Tuesday, December 11, 2012

माध्यमों के ध्वस्त पुल और पुरस्कारों की बाढ़

यह लेख 'समकालीन सरोकार' के दिसंबर, 2012 के अंक में 'पुरस्कारों की बाढ़ में फेंके गये लेखक की मजबूरी' शीर्षक से छपा है. लेकिन मेरे द्वारा दिया गया शीर्षक 'माध्यमों के ध्वस्त पुल और पुरस्कारों की बाढ़' ही था. 

साहित्य और संस्कृति से संबंधित संस्थाओं की दशा या दुर्दशा पर विचार करते हुए हम प्रायः साहित्य और संस्कृति को ही भूल जाते हैं। हम उनकी ढाँचागत कमियों और कमजोरियों की आलोचना करते हैं। हम उनकी नीतियों और गतिविधियों की आलोचना करते हैं। हम उनकी कार्यशैलियों और कार्यप्रणालियों की आलोचना करते हैं। हम उनके पदाधिकारियों की गलत नियुक्तियों और पदोन्नतियों की आलोचना करते हैं। हम उनकी फिजूलखर्चियों और बदइंतजामियों की आलोचना करते हैं। हम उनके अंदर चलने वाली स्वार्थजन्य गुटबंदियों और राजनीतिक दलबंदियों की आलोचना करते हैं। हम उनके द्वारा दिये जाने वाले पुरस्कारों में की गयी मनमानियों और बेईमानियों की आलोचना करते हैं। हम उनके द्वारा पुरस्कृत और उपकृत होने वाले व्यक्तियों की अयोग्यताओं और अपात्रताओं की आलोचना करते हैं। हम उनकी स्वतंत्रता और स्वायत्तता को कम या खत्म करने वाली शक्तियों और प्रवृत्तियों की आलोचना करते हैं। और हम उनमें सुधार या बदलाव की जरूरत बताते हुए उनके अंदर स्वतंत्रता, स्वायत्तता, जनतांत्रिकता, नैतिकता, निष्पक्षता और पारदर्शिता की माँग करते हैं। लेकिन यह नहीं देखते कि यहाँ साहित्य और संस्कृति का क्या हाल है, जिसके विकास और प्रचार-प्रसार के लिए ये संस्थाएँ बनायी गयी हैं।

शायद हम यह मानकर चलते हैं कि ये संस्थाएँ तो ठीक हैं, अच्छे उद्देश्यों से बनायी गयी हैं, इनमें कोई खराबी नहीं है। खराबी है इनमें काम करने वाले व्यक्तियों और उन्हें ऊपर से या पीछे से संचालित करने वाली शक्तियों में, जिन्हें यदि बदल दिया जाये, तो सब ठीक हो जाये। लेकिन हम शायद यह देखते हुए भी नहीं देखते कि इन संस्थाओं को चलाने वाले व्यक्तियों और उन्हें संचालित करने वाली शक्तियों के बदल जाने पर भी ये संस्थाएँ नहीं बदलतीं। वैसे ही, जैसे देश में सरकारें बदलती रहती हैं, देश की व्यवस्था नहीं बदलती, जिसके कारण बदली हुई सरकारें भी वही सब करती हैं, जो पिछली सरकारें करती रही होती हैं। साहित्य और संस्कृति से संबंधित संस्थाओं के कटु-कठोर आलोचक जब स्वयं उन पर काबिज हो जाते हैं, तो वही करते हैं, जो उनसे पहले वाले लोग करते थे। नये आने वाले कई लोग तो इसमें कोई बुराई भी नहीं समझते, बल्कि खुल्लमखुल्ला डंके की चोट पर कहते हैं--हम से पहले वाले लोगों ने अपने लोगों को पुरस्कृत-उपकृत किया, अब हम अपने लोगों को पुरस्कृत-उपकृत कर रहे हैं। 

साहित्यकार सबसे अधिक आलोचना साहित्यिक पुरस्कार देने वाली संस्थाओं की करते हैं, लेकिन उनसे पुरस्कृत होने के लिए लालायित भी रहते हैं। उनकी ज्यादातर आलोचनाएँ इस प्रकार की होती हैं कि पुरस्कार इस लेखक को दिया गया, उस लेखक को क्यों नहीं दिया गया। इस विधा पर दिया गया, उस विधा पर क्यों नहीं दिया गया। इस किताब पर दिया गया, उस किताब पर क्यों नहीं दिया गया। ऐसी आलोचनाएँ पढ़-सुनकर लगता है कि मानो इन लोगों के पसंदीदा लेखक को, इनकी पसंदीदा विधा को और इनकी पसंदीदा किताब को पुरस्कार दे दिया गया होता, तो सब ठीक हो जाता! वे जब स्वयं पुरस्कार पा जाते हैं, तो प्रसन्न और संतुष्ट होकर शांत हो जाते हैं। मानो अब साहित्य जगत में सब कुछ ठीक हो गया हो!

लेकिन साहित्य जगत में कुछ भी ठीक नहीं है। साहित्य आम जनता के बल पर ही जीवित और जीवंत रह सकता है। इसके लिए जरूरी है कि वह अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचे। लोग उसे पढ़ें या दृश्य-श्रव्य रूपों में देखें-सुनें और साहित्यकारों को उससे अपने जीवनयापन के साधनों के साथ-साथ जनता से जरूरी ‘रेस्पांस’ और ‘फीडबैक’ भी मिलता रहे। और इसके लिए यह जरूरी है कि साहित्य के प्रकाशन, प्रसारण, अनुवाद और दृश्य-श्रव्य रूपों में रूपांतरण की एक समुचित व्यवस्था समाज में हो। इतिहास से पता चलता है कि प्रत्येक समाज अपने साहित्य के लिए ऐसी व्यवस्था किसी न किसी रूप में करता रहा है। आधुनिक युग में यह व्यवस्था मुख्यतः तीन प्रकार से होती है--साहित्य को सीधे जनता तक पहुँचाने वाली सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संस्थाओं के द्वारा; पत्रकारिता और पुस्तक प्रकाशन के द्वारा; और रंगमंच, रेडियो, टेलीविजन और सिनेमा जैसे माध्यमों के द्वारा। 

भारत में आजादी से पहले और आजादी के कुछ समय बाद तक भी यह व्यवस्था कायम थी। (आजादी से पहले टेलीविजन नहीं था, लेकिन बाद में जब आया, तो उसके जरिये साहित्य का काफी प्रसारण हुआ।) मगर धीरे-धीरे सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संस्थाओं से साहित्य दूर होता गया और उसका सीधे आम जनता तक पहुँचना कम होता गया। पत्रकारिता और साहित्य का जो घनिष्ठ संबंध पहले से चला आ रहा था, वह भी धीरे-धीरे क्षीण होता गया। पहले के पत्रकार प्रायः ‘साहित्यकार ही’ या ‘साहित्यकार भी’ हुआ करते थे और पत्र-पत्रिकाओं में साहित्य के लिए काफी जगह रहती थी। अब उनकी जगह ऐसे पत्रकारों ने ले ली है, जिनका प्रायः साहित्य से कोई संबंध नहीं होता और पत्र-पत्रिकाओं में साहित्य की जगह कम होते-होते खत्म-सी हो गयी है। रंगमंच, रेडियो, टेलीविजन और सिनेमा का भी साहित्य से अब पहले जैसा संबंध नहीं रहा। रहा पुस्तक प्रकाशन, सो उस पर सरकार और बाजार का ऐसा हमला हुआ है कि साहित्य को जनता तक पहुँचाने वाला यह पुल भी ध्वस्त हो गया है।

पुस्तक प्रकाशन (बड़े संचार माध्यमों और अब इंटरनेट के बावजूद) आज भी साहित्य को जनता तक पहुँचाने का मुख्य माध्यम है। लेकिन अब वह जमाना नहीं रहा, जब प्रकाशक दूसरी तरह की पुस्तकों के साथ-साथ साहित्यिक पुस्तकों का प्रकाशन भी करते थे और कोशिश करते थे कि साहित्यिक पुस्तकें ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचें। इसके लिए वे पुस्तकों की कीमत कम रखते थे और बुकसेलरों को कमीशन देकर खुश रखते थे। हर शहर और हर कस्बे में मौजूद बुकसेलर साहित्यिक पुस्तकें रखते थे और आम पाठकों को बेचते थे। (मेरी कहानी ‘लाला बुकसेलर’ के लाला जैसे चरित्र हर जगह देखने को मिलते थे।) बुकसेलर अपने-आप में एक संस्था होते थे। यह संस्था प्रकाशक और पाठक के बीच एक पुल बनाने का काम करती थी। लेकिन सरकारी संस्थाओं ने थोक में किताबें खरीदना शुरू किया, तो बुकसेलर नामक संस्था ही समाप्त हो गयी। छोटे शहरों और कस्बों की तो बात ही क्या, महानगरों में भी, जहाँ अब हर सड़क और हर गली बाजार है, साहित्यिक पुस्तकों की कोई दुकान ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलेगी।

किताबों की सरकारी थोक खरीद होने लगी, तो प्रकाशकों को आम पाठक की चिंता नहीं रही। थोक में किताबें खरीदने वाले अधिकारी को घूस देकर जब एक बार में ही एक हजार किताबें खपायी जा सकती हों, तो एक हजार खुदरा पाठकों तक पहुँचने की, उनकी क्रयशक्ति का खयाल करके किताबों की कीमत कम रखने की, बुकसेलरों तक किताबें पहुँचाने और उन्हें कमीशन देकर खुश रखने के लंबे झंझट में पड़ने की क्या जरूरत? रद्दी-सद्दी किताबें भी--अनाप-शनाप दाम रखकर भी--अगर घूस के बल पर थोक सरकारी खरीद में खपायी जा सकती हों, तो प्रकाशक पाठकों की परवाह क्यों करे? अच्छे लेखकों से अच्छी किताबें लिखवाने और उन्हें समय से सम्मानपूर्वक रॉयल्टी देने की अब क्या जरूरत, जबकि घटिया से घटिया लेखकों की घटिया से घटिया किताबें भी थोक खरीद में खपायी जा सकती हों?

अतः अब कुछ ‘सेलेब्रिटी’ बन चुके और पाठ्यक्रमों में लग चुके चंद साहित्यकारों को छोड़कर बाकी साहित्यकारों की चिंता प्रकाशक नहीं करते। ‘‘साहित्यिक पुस्तकें बिकती नहीं’’ के तकियाकलाम के साथ वे साहित्यकारों से ऐसे बात करते हैं, जैसे उनकी किताब छापकर उन पर कोई कृपा कर रहे हों। और कृपा भी इस शर्त के साथ कि रॉयल्टी वगैरह तो आप भूल ही जायें, अपने संबंधों और संपर्कों के बल पर अपनी किताब (और हो सके, तो हमारी दूसरी किताबें भी) बिकवाने में हमारी मदद करें! और ऐसे ‘मददगार साहित्यकार’ आला अफसरों, राजनीतिक नेताओं, मंत्रियों आदि के रूप में उन्हें आजकल बहुतायत में मिल जाते हैं। वे साहित्यकार न हों, तो भी उनकी लिखी या किसी गरीब लेखक से लिखवायी गयी किताब प्रकाशक बढ़िया ढंग से छापते हैं और धूमधाम से किसी बड़े साहित्यकार के हाथों उसका लोकार्पण कराकर उन ‘मददगारों’ को रातोंरात बड़ा साहित्यकार बना देते हैं।

बाकी साहित्यकारों से--खास तौर से नये लेखकों से--वे कहते हैं कि ‘‘आपकी पुस्तकें बिकती नहीं, आप छपाई का खर्च दे दें, हम आपकी पुस्तक प्रकाशित कर देंगे।’’ साथ में सलाह भी देते हैं--‘‘साहित्य पर दिये जाने वाले ढेरों पुरस्कार हैं, एकाध झटक लीजिए, सारा खर्चा निकल आयेगा।’’ लेखक सोचता है कि यह तरीका अच्छा है। झटपट किताब छप जायेगी और पुरस्कार मिलने से कुछ ख्याति तो मिलेगी ही, किताब छपवाने में लगी लागत भी निकल आयेगी। सो वह प्रकाशक को पैसा देकर अपनी किताब छपवा लेता है और उससे मिली सौ या पचास प्रतियाँ लेकर समीक्षकों और संपादकों को पटाने निकल पड़ता है कि उसकी किताब की कुछ चर्चा हो जाये, तो उस पर कोई पुरस्कार उसे मिल जाये। अगर बीस हजार देकर छपवायी गयी किताब पर दस हजार का पुरस्कार भी मिल गया, तो गनीमत है। गाँठ से गयी आधी रकम वापस मिल गयी और आधी से जो नाम कमाया, वह एक तरह का सांस्कृतिक पूँजी निवेश हुआ, जो आगे चलकर कोई बड़ा पुरस्कार दिलवायेगा!

और सरकार तथा बाजार की कृपा से लेखकों को दिये जाने वाले पुरस्कारों की बाढ़-सी आ गयी है। विभिन्न प्रकार की छोटी और बड़ी, सरकारी और अर्धसरकारी, गैर-सरकारी और निजी, देशी और विदेशी संस्थाएँ भारतीय लेखकों को विभिन्न प्रकार के छोटे-बड़े पुरस्कार बाँटने लगी हैं। इनमें हजारों रुपयों से लेकर लाखों रुपयों तक के पुरस्कार शामिल हैं। इस प्रकार के कुल पुरस्कार कितने हैं और कुल मिलाकर कितनी धनराशि के हैं, इसके आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन मोटे अनुमान के तौर पर इनकी संख्या हजारों की और इनके जरिये लेखकों को दी जाने वाली धनराशि करोड़ों रुपयों की मानी जा सकती है। इन पुरस्कारों को प्रदान करने के लिए आयोजित कार्यक्रमों पर पुरस्कारों में दी जाने वाली राशि से कई गुना ज्यादा खर्च आता है। एक अनुमान के अनुसार पुरस्कार की राशि और पुरस्कार समारोह पर होने वाले खर्च का अनुपात 1 : 5 का होता है। अर्थात् बीस हजार रुपये का पुरस्कार देने के लिए आयोजित समारोह पर एक लाख रुपये खर्च होते हैं।

इस प्रकार यदि प्रति वर्ष दिये जाने वाले साहित्यिक पुरस्कारों और उनको देने पर हुए कुल खर्चों को जोड़ें, तो मोटे तौर पर भी अनुमानित आँकड़े अंग्रेजी मुहावरे में ‘माइंड बौगलिंग’ होंगे और हिंदी मुहावरे में लगेगा कि भारतीय साहित्य और साहित्यकारों के लिए यह ‘स्वर्णयुग’ है; भारतीय साहित्य खूब फल-फूल रहा है।

लेकिन वास्तविकता यह है कि पुरस्कारों की इस बाढ़ ने साहित्यकारों को समृद्ध नहीं, विपन्न और बेचारा बना दिया है। इस बाढ़ में बहता हुआ लेखक समझ ही नहीं पाता कि उसे जाना कहाँ था और वह जा कहाँ रहा है। उसे प्रकाशक के माध्यम से अपने पाठक तक पहुँचना था। इसके लिए उसे मालिक-मजदूर वाला ही सही, एक ठोस संबंध प्रकाशक के साथ बनाना था, जिसकी शर्त यह होती कि प्रकाशक चाहे अपने मुनाफे के लिए उसका शोषण कर ले, पर उसे उसके पाठक तक पहुँचा दे। फिर पाठक उसे अपनाये या दुतकारे, पुरस्कृत करे या प्रताड़ित करे, लेखक जाने और उसका काम जाने। मगर किताबों की थोक सरकारी खरीद के जरिये भ्रष्ट और बेईमान बना दिया गया प्रकाशक उसे पाठक तक पहुँचाने का झाँसा देकर अपनी नाव में बिठाता है और मँझधार में पहुँचाकर उस नदी में फेंक देता है, जिसमें पुरस्कारों की बाढ़ आयी हुई है। लेखक से मानो वह कहता है--‘‘पाठक को भूल जाओ। लेखन के पारिश्रमिक को भूल जाओ। तुमने किताब लिखने और छपवाने में जो मेहनत और लागत लगायी है, उसके बदले में जो वसूल कर सकते हो, पुरस्कार देने वालों से वसूल करो। मैं चला, अब मेरा-तुम्हारा कोई रिश्ता नहीं।’’ और पुरस्कारों की बाढ़ में बहता लेखक पाता है कि वह इस नदी से निकल भी नहीं पा रहा है, क्योंकि उसे एक ऐसे मायाजाल में बाँधकर यहाँ फेंका गया है, जिसमें बँधा वह छटपटा तो सकता है, पर निकल नहीं सकता।

साहित्यिक पुरस्कारों पर जितना धन लुटाया जाता है, उतने से ऐसी व्यवस्था मजे में की जा सकती है कि साहित्य सस्ता और सुलभ हो जाये, उसके पाठकों की संख्या बढ़े, अन्य भाषाओं में उसके अनुवाद और अन्य माध्यमों के लिए उसके रूपांतरण की व्यवस्थाएँ बनें और साहित्य जनता से जुड़कर जीवित और जीवंत बना रहे। लेकिन हर साल करोड़ों किताबों की सरकारी खरीद के बावजूद, और इतने अधिक बड़े-बड़े पुरस्कारों के बावजूद, साहित्यकार अपने साहित्य के बल पर जीवित नहीं रह सकता। वह अपनी आजीविका के लिए कोई साहित्येतर काम करने पर मजबूर होता है। वह समाज में साहित्यकार के रूप में नहीं, बल्कि उसी काम को करने वाले बाबू, अफसर, अध्यापक आदि के रूप में जाना जाता है। उसकी हालत इतनी खराब है कि वह या तो पुरस्कारों का ‘दान’ पाने के लिए ‘दाताओं’ के सामने याचक की तरह खड़ा होता है या तरह-तरह की तिकड़में करके उनसे पुरस्कार ‘झटक लेने’ की अपसंस्कृति का शिकार होने को मजबूर होता है।

प्रश्न यह है कि साहित्य और साहित्यकार इस मायाजाल से कैसे निकलें? इसका उत्तर साहित्य और संस्कृति से संबंधित संस्थाओं की आलोचना करते रहने से नहीं मिलेगा। सरकार और बाजार इस समस्या को हल कर  देंगे, यह सोचना तो और भी आत्मघाती होगा, क्योंकि यह समस्या तो उन्हीं की पैदा की हुई है। उनकी रुचि इसे हल करने में नहीं, बढ़ाने में ही हो सकती है। अतः इस समस्या का हल स्वयं साहित्यकारों को ही करना होगा। और इसके लिए सबसे पहला काम होगा पुरस्कारों को ‘न’ कहना और स्वयं को तथा अपने साहित्य को पाठकों तक ले जाना। इसके तरीके क्या-क्या हो सकते हैं, यह साहित्यकारों को मिल-जुलकर सोचना होगा।

--रमेश उपाध्याय