Friday, January 25, 2019

"मेरे आशावाद का आधार है भूमंडलीय यथार्थवाद"

'परिकथा' पत्रिका के जनवरी-फरवरी, 2019 के अंक में संपादक शंकर द्वारा लिया गया इंटरव्यू

शंकर : रमेश जी, आप 1970 के आसपास उभरे एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक व्यक्तित्व हैं। आपने स्तरीयता और मात्रा दोनों ही दृष्टियों से पर्याप्त से अधिक रचनाकर्म किया है। आपने जितना रचनात्मक लेखन किया है, उतना ही आलोचना कर्म भी किया है। आपने न सिर्फ साहित्यिक आलोचना, बल्कि समाज और संस्कृति के जरूरी प्रश्नों पर सशक्त समाजशास्त्रीय आलोचना भी की है। समाजशास्त्रीय आलोचना का आपका काम तो इतना विशिष्ट है कि रचनात्मक लेखन करने वाला आपके साथ का या आपके बाद का भी कोई दूसरा लेखक उसकी बराबरी में नहीं दिखायी पड़ता है। आपने कई प्रचलित अवधारणाओं पर अपनी नयी स्थापना दी, कई मौलिक व्याख्याएँ दीं। साहित्य के समाजशास्त्रीय पक्ष को सर्वोपरि मानने और बताने में आपने अपनी तर्कशक्ति लगायी, अनेक बहसों में हिस्सेदारी निभायी, नयी बहसें शुरू कीं। आपने अपनी बातें बिना लाग-लपेट के रखीं। जो बात अच्छी नहीं लगी, उसे अच्छा नहीं बताया, असहमति जाहिर की; और जो बात अच्छी लगी, उसका खुलकर समर्थन किया। आपकी निर्भीकता और साहस के अनेक दृष्टांत आपके समूचे लेखन में मौजूद हैं। जहाँ आवश्यक होता है, आप अपनी आलोचना करने में भी पीछे नहीं रहते। आपके जीवन और लेखन में ऐसी पारदर्शिता है कि गलतफहमी के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। फिर भी, जैसा कि हर लेखक आम तौर पर कभी न कभी सोचता है, क्या आपको कभी यह सोचने की जरूरत महसूस हुई कि दूसरों ने आपके कृतित्व को सही तरह से या अच्छी तरह से नहीं समझा? 

रमेश उपाध्याय : (हँसकर) शंकर जी, मुझे तो यह लगता है कि दूसरे मुझे मुझसे ज्यादा समझते हैं। उनसे मुझे अपने बारे में कई ऐसी बातें पता चलती हैं कि मैं चकित रह जाता हूँ। फिर भी, अगर कभी ऐसा लगता है कि मुझे गलत समझा जा रहा है, तो मैं मन ही मन दुखी होते रहने या पीठ पीछे शिकायतें करने के बजाय साफ-साफ कह देता हूँ कि महोदय, आप मुझे गलत समझ रहे हैं। या महोदया, आप मुझे गलत समझ रही हैं। (ठहाका) 

शंकर : आपके संस्मरणों से पता चलता है कि पारिवारिक परिस्थितियों के चलते हाई स्कूल के बाद आपको पढ़ाई छोड़कर प्रेस में कंपोजीटर का काम करना पड़ा। लेकिन आपने पढ़ना जारी रखा, प्राइवेट परीक्षाएँ दीं और धीरे-धीरे एम.ए. और पीएच.डी. करके दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक-प्रोफेसर बने। जाहिर है, आपके लेखकीय मानस के निर्माण में आपके इन जीवन-संघर्षों की भूमिका रही है। आप इसे किस तरह व्यक्त करना चाहेंगे? 

रमेश उपाध्याय : मैं ‘जीवन-संघर्षों’ की जगह ‘जीवन-अनुभवों’ की बात करना चाहूँगा। संघर्ष से ऐसा लगता है कि जैसे आप किसी रणभूमि में शत्रुओं से लड़-भिड़कर विजयी हुए हैं, जबकि अनुभव लोगों से मिल-जुलकर, उनके साथ प्रेमपूर्वक जीने से प्राप्त होते हैं। मैं सोचता हूँ कि मेरी पारिवारिक परिस्थितियाँ यदि सामान्य होतीं, मैंने सामान्य ढंग से शिक्षा पायी होती, सामान्य ढंग से नौकरी पाकर और सामान्य ढंग से गृहस्थी बसाकर सामान्य जीवन जिया होता, तो आज मैं क्या होता? जो भी होता, शायद लेखक न होता और लेखक होता भी, तो शायद वैसा लेखक न होता, जैसा मैं हूँ। मुझे तो लगता है कि मैंने एक बँधी-बँधायी जिंदगी से जल्दी ही मुक्ति पाकर आजादी से जीते हुए, खूब यात्राएँ करते हुए, तरह-तरह के लोगों के संपर्क में आते हुए और तरह-तरह की परिस्थितियों से गुजरते हुए जो अनुभव प्राप्त किये, वे एम.ए. और पीएच.डी. से कहीं ज्यादा शिक्षाप्रद थे। मैंने राजस्थान विश्वविद्यालय से एम.ए. और दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की, लेकिन जैसे गोर्की की आत्मकथा के एक खंड का नाम है ‘मेरे विश्वविद्यालय’, वैसे ही मेरे वास्तविक विश्वविद्यालय तो वे शहर रहे, जहाँ मैं रहा और जिन्होंने मुझे प्रेम से अपनाया। मेरे वास्तविक शिक्षक तो वे लोग रहे, जिनके साथ मैं रहा और जिनसे मैंने नितांत अजनबी होते हुए भी भरपूर प्यार पाया। 

शंकर : आपने लेखन की शुरुआत कहानियों से की थी। आपने जिस समय लिखना शुरू किया, उस समय तक आप विचारधारात्मक रूप से सजग या प्रबुद्ध हो चुके थे या आपकी सजगता लिखने के दौरान बाद में आयी?

रमेश उपाध्याय : मेरी पहली कहानी बीस साल की उम्र में, 1962 में छपी थी। बीस साल का लड़का विचारधारात्मक रूप से बहुत सजग या प्रबुद्ध तो नहीं हो सकता, लेकिन चैदह साल की उम्र में पढ़ाई छोड़कर परिवार की जिम्मेदारी उठा लेने वाला लड़का, कई शहरों में मेहनत-मजदूरी करने वाला लड़का, टेªड-यूनियन वगैरह के अनुभवों से गुजरा हुआ लड़का, प्रेमचंद और दूसरे प्रगतिशील लेखकों के लेखन से प्रभावित लड़का चाहे किसी विचारधारा से प्रतिबद्ध न हो, वर्गीय पक्षधरता के कुछ पाठ तो पढ़ ही चुका था, जिनका असर आप मेरी पहली कहानी ‘एक घर की डायरी’ पर देख सकते हैं। बाकी सजगता बाद में लिखने के दौरान ही आयी। 

शंकर : आपकी कहानियों से गुजरते हुए जो चीज सबसे पहले और सबसे अधिक आकर्षित करती है, वह है विविधता। आपकी शायद ही कोई दो कहानियाँ एक जैसी हों। आपकी कहानियों में गाँव हैं, कस्बे हैं, शहर हैं और महानगर भी हैं। आपकी कहानियों के पात्रों में किसान हैं, मजदूर हैं, तरह-तरह के काम करने वाले मध्यवर्गीय लोग हैं और उच्चवर्गीय शासक लोग भी हैं। स्त्रियों में शिक्षित और अशिक्षित, विवाहित और अविवाहित, विधवाएँ और परित्यक्ताएँ, शहरी और ग्रामीण, मेहनत-मजदूरी करने वाली या नौकरी-चाकरी करने वाली, उच्चवर्गीय या शासकवर्गीय स्त्रियाँ भी हैं। उनमें बच्चे हैं, किशोर हैं, युवा हैं, प्रौढ़ हैं और वृद्ध भी हैं। फिर, आपकी कहानियों में पात्रों की पृष्ठभूमि, परिस्थितियों और उनकी निजी विशेषताओं से संबंधित भिन्नताएँ और विचित्रताएँ भी हैं। यह विविधता आपकी कहानियों में अनायास आयी है या सायास लायी गयी है? 

रमेश उपाध्याय : शंकर जी, मैंने अब तक के अपने आधी सदी से अधिक के लेखन काल में दो सौ से अधिक कहानियाँ लिखी हैं। मगर मुझे या मेरे पाठकों को कभी ऐसा नहीं लगा कि मैं स्वयं को दोहरा रहा हूँ। लेकिन मेरी कहानियों में विविधता सायास लायी गयी नहीं है, अनायास ही आयी है। मैं समझता हूँ, इसके दो कारण हैं। एक यह कि मैं बहुत-से भिन्न परिवेशों और परिस्थितियों में जिया हूँ, मैंने विभिन्न प्रकार के काम किये हैं, विभिन्न प्रकार के लोगों के साथ जीवन जिया है। और दूसरा यह कि मैं अक्सर अपने आसपास के यथार्थ में अचानक मिल जाने वाली नयी चीजों से प्रेरित होकर कहानी लिखता हूँ। मुझे नयी चीजें, जैसे कहानी के नये विषय, खोजने के लिए कहीं जाना नहीं पड़ता। वास्तव में वे यथार्थ में पहले से मौजूद होती हैं। लेकिन मुझे उनके होने का ज्ञान या अनुभव नहीं होता। जब किसी नयी चीज का सहसा ज्ञान या अनुभव होता है, तो मैं चकित रह जाता हूँ। मसलन, आप जिस रास्ते से रोजाना आते-जाते हों, उसके किनारे खड़ा कोई पेड़ या मकान आपको पहली बार दिखे, या आपका ध्यान खींच ले, और आप विस्मित हो जायें कि अरे, यह यहाँ कहाँ से आ गया! हमारे जीवन में, हमारे आसपास के लोगों में, उनकी बातों में, उनकी भाषा में, उस भाषा में व्यक्त होने वाले उनके संबंधों में और उन संबंधों में नित्यप्रति होने वाले बदलावों में मेरे ज्ञान और अनुभव से बाहर की इतनी चीजें होती हैं कि मैं हैरान रह जाता हूँ और सोचता हूँ कि जीवन के इस पक्ष को या मनुष्य के इस रूप को मैंने पहले क्यों नहीं देखा! और मेरी यह हैरानी मुझे एक नयी कहानी लिखने के लिए प्रेरित करती है। चूँकि यह प्रेरणा पहले की प्रेरणाओं से भिन्न होती है, इसलिए वह कहानी भी पहले की कहानियों से भिन्न होती है। 

शंकर : आपकी कहानियों में कथ्य की ही नहीं, रूप और शिल्प की विविधता भी खूब है। जैसे कि आप कहीं परंपरागत आख्यान वाली कहानी लिखते हैं, तो कहीं उस आख्यान में नये-नये प्रयोग करते हैं। कभी ‘पैदल अँधेरे में’ और ‘चिंदियों की लूट’ जैसी छोटी-छोटी सूक्ष्म सांकेतिक कहानियाँ लिखते हैं, तो कभी ‘अंधा कुआँ’ और ‘पानी की लकीर’ जैसी विस्तृत विवरणों वाली लंबी कहानियाँ। कभी पौराणिक आख्यानों को नया रूप देकर नये अर्थों-संदर्भों वाली ‘कल्पवृक्ष’, ‘कामधेनु’ और विश्वामित्र वाली ‘प्रतिसृष्टि’ जैसी कहानियाँ लिखते हैं, तो कभी लोककथा वाले रूप में ‘प्रजा का तंत्र’ और ‘मायानगरी में एक दिन’ जैसी कहानियाँ। कभी हास्य-व्यंग्य वाली ‘दूसरी पत्नी’ और ‘परथम श्रेणी सबको दो!’ जैसी कहानियाँ लिखते हैं, तो कभी ‘मेरे दोस्त का सपना’ या ‘एक झरने की मौत’ जैसी करुण कहानियाँ। और आपकी प्रयोगशीलता का सबसे बड़ा प्रमाण तो है आपकी कहानी-शृंखला ‘किसी देश के किसी शहर में’, जिसमें आपने लोककथा के शिल्प में यथार्थ और फैंटेसी तथा व्यंग्य और विडंबना के अद्भुत प्रयोग किये हैं। ऐसी कहानी-शंृखला हिंदी कहानी में न आपसे पहले किसी ने लिखी है, न आपके बाद के किसी लेखक ने। तो यह बताइए कि कहानी में ऐसे प्रयोग करने की आवश्यकता आप क्यों महसूस करते हैं? 

रमेश उपाध्याय : देखिए, हिंदी कहानी में यथार्थवाद और यथार्थवादी कहानी को लेकर बहुत सारे विभ्रम फैले हुए हैं। जैसे आम तौर पर यह माना जाता है कि यथार्थ और कल्पना परस्पर-विरोधी हैं, इसलिए यथार्थवादी कहानी में कल्पना या फैंटेसी का, अलौकिक चीजों या पौराणिक पात्रों का कोई काम नहीं। फिर, यह भी माना जाता है कि यथार्थ रूखा-सूखा, रूप-रस-गंध-स्पर्श आदि के आनंद से रहित होता है, इसलिए यथार्थवादी कहानी में इन सब चीजों का और हास-परिहास का या व्यंग्य-विनोद का कोई काम नहीं। लेखक ने जो देखा है, उसी को यथावत लिख देना, या उसने जो जिया-भोगा है, उसी को लिख देना यथार्थवादी कहानी लिखना माना जाता है, चाहे ऐसी कहानी महाबोर और नितांत अपठनीय ही क्यों न हो। ब्रेख्त की तरह मेरा मानना है कि यथार्थ को किसी एक ही तरीके से नहीं, हजारों तरीकों से व्यक्त किया जा सकता है। हाँ, इसमें नये प्रयोगों के असफल हो जाने की जोखिम है, पर यह जोखिम उठाये बिना आप साहित्य में नया क्या कर सकते हैं? 

शंकर : आपकी शुरू की कहानियों में, मसलन ‘आने वाले के लिए’, ‘आत्मघात’, ‘दूसरी पवित्रा’, ‘शेष इतिहास’, ‘पानी की लकीर’, ‘पैदल अँधेरे में’, ‘बराबरी का खेल’, ‘माटीमिली’, ‘देवीसिंह कौन?’ आदि में, आपकी लेखकीय पक्षधरता या वैचारिक प्रतिबद्धता कहानी में अंतर्धारा के रूप में मौजूद है, जबकि आपकी बाद की कहानियों में, जैसे ‘प्राइवेट पब्लिक’, ‘त्रासदी...माइ फुट!’, ‘अर्थतंत्र’ या ‘हम किस देश के वासी हैं’ आदि में उसकी मुखरता ज्यादा है। संभव है, बाद की इन कहानियों को लिखते हुए आपने महसूस किया हो कि बिना मुखर हुए कहानी के माध्यम से जो बात कही जानी है, वह नहीं कही जा सकेगी। आप इन कहानियों को किस रूप में देखते हैं? 

रमेश उपाध्याय : देखिए, कहानी में लेखकीय पक्षधरता या वैचारिक प्रतिबद्धता का अंतर्निहित रहना या खुलकर व्यक्त होना, या कहानी का सूक्ष्म अथवा स्थूल होना, या अंग्रेजी में कहें तो उसका सटल या लाउड होना कई चीजों पर निर्भर करता है। जैसे, कहानी के लिखे जाने के समय का सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक वातावरण। मैंने जिस समय कहानियाँ लिखना शुरू किया, राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के समय जनता द्वारा देखे गये स्वप्नों के भंग होने का समय था, जिसे साहित्य में मोहभंग कहा जाता था। हालाँकि मध्यवर्ग में देश के नवनिर्माण से बेहतर भविष्य या समाजवादी समाज बनने की आशाएँ मौजूद थीं, सरकारी नौकरियाँ आसानी से मिल जाती थीं, पत्रकारिता और प्रकाशन जगत में आज की-सी व्यावसायिकता नहीं थी और पत्र-पत्रिकाओं के संपादक प्रायः साहित्यकार हुआ करते थे। लाखों की पाठक संख्या वाले ‘धर्मयुग’ और ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ जैसे साप्ताहिक पत्रों और टाइम्स आॅफ इंडिया तथा हिंदुस्तान टाइम्स जैसे बड़े प्रकाशन समूहों से निकलने वाली ‘सारिका’ और ‘कादंबिनी’ जैसी मासिक पत्रिकाओं में भी साहित्य के लिए काफी जगह होती थी। फिर, इनके साथ-साथ ‘कल्पना’, ‘लहर’, ‘माध्यम’, ‘ज्ञानोदय’, ‘कहानी’, ‘नयी कहानियाँ’ आदि साहित्यिक पत्रिकाएँ भी थीं, जिनमें नये-पुराने सभी तरह के लेखक अपना मनचाहा लिख सकते थे। उदाहरण के लिए, ‘नयी कहानी’ आंदोलन के समय परिमल वाले धर्मवीर भारती ‘धर्मयुग’ में प्रगतिशील लेखकों की और प्रगतिशील भैरवप्रसाद गुप्त ‘कहानी’ और ‘नयी कहानियाँ’ में गैर-प्रगतिशील लेखकों की भी कहानियाँ सम्मान के साथ प्रकाशित करते थे। इसलिए रचना में लेखकीय पक्षधरता या वैचारिक प्रतिबद्धता का मुखर होना या न होना ज्यादा मायने नहीं रखता था। मगर बाद में, जब सामाजिक-राजनीतिक जीवन में निराशा छाने लगी, युवाओं में कुछ देशी-विदेशी प्रभावों से विद्रोह के स्वर उभरने लगे, शीतयुद्ध की राजनीति के तहत साहित्य में खेमेबंदी होने लगी, तब वाम राजनीति और विचारधारा पर आक्रमण होने लगे। कम्युनिस्ट आंदोलन में विभाजन-दर-विभाजन से भी साहित्यिक वातावरण बहुत बदला। ‘बड़ी’ पत्रिकाओं के विरुद्ध ‘लघु’ पत्रिकाओं का आंदोलन शुरू हुआ। और फिर आया आपातकाल, जिसमें लेखकों ने पाया कि लिखने-बोलने की आजादी पर लगे हुए जो प्रतिबंध पहले नजर नहीं आते थे, अब स्पष्ट होकर लेखन को बाधित और नियंत्रित करने लगे हैं। हिंदी कहानी इन परिवर्तनों से अप्रभावित कैसे रह सकती थी? मेरी कहानियाँ भी अप्रभावित नहीं रहीं। आपने मेरी जिन तीन कहानियों--‘प्राइवेट पब्लिक’, ‘त्रासदी...माइ फुट!’ और ‘हम किस देश के वासी हैं’--में ज्यादा मुखरता देखी है, वे तीनों कहानियाँ निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण की प्रक्रियाओं में बदलते हुए भूमंडलीय यथार्थ की कहानियाँ हैं। इन कहानियों में जो यथार्थ है, वह लेखकीय पक्षधरता और वैचारिक प्रतिबद्धता की मुखरता के बिना व्यक्त किया ही नहीं जा सकता था। 

शंकर : आपको अपनी कहानियों में से कौन ज्यादा प्रिय हैं? 

रमेश उपाध्याय : यह बताना बहुत मुश्किल है। फिर भी, जिन कहानियों के नाम आपने लिये हैं, वे तो मुझे पसंद हैं ही, उनके अलावा भी कई कहानियाँ मुझे अपनी दूसरी कहानियों से ज्यादा पसंद हैं। जैसे, ‘गलत-गलत’, ‘ब्रह्मराक्षस’, ‘कहीं जमीन नहीं’, ‘नदी के साथ एक रात’, ‘कामधेनु’, ‘दूसरा दरवाजा’, ‘अविज्ञापित’, ‘डाॅक्यूड्रामा’, ‘लाला बुकसेलर’, ‘एक झरने की मौत’ आदि। इससे याद आया कि जब कमलेश्वर साहित्य अकादमी के लिए ‘बीसवीं सदी की हिंदी कथा-यात्रा’ का संपादन कर रहे थे, उन्होंने फोन करके मुझसे पूछा था कि मेरे संग्रह ‘डाॅक्यूड्रामा तथा अन्य कहानियाँ’ में मुझे कौन-सी कहानी ज्यादा पसंद है। मेरे लिए अपने एक संग्रह में भी अपनी सबसे प्रिय कहानी बताना मुश्किल हो गया। जैसे-तैसे मैंने एक कहानी का नाम बताया। ‘प्रजा का तंत्र’। और कमलेश्वर ने कहा, ‘‘मुझे भी यह कहानी बहुत पसंद है। मैं इसी को ले रहा हूँ।’’
शंकर: आप ‘प्रजा का तंत्र’ को किस रूप में देखते हैं? 

रमेश उपाध्याय : ‘प्रजा का तंत्र’ में मैंने समकालीन भूमंडलीय यथार्थ को भारतीय और विशेष रूप से हिंदी की यथार्थवादी कथा-परंपरा में कुछ नया जोड़ते हुए लोककथा के रोचक रूप में व्यक्त किया है। इस यथार्थ का एक सिरा जनता के शोषण और दमन के इतिहास से जुड़ा है, तो दूसरा सिरा मानव-मुक्ति के भविष्य-स्वप्न से। इस कहानी में मैंने अपने देश और बाकी दुनिया में प्रायः सर्वत्र चल रही वह जन-विरोधी तथा जनतंत्र-विरोधी प्रक्रिया दिखायी है, जिसमें राज्यतंत्र उत्तरोत्तर अधिक दमनकारी होता जाता है और जनतंत्र निरंतर कमजोर पड़ता जाता है। इसके चलते जनतंत्र के नाम पर निरंकुश राजा और विवश प्रजा वाली पुरानी व्यवस्था ही आधुनिक रूप में चलती दिखायी देती है। लेकिन यह दिखाने के लिए कि यथार्थ इकहरा नहीं, द्वंद्वात्मक होता है, मैंने इस व्यवस्था को बदल सकने वाली एक नयी जनतांत्रिक प्रतिरोध-प्रक्रिया का संकेत भी एक यथार्थ संभावना के रूप में कर दिया है। मैंने इस छोटी-सी कहानी में देश-काल की दृष्टि से अत्यंत विस्तृत भौगोलिकता तथा अत्यंत गहन ऐतिहासिकता वाले भूमंडलीय यथार्थ को सहज संप्रेषणीय बनाने के लिए भारतीय लोककथाओं वाली शैली तथा व्यंग्यात्मक भाषा अपनायी है, जिससे कहानी में पुरानी किस्सागोई के साथ व्यंग्य, विडंबना, पैरोडी, फैंटेसी, ऐलेगरी आदि के नये प्रयोग सहजता से होते चले गये हैं। शायद इसी कारण मेरी यह प्रिय कहानी लोकप्रिय भी है। 

शंकर : ‘त्रासदी...माइ फुट!’ आपकी एक बहुत महत्त्वपूर्ण और उत्कृष्ट कहानी है। भोपाल गैस कांड पर तो शायद यह अपने ढंग की अकेली ही कहानी है। इसमें कंपनी के क्रियाकलाप के बारे में वे तथ्य आये हैं, जिनको कंपनी ने छिपाने की कोशिशें कीं। कहानी के पात्र नूर भोपाली ने इस कांड को लेकर बहुत सारे तथ्य जुटाये हैं। वे उन्हें गजल में नहीं ढाल पा रहे हैं, लिहाजा इस कांड पर वे उपन्यास लिखना चाह रहे हैं, लेकिन वे उपन्यास का रूपबंध तैयार नहीं कर पा रहे हैं। शायद यह दिक्कत आपको भी इस कहानी को लिखते समय आयी और इसीलिए आपने नूर से कहलाया है--‘‘उपन्यास के लिए मसाला तो मैंने बहुत सारा जमा कर लिया है। लेकिन यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि इसे कहानी के रूप में किस तरह ढालूँ। मैं जो कहानी कहना चाहता हूँ, वह किसी एक व्यक्ति की, एक परिवार की, एक शहर की या एक देश की नहीं, बल्कि सारी दुनिया की कहानी होगी। मुझे लगता है, ग्लोबलाइजेशन के दौर में साहित्य को भी ग्लोबल होना पड़ेगा। मगर किस तरह?’’ इस पर नूर का कहानीकार मित्र राजन कहता है--‘‘मैं भी आजकल इसी समस्या से जूझ रहा हूँ।’’ इस कहानी में राजन शायद आपका ही प्रतिरूप है, क्योंकि आपने ही भूमंडलीय यथार्थवाद की नयी अवधारणा प्रस्तुत की है और इस कहानी में तथा ‘प्राइवेट पब्लिक’ और ‘हम किस देश के वासी हैं’ जैसी अन्य कहानियों में भूमंडलीय यथार्थवाद के सफल उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। हिंदी कहानी में यह एक सर्वथा नयी चीज है। ‘त्रासदी...माइ फुट!’ की रचना-प्रक्रिया के बारे में बताते हुए आप इसके बारे में बतायें। 

रमेश उपाध्याय : शंकर जी, भोपाल गैस कांड में मारे गये और जीवन भर के लिए बीमार और अपाहिज हो गये सर्वथा निर्दोष लोगों के साथ उस रात जो हुआ, उसका प्रत्यक्षदर्शी तो मैं नहीं था, लेकिन उससे मैं बहुत विचलित हुआ। बाद में उसके बारे में मैंने जो पढ़ा-सुना, उससे मुझे लगा कि यह कोई त्रासदी नहीं, जान-बूझकर किया गया हत्याकांड था। इससे मेरे मन में एक तरफ अथाह दुख और दूसरी तरफ अपार क्रोध उत्पन्न हुआ। उस विक्षोभ की अभिव्यक्ति के लिए मैंने 1985 में ‘अनदीखती’ कहानी लिखी, जो ‘पहल’ के कहानी विशेषांक में छपी थी। मगर मैं उस कहानी से संतुष्ट नहीं था। इसलिए उस कहानी को लिख चुकने के बाद भी मैं उस कांड के बारे में कुछ शोध जैसा करता रहा। बीसवीं सदी के अंतिम दशक से पूँजीवादी भूमंडलीकरण की जो आँधी चली, उसके अनुभव ने भी मुझे झकझोरा और मुझे लगा कि अब यथार्थ को किसी एक व्यक्ति के, एक परिवार के, एक शहर के या एक देश के यथार्थ के रूप में नहीं, बल्कि संपूर्ण विश्व के यथार्थ के रूप में देखना होगा, क्योंकि आज की दुनिया में जो कुछ हो रहा है, उसका संबंध समूचे वैश्विक या भूमंडलीय यथार्थ से है। लेकिन भूमंडलीय यथार्थ को कहानी में ढालना बहुत मुश्किल काम था और ऐसी कहानियों के कोई उदाहरण भी मेरे सामने नहीं थे। इसलिए यह एक बड़ी रचनात्मक चुनौती थी, जिसे स्वीकार करते हुए मैंने 2006 में यह कहानी लिखी। इस प्रकार आप कह सकते हैं कि इस कहानी की रचना-प्रक्रिया लगभग बीस बरस जारी रही। 

शंकर : हिंदी की कहानी समीक्षा में आम तौर पर यह माना जाता है कि कहानी में लेखकीय पक्षधरता और वैचारिक प्रतिबद्धता अंतर्निहित रहनी चाहिए, मुखर होकर व्यक्त नहीं होनी चाहिए। आपकी ‘शेष इतिहास’, ‘पानी की लकीर’, ‘पैदल अँधेरे में’, ‘माटीमिली’, ‘बराबरी का खेल’, ‘देवीसिंह कौन?’ आदि बहुत ऊँचे दरजे की कहानियाँ हैं। इन कहानियों में आपकी लेखकीय पक्षधरता और वैचारिक प्रतिबद्धता बिलकुल स्पष्ट है। फिर भी ये ऊँचे दरजे की कहानियाँ हैं। इस विषय में आपको क्या कहना है? 

रमेश उपाध्याय : शंकर जी, मेरे विचार से यह एक मिथ्या धारणा है कि कहानी में लेखकीय पक्षधरता और वैचारिक प्रतिबद्धता स्पष्ट या मुखर होने से कहानी खराब हो जाती है। यह धारणा वाम विचारधारा और यथार्थवादी लेखन का विरोध करने के लिए इस्तेमाल और प्रचारित की जाती रही है। दिक्कत यह है कि हिंदी के प्रगतिशील और जनवादी कहानी समीक्षक भी इसे सही मानते रहे हैं। लेकिन आधुनिक काल से पहले, बल्कि आधुनिकतावादी साहित्य समीक्षा से पहले, यह धारणा आपको कहीं नहीं मिलेगी। ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ से लेकर संस्कृत और दूसरी तमाम भारतीय भाषाओं के साहित्य में ही नहीं, पश्चिम के पुराने साहित्य में भी लेखकीय पक्षधरता और वैचारिक प्रतिबद्धता स्पष्ट दिखायी देती है। मैं आपकी पत्रिका ‘परिकथा’ के जनवरी-फरवरी, 2018 के अंक में प्रकाशित अपने लेख ‘साहित्यिक आंदोलन और लेखक संगठन’ में भक्तिकाल के कवियों के उदाहरणों से यह बात स्पष्ट कर चुका हूँ। कहानी की गुणवत्ता और मूल्यवत्ता का निर्णय उसमें लेखकीय पक्षधरता और प्रतिबद्धता के मुखर या अंतर्निहित रहने के आधार पर नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसे चाहे कितना भी छिपाया जाये, जरा-सा प्रयत्न करते ही वह स्पष्ट हो जाती है। कहानी की गुणवत्ता और मूल्यवत्ता के मानदंड दूसरे हैं, जो कहानी की विषयवस्तु के साथ-साथ कहानी कहने की कला से भी संबंध रखते हैं। कहानी में क्या कहा गया है, यह तो महत्त्वपूर्ण है ही; कैसे कहा गया है, यह भी महत्त्वपूर्ण है। दुर्भाग्य से हिंदी की कहानी समीक्षा में विषयवस्तु ही मुख्य मानी जाती रही है, उसके रूप पर बहुत कम ध्यान दिया गया है। रूप पर ध्यान देने वाले कहानी समीक्षक चाहे प्रगतिशील और जनवादी ही क्यों न हों, रूपवादी, कलावादी, अनुभववादी आदि यथार्थवाद-विरोधी युक्तियाँ अपनाते रहे हैं। लेकिन कहानी ऐसी कला है, जिसका जादू सिर चढ़कर बोलता है। अगर वह कला कहानी में है, तो लेखकीय पक्षधरता और वैचारिक प्रतिबद्धता के मुखर होने पर भी उसका जादू सिर चढ़कर बोलेगा। 

शंकर : आपने हमेशा कहा है कि यथार्थवादी कथाकारों को कलावादी नहीं होना चाहिए, लेकिन कहानी में कलात्मकता का ध्यान अवश्य रखना चाहिए। आप अपनी कहानियों में निरंतर नये, गतिशील और परिवर्तनशील यथार्थ को कलात्मक रूप में सामने लाते रहे हैं। इसके लिए आपने अपनी कहानियों में मिथक, रूपक, प्रतीक, व्यंग्य, विडंबना आदि के प्रयोगों के साथ कथा कहने की विभिन्न शैलियों का उपयोग भी किया है। जैसे वर्णन और चित्रण की शैली, आत्मकथात्मक शैली, लोककथाओं वाली शैली इत्यादि। इस दृष्टि से आपकी कहानी-शंृखला ‘किसी देश के किसी शहर में’ एक अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करती है। विजयदान देथा ने लोककथाओं को लोककथा की तरह लिखा है, जबकि आपने अद्यतन जीवन-प्रसंगों, स्थितियों और घटनाओं को लोककथा की तरह लिखा है। आपने इस सिलसिले को आगे क्यों नहीं बढ़ाया? 

रमेश उपाध्याय : ‘किसी देश के किसी शहर में’ कहानी-शृंखला कथा पत्रिका ‘सारिका’ के संपादक अवध नारायण मुद्गल के आग्रह पर लिखी गयी थी और ये कहानियाँ ‘सारिका’ में धारावाहिक रूप से छपी थीं। ऐसा अवसर कोई और संपादक देता, तो मैं इस सिलसिले को आगे बढ़ाना अवश्य पसंद करता। 

शंकर : लगभग सभी महत्त्वपूर्ण कथाकारों ने अपनी रचना-प्रक्रिया बतायी है--कभी किसी इंटरव्यू में, कभी किसी वक्तव्य में, कभी किसी किताब की भूमिका में, कभी किसी लेख या टिप्पणी में। आपने अपने उपन्यास ‘दंडद्वीप’ की भूमिका में और कहानी संग्रह ‘किसी देश के किसी शहर में’ की लंबी भूमिका में यह काम किया है। इन दोनों भूमिकाओं से पता चलता है कि आपकी कहानियाँ कभी आपके अनुभवों से निकलती हैं, तो कभी दूसरों के अनुभवों से। इसे आपने कहीं ‘‘आपबीती को जगबीती बनाकर और जगबीती को आपबीती बनाकर लिखना’’ कहा है। क्या अलग से किसी लेख में आपने अपनी रचना-प्रक्रिया के बारे में लिखा है? 

रमेश उपाध्याय : जी, हाँ। मेरी आत्मकथात्मक पुस्तक ‘मेरा मुझ में कुछ नहीं’ में मेरा एक लेख है ‘कैद से निकलने की कोशिश है रचना’। उसमें मैंने ‘जुलूस’, ‘कामधेनु’, ‘डाॅक्यूड्रामा’, ‘माटीमिली’ आदि कहानियों की रचना-प्रक्रिया के बारे में लिखा है। कथ्य और रूप की दृष्टि से मेरी ये कहानियाँ एक-दूसरी से सर्वथा भिन्न हैं और लिखी भी गयी हैं अलग-अलग समयों पर, अलग-अलग तरह से। जैसे ‘जुलूस’ कहानी लिखने का विचार एक दिन एक बाजार से गुजरते हुए अचानक आया और मैंने तपती दोपहरी में एक बस स्टैंड पर, भीड़-भाड़ के बीच बैठकर वह पूरी कहानी एक बार में ही लिख डाली, जबकि ‘माटीमिली’ मैंने ग्यारह वर्षों में कम से कम ग्यारह बार लिखी, तब कहीं जाकर वह मुझे संतुष्ट करने वाले रूप में लिखी जा सकी। 

शंकर : कहानियाँ अंतर्वस्तु, कथानक और कथ्य के आधार पर तो जनोन्मुखी या अभिजनोन्मुखी ठहरायी जाती रही हैं, लेकिन आपका मानना है कि कहानियाँ रूप या कला पक्ष के स्तर पर भी जनोन्मुखी या अभिजनोन्मुखी ठहरती हैं। क्या इस बात को ‘परिकथा’ के पाठकों के लिए कुछ और स्पष्ट करेंगे? 

रमेश उपाध्याय : देखिए, कहानी की विधा तो आदिकाल से आज तक जनोन्मुखी ही है, पर कुछ इलीटिस्ट किस्म के लोग जान-बूझकर उसे अभिजनोन्मुखी बनाया करते हैं। मैं यह मानता हूँ कि कहानी आधुनिक युग में लिखी और पढ़ी जाने वाली चीज बन जाने के बावजूद अपनी मूल प्रकृति के अनुसार आज भी सुनी और सुनायी जाने वाली चीज है। किसी कहानी को पढ़ते समय हम एक प्रकार से उसे सुन ही रहे होते हैं। जैसे कहानीकार सामने बैठकर हमें कहानी सुना रहा हो। मुझे कहानी लिखते समय महसूस होता है कि मैं सामने बैठे श्रोताओं को कहानी सुना रहा हूँ। लेकिन जैसे किसी सभा या गोष्ठी के सभी श्रोता या किसी कक्षा के सभी छात्र एक जैसे नहीं होते, और वक्ता या प्रवक्ता को ध्यान रखना पड़ता है कि उसकी बात सभी सुन-समझ सकें, वैसे ही कहानीकार चाहता है कि उसकी कहानी प्रबुद्ध और साधारण दोनों प्रकार के पाठक रुचिपूर्वक पढ़ें और पसंद करें... 

शंकर : आप प्राध्यापक भी तो रहे हैं...

रमेश उपाध्याय : (मुस्कराते हुए) हाँ, अध्यापन के अनुभव से मैंने कहानी लेखन के बारे में कई बातें सीखीं। जैसे मैं गोष्ठियों में, सम्मेलनों में और रेडियो पर कहानियाँ पढ़ता रहा हूँ। एक बार मेरे नाटककार मित्र और ‘अभिव्यक्ति’ के संपादक शिवराम ने राजस्थान में कई हजार मजदूरों के सामने मेरा कहानी पाठ कराया और मुझे खुशी हुई कि कहानी लंबी होने के बावजूद, शहरी मध्यवर्गीय लोगों की कहानी होने के बावजूद, श्रोताओं ने ध्यान से सुनी और अगले दिन मिलने पर मुझसे उसके बारे में बात की। 

शंकर : आप कहानी के जनोन्मुखी होने के बारे में जो बात बता रहे थे, उसे जारी रखें। 

रमेश उपाध्याय :
हाँ, मैं कह रहा था कि कहानी मेरे विचार से प्रबुद्ध और साधारण दोनों तरह के पाठकों द्वारा रुचिपूर्वक पढ़ी और पसंद की जानी चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि कहानी की भाषा साहित्यिक होते हुए भी बोलचाल की भाषा जैसी हो, उसमें कलात्मक बारीकियाँ तो हों, पर उसे समझने में किसी को दिक्कत न हो। लेकिन कुछ उच्चभ्रू कहानीकार कहानी को सुनी-सुनायी जाने वाली चीज नहीं, बल्कि लिखी और पढ़ी जाने वाली चीज ही समझते हैं। वे साधारण पाठकों के स्तर तक उतरना अपनी तौहीन समझते हैं और उस तथाकथित प्रबुद्ध पाठक के लिए लिखते हैं, जो उनकी कहानी को समझ और सराह सके। लोकप्रिय कहानी और कहानीकारों को वे नीची नजर से देखते हैं और चंद विशिष्ट पाठकों, यानी आलोचकों से प्राप्त प्रशंसा को ही पर्याप्त समझते हैं। मगर मैं तो चाहता हूँ कि मेरी कहानी ज्यादा से ज्यादा लोग पढ़ें, समझें और सराहें। मेरी ‘किसी देश के किसी शहर में’ शृंखला की कहानियों के बारे में मेरे कई लेखक मित्रों ने बताया कि उनके बच्चों को भी ये कहानियाँ पसंद हैं। कुछ मित्रों ने अपने बच्चों से मुझे पत्र भी लिखवाकर भेजे। मुझे ऐसी प्रतिक्रियाएँ किसी बड़े पुरस्कार से कम नहीं लगतीं। 

शंकर : कई कहानीकार कहानी में नयापन लाने के लिए विषयवस्तु और भाषा के स्तर पर कुछ अतिरिक्त प्रयास करते दिखायी पड़ते हैं... 

रमेश उपाध्याय : हाँ, लेकिन वे कहानी में नयापन लाने के लिए प्रायः विदेशी कहानियों की नकल करते पाये जाते हैं। भाषा के स्तर पर तो शब्दों, वाक्यों और कुछ खास अभिव्यक्तियों की नकल करना आम बात है। लेकिन वे शायद यह नहीं देख पाते कि ऐसा करने से कहीं उनकी कहानी की भाषा अनुवाद जैसी, कहीं झूठे पांडित्य-प्रदर्शन जैसी, कहीं भौंडे हास्य और छिछोरे व्यंग्य जैसी, कहीं गाली-गलौज करने वाले सड़कछाप लोगों की-सी, तो कहीं अतिबौद्धिकता या अतिआंचलिकता की मारी-सी हो जाती है। ऐसी भाषा कुछ चमत्कार पैदा करके पाठक को आतंकित भले ही कर दे, कहानी की रोचकता और पठनीयता को कम कर देती है। मैं यह मानता हूँ कि कहानी में नयापन जन-जीवन के सतत परिवर्तनशील यथार्थ की अभिव्यक्ति से आता है, जो अपने लिए उचित भाषा स्वतः ही खोज लेती है। नयी भाषा का निर्माण लेखक नहीं करता, जनता करती है। इसलिए जन-भाषा के नित्यप्रति बदलते रूपों पर अपनी पकड़ बनाने वाला यथार्थवादी कहानीकार ही कहानी में भाषा के स्तर पर कुछ नया कर पाता है। 

शंकर : आपकी पुस्तक ‘साहित्य और भूमंडलीय यथार्थ’ में एक निबंध है ‘आगे की कहानी’, जिसमें आपने ‘आज की कहानी’ की जगह ‘आगे की कहानी’ की बात की है और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना द्वारा दिये गये पाँच सूत्रों में अपने भी पाँच सूत्र जोड़े हैं। सर्वेश्वर जी के पाँच सूत्र हैं--1. पश्चिमी फैशनपरस्त अंधानुकरण से बचो। 2. शिल्प को आतंक मत बनाओ। 3. उनके लिए भी लिखो जो अर्द्धशिक्षित हैं और उनके लिए भी जो अशिक्षित हैं, जिन्हें तुम्हारी कहानी पढ़कर सुनायी जा सके। 4. इस देश की तीन-चैथाई जनता की सोच-समझ को वाणी दो, जो वह खुद नहीं कह सकती। और, 5. कहानी को लोककथाओं और ‘फेबल्स’ की सादगी की ओर मोड़ो, उनके विन्यास से सीखो, और उसे आम आदमी के मन से जोड़ो। और आपके पाँच सूत्र हैं--1. चालू विमर्शों की कहानी लिखने से बचो। 2. बदलते हुए यथार्थ को देखो और यथार्थ को बदलने के लिए लिखो। 3. दुनिया भर के उत्कृष्ट कहानी-लेखन से सीखो, पर अपनी कथा परंपरा में और अपनी जनता के लिए लिखो। 4. साहित्य की बदली हुई शब्दावली को आँख मूँदकर मत अपनाओ। 5. वैश्विक पूँजीवाद के विरुद्ध वैश्विक समाजवाद का स्वप्न साकार करने के लिए अच्छी कहानियाँ बेखटके गढ़ो। इन दस सूत्रों को एक कसौटी मान लिया जाये, तो पिछले ढाई दशकों के दौर के कहानी लेखन पर क्या राय बन सकती है? 

रमेश उपाध्याय : सच कहूँ, तो कोई ज्यादा अच्छी राय नहीं बनती। पश्चिमी फैशनों का अंधानुकरण कम होने के बजाय बढ़ा है। शिल्प को आतंक बनाने वालों की संख्या तो ज्यादा नहीं बढ़ी है, पर वे बहुत महत्त्वपूर्ण माने गये हैं। अर्द्धशिक्षितों और अशिक्षितों में तो दलित, स्त्री, आदिवासी, अल्पसंख्यक आदि सभी होते हैं, जिन्हें एक शब्द में गरीब कहा जा सकता है और ‘गरीब’ एक वर्गीय अवधारणा है। लेकिन पिछले ढाई दशकों में समाज को वर्गीय दृष्टि से देखा जाना कम हुआ है और उसे जाति, लिंग, समुदाय, संप्रदाय आदि के आधार पर ज्यादा देखा गया है। इसलिए किसान और मजदूर हिंदी कहानी से गायब-से हो गये हैं। कहानी को आम आदमी के मन से जोड़ने वाली सीधी-सच्ची जनभाषा के निकट की भाषा अपनाने के बजाय अखबारी या अनुवाद की-सी भाषा में कहानी लिखी जा रही है। साहित्यिक आंदोलनों की जगह जो अस्मिता विमर्श चले, उनसे कहानी लेखन एक प्रकार के चालू अनुभववादी लेखन में बदल गया है, जिससे यथार्थवादी रचना और आलोचना की बहुत हानि हुई है। कुल मिलाकर आज की कहानी का परिदृश्य काफी निराशाजनक है। 

शंकर : लेकिन अच्छी कहानियाँ भी लिखी जा रही हैं। आपने स्वयं ‘नया ज्ञानोदय’ के अपने स्तंभ ‘लगे हाथ’ में आज की कई अच्छी कहानियों की चर्चा की है। 

रमेश उपाध्याय : अच्छी-बुरी दोनों तरह की कहानियाँ हर दौर में लिखी जाती हैं। लेकिन अच्छी कहानियाँ अपना प्रभाव तभी छोड़ पाती हैं, जब कहानी-समीक्षा अपना काम सही ढंग से कर रही हो या कहानीकार स्वयं अच्छी कहानियों के पक्ष में एक वातावरण बना पा रहे हों। आज ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। इसलिए खराब कहानियाँ खोटे सिक्कों की तरह अच्छी कहानियों के खरे सिक्कों को चलन से बाहर कर देती हैं। आज की कहानी का परिदृश्य तो यही है, लेकिन आगे की कहानी अब भी एक संभावना है, क्योंकि स्थानीय और भूमंडलीय यथार्थ स्वयं को बुनियादी तौर पर बदले जाने की माँग कर रहा है और हिंदी कहानी ने भूमंडलीय यथार्थवाद की दिशा में आगे बढ़ना शुरू कर दिया है। 

शंकर : आप भूमंडलीय यथार्थवाद पर इतना जोर क्यों देते हैं? 

रमेश उपाध्याय : मुझे लगता है, जीवन के हर क्षेत्र में आज एक निराशा-सी छायी हुई है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि आशा लोगों में तब जागती है, जब कोई दल, संगठन, नेतृत्व या आंदोलन अपने सही होने का विश्वास दिलाता है, अपने सफल होने की उम्मीद जगाता है, बेहतर भविष्य का सपना दिखाता है और लोगों को यह अहसास कराता है कि वे मिल-जुलकर अपने सपने को साकार कर सकते हैं। आज ऐसा कुछ भी होता नजर नहीं आता। लोग वर्तमान व्यवस्था का कोई बेहतर विकल्प चाहते हैं, लेकिन वे विकल्प खोजते हैं केवल स्थानीय स्तर पर। जैसे चुनावों के जरिये एक दल को सत्ता से हटाकर दूसरे दल को सत्ता सौंप देना। लेकिन यह कोई विकल्प नहीं होता। इससे सरकार तो बदल सकती है, व्यवस्था नहीं बदल सकती। तब नयी सरकार से भी लोगों का मोहभंग होता है और उन्हें लगता है कि कुछ भी कर लो, कुछ नहीं होता; क्योंकि व्यवस्था नहीं बदलती। लेकिन व्यवस्था बदले कैसे? वे उसे स्थानीय स्तर पर बदलना चाहते हैं, जबकि वह भूमंडलीय हो चुकी है। भूमंडलीय व्यवस्था को बदलने का काम स्थानीय स्तर पर नहीं, भूमंडलीय स्तर पर ही किया जा सकता है। इसलिए मैं भूमंडलीय यथार्थवाद पर जोर देता हूँ। और मैं चाहता हूँ कि इस बात को साहित्यकार तो समझें ही, मुक्तिकामी दल और संगठन भी समझें। 

शंकर : हिंदी में प्रेमचंद के ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ को यथार्थवाद से कुछ कमतर मानने की प्रवृत्ति रही है, लेकिन आपने उसे सही यथार्थवाद माना है। इसे कुछ स्पष्ट करेंगे? 

रमेश उपाध्याय : (हँसकर) इसे स्पष्ट करने का काम मैं कई वर्षों से विभिन्न रूपों में करता आ रहा हूँ। यहाँ संक्षेप में इतना ही कहना काफी होगा कि हिंदी में यथार्थवाद को लेकर काफी भ्रम रहे हैं और आज भी व्यापक स्तर पर फैले हुए हैं। कई लोगों को तो मालूम ही नहीं है कि यथार्थवाद हिंदी में कब आया और कैसे आया। उन्हें बताना पड़ता है कि हिंदी में यथार्थवाद ‘नेचुरलिज्म’ (प्रकृतवाद) के रूप में आया था, जिसमें जीवन को रचना में जस का तस चित्रित करने की कोशिश की जाती थी। उसमें प्रायः समाज की गंदगी, अपराध, व्यभिचार आदि के चित्र होते थे, इसलिए उसे पसंद नहीं किया जाता था और ‘नग्न यथार्थवाद’ कहा जाता था। लेकिन पश्चिम से यथार्थवाद का एक और रूप आया था, जिसमें समाज की आलोचना की जाती थी और जिसे ‘क्रिटिकल रियलिज्म’ (आलोचनात्मक यथार्थवाद) कहा जाता था। प्रेमचंद ने प्रकृतवाद या नग्न यथार्थवाद की जगह आलोचनात्मक यथार्थवाद को अपनाया और उसे आदर्शोन्मुख यथार्थवाद का नाम दिया। लेकिन हिंदी साहित्य में यथार्थवाद संबंधी भ्रमों में से एक बड़ा भ्रम यह भी रहा है कि यथार्थ और कल्पना, यथार्थ और स्वप्न, यथार्थ और आदर्श परस्पर-विरोधी हैं; यथार्थवादी साहित्य में कल्पना, स्वप्न और आदर्श के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए; लेखन में इनके होने से यथार्थवाद यथार्थवाद नहीं रहता; इत्यादि। इसी तर्क से प्रेमचंद के अधिकांश लेखन को आदर्शवादी कहकर खारिज किया गया और उनकी कुछ अंतिम रचनाओं को ही यथार्थवादी माना गया। मेरा कहना यह है कि यथार्थवादी साहित्य कल्पना, स्वप्न और आदर्श के बिना रचा ही नहीं जा सकता। प्रेमचंद बाद की कुछ रचनाओं के कारण नहीं, बल्कि अपने संपूर्ण लेखन के कारण महान हैं, जो आदर्शोन्मुख यथार्थवादी लेखन है। 

शंकर : हिंदी में ‘यूटोपिया’ को भी यथार्थवाद के विलोम जैसा कुछ माना जाता रहा है। मगर आपके अनुसार पूँजीवाद और समाजवाद हमारे समय के दो बड़े यूटोपिया हैं और इनके इर्द-गिर्द गांधीवाद, अंबेडकरवाद, नारीवाद, पर्यावरणवाद, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जैसे कई यूटोपिया हैं। समाज की पुनर्रचना के संदर्भ में साहित्यिक रचना और आलोचना में इन यूटोपियाओं की क्या भूमिका हो सकती है? 

रमेश उपाध्याय : मुझे लगता है कि हर लेखक का कोई न कोई यूटोपिया होता है, जिसके अनुसार वह अपने दृष्टिकोण से भविष्य के एक आदर्श समाज की कल्पना करता है कि वह कैसा समाज होना चाहिए। जैसे तुलसीदास रामराज्य की कल्पना करते हैं। या गांधीजी हिंद स्वराज की कल्पना करते हैं। हर लेखक अपने यूटोपिया के अनुसार दुनिया को बदलने और भविष्य का निर्माण करने की कोशिश करता है। देखने की बात यह है कि यह कोशिश वस्तुपरक दृष्टि से कितनी नैतिक और कितनी ऐतिहासिक है। बहुत-से लोग, जिनमें से कुछ स्वयं को क्रांतिकारी भी मानते हैं, इतिहास और नैतिकता में कोई संबंध नहीं देखते। इसीलिए वे नैतिक आदर्श और ऐतिहासिक जरूरत के बीच कोई सार्थक तालमेल बिठाने में असफल होते हैं। ‘‘पे्रम और युद्ध में सब चलता है’’ की तर्ज पर ‘‘राजनीति में सब चलता है’’ वाली अनैतिकता के साथ भविष्य का निर्माण करने की ऐतिहासिक जरूरत कम से कम साहित्य में तो कभी पूरी नहीं की जा सकती, क्योंकि साहित्य अंततः एक व्यक्तिगत कर्म है और उसमें निजी पहल का बड़ा महत्त्व है। यह निजी पहल किसी नैतिक आदर्श के बिना संभव नहीं है। मगर देखना यह चाहिए कि नैतिक आदर्श का ऐतिहासिक जरूरत से क्या, कितना और कैसा संबंध है। साहित्य के सौंदर्यशास्त्र में अभी इस दृष्टि से बहुत कम काम हुआ है, लेकिन इन दोनों के संबंध पर गहराई से विचार किया जाये, तो पता चलेगा कि यह संबंध रचना के साहित्यिक मूल्य और ऐतिहासिक महत्त्व को समझने में बहुत सहायक हो सकता है। 

शंकर : भारतीय समाज के संदर्भ में कौन-सा यूटोपिया ज्यादा कारगर होगा? 

रमेश उपाध्याय : मैं तो समाजवादी यूटोपिया को ही अपने देश और सारी दुनिया के लिए कारगर मानता हूँ। भूमंडलीय पूँजीवाद की जगह भूमंडलीय समाजवाद मेरा यूटोपिया है। भले ही जब उसकी स्थापना हो, तब उसका नाम समाजवाद की जगह कुछ और ही हो। 

शंकर : आपने ‘जनवादी कहानी: पृष्ठभूमि से पुनर्विचार तक’ पुस्तक लिखी है, जिसे डाॅ. नामवर सिंह ने ‘‘साहित्य का एक जीवंत इतिहास’’ कहा है। जनवादी कहानी प्रेमचंद की परंपरा की प्रगतिशील कहानी या यथार्थवादी कहानी जैसी ही कहानी है या कुछ भिन्न किस्म की कहानी है? यदि भिन्न है, तो किस रूप में? 

रमेश उपाध्याय : जनवादी कहानी प्रेमचंद की परंपरा की प्रगतिशील और यथार्थवादी कहानी का ही अगला विकास है। उस विकास को चिह्नित करने के लिए ही उसे यह नाम दिया गया है। लेकिन कई लोग इस विकास को सामाजिक और साहित्यिक संदर्भों में समझने के बजाय दलगत राजनीति के संदर्भ में समझने की गलती करते हैं। जैसे, वे प्रगतिशील कहानी को प्रगतिशील लेखक संघ तथा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े लेखकों की कहानी मानते हैं और जनवादी कहानी को जनवादी लेखक संघ तथा माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े लेखकों की कहानी। यह निहायत गलत समझ है। प्रगतिशील कहानी प्रगतिशील लेखक संघ के बनने के पहले से लिखी जा रही थी, जिसके सबसे बड़े उदाहरण स्वयं प्रेमचंद हैं। इसी तरह जनवादी कहानी जनवादी लेखक संघ के बनने के पहले से लिखी जा रही थी। जनवादी लेखक संघ की स्थापना 1982 में हुई, जबकि दिल्ली में जनवादी लेखक मंच की स्थापना उसके एक दशक पहले 1973 में हो चुकी थी और उस मंच से पढ़ी गयी जनवादी कहानियाँ चर्चित हो चुकी थीं। 1976 में मेरा तीसरा कहानी संग्रह ‘नदी के साथ’ आया था, जिसे जनवादी कहानियों का पहला संग्रह कहा गया था। और 1978 में दिल्ली के ही जनवादी विचार मंच द्वारा एक बड़े लेखक सम्मेलन में ‘जनवादी साहित्य के दस वर्ष’ विषय पर कई सत्रों में विचार किया गया था और उनमें पढ़े गये परचों को इसी नाम से पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया था। इस प्रकार जनवादी लेखक संघ बनने के बहुत पहले जनवादी कहानी अस्तित्व में आ चुकी थी। जहाँ तक प्रगतिशील कहानी और जनवादी कहानी के भिन्न होने का प्रश्न है, उसमें ज्यादा भिन्नता नहीं है, सिवाय इसके कि दोनों में यथार्थ के विश्लेषण की भिन्नता के कारण यथार्थवाद की समझ कुछ भिन्न हो सकती है। 

शंकर : आपका बहुत महत्त्वपूर्ण उपन्यास ‘हरे फूल की खुशबू’ दो जीवन-दृष्टियों, दो तरह के मूल्यों और दो तरह के उद्देश्यों के बीच के अंतर्विरोधों को कलाकार रमणीक लाल और उसकी कलाकार पत्नी अलका के माध्यम से सामने लाता है। लेकिन सूक्ष्म संवेदनाओं वाला यथार्थवादी उपन्यास होते हुए भी इसमें किसी प्रकार की आदर्शोन्मुखता नजर नहीं आती। आरंभ में रमणीक लाल एक सकारात्मक पात्र लगता है, किंतु बाद में वह बिलकुल नकारात्मक हो जाता है। इस पर आपको क्या कहना है? यह भी बतायें कि इस उपन्यास के लिखे जाने की प्रेरणा या पृष्ठभूमि क्या है? 

रमेश उपाध्याय : ‘हरे फूल की खुशबू’ की पृष्ठभूमि यह है कि मैं सातवें दशक में दिल्ली में कुछ समय बेरोजगार रहा था। उन दिनों मैं फ्रीलांसिंग करता था और पत्र-पत्रिकाओं, आकाशवाणी और दूरदर्शन के लिए तरह-तरह के काम किया करता था। उन कामों में से एक था दिल्ली में होने वाली कला-प्रदर्शनियों की समीक्षाएँ लिखना और कलाकारों के इंटरव्यू लेना। इसके चलते मैंने देशी-विदेशी चित्रकला के बारे में खूब पढ़ा और दिल्ली के कला-जगत तथा कलाकारों के जीवन को निकट से देखा। उसी समय के अनुभवों को मैंने 1990 में उपन्यास के रूप में लिखा। लेकिन इसके पात्र रमणीक लाल और अलका कोई वास्तविक व्यक्ति नहीं, बल्कि उस समय के दिल्ली के कला-जगत के दो प्रातिनिधिक चरित्र हैं, जिनकी रचना अनेक वास्तविक व्यक्तियों की चारित्रिक विशेषताओं को मिलाकर की गयी है। मैंने इस उपन्यास में दिखाया है कि कला के क्षेत्र में एक ओर संगठित व्यावसायिकता है, तो दूसरी ओर व्यक्तिगत अराजकता। दोनों के बीच एक सतही किस्म का द्वंद्व या संघर्ष दिखायी पड़ता है, जो बाद में समझौते में बदल जाता है और अराजक व्यक्तिवादी कलाकार अंततः संगठित व्यावसायिकता को समर्पित हो जाता है। 

शंकर : रमणीक लाल की निस्संदेह बहुत सारी दुविधाएँ हैं, किंतु इस उपन्यास के अंत को मैं इस तरह नहीं देख पा रहा हूँ। समझौता और समर्पण उस स्थिति को कहा जायेगा, जब कोई सुचिंतित रूप से ऐसा करे। यहाँ रमणीक लाल दुविधा में है और उपन्यास के अंतिम प्रसंग में वह बेमन से एक अदृश्य आक्रोश के साथ कैनवस पर रंग फेंकता है, जिससे अनायास एक पेंटिंग बन जाती है और व्यावसायिकता के तंत्र को यह पेंटिंग बहुत काम की लगती है, क्योंकि रमणीक लाल एक जाना-माना नाम है और कला का व्यवसाय-तंत्र ऐसे नामों की तलाश में रहता है, ताकि वह उन्हें इस्तेमाल कर सके। इस प्रकार यह उपन्यास वास्तव में रमणीक के चरित्र के एक्सपोजर का नहीं, व्यावसायिकता के चरित्र के एक्सपोजर का उपन्यास है। मेरे विचार से यही इस उपन्यास की सही व्याख्या है। क्या इस उपन्यास को इस तरह नहीं समझा जाना चाहिए? 

रमेश उपाध्याय : शंकर जी, आपने उपन्यास को बिलकुल सही समझा है। उसमें मेरी कोशिश कला के व्यावसायिक तंत्र के वास्तविक चरित्र को सामने लाने की ही रही है और रमणीक लाल के माध्यम से उसे ही सामने लाया गया है। मगर मैं यह भी दिखाना चाहता था कि कला जगत में एक तरफ संगठित व्यावसायिकता है, जिसका एक पूरा तंत्र देश से विदेशों तक फैला हुआ है, तो दूसरी तरफ है एक अद्वितीय प्रतिभाशाली कलाकार की व्यक्तिगत अराजकता। रमणीक लाल पूरी ‘ईमानदारी’ के साथ ‘विद्रोही’ हो सकता है और व्यावसायिकता के विरुद्ध उसमें सच्चा ‘आक्रोश’ हो सकता है। लेकिन कला को जन-जन तक पहुँचाने की अपनी सदिच्छा पूरी करने के लिए वह कुछ करता नहीं है। उसके लिए किसी वैकल्पिक व्यवस्था के बारे में सोचने और उसके लिए कुछ करने के बजाय अंततः ‘बेमन से’ ही सही, वह उसी व्यवस्था को समर्पित हो जाता है। 

शंकर : आपके उपन्यास ‘स्वप्नजीवी’ का मुख्य पात्र शिवेंद्र सान्याल भी लगभग रमणीक लाल जैसा ही एक विद्रोही चरित्र है, जो सिनेमा की दुनिया में दूसरों से भिन्न अपना कुछ नया करना चाहता है और नहीं कर पाता। वह भी अत्यंत प्रतिभाशाली है और व्यावसायिक सिनेमा की दुनिया से समझौता न कर पाने के कारण अंततः पागलपन की-सी स्थिति में पहुँच जाता है। लेकिन स्वप्नजीवी की चर्चा मैं उसे लेकर नहीं, बल्कि इसलिए कर रहा हूँ कि आपके लेखन में स्वप्नों का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। ‘स्वप्नजीवी’ उपन्यास के अलावा आपकी स्वप्न-संबंधी कहानियाँ हैं ‘स्वप्न-कथा’, ‘आप जानते हैं’ और ‘मेरे दोस्त का सपना’; आपके स्वप्न-संबंधी निबंध हैं ‘हमारे समय के स्वप्न’ तथा ‘भविष्य-स्वप्न का लोप और उसकी पुनप्र्राप्ति’; और अंततः आपकी पुस्तक है ‘मुक्तिबोध का मुक्तिकामी स्वप्नद्रष्टा’। आप यथार्थवादी लेखक होकर भी अपने लेखन में स्वप्नों को इतना महत्त्व क्यों देते हैं? 

रमेश उपाध्याय : पाश की वह कविता है न--‘‘सबसे खतरनाक होता है हमारे स्वप्नों का मर जाना।’’ मुझे लगता है कि हम ऐसे ही खतरनाक समय में जी रहे हैं। शायद इसीलिए साहिर लुधियानवी ने अपनी एक नज्म में कहा था--‘‘आओ कि आज गौर करें इस सवाल पर, देखे थे हमने जो वो हसीं ख्वाब क्या हुए? दौलत बढ़ी तो मुल्क में इफलास क्यों बढ़ा? खुशहालि-ए-अवाम के असबाब क्या हुए?’’ मेरे उपन्यास ‘स्वप्नजीवी’ का शिवेंद्र सान्याल अपने साथ के लोगों से व्यंग्यपूर्वक कहता है--‘‘मुझे लगता है कि तुम सबके सपनों की आधारशिलाएँ रखी जा चुकी हैं और मैं अभी तक प्लाॅट ही ढूँढ़ रहा हूँ।’’ मुझे लगता है, आज बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है, जो ठेठ वर्तमान में जीते हैं और भविष्य का कोई स्वप्न उनके पास नहीं है। मैं अपने समय के इस यथार्थ को देखता हूँ और दहशत से भर जाता हूँ, क्योंकि मैं अतीत और वर्तमान के साथ-साथ भविष्य के बारे में भी सोचता हूँ। स्वप्न का संबंध भविष्य से होता है। शायद इसीलिए मैं अपने लेखन में बार-बार स्वप्नों की बात करता हूँ। जहाँ तक स्वप्न और यथार्थ का संबंध है, मेरा मानना है कि एक बेहतर भविष्य का स्वप्न देखने वाला ही यथार्थवादी हो सकता है। मुक्तिबोध महान स्वप्नद्रष्टा हैं, इसी कारण वे महान यथार्थवादी हैं। साहित्य और कला की दुनिया में व्याप्त व्यावसायिकता के विरुद्ध यथार्थवादी लेखक-कलाकार ही लड़ सकते हैं, भले ही वे उस लड़ाई में हार जायें और दूसरों की नजरों में सिरफिरे या पागल होकर ही रह जायें। 

शंकर : हल्की-फुल्की मनोरंजन प्रधान सामग्रियों से ज्यादा से ज्यादा पाठक हासिल करके व्यवसाय करने वाली पत्रिकाओं की काट में साहित्यिक लघु पत्रिकाएँ सामने आयी थीं। आप एक उत्कृष्ट संपादक रहे हैं और आपने ‘कथन’ जैसी स्तरीय विचार-प्रधान साहित्यिक पत्रिका का संपादन किया है। आपने एक लेख में साहित्यिक लघु पत्रिकाओं को भी दो रूपों में देखा है--एक सिर्फ लेखकों के लिए निकलने वाली साहित्यिक लघु पत्रिकाएँ और दूसरी लेखकों के साथ-साथ पाठकों के लिए भी निकलने वाली साहित्यिक लघु पत्रिकाएँ। साहित्यिक लघु पत्रिकाओं के इन दोनों रूपों को कुछ और स्पष्ट करें। 

रमेश उपाध्याय : शंकर जी, आप स्वयं एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक लघु पत्रिका ‘परिकथा’ के कुशल संपादक हैं। आपने लघु पत्रिकाओं के विभिन्न रूप देखे हैं और उनके बीच अपनी पत्रिका की एक अलग पहचान बनायी है, जो एक जनोन्मुख साहित्यिक पत्रिका की पहचान है। लेकिन हिंदी में निकलने वाली कुछ लघु पत्रिकाएँ ‘‘लेखकों की, लेखकों के द्वारा, लेखकों के लिए’’ निकलने वाली अभिजनोन्मुखी पत्रिकाएँ हैं। मैं यह मानता हूँ कि साहित्यिक लघु पत्रिका साधारण और विशिष्ट दोनों तरह के पाठकों के लिए होनी चाहिए। आप और मैं लघु पत्रिका आंदोलन में शामिल रहे हैं और उस राष्ट्रीय लघु पत्रिका समन्वय समिति में भी सक्रिय रहे हैं, जिसमें आज के बाजारवाद और मीडिया को ध्यान में रखते हुए लघु पत्रिकाओं की एक नयी भूमिका पर जोर दिया गया था। उसके अनुसार साहित्यिक लघु पत्रिकाओं को अव्यावसायिक रहते हुए भी व्यापक पाठक समुदाय तक पहुँचने का प्रयास करना चाहिए। 

शंकर : प्रगतिशीलता, जनवाद और समाजवाद में विश्वास न करने वाले उन लेखकों के लिए, जो किसी राजनीतिक दल या लेखक संगठन से न जुड़े होने पर भी पूँजीवाद, साम्राज्यवाद और संप्रदायवाद के विरुद्ध मानवीय मूल्यों के पक्षधर हो सकते हैं, वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध साहित्यिक पत्रिकाओं की जिम्मेदारी बनती है या नहीं? 

रमेश उपाध्याय : क्यों नहीं? उन्हें ऐसे लेखकों को साथ लेकर चलना चाहिए। 

शंकर : रमेश जी, आपके चिंतन और लेखन में एक गहरा आशावाद मौजूद है। आपका यह लेखकीय विश्वास कि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी बहुत कुछ संभव है, बार-बार सामने आता है। आपने साहित्य को भूमंडलीय यथार्थवाद की जो नयी और महत्त्वपूर्ण अवधारणा दी है, उसका आधार भी आपका यह आशावाद है कि वैश्विक पूँजीवाद को वैश्विक समाजवाद में बदला जाना आवश्यक ही नहीं, बल्कि संभव भी है। यह बतायें कि आपके इस आशावाद का आधार क्या है? 

रमेश उपाध्याय : (व्यंग्यपूर्वक मुस्कराते हुए) दुनिया के बदल सकने के बारे में आशावादी होना आजकल अच्छा नहीं माना जाता, बल्कि यथार्थ को न समझने की निशानी माना जाता है। शायद यह मान लिया गया है कि दुनिया जितनी बदलनी थी, बदल चुकी, अब और कभी नहीं बदलेगी। यानी अब हमेशा पूँजीवाद ही चलेगा। लेकिन दुनिया हमेशा बदलती रही है और छोटे-छोटे निराशाजनक बदलावों के बाद अचानक किसी बड़े गुणात्मक बदलाव के हो जाने पर बेहतर भी बनती रही है। यह इतिहास और विज्ञान दोनों का सच है और यह सच ही मुझे आशावादी बनाता है। किसी व्यवस्था के बने रहने के कुछ आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक आधार होते हैं। लेकिन उसका एक आधार नैतिक भी होता है। जब कोई व्यवस्था अपने बने रहने का नैतिक आधार खो देती है, तो वह ज्यादा देर टिकी नहीं रह सकती। आज के भूमंडलीय पूँजीवाद के पास स्वयं को टिकाये रखने के लिए दमन और ध्वंस की दानवीय शक्तियाँ तो हैं, पर मानवीय मूल्यों वाली कोई नैतिक शक्ति उसके पास नहीं रह गयी है। लेकिन ऐसी व्यवस्था ज्यादा देर चल नहीं सकती। देर-सबेर उसका बदलना और उसकी जगह एक बेहतर व्यवस्था का बनना अवश्यंभावी है। यही आज का भूमंडलीय यथार्थ है और इसी से उद्भूत भूमंडलीय यथार्थवाद मेरे आशावाद का आधार है। 

शंकर : पाठक आपसे यह जानना चाहेंगे कि पूँजीवाद की वैश्विक व्यवस्था की जगह कोई बेहतर वैश्विक व्यवस्था किन आधारों पर, किन शक्तियों के द्वारा और किन तरीकों से बनायी जा सकती है। 

रमेश उपाध्याय : पूँजीवाद से बेहतर जो भी वैश्विक व्यवस्था बनेगी, मनुष्यों के द्वारा और मनुष्यता के आधार पर ही बनेगी। लेकिन यह भविष्यवाणी नहीं की जा सकती कि वह व्यवस्था कब और कैसे बनेगी। हम यह भी नहीं कह सकते कि भविष्य में बनने वाली उस व्यवस्था का नाम क्या होगा। फिलहाल हम भूमंडलीय पूँजीवाद की जगह लेने वाली व्यवस्था को भूमंडलीय समाजवाद ही कह सकते हैं। ऐसी व्यवस्था किसी भूमंडलीय क्रांति से ही बन सकती है। अब तक दुनिया में जो क्रांतियाँ हुई हैं, उनका आधार राष्ट्रीय रहा है--जैसे फ्रांस की क्रांति, रूस की क्रांति, चीन की क्रांति। माक्र्सवाद ने वैश्विक क्रांति का स्वप्न देखा और उसका आधार राष्ट्रीयता को नहीं, अंतरराष्ट्रीयता को बनाया। इसलिए समाजवाद का एक आधार अंतरराष्ट्रीयतावाद रहा। माक्र्स-एंगेल्स या लेनिन-माओ के समय तक दुनिया को बदलने की सोच राष्ट्रीयता से ऊपर उठकर अंतरराष्ट्रीयता तक ही पहुँची थी, इसलिए समाजवादी क्रांति राष्ट्रीय स्तर पर घटित होने वाली परिघटना होती थी, जिसे व्यापक बनाने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर क्रांति की बात सोची जाती थी। लेकिन अंतरराष्ट्रीयता में राष्ट्र तो निहित रहता ही है, जो एक पूँजीवादी अवधारणा है। राष्ट्र में अपने भीतर अधिनायकवादी वर्चस्व और अपने से बाहर साम्राज्यवादी प्रभुत्व कायम करने की प्रवृत्ति होती है। रूस और चीन की समाजवादी क्रांतियाँ राष्ट्रीय स्तर की क्रांतियाँ थीं और उनसे जो व्यवस्थाएँ बनीं, उनमें ये दोनों प्रवृत्तियाँ थीं, इसलिए वहाँ जो व्यवस्था बनी, वह वास्तव में समाजवादी व्यवस्था नहीं, बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था का ही एक भिन्न रूप थी। इसीलिए उसे पुनः पूँजीवाद में बदल जाने में ज्यादा देर नहीं लगी। लेकिन पूँजीवादी भूमंडलीकरण ने राष्ट्र की अवधारणा को हिला दिया है और वैश्विक क्रांति के लिए अंतरराष्ट्रीयता की जगह भूमंडलीयता के आधार पर वैश्विक पूँजीवाद की जगह वैश्विक समाजवाद की व्यवस्था को आवश्यक और संभव बना दिया है। मेरा खयाल है कि अब जो क्रांतियाँ होंगी, वे राष्ट्रीय स्तर से आगे बढ़कर वैश्विक या भूमंडलीय स्तर की होंगी। 

शंकर : अंतिम सवाल: आप इन दिनों क्या लिख रहे हैं और आगे क्या करना चाहते हैं? 

रमेश उपाध्याय : इन दिनों मेरे बच्चे मेरे इंटरव्यू के रूप में मेरा साहित्यिक सफरनामा तैयार कर रहे हैं। आजकल मैं उसी में व्यस्त हूँ। आगे ‘भूमंडलीयता और परिपूर्ण मनुष्यता’ नामक एक पुस्तक लिखने का विचार है। यह विचार मेरे मन में ‘मुक्तिबोध का मुक्तिकामी स्वप्नद्रष्टा’ पुस्तक लिखते समय आया था और धीरे-धीरे पक रहा है।

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