Sunday, April 7, 2019

काठ में कोंपल

6 अप्रैल, 2019 को दिल्ली के गाँधी शांति प्रतिष्ठान में 'कथा-कहानी' के आयोजन में मैंने अपनी कहानी 'काठ में कोंपल' का पाठ किया. यहाँ आप सभी मित्रों के लिए यह कहानी प्रस्तुत है.


काठ में कोंपल 
रमेश उपाध्याय 


समीरा: बीते कल का इतिहास

मेरे पति प्रणव कुमार मेरे शिक्षक थे और उम्र में मुझसे आठ साल बड़े थे। लेकिन वे मुझे हमेशा हमउम्र ही लगते थे। वे प्रोफेसर कम लगते थे, सहपाठी मित्र अधिक। दूसरे प्रोफेसरों की तरह वे लेक्चर नहीं देते थे, बातचीत करते थे। बीच-बीच में हल्के-फुल्के हास्य-व्यंग्य से पूरी कक्षा को हँसाते रहते, लेकिन गंभीर प्रश्न उठाकर कोई न कोई बहस भी छेड़ते रहते। किसी और प्रोफेसर की क्लास में हम खुलकर हँस तो क्या, बोल भी नहीं सकते थे, जबकि उनसे हम बाकायदा बहस करते थे। क्लास में ही नहीं, क्लास के बाहर भी हम उनसे मिल सकते थे। उनसे कुछ भी पूछ सकते थे। उन्हें घेरकर कैंटीन में ले जा सकते थे और उनके साथ चाय पीते हुए हँसी-ठट्ठा भी कर सकते थे। 

उन दिनों लोग रिटायर होने के करीब पहुँचने पर प्रोफेसर बना करते थे। बहुत-से तो बन ही नहीं पाते थे। बेचारे लेक्चरर नियुक्त होते थे और अधिक से अधिक रीडर बनकर रिटायर हो जाते थे। इसलिए लोग आश्चर्य करते थे कि प्रणव कुमार तीस की उम्र में ही प्रोफेसर कैसे बन गये। लेकिन इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं थी। अट्ठाईस साल की उम्र में उन्होंने पीएच.डी. कर ली थी। सो भी ऐसे कठिन और अनोखे विषय पर कि उसके लिए उन्हें गाइड मिलना मुश्किल हो गया था। अव्वल तो उनके शोध का विषय ही बड़ी मुश्किल से स्वीकृत हुआ था, क्योंकि विषय स्वीकृत करने वाली समिति का कहना था--यह तो इतिहास का नहीं, राजनीतिशास्त्र का विषय है। जो विषय प्रणव कुमार ने चुना था, वह था शीतयुद्ध का इतिहास। सोचिए जरा, यह तब की बात है, जब सोवियत संघ मौजूद था और शीतयुद्ध जारी था। इतिहास विभाग के सब लोगों ने, विभागाध्यक्ष तक ने, उनसे कहा कि मूर्खता मत करो, कोई और विषय ले लो। जो चीज अभी इतिहास बनी ही नहीं, उसका इतिहास तुम कैसे लिखोगे? उसके लिए सामग्री कहाँ से जुटाओगे? कौन तुम्हें गाइड करेगा? कौन तुम्हारी परीक्षा लेगा? मगर प्रणव कुमार नहीं माने, अपनी जिद पर अड़े रहे। 

खैर, जैसे-तैसे विषय स्वीकृत हुआ और विषय को देखते हुए उनके दो गाइड बनाये गये। एक इतिहास विभाग के प्रोफेसर, दूसरे राजनीतिशास्त्र विभाग के प्रोफेसर। वे दोनों अपने शोध छात्र को गाइड कम करते थे, आपस में लड़ते ज्यादा थे। प्रणव कुमार ने अपनी ही सूझ-बूझ और मेहनत से अपना काम पूरा किया और पीएच.डी. हो गये। उस काम से बनी उनकी पुस्तक भी जल्दी ही प्रकाशित हो गयी। 

अब, एक तो विषय एकदम नया और चुनौती भरा, दूसरे, पुस्तक बहुत अच्छे ढंग से लिखी गयी थी। इसलिए प्रकाशित होते ही उसकी धूम मच गयी। हालाँकि उसकी आलोचना भी हुई, उस पर विवाद भी छिड़ा, खास तौर से इस बात को लेकर कि उसमें पूँजीवाद और समाजवाद में से, या अमरीका और रूस में से, किसी एक का पक्ष लेने के बजाय दोनों की, और दोनों के बीच जारी शीतयुद्ध की, आलोचना की गयी थी। आलोचना और विवाद का मुद्दा यह था कि प्रणव कुमार ने रूसी या अमरीकी दृष्टिकोण अपनाने के बजाय तीसरी दुनिया वाला, बल्कि उसमें भी भारत और दूसरे गुटनिरपेक्ष देशों वाला दृष्टिकोण अपनाया था, जो न रूस के समर्थकों को पसंद था, न अमरीका के समर्थकों को। दोनों ने अपने-अपने पक्ष से पुस्तक की आलोचना की। मगर लेखक को इससे लाभ ही हुआ। प्रणव कुमार अपनी पहली ही पुस्तक से चर्चित हो गये। इतिहास पढ़ने-पढ़ाने वालों के बीच ही नहीं, लेखकों, पत्रकारों, राजनीतिक नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच भी उनकी पुस्तक लोकप्रिय हुई। 

लेकिन पुस्तक के पहले संस्करण में उन्होंने जो लिखा था, दूसरे संस्करण में बदल दिया। यदि आप पुस्तक के पहले संस्करण का मिलान पाँच साल बाद छपे उसके दूसरे संस्करण से करें, तो पायेंगे कि वह एक प्रकार का संशोधित, परिवर्तित, परिवर्द्धित या कहें कि पुनर्लिखित इतिहास है। उसमें नये तथ्य हैं, उनके नये विश्लेषण हैं और साथ-साथ एक नयी दृष्टि भी है। पहले संस्करण में उस इतिहास का लेखक शीतयुद्ध में शामिल दोनों पक्षों के दृष्टिकोण से लगभग समान दूरी बनाये रखते हुए अपने एक तीसरे ही दृष्टिकोण से शीतयुद्ध को देखता है और भारतीय संदर्भ में उससे निकलने वाले निष्कर्षों की रोशनी में दुनिया के संभावित भविष्य की परिकल्पना करता है। लेकिन दूसरे संस्करण में वह पूँजीवाद और समाजवाद में से समाजवाद की तरफ झुका हुआ दिखायी देता है। अमरीका और रूस में से रूस की तरफ झुका हुआ दिखायी देता है और अपने भारतीय दृष्टिकोण को एक प्रकार के वैश्विक दृष्टिकोण में बदलता या विकसित करता दिखायी देता है। 

इस बदलाव से यह निष्कर्ष बड़ी आसानी से निकाला जा सकता है कि लेखक के विचार बदल गये हैं। लेकिन यह बदलाव क्यों आया, और क्यों आना जरूरी था, इसका उत्तर देश और दुनिया में आये बदलावों के साथ-साथ लेखक के निजी जीवन में आये बदलावों को भी देखने पर मिलेगा। 

मैंने उस बदलाव को अपनी आँखों से देखा था। बल्कि यों कहें कि उसमें मेरी भी भागीदारी थी। मैं जब एम.ए. में पढ़ रही थी, तभी से अपने प्रोफेसर प्रणव कुमार पर मुग्ध थी। मुझे लगता था कि वे भी मुझे पसंद करते हैं। कारण यह था कि उनके सब छात्रों में अकेली मैं ही थी, जिसने उनकी शीतयुद्ध वाली पुस्तक पढ़ी थी और उस पर उनसे बात की थी। उन्हें यह सुनकर विश्वास नहीं हुआ था कि मैंने उनकी पुस्तक पढ़ी है। बोले, ‘‘तुम ऐसी किताबें पढ़ती हो?’’ मैंने उन्हें बताया कि मेरे पिता कम्युनिस्ट हैं, एक कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता हैं और उस पार्टी के साप्ताहिक अखबार में काम करने वाले पत्रकार हैं। मैंने उन्हें यह भी बताया कि मेरे पिता नयी से नयी किताबें पढ़ते हैं और घर आते रहने वाले अपने मित्रों और साथियों से उन पर खूब बात-बहस करते हैं। उन लोगों की बातें-बहसें सुन-सुनकर मैं भी राजनीति को कुछ-कुछ समझने लगी हूँ। जो बातें मेरी समझ में नहीं आतीं, मैं अपने पिता से पूछ लेती हूँ। मेरे पिता मेरे सवालों के जवाब खुद तो देते ही हैं, मुझे कुछ किताबें भी बता देते हैं, या अपनी किताबों में से खुद ही निकालकर दे देते हैं। मैंने बड़े गर्व के साथ कहा था, ‘‘सर, हमारे घर में बहुत किताबें हैं। समझिए कि एक पूरी लाइब्रेरी है।’’ 

‘‘तब तो किसी दिन तुम्हारे घर आना पड़ेगा।’’ प्रोफेसर प्रणव कुमार ने मुझसे कहा था। 

उस दिन के बाद जब भी मिलते और मैं नमस्ते करती, तो वे ‘‘हैलो, काॅमरेड!’’ कहकर मुस्कराते। पता नहीं उस मुस्कान में मजाक उड़ाने वाला भाव होता था या मेरी सराहना का, लेकिन जो भी हो, मुझे वह मुस्कान बहुत अच्छी लगती थी। कहूँ कि उनके मुँह से ‘‘हैलो, काॅमरेड!’’ सुनकर मैं धन्य हो जाती थी। मगर मैं मन ही मन उनसे प्रेम करते हुए भी सोचती थी कि मेरा प्रेम एकतरफा है और अव्यक्त ही रहेगा। कहाँ तीस-इकत्तीस साल का एक प्रोफेसर और कहाँ बाईस-तेईस साल की उसकी एक छात्रा! कहाँ एक सुंदर और शानदार व्यक्तित्व, कहाँ साधारण रूप-रंग वाली एक दुबली-पतली मध्यवर्गीय लड़की! हालाँकि वे युवा प्रोफेसर कहलाते हैं, लेकिन हैं तो उम्र में मुझसे आठ साल बड़े। और फिर सबसे बड़ी बाधा तो यह कि वे हिंदू हैं और मैं मुसलमान! 

यही सब सोचकर मैं अपने एकतरफा प्रेम को मन में कसकर बंद किये रहती थी। सचेत रहती थी कि वह कहीं खुलकर व्यक्त न हो जाये। मगर मन मानता नहीं था। नतीजा यह हुआ कि एम.ए. करने के बाद मैंने पीएच.डी. करने की ठानी और शोध के लिए ऐसा विषय लेने की सोची कि गाइड के रूप में मुझे प्रोफेसर प्रणव कुमार ही मिलें। विषय सोचकर मैं उनके पास गयी कि सिनाॅप्सिस बनाने में वे मेरी मदद कर दें। उन्होंने अपने चिर-परिचित अंदाज में मुस्कराते हुए ‘‘हैलो, काॅमरेड!’’ कहकर मेरा स्वागत किया और विषय पूछा। मैंने बताया, ‘‘भारतीय वामपंथ का उदय और विकास।’’ सुनकर हँसे और बोले, ‘‘तुम्हारे पापा ने सुझाया है?’’ मैंने कहा, ‘‘नहीं। मुझे खुद सूझा है।’’ फिर कुछ सोचकर बोले, ‘‘सोच लो, ऐसे विषय पर पीएच.डी. करोगी, तो नौकरी मिलना मुश्किल होगा।’’ मैंने कहा, ‘‘देखा जायेगा, सर, अभी तो आप मेरी सिनाॅप्सिस बनवा दीजिए और हो सके, तो मेरे गाइड भी आप ही रहिएगा।’’ 

विषय स्वीकृत हो गया था और गाइड भी मुझे वे ही मिले थे। मैंने सुन रखा था कि शोध छात्राओं को अपने गाइडों से अक्सर मिलना पड़ता है और उनमें से कुछ बदमाश प्रोफेसर उन्हें अपने घर पर या अन्यत्र कहीं एकांत में बुलाकर उनका यौन शोषण करते हैं। मैंने सोच लिया था कि प्रणव कुमार की ओर से ऐसा कोई संकेत भी मिला, तो मैं उन्हें खरी-खरी सुना दूँगी और शोध करने का विचार ही त्याग दूँगी। मगर उन्होंने मुझे अपने घर या अन्यत्र कहीं नहीं बुलाया। वे मुझे हमेशा इतिहास विभाग में ही मिलने के लिए बुलाते थे और वहाँ दूसरे प्रोफेसरों के सामने ही मुझसे बात करते थे। हम एक कोने में बैठ जाते और शोध के विषय पर बातें करते रहते। अक्सर वे ही बोलते रहते और मैं नोट्स लेती रहती। 

लेकिन इतिहास विभाग के दूसरे लोगों को ज्यों ही पता चला कि मैं मुसलमान ही नहीं, एक कम्युनिस्ट पिता की बेटी भी हूँ, उनमें से कई लोग मेरे वहाँ आकर बैठने पर आपत्ति करने लगे। उनमें एक तरफ वे पुरुष थे, जिन्हें प्रणव कुमार के तीस साल की उम्र में ही प्रोफेसर बन जाने से तकलीफ हुई थी और दूसरी तरफ वे महिलाएँ थीं, जो अविवाहित थीं और प्रणव कुमार से शादी करना चाहती थीं। इन दोनों तरह के लोगों में कुछ ऐसे भी थे, जो मुसलमानों के प्रति घृणा और कम्युनिस्टों के प्रति शत्रुता का भाव रखते थे। वे सब मेरे और प्रणव कुमार के बारे में तरह-तरह के दुष्प्रचार करने लगे। 

मैं तो परेशान हो गयी, लेकिन प्रणव कुमार ने हिम्मत दिखायी। एक दिन जब मैं विभाग में उनसे मिलने के बाद अपने घर जाने के लिए बस स्टैंड की तरफ जा रही थी, वे पीछे से अपनी मोटरसाइकिल पर आये और मेरे पास रुककर बोले, ‘‘तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ दूँ?’’ मैं रोमांचित हो उठी। शुक्रिया कहकर उनके पीछे बैठ गयी। रास्ते में एक रेस्तराँ के सामने रुककर उन्होंने पूछा, ‘‘चाय पियोगी? तुम से मुझे कुछ बात भी करनी है।’’ चाय पीते समय उन्होंने कोई भूमिका बाँधे बिना सीधे ही पूछ लिया, ‘‘मुझसे शादी करोगी?’’ मैं तो खुशी से पागल-सी हो जाने को हुई, मगर मैंने संयम बरतते हुए कहा, ‘‘मुझे अपने अब्बू-अम्मी से पूछना पड़ेगा।’’ यह सुनकर वे बोले, ‘‘चलो, अभी चलकर पूछ लेते हैं।’’ 

मैंने पूछा, ‘‘लेकिन, सर, यह अचानक इतना बड़ा फैसला? बात क्या है?’’ उन्होंने अपने सहकर्मियों द्वारा फैलायी जा रही अफवाहों के बारे में बताकर कहा, ‘‘तुम ने ‘करेला और नीम चढ़ा’ वाली कहावत सुनी है? विभाग में कुछ लोग मुझे देखते ही एक फब्ती कसते हैं--करेली और नीम चढ़ी! यानी तुम! इस तरह वे तुम पर और तुम्हारे पिता पर ही नहीं, मुझ पर भी हँसते हैं। ऐसी हँसी, जिसमें जहर भरा होता है। यह मुझसे बर्दाश्त नहीं होता। अपनी बदनामी तो मैं शायद बर्दाश्त कर भी लूँ, तुम्हारी बदनामी हरगिज बर्दाश्त नहीं कर सकता।’’ 

‘‘मैं भी यह बर्दाश्त नहीं कर सकती कि मेरे कारण आपको परेशानी हो। मैं विभाग में आकर आपसे मिलना बंद कर दूँगी। या शोध करने का विचार ही छोड़ दूँगी।’’ मैंने कहा और साथ ही यह भी जोड़ दिया कि ‘‘आप मुझे बदनामी से बचाने के लिए मुझसे शादी कर लें, यह तो मुझ पर एहसान करने या मेरे लिए शहीद हो जाने जैसा होगा। यह मैं कभी नहीं चाहूँगी।’’ यह सुनकर उन्होंने कहा, ‘‘इसमें एहसान या शहादत की क्या बात है?’’ तो मैंने कहा, ‘‘मैं आपके सामने क्या हूँ? ऐसी लड़की से शादी करना, जो आपके लायक नहीं है, उस पर एहसान करना ही हुआ!’’ तब उन्होंने पहली बार बताया कि वे मुझे चाहते हैं और मुझसे शादी करके मुझ पर कोई एहसान नहीं करेंगे, क्योंकि मुझ में उन्हें वह लड़की मिल गयी है, जिसे वे अपना जीवन-साथी बनाने के लिए खोज रहे थे। 

उन्होंने मानो अपने शब्दों की सच्चाई का विश्वास दिलाने के लिए मेरे दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर हौले से दबाते हुए कहा, ‘‘मैं पत्नी के रूप में कोई घरेलू औरत या बाहर उड़ती फिरती रहने वाली फैशनेबल तितली नहीं चाहता। मैं ऐसी जीवन-साथी चाहता हूँ, जो मुझे और मेरे काम को समझ सके। उसमें मेरा सहयोग कर सके। और वह तुम ही हो सकती हो, यह मैं तभी से जानता हूँ, जब तुमने मेरी किताब पढ़कर मुझसे बात की थी। तुम जैसी बौद्धिक लड़की मुझे न तो अपने साथ पढ़ने वाली लड़कियों में मिली, न साथ पढ़ाने वाली लड़कियों में।’’ 

‘‘लेकिन मजहब...? उसका क्या?’’ मैंने पूछा, तो वे हँसकर बोले, ‘‘तुम ही सारी बातें तय कर लोगी या अपने अब्बू-अम्मी के लिए भी कुछ छोड़ोगी? चलो, मुझे अपने घर ले चलो। मैं आज उनसे मिलकर बात करने के पक्के इरादे के साथ निकला हूँ।’’ 

मैंने भी हँसकर कहा, ‘‘बात करने के पक्के इरादे से या बात पक्की करने के इरादे से?’’ 

खैर, बात पक्की हो गयी और हमारी शादी हो गयी। मेरी माँ को कुछ आपत्ति थी, लेकिन मेरे पिता ने उन्हें समझा-बुझाकर मना लिया। 

शादी कोर्ट में हुई थी। मेरी तरफ से गवाह बने अब्बू की पार्टी के कुछ काॅमरेड और प्रणव की तरफ से विश्वविद्यालय के कुछ वामपंथी शिक्षक। प्रणव ने अपने माता-पिता की संभावित आपत्ति को ध्यान में रखते हुए उन्हें सूचना नहीं दी। उनकी तरफ से उनकी एक बुआ आयीं, जो विधवा थीं, ससुराल से निकाल दी गयी थीं और प्रणव के पास आकर रहने लगी थीं। सामान्य परिस्थिति में शायद वे भी हिंदू-मुसलमान का सवाल उठाकर हमारी शादी का विरोध करतीं, लेकिन वे प्रणव की आश्रित थीं, इसलिए--और इसलिए भी कि वे बहुत ही भली महिला थीं--उन्होंने मुझे प्यार से अपना लिया। 

इसी तरह मेरे माता-पिता भी प्रणव को प्यार से अपना लेना चाहते थे, लेकिन पुरानी दिल्ली में, जहाँ हम लोग रहते थे, हमारे मुहल्ले-पड़ोस के मुसलमानों को यह अच्छा नहीं लगा कि उन्होंने अपनी बेटी की शादी एक हिंदू से कर दी। प्रणव ने अब्बू से पहली मुलाकात में ही कह दिया था कि वे अब्बू के निजी पुस्तकालय का लाभ लेने के लिए आया करेंगे, लेकिन शादी के बाद सांप्रदायिक मिजाज वाले कुछ पड़ोसी लड़कों ने ऐसी धमकियाँ दीं कि अब्बू ने प्रणव से कह दिया, ‘‘बेटा, तुम यहाँ नहीं, पार्टी के ऑफिस में आ जाया करो। वहाँ भी बहुत किताबें हैं और वहाँ मेरे अलावा दूसरे कई लोगों से भी तुम मिल सकोगे।’’ 

प्रणव वहाँ जाने लगे। वहाँ से लेकर किताबें पढ़ने लगे। पार्टी के लोगों से मिलने लगे। पार्टी की विचारधारा और राजनीति से प्रभावित होकर एक नयी दृष्टि से दुनिया को देखने लगे। 

अब आप समझ सकते हैं कि हमारी शादी के बाद प्रणव की शीतयुद्ध वाली पुस्तक का जो दूसरा संस्करण निकला, वह एक प्रकार का पुनर्लिखित इतिहास क्यों था। वह सही था या गलत, यह सवाल मैं नहीं उठा रही हूँ, क्योंकि जहाँ एक तरफ उसे सही मानने वालों ने प्रणव की दृष्टि और विचारधारा में आये बदलाव की प्रशंसा की, वहीं दूसरी तरफ उसे गलत मानने वालों ने उस बदलाव की निंदा की। वह भारतीय प्रकाशक भी, जिसने प्रणव की पुस्तक का पहला संस्करण छापा था, निंदा से प्रभावित हुआ और उसने दूसरा संस्करण छापने से इनकार कर दिया। मगर लंदन के एक प्रकाशक ने दूसरा संस्करण खुश होकर प्रकाशित किया। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पुस्तक के दूसरे संस्करण को पहले से बहुत बेहतर माना गया। वह पुस्तक खूब बिकी। कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में लगी। दुनिया की कई भाषाओं में उसके अनुवाद हुए। प्रणव को उससे इतिहासकार के रूप में अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली। 

लेकिन अपने देश और अपने विश्वविद्यालय में प्रणव का विरोध हुआ। कारण यह था कि दूसरे संस्करण में प्रणव ने राष्ट्र और राष्ट्रवाद की आलोचना की थी। उनका कहना था कि राष्ट्र एक कल्पना है, जो यथार्थ मान ली गयी है और उस पर आधारित राष्ट्रवाद संपूर्ण मानवता को एक अखंड इकाई न मानकर अलग-अलग टुकड़ों में बाँटता है और उन्हें आपस में लड़ाता है। इससे अकादमिक जगत के लोग ही नहीं, कई लेखक और पत्रकार भी, राजनीतिक नेता और कार्यकर्ता भी प्रणव के विरोधी हो गये। और जब कुछ वामपंथी इतिहासकार, लेखक, पत्रकार आदि प्रणव के समर्थन में आ खड़े हुए, तो प्रणव के विरोधी प्रणव को कम्युनिस्ट और राष्ट्रद्रोही आदि कहने लगे, जबकि वास्तव में प्रणव पार्टी पाॅलिटिक्स से दूर रहने वाले एक देशभक्त किस्म के आदमी थे। वे माक्र्स-एंगेल्स के विचारों से प्रभावित थे, लेकिन बुद्ध और गांधी के विचारों से भी कम प्रभावित नहीं थे। मेरे अब्बू और उनके कई काॅमरेड चाहते थे कि प्रणव उनकी पार्टी में आ जायें, लेकिन प्रणव का एक ही जवाब होता था, ‘‘राजनीति मेरा क्षेत्र नहीं है। मेरा क्षेत्र इतिहास है और मैं उसी में रहकर काम करना चाहता हूँ।’’ 

उन दिनों या तो देश में मुसलमानों के खिलाफ वैसी भावनाएँ नहीं भड़की थीं, जैसी आज हैं, या जाति और धर्म के बंधन तोड़कर प्रेम-विवाह करना ज्यादा बुरा नहीं माना जाता था। हमारी शादी हुए तकरीबन दस साल हो चुके थे। मैं एक बेटी की माँ बन चुकी थी, पीएच.डी. कर चुकी थी और एक काॅलेज में पढ़ाने लगी थी। मैं और प्रणव अपनी-अपनी नौकरी करने जाते। प्रणव की बुआ घर का काम सँभालतीं और हमारी बेटी दीक्षा को प्यार से पालतीं। घर की ओर से नि¯श्चत होने के कारण प्रणव बाहर के झगड़े-झंझट झेल लेते थे। हालाँकि मुसलमान होने के कारण काॅलेज में कुछ लोग मुझे नीची नजर से देखते थे, लेकिन मैं अपने काम से काम रखती थी। काॅलेज में पढ़ाने के बाद सीधी घर लौटती थी और घर-परिवार के कामों से निपटने के बाद अपने पढ़ने-लिखने में व्यस्त हो जाती थी। 

दिन ठीक-ठाक कट रहे थे कि एक दिन अचानक बुआ को दिल का दौरा पड़ा और वे चल बसीं। बुआ का हम लोगों को बड़ा सहारा था। उनके मरने के बाद हमारे सामने समस्या खड़ी हो गयी कि जब मैं और प्रणव अपनी-अपनी नौकरी करने या कहीं और जायें, तो घर और दीक्षा को कौन सँभाले। प्रणव के माता-पिता, भाई-बहन और नाते-रिश्ते के तमाम लोग मुझसे शादी कर लेने के कारण प्रणव से अपने नाते तोड़ चुके थे और मेरी तरफ से भी मेरे माता-पिता के सिवा हमारा साथ देने वाला कोई नहीं था। समझ में नहीं आ रहा था कि हम क्या करें। 

प्रणव ने इस समस्या का समाधान यह निकाला कि एक दिन वे मेरे माता-पिता को समझा-बुझाकर हमारे साथ रहने के लिए ले आये और बुआ वाले कमरे में उनके रहने की व्यवस्था कर दी। लेकिन इस समाधान से एक और समस्या, बड़ी विकट समस्या, खड़ी हो गयी। 

अभी तक हमारे पड़ोसी अपनी उदारता, सहिष्णुता और प्रगतिशीलता का परिचय देते हुए हम लोगों को बर्दाश्त करते आ रहे थे। हमारा मकान मालिक तो, जो हिंदू लड़कियों के मुसलमान लड़कों से शादी करने को बहुत बुरा मानता था, यह जानकर खुश भी था कि एक हिंदू लड़का मुसलमान लड़की को ले आया। लेकिन मेरे अब्बू और अम्मी को हमारे घर में रहते देख पड़ोसियों को ऐसा लगा, मानो पाकिस्तान उनके पड़ोस में आ बसा हो। उनमें से किसी ने हमारे मकान मालिक को जा भड़काया और वह मकान खाली कराने आ गया। हमने वजह पूछी, तो बोला, ‘‘तुम्हारा ग्यारह महीने का एग्रीमेंट खत्म हो चुका।’’ प्रणव ने हँसकर कहा, ‘‘किराया बढ़ाना है न? बढ़ा दीजिए और नया एग्रीमेंट कर लीजिए।’’ सालों-साल से यही चला आ रहा था, लेकिन इस बार मकान मालिक ने मुँह टेढ़ा करके कहा, ‘‘अब मुझे मकान किराये पर देना ही नहीं। मुझे अपना मकान अपने लिए चाहिए। खाली करना पड़ेगा।’’ 

बड़ी मुश्किल से उसने हमें एक महीने का वक्त दिया। मेरे माता-पिता समझ गये कि यह परेशानी उनके आने की वजह से पैदा हुई है, इसलिए वे वापस अपने घर में रहने चले गये। हमने एक कामवाली रख ली और दूसरा मकान तलाशने में जुट गये। 

कामवाली का नाम श्यामा था। वह साँवले रंग की एक दुबली-पतली सुंदर लड़की थी, जिसकी नयी-नयी शादी हुई थी। उसका पति बढ़ई था। वे दोनों बिहार के थे और हमारे घर से कुछ ही दूरी पर बसी एक झुग्गी बस्ती में रहते थे। पति जहाँ-तहाँ बढ़ई का काम करता और श्यामा हमारी काॅलोनी के तीन-चार घरों में बर्तन माँजने और सफाई का काम करती थी। वह भरोसेमंद थी, इसलिए मैंने अपनी अनुपस्थिति में उसे घर सँभालने और दीक्षा की देखभाल करने की जिम्मेदारी सौंप दी। 

मकान खोजने कभी मैं और प्रणव ही जाते, तो कभी अपने मित्रों के साथ, जिनमें से ज्यादातर हमारे तीन शिक्षक साथी होते थे। वे तीन अलग-अलग कम्युनिस्ट पार्टियों से जुड़े हुए थे, लेकिन हमारे साझे मित्र थे। हम किसी पार्टी से जुड़े नहीं थे और वे हमें अपनी-अपनी पार्टी से जोड़ना चाहते थे।

लेकिन इधर समाज को न जाने क्या हो गया था कि हम चाहे प्राॅपर्टी डीलर के पास जायें, या सीधे मकान मालिक से जाकर मिलें, सबसे पहले यह पूछा जाता कि हम कौन हैं। हमने तय कर रखा था कि झूठ नहीं बोलेंगे, सच-सच बता देंगे कि प्रोफेसर प्रणव कुमार हिंदू हैं, प्रोफेसर समीरा खान मुसलमान और दोनों ने प्रेम-विवाह किया है। हमारे मित्रों का भी यही कहना था, ‘‘पहले से बता देना ठीक है, ताकि बाद में पता चलने पर अचानक मकान खाली न करना पड़े।’’ 

उन दिनों प्रणव अपनी पुस्तक ‘राष्ट्र और राष्ट्रवाद’ लिख रहे थे। उनके दिमाग में मकान खोजते समय भी इतिहास की खोजबीन चलती रहती थी। मुझसे और मित्रों से भी इसी पर चर्चा करते रहते थे। 

एक दिन जब हम एक मकान मालिक से मुसलमानों के लिए दी गयी गालियाँ सुनने के बाद लौट रहे थे, संयोग से तीनों काॅमरेड हमारे साथ थे। तीनों उस बदतमीज मकान मालिक को अच्छी तमीज सिखाकर आ रहे थे, लेकिन अब भी गुस्से में थे। उनका ध्यान बँटाने के लिए प्रणव ने बात इतिहास और राजनीति की ओर मोड़ दी। बातें चलीं, तो धर्म, जाति, रंग, नस्ल, भाषा आदि से चलकर यहाँ तक आ पहुँचीं कि समाज में बढ़ती सांप्रदायिकता से निपटना आज का सबसे बड़ा सवाल है। 

कुछ समय पहले हमने नयी कार खरीदी थी। प्रणव कार चला रहे थे। मैं उनके साथ वाली अगली सीट पर बैठी पीछे बैठे तीनों मित्रों से होती उनकी बातचीत चुपचाप सुन रही थी और ऊब रही थी, इसलिए मैंने तुकबंदी-सी करते हुए कहा, ‘‘थकान के मारे अपना बुरा हाल है। फिलहाल एक कप चाय का सवाल है।’’ 

इस पर चारों मित्र ठहाका लगाकर हँसे और प्रणव ने ज्यों ही चाय की दुकान देखी, गाड़ी रोक दी। चाय पीते समय एक काॅमरेड ने कहा कि किराये पर लेने के बजाय कहीं एक मकान किस्तों पर खरीद लेना बेहतर होगा। दूसरे काॅमरेड ने सुझाव दिया कि मकान किसी ऐसी नयी काॅलोनी में लिया जाये, जहाँ रहने वाले लोग पड़ोसियों की निजी जिंदगी में ज्यादा दिलचस्पी न रखते हों। तीसरे काॅमरेड ने आश्वासन दिया कि वे कोई न कोई जुगाड़ लगाकर हमें ऐसा मकान किस्तों पर दिला देंगे। 

कुछ दिन बाद हमें एक अच्छा-सा मकान किस्तों पर मिल गया। मकान नयी-नयी बसी एक अच्छी काॅलोनी में था और काफी बड़ा था। इकमंजिला, जिसके सामने लाॅन और फूलों की क्यारियाँ थीं और पिछवाड़े की तरफ एक सर्वेंट क्वार्टर। सामने की चारदीवारी के पास जामुन का पेड़ था, जो बरसात के मौसम में खूब फलता था। दीक्षा को जामुन बहुत पसंद थे। अपने घर में ही जामुन का पेड़ पाकर वह बेहद खुश हुई। 

हम अपने मकान में रहने गये, तो हमने अपनी कामवाली श्यामा से कहा कि वह और उसका पति भी हमारे साथ चलें और सर्वेंट क्वार्टर में रहें। श्यामा खुशी-खुशी राजी हो गयी और अपने पति रामकुमार के साथ सर्वेंट क्वार्टर में रहने लगी। दीक्षा को हमने घर के पास ही एक अच्छे स्कूल में दाखिल करा दिया। मैं और प्रणव पहले की तरह अपने पठन-पाठन और लेखन में व्यस्त हो गये। 

कुछ दिन बाद पता चला कि अम्मी बहुत बीमार हैं। हम लोग उन्हें देखने गये। उनकी हालत बहुत खराब थी। दो दिन बाद वे नहीं रहीं। अब्बू अकेले रह गये। मैंने प्रणव से कहा, ‘‘अब तो हम अपने मकान में हैं। अब्बू को अपने साथ रख सकते हैं?’’ प्रणव राजी हो गये और हम अब्बू को अपने घर ले आये।

लेकिन तभी एक ऐसी घटना घटी, जिसके घटित होने में हमारा कोई हाथ नहीं था और वह हमारे घर-परिवार में नहीं, हमारे देश में भी नहीं, बल्कि दूर किसी दूसरे देश में घटी थी, लेकिन उसने मेरे अब्बू की जान ले ली।
 
अब्बू सोवियत संघ को दुनिया का सबसे महान देश और लेनिन को दुनिया का सबसे महान क्रांतिकारी मानते थे। लेकिन वहाँ गोर्बाचेव के पेरेस्त्रोइका की आँधी चलते ही समझ गये थे कि यह आँधी बहुत कुछ उड़ा ले जाने वाली है। उनकी पार्टी के काॅमरेड भी येल्त्सिन की कारगुजारियों से बौखला गये थे। एक दिन, जब अब्बू हमारे साथ रह रहे थे, टेलीविजन पर समाचार देखते हुए हम सबने देखा कि मास्को में लेनिन की विशाल प्रतिमा तोड़कर गिरायी जा रही है। अब्बू हाथों में अपना चेहरा छिपाकर फूट-फूटकर रो पड़े थे। 

अब्बू के लिए सोवियत संघ का न रहना उनकी जिंदगी का सबसे बड़ा सदमा था। उसे वे बर्दाश्त नहीं कर पाये और ऐसे बीमार पड़े कि फिर उठ ही नहीं सके। नहीं, बुझने से पहले जैसे शमा की लौ एक बार तेज हो जाती है, उनमें भी जिंदगी की चमक और जीने की ललक दिखायी पड़ी थी। वे अस्पताल में थे। रोज की तरह एक दिन जब मैं प्रणव के साथ उन्हें देखने गयी, तो वे स्वस्थ और चहकते-से मिले। तकियों के सहारे ऊँचे होकर अधलेटे-से बैठे हुए वे अपने दो-तीन काॅमरेडों से बातचीत कर रहे थे। हमें देखकर खुश हुए और खुशी-खुशी उन्होंने हमें बताया कि अगले हफ्ते तीनों कम्युनिस्ट पार्टियों ने मिलकर एक आम सभा बुलायी है, जिसमें सोवियत संघ के विघटन पर विचार किया जायेगा और तय किया जायेगा कि आगे क्या करना है। उन्होंने कहा, ‘‘मेरा यही सपना था कि हिंदुस्तान की कम्युनिस्ट पार्टियाँ मिलकर एक हो जायें। सोवियत संघ गया तो गया, मेरा यह सपना पूरा होने जा रहा है। मैं तो बीमार पड़ा हूँ, जा नहीं पाऊँगा, मगर तुम लोग जरूर जाना और दीक्षा बिटिया को भी जरूर साथ ले जाना, ताकि वह अपने देश के कम्युनिस्टों के एक होने की ऐतिहासिक घटना की चश्मदीद गवाह बन सके।’’ 

फिर उन्होंने अपने साथियों से कहा, ‘‘मैं ठीक होता, तो वहाँ कुछ बातें कहता। उन बातों को मैं यहीं आप लोगों के सामने कह रहा हूँ। इन्हें आप लोग वहाँ खुद कह दें या किसी और से कहला दें।’’ 

साथियों में से एक ने कहा, ‘‘क्यों नहीं, प्रोफेसर प्रणव यहाँ हैं, प्रोफेसर समीरा यहाँ हैं। आप इन्हें बता दीजिए, ये आपकी बातें वहाँ कह देंगे। हम इन दोनों को बाकायदा वक्ताओं के रूप में आमंत्रित करेंगे। बोलिए, आपको क्या कहना है?’’

अब्बू ने कहा, ‘‘मेरे चार सुझाव हैं। सबसे पहले तो देश की सभी कम्युनिस्ट पार्टियों को मिलकर एक हो जाना चाहिए। दूसरे, कम्युनिस्टों को अपने संगठन और कामकाज के तरीकों को बदलना चाहिए। तीसरे, रूसी रास्ते या चीनी रास्ते पर चलने जैसी बातें छोड़कर अपना एक नया और अलग रास्ता बनाना चाहिए। चैथे, समाजवाद लाना है, तो सबसे पहले जात-पाँत और हिंदू-मुसलमान के झगड़ों में टूटते-बिखरते अपने समाज को बचाना चाहिए।’’ 

उस समय दीक्षा नौ साल की थी। मैं और प्रणव उसे साथ लेकर उस आम सभा में गये। हमने चकित होकर देखा कि अब्बू भी अस्पताल से विशेष अनुमति लेकर व्हील चेयर पर बैठकर आये हैं। उनके साथियों ने उनकी कुर्सी हाॅल की सबसे अगली कतार में एक कोने पर लगा दी और हम लोगों को उनके पास वाली कुर्सियों पर बिठा दिया। हम दोनों को बोलने के लिए बुलाया गया था, लेकिन हमें मंच पर अन्य वक्ताओं के साथ नहीं बिठाया गया। 

शायद काॅमरेडों ने यह फैसला कर लिया था कि अब्बू की बातें पार्टी की रीति-नीति के खिलाफ हैं, उन्हें मंच से नहीं कहा जाना चाहिए। नतीजा यह हुआ कि मुझे और प्रणव को तो बोलने के लिए नहीं ही बुलाया गया, अब्बू के कई बार हाथ उठाकर बोलने की अनुमति माँगने पर भी उन्हें अनदेखा कर दिया गया।

हम बहुत क्षुब्ध होकर वहाँ से अब्बू के साथ अस्पताल गये। उन्होंने हम दोनों से क्षमा माँगी और अपना क्षोभ व्यक्त करते हुए बोले, ‘‘आज मैंने देख लिया कि वाम एकता का मेरा सपना कभी पूरा नहीं होगा। ये लोग ‘नौ कनौजिया तेरह चूल्हे’ वाली कहावत को सही साबित करते हुए वही करते रहेंगे, जो करते आये हैं और कमजोर होते गये हैं।’’ 

अगले दिन अब्बू अस्पताल में ही चल बसे।

दीक्षा: आने वाले कल का इतिहास

माँ और पापा में बहुत-सी समानताएँ थीं, लेकिन भिन्नताएँ भी कम नहीं थीं। माँ स्वयं को, पापा को, अपने परिवार को और हम सबके भविष्य को असुरक्षित समझती थीं। इसलिए वे हमेशा आशंकित और डरी-डरी-सी रहती थीं। दूसरी तरफ पापा एक निर्भीक और साहसी व्यक्ति थे। वे हिंदुओं के उन शुभ कहलाने वाले विवाहों को सख्त नापसंद करते थे, जिनमें पति-पत्नी का, खास तौर से पत्नी का, अशुभ करने वाली तमाम चीजें भरी होती थीं, जैसे जात-पाँत, ऊँच-नीच, दान-दहेज वगैरह। वे जानते थे कि दूसरे धर्मों के अंदर होने वाले विवाहों में भी कमोबेश यही होता है, इसलिए विवाह के किसी भी पारंपरिक रूप को वे उचित नहीं मानते थे। उनका विचार था कि प्रेम और केवल प्रेम के आधार पर किया जाने वाला विवाह सामाजिक कुरीतियों का एक बेहतर जवाब और सांप्रदायिक सद्भाव का एक मजबूत आधार हो सकता है। इसलिए पापा का निश्चय था कि प्रेम-विवाह ही करेंगे और हो सका, तो जाति-धर्म के बंधन तोड़कर करेंगे। इसी बात पर वे अपने माता-पिता और बहन-भाइयों से लड़े थे, घर छोड़कर निकल पड़े थे और मेरी माँ से शादी करते समय उन्हें मालूम था कि एक मुसलमान लड़की से शादी करने पर उनके सब लोग उनसे नाते-रिश्ते तोड़कर उन्हें अकेला छोड़ देंगे। लेकिन, जैसा मैंने कहा, पापा निडर और साहसी थे। कठिन से कठिन परिस्थिति में भी उनका एक ही कहना होता था, ‘‘जो होगा, देखा जायेगा।’’ 

दूसरी भिन्नता माँ और पापा के बीच यह थी कि माँ महत्त्वाकांक्षी थीं, जबकि पापा महत्त्वपूर्ण कार्य करने में विश्वास करते थे। माँ सफलता को बहुत महत्त्व देती थीं, जबकि पापा सफलता-असफलता की परवाह नहीं करते थे। यह और बात है कि उन्हें अपने कार्यों से सफलता सहज ही मिल जाती थी, जबकि माँ को उसके लिए प्रयास करना पड़ता था। माँ को यह बात कचोटती थी कि पापा अपनी पीएच.डी. की थीसिस से बनी पुस्तक ‘शीतयुद्ध का इतिहास’ से विश्वविख्यात इतिहासकर बन गये थे, जबकि माँ की पीएच.डी. की थीसिस से बनी पुस्तक ‘भारतीय वामपंथ’ छप तो गयी थी, लेकिन अंतरराष्ट्रीय तो दूर, राष्ट्रीय स्तर पर भी उसकी कोई खास चर्चा नहीं हुई थी। इससे माँ को बड़ी निराशा और तकलीफ होती थी। पापा ने माँ को समझाया कि पुस्तक लिख लेना तो अपने वश में होता है, किसी हद तक प्रकाशित करा लेना भी, लेकिन प्रसिद्ध होना अपने हाथ में नहीं होता। यश और प्रसिद्धि मिलने में बहुत दूर तक संयोगों, परिस्थितियों, संबंधों, संपर्कों आदि के अलावा बाजार का अदृश्य हाथ भी होता है। भारतीय वामपंथ शीतयुद्ध जैसा विवादास्पद और बिकाऊ विषय नहीं था। इतना ही नहीं, इतिहास के क्षेत्र में जमे बैठे बहुत-से लोगों के लिए तो वामपंथ नितांत अप्रिय विषय था। वे यही जानते और मानते थे कि भारत के स्वाधीनता आंदोलन में भारतीय वामपंथ की या तो कोई भूमिका थी ही नहीं, या कुछ थी, तो नकारात्मक थी। माँ ने पापा के निर्देशन में जो शोध किया था, उसके आधार पर वामपंथ की सकारात्मक भूमिका दिखायी थी और उसे नकारात्मक बनाने वाले इतिहास के पुनर्लेखन की जरूरत बतायी थी। लेकिन लकीर के फकीर लोगों को नयी दृष्टि से लिखा गया वह नया इतिहास ठोस तथ्यों से युक्त और प्रमाणों से पुष्ट होते हुए भी पसंद नहीं आया था। 

पापा ऐसे लोगों के बारे में माँ से कहा करते थे, ‘‘इन जड़ लोगों के लिए इतिहास एक ऐसी पवित्र नदी है, जो प्रदूषित होने पर भी पूज्य है। वे उसमें नहा-धोकर अपने शरीर और कपड़ों का मैल उसमें डालते हैं। वे उसके किनारे अपने मुर्दे जलाकर उनकी राख और हड्डियाँ उसमें डालते हैं। वे अपने देवी-देवताओं की मूर्तियाँ उसमें विसर्जित करके उनका कचरा उसमें डालते हैं। वे अपनी बस्तियों के गंदे नाले और कारखानों के जहरीले पदार्थ उसमें डालते हैं। इस तरह इतिहास की नदी को प्रदूषित करते समय उसकी पवित्रता की परवाह उन्हें नहीं होती। लेकिन कोई उस नदी को साफ करने चले, तो उन्हें तुरंत नदी की पावनता की रक्षा करने की याद आ जाती है। ऐसे ही लोगों के कारण तुम्हारी इतनी महत्त्वपूर्ण पुस्तक का भी उचित मूल्यांकन नहीं हो पाया।’’ 

यह उन दिनों की बात है, जब इतिहास के पठन-पाठन की दुनिया में भारी उथल-पुथल मची हुई थी। पिछली सरकार के समय पाठ्यक्रमों में लगी इतिहास की कई पुस्तकों को नयी सरकार पाठ्यक्रमों से निकलवाकर उनकी जगह दूसरी पुस्तकें लगा रही थी या अपने ढंग से नयी पुस्तकें लिखवा रही थी। अनेक इतिहासकार इससे रुष्ट और क्षुब्ध थे, इसका विरोध कर रहे थे, लेकिन उनका विरोध बेअसर साबित हो रहा था। 

थोड़े ही दिन बाद पता चला कि पापा की शीतयुद्ध वाली पुस्तक ही नहीं, माँ की वामपंथ वाली पुस्तक भी पाठ्यक्रमों से हटा दी गयी है। पापा तो केवल यह कहकर रह गये थे कि ‘‘यह तो होना ही था’’, लेकिन माँ चिंतित हो गयी थीं, ‘‘अब क्या होगा?’’ 

दरअसल माँ बचपन से ही अपने अब्बू और उनके साथियों से यह सुनती आयी थीं कि धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के सिद्धांतों पर चलकर ही देश में शांति और सद्भाव का बने रहना संभव है और मुसलमान शांति और सद्भाव के माहौल में ही सुरक्षित रह सकते हैं। इसीलिए माँ इन मूल्यों की रक्षा करना जरूरी बताने वाली कांग्रेस की प्रशंसक और कम्युनिस्ट पार्टी की समर्थक थीं। मगर अब वे देख रही थीं कि धर्मनिरपेक्षता की जगह सांप्रदायिकता बढ़ रही है। समाजवाद का गढ़ सोवियत संघ ढह गया है और पूँजीवाद इसे अपनी जीत समझकर बगलें बजा रहा है। शांति और सद्भाव की जगह देश में ही नहीं, पूरी दुनिया में अशांति और वैरभाव का बोलबाला है। पहले उन्हें लगता था कि वे धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के कवच के भीतर सुरक्षित हैं, मगर अब उन्हें लगने लगा था कि वह कवच टूट गया है और वे पहले से कहीं अधिक वेध्य हो गयी हैं। 

पापा उन्हें समझाते थे, ‘‘न तो हमारा देश सच्चा धर्मनिरपेक्ष देश है, न सोवियत संघ ही सच्चा समाजवादी देश था। जब तक हमारे देश में समाज को बाँटने वाली और दुनिया में मानवता को बाँटने वाली व्यवस्था कायम है, तब तक न तो सच्ची धर्मनिरपेक्षता संभव है, न सच्चा समाजवाद। इसलिए देश और दुनिया को जरूरत है एक ऐसी विश्व-व्यवस्था की, जिसमें समस्त मानवता एक और एकजुट हो। स्त्री और पुरुष, ब्राह्मण और शूद्र, हिंदू और मुसलमान, गोरा और काला जैसे भेद करके मनुष्यों को बाँटा और बाँटकर आपस में लड़ाया न जाये। यह ऐतिहासिक जरूरत है, इसलिए दुनिया उसी विश्व-व्यवस्था की तरफ जा रही है। उसके कायम होने में समय लगेगा, लेकिन एक दिन वह कायम होगी जरूर। इसलिए धीरज रखो और सोचो कि ऐसी विश्व-व्यवस्था कैसे कायम की जा सकती है और हम उसके लिए क्या कर सकते हैं।’’ 

माँ को पापा की ये बातें सैद्धांतिक रूप से सही, किंतु अव्यावहारिक लगती थीं। उन्होंने एक दिन चिंतित स्वर में पापा से कहा, ‘‘सुनो, आज हमारी किताबें पाठ्यक्रमों में से निकाली गयी हैं, कल को हमें नौकरी से भी निकाला जा सकता है। कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि मुसलमानों और कम्युनिस्टों पर कभी भी कोई कहर टूट सकता है...’’ 

पापा ने जरा ऊँची आवाज में कहा, ‘‘बकवास है! ऐसा कुछ नहीं होने वाला। और हुआ भी, तो तब की तब देखी जायेगी। अभी से तुम क्यों परेशान हो?’’ 

माँ ने कहा, ‘‘अपने विभाग के ही कुछ लोग कह रहे हैं कि धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद की दृष्टि से इतिहास का पुनर्लेखन बहुत हो चुका। वे कह रहे हैं कि अब हम वामपंथी हैं न दक्षिणपंथी, हम केवल इतिहासकार हैं और ऐसी किताबें लिखेंगे, जो दुनिया भर के बाजारों में बिकें और तमाम विश्वविद्यालयों में पढ़ायी जायें। वे मुझे भी यही सलाह दे रहे हैं कि मैं भी ऐसी ही कोई पुस्तक लिखूँ और उसे भारतीय प्रकाशक से नहीं, किसी बड़े विदेशी प्रकाशक से प्रकाशित कराऊँ।’’ 

‘‘लेकिन यह तो वर्तमान व्यवस्था से समझौता कर लेना, अपने काम को भूल जाना और स्वयं को बाजार के हवाले कर देना हुआ।’’ पापा ने माँ को समझाते हुए कहा, ‘‘तुम इतिहास के पुनर्लेखन वाले काम को ही आगे बढ़ाओ। उसमें अभी बहुत काम करने की गुंजाइश है और बहुत आगे बढ़ने की संभावनाएँ हैं। फिर यह काम पढ़ने-पढ़ाने के लिहाज से ही नहीं, देश और दुनिया को बेहतर बनाने के लिहाज से भी बहुत जरूरी है। भारतीय वामपंथ पर तुम्हारा काम बहुत अच्छा है। अब तुम वैश्विक वामपंथ पर आलोचनात्मक दृष्टि से एक किताब लिखो। मैं उसमें भरसक तुम्हारी सहायता करूँगा।’’

माँ ने पापा की बात मान तो ली, मगर पूरी तरह आश्वस्त नहीं हुईं। पापा ने उन्हें समझाया, ‘‘देखो, इतिहासकार होना किसी विषय पर शोध करके एक नयी-सी और पाठ्यक्रमों में पढ़ायी जाने लायक पुस्तक लिख लेना नहीं है। इतिहास चाहे पुराना हो या नया, एक जीवंत शक्ति के रूप में लोगों को प्रेरित और प्रभावित करता है। लेकिन यह काम अच्छा इतिहास ही कर सकता है। इसलिए ऐसा इतिहास लिखो, जो हमें अपने अतीत को जानने, वर्तमान को समझने और भविष्य को बनाने में समर्थ बनाये।’’  

माँ ने प्रतिवाद किया, ‘‘जिसे तुम अच्छा इतिहास कहकर पढ़ते और पढ़ाते रहे हो, उसका हाल देख रहे हो? पुरानी सरकार को वह पसंद था, इसलिए पढ़ा और पढ़ाया जा रहा था। नयी सरकार उसे पाठ्यक्रमों से निकाल रही है। उसके इस कदम का विरोध हो रहा है, मगर वह परवाह नहीं कर रही है। इतिहास का पाठन-पाठन राजनीतिक लड़ाई का मैदान बन गया है। मगर होगा वही, जो नयी सरकार चाहेगी। तुम्हारे अच्छे इतिहास को पाठ्यक्रमों से निकालकर कूड़ेदान में फेंक दिया जायेगा। मुझे अपनी यह नियति मंजूर नहीं।’’ 

पापा ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘तो ठीक है, जो तुम्हें मंजूर हो, वही करो।’’ मगर माँ उनसे बहस करने लगीं,  ‘‘देखो, दुनिया बदल रही है। हमें भी उसके मुताबिक बदलना चाहिए। हमें पढ़ाना तो वही इतिहास पड़ेगा, जो पाठ्यक्रम में लगा होगा। और पाठ्यक्रम में कैसी किताबें लग रही हैं, तुम देख रहे हो। मैंने तो सोच लिया है कि मैं ऐसी किताबें लिखूँगी, जो पाठ्यक्रमों में पढ़ायी जायें। मैं तुम्हारी तरह आदर्शवादी नहीं हूँ। मैं किताबें लिखकर पैसा कमाना चाहती हूँ।’’ 

पापा ने हँसते हुए पूछा, ‘‘हम दोनों की अच्छी-खासी नौकरी है और संतान के नाम पर एक ही बेटी। हमें क्या करना है ज्यादा पैसा कमाकर?’’ माँ ने उत्तर दिया, ‘‘मैं चाहती हूँ कि दीक्षा को बाहर भेजकर पढ़ाऊँ। इसके लिए बहुत पैसा चाहिए।’’ पापा ने पूछा, ‘‘दीक्षा को बाहर भेजकर ही पढ़ाना क्यों जरूरी है?’’ माँ ने कहा, ‘‘मैं चाहती हूँ कि पढ़-लिखकर वह बाहर ही कहीं बस जाये।’’   

माँ मेरे भविष्य को लेकर कुछ ज्यादा ही चिंतित थीं। उन्होंने खुद तो प्रेम-विवाह किया था, लेकिन मुझे प्रेम की हवा भी नहीं लगने देना चाहती थीं। पापा का एक शोध छात्र बसंत उनसे मिलने घर आया करता था। मैं उससे उम्र में लगभग उतनी ही छोटी थी, जितनी माँ पापा से। उन दिनों मैं अपने तन और मन में हो रहे परिवर्तनों से एक ही साथ भयभीत और आनंदित रहती थी। बसंत मुझे अचानक और अकारण अच्छा लगने लगा था। उसके आते ही मैं खिल उठती थी। जितनी देर वह घर में रहता--पापा के पास बैठक में या उनकी स्टडी में--मैं किसी न किसी बहाने उसके आसपास मँडराती रहती। ऐसा अवसर न मिलता, तो कहीं छिपकर उसे दूर से ही देखती रहती और खुश होती रहती। नितांत अतार्किक ढंग से मुझे बसंत ऋतु सबसे प्रिय हो गयी थी। इतनी प्रिय कि फिल्म या टी.वी. देखते समय, कोई कहानी या उपन्यास पढ़ते समय, या किसी की बातचीत में ही बसंत शब्द आ जाता, तो मैं रोमांचित हो उठती थी। अपने घर के बगीचे या स्कूल के अहाते में खिले हुए फूलों को देखती, तो मन होता कि बसंत-बसंत गाते हुए नाचने लगूँ। 

माँ ने एक-दो बार टोका, एक-दो बार डाँटा, फिर एक बार प्यार से भी समझाया कि मैं अपनी पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान दूँ। मगर बसंत के प्रति मेरा आकर्षण कम ही नहीं होता था। उसके आते ही मैं माँ की सारी टोका-टाकी, डाँट-फटकार और समझाइशें-हिदायतें भूल जाती थी। खास तौर से तब, जब माँ घर में न होतीं। 

एक दिन माँ घर में नहीं थीं। बसंत आया हुआ था और पापा के साथ बैठक में बैठा था। श्यामा रसोईघर में चाय बना रही थी। वह जब चाय की टेª लेकर रसोईघर से निकली, मैंने उसके हाथ से टेª ले ली और बैठक में जाने लगी। उसी समय माँ ने घर के अंदर आते हुए मुझे श्यामा के हाथ से टेª लेते देख लिया। उन्होंने मुझे आँखें तरेरकर देखा और कहा, ‘‘नहीं! टेª वापस दो श्यामा को! वही लेकर जायेगी।’’ 

फिर, उसी दिन, जब बसंत चला गया, उन्होंने पापा से कहा, ‘‘सुनो, लड़कों को घर मत बुलाया करो, लड़की बड़ी हो रही है।’’ पापा हँसकर बोले, ‘‘अरे भई, अभी से कहाँ बड़ी हो गयी!’’ लेकिन माँ ने तेज-तीखे स्वर में कहा, ‘‘मैंने कह दिया न! अब कोई लड़का घर में नहीं आयेगा।’’ पापा ने फिर हँसते हुए कहा, ‘‘मैंने तो तुम से कितना कहा था कि दीक्षा का एक भाई आने दो। तुम ही अड़ गयीं कि एक ही बच्चा बहुत है। चलो, यह तुम्हारा फैसला था, तुम्हारा अधिकार था, मगर मेरे छात्र मेरे घर न आयें, यह कैसे...?’’ पापा अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाये थे कि माँ ने लगभग चिल्लाते हुए कहा, ‘‘घर सिर्फ तुम्हारा नहीं, मेरा भी है। मेरी बेटी की भलाई किस में है, मैं तुमसे ज्यादा जानती हूँ। तुम अपने छात्रों से विभाग में मिलो या कहीं और, घर में कोई लड़का नहीं आयेगा।’’ 

और इसके बाद का एक दिन तो मैं कभी नहीं भूल सकती। तीसरे पहर का समय था। पापा घर पर नहीं थे। माँ अपने कमरे में थीं और मैं अपने कमरे में स्कूल से मिला होम वर्क कर रही थी। अचानक दरवाजे की घंटी बजी। श्यामा ने दरवाजा खोला। माँ ने अपने कमरे से ही पूछा, ‘‘कौन है?’’ श्यामा ने उत्तर दिया, ‘‘बसंत भैया।’’ यह सुनते ही मैंने अपनी किताब-कापी परे फेंकी और दौड़ी। मगर मैं अपने कमरे के दरवाजे पर ही पहुँची थी कि देखा, माँ घर के मुख्य दरवाजे पर पहले ही पहुँच चुकी हैं और बाहर खड़े बसंत से कह रही हैं, ‘‘उनसे विभाग में ही मिला करो, यहाँ मत आया करो।’’ माँ का यह कहना और भड़ाक् से दरवाजा अंदर से बंद कर लेना मुझे आज तक ऐसे याद है, जैसे बसंत की जगह मैं ही दरवाजे के बाहर खड़ी थी और माँ ने मेरे ही मुँह पर दरवाजा भड़ाक् से बंद किया था। 

उस दिन माँ ने जो बात कही थी, और जिस स्वर में कही थी, मैं कभी नहीं भूल सकती। उन्होंने कहा था, ‘‘पहले पढ़-लिखकर कुछ बन लो, तब स्वयंवर रचा लेना। बाप हिंदू, माँ मुसलमान। वैसे ही शादी में हजार मुश्किलें आयेंगी। कुछ गलत हो गया, तब तो अल्लाह ही जाने तुम्हारा क्या होगा!’’ 

माँ चाहती थीं कि मुझे अमरीका भेजकर पढ़ायें, लेकिन पापा ने मना कर दिया। कहा, ‘‘हमारी एक ही संतान है। उसे भी हम खुद से अलग करके दूर भेज देंगे, तो यहाँ किसका मुँह देखकर जियेंगे? नहीं, दीक्षा यहीं रहकर पढ़ेगी।’’ 

माँ किसी तरह मान गयीं। लेकिन मेरे भविष्य को लेकर चिंतित बनी रहीं। वे चाहती थीं कि मैं इतिहास में ही एम.ए., पीएच.डी. करूँ और उनकी तरह इतिहास की प्रोफेसर बनूँ। उनका विचार था कि सुरक्षित जीवन जीने के लिए स्थायी नौकरी जरूरी है और माता-पिता दोनों इतिहास वाले हैं, इसलिए इतिहास पढ़ने पर मुझे नौकरी मिलने में सुविधा होगी। मगर मैंने कहा, ‘‘आजकल स्थायी नौकरी में जिंदगी भर सड़ना कौन चाहता है? मैं तो एम.बी.ए. करूँगी और प्राइवेट सेक्टर में काम करूँगी, जहाँ आगे बढ़ने के मौके ही मौके हैं।’’ 

मेरा यह फैसला सामान्य स्थिति में शायद उन्हें स्वीकार्य न होता, लेकिन उन दिनों हमारे घर में स्थितियाँ असामान्य बनी हुई थीं। माँ और पापा दो भिन्न और विपरीत दिशाओं में जा रहे थे। 

माँ कहतीं, ‘‘तुम्हारे साथ के तमाम लोग विजिटिंग प्रोफेसर होकर विदेश जाते हैं, तुम क्यों नहीं जाते?’’ पापा कहते, ‘‘उन्हें वहाँ जाना जरूरी लगता होगा, मुझे नहीं लगता।’’ माँ पूछतीं, ‘‘क्यों?’’ पापा उत्तर देते, ‘‘हर किसी की अपनी प्राथमिकताएँ होती हैं।’’ माँ कटाक्ष करतीं, ‘‘तुम्हारी प्राथमिकता कुएँ का मेंढक बने रहना है?’’ पापा गंभीरता से उत्तर देते, ‘‘किताबें कुआँ नहीं होतीं और उनमें डूबकर कहीं भी जाया जा सकता है। आज की ही नहीं, कल की और आने वाले कल की दुनिया में भी।’’ माँ झुँझलाकर कहतीं, ‘‘तुम तनिक भी महत्त्वाकांक्षी नहीं हो। क्यों नहीं हो?’’ पापा मुस्कराते हुए कहते, ‘‘महत्त्वाकांक्षा एक प्रकार की गुलामी है। उन लोगों की गुलामी, जो आपको महत्त्व देते हैं या दे सकते हैं। फिर, महत्त्वाकांक्षा एक दौड़ की होड़ है, जिसमें आगे निकलने के लिए आप निहायत गैर-जरूरी समझौते करते हैं, निरर्थक लड़ाइयाँ लड़ते हैं और फिर भी कभी नि¯श्चत नहीं रह पाते कि आप आगे निकल ही जायेंगे; जहाँ पहुँचना चाहते हैं, पहुँच ही जायेंगे; जो पाना चाहते हैं, पा ही जायेंगे!’’ 

माँ कहतीं, ‘‘तुम कुछ भी कहो, जिंदगी एक दौड़ की होड़ ही है। जो आगे निकल जाते हैं, वे ही इतिहासों में जाते हैं।’’ पापा कहते, ‘‘वे इतिहास ही गलत होते हैं, जिनमें वे जाते हैं।’’ माँ तीखे स्वर में कहतीं, ‘‘मतलब, महान लोग महान नहीं होते?’’ पापा हँसकर कहते, ‘‘नहीं, महान लोग तो महान होते हैं, लेकिन यह देखो कि वे किस प्रक्रिया में महान बनते हैं। किसी को महान बताने के लिए कहा जाता है कि वह तो लाखों में एक है। यानी वह लाखों को पीछे छोड़कर अकेला महान बना। इतिहास ने उसे अपने अंदर रख लिया और बाकी लाखों को बाहर छोड़ दिया। क्या कोई इतिहासकार दावे से कह सकता है कि वे लाखों लोग महान नहीं थे या अनुकूल परिस्थितियों में महान नहीं बन सकते थे?’’ 

पापा की ऐसी बातें सुन माँ उन्हें पागल समझती थीं। माँ पर एक और ही धुन सवार थी--विजिटिंग प्रोफेसर बनकर कहीं बाहर जाना है और वाम-दक्षिण का विचार छोड़कर एक ऐसी किताब लिखनी है, जो उन्हें विश्वविख्यात इतिहासकार बना दे। इसलिए वे बड़ी मेहनत से अपनी नयी किताब ‘दुनिया का इतिहास और इतिहास की दुनिया’ लिख रही थीं और बाहर जाने के लिए प्रयास कर रही थीं। 

अंततः वे विजिटिंग प्रोफेसर बनकर तीन साल के लिए पोलैंड चली गयीं। उनकी पुस्तक ‘दुनिया का इतिहास और इतिहास की दुनिया’ पूरी हो चुकी थी। उसकी पांडुलिपि वे अपने साथ ही ले गयीं। उन्हें अपने मित्रों और शुभचिंतकों की सलाह याद थी कि पुस्तक को पश्चिम के किसी बड़े प्रकाशक से प्रकाशित कराना है। 

जाने से पहले माँ ने पापा से कहा था, ‘‘वैसे तुम हमेशा अपने ही मन की करते हो, मगर इस बार मेरी एक बात मान लो। मैं तीन साल बाहर रहूँगी। इस बीच दीक्षा का खास खयाल तुमको रखना है। हो सके, तो तीन साल की स्टडी लीव ले लो और आंदोलन-फांदोलन छोड़कर घर बैठो, अपना पढ़ो-लिखो। भूमंडलीकरण के इतिहास वाली जो किताब तुम लिखना चाहते हो, उसे शांति से बैठकर लिख डालो। जब तक मैं लौटूँगी, दीक्षा एम.बी.ए. कर चुकी होगी और तुम्हारी किताब पूरी हो चुकी होगी।’’ 

और आश्चर्य, इस बार पापा ने माँ की बात तनिक भी ना-नुकुर किये बिना मान ली। वे तीन साल की छुट्टी लेकर अपनी नयी किताब लिखने और मेरी देखभाल करने में व्यस्त हो गये। 

माँ का घर-परिवार से अलग एक दूसरे देश में अकेले रहने का यह पहला अनुभव था। लेकिन अकेलेपन और अजनबीपन की जगह उन्हें ऐसा लगा, जैसे वे पापा से दूर जाकर उनके और ज्यादा निकट हो गयी हैं। दिन में कई-कई बार फोन करतीं। कभी पापा को, कभी मुझे। कभी दोनों को एक साथ। अकेले में पापा से मेरे बारे में पूछतीं और मेरा ध्यान रखने के लिए कहतीं। मुझसे पापा के बारे में पूछतीं और पापा का ध्यान रखने के लिए कहतीं। जब दोनों से एक साथ बात करतीं, तो फोन करते ही स्पीकर आॅन करने के लिए कहतीं और वहाँ के अपने अनुभव सुनातीं। 

एक दिन उन्होंने अपने अध्यापन का अनुभव बताते हुए कहा, ‘‘शीतयुद्ध खत्म नहीं हुआ। वह जारी है और यहाँ बड़े विचित्र रूप में जारी है। ज्यों ही मैं कक्षा में किसी मुद्दे पर बोलना शुरू करती हूँ, मेरे छात्र मानो दो खेमों में बँट जाते हैं--एक पूँजीवादी खेमा, दूसरा समाजवादी खेमा। लेकिन विचित्र बात यह है कि पूँजीवाद के पक्षधरों को आज का पूँजीवाद पसंद नहीं है और समाजवाद के पक्षधरों को बीते कल का समाजवाद। दोनों को एक-दूसरे के पक्ष से शिकायत है, लेकिन अपने पक्ष से भी भारी शिकायतें हैं। मैं उनसे पूछती हूँ कि तुम्हारी शिकायतें कैसे दूर हो सकती हैं, तो दोनों ही पक्ष भविष्य की बात करने लगते हैं। ‘जो है’, उसकी आलोचना करने लगते हैं और ‘जो होना चाहिए’ उसकी आकांक्षा व्यक्त करने लगते हैं। सबसे विचित्र बात यह है कि वे अपनी समस्याओं के समाधान अपने देश के शिक्षकों से नहीं, मुझसे माँगते हैं और कुछ इस अंदाज में माँगते हैं, मानो मैं बुद्ध की वंशज और गांधी की रिश्तेदार हूँ!’’ 

फिर एक दिन उन्होंने बताया कि वे पढ़ाती और रहती तो वारसा में हैं, लेकिन उन्हें यूरोप के कई विश्वविद्यालयों में व्याख्यान देने के लिए बुलाया जाता है। वहाँ के अखबारों और टी.वी. चैनलों के लिए भी वे एक महत्त्वपूर्ण भारतीय इतिहासकार बन गयी हैं। वहाँ के लोग उनसे भारतीय इतिहास के बारे में ही नहीं, भारत के वर्तमान और भविष्य के बारे में भी तरह-तरह के प्रश्न पूछते हैं, जिनसे पता चलता है कि भारतीय सभ्यता, संस्कृति, समाज, राजनीति आदि के बारे में उनके अंदर कितनी प्रबल रुचि और जिज्ञासा है। 

एक दिन उन्होंने यह भी बताया कि यूरोपीय देशों में उनके कई मित्र बन गये हैं, जो उनसे मिलने आते हैं और उन्हें अपने यहाँ बुलाते हैं। उनसे तरह-तरह की बातें और बहसें होती हैं और पता चलता है कि उनके दिमागों में भारत के बारे में बहुत-सी गलत और बेबुनियाद बातें भरी हुई हैं। इसके लिए इतिहास की वे पुस्तकें जिम्मेदार हैं, जो उनके देशों के इतिहासकारों ने ही नहीं, स्वयं भारतीय इतिहासकारों ने भी लिखी हैं। ऐसी ही एक चर्चा के दौरान माँ को पता चला कि पापा की शीतयुद्ध वाली पुस्तक से ही नहीं, ‘राष्ट्र और राष्ट्रवाद’ वाली नयी पुस्तक से भी वे लोग परिचित हैं और पापा के बारे में बहुत कुछ जानना चाहते हैं। 

पापा ने एक दिन माँ से पूछा, ‘‘तुम जो किताब यहाँ से लिखकर ले गयी थीं, उसके प्रकाशन का क्या हुआ?’’ माँ ने कहा, ‘‘यहाँ के अनुभवों की रोशनी में मैंने उस पांडुलिपि को पढ़ा, तो मुझे बड़ी शर्म आयी। मैंने अमरीकी या यूरोपीय दृष्टि से लिखे जाने वाले इतिहासों की तर्ज पर दुनिया का इतिहास लिखा था और यह सोचकर लिखा था कि इसके प्रकाशित होने पर मैं इतिहास की दुनिया में छा जाऊँगी, लेकिन यहाँ आकर मुझे लगा कि दुनिया का इतिहास भविष्य की उस दुनिया को ध्यान में रखकर लिखना पड़ेगा, जो बननी चाहिए, बनायी जा सकती है और किसी हद तक बन भी रही है। और अचानक मैंने पाया कि यह तो मैं ठीक तुम्हारी तरह सोच रही हूँ और मुझे तुम पर ऐसा प्यार उमड़ा कि बता नहीं सकती।’’ पापा ने पूछा, ‘‘तो क्या किया उस पांडुलिपि का?’’ माँ ने कहा, ‘‘मैं उसे फिर से लिख रही हूँ। किताब का नाम तो यही रखूँगी, लेकिन बाकी सब बदल दूँगी।’’ 

पापा ने कुछ ऐसे भाव से ‘‘शाबाश!’’ कहा, जैसे वे अपनी पत्नी से नहीं, शिष्या से कह रहे हों। उधर से माँ ने कहा, ‘‘हम तो घर के जोगी को जोगना ही समझते रहे, आन गाँव आकर पता चला कि वह तो सिद्ध है! सो, हे सिद्ध पुरुष, आप किसी दौड़ की होड़ में नहीं हैं, तो यही आपके लिए और हम सबके लिए ठीक है।’’ 

माँ में आया यह बदलाव पापा को ही नहीं, मुझे भी बहुत अच्छा लगा। 

इधर पापा के और मेरे जीवन में भी नये बदलाव हो रहे थे। मैं एम.बी.ए. करते ही दवाइयाँ बनाने और बेचने वाली एक अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनी में मार्केटिंग एक्जीक्यूटिव के रूप में काम करने लगी थी और बहुत व्यस्त रहती थी। पापा की ‘भूमंडलीकरण का इतिहास’ वाली पुस्तक पूरी हो चुकी थी। उसे अपने लंदन वाले प्रकाशक को भेजकर वे खाली-खाली महसूस कर रहे थे। उन्होंने बाहर निकलना शुरू कर दिया था। घर पर भी लोग उनसे मिलने आने लगे थे, जिनमें इतिहास पढ़ने-पढ़ाने वाले लोग ही नहीं, लेखक, पत्रकार, सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता भी होते थे। मैं आम तौर पर व्यस्त रहती थी, लेकिन फुर्सत में होती, तो मैं भी उनके साथ होने वाली बातों-बहसों में शामिल हो जाती। 

माँ साल में एक बार छुट्टियों में पोलैंड से आती थीं और जब तक रहतीं, मुझे खूब प्यार करतीं। उनके विचार से अब मैं बड़ी यानी प्रेम और विवाह करने लायक हो गयी थी। वे बातों-बातों में टोह लेने की कोशिश करतीं कि क्या मेरा कोई प्रेम-प्रसंग चल रहा है। मैं इनकार करती, तो वे उदारतापूर्वक कहतीं, ‘‘अब या तो तुम खुद ही कोई लड़का ढूँढ़ लो, या हमें बता दो कि हम ढूँढ़ें।’’ 

उन दिनों मैं अपने साथ काम करने वाले एक लड़के मयंक से प्रेम करने लगी थी। लेकिन वह कुछ अजीब किस्म का प्रेम था। मयंक के लिए उसका करियर, अतिसमृद्ध लोगों का-सा जीवन, कोठी-कार-नौकर-चाकर वाला रहन-सहन, परिवार की प्रत्येक इच्छा या जरूरत पूरी करने लायक धन और उसे कमाने के लिए जी-तोड़ परिश्रम कर सकने वाला सदा स्वस्थ तन ही प्राथमिक और जरूरी था। शेष सब दोयम-सोयम दरजे का या गैर-जरूरी। 

पुस्तकें पढ़ना, फिल्में देखना, संगीत सुनना, माता-पिता के साथ बैठकर बातें-बहसें करना, उनके साथ सैर-सपाटे के लिए हर साल यात्राओं पर जाकर ऐतिहासिक स्थलों को देखना, उनकी अचल-सचल फोटोग्राफी करना, फिर घर लौटकर उन जगहों के बारे में किताबें और नेट खँगालना--जो मेरा अब तक का जीवन, शौक और मुख्य मनोरंजन था--मयंक के लिए बेमानी था। राजनीति में तो उसे रत्ती भर रुचि नहीं थी, जबकि मेरे परिवार में जब तक ताजा समाचारों के आधार पर माता-पिता के बीच थोड़ी राजनीतिक नोक-झोंक न हो ले, उनका खाना ही हजम नहीं होता था। मैं मयंक से जब कोई राजनीतिक चर्चा करना चाहती, वह मुझे झिड़क देता, ‘‘राजनीति जैसी गंदी चीज में तुम्हारी इतनी रुचि क्यों है? मुझे तो राजनीति और राजनीतिक लोगों से सख्त नफरत है। लोकतंत्र ने इस देश के विकास को रोक रखा है। इस देश को तो एक तानाशाह चाहिए।’’ 

मुझे मयंक के विचार पसंद नहीं थे, लेकिन मैं सोचती थी कि शादी के बाद मयंक को सही रास्ते पर ले आऊँगी। मैं अपने माता-पिता के प्रेम-विवाह के उदाहरण से और देखी हुई फिल्मों, सुनी हुई कहानियों और पढ़ी हुई किताबों के आधार पर यह मानकर चल रही थी कि प्रेम की परिणति प्रेम-विवाह में होती है। लेकिन मयंक मुझे पुरानी और नयी पीढ़ी का अंतर बताया करता था, ‘‘देखो, हमारे माता-पिता बीसवीं सदी की स्थानीय पीढ़ी के लोग थे, जबकि हम इक्कीसवीं सदी की भूमंडलीय पीढ़ी के युवा हैं। हमारे माता-पिता स्थायित्व वाला जीवन जीने वाले लोग थे, जबकि हम अस्थायित्व को ही अपना जीवन मानकर चलते हैं। हमारे माता-पिता के लिए एक नौकरी, एक शादी, एक रुचि, एक राजनीति पूरा जीवन गुजार देने के लिए काफी होती थी। लेकिन हमारे लिए ऐसी सब चीजें, जो हमें कहीं बाँधकर रख दें, पैरों की बेड़ियाँ हैं, जिनको हमें तोड़ना ही है।’’ 

उसकी ऐसी बातों के कारण मैं असमंजस में थी कि उससे शादी करना ठीक होगा या नहीं। इसी कारण मैंने माँ-पापा को उसके बारे में कुछ नहीं बताया था। लेकिन जब माँ पोलैंड में थीं, एक दिन मुझे पता चला कि अपनी लापरवाही से मैं गर्भवती हो गयी हूँ। मैं बेहद चिंतित और भयभीत हो गयी। पापा को पता चला, तो क्या होगा? और माँ जब सुनेंगी? मुझे बरसों पहले कहे गये उनके शब्द याद हो आये--‘‘पहले कुछ बन लो, तब स्वयंवर रचा लेना। बाप हिंदू, माँ मुसलमान। वैसे ही शादी में हजार मुश्किलें आयेंगी। कुछ गलत हो गया, तब तो अल्लाह ही जाने, तुम्हारा क्या होगा!’’ 

अगले दिन जब पापा घर पर नहीं थे और श्यामा दोपहर की छुट्टी में अपने क्वार्टर में थी, मैंने फोन करके मयंक को बुलाया। वह छुट्टी का दिन था और मयंक फुर्सत में था, तुरंत चला आया। मैंने उसे बताया कि मैं गर्भवती हो गयी हूँ, तो वह लापरवाही से बोला, ‘‘दिक्कत क्या है? एबाॅर्शन करा लो!’’ मैंने कहा, ‘‘ठीक है, बच्चा अभी मैं भी नहीं चाहती, लेकिन मुझे इसका प्रमाण चाहिए कि प्रेम के नाम पर तुम मेरा शोषण नहीं कर रहे थे।’’ वह बौखलाकर बोला, ‘‘क्या प्रमाण चाहती हो?’’ मैंने कहा, ‘‘शादी।’’ वह भड़क उठा, ‘‘शादी? और तुझसे?’’ मुझे उसका यह कहना बहुत अपमानजनक लगा। मैंने कहा, ‘‘क्यों? तू मुझसे प्रेम नहीं करता?’’ वह बोला, ‘‘प्रेम? सेक्स की बात कर। सेक्स के लिए तू ठीक है, अच्छी है, लेकिन यह तूने कैसे सोच लिया कि मैं एक मुसल्ली की लड़की से शादी करूँगा?’’ मुझे इतना गुस्सा आया कि मैं उसे मारने के लिए झपटी। अगर उसकी गर्दन मेरे हाथों में आ जाती, तो मैं उसे सचमुच जान से मार देती। लेकिन वह डर गया। उठकर तेजी से मेरे कमरे से और दौड़कर घर के मुख्य दरवाजे से बाहर हो गया। मैं उसके पीछे दौड़ी, लेकिन वह जा चुका था। मैंने मुख्य दरवाजा वैसे ही भड़ाक् से बंद किया था, जैसे कभी माँ ने बसंत के लिए किया था। वापस अपने कमरे में आकर मैं बिस्तर पर औंधे मुँह गिर पड़ी और फूट-फूटकर रोने लगी। पता नहीं, कब तक रोती रही। श्यामा ने आकर मुझे सँभाला और जैसे वह पहले से ही सब कुछ जानती हो, मुझे छाती से लगाकर बड़ी देर तक चुप कराती रही। 

मैं चुप हुई, तो मुझे गुस्सा चढ़ आया। मैंने श्यामा से कहा, ‘‘मैं उसे जिंदा नहीं छोड़ूँगी।’’ श्यामा ने मुझे अपने से सटाकर मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए समझाया कि चुपचाप गर्भपात करा देना और इस कांड को भूल जाना ही ठीक होगा। उसने कहा, ‘‘कुछ भी और करने में तुम्हारी ही फजीहत होगी, बिटिया!’’  

पापा के आने पर मैंने संक्षेप में पूरी बात बताकर उनसे कहा, ‘‘मयंक ने मुझे धोखा देने के साथ-साथ मेरा जो अपमान किया है, मैं उसका बदला लेकर उसे सबक सिखाना चाहती हूँ।’’ पापा ने पूछा, ‘‘कैसे? उसके घर जाकर उसके माता-पिता से या थाने जाकर पुलिस से उसकी शिकायत करोगी? या गुंडे भेजकर उसे पिटवाओगी? या कोई उपदेशक भेजकर उसे नैतिक उपदेशों से सुधरवाओगी? अच्छा, मान लो, इनमें से किसी भी तरीके से वह सुधरकर तुमसे शादी करने को तैयार हो जाये, तो क्या तुम उसे क्षमा करके उससे शादी कर लोगी? शादी करके भी क्या उसके द्वारा किये गये अपने अपमान को भूल सकोगी?’’ मैंने कहा, ‘‘नहीं।’’ तो पापा बोले, ‘‘तो इसे किसी दुर्घटना में लगी चोट समझो, मरहम-पट्टी कराओ और स्वस्थ होकर चोट को भूल जाओ।’’ मुझे श्यामा की बात याद आयी, ‘‘कुछ भी और करने में तुम्हारी ही फजीहत होगी, बिटिया!’’ और मैंने पापा से कहा कि वे मुझे तुरंत किसी नर्सिंग होम में ले चलें, मुझे आज और अभी गर्भपात कराना है। 

लेकिन गर्भपात कराने के बाद मैं कुछ समय के लिए अवसादग्रस्त हो गयी थी। मानो जीने की इच्छा ही मर गयी हो। मैंने नौकरी छोड़ दी और घर में ही पड़ी रहने लगी। न कहीं आती-जाती, न कुछ पढ़ती-लिखती। न टी.वी. देखती, न कंप्यूटर पर बैठती। न किसी को फोन करती, न किसी से चैट। अपना मोबाइल हमेशा बंद रखती और लैंडलाइन की घंटी बजती, तो बजने देती। पापा दिन-रात मेरी देखभाल करते। कुछ मनोचिकित्सक के बताये हुए तरीकों से और कुछ अपने द्वारा आविष्कृत उपायों से वे मुझे तन-मन से स्वस्थ बनाने में लगे रहते। माँ को दुख होगा और गुस्सा आयेगा, यह सोचकर माँ को न उन्होंने कुछ बताया, न मुझे ही बताने दिया।
लेकिन अगली बार छुट्टियों में माँ पोलैंड से आयीं, तो मैंने उन्हें संक्षेप में सब कुछ बता दिया। तनिक भी भावुक हुए बिना, नितांत तथ्यात्मक ढंग से, जैसे मैं अपने बारे में नहीं, किसी और के बारे में बता रही थी। और आश्चर्य, माँ ने भी कोई आवेश या आवेग व्यक्त नहीं किया। बस, मुझे अपने से सटाया, मेरा सिर अपने कंधे पर रखकर सहलाया और प्यार से कहा, ‘‘अच्छा  हुआ कि पहले ही उसका नकाब उतर गया। शादी के बाद उतरता, तो बहुत बुरा होता।’’ 

मगर माँ के प्रयासों के बाद भी मेरी हँसी-खुशी नहीं लौटी। उनके वापस चले जाने के बाद तो मेरा अवसाद और बढ़ गया। पापा पहले की तरह मेरा मानसिक उपचार करने में लग गये। 

एक दिन अचानक उन्होंने मुझसे पूछा, ‘‘मैं मनुष्य और प्रकृति के संबंधों के इतिहास की एक नयी किताब लिखना शुरू कर रहा हूँ। उसके लेखन में तुम मेरी सहायता करोगी?’’ मैंने कहा, ‘‘मैं? कैसे?’’ तो बोले, ‘‘कल रात मैंने सोचा, यह किताब मैं किसके लिए लिख रहा हूँ? बूढ़ों के लिए तो नहीं न! अगर आज की और आने वाली पीढ़ियों के लिए लिख रहा हूँ, तो क्या मुझे यह जानने की कोशिश नहीं करनी चाहिए कि आज की नयी पीढ़ी मेरे लिखे हुए के बारे में क्या सोचती है? फिर मैंने अपने-आप से कहा--संयोग से आजकल नयी पीढ़ी की एक प्रतिनिधि घर में है और फुर्सत में है। उसे पढ़कर सुनाओ कि तुम क्या लिख रहे हो और उससे पूछो कि वह तुम्हारे लिखे के बारे में क्या सोचती है। इससे तुम दोनों को लाभ होगा।’’ 

मुझे नहीं मालूम कि पापा को क्या लाभ हुआ, मगर मुझे सचमुच हुआ। शुरू-शुरू में अनमनेपन से, और यह समझने के कारण कि पापा मुझे मेरे अवसाद से उबारने का जतन कर रहे हैं, कुछ खीझ और विरोधभाव के साथ मैं चुपचाप लेटी हुई सुनती रहती। अपनी तरफ से कुछ न कहती। पापा के पूछने पर भी अपनी कोई राय व्यक्त न करती। लेकिन धीरे-धीरे उनके द्वारा लिखे जा रहे एक नये ढंग के इतिहास में मेरी रुचि जागने लगी। मैं उनसे पूछने लगी कि वे जो लिख रहे हैं, उसे ठीक-ठीक समझने के लिए मुझे क्या-क्या पढ़ना चाहिए। पापा अपने निजी पुस्तकालय से पुस्तकें निकालकर देते और मैं उन्हें पढ़ती रहती। लेटे-लेटे पढ़ने से थक जाती, तो बैठकर पढ़ने लगती। कभी लिखने-पढ़ने की मेज पर, कभी सोफे या दीवान पर, कभी बाहर लाॅन में बैठकर। 

घर के सामने वाले लाॅन में माली ने तरह-तरह के फूलों के पौधे लगा रखे थे। उतरती सर्दियों की सुहावनी धूप में मखमली हरी घास पर फूलों की क्यारियों के पास बैठकर पढ़ते हुए मैं अक्सर सोचने लगती कि मैं जो नौकरी कर रही थी, वह तो निपट गुलामी थी। ऐसी गुलामी, जिसने मुझसे सारी आजादियाँ छीन ली थीं। जैसे छुट्टी के दिन देर तक सोये पड़े रहने की आजादी। माता-पिता के साथ बैठकर मनचाही चीजें खाते-पीते ढेर सारी बातें करने की आजादी। किताबें पढ़ने और संगीत सुनने की आजादी। टी.वी. और फिल्में देखने की आजादी। मित्रों के साथ घूमने-फिरने की आजादी। और सबसे बड़ी आजादी तो यह--अपने घर के लाॅन में, फूलों की क्यारियों के पास, हरी घास पर सुहावनी धूप में चित्त लेटकर नीले आसमान को देखते रहने की आजादी। या आँखें बंद करके एक साथ आती कई पक्षियों की आवाजों को अलग-अलग करके सुनने की आजादी। या एक साथ आती कई फूलों की खुशबुओं में से एक-एक को अलग करके पहचानने की आजादी। 

एक दिन जब मैं लाॅन में बैठी कुछ पढ़ने का प्रयास कर रही थी और बार-बार जी उचट जाने के कारण किताब बंद करके सामने देख रही थी, अचानक मुझे लगा कि मैंने कुछ ऐसा देखा है, जो कल तक वहाँ नहीं था। सहसा मैं समझ नहीं पायी और सोचने लगी--वह क्या था? 

मुझे याद आया कि वहाँ जामुन का पेड़ था, जिसके जामुन मैंने बरसों खाये और अपने दोस्तों को खिलाये थे। फिर एक दिन ऐसी जोरदार आँधी आयी कि जामुन का वह पेड़ टूटकर गिर पड़ा। आँधी थमने पर हम सबने टूटकर गिरे पेड़ को ध्यान से देखा, तो यह पता चला कि हम सब पेड़ को लेकर काफी समय से परेशान क्यों थे। परेशान थे, लेकिन समझ नहीं पा रहे थे कि पेड़ सूखता क्यों जा रहा है। पतझड़ न होने के बावजूद उसके पत्ते पीले पड़-पड़कर झड़ते क्यों जा रहे हैं? खाद-पानी देने पर भी पेड़ हरा-भरा क्यों नहीं हो रहा है? कारण यह था कि पेड़ के तने के पिछले हिस्से में, जो चारदीवारी से सटा था और सामने से दिखायी नहीं देता था, न जाने कब दीमक लग गयी थी और उस तरफ से तना खोखला हो चुका था। खोखला और इतना कमजोर कि आँधी का झटका झेल नहीं पाया, टूट गया। 

श्यामा के बढ़ई पति रामकुमार ने पहले तो पेड़ की टहनियाँ काट-काटकर फेंकीं और फिर तने पर आरी चलाते हुए कहा, ‘‘तनिक भी जान बाकी नहीं रही इसमें। निरा काठ हो चुका है!’’ 

मैंने कहा, ‘‘तो तने को आरी से काट क्यों रहे हो? उखाड़कर फेंक दो न!’’ रामकुमार ने कहा, ‘‘अगर जमीन में इसकी जड़ें सही-सलामत हैं, तो किसी दिन इस काठ में से कोई कल्ला फूट सकता है और उससे जामुन का एक नया पेड़ बन सकता है।’’ 

उसने तने को टूटी हुई जगह पर इतनी सफाई से काटा कि वह बैठने लायक बन गया। हम कटे हुए तने को काठ की कुर्सी कहने लगे। श्यामा के बच्चे लाॅन में खेलते समय उस पर कूदकर चढ़ते-उतरते थे और खेल-खेल में कभी राजा बनकर न्याय करने, तो कभी मास्टर बनकर पढ़ाने के लिए बैठते थे। मैं भी कभी-कभी जाकर उस पर बैठ जाती थी। 

उस दिन मुझे लगा कि काठ की कुर्सी मुझे बुला रही है। मैं उठी और उस पर बैठने के लिए चल दी। लेकिन पास पहुँची, तो चकित, विस्मित और इतनी हर्षित हो उठी कि वहीं से चिल्लायी, ‘‘पापा...पापा...जल्दी आइए, आपको एक चीज दिखाऊँ!’’ 

पापा आये, तो मैंने उन्हें दिखाया कि काठ की कुर्सी में से एक कल्ला फूट आया है, जिसके सिरे पर एक बहुत ही प्यारी कोंपल निकली हुई है। पापा ने देखा और प्रसन्न होकर कह उठे, ‘‘वाह! काठ में कोंपल!’’ और मुझसे हाथ मिलाकर बोले, ‘‘बधाई हो!’’ 

धीरे-धीरे मैं स्वयं को स्वस्थ और प्रसन्न अनुभव करने लगी। मयंक के साथ की और उसके बाद की स्थितियों पर विचार करती, तो गर्भपात वाला दिन अवश्य याद आता, लेकिन विचित्र बात यह थी कि उस दिन की स्मृति में मयंक बिलकुल अप्रासंगिक हो जाता और मन में पापा के प्रति गर्वमिश्रित प्यार उमड़ आता। लगता, जैसे उन्होंने मुझे फिर से एक नया जन्म और जीवन दिया है। साथ ही एक कर्तव्य-बोध जैसा भी होता कि मुझे अपना यह नया जन्म सार्थक करना है, नया जीवन बेहतर तरीके से जीना है। 

अब पापा जब अपना लिखा पढ़कर सुनाते, तो मैं पूरी रुचि के साथ सुनती। बीच-बीच में उन्हें टोककर तरह-तरह के प्रश्न करती, अपनी राय व्यक्त करती, जिसमें कभी प्रशंसा होती, तो कभी आलोचना भी। फिर तो उनकी पुस्तक के विषय में मेरी रुचि इतनी बढ़ी कि मैं घर में अपने काम की कोई किताब न पाकर बाजार से खरीदकर लाने लगी। 

एक दिन मैं खान मार्केट में पुस्तकों की एक दुकान पर गयी। दुकानदार से पर्यावरण संबंधी एक पुस्तक के बारे में पूछ रही थी कि अचानक दुकान के अंदर पुस्तक उलटते-पलटते एक व्यक्ति पर मेरी नजर पड़ी। हुलिया कुछ बदला हुआ था--शर्ट-पैंट की जगह खादी का कुरता-पाजामा और सफाचट चेहरे की जगह दाढ़ी-मूँछ--लेकिन पहली नजर में ही मैं उसे पहचान गयी। बसंत! सिर से पाँव तक एक सुखद सिहरन मेरे भीतर दौड़ गयी। वर्षों बाद अचानक उसे देखकर मैं अस्थिर-सी हो गयी। समझ नहीं पा रही थी: उसे देखती रहूँ या नजरें फेर लूँ? खड़ी रहूँ या वहाँ से चल दूँ? पुकारे जाने की प्रतीक्षा करूँ या पुकार लूँ? 

तभी वह दुकानदार से कुछ पूछने के लिए मुड़ा और मुझे देखकर चैंक गया। आगे बढ़कर बोला, ‘‘अरे ...तुम?’’ 

मैंने कहा, ‘‘हाँ, मैं दीक्षा।’’ उसने मुझे नाटकीय ढंग से निहारते हुए कहा, ‘‘बिलकुल अपनी माँ जैसी हो गयी हो--सुंदर! शानदार!’’ मेरी स्मृति में क्षणांश के लिए वह दृश्य कौंध गया, जब माँ ने उसके मुँह पर दरवाजा भड़ाक् से बंद किया था। मैंने कहा, ‘‘माँ के उस दिन के व्यवहार के लिए मैं आपसे क्षमा चाहती हूँ।’’ उसने आँखें सिकोड़कर पूछा, ‘‘किस दिन के...?’’ और हँस पड़ा, ‘‘अच्छा, उस दिन के? यानी तुम्हें किसी ने बताया नहीं कि वह मामला तो अगले दिन ही रफा-दफा हो गया था?’’ मैंने चकित होकर पूछा, ‘‘कैसे?’’ तो उसने दुकान से बाहर निकलकर कहा, ‘‘वहाँ सामने बहुत अच्छी काॅफी मिलती है, पियोगी?’’ 

काॅफी पीते हुए उसने बताया कि उन दिनों वह मेरे प्रति एक विकट सम्मोहन की स्थिति में जा पहुँचा था। जानता था कि अपने गुरु की बेटी से, जो उससे आठ-नौ साल छोटी है, प्रेम करना ठीक नहीं है। अनुचित है। अनैतिक है। लेकिन लाख समझाने पर भी उसका मन मानता ही नहीं था। मेरा खयाल उसके दिमाग से उतरता ही नहीं था। इसीलिए कोई काम हो या न हो, वह पापा से मिलने चला आता था। मुझसे बात नहीं करता था, लेकिन मुझे देखने के लिए तड़पता रहता था। एक बार आने पर मैं उसे दिखायी न देती, तो उसी दिन दूसरी बार आ जाता। मानो किसी तरह मेरी एक झलक ही देखने को मिल जाये, तो उसका जीवन धन्य हो जाये। पापा ने तो शायद इस पर ध्यान नहीं दिया, लेकिन माँ समझ गयीं और...

‘‘तो मामला रफा-दफा कैसे हुआ?’’ मैंने पूछा, तो उसने कहा, ‘‘अगले दिन सर ने मुझे इतिहास विभाग में मिलने के लिए बुलाया। मैम भी वहीं थीं। दोनों मुझे काॅफी हाउस ले गये। सामने बिठाकर समझाया कि मैं ही नहीं, तुम भी अपनी किशोर भावुकता में मेरे लिए पागल हो। मैं तो समझदार हूँ, पढ़ाई पूरी कर चुका हूँ, लेकिन तुम्हारा पागलपन तुम्हारी पढ़ाई-लिखाई चैपट कर देगा। इसलिए मुझे तुमसे दूर ही रहना चाहिए। सर और मैम बारी-बारी से कुछ कह रहे थे, लेकिन मैं वह सब नहीं, एक ही बात बार-बार सुन रहा था कि तुम भी मेरे लिए पागल हो। वे तुम्हारे पागलपन की बात कर रहे थे और मैं अपने पागलपन को समझ रहा था। समझ रहा था और मुझे इतना अच्छा लग रहा था कि मैं एक ही साथ स्वयं को भाग्यशाली और संजीदा और समझदार और जिम्मेदार महसूस करते हुए फैसला कर रहा था कि अब तुम्हारे घर नहीं जाऊँगा।’’ 

मैंने कुछ शरारत के-से अंदाज में कहा, ‘‘उस दिन जो दरवाजा आपके लिए बंद हुआ था, अगर फिर से खुल जाये?’’ काॅफी के प्याले को मुँह की ओर ले जाता उसका हाथ वहीं थम गया। उसने मेरी आँखों में देखा और मुस्कराया, ‘‘तो मैं उस घर में जरूर आना चाहूँगा।’’ मैंने पूछा, ‘‘अकेले आयेंगे या किसी के साथ?’’ मेरा अभिप्राय समझकर वह मुस्कराया, ‘‘मैं तो अभी तक अकेला ही हूँ। तुम?’’ मैंने कहा, ‘‘मैं भी।’’ 

मैंने उसके कामकाज के बारे में पूछा, तो उसने कहा, ‘‘एक बार मैं एक न्यूज चैनल में काम करने वाले अपने एक कैमरामैन मित्र के साथ विदर्भ चला गया, जहाँ के गाँवों में जाकर उसे किसान आत्महत्याओं के बारे में कुछ शूटिंग करनी थी। वहाँ उसके साथ घूमते-फिरते एक दिन मैंने आंदोलनकारी किसानों की एक रैली में एक युवा किसान नेता का भाषण सुना। उसकी बातें मुझे इतनी नयी और अच्छी लगीं कि मैंने अपने मित्र से कहा कि इसे रिकाॅर्ड कर लो। वापस दिल्ली आकर मैंने उसका एक वीडियो बनाया और यूट्यूब पर डाल दिया। उसे दुनिया भर में देखा और सराहा गया।’’ 

‘‘ऐसा क्या था उसमें?’’ मैंने पूछा, तो उसने बताया, ‘‘उस युवा किसान नेता का कहना था कि हम सरकार की गलत नीतियों के चलते अपनी खेती-किसानी पर हावी हो बैठी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के गुलाम होकर रह गये हैं। सरकार विकास की बात करती है, लेकिन उसके विकास का मतलब है गाँवों को उजाड़कर बड़े शहर बसाना, बड़े उद्योग लगाना, खेती को बड़े पैमाने पर कराना और इसके लिए जरूरी बड़ी पूँजी जुटाने के लिए इन सारे कामों को बड़े पूँजीपतियों और बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सौंप देना। इन कामों को करने के लिए छोटे किसानों को, ग्रामीणों को और आदिवासियों को उजाड़ देना। खेती को इतना महँगा कर देना कि किसान हमेशा कर्ज में डूबा रहे और आत्महत्या करता रहे। क्या यह विकास है? नहीं। यह विकास नहीं, विनाश है। और हम किसानों का तो सर्वनाश है। लेकिन अब हम अपना सर्वनाश नहीं होने देंगे। हम  खेती-बाड़ी की नीतियाँ खुद बनायेंगे। हम कौन-सी फसलें उगायें, कौन-से बीज बोयें, कौन-सी खाद डालें और किन तरीकों से खेती करें, यह सब हम तय करेंगे। अपनी उपज का मूल्य भी हम ही तय करेंगे। लेकिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों की कठपुतली सरकार हमें आसानी से ऐसा करने नहीं देगी। इसके लिए हमारा जो मजबूत संगठन बनना चाहिए, वह आसानी से बनने नहीं देगी। इसके लिए वह हमें स्वार्थी और अकेला बनायेगी कि हम सिर्फ अपने बारे में सोचें, अपनी समस्याओं को खुद ही हल करने की कोशिश करें और न कर पायें, तो आत्महत्या कर लें।’’ 

‘‘वाह! आपको तो उसका पूरा भाषण याद है!’’ मैंने कहा, तो बसंत ने हल्की-सी झेंप के साथ कहा, ‘‘इसका 
वीडियो बनाते और बार-बार लोगों को दिखाते हुए मैंने इस भाषण को इतनी बार सुना है कि यह मुझे जबानी याद हो गया है। लेकिन पूरा भाषण सुनाकर मैं तुम्हें बोर नहीं करूँगा, बस वह बात सुन लो, जिसके कारण वीडियो लोगों को, दुनिया भर के करोड़ों लोगों को पसंद आया। उस युवा किसान नेता ने कहा--‘किसान की आत्महत्या को उसकी निजी समस्या के रूप में न तो समझा जा सकता है, न हल ही किया जा सकता है। उसको हमें हम सबकी साझी समस्या के रूप में समझना होगा। मगर सरकार नहीं चाहती कि हम अपनी समस्याओं को एक साथ मिलकर सबकी साझी समस्याओं के रूप में समझें। इसलिए वह हमें आपस में लड़ाती है। कभी जाति के नाम पर, तो कभी धर्म के नाम पर। कभी मंदिर के नाम पर, तो कभी मस्जिद के नाम पर। वह समाज में हिंसा भड़काती है और फिर उस हिंसा को खत्म करने के नाम पर खुद सबसे बड़ी हिंसा करती है। लेकिन अब हम उसके इस खेल को समझेंगे और इसे जारी नहीं रहने देंगे। हम किसी की हत्या नहीं करेंगे, लेकिन आत्महत्या भी नहीं करेंगे, क्योंकि आत्महत्या भी हत्या ही है।’ यह बात लोगों को पसंद आयी। उस वीडियो को मिली सफलता से उत्साहित होकर मैंने अपने कैमरामैन मित्र से कहा कि आओ, अपनी एक टीम बनायें और कुछ डाॅक्यूमेंटरी फिल्में बनायें। फिल्में भी सफल रहीं। अब मैं यही काम करता हूँ। सर को मेरा काम पसंद है।’’ 

‘‘पापा को? कैसे?’’ मैंने पूछा, तो इत्मीनान से अपनी काॅफी खत्म करके उसने जवाब दिया, ‘‘एक दिन मैं सर को अपने घर ले गया। उन्हें अपनी फिल्में दिखायीं। वे बहुत खुश हुए और उन्होंने मुझे एक सुझाव दिया, जो मुझे जँच गया। उन्होंने कहा कि भविष्य में ये फिल्में इतिहास लिखने के लिए बहुत अच्छी स्रोत सामग्री हो सकती हैं। आज का मीडिया किसानों और मजदूरों को अछूत मानता है। वह उनके जीवन को, संघर्षों को, आंदोलनों को दिखाता ही नहीं है। मानो उनका कोई अस्तित्व ही नहीं है। अगर तुम सारे देश में घूम-घूमकर यह काम कर सको, तो बहुत बड़ा ऐतिहासिक काम होगा। मैंने उनसे कहा कि सर, इस काम के लिए मैं पूरे देश में तो क्या, पूरी दुनिया में घूम सकता हूँ। यह सुनकर सर ने कहा--तब तो तुम फाह्यान, इब्न बतूता, मार्को पोलो, बर्नियर, ट्रैवर्नियर जैसे घुमक्कड़ इतिहासकारों के वंशज बनकर निकल पड़ो। उन्होंने अपने इतिहास कलम से लिखे, तुम अपना इतिहास कैमरे से लिखो। उन्होंने यह भी कहा कि आज हम इतिहास के बहुत ही महान दौर से गुजर रहे हैं। एक तरफ दुनिया के नष्ट हो जाने की विकट आशंका है, तो दूसरी तरफ यह प्रबल संभावना कि दुनिया बनी रहेगी और बेहतर भी बनेगी। सर पक्के आशावादी हैं। बोले--मुझे लगता है कि पुरानी विश्व-व्यवस्था के काठ में से एक नयी विश्व-व्यवस्था की कोंपल फूट रही है। उसे देखना और दिखाना हम इतिहासकारों का काम है।’’ 

मैं एकटक उसकी ओर देखती हुई उसे सुन रही थी और शायद मुस्करा भी रही थी। यह देखकर वह सचेत-सा होकर बोला, ‘‘अरे, मैं ही बोले जा रहा हूँ, तुम भी तो अपने बारे में कुछ बताओ!’’ मैंने मयंक वाले प्रसंग से लेकर नौकरी छोड़ देने तक के बारे में सब कुछ बताया और कहा, ‘‘आजकल बेरोजगार हूँ। क्या मैं आपकी टीम में शामिल हो सकती हूँ?’’ बसंत खुश हो गया, ‘‘वाह! नेकी और पूछ-पूछ! अभी तक हमारी टीम में कोई लड़की नहीं है। तुम आ जाओगी, तो कमेंटरी और इंटरव्यूज तुम से ही करायेंगे। हमारी फिल्मों के रूखे-सूखे यथार्थ में भी कुछ ग्लैमर आ जायेगा।’’ 

उस मुलाकात के बाद बसंत घर आने लगा और हम बाहर भी मिलने लगे। 

अब, या तो यह मात्र संयोग था, या पापा ने उसे पहले से बता रखा था, वह उस दिन भी आया, जिस दिन माँ तीन साल का प्रवास पूरा करके पोलैंड से लौटीं। माँ उसे देखकर प्रसन्न हुईं। मुझे लगा कि पापा फोन पर माँ को मेरे और बसंत के बारे में बताते रहे हैं। इसलिए जब उसने माँ और पापा से कहा कि हम दोनों शादी करना चाहते हैं, तो माँ ने हँसकर कहा, ‘‘मेरी बेटी ने भी मेरी ही तरह उम्र में काफी बड़ा लड़का ढूँढ़ा है।’’ लेकिन अगले ही पल संजीदा होकर बोलीं, ‘‘सुनो, बसंत, बाद में तुम्हें पता चले, इससे बेहतर है कि पहले ही बता दिया जाये। दीक्षा एक लड़के से...’’ माँ की बात पूरी होने के पहले ही बसंत हँस पड़ा। बोला, ‘‘वह मयंक वाला किस्सा, मैम? दीक्षा उसके बारे में, अपने गर्भपात तक के बारे में, मुझे सब कुछ बता चुकी है। आप डरें नहीं, हम किसी बीते कल के लोग नहीं, आने वाले कल के लोग हैं। और थोड़े-से पागल भी। आप ने ही तो एक दिन हम दोनों को पागल कहा था!’’ पापा ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘अरे, बसंत, बुरा न मानो! ये तो मुझे भी पागल कहती रहती हैं।’’ माँ भी मुस्करायीं, ‘‘तो ठीक है। तुम सारे पागलों के बीच अकेली समझदार मैं तुम सब को आशीर्वाद देती हूँ--खुश रहो!’’

और मैं खुश हूँ। अब मैं बसंत के साथ दुनिया देखने वाली, कैमरे से इतिहास लिखने वाली, एक घुमक्कड़ इतिहासकार हो गयी हूँ। मैं देख रही हूँ कि आज की दुनिया को बेहतर बनाने के लिए लोग हर देश में तरह-तरह के आंदोलन चला रहे हैं और एक उम्मीद जगा रहे हैं कि यह दुनिया सचमुच बेहतर बनायी जा सकती है। वे जन-आंदोलनों के जरिये दुनिया का नया इतिहास लिख रहे हैं और हम उन आंदोलनों की डाॅक्यूमेंटरी फिल्में बनाकर कैमरे के जरिये उनका इतिहास लिख रहे हैं।


Friday, January 25, 2019

"मेरे आशावाद का आधार है भूमंडलीय यथार्थवाद"

'परिकथा' पत्रिका के जनवरी-फरवरी, 2019 के अंक में संपादक शंकर द्वारा लिया गया इंटरव्यू

शंकर : रमेश जी, आप 1970 के आसपास उभरे एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक व्यक्तित्व हैं। आपने स्तरीयता और मात्रा दोनों ही दृष्टियों से पर्याप्त से अधिक रचनाकर्म किया है। आपने जितना रचनात्मक लेखन किया है, उतना ही आलोचना कर्म भी किया है। आपने न सिर्फ साहित्यिक आलोचना, बल्कि समाज और संस्कृति के जरूरी प्रश्नों पर सशक्त समाजशास्त्रीय आलोचना भी की है। समाजशास्त्रीय आलोचना का आपका काम तो इतना विशिष्ट है कि रचनात्मक लेखन करने वाला आपके साथ का या आपके बाद का भी कोई दूसरा लेखक उसकी बराबरी में नहीं दिखायी पड़ता है। आपने कई प्रचलित अवधारणाओं पर अपनी नयी स्थापना दी, कई मौलिक व्याख्याएँ दीं। साहित्य के समाजशास्त्रीय पक्ष को सर्वोपरि मानने और बताने में आपने अपनी तर्कशक्ति लगायी, अनेक बहसों में हिस्सेदारी निभायी, नयी बहसें शुरू कीं। आपने अपनी बातें बिना लाग-लपेट के रखीं। जो बात अच्छी नहीं लगी, उसे अच्छा नहीं बताया, असहमति जाहिर की; और जो बात अच्छी लगी, उसका खुलकर समर्थन किया। आपकी निर्भीकता और साहस के अनेक दृष्टांत आपके समूचे लेखन में मौजूद हैं। जहाँ आवश्यक होता है, आप अपनी आलोचना करने में भी पीछे नहीं रहते। आपके जीवन और लेखन में ऐसी पारदर्शिता है कि गलतफहमी के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। फिर भी, जैसा कि हर लेखक आम तौर पर कभी न कभी सोचता है, क्या आपको कभी यह सोचने की जरूरत महसूस हुई कि दूसरों ने आपके कृतित्व को सही तरह से या अच्छी तरह से नहीं समझा? 

रमेश उपाध्याय : (हँसकर) शंकर जी, मुझे तो यह लगता है कि दूसरे मुझे मुझसे ज्यादा समझते हैं। उनसे मुझे अपने बारे में कई ऐसी बातें पता चलती हैं कि मैं चकित रह जाता हूँ। फिर भी, अगर कभी ऐसा लगता है कि मुझे गलत समझा जा रहा है, तो मैं मन ही मन दुखी होते रहने या पीठ पीछे शिकायतें करने के बजाय साफ-साफ कह देता हूँ कि महोदय, आप मुझे गलत समझ रहे हैं। या महोदया, आप मुझे गलत समझ रही हैं। (ठहाका) 

शंकर : आपके संस्मरणों से पता चलता है कि पारिवारिक परिस्थितियों के चलते हाई स्कूल के बाद आपको पढ़ाई छोड़कर प्रेस में कंपोजीटर का काम करना पड़ा। लेकिन आपने पढ़ना जारी रखा, प्राइवेट परीक्षाएँ दीं और धीरे-धीरे एम.ए. और पीएच.डी. करके दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक-प्रोफेसर बने। जाहिर है, आपके लेखकीय मानस के निर्माण में आपके इन जीवन-संघर्षों की भूमिका रही है। आप इसे किस तरह व्यक्त करना चाहेंगे? 

रमेश उपाध्याय : मैं ‘जीवन-संघर्षों’ की जगह ‘जीवन-अनुभवों’ की बात करना चाहूँगा। संघर्ष से ऐसा लगता है कि जैसे आप किसी रणभूमि में शत्रुओं से लड़-भिड़कर विजयी हुए हैं, जबकि अनुभव लोगों से मिल-जुलकर, उनके साथ प्रेमपूर्वक जीने से प्राप्त होते हैं। मैं सोचता हूँ कि मेरी पारिवारिक परिस्थितियाँ यदि सामान्य होतीं, मैंने सामान्य ढंग से शिक्षा पायी होती, सामान्य ढंग से नौकरी पाकर और सामान्य ढंग से गृहस्थी बसाकर सामान्य जीवन जिया होता, तो आज मैं क्या होता? जो भी होता, शायद लेखक न होता और लेखक होता भी, तो शायद वैसा लेखक न होता, जैसा मैं हूँ। मुझे तो लगता है कि मैंने एक बँधी-बँधायी जिंदगी से जल्दी ही मुक्ति पाकर आजादी से जीते हुए, खूब यात्राएँ करते हुए, तरह-तरह के लोगों के संपर्क में आते हुए और तरह-तरह की परिस्थितियों से गुजरते हुए जो अनुभव प्राप्त किये, वे एम.ए. और पीएच.डी. से कहीं ज्यादा शिक्षाप्रद थे। मैंने राजस्थान विश्वविद्यालय से एम.ए. और दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की, लेकिन जैसे गोर्की की आत्मकथा के एक खंड का नाम है ‘मेरे विश्वविद्यालय’, वैसे ही मेरे वास्तविक विश्वविद्यालय तो वे शहर रहे, जहाँ मैं रहा और जिन्होंने मुझे प्रेम से अपनाया। मेरे वास्तविक शिक्षक तो वे लोग रहे, जिनके साथ मैं रहा और जिनसे मैंने नितांत अजनबी होते हुए भी भरपूर प्यार पाया। 

शंकर : आपने लेखन की शुरुआत कहानियों से की थी। आपने जिस समय लिखना शुरू किया, उस समय तक आप विचारधारात्मक रूप से सजग या प्रबुद्ध हो चुके थे या आपकी सजगता लिखने के दौरान बाद में आयी?

रमेश उपाध्याय : मेरी पहली कहानी बीस साल की उम्र में, 1962 में छपी थी। बीस साल का लड़का विचारधारात्मक रूप से बहुत सजग या प्रबुद्ध तो नहीं हो सकता, लेकिन चैदह साल की उम्र में पढ़ाई छोड़कर परिवार की जिम्मेदारी उठा लेने वाला लड़का, कई शहरों में मेहनत-मजदूरी करने वाला लड़का, टेªड-यूनियन वगैरह के अनुभवों से गुजरा हुआ लड़का, प्रेमचंद और दूसरे प्रगतिशील लेखकों के लेखन से प्रभावित लड़का चाहे किसी विचारधारा से प्रतिबद्ध न हो, वर्गीय पक्षधरता के कुछ पाठ तो पढ़ ही चुका था, जिनका असर आप मेरी पहली कहानी ‘एक घर की डायरी’ पर देख सकते हैं। बाकी सजगता बाद में लिखने के दौरान ही आयी। 

शंकर : आपकी कहानियों से गुजरते हुए जो चीज सबसे पहले और सबसे अधिक आकर्षित करती है, वह है विविधता। आपकी शायद ही कोई दो कहानियाँ एक जैसी हों। आपकी कहानियों में गाँव हैं, कस्बे हैं, शहर हैं और महानगर भी हैं। आपकी कहानियों के पात्रों में किसान हैं, मजदूर हैं, तरह-तरह के काम करने वाले मध्यवर्गीय लोग हैं और उच्चवर्गीय शासक लोग भी हैं। स्त्रियों में शिक्षित और अशिक्षित, विवाहित और अविवाहित, विधवाएँ और परित्यक्ताएँ, शहरी और ग्रामीण, मेहनत-मजदूरी करने वाली या नौकरी-चाकरी करने वाली, उच्चवर्गीय या शासकवर्गीय स्त्रियाँ भी हैं। उनमें बच्चे हैं, किशोर हैं, युवा हैं, प्रौढ़ हैं और वृद्ध भी हैं। फिर, आपकी कहानियों में पात्रों की पृष्ठभूमि, परिस्थितियों और उनकी निजी विशेषताओं से संबंधित भिन्नताएँ और विचित्रताएँ भी हैं। यह विविधता आपकी कहानियों में अनायास आयी है या सायास लायी गयी है? 

रमेश उपाध्याय : शंकर जी, मैंने अब तक के अपने आधी सदी से अधिक के लेखन काल में दो सौ से अधिक कहानियाँ लिखी हैं। मगर मुझे या मेरे पाठकों को कभी ऐसा नहीं लगा कि मैं स्वयं को दोहरा रहा हूँ। लेकिन मेरी कहानियों में विविधता सायास लायी गयी नहीं है, अनायास ही आयी है। मैं समझता हूँ, इसके दो कारण हैं। एक यह कि मैं बहुत-से भिन्न परिवेशों और परिस्थितियों में जिया हूँ, मैंने विभिन्न प्रकार के काम किये हैं, विभिन्न प्रकार के लोगों के साथ जीवन जिया है। और दूसरा यह कि मैं अक्सर अपने आसपास के यथार्थ में अचानक मिल जाने वाली नयी चीजों से प्रेरित होकर कहानी लिखता हूँ। मुझे नयी चीजें, जैसे कहानी के नये विषय, खोजने के लिए कहीं जाना नहीं पड़ता। वास्तव में वे यथार्थ में पहले से मौजूद होती हैं। लेकिन मुझे उनके होने का ज्ञान या अनुभव नहीं होता। जब किसी नयी चीज का सहसा ज्ञान या अनुभव होता है, तो मैं चकित रह जाता हूँ। मसलन, आप जिस रास्ते से रोजाना आते-जाते हों, उसके किनारे खड़ा कोई पेड़ या मकान आपको पहली बार दिखे, या आपका ध्यान खींच ले, और आप विस्मित हो जायें कि अरे, यह यहाँ कहाँ से आ गया! हमारे जीवन में, हमारे आसपास के लोगों में, उनकी बातों में, उनकी भाषा में, उस भाषा में व्यक्त होने वाले उनके संबंधों में और उन संबंधों में नित्यप्रति होने वाले बदलावों में मेरे ज्ञान और अनुभव से बाहर की इतनी चीजें होती हैं कि मैं हैरान रह जाता हूँ और सोचता हूँ कि जीवन के इस पक्ष को या मनुष्य के इस रूप को मैंने पहले क्यों नहीं देखा! और मेरी यह हैरानी मुझे एक नयी कहानी लिखने के लिए प्रेरित करती है। चूँकि यह प्रेरणा पहले की प्रेरणाओं से भिन्न होती है, इसलिए वह कहानी भी पहले की कहानियों से भिन्न होती है। 

शंकर : आपकी कहानियों में कथ्य की ही नहीं, रूप और शिल्प की विविधता भी खूब है। जैसे कि आप कहीं परंपरागत आख्यान वाली कहानी लिखते हैं, तो कहीं उस आख्यान में नये-नये प्रयोग करते हैं। कभी ‘पैदल अँधेरे में’ और ‘चिंदियों की लूट’ जैसी छोटी-छोटी सूक्ष्म सांकेतिक कहानियाँ लिखते हैं, तो कभी ‘अंधा कुआँ’ और ‘पानी की लकीर’ जैसी विस्तृत विवरणों वाली लंबी कहानियाँ। कभी पौराणिक आख्यानों को नया रूप देकर नये अर्थों-संदर्भों वाली ‘कल्पवृक्ष’, ‘कामधेनु’ और विश्वामित्र वाली ‘प्रतिसृष्टि’ जैसी कहानियाँ लिखते हैं, तो कभी लोककथा वाले रूप में ‘प्रजा का तंत्र’ और ‘मायानगरी में एक दिन’ जैसी कहानियाँ। कभी हास्य-व्यंग्य वाली ‘दूसरी पत्नी’ और ‘परथम श्रेणी सबको दो!’ जैसी कहानियाँ लिखते हैं, तो कभी ‘मेरे दोस्त का सपना’ या ‘एक झरने की मौत’ जैसी करुण कहानियाँ। और आपकी प्रयोगशीलता का सबसे बड़ा प्रमाण तो है आपकी कहानी-शृंखला ‘किसी देश के किसी शहर में’, जिसमें आपने लोककथा के शिल्प में यथार्थ और फैंटेसी तथा व्यंग्य और विडंबना के अद्भुत प्रयोग किये हैं। ऐसी कहानी-शंृखला हिंदी कहानी में न आपसे पहले किसी ने लिखी है, न आपके बाद के किसी लेखक ने। तो यह बताइए कि कहानी में ऐसे प्रयोग करने की आवश्यकता आप क्यों महसूस करते हैं? 

रमेश उपाध्याय : देखिए, हिंदी कहानी में यथार्थवाद और यथार्थवादी कहानी को लेकर बहुत सारे विभ्रम फैले हुए हैं। जैसे आम तौर पर यह माना जाता है कि यथार्थ और कल्पना परस्पर-विरोधी हैं, इसलिए यथार्थवादी कहानी में कल्पना या फैंटेसी का, अलौकिक चीजों या पौराणिक पात्रों का कोई काम नहीं। फिर, यह भी माना जाता है कि यथार्थ रूखा-सूखा, रूप-रस-गंध-स्पर्श आदि के आनंद से रहित होता है, इसलिए यथार्थवादी कहानी में इन सब चीजों का और हास-परिहास का या व्यंग्य-विनोद का कोई काम नहीं। लेखक ने जो देखा है, उसी को यथावत लिख देना, या उसने जो जिया-भोगा है, उसी को लिख देना यथार्थवादी कहानी लिखना माना जाता है, चाहे ऐसी कहानी महाबोर और नितांत अपठनीय ही क्यों न हो। ब्रेख्त की तरह मेरा मानना है कि यथार्थ को किसी एक ही तरीके से नहीं, हजारों तरीकों से व्यक्त किया जा सकता है। हाँ, इसमें नये प्रयोगों के असफल हो जाने की जोखिम है, पर यह जोखिम उठाये बिना आप साहित्य में नया क्या कर सकते हैं? 

शंकर : आपकी शुरू की कहानियों में, मसलन ‘आने वाले के लिए’, ‘आत्मघात’, ‘दूसरी पवित्रा’, ‘शेष इतिहास’, ‘पानी की लकीर’, ‘पैदल अँधेरे में’, ‘बराबरी का खेल’, ‘माटीमिली’, ‘देवीसिंह कौन?’ आदि में, आपकी लेखकीय पक्षधरता या वैचारिक प्रतिबद्धता कहानी में अंतर्धारा के रूप में मौजूद है, जबकि आपकी बाद की कहानियों में, जैसे ‘प्राइवेट पब्लिक’, ‘त्रासदी...माइ फुट!’, ‘अर्थतंत्र’ या ‘हम किस देश के वासी हैं’ आदि में उसकी मुखरता ज्यादा है। संभव है, बाद की इन कहानियों को लिखते हुए आपने महसूस किया हो कि बिना मुखर हुए कहानी के माध्यम से जो बात कही जानी है, वह नहीं कही जा सकेगी। आप इन कहानियों को किस रूप में देखते हैं? 

रमेश उपाध्याय : देखिए, कहानी में लेखकीय पक्षधरता या वैचारिक प्रतिबद्धता का अंतर्निहित रहना या खुलकर व्यक्त होना, या कहानी का सूक्ष्म अथवा स्थूल होना, या अंग्रेजी में कहें तो उसका सटल या लाउड होना कई चीजों पर निर्भर करता है। जैसे, कहानी के लिखे जाने के समय का सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक वातावरण। मैंने जिस समय कहानियाँ लिखना शुरू किया, राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के समय जनता द्वारा देखे गये स्वप्नों के भंग होने का समय था, जिसे साहित्य में मोहभंग कहा जाता था। हालाँकि मध्यवर्ग में देश के नवनिर्माण से बेहतर भविष्य या समाजवादी समाज बनने की आशाएँ मौजूद थीं, सरकारी नौकरियाँ आसानी से मिल जाती थीं, पत्रकारिता और प्रकाशन जगत में आज की-सी व्यावसायिकता नहीं थी और पत्र-पत्रिकाओं के संपादक प्रायः साहित्यकार हुआ करते थे। लाखों की पाठक संख्या वाले ‘धर्मयुग’ और ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ जैसे साप्ताहिक पत्रों और टाइम्स आॅफ इंडिया तथा हिंदुस्तान टाइम्स जैसे बड़े प्रकाशन समूहों से निकलने वाली ‘सारिका’ और ‘कादंबिनी’ जैसी मासिक पत्रिकाओं में भी साहित्य के लिए काफी जगह होती थी। फिर, इनके साथ-साथ ‘कल्पना’, ‘लहर’, ‘माध्यम’, ‘ज्ञानोदय’, ‘कहानी’, ‘नयी कहानियाँ’ आदि साहित्यिक पत्रिकाएँ भी थीं, जिनमें नये-पुराने सभी तरह के लेखक अपना मनचाहा लिख सकते थे। उदाहरण के लिए, ‘नयी कहानी’ आंदोलन के समय परिमल वाले धर्मवीर भारती ‘धर्मयुग’ में प्रगतिशील लेखकों की और प्रगतिशील भैरवप्रसाद गुप्त ‘कहानी’ और ‘नयी कहानियाँ’ में गैर-प्रगतिशील लेखकों की भी कहानियाँ सम्मान के साथ प्रकाशित करते थे। इसलिए रचना में लेखकीय पक्षधरता या वैचारिक प्रतिबद्धता का मुखर होना या न होना ज्यादा मायने नहीं रखता था। मगर बाद में, जब सामाजिक-राजनीतिक जीवन में निराशा छाने लगी, युवाओं में कुछ देशी-विदेशी प्रभावों से विद्रोह के स्वर उभरने लगे, शीतयुद्ध की राजनीति के तहत साहित्य में खेमेबंदी होने लगी, तब वाम राजनीति और विचारधारा पर आक्रमण होने लगे। कम्युनिस्ट आंदोलन में विभाजन-दर-विभाजन से भी साहित्यिक वातावरण बहुत बदला। ‘बड़ी’ पत्रिकाओं के विरुद्ध ‘लघु’ पत्रिकाओं का आंदोलन शुरू हुआ। और फिर आया आपातकाल, जिसमें लेखकों ने पाया कि लिखने-बोलने की आजादी पर लगे हुए जो प्रतिबंध पहले नजर नहीं आते थे, अब स्पष्ट होकर लेखन को बाधित और नियंत्रित करने लगे हैं। हिंदी कहानी इन परिवर्तनों से अप्रभावित कैसे रह सकती थी? मेरी कहानियाँ भी अप्रभावित नहीं रहीं। आपने मेरी जिन तीन कहानियों--‘प्राइवेट पब्लिक’, ‘त्रासदी...माइ फुट!’ और ‘हम किस देश के वासी हैं’--में ज्यादा मुखरता देखी है, वे तीनों कहानियाँ निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण की प्रक्रियाओं में बदलते हुए भूमंडलीय यथार्थ की कहानियाँ हैं। इन कहानियों में जो यथार्थ है, वह लेखकीय पक्षधरता और वैचारिक प्रतिबद्धता की मुखरता के बिना व्यक्त किया ही नहीं जा सकता था। 

शंकर : आपको अपनी कहानियों में से कौन ज्यादा प्रिय हैं? 

रमेश उपाध्याय : यह बताना बहुत मुश्किल है। फिर भी, जिन कहानियों के नाम आपने लिये हैं, वे तो मुझे पसंद हैं ही, उनके अलावा भी कई कहानियाँ मुझे अपनी दूसरी कहानियों से ज्यादा पसंद हैं। जैसे, ‘गलत-गलत’, ‘ब्रह्मराक्षस’, ‘कहीं जमीन नहीं’, ‘नदी के साथ एक रात’, ‘कामधेनु’, ‘दूसरा दरवाजा’, ‘अविज्ञापित’, ‘डाॅक्यूड्रामा’, ‘लाला बुकसेलर’, ‘एक झरने की मौत’ आदि। इससे याद आया कि जब कमलेश्वर साहित्य अकादमी के लिए ‘बीसवीं सदी की हिंदी कथा-यात्रा’ का संपादन कर रहे थे, उन्होंने फोन करके मुझसे पूछा था कि मेरे संग्रह ‘डाॅक्यूड्रामा तथा अन्य कहानियाँ’ में मुझे कौन-सी कहानी ज्यादा पसंद है। मेरे लिए अपने एक संग्रह में भी अपनी सबसे प्रिय कहानी बताना मुश्किल हो गया। जैसे-तैसे मैंने एक कहानी का नाम बताया। ‘प्रजा का तंत्र’। और कमलेश्वर ने कहा, ‘‘मुझे भी यह कहानी बहुत पसंद है। मैं इसी को ले रहा हूँ।’’
शंकर: आप ‘प्रजा का तंत्र’ को किस रूप में देखते हैं? 

रमेश उपाध्याय : ‘प्रजा का तंत्र’ में मैंने समकालीन भूमंडलीय यथार्थ को भारतीय और विशेष रूप से हिंदी की यथार्थवादी कथा-परंपरा में कुछ नया जोड़ते हुए लोककथा के रोचक रूप में व्यक्त किया है। इस यथार्थ का एक सिरा जनता के शोषण और दमन के इतिहास से जुड़ा है, तो दूसरा सिरा मानव-मुक्ति के भविष्य-स्वप्न से। इस कहानी में मैंने अपने देश और बाकी दुनिया में प्रायः सर्वत्र चल रही वह जन-विरोधी तथा जनतंत्र-विरोधी प्रक्रिया दिखायी है, जिसमें राज्यतंत्र उत्तरोत्तर अधिक दमनकारी होता जाता है और जनतंत्र निरंतर कमजोर पड़ता जाता है। इसके चलते जनतंत्र के नाम पर निरंकुश राजा और विवश प्रजा वाली पुरानी व्यवस्था ही आधुनिक रूप में चलती दिखायी देती है। लेकिन यह दिखाने के लिए कि यथार्थ इकहरा नहीं, द्वंद्वात्मक होता है, मैंने इस व्यवस्था को बदल सकने वाली एक नयी जनतांत्रिक प्रतिरोध-प्रक्रिया का संकेत भी एक यथार्थ संभावना के रूप में कर दिया है। मैंने इस छोटी-सी कहानी में देश-काल की दृष्टि से अत्यंत विस्तृत भौगोलिकता तथा अत्यंत गहन ऐतिहासिकता वाले भूमंडलीय यथार्थ को सहज संप्रेषणीय बनाने के लिए भारतीय लोककथाओं वाली शैली तथा व्यंग्यात्मक भाषा अपनायी है, जिससे कहानी में पुरानी किस्सागोई के साथ व्यंग्य, विडंबना, पैरोडी, फैंटेसी, ऐलेगरी आदि के नये प्रयोग सहजता से होते चले गये हैं। शायद इसी कारण मेरी यह प्रिय कहानी लोकप्रिय भी है। 

शंकर : ‘त्रासदी...माइ फुट!’ आपकी एक बहुत महत्त्वपूर्ण और उत्कृष्ट कहानी है। भोपाल गैस कांड पर तो शायद यह अपने ढंग की अकेली ही कहानी है। इसमें कंपनी के क्रियाकलाप के बारे में वे तथ्य आये हैं, जिनको कंपनी ने छिपाने की कोशिशें कीं। कहानी के पात्र नूर भोपाली ने इस कांड को लेकर बहुत सारे तथ्य जुटाये हैं। वे उन्हें गजल में नहीं ढाल पा रहे हैं, लिहाजा इस कांड पर वे उपन्यास लिखना चाह रहे हैं, लेकिन वे उपन्यास का रूपबंध तैयार नहीं कर पा रहे हैं। शायद यह दिक्कत आपको भी इस कहानी को लिखते समय आयी और इसीलिए आपने नूर से कहलाया है--‘‘उपन्यास के लिए मसाला तो मैंने बहुत सारा जमा कर लिया है। लेकिन यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि इसे कहानी के रूप में किस तरह ढालूँ। मैं जो कहानी कहना चाहता हूँ, वह किसी एक व्यक्ति की, एक परिवार की, एक शहर की या एक देश की नहीं, बल्कि सारी दुनिया की कहानी होगी। मुझे लगता है, ग्लोबलाइजेशन के दौर में साहित्य को भी ग्लोबल होना पड़ेगा। मगर किस तरह?’’ इस पर नूर का कहानीकार मित्र राजन कहता है--‘‘मैं भी आजकल इसी समस्या से जूझ रहा हूँ।’’ इस कहानी में राजन शायद आपका ही प्रतिरूप है, क्योंकि आपने ही भूमंडलीय यथार्थवाद की नयी अवधारणा प्रस्तुत की है और इस कहानी में तथा ‘प्राइवेट पब्लिक’ और ‘हम किस देश के वासी हैं’ जैसी अन्य कहानियों में भूमंडलीय यथार्थवाद के सफल उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। हिंदी कहानी में यह एक सर्वथा नयी चीज है। ‘त्रासदी...माइ फुट!’ की रचना-प्रक्रिया के बारे में बताते हुए आप इसके बारे में बतायें। 

रमेश उपाध्याय : शंकर जी, भोपाल गैस कांड में मारे गये और जीवन भर के लिए बीमार और अपाहिज हो गये सर्वथा निर्दोष लोगों के साथ उस रात जो हुआ, उसका प्रत्यक्षदर्शी तो मैं नहीं था, लेकिन उससे मैं बहुत विचलित हुआ। बाद में उसके बारे में मैंने जो पढ़ा-सुना, उससे मुझे लगा कि यह कोई त्रासदी नहीं, जान-बूझकर किया गया हत्याकांड था। इससे मेरे मन में एक तरफ अथाह दुख और दूसरी तरफ अपार क्रोध उत्पन्न हुआ। उस विक्षोभ की अभिव्यक्ति के लिए मैंने 1985 में ‘अनदीखती’ कहानी लिखी, जो ‘पहल’ के कहानी विशेषांक में छपी थी। मगर मैं उस कहानी से संतुष्ट नहीं था। इसलिए उस कहानी को लिख चुकने के बाद भी मैं उस कांड के बारे में कुछ शोध जैसा करता रहा। बीसवीं सदी के अंतिम दशक से पूँजीवादी भूमंडलीकरण की जो आँधी चली, उसके अनुभव ने भी मुझे झकझोरा और मुझे लगा कि अब यथार्थ को किसी एक व्यक्ति के, एक परिवार के, एक शहर के या एक देश के यथार्थ के रूप में नहीं, बल्कि संपूर्ण विश्व के यथार्थ के रूप में देखना होगा, क्योंकि आज की दुनिया में जो कुछ हो रहा है, उसका संबंध समूचे वैश्विक या भूमंडलीय यथार्थ से है। लेकिन भूमंडलीय यथार्थ को कहानी में ढालना बहुत मुश्किल काम था और ऐसी कहानियों के कोई उदाहरण भी मेरे सामने नहीं थे। इसलिए यह एक बड़ी रचनात्मक चुनौती थी, जिसे स्वीकार करते हुए मैंने 2006 में यह कहानी लिखी। इस प्रकार आप कह सकते हैं कि इस कहानी की रचना-प्रक्रिया लगभग बीस बरस जारी रही। 

शंकर : हिंदी की कहानी समीक्षा में आम तौर पर यह माना जाता है कि कहानी में लेखकीय पक्षधरता और वैचारिक प्रतिबद्धता अंतर्निहित रहनी चाहिए, मुखर होकर व्यक्त नहीं होनी चाहिए। आपकी ‘शेष इतिहास’, ‘पानी की लकीर’, ‘पैदल अँधेरे में’, ‘माटीमिली’, ‘बराबरी का खेल’, ‘देवीसिंह कौन?’ आदि बहुत ऊँचे दरजे की कहानियाँ हैं। इन कहानियों में आपकी लेखकीय पक्षधरता और वैचारिक प्रतिबद्धता बिलकुल स्पष्ट है। फिर भी ये ऊँचे दरजे की कहानियाँ हैं। इस विषय में आपको क्या कहना है? 

रमेश उपाध्याय : शंकर जी, मेरे विचार से यह एक मिथ्या धारणा है कि कहानी में लेखकीय पक्षधरता और वैचारिक प्रतिबद्धता स्पष्ट या मुखर होने से कहानी खराब हो जाती है। यह धारणा वाम विचारधारा और यथार्थवादी लेखन का विरोध करने के लिए इस्तेमाल और प्रचारित की जाती रही है। दिक्कत यह है कि हिंदी के प्रगतिशील और जनवादी कहानी समीक्षक भी इसे सही मानते रहे हैं। लेकिन आधुनिक काल से पहले, बल्कि आधुनिकतावादी साहित्य समीक्षा से पहले, यह धारणा आपको कहीं नहीं मिलेगी। ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ से लेकर संस्कृत और दूसरी तमाम भारतीय भाषाओं के साहित्य में ही नहीं, पश्चिम के पुराने साहित्य में भी लेखकीय पक्षधरता और वैचारिक प्रतिबद्धता स्पष्ट दिखायी देती है। मैं आपकी पत्रिका ‘परिकथा’ के जनवरी-फरवरी, 2018 के अंक में प्रकाशित अपने लेख ‘साहित्यिक आंदोलन और लेखक संगठन’ में भक्तिकाल के कवियों के उदाहरणों से यह बात स्पष्ट कर चुका हूँ। कहानी की गुणवत्ता और मूल्यवत्ता का निर्णय उसमें लेखकीय पक्षधरता और प्रतिबद्धता के मुखर या अंतर्निहित रहने के आधार पर नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसे चाहे कितना भी छिपाया जाये, जरा-सा प्रयत्न करते ही वह स्पष्ट हो जाती है। कहानी की गुणवत्ता और मूल्यवत्ता के मानदंड दूसरे हैं, जो कहानी की विषयवस्तु के साथ-साथ कहानी कहने की कला से भी संबंध रखते हैं। कहानी में क्या कहा गया है, यह तो महत्त्वपूर्ण है ही; कैसे कहा गया है, यह भी महत्त्वपूर्ण है। दुर्भाग्य से हिंदी की कहानी समीक्षा में विषयवस्तु ही मुख्य मानी जाती रही है, उसके रूप पर बहुत कम ध्यान दिया गया है। रूप पर ध्यान देने वाले कहानी समीक्षक चाहे प्रगतिशील और जनवादी ही क्यों न हों, रूपवादी, कलावादी, अनुभववादी आदि यथार्थवाद-विरोधी युक्तियाँ अपनाते रहे हैं। लेकिन कहानी ऐसी कला है, जिसका जादू सिर चढ़कर बोलता है। अगर वह कला कहानी में है, तो लेखकीय पक्षधरता और वैचारिक प्रतिबद्धता के मुखर होने पर भी उसका जादू सिर चढ़कर बोलेगा। 

शंकर : आपने हमेशा कहा है कि यथार्थवादी कथाकारों को कलावादी नहीं होना चाहिए, लेकिन कहानी में कलात्मकता का ध्यान अवश्य रखना चाहिए। आप अपनी कहानियों में निरंतर नये, गतिशील और परिवर्तनशील यथार्थ को कलात्मक रूप में सामने लाते रहे हैं। इसके लिए आपने अपनी कहानियों में मिथक, रूपक, प्रतीक, व्यंग्य, विडंबना आदि के प्रयोगों के साथ कथा कहने की विभिन्न शैलियों का उपयोग भी किया है। जैसे वर्णन और चित्रण की शैली, आत्मकथात्मक शैली, लोककथाओं वाली शैली इत्यादि। इस दृष्टि से आपकी कहानी-शंृखला ‘किसी देश के किसी शहर में’ एक अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करती है। विजयदान देथा ने लोककथाओं को लोककथा की तरह लिखा है, जबकि आपने अद्यतन जीवन-प्रसंगों, स्थितियों और घटनाओं को लोककथा की तरह लिखा है। आपने इस सिलसिले को आगे क्यों नहीं बढ़ाया? 

रमेश उपाध्याय : ‘किसी देश के किसी शहर में’ कहानी-शृंखला कथा पत्रिका ‘सारिका’ के संपादक अवध नारायण मुद्गल के आग्रह पर लिखी गयी थी और ये कहानियाँ ‘सारिका’ में धारावाहिक रूप से छपी थीं। ऐसा अवसर कोई और संपादक देता, तो मैं इस सिलसिले को आगे बढ़ाना अवश्य पसंद करता। 

शंकर : लगभग सभी महत्त्वपूर्ण कथाकारों ने अपनी रचना-प्रक्रिया बतायी है--कभी किसी इंटरव्यू में, कभी किसी वक्तव्य में, कभी किसी किताब की भूमिका में, कभी किसी लेख या टिप्पणी में। आपने अपने उपन्यास ‘दंडद्वीप’ की भूमिका में और कहानी संग्रह ‘किसी देश के किसी शहर में’ की लंबी भूमिका में यह काम किया है। इन दोनों भूमिकाओं से पता चलता है कि आपकी कहानियाँ कभी आपके अनुभवों से निकलती हैं, तो कभी दूसरों के अनुभवों से। इसे आपने कहीं ‘‘आपबीती को जगबीती बनाकर और जगबीती को आपबीती बनाकर लिखना’’ कहा है। क्या अलग से किसी लेख में आपने अपनी रचना-प्रक्रिया के बारे में लिखा है? 

रमेश उपाध्याय : जी, हाँ। मेरी आत्मकथात्मक पुस्तक ‘मेरा मुझ में कुछ नहीं’ में मेरा एक लेख है ‘कैद से निकलने की कोशिश है रचना’। उसमें मैंने ‘जुलूस’, ‘कामधेनु’, ‘डाॅक्यूड्रामा’, ‘माटीमिली’ आदि कहानियों की रचना-प्रक्रिया के बारे में लिखा है। कथ्य और रूप की दृष्टि से मेरी ये कहानियाँ एक-दूसरी से सर्वथा भिन्न हैं और लिखी भी गयी हैं अलग-अलग समयों पर, अलग-अलग तरह से। जैसे ‘जुलूस’ कहानी लिखने का विचार एक दिन एक बाजार से गुजरते हुए अचानक आया और मैंने तपती दोपहरी में एक बस स्टैंड पर, भीड़-भाड़ के बीच बैठकर वह पूरी कहानी एक बार में ही लिख डाली, जबकि ‘माटीमिली’ मैंने ग्यारह वर्षों में कम से कम ग्यारह बार लिखी, तब कहीं जाकर वह मुझे संतुष्ट करने वाले रूप में लिखी जा सकी। 

शंकर : कहानियाँ अंतर्वस्तु, कथानक और कथ्य के आधार पर तो जनोन्मुखी या अभिजनोन्मुखी ठहरायी जाती रही हैं, लेकिन आपका मानना है कि कहानियाँ रूप या कला पक्ष के स्तर पर भी जनोन्मुखी या अभिजनोन्मुखी ठहरती हैं। क्या इस बात को ‘परिकथा’ के पाठकों के लिए कुछ और स्पष्ट करेंगे? 

रमेश उपाध्याय : देखिए, कहानी की विधा तो आदिकाल से आज तक जनोन्मुखी ही है, पर कुछ इलीटिस्ट किस्म के लोग जान-बूझकर उसे अभिजनोन्मुखी बनाया करते हैं। मैं यह मानता हूँ कि कहानी आधुनिक युग में लिखी और पढ़ी जाने वाली चीज बन जाने के बावजूद अपनी मूल प्रकृति के अनुसार आज भी सुनी और सुनायी जाने वाली चीज है। किसी कहानी को पढ़ते समय हम एक प्रकार से उसे सुन ही रहे होते हैं। जैसे कहानीकार सामने बैठकर हमें कहानी सुना रहा हो। मुझे कहानी लिखते समय महसूस होता है कि मैं सामने बैठे श्रोताओं को कहानी सुना रहा हूँ। लेकिन जैसे किसी सभा या गोष्ठी के सभी श्रोता या किसी कक्षा के सभी छात्र एक जैसे नहीं होते, और वक्ता या प्रवक्ता को ध्यान रखना पड़ता है कि उसकी बात सभी सुन-समझ सकें, वैसे ही कहानीकार चाहता है कि उसकी कहानी प्रबुद्ध और साधारण दोनों प्रकार के पाठक रुचिपूर्वक पढ़ें और पसंद करें... 

शंकर : आप प्राध्यापक भी तो रहे हैं...

रमेश उपाध्याय : (मुस्कराते हुए) हाँ, अध्यापन के अनुभव से मैंने कहानी लेखन के बारे में कई बातें सीखीं। जैसे मैं गोष्ठियों में, सम्मेलनों में और रेडियो पर कहानियाँ पढ़ता रहा हूँ। एक बार मेरे नाटककार मित्र और ‘अभिव्यक्ति’ के संपादक शिवराम ने राजस्थान में कई हजार मजदूरों के सामने मेरा कहानी पाठ कराया और मुझे खुशी हुई कि कहानी लंबी होने के बावजूद, शहरी मध्यवर्गीय लोगों की कहानी होने के बावजूद, श्रोताओं ने ध्यान से सुनी और अगले दिन मिलने पर मुझसे उसके बारे में बात की। 

शंकर : आप कहानी के जनोन्मुखी होने के बारे में जो बात बता रहे थे, उसे जारी रखें। 

रमेश उपाध्याय :
हाँ, मैं कह रहा था कि कहानी मेरे विचार से प्रबुद्ध और साधारण दोनों तरह के पाठकों द्वारा रुचिपूर्वक पढ़ी और पसंद की जानी चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि कहानी की भाषा साहित्यिक होते हुए भी बोलचाल की भाषा जैसी हो, उसमें कलात्मक बारीकियाँ तो हों, पर उसे समझने में किसी को दिक्कत न हो। लेकिन कुछ उच्चभ्रू कहानीकार कहानी को सुनी-सुनायी जाने वाली चीज नहीं, बल्कि लिखी और पढ़ी जाने वाली चीज ही समझते हैं। वे साधारण पाठकों के स्तर तक उतरना अपनी तौहीन समझते हैं और उस तथाकथित प्रबुद्ध पाठक के लिए लिखते हैं, जो उनकी कहानी को समझ और सराह सके। लोकप्रिय कहानी और कहानीकारों को वे नीची नजर से देखते हैं और चंद विशिष्ट पाठकों, यानी आलोचकों से प्राप्त प्रशंसा को ही पर्याप्त समझते हैं। मगर मैं तो चाहता हूँ कि मेरी कहानी ज्यादा से ज्यादा लोग पढ़ें, समझें और सराहें। मेरी ‘किसी देश के किसी शहर में’ शृंखला की कहानियों के बारे में मेरे कई लेखक मित्रों ने बताया कि उनके बच्चों को भी ये कहानियाँ पसंद हैं। कुछ मित्रों ने अपने बच्चों से मुझे पत्र भी लिखवाकर भेजे। मुझे ऐसी प्रतिक्रियाएँ किसी बड़े पुरस्कार से कम नहीं लगतीं। 

शंकर : कई कहानीकार कहानी में नयापन लाने के लिए विषयवस्तु और भाषा के स्तर पर कुछ अतिरिक्त प्रयास करते दिखायी पड़ते हैं... 

रमेश उपाध्याय : हाँ, लेकिन वे कहानी में नयापन लाने के लिए प्रायः विदेशी कहानियों की नकल करते पाये जाते हैं। भाषा के स्तर पर तो शब्दों, वाक्यों और कुछ खास अभिव्यक्तियों की नकल करना आम बात है। लेकिन वे शायद यह नहीं देख पाते कि ऐसा करने से कहीं उनकी कहानी की भाषा अनुवाद जैसी, कहीं झूठे पांडित्य-प्रदर्शन जैसी, कहीं भौंडे हास्य और छिछोरे व्यंग्य जैसी, कहीं गाली-गलौज करने वाले सड़कछाप लोगों की-सी, तो कहीं अतिबौद्धिकता या अतिआंचलिकता की मारी-सी हो जाती है। ऐसी भाषा कुछ चमत्कार पैदा करके पाठक को आतंकित भले ही कर दे, कहानी की रोचकता और पठनीयता को कम कर देती है। मैं यह मानता हूँ कि कहानी में नयापन जन-जीवन के सतत परिवर्तनशील यथार्थ की अभिव्यक्ति से आता है, जो अपने लिए उचित भाषा स्वतः ही खोज लेती है। नयी भाषा का निर्माण लेखक नहीं करता, जनता करती है। इसलिए जन-भाषा के नित्यप्रति बदलते रूपों पर अपनी पकड़ बनाने वाला यथार्थवादी कहानीकार ही कहानी में भाषा के स्तर पर कुछ नया कर पाता है। 

शंकर : आपकी पुस्तक ‘साहित्य और भूमंडलीय यथार्थ’ में एक निबंध है ‘आगे की कहानी’, जिसमें आपने ‘आज की कहानी’ की जगह ‘आगे की कहानी’ की बात की है और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना द्वारा दिये गये पाँच सूत्रों में अपने भी पाँच सूत्र जोड़े हैं। सर्वेश्वर जी के पाँच सूत्र हैं--1. पश्चिमी फैशनपरस्त अंधानुकरण से बचो। 2. शिल्प को आतंक मत बनाओ। 3. उनके लिए भी लिखो जो अर्द्धशिक्षित हैं और उनके लिए भी जो अशिक्षित हैं, जिन्हें तुम्हारी कहानी पढ़कर सुनायी जा सके। 4. इस देश की तीन-चैथाई जनता की सोच-समझ को वाणी दो, जो वह खुद नहीं कह सकती। और, 5. कहानी को लोककथाओं और ‘फेबल्स’ की सादगी की ओर मोड़ो, उनके विन्यास से सीखो, और उसे आम आदमी के मन से जोड़ो। और आपके पाँच सूत्र हैं--1. चालू विमर्शों की कहानी लिखने से बचो। 2. बदलते हुए यथार्थ को देखो और यथार्थ को बदलने के लिए लिखो। 3. दुनिया भर के उत्कृष्ट कहानी-लेखन से सीखो, पर अपनी कथा परंपरा में और अपनी जनता के लिए लिखो। 4. साहित्य की बदली हुई शब्दावली को आँख मूँदकर मत अपनाओ। 5. वैश्विक पूँजीवाद के विरुद्ध वैश्विक समाजवाद का स्वप्न साकार करने के लिए अच्छी कहानियाँ बेखटके गढ़ो। इन दस सूत्रों को एक कसौटी मान लिया जाये, तो पिछले ढाई दशकों के दौर के कहानी लेखन पर क्या राय बन सकती है? 

रमेश उपाध्याय : सच कहूँ, तो कोई ज्यादा अच्छी राय नहीं बनती। पश्चिमी फैशनों का अंधानुकरण कम होने के बजाय बढ़ा है। शिल्प को आतंक बनाने वालों की संख्या तो ज्यादा नहीं बढ़ी है, पर वे बहुत महत्त्वपूर्ण माने गये हैं। अर्द्धशिक्षितों और अशिक्षितों में तो दलित, स्त्री, आदिवासी, अल्पसंख्यक आदि सभी होते हैं, जिन्हें एक शब्द में गरीब कहा जा सकता है और ‘गरीब’ एक वर्गीय अवधारणा है। लेकिन पिछले ढाई दशकों में समाज को वर्गीय दृष्टि से देखा जाना कम हुआ है और उसे जाति, लिंग, समुदाय, संप्रदाय आदि के आधार पर ज्यादा देखा गया है। इसलिए किसान और मजदूर हिंदी कहानी से गायब-से हो गये हैं। कहानी को आम आदमी के मन से जोड़ने वाली सीधी-सच्ची जनभाषा के निकट की भाषा अपनाने के बजाय अखबारी या अनुवाद की-सी भाषा में कहानी लिखी जा रही है। साहित्यिक आंदोलनों की जगह जो अस्मिता विमर्श चले, उनसे कहानी लेखन एक प्रकार के चालू अनुभववादी लेखन में बदल गया है, जिससे यथार्थवादी रचना और आलोचना की बहुत हानि हुई है। कुल मिलाकर आज की कहानी का परिदृश्य काफी निराशाजनक है। 

शंकर : लेकिन अच्छी कहानियाँ भी लिखी जा रही हैं। आपने स्वयं ‘नया ज्ञानोदय’ के अपने स्तंभ ‘लगे हाथ’ में आज की कई अच्छी कहानियों की चर्चा की है। 

रमेश उपाध्याय : अच्छी-बुरी दोनों तरह की कहानियाँ हर दौर में लिखी जाती हैं। लेकिन अच्छी कहानियाँ अपना प्रभाव तभी छोड़ पाती हैं, जब कहानी-समीक्षा अपना काम सही ढंग से कर रही हो या कहानीकार स्वयं अच्छी कहानियों के पक्ष में एक वातावरण बना पा रहे हों। आज ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। इसलिए खराब कहानियाँ खोटे सिक्कों की तरह अच्छी कहानियों के खरे सिक्कों को चलन से बाहर कर देती हैं। आज की कहानी का परिदृश्य तो यही है, लेकिन आगे की कहानी अब भी एक संभावना है, क्योंकि स्थानीय और भूमंडलीय यथार्थ स्वयं को बुनियादी तौर पर बदले जाने की माँग कर रहा है और हिंदी कहानी ने भूमंडलीय यथार्थवाद की दिशा में आगे बढ़ना शुरू कर दिया है। 

शंकर : आप भूमंडलीय यथार्थवाद पर इतना जोर क्यों देते हैं? 

रमेश उपाध्याय : मुझे लगता है, जीवन के हर क्षेत्र में आज एक निराशा-सी छायी हुई है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि आशा लोगों में तब जागती है, जब कोई दल, संगठन, नेतृत्व या आंदोलन अपने सही होने का विश्वास दिलाता है, अपने सफल होने की उम्मीद जगाता है, बेहतर भविष्य का सपना दिखाता है और लोगों को यह अहसास कराता है कि वे मिल-जुलकर अपने सपने को साकार कर सकते हैं। आज ऐसा कुछ भी होता नजर नहीं आता। लोग वर्तमान व्यवस्था का कोई बेहतर विकल्प चाहते हैं, लेकिन वे विकल्प खोजते हैं केवल स्थानीय स्तर पर। जैसे चुनावों के जरिये एक दल को सत्ता से हटाकर दूसरे दल को सत्ता सौंप देना। लेकिन यह कोई विकल्प नहीं होता। इससे सरकार तो बदल सकती है, व्यवस्था नहीं बदल सकती। तब नयी सरकार से भी लोगों का मोहभंग होता है और उन्हें लगता है कि कुछ भी कर लो, कुछ नहीं होता; क्योंकि व्यवस्था नहीं बदलती। लेकिन व्यवस्था बदले कैसे? वे उसे स्थानीय स्तर पर बदलना चाहते हैं, जबकि वह भूमंडलीय हो चुकी है। भूमंडलीय व्यवस्था को बदलने का काम स्थानीय स्तर पर नहीं, भूमंडलीय स्तर पर ही किया जा सकता है। इसलिए मैं भूमंडलीय यथार्थवाद पर जोर देता हूँ। और मैं चाहता हूँ कि इस बात को साहित्यकार तो समझें ही, मुक्तिकामी दल और संगठन भी समझें। 

शंकर : हिंदी में प्रेमचंद के ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ को यथार्थवाद से कुछ कमतर मानने की प्रवृत्ति रही है, लेकिन आपने उसे सही यथार्थवाद माना है। इसे कुछ स्पष्ट करेंगे? 

रमेश उपाध्याय : (हँसकर) इसे स्पष्ट करने का काम मैं कई वर्षों से विभिन्न रूपों में करता आ रहा हूँ। यहाँ संक्षेप में इतना ही कहना काफी होगा कि हिंदी में यथार्थवाद को लेकर काफी भ्रम रहे हैं और आज भी व्यापक स्तर पर फैले हुए हैं। कई लोगों को तो मालूम ही नहीं है कि यथार्थवाद हिंदी में कब आया और कैसे आया। उन्हें बताना पड़ता है कि हिंदी में यथार्थवाद ‘नेचुरलिज्म’ (प्रकृतवाद) के रूप में आया था, जिसमें जीवन को रचना में जस का तस चित्रित करने की कोशिश की जाती थी। उसमें प्रायः समाज की गंदगी, अपराध, व्यभिचार आदि के चित्र होते थे, इसलिए उसे पसंद नहीं किया जाता था और ‘नग्न यथार्थवाद’ कहा जाता था। लेकिन पश्चिम से यथार्थवाद का एक और रूप आया था, जिसमें समाज की आलोचना की जाती थी और जिसे ‘क्रिटिकल रियलिज्म’ (आलोचनात्मक यथार्थवाद) कहा जाता था। प्रेमचंद ने प्रकृतवाद या नग्न यथार्थवाद की जगह आलोचनात्मक यथार्थवाद को अपनाया और उसे आदर्शोन्मुख यथार्थवाद का नाम दिया। लेकिन हिंदी साहित्य में यथार्थवाद संबंधी भ्रमों में से एक बड़ा भ्रम यह भी रहा है कि यथार्थ और कल्पना, यथार्थ और स्वप्न, यथार्थ और आदर्श परस्पर-विरोधी हैं; यथार्थवादी साहित्य में कल्पना, स्वप्न और आदर्श के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए; लेखन में इनके होने से यथार्थवाद यथार्थवाद नहीं रहता; इत्यादि। इसी तर्क से प्रेमचंद के अधिकांश लेखन को आदर्शवादी कहकर खारिज किया गया और उनकी कुछ अंतिम रचनाओं को ही यथार्थवादी माना गया। मेरा कहना यह है कि यथार्थवादी साहित्य कल्पना, स्वप्न और आदर्श के बिना रचा ही नहीं जा सकता। प्रेमचंद बाद की कुछ रचनाओं के कारण नहीं, बल्कि अपने संपूर्ण लेखन के कारण महान हैं, जो आदर्शोन्मुख यथार्थवादी लेखन है। 

शंकर : हिंदी में ‘यूटोपिया’ को भी यथार्थवाद के विलोम जैसा कुछ माना जाता रहा है। मगर आपके अनुसार पूँजीवाद और समाजवाद हमारे समय के दो बड़े यूटोपिया हैं और इनके इर्द-गिर्द गांधीवाद, अंबेडकरवाद, नारीवाद, पर्यावरणवाद, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जैसे कई यूटोपिया हैं। समाज की पुनर्रचना के संदर्भ में साहित्यिक रचना और आलोचना में इन यूटोपियाओं की क्या भूमिका हो सकती है? 

रमेश उपाध्याय : मुझे लगता है कि हर लेखक का कोई न कोई यूटोपिया होता है, जिसके अनुसार वह अपने दृष्टिकोण से भविष्य के एक आदर्श समाज की कल्पना करता है कि वह कैसा समाज होना चाहिए। जैसे तुलसीदास रामराज्य की कल्पना करते हैं। या गांधीजी हिंद स्वराज की कल्पना करते हैं। हर लेखक अपने यूटोपिया के अनुसार दुनिया को बदलने और भविष्य का निर्माण करने की कोशिश करता है। देखने की बात यह है कि यह कोशिश वस्तुपरक दृष्टि से कितनी नैतिक और कितनी ऐतिहासिक है। बहुत-से लोग, जिनमें से कुछ स्वयं को क्रांतिकारी भी मानते हैं, इतिहास और नैतिकता में कोई संबंध नहीं देखते। इसीलिए वे नैतिक आदर्श और ऐतिहासिक जरूरत के बीच कोई सार्थक तालमेल बिठाने में असफल होते हैं। ‘‘पे्रम और युद्ध में सब चलता है’’ की तर्ज पर ‘‘राजनीति में सब चलता है’’ वाली अनैतिकता के साथ भविष्य का निर्माण करने की ऐतिहासिक जरूरत कम से कम साहित्य में तो कभी पूरी नहीं की जा सकती, क्योंकि साहित्य अंततः एक व्यक्तिगत कर्म है और उसमें निजी पहल का बड़ा महत्त्व है। यह निजी पहल किसी नैतिक आदर्श के बिना संभव नहीं है। मगर देखना यह चाहिए कि नैतिक आदर्श का ऐतिहासिक जरूरत से क्या, कितना और कैसा संबंध है। साहित्य के सौंदर्यशास्त्र में अभी इस दृष्टि से बहुत कम काम हुआ है, लेकिन इन दोनों के संबंध पर गहराई से विचार किया जाये, तो पता चलेगा कि यह संबंध रचना के साहित्यिक मूल्य और ऐतिहासिक महत्त्व को समझने में बहुत सहायक हो सकता है। 

शंकर : भारतीय समाज के संदर्भ में कौन-सा यूटोपिया ज्यादा कारगर होगा? 

रमेश उपाध्याय : मैं तो समाजवादी यूटोपिया को ही अपने देश और सारी दुनिया के लिए कारगर मानता हूँ। भूमंडलीय पूँजीवाद की जगह भूमंडलीय समाजवाद मेरा यूटोपिया है। भले ही जब उसकी स्थापना हो, तब उसका नाम समाजवाद की जगह कुछ और ही हो। 

शंकर : आपने ‘जनवादी कहानी: पृष्ठभूमि से पुनर्विचार तक’ पुस्तक लिखी है, जिसे डाॅ. नामवर सिंह ने ‘‘साहित्य का एक जीवंत इतिहास’’ कहा है। जनवादी कहानी प्रेमचंद की परंपरा की प्रगतिशील कहानी या यथार्थवादी कहानी जैसी ही कहानी है या कुछ भिन्न किस्म की कहानी है? यदि भिन्न है, तो किस रूप में? 

रमेश उपाध्याय : जनवादी कहानी प्रेमचंद की परंपरा की प्रगतिशील और यथार्थवादी कहानी का ही अगला विकास है। उस विकास को चिह्नित करने के लिए ही उसे यह नाम दिया गया है। लेकिन कई लोग इस विकास को सामाजिक और साहित्यिक संदर्भों में समझने के बजाय दलगत राजनीति के संदर्भ में समझने की गलती करते हैं। जैसे, वे प्रगतिशील कहानी को प्रगतिशील लेखक संघ तथा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े लेखकों की कहानी मानते हैं और जनवादी कहानी को जनवादी लेखक संघ तथा माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े लेखकों की कहानी। यह निहायत गलत समझ है। प्रगतिशील कहानी प्रगतिशील लेखक संघ के बनने के पहले से लिखी जा रही थी, जिसके सबसे बड़े उदाहरण स्वयं प्रेमचंद हैं। इसी तरह जनवादी कहानी जनवादी लेखक संघ के बनने के पहले से लिखी जा रही थी। जनवादी लेखक संघ की स्थापना 1982 में हुई, जबकि दिल्ली में जनवादी लेखक मंच की स्थापना उसके एक दशक पहले 1973 में हो चुकी थी और उस मंच से पढ़ी गयी जनवादी कहानियाँ चर्चित हो चुकी थीं। 1976 में मेरा तीसरा कहानी संग्रह ‘नदी के साथ’ आया था, जिसे जनवादी कहानियों का पहला संग्रह कहा गया था। और 1978 में दिल्ली के ही जनवादी विचार मंच द्वारा एक बड़े लेखक सम्मेलन में ‘जनवादी साहित्य के दस वर्ष’ विषय पर कई सत्रों में विचार किया गया था और उनमें पढ़े गये परचों को इसी नाम से पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया था। इस प्रकार जनवादी लेखक संघ बनने के बहुत पहले जनवादी कहानी अस्तित्व में आ चुकी थी। जहाँ तक प्रगतिशील कहानी और जनवादी कहानी के भिन्न होने का प्रश्न है, उसमें ज्यादा भिन्नता नहीं है, सिवाय इसके कि दोनों में यथार्थ के विश्लेषण की भिन्नता के कारण यथार्थवाद की समझ कुछ भिन्न हो सकती है। 

शंकर : आपका बहुत महत्त्वपूर्ण उपन्यास ‘हरे फूल की खुशबू’ दो जीवन-दृष्टियों, दो तरह के मूल्यों और दो तरह के उद्देश्यों के बीच के अंतर्विरोधों को कलाकार रमणीक लाल और उसकी कलाकार पत्नी अलका के माध्यम से सामने लाता है। लेकिन सूक्ष्म संवेदनाओं वाला यथार्थवादी उपन्यास होते हुए भी इसमें किसी प्रकार की आदर्शोन्मुखता नजर नहीं आती। आरंभ में रमणीक लाल एक सकारात्मक पात्र लगता है, किंतु बाद में वह बिलकुल नकारात्मक हो जाता है। इस पर आपको क्या कहना है? यह भी बतायें कि इस उपन्यास के लिखे जाने की प्रेरणा या पृष्ठभूमि क्या है? 

रमेश उपाध्याय : ‘हरे फूल की खुशबू’ की पृष्ठभूमि यह है कि मैं सातवें दशक में दिल्ली में कुछ समय बेरोजगार रहा था। उन दिनों मैं फ्रीलांसिंग करता था और पत्र-पत्रिकाओं, आकाशवाणी और दूरदर्शन के लिए तरह-तरह के काम किया करता था। उन कामों में से एक था दिल्ली में होने वाली कला-प्रदर्शनियों की समीक्षाएँ लिखना और कलाकारों के इंटरव्यू लेना। इसके चलते मैंने देशी-विदेशी चित्रकला के बारे में खूब पढ़ा और दिल्ली के कला-जगत तथा कलाकारों के जीवन को निकट से देखा। उसी समय के अनुभवों को मैंने 1990 में उपन्यास के रूप में लिखा। लेकिन इसके पात्र रमणीक लाल और अलका कोई वास्तविक व्यक्ति नहीं, बल्कि उस समय के दिल्ली के कला-जगत के दो प्रातिनिधिक चरित्र हैं, जिनकी रचना अनेक वास्तविक व्यक्तियों की चारित्रिक विशेषताओं को मिलाकर की गयी है। मैंने इस उपन्यास में दिखाया है कि कला के क्षेत्र में एक ओर संगठित व्यावसायिकता है, तो दूसरी ओर व्यक्तिगत अराजकता। दोनों के बीच एक सतही किस्म का द्वंद्व या संघर्ष दिखायी पड़ता है, जो बाद में समझौते में बदल जाता है और अराजक व्यक्तिवादी कलाकार अंततः संगठित व्यावसायिकता को समर्पित हो जाता है। 

शंकर : रमणीक लाल की निस्संदेह बहुत सारी दुविधाएँ हैं, किंतु इस उपन्यास के अंत को मैं इस तरह नहीं देख पा रहा हूँ। समझौता और समर्पण उस स्थिति को कहा जायेगा, जब कोई सुचिंतित रूप से ऐसा करे। यहाँ रमणीक लाल दुविधा में है और उपन्यास के अंतिम प्रसंग में वह बेमन से एक अदृश्य आक्रोश के साथ कैनवस पर रंग फेंकता है, जिससे अनायास एक पेंटिंग बन जाती है और व्यावसायिकता के तंत्र को यह पेंटिंग बहुत काम की लगती है, क्योंकि रमणीक लाल एक जाना-माना नाम है और कला का व्यवसाय-तंत्र ऐसे नामों की तलाश में रहता है, ताकि वह उन्हें इस्तेमाल कर सके। इस प्रकार यह उपन्यास वास्तव में रमणीक के चरित्र के एक्सपोजर का नहीं, व्यावसायिकता के चरित्र के एक्सपोजर का उपन्यास है। मेरे विचार से यही इस उपन्यास की सही व्याख्या है। क्या इस उपन्यास को इस तरह नहीं समझा जाना चाहिए? 

रमेश उपाध्याय : शंकर जी, आपने उपन्यास को बिलकुल सही समझा है। उसमें मेरी कोशिश कला के व्यावसायिक तंत्र के वास्तविक चरित्र को सामने लाने की ही रही है और रमणीक लाल के माध्यम से उसे ही सामने लाया गया है। मगर मैं यह भी दिखाना चाहता था कि कला जगत में एक तरफ संगठित व्यावसायिकता है, जिसका एक पूरा तंत्र देश से विदेशों तक फैला हुआ है, तो दूसरी तरफ है एक अद्वितीय प्रतिभाशाली कलाकार की व्यक्तिगत अराजकता। रमणीक लाल पूरी ‘ईमानदारी’ के साथ ‘विद्रोही’ हो सकता है और व्यावसायिकता के विरुद्ध उसमें सच्चा ‘आक्रोश’ हो सकता है। लेकिन कला को जन-जन तक पहुँचाने की अपनी सदिच्छा पूरी करने के लिए वह कुछ करता नहीं है। उसके लिए किसी वैकल्पिक व्यवस्था के बारे में सोचने और उसके लिए कुछ करने के बजाय अंततः ‘बेमन से’ ही सही, वह उसी व्यवस्था को समर्पित हो जाता है। 

शंकर : आपके उपन्यास ‘स्वप्नजीवी’ का मुख्य पात्र शिवेंद्र सान्याल भी लगभग रमणीक लाल जैसा ही एक विद्रोही चरित्र है, जो सिनेमा की दुनिया में दूसरों से भिन्न अपना कुछ नया करना चाहता है और नहीं कर पाता। वह भी अत्यंत प्रतिभाशाली है और व्यावसायिक सिनेमा की दुनिया से समझौता न कर पाने के कारण अंततः पागलपन की-सी स्थिति में पहुँच जाता है। लेकिन स्वप्नजीवी की चर्चा मैं उसे लेकर नहीं, बल्कि इसलिए कर रहा हूँ कि आपके लेखन में स्वप्नों का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। ‘स्वप्नजीवी’ उपन्यास के अलावा आपकी स्वप्न-संबंधी कहानियाँ हैं ‘स्वप्न-कथा’, ‘आप जानते हैं’ और ‘मेरे दोस्त का सपना’; आपके स्वप्न-संबंधी निबंध हैं ‘हमारे समय के स्वप्न’ तथा ‘भविष्य-स्वप्न का लोप और उसकी पुनप्र्राप्ति’; और अंततः आपकी पुस्तक है ‘मुक्तिबोध का मुक्तिकामी स्वप्नद्रष्टा’। आप यथार्थवादी लेखक होकर भी अपने लेखन में स्वप्नों को इतना महत्त्व क्यों देते हैं? 

रमेश उपाध्याय : पाश की वह कविता है न--‘‘सबसे खतरनाक होता है हमारे स्वप्नों का मर जाना।’’ मुझे लगता है कि हम ऐसे ही खतरनाक समय में जी रहे हैं। शायद इसीलिए साहिर लुधियानवी ने अपनी एक नज्म में कहा था--‘‘आओ कि आज गौर करें इस सवाल पर, देखे थे हमने जो वो हसीं ख्वाब क्या हुए? दौलत बढ़ी तो मुल्क में इफलास क्यों बढ़ा? खुशहालि-ए-अवाम के असबाब क्या हुए?’’ मेरे उपन्यास ‘स्वप्नजीवी’ का शिवेंद्र सान्याल अपने साथ के लोगों से व्यंग्यपूर्वक कहता है--‘‘मुझे लगता है कि तुम सबके सपनों की आधारशिलाएँ रखी जा चुकी हैं और मैं अभी तक प्लाॅट ही ढूँढ़ रहा हूँ।’’ मुझे लगता है, आज बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है, जो ठेठ वर्तमान में जीते हैं और भविष्य का कोई स्वप्न उनके पास नहीं है। मैं अपने समय के इस यथार्थ को देखता हूँ और दहशत से भर जाता हूँ, क्योंकि मैं अतीत और वर्तमान के साथ-साथ भविष्य के बारे में भी सोचता हूँ। स्वप्न का संबंध भविष्य से होता है। शायद इसीलिए मैं अपने लेखन में बार-बार स्वप्नों की बात करता हूँ। जहाँ तक स्वप्न और यथार्थ का संबंध है, मेरा मानना है कि एक बेहतर भविष्य का स्वप्न देखने वाला ही यथार्थवादी हो सकता है। मुक्तिबोध महान स्वप्नद्रष्टा हैं, इसी कारण वे महान यथार्थवादी हैं। साहित्य और कला की दुनिया में व्याप्त व्यावसायिकता के विरुद्ध यथार्थवादी लेखक-कलाकार ही लड़ सकते हैं, भले ही वे उस लड़ाई में हार जायें और दूसरों की नजरों में सिरफिरे या पागल होकर ही रह जायें। 

शंकर : हल्की-फुल्की मनोरंजन प्रधान सामग्रियों से ज्यादा से ज्यादा पाठक हासिल करके व्यवसाय करने वाली पत्रिकाओं की काट में साहित्यिक लघु पत्रिकाएँ सामने आयी थीं। आप एक उत्कृष्ट संपादक रहे हैं और आपने ‘कथन’ जैसी स्तरीय विचार-प्रधान साहित्यिक पत्रिका का संपादन किया है। आपने एक लेख में साहित्यिक लघु पत्रिकाओं को भी दो रूपों में देखा है--एक सिर्फ लेखकों के लिए निकलने वाली साहित्यिक लघु पत्रिकाएँ और दूसरी लेखकों के साथ-साथ पाठकों के लिए भी निकलने वाली साहित्यिक लघु पत्रिकाएँ। साहित्यिक लघु पत्रिकाओं के इन दोनों रूपों को कुछ और स्पष्ट करें। 

रमेश उपाध्याय : शंकर जी, आप स्वयं एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक लघु पत्रिका ‘परिकथा’ के कुशल संपादक हैं। आपने लघु पत्रिकाओं के विभिन्न रूप देखे हैं और उनके बीच अपनी पत्रिका की एक अलग पहचान बनायी है, जो एक जनोन्मुख साहित्यिक पत्रिका की पहचान है। लेकिन हिंदी में निकलने वाली कुछ लघु पत्रिकाएँ ‘‘लेखकों की, लेखकों के द्वारा, लेखकों के लिए’’ निकलने वाली अभिजनोन्मुखी पत्रिकाएँ हैं। मैं यह मानता हूँ कि साहित्यिक लघु पत्रिका साधारण और विशिष्ट दोनों तरह के पाठकों के लिए होनी चाहिए। आप और मैं लघु पत्रिका आंदोलन में शामिल रहे हैं और उस राष्ट्रीय लघु पत्रिका समन्वय समिति में भी सक्रिय रहे हैं, जिसमें आज के बाजारवाद और मीडिया को ध्यान में रखते हुए लघु पत्रिकाओं की एक नयी भूमिका पर जोर दिया गया था। उसके अनुसार साहित्यिक लघु पत्रिकाओं को अव्यावसायिक रहते हुए भी व्यापक पाठक समुदाय तक पहुँचने का प्रयास करना चाहिए। 

शंकर : प्रगतिशीलता, जनवाद और समाजवाद में विश्वास न करने वाले उन लेखकों के लिए, जो किसी राजनीतिक दल या लेखक संगठन से न जुड़े होने पर भी पूँजीवाद, साम्राज्यवाद और संप्रदायवाद के विरुद्ध मानवीय मूल्यों के पक्षधर हो सकते हैं, वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध साहित्यिक पत्रिकाओं की जिम्मेदारी बनती है या नहीं? 

रमेश उपाध्याय : क्यों नहीं? उन्हें ऐसे लेखकों को साथ लेकर चलना चाहिए। 

शंकर : रमेश जी, आपके चिंतन और लेखन में एक गहरा आशावाद मौजूद है। आपका यह लेखकीय विश्वास कि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी बहुत कुछ संभव है, बार-बार सामने आता है। आपने साहित्य को भूमंडलीय यथार्थवाद की जो नयी और महत्त्वपूर्ण अवधारणा दी है, उसका आधार भी आपका यह आशावाद है कि वैश्विक पूँजीवाद को वैश्विक समाजवाद में बदला जाना आवश्यक ही नहीं, बल्कि संभव भी है। यह बतायें कि आपके इस आशावाद का आधार क्या है? 

रमेश उपाध्याय : (व्यंग्यपूर्वक मुस्कराते हुए) दुनिया के बदल सकने के बारे में आशावादी होना आजकल अच्छा नहीं माना जाता, बल्कि यथार्थ को न समझने की निशानी माना जाता है। शायद यह मान लिया गया है कि दुनिया जितनी बदलनी थी, बदल चुकी, अब और कभी नहीं बदलेगी। यानी अब हमेशा पूँजीवाद ही चलेगा। लेकिन दुनिया हमेशा बदलती रही है और छोटे-छोटे निराशाजनक बदलावों के बाद अचानक किसी बड़े गुणात्मक बदलाव के हो जाने पर बेहतर भी बनती रही है। यह इतिहास और विज्ञान दोनों का सच है और यह सच ही मुझे आशावादी बनाता है। किसी व्यवस्था के बने रहने के कुछ आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक आधार होते हैं। लेकिन उसका एक आधार नैतिक भी होता है। जब कोई व्यवस्था अपने बने रहने का नैतिक आधार खो देती है, तो वह ज्यादा देर टिकी नहीं रह सकती। आज के भूमंडलीय पूँजीवाद के पास स्वयं को टिकाये रखने के लिए दमन और ध्वंस की दानवीय शक्तियाँ तो हैं, पर मानवीय मूल्यों वाली कोई नैतिक शक्ति उसके पास नहीं रह गयी है। लेकिन ऐसी व्यवस्था ज्यादा देर चल नहीं सकती। देर-सबेर उसका बदलना और उसकी जगह एक बेहतर व्यवस्था का बनना अवश्यंभावी है। यही आज का भूमंडलीय यथार्थ है और इसी से उद्भूत भूमंडलीय यथार्थवाद मेरे आशावाद का आधार है। 

शंकर : पाठक आपसे यह जानना चाहेंगे कि पूँजीवाद की वैश्विक व्यवस्था की जगह कोई बेहतर वैश्विक व्यवस्था किन आधारों पर, किन शक्तियों के द्वारा और किन तरीकों से बनायी जा सकती है। 

रमेश उपाध्याय : पूँजीवाद से बेहतर जो भी वैश्विक व्यवस्था बनेगी, मनुष्यों के द्वारा और मनुष्यता के आधार पर ही बनेगी। लेकिन यह भविष्यवाणी नहीं की जा सकती कि वह व्यवस्था कब और कैसे बनेगी। हम यह भी नहीं कह सकते कि भविष्य में बनने वाली उस व्यवस्था का नाम क्या होगा। फिलहाल हम भूमंडलीय पूँजीवाद की जगह लेने वाली व्यवस्था को भूमंडलीय समाजवाद ही कह सकते हैं। ऐसी व्यवस्था किसी भूमंडलीय क्रांति से ही बन सकती है। अब तक दुनिया में जो क्रांतियाँ हुई हैं, उनका आधार राष्ट्रीय रहा है--जैसे फ्रांस की क्रांति, रूस की क्रांति, चीन की क्रांति। माक्र्सवाद ने वैश्विक क्रांति का स्वप्न देखा और उसका आधार राष्ट्रीयता को नहीं, अंतरराष्ट्रीयता को बनाया। इसलिए समाजवाद का एक आधार अंतरराष्ट्रीयतावाद रहा। माक्र्स-एंगेल्स या लेनिन-माओ के समय तक दुनिया को बदलने की सोच राष्ट्रीयता से ऊपर उठकर अंतरराष्ट्रीयता तक ही पहुँची थी, इसलिए समाजवादी क्रांति राष्ट्रीय स्तर पर घटित होने वाली परिघटना होती थी, जिसे व्यापक बनाने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर क्रांति की बात सोची जाती थी। लेकिन अंतरराष्ट्रीयता में राष्ट्र तो निहित रहता ही है, जो एक पूँजीवादी अवधारणा है। राष्ट्र में अपने भीतर अधिनायकवादी वर्चस्व और अपने से बाहर साम्राज्यवादी प्रभुत्व कायम करने की प्रवृत्ति होती है। रूस और चीन की समाजवादी क्रांतियाँ राष्ट्रीय स्तर की क्रांतियाँ थीं और उनसे जो व्यवस्थाएँ बनीं, उनमें ये दोनों प्रवृत्तियाँ थीं, इसलिए वहाँ जो व्यवस्था बनी, वह वास्तव में समाजवादी व्यवस्था नहीं, बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था का ही एक भिन्न रूप थी। इसीलिए उसे पुनः पूँजीवाद में बदल जाने में ज्यादा देर नहीं लगी। लेकिन पूँजीवादी भूमंडलीकरण ने राष्ट्र की अवधारणा को हिला दिया है और वैश्विक क्रांति के लिए अंतरराष्ट्रीयता की जगह भूमंडलीयता के आधार पर वैश्विक पूँजीवाद की जगह वैश्विक समाजवाद की व्यवस्था को आवश्यक और संभव बना दिया है। मेरा खयाल है कि अब जो क्रांतियाँ होंगी, वे राष्ट्रीय स्तर से आगे बढ़कर वैश्विक या भूमंडलीय स्तर की होंगी। 

शंकर : अंतिम सवाल: आप इन दिनों क्या लिख रहे हैं और आगे क्या करना चाहते हैं? 

रमेश उपाध्याय : इन दिनों मेरे बच्चे मेरे इंटरव्यू के रूप में मेरा साहित्यिक सफरनामा तैयार कर रहे हैं। आजकल मैं उसी में व्यस्त हूँ। आगे ‘भूमंडलीयता और परिपूर्ण मनुष्यता’ नामक एक पुस्तक लिखने का विचार है। यह विचार मेरे मन में ‘मुक्तिबोध का मुक्तिकामी स्वप्नद्रष्टा’ पुस्तक लिखते समय आया था और धीरे-धीरे पक रहा है।