्टी का दिन होने से तीनों एक साथ दोपहर के समय घर में हैं, अन्यथा इस समय घर अक्सर बंद ही रहता है।<br />
<br />
फिर जब बातों का सिलसिला शुरू हुआ, तो दोपहर के भोजन के समय तक चलता चला गया। मेरे बहुत ना-ना करने पर भी सुकुमार ने, और उनसे भी अधिक दमयंती जी ने, आग्रहपूर्वक मुझे अपने साथ बिठाकर भोजन कराया। भोजन करते समय मैंने मजाक में कहा, ‘‘आज तो आप लोगों ने एक ब्राह्मण का धर्म पूरी तरह भ्रष्ट कर दिया!’’<br />
<br />
‘‘लेकिन सावधान!’’ दमयंती जी ने अपने पति की ओर संकेत करते हुए कहा, ‘‘ये कहीं आपकी बुद्धि भी भ्रष्ट न कर दें! ये अपने ढंग के एक ही हैं। जहाँ लाभ की संभावना हो, वहाँ नहीं जायेंगे; लेकिन जहाँ हानि की आशंका हो, वहाँ जरूर जायेंगे! दलित हैं, लेकिन आरक्षण के विरोधी हैं। खुद तो आरक्षण का कभी कोई लाभ नहीं ही उठाया, अतुल को भी नहीं उठाने दिया। अपनी तरह इसे भी जनरल कैटेगरी में डाल रखा है। मेरी पढ़ाई, नौकरी और पदोन्नति आरक्षण के आधार पर हुई है, सो मुझे कोटे वाली कहकर चिढ़ाते रहते हैं। नाटक ऐसे लिखते हैं कि विरोध हो, बवाल मचे, प्रशंसा की जगह इनकी पिटाई हो! दूसरे लोग पैसा कमाने और पुरस्कार वगैरह पाने के लिए थियेटर करते हैं। इन्होंने अपनी संस्था के लिए किसी भी तरह की फंडिंग लेने से इनकार कर रखा है!’’<br />
<br />
सुकुमार ने उनकी बात का उत्तर एक हल्की हँसी से देकर मुझसे कहा, ‘‘निंदक नियरे राखिए!’’ <br />
<br />
हँसी-खुशी भोजन समाप्त हुआ, तो दमयंती जी और अतुल अपने-अपने कमरे में आराम करने चले गये। बैठक में सुकुमार और मैं ही रह गये, तो उन्होंने हिंदी में होने वाले शोधकार्यों का मजाक-सा उड़ाते हुए कहा, ‘‘हाँ, भई, अब बताइए, क्या खोजना चाहते हैं आप मेरे नाटकों में?’’<br />
<br />
‘‘सर, मेरे शोध का विषय है ‘शिखर सुकुमार के नाटकों में पौराणिक मिथकों का उपयोग’।’’<br />
<br />
‘‘सिरे से गलत!’’ उन्होंने हँसते हुए कहा। लेकिन अगले ही क्षण गंभीर होकर बोले, ‘‘मैं अपने नाटकों में मिथकों का उपयोग नहीं करता, बल्कि उन्हें तोड़ने का काम करता हूँ। मिथक समाज की किसी व्यवस्था को बनाये रखने के लिए गढ़े और बनाये रखे जाते हैं। यथास्थितिवादी साहित्य में मिथकों का उपयोग इसी उद्देश्य से किया जाता है। लेकिन समाज की व्यवस्था में बदलाव चाहने वाले यथार्थवादी साहित्य में बने-बनाये मिथकों को तोड़ा जाता है। मसलन, अपने नाटक ‘आरण्यक’ में मैंने राम के ईश्वरीय मिथक को तोड़ा है। मैंने राम को साधारण मनुष्य बना दिया है। राम उसमें जंगलों को जलाकर कृषि योग्य भूमि पाना चाहने वाली कृषि-आधारित सामाजिक व्यवस्था का नायक है, जबकि रावण जंगलों में रहने वाली आदिवासी जनजातियों का नायक। एक पक्ष को जंगल जलाकर खेती के लिए जमीन चाहिए, तो दूसरे पक्ष के लिए जंगल ही जीवन का आधार है। यही है राम-रावण युद्ध का कारण। राम का पक्ष प्रबल है, क्योंकि उसमें जंगल में रहने वाली जनजातियों को ही नहीं, रावण के भाई विभीषण तक को अपने पक्ष में मिला लेने की और शत्रु पक्ष को कमजोर कर देने की क्षमता है। राम के पास अपनी कोई सेना नहीं थी। जंगल के मूल निवासियों को संगठित करके उसने अपनी सेना बनायी, जो रावण की सेना पर भारी पड़ी। इस प्रकार मैंने राम-रावण युद्ध को पौराणिक संदर्भ से निकालकर ऐतिहासिक संदर्भ से जोड़ दिया है।’’<br />
<br />
‘‘ऐतिहासिक संदर्भ?’’ मैंने चकित होकर पूछा।<br />
<br />
‘‘कैसे वामपंथी हो, भाई? मोड ऑफ प्रोडक्शन जानते हो न? उत्पादन का तरीका! राम-रावण का युद्ध उत्पादन के दो तरीकों की लड़ाई है। पुराना तरीका है जंगलों में रहकर शिकार और आहार संग्रह करना। नया तरीका है जंगल जलाकर खेती करना। पुराने तरीके पर नये तरीके की विजय होती है। यह ऐतिहासिक संदर्भ है। समझे?’’<br />
<br />
मेरे लिए यह व्याख्या बिलकुल नयी थी, जिसे मैं समझ नहीं पाया था, इसलिए मैंने नासमझी के साथ कहा, ‘‘जी!’’<br />
<br />
सुकुमार हँस पड़े, ‘‘वाह! जो बात मेरी समझ में दसियों साल इतिहास-पुराण खँगालने पर आयी, उसे आप दो मिनट में समझ गये? घर जाइए, मेरे नाटक को फिर से पढ़िए, नये सिरे से उस पर सोचिए, तब फिर आकर बताइए कि क्या समझे!’’<br />
<br />
मैं उठ खड़ा हुआ, लेकिन चलते-चलते ठिठककर मैंने पूछा, ‘‘मगर, सर, मेरे शोध का विषय तो आपके नाटकों में पौराणिक मिथकों का ‘उपयोग’ है। उसमें मिथकों को ‘तोड़ने’ की बात कैसे...?’’<br />
<br />
‘‘यह आपकी समस्या है। एक लेखक के रूप में मेरा कहना यह है कि अगर आप किसी नये या पुराने मिथक को ध्वस्त नहीं कर सकते, तो आप सृजनशील लेखक नहीं हैं; क्योंकि सृजन का तो अर्थ ही है पुराने का ध्वंस और नये का निर्माण!’’<br />
<br />
<br />
<br />
धूप तेज होने लगी थी। मैंने पब्लिक पार्क से निकलकर घर की ओर कदम बढ़ाये ही थे कि सड़क पर पत्रकार प्रभात अपनी कार में जाते दिखायी दिये। उन्होंने शायद मुझे नहीं देखा और मैं उनकी ओर अभिवादन में हाथ हिलाता रह गया।<br />
<br />
उन्हें देखकर मुझे सुकुमार के नाटक ‘आरण्यक’ पर हुए हिंसक विवाद की याद आ गयी। ‘आरण्यक’ के प्रदर्शन बरसों से होते आ रहे थे, लेकिन उस बार उसके शो फिर से शुरू किये गये, तो न जाने कैसे भारतीय संस्कृति की रक्षा के कुछ ठेकेदारों की भावनाएँ भड़क गयी थीं और उन्होंने सुकुमार पर लगभग जानलेवा हमला करके उन्हें बुरी तरह घायल कर दिया था। इलाज कराने के लिए सुकुमार को कई दिन तक एक अस्पताल के प्राइवेट वार्ड में कमरा लेकर रहना पड़ा था। जब अतुल को कॉलेज और दमयंती जी को अपने दफ्तर जाना होता, तो मैं अस्पताल जाकर उनकी देखभाल किया करता था।<br />
<br />
एक दिन प्रभात सुकुमार का साक्षात्कार लेने आये थे। सुकुमार के शरीर पर पट्टियाँ बँधी हुई थीं। वे बिस्तर पर तकियों के सहारे अधलेटे-से बैठे थे। उनके सिरहाने की तरफ रखी कुर्सी पर बैठे प्रभात ने टेपरिकॉर्डर चालू करके अपने और उनके बीच रख दिया था। बातचीत कुछ-कुछ इस तरह हुई थी :<br />
<br />
प्रभात: लोग कह रहे हैं कि आप पर जो हमला हुआ, उसके लिए आप स्वयं ही जिम्मेदार हैं।<br />
<br />
सुकुमार: जाहिर है कि मैं ही जिम्मेदार हूँ।<br />
<br />
प्रभात: यानी हमला हुआ तो ठीक हुआ? हमलावर सही थे?<br />
<br />
सुकुमार: मैं ठीक-बेठीक और सही-गलत की बात नहीं कर रहा हूँ। इसका फैसला तो मेरे नाटक के दर्शकों, समीक्षकों और आप पत्रकार लोगों को करना है। या फिर कोर्ट-कचहरी वालों को। मैं केवल यह कह रहा हूँ कि मैंने नाटक में जो लिखा है, पूरे होशो-हवास में और अपने विचार से बिलकुल ठीक मानते हुए लिखा है। हमले से डरकर मैं उसे बदलने वाला या उसके लिए पछताने वाला नहीं हूँ।<br />
<br />
प्रभात: लेकिन आप पर आरोप है कि ‘आरण्यक’ में आपने रामकथा को बिलकुल बदल दिया है। राम को ईश्वर से साधारण मनुष्य बना दिया है।<br />
<br />
सुकुमार: इसमें आरोप क्या है? यह तो सच है। मैंने ऐसा ही किया है और जान-बूझकर किया है।<br />
<br />
प्रभात: लेकिन अगर इससे राम को भगवान मानने वालों की भावनाएँ आहत होती हैं, तो?<br />
<br />
सुकुमार: तो क्या? उनकी भावनाओं की अभिव्यक्ति को आप मेरे शरीर पर लगी चोटों के रूप में देख ही रहे हैं।<br />
<br />
प्रभात: अर्थात् जन-भावनाओं का आदर करते हुए आप अपने नाटक में कोई परिवर्तन करने को तैयार नहीं हैं?<br />
<br />
सुकुमार: जी, नहीं। राम हजारों साल से साहित्य में चित्रित होते आ रहे एक चरित्र हैं। हर साहित्यकार उन्हें अपने ढंग से चित्रित करता है। मैंने भी यही किया है। और यह मेरा अधिकार है। आपको शायद मालूम होगा कि रामकथा कोई एक ही या एक-सी चीज नहीं है। उसके विभिन्न रूप हैं और उसमें रामकथा की घटनाएँ और पात्र विभिन्न रूपों में चित्रित हुए हैं।<br />
<br />
प्रभात: अच्छा, आप दलित होते हुए भी पौराणिक विषयों पर क्यों लिखते हैं?<br />
<br />
सुकुमार: क्या किसी दलित को पौराणिक विषयों पर लिखने का अधिकार नहीं है?<br />
<br />
प्रभात: इन विषयों पर लिखने के कारण दलित लेखक आपको दलित नहीं, ब्राह्मणवादी लेखक मानते हैं।<br />
<br />
सुकुमार: यह उनकी समस्या है।<br />
<br />
प्रभात: आप पर इतना भयानक हमला हुआ और दलित लेखक आपके समर्थन में खड़े नहीं हुए, इसकी वजह क्या आपका ब्राह्मणवादी होना नहीं है?<br />
<br />
सुकुमार: मैं नहीं जानता।<br />
<br />
प्रभात: लेकिन जो लोग आपको अच्छी तरह जानते हैं...<br />
<br />
सुकुमार: वे कौन हैं, जो मुझे अच्छी तरह जानते हैं? अच्छी तरह जानने का मतलब होता है पूरी तरह जानना। किसी को अच्छी तरह जानने का दावा करने वालों के पास उसके बारे में अक्सर बहुत कम और आधी-अधूरी जानकारी होती है। अब, अगर कोई गीली मिट्टी हाथों में लेकर उसका एक गोला बनाये और आपसे कहे कि यह पृथ्वी है और मैं इसे अच्छी तरह जानता या जानती हूँ, तो क्या आप मान लेंगे कि मिट्टी का वह गोला सचमुच पृथ्वी है और उस व्यक्ति का उसे जानने का दावा सही है?<br />
<br />
प्रभात: आप तो बाल की खाल निकालने लगे!<br />
<br />
सुकुमार: नहीं, मैं आपसे एक ठोस प्रश्न पूछ रहा हूँ। अपने हाथों बनाये मिट्टी के गोले को पृथ्वी बताने वाला आदमी क्या सचमुच पृथ्वी को जानता है? क्या बड़े से बड़ा भूगोलवेत्ता, खगोलवेत्ता और भूगर्भवेत्ता भी यह दावा कर सकता है कि वह पृथ्वी को पूरी तरह जानता है? पृथ्वी की बात छोड़िए, आप अपने हाथों बनाये मिट्टी के गोले के बारे में ही कितना जानते हैं? उसमें कौन-सी मिट्टी है और किस प्रकार की? उसमें कितने कण हैं और कितने अणु-परमाणु? उसमें कितने ठोस, द्रव और गैसीय तत्त्व हैं? उसमें कौन-कौन-से भौतिक, जैविक और रासायनिक पदार्थ हैं?<br />
<br />
प्रभात: यह कुतर्क है, जिसके सहारे आप बातचीत से बचना या साक्षात्कार से इनकार करना चाह रहे हैं। आपके इस कुतर्क को ही आगे बढ़ाते हुए कहूँ, तो क्या पृथ्वी स्वयं को जानती है? या मिट्टी का एक गोला ही स्वयं को जानता है?<br />
<br />
सुकुमार: पता नहीं, लेकिन मैंने पृथ्वी को या मिट्टी के किसी गोले को स्वयं को अच्छी तरह जानने का दावा करते नहीं देखा। हम पृथ्वी को पृथ्वी और ढेले को ढेला कहते हैं। लेकिन क्या हम जानते हैं कि पृथ्वी स्वयं को पृथ्वी मानती है या ढेला स्वयं को ढेला मानता है?<br />
<br />
प्रभात: अच्छा, आप बताइए, आप खुद को क्या मानते हैं?<br />
<br />
सुकुमार: एक लेखक, एक नाटककार।<br />
<br />
प्रभात: सफल या असफल?<br />
<br />
सुकुमार: पता नहीं।<br />
<br />
प्रभात: आप स्वयं को किसी भी प्रतिस्पर्धात्मक दौड़ से बाहर क्यों कहते हैं?<br />
<br />
सुकुमार: इसलिए कि मैं सचमुच किसी दौड़ में शामिल नहीं हूँ।<br />
<br />
प्रभात: अच्छा, आपके प्रशंसक भी आपको औघड़ साहित्यकार कहते हैं। क्या यह आपको ठीक लगता है?<br />
<br />
सुकुमार: ठीक? मैं तो यह भी नहीं जानता कि औघड़ शब्द का अर्थ क्या होता है!<br />
<br />
मेरे सामने हुई इस बातचीत के वर्षों बाद जब मैं अपनी पहली पुस्तक ‘शिखर सुकुमार : एक औघड़ साहित्यकार’ की पहली प्रति भेंट करने गया था, तब मुझसे भी उन्होंने व्यंग्यपूर्वक मुस्कराते हुए पूछा था, ‘‘औघड़ का क्या अर्थ होता है?’’<br />
<br />
और मैंने उनसे पूछा था, ‘‘सर, धृष्टता क्षमा करें, कई बार जी में आया कि आपसे आपके नाम के बारे में पूछूँ। यह नाम आपने स्वयं रखा है या...?’’<br />
<br />
‘‘पहला आधा मेरे पिता का रखा हुआ है और दूसरा आधा मैंने खुद रखा है। वैसे मेरा नाम था शिखर दुसाध। दुसाध जाति का होने के कारण। लेकिन वेद, पुराण और संस्कृत साहित्य के आधुनिक व्याख्याकार मेरे गुरु कमलाकर जी ने मुझे पढ़ाना शुरू करते ही मेरा नाम बदल दिया। दुसाध की जगह दुस्साध्य। मुझे न दुसाध पसंद था न दुस्साध्य। किसी ने उसके बदले सुसाध्य सुझाया, लेकिन वह तो मुझे और भी खराब लगा। आखिरकार मैंने खुद ही अपना नाम शिखर सुकुमार रख लिया।’’<br />
<br />
मैं यह तो समझ गया था कि दुसाध उनकी जाति है, लेकिन यह शब्द मैंने पहली बार सुना था। मेरे चेहरे पर अचरज या जिज्ञासा जैसा कुछ रहा होगा, जिसे पढ़कर उन्होंने कहा, ‘‘मेरे पिता कबीर को बहुत मानते थे। कबीर की यह बात उन्होंने बचपन में ही जिंदगी भर के लिए गाँठ बाँध ली थी कि ‘जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान; मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान’। वे देहाती दुसाधों में पैदा हुए थे। सूअर पालना और बेचना उनका पुश्तैनी पेशा था। दुसाध बहुत नीची जाति मानी जाती थी। मेरे पिता ने प्रतिज्ञा की कि दुसाध नहीं रहेंगे, साधु बनेंगे। लेकिन दुनिया से संन्यास लेकर भीख माँगने निकल पड़ने वाले साधु-संन्यासी नहीं, बल्कि सच्चे साधु। सच्चे, सज्जन, चतुर, निपुण, योग्य और प्रशंसनीय वाले अर्थ में साधु। दुनिया से भागंेगे नहीं, दुनिया को बदलेंगे। कोई गुरु भी उन्हें अच्छा मिल गया था। उसने मेरे पिता को किसी अंग्रेज अफसर से मिलवा दिया, जिसने उन्हें सेना को सूअर सप्लाई करने की सलाह दी। शायद कुछ पैसा भी दिया, जिससे वे बड़े पैमाने पर सूअर पाल सकें। काम अच्छा चलने लगा। फौजी अफसरों से बात करने के लिए मेरे पिता ने कामचलाऊ अंग्रेजी सीख ली और कोट-पैंट वाली वेश-भूषा भी अपना ली। गाँव छोड़ शहर में रहने लगे। उन्होंने मुझे अंग्रेजी शिक्षा दिलायी। वे चाहते, तो स्कूल में मेरी जाति कुछ और भी लिखवा सकते थे। कौन पूछने वाला था? मगर उनका कहना था कि जन्म से दुसाध हो तो क्या हुआ? कर्म से साधु बनो। सो मैं जाति से आज भी दुसाध हूँ, बाकी तुम देख ही रहे हो!’’<br />
<br />
पूछते संकोच हुआ, मगर फिर भी मैंने पूछ लिया, ‘‘और आपके पिताजी का व्यवसाय? उसका क्या हुआ?’’<br />
<br />
सुकुमार जी मुस्कराते हुए बोले, ‘‘तुम्हें पता है, विश्वामित्र एक प्रतिसृष्टि करने या दूसरी दुनिया बनाने चला था और देवताओं के भेजे ब्रह्मा ने उसे समझा-बुझाकर ऐसा करने से रोक दिया था? मेरे पिता को भी मिल गये एक ब्रह्मा जी! उन्होंने कहाµ‘यह क्या कर रहे हो? हम देश की आजादी के लिए जिन अंग्रेजों से लड़ रहे हैं, तुम उन्हीं अंग्रेजों को खाने के लिए सूअर सप्लाई कर रहे हो? बंद करो यह धंधा और चलो हमारे साथ।’ मेरे पिता ने उनकी न सुनी होती, तो दूसरे विश्वयुद्ध में सेना को सामान सप्लाई करने वाले कई ठेकेदारों की तरह मालामाल होकर शायद बड़े पूँजीपति बन गये होते। लेकिन उन्होंने अपना धंधा बंद कर दिया और देश की सेवा करने चल दिये। आजादी के आंदोलन में शामिल हुए और जेल चले गये। आजादी मिलने पर जेल से छूटे, तो देखा कि दुनिया बदली नहीं, बल्कि बेहतर होने की जगह और बदतर हो गयी है। देश बँट गया है, लाखों लोग मारे जा रहे हैं, इधर से उधर और उधर से इधर विस्थापित हो रहे हैं। शरणार्थी कैंपों में स्वयंसेवक बनकर काम करते समय उन्होंने इतना दुख देखा कि विक्षिप्त-से हो गये। सबसे ज्यादा गुस्सा उन्हें उन लोगों पर आया, जो आजादी के आंदोलन में शामिल होने की कीमत वसूल करते हुए नेता और मंत्री बन बैठे थे। मेरे पिता को तो स्वतंत्रता सेनानी होने के कारण मिल सकने वाले लाभ उठाने वालों से भी सख्त नफरत थी। वे तो आरक्षण के भी सख्त खिलाफ थे।’’<br />
<br />
‘‘अच्छा? क्यों?’’<br />
<br />
‘‘वे कहते थे, जाति के नाम पर जो भी कोई लाभ उठाता है, चाहे वह सवर्ण हो या शूद्र, ऊँची जाति का हो या नीची जाति का, जात-पाँत की व्यवस्था को मजबूत बनाता है। तुम्हें जातिवाद को बढ़ाना नहीं है, खत्म करना है।’’<br />
<br />
<br />
<br />
दोपहर के भोजन के समय खाने की मेज पर एक तरफ मैं और प्रभा बैठे थे, दूसरी तरफ जय और विजय। अचानक प्रभा ने शिखर सुकुमार के नये नाटक की बात छेड़ दी। <br />
<br />
‘‘अब यह ‘असत्य हरिश्चंद्र’ क्या है?’’ प्रभा ने झुँझलाहट भरे स्वर में कहा, ‘‘दलित लेखक होने का मतलब यह तो नहीं कि आप पूरी भारतीय संस्कृति को ब्राह्मणवादी हथकंडा बतायें और उसके उजले पक्षों पर भी कालिख पोतने लगें! सत्यवादी हरिश्चंद्र तो एक नैतिक आदर्श है। राजा हरिश्चंद्र का आदर्श सामने रखकर हम अपने बच्चों को सत्यवादी बनने के लिए प्रेरित करते हैं। इसमें क्या बुराई है? उसे असत्यवादी बना-दिखाकर सुकुमार जी को क्या मिलेगा?’’<br />
<br />
‘‘नाटक देखे बिना तुम यह कैसे कह सकती हो कि उसमें सत्यवादी हरिश्चंद्र को असत्यवादी बनाया गया होगा? यह भी तो हो सकता है कि सुकुमार जी हरिश्चंद्र को एक फेक कैरेक्टर मानते हों और उसकी जगह एक जेनुइन कैरेक्टर की रचना करना चाहते हों?’’<br />
<br />
‘‘पर मैं कहती हूँ कि बुराइयों का विरोध करो, अच्छी बात है। असत्य, अन्याय, अत्याचार का विरोध करो, अच्छी बात है। लेकिन लीक से हटकर चलने के नाम पर या ब्राह्मणवाद का विरोध करने के नाम पर अपने आदर्शों को नष्ट करना क्या अच्छी बात है?’’<br />
<br />
मैं प्रभा की बातें सुन रहा था, लेकिन मेरे कान जय-विजय की बातचीत पर भी लगे थे। बड़ा भाई जय अपने छोटे भाई विजय को हरिश्चंद्र की कहानी सुना रहा था, ‘‘सत्यवादी मींस कि वो कब्भी झूठ नहीं बोलता था। जो कहता था, वो ही करता था। एक दिन देवताओं के राजा इंद्रा को लगा कि उसका सिंहासन हिल रहा है। मींस कि कोई और उसका सिंहासन छीनकर स्वर्ग का राजा बनना चाहता है...’’<br />
<br />
इधर प्रभा मुझसे कह रही थी, ‘‘सुकुमार जी क्या आसमान से टपके हैं या आसमान में रहते हैं? यह देश उनका नहीं है? इस देश का साहित्य, इस देश की सभ्यता और संस्कृति उनकी नहीं है? क्या उसकी रक्षा करना उनका काम नहीं है? दलित होने का यह मतलब है कि ब्राह्मणवाद का विरोध करने के नाम पर अपने वेद-पुराण वगैरह सब नष्ट कर दो?’’<br />
<br />
‘‘नहीं, वेदों-पुराणों की नयी व्याख्याएँ करना उन्हें नष्ट करना नहीं है। और पौराणिक साहित्य में अगर झूठी बातें भरी हुई हैं, तो उनके झूठ को झूठ कहना और सच को सामने लाना दलित लेखकों का ही नहीं, किसी भी लेखक का कर्तव्य है। अधिकार भी है। फिर, सुकुमार जी कोई सामान्य दलित लेखक नहीं हैं। पौराणिक साहित्य के अध्ययन और विश्लेषण के मामले में वे पंडितों के भी पंडित हैं। एक दिन मैंने उनसे पूछा कि आपने पौराणिक मिथकों को अपने लेखन का विषय क्यों बनाया, तो जानती हो, उन्होंने क्या कहा? उन्होंने कहा--चंडीप्रसाद, हर व्यवस्था का अपना एक तर्क होता है। उस तर्क से वह अपनी सुरक्षा का एक मजबूत परकोटा बनाती है। इतना मजबूत कि उसे तोड़ा न जा सके, कोई उसमें सेंध न लगा सके। लेकिन यह उसकी इच्छा और कोशिश ही होती है। ऐसी कोई अभेद्य प्राचीर बनाना उसके वश में नहीं होता। परम अभेद्य प्रतीत होने वाली प्राचीर में भी कहीं न कहीं कोई कमजोर जगह छूट ही गयी होती है। तुम्हारा काम होता है उस कमजोर जगह को ढूँढ़ निकालना और वहाँ से उस प्राचीर को तोड़ना शुरू करना। मैं यही काम करता हूँ।’’<br />
<br />
‘‘यानी हमारे पुरखों की बनायी वर्ण-व्यवस्था, जो इतनी मजबूत है कि हजारों साल से चली आ रही है, उसमें दोष देखना, कमियाँ और कमजोरियाँ ढूँढ़ना और तरह-तरह के तर्कों से उसका खंडन करनाµयही है उनका काम?’’<br />
<br />
प्रभा आज न जाने क्यों सुकुमार के प्रति असहिष्णु हो उठी थी, जबकि वह उनका आदर करती थी। हमारी शादी के समय से ही हम उनसे मिलने उनके घर जाते हैं, वे हमसे मिलने हमारे घर आते हैं। उनके यहाँ खाते और उन्हें अपने यहाँ खिलाते समय प्रभा के व्यवहार से कभी यह नहीं लगा कि वह वर्ण या जाति को लेकर कोई भेदभाव बरतती है।<br />
<br />
शादी के बाद उन लोगों के बारे में बताते समय ही मैंने उससे कह दिया था, ‘‘सुकुमार जी मेरे गुरु होने के नाते पिता समान हैं और दमयंती जी को मैं गुरु-पत्नी होने के नाते माताजी कहता हूँ। वे भी मुझे अपना बेटा ही मानती हैं, अपने बेटे अतुल का बड़ा भाई। लेकिन सोच लो, तुम पंडितानी हो, उस दलित परिवार के साथ यह रिश्ता निभा लोगी? अगर तुम्हें मंजूर नहीं, तो मैं तुम्हें जबर्दस्ती मजबूर नहीं करूँगा। लेकिन मैं उनसे अपना संबंध बनाये रखूँ, इसकी इजाजत तुम्हें देनी होगी।’’<br />
<br />
प्रभा ने कहा था, ‘‘पहले उनसे मिलवाओ तो!’’ और जब मैं उसे साथ लेकर सुकुमार के घर गया था, तो उसने बड़ी खूबसूरती से उन लोगों के साथ अपना रिश्ता जोड़ा था। दमयंती जी से उसने कहा था, ‘‘माताजी, मेरे सास-ससुर नहीं हैं। क्या आप लोग मेरे सास-ससुर बनना पसंद करेंगे?’’ और दमयंती जी ने कहा था, ‘‘हमारी भी अभी तक कोई बहू नहीं है। सो आज से तुम हमारी बहू हुईं।’’<br />
<br />
यह रिश्ता तब से अब तक दोनों तरफ से बड़े प्रेम से निभाया जाता रहा है। तो आज प्रभा को क्या हो गया है? सीधे पूछना मैंने उचित नहीं समझा, इसलिए थोड़ा घुमा-फिराकर पूछा, ‘‘नाटक देखे बिना ही तुम उसकी इतनी कटु आलोचक क्यों बन बैठी हो?’’<br />
<br />
‘‘बात नाटक की नहीं, सुकुमार जी के पूरे एटीट्यूड की है। दलित हैं तो दलितों वाला लेखन करें। दलित साहित्य तो आधुनिक, बल्कि उत्तर-आधुनिक साहित्य है। उसमें वेदों-पुराणों वाले विषय उठाने का क्या मतलब? ऐसा करके क्या वे सवर्ण साहित्यकार बनना चाहते हैं? क्या उन्हें पता नहीं है कि इंसान अपना धर्म वगैरह चाहे बदल ले, अपनी जाति कभी नहीं बदल सकता? आज के अखबार में जब से मैंने पढ़ा है कि दलित लेखक भी सुकुमार जी का साथ नहीं दे रहे हैं, तभी से सोच रही हूँ कि सुकुमार जी अपने पैरों पर खुद ही कुल्हाड़ी क्यों मार रहे हैं?’’<br />
<br />
‘‘यह काम वे आज से नहीं, शुरू से कर रहे हैं। लेकिन यह काम वे ब्राह्मण या ब्राह्मणवादी बनने के लिए नहीं कर रहे हैं। यह काम वे साहित्यिक मान्यता प्राप्त करने के लिए भी नहीं कर रहे हैं। लिखना उनके लिए व्यवस्था को बदलने का काम है। बड़े-बड़े विद्वान, इतिहासकार और समाजशास्त्री यह मानते हैंµऔर जातिवादी राजनीति करने वाले लोग तो हजारों तरह से रोजाना कहते ही हैंµकि जाति की व्यवस्था को बदला नहीं जा सकता। लेकिन सुकुमार जी अपने हर नाटक में यह दिखाते हैं कि जाति-व्यवस्था बदलती रही है और उसे बदला जा सकता है।’’<br />
<br />
‘‘लेकिन क्या सफेद पर काला पोतने से यह काम हो जायेगा?’’ प्रभा ने अपने गुस्से का सुराग-सा देते हुए कहा, ‘‘सत्य को असत्य कहने से क्या वह असत्य हो जायेगा? सत्यवादी हरिश्चंद्र लोगों के मन में बैठे हुए हैं, कोई लाख कोशिश कर ले, उन्हें असत्यवादी बताकर वहाँ से हिला नहीं सकता।’’<br />
<br />
‘‘तो यह सुकुमार जी की समस्या है, तुम क्यों नाराज हो रही हो?’’<br />
<br />
‘‘क्योंकि तुम उस नाटक की समीक्षा लिखने जा रहे हो। वे तुम्हारे गुरु हैं, पिता समान हैं, उनकी आलोचना तो तुम कर नहीं सकते। नाटक की प्रशंसा ही करोगे। नतीजा क्या होगा? दलित और गैर-दलित दोनों तुम्हारे भी पीछे पड़ जायेंगे। दो पाटों के बीच में गेहूँ के साथ-साथ घुन भी पिस जायेगा।’’<br />
<br />
‘‘ओ, अच्छा! अब समझा! तुम मेरे साहित्यिक भविष्य को लेकर चिंतित हो!’’ मैंने हँसते हुए कहा।<br />
प्रभा ने कोई उत्तर नहीं दिया, तो मैंने खाने की प्लेट से ध्यान हटाकर उसकी तरफ देखा। वह मेरी नहीं, अपने बेटों की बातें सुन रही थी।<br />
<br />
विजय को राजा हरिश्चंद्र की कहानी सुनाते हुए जय कह रहा था, ‘‘तो इंद्रा ने उसका टेस्ट लेने के लिए रिशी विश्वामित्रा को बैगर बनाके उसके पास भेजा। विश्वामित्रा बैगर बनके गया, तो हरिश्चंद्रा ने पूछाµबोल, क्या माँगता है? विश्वामित्रा बोलाµआइ वांट योर होल किंगडम...’’<br />
<br />
‘‘जय!’’ अचानक प्रभा जोर से चिल्लायी, ‘‘यह क्या हो रहा है? इंद्रा, विश्वामित्रा, हरिश्चंद्रा--यह क्या है?’’<br />
<br />
‘ममा, मैंने अपनी इंग्लिश की बुक में जो स्टोरी पढ़ी है, वो ही सुना रहा हूँ।’’<br />
<br />
‘‘हाँ, लेकिन यह इंद्रा-विंद्रा क्या है? इंद्र, विश्वामित्र और हरिश्चंद्र नहीं बोल सकते तुम?’’<br />
<br />
‘‘ममा, मैंने जो पढ़ा है, वही बोल रहा हूँ। आइ एन डी आर एµइंद्रा। स्कूल में सब ऐसे ही बोलते हैं। टीचर्स भी।’’<br />
<br />
‘‘वहाँ सब होंगे अंग्रेज! पर अपने घर में तो तुम इंद्र को इंद्र बोल सकते हो? कोई सुनेगा, तो क्या कहेगा कि हिंदी के प्रोफेसर और राइटर चंडीप्रसाद पंडित के बेटों को इंद्र बोलना भी नहीं आता!’’<br />
<br />
मैंने देखा कि लड़के खाना खत्म कर चुके हैं और प्रभा उन्हें लेक्चर पिलाने के मूड में है, तो लड़कों को इशारा किया कि ‘सॉरी’ बोलकर दोनों अपने कमरे में जायें। लड़कों ने इशारा समझा, झटपट यही किया और चले गये।<br />
<br />
प्रभा ने मेरी तरफ देखा, ‘‘सत्यानाश हो इंग्लिश मीडियम की इस पढ़ाई का! बच्चे अपने देवताओं, ऋषि-मुनियों और महापुरुषों के नामों का सही उच्चारण तक नहीं कर सकते!’’<br />
<br />
‘‘और यह नहीं सुना कि ‘विश्वामित्रा को बैगर बनाके भेजा’? बैगर!’’ कहते-कहते मुझे हँसी आ गयी और मैं जोर से हँस पड़ा।<br />
<br />
प्रभा ने जलती आँखों से मेरी तरफ देखा और मेज पर से बर्तन समेटने लगी। उसके गुस्से से बचने के लिए मैंने अपने जूठे बर्तन उठाये और रसोईघर में जाकर सिंक में रख दिये। अपनी स्टडी की तरफ जाते हुए मैं बच्चों के कमरे के सामने से गुजरा, तो पाया कि दरवाजा खुला है, दोनांे लड़के पलंग पर लेटे-बैठे हैं और राजा हरिश्चंद्र की कहानी जारी है।<br />
<br />
‘‘वो रियल राजा नहीं है, बुद्धू! वो तो एक कैरेक्टर है!’’ जय कह रहा था।<br />
<br />
मेरी इच्छा हुई कि जाकर प्रभा से कहूँ--लड़के जैसे भी हैं, काफी समझदार हैं। लेकिन मैं मुस्कराता हुआ अपनी स्टडी की ओर बढ़ गया।<br />
<br />
<br />
<br />
मैंने घड़ी देखी। एक बजा था। रामाधार ठाकुर के दफ्तर की गाड़ी मुझे दो बजे लेने आने वाली थी। मैंने सोचा, ‘असत्य हरिश्चंद्र’ देखने जाने से पहले भारतेंदु हरिश्चंद का लिखा नाटक ‘सत्य हरिश्चंद्र’ एक बार उलट-पलटकर देख लेना ठीक रहेगा। सो मैंने अपनी किताबों में से ‘सत्य हरिश्चंद्र’ नाटक निकाला और पढ़ने बैठ गया। ‘उपक्रम’ शीर्षक से लिखी गयी भूमिका में भारतेंदु ने लिखा थाµ‘‘जब हरिश्चंद्र के पिता त्रिशंकु ने इसी शरीर से स्वर्ग जाने के हेतु वशिष्ठ जी से कहा तो उन्होंने उत्तर दिया कि यह अशक्य काम हमसे न होगा...’’<br />
मैंने भारतेंदु की भूल पकड़ी। उन्होंने ‘वसिष्ठ’ को ‘वशिष्ठ’ लिखा था और उसके आगे ‘जी’ भी लगाया था, जबकि उनसे कहीं ज्यादा बड़े और बेहतर ऋषि विश्वामित्र को अनादर के साथ केवल विश्वामित्र लिखा था!<br />
भारतेंदु की भूल पकड़ने के चक्कर में मैं नाटक पढ़ना भूल गया और उन दिनों को याद करने लगा, जब अपने शोधकार्य के सिलसिले में शिखर सुकुमार के घर मेरा आना-जाना बहुत बढ़ गया था। मैं उनके परिवार के सदस्य जैसा हो गया था। यों विश्वविद्यालय द्वारा नियुक्त मेरे शोध निर्देशक प्रोफेसर डी.के. राय थे, लेकिन वास्तव में मेरा निर्देशन शिखर सुकुमार ही कर रहे थे। मैं उन्हें ‘सर’ कहना छोड़ ‘गुरुजी’ कहने लगा था और गुरु पत्नी के नाते दमयंती जी को माताजी। वे भी मुझे पुत्रवत मानने लगी थीं। एक दिन जब मैं उनके घर की बैठक में बैठा सुकुमार से कुछ चर्चा कर रहा था, वे एक अधबुना स्वेटर, सलाइयाँ और ऊन का गोला लिये हुए आयीं और सामने बैठकर स्वेटर बुनने लगीं।<br />
<br />
बातों-बातों में दमयंती जी ने कहा, ‘‘चंडी मेरा बड़ा बेटा है, अतुल छोटा।’’<br />
<br />
‘‘आप अद्भुत माँ हैं!’’ सुकुमार ने हँसकर कहा, ‘‘पहले आपको छोटा बेटा होता है, बाद में बड़ा!’’<br />
<br />
फिर उसी विनोद भाव से उन्होंने मुझसे कहा, ‘‘तुम भी बड़े अजीब द्विज हो, चंडीप्रसाद! तुम्हारा पहला जन्म ब्राह्मणों में हुआ है, दूसरा शूद्रों में!’’<br />
<br />
‘‘अच्छा ही है न, गुरुजी!’’ मैंने भी हँसते हुए कहा, ‘‘साहित्य में ब्राह्मणों की संख्या बहुत बड़ी है। इसलिए प्रतिस्पर्धा भी बहुत कड़ी है। पता नहीं, कब मान्यता मिले! दूसरी तरफ दलित साहित्य नया है, दलित लेखक भी कम ही हैं, सो दलित लेखक के रूप में मुझे मान्यता जल्दी मिल जायेगी! वाल्मीकि पहले दलित लेखक थे, उन्हें झटपट मान्यता मिल गयी होगी!’’<br />
<br />
सुकुमार मुस्कराये, ‘‘वाल्मीकि का उदाहरण सही नहीं है, चंडीप्रसाद! वाल्मीकि शूद्र थे, लेकिन उनकी ‘रामायण’ दलित साहित्य नहीं है। वह ब्राह्मणवादी साहित्य ही है। वह वर्ण-व्यवस्था को चुनौती देने वाला साहित्य नहीं, बल्कि उसको मजबूत बनाने वाला साहित्य है। वाल्मीकि ने यह तो सिद्ध कर दिखाया कि शूद्र भी श्रेष्ठ साहित्यकार हो सकते हैं, लेकिन अनजाने ही उन्होंने अपने उदाहरण से यह भी सिद्ध किया कि इसके लिए उनका ब्राह्मणवादी होना जरूरी है, उसी वर्ण-व्यवस्था को मजबूत बनाना जरूरी है, जिसने उन्हें व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर रख छोड़ा है! वाल्मीकि की जाति आसानी से दिख जाती है, लेकिन उनकी रचना में मौजूद ब्राह्मणवाद आसानी से नहीं दिखता।’’<br />
<br />
मैंने पूछा, ‘‘उसे कैसे देखा जा सकता है, गुरुजी?’’<br />
<br />
‘‘उसे देखने के लिए समाज में होने वाले संघर्षों को देखो। देखो कि वह संघर्ष क्या है, क्यों है, किनके बीच है और किसलिए है। मैं अपने नाटकों में बार-बार युद्ध की थीम क्यों लेता हूँ? अपने पहले नाटक में मैंने राम-रावण युद्ध को लिया। दूसरे नाटक में कौरवों-पांडवों के युद्ध को लिया। तीसरे नाटक में वैदिक काल के देवासुर संग्राम को लिया। अपना अगला नाटक मैं वसिष्ठ और विश्वामित्र के बीच के संघर्ष पर लिखने की सोच रहा हूँ। तुमने वसिष्ठ और विश्वामित्र के संघर्ष पर कभी गौर किया है? उन दोनों के बीच का संघर्ष क्या है?’’<br />
<br />
मैंने संकोचपूर्वक उत्तर दिया, ‘‘गुरुजी, मैं ज्यादा नहीं जानता। इतना ही जानता हूँ कि वसिष्ठ ब्राह्मण ऋषि थे और विश्वामित्र क्षत्रिय राजा। वसिष्ठ के पास एक गाय थी कामधेनु, जिससे जो चाहो मिल जाता था। ऐसी गाय जिसके पास हो, उसे और क्या चाहिए? विश्वामित्र ने वसिष्ठ के पास वह गाय देखी, तो बोले कि यह गाय हमें दे दो। वसिष्ठ ने नहीं दी, तो कहा कि इसे हमें बेच दो और बदले में जो चाहो, कीमत हमसे ले लो। वसिष्ठ ने गाय बेचने से भी इनकार कर दिया, तो विश्वामित्र ने उसे जबर्दस्ती ले जाने के लिए वसिष्ठ के आश्रम पर अपनी सेना के साथ आक्रमण कर दिया। लेकिन कामधेनु ने वसिष्ठ के कहने पर अपनी एक हुंकार से वीरों की ऐसी सेना पैदा कर दी कि विश्वामित्र की सेना उससे हार गयी। इससे विश्वामित्र को लगा कि असली शक्ति क्षत्रिय राजाओं के पास नहीं, ब्राह्मण ऋषियों के पास है। हम तो केवल राजर्षि हैं। वसिष्ठ ब्रह्मर्षि हैं। सो विश्वामित्र ने ब्रह्मर्षि बनने की ठान ली। इसके लिए उन्होंने घोर तपस्या की और आखिरकार ब्रह्मर्षि बन गये।’’<br />
<br />
‘‘बस?’’ दमयंती जी ने कहा, ‘‘चंडी, तुम्हें कहानी सुनाना नहीं आता। इतनी बड़ी कथा दो मिनट में सुना दी। कोई कथावाचक पंडित होता, तो रस ले-लेकर दो घंटे में सुनाता।’’<br />
<br />
‘‘दो घंटे में?’’ सुकुमार मुस्कराये, ‘‘वसिष्ठ-विश्वामित्र के संघर्ष की पूरी कहानी तो दो सौ साल में भी नहीं सुनायी जा सकती। पहली बात तो यह कि उनकी पूरी कहानी जान पाना ही मुश्किल है। फिर उसमें एक सिलसिला बिठा पाना तो और भी मुश्किल। मैं कई साल से इसी कोशिश में लगा हूँ। ऋग्वेद से लेकर तमाम पौराणिक गं्रथों, महाकाव्यों, नाटकों और दूसरे कई रूपों में कहीं न कहीं इन दोनों के आपसी संघर्ष की कथा मिल जायेगी। कामधेनु वाला प्रसंग तो उस कथा का एक बहुत छोटा-सा अंश है।’’<br />
<br />
दमयंती जी ने उनसे पूछा, ‘‘तो तुम्हारे हिसाब से वह संघर्ष क्या है?’’<br />
<br />
सुकुमार ने उत्तर दिया, ‘‘सत्ता का संघर्ष। कहीं सीधे-सीधे राज्यसत्ता के लिए संघर्ष, तो कहीं सामाजिक शक्ति या ज्ञान-विज्ञान की शक्ति के जरिये राज्यसत्ता पर परोक्ष नियंत्रण के लिए संघर्ष। मतलब, राजा कोई और है, लेकिन राजा का गुरु या पुरोहित कोई और है, जो परोक्ष रूप में राज्यसत्ता को नियंत्रित करता है। सीधे-सीधे राज्यसत्ता के लिए संघर्ष इस रूप में होता है कि राज्यसत्ता कभी क्षत्रियों के पास रहती है, तो कभी ब्राह्मणों के पास। इसलिए राजा हमेशा क्षत्रिय ही नहीं हुए हैं। राजा ब्राह्मण भी हुए हैं। एक-दूसरे का राज्य छीनने के लिए उनमें लड़ाइयाँ भी हुई हैं, जिनमें कभी क्षत्रिय जीते हैं, तो कभी ब्राह्मण जीते हैं। लेकिन अक्सर दोनों के बीच यह समझौता रहा है कि आओ, दोनों मिलकर राज करें और अपने-अपने काम बाँट लें। क्षत्रियों के पास बल है, तो ब्राह्मणों के पास बुद्धि। सो क्षत्रिय राजा रहें और ब्राह्मण उनके गुरु या पुरोहित। यानी राज्य की नीतियाँ और कानून ब्राह्मण बनायेंगे और उन्हें लागू करेंगे क्षत्रिय!’’<br />
<br />
‘‘लेकिन विश्वामित्र तो क्षत्रिय था और बड़ा शक्तिशाली राजा भी। उसे वसिष्ठ की तरह ब्राह्मण या ब्रह्मर्षि बनने की क्या पड़ी थी?’’ दमयंती जी ने पूछा।<br />
<br />
‘‘विश्वामित्र ने शायद देख लिया था कि राजा के पास वह ताकत नहीं, जो उसके पुरोहित के पास है। लेकिन यह देखो कि महाकाव्यों का--यानी रामायण और महाभारत काµसमय तो ऋग्वेद की तुलना में बहुत बाद का है, जबकि वसिष्ठ और विश्वामित्र ऋग्वेद में भी मौजूद हैं। राजा सुदास का पुरोहित पहले विश्वामित्र था। फिर उसे हटाकर वसिष्ठ बन गया। इस तरह विश्वामित्र के हाथ से सत्ता छिन गयी, तो वह सुदास का शत्रु हो गया और दाशराज्ञ युद्ध में सुदास के विरुद्ध लड़ा। इतना ही नहीं, सुदास की मृत्यु के बाद सौदासों का, यानी सुदास के वंशजों का पुरोहित फिर से विश्वामित्र बना।’’<br />
<br />
मैंने चकित होकर पूछा, ‘‘गुरुजी, राजा बदलते रहते हैं, लेकिन उनके पुरोहित कभी वसिष्ठ और कभी विश्वामित्र ही कैसे रहते हैं? ये दोनों क्या अजर-अमर थे?’’<br />
<br />
‘‘नहीं, भाई! ये व्यक्तियों के नहीं, वंशों के नाम लगते हैं। जैसे राजवंश पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलते थे, वैसे ही ऋषियों के वंश भी चलते होंगे। जिस तरह राजवंशों में आपसी संघर्ष होते थे, वैसे ही ऋषिवंशों में भी आपसी संघर्ष होते होंगे। लेकिन एक मजेदार बात बताऊँ? यह जो विश्वामित्र है, चाहे वह एक व्यक्ति हो या एक परंपरा, मुझे बड़ा क्रांतिकारी चरित्र लगता है। वसिष्ठ बहुत शक्तिशाली है, लेकिन विश्वामित्र के मुकाबले वह काफी रूढ़िवादी, पुरातनपंथी और षड्यंत्रकारी लगता है; जबकि विश्वामित्र काफी प्रगतिशील, नयी सोच वाला और क्रांतिकारी।’’<br />
<br />
"क्यों?"<br />
<br />
‘‘त्रिशंकु की कहानी याद करो!’’ सुकुमार ने कहा और स्वयं ही कहानी सुनाना शुरू कर दिया, ‘‘त्रिशंकु अयोध्या पर राज करने वाले उसी इक्ष्वाकु वंश का एक राजा था, जिसमें तीस-पैंतीस पीढ़ियों के बाद दशरथ और राम पैदा हुए। वसिष्ठ दशरथ और राम के समय में भी अयोध्या का राजपुरोहित था और उनसे कई पीढ़ियों पहले त्रिशंकु के समय में भी। त्रिशंकु का पिता अरुण एक कमजोर-सा राजा था। त्रिशंकु उसका बिगड़ैल बेटा था। त्रिशंकु अपनी जवानी के दिनों में कहीं से एक विवाहित ब्राह्मण स्त्री को उड़ा लाया। वसिष्ठ को यह बात बहुत बुरी लगी। ब्राह्मणों की बनायी वर्ण-व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण तो शेष तीनों वर्णों की स्त्रियों को भोग सकते थे, लेकिन उनकी स्त्रियों को किसी और वर्ण का व्यक्ति भोगे, यह उन्हें मंजूर नहीं था। सो वसिष्ठ ने राजा को आज्ञा दी कि त्रिशंकु को घर से और राज्य से निकाल दो। राजा था कमजोर, उसने अपने इकलौते बेटे त्रिशंकु को जंगल में हँकाल दिया। उसके बाद वह खुद भी रोता-धोता जंगल में चला गया। या क्या पता, वसिष्ठ ने ही उसे राज्य से निकाल दिया हो, क्योंकि उसके जाने के बाद वसिष्ठ खुद अयोध्या का राजा बन बैठा। लेकिन राजा का पुरोहित होने और खुद राजा बनकर राजकाज करने में फर्क है। वसिष्ठ ने नौ साल अयोध्या पर राज किया और सब चौपट कर डाला। आखिर त्रिशंकु ने ही जंगल से आकर अपना राजपाट सँभाला और वसिष्ठ को हटाकर विश्वामित्र को अपना पुरोहित बनाया।’’<br />
<br />
दमयंती जी ने कहा, ‘‘वसिष्ठ क्या इतना कमजोर था कि त्रिशंकु ने उसे उसके पद से हटाया और वह हट गया?’’<br />
<br />
‘‘नहीं, वसिष्ठ कमजोर नहीं था। उसकी पहुँच ऊपर स्वर्ग तक थी। वह देवताओं की बनायी व्यवस्था को बनाये रखने का काम करता था, इसलिए बड़ा शक्तिशाली था। स्वर्ग की व्यवस्था यह थी कि पृथ्वी के कुछ खास ब्राह्मण और क्षत्रिय ही जीते जी स्वर्ग जा सकते हैं। सो भी ब्राह्मणों के भेजने पर ही। वसिष्ठ एक तरह से स्वर्ग का वीजा-पासपोर्ट देने वाला ब्राह्मण था। त्रिशंकु को पता था कि वसिष्ठ मुझसे खार खाता है, मुझे सशरीर स्वर्ग जाने की अनुमति कभी नहीं देगा। तब मैं उससे कहूँगा कि विश्वामित्र मेरा यह काम कर सकते हैं, इसलिए आप हटिए, मैं आपकी जगह उनको अपना पुरोहित बनाऊँगा।’’<br />
<br />
‘‘और जैसा उसने सोचा था, वैसा ही हुआ?’’<br />
<br />
‘‘हाँ, वैसा ही हुआ। त्रिशंकु ने वसिष्ठ से कहा कि मुझे सशरीर स्वर्ग भेजो। वसिष्ठ ने कहा कि यह असंभव है। तब त्रिशंकु वसिष्ठ के बेटों के पास गया और उसने उनसे कहा कि तुम्हारा बाप तो मेरा यह काम कर नहीं रहा, तुम करो। बेटों ने भी मना कर दिया, तो त्रिशंकु ने कहा तुम लोग मेरा यह काम नहीं कर सकते, लेकिन विश्वामित्र कर सकता है। अब मैं उसी को अपना पुरोहित बनाऊँगा। इस पर वसिष्ठ के बेटों ने कुपित होकर उसे शाप दे दिया कि जा, तू चांडाल हो जा!’’<br />
<br />
‘‘और एक क्षत्रिय चांडाल बन गया?’’<br />
<br />
‘‘इसी से तो पता चलता है कि वर्ण और जाति अपरिवर्तनीय नहीं हैं। वाल्मीकि ने रामायण में इसका अच्छा चित्र खींचा है। उन्होंने त्रिशंकु के रूपांतरण का वर्णन इस प्रकार किया हैµनीलवस्त्रधरो नीलः पुरुषो ध्वस्तमूर्धजः। चित्यमाल्यांगरागश्च आयसाभरणोऽभवत्। अर्थात् चांडाल हो जाने पर त्रिशंकु के शरीर का रंग नीला हो गया, कपड़े भी नीले हो गये, सारा शरीर रूखा-सूखा हो गया, सिर के बाल छोटे हो गये, सारे शरीर में चिता की राख-सी लिपट गयी और यथास्थान लोहे के गहने पड़ गये। इसी रूप में वह विश्वामित्र के पास गया और उसे चांडाल के रूप में देखकर विश्वामित्र के हृदय में करुणा भर आयी। उन्होंने ठान लिया कि वे लोग इसे शाप देकर नीचतम जाति का चांडाल बना सकते हैं, तो मैं अपने ज्ञान-विज्ञान से इसे सर्वोच्च स्वर्ग में पहुँचा सकता हूँ। इस प्रकार यह कथा बताती है कि वर्ण और जाति का ऊपर से नीचे की तरफ और नीचे से ऊपर की तरफ बदलना संभव है।’’<br />
<br />
‘‘लेकिन त्रिशंकु स्वर्ग पहुँचा कहाँ?’’<br />
<br />
‘‘कैसे पहुँचता? वसिष्ठ की विश्वामित्र से पुरानी दुश्मनी थी और स्वर्ग के राजा इंद्र से पुरानी दोस्ती। सो वसिष्ठ ने इंद्र से कहा कि विश्वामित्र त्रिशंकु को स्वर्ग भेजेगा और वह स्वर्ग में आ गया, तो तुम्हारी जगह वही स्वर्ग का राजा होगा। इंद्र वैसे काफी शक्तिशाली थाµसबसे अच्छे, सबसे सुंदर, सबसे बड़े, सबसे समृद्ध, सबसे शक्तिशाली और सर्वोच्च राज्य का राजाµलेकिन उसे अपना राजसिंहासन छिन जाने का डर लगा रहता था। किसी और राज्य में अगर कोई बंदा त्याग, तपस्या, वीरता वगैरह के बल पर उन्नति करने और प्रसिद्धि पाने लगता, तो उसे लगने लगता कि उसका सिंहासन डोल रहा है और वह उस बंदे की तपस्या भंग करा देता या छल-बल से उसे स्वर्ग आने से रोक देता। यही उसने त्रिशंकु के साथ किया। विश्वामित्र ने उसे जीते जी स्वर्ग भेजा, इंद्र ने उसे बीच में ही रोक दिया। त्रिशंकु बेचारा बीच में ही लटका रह गया। लेकिन विश्वामित्र यों हार मानकर बैठ जाने वाला नहीं था। उसने कहाµइस दुनिया में लोगों को जीते जी स्वर्ग नहीं मिल सकता, तो मैं दूसरी दुनिया बनाऊँगा। सृष्टि की प्रतिसृष्टि। और उसने अपनी दूसरी दुनिया बनाना शुरू कर दिया। यह देखकर दुनिया पर शासन करने वाले देवता घबरा गये। उन्होंने अपने सबसे बड़े देवता ब्रह्मा को भेजा और ब्रह्मा ने किसी तरह समझा-बुझाकर विश्वामित्र को दूसरी दुनिया बनाने से रोका।’’<br />
<br />
‘‘यह दूसरी दुनिया वाला आइडिया जोरदार है।’’ दमयंती जी ने कहा, ‘‘आजकल वर्ल्ड सोशल फोरम वाले यही नारा तो दे रहे हैंµ‘एनअदर वर्ल्ड इज पॉसिबल! दूसरी दुनिया संभव है!’ तुम इसी पर अपना नया नाटक लिखो।’’<br />
<br />
‘‘विश्वामित्र पर नाटक लिखने का विचार मेरे मन में पहले से ही है। दरअसल उसी के लिए मैं तमाम पुराने ग्रंथों की खाक छान रहा हूँ। लेकिन वसिष्ठ और विश्वामित्र की कथा की बुनावट दो सलाइयों से आप जो एक उलटे और एक सीधे फंदे वाली सादा बुनाई कर रही हैं, वैसी नहीं है। लगता है, जैसे उसे चार-चार सलाइयों से कुछ अजीब-से फंदे डालकर बुना गया है।’’<br />
<br />
<br />
<br />
अपनी लिखने-पढ़ने की मेज पर बैठे-बैठे न जाने कब मेरी आँख लग गयी थी। भारतेंदु हरिश्चंद्र का नाटक ‘सत्य हरिश्चंद्र’ मेरे सामने खुला हुआ था और मैं वसिष्ठ-विश्वामित्र की कहानी में खोया हुआ था। अचानक प्रभा मेरे कमरे में आयी और बोली, ‘‘बैठे-बैठे सो रहे हो?’’<br />
<br />
‘‘नहीं, पढ़ रहा हूँ। पढ़ते-पढ़ते कुछ सोचने लगा था।’’<br />
<br />
‘‘क्या पढ़ रहे हो?’’ उसने मेरी आरामकुर्सी पर बैठते हुए कहा।<br />
<br />
‘‘भारतेंदु हरिश्चंद्र का लिखा नाटक ‘सत्य हरिश्चंद्र’। तुमने पढ़ा है?’’<br />
<br />
‘‘नहीं। कैसा है?’’<br />
<br />
‘‘हिंदी के आरंभिक नाटकों में से है। 1876 में छपा था। इसके पहले राजा हरिश्चंद्र की कथा पर संस्कृत में दो नाटक लिखे गये थेµएक क्षेमेश्वर का ‘चंडकौशिक’ और दूसरा रामचंद्र का ‘सत्य हरिश्चंद्र’। भारतेंदु का ‘सत्य हरिश्चंद्र’ क्षेमेश्वर के ‘चंडकौशिक’ पर आधारित है।’’<br />
<br />
‘‘तुमने संस्कृत के ये नाटक पढ़े हैं?’’<br />
<br />
‘‘नहीं, लेकिन सुकुमार जी के पास जरूर होंगे। उनसे लेकर पढ़ लूँगा।’’<br />
<br />
‘‘वैसे अपने भारतंेदु जी थे बड़े साहसी! एक नाटक का नाम उड़ा लिया और दूसरे का प्लॉट!’’ प्रभा ने हँसते हुए कहा। लेकिन अगले ही क्षण गंभीर होकर बोली, ‘‘चंडकौशिक माने?’’<br />
<br />
‘‘विश्वामित्र को चंडकौशिक भी कहते हैं। ‘चंड’ इसलिए कि उनके विरोधी उन्हें बहुत उग्र, उद्धत या क्रोधी मानते थे और ‘कौशिक’ इसलिए कि वे कुशिक नामक क्षत्रिय वंश में पैदा हुए थे। वैसे पॉजिटिव सेंस में ‘चंड’ का अर्थ होता हैµतेज, प्रखर, प्रबल या बलवान। और ये सारे गुण विश्वामित्र में थे। ‘चंडकौशिक’ नाटक में शायद उनका नेगेटिव रूप उभारा गया होगा। भारतेंदु ने भी विश्वामित्र को सत्यवादी हरिश्चंद्र को तमाम दुख देने वाले दुष्टात्मा के रूप में दिखाया है।’’<br />
<br />
‘‘वह कैसे?’’<br />
<br />
‘‘ऐसे कि सत्यवादी हरिश्चंद्र का यश दुनिया भर में फैलने लगता है, तो इंद्र को अपना सिंहासन डोलता महसूस होने लगता है। वह हरिश्चंद्र को सत्य से डिगाने के लिए विश्वामित्र को उसकी परीक्षा लेने के लिए प्रेरित करता है। विश्वामित्र एक क्रोधी ब्राह्मण बनकर आते हैं और हरिश्चंद्र का सारा राज्य दान में लेकर ऊपर से दक्षिणा के रूप में एक हजार स्वर्णमुद्राएँ माँगते हैं...’’<br />
<br />
‘‘अच्छा-अच्छा, मैं समझ गयी। यह तो बहुत बार सुनी हुई कहानी है। फिल्मों और टी.वी. सीरियलों में भी आ चुकी है। राजा हरिश्चंद्र विश्वामित्र को दक्षिणा देने के लिए खुद को काशी के एक डोम के हाथ बेच देता है और डोम की सेवा में सच्चा रहने के लिए अपने बेटे रोहिताश्व का दाह-संस्कार करने श्मशान में आयी अपनी पत्नी शैव्या तारामती से भी आधा कफन माँगता है।’’<br />
<br />
‘‘हाँ, लेकिन मुझे लगता है, सुकुमार जी ने अपने नाटक में विश्वामित्र को दुष्ट खलनायक नहीं, बल्कि पॉजिटिव हीरो बनाया होगा।’’<br />
<br />
‘‘क्यों?’’<br />
<br />
‘‘एक बार उन्होंने बताया था कि वे वसिष्ठ और विश्वामित्र के संघर्ष पर नाटक लिखना चाहते हैं। उनके विचार से वसिष्ठ स्वार्थी, धूर्त, षड्यंत्रकारी और यथास्थितिवादी है, जबकि विश्वामित्र त्यागी, तपस्वी, परोपकारी और क्रांतिकारी।’’<br />
<br />
‘‘अच्छा, तो यह बताओ कि विश्वामित्र का नाम विश्वामित्र क्यों है? नाम से क्या यह नहीं लगता कि वह खुद पूरी दुनिया का दुश्मन है या पूरी दुनिया उसे अपना दुश्मन समझती है?’’<br />
<br />
‘‘नहीं, विश्वामित्र का अर्थ विश्व का अमित्र या दुनिया का दुश्मन नहीं होता। हालाँकि हमारे भारतेंदु जी ने अपने नाटक में इसका अर्थ ‘विश्व का अमित्र’ ही किया हैµनारद के मुँह से यही कहलाया हैµलेकिन वास्तव में विश्वामित्र का अर्थ होता है विश्व का मित्र। संस्कृत व्याकरण में एक नियम हैµ‘पूर्वपदस्याकारस्य दीर्घः’। इस नियम के अनुसार ‘विश्व’ का ‘विश्वा’ हो जाता है। लेकिन विश्वामित्र का अर्थ विश्व का मित्र ही होता हैµ‘विश्वमेव मित्रं यस्य’--यानी संपूर्ण विश्व ही जिसका मित्र है! सुकुमार जी ने अपने नाटक में विश्वामित्र का यही अर्थ किया होगा और...’’<br />
<br />
‘‘संस्कृत व्याकरण मैंने नहीं पढ़ा, लेकिन यह बताओ कि सुकुमार जी को वसिष्ठ और विश्वामित्र के झगड़े में पड़ने की और उसमें विश्वामित्र के पक्ष से बोलने की क्या पड़ी है?’’<br />
<br />
‘‘ठीक-ठीक तो मुझे भी नहीं मालूम, लेकिन वर्षों से जो बातचीत उनसे होती रही हैµऔर उनके प्रति लोगों का जो रुख-रवैया मैं देखता रहा हूँµउससे ऐसा लगता है, जैसे सुकुमार जी स्वयं को कहीं न कहीं विश्वामित्र से आइडेंटिफाइ करते हैं।’’<br />
<br />
‘‘कैसे?’’<br />
<br />
‘‘देखो, दलित होकर भी उन्होंने आरक्षण का लाभ नहीं उठाया। दुसाध होकर भी उन्होंने वेदों, पुराणों और संस्कृत साहित्य का बाकायदा अध्ययन किया। एक्सीलेंट एकेडेमिक कैरियर था उनका। चाहते, तो आइ.ए.एस. वगैरह बन सकते थे। मगर उन्होंने लेखक बनने का फैसला किया। वे अंग्रेजी इतनी अच्छी लिखते-बोलते हैं कि मजे में ‘अंग्रेजी में लिखने वाले भारतीय लेखक’ बन सकते थे। जिन विषयों पर वे लिखते हैं, उन पर लिखी चीजों की पश्चिमी देशों में भारी माँग है। वे चाहते, तो उस माँग की पूर्ति करने वाली चीजें लिखकर विश्वस्तरीय लेखक बन सकते थे। यूरोप या अमरीका में जाकर बस सकते थे। ये सारी संभावनाएँ होने के बावजूद उन्होंने अपने देश में ही रहने का, अपनी भाषा में ही लिखने का और अपने लोगों के लिए ही लिखने का फैसला किया...’’<br />
<br />
‘‘अपने ही लोगों के लिए...?’’<br />
<br />
‘‘दलित, पिछड़े, गरीब लोगों के लिए। एक बार मैंने उनसे पूछा था कि आपने साहित्य की दूसरी विधाओं में न लिखकर केवल नाटक ही लिखने का फैसला क्यों किया, तो उन्होंने बताया कि नाटक को पाँचवाँ वेद कहते हैं और यह पाँचवाँ वेद उनके लिए बनाया गया है, जो वेद-पुराण पढ़ नहीं सकते या जिनके लिए उनका पढ़ना निषिद्ध है। और अपने देश में आज ऐसे लोग कौन हैं? वे ही, जो गरीब हैं और गरीबी की वजह से शिक्षा और साहित्य से वंचित हैं। ये ही सुकुमार जी के अपने लोग हैं।’’<br />
<br />
‘‘हाँ, यह तो मैं समझ गयी, लेकिन इसमें विश्वामित्र से आइडेंटिफाइ करने वाली क्या बात है?’’<br />
<br />
‘‘विश्वामित्र ने अपनी एक अलग दुनिया बनायी थी। सुकुमार जी ने भी अपनी एक अलग नाट्य संस्था बनायी है। उसके नाटककार, निर्देशक और व्यवस्थापक वे ही हैं। उसकी एक अलग ही पहचान है--शिखर थियेटर, शिखर रंगमंच। वे अपने नाटक बिना किसी तामझाम के कम से कम खर्च में और सबसे सस्ते टिकट लगाकर करते हैं। कहीं से फंडिंग कराये बिना सिर्फ दर्शकों के बलबूते पर इतने अच्छे, इतने सफल और लगातार नाटक करने वाली संस्था शहर में एक ही है--‘शिखर’!’’<br />
<br />
‘‘हाँ, इस लिहाज से तो वे वाकई सबसे अलग और अनोखे हैं।’’<br />
<br />
‘‘विश्वामित्र भी ऐसे ही सबसे अलग और अनोखे चरित्र हैं। उन्होंने अपने समय के विश्व की व्यवस्था को अच्छी तरह समझ लिया था और उसे वे बदलना चाहते थे। सुकुमार जी ने एक बार मुझे विस्तार से बताया था कि वर्ण और जाति की व्यवस्था कोई प्राकृतिक, शाश्वत और अपरिवर्तनीय व्यवस्था नहीं है। यह बनायी गयी है। यह व्यवस्था उन देवताओं ने बनायी है, जो स्वर्ग में रहते हैं। स्वर्ग में देखो, तो छोटे-बड़े देवता तो मिलेंगे, लेकिन उनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जैसे भेद नहीं मिलेंगे। क्यों? इसलिए कि स्वर्ग का मतलब है शासक वर्ग...’’ कहते-कहते मुझे हँसी आ गयी।<br />
<br />
प्रभा ने पूछा, ‘‘हँस क्यों पड़े?’’<br />
<br />
मैंने कहा, ‘‘एक मजेदार बात याद आ गयी। एक दिन मैं सुकुमार जी के घर बैठा था और वे स्वर्ग की अपनी यह व्याख्या मुझे बता रहे थे। अतुल भी पास बैठा हमारी बातचीत सुन रहा था। बोला, ‘स्वर्ग को रोमन में लिखिए और ‘एस’ को अलग करके उसके आगे फुलस्टॉप लगा दीजिए। हो गया एस. वर्ग। एस वर्ग यानी शासक वर्ग। यानी स्वर्ग। अतुल की इस अनोखी व्याख्या पर सुकुमार जी ने हँसते हुए उसे शाबाशी दी। तब से जब भी मैं स्वर्ग के बारे में पढ़ता-सुनता या कुछ कहता हूँ, मुझे इस बात को याद करके हँसी आ जाती है।’’<br />
<br />
‘‘बात में दम तो है।’’ प्रभा ने कहा, ‘‘आज की दुनिया का असली शासक वर्ग कौन है? कॉरपोरेट सेक्टर। उसमें छोटे और बड़े तो हैं, लेकिन उनमें कौन किस जाति का, किस धर्म का या किस देश का है, इस सबको लेकर कोई भेदभाव नहीं है। सब कॉरपोरेट हैं। सब मल्टीनेशनल हैं। सब ग्लोबल हैं।’’<br />
<br />
‘‘वाह! तुमने तो सुकुमार जी की व्याख्या को और विस्तार दे दिया!’’<br />
<br />
‘‘लेकिन अभी भी मेरी समझ में यह नहीं आया कि सुकुमार जी विश्वामित्र से खुद को आइडेंटिफाइ क्यों और कैसे करते हैं?’’<br />
<br />
‘‘सुकुमार जी का कहना है कि वर्णों और जातियों की व्यवस्था स्वर्ग में रहने वाले देवताओं ने बनायी है। लेकिन अपने लिए नहीं, बल्कि पृथ्वी पर रहने वाले लोगों के लिए। पृथ्वी यानी हमारा समाज। और देवता यानी शासक वर्ग। ‘डिवाइड एंड रूल’ की नीति आज की या सिर्फ अंग्रेजों के जमाने की नहीं है। यह तो हमेशा से शासक वर्ग की नीति रही है। प्राचीन काल के शासक वर्ग ने हमारे समाज को वर्णों और जातियों में बाँट दिया और यह बात लोगों के मन में भर दी कि यह व्यवस्था शाश्वत है--हमेशा से ऐसी ही रही है और हमेशा ऐसी ही रहेगी। विश्वामित्र ने इस व्यवस्था को चुनौती दी। कहा कि यह व्यवस्था शाश्वत नहीं है। बदलती रही है और बदली जा सकती है। उन्होंने खुद राजर्षि से ब्रह्मर्षि बनकर अपनी बात को सही साबित कर दिखाया।’’<br />
<br />
‘‘ओ, अच्छा! अब समझी! शिखर दुसाध से शिखर सुकुमार बनने की कहानी भी तो यही है कि दुसाधों में भी कोई पंडितों का पंडित हो सकता है!’’<br />
<br />
‘‘विश्वामित्र के चरित्र का एक और पक्ष देखो। उन्होंने जिस त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेजा, वह क्षत्रिय राजा त्रिशंकु नहीं, ब्राह्मणवादी वसिष्ठ के पुत्रों द्वारा चांडाल बना दिया गया त्रिशंकु था। विश्वामित्र ने इससे यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि पृथ्वी के देवता कहलाने वाले ब्राह्मणों के पास इतनी शक्ति है कि वे शाप देकर एक क्षत्रिय राजा को नीच जाति का चांडाल बना सकते हैं, तो इस व्यवस्था को उचित न मानने वाले लोग एक चांडाल को स्वर्ग में या शासक वर्ग में पहुँचा सकते हैं। विश्वामित्र त्रिशंकु को स्वर्ग में नहीं भेज पाते, क्योंकि देवताओं के पास ताकत ज्यादा है। लेकिन विश्वामित्र ने त्रिशंकु के उदाहरण से यह तो सिद्ध कर ही दिया कि देवताओं की व्यवस्था शाश्वत नहीं है, तथाकथित नीची जातियों के लोग भी शासक बन सकते हैं। वे त्रिशंकु को ऊपर नहीं उठा सके, लेकिन उन्होंने उसे नीचे भी नहीं गिरने दिया। यहाँ तक कि उन्होंने अपनी प्रतिसृष्टि में उसे हमेशा चमकता रहने वाला एक नक्षत्र बनाकर स्थापित कर दिया। इस प्रकार उन्होंने जो किया, वह उनकी असफलता नहीं, बल्कि एक उज्ज्वल संभावना है।’’<br />
<br />
‘‘वाह! यह तो बहुत ही बढ़िया व्याख्या है! एकदम नयी!’’<br />
<br />
‘‘अब समझीं कि विश्वामित्र विश्व के मित्र क्यों हैं?’’<br />
<br />
‘‘हाँ, और यह भी समझी कि वे किनके लिए विश्व के मित्र हैं और किनके लिए विश्व के अमित्र!’’<br />
<br />
‘‘तो यह भी समझ लो कि शिखर सुकुमार आज के विश्वामित्र हैं। वे अपने नाटकों के जरिये बार-बार यही सिद्ध कर रहे हैं कि समाज की व्यवस्था शाश्वत नहीं है। वह बदली जानी चाहिए और बदल सकती है।’’<br />
<br />
नाटकों की बात सुनते ही प्रभा ने घड़ी की तरफ देखा और बोली, ‘‘अरे, दो बजने वाले हैं! नाटक देखने जाना है या नहीं?’’ <br />
<br />
<br />
<br />
ठीक दो बजे रामाधार ठाकुर द्वारा भेजी गयी गाड़ी मुझे लेने आ गयी। उसमें ड्राइवर के अलावा एक रिपोर्टर और एक फोटोग्राफर पहले से मौजूद थे। उन्होंने गाड़ी से उतरकर मेरा अभिवादन किया, अपना परिचय दिया और पीछे की सीट पर मुझे बीच में बिठाकर मेरे अगल-बगल बैठ गये। मैं समझ गयाµओह! मेरे अंगरक्षक!<br />
<br />
लेकिन जहाँ नाटक होने वाला था, वहाँ पुलिस के साधारण और सशस्त्र लोग इतनी भारी संख्या में तैनात थे कि दर्शकों की भीड़ के बावजूद गड़बड़ी की कोई आशंका नजर नहीं आ रही थी। मैं प्रेक्षागृह के बाहरी दरवाजे के पास पहुँचा ही था कि भीतरी दरवाजे के पास एक ओर अलग हटकर खड़े सुकुमार किसी से हाथ मिलाते दिखायी पड़े। मैंने उनके पास पहुँचकर अभिवादन किया और पूछा, ‘‘माताजी और अतुल कहाँ हैं?’’<br />
<br />
‘‘वे दोनों कल देख चुके।’’ कहते हुए सुकुमार ने मेरे अंगरक्षकों के बारे में पूछा, ‘‘ये लोग?’’<br />
<br />
मैंने रामाधार ठाकुर से हुई सुबह वाली बात बताते हुए कहा, ‘‘वे बहुत आतंकित लग रहे थे, पर यहाँ तो सब ठीक लग रहा है।’’<br />
<br />
‘‘मीडिया की मेहरबानी है!’’ सुकुमार ने व्यंग्यपूर्वक कहा, ‘‘तुमने शायद देखा नहीं, ज्यादातर खबरों में कल की गड़बड़ी के जिम्मेदार लोगों को नासमझ बताते हुए नाटक को ‘पुरानी कहानी का नया कॉमिक रूप’ और ‘हिलेरियस कॉमेडी’ बताया गया है। मीडिया जिस चीज को नयी और कॉमिक बता दे, वह खतरनाक नहीं रहती। बाजार और सरकार दोनों को स्वीकार्य हो जाती है। और जनता के जीवन में हँसी इतनी कम रह गयी है कि वह कॉमेडी सुनकर कुछ भी देखने को टूट पड़ती है। फिर, ‘शिखर’ के नाटकों के जो स्थायी दर्शक हैं, उन्हें तो आना ही है।’’<br />
<br />
मैंने देखा, सचमुच दर्शकों की भीड़ उमड़ पड़ी थी। हॉल के दरवाजे अभी खुले भी नहीं थे, जबकि टिकट खिड़की पर ‘हाउस फुल’ की तख्ती लगा दी गयी थी।<br />
<br />
मेरे साथ आये रिपोर्टर ने सुकुमार से कुछ बातचीत की और फोटोग्राफर ने उनके कुछ फोटो खींचे। इतने में हॉल का दरवाजा खुल गया और दर्शक भीतर जाने लगे। हम भी सुकुमार से विदा लेकर अंदर जा बैठे।<br />
<br />
नाटक की संकल्पना कुछ विचित्र किंतु नयी, आकर्षक और प्रभावशाली थी। पात्र पौराणिक थे, किंतु आधुनिक वेशभूषा में थे। नाटक में नाटक की रिहर्सल हो रही थी। नाटक भी चल रहा था और साथ-साथ अभिनेताओं का आपसी हँसी-मजाक भी। पौराणिक काल के संवादों के साथ-साथ वर्तमान यथार्थ को उजागर करती हुई हास्य-व्यंग्यपूर्ण उक्तियाँ, फब्तियाँ और आलोचनात्मक टिप्पणियाँ भी चल रही थीं।<br />
<br />
एक सर्वथा नया प्रयोग यह था कि कौन-सी बात किस आधार पर कही जा रही है, यह दिखाने के लिए नाटक का सूत्रधार प्रसंग से संबंधित किसी प्राचीन ग्रन्थ के नाम वाली तख्ती दर्शकों को दिखाता हुआ मंच के अग्रभाग में एक से दूसरी ओर आता-जाता रहता था। किसी पर लिखा होता ‘ऋग्वेद’, किसी पर ‘महाभारत’, किसी पर ‘रामायण’, किसी पर ‘भागवत’, किसी पर ‘मार्कंडेयपुराण’, तो किसी पर ‘ऐतरेय ब्राह्मण’।<br />
<br />
नाटक में इतिहास और पुराण, वर्तमान और भविष्य, यथार्थ और फैंटेसी को कुछ इस प्रकार मिलाया गया था कि नाटक एक स्तर पर बड़े गंभीर अर्थ देता था, तो दूसरे स्तर पर दर्शकों का मनोरंजन करते हुए उन्हें हँसाता था। प्रेक्षागृह में कभी गहरा सन्नाटा छा जाता, तो कभी दर्शकों के ठहाके गूँजने लगते।<br />
<br />
‘‘पुरानी कहानी का नया कॉमिक रूप’’ यह था कि अयोध्या के राजा अरुण का युवा पुत्र त्रिशंकु एक विवाहिता ब्राह्मणी से प्रेम कर बैठा और उसे अपने घर ले आया। राजपुरोहित वसिष्ठ को बहुत बुरा लगा। उसने राजा अरुण से कहा कि यह त्रिशंकु तो हमारी वर्ण और जाति की व्यवस्था का विरोधी है। इसे घर से ही नहीं, राज्य से भी निकाल दो। अरुण बड़ा कमजोर राजा था। वह वसिष्ठ से डरता भी था, क्योंकि वसिष्ठ की पहुँच ऊपर स्वर्ग के देवताओं तक थी। उसने अपने पुत्र त्रिशंकु को निकाल तो दिया, लेकिन चुपके से उसके कान में कह दिया कि वह जंगल में विश्वामित्र के आश्रम में चला जाये, जो उसे शस्त्र और शास्त्र दोनों की अच्छी शिक्षा दे सकता है। त्रिशंकु ने विश्वामित्र के आश्रम में जाकर उसे अपना गुरु बना लिया। इधर वसिष्ठ अरुण को हटाकर खुद अयोध्या पर शासन करने लगा। लेकिन वह इतना भ्रष्ट और अकुशल शासक था कि राज्य की अर्थव्यवस्था चौपट हो गयी, अकाल पड़ने लगे और जनता त्राहि-त्राहि करने लगी।<br />
<br />
अरुण तो न जाने कहाँ मर-खप गया, लेकिन त्रिशंकु अपने गुरु विश्वामित्र से राजनीति और युद्ध-विद्या की शिक्षा पाकर अयोध्या लौट आया। उसने अपना राजपाट तो वापस पा लिया, लेकिन वसिष्ठ को राजपुरोहित के पद से नहीं हटा सका, क्योंकि वसिष्ठ की पीठ पर स्वर्ग के देवताओं का हाथ था। त्रिशंकु ने विश्वामित्र की शिक्षा के अनुसार पृथ्वी को ही स्वर्ग बनाने की ठानी और पुरानी व्यवस्था को बदलने लगा। वसिष्ठ उसके काम में टाँग अड़ाने लगा, तो उसने विश्वामित्र को बुला लिया और वसिष्ठ की जगह उसी को अपना पुरोहित बना लिया। अब त्रिशंकु और विश्वामित्र मिलकर पृथ्वी को स्वर्ग बनाने में जुट गये।<br />
<br />
स्वर्ग के देवताओं ने पृथ्वी पर स्वर्ग की प्रतिसृष्टि होते देखी, तो उनमें खलबली मच गयी। उन्होंने वसिष्ठ से कहा कि त्रिशंकु को रोको और ब्रह्मा से कहा कि विश्वामित्र को रोको। वसिष्ठ ने त्रिशंकु को दरिद्र चांडाल बना दिया, जिससे वह पृथ्वी पर स्वर्ग का निर्माता तो क्या बनता, अपने राज्य का राजा भी नहीं रहा। उधर ब्रह्मा ने विश्वामित्र को प्रतिसृष्टि से विरत करने के लिए पहले तो उसकी प्रशंसा की कि तुम तो मंत्र-द्रष्टा कवि हो, तुम्हारी रचनाएँ तो ऋग्वेद में संकलित होती हैं, तुम्हारा रचा हुआ गायत्री मंत्र तो समस्त संसार में लोकप्रिय हो गया है। फिर उसे समझाया कि तुम अपने आश्रम में लोगों को राजनीति और युद्ध-विद्या की शिक्षा देकर बहुत बड़ा काम कर रहे हो, इसलिए पृथ्वी पर स्वर्ग की प्रतिसृष्टि करने का पागलपन छोड़ो और अपने आश्रम में जाकर अपना अध्ययन-अध्यापन और मंत्रों का सृजन करो। विश्वामित्र ने ब्रह्मा की बात मान ली और अयोध्या छोड़कर जंगल में अपने आश्रम में चला गया। इस प्रकार पृथ्वी पर स्वर्ग की प्रतिसृष्टि रुकवाकर देवताओं ने त्रिशंकु के पुत्र हरिश्चंद्र को अयोध्या का राजा और वसिष्ठ को उसका पुरोहित बना दिया।<br />
<br />
अब, राजा हरिश्चंद था तो बड़ा अय्याश, उसने सौ शादियाँ की थीं, मगर वह नपुंसक था। सौ रानियों के रहते भी वह निपूता था। जब बूढ़ा होने लगा, तो उसे दो चिंताएँ सताने लगीं। एक यह कि पुत्र का मुख देखे बिना वह स्वर्ग नहीं जा पायेगा और दूसरी यह कि उत्तराधिकारी के बिना उसके मरने के बाद अयोध्या का राजपाट कौन सँभालेगा। वसिष्ठ ने उसे सलाह दी कि तुम वही करो, जो नपुंसक राजा करते आये हैं। अपनी किसी रानी का किसी देवता, ऋषि या मुनि से नियोग करा दो और पुत्र उत्पन्न करा लो। हरिश्चंद्र अपनी रानी शैव्या तारामती को वरुण देवता के पास ले गया और बोलाµ‘‘मैं पुत्र का मुख देखे बिना स्वर्ग नहीं जा सकता और...’’<br />
<br />
वरुण ने उसकी पूरी बात सुने बिना ही कहा, ‘‘पुत्र तो पैदा कर दूँगा, लेकिन इस शर्त पर कि उसके युवा होते ही तुम मेरे नाम पर उसकी बलि चढ़ा दोगे। तब तक तुम उसका मुख देख-देखकर स्वर्ग में अपना स्थान आरक्षित करा लेना।’’<br />
<br />
हरिश्चंद्र ने सोचा कि अभी शर्त मान लेता हूँ, आगे की आगे देखी जायेगी। आखिरकार मैं राजा हूँ और वसिष्ठ जैसा घाघ ब्राह्मण मेरा पुरोहित है। शर्त से बचने या मुकरने की कोई न कोई तरकीब निकल ही आयेगी। उसने वरुण को वचन दे दिया कि ठीक है, पुत्र के युवा होते ही मैं तुम्हारे नाम पर उसकी बलि चढ़ा दूँगा।<br />
<br />
लेकिन पुत्र रोहित या रोहिताश्व जब युवा हो गया और वरुण को दिये हुए वचन के मुताबिक उसकी बलि देने का समय आया, तो हरिश्चंद्र टालमटोल करने लगा। बहाने बनाने लगा। तरह-तरह के झूठ बोलने लगा।<br />
<br />
आखिरकार वरुण को गुस्सा आ गया। उसने हरिश्चंद्र को झूठा, मक्कार और बेईमान बताते हुए फटकारा और रोहित की बलि का एक दिन निश्चित कर दिया। हरिश्चंद्र ने वसिष्ठ से रोहित को बचाने का कोई उपाय बताने को कहा, तो वसिष्ठ ने कहा, ‘‘यदि विश्वामित्र रोहित को शरण देकर अपने आश्रम में छिपाकर रख ले, तो रोहित बच सकता है; क्योंकि विश्वामित्र के पास ऐसी शक्तियाँ हैं कि देवता भी उससे डरते हैं।’’ हरिश्चंद्र को यह उपाय अच्छा लगा। वह वसिष्ठ को साथ लेकर विश्वामित्र के आश्रम में गया।<br />
<br />
जिस समय ये दोनों वहाँ पहुँचे, विश्वामित्र के कई शिष्य शस्त्रों और शास्त्रों का अभ्यास कर रहे थे और विश्वामित्र के सामने बैठा एक युवक उसे अपनी कविता सुना रहा था। पास पहुँचकर दोनों ने विश्वामित्र को युवक की प्रशंसा करते सुना, ‘‘साधु, वत्स, साधु! तुम तो युवावस्था में ही मंत्र-द्रष्टा कवि बन गये हो। मैं तुम्हारी रचनाएँ ऋग्वेद में संकलित कराऊँगा।’’<br />
<br />
निकट आकर वसिष्ठ ने व्यंग्यपूर्वक कहा, ‘‘अरे, भाई विश्वामित्र, मैंने भी कुछ मंत्र रचे हैं। मेरे मंत्र भी ऋग्वेद में संकलित करा दो!’’<br />
<br />
विश्वामित्र ने उठकर वसिष्ठ और हरिश्चंद्र का स्वागत किया और उन्हें बिठाकर उस युवक के बारे में बताया कि ‘‘यह मेरे मित्र अजीगर्त का पुत्र शुनःशेप है। बड़ा प्रतिभाशाली है। इसकी माता मुझे भाई मानती है, इसलिए यह मुझे मामा कहता है। यहीं पास में इसका घर है। कुछ रच लेता है, तो मुझे सुनाने चला आता है।’’<br />
<br />
शुनःशेप ने दोनों आगंतुकों को प्रणाम किया और विश्वामित्र से घर जाने की आज्ञा लेकर चला गया। वसिष्ठ ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा, ‘‘यह अजीगर्त का पुत्र है? उस दरिद्र ब्राह्मण अजीगर्त का, जो आजकल भूखों मर रहा है?’’<br />
<br />
‘‘एक भाई के रहते बहन का परिवार भूखों नहीं मर सकता।’’ विश्वामित्र ने कहा, ‘‘हाँ, बुरा समय किसी पर भी आ सकता है। अजीगर्त पर आजकल बुरा समय आया हुआ है। लेकिन यह शुनःशेप बड़ा होनहार है। यह जल्दी ही अपने परिवार का भार उठाने में समर्थ हो जायेगा। खैर, तुम सुनाओ, आज इधर कैसे?’’<br />
<br />
वसिष्ठ ने हरिश्चंद्र के साथ आने का कारण बताया और हरिश्चंद्र हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगा कि ‘‘आप रोहित को अपने आश्रम में छिपा लें।’’<br />
<br />
विश्वामित्र ने हरिश्चंद्र को फटकारते हुए कहा, ‘‘वचन देकर उसका पालन न करने वाले असत्यवादी हरिश्चंद्र, तूने वरुण को जो वचन दिया है, उसका पालन कर। मैं तेरे पुत्र को अपने आश्रम में छिपाकर तेरे मिथ्याचार में शामिल नहीं हो सकता।’’ फिर उसने वसिष्ठ को भी आड़े हाथों लिया, ‘‘और वसिष्ठ, तुम कैसे गुरु और पुरोहित हो? तुम्हें तो इस हरिश्चंद्र को प्रेरित करना चाहिए था कि यह पृथ्वी को ही स्वर्ग बनाने का अपने पिता त्रिशंकु का अधूरा काम पूरा करे। इसके विपरीत तुमने इसे पुराने अंधविश्वास में फँसा दिया कि निपूता आदमी मरने के बाद स्वर्ग नहीं जा सकता। मरने के बाद कौन कहाँ जाता है, कौन जानता है? लेकिन लोग इस अंधविश्वास में फँसकर अपनी पत्नी को व्यभिचार के लिए भी विवश कर देते हैं। पूछो इस हरिश्चंद्र से, जब यह अपनी पत्नी को नियोग के लिए वरुण के पास ले गया था, क्या इसने अपनी पत्नी की इच्छा-अनिच्छा पूछी थी? फिर, पुत्र की बलि से संबंधित वरुण की शर्त इसने क्यों मान ली? इसने तभी सोच लिया था कि यह शर्त के अनुसार दिये गये वचन का पालन नहीं करेगा। तो फिर इसने झूठा वचन क्यों दिया?’’<br />
<br />
वसिष्ठ ने हरिश्चंद्र का बचाव करते हुए कहा, ‘‘यह रोहित की बलि चढ़ा देगा, तो इसके राज्य का उत्तराधिकारी कौन होगा?’’<br />
<br />
विश्वामित्र ने कहा, ‘‘राज्य का उत्तराधिकारी राजा का पुत्र या कोई पुरुष ही क्यों होना चाहिए? हरिश्चंद्र की सौ रानियाँ हैं। उनमें से कोई एक या वे सब मिलकर राज्य नहीं कर सकतीं?’’<br />
<br />
‘‘कैसी नीति-विरोधी बातें करते हो, विश्वामित्र! भला स्त्रियाँ भी कहीं...’’<br />
<br />
‘‘तुम मेरे सामने नैतिकता की बात मत करो, वसिष्ठ! इस नपुसंक राजा हरिश्चंद्र ने सौ विवाह किये, क्या यह नैतिक था? पुत्र प्राप्त करने के लिए यह अपनी पत्नी को स्वयं व्यभिचार के लिए ले गया, क्या यह नैतिक था? इसने जान-बूझकर वरुण को झूठा वचन दिया, क्या यह नैतिक था? और अब तुम दोनों मेरे पास जो प्रस्ताव लेकर आये हो, क्या वह नैतिक है?’’<br />
<br />
काम बनता न देख वसिष्ठ उठ खड़ा हुआ और बेशर्म हँसी के साथ हरिश्चंद्र से बोला, ‘‘चलो, राजा हरिश्चंद्र! यह निष्ठुर विश्वामित्र तुम पर दया नहीं करेगा।’’ लेकिन आश्रम से बाहर आते ही उसने खलनायकों वाली क्रुद्ध और कुटिल हँसी के साथ घोषणा की, ‘‘मेरे रचे मंत्रों की उपेक्षा करने वाला यह विश्वामित्र अपने जैसा एक और मंत्र-द्रष्टा कवि बनाना चाहता है! मैं ऐसा कदापि नहीं होने दूँगा! कदापि नहीं!’’<br />
<br />
वसिष्ठ के साथ चलते हरिश्चंद्र ने पूछा कि अब क्या किया जाये, तो वसिष्ठ ने कहा, ‘‘मैं वरुण को समझा-बुझाकर इसके लिए राजी कर लूँगा कि वह रोहित की जगह उसी की उम्र के किसी और युवक की बलि ले ले।’’<br />
‘‘लेकिन ऐसा युवक मिलेगा कहाँ, जिसके माता-पिता उसे बेचने को तैयार हों और जो स्वयं भी बिकने को तैयार हो?’’ हरिश्चंद्र ने पूछा। वसिष्ठ ने दूसरी दिशा में शुनःशेप को जाते देख कहा, ‘‘देखो, वह रहा ऐसा युवक। वह अपने घर ही जा रहा है। चलो, हम भी उसके घर चलते हैं और उसके पिता अजीगर्त को मुँहमाँगा मूल्य देकर इसे खरीद लेते हैं।’’<br />
<br />
और वे अपने उद्देश्य में सफल हुए। अजीगर्त अपनी घोर गरीबी के कारण पुत्र शुनःशेप को बेचने के लिए और शुनःशेप अपने निर्धन परिवार के प्रति कर्तव्य पालन करने के उद्देश्य से बिकने को राजी हो गया। हरिश्चंद्र ने सौ गायों के बदले में शुनःशेप को खरीद लिया।<br />
<br />
नाटक का अंतिम दृश्य इस प्रकार था :<br />
<br />
हरिश्चंद्र, वसिष्ठ, वरुण आदि कई लोगों के बीच शुनःशेप बलि के लिए गाड़े जाने वाले खंभे से बँधा खड़ा है। एक जल्लाद नंगी तलवार लिये उसके निकट खड़ा है और एक ब्राह्मण बलि के समय पढ़े जाने वाले मंत्र पढ़ रहा है। बलि का समय आने ही वाला है कि विश्वामित्र आ जाता है और ऊँचे स्वर में सबको सुनाते हुए कहता है, ‘‘धिक्कार है! धिक्कार है इस नपुंसक, स्वार्थी और मिथ्यावादी हरिश्चंद्र को! धिक्कार है इर क्रूर, कुटिल और पाखंडी वसिष्ठ को! धिक्कार है देवता कहलाने वाले इस व्यभिचारी और नरभक्षी वरुण को! और धिक्कार है यहाँ उपस्थित उन सब लोगों को, जो मनुष्य की बलि को खेल-तमाशा समझकर देखने के लिए यहाँ एकत्र हुए हैं! मैं विश्वामित्र घोषणा करता हूँ कि एक गरीब पिता की मजबूरी का और परिवार के प्रति उत्तरदायी एक पुत्र की कर्तव्यनिष्ठा का लाभ उठाकर, राजा हरिश्चंद्र ने सौ गायों के बदले में शुनःशेप को खरीदकर, बलि के नाम पर उसकी हत्या करने का यह जो आयोजन किया है, वह सर्वथा अनुचित, अनैतिक और निंदनीय है। मैं उन सौ गायों को ले आया हूँ, जिनके बदले इस नीच ने शुनःशेप को खरीदा है। गायें उधर खड़ी हैं, हरिश्चंद्र चाहे तो जाकर उन्हें गिन ले। मैं शुनःशेप को ले जा रहा हूँ।’’ <br />
<br />
विश्वामित्र बलि-पशु की तरह बाँधे गये शुनःशेप को मुक्त करता है और जाते-जाते कहता है, ‘‘राजा, ब्राह्मण, देवता और नागरिक सब देख लें कि मैं शुनःशेप को ले जा रहा हूँ। किसी में हिम्मत और ताकत हो तो मुझे रोक ले। मैं इसे अपना पुत्र, शिष्य और ऋषि बनाऊँगा। इसके रचे मंत्रांे को ऋग्वेद में संकलित कराऊँगा, जिनसे इसका यश दुनिया भर में फैलेगा और इसकी कीर्ति अनंत काल तक कायम रहेगी।’’<br />
<br />
विश्वामित्र चला जाता है। मंच पर सब स्तब्ध खड़े रह जाते हैं। कुछ देर बाद वसिष्ठ आगे आता है और व्यंग्यपूर्वक बोलता है, ‘‘यह विश्वामित्र महाज्ञानी है, किंतु बहुत भोला है! यह समझता है कि यश और कीर्ति का आधार ज्ञान है। यह नहीं जानता कि यश और कीर्ति का वास्तविक आधार धन और राज्य के बल पर किया जाने वाला प्रचार है। मैं इस आधार पर ऐसा चमत्कार कर दिखाऊँगा कि राजा हरिश्चंद्र युगों-युगों तक सत्यवादी कहलायेगा, विश्वामित्र एक क्रोधी और दुष्ट ऋषि के रूप में जाना जायेगा और शुनःशेप को कोई नहीं जानेगा। उसकी कथा केवल किताबों में बंद होकर रह जायेगी!’’<br />
<br />
अचानक सूत्रधार, मंच के अग्रभाग में दर्शकों के ठीक सामने आकर कहता है, ‘‘वसिष्ठों को हमेशा यह भ्रम रहा है कि वे असत्य को सत्य के रूप में प्रचारित करके उसे सदा के लिए सत्य बना देंगे। लेकिन वे भूल जाते हैं कि विश्वामित्रों ने उन्हें हमेशा चुनौतियाँ दी हैं और देते रहेंगे। विश्वामित्रों ने वसिष्ठों को ही नहीं, ब्रह्माओं तक को चुनौतियाँ दी हैं और देते रहेंगे। विश्वामित्रों ने उनकी बनायी मिथ्या सृष्टियों के विरुद्ध सच्ची प्रतिसृष्टियाँ की हैं और करते रहेंगे।’’<br />
<br />
<br />
<br />
नाटक समाप्त हुआ, तो प्रेक्षागृह तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। दर्शक खड़े होकर देर तक तालियाँ बजाते रहे। अंततः जब पटाक्षेप हुआ, तो मैंने बाहर आकर अपने ‘अंगरक्षकों’ से विदा ली और सुकुमार से मिलने, उनको बधाई देने, नेपथ्य की ओर चल दिया। लेकिन वहाँ मैं यह देखकर हैरान रह गया कि सुकुमार, दमयंती जी, अतुल, प्रभा, जय और विजय सब एक साथ खड़े हैं और हँस-हँसकर बातें कर रहे हैं।<br />
<br />
मुझे देखते ही दमयंती जी स्नेहपूर्वक डाँटते हुए बोलीं, ‘‘तुम तो बड़े स्वार्थी हो, चंडी! अपनी सृष्टि को घर छोड़कर यहाँ दूसरों की प्रतिसृष्टि देखने चले आये? प्रभा और बच्चों को साथ नहीं ला सकते थे? प्रभा ने मुझे फोन करके बताया, तो मैं तुरंत अतुल के साथ तुम्हारे घर गयी और इन लोगों को ले आयी।’’<br />
<br />
मैं कुछ कह पाता, इसके पहले ही विजय ने मुझसे कहा, ‘‘पापा, हमने हॉल के अंदर आपको देख लिया था, आपने हमें नहीं देखा!’’<br />
<br />
प्रभा ने ताना मारा, ‘‘वी.आइ.पी. लोग इधर-उधर नहीं देखते, बेटा! सीधे सामने ही देखते हैं!’’<br />
<br />
मैंने हाथ जोड़कर संकेतों में उससे क्षमा माँगी और सुकुमार को बधाई देकर नाटक की प्रशंसा करने लगा। तभी जय ने सुकुमार से पूछा, ‘‘दादू जी, राजा हरिश्चंद्र इतना झूठा था, तो हमारे स्कूल की किताब उसे सत्यवादी क्यों बताती है?’’<br />
<br />
सुकुमार ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘जैसे लोग सच्चे और झूठे होते हैं, बेटा, उसी तरह किताबें भी सच्ची और झूठी होती हैं।’’</div>
ramesh upadhyayhttp://www.blogger.com/profile/05054633574501788701noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-1496071818736613491.post-51555125408211207612013-11-06T07:01:00.005-08:002013-11-06T07:01:53.972-08:00कहानी समीक्षा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">आज का यथार्थ : आज की कहानी </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">विशेष
संदर्भ : विमल चंद्र पांडेय की कहानी </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">काली कविता के कारनामे</span><span lang="EN-GB">’</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
</div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">ऐसा
कम ही होता है कि कहानियाँ और उन पर लिखी समीक्षाएँ साथ-साथ पढ़ने को मिल जायें।
विजय राय के संपादन में लखनऊ से निकलने वाली पत्रिका </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लमही</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">के सुशील सिद्धार्थ के अतिथि संपादन में
निकले कहानी विशेषांक (अप्रैल-सितंबर</span><span lang="EN-GB">, 2013) </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">ने यह दुर्लभ अवसर उपलब्ध कराया है।
विशेषांक में प्रकाशित दस कहानियों पर लिखी गयी समीक्षाओं से पता चलता है कि आज की
हिंदी कहानी तो आज के गतिशील तथा परिवर्तनशील यथार्थ को विभिन्न रूपों में सामने
लाती हुई यथार्थवाद का विकास कर रही है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">मगर हिंदी की कहानी-समीक्षा उस यथार्थ
को और कहानी में निरूपित उसके विभिन्न रूपों को समझने के नये उपकरण विकसित करने के
बजाय कलावाद</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">अनुभववाद</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">विमर्शवाद इत्यादि की यथार्थवाद-विरोधी
दिशाओं में ही भटक रही है। कहानी और कहानी-समीक्षा दोनों का विकास अन्योन्याश्रित
है और इसके लिए दोनों का साथ चलना जरूरी है। लेकिन आज की कहानी तेजी से अपना विकास
कर रही है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जबकि कहानी-समीक्षा उसके साथ कदम से कदम मिलाकर न चल पाने के
कारण पिछड़ रही है और कहानी के विकास को भी बाधित कर रही है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">विडंबना
यह है कि कहानी के साथ न चल पा रही</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">पिछड़ रही या उसके विकास की दिशा से
भिन्न और विपरीत दिशाओं में जाकर भटक रही समीक्षा कहानी का सही मूल्यांकन करने में
समर्थ होने का</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कहानी की साहित्यिकता या कलात्मकता के बारे में फतवे देने का</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कहानी
को गलत दिशा में जाने से रोककर सही दिशा में आगे बढ़ाने में समर्थ होने का दंभ भी
पाले हुए है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उदाहरण
के तौर पर </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लमही</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">के उक्त विशेषांक में प्रकाशित एक
बेहतरीन यथार्थवादी कहानी और उसकी बेहद खराब कलावादी समीक्षा को देखा जा सकता है।
कहानी है विमल चंद्र पांडेय की </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">काली कविता के कारनामे</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">और
कहानी की समीक्षा है अर्चना वर्मा की </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">यथार्थ की जटिलता बरक्स उपाय की सरलता
का पारस पत्थर</span><span lang="EN-GB">’</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जैसा
कि शीर्षक से ही स्पष्ट है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कहानी </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">काली कविता के कारनामे</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कविता
नामक एक स्त्री की कहानी है। आजकल हिंदी में स्त्री और दलित रचनाकारों के संदर्भ
में </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">स्वानुभूति</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">और
</span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">सहानुभूति</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">का
प्रश्न बड़े जोर-शोर से उठाया जाता है। अतः पहले ही स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि
स्त्री द्वारा ही स्त्री के बारे में लिखी गयी कहानी को </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">स्वानुभूति</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">के आधार पर लिखी गयी </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">प्रामाणिक</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कहानी
मानने वाले तथा पुरुष द्वारा स्त्री के बारे में लिखी गयी कहानी को </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">सहानुभूति</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">के
आधार पर लिखी गयी </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">अप्रामाणिक</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कहानी बताने वाले कहानी-समीक्षकों
द्वारा दिये जाने वाले चरित्र प्रमाणपत्र अनुभववादी कहानी के संदर्भ में भले ही
कुछ उपयोगी होते हों</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">यथार्थवादी कहानी के लिए उनकी कोई
उपयोगिता या सार्थकता नहीं होती। यह कहानी विमल चंद्र पांडेय ने लिखी है। लेकिन
अगर किन्हीं विमला कुमारी पांडेय ने लिखी होती</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">तो भी इसे ऐसे किसी चरित्र प्रमाणपत्र
की आवश्यकता न होती। इसमें कुछ दलित पात्र भी हैं और उनके प्रति एक ब्राह्मण लेखक
द्वारा सहानुभूति व्यक्त की गयी है। फिर भी इसके संदर्भ में यह प्रश्न अप्रासंगिक
है कि इसे दलितवादी कहानी कहा जाये कि न कहा जाये और कहा जाये</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">तो
प्रामाणिक कहा जाये या अप्रामाणिक। यथार्थवादी कोई भी हो सकता है और यथार्थवादी
रचना का निजी अनुभव पर ही आधारित होना आवश्यक नहीं है। इसलिए यथार्थवादी कहानी और
कहानी-समीक्षा के लिए यह पूरी बहस ही बेमानी है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जहाँ
तक इस कहानी की कलात्मकता का प्रश्न है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उसे भी कलावादी नहीं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">यथार्थवादी
कहानी-समीक्षा ही सामने ला सकती है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">क्योंकि कलावादी कहानी-समीक्षा के पास
वह दृष्टि ही नहीं है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जो यथार्थवादी कहानी की कलात्मकता को
देख सके। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कलावादी
कहानी-समीक्षा के लिए इस बात का कोई विशेष मूल्य नहीं होता कि कहानी में क्या कहा
गया है। उसके लिए प्राथमिक और महत्त्वपूर्ण होता है यह देखना कि कहानी कैसे कही या
लिखी गयी है। अर्चना वर्मा को इस बात से विशेष मतलब नहीं है कि इस कहानी का कथ्य
क्या है। उनका जोर इस पर है कि इस कहानी का रूप या शिल्प क्या है। उन्हें कहानी
सरल ढंग से कही गयी लगती है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जबकि उन्हें (या सभी कलावादियों को)
साहित्य में सरलता नहीं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जटिलता पसंद है। समीक्षा की शुरुआत से
ही वे सरलता-जटिलता की बात करने लगती हैं :<span style="mso-spacerun: yes;"> </span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">सरल होना बहुत सरल नहीं है। बिना सरलीकरण किये हुए सरल होना तो
दरअसल कठिन भी है। बहुत-सी जटिलताओं का इलाज तो सरल होने में ही छिपा है। और इलाज
का रास्ता रोग की समझ से होकर या जटिलताओं को दरकिनार करके नहीं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उनके
बीच से गुजरकर जाता है।</span><span lang="EN-GB">’’ </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इसके
बाद वे सरलता-जटिलता का संबंध यथार्थवाद से जोड़ती हैं और प्रेमचंद में दो तरह का
यथार्थवाद बताती हैं</span><span lang="EN-GB">µ</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">एक </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कफन</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कहानी वाला जटिल यथार्थवाद और दूसरा </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कफन</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">से
पहले वाला सरल यथार्थवाद। उन्हें </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कफन</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">वाले प्रेमचंद का यथार्थवाद पसंद है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जिसे
वे आज के कहानीकारों में देखती हैं या देखना चाहती हैं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लेकिन पाती हैं कि विमल चंद्र पांडेय ने
अपनी कहानी में </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">आदर्शोन्मुख यथार्थवाद के जमाने वाले प्रेमचंद की परंपरा का</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उत्तराधिकारी
होना चुना है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">अर्चना
वर्मा प्रेमचंद की परंपरा के जिन दो रूपों की बात कर रही हैं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उनके
प्रसंग में याद रखना जरूरी है कि </span><span lang="EN-GB">1980</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";"> के दशक में प्रेमचंद की परंपरा पर
हिंदी के कलावादी और यथार्थवादी लेखकों के बीच एक घमासान मचा था। उसमें कलावादियों
ने प्रेमचंद की परंपरा को </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कफन</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कहानी वाले प्रेमचंद से जोड़ा था</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जबकि
यथार्थवादियों ने संपूर्ण प्रेमचंद साहित्य से। इस संदर्भ को ध्यान में रखने पर
स्पष्ट हो जायेगा कि अर्चना वर्मा हिंदी कहानी में यथार्थवाद के सवाल पर कहाँ खड़ी
हैं। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">अर्चना
जी शायद यह मानती हैं कि विमल चंद्र पांडेय वाली पीढ़ी की सोच-समझ प्रेमचंद की </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कफन</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">वाली
परंपरा से जुड़ती है। लेकिन पूरी पीढ़ी की सोच-समझ ऐसी ही है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">यह
दावा कोई नहीं कर सकता। फिर</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">यदि अकेले विमल ने ही अपना संबंध
प्रेमचंद की आदर्शोन्मुख यथार्थवाद वाली परंपरा से जोड़ा है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">तो
भी कहानी-समीक्षक के लिए यह एक विशेष और महत्त्वपूर्ण बात होनी चाहिए थी</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जिस
पर उसे विशेष ध्यान देना चाहिए था। लेकिन अर्चना जी विमल की कहानी के यथार्थवाद पर
बात ही नहीं करतीं। बल्कि उसे उपेक्षणीय मुद्दा मानकर जटिलता और सरलता की बात
करते-करते यह बताने लगती हैं कि साहित्य और पत्रकारिता दो अलग चीजें हैं और
पत्रकारिता को साहित्य नहीं कहा जा सकता। इस आधार पर वे विमल की कहानी को ही नहीं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">प्रेमचंद
की भी </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">बहुत-सी</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कहानियों
को पत्रकारिता से जोड़कर साहित्य से खारिज कर देती हैं। उनके अनुसार लेखक ने यह
कहानी </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">अपने
समय के यथार्थ की पकड़ के साथ यथार्थोन्मुख बनाते हुए</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लिखी है और </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इस काम को अंजाम देने में बड़ा हाथ
वृत्तांत शैली की पत्रकारिता का भी है</span><span lang="EN-GB">’’</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">। अर्चना जी इसे कहानी नहीं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">बल्कि
यथार्थ की रिपोर्टिंग या </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कवरेज</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">मानती हैं और लिखती हैं :</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">पत्रकारिता में भी ऐसे कवरेज को स्टोरी या कहानी ही कहा जाता
है। प्रेमचंद ने भी अपने समय की सुर्खियों को लेकर बहुत-सी ऐसी कहानियाँ लिखी थीं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जिनका
सत्यापन दैनिक अखबार से किया जा सकता था।</span><span lang="EN-GB">’’ </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इस
समीक्षा में </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">प्रेमचंद की ही तरह विमल के सामने अपना लक्ष्यार्थ और लक्षित
पाठक दोनों ही सुस्पष्ट और सुपरिभाषित हैं</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जैसे वाक्य ऊपर से प्रशंसात्मक लगते हैं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लेकिन
उनसे निकलने वाली ध्वनि को ध्यान से सुना जाये</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">तो पता चलता है कि प्रेमचंद और विमल
दोनों को साहित्यकार की जगह </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">वृत्तांत शैली का पत्रकार</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">बताया
जा रहा है और उनके लेखन को सरल या सपाट बताकर साहित्य से खारिज किया जा रहा है।
कहा जा रहा है कि साहित्य का गुण है जटिलता</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जो इस कहानी में नहीं है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इसलिए
इसे साहित्य नहीं माना जा सकता। साहित्य तो वह होता है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जो जटिल हो</span><span lang="EN-GB">; </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जिसकी व्याख्या करना मुश्किल हो!
पत्रकारिता की-सी </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कवरेज</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">वाली कहानी में यह बात कहाँ! अतः उसे
ध्यान से पढ़ने-समझने की जरूरत ही नहीं! अर्चना जी प्रशंसा के शिल्प में विमल की
कहानी की निंदा करते हुए लिखती हैं : </span></div>
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<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">किस्सा तो कुल इतना है कि कविता काली है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लेकिन
उसका दिल उजला है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">दुनिया भर की लड़कियों की तरह बहुत छोटी
उम्र में ही उसको समझ में आ गया है कि दुनिया सुंदर नहीं है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लेकिन
छोड़िए</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">किस्सा
तो आप पढ़ ही लेंगे और इस किस्से की खासियत यह है कि जटिलता के बावजूद इसे किसी
व्याख्या की जरूरत नहीं है। इसकी जटिलता यथार्थ की भले हो</span><span lang="EN-GB">,
</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">संरचना या अभिव्यक्ति
की नहीं है। यथार्थ भी जानकारी के अतिशय और अति परिचय की वजह से अपनी जटिलता का
जटाभाव (</span><span lang="EN-GB">?) </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">खो बैठा है।</span><span lang="EN-GB">’’ </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">फिर
जटिलता को रचनात्मकता का पर्याय-सा मानते हुए वे लिखती हैं कि विमल की कहानी (या
किस्से या वृत्तांत शैली की पत्रकारिता वाले कवरेज) में </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">यथार्थ को निरुद्वेग सूचना की तरह दर्ज
करने की विधि से रचनात्मकता निचोड़ी गयी है।</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">मानो यथार्थ सूखा नींबू हो</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जिसमें
से जबर्दस्ती रचनात्मकता का रस निचोड़ा गया हो! वे कहना दरअसल यह चाहती हैं कि जिस
कहानी में जटिलता नहीं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उसमें रचनात्मकता नहीं। मगर उन्हें
मालूम है कि इस कहानी को कलावादी ढंग से ही नहीं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">यथार्थवादी ढंग से भी पढ़ा जा सकता है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इसलिए
वे दो तरह के पाठकों की बात करती हैं। (कलावादी) </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">पाठक को अपनी संवेदना और रुचि के अनुसार
तहदारी और परत-दर-परत गहराई में उतरते जाने की कमी खल सकती है</span><span lang="EN-GB">’’, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जबकि
भिन्न </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">स्वाद
और रुचि</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">वाले
(यथार्थवादी) पाठक कह सकते हैं कि </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">यह कहानी यथार्थ के विस्तार की है और इस
विन्यास में से उभरने वाली प्रत्याशाओं की कसौटी पर खरी उतरती है।</span><span lang="EN-GB">’’ </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इसके
बाद वे एक गुरु-गंभीर प्रश्न उठाती हैं</span><span lang="EN-GB">--‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इस कहानी में ऐसा क्या है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जो
इसे पत्रकारिता से अलग और रचनात्मक कथासाहित्य से एक करता है</span><span lang="EN-GB">?’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उत्तर
में वे पुराने साहित्यशास्त्र से लेकर उत्तर-संरचनावाद तक की चर्चा करते हुए (और
पाठकों को आतंकित करने के लिए कुछ विदेशी नाम टपकाते हुए) एक लंबा वक्तव्य देती
हैं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जिसमें
यह चुटकुला भी सुना देती हैं कि </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">यदि किसी को रेलवे-टाइम-टेबिल में कविता
या कहानी दिखायी दे जाये तो वह कविता या कहानी ही है।</span><span lang="EN-GB">’’</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">वक्तव्य
के अंत में वे लिखती हैं</span><span lang="EN-GB">-- ‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">बुनियादी सवाल अब यह है कि साहित्य को
सदियों के अंतराल में उत्पादित एक सांस्कृतिक संरचना माना जाये जो अपनी विशिष्ट रूढ़ियों
द्वारा पोषित हुई और जो अब संचार-माध्यमों के समक्ष संभावित विनाश का सामना कर रही
है या फिर वह अपने आप में विमर्श की कोई विशिष्ट और बुनियादी कोटि भी है</span><span lang="EN-GB">?’’ </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">अपने
जटिलता के जटाभाव वाले अंदाज में वे अपने सवाल का विमल की कहानी के संदर्भ में </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">सीधा
उत्तर</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">यह
कहकर देती हैं :</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">वास्तविक भौगोलिक लोकेशन वास्तविक व्यक्ति और वास्तविक आँकड़ों
से पुष्ट यथातथ्य प्रामाणिकता के साथ यही कहानी अखबार में छपकर अखबारी वृत्तांत या
वृत्तांत शैली की पत्रकारिता होगी और साहित्यिक पत्रिका में इस दावों (</span><span lang="EN-GB">?)<span style="mso-spacerun: yes;"> </span></span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">के बगैर वृत्तांत शैली की साहित्य रचना।</span><span lang="EN-GB">’’ </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">प्रस्तुत
पंक्तियों का लेखक स्वीकार करता है कि वह अर्चना जी के वक्तव्य की </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">तहदारी
और परत-दर-परत गहराई</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">में उतरते जाने में असमर्थ है। वह लगभग
पाँच दशकों से साहित्य और पत्रकारिता दोनों में थोड़ा दखल रखने के बावजूद यह समझ
पाने में असमर्थ है कि कोई रचना अखबार में छपने पर पत्रकारिता और साहित्यिक
पत्रिका में छपने से साहित्य कैसे हो जाती है! बहरहाल</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">वह विमल को बधाई देता है कि साहित्यिक
पत्रिका में छपने के कारण ही सही</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उनकी कहानी आखिर साहित्य तो मानी गयी! </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">समीक्षा
के उत्तरार्ध में कहानी के बारे में जो कहा गया है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इतना ही है कि इस कहानी में </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">एक
वृत्तांत है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जो शिक्षा की व्यवस्था और संस्थान के अभावों और विकृतियों को
अपने केंद्र में रखकर उसके इर्द-गिर्द अन्य तरह-तरह के अस्मिता-विमर्शों के
ताने-बाने से कथा की शक्ल अख्तियार करता है।</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">ये विमर्श हैं</span><span lang="EN-GB">µ</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">स्त्री विमर्श और चूँकि कविता काली है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इसलिए
</span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">साहचर्य-
संकेत से कथातत्त्व में खींच लाया गया</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">रंगभेद-विमर्श। लेकिन अर्चना जी के
विचार से </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इस वृत्तांत का विमर्श तत्त्व</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">भी गड़बड़ है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">क्योंकि </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">शिक्षासंस्थान और व्यवस्था के विश्लेषण
को कथात्मक बनाये रखना कहानी के उत्तरार्ध में उतना आसान नहीं दिखता</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जितना
कि पूर्वार्ध में कविता के अस्मिता-बोध की रचना का वृत्तांत।</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उसमें
उल्लेखनीय कुछ है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">तो </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">ज्ञात और परिचित भ्रष्टाचारों के सपाट
और थोक की सामान्यता के निरसन और अनावश्यक ब्यौरों के संक्षेपण के लिए दो
अलंकृतियों का इस्तेमाल</span><span lang="EN-GB">’’! </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">ये दो अलंकृतियाँ हैं</span><span lang="EN-GB">µ‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">स्कूल
की मुँडेर पर बैठने वाले विशालकाय गिद्ध</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जिन्हें शायद केवल कविता देख पाती है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">और
(शिक्षण का) पारस पत्थर जिससे घिस-घिसकर वह अपने छात्र-छात्राओं के लोहे को सोने
में बदलती है।</span><span lang="EN-GB">’’ </span></div>
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<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लेकिन
उल्लेखनीय का अर्थ प्रशंसनीय नहीं है। इन </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">अलंकृतियों</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">में भी खोट है। अर्चना जी शायद इन्हें </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">अलंकरण</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कहना
चाहती हैं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इसलिए </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">अलंकरण</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">शब्द लाये बिना स्त्रीलिंग </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">अलंकृतियों</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">को
पु</span><span lang="EN-GB">¯</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">ल्लग
में बदलते हुए लिखती हैं</span><span lang="EN-GB">µ‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">ये अपनी इकहरी पारदर्शिता की वजह से
रूपकीय संक्षेपण की सघनता या जादुई-यथार्थ की अनुभवात्मक सत्ता तक नहीं जाते</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">सायन-विधान
तक ही रह जाते हैं।</span><span lang="EN-GB">’’ </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">समीक्षा
की अंतिम पंक्तियाँ हैं :</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">वृत्तांत के अंत की तरफ गिद्ध मुँडेर छोड़कर उड़ जाते हैं। सिर्फ
वृत्तांत का अंत क्योंकि कहानी खत्म नहीं होती</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">एक बहुत सार्थक समापन टिप्पणी के
हस्तक्षेप से वृत्तांत के आमने-सामने खड़ी रह जाती है। कथाकार विमल की स्वागत योग्य
संभावनाओं को उजागर करती हुई।</span><span lang="EN-GB">’’ </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">यह
प्रशंसा है या निंदा</span><span lang="EN-GB">? </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">या व्याजोक्ति का नमूना</span><span lang="EN-GB">? </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">पाठक
स्वयं तय करें। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कुल
मिलाकर अर्चना वर्मा ने उत्तर-आधुनिकतावाद के घिसे-पिटे पत्थर पर घिसकर पैनायी
गयी भोंथरी कलावादी छुरी से विमल की बेहतरीन यथार्थवादी कहानी का गला रेतने में
कोई कसर नहीं छोड़ी है। लेकिन वे इसकी हत्या करने के प्रयास में सफल नहीं हो पायी
हैं। समीक्षा खराब रचना में जान नहीं डाल सकती</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">तो अच्छी रचना को मार भी नहीं सकती।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">आइए</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">अब
उनकी समीक्षा से अलग हटकर आज के यथार्थ और आज की कहानी के संदर्भ में विमल चंद्र
पांडेय की कहानी </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">काली कविता के कारनामे</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">को देखें। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">यह
कहानी आज के उस समय में लिखी गयी है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जो भारत में ही नहीं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">समूचे
विश्व में भारी उथल-पुथल का समय है। लेकिन यह उथल-पुथल दुनिया को बेहतर और सुंदर
बना सकने वाली किन्हीं क्रांतिकारी शक्तियों ने नहीं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">बल्कि पूँजीवाद की संकटग्रस्त भूमंडलीय
व्यवस्था ने मचा रखी है। इस उथल-पुथल का असर कर्ज के शिकंजे में जकड़े जाकर लगभग
पराधीन हो चुके भारत जैसे देशों के जन-जीवन पर यह पड़ रहा है कि जीवन की सारी
सच्चाई</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">अच्छाई
और सुंदरता गायब होती जा रही है। राजनीति हो या अर्थनीति</span><span lang="EN-GB">,
</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">धर्म हो या संस्कृति</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उद्योग
हो या व्यापार</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">सरकारी नौकरियाँ हों या निजी काम-धंधे</span><span lang="EN-GB">,
</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">हर जगह झूठ</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">बेईमानी</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">छल-कपट</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">अनैतिकता</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">स्वार्थपरता</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">भ्रष्टाचार</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">हिंसा</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">शोषण</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">दमन</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उत्पीड़न</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">हर
तरह की बुराई और हर तरह की कुरूपता का बोलबाला है। सच्चाई</span><span lang="EN-GB">,
</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">अच्छाई और सुंदरता
जैसी चीजें भी हैं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लेकिन वे दबी रहती हैं या दबा दी जाती
हैं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इसलिए
अक्सर दिखायी नहीं देतीं। उनको सामने लाने वाला कोई सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन तो
क्या</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">साहित्यिक-सांस्कृतिक
आंदोलन भी नहीं चल रहा। नतीजा यह है कि अच्छे और भले लोग अपने-अपने काम में अकेले
लगे रहने को मजबूर हैं। वे अकेले और अलग-थलग पड़कर गुमनामी में जीते हैं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इसलिए
समाज में </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">दिखायी</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">नहीं
देते और इसीलिए साहित्य और कलाओं में भी नजर नहीं आते। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">आज
के इस निराशाजनक यथार्थ के बरक्स आज की हिंदी कहानी को देखने पर यह समझना मुश्किल
नहीं रहता कि उसमें आशावाद और आदर्शवाद लगभग अनुपस्थित क्यों मिलता है। आजकल कहानी
हो या उपन्यास</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">नाटक हो या सिनेमा</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">हर जगह नकारात्मक चरित्रों की भरमार है।
नकारात्मकता हर जगह इतनी हावी है कि वही सच और यथार्थ लगती है। सकारात्मक चरित्र
नकली</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">बनावटी
और अविश्वसनीय लगते हैं। इसीलिए हिंदी फिल्मों में कल का विलेन आज हीरो है और कल
का हीरो हास्यास्पद चरित्र। आज की हिंदी कहानी में भी कमोबेश यही हाल है। लोग
सिनेमा और संचार माध्यमों में पसरी और उनके द्वारा पसारी जाती नकारात्मकता से तंग
आकर कुछ सकारात्मक पाने की आशा में कहानी की ओर आते हैं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लेकिन पाते हैं कि यहाँ भी ज्यादातर
नकारात्मक चीजों को ही यथार्थ बताकर परोसा जा रहा है और सकारात्मक चीजों को अक्सर
काल्पनिक</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">आदर्श</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">यूटोपिया
आदि कहकर या तो खारिज किया जा रहा है या उनकी खिल्ली उड़ायी जा रही है। इन सब चीजों
का असर कुल मिलाकर यह होता है कि लोग पड़ोस में रहने वाले एक भले आदमी की भलाई को
जानते हुए भी उस पर विश्वास नहीं करते</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जबकि जनहित की बातें और जन-विरोधी काम
करने वाले नेताओं तथा ढोंगी</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">पाखंडी</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">हिंसक और बलात्कारी बाबाओं के चरित्र को
जानते हुए भी उन पर विश्वास करते हैं और उनके भाषण और प्रवचन सुनने चले जाते हैं। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">तो
क्या यह मान लिया जाये कि कहानी सच कहने की शक्ति खो चुकी है</span><span lang="EN-GB">? </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">क्या
वह अब सच्चाई और अच्छाई को सामने लाने में समर्थ नहीं रह गयी है</span><span lang="EN-GB">? </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">नहीं।
उसमें यह शक्ति और सामर्थ्य अभी है। इसीलिए आज के उपयोगितावादी और बाजारवादी समय
में भी पाठक उसे पढ़ते हैं और लेखक</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उससे कोई खास लाभ न होने पर भी</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उसे
लिखते हैं। अतः यह कहना गलत है कि अब कहानी कोई नहीं पढ़ता और कहानीकार पाठकों के
लिए नहीं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">बल्कि
संपादकों</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">समीक्षकों
और पुरस्कार आदि देने वालों के लिए ही लिखते हैं। आजकल कहानीकारों पर</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">खास
तौर से नये कहानीकारों पर</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">यह आरोप भी लगाया जाता है कि वे
बाजारवादी हो गये हैं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">बाजार में बिक सकने वाली चीजें ही लिखते
हैं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">समाज
और साहित्य की उन्हें कोई परवाह नहीं है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इत्यादि। लेकिन ये बातें कुछ हद तक सच
होते हुए भी पूरी तरह सच नहीं हैं। दुनिया के अन्य तमाम क्षेत्रों की तरह साहित्य
के क्षेत्र में भी बुराइयाँ मौजूद हैं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लेकिन दुनिया के अन्य तमाम क्षेत्रों की
तरह ही साहित्य के क्षेत्र में भी अच्छाइयाँ मौजूद हैं। अब यह हम पर है</span><span lang="EN-GB">µ</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इस
क्षेत्र में सक्रिय लेखकों</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">पाठकों</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">समीक्षकों</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">संपादकों</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">प्रकाशकों</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">शिक्षकों आदि पर</span><span lang="EN-GB">µ</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कि
हम अच्छाइयों पर ध्यान देते हैं या बुराइयों पर। साहित्य में निहित नकारात्मकता को
ही उभारते हैं या सकारात्मकता को भी सामने लाते हैं! </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इस
तरह देखें</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">तो आज की हिंदी कहानी आज के इसी यथार्थ को देखने-दिखाने वाली
कहानी है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जो
अंधकारमय है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">पर जिसमें उजाले भी हैं</span><span lang="EN-GB">; </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जो निराशाजनक है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">पर
जिसमें उम्मीदें भी हैं</span><span lang="EN-GB">; </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जो बुरा है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">पर जिसमें अच्छाइयाँ भी हैं। और यह
साहित्य से जुड़े किसी भी सदाशयी व्यक्ति के लिए सुख और संतोष की बात हो सकती है कि
यथार्थवाद- विरोधी शक्तियों और प्रवृत्तियों की बड़ी भारी उपस्थिति के बावजूद आज की
हिंदी कहानी उन शक्तियों और प्रवृत्तियों से संघर्ष करती हुई अपनी यथार्थवादी
परंपरा में ही अपना विकास कर रही है। हाँ</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">यथार्थवाद के विभिन्न रूप हैं और यह
कहानीकार की निजी रुचि</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">प्रवृत्ति</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">शक्ति और क्षमता पर निर्भर है कि वह
अपनी कहानी के लिए यथार्थवाद के किस रूप को उचित और आवश्यक समझता है अथवा उसके
किसी नये रूप के आविष्कार की आवश्यकता अनुभव करता है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">विमल
चंद्र पांडेय पिछले दस-पंद्रह वर्षों में हिंदी कहानीकारों की जो नयी पीढ़ी उभरकर
सामने आयी है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उसके एक महत्त्वपूर्ण कहानीकार हैं। </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">काली कविता के कारनामे</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">से
पहले की अपनी कहानियों में भी उन्होंने प्रेमचंद की यथार्थवादी परंपरा को ही आगे
बढ़ाने का काम किया है। उन्होंने अपनी पीढ़ी के उन कहानीकारों से</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जो
कहानी में कथ्य से अधिक भाषा और शिल्प पर जोर देते हैं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">अपनी अलग पहचान बनायी है। यद्यपि उनकी
कहानियों में भी भाषा का अपना एक अलग और विशिष्ट अंदाज है</span><span lang="EN-GB">,
</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जो जन-जीवन से उनके
गहरे लगाव-जुड़ाव का परिचय देता है</span><span lang="EN-GB">; </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उनकी शैली में भी अपनी पीढ़ी के
कहानीकारों का-सा चुलबुलापन और खिलंदड़ापन है</span><span lang="EN-GB">; </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लेकिन वे शिल्पगत चमत्कारों के चक्कर
में नहीं पड़ते। अतः उनकी कहानियाँ सहज संप्रेषणीय होती हैं। सबसे बड़ी बात यह कि वे
कलावादी</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">अनुभववादी
और उत्तर-आधुनिकतावादी प्रभावों से सचेत रूप से बचते हुए स्वयं को हिंदी कहानी की
यथार्थवादी परंपरा से जोड़े रखकर उसे आगे बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील दिखायी देते हैं। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लेकिन
हिंदी की यथार्थवादी कहानी-समीक्षा आज के ऐसे कहानीकारों द्वारा लिखी जा रही
उत्कृष्ट यथार्थवादी कहानियों पर अपेक्षित ध्यान नहीं दे पा रही है। अतः प्रस्तुत
पंक्तियों का लेखक</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जो स्वयं कहानीकार है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कहानी-समीक्षक
नहीं है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">आपद्धर्म
के रूप में विमल चंद्र पांडेय की कहानी को एक उदाहरण के तौर पर सामने रखते हुए
यथार्थवादी कहानी-समीक्षा के विकास के लिए आज की यथार्थवादी कहानी की चार प्रमुख
विशेषताओं को रेखांकित करना चाहता है।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";"><span style="color: red;"><b>एक :</b></span>
<b>आज की यथार्थवादी कहानी जीवन और जगत के यथार्थ को समग्रता में देखती है।</b>
उत्तर-आधुनिकतावाद यथार्थ को समग्रता के विरुद्ध विखंडित रूप में देखने की बात
करता है। यह आज के पूँजीवाद की विचारधारा है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लेकिन इसके पीछे एक बहुत पुराना
शासकवर्गीय सिद्धांत काम करता है</span><span lang="EN-GB">µ</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">बाँटो और शासन करो। कहानी-लेखन में यह
विचार और सिद्धांत इस रूप में आता है कि यथार्थ को समग्रता में नहीं समझा जा सकता</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">खंड-खंड
करके ही समझा जा सकता है</span><span lang="EN-GB">; </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">अतः कहानी में उसका चित्रण समग्र रूप
में नहीं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">विखंडित
रूप में ही होना चाहिए। इसके लिए यह सिद्धांत विभिन्न अस्मिताओं की बात करता है और
बताता है कि प्रत्येक देश का</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">प्रत्येक समाज का</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">प्रत्येक
समुदाय का</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">प्रत्येक जाति का और प्रत्येक व्यक्ति का यथार्थ भिन्न होता
है। पुनः व्यक्तियों में भी गोरों</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कालों</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">स्त्रियों</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">पुरुषों</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">दलितों</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">सवर्णों</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">बच्चों</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">युवाओं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">वृद्धों</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">समलैंगिकों</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">विषमलैंगिकों इत्यादि सबके यथार्थ भिन्न
होते हैं और समग्र यथार्थ से उनका कोई लेना-देना नहीं होता। इसके विपरीत यथार्थवादी
कहानी इन सारी भिन्नताओं को एक समग्रता के विभिन्न अंगों के रूप में देखती है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">विमल
चंद्र पांडेय इन समस्त भिन्नताओं को जानते और पहचानते हैं</span><span lang="EN-GB">,
</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कहानियों में उन्हें
सामने भी लाते हैं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लेकिन उन्हें समग्रता में ही देखते हैं।
</span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">काली
कविता के कारनामे</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">में शहरी मध्यवर्गीय जीवन से लेकर
ग्रामीण जन-जीवन तक का यथार्थ सामने लाते हुए वे एक लड़की की कहानी कहते हैं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लेकिन
उसमें वे कई विभिन्न प्रकार के चरित्रों की कहानियाँ एक साथ और बड़ी सहजता के साथ
इस प्रकार गूँथ देते हैं कि वे अलग- अलग होकर भी एक हो जाती हैं। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";"><span style="color: red;"><b>दो :</b></span>
<b>आज की यथार्थवादी कहानी यथार्थ को गतिशील और परिवर्तनशील रूप में देखती-दिखाती है।
</b>वह मानव समाज के ऐतिहासिक अनुभव के आधार पर यथार्थ को बदलकर दुनिया को बेहतर बनाये
जा सकने को संभव मानती है और यह मानकर चलती है कि इसमें कथासाहित्य की भी एक
भूमिका होती है। इसके विरुद्ध उत्तर-आधुनिकतावाद साहित्य को भाषा का खेल या खिलवाड़
मानता है और हर प्रकार की अभिव्यक्ति को एक भाषिक रूप या </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">डिस्कोर्स</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">बताता है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जिसके लिए हिंदी में </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">विमर्श</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">शब्द
प्रचलित है। इस विमर्शवाद<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>ने साहित्य को
सामाजिक सरोकारों से काटकर तथा सामाजिक परिवर्तन में उसकी भूमिका को नकारकर उसे
निरर्थक और निरुद्देश्य बना दिया है। विभिन्न प्रकार की अस्मिताओं वाला विमर्शवादी
साहित्य ऊपर से बड़ा यथार्थवादी और क्रांतिकारी लगता है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लेकिन भीतर से वह यथार्थवाद-विरोधी तथा
यथास्थितिवादी होता है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इसके
उदाहरण हम अपने साहित्य के स्त्री विमर्श और दलित विमर्श में देख सकते हैं।
स्त्रियों और दलितों की वास्तविक परिस्थितियों को बदलने के लिए सामाजिक आंदोलन
जरूरी हैं। ये आंदोलन हमारे समाज में चले हैं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उनसे साहित्य का भी संबंध रहा है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">और
साहित्य में हम उन्हें स्त्री आंदोलन तथा दलित आंदोलन के रूप में जानते रहे हैं।
लेकिन उनके स्त्री विमर्श और दलित विमर्श में बदल जाने पर उनका सामाजिक आंदोलनकारी
रूप समाप्त हो गया है और उन पर यथार्थवाद की जगह अनुभववाद या </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लेखक
का अपना जिया- भोगावाद</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">हावी हो गया है। इस प्रवृत्ति का एक
भयंकर दुष्परिणाम यह भी हुआ है कि स्त्री विमर्श देहवाद में और दलित विमर्श
जातिवाद में सिमटकर वास्तव में स्त्री-विरोधी और दलित-विरोधी भी होता जा रहा है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">सामाजिक-राजनीतिक
आंदोलनों में यह होता है कि जो वर्ग या समुदाय आंदोलन करता है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">वह
अन्य वर्गों और समुदायों के समर्थन और सहयोग से अपने आंदोलन को मजबूत बनाकर आगे
बढ़ाने की कोशिश करता है। इसके लिए एक प्रकार की उदारता और सहिष्णुता आवश्यक होती
है। हिंदी साहित्य में जब ये आंदोलन शुरू हुए</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इनमें भी यह उदारता और सहिष्णुता थी।
इसीलिए बहुत-से पुरुष और गैर-दलित लेखकों ने भी इनका समर्थन किया। (खास तौर से प्रगतिशील-जनवादी
आंदोलन से जुड़े लेखकों ने</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जिनकी सहानुभूति पहले से ही इनके साथ
थी।) लेकिन ज्यों ही इनका आंदोलनकारी रूप विमर्शवाद में बदला</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इनमें
कट्टरता और असहिष्णुता आती गयी और बढ़ती गयी। स्त्रियों को हर पुरुष पितृसत्ता का
प्रतीक और अपना शत्रु दिखायी देने लगा। दलितों के लिए हर गैर-दलित मनुवादी या
ब्राह्मणवादी होकर घृणा और विरोध का पात्र हो गया। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इसके
बाद यह बात होने लगी कि स्त्रियाँ ही स्त्री लेखन कर सकती हैं और दलित ही दलित
लेखन कर सकते हैं। इसी के आधार पर स्वानुभूति और सहानुभूति का भेद किया जाने लगा।
फिर स्वानुभूति के साहित्य को प्रामाणिक और सहानुभूति के साहित्य को अप्रामाणिक
कहा जाने लगा। इसके दो दुष्परिणाम हुए। एक: कई पुरुष लेखकों ने स्त्रियों के बारे
में और कई गैर-दलित लेखकों ने दलितों के बारे में लिखना बंद कर दिया। दो: स्त्री
और दलित लेखकों ने अपने-अपने विमर्शों तक ही अपने लेखन को (अपनी यथार्थ-दृष्टि और
रचना-दृष्टि को भी) सीमित कर लिया और तेजी से बदलते भूमंडलीय यथार्थ को जान-बूझकर
अनदेखा करते हुए या तो अमूर्त पितृसत्तावाद और ब्राह्मणवाद को कोसते रहे</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">या
स्त्रीवाद को देहवाद और दलितवाद को जातिवाद में बदलकर यथार्थवाद से और भी दूर होते
गये। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इससे
हमारे साहित्य को भारी नुकसान हुआ है। उसमें सामाजिक अन्याय</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">भेदभाव</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">शोषण</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">दमन
और उत्पीड़न के विरुद्ध उठने वाली सामूहिक आवाजें उठनी बंद हो गयी हैं। विरोध और
प्रतिरोध के स्वर क्षीण हो गये हैं। साहित्यिक समाज</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जो पहले ही काफी बँटा हुआ था</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">अब
और ज्यादा बँट गया है। साहित्यिक बिरादरी बिखर गयी है। लेखक संगठनों की हालत खराब
है और साहित्यिक आंदोलन तो कोई रह ही नहीं गया है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">काली कविता के कारनामे</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इस विमर्शवाद का प्रत्याख्यान करने वाली
कहानी है। इसे चालू फैशन के अनुसार बड़े आराम से स्त्री विमर्श की कहानी बनाया जा
सकता था। लेकिन कहानी पढ़ते हुए कदम- कदम पर पता चलता है कि कहानीकार विमर्शवाद और
उससे जुड़े अनुभववाद की संकीर्णताओं से स्वयं को सचेत रूप से बचाते हुए कहानी को
यथार्थवादी बनाये रखने के लिए प्रयत्नशील है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">यह
कहानी एक पुरुष लेखक द्वारा एक स्त्री चरित्र को केंद्र में रखकर लिखी गयी है और
इस बात की परवाह किये बिना लिखी गयी है कि इसे </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">स्वानुभूति</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">की नहीं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">बल्कि </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">सहानुभूति</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">की कहानी माना जायेगा और स्त्री विमर्श
वाली कहानियों में या तो गिना ही नहीं जायेगा (जैसा कि आजकल हिंदी की कहानी-समीक्षा
में हो रहा है कि पुरुषों द्वारा स्त्री चरित्रों पर लिखी गयी कई अच्छी कहानियाँ
इसी कारण अचर्चित रह जाती हैं) या </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लेखक के जिये-भोगे यथार्थ</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">पर
आधारित न होने के कारण इसे </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">प्रामाणिक</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">नहीं माना जायेगा। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लेकिन
कहानीकार की कोशिश है कि इस कहानी को स्त्री विमर्श की कहानी न माना जाये और इसे
स्वानुभूति-सहानुभूति वाली निरर्थक बहस से बाहर ही रखा जाये। कारण यह कि यह कहानी
स्त्री विमर्श वाली ज्यादातर कहानियों की तरह न तो पुरुष (या पितृसत्ता) द्वारा
स्त्री के दमन और उत्पीड़न की कहानी है और न स्त्री-स्वातंत्रय का ऐसा उद्घोष करने
वाली कहानी कि </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">मेरी देह मेरी है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">मैं इसका जो चाहूँ कर सकती हूँ</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">या
</span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">मुझमें
भी पुरुषों जैसी बुद्धि और शक्ति है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जिससे मैं पुरुषों को नीचा दिखा सकती
हूँ</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उन्हें
अपनी उँगलियों पर नचा सकती हूँ</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">या प्रतिद्वंद्विता में पछाड़ सकती हूँ</span><span lang="EN-GB">’’! </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";"><span style="color: red;"><b>तीन :</b></span>
<b>आज की यथार्थवादी कहानी यथार्थ को बदलकर बेहतर बनाने का प्रयास करती है।</b> वह कभी
निरुद्देश्य अथवा निष्प्रयोजन नहीं होती। इस कारण वह कलावाद</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">आधुनिकतावाद</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उत्तर-आधुनिकतावाद
आदि तमाम यथार्थवाद-विरोधी साहित्य- सिद्धांतों को ठेंगा दिखाते हुए स्वयं को
सोद्देश्य बनाये रखती है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">काली कविता के कारनामे</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">डंके की चोट पर एक सोद्देश्य कहानी है।
यह एक ऐसी लड़की की कहानी है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जिसकी त्वचा का रंग साँवला है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लेकिन
दिल का रंग उजला। उसे </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">काली कविता</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कहा जाता है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जिससे वह आहत होती है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">अपमानित
अनुभव करती है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लेकिन समझ लेती है कि त्वचा का रंग नहीं बदला जा सकता। लड़की
होने के नाते जिन अनुभवों से लड़कियों को गुजरना होता है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">वह भी गुजरी है</span><span lang="EN-GB">µ‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उसके एक चाचा</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">एक फेरी वाले और दुनिया के सभी मर्दों
ने उसमें एक अश्लील कहानी की संभावना कभी न कभी जरूर देखी थी।</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">हालाँकि
वह अपने </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कारनामों</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">से
अपने साथ होने वाली अश्लील हरकतों से खुद को बचा लेती है</span><span lang="EN-GB">,
</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लेकिन उन अनुभवों के
आधार पर वह न तो पुरुष-विरोधी संघर्ष छेड़कर उसमें पुरुष पर स्त्री की विजय की आशा
करती है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">न
यह सोचकर हताश होती है कि जब तक पुरुषों की मानसिकता नहीं बदलेगी</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">तब
तक स्त्रियों की मुक्ति नहीं होगी। वह समझ लेती है कि जैसे वह अपनी त्वचा का रंग
नहीं बदल सकती</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">वैसे ही पुरुषों की मानसिकता को नहीं बदल सकती। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">वह
दुनिया को बदलना चाहती है। बचपन में उसे कॉमिक्स पढ़ने और माँ से कहानियाँ सुनने का
जुनून था। </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उसे सारे हीरोज की कॉमिक्स पढ़ते हुए लगता था कि कोई लड़की क्यों
नहीं ध्रुव या नागराज जैसी सुपर हीरोइन होती। यह सवाल उसे और उकसाता और वह खुद
सुपर हीरोइन होने के बारे में कल्पनाएँ करने लगती। उसकी माँ ने उसका बचपन कहानियाँ
सुनाते हुए बिताया था</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जिनमें झाँसी की रानी और जीजाबाई जैसे
ऐतिहासिक पात्रों से लेकर सीता और दुर्गा जैसे पौराणिक पात्र शामिल थे</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लेकिन
कविता की पसंदीदा कहानी पारस पत्थर वाली थी। इस कहानी में समाज में उपेक्षित एक
अपाहिज लड़के को एक पारस पत्थर मिल जाता है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जिसे किसी भी लोहे से छुआ देने पर वह
सोना बन जाता है। वह लड़का इस पत्थर की मदद से अपने पूरे गाँव की मदद करता है और
फिर पूरी दुनिया की मदद करता हुआ हर तरफ से गरीबी</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">भूख और लाचारी को मिटाकर इस दुनिया को
खूब सुंदर बना देता है।</span><span lang="EN-GB">’’ </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">एक
गाँव से लेकर पूरी दुनिया तक के बदलाव की बात इस कहानी में एक अपाहिज लड़के की
कहानी के जरिये कही गयी है। कहाँ एक अपाहिज लड़का और कहाँ पूरी दुनिया को बदलने का
काम! ऐसा कहानियों में ही हो सकता है और लोहे को सोना बना देने वाला पारस पत्थर भी
कोई वास्तविकता नहीं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">एक मिथक या कल्पना ही है। लेकिन लड़की का
यह सोचना कि </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">वह जरूर उस पत्थर को खोजेगी</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जिससे एक ही बार में दुनिया की समस्याएँ
खत्म हो जायें</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">महज एक कल्पना</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">सपना या निरी बच्चों वाली बात नहीं है</span><span lang="EN-GB">--‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">ऐसा
वह बड़ी होने के बाद भी सोचती रही</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">भले कभी-कभी उसे अपनी सोच पर हँसी आती
थी</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लेकिन
वह मन में हमेशा मानती थी कि किसी भी चीज से हार नहीं माननी चाहिए।</span><span lang="EN-GB">’’ </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कहानीकार
आज के भूमंडलीय यथार्थ में जीने और रचने वाला कहानीकार है और जानता है कि एक गाँव
से लेकर पूरी दुनिया तक का यथार्थ एक ही है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इसलिए एक गाँव को सुंदर बनाने का काम हो
या पूरी दुनिया को सुंदर बनाने का काम</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इसके लिए जरूरी है </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">हर
तरफ से गरीबी</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">भूख और लाचारी को मिटाना</span><span lang="EN-GB">’’</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">। अर्थात् गाँव को बदलने के लिए पूरी
दुनिया को बदलना पड़ेगा। अथवा पूरी दुनिया को सुंदर बनाने पर ही गाँव को भी सुंदर
बनाया जा सकेगा। यह आज का नया यथार्थवाद है। भूमंडलीय यथार्थवाद। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">यथार्थवाद
में </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जो
है</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">वही
यथार्थ नहीं होता</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">बल्कि </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जो होना चाहिए</span><span lang="EN-GB">’’
</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">और </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जो
हो सकता है</span><span lang="EN-GB">’’, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">वह भी यथार्थ ही होता है। कहानी में इस यथार्थ के दो आधार हैं।
एक: पूरी दुनिया को सुंदर बनाया जाना चाहिए। और दो: पूरी दुनिया को सुंदर बनाया जा
सकता है। किसी को लग सकता है कि यह एक कल्पना (कपोल कल्पना)</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">सपना
(दिवास्वप्न) या आदर्श (यूटोपिया) है और इसके आधार पर लिखी गयी यह कहानी प्रेमचंद
की </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">आदर्शोन्मुख
यथार्थवाद</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">वाली पुरानी परंपरा की कहानी है। (और हिंदी के आलोचकों ने </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">आदर्शोन्मुख
यथार्थवाद</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">को कभी खरा यथार्थवाद नहीं माना। उन्होंने प्रेमचंद की </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कफन</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कहानी
वाले यथार्थवाद को ही खरा यथार्थवाद माना</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जिसमें कोई स्वप्न या आदर्श नहीं है।)
और उस आदर्श तक पहुँचने वाला पारस पत्थर</span><span lang="EN-GB">? </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">वह तो नितांत काल्पनिक है ही! </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">विमल
चंद्र पांडेय ने प्रेमचंद की परंपरा को अपनाने और आगे बढ़ाने का एक सचेत प्रयास इस
कहानी में किया है। (स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के नाम जान-बूझकर घीसू</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">माधव</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">सनीचर
और सूरदास रखकर उन्होंने पाठकों को भी सचेत कर दिया है कि वे ऐसा कर रहे हैं।)
क्या उन्हें नहीं मालूम होगा कि प्रेमचंद के आदर्शोन्मुख यथार्थवाद को हिंदी के
कहानी-समीक्षक यथार्थवाद नहीं मानते और इस कहानी में उसे देखकर इसे भी यथार्थवादी
कहानी नहीं मानेंगे</span><span lang="EN-GB">? </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लेकिन
कहानी बताती है कि उन्हें सब मालूम है। कहानी में वही दिखाया गया है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जो
आजकल </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">है</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">या
</span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">होता
है</span><span lang="EN-GB">’’</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">।
लेकिन साथ-साथ वह भी दिखाया गया है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जो इसी यथार्थ में </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">हो
सकता है</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">या
</span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">किया
जा सकता है</span><span lang="EN-GB">’’</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">। कहानी की काली कविता जो </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कारनामे</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">करती है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उनमें से एक भी ऐसा नहीं है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जो
असंभव हो। वह ऐसा कुछ चाहती भी नहीं है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जिसे करना या पाना असंभव हो। इस प्रकार
कहानीकार शुरू से आखिर तक कहानी को </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">यथार्थवादी</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">बनाये रखता है। नितांत काल्पनिक पारस
पत्थर भी यहाँ यथार्थ ही है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कोई साहित्यिक या कथात्मक युक्ति (अथवा </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">अलंकृति</span><span lang="EN-GB">’’) </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">नहीं।
वह कोई जादुई यथार्थवादी चीज भी नहीं है। वह यहाँ भूमंडलीय यथार्थ को बदलने के एक
तरीके या तरकीब का प्रतीक है। और इतना स्पष्ट कि उसे समझने में पाठक को कोई
परेशानी न हो। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कविता
शिक्षिका बनकर गाँव के स्कूल में पढ़ाने जाती है। </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उसकी सहेलियों के साथ-साथ उसकी माँ ने
भी बताया कि गाँवों के विद्यालयों में पढ़ाने की कोई अनिवार्यता नहीं
होती...(लेकिन) कविता ने कहा कि कोई नहीं पढ़ाता तो न पढ़ाये</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">वह
अपना फर्ज पूरा करेगी।</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">अब </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">अपना फर्ज पूरा करना</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">तो
कोई आदर्शवाद नहीं है। वह तो एक यथार्थ कर्तव्य है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जो सबको करना ही चाहिए। अलबत्ता अपना
फर्ज अच्छे ढंग से पूरा करते-करते उसे वह पारस पत्थर मिल जाता है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जिसको
खोजने की बात वह बचपन में ही नहीं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">बड़ी होने के बाद भी सोचती थी। अब यह इस
देश और दुनिया का दुर्भाग्य है कि यहाँ इंसान को अपना फर्ज भी अच्छे ढंग से पूरा
नहीं करने दिया जाता है। उसमें अड़ंगे अटकाये जाते हैं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उसका विरोध किया जाता है। लेकिन कविता
शुरू से ही </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">मन में हमेशा मानती थी कि किसी चीज से हार नहीं माननी चाहिए</span><span lang="EN-GB">’’</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कहानी
उसके इसी संघर्ष की और वांछित पारस पत्थर पा लेने की कहानी है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जो
एक गाँव को ही नहीं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">पूरी दुनिया को सुंदर बना दे। वह पारस
पत्थर क्या है</span><span lang="EN-GB">? </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">बराबरी का विचार और गैर-बराबरी तथा उससे जुड़े भेदभाव और अन्याय
को दूर करने का उपाय। यह विचार और उपाय उसे बड़े<span style="mso-spacerun: yes;">
</span>यथार्थवादी ढंग से सूझता है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कविता
देखती है कि स्कूल में कई दलित बच्चे हैं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जिन्हें पहले दुत्कारकर भगा दिया जाता
था</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">या
सफाई वगैरह के कामों में लगा दिया जाता था। उन्हें दूसरे बच्चों के साथ नहीं बैठने
दिया जाता था और पढ़ाया तो जाता ही नहीं था</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">क्योंकि स्कूल में पढ़ाई होती ही नहीं
थी। कविता उनके साथ बराबरी का बरताव करती है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">तो चीजें बदलने लगती हैं। बच्चे अच्छी
तरह पढ़ने लगते हैं। उनकी योग्यताएँ सामने आने लगती हैं। यही है वह पारस पत्थर</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जिससे
कविता अपने छात्रों के लोहे को ही नहीं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">पूरे स्कूल की व्यवस्था के लोहे को भी
सोने में बदलती है। उसके </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कारनामों</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">का असर दूसरे अध्यापकों पर भी पड़ता है
और अंततः स्कूल के प्रबंधन पर भी।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">आरंभ
में स्कूल का प्रबंधन कविता के </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कारनामों</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">से खुश होने और स्वयं को सुधारने के
बजाय उसे डराने</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उससे उसका पारस पत्थर छीन लेने तथा स्कूल से उसे भगा देने के
प्रयास करता है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">क्योंकि वह शिक्षा की समूची भ्रष्ट व्यवस्था का अंग होने के
कारण भ्रष्ट है और कविता जैसे कर्तव्यपरायण शिक्षकों के लिए भयानक भी। लेकिन कविता
उस कुप्रबंधन रूपी गिद्ध से डरकर भागती नहीं है। वह उसका सामना करती है और अंततः
उस गिद्ध को वहाँ से उड़ जाना पड़ता है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कविता
का पढ़ाना देखकर स्कूल के अन्य शिक्षकों का रवैया भी बदलता है और स्कूल में पढ़ाई
होने लगती है। कहानीकार जानता है कि भ्रष्ट व्यवस्था में अपना काम ईमानदारी से
करने वाले लोगों को खतरनाक मानकर या तो भगा दिया जाता है या मार दिया जाता है।
कहानी के अंत में वह ऐसी तमाम खतरनाक संभावनाओं को सामने रख देता है :</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">देखिए</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">यह मात्र एक विद्यालय में ईमानदारी से
पढ़ाने का मामला है और यह घटना इतनी मामूली है कि इससे कुछ लोगों को खतरा तो महसूस
हो रहा है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लेकिन इतना नहीं कि वे कोई बड़ा कदम उठायें। मैंने पहले भी आपसे
बताया था कि अगर यह स्टेट हाइवे या आयकर विभाग में ईमानदारी करने का मामला होता</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">तो
कविता को अब तक इतनी धमकियाँ मिली होतीं कि कहानी जरूर किसी रोमांचक मोड़ तक पहुँच
जाती। अगर यह नेशनल हाइवे या लोक निर्माण विभाग का मामला होता</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">तो
कविता की अब तक किसी अज्ञात दुर्घटना में मौत हो चुकी होती और पुलिस इसे छानबीन
करने के बाद असावधानी से गाड़ी चलाने का मामला बता एकाध लोगों को गिरफ्तार कर केस
बंद कर चुकी होती।...मगर मैं फिर से आपसे क्षमाप्रार्थी हूँ कि मैं इस अतिसाधारण
पात्रों वाली अतिसाधारण कहानी को कोई ऐसा रोमांचक मोड़ दे सकने में असमर्थ हूँ। बस
इतना ही कह सकता हूँ कि कविता अब भी अपने तरीकों पर डटी हुई है।</span><span lang="EN-GB">’’ </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कहानीकार
जानता है कि कविता का यह प्रयास </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">टिटहरी की तरह बालू लाकर समंदर को भरने
जैसा है</span><span lang="EN-GB">’’, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लेकिन वह इस यथार्थ से न तो स्वयं निराश है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">न
अपने पाठकों को होने देना चाहता है। इसलिए अंत में कहता है कि यदि कविता से उसके
इस छोटे-से प्रयास की बात की गयी</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">तो </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">मैं शर्त लगाकर कह सकता हूँ</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">वह
ऐसा जवाब देगी कि आप लाजवाब होकर मुस्कराते हुए लौटेंगे।</span><span lang="EN-GB">’’ </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इस
प्रकार आज की दुनिया में पसरी हुई पूरी नकारात्मकता के यथार्थ को खुली आँखों देखने
और दिखाने के बावजूद कहानीकार पूरी कहानी को सकारात्मक बनाये रखता है। इसे यदि
प्रेमचंद की परंपरा का आदर्शोन्मुख यथार्थवाद कहा जाता है</span><span lang="EN-GB">,
</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">तो ठीक ही है। लेकिन
कहानीकार का पूरा प्रयास रहा है कि वह कोई असंभव आदर्श पाठकों के सामने न रखे। वह
ठोस यथार्थ पर अपने पाँव टिकाये इतना ही बताता है कि </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">यह तो होना ही चाहिए</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">और
तमाम विषम परिस्थितियों के बावजूद </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इतना तो किया ही जा सकता है</span><span lang="EN-GB">’’</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";"><span style="color: red;"><b>चार :</b></span>
<b>आज की यथार्थवादी कहानी कहानीपन और कथा-रस से भरपूर मुकम्मल कहानी होती है। </b>उसमें
आज की कोई बड़ी सामाजिक समस्या उठाकर उसका समाधान सुझाते हुए कहानी को पूर्णता प्रदान
की जाती है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कहानी
कलात्मक है या नहीं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इसका निर्णय उसकी भाषा</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">शिल्प</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">शैली
आदि के आधार पर नहीं हो सकता। इसका निर्णय होता है इस आधार पर कि कहानी पूरी
अर्थात् मुकम्मल है या नहीं। आधुनिकतावाद के जमाने से (हिंदी में </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">नयी
कहानी</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">के
जमाने से) एक निहायत गलत बात सिद्धांत के तौर पर कहानी-समीक्षा में की जाती रही है
कि कहानी कभी खत्म नहीं होती</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">अर्थात् वह अधूरी ही रहती है और अधूरी
ही रहनी चाहिए। जैसे बार-बार बोला जाने वाला झूठ लोगों को सच लगने लगता है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">वैसे
ही यह </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">सिद्धांत</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">भी
सर्वमान्य-सा लगता है। लेकिन यह कोई सिद्धांत नहीं है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">बल्कि<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>इस निहायत गलत बात को मानकर कई अच्छे-भले
कहानीकार भी अपनी कहानियों को खराब कर लेते हैं। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">आचार्य
रामचंद्र शुक्ल ने कविता और कहानी का फर्क बताते हुए कहा था कि कविता सुनने वाला
कहता है</span><span lang="EN-GB">, ‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जरा फिर तो कहिए</span><span lang="EN-GB">’’, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जबकि कहानी सुनने वाला कहता है</span><span lang="EN-GB">, ‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">हाँ</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">तब
क्या हुआ</span><span lang="EN-GB">?’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कविता सुनने वाला कविता सुनने के दौरान ही किन्हीं खास
पंक्तियों को सुनकर वाह-वाह कर सकता है और उन्हें फिर से सुनाने का अनुरोध करते
हुए उनकी खूबसूरती या कलात्मकता की दाद दे सकता है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लेकिन कहानी सुनने वाला जब तक पूरी
कहानी न सुन ले</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">तब तक न वह संतुष्ट हो सकता है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">न उस पर </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">आह</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">या </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">वाह</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कर सकता है। विद्वान आलोचक आधी-अधूरी
कहानियों को कितना ही कलात्मक कहें</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कहानी का सामान्य पाठक या श्रोता
प्रत्येक देश-काल में मुकम्मल कहानी को ही कलात्मक मानता आया है। और वह मुकम्मल
कहानी उसे मानता है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जिसमें उसके जीवन से जुड़ी (अर्थात् अपने
समय के व्यापक जन-जीवन से जुड़ी कोई बड़ी) समस्या उठायी गयी हो और उसका समाधान भी
किया गया हो। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लेकिन
कलावादी हों या अनुभववादी</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">आधुनिकतावादी हों या उत्तर-आधुनिकतावादी
समीक्षक</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">वे
कहानी की इस विशेषता को उसकी सबसे बड़ी कमी और खामी मानते हैं। हिंदी की
कहानी-समीक्षा </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">नयी कहानी</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">के जमाने से ही इस बात पर जोर देती रही
है कि सामाजिक समस्याएँ उठाना और उनके समाधान सुझाना कहानी को यथार्थवादी न रहने
देकर आदर्शवादी</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">नैतिकतावादी या राजनीतिक फार्मूलावादी बना देता है। इसी बात को
आगे बढ़ाते हुए कई लेखक यह मानते रहे हैं कि कहानी में सामाजिक समस्याएँ उठाना उनका
काम नहीं है। अथवा</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लेखक प्रश्न (समस्या) उठा दे</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इतना
ही पर्याप्त है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उत्तर देना (समाधान सुझाना) लेखक का काम नहीं है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इस
संदर्भ में महान कहानीकार चेखोव का यह कथन याद रखने लायक है कि </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">यदि
आप यह नहीं मानते कि सर्जनात्मक लेखन में किसी समस्या को हल करने अथवा किसी
उद्देश्य तक पहुँचने का भाव रहता है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">तो आप यह मानने को मजबूर होंगे कि
कलाकार पहले से कुछ भी सोचे-समझे बिना रचना कर डालता है</span><span lang="EN-GB">; </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कि वह सोच-समझकर और एक इरादे के साथ काम
नहीं करता</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">बल्कि जो उसके जी में आता है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कर डालता है। अतः यदि कोई लेखक मेरे
सामने आकर यह शेखी बघारे कि उसने कहानी के प्रयोजन पर पहले से सोच-विचार किये बिना</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">केवल
प्रेरणा के वशीभूत होकर</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कहानी लिख डाली है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">तो
मैं कहूँगा कि यह आदमी पागल है।</span><span lang="EN-GB">’’</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">अर्चना
वर्मा द्वारा की गयी </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">काली कविता के कारनामे</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">की
समीक्षा में इस कहानी को बड़ी हिकारत के साथ </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">किस्सा</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">या </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">वृत्तांत</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">बताते हुए कहा गया है कि इसे किसी
व्याख्या की जरूरत नहीं है। मगर व्याख्या के लिए इस कहानी में बहुत कुछ है। मसलन</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इसमें
हमारे समय की कौन-सी बड़ी समस्या उठायी गयी है</span><span lang="EN-GB">? </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">और</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उसका क्या समाधान किया गया है</span><span lang="EN-GB">? </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इन
प्रश्नों के उत्तर खोजने चलें</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">तो इस कहानी में गजब की </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">तहदारी</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">दिखायी
पड़ेगी और समीक्षक को </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">परत-दर-परत गहराई में उतरते जाने</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">के
लिए काफी मौका मिलेगा। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इस
कहानी में कविता का स्त्री होना</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उसकी त्वचा का रंग साँवला होना</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उसका
गाँव के स्कूल में अध्यापिका होना और स्कूल के प्रबंधन अथवा देश की शिक्षा
व्यवस्था से संघर्ष करना आदि कहानी के महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं। लेकिन इनमें से कोई
एक अथवा ये सब मिलाकर भी कहानी की मुख्य समस्या नहीं हैं। मुख्य समस्या है: हर तरफ
से गरीबी</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">भूख
और लाचारी को मिटाकर इस दुनिया को सुंदर कैसे बनाया जाये</span><span lang="EN-GB">?
</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इस समस्या का समाधान
भी कहानी में सुझाया गया है। मगर सीधे-सपाट ढंग से नहीं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">बल्कि पूरी कहानी में कलात्मक ढंग से
गूँथकर। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कहानी
को एक मुकम्मल कहानी के रूप में सामने रखकर गंभीरता से पढ़े बिना कोई यह सतही
निष्कर्ष निकाल सकता है कि गरीबी</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">भूख और लाचारी का कारण है बच्चों को
अच्छी शिक्षा का न मिलना और अच्छी शिक्षा ही वह उपाय (पारस पत्थर) है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जिससे
यह समस्या हल की जा सकती है</span><span lang="EN-GB">; </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लेकिन इसके लिए जरूरी है कि प्रत्येक
शिक्षक काली कविता की तरह मेहनत और ईमानदारी से पढ़ाने वाला आदर्श शिक्षक हो। मगर
कुल कहानी इतनी ही होती</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">तो इसे गाँव के स्कूल से ही शुरू करके
वहीं पर खत्म किया जा सकता था। स्कूल में जो </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कारनामे</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कविता ने किये</span><span lang="EN-GB">,
</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">वे ही पर्याप्त होते
और शहर में जो </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कारनामे</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उसने किये</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">वे कहानी में फालतू या गैर-जरूरी लगते।
मगर कहानी इस सतही निष्कर्ष को गलत साबित करती है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कहानी
</span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">हर
तरफ से गरीबी</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">भूख और लाचारी को मिटाकर इस दुनिया को सुंदर बनाने</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">की
समस्या उठाती है और बताती है कि इसके लिए दुनिया से हर तरह की गैर-बराबरी और उससे
जुड़े भेदभाव तथा अन्याय को समाप्त किया जाना चाहिए। प्रश्न उठता है: कैसे</span><span lang="EN-GB">? </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उपाय
क्या है</span><span lang="EN-GB">? </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कहानीकार
का उत्तर है: भूमंडलीय स्तर के किसी बड़े बदलाव की उम्मीद में हाथ पर हाथ धरे बैठे
रहने के बजाय स्थानीय और व्यक्तिगत स्तर पर</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">चाहे छोटे पैमाने के ही सही</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">मगर
बुनियादी बदलाव शुरू करके। (हाँ</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इस पर बहस हो सकती है कि यह<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>उपाय सही है या गलत</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">अथवा क्या इससे बेहतर दूसरे उपाय नहीं
हो सकते। विभिन्न लेखक विभिन्न प्रकार के उपाय सोच और सुझा सकते हैं और उनके आधार
पर इसी समस्या पर विभिन्न प्रकार की कहानियाँ लिख सकते हैं।) </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">विमल
की कहानी में दो उपाय सुझाये गये हैं और उनसे होने वाले बदलावों को दिखाने के लिए
दलित और स्त्री पात्रों को चुना गया है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जिनके साथ गैर-बराबरी के आधार पर भेदभाव
और अन्याय किया जाता है। मगर ये उपाय विमर्शवादी ढंग से नहीं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">आंदोलनकारी
ढंग से</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">और
</span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">वृत्तांत
शैली की पत्रकारिता</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">वाले ढंग से नहीं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">बल्कि
एक मुकम्मल कहानी कहने के कलात्मक ढंग से सुझाये गये हैं।<span style="mso-spacerun: yes;"> </span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">तमाम
दलित चिंतकों का कहना है<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>कि दलितों की
मुक्ति शिक्षा से ही हो सकती है। मगर उसके लिए जरूरी है कि शिक्षा संस्थाओं में
दलित छात्रों के साथ किये जाने वाले भेदभाव और अन्याय को दूर किया जाये। इस कहानी
में यही दिखाया गया है कि इस भेदभाव और अन्याय का यथार्थ क्या है और उस यथार्थ को
कैसे बदला जा सकता है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इसी
तरह तमाम स्त्री चिंतकों का कहना है कि स्त्रियों की मुक्ति परिवार में स्त्रियों
की स्थिति को बदलने से ही हो सकती है। इसके लिए जरूरी है कि घरों में लड़कियों के
साथ किये जाने वाले भेदभाव और अन्याय को दूर किया जाये। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कविता
द्वारा शहर में रहते किये गये </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कारनामों</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">में सबसे महत्त्वपूर्ण है घर-परिवार में
लड़कों और लड़कियों के लिए समान अधिकारों की माँग। इसके जरिये वह पहले अपनी नानी के
घर में और फिर अपने मुहल्ले में लड़कियों को उनके घरों में भाइयों के बराबर के
अधिकार दिलाने में सफल होती है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कहानीकार
यह संकेत करना भी नहीं भूलता कि दलितों की मुक्ति केवल दलितों द्वारा और स्त्रियों
की मुक्ति केवल स्त्रियों द्वारा नहीं हो सकती। स्कूल में दलित बच्चों के साथ किये
जाने वाले भेदभाव को दूर करने के मामले में तो यह स्पष्ट ही है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">घरों
में लड़कियों के प्रति होने वाले भेदभाव के मामले में भी यह स्पष्ट है कि इसे भी
पुरुषों को साथ लिये बिना दूर नहीं किया जा सकता।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कहानी
में यह बात एक मार्मिक प्रसंग के जरिये सामने आती है। कविता अपने ममेरे भाई को
प्रेरित करती है और वह उससे प्रभावित होकर अपनी बहन के लिए दूध और फल का इंतजाम
करवाता है। कविता को विदा करते समय वह एक डायरी भेंट करता है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जिस
पर लिखा है</span><span lang="EN-GB">--‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जिंदगी के बड़े सबक सिखाने वाली छुटकी-सी बहन के लिए।</span><span lang="EN-GB">’’ </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">यह
कहानी भी छोटी-छोटी बातों के जरिये बड़े-बड़े सबक सिखाती है। मगर नारों या उपदेशों
के रूप में नहीं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">बल्कि कलात्मक ढंग से लिखी गयी एक सुंदर और सार्थक कहानी के
रूप में</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जिसमें
यथार्थवादी कहानी की उपर्युक्त चारों प्रमुख विशेषताएँ कलात्मक रूप में सुसंयोजित
हैं। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="color: red;"><b><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">पुनश्च :
</span></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="EN-GB">1. </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">प्रस्तुत लेख में जिसे </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">आज की यथार्थवादी कहानी</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कहा
गया है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">वह
न तो </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">नयी
कहानी</span><span lang="EN-GB">’, ‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">समांतर
कहानी</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">या
</span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जनवादी
कहानी</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जैसे
किसी आंदोलन से जुड़ी कहानी है और न ही वह </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">स्त्रीवादी</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">या </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">दलितवादी</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जैसी किसी खास पहचान से जुड़ी कहानी। लेख
में विमल चंद्र पांडेय को </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">पिछले दस-पंद्रह वर्षों में उभरकर सामने
आयी नयी पीढ़ी</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">का कहानीकार कहा गया है। लेकिन </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">आज की यथार्थवादी कहानी</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">केवल
इसी पीढ़ी के लेखकों द्वारा लिखी जा रही कहानी नहीं है। वर्तमान समय में हिंदी
कहानी एक नहीं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">बल्कि अनेक पीढ़ियों तथा अनेक भिन्न प्रवृत्तियों के लेखकों
द्वारा लिखी जा रही है और यथार्थवाद किसी भी लेखक की कहानी में हो सकता है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">चाहे
वह नयी पीढ़ी का हो या पुरानी पीढ़ी का</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">स्त्रीवादी हो या दलितवादी</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">प्रगतिशील
हो या जनवादी</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इत्यादि। यहाँ तक कि जो लेखक किसी </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">वाद</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">में विश्वास नहीं करता</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उसकी
कहानी में भी यदि आज का यथार्थ आ रहा है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">और उसमें आज की यथार्थवादी कहानी की
प्रस्तुत लेख में उल्लिखित चारों विशेषताएँ पायी जाती हैं</span><span lang="EN-GB">,
</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">तो उसकी कहानी भी
यथार्थवादी ही होगी। हाँ</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">किसी कहानी में कितना और कैसा यथार्थवाद
है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">यह
देखना यथार्थवादी कहानी-समीक्षा का काम है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="EN-GB">2. </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">आज की कहानी कहीं और जा रही है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">तो कहानी-समीक्षा कहीं और। शायद यही
देखकर </span><span lang="EN-GB">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लमही</span><span lang="EN-GB">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">के
कहानी विशेषांक के अतिथि संपादकीय में यह लिखा गया कि </span><span lang="EN-GB">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">कहानीकार रचने के लिए स्वतंत्र हैं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">तो
आलोचक अपना पाठ निर्मित करने के लिए।</span><span lang="EN-GB">’’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लेकिन प्रस्तुत लेख के लेखक के विचार से
कहानी और कहानी-समीक्षा एक ही गतिविधि (साहित्यिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया) के अंग
हैं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जिनमें
होड़ तो हो सकती है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">अंतर्विरोध भी हो सकते हैं</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लेकिन
वे एक-दूसरे से पृथक् या स्वतंत्र नहीं हो सकते</span><span lang="EN-GB">; </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">क्योंकि दोनों का संबंध यथार्थ से तथा
उसमें होने वाले और किये जा सकने वाले परिवर्तनों की प्रक्रिया से है। दोनों में
यथार्थ और उसमें होने तथा किये जा सकने वाले परिवर्तनों की प्रक्रिया की समझ भिन्न
हो सकती है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लेकिन दोनों का उद्देश्य एक ही है अथवा होना चाहिए: यथार्थ को
समग्रता में देखना और उसे बदलकर बेहतर बनाना।<span style="mso-spacerun: yes;">
</span>समीक्षा के (अथवा साहित्यशास्त्र</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">सौंदर्यशास्त्र आदि के) नियमों का पालन
करने के लिए कहानी बाध्य नहीं है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">बल्कि अक्सर तो वह उन नियमों की सीमाओं
को समझते हुए उनका उल्लंघन करके ही अपना विकास करती है</span><span lang="EN-GB">; </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">फिर भी वह देश-काल के ऐतिहासिक संदर्भ
तथा अपने समय के सामाजिक यथार्थ के अनुशासन में रहकर ही उन नियमों का उल्लंघन करने
के लिए स्वतंत्र हो सकती है। यही अनुशासन कहानी-समीक्षा पर भी लागू होता है।
समीक्षक कहानीकार का अनुगमन करने के लिए बाध्य नहीं है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">वह उसका विरोधी या निंदक भी हो सकता है</span><span lang="EN-GB">; </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">यदि
कहानीकार गलत दिशा में जा रहा है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">तो वह उसे सही रास्ता भी बता सकता है</span><span lang="EN-GB">; </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">लेकिन
वह यह सब देश-काल के ऐतिहासिक संदर्भ और अपने समय के सामाजिक यथार्थ के आधार पर ही
कर सकता है। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">इस
प्रकार यथार्थ कहानी और कहानी- समीक्षा दोनों का साझा संदर्भ बिंदु है और दोनों के
खरेपन को परखने का निकष भी। इसीलिए मुक्तिबोध ने एक अन्य प्रसंग में कहा था कि
रचनाकार और आलोचक में होड़ है कि यथार्थ को कौन अधिक या बेहतर जानता है। लेकिन
उनमें होड़ ही नहीं होती</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">उद्देश्य की एकता के कारण पारस्परिक
सहयोग भी होता है</span><span lang="EN-GB">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">जिससे दोनों का विकास होता है।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: "Times New Roman";">--<span style="color: blue;"><b>रमेश उपाध्याय</b></span> </span></div>
</div>
ramesh upadhyayhttp://www.blogger.com/profile/05054633574501788701noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-1496071818736613491.post-70586561316525508492013-07-31T09:12:00.003-07:002013-07-31T09:13:04.417-07:00प्रेमचंद को हम बार-बार ‘पहली बार’ पढ़ते हैं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
प्रेमचंद को मैं लड़कपन से पढ़ता आ रहा हूँ और उनका लगभग सारा साहित्य पढ़ चुका हूँ। फिर भी ऐसा नहीं लगता कि उनको पढ़ना पूरा हो गया है। मैं अब भी उन्हें पढ़ता हूँ, पहले कई बार पढ़ी हुई उनकी रचनाओं को भी फिर-फिर पढ़ता हूँ और उनमें से कुछ को पढ़ते हुए लगता है कि जैसे पहली बार ही पढ़ रहा हूँ। <br />
<br />
बात यह है कि पढ़ना पाठक पर ही नहीं, लेखक पर भी निर्भर करता है। किसी लेखक को हम पढ़ना शुरू करते हैं और चंद पंक्तियाँ पढ़कर ही छोड़ देते हैं। किसी की एकाध रचना पूरी पढ़ते हैं और फिर कभी उसकी किसी रचना को हाथ नहीं लगाते। कोई लेखक पहली बार पढ़ने पर बड़ा नया और अच्छा लगता है, लेकिन फिर से पढ़ने पर विस्मय होता है कि हमने इसे क्यों पढ़ा था और क्यों पसंद किया था। महान लेखकों में कुछ लेखक ऐसे होते हैं, जो पहली बार पढ़ने पर समझ में नहीं आते और जिनकी रचनाएँ बार-बार पढ़े जाने पर ही अपनी महानता के रहस्य खोलती हैं। लेकिन कुछ महान लेखक ऐसे भी होते हैं, जो पहली बार पढ़ने पर बड़े साधारण-से लगते हैं, लेकिन जिन्हें फिर से पढ़ने पर हम उनकी असाधारणता देखकर चकित रह जाते हैं और उन्हें बार-बार पढ़ते हैं। प्रेमचंद ऐसे ही महान लेखक हैं। <br />
<br />
प्रेमचंद को पहली बार मैंने तब पढ़ा, जब मैं बारह साल का था, मेरा नाम रमेश चंद्र शर्मा था और मैं उत्तर प्रदेश के एटा जिले की तहसील कासगंज के एक हाई स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ता था। यह 1954 के जुलाई के महीने की बात है। गर्मी की छुट्टियों के बाद स्कूल खुल गया था। मेरे लिए नयी किताबें आ गयी थीं। नयी किताबों को पढ़ना मुझे बहुत अच्छा लगता था। उनसे आती गंध, जो पता नहीं, नये कागज की होती थी या उस पर की गयी छपाई में इस्तेमाल हुई सियाही की, या जिल्दसाजी में लगी चीजों की, या बरसात के मौसम में कागज में आयी हल्की-सी सीलन की, मुझे बहुत प्रिय थी। ज्यों ही मेरे लिए नयी किताबें आतीं, मैं सबसे पहले अपनी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक पढ़ डालता, क्योंकि मुझे कहानियाँ पढ़ने का चस्का लग चुका था और हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में कुछ कहानियाँ होती थीं।<br />
<br />
एक दिन मैं स्कूल से लौटा और खाना खाकर हिंदी की नयी पाठ्य-पुस्तक लेकर बैठ गया। उसमें एक कहानी थी ‘बड़े भाई साहब’। पुस्तक में अवश्य ही लिखा रहा होगा कि इस कहानी के लेखक प्रेमचंद हैं। लेकिन उस समय मेरी उम्र लेखक का नाम देखकर कहानी पढ़ने की नहीं थी। मैंने तो ‘बड़े भाई साहब’ शीर्षक देखा और पढ़ने लगा। कहानी के शीर्षक ने मुझे शायद इसलिए आकर्षित किया कि मेरे एक नहीं, दो-दो बड़े भाई साहब थे। <br />
<br />
मेरे बड़े भैया नरोत्तम दत्त शर्मा वैद्य थे। आयुर्वेदाचार्य। वे माने हुए वैद्य थे और उनका यश दूर-दूर तक फैला हुआ था, क्योंकि वे आयुर्वेदिक दवाओं की एक फार्मेसी भी चलाते थे। वे साहित्यानुरागी थे और राजनीति में भी रुचि रखते थे। अतः वे साहित्यिक पत्रिकाएँ मँगाते थे और उनके दवाखाने में रोगियों के अलावा कवि, लेखक, पत्रकार और नेतानुमा लोग भी बैठे रहते थे। बड़े भैया रोगियों को देखते रहते और साथ-साथ साहित्यिक-राजनीतिक चर्चाओं में भी हिस्सेदारी करते रहते। उन्हें रतौंधी आती थी, जिसके कारण शाम होने के बाद उन्हें कुछ कम दिखायी पड़ता था। इसलिए शाम को दवाखाना बंद करने और उनका हाथ पकड़कर घर ले आने का काम मेरा था। यह काम मुझे बहुत अच्छा लगता था, क्योंकि इस बहाने मैं शाम को खेलने-कूदने निकल जाता, खेलकर दवाखाने पहुँच जाता, वहाँ आने वाली पत्रिकाओं में कहानियाँ पढ़ता और वहाँ बैठे हुए लोगों की बातें और किस्से सुनता। बड़े भैया मुझे बहुत होशियार और होनहार मानते थे, प्यार करते थे और कभी डाँटते नहीं थे। <br />
<br />
इसके विपरीत छोटे भैया रामनिवास शर्मा, जो अच्छी तरह पढ़-लिख न पाने के कारण प्राइमरी स्कूल के मास्टर बनकर रह गये थे, बड़े कठोर स्वभाव के, अनुशासनप्रिय और बात-बेबात डाँटने-मारने के आदी थे। वे मेहनत बहुत करते थे--स्कूल में सख्त पाबंदी के साथ पढ़ाकर घर आते, खाना खाते और ट्यूशनें करने निकल जाते। लेकिन कई घरों में जा-जाकर दस-दस, बीस-बीस रुपये माहवार की ट्यूशनें करने के बावजूद वे बड़े भैया के मुकाबले बहुत कम कमा पाते थे, इसलिए खीजे रहते थे। शहर में जितना मान-सम्मान बड़े भैया का था, उनका नहीं था। इस बात ने भी उन्हें कुंठित और क्रोधी बना दिया था। उनका क्रोध प्रायः मुझ पर उतरता था, क्योंकि मैं घर में सबसे छोटा था। बहाना यह होता था कि मैं अपनी पढ़ाई पर कम ध्यान देता हूँ और खेलने-कूदने तथा बड़े भैया के दवाखाने पर जाकर वहाँ आने वाले ‘‘ठलुओं की बकवास’’ सुनने में अपना कीमती समय ज्यादा बर्बाद करता हूँ। छुट्टी वाले दिन वे घर में पड़े-पड़े जासूसी और तिलिस्मी उपन्यास पढ़ा करते थे, जिन्हें चोरी-छिपे मैं भी पढ़ लेता था। छोटे भैया मेरी चोरी पकड़ लेते, तो पिटाई करते और सख्त ताकीद करते कि मैं अपनी पढ़ाई पर ध्यान दूँ। <br />
<br />
लेकिन मुझे कहानी पढ़ने का ऐसा चाव था कि अखबार या किसी पत्रिका में ज्यों ही कहानी दिखती, मैं पढ़ डालता। इसीलिए हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में छपी कहानियाँ मैं सबसे पहले पढ़ता। सो उस दिन मैं अपनी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में ‘बड़े भाई साहब’ कहानी पढ़ रहा था। उसमें बड़े भाई साहब के बारे में लिखा था : <br />
<br />
‘‘वह स्वभाव से बड़े अध्ययनशील थे। हरदम किताब खोले बैठे रहते और शायद दिमाग को आराम देने के लिए कभी कापी पर, कभी किताब के हाशियों पर चिड़ियों, कुत्तों, बिल्लियों की तस्वीरें बनाया करते थे। कभी-कभी एक ही नाम या शब्द या वाक्य दस-बीस बार लिख डालते। कभी एक शेर को बार-बार सुंदर अक्षरों से नकल करते। कभी ऐसी शब्द-रचना करते, जिसमें न कोई अर्थ होता, न कोई सामंजस्य! मसलन एक बार उनकी कापी पर मैंने यह इबारत देखी--स्पेशल, अमीना, भाइयों-भाइयों, दर-असल, भाई-भाई, राधेश्याम, श्रीयुत राधेश्याम, एक घंटे तक--इसके बाद एक आदमी का चेहरा बना हुआ था।’’ <br />
<br />
पढ़ते-पढ़ते मुझे इतनी जोर की हँसी छूटी कि रोके न रुके। मेरी दोनों भाभियों ने मेरी हँसी की आवाज सुनकर देखा कि मैं अकेला बैठा हँस रहा हूँ, तो उन्होंने कारण पूछा और मैं बता नहीं पाया। मैंने खुली हुई किताब उनके आगे कर दी और उँगली रखकर बताया कि जिस चीज को पढ़कर मैं हँस रहा हूँ, उसे वे भी पढ़ लें। उन्होंने भी पढ़ा और वे भी हँसीं, हालाँकि मेरी तरह नहीं। <br />
<br />
बाद में, न जाने कब, मुझे पता चला कि ‘बड़े भाई साहब’ कहानी प्रेमचंद की लिखी हुई थी। उसके बाद मैं प्रेमचंद की कहानियाँ ढूँढ़-ढूँढ़कर पढ़ने लगा। लेकिन प्रेमचंद की यह कहानी मुझे हमेशा के लिए अपनी एक मनपंसद कहानी के रूप में याद रह गयी। बाद में मैंने इसे कई बार पढ़ा है, पढ़ाया भी है, लेकिन आज भी उन पंक्तियों को पढ़कर मुझे हँसी आ जाती है।<br />
<br />
मैं ठीक-ठीक नहीं कह सकता कि यह प्रेमचंद की कहानी ‘बड़े भाई साहब’ का असर था या कुछ और, लेकिन मेरे साथ यह जरूर हुआ कि मैंने अपनी पढ़ाई को कभी उस कहानी के बड़े भाई साहब की तरह गंभीरता से नहीं लिया। हमेशा खेलता-कूदता रहा और अच्छे नंबरों से पास भी होता रहा। हो सकता है, यह उस कहानी का ही असर हो कि बाद में जब मैं लेखक बना, तो हल्का-सा यह अहसास मेरे मन में हमेशा रहा कि रचना पाठक को प्रभावित करती है--वह कभी उसे हँसाती है, कभी रुलाती है, कभी गुस्सा दिलाती है, कभी विपरीत परिस्थितियों से लड़ने का हौसला बँधाती है और लड़ाई में जीतने की उम्मीद भी जगाती है।<br />
<br />
लोग मुझे प्रेमचंद की परंपरा का लेखक कहते हैं। लेकिन मेरे विचार से प्रेमचंद की परंपरा में होने का मतलब प्रेमचंद की नकल करना नहीं है। मेरे लिए प्रेमचंद की परंपरा में होने का अर्थ है मनुष्य होना और मानवता के पक्ष में खड़े होना, जनोन्मुख होना और जनतांत्रिक मूल्यों वाला लेखन करना, न्यायप्रिय होना और अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाना, प्रगतिशील होना और सामाजिक रूढ़ियों-कुरीतियों का विरोध करना, धर्मनिरपेक्ष होना और सांप्रदायिकता के विरुद्ध समाज को जागरूक बनाना, यथार्थवादी होना और यथार्थवादी लेखन करना...और जाहिर है कि यह सब आप प्रेमचंद की--या दुनिया के किसी भी महान लेखक की--नकल करके नहीं कर सकते। इसके लिए तो आपको अपने समय की समस्याओं से जूझते हुए, अपने समय में संभव समाधानों की तलाश करते हुए, अपने ही ढंग की रचना करनी होगी। तभी आपका लेखन सार्थक और प्रासंगिक हो सकेगा। <br />
लेकिन मैं देखता हूँ कि हिंदी साहित्य में ‘प्रेमचंद की परंपरा’ के कई भिन्न और परस्पर-विरोधी अर्थ लगाये जाते हैं। कोई कहता है कि वह गाँवों और किसानों के बारे में लिखने की परंपरा है, तो कोई कहता है कि वह दीन-हीन लोगों के बारे में लिखने की परंपरा है। कोई कहता है कि वह आदर्शवादी लेखन की परंपरा है, तो कोई कहता है कि वह यथार्थवादी लेखन की परंपरा है। कोई कहता है कि वह कथा-पात्रों का हृदय-परिवर्तन करा देने के नुस्खे की परंपरा है, तो कोई कहता है कि प्रेमचंद की परंपरा उनकी अंतिम समय की कुछ रचनाओं की परंपरा है, न कि उनसे पहले की तमाम रचनाओं की। <br />
<br />
1980 में जब प्रेमचंद जन्मशती मनाने के लिए छोटे-बड़े बहुत-से आयोजन हुए, पत्रिकाओं के विशेषांक निकले, प्रेमचंद पर लिखी गयी पुस्तकें प्रकाशित हुईं, तो जहाँ एक तरफ प्रगतिशील-जनवादी लेखकों द्वारा प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाने की बात शुरू हुई, वहीं दूसरी तरफ उसेे सिरे से ही खारिज करने की एक मुहिम चली। यह मुहिम कलावादी खेमे की तरफ से चलायी गयी। उसी के तहत अशोक वाजपेयी के संपादन में मध्यप्रदेश कला परिषद् की पत्रिका ‘पूर्वग्रह’ का एक विशेषांक ‘इधर की कथा’ के नाम से निकला, जिसमें निर्मल वर्मा ने लिखा : <br />
<br />
‘‘आज जब कुछ समीक्षक और लेखक प्रेमचंद की परंपरा की बात डंके की चोट के साथ दोहराते हैं--उसे कसौटी मानकर आधुनिक लेखन को प्रगतिशील या प्रतिक्रियावादी घोषित करते हैं--तो मुझे काफी हैरानी होती है। मुझसे ज्यादा हैरानी और क्षोभ शायद प्रेमचंद को होता, यदि वे जीवित होते। वे शायद हँसी में उनसे कहते, ‘भई, आप तो मेरी परंपरा में आते हैं, लेकिन मैं? मैं कौन-सी परंपरा में आता हूँ--‘सेवासदन’ की परंपरा में या ‘कफन’ की परंपरा में?’ और तब हमें अचानक पता चलेगा कि स्वयं प्रेमचंद को ‘प्रेमचंद की परंपरा’ से मुक्त करना जरूरी है...’’<br />
<br />
तब मैंने प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’ एक बार फिर से पढ़ी और ‘सारिका’ (फरवरी, 1987) में एक लंबा लेख लिखा, जिसका शीर्षक था ‘‘क्या प्रेमचंद की परंपरा ‘कफन’ से बनती है?’’। इस लेख में मैंने यह बताया कि जिसे हम प्रेमचंद की परंपरा कहते हैं, वह केवल ‘कफन’ की नहीं, बल्कि प्रेमचंद के संपूर्ण साहित्य की परंपरा है।<br />
<br />
लेकिन यह देखकर मुझे आश्चर्य हुआ कि अशोक वाजपेयी जैसे कलावादी और निर्मल वर्मा जैसे आधुनिकतावादी ही नहीं, बल्कि नामवर सिंह जैसे प्रगतिवादी भी प्रेमचंद की परंपरा को ‘कफन’ की परंपरा मानते हैं। नामवर सिंह ने ‘आलोचना’ में रवींद्र वर्मा का एक लेख प्रकाशित किया, जो ‘सारिका’ वाले मेरे लेख की प्रतिक्रिया में लिखा गया था। अपने संपादकीय में नामवर सिंह ने ‘कफन’ की मेरी व्याख्या को ‘अजीबोगरीब’ और रवींद्र वर्मा के लेख को ‘सुचिंतित’ बताते हुए अपना पक्ष स्पष्ट किया। तब मैंने एक और लेख लिखा, जिसका शीर्षक था ‘‘ ‘कफन’ के बारे में कुछ और’’। यह लेख ‘कथ्य-रूप’ पत्रिका के जनवरी-मार्च, 1991 के अंक में छपा था। इस लेख में मैंने दो प्रश्न उठाये :<br />
<br />
1. क्या ‘कफन’ लिखते समय प्रेमचंद की विचारधारा वाकई बदल गयी थी? अर्थात् क्या यह कहानी ऐसा कोई साक्ष्य प्रस्तुत करती है? <br />
<br />
2. यदि नहीं, तो इस कहानी में वह कौन-सी चीज है, जो आधुनिकतावादियों और कलावादियों को इसकी मनचाही व्याख्याएँ करने की और अंतिम समय के प्रेमचंद को अपने पक्ष में खड़ा कर लेने की छूट देती है? अर्थात् क्या समीक्षा के वे प्रतिमान सचमुच इस कहानी पर लागू होते हैं, जिनके आधार पर ये लोग किसी रचना को महत्त्वपूर्ण और कलात्मक सिद्ध किया करते हैं? <br />
<br />
इन प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए मैंने प्रेमचंद साहित्य पर एक बार फिर से विचार करने और ‘कफन’ को नये सिरे से समझने का प्रयास किया, तो पता चला कि कई प्रगतिशील और जनवादी लेखक-आलोचक भी इस कहानी की व्याख्या गलत ढंग से करते हैं। यदि कहानी के कथ्य को ठीक तरह से समझा जाये, तो पता चलेगा कि इसमें न तो प्रेमचंद की विचारधारा बदली है, न पक्षधरता, न प्रतिबद्धता, और न इसे उनकी अन्य रचनाओं से काटकर अलग किया जा सकता है। <br />
<br />
प्रेमचंद को पहली बार पढ़ने का-सा अनुभव मुझे एक बार फिर उस समय हुआ, जब हिंदी में प्रगतिशील-जनवादी लेखन के नये दौर के संदर्भ में यथार्थवाद पर पुनः एक बहस चली और मैंने प्रेमचंद के ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ को स्पष्ट करते हुए एक लेख लिखा ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की जरूरत’, जो 2001 में ‘कथन’ में छपा था और जो 2008 में प्रकाशित मेरे साहित्यिक निबंधों के संकलन ‘साहित्य और भूमंडलीय यथार्थ’ में संकलित है। इस लेख में मैंने लिखा : <br />
<br />
हिंदी के लेखकों को गर्व होना चाहिए था कि हमारे प्रेमचंद ने साहित्य को ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ दिया। उन्हें प्रेमचंद की इस अद्भुत देन के लिए कृतज्ञ होना चाहिए था और इसे अपनाकर आगे बढ़ाना चाहिए था। लेकिन उन्होंने आदर्शवाद को प्रेमचंद की कमजोरी माना और खुद को खरा यथार्थवादी मानते हुए प्रेमचंद में भी खरा यथार्थवाद खोजा। नतीजा यह हुआ कि उन्हें प्रेमचंद की अंतिम कुछ रचनाओं में ही यथार्थवाद नजर आया। शेष रचनाओं कोे आदर्शवादी मानते हुए या तो उन्होंने खारिज कर दिया, या उनका मूल्य बहुत कम करके आँका। इससे उन्हें या साहित्य को फायदा क्या हुआ, यह तो पता नहीं, पर नुकसान यह जरूर हुआ कि स्वयं को यथार्थवादी समझने वाले लेखक ‘जो है’ उसी का चित्रण करने को यथार्थवाद समझते रहे और ‘जो होना चाहिए’ उसे आदर्शवाद समझकर उसका चित्रण करने से बचते रहे।<br />
<br />
इस लेख में मैंने यह भी लिखा कि लेखक के सामने जब कोई आदर्श नहीं होता, तो उसकी समझ में नहीं आता कि वह क्या लिखे और क्यों लिखे। किसी बड़ी प्रेरणा के अभाव में वह या तो लिखना छोड़कर कोई ऐसा काम करने लगता है, जो उसे ज्यादा जरूरी, ज्यादा लाभदायक या ज्यादा संतुष्टि देने वाला लगता है; या वह निरुद्देश्य ढंग का कलावादी अथवा पैसा कमाने के उद्देश्य से लिखने वाला बाजारू लेखक बन जाता है। आदर्शोन्मुख यथार्थवादी लेखक कुछ नैतिक मूल्यों से प्रेरित-परिचालित होने के कारण अपनी रचना में सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय, उचित-अनुचित, आवश्यक-अनावश्यक तथा सुंदर-असुंदर के बीच विवेकपूर्वक फर्क करने में जितना समर्थ होता है, उतना आदर्शरहित निरा यथार्थवादी लेखक कभी नहीं हो सकता। इतना ही नहीं, निरा यथार्थवादी लेखक अपनी रचना को उस पूर्णता तक कभी नहीं पहुँचा सकता, जिससे उसे आत्मसंतोष और पाठक को आनंद मिलता है। कहानी, उपन्यास और नाटक के लेखन पर तो यह बात कुछ ज्यादा ही लागू होती है। <br />
<br />
लेकिन हिंदी साहित्य का यह विचित्र विरोधाभास है कि उसमें कथा-रचना जितनी समृद्ध है, कथा-समीक्षा उतनी ही दरिद्र। यही कारण है कि जहाँ कथाकारों ने आदर्शोनमुख यथार्थवाद को अपनी रचनाओं में बड़ी आसानी से अपना लिया और उसके आधार पर प्रभूत मात्रा में उत्कृष्ट कथा-लेखन किया, वहाँ कथा-समीक्षक आदर्शवाद और यथार्थवाद का संबंध ही नहीं समझ पाये। इसी का नतीजा है कि हिंदी की कथा-समीक्षा में यथार्थ और कल्पना, यथार्थ और फैंटेसी, यथार्थ और यूटोपिया आदि के आपसी रिश्तों की कोई स्पष्ट समझ आज तक भी विकसित नहीं हो पायी है। <br />
<br />
स्वयं को मार्क्सवादी मानने वाले कई प्रगतिशील-जनवादी कथा-समीक्षक भी प्रेमचंद के आदर्शोन्मुख यथार्थवाद को नहीं समझ पाते। वे ‘अर्ली मार्क्स’ और ‘लेटर मार्क्स’ की तर्ज पर प्रेमचंद की रचनाओं को भी ‘पूर्ववर्ती’ और ‘परवर्ती’ रचनाओं में बाँटकर उन्हें क्रमशः आदर्शवादी और यथार्थवादी बताते हुए प्रेमचंद का विचारधारात्मक विकास दिखाया करते हैं। वे यह नहीं देख पाते कि ऐसा करते हुए वे उन लेखकों-समीक्षकों की-सी बातें करने लगते हैं, जो प्रेमचंद के अंतिम समय की ‘कफन’ जैसी कुछ रचनाओं को ही यथार्थवादी बताते हुए प्रेमचंद के पूरे साहित्य और उनकी यथार्थवादी परंपरा को खारिज किया करते हैं। ऐसे प्रगतिशील-जनवादी कथा-समीक्षकों की तुलना में प्रगतिशील-जनवादी कथाकार यथार्थ और आदर्श के रिश्ते को, प्रेमचंद के आदर्शोन्मुख यथार्थवाद को तथा प्रेमचंद की परंपरा को बहुत बेहतर ढंग से समझते हैं। उदाहरण के लिए, कथाकार इसराइल ने अपने पहले कहानी संग्रह ‘फर्क’ (1978) की भूमिका में लिखा था : <br />
<br />
‘‘एक मार्क्सवादी के रूप में मेरे कलाकार ने सीखा है कि सिर्फ वही सच नहीं है, जो सामने है, बल्कि वह भी सच है, जो कहीं दूर अनागत की कोख में जन्म लेने के लिए कसमसा रहा है। उस अनागत सच तक पहुँचने की प्रक्रिया को तीव्र करने के संघर्ष को समर्पित मेरे कलाकार की चेतना अगर तीसरी आँख की तरह अपने पात्रों में उपस्थित नजर आती हो, तो यह मेरी सफलता है।’’ <br />
<br />
मेरा अपना मानना है कि प्रेमचंद के आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की सही समझ विकसित की जाये, तो उससे हिंदी कथासाहित्य और कथा-समीक्षा दोनों को अपने विकास की सही समझ और दिशा प्राप्त हो सकती है। इतना ही नहीं, यथार्थवाद के नाम पर हमने बेहतर दुनिया के भविष्य-स्वप्न को अपने साहित्य से जो देशनिकाला दे रखा है, उसे उसके सही स्थान पर लाकर हम हिंदी साहित्य के इतिहास को भी एक नये और बेहतर ढंग से लिख सकते हैं। <br />
<br />
इसीलिए मैं प्रेमचंद के आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की बात बार-बार करता हूँ। पिछले दिनों ‘आलोचना’ के एक अंक (अक्टूबर-दिसंबर, 2010) में ‘हमारे समय के स्वप्न’ विषय पर आयोजित परिचर्चा में हिस्सेदारी करते हुए मैंने लिखा है कि स्वाधीनता के बाद के हिंदी साहित्य में लगभग दो दशकों तक ‘मोहभंग’ और ‘क्षणवाद’ की विचारधारा हावी रही और वर्तमान व्यवस्था की जगह भविष्य की किसी बेहतर व्यवस्था का स्वप्न देखने वालों को गैर-यथार्थवादी, आदर्शवादी अथवा यूटोपियाई बताकर खारिज किया जाता रहा। इसी के चलते हिंदी साहित्य में यथार्थवाद और आदर्शवाद, दोनों की एक गलत समझ बनायी और प्रचारित की गयी। इस प्रवृत्ति के शिकार समसामयिक लेखक तो हुए ही, पहले के लेखक भी हुए। उदाहरण के लिए, प्रेमचंद के अधिकांश साहित्य को आदर्शवादी बताते हुए उनकी अंतिम समय की कुछ रचनाओं को ही यथार्थवादी माना गया और यह बात सिरे से ही भुला दी गयी कि प्रेमचंद ‘आदर्श’ और ‘यथार्थ’ को परस्पर विरोधी नहीं मानते थे, बल्कि उन्होंने तो ‘नग्न यथार्थवाद’ (प्रकृतवाद) के विरुद्ध ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ की स्थापना की थी! <br />
<br />
भूमंडलीय यथार्थवाद की अवधारणा को विकसित करते समय मुझे प्रेमचंद के आदर्शोन्मुख यथार्थवाद को फिर एक बार नये सिरे से समझने की जरूरत महसूस हुई और इस सिलसिले में उनकी कई रचनाएँ पढ़ते समय मुझे लगा कि जैसे मैं उन्हें पहली ही बार पढ़ रहा हूँ। <br />
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<span style="color: blue;"><b>--रमेश उपाध्याय</b></span></div>
ramesh upadhyayhttp://www.blogger.com/profile/05054633574501788701noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-1496071818736613491.post-82956970274325155342013-07-27T08:18:00.001-07:002013-07-27T08:19:12.111-07:00भूमंडलीय यथार्थवाद की पृष्ठभूमि<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="color: blue;"><span style="font-size: x-small;"><b>'कथन'-79 (जुलाई-सितंबर, 2013) में प्रकाशित लेख</b></span></span><br />
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<span style="color: blue;"><span style="font-size: x-small;"><b> </b></span></span> <br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjBAYUpJO5apOOu6XN11ZciQZGNVNMPTT0nKdHpppnnBApc2F-CwueCoyFiTgE6T5fUHmCLkNMK4WxbYhLuVs3HqXz1kKx2_iirSfnzAkX4hVrDTAprT1lIvJq9xW35nTD9lNnKrzjUUf9J/s1600/k-79.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjBAYUpJO5apOOu6XN11ZciQZGNVNMPTT0nKdHpppnnBApc2F-CwueCoyFiTgE6T5fUHmCLkNMK4WxbYhLuVs3HqXz1kKx2_iirSfnzAkX4hVrDTAprT1lIvJq9xW35nTD9lNnKrzjUUf9J/s200/k-79.jpg" width="147" /></a></div>
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हिंदी साहित्य में, खास तौर से 1970 और 1980 के दशकों में, ‘‘प्रेमचंद की यथार्थवादी परंपरा’’ का जाप तो बहुत हुआ, लेकिन उसे समझने और आगे बढ़ाने के प्रयास कम ही हुए। यदि आधुनिकतावादी लेखकों तथा आलोचकों ने उसका मजाक उड़ाया, तो कई प्रगतिशील-जनवादी कहलाने वाले लेखकों तथा आलोचकों ने उस पर तरह-तरह के सवाल उठाकर उसे खारिज करने के प्रयास किये। मसलन, किसी ने कहा कि प्रेमचंद ग्रामीण यथार्थ के लेखक थे, आज के महानगरीय यथार्थ का चित्रण उनकी परंपरा में नहीं किया जा सकता; किसी ने कहा कि प्रेमचंद का समय और था, हमारा समय और है और इस बदले हुए समय में प्रेमचंद का आदर्शोन्मुख यथार्थवाद संभव नहीं है; तो किसी ने कहा कि प्रेमचंद आदर्शवादी थे, यथार्थवादी तो वे अपनी अंतिम कुछ रचनाओं में ही हुए थे! <br />
<br />
दूसरी तरफ उत्तर-आधुनिकतावादियों ने अपने विखंडनवाद से यथार्थवाद के मूल आधार समग्रता का ही खंडन किया, तो जादुई यथार्थवादियों ने यथार्थवाद के सभी पुराने रूपों को वर्तमान समय के लिए बेकार हो चुका बताया और उत्तर-आधुनिकतावादियों के ‘‘मार्क्सवादोत्तर’’ और ‘‘यथार्थवादोत्तर’’ के नारों से उसका तालमेल बिठाकर वर्तमान में (अर्थात् सोवियत संघ के विघटन के बाद और पूँजीवादी भूमंडलीकरण के वर्तमान दौर में) उसी को एकमात्र सही और संभव यथार्थवाद बताया। <br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjKFEEzi496k57-aliiB3ANzqhNYcEjX1vZI_YulAxdUwCmRstX6xDgwPMYu-JPQrZ5KfUJAKdnNCnvkkA643zOJculh3gm2F5wTwfCLMRa1vQvkPnQL8ZNB6lIOf4B0MDgfLmeWpQgU4mk/s1600/Fredric-Jameson.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjKFEEzi496k57-aliiB3ANzqhNYcEjX1vZI_YulAxdUwCmRstX6xDgwPMYu-JPQrZ5KfUJAKdnNCnvkkA643zOJculh3gm2F5wTwfCLMRa1vQvkPnQL8ZNB6lIOf4B0MDgfLmeWpQgU4mk/s200/Fredric-Jameson.jpg" width="200" /></a></div>
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आश्चर्य की बात यह है कि हिंदी साहित्य में वामपंथी लेखकों और लेखक संगठनों की संख्या कम न होने पर भी यथार्थवाद पर कोई बड़ी बहस नहीं चली, जबकि उनको ही साहित्य में यथार्थवाद की जरूरत सबसे ज्यादा थी। उत्तर-आधुनिकतावाद के संदर्भ में फ्रेडरिक जेमेसन का नाम अवश्य लिया जाता रहा, लेकिन इस पर ध्यान नहीं दिया गया कि उन्होंने आज के पूँजीवाद के दौर में यथार्थवाद के नये रूपों के आविष्कार की जरूरत के बारे में क्या कुछ कहा था। <br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgkM6e0mpfG0mr9HpyEyljbGvGnuuNVjo039ZRSkJU6boaZJQKfbEpj9dJxvHDnHzbekAxfSJaXtJbCKP3WyqftCRn6X6mG2waLf5HRYhQ7ACeG2ejkZu0LOE05wlJsqywie3Ep8wF8N_jh/s1600/Fredric-Jameson.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><br /></a></div>
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पश्चिम के साहित्य में यथार्थवाद का विरोध आधुनिकतावाद के दौर में ही होने लगा था। आधुनिकतावाद की यथार्थवाद-विरोधी प्रवृत्ति को उत्तर-आधुनिकतावाद ने विभिन्न प्रकार की नयी रणनीतियों से आगे बढ़ाया। उनमें सबसे बड़ी रणनीति थी समग्रता का विरोध, जिसे उत्तर-आधुनिकतावाद के जनक जैसे माने जाने वाले ल्योतार ने ‘‘वार अगेंस्ट टोटैलिटी’’ (समग्रता के विरुद्ध युद्ध) कहा। इस युद्ध में जिस ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया गया, वह था विखंडन। <br />
<br />
लेकिन 1990 के बाद से ‘‘लेट कैपिटलिज्म’’ (आज के पूँजीवाद) ने भूमंडलीकरण के रूप में एक ऐसी आर्थिक-राजनीतिक प्रक्रिया शुरू की, जिससे एक नये ढंग के साम्राज्यवाद की वापसी हुई और उसके साथ ही एक नयी बात यह हुई कि सारी दुनिया को एक नये ढंग की गुलामी का अहसास होने लगा, जिससे वह एक नये रूप में मुक्ति के लिए छटपटाने लगी। इस छटपटाहट को व्यक्त करने वाली किताबें आने लगीं, जैसे डेविड हार्वी की ‘दि न्यू इंपीरियलिज्म’ (2003), गोपाल बालकृष्णन द्वारा संपादित ‘डिबेटिंग एंपायर’ (2003) और एलेक्स कोलिनिकॉस की ‘दि न्यू मैंडेरिंस ऑफ अमेरिकन पॉवर’ (2005)। उत्तर-आधुनिकतावाद ने मार्क्सवाद और यथार्थवाद के अंत की ही नहीं, इतिहास के अंत की भी घोषणा कर दी थी। मगर अब उन घोषणाओं को गलत साबित करने वाली किताबें भी आने लगीं, जैसे अंर्स्ट ब्रायसाख की ‘ऑन दि फ्यूचर ऑफ हिस्टरी: दि पोस्टमॉडर्न चैलेंज एंड इट्स आफ्टरमैथ’ (2003), डेविड हार्वी की ‘स्पेसेज ऑफ होप’ (2003), फ्रेडरिक जेमेसन की ‘आर्कियोलॉजीज ऑफ दि फ्यूचर: दि डिजायर कॉल्ड यूटोपिया एंड अदर साइंस फिक्शंस’ (2005), मैथ्यू ब्यूमोंट द्वारा संपादित ‘एडवेंचर्स इन रियलिज्म’ (2007) इत्यादि। <br />
<br />
सोवियत संघ के विघटन और शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद पूँजीवाद की ओर से बड़ी विजयोल्लसित घोषणाएँ की गयीं कि पूँजीवाद जीत गया, समाजवाद हार गया, अब सारी दुनिया में और हमेशा पूँजीवाद ही चलेगा। उत्तर-आधुनिकतावादियों ने तो पहले ही कला, साहित्य और सौंदर्यशास्त्र में एक नये युग के आगमन की घोषणा कर रखी थी--मार्क्सवादोत्तर युग! यथार्थवादोत्तर युग! <br />
<br />
एक यथार्थवादी लेखक के रूप में मुझे लगा कि अब एक नये यथार्थवाद के लिए संघर्ष करना जरूरी है। मैं एक रचनाकार के रूप में तो यह संघर्ष अपनी कहानियों में नये यथार्थ को नये यथार्थवादी रूपों में सामने लाकर कर ही रहा था, अब मैं एक लेखक, प्राध्यापक और पत्रकार के रूप में भी यह संघर्ष अपने लेखों, व्याख्यानों और अपनी पत्रिका ‘कथन’ के अंकों के जरिये करने लगा। मैंने कुछ नये प्रश्न उठाने शुरू किये, जैसे--यदि पूँजीवाद एक विश्व-व्यवस्था है, तो क्या समाजवाद भी एक विश्व-व्यवस्था नहीं है? यदि पूँजी का भूमंडलीकरण संभव है, तो श्रम का क्यों नहीं? जब पूँजीवादी भूमंडलीकरण हो सकता है, तो समाजवादी भूमंडलीकरण क्यों नहीं हो सकता? <br />
<br />
इन प्रश्नों के उत्तर खोजते हुए मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि जब तक समाजवाद एक संभावना है, तब तक मार्क्सवाद भी जरूरी है, यथार्थवाद भी जरूरी है। अलबत्ता यह एक नया मार्क्सवाद होगा, एक नया यथार्थवाद होगा। ऐतिहासिक परिस्थितियों के बदलने के साथ-साथ इतिहास के नये बोध के साथ बदलता और विकसित होता मार्क्सवाद और यथार्थवाद।<br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjVmOmSCnMieSyFOGrZv61TVA8EGY2W3GOGUfo4wR31hKdzT0a-P1WOpg8leb28az1_2ChKk1Wrwq1hyMVfOjSlvkghapKVtGAstXJiP1JLZ25PwiIy6OQVuxDUINeiQfHXdpEHzq2tT_Fd/s1600/behtar.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjVmOmSCnMieSyFOGrZv61TVA8EGY2W3GOGUfo4wR31hKdzT0a-P1WOpg8leb28az1_2ChKk1Wrwq1hyMVfOjSlvkghapKVtGAstXJiP1JLZ25PwiIy6OQVuxDUINeiQfHXdpEHzq2tT_Fd/s1600/behtar.jpg" /></a></div>
और यह देखकर मैं बहुत प्रेरित तथा उत्साहित हुआ कि मैं ही नहीं, आज की दुनिया में बहुत-से लोग इसी तरह सोच रहे हैं। उस नये चिंतन को सामने लाने के लिए मैंने ‘कथन’ के अंकों को नये-नये विषयों पर केंद्रित करना शुरू किया, जैसे--‘नयेपन की अवधारणा’, ‘यूटोपिया की जरूरत’, ‘आशा के स्रोतों की तलाश’, ‘श्रम का भूमंडलीकरण’, ‘सांस्कृतिक साम्राज्यवाद’, ‘बाजारवाद और नयी सृजनशीलता’ इत्यादि। इसी क्रम में मैंने अंग्रेजी में प्रकाशित होने वाली सामग्री के अनुवादों के जरिये, जरूरी किताबों की विस्तृत चर्चाओं के जरिये, साक्षात्कारों और परिचर्चाओं के जरिये तथा हिंदी में मौलिक रूप से लिखे और लिखवाये गये लेखों के जरिये आज के भूमंडलीय यथार्थ को सामने लाते हुए उस पर विभिन्न विद्वानों (जैसे रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, एजाज अहमद, विपिन चंद्र, ज्याँ डेªज, उमा चक्रवर्ती, मैनेजर पांडेय, मनोरंजन महांति, गौहर रजा, गोपाल गुरु आदि) से विस्तृत बातचीत की और उन साक्षात्कारों का एक संकलन प्रकाशित किया ‘बेहतर दुनिया की तलाश में’ (2007)। <br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjVmOmSCnMieSyFOGrZv61TVA8EGY2W3GOGUfo4wR31hKdzT0a-P1WOpg8leb28az1_2ChKk1Wrwq1hyMVfOjSlvkghapKVtGAstXJiP1JLZ25PwiIy6OQVuxDUINeiQfHXdpEHzq2tT_Fd/s1600/behtar.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><br /></a></div>
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiZKnSn2aqvfYtPUyihlcJFOdMwftzyTs6pW6N68Pl2oyJAsmjIj65DlVwDkzwsI5K3iMaZtx4wiP7B28FITEfWzM4e4aggDRWFE-oRP8W5Amj4sfVwiuR5Y1m1ksxyxLBDiypBtHl_ZKrU/s1600/astandpol.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiZKnSn2aqvfYtPUyihlcJFOdMwftzyTs6pW6N68Pl2oyJAsmjIj65DlVwDkzwsI5K3iMaZtx4wiP7B28FITEfWzM4e4aggDRWFE-oRP8W5Amj4sfVwiuR5Y1m1ksxyxLBDiypBtHl_ZKrU/s200/astandpol.jpg" width="130" /></a><br />
<div style="text-align: justify;">
सोवियत संघ के विघटन और शीतयुद्ध की समाप्ति से पहले मार्क्सवाद और यथार्थवाद में बदलाव और विकास की बात करना गलत और खतरनाक माना जाता था। लेकिन इसके बाद यह बात खुलकर होने लगी। कई ऐसी चीजें सामने आने लगीं, जो दबी रह गयी थीं। उदाहरण के लिए, 1930 के दशक में जर्मनी में यथार्थवाद संबंधी एक ‘‘महान बहस’’ चली थी, जिसमें अंर्स्ट ब्लॉख, जॉर्ज लुकाच, बर्टोल्ट ब्रेष्ट, वाल्टर बेंजामिन और थियोडोर एडोर्नो ने भाग लिया था। यह बहस 1980 में ‘एस्थेटिक्स एंड पॉलिटिक्स’ नामक संकलन में प्रकाशित हुई थी। उसका ‘उपसंहार’ फ्रेडरिक जेमेसन ने लिखा था, जिसमें उन्होंने ‘‘उत्तर-मार्क्सवादों’’ की चर्चा करते हुए कहा था कि इतिहास की उपेक्षा करने वाले ही उसे दोहराने के लिए अभिशप्त नहीं होते, पिछले दिनों जो तरह-तरह के ‘‘उत्तर-मार्क्सवाद’’ सामने आये हैं, वे भी इसी सत्य को सामने लाते हैं। ‘‘मार्क्सवाद के परे’’ जाने के प्रयासों का अंत ‘‘मार्क्सवाद के पहले’’ की स्थितियों में लौट जाने के रूप में सामने आ रहा है। ‘‘दबा दी गयी चीजों की वापसी’’ का जैसा नाटकीय रूप यथार्थवाद और आधुनिकतावाद के झगड़े की वापसी के रूप में दिख रहा है, अन्यत्र कहीं नहीं दिखता। लेकिन उस झगड़े में पड़े बिना हम नहीं रह सकते, चाहे आज हमें उसमें शामिल दोनों पक्षों में से एक भी पूरी तरह स्वीकार्य न लगता हो। </div>
<br />
जेमेसन ने यह भी कहा था कि यथार्थवाद चीजों को समग्रता में देखता था, जबकि आधुनिकतावाद चीजों को विखंडित करके उन्हें ‘‘अपरिचित’’ बनाकर ‘‘नयी’’ बनाता था। मगर नयापन पैदा करने की यह आधुनिकतावादी तकनीक आज उपभोक्ताओं को पूँजीवाद से तालमेल बिठाकर चलना सिखाने की जानी-पहचानी तकनीक बन गयी है। उसमें कोई नयापन नहीं रहा। इसलिए अब नया कुछ करने के लिए विखंडन को भी ‘‘अपरिचित’’ बनाने का प्रयास किया जा रहा है। लगता है, अमूर्तन का एक चक्र पूरा हो चुका है और उसकी जगह यथार्थवाद की वापसी का समय आ गया है। मगर यथार्थवाद का भी ऐतिहासिक आधार संदिग्ध हो गया है, क्योंकि आधारभूत अंतर्विरोध स्वयं इतिहास के भीतर है और उसकी वास्तविकताओं को समझने के लिए हम जिन अवधारणाओं से काम लेते हैं, वे चिंतन के लिए एक पहेली बन जाती हैं। इससे जो संदेह पैदा होता है, बहुत मूल्यवान है। हमें उसी को पकड़ना चाहिए, क्योंकि उसी की संरचना में इतिहास का वह मर्म छिपा है, जिसे हम अभी तक समझ नहीं पाये हैं। जाहिर है, यह संदेह हमें यह नहीं बता सकता कि यथार्थवाद की हमारी अवधारणा क्या होनी चाहिए; फिर भी इसका अध्ययन हमारे ऊपर यह जिम्मेदारी अवश्य डालता है कि हम यथार्थवाद की एक नयी अवधारणा का आविष्कार करें। आज इस जिम्मेदारी को महसूस न करना असंभव है। <br />
<br />
जेमेसन जिस नये यथार्थवाद की जरूरत पर जोर दे रहे थे, वह उनके विचार से उपभोक्ता समाज की उस शक्ति का प्रतिरोध करने वाला यथार्थवाद होना चाहिए था, जो मनुष्य और उसकी पूरी दुनिया को वस्तुओं में बदल देती है। उपभोक्ता समाज में यह शक्ति होती है कि वह मनुष्य के शारीरिक और मानसिक श्रम से उत्पन्न तमाम चीजों के साथ-साथ मनुष्य के विचारों, भावनाओं तथा संपूर्ण जड़ और चेतन जगत से उसके संबंधों को भी बेची और खरीदी जाने वाली चीजें बना दे। इस शक्ति का प्रतिरोध समग्रता में ही किया जा सकता है। आज के मानवीय जीवन तथा सामाजिक संगठन के सभी स्तरों पर चल रहे विखंडन को व्यवस्थित रूप से समाप्त करने के लिए चीजों को समग्रता में देखना और उन्हें समग्र रूप से बदलना आवश्यक है। नये यथार्थवाद की अवधारणा समग्रता की कोटि के आधार पर ही की जा सकती है; क्योंकि यही वह चीज है, जो वर्गों के बीच के संरचनात्मक संबंधों को सामने ला सकती है।<br />
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiagbx6JkiYYV7Cau_OEYdpVVZBNt4e1opxRQQg_C6eazZjF0j1z3cIMwl5fjS68r6hbMzEQapbp6MeFQM8XAIv-BS9pnabEYs3BGsx4U1otN9FFLG4feDpjKMgQLYAmPEfG9RFbZfOcyQy/s1600/jeme.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiagbx6JkiYYV7Cau_OEYdpVVZBNt4e1opxRQQg_C6eazZjF0j1z3cIMwl5fjS68r6hbMzEQapbp6MeFQM8XAIv-BS9pnabEYs3BGsx4U1otN9FFLG4feDpjKMgQLYAmPEfG9RFbZfOcyQy/s200/jeme.jpg" width="134" /></a>लगभग दो दशकों के बाद जेमेसन ने अपनी पुस्तक ‘अ सिंग्यूलर मॉडर्निटी : एस्से ऑन ओंटोलॉजी ऑफ प्रेजेंट’ (2002) में पुनः लिखा कि ‘‘प्रत्येक यथार्थवाद नया ही होता है...और यही कारण है कि समूचे आधुनिकतावादी युग में और उसके बाद भी दुनिया के कई हिस्सों तथा सामाजिक समग्रता के कई अंशों में नये और जीवंत यथार्थवादों की आहटें सुनायी पड़ती रही हैं, जिन्हें सुनना और पहचानना जरूरी रहा है। ...प्रत्येक नया यथार्थवाद न केवल अपने से पहले के यथार्थवादों की सीमाओं से असंतोष होने के कारण उत्पन्न होता है, बल्कि इस कारण भी, तथा अधिक आधारभूत रूप में इसी कारण से ही, उभरकर सामने आता है कि आम तौर पर यथार्थवाद स्वयं आधुनिकता की ठीक वही गतिशील नवीनता लिये रहता है, जिसे हम आधुनिकतावाद की अद्वितीय विशेषता मानते आये हैं।’’ <br />
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इसके बाद ‘आर्कियोलॉजीज ऑफ दि फ्यूचर : दि डिजायर कॉल्ड यूटोपिया एंड अदर साइंस फिक्शंस’ (2005) में उन्होंने ‘‘भूमंडलीकरण के बाद के नयी पीढ़ी के तमाम वामपंथियों’’ को संबोधित करते हुए यथार्थवाद की उन समस्याओं को उठाया, जो नये सिरे से उठ खड़ी हुई थीं और जिन पर तुरंत ध्यान दिया जाना जरूरी था। <br />
भूमंडलीकरण का वर्तमान दौर शुरू होते ही उत्तर-आधुनिकतावाद अपनी फैशनेबल चमक-दमक खोने लगा था और एक नये यथार्थवाद की जरूरत महसूस की जाने लगी थी। देखते-देखते यथार्थवाद संबंधी नयी पुस्तकें सामने आने लगीं, जैसे पीटर ब्रुक्स की ‘रियलिस्ट विजंस’ (2005) और मैथ्यू ब्यूमोंट द्वारा संपादित ‘एडवंेंचर्स इन रियलिज्म’ (2007)। यथार्थवाद की इस वापसी में समकालीन पूँजीवाद की बदलती संरचना से उत्पन्न समस्याओं का बड़ा हाथ था, जिन्होंने यथार्थ को समझने तथा उसे कला और साहित्य में चित्रित करने के नये तरीके निकालने के लिए एक तरफ चिंतकों तथा आलोचकों को और दूसरी तरफ कलाकारों और साहित्यकारों को प्रेरित किया। पूँजीवाद में आये बदलाव का ही शायद यह नतीजा था कि जहाँ पहले यथार्थवाद की चर्चा में इतिहास पर जोर दिया जाता था, अब राजनीतिक अर्थशास्त्र पर जोर दिया जाने लगा। भूमंडलीकरण ने इतिहास को नये ढंग से पढ़ना जरूरी बनाया, जिससे ‘‘इतिहास का भूमंडलीकरण’’ हुआ और ‘‘भूमंडलीकरण का इतिहास’’ सामने आया। इन दोनों चीजों का असर साहित्य पर और उसमें किये जाने वाले यथार्थ-चित्रण तथा आलोचनात्मक विवेचन पर पड़ना स्वाभाविक था। <br />
<br />
उत्तर-आधुनिकतावादियों का सबसे ज्यादा जोर विखंडन पर रहा। उन्होंने जीवन, समाज और दुनिया को समग्रता में देखने, समझने और साहित्य में चित्रित करने के यथार्थवादी प्रयासों को इस आधार पर गलत, अनुचित और अवांछित बताया कि ऐसा करना असंभव है। उन्होंने कहा कि जीवन, समाज और दुनिया को ही नहीं, जिस कला और साहित्य में ये चित्रित या प्रतिबिंबित होते हैं, उसे भी विखंडन से या खंड-खंड करके ही समझा जा सकता है। <br />
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मार्क्सवादी रचनाकारों, आलोचकों तथा सिद्धांतकारों ने विखंडनवाद का खंडन करते हुए बार-बार कहा है कि द्वंद्ववाद के अनुसार एक समग्रता के भीतर जो अंतर्विरोध होते हैं, वे ही उस समग्रता को बनाते और बदलते हैं। मार्क्स ने समाज और विश्व की कल्पना एक ऐसी समग्रता के रूप में की थी, जिसमें मुख्य और ऐतिहासिक अंतर्विरोध शोषक और शोषित वर्गों के बीच है, इन वर्गों के बीच संघर्ष है और वह संघर्ष समाज और विश्व को बदल रहा है। अंततः यह बदलाव वहाँ तक जा सकता है, जहाँ समाज या विश्व नामक समग्रता में न वर्ग होंगे, न वर्ग-संघर्ष। फिर वह एक नयी ही समग्रता होगी, जिसके अपने नये अंतर्विरोध और संघर्ष हो सकते हैं, लेकिन वे वर्तमान पूँजीवादी विश्व-व्यवस्था के आमूलचूल बदल जाने के बाद के नये ही अंतर्विरोध और संघर्ष होंगे। <br />
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वर्तमान पूँजीवादी भूमंडलीकरण ने ज्यों ही यह संभावना दुनिया के लोगों के सामने रखी कि पूँजीवाद की ही तरह समाजवाद भी एक विश्व-व्यवस्था है और उसका भी भूमंडलीकरण हो सकता है, पूँजीवादी व्यवस्था के पैरोकारों ने एक तरफ समाजवाद के अंत, मार्क्सवाद के अंत, यथार्थवाद के अंत आदि की अलग-अलग घोषणाओं के साथ-साथ समग्र रूप में ‘‘इतिहास के अंत’’ की घोषणा कर दी, तो दूसरी तरफ समग्रता के विचार के ही विरुद्ध जंग छेड़ दी। <br />
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लेकिन 1990 के बाद से, जब से भूमंडलीकरण की प्रक्रिया और उसके आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि तमाम पक्षों पर ध्यान दिया जाने लगा, विभिन्न देशों के वामपंथी विद्वान भूमंडलीय यथार्थ को समग्रता में समझने की जरूरत पर जोर देने लगे। इससे पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के बारे में नया विचार-मंथन शुरू हुआ और एक ‘‘बेहतर दुनिया की तलाश’’ के प्रयासों के साथ-साथ यह आशाजनक नारा भी सामने आया कि ‘‘दूसरी और बेहतर दुनिया मुमकिन है’’। इससे यथार्थवाद को, जिसे उत्तर- आधुनिकतावादियों ने मृत घोषित कर दिया था, फिर से जीवंत और विचारणीय माना जाने लगा। यह विचार जोर पकड़ने लगा कि पूँजीवाद भूमंडलीय है, तो समाजवाद भी भूमंडलीय है। और अब ‘‘एक देश में समाजवाद’’ की जगह ‘‘संपूर्ण विश्व में समाजवाद’’ के बारे में सोचा जाना चाहिए तथा उसके लिए यथार्थवादी रणनीतियाँ बनायी जानी चाहिए। <br />
आकस्मिक नहीं था कि मार्क्सवाद में लोगों की रुचि नये सिरे से पैदा होने लगी, सोवियत संघ के विघटन के संदर्भ में समाजवाद पर पुनर्विचार होने लगा, सोवियत समाजवाद की ऐतिहासिक भूलों और गलतियों से सबक लेते हुए सच्चे समाजवाद की दिशा में आगे बढ़ने की बातें होने लगीं और यथार्थवाद पुनः चर्चा का विषय बन गया। <br />
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उत्तर-आधुनिकतावाद ने साहित्य में यथार्थवाद के विरुद्ध विखंडन की जो रणनीति अपनायी, वह आलोचना के स्तर पर पाठ विश्लेषण की विखंडनवादी प्रवृत्ति के रूप में तथा रचना के स्तर पर अस्मितावादी राजनीति के रूप में काफी सफल रही। स्त्रियों, कालों, अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों आदि के लेखन को अलग और विशिष्ट बनाने के प्रयासों में एक तरफ अनुभववाद पर जोर देकर यथार्थवाद को, दूसरी तरफ भिन्नता पर जोर देकर समग्रता के विचार को और तीसरी तरफ स्थानीयता पर जोर देकर भूमंडलीयता के नये यथार्थ को खारिज किया गया। मगर अब रचना और आलोचना, दोनों स्तरों पर अपनायी गयी इस रणनीति की वास्तविकता इसके पीछे छिपे साम्राज्यवादी इरादों के साथ उघड़कर सामने आने लगी। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में कई वामपंथी भी यह समझने लगे थे कि उत्तर-संरचनावाद और विखंडनवाद उनके भी सरोकार हैं, अस्मितावादी राजनीति उनकी भी राजनीति है, लेकिन अब उनमें से कुछ महसूस करने लगे कि ये तो नव-उदार पूँजीवाद या बाजारवाद की भूमंडलीकरण से पहले की तैयारियों के उपक्रम थे। <br />
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कनाडाई पत्रकार नाओमी क्लाइन ने अपनी चर्चित पुस्तक ‘नो लोगो’ (2000) में व्यंग्यपूर्वक लिखा कि ‘‘हम दीवार पर प्रक्षेपित तस्वीरों का विश्लेषण करने में इतने व्यस्त थे कि खुद वह दीवार कब की बेची जा चुकी थी, यह देख ही नहीं पाये।’’ उत्तर-आधुनिकतावाद ने साहित्य, संस्कृति, विचार और राजनीति सभी स्तरों पर होने वाले प्रतिरोध को इस प्रकार विखंडित किया कि भूमंडलीय पूँजीवाद और अमरीकी साम्राज्यवाद के हौसलों का बुलंद हो जाना स्वाभाविक था। डेविड हार्वी ने ‘दि न्यू इंपीरियलिज्म’ (2003) में ‘न्यू यॉर्क टाइम्स’ के एक मुख्य समाचार का शीर्षक उद्धृत किया है--‘‘अमेरिकन एंपायर: गैट यूज्ड टु इट!’’ मानो अमरीका सारी दुनिया के लोगों से कह रहा हो कि हाँ, मैं हूँ अमरीकी साम्राज्यवाद! तुम मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते, इसलिए मेरे अधीन रहने की आदत डालो! <br />
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ऐसी स्थितियों के निर्माण में भूमंडलीकरण से पहले की उस शीतयुद्ध वाली राजनीति का भी बड़ा हाथ था, जिसके चलते यथार्थवाद और आधुनिकतावाद वैश्विक राजनीति की शतरंज के ऐसे घिसे-पिटे मोहरे बन गये थे कि उनके नाम पर साहित्य, कला और संस्कृति में कोई नवोन्मेष हो पाना असंभव हो गया था। पूँजीवादी खेमे में पश्चिम के यथार्थवादी लेखकों को भी आधुनिकतावादी घोषित किया जाता था, जबकि समाजवादी खेमे में पूर्व के आधुनिकतावादी लेखक भी यथार्थवादी माने जाते थे। फिर, वहाँ ‘समाजवादी यथार्थवाद’ का राजनीतिक इस्तेमाल तो किया गया (जैसे उसके समर्थक लेखकों को मान-सम्मान देना और उसके विरोधियों को दंडित करना), लेकिन रचना और आलोचना से उसका कोई सच्चा संबंध नहीं बनाया गया। अतः सोवियत संघ के विघटन के बाद ही यथार्थवाद का मार्क्सवादी विश्लेषण फिर से शुरू हो पाया और चूँकि यह वर्तमान भूमंडलीकरण के आरंभ होने का समय था, इसलिए यथार्थवादी लेखकों का ध्यान स्थानीय यथार्थ के साथ-साथ भूमंडलीय यथार्थ पर भी गया और जब यह स्पष्ट दिखने लगा कि स्थानीय यथार्थ भूमंडलीय यथार्थ का ही अंग है, तो समग्रता के विचार ने जोर पकड़ा और उत्तर-आधुनिकतावादी विखंडनवाद की मार्क्सवादी आलोचना ने उसकी सीमाएँ और असंगतियाँ उजाकर करना शुरू कर दिया। <br />
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समग्रता की अवधारणा में भी इस बीच काफी बदलाव और विकास हुआ था। हालाँकि मार्क्सवादी चिंतन में पूँजीवादी विश्व-व्यवस्था की जगह भविष्य की समाजवादी विश्व-व्यवस्था का विचार पहले से मौजूद था (जिसकी अभिव्यक्ति सर्वहारा अंतरराष्ट्रीयतावाद के सिद्धांत और ‘‘दुनिया के मजदूरो एक हो’’ के नारे में होती थी), लेकिन सोवियत शासन के दौरान ‘‘एक देश में समाजवाद’’ के विचार ने अंतरराष्ट्रीयतावाद की जगह राष्ट्रवाद पर अनावश्यक और ऐतिहासिक रूप से गलत जोर डालकर समग्रता की अवधारणा को सीमित कर दिया था। सोवियत संघ के विघटन और वर्तमान पूँजीवादी भूमंडलीकरण ने समग्रता की सीमित (राष्ट्रीय अथवा ‘स्थानीय’) अवधारणा को पुनः व्यापक (अंतरराष्ट्रीय अथवा ‘भूमंडलीय’) बना दिया। इस प्रकार यथार्थ को ‘स्थानीय’ से आगे बढ़ाकर ‘भूमंडलीय’ के रूप में देखना जरूरी और संभव हो गया।<br />
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फ्रेडरिक जेमेसन ने समग्रता की ‘‘वापसी’’ के साथ-साथ यथार्थ की ‘‘व्याप्ति’’ का विचार भी फिर से प्रस्तुत किया, जिसे वे ‘मार्क्सिज्म एंड फॉर्म’ (1971) में पहले ही व्यक्त कर चुके थे। उनका कहना था कि ‘‘यथार्थवाद इतिहास के किसी खास क्षण में परिवर्तन की शक्तियों तक पहुँचने की संभावना पर निर्भर करता है।’’ हालाँकि वे भूमंडलीकरण को एक ऐसी स्थिति मानते हैं, जो इस संभावना को बाधित करती है, लेकिन उनके विचार से आज नहीं तो कल यह संभावना साकार हो सकती है। </div>
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इसका अर्थ यह हुआ कि पूँजीवादी भूमंडलीकरण ही यथार्थ नहीं है, एक संभावना के रूप में समाजवादी भूमंडलीकरण भी यथार्थ है। यथार्थवाद की इस समझ से साहित्य की रचना में ‘‘यथार्थवादी पद्धति’’ को ही अपनाना (अर्थात् यूटोपिया, डिस्टोपिया, रूपक, फैंटेसी वगैरह को यथार्थवादी रचना के लिए त्याज्य समझना) आवश्यक नहीं रहता और यथार्थवादी रचना उन रूपों में भी की जा सकती है, जो आधुनिकतावादी माने जाने के कारण यथार्थवादियों के लिए त्याज्य समझे जाते थे। जेमेसन ने ‘‘समकालीन विश्व के थके हुए यथार्थवाद’’ की तुलना में ‘साइंस फिक्शन’ (विज्ञान कथाओं) को ‘‘अधिक विश्वसनीय सूचना लौटाकर लाने वाला’’ बताकर रचना के रूप के स्तर पर नये यथार्थवाद की संभावनाओं की ओर संकेत किया। मगर इसका मतलब न तो यह था कि वर्तमान भूमंडलीकरण के दौर में यथार्थवाद के सभी पुराने रूप ‘‘थके हुए यथार्थवाद’’ के रूप हो चुके हैं और न यह कि आधुनिकतावादी सभी रूप यथार्थवादी रचना के लिए स्वीकार्य हो गये हैं। हाँ, इसका यह मतलब जरूर था कि भूमंडलीकरण के वर्तमान दौर में यथार्थवाद पुराने ढंग का यथार्थवाद नहीं, एक नये ही ढंग का यथार्थवाद होगा और होना भी चाहिए। <br />
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मार्क्सवादी आलोचना और सौंदर्यशास्त्र के सामने आज प्रश्न यह है कि इक्कीसवीं सदी के भूमंडलीकरण के सामने यथार्थवाद- विरोधी तमाम साहित्यिक प्रवृत्तियों के विरुद्ध यथार्थवाद की क्या भूमिका और क्या रणनीति होनी चाहिए। यथार्थवादी रचनाकार और मार्क्सवादी आलोचक आज इस प्रश्न का एक ही उत्तर देते दिखते हैं: यथार्थवाद में एक नवोन्मेष जरूरी है। यह नवोन्मेष कब और कैसे होगा, कहा नहीं जा सकता, लेकिन यह एक सतत प्रक्रिया है, जो यथार्थवाद के उदय से आज तक निरंतर जारी है। <br />
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टेरी ईगल्टन ने ‘मार्क्सिस्ट लिटरेरी थियरी’ (1996) में मार्क्सवादी आलोचना के चार परंपरागत क्षेत्र बताये थे--1. मानव- विज्ञानी आलोचना, 2. राजनीतिक आलोचना, 3. विचारधारात्मक आलोचना, और 4. आर्थिक आलोचना। इन सभी क्षेत्रों में काम करने वाले विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से यथार्थवादी चिंतन को आगे बढ़ाया है, लेकिन फ्रेडरिक जेमेसन शायद अकेले ऐसे विद्वान हैं, जिन्होंने यथार्थवाद की अपनी अवधारणा इन चारों क्षेत्रों में विकसित की गयी यथार्थवाद की समझ से निर्मित की है। उनके यथार्थवाद संबंधी चिंतन में मार्क्सवादी आलोचना के ये सभी रूप एक साथ शामिल हैं। इसीलिए उससे (1) यथार्थवाद के ऐतिहासिक प्रादुर्भाव, (2) यथार्थवाद की सौंदर्यशास्त्रीय तथा ज्ञानमीमांसात्मक शक्तियों, (3) यथार्थवाद के राजनीतिक उपयोगों तथा उनकी सीमाओं-संभावनाओं और (4) इतिहास के किसी खास दौर में उत्पादन के तरीके के अनुसार बनते-बदलते सांस्कृतिक परिदृश्य में यथार्थवाद की स्थिति और भूमिका से जुड़े सभी सवाल एक साथ सामने आते हैं, जिन पर विचार करना आज यथार्थवाद के विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है। <br />
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जेमेसन ने यथार्थवाद पर अलग से कोई विशेष अध्ययन प्रस्तुत नहीं किया, लेकिन लगभग तीन दशकों तक अपने लेखन में जगह-जगह यथार्थवाद से संबंधित सवालों से जूझते हुए उसकी नयी संभावनाओं का पता लगाया। इसके लिए वे बार-बार जॉर्ज लुकाच के पास गये, उनसे प्रेरित हुए, उनसे सीखा और उनसे टकराये भी; क्योंकि लुकाच ने साहित्य के रूपों और ऐतिहासिक शक्तियों के संबंध को समग्रता में देखा था और यथार्थवाद का एक सामान्य सिद्धांत निर्मित करने का प्रयास किया था। जेमेसन समग्रता की अवधारणा को जाँचने-परखने और विकसित करने के लिए रह-रहकर उसकी ओर लौटे और उन्होंने पाया कि समग्रता के आधार पर ही रचना और आलोचना में यथार्थवादी होना संभव है। <br />
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समग्रता का अर्थ यह नहीं है कि यथार्थ में जो कुछ है, या जितना दिखता है, वह सब चित्रित कर दिया जाये। यह असंभव है और आवश्यक भी नहीं। अतः समग्रता यथार्थवादी रचना के रूप या उसकी शैली (अथवा चित्रण की पद्धति) में नहीं, बल्कि रचनाकार की दृष्टि में होती है। वह यथार्थ का चाहे एक छोटा- सा अंश ही प्रस्तुत करे--जैसे किसी एक चरित्र के रूप में--लेकिन उसकी नजर उसे समग्रता में देखने वाली होनी चाहिए। अर्थात् रचना में चित्रित यथार्थ का एक अंश संपूर्ण यथार्थ के अंश के रूप में चित्रित होना चाहिए, न कि उस संपूर्णता को खंडित करके पाये गये उसके एक अंश को ही संपूर्ण मानकर। <br />
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उदाहरण के लिए, वर्तमान समाज या उसके किसी प्रातिनिधिक चरित्र को चित्रित करते समय रचनाकार उसके वर्तमान को तो देखता ही है, ऐतिहासिक दृष्टि से उसके अतीत और भविष्य को भी देखता है। आधुनिकतावादी तथा उत्तर-आधुनिकतावादी लोगों के लिए उस चरित्र के अतीत का कुछ अर्थ भले ही हो, उसके भविष्य का कोई अर्थ नहीं होता; क्योंकि उनके लिए भविष्य तो अनागत है और जो अभी आया ही नहीं है, जिसका अस्तित्व ही नहीं है, वह यथार्थ कैसे हो सकता है! भविष्य के बारे में सोचने, उसकी कल्पना करने, उसका कोई आदर्श सामने रखकर उसकी प्राप्ति के प्रयास करने या साहित्य में उसे चित्रित करने को वे एक ‘यूटोपिया’ (अयथार्थ, कल्पनालोक या असंभव आदर्श) मानते हैं। लेकिन लुकाच और जेमेसन दोनों यथार्थवाद को समग्रता में अर्थात् अतीत-वर्तमान-भविष्य को एक साथ ध्यान में रखने से बनी दृष्टि के रूप में देखते हैं। लुकाच ने यथार्थ के चित्रण में ‘‘समग्रता के प्रश्न की निर्णायक भूमिका’’ बतायी थी। जेमेसन ने उसमें एक नैतिक आयाम भी जोड़ा और ‘यूटोपिया’ को अयथार्थ नहीं, बल्कि यथार्थ ही मानते हुए ‘मार्क्सिज्म एंड फॉर्म’ में कहा : <br />
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‘‘मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य तो उस ‘यूटोपिया’ तक ही पहुँचना है, जहाँ जीवन और उसका अर्थ पुनः अविभाज्य हो जायेंगे, इसमें मनुष्य और विश्व एकमत हो जायेंगे। लेकिन यह भाषा अमूर्त है और ‘यूटोपिया’ कोई विचार नहीं, बल्कि एक ‘विजन’ (दृष्टि) है। अतः वह अमूर्त चिंतन नहीं, बल्कि स्वयं आख्यान ही है, जो समस्त ‘यूटोपियाई’ गतिविधि को प्रमाणित करने का आधार है, और महान उपन्यासकार ‘यूटोपिया’ की समस्याओं का ठोस निरूपण प्रस्तुत करते हैं।’’ <br />
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लुकाच ने आख्यान और समग्रता के बीच का संबंध खोजा था। जेमेसन ने उस खोज को आगे बढ़ाते हुए ‘यूटोपिया’ को भावी समाजवादी विश्व-व्यवस्था के रूप में देखा और बताया कि आज जो ‘यूटोपिया’ अयथार्थ, कल्पनालोक या असंभव आदर्श लगता है, उसके भविष्य में साकार होने की संभावना को यथार्थ मानकर चलना यथार्थवादी लेखकों का एक राजनीतिक कार्यभार ही नहीं, बल्कि एक नैतिक दायित्व भी है। <br />
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जेमेसन ने काल की अवधारणा से जुड़े यथार्थवाद को ‘‘ऐतिहासिक यथार्थवाद’’ कहा है। इससे उनका आशय उन्नीसवीं सदी के बाल्जाक, स्कॉट, डिकेंस आदि के कथासाहित्य में पाये जाने वाले यथार्थवाद से है। जेमेसन के सामने ही नहीं, पश्चिम के प्रायः सभी मार्क्सवादी आलोचकों के सामने यह समस्या रही है कि बुर्जुआ वर्ग के सत्तारोहण के समय की क्रांतिकारी परिस्थिति में उदित हुए उस यथार्थवाद की परंपरा को वर्तमान समय में कैसे आगे बढ़ाया जाये। ‘‘ऐतिहासिक यथार्थवाद’’ के उदय के पहले तक यह माना जाता था कि सामाजिक यथार्थ का चित्रण करने वाले साहित्य का संबंध ज्ञानमीमांसा से तो है, किंतु सौंदर्यशास्त्र से नहीं। दूसरे शब्दों में, यथार्थवादी साहित्य ‘ज्ञान’ तो दे सकता है, ‘आनंद’ नहीं दे सकता। ‘‘ऐतिहासिक यथार्थवाद’’ ने दावा किया, जिसे बाल्जाक, स्कॉट, डिकेंस आदि के साहित्य ने सत्य भी सिद्ध किया कि वह निरा ज्ञानात्मक नहीं, सौंदर्यात्मक भी है। <br />
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हिंदी में प्रेमचंद ने आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की अवधारणा के जरिये तथा मुक्तिबोध ने ज्ञानात्मक संवेदन और संवेदनात्मक ज्ञान की अपनी कोटियों के जरिये यही दावा पेश किया था और अपनी रचनाओं में चरितार्थ भी किया था।<br />
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जेमेसन ने ‘दि पॉलिटिकल अनकांशस : नैरेटिव ऐज अ सोशली सिंबॉलिक एक्ट’ (2002) में यथार्थवाद की ज्ञानात्मक और सौंदर्यात्मक दोनों तरह की उपलब्धियों को देखा। यह मानते हुए भी कि उन्नीसवीं सदी का-सा ‘‘ऐतिहासिक यथार्थवाद’’ बीसवीं सदी के पूँजीवाद के अंतर्गत संभव नहीं है, उन्होंने उसकी परंपरा को नये रूप में आगे बढ़ाना संभव, उचित और आवश्यक बताया। परंपरा को आगे बढ़ाने का मतलब पुराने लेखकों की रचना-पद्धति या शैली की नकल करना नहीं है। वर्तमान परिस्थिति में यदि कोई ‘‘ऐतिहासिक यथार्थवाद’’ की माँग करता है, तो उसे ‘‘वल्गर लुकाचवादी’’ ही कहा जा सकता है। इस माँग का मजाक उड़ाते हुए ब्रेष्ट ने अपने लेख ‘ऑन दि फॉर्मलिस्टिक कैरेक्टर ऑफ दि थियरी ऑफ रियलिज्म’ में व्यंग्यपूर्वक कहा था--‘‘बाल्जाक जैसे बनो--मगर अपटूडेट बाल्जाक!’’ जेमेसन ने ‘‘लेट कैपिटलिज्म’’ के दौर में पुराने ‘‘ऐतिहासिक यथार्थवाद’’ की तुलना भाप के इंजन से करते हुए टर्बाइन के दौर में नये यथार्थवाद की जरूरत बतायी। <br />
जेमेसन का यह ‘‘टर्बाइन का दौर’’ उत्तर-आधुनिकतावाद का दौर था। इस दौर के बारे में उन्होंने एक प्रकार की निराशा व्यक्त करते हुए कहा कि आज की दुनिया इतनी ‘केऑटिक’ (अस्तव्यस्त) हो गयी है कि उसे समग्रता में देखना और चित्रित करना असंभव हो गया है। लेकिन उन्होंने नये यथार्थवादों के पैदा होने की संभावना बताते हुए अपने आशावाद का परिचय तो दिया ही, उत्तर-आधुनिकतावादी विखंडन के विरुद्ध समग्रता की अवधारणा में विश्वास भी व्यक्त किया। उन्होंने नये यथार्थवादों की संभावना ही नहीं, आवश्यकता भी बतायी और कहा कि आज के पूँजीवादी भूमंडलीकरण के दौर में यथार्थवाद को एक राजनीतिक लक्ष्य और कार्यक्रम के रूप में देखा जाना चाहिए। इसके लिए उन्होंने यथार्थवाद के नवीनीकरण की बात की और कहा कि आज का यथार्थवाद अपनी पुरानी परंपरा से बहुत कुछ ग्रहण करते हुए भी एक नया यथार्थवाद होगा। बल्कि एक नहीं, अनेक यथार्थवाद होंगे, जिनका आविष्कार किया जाना है। <br />
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मगर कैसे? इस प्रश्न का उत्तर खोजते हुए जेमेसन उत्तर-आधुनिकतावाद के संदर्भ में भूमंडलीकरण की जाँच-पड़ताल करते हैं और यहाँ उन्हें उत्तर-आधुनिकतावादी विखंडन की काट करने वाली समग्रता दिखायी देती है। साथ ही दिखायी देते हैं ‘साइंस फिक्शन’ और ‘साइबर पंक’ में यथार्थवाद के नये रूप। विज्ञान कथाएँ उन्हें भूमंडलीकरण के समग्र रूप को सामने लाने में और कंप्यूटर के ज्ञान से अनोखे काम कर डालने की कहानियाँ ‘‘उभरते भूमंडलीकरण के सत्य की लगभग पूरी अभिव्यक्ति’’ करने में समर्थ लगती हैं। <br />
लेकिन मेरे विचार से नये यथार्थवाद या यथार्थवादों का आविष्कार इतना आसान नहीं है। जेमेसन ने ‘साइंस फिक्शन’ और ‘साइबर पंक’ में, उदाहरण के तौर पर ही सही, उसकी जो संभावना व्यक्त की है, वह ज्यादा विश्वसनीय नहीं है; क्योंकि एक तो वह वर्तमान भूमंडलीय यथार्थ को बदलने की जरूरत और संभावना के आधार पर नहीं, बल्कि वह जैसा भी है, उसी में नये यथार्थ के आविष्कार की बात करती है; दूसरे, वह रचना के रूप तक ही सीमित है, उसके वस्तुतत्त्व की बात नहीं करती। ‘साइंस फिक्शन’ और ‘साइबर पंक’ के रूपों में यथार्थवादी ही नहीं, यथार्थवाद-विरोधी रचनाएँ भी बड़े मजे में की जा सकती हैं। उदाहरण के लिए नवीनतम तकनीक वाली विज्ञान कथाओं तथा अमरीकी फिल्मों को देखा जा सकता है। अतः नये यथार्थवाद के आविष्कार के प्रश्न को रचना के रूप तक सीमित करके नहीं, बल्कि उसके वस्तुतत्त्व और परिप्रेक्ष्य तक फैलाकर देखना जरूरी है।<br />
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मैंने भूमंडलीय यथार्थ के बारे में तभी से सोचना शुरू कर दिया था, जब अपनी पुस्तक ‘आज का पूँजीवाद और उसका उत्तर- आधुनिकतावाद’ (1999) में संकलित निबंध लिखे थे। उसके बाद लिखे गये मेरे निबंध जैसे ‘साहित्य में फैशन और नवोन्मेष’, ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की जरूरत’, ‘रूढ़ सोच के साँचों को तोड़ना जरूरी’, ‘आगे की कहानी’, ‘हिंदी में विज्ञान कथाएँ क्यों नहीं हैं?’ इत्यादि भूमंडलीय यथार्थ को ही ध्यान में रखकर लिखे गये थे। अंततः ‘भूमंडलीय यथार्थवाद’ नामक निबंध में भूमंडलीय यथार्थवाद की मेरी अवधारणा विकसित होकर सामने आयी। (ये सभी निबंध 2008 में प्रकाशित मेरे साहित्यिक निबंधों के संग्रह ‘साहित्य और भूमंडलीय यथार्थ’ में संकलित हैं।) भूमंडलीय यथार्थवाद की मेरी अवधारणा संक्षेप में यह है: <br />
आज की दुनिया का सबसे अहम प्रश्न है: क्या पूँजीवाद की वैश्विक व्यवस्था की जगह कोई और वैश्विक किंतु बेहतर व्यवस्था संभव है? यदि हाँ, तो उसकी रूपरेखा क्या है और वह व्यवस्था किन आधारों पर, किन शक्तियों के द्वारा और किन तरीकों से बनायी जा सकती है? इस प्रश्न का उत्तर भूमंडलीय यथार्थवाद के आधार पर ही दिया जा सकता है, क्योंकि इसका उत्तर देने के लिए यह आवश्यक है कि आज की दुनिया के यथार्थ को भौगोलिक के साथ-साथ ऐतिहासिक दृष्टि से भी देखा जाये और ऐतिहासिक दृष्टि को केवल अतीत को देखने वाली दृष्टि नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य को भी देखने वाली ऐसी सर्जनात्मक दृष्टि मानकर चला जाये, जो आने वाले कल की बेहतर दुनिया बनाने के लिए हमें आज ही प्रेरित और सक्रिय कर सके। <br />
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हिंदी साहित्य में यह मान्यता न जाने कब से और क्यों चली आ रही है कि यथार्थ और कल्पना परस्पर-विरोधी हैं। मेरा कहना यह है कि यथार्थवाद कल्पना का निषेध नहीं करता। सृजनशील कल्पना तो यथार्थवादी रचना के लिए अपरिहार्य है, क्योंकि वह जिस ‘यूटोपिया’ अथवा भविष्य के स्वप्न को साकार करने के लिए की जाती है, वह सृजनशील कल्पना के बिना साकार हो ही नहीं सकता--न रचना में, न यथार्थ में। कारण यह है कि यथार्थवादी रचना के लिए इतिहास का बोध, वर्तमान का अनुभव और भविष्य का स्वप्न आवश्यक है। और आवश्यक है वह परिप्रेक्ष्य, जो इन तीनों के मेल से बनता है। जाहिर है कि ऐसा यथार्थवाद--रचनाकार के जाने या अनजाने, चाहे या अनचाहे--एक समाजवादी परियोजना है, क्योंकि भविष्य का स्वप्न पूँजीवादी व्यवस्था में समाजवाद ही हो सकता है। चाहे भविष्य में उसका नाम और रूप कुछ और ही हो जाये, आज वह पूँजीवाद का निषेध है और उसके परे जाने का प्रयत्न। <br />
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ठीक इसी कारण आज का पूँजीवाद यथार्थवाद का विरोधी है। यथार्थवाद के विकास को तरह-तरह से बाधित करना, उसे तरह-तरह से बदनाम करना, यथार्थवादियों को उपेक्षित या दंडित करना तथा तमाम प्रत्यक्ष और परोक्ष तरीकों से उनका दमन करना पूँजीवादी राजनीति का आवश्यक अंग है। <br />
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मगर यह राजनीति अक्सर अराजनीतिक प्रतीत होने वाले रूपों में की जाती है। मसलन, यथार्थवाद की जगह अनुभववाद पर जोर देना, यूटोपिया का मजाक उड़ाना, उसे असंभव बताकर खारिज करना, भविष्य के स्वप्न देखने-दिखाने वाले यथार्थवादियों को स्वप्नजीवी, आदर्शवादी या गैर-यथार्थवादी सिद्ध करना, साहित्य को ‘‘वादमुक्त’’ तथा ‘‘राजनीति से दूर’’ रखने की सलाहें देना इत्यादि। ये अराजनीति की राजनीति के विभिन्न रूप हैं। लेकिन इसके बावजूद आज दुनिया भर में जो साहित्य लिखा जा रहा है, वह अधिकांशतः यथार्थवादी है और नये-नये यथार्थवादी रूपों में लिखा जा रहा है। <br />
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कुछ लोग इसे ‘‘यथार्थवाद की वापसी’’ कह रहे हैं। लेकिन वह कहीं चला नहीं गया था। बस, यथार्थवाद-विरोध के शोर-शराबे में उसकी आवाज कुछ कम सुनायी पड़ रही थी। मगर अब जबकि वह शोर-शराबा कम हुआ है, उसकी आवाज साफ सुनायी पड़ रही है। हाँ, उसका रूप कुछ बदला-बदला और नया-नया-सा दिखता है, क्योंकि इस बीच बदलते रहे यथार्थ के मुताबिक उसका रूप भी बदलता रहा है।<br />
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<span style="font-size: small;"><span style="color: blue;"><b>--रमेश उपाध्याय </b></span></span></div>
ramesh upadhyayhttp://www.blogger.com/profile/05054633574501788701noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1496071818736613491.post-73370642946897239562013-05-20T09:56:00.000-07:002013-05-20T09:56:11.610-07:00आगे की कहानी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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अंग्रेजी में होने वाली आख्यान-चर्चा में ‘नैरेटिव’ (आख्यान) के साथ-साथ ‘स्यूडो-नैरेटिव’ (छद्म-आख्यान) की चर्चा भी होती है, जिसका संबंध प्रायः सोवियत संघ की समाजवादी व्यवस्था का गुणगान करने के लिए लिखी या लिखवायी गयी प्रचारात्मक कहानियों से जोड़ा जाता है। कहा जाता है कि ‘समाजवादी यथार्थवाद’ के नाम पर लिखी या लिखवायी गयी ऐसी कहानियाँ झूठी या गढ़ी हुई कहानियाँ थीं, जिनसे आख्यान का नाम बदनाम हुआ। लेकिन उस चर्चा में उन कहानियों का जिक्र कहीं नहीं होता, जो धर्म, नैतिकता, सदाचार, शिष्टाचार या व्यापार की शिक्षा देने के नाम पर अथवा जनता का मनोरंजन करने के नाम पर लिखी या लिखवायी जाती हैं। ऐसी कहानियाँ रूस की समाजवादी व्यवस्था के जन्म से पहले भी लिखी-लिखवायी जाती थीं और आज भी दुनिया भर में लिखी-लिखवायी जाती हैं, जबकि सोवियत संघ का नाम ही दुनिया के नक्शे से मिट चुका है।<br />
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लेखक को थोड़े-से पैसे या कोई प्रलोभन देकर किसी भी विषय पर कैसी भी कहानी लिखवा लेने वाले लोग केवल फिल्मी दुनिया में नहीं होते, वे पत्रकारिता, पुस्तक-प्रकाशन, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और धर्म तथा राजनीति के क्षेत्रों में भी होते हैं। मगर आख्यानशास्त्रियों का ध्यान या तो इस तरफ जाता ही नहीं, या वे ऐसी कहानियों को ‘छद्म-आख्यान’ की कोटि में नहीं रखते। आजकल मिथकों पर बच्चों और बड़ों के लिए कहानियाँ लिखवाने, चित्रमालाएँ बनवाने, फिल्मों और टी.वी. सीरियलों के लिए मिथक-आधारित कथाएँ-पटकथाएँ लिखवाने का धंधा दुनिया भर में खूब चल रहा है। लेकिन मिथकों को कोई आख्यानशास्त्री ‘छद्म-आख्यान’ नहीं कहता। उलटे, उन्हें ‘पवित्र आख्यान’ कहकर महिमामंडित किया जाता है। उदाहरण के लिए, 1984 में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (बर्कले) से प्रकाशित पुस्तक ‘सेक्रेड नैरेटिव: रीडिंग्स इन दि थियरी ऑफ मिथ’ को देखा जा सकता है, जो संपादक एलन डंडास के इस वक्तव्य से शुरू होती है कि ‘‘मिथक पवित्र आख्यान हैं’’ और पुस्तक में शामिल इक्कीस टिप्पणीकार इसका समर्थन करते हैं!<br />
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आख्यानशास्त्री जानते और मानते हैं कि टी.वी. पर दिखाये जाने वाले प्रायः सभी विज्ञापनों में एक आख्यान होता है--कुछ सेकेंड जितनी छोटी ही सही, एक कहानी होती है--और विज्ञापन का दूसरा नाम प्रचार है। लेकिन इन आख्यानों को न तो कोई छद्म-आख्यान कहता है और न प्रचारात्मक कहानियाँ। इसी तरह धर्म, सभ्यता, संस्कृति, नैतिकता, सदाचार, देशभक्ति या राष्ट्रवाद के नाम पर राजनीतिक प्रचार करने वाली कहानियों को भी कोई प्रचारात्मक नहीं कहता। मगर जनहित, जनवाद, समाजवाद इत्यादि की बात करने वाली कहानियों पर तुरंत ‘प्रचारात्मक’ का ठप्पा लगा दिया जाता है और उन्हें ‘छद्म-आख्यान’ की कोटि में डाल दिया जाता है।<br />
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यह सब देखकर लगता है कि पिछले कुछ वर्षों में पूँजीवादी भूमंडलीकरण के साथ-साथ जिस आख्यानशास्त्र का बोलबाला हुआ है, वह शायद स्वयं ही एक जबर्दस्त प्रचार और छद्म-आख्यान है। ‘महा-आख्यानों’ के अंत की घोषणा करने वाले उत्तर-आधुनिकतावाद से आख्यानशास्त्र का क्या संबंध है, यह जगजाहिर है। और अब यह भी कोई छिपी हुई बात नहीं रह गयी कि उत्तर-आधुनिकतावाद आज के भूमंडलीय पूँजीवाद की विचारधारा है। अतः जब ‘आख्यान’ के आगे ‘छद्म’ और ‘पवित्र’ जैसे विशेषण लगाये जायें, तो इसमें निहित राजनीति और प्रचारात्मकता को समझना कुछ मुश्किल नहीं रहता।<br />
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लेकिन हमारा वर्तमान समय कुछ ऐसा है कि इसमें सच और झूठ या ‘फैक्ट’ और ‘फिक्शन’ में फर्क कर पाना बहुत मुश्किल हो गया है। कारण यह है कि घर में माता-पिता और स्कूल में अपने शिक्षकों से झूठ बोलने वाले बच्चों से लेकर अपने देश की जनता और शेष सारी दुनिया से झूठ बोलने वाले राष्ट्राध्यक्षों तक तमाम लोग झूठी कहानियाँ गढ़ते हैं और मीडिया तो छोटे-छोटे विज्ञापनों से लेकर बड़ी-बड़ी खबरों तक में प्रायः झूठी ही कहानियों (‘स्टोरीज’) का कारोबार करता है।<br />
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उदाहरण के लिए, अमरीका ने इराक में व्यापक विनाशकारी हथियारों के होने की झूठी कहानी गढ़ी और उसके आधार पर किये गये आक्रमण से लाखों लोगों को तबाह करके उस देश पर कब्जा कर लिया। लेकिन इस महा छद्म-आख्यान का विरोध कितने आख्यानशास्त्रियों और उत्तर-आधुनिकतावादियों ने किया? और इस सबमें मीडिया की भूमिका क्या रही, जिसने असंख्य छोटे-छोटे छद्म-आख्यान समाचारों के नाम पर सारी दुनिया में फैलाये?<br />
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साहित्य के बारे में कुछ लोग कहते हैं कि सच कहने के लिए यही एक जगह बची है। लेकिन क्या यह भी सच है? शायद नहीं। साहित्य में भी खूब झूठ बोला जाता है और, बकौल रामविलास शर्मा, कुछ लोग तो झूठ इतनी सफाई और खूबसूरती से बोलते हैं कि उसे सच से भी ज्यादा सुंदर, आकर्षक और प्रभावशाली बना देते हैं। यह चीज आज हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य में ही नहीं, सभी देशों की सभी भाषाओं के जन-विरोधी या मानव-विरोधी साहित्य में देखी जा सकती है।<br />
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ऐसी स्थिति में अगर कोई यह कहे कि वह यथार्थवादी है या यथार्थवादी कहानी लिखता है, तो सयाने लोग उससे शायद यही पूछेंगे कि यथार्थवाद क्या होता है। और निश्चित है कि आज बड़े से बड़े यथार्थवादी के लिए यह बताना मुश्किल हो जायेगा कि यथार्थवाद क्या है। यथार्थवाद के कुछ भिन्न और परस्पर-विरोधी रूप तो पहले के साहित्य में भी देखे जा सकते थे--मसलन, ‘नेचुरलिस्ट’ लोगों का यथार्थवाद, ‘रोमेंटिक रिवोल्यूशनरी’ लोगों का यथार्थवाद, ‘बुर्जुआ क्रिटिकल रियलिज्म’ या ‘सोशलिस्ट रियलिज्म’ में यकीन करने वालों का यथार्थवाद और हम हिंदी वालों का ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’। इन विभिन्न प्रकार के यथार्थवादों के बीच चाहे जितना फर्क, अंतराल या अंतर्विरोध रहा हो, एक चीज समान थी: सच के पक्ष में खड़े होकर झूठ से लड़ना। ज्यादातर मामलों में सबके ‘सच’ और ‘झूठ’ अलग-अलग होते थे, फिर भी एक चीज सबमें समान रहती थी: असत्य के विरुद्ध सत्य के लिए लड़ना, अन्याय के विरुद्ध न्याय के लिए लड़ना, बुराई के विरुद्ध अच्छाई के लिए लड़ना, अनैतिकता के विरुद्ध नैतिकता के लिए लड़ना, भदेसपन के विरुद्ध उदात्तता के लिए लड़ना, कुरूपता के विरुद्ध सुंदरता के लिए लड़ना और बर्बरता के विरुद्ध मनुष्यता के लिए लड़ना। यथार्थवाद वास्तव में यही था, चाहे उसका नाम और रूप कुछ भी हो।<br />
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मगर आज? उत्तर-आधुनिकतावाद ने सारे यथार्थवादों की छुट्टी कर दी है। उसमें सत्य और असत्य के बीच, न्याय और अन्याय के बीच, अच्छे और बुरे के बीच, नैतिक और अनैतिक के बीच, उदात्त और भदेस के बीच, सुंदर और असुंदर के बीच, मनुष्यता और बर्बरता के बीच कोई फर्क ही नहीं किया जाता। उसमें तमाम परस्पर-विरोधी यथार्थ कथाकार के खिलंदड़ेपन या मसखरेपन और हर चीज को तुच्छ तथा हास्यास्पद बताकर खारिज कर देने वाले बड़प्पन के चलते एक जैसे हो जाते हैं! उत्तर-आधुनिकतावादी साहित्यिक सिद्धांत लेखकों को यही सिखाते हैं और उनके अनुसार लिखने वाले लेखक अपनी कहानियों में यही दिखाते हैं!<br />
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शायद इसीलिए आज के अधिकांश फैशनेबल कथा-लेखन को देखकर तरह-तरह के संदेह मन में उठते हैं, जैसेµक्या हम एक विश्वव्यापी विराट् विभ्रम में जी रहे हैं, जहाँ सच, यथार्थ या वास्तविकता को पकड़ पाना और उसे समझकर उसकी कहानी कह पाना असंभव हो गया है? क्या कहानी लिखना ही व्यर्थ हो गया है? क्या इसीलिए बहुत-से कहानीकारों ने कहानी लिखना बंद कर दिया है? क्या इसीलिए नये कहानीकार भी कहानी में कुछ खास नया नहीं कर पा रहे हैं? क्या इसीलिए ऐसा लग रहा है कि कहानी ठहर-सी गयी है और आगे नहीं बढ़ पा रही है?<br />
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लेकिन कहानी हमारे जीवन की एक अनिवार्य आवश्यकता है। मानवीय जीवन जीने के लिए हमें बहुत सारी अमानवीयता से लड़ते-भिड़ते आगे बढ़ना होता है। उस लड़ाई में कहानियाँ कदम-कदम पर हमारा साथ देती हैं। इसीलिए हम कहानियाँ कहते-सुनते हैं, पुरानी कहानियों को नये रूप तथा नये अर्थ देते हैं (तथाकथित पवित्र आख्यानों को भी नयी व्याख्याएँ देकर फिर-फिर रचते हैं) और नयी जरूरतों के मुताबिक नयी कहानियाँ गढ़ते हैं। इसी तरह जिंदगी आगे बढ़ती है, इसी तरह कहानी आगे बढ़ती है।<br />
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1960 के आसपास सारी दुनिया में यह महसूस किया जाने लगा था कि आधुनिकतावाद कहानी का दुश्मन है, क्योंकि वह कहानी को मनुष्य के उपयोग की वस्तु नहीं रहने देना चाहता, बल्कि एक शुद्ध कलात्मक या सौंदर्यशास्त्रीय वस्तु बनाना चाहता है। इसके लिए आधुनिकतावादियों ने कहानी में से आख्यान को निकालने की कोशिश की, जिससे कहानी का कहानीपन खत्म हुआ और वह कहानी ही नहीं रही, ‘एंटी-स्टोरी’ (या हिंदी की ‘अकहानी’) बन गयी। उन्होंने कहानी के जो सौंदर्यशास्त्रीय प्रतिमान बनाये, वे कहानी के ही विरुद्ध थे। इसीलिए उन प्रतिमानों के आधार पर की गयी कहानी-समीक्षा में यह प्रश्न कभी नहीं उठाया गया कि कहानीकार को अपनी कहानी की अंतर्वस्तु जिस समाज से मिलती है, उस समाज के प्रति और जिस भाषा में वह कहानी लिखता है, उस भाषा के प्रति और स्वयं कहानी की साहित्यिक विधा के प्रति भी उसका कोई दायित्व होता है या नहीं!<br />
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हिंदी में ‘जनवादी कहानी’ ने आधुनिकतावादी ‘नयी कहानी’ और ‘अकहानी’ के आंदोलनों की कमियों, कमजोरियों और गलतियों से काफी कुछ सीखा। उसने स्वयं को जनता और जन-आंदोलनों से जोड़ा। कहानी को सामाजिक परिवर्तन का उपकरण बनाने का प्रयास किया। हिंदी कहानी की समृद्ध परंपरा को पहचाना और उसे आगे बढ़ाने का प्रयास किया। उसी के जरिये हिंदी कहानी, जो एकदम सपाट चेहरे वाले ‘वह’ की बकवास हो गयी थी, ऐसे जीते-जागते लोगों की कहानी बनी, जो अपने नाम-धाम और काम से पहचाने जा सकते थे। और उसी के जरिये कहानी में वह कहानीपन वापस आया, जो ‘नयी कहानी’ और ‘अकहानी’ के आधुनिकतावादियों ने लगभग गायब कर दिया था।<br />
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लेकिन देखते-देखते कहानी क्या, दुनिया ही बदल गयी। पूँजीवादी भूमंडलीकरण की प्रचंड आँधी पहले का बहुत कुछ उड़ा ले गयी। यहाँ तक कि सोवियत संघ जैसी ‘महाशक्ति’ भी उसमें ध्वस्त हो गयी और आत्मनिर्भरता की बात करने वाले हमारे देश में निजीकरण तथा उदारीकरण की तेज धूल भरी हवाएँ चलने लगीं, जिनके कारण समाजवाद का सपना तो धूमिल हुआ ही, जनवाद को भी बेकार बताने और बनाने के सिलसिले शुरू हो गये। ‘जनवादी कहानी’ साहित्य में ‘आउट ऑफ फैशन’ हो गयी और ‘जादुई यथार्थवाद’ का नया फैशन चल पड़ा।<br />
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ऐसा लगने लगा, जैसे कल तक जो सामाजिक यथार्थ कहानी में आ रहा था, वह किसी जादू के जोर से अचानक गायब हो गया हो! जैसे भूख, गरीबी, बीमारी, बेरोजगारी, शोषण, दमन, उत्पीड़न आदि की समस्याएँ छूमंतर हो गयी हों! शोषक-उत्पीड़क पूँजीपतियों और भूस्वामियों को मानो आम माफी मिल गयी हो और वामपंथी-जनवादी लोग ही कटघरे में खड़े किये जाने लायक रह गये हों! कल तक हिंदी का जो कहानीकार प्रेमचंद, निराला और मुक्तिबोध के नाम जपता हुआ दबे-कुचले, सताये हुए मजदूरों, किसानों और मध्यवर्गीय मेहनतकश स्त्री-पुरुषों को क्रांति का हिरावल दस्ता समझता था, वह मानो गरीब ‘हिंदीवाला’ से अचानक अमीर अंग्रेजी वाला हो गया और किसी ऊँचे आसन पर बैठकर हिंदी के लेखकों पर हिकारत के साथ हँसने लगा। यथार्थ को समझने और बदलने से संबंधित गंभीर चिंताएँ मानो एकाएक ही बेमानी हो गयीं और खिलंदड़ापन ही सबसे बड़ा साहित्यिक मूल्य बन गया। हिंदी के बहुत-से कहानीकार एकदम पलटकर जनोन्मुख से अभिजनोन्मुख हो गये। वे अपनी कहानियों में अभिजनों की-सी भाषा बोलने लगे तथा अभिजनों के प्रिय विषयों पर चटपटी कहानियाँ लिखने लगे।<br />
<br />
इसी दौरान यह भी हुआ कि हिंदी के ऐसे बहुत-से लेखक, जो अपसंस्कृति, उपभोक्तावाद और बाजारवाद को तथा इन चीजों से समाज को प्रदूषित करने वाले मीडिया को कोसा करते थे, अचानक मीडिया में छाये रहने में ही अपनी कुशलता और सफलता समझने लगे। वे ‘‘जन-जन तक अपनी बात पहुँचाने’’ के लिए ‘‘बड़े संचार माध्यमों का इस्तेमाल’’ करने की बातें करने लगे और लघु पत्रिकाओं के बारे में कहने लगे कि ये लेखकों द्वारा और लेखकों के लिए ही निकाली जाती हैं, आम जनता तक तो पहुँचती नहीं, इसलिए इनमें लिखना व्यर्थ है! अब यह तो वे ही जानें कि मीडिया का इस्तेमाल उन्होंने किया अथवा मीडिया ने उनका, लेकिन उनके द्वारा लिखी जा रही कहानियों पर मीडिया का असर साफ दिखायी पड़ रहा है। मीडिया हर चीज को सनसनीखेज बनाता है, चाहे वह समाचार हो या विचार, लोगों की जिंदगी हो या उनकी कहानी। वह कहानी को सेक्स, हिंसा और स्केंडलबाजी से ही सनसनीखेज बना सकता था और यही उसने किया। विडंबना यह कि कुछ ही हजार छपने वाली कुछ साहित्यिक पत्रिकाएँ भी बड़े संचार माध्यमों की-सी सनसनीखेज पत्रकारिता करने लगीं। उनमें ऐसी कहानियाँ छपने लगीं, जिनकी साहित्यिक गुणवत्ता या मूल्यवत्ता चाहे अत्यंत संदिग्ध हो, पर उनसे किसी तरह की सनसनी पैदा होती हो!<br />
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यहाँ कहानी-समीक्षा एक सार्थक हस्तक्षेप कर सकती थी। लेकिन हिंदी में कहानी की समीक्षा नहीं, सिर्फ चर्चा होती है और चर्चित कहानी को ही अच्छी, श्रेष्ठ, महत्त्वपूर्ण और प्रतिनिधि कहानी मान लिया जाता है। इसलिए हिंदी के कहानीकार चर्चित हो जाने में ही अपनी सफलता समझने लगते हैं। उन्हें कहानी का सार्थक, सोद्देश्य, प्रासंगिक, कलात्मक आदि होना महत्त्वपूर्ण नहीं लगता, महत्त्वपूर्ण लगता है चर्चित होना। और चतुर कहानीकार जानते हैं कि चर्चा कैसी कहानियों की होती है तथा किस प्रकार करायी जाती है। लेकिन ऐसी प्रायोजित चर्चाओं से न तो कहानी आगे बढ़ती है, न कहानी-समीक्षा। आगे बढ़ने के लिए बदलती हुई वर्तमान परिस्थितियों को अतीत और भविष्य के संदर्भ में समझना तथा उनके बीच से आगे जाने का रास्ता निकालना जरूरी है।<br />
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आज के हिंदी साहित्य में परिवर्तन तो बहुत हो रहे हैं, लेकिन हर तरह के परिवर्तन विकास और प्रगति के सूचक नहीं होते। अतः उनकी गंभीर समीक्षा अत्यंत आवश्यक है। उदाहरण के लिए, पिछले कुछ ही वर्षों में हमारी साहित्यिक शब्दावली में जो परिवर्तन आये हैं, उन पर विचार करें। साहित्य में तो कोई आंदोलन रहा ही नहीं, जन-आंदोलनों या सामाजिक आंदोलनों के प्रति भी हमारा रवैया किस तरह बदल गया है, इसे हम अपनी साहित्यिक शब्दावली के स्तर पर स्पष्ट देख सकते हैं। ‘आंदोलन’ देखते-देखते ‘विमर्श’ बन गये हैं। स्त्री आंदोलन की जगह स्त्री विमर्श! दलित आंदोलन की जगह दलित विमर्श! आंदोलन की कहानी लिखने के लिए लेखक को आंदोलनकारियों के बीच जाना पड़ता था, उनके सुख-दुख और संघर्ष में शामिल होना पड़ता था, कुछ कष्ट उठाने पड़ते थे, कुछ त्याग और बलिदान करने के लिए भी तैयार रहना पड़ता था; जबकि विमर्श मंचों पर बोलकर या घर में अकेले बैठकर लिखते हुए भी किया जा सकता है। अतः विमर्शों वाली कहानी जन-आंदोलनों से ही नहीं, जन-जीवन से भी कटती जा रही है।<br />
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इसी तरह ‘वर्ग’ की जगह ‘जाति’ की बात होने लगी है। ‘जनता’ की जगह ‘अस्मिता’ की बात होने लगी है। ‘सामाजिक संघर्ष’ की जगह ‘पहचान के संकट’ की बात होने लगी है। ‘मुक्ति’ की जगह ‘मान’ की बात होने लगी है। लेकिन इन परिवर्तनों से हासिल क्या हो रहा है? क्या वर्ग को भुलाकर जाति की बात करने से गरीब दलितों का शोषण, दमन और उत्पीड़न बंद हो जायेगा? क्या अलग-अलग अस्मिताओं की बात करने से जनता की समस्याएँ हल हो जायेंगी? क्या अपनी अस्तित्व-रक्षा के लिए सामाजिक संघर्ष करने वालों का अस्तित्व अपनी कोई अलग पहचान बना लेने से बच जायेगा? क्या ‘मुक्ति’ के लिए संघर्ष करने की जगह ‘मान’ की माँग करने से स्त्रियों और दलितों को समाज में आजादी और बराबरी के अधिकार मिल जायेंगे?<br />
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यदि नहीं, तो हिंदी कहानी और कहानी-समीक्षा में कहीं कोई ऐसी रचनात्मक या आलोचनात्मक पहल क्यों नहीं हुई, जिससे पता चलता कि सामाजिक समस्याओं के प्रति हमारे दृष्टिकोण में यह भारी परिवर्तन अचानक कैसे और क्यों हो गया? मसलन, क्या स्त्रियों और दलितों की शोषण, दमन और उत्पीड़न से मुक्ति हो चुकी थी कि अब सिर्फ उनके मान-सम्मान का सवाल हल करना ही बाकी रह गया था? यदि नहीं, तो क्या उनकी रोजी-रोटी के सवाल से ज्यादा जरूरी उनके मान-सम्मान का सवाल था? समझ में नहीं आता कि हिंदी की कहानी और कहानी-समीक्षा ने इन बेहद जरूरी सवालों के जवाब खोजने की कोई कोशिश किये बगैर इन परिवर्तनों को क्यों और किस आधार पर स्वीकार कर लिया!<br />
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बीसवीं सदी के आठवें दशक में जब हिंदी में प्रगतिशील और जनवादी कहानी का एक नया दौर शुरू हुआ था, ऐसे सवालों पर व्यापक विचार-विमर्श हुआ था, जिससे कहानी-लेखन पर छायी हुई बहुत-सी वैचारिक धुंध साफ हुई थी और नयी सृजनशीलता की दिशाएँ स्पष्ट हुई थीं। उस समय की कहानी ‘नयी कहानी’, ‘अकहानी’, ‘समांतर कहानी’ आदि के नारों और फार्मूलों में कैद थी और कहानीकार ‘अपने जिये-भोगे’ को ‘स्वानुभूत सत्य’ के रूप में व्यक्त करने को ही कहानी लिखना समझते थे। ये नारे और फार्मूले अब बेकार हो चुके थे, अतः उस समय की कहानी से आगे की कहानी की बातें होने लगी थीं। उदाहरण के लिए, 1976 में हिंदी कहानी का पुनर्मूल्यांकन करने के लिए दिल्ली में आयोजित एक संगोष्ठी में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने आगे की कहानी के लिए एक पंचसूत्री कार्यक्रम प्रस्तुत किया था :<br />
<br />
1. पश्चिमी फैशनपरस्त अंधानुकरण से बचो।<br />
2. शिल्प को आतंक मत बनाओ।<br />
3. उनके लिए भी लिखो जो अर्द्धशिक्षित हैं और उनके लिए भी जो अशिक्षित हैं, जिन्हें तुम्हारी कहानी पढ़कर सुनायी जा सके।<br />
4. इस देश की तीन-चौथाई जनता की सोच-समझ को वाणी दो, जो वह खुद नहीं कह सकती। और,<br />
5. कहानी को लोककथाओं और ‘फेबल्स’ की सादगी की ओर मोड़ो, उनके विन्यास से सीखो, और उसे आम आदमी के मन से जोड़ो।<br />
<br />
जाहिर है, ये बातें इसीलिए कही गयी थीं कि उस समय की हिंदी कहानी में पश्चिमी फैशनपरस्त अंधानुकरण हो रहा था, शिल्प को आतंक बनाया जा रहा था, कहानी केवल शिक्षितों के लिए लिखी जा रही थी, उसमें देश की तीन-चौथाई जनता की सोच-समझ को वाणी नहीं दी जा रही थी और कहानी ऐसे जटिल विन्यास वाली कहानी बनती जा रही थी कि वह आम आदमी के मन से नहीं जुड़ पा रही थी। इन्हीं चीजों के विरुद्ध ‘जनवादी कहानी’ का आंदोलन शुरू हुआ था, जो उस समय के हिसाब से ‘आगे की कहानी’ थी।<br />
<br />
क्या आज की हिंदी कहानी में, कुछ बदले हुए रूपों में, कमोबेश यही सब फिर से नहीं हो रहा है? ध्यान से देखें, तो लगेगा कि न केवल हो रहा है, बल्कि और ज्यादा बुरे तथा विकृत रूपों में हो रहा है।<br />
<br />
जाहिर है कि ‘जनवादी कहानी’ के बाद हिंदी कहानी उस कार्यक्रम के अनुसार आगे नहीं बढ़ी। इसके विपरीत वह आगे बढ़ी ऐसी दो दिशाओं में, जो इस कार्यक्रम से कहानी को दूर ले जाने वाली थीं। एक दिशा थी ‘‘पश्चिमी फैशनपरस्त अंधानुकरण’’ तथा ‘‘शिल्प को आतंक बनाने’’ वाले कहानी-लेखन की दिशा, जिसमें आगे बढ़कर हिंदी कहानी जादुई यथार्थवादी और उत्तर-आधुनिकतावादी हुई। इस दिशा में जाकर हिंदी कहानी जनोन्मुख होने के बजाय बड़ी बेशर्मी से अभिजनोन्मुख हुई और ‘‘आम आदमी के मन से जुड़ने’’ के बजाय खास आदमियों के मन को मोहने की आकांक्षा से किये जाने वाले बौद्धिकता के व्यापार में बदल गयी। दूसरी दिशा ऊपरी तौर पर हिंदी कहानी को जनोन्मुख बनाने वाली लगती थी, जिसमें आगे बढ़कर हिंदी कहानी स्त्रीवादी और दलितवादी विमर्शों की कहानी बनी। लेकिन वास्तव में यह दिशा कहानी को सेक्स, हिंसा और जातिवादी लेखन के फार्मूलों की ओर ले गयी और कहानी जनोन्मुख होने के बजाय बाजारोन्मुख हो गयी।<br />
<br />
‘जनवादी कहानी’ से पहले के फैशनपरस्त कहानीकार पश्चिमी फैशनों का अनुकरण करते थे, तो कम से कम पश्चिम की चीजों को पढ़ते तो थे। आगे चलकर यह हुआ कि उस अनुकरण का ही अनुकरण करते हुए बहुत-सी कहानियाँ लिखी जाने लगीं। ‘जनवादी कहानी’ के बाद शिल्प को पुनः आतंक बनाया जाने लगा। अशिक्षितों और अर्द्धशिक्षितों की तो बात ही क्या, शिक्षितों में भी केवल कुछ प्रभुत्वशाली संपादकों तथा आलोचकों को ध्यान में रखकर कहानियाँ लिखी जाने लगीं। जनता की सोच-समझ को वाणी देने की बात दूर, बहुत-से कहानीकार तो जन, जनता, जनवाद, समाजवाद आदि के नाम से ही बिदकने लगे और स्वयं ‘जन’ होकर भी ‘अभिजनों’ की-सी सोच-समझ के साथ और उन्हीं के लिए कहानी लिखने लगे। ‘सादगी’ या ‘आम आदमी के मन’ से तो कहानी का मानो कोई संबंध ही नहीं रहा। आयातित उच्च प्रौद्योगिकी के साथ आयी और अंधानुकरण के रूप में अपना ली गयी पश्चिमी जीवन-शैली में सादगी कहाँ?<br />
<br />
ऐसी स्थिति में आगे बढ़ने के लिए कहानीकारों को यह सोचना होगा कि आज के पूँजीवाद का विकल्प क्या हो सकता है। आज के वैश्विक पूँजीवाद का विकल्प वैश्विक समाजवाद ही हो सकता है। अतः सोचना यह है कि हम उसकी दिशा में कैसे आगे बढ़ें।<br />
<br />
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने आगे की कहानी का जो पंचसूत्री कार्यक्रम दिया था, वह अभी अप्रासंगिक नहीं हुआ है। लेकिन आज की नयी परिस्थितियों में वह अपर्याप्त अवश्य लगता है। इसलिए मैं उसमें अपनी तरफ से पाँच सूत्र और जोड़ना चाहता हूँ :<br />
<br />
1. चालू विमर्शों की कहानी लिखने से बचो।<br />
2. बदलते हुए यथार्थ को देखो और यथार्थ को बदलने के लिए लिखो।<br />
3. दुनिया भर के उत्कृष्ट कहानी-लेखन से सीखो, पर अपनी कथा परंपरा में और अपनी जनता के लिए लिखो।<br />
4. साहित्य की बदली हुई शब्दावली को आँख मूँदकर मत अपनाओ।<br />
5. वैश्विक पूँजीवाद के विरुद्ध वैश्विक समाजवाद का स्वप्न साकार करने के लिए अच्छी कहानियाँ बेखटके गढ़ो।<br />
<br />
<b><span style="color: blue;">--रमेश उपाध्याय</span></b><br />
<br />
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ramesh upadhyayhttp://www.blogger.com/profile/05054633574501788701noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-1496071818736613491.post-70391676429200761252013-03-29T10:26:00.000-07:002013-03-29T10:26:21.338-07:00रमेश उपाध्याय की नयी किताब ‘मेरा मुझ में कुछ नहीं’ पर विचार-गोष्ठी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg64OYzJ-QRXs-tCsUIn9G42ROS10v3saLRQB_Y-rOlZCT6RdJp-31omBFWqReOA-4KQGo3L7zOp_guSYVmvN3Tv5_lSdHJM3CWjj04MwfhvmTB_3f4e2awvtkuCEEkOiG1EnF-28ulX9u9/s1600/tilal-a+copy.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg64OYzJ-QRXs-tCsUIn9G42ROS10v3saLRQB_Y-rOlZCT6RdJp-31omBFWqReOA-4KQGo3L7zOp_guSYVmvN3Tv5_lSdHJM3CWjj04MwfhvmTB_3f4e2awvtkuCEEkOiG1EnF-28ulX9u9/s200/tilal-a+copy.jpg" width="144" /></a></div>
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<br /><b><span style="background-color: red;"><span style="font-size: small;"><span style="background-color: white;"><span></span><span style="color: red;">‘‘नये लेखकों के लिए तो ‘राइटर्स कंपेनियन’ या लेखक-सचहर की तरह की किताब है यह--पठनीय, संग्रहणी<span></span>य<span></span> और बहुत दूर तक आचरणीय भी।’’--विश्वनाथ<span></span> त्रिपाठी</span></span></span><span style="color: red;"><span style="background-color: white;"><span></span></span></span></span></b><span style="background-color: white;"><br /></span><br />बहुमुखी साहित्यिक प्रतिभा तथा बहुआयामी व्यक्तित्व वाले लेखक और ‘कथन’ के संस्थापक संपादक रमेश उपाध्याय के 71वें जन्मदिन पर उनकी नयी किताब ‘मेरा मुझ में कुछ नहीं’ का लोकार्पण 1 मार्च, 2013 को नयी दिल्ली में गांधी शांति प्रतिष्ठान के सभागार में संपन्न हुआ। इस अवसर पर ‘कथन’ पत्रिका और शब्दसंधान प्रकाशन के संयुक्त प्रयास से एक विचार-गोष्ठी का आयोजन भी किया गया, जिसमें सुप्रसिद्ध साहित्यकारों ने किताब पर तथा उसके बहाने रमेश उपाध्याय के कृतित्व एवं व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों पर अपने विचार व्यक्त किये।</div>
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<br /></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhMB0NRedqIv-nL8MYdKT-Cjj-aC5wK0-MT7ej-9cQc-FkrL_LoWgJ8Ybmswk3qmBo8HSUoROyIhB5J4WpJm6xHBCliGzrS2VDNzhRCaDyIo5zp8YVsenrVFijD4IvLHmqa1XSaqA6iJb55/s1600/lokarpanf.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="172" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhMB0NRedqIv-nL8MYdKT-Cjj-aC5wK0-MT7ej-9cQc-FkrL_LoWgJ8Ybmswk3qmBo8HSUoROyIhB5J4WpJm6xHBCliGzrS2VDNzhRCaDyIo5zp8YVsenrVFijD4IvLHmqa1XSaqA6iJb55/s320/lokarpanf.jpg" width="320" /></a></div>
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<br /></div>
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समारोह के अध्यक्ष थे विश्वनाथ त्रिपाठी और मुख्य अतिथि मैनेजर पांडेय। वक्ता थे कवि लीलाधर मंडलोई, कथाकार अल्पना मिश्र, व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय, युवा आलोचक राकेश कुमार और विज्ञान लेखक देवेंद्र मेवाड़ी। ‘कथन’ की संपादक संज्ञा उपाध्याय ने स्वागत वक्तव्य दिया और कार्यक्रम का संचालन युवा आलोचक और ‘बनास जन’ के संपादक पल्लव ने किया। </div>
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</div>
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</div>
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiPx4MAYzWZkUC_NenYiPGrT3fyi7JPCMmQK7k_xeh00BsnVMylJgBi3CY7VTCvdYA9VT7c5h3MhldxkolSjS_ug1e3fIJ66S_ZuE9GgnUqOFe3qird270NRCJW-YTiZQ9xQfbAcUIJ2g8r/s1600/lok-9.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="174" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiPx4MAYzWZkUC_NenYiPGrT3fyi7JPCMmQK7k_xeh00BsnVMylJgBi3CY7VTCvdYA9VT7c5h3MhldxkolSjS_ug1e3fIJ66S_ZuE9GgnUqOFe3qird270NRCJW-YTiZQ9xQfbAcUIJ2g8r/s200/lok-9.jpg" width="200" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><b>पल्लव </b></td></tr>
</tbody></table>
<div style="text-align: justify;">
<br />पल्लव ने रमेश उपाध्याय को जन्मदिन की बधाई देते हुए कहा कि ‘मेरा मुझ में कुछ नहीं’ आत्मकथा नहीं है, किंतु ऐसी आत्मकथात्मक कृति है, जिसे पढ़कर हम रमेश उपाध्याय के विपुल, वैविध्यपूर्ण और विचारोत्तेजक लेखन, ‘कथन’ जैसी महत्त्वपूर्ण पत्रिका तथा ‘आज के सवाल’ जैसी अद्भुत पुस्तक शृंखला के संपादन की विशिष्टता के साथ-साथ उनके अध्ययन, अध्यापन, साहित्यिक आंदोलन, लेखक-संगठन आदि विभिन्न क्षेत्रों में संलग्न रहने के दौरान किये गये गंभीर मनन और चिंतन की व्यापकता को समझ सकते हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />पुस्तक पर हुई विचार-गोष्ठी से पहले रमेश उपाध्याय के दो मित्रों ने आत्मीयतापूर्ण संस्मरण सुनाते हुए उनके व्यक्तित्व की विशेषताओं की चर्चा की। </div>
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</div>
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<br /></div>
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhFNalnkxu1GPrF5eDZhyf6DS1bSLHhAl7v2L9pbPQPg2t9Dzhsjwpp-6jqkURz1up7cUWWRmTxohscXP0e87GrA5bOplI0hFI_PZ4feuKCManNt7TaTOFue7is05yZKQRsh9tkGNcx0Ybf/s1600/lok-5.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="140" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhFNalnkxu1GPrF5eDZhyf6DS1bSLHhAl7v2L9pbPQPg2t9Dzhsjwpp-6jqkURz1up7cUWWRmTxohscXP0e87GrA5bOplI0hFI_PZ4feuKCManNt7TaTOFue7is05yZKQRsh9tkGNcx0Ybf/s200/lok-5.jpg" width="200" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><b>प्रेम जनमेजय</b></td></tr>
</tbody></table>
<div style="text-align: justify;">
व्यंग्यकार तथा ‘व्यंग्य यात्रा’ के संपादक प्रेम जनमेजय रमेश उपाध्याय के पड़ोसी हैं और 1973 से लेकर 2004 में रमेश उपाध्याय के रिटायर होने तक दिल्ली विश्वविद्यालय में उनके साथी प्राध्यापक रहे हैं। उन्होंने अनेक उदाहरण देते हुए बताया कि रमेश उपाध्याय अच्छे मित्र, अच्छे इंसान, अच्छे लेखक, अच्छे संपादक इत्यादि होने के साथ-साथ बहुत अच्छे शिक्षक भी हैं, जिन्होंने न केवल अपने छात्रों को, बल्कि साथ के शिक्षकों को भी कई प्रकार से शिक्षित किया है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
</div>
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</div>
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiq269cs2iSx98ffI_iL2Jifh8HlSBFQ2pSey_SGipXIqzeRt3HWKw4Lch6SlHKp2SxU4zCFepXIfU3UN6Ar43sMlvhCvflaMBhyaRMKOuw2zPG6Ws28BTVTacNHy4MRbVk2Zxpam5aMdDy/s1600/lok-7.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="145" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiq269cs2iSx98ffI_iL2Jifh8HlSBFQ2pSey_SGipXIqzeRt3HWKw4Lch6SlHKp2SxU4zCFepXIfU3UN6Ar43sMlvhCvflaMBhyaRMKOuw2zPG6Ws28BTVTacNHy4MRbVk2Zxpam5aMdDy/s200/lok-7.jpg" width="200" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><b>देवेन्द्र मेवाड़ी</b></td></tr>
</tbody></table>
<div style="text-align: justify;">
<br />प्रसिद्ध विज्ञान लेखक देवेंद्र मेवाड़ी ने उस समय के संस्मरण सुनाये, जब 1965 में रमेश उपाध्याय दिल्ली में ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ के संपादकीय विभाग में थे और जब 1969 में उन्होंने अजमेर से ‘ऊर्जा’ नामक विज्ञान पत्रिका निकालने की योजना बनायी। उन्होंने उस समय का रमेश उपाध्याय का लिखा एक पत्र भी पढ़कर सुनाया।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br />इसके बाद पुस्तक पर विचार-गोष्ठी हुई। उसमें दिये गये वक्तव्य क्रमशः किंचित् संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत किये जा रहे हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
</div>
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjaJOfAEhRtSeF_tOYC8s90YLSpdbl59XPOzIe26xIgz9GkQfrLvlmixDKdaeJINsuAgDLW4EgVSZ4NdD1PHlTH3m1BQS2ANAruOKp-472JpCmLbNpf4XC-45pBu647chOn9LFJ2wRTWNR5/s1600/lok-3.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjaJOfAEhRtSeF_tOYC8s90YLSpdbl59XPOzIe26xIgz9GkQfrLvlmixDKdaeJINsuAgDLW4EgVSZ4NdD1PHlTH3m1BQS2ANAruOKp-472JpCmLbNpf4XC-45pBu647chOn9LFJ2wRTWNR5/s200/lok-3.jpg" width="193" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><b>लीलाधर मंडलोई</b></td></tr>
</tbody></table>
<div style="text-align: justify;">
<span style="background-color: blue;"><span><span style="background-color: white;"><span></span></span></span></span><span style="color: blue;"><b>लीलाधर मंडलोई</b></span><br />रमेश जी मेरे अग्रज हैं और बहुत बड़े साहित्यकार हैं। आज उनकी इकहत्तरवीं सालगिरह है। इसलिए सबसे पहले रमेश जी को बहुत-बहुत मुबारकबाद। इन्होंने जो एक भरा-पूरा साहित्यिक और सांस्कृतिक जीवन जिया है, उस पर हर किसी को रश्क होना चाहिए। इन्होंने जो जीवन जिया है, अपने दम पर जिया है; जो काम किया है, अपनी शर्तों पर किया है। यही वजह है कि इनका जीवन और इनका काम अपने-आप में एकदम अलग है। आज इनकी जिस किताब पर यहाँ चर्चा होने जा रही है, उससे इनका जीवन और इनका काम, दोनों एक अलग ही अंदाज में, एक अलग ही तेवर के साथ सामने आते हैं। इस किताब में एक अध्याय है ‘मनचाहे ढंग से मनचाहा काम’। मुझे लगता है कि यह इस किताब का नाम भी हो सकता था, क्योंकि यह किताब भी इनका मनचाहे ढंग से किया गया मनचाहा काम है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />इस किताब को पढ़कर मन में प्रश्न उठता है कि इसकी विधा या इसका रूपबंध क्या है? यह आत्मकथा नहीं है और क्यों नहीं है, इसका कारण किताब की भूमिका में बताया गया है। इसमें कुछ आत्मकथात्मक लेख हैं, कुछ संस्मरण हैं, कुछ साहित्यिक निबंध हैं और कुछ समय-समय पर दिये गये रमेश जी के व्याख्यान भी हैं। लेखक की ओर से इन सब चीजों को ‘आत्मकथात्मक एवं साहित्यिक विमर्श’ कहा गया है। लेकिन इस किताब का कोई मुकम्मल रूपबंध नहीं है। इसमें एक तरह की आजादखयाली है, जिसके चलते यह किताब दूसरी किताबों से अलग है। इसमें संकलित सब तरह की रचनाओं में लेखक ‘मैं’ के रूप में उपस्थित है और ऐसा लगता है कि उनमें लेखक ने स्वयं को तरह-तरह से ‘इनवेंट’ किया है और अपने पचास वर्षों के लेखकीय जीवन में रचनात्मक और वैचारिक स्तर पर जो अर्जित किया है, वह सरमाया इस किताब में रख दिया है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />लेकिन मेरे विचार से इस किताब के आत्मकथात्मक हिस्से ज्यादा मानीखेज हैं। उदाहरण के लिए, पुस्तक का पहला ही अध्याय, जिसका शीर्षक है ‘अजमेर में पहली बार’, बहुत ही मार्मिक है, बहुत ही अर्थ भरा है। अगर यह पूरी पुस्तक इसी रूप में लिखी गयी होती, तो यह एक ‘एपिकल’ पुस्तक होती। जब मैं पहले अध्याय पर ही निसार हो गया, तो पूरी पुस्तक अगर इसी तरह लिखी गयी होती, तो कितना अच्छा होता। मेरे विचार से तब यह एक अद्भुत पुस्तक होती। इसका अंतिम अध्याय है ‘अजमेर में दूसरी बार’। पहला अध्याय पढ़कर मेरी उत्कंठा जागी और मैं सीधे अंतिम अध्याय पर चला गया। लेकिन वह आत्मकथात्मक रूप में नहीं, पल्लव से की गयी बातचीत या साक्षात्कार के रूप में है। साक्षात्कार की अपनी एक सीमा होती है। उसमें निजता, आत्मीयता, लेखक का जीवन-संघर्ष, उसके लेखकीय व्यक्तित्व का निर्माण वगैरह उस तरह नहीं आ सकता था, जिस तरह पहले अध्याय वाले आत्मकथात्मक रूप में आया है। पहले अध्याय के रूपबंध में एक जादू है, एक तिलिस्म है, जिसमें आप खो जाते हैं। वह जादू व्याख्यान, साक्षात्कार, निबंध और आलोचना जैसे रूपबंधों में पैदा नहीं हो पाता। मगर क्या किया जाये, रमेश जी का अपना तेवर है, मनचाहे ढंग से मनचाहा काम करने की उनकी अपनी एक खास अदा है! </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />फिर भी, ध्यान से देखें, तो दूसरी तरह के रूपबंधों वाले अध्यायों में भी उनका ‘मैं’ बोलता है। वे आत्मकथात्मक न होकर भी आत्मकथात्मक हैं और उनमें उनके ‘मैं’ का होना कोई दोष नहीं, बल्कि बहुत बड़ा गुण है। हरिशंकर परसाई की बहुत-सी रचनाएँ ‘मैं’ वाले रूप में लिखी गयी हैं, लेकिन वे सारे ‘मैं’ अलग हैं और उन सबको इकट्ठा कर दिया जाये, तो उनका लेखन आजादी के बाद के समय का एक पूरा ‘एपिक’ बन जाता है। अगर इस किताब की गैर-आत्मकथात्मक रचनाओं में मौजूद सारे ‘मैं’ मिला दिये जायें, तो तकरीबन ऐसा ही कुछ हो जायेगा। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />उदाहरण के लिए, इस किताब का एक अध्याय है ‘ईश्वर के बिना जीना’। उसमें आस्तिकता, नास्तिकता, धर्म और नैतिकता पर एक लंबी वैचारिक बहस है। फिर भी उसमें लेखक का अपना जीवन-संघर्ष और वैचारिक संघर्ष दिखायी देता रहता है। इसी तरह एक अध्याय है ‘मेरी नाट्यलेखन यात्रा’ और एक अध्याय है ‘प्रेमचंद को हम बार-बार पहली बार पढ़ते हैं’। इन तीनों अध्यायों में जो ‘मैं’ है, वह कमाल का ‘मैं’ है। वह बात शुरू करता है प्रथम पुरुष के रूप में, लेकिन चला जाता है अन्य पुरुष की तरफ और रचना आत्मकथात्मक होकर भी कुछ और बन जाती है या कुछ और होकर भी आत्मकथात्मक बनी रहती है। यहाँ रमेश जी दूसरे लेखकों से एकदम अलग दिखायी देते हैं और मुझ जैसा उनका पाठक उनका सहयात्री होकर उनके साथ-साथ चलने लगता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />यह शायद आज के साहित्य की विशेषता है कि रचना के रूपबंध में अनेक विधाओं की बहुत तीव्र आवाजाही हो रही है। आत्मकथा, संस्मरण और डायरी जैसे आत्मकथात्मक रूपों में निबंध, आलोचना, बहस, व्याख्यान और यात्रा-आख्यान, स्मृति-व्याख्यान जैसे रूप घुल-मिल जाते हैं। मतलब यह कि साहित्यिक विधाओं की सीमाएँ बहुत अशांत हो गयी हैं। इतनी अशांत कि मानो किसी एक विधा में लिखना संभव ही नहीं रहा। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />रमेश जी की इस किताब को पढ़ते हुए मुझे लगा कि इसमें एक ही रचना में अनेक विधाएँ मौजूद हैं। परसाई के लेखन में यह विशेषता थी और रमेश जी के लेखन में परसाई से इनकी निकटता इस रूप में भी दिखायी पड़ती है कि ये बीच-बीच में बड़ा बढ़िया व्यंग्य भी करते चलते हैं। गंभीर विचार और बहस करते हुए रमेश जी बीच- बीच में हास्यजनक उक्तियों या लतीफों का प्रयोग भी करते हैं। आलोचना करने या दूसरों की खबर लेने का उनका अपना तेवर है, चाहे वह ‘सवाल मुकम्मल कहानी का’ में नामवर जी की आलोचना करने का हो, या ‘प्रेमचंद को लाठी बनाना’ में गिरीश मिश्र की खबर लेने का। यह चीज पुस्तक के पाठ को रोचक बनाती है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;"><b>राकेश कुमार </b></span></div>
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgM5Mimqge381BetiiKcpXYvhRGRoburK7kCIxjgAd7PEf4mO0MgAY8WBldMR-byB6WcJATloGUkNyCahsHpSVVKcGUerz0bDaGhzt7UspUYrAHsvonDGTus92plmEVW46YbA0J36Lvn_Pd/s1600/lok-4.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="187" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgM5Mimqge381BetiiKcpXYvhRGRoburK7kCIxjgAd7PEf4mO0MgAY8WBldMR-byB6WcJATloGUkNyCahsHpSVVKcGUerz0bDaGhzt7UspUYrAHsvonDGTus92plmEVW46YbA0J36Lvn_Pd/s200/lok-4.jpg" width="200" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><b>राकेश कुमार</b></td></tr>
</tbody></table>
<div style="text-align: justify;">
मैं इस किताब के शिल्प या रूपबंध की बात नहीं करूँगा, क्योंकि इस पर काफी चर्चा हो चुकी है। लेकिन मेरा मानना है कि यह किताब आत्मकथा नहीं, आत्मकथात्मक है, तो यह इसकी बहुत बड़ी विशेषता है। इसमें जो ‘आत्मकथात्मक एवं साहित्यिक विमर्श’ हैं, उन्हें ‘आत्मकथात्मक’ और ‘साहित्यिक’ दो भिन्न वर्गों में बाँटकर नहीं देखा जाना चाहिए। इसमें संकलित सभी रचनाएँ आत्मकथात्मक हैं और साथ ही साहित्यिक भी। इसके साहित्यिक विमर्श भी आत्मकथात्मक विमर्शों के ही विस्तार हैं। उनमें उपाध्याय जी अपने अनेक रूपों में हमारे सामने आते हैंµएक संघर्षशील युवा से लेकर एक स्थापित लेखक, आलोचक, संपादक आदि विभिन्न रूपों मेंµऔर इनके इन विभिन्न व्यक्तित्वों से साक्षात्कार करते समय किताब का शीर्षक ‘मेरा मुझ में कुछ नहीं’ बराबर याद आता रहता है, जिसमें अहंकार नहीं, बल्कि विनम्र स्वीकार है। आत्मकथाओं में जाने-अनजाने एक अहंकार का भाव प्रायः आ ही जाता है। इस किताब में वह नहीं है। इस किताब का समर्पण हैµ‘‘उन सबके नाम, जिन्होंने मुझे वह बनाया, जो मैं हूँ’’ और भूमिका में लेखक ने लिखा है : </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘मुझे जानने वाले कुछ लोग मुझे ‘सेल्फमेड मैन’ कहते हैं। मैं इससे इनकार करता हूँ। मैंने महान शिक्षाशास्त्री पाओलो फ्रेरे की एक किताब का अनुवाद किया है ‘उत्पीड़ितों का शिक्षाशास्त्र’। किताब की भूमिका लिखते समय मैंने उनका एक कथन उद्धृत किया था कि ‘‘दुनिया में कोई व्यक्ति अपना निर्माण स्वयं नहीं करता। शहर के जिन कोनों में ‘स्वनिर्मित’ लोग रहते हैं, वहाँ बहुत-से अनाम लोग छिपे रहते हैं।’’ मेरा निर्माण प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से दुनिया के उन असंख्य लोगों ने किया है, जिन्होंने मुझे जिंदगी दी है, जिंदगी से प्यार करना सिखाया है, दुनिया को बेहतर और खूबसूरत बनाने के रास्ते पर चलना सिखाया है और इस रास्ते की प्रतिकूलताओं से लड़ने में मेरा साथ निभाया है। उन्होंने ही मुझे वह बनाया है, जो मैं हूँ। इसलिए मैं यह किताब उन सबको कबीर के शब्दों में यह कहते हुए समर्पित करता हूँ कि ‘मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सब तेरा। तेरा तुझको सौंपते, क्या लागै है मेरा।’ ’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />इस किताब की भूमिका में ‘निजी’ और ‘सार्वजनिक’ में भेद करते हुए और केवल ‘निजी’ पर जोर देकर लिखी जाने वाली आत्मकथा लिखने से इनकार किया गया है। उपाध्याय जी दोनों में भेद नहीं करते। इस किताब को पढ़ते हुए हम पाते हैं कि उपाध्याय जी का ‘निजी’ इनके ‘सार्वजनिक’ को शर्मिंदा नहीं करता, बल्कि उसे गौरवान्वित करता है। यहाँ इनके जीवन के निजी और सार्वजनिक दोनों पक्ष मानो धूप में चमकते दिखायी देते हैं। एक ऐसी धूप में, जो इनके निजी को उद्भासित करती है और सार्वजनिक को आत्मीयता की ऊष्मा प्रदान करती है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />उदाहरण के लिए, पुस्तक का पहला अध्याय ‘अजमेर में पहली बार’ आत्मकथात्मक है, जबकि ‘ईश्वर के बिना जीना’ शीर्षक अध्याय ईश्वर के अस्तित्व, आस्तिकता और नास्तिकता के सवाल, धर्म और नैतिकता के संबंध इत्यादि को सामने लाने वाला गंभीर वैचारिक विमर्श है। लेकिन दोनों में एक संबंध-सूत्र है, जो उपाध्याय जी के ‘निजी’ को इनके ‘सार्वजनिक’ से जोड़ता है। पहले अध्याय में इन्होंने अपने बारे में लिखा है : </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘1960 के अप्रैल महीने की एक सुहावनी सुबह है। अजमेर के रेलवे स्टेशन पर अठारह साल का एक लड़का गाड़ी से उतरता है। शर्ट-पैंट और चप्पलें पहने हुए। साथ में सिर्फ एक झोला है, जिसमें उसके एक जोड़ी कपड़े हैं और कुछ कागज। लड़का स्टेशन से बाहर आता है। सामने ही घंटाघर है, जिसकी घड़ी में लगभग साढ़े आठ बजे हैं। वहीं कुछ हलवाइयों, चाय वालों, पनवाड़ियों आदि की दुकानें हैं। लड़का जबसे यात्रा पर निकला है, उसने कुछ नहीं खाया है। उसे जोर की भूख लगी है। वह सिर्फ दस रुपये लेकर चला था, जिनमें से रेल का टिकट और सिगरेट का पैकेट खरीदने के बाद अब उसकी जेब में इतने ही पैसे बचे हैं कि वह नाश्ता कर सके और सिगरेट खरीद सके। ‘जो होगा, देखा जायेगा’ के भाव से सिर झटककर लड़का आगे बढ़ता है। सड़क पार करके एक हलवाई की दुकान पर पहुँचता है। दुकान के सामने पड़ी बेंच पर बैठकर मजे से नाश्ता करता है। पनवाड़ी से सिगरेट खरीदता है और बिलकुल खाली जेब हो जाता है।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />यह खाली जेब हो जाना उपाध्याय जी के आत्मविश्वास का सूचक तो है ही कि ये अपनी मेहनत और अपनी प्रतिभा से एक नितांत अजनबी शहर में भी अपनी जगह बना लेंगे, दूसरे मनुष्यों पर विश्वास का सूचक भी है। यही आत्मविश्वास और दूसरे मनुष्यों पर विश्वास ‘ईश्वर के बिना जीना’ में इस प्रकार सामने आता है : </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘लेकिन मैं उस समय एक नौजवान लड़का था, जिसके सामने जिंदा रहने, कमाने-खाने, अपने परिवार का सहारा बनने और अपना भविष्य बनाने के लिए काम करने के साथ-साथ अपने दम पर अपनी पढ़ाई जारी रखने की इतनी सारी समस्याएँ थीं कि मुझे इस दिशा में निश्ंिचत होकर आगे बढ़ने की सुविधा और फुर्सत ही नहीं थी। फिर, वह मेरी प्रेम करने और अपने भविष्य के स्वप्न देखने की उम्र थी। लेकिन मेरे मन में कहीं गहराई तक यह बात पैठ चुकी थी कि मुझे अच्छा मनुष्य तो बनना है, पर ईश्वर के बिना ही जीना है। भाग्य और भगवान के भरोसे बैठे रहने के बजाय अपना भविष्य अपने हाथों बनाना है। इससे एक तरफ मुझमें आत्मविश्वास पैदा हुआ, दूसरी तरफ रूढ़ियों और अंधविश्वासों से बचे रहने की दृढ़ता पैदा हुई और तीसरी तरफ एक प्रकार की वैज्ञानिक मानसिकता के साथ सृजनशील कल्पनाएँ करने और उन्हें कागज पर उतारने की इच्छा पैदा हुई। शायद इन्हीं सब चीजों ने मुझे एक प्रकार का सदाचारी, विद्रोही, दुस्साहसी, स्वप्नदर्शी और लेखक बनाया।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />इस प्रकार देखें, तो ‘मेरा मुझ में कुछ नहीं’ एक ऐसी किताब है, जिसमें एक लेखक और विचारक के व्यक्तित्व का विकास और उसके निर्माण की प्रक्रिया सामने आती है और फिर उसका परिपक्व रूप उद्घाटित होता है, जिसे इस किताब के कई अध्यायों में देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए, ‘साहित्य-सृजन और चेतना के स्रोत’ में, या ‘हमारे समय के स्वप्न’ में, या ‘भूमंडलीय यथार्थ और साहित्यकार की प्रतिबद्धता’ में। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />अपने इस व्यक्तित्व के कारण ही रमेश उपाध्याय एक विश्वसनीय रचनाकार हैं। रचना में विश्वसनीयता पैदा होती है यथार्थवाद से, मानवीय मूल्यों से, आदर्शों से और जन-पक्षधरता से। और ये सब चीजें उपाध्याय जी के लेखन में स्पष्ट दिखायी पड़ती हैं। चाहे ‘डॉक्यूड्रामा’, ‘अर्थतंत्र’ और ‘त्रासदी...माइ फुट!’ जैसी कहानियाँ हों या ‘दंडद्वीप’ और ‘हरे फूल की खुशबू’ जैसे उपन्यास, या ‘पेपरवेट’ और ‘भारत-भाग्य-विधाता’ जैसे नाटक, या ‘साहित्य और भूमंडलीय यथार्थ’ नामक पुस्तक में संकलित साहित्यिक निबंध। यथार्थवाद और आदर्शवाद का जैसा ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवादी’ मेल प्रेमचंद में है, वैसा ही उपाध्याय जी में है। यही कारण है कि उपाध्याय जी एक ओर आज के समय में ‘भूमंडलीय यथार्थवाद’ की नयी अवधारणा प्रस्तुत करते हैं, तो दूसरी ओर ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की जरूरत’ पर जोर देने वाला निबंध भी लिखते हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />हालाँकि आज का समय इन्हीं के शब्दों में ‘‘मानवता द्वारा देखे गये अब तक के सारे सुंदर स्वप्नों को मिटाकर दुनिया के यथार्थ को भयानकतम दुःस्वप्नों में बदल देने वाले’’ एक नये ढंग के साम्राज्यवाद का समय है, फिर भी इस किताब में शामिल एक रचना ‘हमारे समय के स्वप्न’ में इन्होंने लिखा हैµ‘‘मनुष्य ऐसा प्राणी है, जो सुंदर स्वप्न देखना बंद नहीं करता। वर्तमान चाहे जितना भीषण हो, मनुष्य बेहतर भविष्य की आशा नहीं छोड़ता, उसके लिए प्रयत्न जारी रखता है।’’ उपाध्याय जी के ये शब्द इनके अपने व्यक्तित्व और कृतित्व को परिभाषित करते हुए लगते हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />मैं उपाध्याय जी को व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ। इनके पारिवारिक और साहित्यिक जीवन को मैंने निकट से देखा है। इनके चिंतन और कर्म में, कथनी और करनी में, जीवन और लेखन में कोई द्वैत नहीं है। इनको हमेशा एक खुली किताब की तरह पाया और पढ़ा जा सकता है। ‘मेरा मुझ में कुछ नहीं’ किताब को पढ़ते हुए भी ऐसा ही लगता है कि उपाध्याय जी सामने बैठे हैं और जो कह रहे हैं, उसमें पूरी सादगी है, सच्चाई है, ईमानदारी है। ये जिन मूल्यों में विश्वास करते हैं, उन्हीं के अनुसार आचरण भी करते हैं। इस किताब में संकलित रचना ‘ईश्वर के बिना जीना’ में इन्होंने उन मूल्यों के बारे में लिखा हैµ‘‘ये जीवन-मूल्य प्रेम के हैं, सहयोग के हैं, मित्रता के हैं, वात्सल्य के हैं, अपने प्राकृतिक परिवेश की रक्षा करने के हैं और अपनी सांस्कृतिक निधियों को सँभालकर रखने के भी हैं।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />यह किताब इन्हीं मूल्यों को सामने लाती है। मैं इस किताब के प्रकाशन पर और उपाध्याय जी के जन्मदिन पर इन्हें हार्दिक बधाई देता हूँ। </div>
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh5v3DcnFNDPaqATO6yzRoWGeGLJmTyr5x3-kOooy1V3MVLLLZuCOpDa8f0tI0HmbjzeOZYeYeIpZCZF2CSkQMm_qfBaEYtmiIQcNyFY0JUVv3yqHWKauWAgzPCRhGpafyRq9zwS8sk7s4e/s1600/lok-8.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="173" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh5v3DcnFNDPaqATO6yzRoWGeGLJmTyr5x3-kOooy1V3MVLLLZuCOpDa8f0tI0HmbjzeOZYeYeIpZCZF2CSkQMm_qfBaEYtmiIQcNyFY0JUVv3yqHWKauWAgzPCRhGpafyRq9zwS8sk7s4e/s200/lok-8.jpg" width="200" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><b>अल्पना मिश्र </b></td></tr>
</tbody></table>
<div style="text-align: justify;">
<br /><span style="color: blue;"><b>अल्पना मिश्र</b></span><br />आज उपाध्याय जी का जन्मदिन है और इनकी नयी किताब का लोकार्पण भी हुआ है। मैं भी इस मुबारक मौके पर इन्हें बधाई और शुभकामनाएँ देती हूँ। लेकिन मैं इनसे बहुत छोटी हूँ, इसलिए प्रणाम भी करती हूँ। इन्हें प्रणाम करके मैं इनके प्रति आदर के साथ-साथ इनके परिवार के प्रति आभार भी व्यक्त कर रही हूँ, जहाँ से मुझे सदा स्नेह और आत्मीयतापूर्ण व्यवहार प्राप्त होता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />उपाध्याय जी से मेरी पहली मुलाकात 2006 में हुई, जब ये सपरिवार देहरादून आये थे और मैं वहीं रहती थी। वहाँ इनके सम्मान में आयोजित साहित्यिक गोष्ठी में मैं भी शामिल हुई थी। मैं बहुत समय से इनकी पाठक और प्रशंसक थी, लेकिन पहले कभी मिली नहीं थी, इसलिए सोच रही थी कि इतने बड़े लेखक से मिलने जा रही हूँ। मुझे उम्मीद नहीं थी कि ये मुझ जैसे नये लेखकों को भी पढ़ते होंगे। लेकिन उपाध्याय जी ने मुझे पहचाना, बहुत अच्छे ढंग से मिले और मेरी कहानियों पर बात की, तो मुझे बहुत सुखद आश्चर्य हुआ। इनके परिवार से मिलकर भी मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। अभी श्रीमती उपाध्याय मिलीं, तो उन्होंने बहुत प्यार से उस समय को याद किया। फिर मैंने देखा कि ‘कथन’ में लगातार नये लेखकों को जगह मिलती रही है और उपाध्याय जी उन्हें खूब प्रोत्साहित करते हैं। अब यही काम इनकी बेटी संज्ञा ‘कथन’ की संपादक बनकर कर रही है। उस पहली मुलाकात के बाद उपाध्याय जी से जब भी मिलना हुआ है, और जब से मैं दिल्ली आ गयी हूँ, तब से तो अक्सर मिलना हुआ है, मैंने इन्हें हमेशा सक्रिय और उत्साह से भरा हुआ पाया है। आज इस अवसर पर मैं इन्हें प्रणाम करती हूँ और कामना करती हूँ कि ये हमेशा हमें इसी रूप में मिलते रहें। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />किताब पर बहुत सारी बातें हो गयी हैं। बहुत अच्छी बातें कही गयी हैं। कई ऐसी बातें, जो मैं भी कहना चाहती थी, पहले ही कह दी गयी हैं। इसलिए मैं केवल तीन रचनाओं पर बात करूँगी, जिन पर बात नहीं हुई है। ये रचनाएँ हैं ‘कैद से निकलने की कोशिश है रचना’, ‘जो घर फूँके आपना...’ और ‘मनचाहे ढंग से मनचाहा काम’। इनमें से पहली रचना में उपाध्याय जी एक रचनाकार के रूप में सामने आते हैं और बड़े ही रोचक तथा प्रेरक ढंग से अपनी रचना-प्रक्रिया के बारे में बताते हैं। दूसरी रचना में ये ‘कथन’ के संपादक के रूप में और अपनी पत्रिका के लिए किये गये अथक संघर्ष के साथ सामने आते हैं। तीसरी रचना में हम इन्हें एक पारिवारिक व्यक्ति के रूप में पाते हैं। मुझे उपाध्याय जी के इन तीनों रूपों ने बहुत प्रभावित किया। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘कैद से निकलने की कोशिश है रचना’ में पहले एक विदेशी लेखिका की रचना-प्रक्रिया का और फिर एक विदेशी लेखक की उससे बिलकुल भिन्न रचना-प्रक्रिया का उदाहरण बड़े रोचक रूप में प्रस्तुत करते हुए उपाध्याय जी अपनी रचना-प्रक्रिया की भिन्नता स्पष्ट करते हैं और निष्कर्ष के रूप में कहते हैं कि ‘‘प्रत्येक लेखक की अपनी एक अलग ही रचना-प्रक्रिया होती है। अद्वितीय, अतुलनीय। रचना की नकल शायद की जा सके, रचना-प्रक्रिया की नकल नहीं की जा सकती।’’ इसके बाद उपाध्याय जी अपनी रचना-प्रक्रिया बताते हैं कि ‘जुलूस’, ‘कामधेनु’, ‘डॉक्यूड्रामा’, ‘माटीमिली’, ‘अर्थतंत्र’ और ‘दूसरा दरवाजा’ कहानियाँ इन्होंने कैसे लिखीं। रचना-प्रक्रिया का यह वर्णन इतना रोचक और प्रेरणाप्रद है कि कोई लेखक पढ़े, तो अपनी रचना-प्रक्रिया पर अवश्य विचार करे। मुझे इसको पढ़ते हुए अपनी कहानियों की रचना-प्रक्रिया याद आयी और मैं उस पर विचार करने को प्रेरित हुई। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />उपाध्याय जी साहित्य में व्यावसायिकता के विरोधी रहे हैं। व्यावसायिक पत्रिकाओं के विरुद्ध अव्यावसायिक साहित्यिक पत्रिकाओं का आंदोलन चलाना, स्वयं ‘कथन’ जैसी अव्यावसायिक साहित्यिक पत्रिका निकालना, लघु पत्रिकाओं के लेखकों और संपादकों को संगठित करना वगैरह इनके व्यावसायिकता-विरोध के बाहरी पहलू हैं। भीतरी पहलू इनकी अपनी रचना-प्रक्रिया से सामने आता है। तब हमारे सामने स्पष्ट होता है कि व्यावसायिकता एक कैद है और रचना उससे निकलने की कोशिश। उपाध्याय जी लिखते हैं--‘‘व्यावसायिकता की कैद से बाहर निकलने की कोशिश में ही आप अपनी रचना-प्रक्रिया में स्वतंत्र हो सकते हैं। लेकिन इस स्वतंत्रता का कोई फार्मूला नहीं हो सकता। इसकी तलाश प्रत्येक लेखक को स्वयं ही करनी पड़ती है। यहाँ तक कि एक ही लेखक को अपनी प्रत्येक रचना में इसकी तलाश एक अलग ही ढंग से करनी पड़ती है।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘मेरा मुझ में कुछ नहीं’ किताब में उपाध्याय जी ने कई जगह हिंदी की लघु पत्रिकाओं के बारे में, उनके आंदोलन और संगठन के बारे में लिखा है। उसमें अपनी पत्रिका ‘कथन’ के बारे में भी लिखा है। इस लिहाज से इस किताब में ‘स्वायत्तता के साथ सहयात्रा’, ‘भूमंडलीय यथार्थ और साहित्यकार की प्रतिबद्धता’ और ‘यह जनोन्मुख पत्रकारिता का सम्मान है’ शीर्षक रचनाएँ विशेष रूप से पठनीय हैं। लेकिन मुझे इस तरह की रचनाओं में सबसे अच्छी लगी ‘जो घर फूँके आपना...’। इसमें ‘कथन’ पत्रिका निकालने के लिए किया गया संघर्ष तो सामने आता ही है, इस काम में उपाध्याय जी को अपने परिवार से जो सहयोग मिला और वह सहयोग इन्होंने कैसे प्राप्त किया, यह भी सामने आता है। लिखते हैं :</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘लिखने-पढ़ने और लघु पत्रिका निकालने जैसे सर्जनात्मक कार्यों के लिए घर ही सर्वोत्तम कार्यक्षेत्र है, अतः साहित्यकार तथा साहित्यिक पत्रकार को सबसे पहले अपने घर-परिवार को ऐसा बनाने का प्रयास करना चाहिए कि वह न केवल अपना काम शांतिपूर्वक कर सके, बल्कि परिवार के सदस्यों में भी अपने काम के प्रति भरोसा और उत्साह पैदा करके उनका समर्थन और सहयोग प्राप्त कर सके। लेकिन इसके लिए परिवार के सदस्यों में यह भावना और चेतना उत्पन्न करना आवश्यक है कि सर्जनात्मक लेखन और साहित्यिक पत्रकारिता सांसारिक दृष्टि से भले ही मूर्खता, पागलपन या घाटे का सौदा हो, अपने बौद्धिक तथा सर्जनात्मक व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक है। परिवार में जब यह भावना और चेतना उत्पन्न हो जाती है, तो परिवार में--विशेष रूप से युवाओं में--बौद्धिक तथा सर्जनात्मक कार्यों के प्रति एक उत्साह उत्पन्न होता है। लघु पत्रिका के लिए ऐसे युवाओं की टीम सर्वोत्तम होती है।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />मैं इस किताब में जिस रचना को पढ़कर सबसे ज्यादा प्रभावित हुई, वह है ‘मनचाहे ढंग से मनचाहा काम’। हालाँकि पूरी किताब में उपाध्याय जी के सामाजिक सरोकार, उनके जनतांत्रिक मूल्य, उनकी जन-पक्षधरता और प्रखर वैचारिकता के विभिन्न रूप सामने आते हैं, लेकिन सबसे ज्यादा प्रभावित करता है इनका पारिवारिक प्राणी वाला रूप। साहित्य और साहित्यकारों की चर्चा में प्रायः घर-परिवार को उपेक्षित कर दिया जाता है। कई लेखकों को लगता है कि लेखन में परिवार एक बहुत बड़ी बाधा है और वे परिवार की उपेक्षा करते हैं, परिवार से अलग रहते हैं या परिवार को तोड़ ही देते हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />लेकिन उपाध्याय जी मानते हैं कि अगर साहित्य में वाकई आपको मनचाहा काम करना है, तो अपने घर-परिवार पर ध्यान देना होगा और उसे एक स्वतंत्र, सर्जनात्मक, जनतांत्रिक परिवार बनाना होगा। यह बहुत बड़ा मूल्य है और उपाध्याय जी ने इस मूल्य को अपने जीवन में उतारकर अपने परिवार का निर्माण किया है। मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि स्त्री लेखन में भी परिवार या पारिवारिकता के मूल्य पर ध्यान नहीं दिया जाता। कई क्रांतिकारी लेखक भी उस पर ध्यान नहीं देते। लेकिन मैं पूछती हूँ, अगर आप अपना एक बेहतर परिवार नहीं बना पा रहे, तो पूरी दुनिया को बेहतर बनाने का सपना कैसे देख रहे हैं? </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />उपाध्याय जी कहते हैंµ‘‘मेरे विचार से ऐसे ही परिवार में लेखक अपने लिए वह जगह बना सकता है, जहाँ उसे मनचाहे ढंग से मनचाहा काम करने की आजादी हो। लेकिन ऐसी आजादी अपने-आप नहीं मिलती, आपको संघर्ष करके हासिल करनी पड़ती है। ऐसी जगह कोई और बनाकर नहीं दे सकता, आपको प्रयासपूर्वक स्वयं ही बनानी पड़ती है। ऐसा परिवार भी कहीं बना-बनाया नहीं मिलता, आपको स्वयं ही बनाना पड़ता है। और यह लेखन से कम सर्जनात्मक काम नहीं है। यह काम उतना ही कठिन और कष्टदायक है, लेकिन उतना ही सुखद और सार्थक भी।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />अंत में इस पूरी पुस्तक के बारे में एक बात मैं यह कहना चाहूँगी कि इसमें उपाध्याय जी ने अपने संघर्षों के बारे में खूब लिखा है, लेकिन कहीं भी हाय-हाय करते हुए उसका रोना नहीं रोया है। उन्होंने अपने संघर्ष को बहुत दृढ़ता के साथ, बहुत आत्मविश्वास के साथ बहुत सकारात्मक रूप में देखा है। यह सकारात्मकता बहुत ही सुंदर और प्रेरक है। मैं इसके लिए उपाध्याय जी को विशेष रूप से बधाई देती हूँ। <br /> </div>
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhXRO88HfKiTGP21_UuD_zxkf6sHj5BvmG-ttxVTJqRI_zajKwPsleHHFbxdukT6hjPayL8iv695A7eeldnLpmu2sjp7t13Smovt8FzbI-Gf01uO5w37tMO_aQZCvtq-kkgra-37Odl4b52/s1600/lok-6.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhXRO88HfKiTGP21_UuD_zxkf6sHj5BvmG-ttxVTJqRI_zajKwPsleHHFbxdukT6hjPayL8iv695A7eeldnLpmu2sjp7t13Smovt8FzbI-Gf01uO5w37tMO_aQZCvtq-kkgra-37Odl4b52/s200/lok-6.jpg" width="184" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><b>मैनेजर पाण्डेय </b></td></tr>
</tbody></table>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;"><b>मैनेजर पांडेय</b></span><br />मैं रमेश जी से साल भर बड़ा हूँ, इसलिए इनके जन्मदिन पर बड़े भाई की हैसियत से बधाई देता हूँ। यह जानते हुए भी कि मेरे बाद विश्वनाथ जी बोलेंगे, जो मुझसे भी बहुत बड़े हैं। रमेश जी की इस किताब पर कुछ कहने से पहले मैं यह कहना चाहता हूँ कि यद्यपि इसका शीर्षक है ‘मेरा मुझ में कुछ नहीं’, पर इस किताब में रमेश जी का बहुत कुछ है। किताब का यह शीर्षक क्यों रखा गया है, यह इसकी भूमिका में बता दिया गया है। लेकिन मुझे यह इसलिए अच्छा लगा कि आजकल साहित्य में ‘मैं’ की भरमार हो गयी है। वह भी ऐसे ‘मैं’ की, जिसके पास ‘पर’ या ‘अन्य’ फटकता तक नहीं। इसलिए बहुत सारे कहानीकार आत्मसंघर्ष की कहानियाँ लिख रहे हैं। मेरा कहना है कि आत्मसंघर्ष तो सबका होता ही है, साहित्यकार को थोड़ा वह संघर्ष भी देखना चाहिए, जो समाज में मौजूद है। रमेश जी की यह किताब शुरू से आखिर तक आत्मकथात्मक है, लेकिन उन्होंने इसे ‘आत्मकथा’ नहीं बनाया है और इसका कारण भूमिका में बताया है। उनका यह कहना सही है कि हाल के दिनों में हिंदी में आत्मकथा काफी बिकाऊ विधा बन गयी है। ‘बिकाऊ’ की जगह ‘व्यावसायिक’ कहूँगा, तो आत्मकथाओं के लेखक नाराज हो जायेंगे, लेकिन दोनों शब्दों का मतलब एक ही है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />आत्मकथा लिखना या अपने बारे में लिखना अपने-आप में कोई बुरी बात नहीं है। लेकिन इधर जो आत्मकथाएँ लिखी जा रही हैं, उनमें से ज्यादातर के लेखक यह भूल गये लगते हैं कि मनुष्य का ‘स्व’ तब तक बनता ही नहीं, जब तक ‘पर’ उसके साथ उपस्थित न हो। आप सब ने वह कहानी पढ़ी होगी, जिसमें मनुष्य का बच्चा भेड़ियों के बीच रहकर भेड़िया ही बन जाता है। मनुष्य के सामने दूसरा मनुष्य नहीं होगा, तो वह मनुष्य नहीं, अमानुष ही बनेगा। इसीलिए साहित्य ‘पर’ की चिंता से संचालित होता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />हमारे सबसे बड़े कथाकार हैं प्रेमचंद। उनके मित्रों ने बताया है कि उनकी अमुक-अमुक कहानी आत्मकथात्मक है या उनके अपने जीवन से जुड़ी हुई है। लेकिन क्या मजाल कि उन प्रसंगों से अपरिचित पाठक उन कहानियों से उनका जीवन जान ले। उनकी सभी कहानियों और सारे उपन्यासों में ‘स्व’ के साथ ‘पर’ है और ‘पर’ के माध्यम से पूरा समाज है। इसलिए रमेश जी ने अपनी किताब पर जो शीर्षक दिया है, उसका अलग महत्त्व है। इस किताब में इनके अपने तरह-तरह के अनुभवों का भी ब्यौरा है, इसलिए जिसकी इच्छा हो, इस में इनकी आत्मकथा खोजे, लेकिन मुख्य बात यह है कि इनका ‘मैं’ कहीं पर भी ‘पर’ के बिना, दूसरों के बिना, व्यापक समाज के बिना सामने नहीं आता। वह आपबीती के साथ-साथ जगबीती भी कहता चलता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />यहाँ मैं चलते-चलते यह भी कहूँगा कि रमेश जी काफी लड़ाकू मिजाज के लेखक हैं। मेरा अपना व्यक्तिगत अनुभव है कि ‘‘तुम्हीं से मुहब्बत तुम्हीं से लड़ाई’’। यह उनकी पद्धति है। जिससे प्रेम करते हैं, उसी से बहस भी करते हैं, उसी से लड़ते भी हैं। और यह हिंदी साहित्य की परंपरा है। दोबारा मुझे प्रेमचंद ही याद आ रहे हैं। उन्होंने कहा है कि अगर कोई मूर्खतापूर्ण प्रश्न करे, तो उसका जवाब किसी को जरूर देना चाहिए। रमेश जी की इस किताब में एक लेख है ‘प्रेमचंद को लाठी बनाना’। यह लेख ‘जनसत्ता’ में छपा था और गिरीश मिश्र नामक एक सज्जन के द्वारा हिंदी के लेखकों पर लगाये गये इस आरोप के जवाब में छपा था कि सब ‘बाजारवाद’ के पीछे पड़े हैं, जबकि अंग्रेजी में ‘मार्केटिज्म’ जैसा कोई शब्द नहीं होता। उन्होंने लिखा कि ‘‘हिंदी के पत्रकार और साहित्यकार ‘बाजारवाद’ के रूप में एक काल्पनिक शैतान पैदा कर उसे लगातार पत्थर मार अपनी क्रांतिकारिता दिखा रहे हैं। प्रेमचंद ऐसा कतई न करते।’’ रमेश जी ने बाजारवाद की पूरी अवधारणा को तर्कों और उदाहरणों के साथ प्रस्तुत किया और लिखा कि ‘‘प्रेमचंद ने अपना निबंध ‘महाजनी सभ्यता’ आज लिखा होता, तो वे भी ‘बाजारवाद’ का प्रयोग धड़ल्ले से करते और यह शब्द गढ़ने के लिए खुश होकर हिंदी वालों की पीठ ठोकते।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />रमेश जी का आग्रह यह है कि हम अंग्रेजी से ही अनुवाद काहे करें? कोई नयी चीज आयी है, कोई नयी अवधारणा आयी है, तो उसके लिए हिंदी का ही कोई शब्द क्यों न गढ़ें? मैं समझता हूँ कि किसी भी भाषा की प्रतिष्ठा ऐसे लेखन से बनती है। एक जमाना था, जब ‘आज’ के संपादक पराड़कर जी थे। उनके संपादकीय इतने महत्त्वपूर्ण होते थे कि अंग्रेज अधिकारी उनके अनुवाद अंग्रेजी में करवाकर पढ़ते थे। रमेश जी उसी परंपरा के लेखक और संपादक हैं। इन्होंने बाजारवाद संबंधी बहस में जो दखल दिया, उससे हिंदी की प्रतिष्ठा और ताकत का पता चलता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />दूसरी बात यह कि रमेश जी स्वयं मार्क्सवादी होते हुए भी मार्क्सवादियों की आलोचना करने और उनसे बहस चलाने में नहीं हिचकते। अभी कुछ समय पहले टेरी ईगल्टन की एक किताब आयी थी ‘दि ईविल’। दस साल पहले तक कोई सोच भी नहीं सकता था कि ‘ईविल’ पर कोई मार्क्सवादी लिखेगा। उसमें ईगल्टन ने कम्युनिस्ट नैतिकता का सवाल उठाया है। हिंदी में यह सवाल रमेश जी 1974 में ही उठा चुके थे। तब तो मैं व्यक्तिगत रूप से इनको जानता भी नहीं था। जब इनकी पुस्तिका ‘कम्युनिस्ट नैतिकता’ आयी, मैं बनारस में था। कुछ ही दिनों बाद मैं बरेली में अध्यापक हो गया। वहाँ सी.पी.आइ. के एक पुराने नेता थे, जिनसे मिलना-जुलना होता था और मैं उनसे बहुत सीखता था। एक दिन मैंने उनसे पूछा कि तिवारी जी, यह कम्युनिस्ट नैतिकता क्या होती है? तिवारी जी हँसकर बोले कि आपके सामने यह सवाल कहाँ पैदा हो गया? मैंने कहा कि हिंदी के लेखक हैं रमेश उपाध्याय जी, उन्होंने इसी नाम की पुस्तिका लिखी है। तिवारी जी ने तब तक वह पुस्तिका पढ़ी नहीं थी, लेकिन मेरे प्रश्न का एक सामान्य उत्तर देते हुए कहा कि कम्युनिस्ट नैतिकता वही है, जिसे जनता स्वीकार करे। उदाहरण के लिए, अगर आप आदिवासियों के क्षेत्र में काम करने जा रहे हैं और आप केवल गंगाजल पीते हैं, तो तीन दिन में आदिवासी आपको भगा देंगे। वहाँ रहे भी, तो आपकी बात पर कोई विश्वास नहीं करेगा। आपको उनके साथ बैठकर दारू पीना पड़ेगा, क्योंकि यह उनके जीवन का हिस्सा है। और अगर आप किसी ऐसी जगह चले जायें, जहाँ लोग शराब पीने को पाप समझते हों और आप वहाँ बैठकर शराब पीने लगें, तो जो देखेगा, चार गालियाँ देकर आपके पास से भाग जायेगा। आश्चर्य की बात कि ठीक इन्हीं शब्दों में तो नहीं, पर ऐसे ही विचार रमेश जी ने अपनी उस पुस्तिका में व्यक्त किये थे। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘मेरा मुझ में कुछ नहीं’ में रमेश जी का एक लेख है ‘ईश्वर के बिना जीना’। उसमें रमेश जी ने ‘कम्युनिस्ट नैतिकता’ का एक अंश दिया है, जिसका शीर्षक है ‘नैतिकता और धर्म’। धर्म के मामले में कम्युनिस्ट लोग अक्सर मार्क्स का एक कथन उद्धृत किया करते हैं कि धर्म जनता के लिए अफीम है। रमेश जी ने ऐसे कम्युनिस्टों की आलोचना करते हुए लिखा हैµ‘‘मार्क्स ने धर्म को सिर्फ अफीम नहीं, कुछ और भी कहा है। उन्होंने धर्म को अत्यंत कठिन जीवन जीने वाले लोगों के लिए सुकून की एक साँस भी कहा है, हृदयहीन संसार का हृदय भी कहा है, अनात्मिक परिस्थितियों की आत्मा भी कहा है। और यह सब कहने के बाद ही कहा है कि धर्म जनता के लिए अफीम है।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />रमेश जी की एक और विशेषता है कि लाभ-हानि का हिसाब लगाकर आलोचकों को खुश रखने के लिए उनकी खुशामद ये नहीं करते, बल्कि उनकी गलत बातों की खुलकर आलोचना करते हैं। इस किताब में इस प्रकार के दो लेख हैं। ‘साहित्य और साधारण पाठक’ और ‘सवाल मुकम्मल कहानी का’। इनमें से पहले लेख में उन्होंने हिंदी के उन आलोचकों की आलोचना की है, जो पाठकों में साहित्य की समझ पैदा करने के बजाय लेखकों को लिखना सिखाने की कोशिश करते हैं। रमेश जी उन आलोचकों को अच्छा आलोचक नहीं मानते, जो किसी लेखक के लेखन को उसके संदर्भों के साथ समग्रता में समझने के बजाय उसकी किसी एक रचना को ‘राजनीतिक रूप से सही’ न पाकर उसकी आलोचना करते हैं और लेखक को ‘सही ढंग से लिखना’ सिखाने की कोशिश करते हैं। लेख के अंत में रमेश जी कहते हैं :</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘मैं अच्छा आलोचक उसे मानता हूँ, जो रचना की किसी ऐसी खूबसूरती पर उँगली रख सके, जिसे साधारण पाठक गूँगे के गुड़ की तरह महसूस तो करते हों, पर लिख-बोलकर बता न सकते हों। जो आलोचक यह काम कर सकता है, वह रचना में लाखों कमियाँ बता सकने वाले आलोचक से बड़ा आलोचक है। ऐसा आलोचक लेखकों को लिखना तथा पाठकों को पढ़ना भी सिखा सकता है।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />इसी तरह ‘सवाल मुकम्मल कहानी का’ शीर्षक लेख में रमेश जी ने नामवर जी की कहानी समीक्षा की आलोचना की है और खास तौर से उनकी कथानक संबंधी बातों पर तीखे प्रश्न उठाये हैं। कुछ और लेख भी हैं इस किताब में, जिनमें रमेश जी ने कहानी के रूप, उसकी अंतर्वस्तु, उसकी रचना-प्रक्रिया पर विचार किया है। इन लेखों से उनकी अपनी रचना-प्रक्रिया भी सामने आती है और उनकी कहानियों को समझने में मदद मिलती है। लेकिन कहानी समीक्षा के संदर्भ में रमेश जी ने भूमंडलीय यथार्थवाद का प्रश्न उठाकर उसकी जो एक नयी अवधारणा निर्मित की है, वह बहुत महत्त्वपूर्ण है। इन्होंने जब पहली बार मुझसे इसकी चर्चा की थी, मुझे थोड़ी परेशानी हुई थी। थोड़ा असमंजस हुआ था। लेकिन इस किताब में शामिल कुछ लेखों में भूमंडलीय यथार्थवाद की अवधारणा स्पष्ट होकर सामने आयी है और वह हमारी समझ को विकसित करती है। रमेश जी पक्के यथार्थवादी हैं। पहले भी थे, इस किताब में भी हैं। लेकिन यथार्थवाद की उनकी समझ समय के साथ-साथ बदलती और विकसित होती रही है। उसका विकसित रूप भूमंडलीय यथार्थवाद की अवधारणा में दिखायी पड़ता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />यथार्थवाद के संदर्भ में रमेश जी ने अनुभव और अनुभववाद में जो बारीक फर्क किया है, उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। अनुभव और अनुभववाद में अंतर होता है। अनुभव के बिना रचना पैदा नहीं होती, लेकिन अनुभववाद रचना की सीमा बन जाता है। इस पर रमेश जी ने विस्तार से विचार किया है। रमेश जी मानते हैं कि रचना हमेशा यथार्थ के अन्वेषण और रूप के आविष्कार के सहारे चलती है। हर रचनाकार को यह अन्वेषण और आविष्कार करना पड़ता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />रमेश जी की अपनी कहानियों में यह चीज स्पष्ट दिखायी पड़ती है। इसका एक कारण यह भी है कि ये कहानी लिखने के साथ-साथ कहानी लिखने की प्रक्रिया पर भी विचार करते हैं। इस सिलसिले में इस किताब में संकलित इनके तीन लेख विशेष रूप से पढ़ने लायक हैंµ‘कैद से निकलने की कोशिश है रचना’, ‘सवाल मुकम्मल कहानी का’ और ‘यथार्थवादोत्तर/मार्क्सवादोत्तर?’। इनमें रमेश जी ने हिंदी आलोचना पर, खास तौर से कहानी की वर्तमान आलोचना पर, जो विचार किया है, उससे हिंदी आलोचना की संस्कृति और विकृति दोनों सामने आती हैं। इसलिए अंत में मैं यह कहूँगा कि हिंदी साहित्य की प्रकृति, संस्कृति और लगे हाथ उसकी विकृति--सब को एक साथ देखना हो, तो मेरा निवेदन है कि आप रमेश जी का यह ग्रन्थ जरूर पढ़ें। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhdVbag0D91n-moehJ1NXqGQLKZ727-pXwI3lKBn9_QvZBG0RNe4BXAZsWs_8f4AftTiXO7UpIa6x87Bk5c3bNtTywJA-YYTvYytfSt_gC0SBQ4BSRXvkxIXmt2F_AFHEfxrMjX8ACdiMj7/s1600/lok-2.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="168" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhdVbag0D91n-moehJ1NXqGQLKZ727-pXwI3lKBn9_QvZBG0RNe4BXAZsWs_8f4AftTiXO7UpIa6x87Bk5c3bNtTywJA-YYTvYytfSt_gC0SBQ4BSRXvkxIXmt2F_AFHEfxrMjX8ACdiMj7/s200/lok-2.jpg" width="200" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><b>विश्वनाथ त्रिपाठी </b></td></tr>
</tbody></table>
<div style="text-align: justify;">
<br /><span style="color: blue;"><b>विश्वनाथ त्रिपाठी</b></span><br />सबसे पहले मैं एक रहस्य की बात कहना चाहता हूँ। बहुत नाटकीय ढंग से नहीं कहना चाहता, लेकिन यह अवसर ऐसा है--रमेश उपाध्याय का जन्मदिन और इस अवसर पर इनकी पुस्तक ‘मेरा मुझ में कुछ नहीं’ का प्रकाशन--कि उस बात को कहना जरूरी है। वह बात यह है कि मैं चुपके-चुपके रमेश उपाध्याय से प्रेरणा लेता रहा हूँ। इनको लगातार इतना कर्मठ और सक्रिय देखना सचमुच प्रेरक है। कई बार मैंने कहा है कि मैं रमेश उपाध्याय को संपादक के रूप में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की परंपरा में रखता हूँ। यह बात पहली बार मैंने आज से दस-पंद्रह साल पहले कही थी और आज फिर दोहराता हूँ। लेकिन प्रेरणा मैं इनके एक और रूप से लेता हूँ। इनके पारिवारिक रूप से, जिसका जिक्र अभी अल्पना मिश्र ने किया। एक यशस्वी लेखक और प्राध्यापक के लिए अपने परिवार को सँभाले रखना मुश्किल होता है। उसमें एक प्रकार का आर्थिक और भौतिक संकट तो होता ही है, कभी-कभी बड़ा मानसिक संकट भी होता है। मैं इस मामले में अपना विचलन देखता था, अपनी कमजोरियाँ देखता था, लेकिन देखता था कि यह आदमी कभी विचलित नहीं हुआ। इसमें अपने परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाने में कभी कोई कमजोरी दिखायी नहीं दी। इस बात ने मुझे हमेशा प्रभावित और प्रेरित किया। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />मैं एक लेखक के रूप में भी इनसे प्रेरणा लेता रहा हूँ। सबसे पहले रमेश उपाध्याय की जिस चीज ने मुझे प्रभावित किया, वह थी इनकी भाषा, इनका गद्य। और इनकी भाषा की प्रशंसा मैंने लिखित रूप में की। यह 1974 के आसपास की बात है, जब इन्होंने आनंद प्रकाश और राजकुमार शर्मा के साथ मिलकर ‘युग-परिबोध’ नामक पत्रिका निकाली थी। इनके ये दोनों मित्र मॉडल टाउन में रहते थे। मैं भी वहीं रहता था। और भी कई पुराने साहित्यकारों और नये लेखकों ने वहाँ मकान ले रखे थे। रमेश उपाध्याय मॉडल टाउन से कुछ दूर राणा प्रताप बाग में रहते थे, लेकिन हमारा एक-दूसरे के घर आना-जाना और मिलना-जुलना होता रहता था। इनके साथियों में उन दिनों सुधीश पचौरी और कर्णसिंह चौहान भी हुआ करते थे। तब मैंने शायद ‘जनयुग’ में किसी प्रसंग में लिखा था कि ये लोग रमेश उपाध्याय से गद्य लिखना सीखें। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />अभी तक भी गद्य में मेरा मिजाज बहुत मिलता है रमेश जी के साथ। इनके गद्य की विशेषता है अभिधा में लिखना और अपनी बात सूत्रों और सूक्तियों के रूप में कहना। अभिधा में लिखा गया एक सीधा-सादा वाक्य जितना कह सकता है, उतना प्रतीक, फैंटेसी वगैरह की तिकड़म-विकड़म से नहीं कहा जा सकता। अनंत अर्थ का समुद्र होता है एक सीधा-सादा वाक्य। एक बड़ा नाम लेकर कहना चाहूँ, तो कह सकता हूँ कि यह बात नोम चॉम्स्की ने भी भाषा के बारे में कही है। हमारे भारतीय साहित्य और भाषा-चिंतन में भी अभिधा की बड़ी महिमा है। आज भी अभिधा में एक स्पष्ट वाक्य लिखना लेखन का गुण माना जाता है। रमेश जी की भाषा में यह गुण है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />दूसरी विशेषता इनकी भाषा की यह है कि इनके लेखन में बातें अक्सर सूत्रों और सूक्तियों के रूप में कही जाती हैं। सूत्र निकालना और सूक्तियाँ कहना मामूली बात नहीं है। सरल रेखा खींचना बड़ा टेढ़ा काम है। बड़े लेखक सूक्तियाँ निकालते हैं। यह काम मध्यकालीन संत करते थे। हिंदी में यह काम प्रेमचंद ने किया है। प्रेमचंद का एक वाक्य है--‘‘प्रेम ने बड़ी तपस्या करके घर का वरदान पाया है।’’ या एक और वाक्य है--‘‘बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन होता है।’’ बिलकुल सीधे-सादे वाक्य हैं, लेकिन इनके पीछे पूरा इतिहास है, व्यापक सामाजिक अनुभव है, लेखक का अपना अनुभव और चिंतन-मनन है, जिससे ये सीधे-सादे वाक्य सूक्ति बनते हैं। रमेश जी की इसी किताब में आपको बहुत-सी सूक्तियाँ मिल जायेंगी। जैसे--‘‘मनुष्य ऐसा प्राणी है, जो सुंदर स्वप्न देखना बंद नहीं करता।’’ या ‘‘साधारण पाठक एक जनतांत्रिक अवधारणा है।’’ या ‘‘नवीनता और मौलिकता में कोई अंतर्विरोध नहीं है, बल्कि सच्ची नवीनता तो मौलिकता में से ही आती है।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />रमेश उपाध्याय की एक बड़ी विशेषता यह भी है कि ये बौद्धिक और वैचारिक स्तर पर असहमत होने पर बहस ही नहीं, आप से झगड़ा भी कर लेंगे। मेरे साथ भी एकाध बार हुआ है। बड़ा भीषण झगड़ा हुआ है। लेकिन जैसा कि पांडेय जी ने कहा कि ‘‘तुम्हीं से मुहब्बत तुम्हीं से लड़ाई’’, रमेश उपाध्याय झगड़ चाहे जितना लें, मुहब्बत करते रहते हैं, मित्रता बनाये रखते हैं। बौद्धिक और वैचारिक स्तर पर हुई तीखी बहसों और झगड़ों के बावजूद मैं इनकी साहित्यधर्मिता से हमेशा प्रभावित रहा हूँ। अच्छे लेखक होने के साथ-साथ ये बहुत पढ़े-लिखे आदमी हैं। बहुत पढ़ाकू हैं। इन्होंने गंभीरता से, योजना बनाकर, बहुत-से देशी-विदेशी लेखकों को पढ़ा है और ये बहुत अच्छे अनुवादक हैं। अंर्स्ट फिशर की किताब का अनुवाद ‘कला की जरूरत’ आप पढ़ें। बहुत अच्छा, बल्कि अद्भुत अनुवाद है। आधुनिकता, उत्तर-आधुनिकतावाद और यथार्थवाद का जैसा अध्ययन इन्होंने किया है, इन चीजों पर जैसा इन्होंने लिखा है, इनके साथ के कितने लेखकों ने ऐसा काम किया है? ये आधुनिक हैं, लेकिन अज्ञेय और निर्मल वर्मा जैसे आधुनिक नहीं; बल्कि नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल जैसे आधुनिक हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />पांडेय जी ने गिरीश मिश्र का जिक्र किया। गिरीश मिश्र खुद को बड़ा अंग्रेजीदाँ और पाश्चात्य साहित्य का अध्येता समझते हैं। हिंदी वालों के बारे में अंट-शंट बोलते रहते हैं। हम लोग उनकी खबर लेना चाहते हुए भी चुप रहते थे। रमेश उपाध्याय चुप नहीं रहे। इन्होंने उनको जवाब दिया। वह लेख इस किताब में मौजूद हैµ‘प्रेमचंद को लाठी बनाना’। इन्होंने जमकर उनको जवाब दिया और बताया कि गिरीश मिश्र को हिंदी का ही नहीं, अंग्रेजी भाषा का भी और यहाँ तक कि अपने विषय अर्थशास्त्र का भी कितना कम ज्ञान है। इसी तरह इन्होंने कई उत्तर-आधुनिकतावादियों की खबर ली है, यथार्थवाद और मार्क्सवाद के विरोधियों की भी खबर ली है। ये बहसें भी इनकी इस किताब में हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />इस किताब के शीर्षक के बारे में भी मैं एक बात कहना चाहता हूँ। यह शीर्षक इन्होंने कबीर से लिया है। कबीर का-सा अक्खड़पन इनमें भी है, लेकिन ‘‘मेरा मुझ में कुछ नहीं’’ कहने में जो विनम्रता है, जो समर्पण और साधना है, उस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। समर्पण और साधना के लिए साधक का कोई इष्ट होना चाहिए। रमेश उपाध्याय के लेखन में भी एक समर्पण और साधना है और इनका भी एक इष्ट है। वह है जन। लेकिन रमेश उपाध्याय रहस्यवादी नहीं हैं, यथार्थवादी हैं और मार्क्सवादी हैं। इनका चिंतन डायलेक्टिकल है और डायलेक्टिक्स में ‘वाद’ का एक ‘प्रतिवाद’ भी होता है। सो रमेश उपाध्याय के लेखन में ‘जन’ का प्रतिवादी है ‘अभिजन’। एक जन है और एक अभिजन। सौंदर्यबोध में अगर विवादी स्वर नहीं बोल रहा है, तो समझिए कि सौंदर्यबोध कच्चा है। सौंदर्य अच्छा लगता है, इसका मतलब ही यह है कि आपको कुरूपता बुरी लगती है। अगर आप अच्छे के पक्ष में हैं, तो अच्छे पर बल देंगे और बुरे को बुरा कहेंगे, उसका विरोध करेंगे। इसलिए रमेश उपाध्याय के यहाँ एक जन है, दूसरा अभिजन है; एक तरफ जनवादी साहित्य है, तो दूसरी तरफ अभिजनवादी साहित्य है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />इसमें एक बात यह भी है कि जन, जनता, जनवाद इनके यहाँ सिर्फ नाम लेने के लिए नहीं हैं। ये इन चीजों में विश्वास करते हैं। बल्कि स्वयं जन हैं और बने रहने का प्रयास करते हैं। इसीलिए इनकी कथनी और करनी में हम लोगों की अपेक्षा अंतर कम है। यह बहुत बड़ी बात है और मुझे बहुत प्रभावित करती है। हमने मजदूरों को दूर से देखा है, स्वयं मजदूर नहीं रहे हैं। इन्होंने मजदूरी की है, स्वयं मजदूर का जीवन जिया है। इस किताब का जो पहला अध्याय है, आत्मकथात्मक है। उसमें इन्होंने प्रेस में काम करने के अपने अनुभव का अद्भुत वर्णन किया है। कंप्यूटर पर किये जाने वाले कामों से पुराने प्रेसों में किये जाने वाले कामों की तुलना करते हुए इन्होंने लिखा है :</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘पुराने प्रेसों में इस तरह के सारे काम सीसे के टाइपों, लकड़ी के केसों, पीतल की स्टिकों, लोहे की गैलियों, केस और गैलियाँ रखने की ऊँची-ऊँची रैकों, पू्रफ उठाने के हैंड-प्रेसों आदि के साथ बड़ी मेहनत-मशक्कत से होते थे। हर भाषा के हर फौंट के हर साइज के टाइप के लिए अलग-अलग केस। अंग्रेजी के दो, हिंदी के तीन या चार। उन केसों के छोटे-छोटे खानों में भरे हुए सीसे के टाइप। अंग्रेजी में अपर-लोअर अलग, हिंदी में अक्षर, मात्राएँ, संयुक्ताक्षर, विरामचिह्न आदि अलग। किस खाने में क्या है, याद रखिए। सामने रखी ‘कॉपी’ को देख-देखकर बायें हाथ में पकड़ी ‘स्टिक’ में दायें हाथ से एक-एक टाइप उठाकर रखते जाइए। लाइन को ‘जस्टीफाई’ करने के लिए शब्दों के बीच स्पेस घटाइए-बढ़ाइए। स्पेस यथासंभव बराबर रहे, इसका ध्यान रखिए। लाइन पूरी हो जाने पर ‘लेड’ डालकर अगली लाइन कंपोज कीजिए। लाइन लंबी है, तो ध्यान रखिए कि टूटकर बिखर न जाये। बिखर जाये, तो फिर से कंपोज कीजिए। बीच में किसी और टाइप में कंपोज करना हो, तो उठकर जाइए, रैक में से उस टाइप के भारी-भारी केस खींचकर बाहर निकालिए और काम करने के बाद उन्हें उठाकर यथास्थान लगाइए। कोई शब्द बोल्ड या इटैलिक करना हो, तो भी यही सब कीजिए। मैटर को अंडरलाइन करना हो, तो रेखांकित शब्दों के बराबर की ‘रूल’ खोजिए और न मिले, तो पीतल की सख्त ‘रूल’ को कतिया से काटकर लगाइए। ‘गेज’ से नाप-नापकर पेज बनाइए, उन्हें डोरी से बाँधिए, सीसे के भारी-भारी पेजों को टूटने-बिखरने से बचाते हुए ‘गैली’ में रखिए, उस भारी ‘गैली’ को उठाकर पू्रफ उठाने की मशीन तक ले जाइए, ‘इंक-प्लेट’ पर स्याही लगाकर ‘रोलर’ से उसे इकसार कीजिए, पेजों पर स्याही लगाइए, कागज को गीला करके उचित ‘दाब’ देकर पू्रफ उठाइए। पू्रफ पढ़कर दे दिये जायें, तो सीसे के टाइपों की उलटी लिखाई पढ़ते हुए चिमटी से गलत टाइप निकालकर उनकी जगह सही टाइप बिठाइए। ‘डबल कंपोजिंग’ या ‘सी कॉपी’ के कारण मैटर घट-बढ़ जाये, तो मैटर को ‘चलाइए’। लाइनें घट-बढ़ जायें, तो बाद के सारे पेज खोल-खोलकर फिर से सबका मेकअप कीजिए, उन्हें बाँधिए और फिर से प्रूफ उठाइए।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />लंबा उद्धरण है, लेकिन यह मैंने अपने मन की एक रोचक बात बताने के लिए आपके सामने पढ़ा है। जब मैं किताब में इसे पढ़ रहा था, मुझे विष्णु खरे की कविता ‘लालटेन’ याद आ रही थी, जिसमें विस्तार से बताया गया है कि लालटेन कैसे जलायी जाती थी। यहाँ रमेश उपाध्याय विस्तार से बता रहे हैं कि पुराने प्रेसों में काम कैसे किया जाता था। यह अनुभव बहुतों को हुआ होगा, ऐसा संघर्ष बहुतों ने किया होगा, लेकिन इस अनुभव और संघर्ष को चित्रित करना बड़ी बात होती है। खास तौर से तब, जब आप उस अनुभव और संघर्ष से आगे बहुत दूर निकल आये हों। यानी प्रेस में काम करने वाले मजदूर की जगह आप लेखक, पत्रकार, प्राध्यापक और संपादक बन गये हैं, फिर भी आपका मजदूर और मजदूर वाला तेवर आपके भीतर मौजूद है। यही कारण है कि रमेश उपाध्याय के ऊपर बुर्जुआ बुद्धिजीवियों का या आलोचकों का आतंक नहीं है। जो बात कहनी होती है, साफ-साफ कहते हैं, कबीराना अक्खड़पन के साथ कहते हैं, लेकिन उसके पीछे ठोस अध्ययन, मनन और चिंतन होता है। हवाई बातें रमेश उपाध्याय नहीं करते हैं। चाहे वह कम्युनिस्ट नैतिकता का सवाल हो, या धर्म और ईश्वर का सवाल हो, या यथार्थवाद और भूमंडलीकरण का सवाल हो, या इनकी अपनी भूमंडलीय यथार्थवाद की अवधारणा का सवाल हो--किसी भी सवाल पर जब ये लिखते हैं, पूरी तैयारी के साथ लिखते हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />इस किताब के बारे में मंडलोई जी ने कहा कि यह पूरी किताब आत्मकथात्मक होती तो अच्छा रहता। इसका पहला अध्याय ‘अजमेर में पहली बार’ पढ़कर किसी को भी ऐसा लग सकता है। मुझे भी लगा, क्योंकि वह इतना रोचक और मार्मिक हैµऔर उसमें इनके प्रेम का जो प्रसंग है, वह तो इतनी शिद्दत से लिखा गया है कि उस प्रेम को मैंने भी महसूस किया। वह प्रेम प्रसंग बड़े संयम से लिखा गया है, लेकिन बहुत प्रभावित करता है। उस अध्याय को पढ़कर मुझे भी लगा कि रमेश उपाध्याय आत्मकथा ही लिखते, तो अच्छा रहता। लेकिन जब मैंने पूरी पुस्तक पर विचार किया, तो पाया कि नहीं, यह इसी रूप में ठीक है। इसमें रमेश उपाध्याय का जो चिंतन है, दूसरों से की गयी जो बहसें हैं, विभिन्न विषयों पर लिखे गये जो लेख हैं, उनसे भी तो इनका जीवन, व्यक्तित्व और संघर्ष सामने आता है। वह आत्मकथात्मक ढाँचे में नहीं आ सकता था। ये गंभीर लेख हैं। रोशनी देने वाले लेख हैं। इनसे पता चलता है कि रमेश उपाध्याय अपने लेखन और चिंतन की किस प्रक्रिया से गुजरे हैं। ये एक ‘प्रैक्टिसिंग राइटर’ के लेख हैं, जो अपने लेखन के साथ-साथ अपने समकालीन साहित्य की समस्याओं पर भी सोचता- विचारता है और उनसे सर्जनात्मक स्तर पर ही नहीं, बल्कि वैचारिक स्तर पर भी जूझता है। इसीलिए जो लेख आत्मकथात्मक नहीं हैं, वे भी प्रासंगिक और पठनीय हैं। उनका इस किताब में रहना जरूरी था। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />इस किताब की एक और विशेषता है। यह किताब रमेश उपाध्याय के बारे में बने हुए या मार्क्सवाद, यथार्थवाद, प्रगतिशीलता और जनवाद के विरोधियों के द्वारा गढ़े गये इस मिथक को तोड़ती है कि ये हमेशा क्रांति की बातें करते हैं या अपने लेखन में सिर्फ नारेबाजी करते हैं। इस संदर्भ में इसी किताब से एक उद्धरण और देकर मैं अपनी बात समाप्त करूँगा। इन्होंने लिखा है :</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />‘‘आज की दुनिया में मार्क्सवादी कथाकार होने का मतलब है वर्तमान पूँजीवादी विश्व-व्यवस्था की जगह समाजवादी विश्व-व्यवस्था के निर्माण के लिए संघर्षरत शक्तियों के साथ खड़े होना। कथा में यह काम वर्ग-संघर्ष या क्रांति के बारे में लिखकर ही नहीं, बल्कि सच्चाई और अच्छाई जैसी ‘मामूली’ चीजों के बारे में लिखकर भी किया जा सकता है। हिंदी कथा का सार्थक विकास इसी प्रकार होता आया है और आगे भी किया जा सकता है।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />मैं अंत में केवल यह कहना चाहता हूँ कि मुझे बहुत अच्छी लगी यह किताब। इसको पढ़कर मुझे बड़ा फायदा हुआ। नये लेखकों के लिए तो ‘राइटर्स कंपेनियन’ या लेखक-सहचर की तरह की किताब है यह--पठनीय, संग्रहणीय और बहुत दूर तक आचरणीय भी। इन्हीं शब्दों के साथ मैं रमेश जी को इस किताब के लिए बधाई देता हूँ। मैं इनसे उम्र में बहुत बड़ा हूँ, इसलिए इनके जन्मदिन पर इनके सुदीर्घ जीवन की कामना करता हूँ। मुझे विश्वास है कि ये बहुत दिनों तक स्वस्थ और सक्रिय रहेंगे और मेरे लिए बुढ़ापे का सहारा बनेंगे।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: right;">
<span style="color: red;"><b>प्रस्तुति : संज्ञा उपाध्याय</b></span></div>
</div>
ramesh upadhyayhttp://www.blogger.com/profile/05054633574501788701noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1496071818736613491.post-11033767164463728912012-12-11T08:19:00.002-08:002012-12-11T08:20:46.525-08:00माध्यमों के ध्वस्त पुल और पुरस्कारों की बाढ़ <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj9QYyIb6piQlOWRMyNTrhTT8545BVi0Pi32f99Qom9FHOXcf8zqQb8Z0vOqJ5S1NhR8osXr9Pn3O241ewLtsb4O1MCU8B-nRb0MMhTr0F6GP4AUMepq8Z_D2pWMlC0kPW3nRNDqHCJzi6s/s1600/hp.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj9QYyIb6piQlOWRMyNTrhTT8545BVi0Pi32f99Qom9FHOXcf8zqQb8Z0vOqJ5S1NhR8osXr9Pn3O241ewLtsb4O1MCU8B-nRb0MMhTr0F6GP4AUMepq8Z_D2pWMlC0kPW3nRNDqHCJzi6s/s200/hp.jpg" width="147" /></a><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj9QYyIb6piQlOWRMyNTrhTT8545BVi0Pi32f99Qom9FHOXcf8zqQb8Z0vOqJ5S1NhR8osXr9Pn3O241ewLtsb4O1MCU8B-nRb0MMhTr0F6GP4AUMepq8Z_D2pWMlC0kPW3nRNDqHCJzi6s/s1600/hp.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"></a></div>
<span style="color: blue;"><i>यह लेख 'समकालीन सरोकार' के दिसंबर, 2012 के अंक में 'पुरस्कारों की बाढ़ में फेंके गये लेखक की मजबूरी' शीर्षक से छपा है. लेकिन मेरे द्वारा दिया गया शीर्षक 'माध्यमों के ध्वस्त पुल और पुरस्कारों की बाढ़' ही था. </i></span><br />
<br />
साहित्य और संस्कृति से संबंधित संस्थाओं की दशा या दुर्दशा पर विचार करते हुए हम प्रायः साहित्य और संस्कृति को ही भूल जाते हैं। हम उनकी ढाँचागत कमियों और कमजोरियों की आलोचना करते हैं। हम उनकी नीतियों और गतिविधियों की आलोचना करते हैं। हम उनकी कार्यशैलियों और कार्यप्रणालियों की आलोचना करते हैं। हम उनके पदाधिकारियों की गलत नियुक्तियों और पदोन्नतियों की आलोचना करते हैं। हम उनकी फिजूलखर्चियों और बदइंतजामियों की आलोचना करते हैं। हम उनके अंदर चलने वाली स्वार्थजन्य गुटबंदियों और राजनीतिक दलबंदियों की आलोचना करते हैं। हम उनके द्वारा दिये जाने वाले पुरस्कारों में की गयी मनमानियों और बेईमानियों की आलोचना करते हैं। हम उनके द्वारा पुरस्कृत और उपकृत होने वाले व्यक्तियों की अयोग्यताओं और अपात्रताओं की आलोचना करते हैं। हम उनकी स्वतंत्रता और स्वायत्तता को कम या खत्म करने वाली शक्तियों और प्रवृत्तियों की आलोचना करते हैं। और हम उनमें सुधार या बदलाव की जरूरत बताते हुए उनके अंदर स्वतंत्रता, स्वायत्तता, जनतांत्रिकता, नैतिकता, निष्पक्षता और पारदर्शिता की माँग करते हैं। लेकिन यह नहीं देखते कि यहाँ साहित्य और संस्कृति का क्या हाल है, जिसके विकास और प्रचार-प्रसार के लिए ये संस्थाएँ बनायी गयी हैं।<br />
<br />
शायद हम यह मानकर चलते हैं कि ये संस्थाएँ तो ठीक हैं, अच्छे उद्देश्यों से बनायी गयी हैं, इनमें कोई खराबी नहीं है। खराबी है इनमें काम करने वाले व्यक्तियों और उन्हें ऊपर से या पीछे से संचालित करने वाली शक्तियों में, जिन्हें यदि बदल दिया जाये, तो सब ठीक हो जाये। लेकिन हम शायद यह देखते हुए भी नहीं देखते कि इन संस्थाओं को चलाने वाले व्यक्तियों और उन्हें संचालित करने वाली शक्तियों के बदल जाने पर भी ये संस्थाएँ नहीं बदलतीं। वैसे ही, जैसे देश में सरकारें बदलती रहती हैं, देश की व्यवस्था नहीं बदलती, जिसके कारण बदली हुई सरकारें भी वही सब करती हैं, जो पिछली सरकारें करती रही होती हैं। साहित्य और संस्कृति से संबंधित संस्थाओं के कटु-कठोर आलोचक जब स्वयं उन पर काबिज हो जाते हैं, तो वही करते हैं, जो उनसे पहले वाले लोग करते थे। नये आने वाले कई लोग तो इसमें कोई बुराई भी नहीं समझते, बल्कि खुल्लमखुल्ला डंके की चोट पर कहते हैं--हम से पहले वाले लोगों ने अपने लोगों को पुरस्कृत-उपकृत किया, अब हम अपने लोगों को पुरस्कृत-उपकृत कर रहे हैं। <br />
<br />
साहित्यकार सबसे अधिक आलोचना साहित्यिक पुरस्कार देने वाली संस्थाओं की करते हैं, लेकिन उनसे पुरस्कृत होने के लिए लालायित भी रहते हैं। उनकी ज्यादातर आलोचनाएँ इस प्रकार की होती हैं कि पुरस्कार इस लेखक को दिया गया, उस लेखक को क्यों नहीं दिया गया। इस विधा पर दिया गया, उस विधा पर क्यों नहीं दिया गया। इस किताब पर दिया गया, उस किताब पर क्यों नहीं दिया गया। ऐसी आलोचनाएँ पढ़-सुनकर लगता है कि मानो इन लोगों के पसंदीदा लेखक को, इनकी पसंदीदा विधा को और इनकी पसंदीदा किताब को पुरस्कार दे दिया गया होता, तो सब ठीक हो जाता! वे जब स्वयं पुरस्कार पा जाते हैं, तो प्रसन्न और संतुष्ट होकर शांत हो जाते हैं। मानो अब साहित्य जगत में सब कुछ ठीक हो गया हो! <br />
<br />
लेकिन साहित्य जगत में कुछ भी ठीक नहीं है। साहित्य आम जनता के बल पर ही जीवित और जीवंत रह सकता है। इसके लिए जरूरी है कि वह अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचे। लोग उसे पढ़ें या दृश्य-श्रव्य रूपों में देखें-सुनें और साहित्यकारों को उससे अपने जीवनयापन के साधनों के साथ-साथ जनता से जरूरी ‘रेस्पांस’ और ‘फीडबैक’ भी मिलता रहे। और इसके लिए यह जरूरी है कि साहित्य के प्रकाशन, प्रसारण, अनुवाद और दृश्य-श्रव्य रूपों में रूपांतरण की एक समुचित व्यवस्था समाज में हो। इतिहास से पता चलता है कि प्रत्येक समाज अपने साहित्य के लिए ऐसी व्यवस्था किसी न किसी रूप में करता रहा है। आधुनिक युग में यह व्यवस्था मुख्यतः तीन प्रकार से होती है--साहित्य को सीधे जनता तक पहुँचाने वाली सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संस्थाओं के द्वारा; पत्रकारिता और पुस्तक प्रकाशन के द्वारा; और रंगमंच, रेडियो, टेलीविजन और सिनेमा जैसे माध्यमों के द्वारा। <br />
<br />
भारत में आजादी से पहले और आजादी के कुछ समय बाद तक भी यह व्यवस्था कायम थी। (आजादी से पहले टेलीविजन नहीं था, लेकिन बाद में जब आया, तो उसके जरिये साहित्य का काफी प्रसारण हुआ।) मगर धीरे-धीरे सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संस्थाओं से साहित्य दूर होता गया और उसका सीधे आम जनता तक पहुँचना कम होता गया। पत्रकारिता और साहित्य का जो घनिष्ठ संबंध पहले से चला आ रहा था, वह भी धीरे-धीरे क्षीण होता गया। पहले के पत्रकार प्रायः ‘साहित्यकार ही’ या ‘साहित्यकार भी’ हुआ करते थे और पत्र-पत्रिकाओं में साहित्य के लिए काफी जगह रहती थी। अब उनकी जगह ऐसे पत्रकारों ने ले ली है, जिनका प्रायः साहित्य से कोई संबंध नहीं होता और पत्र-पत्रिकाओं में साहित्य की जगह कम होते-होते खत्म-सी हो गयी है। रंगमंच, रेडियो, टेलीविजन और सिनेमा का भी साहित्य से अब पहले जैसा संबंध नहीं रहा। रहा पुस्तक प्रकाशन, सो उस पर सरकार और बाजार का ऐसा हमला हुआ है कि साहित्य को जनता तक पहुँचाने वाला यह पुल भी ध्वस्त हो गया है। <br />
<br />
पुस्तक प्रकाशन (बड़े संचार माध्यमों और अब इंटरनेट के बावजूद) आज भी साहित्य को जनता तक पहुँचाने का मुख्य माध्यम है। लेकिन अब वह जमाना नहीं रहा, जब प्रकाशक दूसरी तरह की पुस्तकों के साथ-साथ साहित्यिक पुस्तकों का प्रकाशन भी करते थे और कोशिश करते थे कि साहित्यिक पुस्तकें ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचें। इसके लिए वे पुस्तकों की कीमत कम रखते थे और बुकसेलरों को कमीशन देकर खुश रखते थे। हर शहर और हर कस्बे में मौजूद बुकसेलर साहित्यिक पुस्तकें रखते थे और आम पाठकों को बेचते थे। (मेरी कहानी ‘लाला बुकसेलर’ के लाला जैसे चरित्र हर जगह देखने को मिलते थे।) बुकसेलर अपने-आप में एक संस्था होते थे। यह संस्था प्रकाशक और पाठक के बीच एक पुल बनाने का काम करती थी। लेकिन सरकारी संस्थाओं ने थोक में किताबें खरीदना शुरू किया, तो बुकसेलर नामक संस्था ही समाप्त हो गयी। छोटे शहरों और कस्बों की तो बात ही क्या, महानगरों में भी, जहाँ अब हर सड़क और हर गली बाजार है, साहित्यिक पुस्तकों की कोई दुकान ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलेगी। <br />
<br />
किताबों की सरकारी थोक खरीद होने लगी, तो प्रकाशकों को आम पाठक की चिंता नहीं रही। थोक में किताबें खरीदने वाले अधिकारी को घूस देकर जब एक बार में ही एक हजार किताबें खपायी जा सकती हों, तो एक हजार खुदरा पाठकों तक पहुँचने की, उनकी क्रयशक्ति का खयाल करके किताबों की कीमत कम रखने की, बुकसेलरों तक किताबें पहुँचाने और उन्हें कमीशन देकर खुश रखने के लंबे झंझट में पड़ने की क्या जरूरत? रद्दी-सद्दी किताबें भी--अनाप-शनाप दाम रखकर भी--अगर घूस के बल पर थोक सरकारी खरीद में खपायी जा सकती हों, तो प्रकाशक पाठकों की परवाह क्यों करे? अच्छे लेखकों से अच्छी किताबें लिखवाने और उन्हें समय से सम्मानपूर्वक रॉयल्टी देने की अब क्या जरूरत, जबकि घटिया से घटिया लेखकों की घटिया से घटिया किताबें भी थोक खरीद में खपायी जा सकती हों? <br />
<br />
अतः अब कुछ ‘सेलेब्रिटी’ बन चुके और पाठ्यक्रमों में लग चुके चंद साहित्यकारों को छोड़कर बाकी साहित्यकारों की चिंता प्रकाशक नहीं करते। ‘‘साहित्यिक पुस्तकें बिकती नहीं’’ के तकियाकलाम के साथ वे साहित्यकारों से ऐसे बात करते हैं, जैसे उनकी किताब छापकर उन पर कोई कृपा कर रहे हों। और कृपा भी इस शर्त के साथ कि रॉयल्टी वगैरह तो आप भूल ही जायें, अपने संबंधों और संपर्कों के बल पर अपनी किताब (और हो सके, तो हमारी दूसरी किताबें भी) बिकवाने में हमारी मदद करें! और ऐसे ‘मददगार साहित्यकार’ आला अफसरों, राजनीतिक नेताओं, मंत्रियों आदि के रूप में उन्हें आजकल बहुतायत में मिल जाते हैं। वे साहित्यकार न हों, तो भी उनकी लिखी या किसी गरीब लेखक से लिखवायी गयी किताब प्रकाशक बढ़िया ढंग से छापते हैं और धूमधाम से किसी बड़े साहित्यकार के हाथों उसका लोकार्पण कराकर उन ‘मददगारों’ को रातोंरात बड़ा साहित्यकार बना देते हैं। <br />
<br />
बाकी साहित्यकारों से--खास तौर से नये लेखकों से--वे कहते हैं कि ‘‘आपकी पुस्तकें बिकती नहीं, आप छपाई का खर्च दे दें, हम आपकी पुस्तक प्रकाशित कर देंगे।’’ साथ में सलाह भी देते हैं--‘‘साहित्य पर दिये जाने वाले ढेरों पुरस्कार हैं, एकाध झटक लीजिए, सारा खर्चा निकल आयेगा।’’ लेखक सोचता है कि यह तरीका अच्छा है। झटपट किताब छप जायेगी और पुरस्कार मिलने से कुछ ख्याति तो मिलेगी ही, किताब छपवाने में लगी लागत भी निकल आयेगी। सो वह प्रकाशक को पैसा देकर अपनी किताब छपवा लेता है और उससे मिली सौ या पचास प्रतियाँ लेकर समीक्षकों और संपादकों को पटाने निकल पड़ता है कि उसकी किताब की कुछ चर्चा हो जाये, तो उस पर कोई पुरस्कार उसे मिल जाये। अगर बीस हजार देकर छपवायी गयी किताब पर दस हजार का पुरस्कार भी मिल गया, तो गनीमत है। गाँठ से गयी आधी रकम वापस मिल गयी और आधी से जो नाम कमाया, वह एक तरह का सांस्कृतिक पूँजी निवेश हुआ, जो आगे चलकर कोई बड़ा पुरस्कार दिलवायेगा! <br />
<br />
और सरकार तथा बाजार की कृपा से लेखकों को दिये जाने वाले पुरस्कारों की बाढ़-सी आ गयी है। विभिन्न प्रकार की छोटी और बड़ी, सरकारी और अर्धसरकारी, गैर-सरकारी और निजी, देशी और विदेशी संस्थाएँ भारतीय लेखकों को विभिन्न प्रकार के छोटे-बड़े पुरस्कार बाँटने लगी हैं। इनमें हजारों रुपयों से लेकर लाखों रुपयों तक के पुरस्कार शामिल हैं। इस प्रकार के कुल पुरस्कार कितने हैं और कुल मिलाकर कितनी धनराशि के हैं, इसके आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन मोटे अनुमान के तौर पर इनकी संख्या हजारों की और इनके जरिये लेखकों को दी जाने वाली धनराशि करोड़ों रुपयों की मानी जा सकती है। इन पुरस्कारों को प्रदान करने के लिए आयोजित कार्यक्रमों पर पुरस्कारों में दी जाने वाली राशि से कई गुना ज्यादा खर्च आता है। एक अनुमान के अनुसार पुरस्कार की राशि और पुरस्कार समारोह पर होने वाले खर्च का अनुपात 1 : 5 का होता है। अर्थात् बीस हजार रुपये का पुरस्कार देने के लिए आयोजित समारोह पर एक लाख रुपये खर्च होते हैं। <br />
<br />
इस प्रकार यदि प्रति वर्ष दिये जाने वाले साहित्यिक पुरस्कारों और उनको देने पर हुए कुल खर्चों को जोड़ें, तो मोटे तौर पर भी अनुमानित आँकड़े अंग्रेजी मुहावरे में ‘माइंड बौगलिंग’ होंगे और हिंदी मुहावरे में लगेगा कि भारतीय साहित्य और साहित्यकारों के लिए यह ‘स्वर्णयुग’ है; भारतीय साहित्य खूब फल-फूल रहा है।<br />
<br />
लेकिन वास्तविकता यह है कि पुरस्कारों की इस बाढ़ ने साहित्यकारों को समृद्ध नहीं, विपन्न और बेचारा बना दिया है। इस बाढ़ में बहता हुआ लेखक समझ ही नहीं पाता कि उसे जाना कहाँ था और वह जा कहाँ रहा है। उसे प्रकाशक के माध्यम से अपने पाठक तक पहुँचना था। इसके लिए उसे मालिक-मजदूर वाला ही सही, एक ठोस संबंध प्रकाशक के साथ बनाना था, जिसकी शर्त यह होती कि प्रकाशक चाहे अपने मुनाफे के लिए उसका शोषण कर ले, पर उसे उसके पाठक तक पहुँचा दे। फिर पाठक उसे अपनाये या दुतकारे, पुरस्कृत करे या प्रताड़ित करे, लेखक जाने और उसका काम जाने। मगर किताबों की थोक सरकारी खरीद के जरिये भ्रष्ट और बेईमान बना दिया गया प्रकाशक उसे पाठक तक पहुँचाने का झाँसा देकर अपनी नाव में बिठाता है और मँझधार में पहुँचाकर उस नदी में फेंक देता है, जिसमें पुरस्कारों की बाढ़ आयी हुई है। लेखक से मानो वह कहता है--‘‘पाठक को भूल जाओ। लेखन के पारिश्रमिक को भूल जाओ। तुमने किताब लिखने और छपवाने में जो मेहनत और लागत लगायी है, उसके बदले में जो वसूल कर सकते हो, पुरस्कार देने वालों से वसूल करो। मैं चला, अब मेरा-तुम्हारा कोई रिश्ता नहीं।’’ और पुरस्कारों की बाढ़ में बहता लेखक पाता है कि वह इस नदी से निकल भी नहीं पा रहा है, क्योंकि उसे एक ऐसे मायाजाल में बाँधकर यहाँ फेंका गया है, जिसमें बँधा वह छटपटा तो सकता है, पर निकल नहीं सकता। <br />
<br />
साहित्यिक पुरस्कारों पर जितना धन लुटाया जाता है, उतने से ऐसी व्यवस्था मजे में की जा सकती है कि साहित्य सस्ता और सुलभ हो जाये, उसके पाठकों की संख्या बढ़े, अन्य भाषाओं में उसके अनुवाद और अन्य माध्यमों के लिए उसके रूपांतरण की व्यवस्थाएँ बनें और साहित्य जनता से जुड़कर जीवित और जीवंत बना रहे। लेकिन हर साल करोड़ों किताबों की सरकारी खरीद के बावजूद, और इतने अधिक बड़े-बड़े पुरस्कारों के बावजूद, साहित्यकार अपने साहित्य के बल पर जीवित नहीं रह सकता। वह अपनी आजीविका के लिए कोई साहित्येतर काम करने पर मजबूर होता है। वह समाज में साहित्यकार के रूप में नहीं, बल्कि उसी काम को करने वाले बाबू, अफसर, अध्यापक आदि के रूप में जाना जाता है। उसकी हालत इतनी खराब है कि वह या तो पुरस्कारों का ‘दान’ पाने के लिए ‘दाताओं’ के सामने याचक की तरह खड़ा होता है या तरह-तरह की तिकड़में करके उनसे पुरस्कार ‘झटक लेने’ की अपसंस्कृति का शिकार होने को मजबूर होता है। <br />
<br />
प्रश्न यह है कि साहित्य और साहित्यकार इस मायाजाल से कैसे निकलें? इसका उत्तर साहित्य और संस्कृति से संबंधित संस्थाओं की आलोचना करते रहने से नहीं मिलेगा। सरकार और बाजार इस समस्या को हल कर देंगे, यह सोचना तो और भी आत्मघाती होगा, क्योंकि यह समस्या तो उन्हीं की पैदा की हुई है। उनकी रुचि इसे हल करने में नहीं, बढ़ाने में ही हो सकती है। अतः इस समस्या का हल स्वयं साहित्यकारों को ही करना होगा। और इसके लिए सबसे पहला काम होगा पुरस्कारों को ‘न’ कहना और स्वयं को तथा अपने साहित्य को पाठकों तक ले जाना। इसके तरीके क्या-क्या हो सकते हैं, यह साहित्यकारों को मिल-जुलकर सोचना होगा।<br />
<br />
<span style="color: blue;"><b>--रमेश उपाध्याय </b></span></div>
ramesh upadhyayhttp://www.blogger.com/profile/05054633574501788701noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-1496071818736613491.post-63351310363618909952012-10-24T07:23:00.000-07:002012-10-24T07:27:01.080-07:00बहस के लिए <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<div style="text-align: justify;">
'तद्भव' के आख्यान पर एकाग्र अंक (अक्टूबर, 2011) में पिछले पच्चीस वर्षों की हिंदी कहानी पर एक लंबा लेख प्रकाशित हुआ था. मैंने उस पर एक टिप्पणी 'तद्भव' के नये अंक (अक्टूबर, 2012) में लिखी है. यह टिप्पणी 'बहस' के अंतर्गत छापी गयी है, लेकिन मेरी टिप्पणी के साथ ही उस लेख के लेखक का 'जवाब' (?) प्रकाशित करते हुए सम्पादकीय टिप्पणी में अखिलेश ने "इस बहस को अब यहीं विराम दिया जा रहा है" लिख कर बहस को बंद कर दिया है, जबकि बहस तो अब शुरू होनी चाहिए थी. मेरी टिप्पणी यहाँ प्रस्तुत है. आप चाहें, तो यहाँ या अन्यत्र इस बहस को आगे बढ़ा सकते हैं. </div>
<div style="text-align: justify;">
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<div style="text-align: center;">
<span style="font-size: large;"><span style="color: blue;"><b>यथार्थवाद और मार्क्सवाद को विकसित करें</b></span></span></div>
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<br />
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<span style="color: red;"><b><span style="font-family: "Times New Roman","serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">Capitalism is a world system. Its victims can effectively
face its challenges only if they are also organized at the global level.</span></b></span></div>
<div align="right" class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0cm; margin-left: 72.0pt; margin-right: 72.0pt; margin-top: 0cm; mso-layout-grid-align: none; tab-stops: 18.0pt; text-align: right; text-autospace: none;">
<span style="color: red;"><b><span style="font-family: "Times New Roman","serif"; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">--Samir Amin</span><i><span style="font-family: "Times New Roman","serif"; font-size: 11.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: Calibri; mso-fareast-language: EN-US; mso-fareast-theme-font: minor-latin;"> </span></i></b></span></div>
<div align="right" class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0cm; margin-left: 72.0pt; margin-right: 72.0pt; margin-top: 0cm; mso-layout-grid-align: none; tab-stops: 18.0pt; text-align: right; text-autospace: none;">
<span style="color: red;"><b><i><span style="font-family: "Times New Roman","serif"; font-size: 11.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: Calibri; mso-fareast-language: EN-US; mso-fareast-theme-font: minor-latin;">The World We Wish To See (2008</span></i>)</b></span></div>
<br />
हिंदी की कथा-समीक्षा में नवीनता पर जितना ज्यादा जोर दिया जाता है, उतना मौलिकता पर दिया गया होता, तो उसका बेहतर विकास होता। नवीनता और मौलिकता में कोई अंतर्विरोध नहीं है, बल्कि सच्ची नवीनता तो मौलिकता में से ही आती है, लेकिन मौलिकता उत्पन्न करना मुश्किल काम है, जबकि नवीनता नये फैशन के कपड़े पहन लेने की तरह आसानी से प्रदर्शित की जा सकती है। मसलन, जब तक आधुनिकतावाद का फैशन रहे, आप आधुनिकतावादी बने रहें, और जब उत्तर-आधुनिकतावाद का नया फैशन आये, तो आप उत्तर-आधुनिकतावादी हो जायें! लेकिन फैशन में तमाम खूबियों के बावजूद यह एक बड़ी खामी होती है कि उसमें मौलिकता नहीं, नकल होती है। विडंबना यह है कि हिंदी का कथा-समीक्षक, जो ‘भूमंडलीय दक्षिण’ का होने के नाते ‘भूमंडलीय उत्तर’ के वर्चस्व का विरोधी होना चाहिए, फैशनेबल नवीनता के चक्कर में फँसकर उसका अनुयायी बन जाता है। उदाहरण के लिए, यदि ‘वहाँ’ यह घोषणा कर दी जाती है कि साहित्य में यथार्थवाद और मार्क्सवाद का अंत हो चुका है, तो वह अपनी स्थिति और परिस्थिति की वास्तविकता की ओर से आँख मूँदकर ‘यहाँ’ भी उस घोषणा को दोहराने लगता है!<br />
<br />
‘तद्भव’ के ‘आख्यान पर एकाग्र’ अंक (अक्टूबर, 2011) में प्रोफेसर राजकुमार ने पिछले पच्चीस वर्षों की हिंदी कहानी पर एक लंबा लेख लिखा है, जिसमें उनका कहना है कि ‘‘यथार्थवादोत्तर/मार्क्सवादोत्तर ज्ञान और आख्यान कला से रचनात्मक संवाद किये बगैर हिंदी कथा का सार्थक विकास असंभव है।’’ <br />
<br />
अंग्रेजी के ‘पोस्ट’ का हिंदी अनुवाद ‘उत्तर’ उस चीज के अंत का सूचक होता है, जिसके पहले (जैसे ‘उत्तर-आधुनिकता’ में) या पीछे (जैसे ‘साम्यवादोत्तर’ में) इसे लगा दिया जाता है। इस प्रकार बनाये गये शब्द पुरानी चीजों के खत्म हो जाने के बाद आयी नयी चीजों के सूचक भी होते हैं। अतः ऊपर उद्धृत वाक्य का अर्थ यह हुआ कि यथार्थवाद और मार्क्सवाद नामक पुरानी चीजें खत्म हुईं, उनके बाद नया ज्ञान आ गया है, नयी आख्यान कला आ गयी है और ये दोनों नयी चीजें हिंदी कथा के लिए इतनी जरूरी हैं कि इनके बिना उसका सार्थक विकास नहीं हो सकता। <br />
<br />
‘‘यथार्थवादोत्तर/मार्क्सवादोत्तर’’ का यह अर्थ तो स्पष्ट है कि इन दोनों का वैसा ही उत्तर-आधुनिकतावादी अंत हो चुका है, जैसा आधुनिकता का अंत, इतिहास का अंत, विचारधारा का अंत इत्यादि, लेकिन ‘‘हिंदी कथा का सार्थक विकास’’ में ‘सार्थक’ शब्द कुछ चक्कर में डालने वाला है, क्योंकि उत्तर-आधुनिकतावाद तो ‘अर्थ’ और ‘सार्थकता’ का भी अंत कर चुका है। फिर, ‘‘यथार्थवादोत्तर/मार्क्सवादोत्तर’’ में बीच की तिरछी रेखा का क्या मतलब है, जो प्रायः ‘अथवा’ की सूचक होती है? क्या यथार्थवाद और मार्क्सवाद समानार्थक हैं? एक-दूसरे के पर्यायवाची या स्थानापन्न हैं? या अभिन्न? अगर ऐसा है, तो मार्क्सवादियों के लिए यह प्रसन्नता की बात होनी चाहिए, क्योंकि वे तो यह मानते ही हैं कि यथार्थवादी ही सच्चा मार्क्सवादी हो सकता है, और जो यथार्थवादी है, वह घोषित रूप से मार्क्सवादी न होने पर भी मार्क्सवादी हो सकता है। यथार्थवाद के लिए ही मार्क्स-एंगेल्स बाल्जाक के प्रशंसक थे और लेनिन तोल्सतोय के!<br />
<br />
खैर, इन बारीकियों में न जायें, उत्तर-आधुनिकतावादी ‘अंतों’ की ही बात करें, तो यदि यथार्थवाद और मार्क्सवाद का अंत हो चुका है, तो प्रश्न उठता है: इनके बाद जो ‘ज्ञान’ आया है और जो ‘आख्यान कला’ आयी है, वह क्या है? मैंने अपनी पुस्तक ‘आज का पूँजीवाद और उसका उत्तर-आधुनिकतावाद’ (1999) में इस प्रश्न का उत्तर खोजने का प्रयास किया था और पाया था कि <i>उत्तर-आधुनिकतावाद आज के पूँजीवाद की विचारधारा है, जो ज्ञान की जगह अज्ञान का, तर्क की जगह तर्कहीनता का और विवेक की जगह विवेकहीनता का प्रचार-प्रसार करती है। इसका उद्देश्य लोगों को समाजवाद और साम्यवाद की दिशा में जाने से रोकना तो है ही, पूँजीवादी जनवाद को समाप्त करना भी है। </i><br />
<i><br />उत्तर-आधुनिकतावाद का सबसे प्रमुख तत्त्व है ‘एलीटिज्म’ (अभिजनवाद), जिसके द्वारा विशिष्ट और सामान्य लोगों में भेद किया जाता है और सामान्य लोगों को--अर्थात् गरीब, शोषित, उत्पीड़ित जनता और उसके पक्षधरों को नीची नजर से देखा जाता है। रिचर्ड रोर्टी, जो उत्तर-आधुनिकतावाद के एक प्रमुख चिंतक माने जाते हैं, अपनी पुस्तक ‘कंटिंजेंसी, आयरनी एंड सॉलिडैरिटी’ (1989) में बौद्धिक और सामान्य लोगों में यह भेद बताते हैं कि बौद्धिक लोग ‘आयरनिस्ट’ (विडंबनावादी) होते हैं, जबकि सामान्य लोग जीवन को गंभीरता से लेते हैं। अर्थात् सामाजिक यथार्थ को ध्यान से देखना, जीवन की समस्याओं पर गंभीरतापूर्वक विचार करना और उनके समाधान के लिए प्रयत्नशील होना जीवन को गंभीरता से लेना है, और यह सामान्य लोगों का काम है, जबकि विशिष्ट बौद्धिक व्यक्ति जीवन को गंभीरता से नहीं लेते, उस पर हँसते हैं। </i><br />
<br />
इस ‘मार्क्सवादोत्तर ज्ञान’ के साथ आयी ‘यथार्थवादोत्तर आख्यान कला’ के बारे में मैंने लिखा था : <br />
<br />
<i>आजकल हिंदी के लेखकों को यह अभिजनवाद खूब प्रभावित कर रहा है। गंभीर लेखन उत्तर-आधुनिकतावादी लोगों की नजर में पुराना, पिछड़ा हुआ और उपेक्षणीय लेखन है। साधारण पाठकों की समझ में आने वाला लेखन घटिया है। श्रेष्ठ लेखन वह है, जो विशिष्ट पाठकों के लिए किया जाये, मगर हल्का-फुल्का हो; जिसमें व्यंग्य, विडंबना, भदेस और आत्मोपहास का मिश्रण हो! उसकी तुलना में गंभीर सामाजिक समस्याएँ उठाने वाला लेखन बेकार है! ऐसा लेखन घटिया और छोटे लेखक करते हैं! </i><br />
<br />
लेकिन हिंदी साहित्य का सौभाग्य है कि उत्तर-आधुनिकतावादियों की तमाम कोशिशों के बावजूद इस ‘मार्क्सवादोत्तर ज्ञान’ और इस ‘यथार्थवादोत्तर आख्यान कला’ को थोड़े-से फैशनपरस्त लेखकों ने ही अपनाया। फैशनपरस्त लेखकों के लिए विचार भी फैशन की तरह अपनायी और त्याग दी जाने वाली चीजों की तरह होते हैं। उनके लिए अस्तित्ववाद हो या मार्क्सवाद या उत्तर-आधुनिकतावाद--सब साहित्यिक फैशन हैं। और फैशन तो बदलते ही रहते हैं। कल मार्क्सवाद का फैशन था, आज ‘मार्क्सवादोत्तर’ का फैशन है। मैंने अपने निबंध ‘साहित्य में फैशन और नवोन्मेष’ (2000) में लिखा था : <br />
<br />
<i>साहित्य में भी फैशन चलते हैं। उदाहरण के लिए, बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के हिंदी साहित्य को देखें। एक समय आता है, जब बहुत-से लेखक सार्त्र, कामू, काफ्का आदि की चर्चा करते हुए ऊब, कुंठा, अकेलेपन, अजनबीपन आदि पर लिखने-बोलने लगते हैं। फिर एक समय आता है, जब बहुत-से लेखक मार्क्स, लेनिन, माओ आदि की चर्चा करते हुए वर्ग-संघर्ष, क्रांति, पक्षधरता, प्रतिबद्धता आदि पर लिखने-बोलने लगते हैं। इसी तरह फिर एक समय आता है, जब बहुत-से लेखक ल्योतार, फूको, दरीदा आदि की चर्चा करते हुए आख्यान, पाठ, अंत, विमर्श आदि पर लिखने-बोलने लगते हैं। </i><br />
<br />
लेकिन फैशनपरस्त लेखकों की दिक्कत यह होती है कि वे उन चीजों का भी अंत हुआ मान लेते हैं, जिनका वास्तव में अंत हुआ नहीं होता। उदाहरण के लिए, उन्होंने उत्तर-आधुनिकतावादियों की बातों पर भरोसा करके यह मान लिया कि आधुनिकता का अंत हो गया और उसके साथ-साथ मार्क्सवाद तथा यथार्थवाद का अंत भी हो गया। उन्होंने यह नहीं सोचा कि साहित्य में आधुनिकता, मार्क्सवाद और यथार्थवाद का आगमन दुनिया में पूँजीवाद के आगमन के साथ-साथ हुआ है और पूँजीवाद का अंत अभी नहीं हुआ है। अपने भीतर हुए तमाम परिवर्तनों के बाद भी पूँजीवाद पूँजीवाद ही है और शीत युद्ध की समाप्ति के बाद नव-उदारवाद या बाजारवाद के रूप में तो वह अपनी सारी प्रगतिशीलता खोकर पुराने पूँजीवाद की ही ओर लौट गया है। अतः जब पूँजीवाद का ही अंत नहीं हुआ, तो आधुनिकता का अंत कब और कैसे हो गया? पूँजीवाद का प्रतिपक्ष और विकल्प समाजवाद तथा उसकी विश्व-दृष्टि मार्क्सवाद भी आधुनिकता की ही देन है। सो जब तक आधुनिकता का अंत नहीं होता, समाजवाद और मार्क्सवाद का अंत कैसे हो जायेगा?<br />
<br />
हाँ, लेकिन जिस तरह पूँजीवाद अपने उदयकाल के समय का पूँजीवाद नहीं रह गया है--व्यापारिक पूँजीवाद, औद्योगिक पूँजीवाद, साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, एकाधिकारी पूँजीवाद जैसे उसके विभिन्न रूप रहे हैं और आज वह नव-उदारवाद या बाजारवाद के नये रूप में मौजूद है--उसी तरह समाजवाद और मार्क्सवाद के भी विभिन्न रूप रहे हैं। आज का मार्क्सवाद मार्क्स-एंगेल्स के जमाने का मार्क्सवाद नहीं है। वह भी बदलता और विकसित होता रहा है--रूस में एक ढंग से, चीन में दूसरे ढंग से, पूर्वी यूरोप में तीसरे ढंग से और तीसरी दुनिया के विभिन्न देशों में अपने-अपने अलग ढंग से। भारत में भी उसका कोई एक ही रूप नहीं है। यहाँ भी वह विभिन्न रूपों में मौजूद है और विभिन्न प्रकार से विकसित हो रहा है। वैश्विक स्तर पर वह राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों, जनता की जनवादी क्रांतियों और समाजवादी क्रांतियों में विकसित होता रहा है। आज भी वह विभिन्न देशों की विभिन्न प्रकार की परिस्थितियों में कहीं सामंतवाद के विरुद्ध, कहीं पूँजीवाद के विरुद्ध, कहीं अधिनायकवाद के विरुद्ध, कहीं फासीवाद के विरुद्ध, कहीं रंगभेदवाद के विरुद्ध, कहीं मर्दवाद के विरुद्ध, कहीं जातिवाद के विरुद्ध, कहीं संप्रदायवाद के विरुद्ध, कहीं बाजारवाद के विरुद्ध और कहीं प्रकृति एवं पर्यावरण का नाश करने वाली शक्तियों के विरुद्ध जारी जन-आंदोलनों में सतत विकासमान है। इस प्रकार वह कोई जड़ या मृत सिद्धांत अथवा पुराने फैशन की चीज नहीं है, जिसका अंत हो चुका हो। <br />
<br />
इसी तरह यथार्थवाद के रूप भी बदलते रहे हैं। अपने प्रारंभिक रूप यथातथ्यवाद या प्रकृतवाद से आगे विकसित होता हुआ वह आलोचनात्मक यथार्थवाद और समाजवादी यथार्थवाद के बाद अब भूमंडलीकरण के दौर में एक नये ढंग के यथार्थवाद तक आ पहुँचा है। उसके विभिन्न रूप बदलते हुए यथार्थ और उसको देखने की बदलती हुई जीवन-दृष्टि से संबंधित हैं। पूँजीवादी व्यवस्था को अपनी सहजात आधुनिकता से उत्पन्न यथार्थवाद का आज का बदला हुआ रूप रास नहीं आता, क्योंकि उसके जरिये पूँजीवाद की आलोचना और समाजवाद की माँग की जाती है। अतः आज के पूँजीवाद की विचारधारा उत्तर-आधुनिकतावाद से प्रभावित विद्वान तरह-तरह से यथार्थवाद का विरोध करते हैं। वे कभी यथार्थवाद को यथातथ्यवाद तक, कभी अनुभववाद तक और कभी लेखन की एक पद्धति या फैशन तक सीमित कर देते हैं। यही कारण है कि उन्हें साहित्य में अनुभववाद (‘‘लेखक के अपने जिये-भोगे यथार्थ’’ के रूप में) और जादुई यथार्थवाद (यथार्थ को देखने की जीवन-दृष्टि के रूप में नहीं, बल्कि लेखन की एक विशेष पद्धति या फैशन के रूप में) तो पसंद आते हैं और वे इस प्रकार की रचनाओं का ऊँचा मूल्य आँककर उसका प्रचार करते हैं, जबकि यथार्थवाद को पुराना बताकर खारिज करते हैं। <br />
<br />
प्रोफेसर राजकुमार ने पिछले पच्चीस साल की हिंदी कहानी पर लिखते हुए एक स्पष्टीकरण दिया है कि <i>‘‘हमारा उद्देश्य इस दौर का सांगोपांग इतिहास लिखना नहीं, बल्कि इस दौर में लिखी गयी कुछ बेहतरीन कहानियों का चयन करना है।’’</i> सब जानते हैं कि साहित्य में चुनने और छोड़ने की प्रक्रिया निरंतर और हर स्तर पर चलती है। रचनाकार दुनिया में मौजूद असंख्य विषयों में से कुछ ही विषय चुनकर उन पर लिखता है, संपादक असंख्य रचनाओं में से कुछ ही चुनकर प्रकाशित करता है, समीक्षक असंख्य रचनाओं में से कुछ ही चुनकर उनकी समीक्षा करता है और पाठक भी असंख्य रचनाओं और समीक्षाओं में से कुछ ही चुनकर पढ़ता है। फिर भी प्रोफेसर राजकुमार ने न जाने किन संभावित आपत्तियों से आशंकित होकर यह सफाई दी है कि ‘‘शायद ही कोई ऐसा लेखन हो, जो चयनधर्मी न हो। यह लेख भी चयनधर्मी है।’’ बेशक ऐसा ही है, लेकिन हर चयन के पीछे चयनकर्ता की एक दृष्टि होती है। अब चयनकर्ता की दृष्टि अगर ‘‘यथार्थवादोत्तर/मार्क्सवादोत्तर’’ दृष्टि है, तो कम से कम वे कहानियाँ तो उसके चयन से बाहर रह ही जायेंगी, जो घोषित रूप से यथार्थवादी और मार्क्सवादी लेखकों द्वारा लिखी गयी हों! <br />
<br />
मुझे अपना ही उदाहरण देने के लिए क्षमा किया जाये, लेकिन बात को स्पष्ट करने के लिए यह जरूरी है। पिछले पच्चीस वर्षों में मेरे पाँच (यदि ‘चर्चित कहानियाँ’ और ‘दस प्रतिनिधि कहानियाँ’ भी जोड़ लें, तो सात) कहानी संग्रह आये हैं--‘किसी देश के किसी शहर में’ (1987), ‘कहाँ हो प्यारेलाल!’ (1991), ‘अर्थतंत्र तथा अन्य कहानियाँ’ (1996), ‘डॉक्यूड्रामा तथा अन्य कहानियाँ’ (2006) और ‘एक घर की डायरी’ (2009)। इनमें शामिल मेरी कई कहानियाँ, जैसे ‘मिट्टी’, ‘दिशा’, ‘लाइ लो’, ‘सफाइयाँ’, ‘रात अब भी उतनी ही काली है’, ‘डेल्टा’, ‘अर्थतंत्र’, ‘स्पंदन’, ‘फासी-फंतासी’, ‘डॉक्यूड्रामा’, ‘आप जानते हैं’ आदि और इन संग्रहों के बाद लिखी गयी ‘त्रासदी...माइ फुट!’, ‘प्राइवेट पब्लिक’, ‘ग्लोबल गाँव के अकेले’ आदि कई कहानियाँ काफी चर्चित हुई हैं। इनमें से एक ‘आप जानते हैं’ राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा रूपांतरित नाटक के रूप में मंचित हुई है और दो कहानियाँ ‘लाइ लो’ और ‘सफाइयाँ’ दूरदर्शन द्वारा निर्मित टेलीफिल्मों के रूप में प्रसारित हुई हैं। इनमें से कुछ कहानियाँ भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनूदित भी हुई हैं तथा भाँति-भाँति के संकलनों में शामिल की गयी हैं। ताजा उदाहरण है अभी-अभी यतीश अग्रवाल द्वारा संपादित और रूपा से अंग्रेजी में प्रकाशित संकलन ‘। 'A Hundred Lamps' (2012), जिसमें मेरी कहानी ‘स्पंदन’ प्रेमचंद, फणीश्वरनाथ रेणु, निर्मल वर्मा, उदय प्रकाश, अवधेश प्रीत और रेखा अग्रवाल की कहानियों के साथ शामिल की गयी है। लेकिन प्रोफेसर राजकुमार ने मेरी किसी कहानी का उल्लेख करना उचित या आवश्यक नहीं समझा।<br />
<br />
खैर, मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं है। मैं उनकी चयनधर्मिता वाले स्पष्टीकरण से संतुष्ट हूँ। समीक्षक क्या चुने और क्या छोड़े, यह उसके चयन के निजी अधिकार तथा अपने मत को व्यक्त करने के स्वातंत्रय का मामला है। लेकिन आलोचना में अपनायी जाने वाली चयन-दृष्टि प्रवृत्तिगत होने के कारण किसी एक व्यक्ति की नहीं होती। वह एक प्रवृत्ति के रूप में साहित्य के विकास या ह्रास का कारण बन सकती है। अतः उस पर विचार करना आवश्यक है।<br />
<br />
हिंदी की कथा-समीक्षा में नवीनतम कहानी को मूल्यवान मानकर चुनने और उसकी पूर्ववर्ती कहानी को महत्त्वहीन समझकर छोड़ देने की एक परिपाटी चली आ रही है, जिसके तहत ‘नये’ को उभारने के लिए ‘पुराने’ को बेकार या गैर-जरूरी मानकर चलना तथा उसे ‘नये’ के विकास में बाधक बताना जरूरी माना जाता है। इसी का एक रूप है यथार्थवादी और मार्क्सवादी लेखकों द्वारा लिखे गये कथासाहित्य को पुराना घोषित करते हुए उसे हिंदी कथा के सार्थक विकास में बाधक बताना। <br />
हिंदी की कहानी समीक्षा में अक्सर यह हुआ है कि कहानी को दशकों और पीढ़ियों में बाँटकर देखा गया है और पूर्ववर्ती कहानी को ‘पुरानी’ तथा परवर्ती कहानी को ‘नयी’ बताते हुए ‘कहानी के विकास’ को समझने-समझाने की कोशिशें की गयी हैं। यह सिलसिला ‘नयी कहानी’ के दौर से शुरू होता है, जब बीसवीं सदी के पाँचवें दशक वाली पीढ़ी की ‘पुरानी’ कहानी के मुकाबले छठे दशक वाली पीढ़ी की ‘नयी’ कहानी में हिंदी कहानी का विकास देखा गया। इसी तर्ज पर आगे चलकर छठे दशक वाली पीढ़ी की ‘नयी कहानी’ के मुकाबले सातवें दशक की पीढ़ी की ‘अकहानी’ को हिंदी कहानी का विकास माना गया। इसके बाद लगभग यही सिलसिला ‘अकहानी’ के विरुद्ध ‘समांतर कहानी’ को, ‘समांतर कहानी’ के विरुद्ध ‘जनवादी कहानी’ को, ‘जनवादी कहानी’ के विरुद्ध ‘जादुई यथार्थवादी’ कहानी को नयी कहानी मानते हुए जारी रहा। इसी सिलसिले की अगली कड़ी है यथार्थवादी और मार्क्सवादी कहानी को पुरानी मानकर उत्तर-आधुनिकतावादी कहानी को नयी बताना। <br />
<br />
हालाँकि ज्ञान जहाँ से भी मिले, ले लेना चाहिए; कला जहाँ से भी सीखने को मिले, सीख लेनी चाहिए; फिर भी यह ध्यान रखना जरूरी है कि हम कोई नयी चीज कहीं से लेकर अपनायें, तो अपनी परिस्थितियों में अपनी जरूरतों के मुताबिक और अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आवश्यक होने पर अपनायें। वैसे नहीं, जैसे हमारे किसान आजकल खेती की नयी तकनीक अपनाते हैं। मसलन, एक बहुराष्ट्रीय कंपनी अपने मुनाफे के लिए खेती की कोई नयी तकनीक लेकर आती है और भारतीय किसान से कहती है कि खेती की तुम्हारी अपनी तकनीक पुरानी और बेकार हो चुकी है, हमारी यह नयी तकनीक लो, इससे अधिक लाभदायक खेती करो और अपने खेतों में वह पैदा करो, जिसकी तुम्हें जरूरत हो या न हो, हमें जरूरत है! किसान तो अपनी गरीबी, अशिक्षा, राज्य और समाज द्वारा की जाने वाली उपेक्षा और बाजार की ताकतों का संगठित प्रतिरोध करने में अक्षम होने के कारण मजबूरी में उसके झाँसे में आकर अपनी खेती की बर्बादी के साथ खुद को भी तबाह करके आत्महत्या कर लेता है; लेकिन हिंदी लेखकों की ऐसी क्या मजबूरी है कि वे अपने साहित्य के विकास के लिए निहायत जरूरी यथार्थवाद और मार्क्सवाद को त्यागकर नवीनता के नाम पर लेखन के उत्तर-आधुनिकतावादी तौर-तरीके अपनाने का आत्मघाती कदम उठायें? <br />
<br />
आज का साहित्यकार, चाहे वह घोषित रूप से यथार्थवादी और मार्क्सवादी न भी हो, वर्तमान पूँजीवादी विश्व व्यवस्था के यथार्थ को समझे बिना, जनतांत्रिक और मानवीय मूल्यों के आधार पर उसकी आलोचना किये बिना, और इस व्यवस्था के बदले जाने तथा एक बेहतर व्यवस्था के बनाये जाने की जरूरत पर जोर दिये बिना एक भी सार्थक पंक्ति नहीं लिख सकता। आज जनतांत्रिक मूल्यों--समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के मूल्यों--पर ही नहीं, बल्कि सच्चाई, अच्छाई, न्याय, नैतिकता, प्रेम, सहिष्णुता, सहयोग, सहानुभूति, करुणा, परदुखकातरता जैसे मानवीय मूल्यों पर भी संकट छाया हुआ है। इन मूल्यों को बचाने और बढ़ाने की जिम्मेदारी जितनी सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक संस्थाओं तथा संगठनों की है, उतनी ही साहित्यकारों की। आज के साहित्यकारों का यथार्थवादी और मार्क्सवादी होना प्रासंगिक बने रहने के लिए ही नहीं, अपनी मनुष्यता को बचाये रखने के लिए भी आवश्यक है। अलबत्ता यथार्थवाद और मार्क्सवाद के बारे में किये जाने वाले दुष्प्रचार से बचने के लिए आज के यथार्थवाद और आज के मार्क्सवाद को समझना तथा रचना एवं आलोचना में उसको विकसित करना आवश्यक है। <br />
<br />
यथार्थवाद का मतलब यथातथ्यवाद--अथवा यथास्थिति का चित्रण करने जैसा काम--नहीं है। यथार्थवाद का मतलब है अतीत और भविष्य के संदर्भ में वर्तमान को देखना और ‘जो है’ उसके बारे में ही नहीं, बल्कि ‘जो होना चाहिए’ उसके बारे में भी लिखना। इसी तरह मार्क्सवादी कथा-लेखन का मतलब कथा में किसी मार्क्सवादी दल या संगठन का प्रवक्ता होकर उसकी राजनीति का प्रचार करना या केवल किसानों-मजदूरों के संघर्ष और क्रांति को ही विषय बनाकर लिखना नहीं है। आज की दुनिया में मार्क्सवादी कथाकार होने का मतलब है वर्तमान पूँजीवादी विश्व-व्यवस्था की जगह समाजवादी विश्व-व्यवस्था के निर्माण के लिए संघर्षरत शक्तियों के साथ खड़े होना। कथा में यह काम वर्ग-संघर्ष या क्रांति के बारे में लिखकर ही नहीं, बल्कि सच्चाई और अच्छाई जैसी ‘मामूली’ चीजों के बारे में लिखकर भी किया जा सकता है। हिंदी कथा का सार्थक विकास इसी प्रकार होता आया है और आगे भी किया जा सकता है। <br />
<br />
सौभाग्य से हिंदी कथाकारों में से ज्यादातर ‘सफलता’ को उतना बड़ा मूल्य नहीं मानते, जितना ‘सार्थकता’ को। यही कारण है कि थोड़े-से फैशनपरस्त लोगों को छोड़कर हिंदी के प्रायः सभी कथाकार किसी न किसी रूप में यथार्थवादी हैं और उनमें से जो घोषित रूप से मार्क्सवादी नहीं हैं, वे भी अपनी रचनाओं में लगभग वही काम करते नजर आते हैं, जो मार्क्सवादी लेखक करते हैं या उन्हें करना चाहिए। <br />
<br />
‘तद्भव’ के इस अंक में प्रकाशित कहानियों को देखें, तो उनमें से किसी में भी ‘‘यथार्थवादोत्तर/मार्क्सवादोत्तर ज्ञान और आख्यान कला’’ के दर्शन नहीं होते। ये सभी कहानियाँ आज के बदलते हुए यथार्थ को नये यथार्थवादी रूप-शिल्प में सामने लाने वाली यथार्थवादी कहानियाँ हैं। इनमें यथार्थवाद का निषेध नहीं, बल्कि उसका विकास किया जाता दिखायी पड़ता है। लेकिन इस विकास को हम तभी देख सकते हैं, जब हम यथार्थवाद को महज एक ‘साहित्यिक पद्धति’ न मानें, बल्कि एक जीवन-दृष्टि मानकर चलें--हालाँकि इन कहानियों को पढ़ने पर पता चलता है कि एक साहित्यिक पद्धति के रूप में भी यथार्थवाद की उपयोगिता अभी समाप्त नहीं हुई है, जैसा कि शिवमूर्ति, सारा राय और मनोज कुमार पांडेय की कहानियों में तो स्पष्ट ही देखा जा सकता है, अन्य कहानियों में भी थोड़े बौद्धिक आयास के जरिये उसे समझा जा सकता है। उदाहरण के लिए, काशीनाथ सिंह की कहानी में जहाँ-तहाँ गद्य को कविता की पंक्तियों की तरह लिखते हुए, राजेश जोशी की कहानी में ‘पूर्वकथा’, ‘विष्कंभक’ और ‘डायरी’ के शिल्प में किस्से को आगे-पीछे घुमाते हुए, योगेंद्र आहूजा की कहानी में एक ही कहानी को अनेक पात्रों के दृष्टिकोण से कहते हुए और नीलाक्षी सिंह की कहानी में एक ठेठ ग्रामीण यथार्थ की कहानी को उच्च शिक्षा प्राप्त शहरी बौद्धिकों वाली भाषा में सुनाते हुए कथा-लेखन के जो नये प्रयोग किये गये हैं, वे कोई ‘‘यथार्थवादोत्तर आख्यान कला’’ के नमूने नहीं, बल्कि यथार्थवादी कथा-लेखन के ही विविध रूप हैं। यथार्थवादी कथा-लेखन में इस प्रकार के नये प्रयोगों की गुंजाइश और जरूरत हमेशा रही है, आज भी है और आगे भी रहेगी। <br />
<br />
जहाँ तक ‘‘मार्क्सवादोत्तर ज्ञान और आख्यान कला’’ का प्रश्न है, यह सही है कि प्रगतिशील और जनवादी कहानी के आंदोलनों के दौरान मार्क्सवाद या क्रांति का प्रचार करने वाली जो कहानियाँ लिखी गयी थीं, वैसी कहानियाँ लिखने का दौर बीत चुका है, और यह अच्छा ही हुआ है, लेकिन इससे मार्क्सवाद की जरूरत या अहमियत कम नहीं हुई, बल्कि बढ़ी है। आज मार्क्सवाद कहानी की विषयवस्तु के रूप में नहीं, बल्कि कहानीकार की विश्व-दृष्टि के रूप में कहानी में अनुस्यूत रहता है। वह कहानी में उन मूल्यों के रूप में गुँथा रहता है, जो मानवीय, जनतांत्रिक और अंततः समाजवाद की ओर ले जाने वाले मूल्य हैं। <br />
<br />
इस दृष्टि से देखें, तो ‘तद्भव’ के इस अंक में प्रकाशित सातों कहानियाँ यथार्थवादी जीवन-दृष्टि तथा मार्क्सवादी विश्व-दृष्टि से लिखी गयी कहानियाँ हैं, चाहे इनके लेखक स्वयं को यथार्थवादी और मार्क्सवादी मानते हों या न मानते हों। पहली बात तो यह है कि इनमें से कोई भी कहानी वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था के औचित्य का प्रतिपादन नहीं करती, बल्कि सभी कहानियाँ किसी न किसी रूप में उसके यथार्थ को सामने लाकर उसकी निंदा या आलोचना ही करती हैं। दूसरी बात यह कि इनके लेखक जिन मूल्यों को बचाने और बढ़ाने के उद्देश्य से कहानी लिख रहे हैं, वे सभी मूल्य आज की दुनिया की जगह एक बेहतर दुनिया की जरूरत बताने वाले मूल्य हैं। तीसरी और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इन कहानियों के पात्रों के प्रति लेखकीय सहानुभूति आम तौर पर वर्गीय सहानुभूति है। <br />
<br />
कहानीकार अपनी कहानी के लिए कौन-सा विषय चुने, कौन-सी समस्या उठाये, उस विषय या समस्या को कहानी में उठाने के लिए कैसे पात्र चुने, उनके भीतरी-बाहरी संघर्षों को कैसे सामने लाये और कहानी को एक तार्किक परिणति वाले कलात्मक अंत तक कैसे पहुँचाये--कहानी की रचना-प्रक्रिया से संबंधित ये तमाम प्रश्न निरे साहित्यिक प्रश्न नहीं, बल्कि बड़े गहरे अर्थों में राजनीतिक अर्थशास्त्र के प्रश्न हैं और आज की दुनिया का राजनीतिक अर्थशास्त्र तब तक हमारी समझ में नहीं आ सकता, जब तक हम उसे मार्क्सवादी विश्व-दृष्टि से न देखें। मार्क्सवादी विश्व-दृष्टि की एक अनन्य विशेषता है वर्गीय पक्षधरता, जो कथासाहित्य में कथा-पात्रों के प्रति लेखकीय सहानुभूति के रूप में व्यक्त होती है। लेकिन यह विशेषता बहुत-से गैर-मार्क्सवादी लेखकों के कथा-लेखन में भी पायी जाती है। अतः कथाकार की विश्व-दृष्टि क्या है, यह हम तभी जान सकते हैं, जब यह देखें कि कथाकार की सहानुभूति किन पात्रों के प्रति है और उस सहानुभूति का वह--जाहिर है, कहानी के माध्यम से--करना क्या चाहता है। कहानी की रचना-प्रक्रिया का यह प्रश्न लेखन की पद्धति का प्रश्न नहीं, बल्कि लेखक की विश्व-दृष्टि का प्रश्न है, जिससे वह देखता है कि जिन पात्रों को वह अपनी सहानुभूति दे रहा है, उनकी वास्तविक दशा और दिशा क्या है; उनका अतीत क्या रहा है और वर्तमान में निहित उनके भविष्य की संभावनाएँ क्या हैं। <br />
<br />
इस दृष्टि से ‘तद्भव’ के इस अंक में प्रकाशित सातों कहानियों को देखें, तो पायेंगे कि इन कहानियों के लेखक मार्क्सवादी हों या न हों, उनकी लेखकीय सहानुभूति कहानी में ताकतवर के खिलाफ कमजोर के साथ है और वह उसके पक्ष में स्पष्ट रूप से व्यक्त होती है। उदाहरण के लिए, काशीनाथ सिंह की कहानी ‘महुआचरित’ में महुआ के प्रति, राजेश जोशी की कहानी ‘गाइबबाज’ में कप्पू के प्रति, शिवमूर्ति की कहानी ‘ख्वाजा, ओ मेरे पीर!’ में बूढ़े मामा-मामी के प्रति, सारा राय की कहानी ‘अपराध’ में बड़ी मम्मी के प्रति, योगेंद्र आहूजा की कहानी ‘एक्यूरेट पैथोलॉजी’ में गनपत, रोशनलाल, कवि, ज्योतिर्मयी और पेशे से पेशाब विश्लेषक लेखक के प्रति, नीलाक्षी सिंह की कहानी ‘साया कोई’ में किरण और मुसमातिन के प्रति और मनोज कुमार पांडेय की कहानी ‘पुरोहित जिसने मछलियाँ पालीं’ में पार्वती, मैना और रामदत्त के प्रति। इन सब कहानियों में लेखकीय सहानुभूति ही वह आधार है, जिस पर इनकी समूची मूल्य-संरचना खड़ी होती है और लेखक की रचना-प्रक्रिया पक्षधरता और प्रतिबद्धता के ही नहीं, बल्कि संप्रेषण और कलात्मकता के प्रश्नों को भी हल करती हुई एक तार्किक परिणति वाले कलात्मक अंत तक पहुँचकर कहानी को एक मुकम्मल कहानी बनाती है। <br />
<br />
भाषा, शिल्प और शैली का नयापन इन कहानियों में भी है, लेकिन वह दिखावटी नयापन नहीं है। ‘तद्भव’ के संपादक अखिलेश ने, जो स्वयं आज के एक महत्त्वपूर्ण कथाकार हैं, इस अंक के संपादकीय में दिखावटी नयेपन की ओर ध्यान दिलाते हुए यह चौकसी बरतने की सलाह ठीक ही दी है कि ‘‘कहीं यह ‘नया दिखना’ महज दिखावा न हो।’’ लेकिन उन्होंने उत्तर-आधुनिकतावादी भाषा में आज की हिंदी कहानी में जिस ‘नवोन्मेष’ के होने पर प्रसन्नता प्रकट की है, वह विचारणीय है। वे इस ‘नवोन्मेष’ का एक कारण यह बताते हैं कि हिंदी के कथाकार आधुनिकता और मार्क्सवाद ‘‘दोनों की महान परंपराओं और महावृत्तांतों के प्रति सतर्क दृष्टिकोण रखते हुए अपने समय की मीमांसा कर रहे हैं’’। यदि वे ऐसा कहते हुए प्रोफेसर राजकुमार के ‘‘यथार्थवादोत्तर/मार्क्सवादोत्तर ज्ञान और आख्यान’’ से अपनी सहमति जता रहे हैं, तो यह चिंता का विषय है। <br />
<br />
यह सही है कि हिंदी कहानी में एक नवोन्मेष की आवश्यकता है और उस दिशा में कुछ प्रयास भी हो रहा है, लेकिन वह हो चुका है, ऐसा मानना शायद जल्दबाजी है। और वह नवोन्मेष यथार्थवाद और मार्क्सवाद को त्यागकर उत्तर-आधुनिकतावाद को अपनाने से होगा, यह मानकर चलना तो बहुत ही चिंताजनक है। मैंने अपने निबंध ‘साहित्य में फैशन और नवोन्मेष’ (2000) में लिखा था :<i> </i><br />
<br />
<i>आज के हिंदी साहित्य को देखकर लगता है कि उसमें किसी मौलिक नवोन्मेष की
सख्त जरूरत है। इस जरूरत को आज बहुत-से लेखक महसूस कर रहे हैं। इसीलिए ऐसी
बहुत-सी रचनाएँ सामने आ रही हैं, जिनमें कुछ अलग ढंग से कोई नयी बात कहने
की कोशिश दिखायी पड़ती है और एक सामूहिक इच्छा का पता चलता है कि साहित्य आज
जहाँ है, वहाँ से आगे बढ़ना चाहिए। मगर कोई लक्ष्य और दिशा स्पष्ट न होने
से एक विभ्रम-सा फैला हुआ है, जिसमें ऐसे प्रयास व्यक्तिगत प्रयास बनकर रह
जाते हैं, साहित्य को ऊर्जा, गति और दिशा देने वाला कोई नवोन्मेष नहीं बन
पाते।</i><br />
<br />
<i>साहित्यिक नवोन्मेष के लिए आवश्यक है कि रचना और आलोचना के वर्तमान तौर-तरीकों को बदला जाये। लेकिन यह काम न तो उन लेखकों से हो सकता है, जो कुछ भी नया करके तत्काल प्रतिष्ठा, पुरस्कार आदि प्राप्त कर लेना चाहते हैं और न उन लेखकों से, जो किसी दल या संगठन की नित्य बदलने वाली ‘लाइन’ के अनुसार अपनी रचनाशीलता को ‘राजनीतिक रूप से सही’ रखने की कोशिशों में लगे रहते हैं। यह काम वे ही कर सकते हैं, जो सिर्फ आज के नहीं, बल्कि भविष्य के पाठकों को भी ध्यान में रखकर लिखते हैं और ‘आज का लेखन’ करने के बजाय ‘आगे का लेखन’ करते हैं; जो परिवर्तन और निरंतरता को समझते हुए परंपरा को आगे बढ़ाने में विश्वास करते हैं; जो ‘पुराने’ का पूर्ण निषेध करने के बजाय उसे समझते हैं और उसमें निहित जड़ एवं मृत को त्यागकर उसमें जो जीवंत है, उसे अपनाकर आगे बढ़ते हैं। ऐसे लेखक ही आगे का साहित्य रच सकते हैं।</i><br />
<br />
‘आगे के साहित्य’ की अपनी परिकल्पना को मैंने पाँच वर्ष बाद लिखे गये अपने एक अन्य निबंध ‘आगे की कहानी’ (2005) में सामने लाने की कोशिश की थी। मैंने महाआख्यानों के अंत की घोषणा करने वाले उत्तर-आधुनिकतावाद को आज के भूमंडलीय पूँजीवाद की विचारधारा बताते हुए लिखा था : <br />
<br />
<i>आगे बढ़ने के लिए कहानीकारों को यह सोचना होगा कि आज के पूँजीवाद का विकल्प क्या हो सकता है। आज के वैश्विक पूँजीवाद का विकल्प वैश्विक समाजवाद ही हो सकता है। अतः सोचना यह है कि हम उसकी दिशा में कैसे आगे बढ़ें।</i><br />
<br />
इस निबंध में मैंने लिखा था कि ‘आगे की कहानी’ की बात बीसवीं सदी के आठवें दशक में ही होने लगी थी। 1976 में हिंदी कहानी का पुनर्मूल्यांकन करने के लिए दिल्ली में आयोजित एक संगोष्ठी में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने ‘आगे की कहानी’ के लिए एक पंचसूत्री कार्यक्रम प्रस्तुत किया था, जो इस प्रकार था : <br />
<br />
<i>1. पश्चिमी फैशनपरस्त अंधानुकरण से बचो।<br />2. शिल्प को आतंक मत बनाओ।<br />3. उनके लिए भी लिखो जो अर्द्धशिक्षित हैं और उनके लिए भी जो अशिक्षित हैं, जिन्हें तुम्हारी कहानी पढ़कर सुनायी जा सके।<br />4. इस देश की तीन-चौथाई जनता की सोच-समझ को वाणी दो, जो वह खुद नहीं कह सकती। और,<br />5. कहानी को लोककथाओं और ‘फेबल्स’ की सादगी की ओर मोड़ो, उनके विन्यास से सीखो, और उसे आम आदमी के मन से जोड़ो।</i><br />
<br />
इस पंचसूत्री कार्यक्रम को उद्धृत करते हुए मैंने अपने निबंध में लिखा था : <br />
<br />
<i>जाहिर है, ये बातें इसीलिए कही गयी थीं कि उस समय की हिंदी कहानी में पश्चिमी फैशनपरस्त अंधानुकरण हो रहा था, शिल्प को आतंक बनाया जा रहा था, कहानी केवल शिक्षितों के लिए लिखी जा रही थी, उसमें देश की तीन-चौथाई जनता की सोच-समझ को वाणी नहीं दी जा रही थी और कहानी ऐसे जटिल विन्यास वाली कहानी बनती जा रही थी कि वह आम आदमी के मन से नहीं जुड़ पा रही थी। इन्हीं चीजों के विरुद्ध ‘जनवादी कहानी’ का आंदोलन शुरू हुआ था, जो उस समय के हिसाब से ‘आगे की कहानी’ थी। </i><br />
<br />
लेकिन <br />
<br />
<i>‘जनवादी कहानी’ के बाद हिंदी कहानी उस कार्यक्रम के अनुसार आगे नहीं बढ़ी। इसके विपरीत वह आगे बढ़ी ऐसी दो दिशाओं में, जो इस कार्यक्रम से कहानी को दूर ले जाने वाली थीं। एक दिशा थी ‘‘पश्चिमी फैशनपरस्त अंधानुकरण’’ तथा ‘‘शिल्प को आतंक बनाने’’ वाले कहानी-लेखन की दिशा, जिसमें आगे बढ़कर हिंदी कहानी जादुई यथार्थवादी और उत्तर-आधुनिकतावादी हुई। इस दिशा में जाकर हिंदी कहानी जनोन्मुख होने के बजाय बड़ी बेशर्मी से अभिजनोन्मुख हुई और ‘‘आम आदमी के मन से जुड़ने’’ के बजाय खास आदमियों के मन को मोहने की आकांक्षा से किये जाने वाले बौद्धिकता के व्यापार में बदल गयी। दूसरी दिशा ऊपरी तौर पर हिंदी कहानी को जनोन्मुख बनाने वाली लगती थी, जिसमें आगे बढ़कर हिंदी कहानी स्त्रीवादी और दलितवादी विमर्शों की कहानी बनी। लेकिन वास्तव में यह दिशा कहानी को सेक्स, हिंसा और जातिवादी लेखन के फार्मूलों की ओर ले गयी और कहानी जनोन्मुख होने के बजाय बाजारोन्मुख हो गयी। </i><br />
<br />
<i>‘जनवादी कहानी’ से पहले के फैशनपरस्त कहानीकार पश्चिमी फैशनों का अनुकरण करते थे, तो कम से कम पश्चिम की चीजों को पढ़ते तो थे। आगे चलकर यह हुआ कि उस अनुकरण का ही अनुकरण करते हुए बहुत-सी कहानियाँ लिखी जाने लगीं। ‘जनवादी कहानी’ के बाद शिल्प को पुनः आतंक बनाया जाने लगा। अशिक्षितों और अर्द्धशिक्षितों की तो बात ही क्या, शिक्षितों में भी केवल कुछ प्रभुत्वशाली संपादकों तथा आलोचकों को ध्यान में रखकर कहानियाँ लिखी जाने लगीं। जनता की सोच-समझ को वाणी देने की बात दूर, बहुत-से कहानीकार तो जन, जनता, जनवाद, समाजवाद आदि के नाम से ही बिदकने लगे और स्वयं ‘जन’ होकर भी ‘अभिजनों’ की-सी सोच-समझ के साथ और उन्हीं के लिए कहानी लिखने लगे। ‘सादगी’ या ‘आम आदमी के मन’ से तो कहानी का मानो कोई संबंध ही नहीं रहा। आयातित उच्च प्रौद्योगिकी के साथ आयी और अंधानुकरण के रूप में अपना ली गयी पश्चिमी जीवन-शैली में सादगी कहाँ? </i><br />
<br />
मेरे विचार से हिंदी कहानी में नवोन्मेष के लिए आवश्यक था कि बीसवीं सदी के अंतिम दशक में सोवियत संघ के विघटन, शीतयुद्ध की समाप्ति और पूँजीवादी भूमंडलीकरण के साथ तेजी से बदले और बदलते यथार्थ की कहानी लिखी जाती। लेकिन उस यथार्थ की कहानी लिखने के उस समय जो यत्किंचित प्रयास हुए, उन्हें उस समय के चालू फैशनों के चलते ‘काल्पनिक’ और ‘गढ़ी हुई’ कहानियाँ कहा गया। अतः मैंने लिखा : <br />
<br />
<i>सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने आगे की कहानी का जो पंचसूत्री कार्यक्रम दिया था, वह अभी अप्रासंगिक नहीं हुआ है। लेकिन आज की नयी परिस्थितियों में वह अपर्याप्त अवश्य लगता है। इसलिए मैं उसमें अपनी तरफ से पाँच सूत्र और जोड़ना चाहता हूँ : <br />1. चालू विमर्शों की कहानी लिखने से बचो।<br />2. बदलते हुए यथार्थ को देखो और यथार्थ को बदलने के लिए लिखो।<br />3. दुनिया भर के उत्कृष्ट कहानी-लेखन से सीखो, पर अपनी कथा परंपरा में और अपनी जनता के लिए लिखो।<br />4. साहित्य की बदली हुई शब्दावली को आँख मूँदकर मत अपनाओ।<br />5. वैश्विक पूँजीवाद के विरुद्ध वैश्विक समाजवाद का स्वप्न साकार करने के लिए अच्छी कहानियाँ बेखटके गढ़ो।</i><br />
<br />
मेरा यह पंचसूत्री कार्यक्रम दूसरों से ज्यादा खुद अपने लिए था। मैंने इसी को ध्यान में रखकर अपनी कहानियाँ लिखीं और साथ-साथ भूमंडलीय यथार्थवाद की अपनी अवधारणा को विकसित करते हुए एक निबंध लिखा ‘भूमंडलीय यथार्थवाद’ (2008)। इस निबंध की अंतिम पंक्तियाँ हैं : <br />
<br />
<i>आज की दुनिया का सबसे अहम प्रश्न है: क्या पूँजीवाद की वैश्विक व्यवस्था की जगह कोई और वैश्विक किंतु बेहतर व्यवस्था संभव है? यदि हाँ, तो उसकी रूपरेखा क्या है और वह व्यवस्था किन आधारों पर, किन शक्तियों के द्वारा और किन तरीकों से बनायी जा सकती है? इस प्रश्न का उत्तर भूमंडलीय यथार्थवाद के आधार पर ही दिया जा सकता है, क्योंकि इसका उत्तर देने के लिए यह आवश्यक है कि आज की दुनिया के यथार्थ को भौगोलिक के साथ-साथ ऐतिहासिक दृष्टि से भी देखा जाये और ऐतिहासिक दृष्टि को केवल अतीत को देखने वाली दृष्टि नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य को भी देखने वाली ऐसी सर्जनात्मक दृष्टि मानकर चला जाये, जो आने वाले कल की बेहतर दुनिया बनाने के लिए हमें आज ही प्रेरित और सक्रिय कर सके।</i><br />
<br />
संयोग से यह निबंध जिस साल लिखा गया, उसी साल से वैश्विक पूँजीवाद का वर्तमान संकट शुरू हुआ है। इस संकट ने बाजारवाद की कलई खोल दी है तथा उत्तर-आधुनिकतावाद का मुलम्मा भी उतार दिया है। आज का भूमंडलीय यथार्थ मार्क्सवाद की मदद के बिना समझ में नहीं आ सकता। और इस यथार्थ की कहानी लिखने के लिए कथाकार को सचेत अथवा असचेत रूप से यथार्थवादी और मार्क्सवादी होना ही पड़ेगा। अतः आज के हिंदी कथाकारों के लिए आवश्यक है कि वे यथार्थवाद और मार्क्सवाद को फैशन की तरह अपनाने और त्यागने के बजाय अपनी जीवन-दृष्टि तथा विश्व-दृष्टि के रूप में विकसित करें।<br />
<br />
अंततः भूमंडलीय यथार्थवादी कथा-लेखन के बारे में दो बातें : <br />
<br />
<span style="color: red;"><b>एक : </b></span>भूमंडलीय यथार्थवाद का मतलब यह नहीं है कि हम अपने देश, अपने समाज या अपने निजी जीवन की कहानी कहना बंद कर देंगे। कहानी तो हम अपने देश, अपने समाज और अपने जीवन की ही कहेंगे, लेकिन अपने यथार्थ को देखने का हमारा परिप्रेक्ष्य भूमंडलीय होगा। कारण यह है कि अब हम इस परिप्रेक्ष्य के बिना अपने यथार्थ को समझ ही नहीं सकते।<br />
<br />
<span style="color: red;"><b>दो :</b></span> किसी साहित्यिक रचना में व्यापक और जटिल भूमंडलीय यथार्थ को किस तरह प्रस्तुत किया जा सकता है, इस प्रश्न का उत्तर खोजने में मुक्तिबोध हमारी सहायता कर सकते हैं। भूमंडलीय यथार्थ को आत्मसात् करने के मामले में उनकी ‘ज्ञानात्मक संवेदन’ और ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ की अवधारणाएँ उपयोगी हो सकती हैं, तो उस यथार्थ का चित्रण करने के मामले में उनका निबंध ‘डबरे पर सूरज का बिंब’ हमें उचित प्रेरणा दे सकता है। इस निबंध में मुक्तिबोध ने यही समस्या उठायी थी कि एक बड़े और व्यापक यथार्थ को साहित्यिक रचना में कैसे लायें। और समाधान यह सुझाया था कि जैसे पानी के एक छोटे-से डबरे पर भी सूरज का पूरा बिंब दिखायी देता है, वैसे ही छोटी-सी साहित्यिक रचना में बड़े और व्यापक यथार्थ का चित्रण किया जा सकता है।<br />
<br />
<span style="color: blue; font-size: small;"><b>नोट : लेख में मेरे जिन निबंधों का उल्लेख है, वे मेरे साहित्यिक निबंधों के संग्रह ‘साहित्य और भूमंडलीय यथार्थ’ (2008) में संकलित हैं।</b></span><br />
<br />
<span style="color: red;"><b>--रमेश उपाध्याय</b></span></div>
ramesh upadhyayhttp://www.blogger.com/profile/05054633574501788701noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1496071818736613491.post-75483233111161898542012-10-17T09:04:00.002-07:002012-10-17T09:13:39.939-07:00'कथन' को प्रथम वनमाली साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;">
29 सितंबर, 2012 को भोपाल में वनमाली सृजन पीठ की ओर से ‘कथन’ को प्रथम वनमाली साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान भारत भवन में आयोजित एक भव्य समारोह में दिया गया। प्रस्तुत है इस अवसर पर मेरे द्वारा दिये गये व्याख्यान का किंचित् संक्षिप्त रूप।--रमेश उपाध्याय </div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<br /></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj6tzHxV11gAc_YD3OssUAlgiU2rjpfWJwagC_zt7vBGD5SR4YzuZk-O4ulGyIMzDC6uN3tuEaHiiTVaAK5s9gSMAPZOI1B0Wp44eyXsYHL9UZ0npXK7EuN6MSziEM_3mNPi2Z-7pNRIIuo/s1600/_BHA9125.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="249" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj6tzHxV11gAc_YD3OssUAlgiU2rjpfWJwagC_zt7vBGD5SR4YzuZk-O4ulGyIMzDC6uN3tuEaHiiTVaAK5s9gSMAPZOI1B0Wp44eyXsYHL9UZ0npXK7EuN6MSziEM_3mNPi2Z-7pNRIIuo/s320/_BHA9125.jpg" width="320" /></a></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<span style="color: blue;"><b><span style="font-size: x-small;">(चित्र में बायें से दायें : मुकेश वर्मा, संतोष चौबे, रमेश उपाध्याय, शशांक, ओम थानवी) </span></b></span></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<br /></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: red;"><span style="font-size: large;"><b>यह हिंदी की जनोन्मुख पत्रकारिता का सम्मान है </b></span></span></div>
<br />
मित्रो, ‘वनमाली साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान’ ‘कथन’ को दिया जाना हिंदी की जनोन्मुख साहित्यिक पत्रकारिता का सम्मान है। यह भारतेंदु हरिश्चंद्र के समय से आज तक चली आ रही उस शानदार परंपरा का सम्मान है, जिसके अंतर्गत लघु पत्रिकाओं के जरिये बड़े साहित्य को पाठकों तक पहुँचाने के प्रयास प्रायः व्यक्तिगत स्तर पर किये जाते रहे हैं। यह हिंदी के लघु पत्रिका आंदोलन का भी सम्मान है, जिसके अंतर्गत विभिन्न उद्देश्यों से, विभिन्न रूपों में, विभिन्न प्रकार का साहित्य सामने लाने का एक ऐसा सामूहिक प्रयास किया जाता रहा है कि उसे स्वायत्तता के साथ सहयात्रा की अनूठी मिसाल कहा जा सकता है। <br />
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मित्रो, साहित्यिक पत्रकारिता से मेरा संबंध मेरे लेखन के आरंभ से ही है और पिछले पचास वर्षों में यह अटूट बना रहा है। यह सितंबर का महीना है और पचास साल पहले सितंबर के महीने में ही मेरी पहली कहानी प्रकाशित हुई थी। वह कहानी थी ‘एक घर की डायरी’, जो अजमेर से निकलने वाली साहित्यिक पत्रिका ‘लहर’ के सितंबर, 1962 के अंक में प्रकाशित हुई थी। ‘लहर’ उस समय की एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका थी, जिसका नाम आज भी उस समय की ‘कल्पना’, ‘कृति’, ‘वसुधा’, ‘बिंदु’, ‘वातायन’ और ‘माध्यम’ जैसी साहित्यिक पत्रिकाओं के साथ आदरपूर्वक लिया जाता है। ‘लहर’ के संपादकद्वय थे प्रकाश जैन और मनमोहिनी जी। उन्हें मैं अपने साहित्यिक जन्मदाताओं के रूप में याद करते हुए आज के दिन को अपने साहित्यिक जन्मदिन के रूप में देख रहा हूँ, जिसे यहाँ धूमधाम से मनाने का इंतजाम आप लोगों ने, अनजाने ही, आज के इस समारोह के रूप में कर रखा है।<br />
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आज ‘कथन’ के सम्मानित होने के अवसर पर मुझे अपनी ही एक बात याद आ रही है। जब राजस्थान साहित्य अकादमी की पत्रिका ‘मधुमती’ ने प्रकाश जैन स्मृति विशेषांक निकाला था, मैंने प्रकाश जी को श्रद्धांजलि देते हुए उसमें लिखा था कि उनके प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि यह होगी कि वे ‘लहर’ के माध्यम से जो काम कर रहे थे, उसे हम आगे बढ़ायें। आज मैं किंचित् संकोच किंतु संतोष के साथ कह सकता हूँ कि ‘कथन’ के जरिये मैंने उनके काम को कुछ तो आगे बढ़ाया ही है। शायद इसीलिए आज ‘कथन’ को यह सम्मान दिया जा रहा है। अतः यह सम्मान मैं, अपने साहित्यिक जन्मदाताओं की स्मृति को प्रणाम करते हुए, उन्हीं को समर्पित करता हूँ। <br />
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मित्रो, साहित्यिक पत्रकारिता क्या होती है, यह मैंने ‘लहर’ के संपादन और संचालन को निकट से देखकर ही जाना। ‘लहर’ व्यक्तिगत प्रयासों से निकलने वाली एक लघु पत्रिका ही थी, लेकिन उसके संपादकों की जिद थी कि मासिक है, तो मासिक के रूप में ही निकलनी चाहिए। हालाँकि आगे चलकर जब उसके दुर्दिन आये, तब वह मासिक से द्वैमासिक, त्रैमासिक और फिर अनियतकालीन भी हुई और अच्छी सामग्री जुटाना भी उसके लिए मुश्किल हो गया, लेकिन मैं उसके आरंभिक वर्षों में उसके साथ जुड़ा था और मैंने उसके संपादकों का वह जोश और जुनून अपनी आँखों से देखा था, जिसके बिना शायद कोई अच्छी साहित्यिक पत्रिका नहीं निकल सकती।<br />
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पत्रिका को निरंतर, नियत समय पर और सामग्री की गुणवत्ता से कोई समझौता किये बिना उत्तरोत्तर बेहतर रूप में निकालने की जिद तभी पूरी हो सकती है, जब आप साहित्यिक पत्रकारिता को एक मिशन मानकर चलें और उस मिशन को कामयाब बनाने का जोश और जुनून भी आपमें हो। इसी का दूसरा नाम प्रतिबद्धता है, जो आपको अपने मिशन के प्रति सच्चा और ईमानदार बनाती है; जो आपकी पत्रिका को सोद्देश्य और सार्थक बनाती है। अब इसमें आर्थिक, शारीरिक और मानसिक कष्ट हों तो हों; निजी समस्याएँ और पारिवारिक परेशानियाँ सामने आयें तो आयें; पत्रिका निरंतर, नियत समय पर और उत्तरोत्तर बेहतर रूप में निकलनी ही चाहिए। दि शो मस्ट गो ऑन! <br />
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‘लहर’ के संपादकों से साहित्यिक पत्रकारिता का यह पाठ पढ़ लेने का ही शायद यह परिणाम था कि व्यावसायिक पत्रकारिता से जुड़कर भी, बल्कि उसमें गहरे धँसकर भी, मेरे मन में साहित्यिक पत्रकारिता के प्रति सदा सम्मान का भाव बना रहा और मैं उससे जुड़ा रहा। मैं ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’, ‘सारिका’, ‘कादंबिनी’ आदि व्यावसायिक पत्र-पत्रिकाओं का एक जमाने में बड़ा लाडला लेखक रहा। मेरी कविताएँ, कहानियाँ, लेख, रिपोर्ताज, अनुवाद और उपन्यास तक उनमें छपे। दैनिक, साप्ताहिक और पाक्षिक अखबारों के लिए ही नहीं, मैंने रेडियो और टेलीविजन के लिए भी खूब लिखा। जब मैं बंबई में था, तो फिल्मों के लिए लिखने के भी कई ऑफर मुझे मिले, जो अच्छा ही हुआ कि मैंने ठुकरा दिये। मैंने आजीविका के लिए कई व्यावसायिक पत्र-पत्रिकाओं में काम भी किया। ‘सरिता’, ‘मुक्ता’ और ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में उप-संपादक रहा। ‘शंकर्स वीकली’ और ‘नवनीत’ में सहायक संपादक रहा। लेकिन यह सब करते हुए भी मैं पारिश्रमिक न देने वाली या बहुत कम देने वाली साहित्यिक पत्रिकाओं से जुड़ा रहा; उनमें बराबर लिखता रहा। <br />
मित्रो, साहित्यिक पत्रकारिता का उद्देश्य साहित्य के जरिये मनुष्य और समाज को तथा स्वयं साहित्य और साहित्यिक गतिविधि को बेहतर बनाना होता है। केवल साहित्य-सृजन से यह उद्देश्य पूरा नहीं होता, इसीलिए साहित्यकारों को साहित्यिक पत्रिकाएँ निकालने की जरूरत पड़ती है। भारतेंदु हरिश्चंद्र हों या प्रेमचंद, पंत हों या निराला, यशपाल हों या अज्ञेय, धर्मवीर भारती हों या भैरवप्रसाद गुप्त, नामवर सिंह हों या रामविलास शर्मा, कमलेश्वर हों या राजेंद्र यादव, ज्ञानरंजन हों या राजेश जोशी, आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रत्येक काल में अनेक साहित्यकार साहित्यिक पत्रिकाएँ निकालते रहे हैं और आज भी निकाल रहे हैं।<br />
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साहित्यिक पत्रकारिता का संबंध एक तरफ सामाजिक आंदोलनों से होता है, तो दूसरी तरफ साहित्यिक आंदोलनों से; चाहे वह संबंध इन आंदोलनों के समर्थन का हो या इनके विरोध का। कभी-कभी किसी नये आंदोलन को जन्म देने या पुष्ट करने के लिए भी साहित्यिक पत्रिकाएँ निकाली जाती हैं। इसके लिए साहित्यिक पत्रकार का एक ही साथ आदर्शवादी और यथार्थवादी होना जरूरी है। साहित्यिक पत्रिका निकालना एक सर्जनात्मक और कठिन काम है, जो एक प्रकार के आदर्शवाद के साथ ही समर्पित भाव से किया जा सकता है। लेकिन यह काम किसी न किसी रूप में जनता की चेतना जगाने के लिए किया जाता है, इसलिए साहित्यिक पत्रकार के लिए आवश्यक है कि वह यथार्थवादी भी हो। <br />
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आजादी से पहले की हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं को देखें, तो उनका संबंध एक तरफ राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के मूल्यों तथा आदर्शों से था और दूसरी तरफ हिंदीभाषी जनता की चेतना तथा हिंदी भाषा और साहित्य के विकास की प्रक्रिया से। यही कारण था कि उस समय की साहित्यिक पत्रिकाओं की अंतर्वस्तु प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में राजनीतिक होती थी। उनकी सामग्री, प्रेमचंद का एक पद उधार लेकर कहें, तो आदर्शोन्मुख यथार्थवादी होती थी और उसकी प्रस्तुति साधारण पाठकों के लिए आकर्षक तथा सहज बोधगम्य। संक्षेप में, वह एक प्रकार की सोद्देश्य और जनोन्मुख पत्रकारिता थी और इसीलिए समाज में उसका आदर था। साहित्यिक पत्रिकाएँ बहुत छोटी पूँजी और बहुत बड़े श्रम से निकाली जाती थीं। इसलिए उनके संपादक आदर्शवादी, त्यागी, तपस्वी, देशभक्त और जनसेवक माने जाते थे तथा उनके द्वारा निकाली गयी पत्रिकाएँ पढ़ना अपनी एक सांस्कृतिक जरूरत को पूरा करना ही नहीं, बल्कि एक यज्ञ में आहुति डालने जैसा पुनीत कर्तव्य भी समझा जाता था। इसीलिए उस समय की साहित्यिक पत्रिकाएँ साहित्यिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होती थीं और व्यावसायिक दृष्टि से बहुत लाभदायक न होते हुए भी अपने लिए इतने साधन जुटा लेती थीं कि निरंतर निकलती रह सकें और अपने लेखकों को नाममात्र का ही सही, पारिश्रमिक भी दे सकें। <br />
लेकिन आज से पचास साल पहले, जब मैंने लिखना शुरू किया था, हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता आदर्शवाद और यथार्थवाद के इस संबंध को ठीक ढंग से समझ न पाने के कारण एक संक्रमण के दौर से गुजर रही थी।<br />
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अब स्वाधीनता आंदोलन के मूल्यों तथा आदर्शों से प्रेरित और ‘सरस्वती’, ‘माधुरी’, ‘चाँद’, ‘मतवाला’, ‘रूपाभ’, ‘हंस’, ‘विप्लव’, ‘नया साहित्य’ आदि पत्रिकाओं की शानदार परंपरा में विकसित सोद्देश्य और जनोन्मुख पत्रकारिता कहीं-कहीं अपवादस्वरूप ही बची हुई थी; जबकि शीतयुद्ध की राजनीति से प्रेरित व्यक्तिवादी और कलावादी रुझानों वाली उस अभिजनोन्मुख साहित्यिक पत्रकारिता का बोलबाला था, जो ‘प्रतीक’, ‘निकष’, ‘नयी कविता’ आदि पत्रिकाओं के माध्यम से सामने आयी थी। वह कहीं साहित्य की ‘शुद्धता’ के नाम पर, कहीं ‘राजनीति से हुए मोहभंग’ के नाम पर, तो कहीं ‘क्षणवाद’ और ‘लघु मानववाद’ के नाम पर हर तरह के आदर्शवाद और यथार्थवाद को मिथ्या और व्यर्थ बता रही थी। दूसरी तरफ वह साहित्य की श्रेष्ठता की बात करते हुए यह कह रही थी कि साहित्य सबके काम की चीज नहीं, इसलिए उसको समझने वाले पाठक अगर कम भी हों, तो कोई हर्ज नहीं। उसने साहित्य की लोकप्रियता के विरुद्ध एक प्रकार का अभियान चलाया और साहित्यिक पत्रिकाओं में ऐसे साहित्य को तरजीह दी, जो साधारण पाठकों के काम का न होकर थोड़े-से ‘समझदार’ या ‘प्रबुद्ध’ पाठकों के ही मतलब का हो। इस प्रकार उसने एक तरफ प्रगतिशील-जनवादी राजनीति से और दूसरी तरफ आम जनता से साहित्य का संबंध समाप्त करने का प्रयास किया। हालाँकि वह इस काम में पूरी तरह सफल नहीं हो पायी, फिर भी उसका काफी असर हिंदी के लेखकों और संपादकों पर पड़ा। उनमें से कई जनोन्मुख लोकप्रिय साहित्य को उसी तरह घटिया समझने लगे, जिस तरह ‘नयी कविता’ के कवि कवि-सम्मेलनों के मंच और सिनेमा के जरिये आम जनता तक पहुँचने वाली छंदबद्ध कविता को। नतीजा यह हुआ कि साहित्यिक पत्रकारिता का संबंध साधारण पाठक से बहुत कम रह गया।<br />
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मैंने जब लिखना शुरू किया था, मैं राजस्थान में था। उस समय राजस्थान से हिंदी की कई अच्छी साहित्यिक पत्रिकाएँ संपादकों के व्यक्तिगत प्रयासों से निकल रही थीं, जैसे अजमेर से ‘लहर’, उदयपुर से ‘बिंदु’, जयपुर से ‘कविताएँ’ और बीकानेर से ‘वातायन’। बाद में राजस्थान से और भी कई अच्छी पत्रिकाएँ निकलीं, जैसे अलवर से ‘कविता’, भरतपुर से ‘ओर’, काँकरोली से ‘संबोधन’, उदयपुर से ‘रंगायन’, बीकानेर से ‘संकल्प’, भीनमाल से ‘क्यों’, कोटा से ‘अभिव्यक्ति’, जोधपुर से ‘शेष’ इत्यादि। अकेले जयपुर शहर से ही कई पत्रिकाएँ निकलीं, जिनमें से कुछ बंद हो गयीं और कुछ आज भी निकल रही हैं, जैसे ‘अकथ’, ‘अगली कविता’, ‘अर्थसत्ता’, ‘अहसास’, ‘कृतिओर’, ‘मधुमाधवी’, ‘लोक संपर्क’, ‘संप्रेषण’, ‘एक और अंतरीप’, ‘समय माजरा’, ‘अक्सर’ इत्यादि।<br />
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उस समय हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता कितनी समृद्ध थी, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उस समय एक तरफ देशव्यापी प्रसार वाली कई व्यावसायिक पत्रिकाएँ थीं, जैसे ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’, ‘सारिका’, ‘कहानी’, ‘नयी कहानियाँ’ इत्यादि, तो दूसरी तरफ हिंदी क्षेत्रों से ही नहीं, बल्कि अहिंदी क्षेत्रों से भी हिंदी में अनेक साहित्यिक पत्रिकाएँ निकलती थीं, जैसे पश्चिम बंगाल से ‘ज्ञानोदय’, आंध्र प्रदेश से ‘कल्पना’, तमिलनाडु से ‘अंकन’, केरल से ‘युग प्रभात’ इत्यादि। दिल्ली, इलाहाबाद, वाराणसी, कानपुर, लखनऊ, पटना, भोपाल, जबलपुर आदि से तो बहुत-सी साहित्यिक पत्रिकाएँ निकलती ही थीं, शिमला, चंडीगढ़, जालंधर, अंबाला, मुंबई, चेन्नई, हैदराबाद, कोलकाता आदि से भी हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाएँ निकलती थीं। बाद में एक समय तो ऐसा आया कि साहित्यिक पत्रिकाओं की बाढ़-सी आ गयी। <br />
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लेकिन साहित्यिक पत्रिकाओं की यह अचानक आयी बाढ़ साहित्यिक पत्रकारिता के विकास की कम, उसके ह्रास की सूचक अधिक थी। हुआ यह था कि 1960 के बाद लगभग एक दशक तक हिंदी में ‘अकविता’ और ‘अकहानी’ जैसे अल्पजीवी साहित्यिक आंदोलन चले और दिशाहीन विद्रोह, सर्वनकार, व्यर्थताबोध, अकेलेपन, अजनबीपन आदि के लेखन के रूप में बहुत-सा ऊलजलूल लेखन हुआ, जो लघु पत्रिकाओं के माध्यम से सामने आया। व्यावसायिकता का विरोध करने के नाम पर इन लघु पत्रिकाओं ने साहित्य को साधारण पाठकों तक पहुँचाने की अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया। लेखन और साहित्यिक पत्रिका का संपादन साधारण पाठकों के लिए न होकर लेखकों के लिए ही होने लगा। जिन्हें सामग्री को संपादित करना, प्रेस कॉपी बनाना और प्रूफ पढ़ना तो क्या, स्वयं अच्छी भाषा लिखना तक नहीं आता था, वे भी संपादक बन बैठे और भद्दे ढंग से छपने वाली, बेशुमार गलतियों वाली, अनियतकालिक रूप से कुछ समय चलकर बंद हो जाने वाली पत्रिकाएँ निकालने लगे। चूँकि साधारण पाठकों से उन्हें कोई लेना-देना नहीं था, इसलिए उनकी तथाकथित लघु पत्रिकाओं का आकार-प्रकार लघु से लघुतर होता गया। अनियतकालिक अठपेजी या चौपेजी परचों से लेकर अंतर्देशीय पत्र तथा पोस्टकार्ड तक के रूप में तथाकथित पत्रिकाएँ निकलीं। इस प्रकार साहित्यिक पत्रकारिता एक भद्दा मजाक बनकर रह गयी।<br />
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1960 के दशक के उत्तरार्द्ध में जब देश के जन-आंदोलनों में तेजी आयी, तो साहित्य में भी प्रगतिशील और जनवादी चेतना का एक नया उभार आया। तब हिंदी के लेखकों और साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादकों को फिर से उस आदर्शवाद और यथार्थवाद की जरूरत महसूस हुई, जो सोद्देश्य और जनोन्मुख साहित्यिक पत्रकारिता के लिए आवश्यक था। तब जनता से जुड़ने और जन-चेतना जगाने के उद्देश्य से कई नयी पत्रिकाएँ निकलीं। तभी यह बात भी स्पष्ट हुई कि साहित्यिक और व्यावसायिक पत्रिकाओं में केवल ‘छोटी’ और ‘बड़ी’ का सतही रूपगत फर्क नहीं, बल्कि अंतर्वस्तु संबंधी गहरा फर्क है और बाजार में बिकने भर से कोई पत्रिका व्यावसायिक नहीं हो जाती, जैसे कि बाजार में न बिकने या मुफ्त बँटने भर से कोई पत्रिका साहित्यिक नहीं हो जाती। देखा यह जाना चाहिए कि पत्रिका में प्रकाशित सामग्री क्या है, उसकी साहित्यिक गुणवत्ता क्या है, उसमें व्यक्त विचार किस वर्ग के हितसाधक हैं और उसका प्रकाशन जन-चेतना को जगाने के लिए किया जा रहा है या उसे कुंठित करके सुलाने के लिए।<br />
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इस प्रकार साहित्यिक पत्रकारिता की इस नयी समझ के साथ हिंदी में बहुत-सी नयी पत्रिकाएँ निकलीं। ‘अभिव्यक्ति’, ‘अर्थात्’, ‘इबारत’, ‘इसलिए’, ‘उत्कर्ष’, ‘उत्तरार्द्ध’, ‘ओर’, ‘कथन’, ‘कथा’, ‘कलम’, ‘क्यों’, ‘पक्षधर’, ‘पहल’, ‘पुरुष’, ‘बातचीत’, ‘भंगिमा’, ‘मतांतर’, ‘युग-परिबोध’, ‘वसुधा’, ‘वाम’, ‘समझ’, ‘सर्वनाम’, ‘सामयिक’, ‘साम्य’ आदि पत्रिकाओं ने अपनी अंतर्वस्तु और प्रस्तुति में आजादी से पहले की जनोन्मुख साहित्यिक पत्रकारिता की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए अनेक नवोन्मेष किये। <br />
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मित्रो, अब मैं कुछ अपनी और ‘कथन’ की बात करना चाहता हूँ। मैंने ‘कथन’ 1980 में निकालना शुरू किया था। तब तक लेखन करते हुए मुझे अठारह वर्ष हो चुके थे। साहित्य में मेरी एक जगह और पहचान बन चुकी थी। छोटी और बड़ी दोनों तरह की पत्रिकाएँ मेरी रचनाएँ सम्मान के साथ प्रकाशित करती थीं। मेरी कई पुस्तकें प्रकाशित और चर्चित हो चुकी थीं। मेरे नाटक और नुक्कड़ नाटक खूब खेले जाने लगे थे। मैं प्रिंट मीडिया में ही नहीं, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी सक्रिय था। साहित्यिक गोष्ठियों और सम्मेलनों के मंच भी मुझे उपलब्ध थे। इतना ही नहीं, 1973 में बाँदा में हुए प्रगतिशील-जनवादी लेखकों के सम्मेलन में सौंपी गयी जिम्मेदारी के तहत मैं दिल्ली में स्वयं एक मंच--जनवादी लेखक मंच--की स्थापना कर चुका था और उसकी ओर से कई महत्त्वपूर्ण गोष्ठियाँ आयोजित कर चुका था। एक द्वैमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘युग-परिबोध’ के प्रारंभिक छह अंकों का संपादन करके मैं साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में भी कुछ दखलंदाजी कर चुका था। अतः यह तो नहीं ही कहा जा सकता कि मैंने साहित्य में अपनी जगह या पहचान बनाने के लिए ‘कथन’ निकालकर घर फूँक तमाशा देखना शुरू किया होगा। <br />
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तो फिर क्या पड़ी थी मुझे ‘कथन’ निकालने की? <br />
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बात यह है कि जब साहित्य में आप कोई नया काम करने चलते हैं, तो उसके लिए किसी नये मंच और माध्यम की जरूरत होती ही है। और उस समय मैं दो नये कामों में लगा हुआ था। कुछ नये ढंग का जनोन्मुख लेखन करने में तथा जनवादी लेखकों का एक संगठन बनाने में। मेरे साथ के कई लेखक इन कामों में लगे हुए थे और एक ऐसी पत्रिका की जरूरत महसूस कर रहे थे, जो हमारे लेखन को अच्छे ढंग से सामने लाये और हमारे संगठन को संभव बनाये। <br />
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उस समय जनवादी लेखक संघ के निर्माण की प्रक्रिया चल रही थी और मैं उसमें पूरे जोशोखरोश के साथ शामिल था। जगह-जगह लेखकों की बैठकें और गोष्ठियाँ हो रही थीं। लेखक शिविर और सम्मेलन आयोजित किये जा रहे थे। उनमें बड़ी जरूरी और जोरदार बहसें हो रही थीं। लेखन और राजनीति, साहित्य और संगठन आदि से जुड़े बड़े महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर चर्चाएँ हो रही थीं। लेकिन ये तमाम गतिविधियाँ एक राजनीतिक दल विशेष के सदस्य और समर्थक लेखकों के बीच ही चल रही थीं, जबकि मेरे विचार से उन्हें व्यापक साहित्य जगत के बीच चलना चाहिए था। इसके लिए मैं एक ऐसी पत्रिका की जरूरत महसूस कर रहा था, जो नये ढंग के प्रगतिशील-जनवादी लेखन को सामने लाये, लेखक संगठन के निर्माण की उस प्रक्रिया से व्यापक लेखक-पाठक समुदाय को अवगत कराये, उसके अंतर्गत आयोजित गोष्ठियों और सम्मेलनों में चली बहसों का मतलब बताये और उन बहसों में उठे साहित्यिक, सांस्कृतिक, सामाजिक तथा राजनीतिक मुद्दों को रेखांकित करके उन पर खुली चर्चाएँ चलाये। <br />
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जनवादी लेखक संघ के निर्माण की प्रक्रिया से जुड़े लेखकों द्वारा उस समय जो पत्रिकाएँ निकाली जा रही थीं--जैसे ‘वाम’, ‘कथा’, ‘कलम’, ‘सामयिक’, ‘उत्तरार्द्ध’, ‘प्रारंभ’ आदि--वे यों तो बहुत अच्छी और महत्त्वपूर्ण पत्रिकाएँ थीं, लेकिन उनके संपादक एक दल विशेष से जुड़े होने के कारण शायद अपनी पत्रिकाओं को दलगत राजनीति के दायरे में तथा दलीय अनुशासन में रहकर ही निकाल सकते थे। दूसरे, वे प्रायः अनियतकालिक थीं और उनके संपादकों में भैरव प्रसाद गुप्त के अलावा शायद किसी को भी साहित्यिक पत्रकारिता का अनुभव नहीं था। मेरे पास पत्रकारिता का अनुभव था और मैं किसी राजनीतिक दल का सदस्य भी नहीं था। अतः मैंने एक ऐसी पत्रिका निकालने का फैसला किया, जो नये प्रगतिशील-जनवादी लेखन को दलगत राजनीति से अलग रहकर अच्छे ढंग से सामने लाये, उस पर चर्चा और बहस चलाये, उसमें से उभरकर आने वाली अच्छी रचनाओं को रेखांकित करे और गैर-प्रगतिशील, गैर-जनवादी लेखकों को जनवादी लेखन के आंदोलन तथा उसके संभावित संगठन के निकट लाये। <br />
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मैं ‘कथन’ को अव्यावसायिक किंतु जनोन्मुख साहित्यिक पत्रिका के रूप में निकालना चाहता था, इसलिए मैंने अपने लिए कुछ नियम बनाये, जो इस प्रकार थे : <br />
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<span style="color: red;"><b>पहला नियम :</b></span> ‘कथन’ द्वैमासिक पत्रिका होगी और पुस्तक के रूप में नहीं, पत्रिका के ही आकार-प्रकार में निकलेगी तथा निरंतर, नियत समय पर निकलेगी।<br />
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<span style="color: red;"><b>दूसरा नियम :</b></span> ‘कथन’ का कोई विशेषांक नहीं निकलेगा, ताकि नियमित अंकों की जगह संयुक्तांक न निकालने पड़ें, पृष्ठ संख्या और कीमत न बढ़ानी पड़े, पत्रिका के स्थायी स्तंभों का क्रम न टूटे और नियमित पत्रिका पढ़ना चाहने वाले पाठकों को पत्रिका के कई अंकों की जगह एक मोटा पोथा अधिक मूल्य पर न मिले, बल्कि साधारण अंक यथासमय मिलते रहें।<br />
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<span style="color: red;"><b>तीसरा नियम :</b></span> ‘कथन’ साहित्यकारों के काम की पत्रिका होने के साथ-साथ सामान्य पाठकों के काम की पत्रिका भी होगी। इसके लिए सामग्री की स्तरीयता, उसके समुचित संपादन तथा उसकी सुरुचिपूर्ण प्रस्तुति के साथ-साथ उसकी भाषा पर भी विशेष ध्यान देना होगा। <br />
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<span style="color: red;"><b>चौथा नियम :</b></span> ‘कथन’ हर तरह की कट्टरता और संकीर्णता के खिलाफ एक उदार और जनतांत्रिक पत्रिका होगी, लेकिन सामग्री की गुणवत्ता उसके लिए सर्वप्रमुख होगी। अतः वह नये से नये लेखक की अच्छी रचना सहर्ष प्रकाशित करेगी, लेकिन बड़े से बड़े लेखक की खराब रचना लौटा देने में कोई संकोच नहीं करेगी। <br />
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<span style="color: red;"><b>पाँचवाँ नियम :</b></span> ‘कथन’ में दूसरी पत्रिकाओं की नकल सामग्री, साज-सज्जा या किसी भी स्तर पर नहीं की जायेगी। सादगी में ही सौंदर्य के नियम का पालन करते हुए ‘कथन’ में सामग्री की नवीनता, गुणवत्ता और प्रासंगिकता पर ध्यान केंद्रित किया जायेगा। और,<br />
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<span style="color: red;"><b>छठा नियम :</b></span> ‘कथन’ किसी दल या संगठन की पत्रिका नहीं, बल्कि लेखकों और पाठकों के सहयोग से चलने वाली अव्यावसायिक पत्रिका होगी। वह राजनीति से परहेज नहीं करेगी, लेकिन दलगत राजनीति से ऊपर उठकर वर्गीय राजनीति, राष्ट्रीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में साहित्य और संस्कृति के सवालों पर विचार करने वाली पत्रिका होगी। <br />
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जाहिर है कि इन नियमों का पालन करना आसान काम नहीं था। फिर भी मैंने अपने ही बनाये नियमों का सख्ती से पालन किया। इसके चलते ‘कथन’ को शुरू से ही पत्रिकाओं की भीड़ में अपनी एक अलग छाप छोड़ने और अपनी एक अलग पहचान बनाने में सफलता प्राप्त हुई। इसे लेखकों और पाठकों का भरपूर सहयोग मिला। नये से नये और बड़े से बड़े लेखक ‘कथन’ से जुड़े। इस प्रकार ‘कथन’ ने अपने पहले बीस अंकों से ही एक प्रकार का इतिहास बना लिया था। <br />
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जनवादी लेखक संघ के निर्माण में ‘कथन’ ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। उसके प्रस्तावित घोषणापत्र को सबसे पहले ‘कथन’ ने ही प्रकाशित किया था और उसके स्थापना सम्मेलन से लेकर बाद के विभिन्न सम्मेलनों, संगोष्ठियों आदि के समाचार और विस्तृत विवरण ‘कथन’ में प्रकाशित हुए थे। फिर, मैं जनवादी लेखक संघ का संस्थापक सदस्य ही नहीं, उसकी केंद्रीय कार्यकारिणी का सदस्य भी था। इससे यह भ्रम फैला कि ‘कथन’ जनवादी लेखक संघ की पत्रिका है। ‘कथन’ से जुड़े कुछ मित्रों ने सुझाव दिया कि लोग जब ऐसा मान ही रहे हैं, तो क्यों न इसे बाकायदा संगठन की पत्रिका ही बना दिया जाये। लेकिन मैं अपने ही बनाये हुए इस नियम के विपरीत जाना नहीं चाहता था कि ‘कथन’ किसी दल या संगठन की पत्रिका नहीं, बल्कि लेखकों और पाठकों के सहयोग से चलने वाली अव्यावसायिक पत्रिका होगी। इस पर मित्रों से मतभेद होने लगे और ‘कथन’ की टीम टूटकर बिखरने लगी, तो मैंने ‘कथन’ का प्रकाशन स्थगित कर दिया। लेकिन मेरी जिद थी कि परिस्थितियाँ अनुकूल होने पर मैं इसे फिर से निकालूँगा जरूर। <br />
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लेकिन ‘कथन’ के स्थगित रहने के पंद्रह वर्षों के दौरान परिस्थितियाँ अनुकूल होने के बजाय उत्तरोत्तर अधिक प्रतिकूल ही होती गयी थीं। सोवियत संघ के विघटन के बाद पूँजीवादी भूमंडलीकरण का दौर शुरू हो गया था और नव-उदारवादी या बाजारवादी पूँजीवाद अपने असंख्य मुखों से कह रहा था कि शीतयुद्ध समाप्त हो गया है, उस युद्ध में समाजवाद हार गया है, पूँजीवाद जीत गया है, और इस प्रकार दुनिया दो ध्रुवों वाली न रहकर एकध्रुवीय हो गयी है। वह कह रहा था कि भूमंडलीकरण ने राष्ट्र-राज्यों को अप्रासंगिक बना दिया है, दुनिया को एक ग्लोबल गाँव बना दिया है, उस ग्लोबल गाँव के चौधरी जी-7 वाले सात या जी-20 वाले बीस देश हैं, और उन सबका मुखिया एक अमरीका ही है, जो ईश्वर की इच्छा से अखिल भूमंडल का स्वाभाविक शासक है। वह कह रहा था कि अब सारी दुनिया में और हमेशा पूँजीवाद ही चलेगा--निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों वाला नव-उदार पूँजीवाद--जिसका कोई विकल्प नहीं है। <br />
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मेरे विचार से इस सबका प्रतिवाद और प्रतिरोध किया जाना चाहिए था। लेकिन मैंने देखा कि प्रगतिशील और जनवादी साहित्य का आंदोलन समाप्त-सा हो गया है। नये लेखक नये भूमंडलीय यथार्थ और यथार्थवाद की ओर आकर्षित होने के बजाय नव-उदारवादी पूँजीवाद की विचारधारा उत्तर-आधुनिकतावाद को अपनाकर बाजारवादी और अवसरवादी बन रहेे थे। ज्यादातर लेखक समाज, देश, दुनिया और मानवता की बेहतरी के लिए जनोन्मुख लेखन करने के बजाय व्यक्तिगत सफलता और निजी उपलब्धियों के लिए बाजारोन्मुख लेखन कर रहे थे। ऐसी स्थिति में मुझे लगा कि जनोन्मुख पत्रकारिता की जरूरत पहले के किसी भी समय से ज्यादा आज है। <br />
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तब मैंने अपनी बेटी संज्ञा, कुछ पुराने मित्रों तथा कुछ नये उत्साही लेखकों को साथ लेकर ‘कथन’ को फिर से निकालना शुरू किया। और मुझे यह देखकर अत्यंत सुखद आश्चर्य हुआ कि बदलते हुए भूमंडलीय यथार्थ की चिंता करने वालों, उसका गंभीर अध्ययन करने वालों, उस पर चिंतन-मनन और लेखन करने वालों की कमी नहीं है। हिंदी में अभी ऐसे लोग कम हैं, लेकिन अंग्रेजी में कई लोग इससे संबंधित विषयों पर खूब लिख-बोल रहे हैं। विभिन्न देशों में पूँजीवादी भूमंडलीकरण के विरुद्ध अनेक प्रकार के आंदोलन चल रहे हैं। उनके बारे में लिखा जा रहा है और भूमंडलीय यथार्थ को सामने लाने वाली ढेरों पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं। <br />
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मुझे आश्चर्य हुआ कि जब हिंदी के लेखकों को लिखने के लिए नये विषय नहीं मिल रहे हैं, तब आज का भूमंडलीय यथार्थ सोचने-समझने और लिखने के लिए नित्य नये विषय प्रस्तुत कर रहा है। अतः ‘कथन’ में हमने भूमंडलीय यथार्थ के विभिन्न पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करना शुरू किया और हर अंक में एक नया विषय उठाकर उस पर विशेष सामग्री देने लगे। ‘कथन’ के लेखकों और पाठकों ने इस नयेपन का स्वागत किया और हमने नहीं, उन्हीं ने ‘कथन’ के लिए ‘‘हर बार कुछ नया: हर अंक एक विशेषांक’’ का नारा दिया। <br />
इस प्रकार अत्यंत सीमित निजी संसाधनों के बावजूद ‘कथन’ के अंक निरंतर नियत समय पर तथा उत्तरोत्तर बेहतर रूप में निकलने लगे। ‘कथन’ को फिर से हिंदी के बड़े से बड़े और नये से नये लेखकों का सहयोग मिलने लगा। नये विषयों पर अंग्रेजी में लिखने वाले लेखकों, विशेषज्ञों तथा चिंतकों-विचारकों को भी हमने ‘कथन’ से जोड़ा और हमें ऐसे लोगों का भी भरपूर सहयोग मिला। <br />
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इसीलिए हम ‘कथन’ में ऐसे नये से नये विषयों पर केंद्रित अंकों का सिलसिला शुरू कर पाये, जो हिंदी में पहली बार उठाये गये थे। उदाहरण के लिए, ‘यूटोपिया की जरूरत’, ‘आशा के स्रोतों की तलाश’, ‘विकल्प की अवधारणा’, ‘श्रम का भूमंडलीकरण’, ‘नयी विश्व व्यवस्था की परिकल्पना’, ‘नयी संस्थाओं की जरूरत’, ‘सांस्कृतिक साम्राज्यवाद’, ‘भाषा और भूमंडलीकरण’, ‘शिक्षा और भूमंडलीकरण’, ‘दुनिया की बहुध्रुवीयता’, ‘बाजारवाद और नयी सृजनशीलता’, ‘उत्पादक श्रम और आवारा पूँजी’, ‘भूमंडलीय यथार्थवाद’, ‘वर्तमान संकट और दुनिया का भविष्य’ इत्यादि। और आज, जब ‘कथन’ के साठ अंक निकालने के बाद मैं उसका संपादन पूरी तरह संज्ञा को सौंप चुका हूँ और वह स्वतंत्र रूप से अपने संपादन में पंद्रह अंक और निकाल चुकी है, यह सिलसिला जारी है। <br />
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कई लोग मुझसे पूछते हैं कि मैंने ‘कथन’ के संपादन से संन्यास क्यों लिया। मैं इस प्रश्न का उत्तर यह कहकर देता हूँ कि प्रकृति में मनुष्येतर जितने भी प्राणी हैं, अपनी संतानों को अपने ही जैसा बनना सिखाते हैं और वे वैसे ही बने भी रहते हैं। यह मनुष्य ही है, जो अपनी संतान को अपने से भिन्न, बड़ा और आगे बढ़ता देख प्रसन्न होता है। संज्ञा को मैंने ‘कथन’ के संपादन का दायित्व यह सोचकर सौंपा है कि वह मुझसे आगे की और मुझसे बड़ी संपादक बने। <br />
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कुछ लोग मुझसे यह भी पूछते हैं कि ‘कथन’ निकालकर आपको क्या मिला? इसका उत्तर मैं कुछ प्रतिप्रश्नों से देता हूँ: ‘कथन’ का संपादन करते हुए मुझे जो नया पढ़ने, सुनने और जानने को मिला, क्या अन्यथा मिल सकता था? ‘कथन’ निकालने के लिए मैं जिन अच्छे साहित्यकारों, चिंतकों, विचारकों आदि से मिल सका, क्या अन्यथा मिल सकता था? एक लेखक के रूप में मेरा जो विकास हुआ, क्या अन्यथा हो पाता? क्या मैं ‘आज के सवाल’ शृंखला की अब तक प्रकाशित तीस पुस्तकें संपादित कर पाता? क्या मैं ‘बेहतर दुनिया की तलाश में’ तथा ‘साहित्य और भूमंडलीय यथार्थ’ जैसी पुस्तकें लिख पाता? क्या मैं ‘डॉक्यूड्रामा’, ‘प्रजा का तंत्र’, ‘ग्लोबल गाँव के अकेले’, ‘त्रासदी...माइ फुट!’ और ‘प्राइवेट पब्लिक’ जैसी कहानियाँ लिख पाता? और सबसे बड़ी बात यह कि क्या मैं नितांत प्रतिकूल परिस्थितियों में भी निरंतर उत्साही और आशावादी बना रह पाता? <br />
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मित्रो, साहित्यिक पत्रिका निकालने का प्रयास चाहे व्यक्तिगत ही हो, उसका निकलना और निकलते रहना एक सामूहिक प्रयास का ही परिणाम होता है। अतः ‘कथन’ का सम्मान केवल उसके संपादकों का सम्मान नहीं, बल्कि उन तमाम लेखकों, पाठकों, सहयोगियों और शुभचिंतकों का भी सम्मान है, जिन्होंने उसके संपादन और प्रकाशन को संभव तथा सार्थक बनाया है। ‘कथन’ की वर्तमान संपादक संज्ञा उपाध्याय तथा उन समस्त साथियों और सहयोगियों के निमित्त--जिनमें से कई इस समय इस समारोह में भी आयोजकों, संचालकों, वक्ताओं और श्रोताओं के रूप में उपस्थित हैं--इसे स्वीकार करते हुए मैं अपनी ओर से तथा उन सभी की ओर से हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ।<br />
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ramesh upadhyayhttp://www.blogger.com/profile/05054633574501788701noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-1496071818736613491.post-44186989407555168172012-05-30T00:56:00.000-07:002012-05-30T00:57:14.837-07:00हिंदी में विज्ञान कथाओं का अभाव : कुछ प्रचलित भ्रमों का निराकरण<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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हिंदी में विज्ञान लेखन बीसवीं शताब्दी के आरंभ में ही शुरू हो गया था और तब से अब तक बराबर किया जाता रहा है। हिंदी में वैज्ञानिक विषयों पर लिखने वाले कम नहीं हैं। उनमें से कई लेखक समय-समय पर विज्ञान कथाएँ भी लिखते रहे हैं। लेकिन कठिनाई यह है कि हिंदी में विज्ञान कथाओं को साहित्य और उनके लेखकों को साहित्यकार नहीं माना जाता। इसीलिए हिंदी में लिखी गयी विज्ञान कथाएँ चर्चित, प्रतिष्ठित और पुरस्कृत होकर साहित्य और समाज में स्वीकृत नहीं हो पातीं। कहीं से कोई प्रोत्साहन न मिलने पर वे लेखक भी, जो अच्छी विज्ञान कथाएँ लिख सकते हैं, इस तरफ से उदासीन हो जाते हैं। पश्चिमी देशों में विज्ञान और साहित्य निकट आये हैं, लेकिन हमारे यहाँ उनके बीच अलगाव और दूरी की स्थिति बनी हुई है।<br />
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अंग्रेजी वैज्ञानिक और साहित्यकार सी.पी. स्नो ने अपनी किताब ‘टू कल्चर्स’ (1959) में विज्ञान और मानविकी के क्षेत्रें में काम करने वाले लोगों के बारे में लिखा था कि ये दोनों मानो दो अलग-अलग दुनियाओं में रहते हैं, जबकि दोनों की दुनिया एक ही है और उस दुनिया को बेहतर बनाने के लिए दोनों को निकट आकर परस्पर संवाद ही नहीं, मिल-जुलकर काम भी करना चाहिए।<br />
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सी. पी. स्नो की बात काफी हद तक सही थी, लेकिन अपनी बात पर जोर देने के लिए शायद उन्होंने थोड़ी अतिशयोक्ति कर दी थी। विज्ञान और मानविकी के क्षेत्रों में भिन्नता तो है, पर ऐसा अलगाव शायद ही कभी रहा हो कि दोनों क्षेत्रों के लोग एक-दूसरे से अलग और अप्रभावित अपनी-अपनी दुनियाओं में रहते हों। आधुनिक साहित्य की तो विशेषता ही यह है कि वह उत्तरोत्तर अधिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाता गया है। विज्ञान भी साहित्य के प्रभाव से अछूता नहीं रहा है। यदि साहित्य में उसके प्रभाव से भावुकता कम हुई है, तथ्यपरकता और यथार्थपरकता बढ़ी है, तो विज्ञान में भी मानवीय संवेदना, नैतिकता और सुंदरता पर ध्यान दिया जाने लगा है। उदाहरण के लिए, बर्टोल्ट ब्रेश्ट का नाटक ‘गैलीलियो का जीवन’ साहित्य और विज्ञान की निकटता का सूचक था, तो इस नाटक पर सोवियत संघ के वैज्ञानिकों के बीच जो व्यापक बहस हुई थी, वह विज्ञान और साहित्य की निकटता का प्रमाण थी। (यह बहस सोवियत संघ से 1975 में रूसी से अंग्रेजी में अनूदित होकर आयी पुस्तक ‘साइंस एंड मॉरेलिटी’ में छपी थी।)<br />
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इसलिए यह मानकर चलना ठीक नहीं कि विज्ञान और साहित्य में जो अलगाव आज दिखायी देता है, उसे दूर नहीं किया जा सकता। मुझे लगता है कि यह मान्यता कुछ भ्रमों पर आधारित है और वास्तविकता को समझने के लिए उन भ्रमों का निराकरण जरूरी है।<br />
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एक बड़ा भ्रम यह है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी एक ही चीज है। बहुत-से लोग यह समझते हैं कि फोन, फ्रिज, टी.वी., कार, कंप्यूटर वगैरह ही विज्ञान है और इन चीजों के साथ जीना ही मानो वैज्ञानिक ढंग से जीना है। साहित्य को अपने ही जिये-भोगे की अभिव्यक्ति मानने वाले लोग इस समझ के आधार पर कहते हैं कि वैज्ञानिक ढंग से जिये बिना विज्ञान कथाएँ नहीं लिखी जा सकतीं। उन्नत देशों की प्रौद्योगिकी इतनी आगे बढ़ गयी है कि वहाँ का लेखक उसके साथ जीते हुए उसके बारे में आसानी से लिख सकता है, पर हम तो इस दृष्टि से बहुत गरीब और पिछड़े हुए हैं। हम कैसे वैज्ञानिक ढंग का ऐसा जीवन जी सकते हैं कि उसके अनुभवों से विज्ञान कथाएँ लिख सकें? लेकिन यह एक भ्रम ही है। अभी तक किसी विज्ञान लेखक ने अंतरिक्ष यात्रा नहीं की, जबकि अंतरिक्ष यात्रा संबंधी विज्ञान कथाएँ अंतरिक्ष यानों के आविष्कार के पहले से लिखी जा रही हैं। दूसरी तरफ तमाम ‘आधुनिक’ और ‘वैज्ञानिक’ चीजों के साथ जीते हुए भी हमारा जीवन, चिंतन, लेखन और आचरण नितांत अवैज्ञानिक या विज्ञान-विरोधी हो सकता है। इसके उदाहरण हमारे ही देश में नहीं, प्रौद्योगिकी में बहुत आगे बढ़े हुए देशों में भी खूब मिल सकते हैं।<br />
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दूसरा बहुत बड़ा भ्रम यह है कि विज्ञान कथाएँ ‘साहित्य’ नहीं, ‘विज्ञान’ हैं, इसलिए उनको लिखना वैज्ञानिकों का या विज्ञान के क्षेत्र से संबंधित लोगों का काम है। यह भ्रम साहित्य के उन आलोचकों में ही नहीं पाया जाता, जो विज्ञान कथाओं को साहित्य में शुमार नहीं करते; बल्कि उन लेखकों में भी पाया जाता है, जो विज्ञान कथाओं के लेखन को ‘साहित्यिक’ लेखन से भिन्न और भिन्न प्रकार के लेखकों द्वारा किया जाने वाला कार्य समझते हैं। इस भ्रम से मुक्त होने के लिए जहाँ एक तरफ यह जरूरी है कि हम विज्ञान और प्रौद्योगिकी में फर्क करेंµयानी प्रौद्योगिकी को ही विज्ञान समझ लेने की भूल न करेंµवहीं दूसरी तरफ इस तथ्य को अच्छी तरह हृदयंगम कर लेना भी जरूरी है कि विज्ञान का संबंध वैज्ञानिकों या विज्ञान पढ़ने-पढ़ाने वालों से ही नहीं, बल्कि प्रत्येक मनुष्य से है। उदाहरण के लिए, कलम से कागज पर कहानी लिखने वाला लेखक यदि कंप्यूटर पर लिखने लगे, तो इसी बात से वह विज्ञान कथा लिखने में समर्थ नहीं हो जायेगा और विज्ञान की विधिवत शिक्षा पाये बिना या स्वयं वैज्ञानिक हुए बिना भी कोई सर्जनात्मक लेखक स्वाध्याय इत्यादि के जरिये विज्ञान से स्वयं को इस तरह जोड़ सकता है कि वह मौलिक वैज्ञानिक चिंतन और लेखन कर सके।<br />
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तीसरा और सबसे बड़ा भ्रम, जो बहुत पहले से चला आ रहा है, यह है कि साहित्य ‘कला’ है, ‘शास्त्र’ नहीं। ऐसा मानने वाले लोग साहित्य को कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना या हद से हद नाटक तक ही सीमित समझते हैं और यह मानते हैं कि ‘साहित्य’ दिमाग से नहीं, दिल से लिखी जाने वाली चीज है। उसमें थोड़ी बौद्धिकता तो हो सकती है, थोड़ी-बहुत होनी भी चाहिए, लेकिन उसे पढ़ने-समझने-सराहने के लिए किसी और ‘शास्त्र’ का ज्ञान आवश्यक नहीं होना चाहिए।<br />
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विचित्र बात है कि ‘शास्त्र’ और ‘साहित्य’ को अलग और विपरीत मानने की प्रवृत्ति हिंदी साहित्य में दो भिन्न प्रकार के और परस्पर-विरोधी विमर्शों में दिखायी देती है। एक ओर वे लोग हैं, जो साहित्य को ‘‘जन-जन तक पहुँचाने लायक’’ बनाने के लिए ‘‘सरल’’ और ‘‘सबकी समझ में आने वाला’’ बनाने की बात करते हैं। वे साहित्य को ‘लोकप्रिय संगीत’ की तरह लोकप्रिय बनाने की बात करते हैंµफिल्मी गीतों वाले ‘लोकप्रिय संगीत’ की तरह लोकप्रियµजिसके बारे में उनका खयाल शायद यह होता है कि उसे सुनने-समझने-सराहने के लिए न कविता की समझ जरूरी है न संगीत की। अर्थात् जिस तरह हिंदी के फिल्मी गीतों को समझने-सराहने के लिए समाज, दर्शन या विज्ञान के ‘शास्त्रों’ की जानकारी जरूरी नहीं, उसी तरह काव्य और संगीत के ‘शास्त्रों’ की जानकारी जरूरी नहीं है।<br />
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दूसरी ओर वे लोग हैं, जो साहित्य को ‘शुद्ध’ रखने के लिए उसे ‘शास्त्रों’ के ‘‘आक्रमण से’’ या उनकी ‘‘शरण में जाने से’’ बचाने की बात करते हैं। उन्हें ‘लोकप्रिय’ अथवा ‘जनता का साहित्य’ नहीं चाहिए और वे साहित्य की ‘सोद्देश्यता’ में विश्वास नहीं करते। इसलिए साहित्य यदि बौद्धिक या अतिबौद्धिक होकर चंद लोगों के पढ़ने-समझने-सराहने की ही चीज बनकर रह जाये, तो भी उन्हें कोई परवाह नहीं। लेकिन ‘शास्त्रों’ से साहित्य को बचाना उन्हें भी जरूरी लगता है।<br />
<br />
इस प्रकार हिंदी साहित्य में दो परस्पर-विरोधी विमर्श प्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष रूप से विज्ञान कथाओं के लेखन को हिंदी साहित्य से बाहर ही रखना चाहते हैं। इनमें उस ‘यथार्थवादी’ विमर्श को भी जोड़ लिया जाये, जो कथासाहित्य में फैंटेसी या कल्पना को अच्छा नहीं समझता, तो विज्ञान कथाओं को हिंदी साहित्य में न आने देने के लिए एक मुकम्मल नाकाबंदी हो जाती है, क्योंकि फैंटेसी या कल्पना के बिना तो विज्ञान कथाएँ लिखी ही नहीं जा सकतीं।<br />
<br />
अतः यदि हम हिंदी में विज्ञान कथाओं की कमी को वाकई दूर करना चाहते हैं, तो हमें हिंदी साहित्य के चालू विमर्शों से थोड़ा अलग हटकर सोचना होगा और कुछ नये प्रश्न उठाने होंगे। उदाहरण के लिए, यह प्रश्न कि क्या ‘लोकप्रिय’ अथवा ‘जनता का साहित्य’ दिमाग से नहीं, दिल से लिखा जाता है और ‘शास्त्र’ के स्पर्श से वह ‘‘सबकी समझ में आने लायक’’ नहीं रह जाता? विज्ञान कथाओं की भारी लोकप्रियता से तो इस प्रश्न का उत्तर मिलता ही है, फिल्मी गीतों या ‘लोकप्रिय संगीत’ की रचना करने वालों के अनुभवों से भी इस प्रश्न का उत्तर मिल सकता है। जो फिल्मी गीत वास्तव में लोकप्रिय होते हैंµअर्थात् चार दिन चलकर बेकार नहीं हो जाते, बल्कि जिन्हें हम बार-बार सुनना चाहते हैं और पीढ़ी-दर-पीढ़ी पसंद करते जाते हैंµउन पर गंभीरता से विचार करें, तो स्पष्ट होगा कि उनमें जो ‘अच्छा काव्य’ और ‘अच्छा संगीत’ है, वह काव्यशास्त्र और संगीतशास्त्र के ज्ञान के बिना संभव नहीं था। इतना ही नहीं, उन गीतों की रचना सिर्फ दिल से नहीं हुई थी, बल्कि उनमें काफी दिमाग भी लगा थाµऔर किसी एक का नहीं, बल्कि बहुत-से लोगों का दिमाग लगा था, जिनमें सब ‘कलाकार’ ही नहीं, कई ‘टेक्नीशियन’ भी थे।<br />
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इतना ही नहीं, उन संगीत रचनाओं की लोकप्रियता का रहस्य उनके श्रोताओं का काव्य या संगीत के शास्त्र-ज्ञान से शून्य होने में नहीं, बल्कि उनमें उस ज्ञान के होने में है। यह समझना भारी भूल है कि जनता या साधारण लोग, जिनमें अशिक्षित और शास्त्र-ज्ञान से वंचित लोग भी शामिल हैं, काव्य और संगीत के ज्ञान से शून्य होते हैं। परंपरा और निजी अनुभव से उन्हें यह विवेक प्राप्त होता है कि वे एक अच्छे फिल्मी गीत और एक बुरे फिल्मी गीत में फर्क कर सकें। हो सकता है, वे यह न बता सकें कि अमुक गीत में जो कविता है, उसमें काव्यशास्त्र के अनुसार कौन-से गुण या दोष हैं, लेकिन वे यह बता सकते हैं कि एक गीत के बोल दूसरे गीत से बेहतर हैं या बदतर। इसी तरह, हो सकता है, वे किसी राग का नाम न बता सकें, लेकिन वे यह अवश्य बता सकते हैं कि उस राग पर बना एक फिल्मी गीत उसी राग पर बने दूसरे फिल्मी गीत से बेहतर है या बदतर।<br />
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ठीक यही बात विज्ञान कथाओं के पाठकों पर लागू होती है। उन्हें मूर्ख या अज्ञानी समझकर उनके लिए ‘सरल’ या ‘सुबोध’ किस्म की विज्ञान कथाएँ लिखना दरअसल साहित्य को विकृत करना और पाठकों की समझ का अपमान करना है। बच्चों और नवसाक्षरों के लिए हिंदी में जो सरल-सुबोध किस्म की चीजें लिखी जाती हैं, वे प्रायः बहुत घटिया होती हैं। वे साहित्यिक दृष्टि से ही नहीं, पाठकों की दृष्टि में भी कूड़ा ही होती हैं। दूसरी तरफ दुनिया की उत्कृष्ट और लोकप्रिय विज्ञान कथाओं के उदाहरण से इस बात को अच्छी तरह समझा जा सकता है कि वे अपने पाठकों को मूर्ख या ज्ञानशून्य मानकर नहीं, बल्कि बुद्धिमान और ज्ञानवान मानकर लिखी जाती हैं। और यह बात केवल विज्ञान कथाओं के बारे में नहीं, बल्कि सभी प्रकार के साहित्य के बारे में सच है। अच्छी रचना हमेशा अपने पाठक, श्रोता या दर्शक को प्रबुद्ध मानकर चलती है और उसे मिलने वाला ‘रेस्पांस’ उसके ‘जजमेंट’ को सही साबित करता है।<br />
<br />
साहित्य सिर्फ दिल से या सिर्फ दिमाग से कभी नहीं रचा जाता। उसकी रचना हमेशा ही संवेदना और बौद्धिकता के ऐसे अद्भुत मिश्रण से होती है, जिसमें कभी यह पता नहीं चलता कि कौन-से तत्त्व की मात्रा कितनी है। अतः देखना यह चाहिए कि विज्ञान कथाओं के लेखन के लिए संवेदना और बौद्धिकता का वह अद्भुत मिश्रण कैसे संभव है, जो अच्छी साहित्यिक रचना के लिए हमेशा आवश्यक रहा है।<br />
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मेरे विचार से हिंदी में अच्छी विज्ञान कथाओं का लिखा जाना तभी संभव है, जब एक वैज्ञानिक विमर्श हमारे जीवन का अभिन्न अंग हो। वैसे ही, जैसे बहुत-से नैतिक और सौंदर्यशास्त्रीय मूल्य हमारे जीवन के अभिन्न अंग होते हैं, चाहे हम उनके प्रति सचेत हों या न हों। लेकिन विमर्श भाषा में होता है, इसलिए भाषा की समस्या पर सबसे पहले ध्यान देना जरूरी है। आखिर क्यों हमारे देश में विज्ञान की उच्चस्तरीय पढ़ाई आजादी के इतने साल बाद भी हिंदी में न होकर अंग्रेजी में होती है? क्यों विज्ञान संबंधी सारा कामकाज अंग्रेजी में ही होता है? और क्यों विज्ञान संबंधी ज्यादातर लेखन अंग्रेजी में ही होता है?<br />
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हिंदी में विज्ञान कथाएँ लिखना चाहने वाले लेखक के सामने सबसे बड़ी समस्या भाषा की होती है। जिन चीजों को उसने अंग्रेजी के माध्यम से ही जाना और सोचा-समझा है, उन्हें वह हिंदी के माध्यम से कैसे व्यक्त करे? यदि वह सारी शब्दावली और अभिव्यक्तियाँ अंग्रेजी से लेता है, तो उसे लगता है, इससे तो बेहतर है कि वह सीधे अंग्रेजी में ही लिखे। और यदि वह अंग्रेजी की शब्दावली और अभिव्यक्तियों का शब्दकोश की सहायता से हिंदी में अनुवाद करता है, तो भाषा में वह सहजता नहीं रहती, जो साहित्यिक रचना की अनिवार्य शर्त है।<br />
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इस समस्या का समाधान यही है कि हिंदी में विज्ञान कथाओं के लेखन के लिए समाज में ऐसा वातावरण बनाया जाये, जैसा किसी भी विषय से संबंधित सर्जनात्मक लेखन के लिए जरूरी होता है। आजादी से पहले विज्ञान की पढ़ाई तो पूरी तरह अंग्रेजी में होती ही थी, हिंदी भी आज की तरह विकसित और समृद्ध भाषा नहीं थी। उस समय हिंदी में वैज्ञानिक विषयों पर लिखने वालों की और उनके लिखे हुए को प्रकाश में लाने वाले माध्यमों की भी बेहद कमी थी। फिर भी उस समय के लेखक वैज्ञानिक ज्ञान और उसके प्रचार-प्रसार को देश की आजादी और तरक्की के लिए जरूरी समझते थे। इसलिए उन्होंने हिंदी में एक ऐसा वैज्ञानिक विमर्श शुरू किया, जिसने विज्ञान संबंधी चिंतन, लेखन, पत्रकारिता और साहित्य को संभव बनाया। वैज्ञानिक साहित्य लिखने वाले जानते थे कि वे एक बड़े उद्देश्य के लिएµलोगों में वैज्ञानिकता की चेतना जगाने के लिए और उसके जरिये देश की आजादी और जनता की खुशहाली के लिएµलिख रहे हैं। पाठक भी उस साहित्य को इसी बड़े उद्देश्य को ध्यान में रखकर पढ़ते थे और उससे अपने जीवन के लिए उचित और आवश्यक प्रेरणाएँ ग्रहण करते थे।<br />
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आजादी के बाद हिंदी में सबसे बड़ी दुर्घटना शायद यही हुई कि साहित्यकारों ने पाठकांे को उचित और आवश्यक दिशाओं में प्रेरित करने के लिए लिखना और पाठकों ने ऐसी प्रेरणाएँ पाने के लिए साहित्य को पढ़ना कम कर दिया। लेखक समझने लगे कि लिखना प्रतिष्ठा, पैसा, पद, पुरस्कार आदि पाने का साधन है, तो पाठक समझने लगे कि पढ़ना मनोरंजन करने या वक्त काटने का साधन। ऐसी स्थिति में आजादी की लड़ाई के दौरान भारतीय साहित्य में जो वैज्ञानिक विमर्श शुरू हुआ था और जिसने हमारे बहुत-से भ्रमों तथा अंधविश्वासों से हमें मुक्त किया था, वह आजादी के बाद लगभग बंद हो गया। नतीजा यह हुआ कि विज्ञान ही नहीं, साहित्य भी जन-जीवन से दूर हो गया और दोनों के बीच आपस में भी एक ऐसा अलगाव पैदा हो गया, जिसने विज्ञान कथाओं की रचना को एक कठिन काम बना दिया।<br />
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आजादी के बाद एक और दुर्घटना घटी: हिंदी भाषा और विज्ञान लेखन को प्रोत्साहन देने के प्रयास तो हुए, सरकारी स्तर पर इस काम के लिए पैसा भी खूब बहाया गया, लेकिन वर्चस्व अंग्रेजी का ही बनाये रखा गया। नतीजा यह हुआ कि आजादी के बाद भारतेंदु युग का वह सूत्र कहीं बिला गया कि अपनी भाषा की उन्नति ही सभी प्रकार की उन्नतियों की जड़ होती है। आजादी के बाद उस जड़ को सींचने के बजाय उसमें मट्ठा डालने का काम ज्यादा किया गया। हिंदी वालों को खुश रखने के लिए सरकारी और गैर-सरकारी दोनों स्तरों पर लेखकों को बड़े-बड़े पद और पुरस्कार दिये जाने लगे। उधर विज्ञान के प्रचार-प्रसार के नाम पर भी खूब पैसा बहाया गया। इस काम के लिए सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं ने कुछ काम भी किया, लेकिन जन-जीवन में वह ‘वैज्ञानिक मानसिकता’ पैदा नहीं की जा सकी, जिसकी वकालत हमारे देश के वैज्ञानिकों ने ही नहीं, बल्कि राजनीतिक नेताओं, बुद्धिजीवियों, लेखकों, कलाकारों, पत्रकारों आदि ने भी की थी। हालाँकि हिंदी में विज्ञान संबंधी कुछ पत्रिकाएँ निकलीं, हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं में विज्ञान संबंधी सामग्री प्रकाशित होने लगी और कई विज्ञान लेखक सामने आये, मगर विज्ञान की उच्चतर शिक्षा और शोध का माध्यम अंग्रेजी ही बनी रही। ऐसी स्थिति में कोई वैज्ञानिक विमर्श शुरू नहीं हो सकता था, जो हिंदी में विज्ञान संबंधी मौलिक चिंतन और सर्जनात्मक लेखन को प्रेरित-प्रोत्साहित करता।<br />
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दूसरी तरफ आजादी के बाद विज्ञान और प्रौद्योगिकी की शिक्षा पाकर विदेशों में जाकर बस जाना आसान हो गया, तो उच्च-मध्यवर्गीय माता-पिता अपने बच्चों को इसी उद्देश्य से विज्ञान की शिक्षा दिलाने लगे और अपने बच्चों के वहाँ जाकर बस जाने पर गर्व करने लगे। इस प्रकार भारतीय मध्यवर्ग के ऊपरी तबके में अपने देश और अपनी भाषा (वह हिंदी हो या कोई और भारतीय भाषा) के प्रति वह लगाव-जुड़ाव नहीं रह गया, जो आजादी से पहले था।<br />
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चूँकि ज्यादातर राजनेता, वैज्ञानिक, साहित्यकार, कलाकार आदि, जो मुखर बुद्धिजीवी होने के कारण समाज को दिशा और गति देते हैं, मध्यवर्ग के इसी तबके से आते हैं, इसलिए जब यह तबका अपने देश और अपनी भाषा की चिंता छोड़कर अपनी चिंता करने लगा, तो एक प्रकार की दिशाहीनता फैली, जो देश की विकास संबंधी नीतियों में आज भी दिखायी पड़ती है। ध्यान से देखें, तो यही वह तबका है, जो भारत में पूँजी के भूमंडलीकरण का सबसे बड़ा समर्थक है। भूमंडलीकरण के विचार ने मानो उसे अपने देश और अपनी भाषा के प्रति महसूस होने वाली रही-सही नैतिक जिम्मेदारी से भी मुक्त कर दिया है। उदाहरण के लिए, उसे जनता को यह बताना चाहिए था कि भारत में जब से आत्मनिर्भरता की नीति को त्यागकर निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियाँ अपनायी गयी हैं, तब से हम प्रौद्योगिकी के मामले में दूसरे देशों पर उत्तरोत्तर अधिक निर्भर होकर इस दिशा में अपनी स्वतंत्रता और स्वायत्तता खोते जा रहे हैं। मगर क्या उसने ऐसा किया?<br />
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इस वर्ग के ज्यादातर लोगों के लिए उन्नति, प्रगति, विकास आदि सब चीजें मानो सार्वजनिक से व्यक्तिगत हो गयी हैं। उनके लिए अपनी और अधिक से अधिक अपने बच्चों की चिंता ही सब कुछ हो गयी है, जबकि यह नितांत अवैज्ञानिक विचार है, जो व्यक्ति को समाज, प्रकृति, पर्यावरण और संपूर्ण मनुष्यता का शत्रु बनाते हुए सबसे पहले उसी की मनुष्यता को नष्ट करता है।<br />
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भारत के शासक वर्ग का प्रयास रहा है कि हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाएँ समाज में कोई वैज्ञानिक विमर्श चलाने में समर्थ न हो पायें। इसके पीछे कौन-से कारक या कारण हैं, इसकी पूरी जाँच-पड़ताल अभी नहीं हुई है, लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि हिंदी को इस मामले में असमर्थ बनाये रखने की एक कोशिश बराबर की जाती रही है। यह तो हिंदी की अपनी ताकत है कि वह तमाम उपेक्षाओं और अवरोधों-प्रतिरोधों के बावजूद आगे बढ़ी है, समृद्ध हुई है और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान का माध्यम बनने में समर्थ बनी है। हालाँकि स्वयं हिंदी के ही कई लेखक लगातार यह रोना रोते रहते हैं कि हिंदी में कुछ नहीं है और हिंदी का कोई भविष्य नहीं है, फिर भी हिंदी ऐसी घोषणाएँ करने वालों को अँगूठा दिखाती हुई आगे बढ़ रही है और अपना विकास कर रही है। अन्यथा हिंदी में इतने ज्यादा अखबार और उनके नित नये संस्करण कैसे निकल रहे होते? हिंदी में इतनी पत्रिकाएँ क्यों निकल रही होतीं? तमाम तरह के विषयों की इतनी सारी किताबें हिंदी में कैसे छप रही होतीं?<br />
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लेकिन हिंदी के बहुत-से लेखक इस वस्तुपरक यथार्थ को अनदेखा करते हुए यही राग अलापते जा रहे हैं कि हिंदी में कुछ नहीं है और कुछ नहीं हो सकता। वे देख रहे हैं कि हिंदी के अखबारों और पत्रिकाओं में तमाम तरह के विषयों पर तमाम तरह का लेखन हो रहा है, लेकिन उन्होंने मानो साहित्य के उसी कुएँ का मेंढक बने रहने का फैसला कर रखा है, जिसमें ‘‘अपने जिये-भोगे यथार्थ’’ के नाम पर लेखक अपने अत्यंत सीमित निजी अनुभवों को लेकर ही सारी उछल-कूद करते रहते हैं। लेकिन वह दिन दूर नहीं, जब हिंदी के पाठक कथासाहित्य के नाम पर लेखकों की आत्मकथाओं या अन्य लेखकों की जीवनियों से संतुष्ट नहीं हो पायेंगे और ऐसे बहुत-से नये लेखक पैदा हो जायेंगे, जो पाठकों को उनकी जरूरत का नया साहित्य उपलब्ध करायेंगे। उस नये साहित्य में विज्ञान कथाएँ भी अवश्य होंगी।<br />
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<b><span style="color: blue;">--रमेश उपाध्याय</span> </b> </div>
</div>ramesh upadhyayhttp://www.blogger.com/profile/05054633574501788701noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-1496071818736613491.post-8501231349819585352012-05-21T10:20:00.002-07:002012-05-21T10:20:56.237-07:00नये कहानीकार एक नया आंदोलन चलायें<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="color: #741b47;">कथाकार रमेश उपाध्याय से अशोक कुमार पांडेय की बातचीत</span><br />
<br />
<b><span style="color: red;">अशोक कुमार पांडेय :</span></b> रमेश जी,
आजकल हिंदी की पत्रिकाओं में जिस तरह युवा-आधारित विशेषांकों की लगभग
होड़-सी दिखायी देती है, उसकी क्या वजहें हैं और क्या सचमुच उससे कुछ हासिल
हो रहा है?<br />
<br />
<b><span style="color: red;">रमेश उपाध्याय :</span></b> देखिए, अशोक जी,
एक वजह तो एकदम प्रत्यक्ष है कि हिंदी साहित्य में लेखकों की एक नयी पीढ़ी आ
गयी है। देखते-देखते एक साथ बहुत-से युवा रचनाकार सामने आ गये हैं और
उन्हें सामने लाने में हिंदी की उन पत्रिकाओं की बड़ी भूमिका रही है,
जिन्होंने युवा पीढ़ी पर केंद्रित विशेषांक निकाले हैं। हालाँकि उन्होंने
ये विशेषांक न निकाले होते, तो भी ये रचनाकार देर-सबेर सामने आते ही, फिर
भी एक साथ बहुत-से रचनाकारों को एक मंच पर ले आने से पाठकों का ध्यान उनकी
तरफ जल्दी जाता है। इसे उन विशेषांकों की एक उपलब्धि कहा जा सकता है।<br />
<br />
जहाँ तक युवा पीढ़ी पर केंद्रित विशेषांकों की लगभग होड़-सी दिखायी देने की
बात है, मेरे विचार से उसके दो-तीन कारण हैं। एक तो यह कि प्रायः सभी
पत्रिकाओं को--विशेष रूप से नियमित रूप से निकलने वाली मासिक पत्रिकाओं
को--अपने पृष्ठ भरने के लिए सामग्री चाहिए। ढेर सारी सामग्री चाहिए और
निरंतर चाहिए। आज हिंदी में हमेशा से कहीं ज्यादा बड़ी संख्या में
पत्रिकाएँ निकल रही हैं। सामग्री प्राप्त करने के लिए उनमें प्रत्यक्ष या
परोक्ष रूप से एक होड़-सी हमेशा लगी रहती है। उनके संपादक लगातार इस कोशिश
में रहते हैं कि अधिक से अधिक संख्या में लेखकों की रचनाएँ उन्हें निरंतर
प्राप्त होती रहें। इसके लिए वे युवा लेखकों को पकड़ते हैं--अंग्रेजी के
मुहावरे ‘कैच दैम यंग’ के अर्थ में भी--क्योंकि उनमें रचनात्मक ऊर्जा
ज्यादा होती है और जल्दी से जल्दी प्रकाशित और प्रतिष्ठित हो जाने की ललक
भी। इसमें युवा पीढ़ी विशेषांक बहुत सहायक होते हैं, जिनके जरिये एक साथ
बहुत-से युवा रचनाकारों को पकड़ा जा सकता है और अपनी पत्रिका से जोड़ा जा
सकता है।<br />
<br />
दूसरा कारण यह है कि पहले से स्थापित प्रौढ़ लेखकों की रचनाएँ प्राप्त कर
पाना कठिन होता है, क्योंकि एक तो वे लिखते कम हैं और दूसरे वे हर किसी
पत्रिका में नहीं लिखते। इस कारण उनसे अच्छी रचनाएँ निरंतर प्राप्त करते
रहना संपादकों के लिए मुश्किल होता है। पाठक भी प्रौढ़ और प्रसिद्ध लेखकों
से अच्छी रचनाओं की अपेक्षा करते हैं और अपेक्षा पूरी न होने पर पत्रिका से
कटने लगते हैं। ऐसी स्थिति में संपादकों को युवा पीढ़ी के लेखकों को अधिक
से अधिक संख्या में अपनी पत्रिका से जोड़ना जरूरी लगता है। युवा लेखक
उत्साहपूर्वक और भरपूर रचनात्मक सहयोग देते हैं, इसलिए एक तो संपादकों को
पत्रिका के लिए सामग्री की कमी नहीं रहती और दूसरे, उनकी कच्ची-पक्की
रचनाओं को भी यह कहकर छापा जा सकता है कि ये अभी नये हैं, लिखना सीख रहे
हैं, इसलिए इनकी रचनाओं में कच्चापन या अधकचरापन होना स्वाभाविक है।
पत्रिका के पाठक भी युवा लेखकों की रचनाओं को एक प्रकार का ‘कंसेशन’ देते
हुए पढ़ते हैं और उनसे वैसी अपेक्षाएँ नहीं रखते, जैसी प्रौढ़ लेखकों से की
जाती हैं। इस प्रकार युवा पीढ़ी विशेषांक निकालने वाले संपादक को एक तरफ
अपनी पत्रिका के लिए ढेर सारी रचनाएँ मिल जाती हैं और दूसरी तरफ युवा पीढ़ी
को सामने लाने के श्रेय के साथ-साथ उसे स्तरहीन रचनाएँ प्रकाशित करने का
‘लाइसेंस’ भी मिल जाता है।<br />
<br />
तीसरा कारण राजनीतिक है। प्रौढ़ और प्रसिद्ध लेखकों की प्रत्यक्ष या परोक्ष
रूप से कोई न कोई राजनीति होती है। पत्रिकाओं के संपादक उनसे अपनी राजनीति
को आगे बढ़ाने वाली रचनाएँ नहीं लिखवा सकते। इसलिए वे युवा लेखकों को अपनी
ओर खींचते हैं और उन्हें अपनी राजनीति या विचारधारा के अनुसार ढालने का
प्रयास करते हैं। व्यावसायिक पत्रिकाएँ राजनीति से ऊपर उठकर काम करने का
दिखावा करती हैं, लेकिन उनकी भी अपनी कोई न कोई राजनीति अवश्य होती है।
उनमें लिखने वाले युवा लेखक जाने-अनजाने उसी राजनीति में ढल जाते हैं। यह
अकारण नहीं है कि ‘वागर्थ’ और ‘नया ज्ञानोदय’ के माध्यम से जो युवा
कहानीकार सामने आये हैं, वे या तो हर तरह की राजनीति के खिलाफ हैं, या
विशेष रूप से वाम राजनीति के खिलाफ। फिर, सफल होने के लिए बाजार की शर्तों
पर लिखना अराजनीतिक लगते हुए भी एक प्रकार का राजनीतिक लेखन करना है। कुछ
लघु पत्रिकाएँ घोषित रूप से प्रगतिशील या जनवादी पत्रिकाएँ हैं और उनकी
राजनीति स्पष्ट है। लेकिन युवा लेखकों को अपनी ओर खींचने के लिए उनके
संपादक भी नयी पीढ़ी के लेखकों द्वारा लिखी जा रही प्रगतिशील या जनवादी
कहानी के विशेषांक नहीं निकालते, बल्कि ‘युवा पीढ़ी’ की कहानी के विशेषांक
ही निकालते हैं। उदाहरण के लिए, ‘प्रगतिशील वसुधा’ के दो खंडों में निकले
कहानी विशेषांक को आवरण पर भले ही ‘युवा कहानी विशेषांक’ के बजाय ‘समकालीन
कहानी विशेषांक’ कहा गया हो, पर उनमें छपे ज्यादातर लेखक वही थे, जो अन्य
पत्रिकाओं के युवा पीढ़ी विशेषांकों में छपे थे। ‘प्रगतिशील वसुधा’ में भी
उन्हें युवा कथाकार या युवा पीढ़ी के कहानीकार ही कहा गया। यहाँ तक कि उनके
द्वारा लिखी जा रही कहानी को भी ‘युवा कहानी’ कहा गया! संपादक कमला प्रसाद
ने लिखा कि ‘‘प्रगतिशील वसुधा के ये दोनों अंक युवा कहानी पर केंद्रित
हैं।’’ अर्थात् प्रगतिशील लेखक संघ की पत्रिका के इस विशेषांक में लेखकों
या उनकी कहानियों पर प्रगतिशील होने की शर्त नहीं लगायी गयी है!<br />
<br />
<b><span style="color: red;">अशोक कुमार पांडेय :</span></b> ‘युवा’ को आप कैसे परिभाषित करेंगे?<br />
<br />
<b><span style="color: red;">रमेश उपाध्याय :</span></b> कई साल पहले, जब
मेरी गिनती नयी पीढ़ी के लेखकों में होती थी, मैंने ‘पहल’ में एक लेख लिखा
था ‘हिंदी की कहानी समीक्षा: घपलों का इतिहास’। उसमें मैंने हिंदी कहानी को
नयी, पुरानी, युवा आदि विशेषणों वाली पीढ़ियों में बाँटकर देखने की
प्रवृत्ति का विश्लेषण किया था। इस प्रवृत्ति से दो भ्रांत धारणाएँ पैदा
हुई थीं, जो कमोबेश आज तक भी चली आ रही हैं। एक तो यह कि हिंदी कहानी
बीसवीं सदी के प्रत्येक दशक में उत्तरोत्तर अपना विकास करती गयी है और
दूसरी यह कि कहानीकारों की हर नयी पीढ़ी पूर्ववर्ती पीढ़ियों से बेहतर
कहानी लिखती है। आज वही पीढ़ीवादी प्रवृत्ति पुनः प्रबल होती दिखायी पड़
रही है। इसलिए अपने उस लेख की कुछ बातें मैं आपको सुनाना चाहता हूँ।
सुनाऊँ?<br />
<br />
<b><span style="color: red;">अशोक कुमार पांडेय :</span></b> जरूर सुनाइए।<br />
<br />
<span style="color: red;"><b>रमेश उपाध्याय :</b></span> सुनिए, मैंने
लिखा था--नयी पीढ़ी के नाम पर किये गये घपले में निहित आत्मप्रचारात्मक
व्यावसायिकता की गंध आगे आने वाले लेखकों को भी मिल गयी। उनमें से भी कुछ
लोगों ने खुद को जमाने के लिए अपने से पहले वालों को उखाड़ने का वही तरीका
अपनाया, जो ‘नयी कहानी’ वाले कुछ लोग आजमा चुके थे। पीढ़ीवाद का यह घटिया
खेल आज भी जारी है और उसे कुछ नयी उम्र के लोग ही नहीं, बल्कि कुछ
साठे-पाठे भी खेलते देखे जा सकते हैं। बदनाम भी होंगे, तो क्या नाम न होगा!<br />
<br />
आगे मैंने लिखा था--यह खेल कितना वाहियात और मूर्खतापूर्ण है, इसका अंदाजा
आपको ‘युवा पीढ़ी’ पद से लग सकता है। इसे ‘नयी पीढ़ी’ की तर्ज पर चलाया गया
और इसकी कहानी को ‘नयी कहानी’ की तर्ज पर ‘युवा कहानी’ कहा गया। कई
पत्रिकाओं के ‘युवा कहानी विशेषांक’ निकले। ‘युवा कहानी’ पर लेख लिखे गये।
‘युवा कथाकार’ जैसे कहानी संकलन निकाले गये। मेरी आदत है कि पत्रिका या
संकलन के लिए कोई मेरी कहानी माँगता है, तो मैं आम तौर पर मना नहीं करता।
इसलिए आप देखेंगे कि मेरी कहानियाँ साठोत्तरी कहानी, पैंसठोत्तरी कहानी,
सातवें दशक की कहानी, सचेतन कहानी, अकहानी, समांतर कहानी, स्वातंत्र्योत्तर
कहानी, अमुक-तमुक वर्ष की श्रेष्ठ कहानी, प्रगतिशील कहानी, जनवादी कहानी
आदि से संबंधित पत्रिकाओं और संकलनों में छपी हुई हैं। ‘युवा कथाकार’ नामक
संकलन में भी मेरी कहानी छपी है। लेकिन मैं कभी नहीं समझ पाया कि ‘युवा
कहानी’ क्या होती है। किसी को युवा कहने से उसकी उम्र के अलावा क्या पता
चलता है? ‘युवा वर्ग’ कहने से किस वर्ग का बोध होता है? युवक तो शोषक और
शोषित दोनों वर्गों में होते हैं। इसी तरह युवकों में सच्चे और झूठे, शरीफ
और बदमाश, बुद्धिमान और मूर्ख, शक्तिशाली और दुर्बल, प्रगतिशील और
दकियानूस--सभी तरह के लोग हो सकते हैं। तब ‘युवा कहानी’ का क्या मतलब? यह
किस वर्ग के युवाओं की कहानी है? यह किस काल से किस काल तक की कहानी है? यह
किस उम्र से किस उम्र तक के लेखकों की कहानी है?<br />
<br />
और निष्कर्ष के रूप में मैंने लिखा था--कहानी को किसी दशक या पीढ़ी की छतरी
के नीचे ले आने से कहानी की किसी प्रवृत्ति का पता नहीं चलता। हिंदी कहानी
के दशक उसके विकास के सूचक नहीं हैं। विकास की गति सदा इकसार और
कालक्रमानुसार नहीं होती, क्योंकि विकास हमेशा अंतर्विरोधों के बीच होता
है। साहित्य में यह अंतर्विरोध दशकों और पीढ़ियों के बीच न होकर सामाजिक
यथार्थ के प्रति अपनाये जाने वाले दृष्टिकोणों के बीच और रचना में अपनाये
जाने वाले कला-सिद्धांतों के बीच होते हैं।<br />
<br />
आपने देखा होगा, पिछले दिनों मैंने अपने ब्लॉग ‘बेहतर दुनिया की तलाश’ पर
आज की ‘युवा पीढ़ी’ के कहानीकारों से कहा था कि वे पीढ़ीवाद की निरर्थकता
से बचकर सामाजिक यथार्थ के प्रति अपनाये जाने वाले दृष्टिकोणों तथा रचना
में अपनाये जाने वाले कला-सिद्धांतों पर सार्थक बहस चलायें।<br />
<br />
<b><span style="color: red;">अशोक कुमार पांडेय :</span></b> आपके ब्लॉग
पर मैंने ‘लेखकों के मुँह में चाँदी का चम्मच’ वाली पोस्ट भी पढ़ी थी, जो
‘नया ज्ञानोदय’ के जून, 2010 के संपादकीय में रवींद्र कालिया के इन शब्दों
पर टिप्पणी करती थी कि ‘‘आज की युवा पीढ़ी उन खुशकिस्मत पीढ़ियों में है,
जिन्हें मुँह में चाँदी का चम्मच थामे पैदा होने का अवसर मिलता है।’’<br />
<br />
<b><span style="color: red;">रमेश उपाध्याय :</span></b> हाँ, मैंने उसमें
लिखा था कि कालिया द्वारा लिखा गया यह वाक्य एक अंग्रेजी मुहावरे का हिंदी
अनुवाद करके बनाया गया है--‘‘बॉर्न विद अ सिल्वर स्पून इन वंस माउथ’’,
अर्थात् वह, जो किसी धनाढ्य के यहाँ पैदा हुआ हो। इस पर अंग्रेजी के ही एक
और मुहावरे का इस्तेमाल करते हुए कहा जा सकता है कि कालिया के इन शब्दों से
‘‘बिल्ली बस्ते से बाहर आ गयी है’’! मतलब, कालिया कहानीकारों की जिस नयी
पीढ़ी को हिंदी साहित्य में ले आने का श्रेय स्वयं ही लेने को आतुर हैं,
उसका वर्ग-चरित्र उन्होंने स्वयं ही बता दिया है। वैसे यह कोई रहस्य नहीं
था कि सेठों के संस्थान से निकलने वाली पत्रिकाओं से--यानी पहले भारतीय
भाषा परिषद् की पत्रिका ‘वागर्थ’ से और फिर भारतीय ज्ञानपीठ की पत्रिका
‘नया ज्ञानोदय’ से--पैदा हुई नयी पीढ़ी ही नयी पीढ़ी के रूप में क्यों और
कैसे प्रतिष्ठित हुई! अन्यथा उसी समय में ‘परिकथा’ जैसी कई और पत्रिकाएँ
‘नवलेखन’ पर अंक निकालकर जिस नयी पीढ़ी को सामने लायीं, उसके लेखक इतने
खुशकिस्मत क्यों न निकले? जाहिर है, वे लघु पत्रिकाएँ थीं, जबकि ‘वागर्थ’
और ‘नया ज्ञानोदय’ तथाकथित बड़ी पत्रिकाएँ! और ‘नया ज्ञानोदय’ तो भारतीय
ज्ञानपीठ जैसे बड़े प्रकाशन संस्थान की ही पत्रिका थी, जिसका संपादक उस
प्रकाशन संस्थान का निदेशक होने के नाते अपने द्वारा सामने लायी गयी पीढ़ी
के मुँह में चाँदी का चम्मच दे सकता था!<br />
<br />
<b><span style="color: red;">अशोक कुमार पांडेय :</span></b> अच्छा, यह
बताइए कि 1980 के दशक के बाद के कालखंड में हिंदी कविता और कहानी, दोनों
में किसी आंदोलन का जो अभाव दिखता है, उसके क्या कारण हैं?<br />
<br />
<b><span style="color: red;">रमेश उपाध्याय :</span></b> इस प्रश्न पर सही
ढंग से विचार करने के लिए साहित्यिक आंदोलन और साहित्यिक फैशन में फर्क
करना चाहिए। साहित्यिक आंदोलन--जैसे भक्ति आंदोलन या आधुनिक युग में
प्रगतिशील और जनवादी आंदोलन--हमेशा अपने समय के सामाजिक, सांस्कृतिक और
राजनीतिक आंदोलनों से सार्थक और सोद्देश्य रूप में जुड़े होते हैं, जबकि
साहित्यिक फैशन ‘कला के लिए कला’ के सिद्धांत पर चलते हैं और अंततः उनका
संबंध साहित्य के बाजार और व्यापार से जुड़ता है। आपने 1980 के दशक के बाद
के कालखंड की बात की। अर्थात् आप 1991 से 2010 तक के बीस वर्षों में हिंदी
साहित्य में किसी आंदोलन को अनुपस्थित पाते हैं। तो आप यह देखें कि आजादी
के बाद से 1980 के दशक तक हिंदी साहित्य में आंदोलनों की स्थिति क्या रही।
आजादी से पहले का हिंदी साहित्य मुख्य रूप से दो बड़े आंदोलनों से जुड़ा
हुआ था--एक राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन से और दूसरे प्रगतिशील-जनवादी
आंदोलन से। और यह दोनों ही प्रकार का साहित्य अपने-अपने ढंग से सार्थक और
सोद्देश्य साहित्य था। लेकिन आजादी के बाद जो साहित्यिक आंदोलन चले, वे
आंदोलन कम और साहित्य के नये फैशन ज्यादा थे।<br />
<br />
<b><span style="color: red;">अशोक कुमार पांडेय :</span></b> इस बात को जरा स्पष्ट करें।<br />
<br />
<b><span style="color: red;">रमेश उपाध्याय :</span></b> देखिए, आजादी के
तुरंत बाद हिंदी में ‘नयी कविता’ और ‘नयी कहानी’ के जो आंदोलन चले, उनमें
आपको दो तरह का लेखन दिखता है, जिसे मोटे तौर पर आप कलावादी और जनवादी कह
सकते हैं। उनमें से एक का उद्देश्य साहित्य में कुछ नयापन लाना है, तो
दूसरे का उद्देश्य साहित्य के जरिये एक नया समाज बनाना है। यह बात मैं
‘एब्सोल्यूट टर्म्स’ में नहीं, सापेक्ष ढंग से कह रहा हूँ, क्योंकि साहित्य
में, और जीवन में भी, बहुत स्पष्ट विभाजन नहीं हुआ करते। एक प्रवृत्ति में
दूसरी प्रवृत्ति घुली-मिली रहती है। देखना यह चाहिए कि उनमें मुख्य
प्रवृत्ति कौन-सी है। ‘नयी कविता’ और ‘नयी कहानी’ दोनों में आपको प्रगतिशील
और जनवादी लेखक दिखायी पड़ते हैं। लेकिन प्रमुखता है आधुनिकतावादी,
व्यक्तिवादी, कलावादी प्रवृत्ति की। उदाहरण के लिए, ‘नयी कविता’ में
मुक्तिबोध भी हैं, लेकिन प्रमुखता प्राप्त है अज्ञेय को। ‘नयी कहानी’ में
अमरकांत, मार्कंडेय और शेखर जोशी भी हैं, लेकिन प्रमुखता प्राप्त करते हैं
मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव। इसलिए ‘नयी कविता’ और ‘नयी कहानी’
दोनों साहित्य के आंदोलन कम हैं, साहित्य के फैशन ज्यादा हैं। इन दोनों के
बाद हिंदी में जो साहित्यिक आंदोलन चले, वे भी मोटे तौर पर फैशनेबल ही
थे...<br />
<br />
<b><span style="color: red;">अशोक कुमार पांडेय :</span></b> 1970-80 के दशकों में फिर से उभरा प्रगतिशील-जनवादी आंदोलन भी?<br />
<br />
<b><span style="color: red;">रमेश उपाध्याय :</span></b> जी हाँ, काफी हद
तक वह भी। आप देखिए कि ‘नयी कविता’ और ‘नयी कहानी’ के दौर में आधुनिकतावाद
एक फैशन की तरह आता है और बहुत-से लेखक एलियट, एजरा पाउंड, हेमिंग्वे आदि
की तर्ज पर लेखन में नयापन पैदा करने लगते हैं। फिर ‘अकविता’ और ‘अकहानी’
के दौर में बहुत-से लेखक सार्त्र, कामू, काफ्का और एब्सर्ड थिएटर की तर्ज
पर एक नया फैशन चलाते हैं। उसके बाद प्रगतिशील-जनवादी आंदोलन फिर से उभरता
है, तो पक्षधरता, प्रतिबद्धता और वर्ग-संघर्ष से दूर रहने वाले कई लेखक भी
मार्क्स, लेनिन, माओ आदि की चर्चा करते हुए क्रांतिकारी-सी लगने वाली चीजें
लिखने लगते हैं। फैशन की एक खास बात यह होती है कि वह जल्दी-जल्दी बदलता
रहता है। इस मामले में भी यही हुआ। मार्क्सवाद का फैशन भी जल्दी ही बदल
गया। उसकी जगह दलितवाद आ गया, स्त्रीवाद आ गया, उत्तर-आधुनिकतावाद आ गया,
जादुई यथार्थवाद आ गया। एक और बात है। फैशनपरस्त लेखक हमेशा अद्वितीय होना
चाहते हैं। इसलिए वे अन्य लेखकों के साथ एकजुट या संगठित होने में अपनी
अद्वितीयता की हानि समझते हैं। इसी कारण वे स्वयं कोई आंदोलन चलाने या किसी
आंदोलन में शामिल होने में विश्वास नहीं रखते। हाँ, ऐसा हो सकता है कि जब
कोई आंदोलन अपने उत्कर्ष पर हो, तो वे उसे भी कोई नया फैशन मानकर उसके साथ
चलते नजर आने लगें। मगर उत्कर्ष के समय वे जितनी तेजी के साथ उसमें आते
हैं, अपकर्ष के समय उतनी ही तेजी के साथ उससे अलग भी हो जाते हैं। सोवियत
संघ का विघटन होने और पूँजीवादी भूमंडलीकरण के शुरू होने के बाद
प्रगतिशील-जनवादी आंदोलन का उभार एक प्रकार के उतार में बदल गया, तो उससे
अलग हो जाने वाले लेखकों के उदाहरण से इस सत्य को समझा जा सकता है। आंदोलन
में आते समय ऐसे कई लेखक स्वयं को सबसे अधिक प्रगतिशील, सबसे अधिक जनवादी,
सबसे अधिक क्रांतिकारी जताते थे। लेकिन उससे अलग होते समय उसकी निंदा करने
या उसका मजाक उड़ाने में भी वे सबसे आगे दिखायी दिये।<br />
<br />
<b><span style="color: red;">अशोक कुमार पांडेय :</span></b> क्या इस कालखंड की कहानी को, जिसे युवा पीढ़ी की कहानी कहा जा रहा है, आप कोई नाम देना चाहेंगे?<br />
<br />
<b><span style="color: red;">रमेश उपाध्याय :</span></b> इस कालखंड में
कोई एक प्रवृत्ति नहीं रही, जिसे कोई एक नाम दिये जा सके। विभिन्न
प्रवृत्तियाँ रही हैं और उनके अनुसार कहानी के विभिन्न नामकरण भी होते रहे
हैं, जैसे जनवादी कहानी, दलितवादी कहानी और स्त्रीवादी कहानी--इन दोनों को
दलित विमर्श और स्त्री विमर्श की कहानी कहा जाता है--और फिर उत्तर-आधुनिक
कहानी, जादुई यथार्थवाद की कहानी और भूमंडलीय यथार्थवाद की कहानी। ये नाम
कितने सही और सार्थक हैं, इस पर बहस हो सकती है। लेकिन ये नाम इस कालखंड की
कहानी की विभिन्न प्रवृत्तियों को दरशाते हैं, जबकि ‘युवा कहानी’ कहने से
किसी प्रवृत्ति का पता नहीं चलता। इसलिए उम्र के आधार पर कहानीकारों को
बाँटना और युवा लेखकों की कहानी को युवा कहानी जैसा नाम देना किसी भी
दृष्टि से तर्कसंगत नहीं है। इस कालखंड की कहानी को ‘आज की कहानी’ या
‘समकालीन कहानी’ कहना भी तर्कसंगत नहीं है, क्योंकि उससे पता नहीं चलता कि
‘आज’ की व्याप्ति कब से कब तक है। दूसरे, इस कालखंड में कहानीकारों की एक
ही पीढ़ी नहीं, अनेक पीढ़ियाँ एक साथ सक्रिय हैं और कहानी में कोई एक नहीं,
बल्कि अनेक प्रवृत्तियाँ मौजूद हैं। उम्र के आधार पर तो आज जो युवा है,
उसे कल प्रौढ़ और परसों बूढ़ा होना ही है। तो क्या हम आज के युवा लेखक की
कहानी को आज युवा कहानी, कल प्रौढ़ कहानी और परसों बूढ़ी कहानी कहेंगे?
फिर, आज के युवाओं में भी सबका लेखन एक जैसा नहीं है। उसमें बड़ी भिन्नताएँ
हैं। इसलिए देखा यह जाना चाहिए कि ‘आज की कहानी’ में कौन-कौन-सी
प्रवृत्तियाँ पायी जाती हैं और उनमें से मुख्य प्रवृत्ति कौन-सी है, जिसके
आधार पर आज की कहानी का नामकरण किया जा सके।<br />
<br />
<b><span style="color: red;">अशोक कुमार पांडेय :</span></b> आपके विचार से आज की कहानी की मुख्य प्रवृत्ति कौन-सी है?<br />
<br />
<b><span style="color: red;">रमेश उपाध्याय :</span></b> यदि आप आज की
कहानी को सोवियत संघ का विघटन होने और पूँजीवादी भूमंडलीकरण के शुरू होने
के बाद की कहानी मानें, तो 1991 से 2010 तक का बीस वर्षों का यह कालखंड देश
और दुनिया के यथार्थ में हुए एक जबर्दस्त उलटफेर का समय है। इसमें हमारा
आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन ही नहीं बदला है, बल्कि हमारे साहित्य और
संस्कृति में भी एक स्पष्ट बदलाव आया है। निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण
ने हमारे यथार्थ को ही नहीं बदला है, यथार्थ को देखने की हमारी दृष्टि को
भी बदला है। पहले हम लेखक-कलाकार आदि दुनिया के बेहतर भविष्य में विश्वास
रखते थे और अपनी रचनाओं से उस भविष्य को बनाने की कोशिश करते थे। अब हममें
से ज्यादातर लोग यह मानने लगे हैं कि दुनिया जैसी बन सकती थी, बन चुकी है
और आगे इसमें कोई परिवर्तन नहीं होने वाला है। इसलिए भविष्य के बारे में
सोचने और उसका निर्माण करने की कोशिश करने के बजाय इस कालखंड के ज्यादातर
लेखक वर्तमान में जीते हैं और वर्तमान में उन्हें सिर्फ बाजार दिखता है--एक
भूमंडलीय बाजार--जिसमें अपनी जगह बनाना, अपना बाजार बनाना, उस बाजार में
टिके रहना और ऊँची कीमत पर बिकना ही उन्हें अपना और अपने लेखन का एकमात्र
उद्देश्य दिखता है। दूसरे शब्दों में इस कालखंड के ज्यादातर लेखक वर्तमान
व्यवस्था में ही अपनी जगह बनाने और कामयाब होने को ही अपने जीवन और लेखन का
उद्देश्य मानने लगे हैं। इस प्रवृत्ति को आप बाजारोन्मुखी कह सकते हैं और
आज की मुख्य प्रवृत्ति यही है।<br />
<br />
<b><span style="color: red;">अशोक कुमार पांडेय :</span></b> मैं जानता
हूँ कि आप बाजारवाद के विरोधी हैं, इसलिए आप इस बाजारोन्मुखी प्रवृत्ति के
समर्थक नहीं हो सकते। तो आज की कहानी की वह कौन-सी प्रवृत्ति है, जिसे आप
सही मानते हैं?<br />
रमेश उपाध्याय: भविष्योन्मुखी प्रवृत्ति। कहानीकार किसी भी पीढ़ी का हो, आज
उसमें भविष्योन्मुखी दृष्टि से भूमंडलीय यथार्थ को समझने की और उसे कहानी
में प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत करने की क्षमता होनी चाहिए।<br />
<br />
<b><span style="color: red;">अशोक कुमार पांडेय :</span></b> तो आपकी इन अपेक्षाओं पर युवा पीढ़ी कितनी खरी उतर पा रही है?<br />
<br />
<b><span style="color: red;">रमेश उपाध्याय :</span></b> मुझे प्रसन्नता
है कि आज की हिंदी कहानी में कई लेखक इस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। मैं
कहानी पढ़ते समय यह नहीं देखता कि कहानीकार युवा है या प्रौढ़, स्त्री है
या पुरुष, दलित है या सवर्ण, हिंदू है या मुसलमान या किसी और धर्म का।
जिन्हें कहानीकारों में ऐसे भेद करना जरूरी लगता है, उनकी वे जानें, मैं तो
कहानी को देखता हूँ और हर तरह के कहानीकारों की कहानियाँ पढ़ता हूँ। इससे
कई बार मुझे बड़ी आश्चर्यजनक उपलब्धियाँ हो जाती हैं। उदाहरण के लिए, एक
कहानीकार हैं द्वारकेश नेमा, जिनका पहला कहानी संग्रह उनकी उम्र के
इकहत्तरवें वर्ष में छपा है। आज के चट मँगनी पट ब्याह वाले समय में यह वाकई
एक अद्भुत और विलक्षण बात है कि एक कहानीकार का पहला कहानी संग्रह इकहत्तर
वर्ष की उम्र में छपे और उसकी ग्यारह में से नौ कहानियाँ पैंसठ साल की
उम्र के बाद लिखी गयी हों। लेकिन इस बुजुर्ग कहानीकार की कहानियों का-सा
नयापन आज के बहुत-से युवा कहानीकारों की कहानियों में भी मिलना मुश्किल है।
आपको विश्वास न हो, तो उनका कहानी संग्रह ‘हीरामन-अमर्त्य सेन और अन्य
कहानियाँ’ पढ़कर देख लें। दूसरी तरफ एक नितांत नये लेखक अमित मनोज की
‘परिकथा’ के नवलेखन अंक (सितंबर-अक्टूबर, 2008) में छपी कहानी ‘चूड़ियाँ’
पढ़ें, तो आप पायेंगे कि नये लेखक भी आज के भूमंडलीय यथार्थ को एक
भविष्योन्मुखी दृष्टि से देख रहे हैं और उनकी कहानियों में जो नयापन है, वह
उस यथार्थ के व्यापक परिप्रेक्ष्य में कहानी लिखने के कारण आ रहा है।<br />
<br />
<b><span style="color: red;">अशोक कुमार पांडेय :</span></b> कुछ ऐसे युवा कहानीकार, जिनमें आपको संभावना दिखायी देती है? कुछ ऐसी कहानियाँ, जिनमें वाकई नयी रचनाशीलता दिखायी दी हो?<br />
<br />
<b><span style="color: red;">रमेश उपाध्याय :</span></b> देखिए, संभावना
तो हर लेखक में रहती है और हर लेखक के विषय में यह आशंका भी कि आज वह जो
बहुत अच्छा लिख रहा है, कल बहुत खराब लिखने लगे। या आज जो बहुत नया लग रहा
है, कल ही पुराना पड़ जाये। मैं नाम नहीं लूँगा, लेकिन रवींद्र कालिया
‘वागर्थ’ और ‘नया ज्ञानोदय’ से जिस युवा पीढ़ी को सामने लाये और परमानंद
श्रीवास्तव जैसे नामगिनाऊ आलोचकों ने उस पीढ़ी के जिन कहानीकारों को
रातोंरात आसमान पर चढ़ा दिया, वे अपने से आगे वाले युवा कहानीकारों की
तुलना में आज ही पुराने पड़ गये लगते हैं। उदाहरण के लिए, ‘नया ज्ञानोदय’
के ही मई-जून, 2007 में निकले युवा पीढ़ी विशेषांक में छपे लेखकों की
कहानियों की तुलना जून, 2010 में निकले युवा पीढ़ी विशेषांक में छपे लेखकों
की कहानियों से करें, तो आप पायेंगे कि इन तीन सालों में ही ‘युवा पीढ़ी’
के कई चमकीले सितारे अपनी चमक खोकर पुराने-से लगने लगे हैं। मैं यह नहीं
कहता कि उनमें संभावना नहीं रही। मैं केवल यह कहना चाहता हूँ कि संभावना के
नाम पर की गयी भविष्यवाणियाँ अक्सर गलत साबित होती हैं। नयी पीढ़ी का
स्वागत अवश्य किया जाना चाहिए, लेकिन इस प्रकार नहीं कि उनके आगमन मात्र से
जैसे कोई क्रांति हो गयी हो और अब तक साहित्य में जो कुछ हुआ, वह सब
पुराना और बेकार हो गया हो। लेखकों की उम्र से नयी रचनाशीलता का कोई सीधा
संबंध नहीं होता। उदाहरण के लिए, अभी मैंने जिन दो कहानीकारों के नाम लिये,
उनमें अमित मनोज केवल 28 वर्ष के हैं और द्वारकेश नेमा 71 वर्ष के। लेकिन
दोनों की कहानियों में नयी रचनाशीलता दिखायी पड़ती है। अमित मनोज की कहानी
के बारे में मैंने विस्तार से ‘परिकथा’ के नवंबर-दिसंबर, 2008 के अंक में
लिखा था और नेमा जी कहानियों पर विस्तार से ‘कथन’ के जुलाई-सितंबर, 2010 के
अंक में लिखा है।<br />
<br />
<b><span style="color: red;">अशोक कुमार पांडेय :</span></b> इस नयी रचनाशीलता की क्या विशेषताएँ हैं?<br />
<br />
<b><span style="color: red;">रमेश उपाध्याय :</span></b> नयी रचनाशीलता का
कोई एक रूप नहीं होता। उसके विभिन्न रूप होते हैं। उदाहरण के लिए, एक
प्रकार की नयी रचनाशीलता आपको ‘नया ज्ञानोदय’ के युवा पीढ़ी विशेषांकों में
मिलेगी, तो दूसरी प्रकार की नयी रचनाशीलता ‘परिकथा’ तथा अन्य पत्रिकाओं के
नवलेखन विशेषांकों में। ‘नया ज्ञानोदय’ वाली युवा पीढ़ी की विशेषताएँ उसके
संपादक रवींद्र कालिया के शब्दों में ये हैं--‘‘इस पीढ़ी के पास अपनी शब्द
संपदा है, अपने मुहावरे हैं। वाक्य विन्यास में भी नये-नये प्रयोग देखे जा
सकते हैं। ये भाषा के स्तर पर बहुत शुद्धतावादी नहीं हैं और न ही
आदिवासियों, दलितों और शोषितों के प्रति घड़ियाली आँसू बहाते हैं।’’ ध्यान
से देखें, तो यहाँ नयी रचनाशीलता भाषा में आये बदलाव में देखी जा रही है।
कथ्य में आये बदलाव की बात यहाँ सकारात्मक रूप से नहीं, बल्कि नकारात्मक
रूप में की जा रही है। उससे ‘युवा पीढ़ी’ की कहानी की अंतर्वस्तु का पता
नहीं चलता कि उसमें क्या है। बस, इतना पता चलता है कि क्या नहीं है। और
उससे ‘युवा पीढ़ी’ की प्रशंसा के बहाने प्रगतिशील-जनवादी कहानी की निंदा की
गयी है और उस पर कुछ आक्षेप किये गये हैं। मसलन, प्रगतिशील-जनवादी
कहानीकार भाषा के स्तर पर बहुत शुद्धतावादी हैं, जो ये युवा पीढ़ी के
कहानीकार नहीं हैं। या प्रगतिशील-जनवादी कहानीकार अपनी कहानियों में
आदिवासियों, दलितों और शोषितों के प्रति घड़ियाली आँसू बहाते हैं, जो युवा
पीढ़ी के कहानीकार नहीं बहाते। मतलब यह कि प्रगतिशील-जनवादी कहानीकारों का
लेखन एक प्रकार का छद्म लेखन है और इस युवा पीढ़ी का लेखन जेनुइन है। मैं
‘छद्म’ और ‘जेनुइन’ शब्दों का इस्तेमाल जान-बूझकर कर रहा हूँ, क्योंकि यह
शब्दावली हिंदी को प्रगतिशील-जनवादी लेखन के विरोधियों की देन है।<br />
<br />
<b><span style="color: red;">अशोक कुमार पांडेय :</span></b> तो आपके
विचार से ‘परिकथा’ तथा अन्य पत्रिकाओं के नवलेखन विशेषांकों से सामने आ रही
नयी पीढ़ी के कहानीकारों की कहानी की क्या विशेषताएँ हैं?<br />
<br />
<b><span style="color: red;">रमेश उपाध्याय :</span></b> मैंने ‘परिकथा’
के सितंबर-अक्टूबर, 2008 वाले नवलेखन अंक में प्रकाशित कहानियों पर जो लेख
उसके नवंबर-दिसंबर, 2008 वाले अंक में लिखा था, उसका शीर्षक था ‘कलावाद और
अनुभववाद से मुक्त होती हिंदी कहानी’। लेकिन इधर की चर्चित, बल्कि जरूरत से
ज्यादा चर्चित ‘युवा पीढ़ी’ की ये ही दो विशेषताएँ हैं--कलावाद और
अनुभववाद! आप इस ‘युवा पीढ़ी’ की सारी कहानियाँ पढ़ जाइए, उनमें ‘बात’ पर
कम और ‘बात कहने के ढंग’ पर ज्यादा जोर है। ये कहानीकार कहानी का कथ्य अपने
निजी अनुभव से लेते हैं, जो स्वाभाविक है कि पहले की पीढ़ियों के अनुभव से
भिन्न है, नया है--नयी टेक्नोलॉजी, नयी सूचना-संस्कृति, नयी जीवन-शैली के
कारण--लेकिन आज के भूमंडलीय यथार्थ की व्यापकता को देखते हुए वह अत्यंत
सीमित है। वह लगभग निरुद्देश्य और लगभग निरर्थक भी है, क्योंकि ये लेखक
शायद यह मानकर चल रहे हैं कि दुनिया जैसी है, वैसी ही हमेशा रहनी है और
उसका कोई विकल्प नहीं है। इससे बेहतर दुनिया की कोई कल्पना या परिकल्पना
उनके पास नहीं है, इसलिए उनकी कहानियों का कथ्य किसी बेहतर भविष्य की ओर
प्रवाहित गतिशील धारा का नहीं, बल्कि यथास्थितिवाद के पोखर में रुके हुए
सड़ते पानी का-सा अहसास कराता है, जिसे वे भाषाई चमत्कारों से सुंदर बनाने
की कोशिश करते दिखायी देते हैं। लेकिन यह कोशिश सड़ते हुए पानी में कमल के
फूल खिलाने की-सी कोशिश होती है--हिंदी की जगह हिंग्लिश के प्रयोग से,
गालियों और भदेस अभिव्यक्तियों से, दुनिया भर की सूचनाओं की भरमार से,
विदेशी लेखकों के संदर्भरहित उद्धरणों से, कहानी के बीच में लंबे-लंबे
चमत्कारपूर्ण उपशीर्षकों से, किसी भी संदर्भ में घुसा दिये जाने वाले
यौन-प्रसंगों से या एक प्रकार का बौद्धिक आतंक उत्पन्न करने के प्रयासों
से!<br />
<br />
<b><span style="color: red;">अशोक कुमार पांडेय :</span></b> पर आज की सभी कहानियों में तो यह सब नहीं होता।<br />
<br />
<b><span style="color: red;">रमेश उपाध्याय :</span></b> मैं सभी कहानियों
की नहीं, इधर की चर्चित और जरूरत से ज्यादा चर्चित ‘युवा पीढ़ी’ की
कहानियों की बात कर रहा हूँ। इस ‘युवा पीढ़ी’ के कहानीकार गर्व से कहते हैं
कि वे उदय प्रकाश को अपना आदर्श मानते हैं। अब आप देखें कि उदय प्रकाश के
लेखन में सबसे ज्यादा जोर किस चीज पर होता है। उस भाषा पर, जो बौद्धिक आतंक
उत्पन्न करने वाली सूचनाओं से लदी-फँदी भाषा है। ‘युवा पीढ़ी’ के लेखक भी
ऐसी भाषा लिखने की कोशिश करते हैं। उदाहरण के लिए, प्रभात रंजन स्पष्ट रूप
से स्वीकार करते हैं कि ‘‘जब मैं कहानियाँ लिखता हूँ, यह उदय प्रकाश से
सीखा है कि जो चीज आप उस समय पढ़ रहे हैं, उसका उपयोग जरूर कर लें।’’ इन
कहानीकारों का जोर कहानी के कथ्य पर उतना नहीं है, जितना भाषा और शिल्प पर।
मगर ये सभी कहानीकार इस मामले में एक जैसे नहीं हैं। भाषा और शिल्प पर
जरूरत से ज्यादा जोर देना ठीक नहीं है, यह बात इनमें से कई लेखक आत्मालोचना
के रूप में कहते भी हैं। लेकिन ज्यादातर का जोर भाषा और शिल्प पर ही रहता
है।<br />
<br />
<b><span style="color: red;">अशोक कुमार पांडेय :</span></b> कुछ उदाहरण?<br />
<br />
<b><span style="color: red;">रमेश उपाध्याय :</span></b> उदाहरण के लिए,
‘प्रगतिशील वसुधा’ में छपे युवा लेखकों के संवाद को देखें। उसमें आपको
दोनों प्रकार के विचार मिल जायेंगे। मसलन, ज्योति चावला कहती हैं कि ‘‘विषय
तो हर युग में बदलते रहे हैं। लेकिन इस युवा कहानी ने जो अपनी अलग पहचान
बनायी है, इसका कारण उसका अपना शिल्प है, उसकी भाषा है, उसका ट्रीटमेंट है,
उसका प्रेजेंटेशन है।’’ लेकिन संजय कुंदन इससे सहमत नहीं। वे कहते हैं कि
‘‘कई बार तो हम पूरी कहानी पढ़ जाते हैं और भाषा के चमत्कार में बँधकर रह
जाते हैं। अंत में पता चलता है कि कहानी में तो कुछ था ही नहीं।’’ प्रभात
रंजन कहते हैं कि ‘‘मैं मानता हूँ, कोई भी लेखक जो है, वह भाषा से ही है।’’
इसके विपरीत योगेंद्र आहूजा का विचार है कि ‘‘कई बार कंटेंट की कमी को
भाषा से ढँकने की कोशिश भी की जाती है।’’ लेकिन कुणाल सिंह पुनः भाषा पर
जोर देते हुए कहते हैं कि ‘‘भाषा अपने-आप में कंटेंट है।’’ शायद भाषा और
शिल्प पर इतना जोर देने के कारण ही ये लेखक स्वयं को प्रगतिशील और जनवादी
लेखकों की परंपरा का नहीं, बल्कि निर्मल वर्मा, मनोहर श्याम जोशी और उदय
प्रकाश की परंपरा में रखकर देखते हैं। उदय प्रकाश इनके आदर्श शायद इसलिए भी
हैं कि उन्हें साहित्य के बाजार में अद्वितीय और असाधारण सफलता प्राप्त
हुई है। ये लेखक भी ऐसी ही सफलता के आकांक्षी हैं।<br />
<br />
<b><span style="color: red;">अशोक कुमार पांडेय :</span></b> लेकिन इसी
पीढ़ी में दूसरे लेखक भी तो हैं, जो भाषा या शिल्प और शैली पर इतना जोर न
देकर कहानी के कथ्य और आज के यथार्थ का चित्रण करने पर जोर देते हैं। वे भी
बहुत अच्छी और महत्त्वपूर्ण कहानियाँ लिख रहे हैं, पर उनकी इतनी चर्चा
नहीं होती। इसका क्या कारण है?<br />
<br />
<b><span style="color: red;">रमेश उपाध्याय :</span></b> यह सवाल आलोचकों से पूछा जाना चाहिए।<br />
<br />
<b><span style="color: red;">अशोक कुमार पांडेय :</span></b> हिंदी कहानी की आलोचना की अब क्या भूमिका है? क्या वह वास्तव में नये रचनाकारों की परख कर पा रही है?<br />
<br />
<b><span style="color: red;">रमेश उपाध्याय :</span></b> आपके प्रश्न में
ही उसका उत्तर निहित है। लेकिन यह देखना चाहिए कि इसका कारण क्या है। मुझे
लगता है कि हिंदी कहानी और कहानी की आलोचना दोनों को बाजारवाद बुरी तरह
प्रभावित कर रहा है। बाजारोन्मुख कहानीकार और आलोचक यह मानकर चल रहे हैं कि
पूँजीवाद का कोई विकल्प नहीं है, इसलिए यह दुनिया अब हमेशा ऐसे ही चलेगी।
इसे बदलना, सुधारना, सँवारना, बेहतर बनाना संभव नहीं है। साहित्य से, और
कहानी जैसी विधा से तो बिलकुल नहीं। वे कहानी को बाजार में बिकने वाली
वस्तु मानते हैं। कहानीकार आलोचकों से अपेक्षा करते हैं कि वे उनकी कहानी
को--और उनको भी--बाजार में ऊँचे दामों में बिकने लायक बनायें। अर्थात् उनका
विज्ञापन करें, बाजार में उनकी जगह बनायें, उनकी कीमत बढ़ायें। दुर्भाग्य
से आलोचक स्वयं भी यही चाहते हैं कि वे लेखकों का बाजार बना और बिगाड़ सकने
की भूमिका में बने रहें, ताकि वे स्वयं भी बाजार में टिके रहें और उनकी
अपनी कीमत भी बढ़ती रहे। ऐसे लेखक और आलोचक दुनिया के भविष्य के बारे में
नहीं, केवल अपने भविष्य के बारे में सोचते हैं।<br />
<br />
<b><span style="color: red;">अशोक कुमार पांडेय :</span></b> लेकिन ऐसे कहानीकार और ऐसे आलोचक भी तो हैं, जो अपना भविष्य दुनिया के भविष्य के साथ जोड़कर देखते हैं?<br />
<br />
<b><span style="color: red;">रमेश उपाध्याय :</span></b> निश्चित रूप से
हैं। मगर उन्हें आपस में जोड़ने वाला कोई आंदोलन न होने के कारण वे बिखरे
हुए हैं, अलग-थलग पड़े हुए हैं। जरूरत है कि वे निकट आयें और मिल-जुलकर एक
आंदोलन चलायें। एक नया कहानी आंदोलन।<br />
<br />
<b><span style="color: red;">अशोक कुमार पांडेय :</span></b> आपके विचार से उस नये आंदोलन का नाम और रूप?<br />
<br />
<b><span style="color: red;">रमेश उपाध्याय :</span></b> रूप तो आंदोलन
चलाने वाले लेखक ही उसे देंगे, पर मैं एक नाम सुझा सकता हूँ। हमारी इस
बातचीत में अभी-अभी दो शब्द आये--बाजारोन्मुखी और भविष्योन्मुखी। तो हम
बाजारोन्मुखी कहानी के बरक्स भविष्योन्मुखी कहानी का आंदोलन ही क्यों न
चलायें?<br />
<br />
<br />
<b><span style="color: blue;">--रमेश उपाध्याय</span></b></div>ramesh upadhyayhttp://www.blogger.com/profile/05054633574501788701noreply@blogger.com2