Saturday, July 27, 2013

भूमंडलीय यथार्थवाद की पृष्ठभूमि

'कथन'-79 (जुलाई-सितंबर, 2013) में प्रकाशित लेख

 

हिंदी साहित्य में, खास तौर से 1970 और 1980 के दशकों में, ‘‘प्रेमचंद की यथार्थवादी परंपरा’’ का जाप तो बहुत हुआ, लेकिन उसे समझने और आगे बढ़ाने के प्रयास कम ही हुए। यदि आधुनिकतावादी लेखकों तथा आलोचकों ने उसका मजाक उड़ाया, तो कई प्रगतिशील-जनवादी कहलाने वाले लेखकों तथा आलोचकों ने उस पर तरह-तरह के सवाल उठाकर उसे खारिज करने के प्रयास किये। मसलन, किसी ने कहा कि प्रेमचंद ग्रामीण यथार्थ के लेखक थे, आज के महानगरीय यथार्थ का चित्रण उनकी परंपरा में नहीं किया जा सकता; किसी ने कहा कि प्रेमचंद का समय और था, हमारा समय और है और इस बदले हुए समय में प्रेमचंद का आदर्शोन्मुख यथार्थवाद संभव नहीं है; तो किसी ने कहा कि प्रेमचंद आदर्शवादी थे, यथार्थवादी तो वे अपनी अंतिम कुछ रचनाओं में ही हुए थे! 

दूसरी तरफ उत्तर-आधुनिकतावादियों ने अपने विखंडनवाद से यथार्थवाद के मूल आधार समग्रता का ही खंडन किया, तो जादुई यथार्थवादियों ने यथार्थवाद के सभी पुराने रूपों को वर्तमान समय के लिए बेकार हो चुका बताया और उत्तर-आधुनिकतावादियों के ‘‘मार्क्सवादोत्तर’’ और ‘‘यथार्थवादोत्तर’’ के नारों से उसका तालमेल बिठाकर वर्तमान में (अर्थात् सोवियत संघ के विघटन के बाद और पूँजीवादी भूमंडलीकरण के वर्तमान दौर में) उसी को एकमात्र सही और संभव यथार्थवाद बताया।

आश्चर्य की बात यह है कि हिंदी साहित्य में वामपंथी लेखकों और लेखक संगठनों की संख्या कम न होने पर भी यथार्थवाद पर कोई बड़ी बहस नहीं चली, जबकि उनको ही साहित्य में यथार्थवाद की जरूरत सबसे ज्यादा थी। उत्तर-आधुनिकतावाद के संदर्भ में फ्रेडरिक जेमेसन का नाम अवश्य लिया जाता रहा, लेकिन इस पर ध्यान नहीं दिया गया कि उन्होंने आज के पूँजीवाद के दौर में यथार्थवाद के नये रूपों के आविष्कार की जरूरत के बारे में क्या कुछ कहा था।


पश्चिम के साहित्य में यथार्थवाद का विरोध आधुनिकतावाद के दौर में ही होने लगा था। आधुनिकतावाद की यथार्थवाद-विरोधी प्रवृत्ति को उत्तर-आधुनिकतावाद ने विभिन्न प्रकार की नयी रणनीतियों से आगे बढ़ाया। उनमें सबसे बड़ी रणनीति थी समग्रता का विरोध, जिसे उत्तर-आधुनिकतावाद के जनक जैसे माने जाने वाले ल्योतार ने ‘‘वार अगेंस्ट टोटैलिटी’’ (समग्रता के विरुद्ध युद्ध) कहा। इस युद्ध में जिस ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया गया, वह था विखंडन।

लेकिन 1990 के बाद से ‘‘लेट कैपिटलिज्म’’ (आज के पूँजीवाद) ने भूमंडलीकरण के रूप में एक ऐसी आर्थिक-राजनीतिक प्रक्रिया शुरू की, जिससे एक नये ढंग के साम्राज्यवाद की वापसी हुई और उसके साथ ही एक नयी बात यह हुई कि सारी दुनिया को एक नये ढंग की गुलामी का अहसास होने लगा, जिससे वह एक नये रूप में मुक्ति के लिए छटपटाने लगी। इस छटपटाहट को व्यक्त करने वाली किताबें आने लगीं, जैसे डेविड हार्वी की ‘दि न्यू इंपीरियलिज्म’ (2003), गोपाल बालकृष्णन द्वारा संपादित ‘डिबेटिंग एंपायर’ (2003) और एलेक्स कोलिनिकॉस की ‘दि न्यू मैंडेरिंस ऑफ अमेरिकन पॉवर’ (2005)। उत्तर-आधुनिकतावाद ने मार्क्सवाद और यथार्थवाद के अंत की ही नहीं, इतिहास के अंत की भी घोषणा कर दी थी। मगर अब उन घोषणाओं को गलत साबित करने वाली किताबें भी आने लगीं, जैसे अंर्स्ट ब्रायसाख की ‘ऑन दि फ्यूचर ऑफ हिस्टरी: दि पोस्टमॉडर्न चैलेंज एंड इट्स आफ्टरमैथ’ (2003), डेविड हार्वी की ‘स्पेसेज ऑफ होप’ (2003), फ्रेडरिक जेमेसन की ‘आर्कियोलॉजीज ऑफ दि फ्यूचर: दि डिजायर कॉल्ड यूटोपिया एंड अदर साइंस फिक्शंस’ (2005), मैथ्यू ब्यूमोंट द्वारा संपादित ‘एडवेंचर्स इन रियलिज्म’ (2007) इत्यादि।

सोवियत संघ के विघटन और शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद पूँजीवाद की ओर से बड़ी विजयोल्लसित घोषणाएँ की गयीं कि पूँजीवाद जीत गया, समाजवाद हार गया, अब सारी दुनिया में और हमेशा पूँजीवाद    ही चलेगा। उत्तर-आधुनिकतावादियों ने तो पहले ही कला, साहित्य और सौंदर्यशास्त्र में एक नये युग के आगमन की घोषणा कर रखी थी--मार्क्सवादोत्तर युग! यथार्थवादोत्तर युग!

एक यथार्थवादी लेखक के रूप में मुझे लगा कि अब एक नये यथार्थवाद के लिए संघर्ष करना जरूरी है। मैं एक रचनाकार के रूप में तो यह संघर्ष अपनी कहानियों में नये यथार्थ को नये यथार्थवादी रूपों में सामने लाकर कर ही रहा था, अब मैं एक लेखक, प्राध्यापक और पत्रकार के रूप में भी यह संघर्ष अपने लेखों, व्याख्यानों और अपनी पत्रिका ‘कथन’ के अंकों के जरिये करने लगा। मैंने कुछ नये प्रश्न उठाने शुरू किये, जैसे--यदि पूँजीवाद एक विश्व-व्यवस्था है, तो क्या समाजवाद भी एक विश्व-व्यवस्था नहीं है? यदि पूँजी का भूमंडलीकरण संभव है, तो श्रम का क्यों नहीं? जब पूँजीवादी भूमंडलीकरण हो सकता है, तो समाजवादी भूमंडलीकरण क्यों नहीं हो सकता?

इन प्रश्नों के उत्तर खोजते हुए मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि जब तक समाजवाद एक संभावना है, तब तक मार्क्सवाद भी जरूरी है, यथार्थवाद भी जरूरी है। अलबत्ता यह एक नया मार्क्सवाद होगा, एक नया यथार्थवाद होगा। ऐतिहासिक परिस्थितियों के बदलने के साथ-साथ इतिहास के नये बोध के साथ बदलता और विकसित होता मार्क्सवाद और यथार्थवाद।


और यह देखकर मैं बहुत प्रेरित तथा उत्साहित हुआ कि मैं ही नहीं, आज की दुनिया में बहुत-से लोग इसी तरह सोच रहे हैं। उस नये चिंतन को सामने लाने के लिए मैंने ‘कथन’ के अंकों को नये-नये विषयों पर केंद्रित करना शुरू किया, जैसे--‘नयेपन की अवधारणा’, ‘यूटोपिया की जरूरत’, ‘आशा के स्रोतों की तलाश’, ‘श्रम का भूमंडलीकरण’, ‘सांस्कृतिक साम्राज्यवाद’, ‘बाजारवाद और नयी सृजनशीलता’ इत्यादि। इसी क्रम में मैंने अंग्रेजी में प्रकाशित होने वाली सामग्री के अनुवादों के जरिये, जरूरी किताबों की विस्तृत चर्चाओं के जरिये, साक्षात्कारों और परिचर्चाओं के जरिये तथा हिंदी में मौलिक रूप से लिखे और लिखवाये गये लेखों के जरिये आज के भूमंडलीय यथार्थ को सामने लाते हुए उस पर विभिन्न विद्वानों (जैसे रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, एजाज अहमद, विपिन चंद्र, ज्याँ डेªज, उमा चक्रवर्ती, मैनेजर पांडेय, मनोरंजन महांति, गौहर रजा, गोपाल गुरु आदि) से विस्तृत बातचीत की और उन साक्षात्कारों का एक संकलन प्रकाशित किया ‘बेहतर दुनिया की तलाश में’ (2007)।


सोवियत संघ के विघटन और शीतयुद्ध की समाप्ति से पहले मार्क्सवाद और यथार्थवाद में बदलाव और विकास की बात करना गलत और खतरनाक माना जाता था। लेकिन इसके बाद यह बात खुलकर होने लगी। कई ऐसी चीजें सामने आने लगीं, जो दबी रह गयी थीं। उदाहरण के लिए, 1930 के दशक में जर्मनी में यथार्थवाद संबंधी एक ‘‘महान बहस’’ चली थी, जिसमें अंर्स्ट ब्लॉख, जॉर्ज लुकाच, बर्टोल्ट ब्रेष्ट, वाल्टर बेंजामिन और थियोडोर एडोर्नो ने भाग लिया था। यह बहस 1980 में ‘एस्थेटिक्स एंड पॉलिटिक्स’ नामक संकलन में प्रकाशित हुई थी। उसका ‘उपसंहार’ फ्रेडरिक जेमेसन ने लिखा था, जिसमें उन्होंने ‘‘उत्तर-मार्क्सवादों’’ की चर्चा करते हुए कहा था कि इतिहास की उपेक्षा करने वाले ही उसे दोहराने के लिए अभिशप्त नहीं होते, पिछले दिनों जो तरह-तरह के ‘‘उत्तर-मार्क्सवाद’’ सामने आये हैं, वे भी इसी सत्य को सामने लाते हैं। ‘‘मार्क्सवाद के परे’’ जाने के प्रयासों का अंत ‘‘मार्क्सवाद के पहले’’ की स्थितियों में लौट जाने के रूप में सामने आ रहा है। ‘‘दबा दी गयी चीजों की वापसी’’ का जैसा नाटकीय रूप यथार्थवाद और आधुनिकतावाद के झगड़े की वापसी के रूप में दिख रहा है, अन्यत्र कहीं नहीं दिखता। लेकिन उस झगड़े में पड़े बिना हम नहीं रह सकते, चाहे आज हमें उसमें शामिल दोनों पक्षों में से एक भी पूरी तरह स्वीकार्य न लगता हो।

जेमेसन ने यह भी कहा था कि यथार्थवाद चीजों को समग्रता में देखता था, जबकि आधुनिकतावाद चीजों को विखंडित करके उन्हें ‘‘अपरिचित’’ बनाकर ‘‘नयी’’ बनाता था। मगर नयापन पैदा करने की यह आधुनिकतावादी तकनीक आज उपभोक्ताओं को पूँजीवाद से तालमेल बिठाकर चलना सिखाने की जानी-पहचानी तकनीक बन गयी है। उसमें कोई नयापन नहीं रहा। इसलिए अब नया कुछ करने के लिए विखंडन को भी ‘‘अपरिचित’’ बनाने का प्रयास किया जा रहा है। लगता है, अमूर्तन का एक चक्र पूरा हो चुका है और उसकी जगह यथार्थवाद की वापसी का समय आ गया है। मगर यथार्थवाद का भी ऐतिहासिक आधार संदिग्ध हो गया है, क्योंकि आधारभूत अंतर्विरोध स्वयं इतिहास के भीतर है और उसकी वास्तविकताओं को समझने के लिए हम जिन अवधारणाओं से काम लेते हैं, वे चिंतन के लिए एक पहेली बन जाती हैं। इससे जो संदेह पैदा होता है, बहुत मूल्यवान है। हमें उसी को पकड़ना चाहिए, क्योंकि उसी की संरचना में इतिहास का वह मर्म छिपा है, जिसे हम अभी तक समझ नहीं पाये हैं। जाहिर है, यह संदेह हमें यह नहीं बता सकता कि यथार्थवाद की हमारी अवधारणा क्या होनी चाहिए; फिर भी इसका अध्ययन हमारे ऊपर यह जिम्मेदारी अवश्य डालता है कि हम यथार्थवाद की एक नयी अवधारणा का आविष्कार करें। आज इस जिम्मेदारी को महसूस न करना असंभव है।

जेमेसन जिस नये यथार्थवाद की जरूरत पर जोर दे रहे थे, वह उनके विचार से उपभोक्ता समाज की उस शक्ति का प्रतिरोध करने वाला यथार्थवाद होना चाहिए था, जो मनुष्य और उसकी पूरी दुनिया को वस्तुओं में बदल देती है। उपभोक्ता समाज में यह शक्ति होती है कि वह मनुष्य के शारीरिक और मानसिक श्रम से उत्पन्न तमाम चीजों के साथ-साथ मनुष्य के विचारों, भावनाओं तथा संपूर्ण जड़ और चेतन जगत से उसके संबंधों को भी बेची और खरीदी जाने वाली चीजें बना दे। इस शक्ति का प्रतिरोध समग्रता में ही किया जा सकता है। आज के मानवीय जीवन तथा सामाजिक संगठन के सभी स्तरों पर चल रहे विखंडन को व्यवस्थित रूप से समाप्त करने के लिए चीजों को समग्रता में देखना और उन्हें समग्र रूप से बदलना आवश्यक है। नये यथार्थवाद की अवधारणा समग्रता की कोटि के आधार पर ही की जा सकती है; क्योंकि यही वह चीज है, जो वर्गों के बीच के संरचनात्मक संबंधों को सामने ला सकती है।


लगभग दो दशकों के बाद जेमेसन ने अपनी पुस्तक ‘अ सिंग्यूलर मॉडर्निटी : एस्से ऑन ओंटोलॉजी ऑफ प्रेजेंट’ (2002) में पुनः लिखा कि ‘‘प्रत्येक यथार्थवाद नया ही होता है...और यही कारण है कि समूचे आधुनिकतावादी युग में और उसके बाद भी दुनिया के कई हिस्सों तथा सामाजिक समग्रता के कई अंशों में नये और जीवंत यथार्थवादों की आहटें सुनायी पड़ती रही हैं, जिन्हें सुनना और पहचानना जरूरी रहा है। ...प्रत्येक नया यथार्थवाद न केवल अपने से पहले के यथार्थवादों की सीमाओं से असंतोष होने के कारण उत्पन्न होता है, बल्कि इस कारण भी, तथा अधिक आधारभूत रूप में इसी कारण से ही, उभरकर सामने आता है कि आम तौर पर यथार्थवाद स्वयं आधुनिकता की ठीक वही गतिशील नवीनता लिये रहता है, जिसे हम आधुनिकतावाद की अद्वितीय विशेषता मानते आये हैं।’’


इसके बाद ‘आर्कियोलॉजीज ऑफ दि फ्यूचर : दि डिजायर कॉल्ड यूटोपिया एंड अदर साइंस फिक्शंस’ (2005) में उन्होंने ‘‘भूमंडलीकरण के बाद के नयी पीढ़ी के तमाम वामपंथियों’’ को संबोधित करते हुए यथार्थवाद की उन समस्याओं को उठाया, जो नये सिरे से उठ खड़ी हुई थीं और जिन पर तुरंत ध्यान दिया जाना जरूरी था।
भूमंडलीकरण का वर्तमान दौर शुरू होते ही उत्तर-आधुनिकतावाद अपनी फैशनेबल चमक-दमक खोने लगा था और एक नये यथार्थवाद की जरूरत महसूस की जाने लगी थी। देखते-देखते यथार्थवाद संबंधी नयी पुस्तकें सामने आने लगीं, जैसे पीटर ब्रुक्स की ‘रियलिस्ट विजंस’ (2005) और मैथ्यू ब्यूमोंट द्वारा संपादित ‘एडवंेंचर्स इन रियलिज्म’ (2007)। यथार्थवाद की इस वापसी में समकालीन पूँजीवाद की बदलती संरचना से उत्पन्न समस्याओं का बड़ा हाथ था, जिन्होंने यथार्थ को समझने तथा उसे कला और साहित्य में चित्रित करने के नये तरीके निकालने के लिए एक तरफ चिंतकों तथा आलोचकों को और दूसरी तरफ कलाकारों और साहित्यकारों को प्रेरित किया। पूँजीवाद में आये बदलाव का ही शायद यह नतीजा था कि जहाँ पहले यथार्थवाद की चर्चा में इतिहास पर जोर दिया जाता था, अब राजनीतिक अर्थशास्त्र पर जोर दिया जाने लगा। भूमंडलीकरण ने इतिहास को नये ढंग से पढ़ना जरूरी बनाया, जिससे ‘‘इतिहास का भूमंडलीकरण’’ हुआ और ‘‘भूमंडलीकरण का इतिहास’’ सामने आया। इन दोनों चीजों का असर साहित्य पर और उसमें किये जाने वाले यथार्थ-चित्रण तथा आलोचनात्मक विवेचन पर पड़ना स्वाभाविक था।

उत्तर-आधुनिकतावादियों का सबसे ज्यादा जोर विखंडन पर रहा। उन्होंने जीवन, समाज और दुनिया को समग्रता में देखने, समझने और साहित्य में चित्रित करने के यथार्थवादी प्रयासों को इस आधार पर गलत, अनुचित और अवांछित बताया कि ऐसा करना असंभव है। उन्होंने कहा कि जीवन, समाज और दुनिया को ही नहीं, जिस कला और साहित्य में ये चित्रित या प्रतिबिंबित होते हैं, उसे भी विखंडन से या खंड-खंड करके ही समझा जा सकता है।

मार्क्सवादी रचनाकारों, आलोचकों तथा सिद्धांतकारों ने विखंडनवाद का खंडन करते हुए बार-बार कहा है कि द्वंद्ववाद के अनुसार एक समग्रता के भीतर जो अंतर्विरोध होते हैं, वे ही उस समग्रता को बनाते और बदलते हैं। मार्क्स ने समाज और विश्व की कल्पना एक ऐसी समग्रता के रूप में की थी, जिसमें मुख्य और ऐतिहासिक अंतर्विरोध शोषक और शोषित वर्गों के बीच है, इन वर्गों के बीच संघर्ष है और वह संघर्ष समाज और विश्व को बदल रहा है। अंततः यह बदलाव वहाँ तक जा सकता है, जहाँ समाज या विश्व नामक समग्रता में न वर्ग होंगे, न वर्ग-संघर्ष। फिर वह एक नयी ही समग्रता होगी, जिसके अपने नये अंतर्विरोध और संघर्ष हो सकते हैं, लेकिन वे वर्तमान पूँजीवादी विश्व-व्यवस्था के आमूलचूल बदल जाने के बाद के नये ही अंतर्विरोध और संघर्ष होंगे।

वर्तमान पूँजीवादी भूमंडलीकरण ने ज्यों ही यह संभावना दुनिया के लोगों के सामने रखी कि पूँजीवाद की ही तरह समाजवाद भी एक विश्व-व्यवस्था है और उसका भी भूमंडलीकरण हो सकता है, पूँजीवादी व्यवस्था के पैरोकारों ने एक तरफ समाजवाद के अंत, मार्क्सवाद के अंत, यथार्थवाद के अंत आदि की अलग-अलग घोषणाओं के साथ-साथ समग्र रूप में ‘‘इतिहास के अंत’’ की घोषणा कर दी, तो दूसरी तरफ समग्रता के विचार के ही विरुद्ध जंग छेड़ दी।

लेकिन 1990 के बाद से, जब से भूमंडलीकरण की प्रक्रिया और उसके आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि तमाम पक्षों पर ध्यान दिया जाने लगा, विभिन्न देशों के वामपंथी विद्वान भूमंडलीय यथार्थ को समग्रता में समझने की जरूरत पर जोर देने लगे। इससे पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के बारे में नया विचार-मंथन शुरू हुआ और एक ‘‘बेहतर दुनिया की तलाश’’ के प्रयासों के साथ-साथ यह आशाजनक नारा भी सामने आया कि ‘‘दूसरी और बेहतर दुनिया मुमकिन है’’। इससे यथार्थवाद को, जिसे उत्तर- आधुनिकतावादियों ने मृत घोषित कर दिया था, फिर से जीवंत और विचारणीय माना जाने लगा। यह विचार जोर पकड़ने लगा कि पूँजीवाद भूमंडलीय है, तो समाजवाद भी भूमंडलीय है। और अब ‘‘एक देश में समाजवाद’’ की जगह ‘‘संपूर्ण विश्व में समाजवाद’’ के बारे में सोचा जाना चाहिए तथा उसके लिए यथार्थवादी रणनीतियाँ बनायी जानी चाहिए।
आकस्मिक नहीं था कि मार्क्सवाद में लोगों की रुचि नये सिरे से पैदा होने लगी, सोवियत संघ के विघटन के संदर्भ में समाजवाद पर पुनर्विचार होने लगा, सोवियत समाजवाद की ऐतिहासिक भूलों और गलतियों से सबक लेते हुए सच्चे समाजवाद की दिशा में आगे बढ़ने की बातें होने लगीं और यथार्थवाद पुनः चर्चा का विषय बन गया।

उत्तर-आधुनिकतावाद ने साहित्य में यथार्थवाद के विरुद्ध विखंडन की जो रणनीति अपनायी, वह आलोचना के स्तर पर पाठ विश्लेषण की विखंडनवादी प्रवृत्ति के रूप में तथा रचना के स्तर पर अस्मितावादी राजनीति के रूप में काफी सफल रही। स्त्रियों, कालों, अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों आदि के लेखन को अलग और विशिष्ट बनाने के प्रयासों में एक तरफ अनुभववाद पर जोर देकर यथार्थवाद को, दूसरी तरफ भिन्नता पर जोर देकर समग्रता के विचार को और तीसरी तरफ स्थानीयता पर जोर देकर भूमंडलीयता के नये यथार्थ को खारिज किया गया। मगर अब रचना और आलोचना, दोनों स्तरों पर अपनायी गयी इस रणनीति की वास्तविकता इसके पीछे छिपे साम्राज्यवादी इरादों के साथ उघड़कर सामने आने लगी। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में कई वामपंथी भी यह समझने लगे थे कि उत्तर-संरचनावाद और विखंडनवाद उनके भी सरोकार हैं, अस्मितावादी राजनीति उनकी भी राजनीति है, लेकिन अब उनमें से कुछ  महसूस करने लगे कि ये तो नव-उदार पूँजीवाद या बाजारवाद की भूमंडलीकरण से पहले की तैयारियों के उपक्रम थे।

कनाडाई पत्रकार नाओमी क्लाइन ने अपनी चर्चित पुस्तक ‘नो लोगो’ (2000) में व्यंग्यपूर्वक लिखा कि ‘‘हम दीवार पर प्रक्षेपित तस्वीरों का विश्लेषण करने में इतने व्यस्त थे कि खुद वह दीवार कब की बेची जा चुकी थी, यह देख ही नहीं पाये।’’ उत्तर-आधुनिकतावाद ने साहित्य, संस्कृति, विचार और राजनीति सभी स्तरों पर होने वाले प्रतिरोध को इस प्रकार विखंडित किया कि भूमंडलीय पूँजीवाद और अमरीकी साम्राज्यवाद के हौसलों का बुलंद हो जाना स्वाभाविक था। डेविड हार्वी ने ‘दि न्यू इंपीरियलिज्म’ (2003) में ‘न्यू यॉर्क टाइम्स’ के एक मुख्य समाचार का शीर्षक उद्धृत किया है--‘‘अमेरिकन एंपायर: गैट यूज्ड टु इट!’’ मानो अमरीका सारी दुनिया के लोगों से कह रहा हो कि हाँ, मैं हूँ अमरीकी साम्राज्यवाद! तुम मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते, इसलिए मेरे अधीन रहने की आदत डालो!

ऐसी स्थितियों के निर्माण में भूमंडलीकरण से पहले की उस शीतयुद्ध वाली राजनीति का भी बड़ा हाथ था, जिसके चलते यथार्थवाद और आधुनिकतावाद वैश्विक राजनीति की शतरंज के ऐसे घिसे-पिटे मोहरे बन गये थे कि उनके नाम पर साहित्य, कला और संस्कृति में कोई नवोन्मेष हो पाना असंभव हो गया था। पूँजीवादी खेमे में पश्चिम के यथार्थवादी लेखकों को भी आधुनिकतावादी घोषित किया जाता था, जबकि समाजवादी   खेमे में पूर्व के आधुनिकतावादी लेखक भी यथार्थवादी माने जाते थे। फिर, वहाँ ‘समाजवादी यथार्थवाद’ का राजनीतिक इस्तेमाल तो किया गया (जैसे उसके समर्थक लेखकों को मान-सम्मान देना और उसके विरोधियों को दंडित करना), लेकिन रचना और आलोचना से उसका कोई सच्चा संबंध नहीं बनाया गया। अतः सोवियत संघ के विघटन के बाद ही यथार्थवाद का मार्क्सवादी विश्लेषण फिर से शुरू हो पाया और चूँकि यह वर्तमान भूमंडलीकरण के आरंभ होने का समय था, इसलिए यथार्थवादी लेखकों का ध्यान स्थानीय यथार्थ के साथ-साथ भूमंडलीय यथार्थ पर भी गया और जब यह स्पष्ट दिखने लगा कि स्थानीय यथार्थ भूमंडलीय यथार्थ का ही अंग है, तो समग्रता के विचार ने जोर पकड़ा और उत्तर-आधुनिकतावादी विखंडनवाद की मार्क्सवादी आलोचना ने उसकी सीमाएँ और असंगतियाँ उजाकर करना शुरू कर दिया।

समग्रता की अवधारणा में भी इस बीच काफी बदलाव और विकास हुआ था। हालाँकि मार्क्सवादी चिंतन में पूँजीवादी विश्व-व्यवस्था की जगह भविष्य की समाजवादी विश्व-व्यवस्था का विचार पहले से मौजूद था (जिसकी अभिव्यक्ति सर्वहारा अंतरराष्ट्रीयतावाद के सिद्धांत और ‘‘दुनिया के मजदूरो एक हो’’ के नारे में होती थी), लेकिन सोवियत शासन के दौरान ‘‘एक देश में समाजवाद’’ के विचार ने अंतरराष्ट्रीयतावाद की जगह राष्ट्रवाद पर अनावश्यक और ऐतिहासिक रूप से गलत जोर डालकर समग्रता की अवधारणा को सीमित कर दिया था। सोवियत संघ के विघटन और वर्तमान पूँजीवादी भूमंडलीकरण ने समग्रता की सीमित (राष्ट्रीय अथवा ‘स्थानीय’) अवधारणा को पुनः व्यापक (अंतरराष्ट्रीय अथवा ‘भूमंडलीय’) बना दिया। इस प्रकार यथार्थ को ‘स्थानीय’ से आगे बढ़ाकर ‘भूमंडलीय’ के रूप में देखना जरूरी और संभव हो गया।


फ्रेडरिक जेमेसन ने समग्रता की ‘‘वापसी’’ के साथ-साथ यथार्थ की ‘‘व्याप्ति’’ का विचार भी फिर से प्रस्तुत किया, जिसे वे ‘मार्क्सिज्म एंड फॉर्म’ (1971) में पहले ही व्यक्त कर चुके थे। उनका कहना था कि ‘‘यथार्थवाद इतिहास के किसी खास क्षण में परिवर्तन की शक्तियों तक पहुँचने की संभावना पर निर्भर करता है।’’ हालाँकि वे भूमंडलीकरण को एक ऐसी स्थिति मानते हैं, जो इस संभावना को बाधित करती है, लेकिन उनके विचार से आज नहीं तो कल यह संभावना साकार हो सकती है।

इसका अर्थ यह हुआ कि पूँजीवादी भूमंडलीकरण ही यथार्थ नहीं है, एक संभावना के रूप में समाजवादी भूमंडलीकरण भी यथार्थ है। यथार्थवाद की इस समझ से साहित्य की रचना में ‘‘यथार्थवादी पद्धति’’ को ही अपनाना (अर्थात् यूटोपिया, डिस्टोपिया, रूपक, फैंटेसी वगैरह को यथार्थवादी रचना के लिए त्याज्य समझना) आवश्यक नहीं रहता और यथार्थवादी रचना उन रूपों में भी की जा सकती है, जो आधुनिकतावादी माने जाने के कारण यथार्थवादियों के लिए त्याज्य समझे जाते थे। जेमेसन ने ‘‘समकालीन विश्व के थके हुए यथार्थवाद’’ की तुलना में ‘साइंस फिक्शन’ (विज्ञान कथाओं) को ‘‘अधिक विश्वसनीय सूचना लौटाकर लाने वाला’’ बताकर रचना के रूप के स्तर पर नये यथार्थवाद की संभावनाओं की ओर संकेत किया। मगर इसका मतलब न तो यह  था कि वर्तमान भूमंडलीकरण के दौर में यथार्थवाद के सभी पुराने रूप ‘‘थके हुए यथार्थवाद’’ के रूप हो चुके हैं और न यह  कि आधुनिकतावादी सभी रूप यथार्थवादी रचना के लिए स्वीकार्य हो गये हैं। हाँ, इसका यह मतलब जरूर था कि भूमंडलीकरण के वर्तमान दौर में यथार्थवाद पुराने ढंग का यथार्थवाद नहीं, एक नये ही ढंग का यथार्थवाद होगा और होना भी चाहिए।

मार्क्सवादी आलोचना और सौंदर्यशास्त्र के सामने आज प्रश्न यह है कि इक्कीसवीं सदी के भूमंडलीकरण के सामने यथार्थवाद- विरोधी तमाम साहित्यिक प्रवृत्तियों के विरुद्ध यथार्थवाद की क्या भूमिका और क्या रणनीति होनी चाहिए। यथार्थवादी रचनाकार और मार्क्सवादी आलोचक आज इस प्रश्न का एक ही उत्तर देते दिखते हैं: यथार्थवाद में एक नवोन्मेष जरूरी है। यह नवोन्मेष कब और कैसे होगा, कहा नहीं जा सकता, लेकिन यह एक सतत प्रक्रिया है, जो यथार्थवाद के उदय से आज तक निरंतर जारी है।

टेरी ईगल्टन ने ‘मार्क्सिस्ट लिटरेरी थियरी’ (1996) में मार्क्सवादी आलोचना के चार परंपरागत क्षेत्र बताये थे--1. मानव- विज्ञानी आलोचना, 2. राजनीतिक आलोचना, 3. विचारधारात्मक आलोचना, और 4. आर्थिक आलोचना। इन सभी क्षेत्रों में काम करने वाले विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से यथार्थवादी चिंतन को आगे बढ़ाया है, लेकिन फ्रेडरिक जेमेसन शायद अकेले ऐसे विद्वान हैं, जिन्होंने यथार्थवाद की अपनी अवधारणा इन चारों क्षेत्रों में विकसित की गयी यथार्थवाद की समझ से निर्मित की है। उनके यथार्थवाद संबंधी चिंतन में मार्क्सवादी आलोचना के ये सभी रूप एक साथ शामिल हैं। इसीलिए उससे (1) यथार्थवाद के ऐतिहासिक प्रादुर्भाव, (2) यथार्थवाद की सौंदर्यशास्त्रीय तथा ज्ञानमीमांसात्मक शक्तियों, (3) यथार्थवाद के राजनीतिक उपयोगों तथा उनकी सीमाओं-संभावनाओं और (4) इतिहास के किसी खास दौर में उत्पादन के तरीके के अनुसार बनते-बदलते सांस्कृतिक परिदृश्य में यथार्थवाद की स्थिति और भूमिका से जुड़े सभी सवाल एक साथ सामने आते हैं, जिन पर विचार करना आज यथार्थवाद के विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है। 

 जेमेसन ने यथार्थवाद पर अलग से कोई विशेष अध्ययन प्रस्तुत नहीं किया, लेकिन लगभग तीन दशकों तक अपने लेखन में जगह-जगह यथार्थवाद से संबंधित सवालों से जूझते हुए उसकी नयी संभावनाओं का पता लगाया। इसके लिए वे बार-बार जॉर्ज लुकाच के पास गये, उनसे प्रेरित हुए, उनसे सीखा और उनसे टकराये भी; क्योंकि लुकाच ने साहित्य के रूपों और ऐतिहासिक शक्तियों के संबंध को समग्रता में देखा था और यथार्थवाद का एक सामान्य सिद्धांत निर्मित करने का प्रयास किया था। जेमेसन समग्रता की अवधारणा को जाँचने-परखने और विकसित करने के लिए रह-रहकर उसकी ओर लौटे और उन्होंने पाया कि समग्रता के आधार पर ही रचना और आलोचना में यथार्थवादी होना संभव है।

समग्रता का अर्थ यह नहीं है कि यथार्थ में जो कुछ है, या जितना दिखता है, वह सब चित्रित कर दिया जाये। यह असंभव है और आवश्यक भी नहीं। अतः समग्रता यथार्थवादी रचना के रूप या उसकी शैली (अथवा चित्रण की पद्धति) में नहीं, बल्कि रचनाकार की दृष्टि में होती है। वह यथार्थ का चाहे एक छोटा- सा अंश ही प्रस्तुत करे--जैसे किसी एक चरित्र के रूप में--लेकिन उसकी नजर उसे समग्रता में देखने वाली होनी चाहिए। अर्थात् रचना में चित्रित यथार्थ का एक अंश संपूर्ण यथार्थ के अंश के रूप में चित्रित होना चाहिए, न कि उस संपूर्णता को खंडित करके पाये गये उसके एक अंश को ही संपूर्ण मानकर।

उदाहरण के लिए, वर्तमान समाज या उसके किसी प्रातिनिधिक चरित्र को चित्रित करते समय रचनाकार उसके वर्तमान को तो देखता ही है, ऐतिहासिक दृष्टि से उसके अतीत और भविष्य को भी देखता है। आधुनिकतावादी तथा उत्तर-आधुनिकतावादी लोगों के लिए उस चरित्र के अतीत का कुछ अर्थ भले ही हो, उसके भविष्य का कोई अर्थ नहीं होता; क्योंकि उनके लिए भविष्य तो अनागत है और जो अभी आया ही नहीं है, जिसका अस्तित्व ही नहीं है, वह यथार्थ कैसे हो सकता है! भविष्य के बारे में सोचने, उसकी कल्पना करने, उसका कोई आदर्श सामने रखकर उसकी प्राप्ति के प्रयास करने या साहित्य में उसे चित्रित करने को वे एक ‘यूटोपिया’ (अयथार्थ, कल्पनालोक या असंभव आदर्श) मानते हैं। लेकिन लुकाच और जेमेसन दोनों यथार्थवाद को समग्रता में अर्थात् अतीत-वर्तमान-भविष्य को एक साथ ध्यान में रखने से बनी दृष्टि के रूप में देखते हैं। लुकाच ने यथार्थ के चित्रण में ‘‘समग्रता के प्रश्न की निर्णायक भूमिका’’ बतायी थी। जेमेसन ने उसमें एक नैतिक आयाम भी जोड़ा और ‘यूटोपिया’ को अयथार्थ नहीं, बल्कि यथार्थ ही मानते हुए ‘मार्क्सिज्म एंड फॉर्म’ में कहा :

‘‘मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य तो उस ‘यूटोपिया’ तक ही पहुँचना है, जहाँ जीवन और उसका अर्थ पुनः अविभाज्य हो जायेंगे, इसमें मनुष्य और विश्व एकमत हो जायेंगे। लेकिन यह भाषा अमूर्त है और ‘यूटोपिया’ कोई विचार नहीं, बल्कि एक ‘विजन’ (दृष्टि) है। अतः वह अमूर्त चिंतन नहीं, बल्कि स्वयं आख्यान ही है, जो समस्त ‘यूटोपियाई’ गतिविधि को प्रमाणित करने का आधार है, और महान उपन्यासकार ‘यूटोपिया’ की समस्याओं का ठोस निरूपण प्रस्तुत करते हैं।’’

लुकाच ने आख्यान और समग्रता के बीच का संबंध खोजा था। जेमेसन ने उस खोज को आगे बढ़ाते हुए ‘यूटोपिया’ को भावी समाजवादी विश्व-व्यवस्था के रूप में देखा और बताया कि आज जो ‘यूटोपिया’ अयथार्थ, कल्पनालोक या असंभव आदर्श लगता है, उसके भविष्य में साकार होने की संभावना को यथार्थ मानकर चलना यथार्थवादी लेखकों का एक राजनीतिक कार्यभार ही नहीं, बल्कि एक नैतिक दायित्व भी है।

जेमेसन ने काल की अवधारणा से जुड़े यथार्थवाद को ‘‘ऐतिहासिक यथार्थवाद’’ कहा है। इससे उनका आशय उन्नीसवीं सदी के बाल्जाक, स्कॉट, डिकेंस आदि के कथासाहित्य में पाये जाने वाले यथार्थवाद से है। जेमेसन के सामने ही नहीं, पश्चिम के प्रायः सभी मार्क्सवादी आलोचकों के सामने यह समस्या रही है कि बुर्जुआ वर्ग के सत्तारोहण के समय की क्रांतिकारी परिस्थिति में उदित हुए उस यथार्थवाद की परंपरा को वर्तमान समय में कैसे आगे बढ़ाया जाये। ‘‘ऐतिहासिक यथार्थवाद’’ के उदय के पहले तक यह माना जाता था कि सामाजिक यथार्थ का चित्रण करने वाले साहित्य का संबंध ज्ञानमीमांसा से तो है, किंतु सौंदर्यशास्त्र से नहीं। दूसरे शब्दों में, यथार्थवादी साहित्य ‘ज्ञान’ तो दे सकता है, ‘आनंद’ नहीं दे सकता। ‘‘ऐतिहासिक यथार्थवाद’’ ने दावा किया, जिसे बाल्जाक, स्कॉट, डिकेंस आदि के साहित्य ने सत्य भी सिद्ध किया कि वह निरा ज्ञानात्मक नहीं, सौंदर्यात्मक भी है।

हिंदी में प्रेमचंद ने आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की अवधारणा के जरिये तथा मुक्तिबोध ने  ज्ञानात्मक संवेदन और संवेदनात्मक ज्ञान की अपनी कोटियों के जरिये यही दावा पेश किया था और अपनी रचनाओं में चरितार्थ भी किया था।

जेमेसन ने ‘दि पॉलिटिकल अनकांशस : नैरेटिव ऐज अ सोशली सिंबॉलिक एक्ट’ (2002) में यथार्थवाद की ज्ञानात्मक और सौंदर्यात्मक दोनों तरह की उपलब्धियों को देखा। यह मानते हुए भी कि उन्नीसवीं सदी का-सा ‘‘ऐतिहासिक यथार्थवाद’’ बीसवीं सदी के पूँजीवाद के अंतर्गत संभव नहीं है, उन्होंने उसकी परंपरा को नये रूप में आगे बढ़ाना संभव, उचित और आवश्यक बताया। परंपरा को आगे बढ़ाने का मतलब पुराने लेखकों की रचना-पद्धति या शैली की नकल करना नहीं है। वर्तमान परिस्थिति में यदि कोई ‘‘ऐतिहासिक यथार्थवाद’’ की माँग करता है, तो उसे ‘‘वल्गर लुकाचवादी’’ ही कहा जा सकता है। इस माँग का मजाक उड़ाते हुए ब्रेष्ट ने अपने लेख ‘ऑन दि फॉर्मलिस्टिक कैरेक्टर ऑफ दि थियरी ऑफ रियलिज्म’ में व्यंग्यपूर्वक कहा था--‘‘बाल्जाक जैसे बनो--मगर अपटूडेट बाल्जाक!’’ जेमेसन ने ‘‘लेट कैपिटलिज्म’’ के दौर में पुराने ‘‘ऐतिहासिक यथार्थवाद’’ की तुलना भाप के इंजन से करते हुए टर्बाइन के दौर में नये यथार्थवाद की जरूरत बतायी।
जेमेसन का यह ‘‘टर्बाइन का दौर’’ उत्तर-आधुनिकतावाद का दौर था। इस दौर के बारे में उन्होंने एक प्रकार की निराशा व्यक्त करते हुए कहा कि आज की दुनिया इतनी ‘केऑटिक’ (अस्तव्यस्त) हो गयी है कि उसे समग्रता में देखना और चित्रित करना असंभव हो गया है। लेकिन उन्होंने नये यथार्थवादों के पैदा होने की संभावना बताते हुए अपने आशावाद का परिचय तो दिया ही, उत्तर-आधुनिकतावादी विखंडन के विरुद्ध समग्रता की अवधारणा में विश्वास भी व्यक्त किया। उन्होंने नये यथार्थवादों की संभावना ही नहीं, आवश्यकता भी बतायी और कहा कि आज के पूँजीवादी भूमंडलीकरण के दौर में यथार्थवाद को एक राजनीतिक लक्ष्य और कार्यक्रम के रूप में देखा जाना चाहिए। इसके लिए उन्होंने यथार्थवाद के नवीनीकरण की बात की और कहा कि आज का यथार्थवाद अपनी पुरानी परंपरा से बहुत कुछ ग्रहण करते हुए भी एक नया यथार्थवाद होगा। बल्कि एक नहीं, अनेक यथार्थवाद होंगे, जिनका आविष्कार किया जाना है।

मगर कैसे? इस प्रश्न का उत्तर खोजते हुए जेमेसन उत्तर-आधुनिकतावाद के संदर्भ में भूमंडलीकरण की जाँच-पड़ताल करते हैं और यहाँ उन्हें उत्तर-आधुनिकतावादी विखंडन की काट करने वाली समग्रता दिखायी देती है। साथ ही दिखायी देते हैं ‘साइंस फिक्शन’ और ‘साइबर पंक’ में यथार्थवाद के नये रूप। विज्ञान कथाएँ उन्हें भूमंडलीकरण के समग्र रूप को सामने लाने में और कंप्यूटर के ज्ञान से अनोखे काम कर डालने की कहानियाँ ‘‘उभरते भूमंडलीकरण के सत्य की लगभग पूरी अभिव्यक्ति’’ करने में समर्थ लगती हैं।
लेकिन मेरे विचार से नये यथार्थवाद या यथार्थवादों का आविष्कार इतना आसान नहीं है। जेमेसन ने ‘साइंस फिक्शन’ और ‘साइबर पंक’ में, उदाहरण के तौर पर ही सही, उसकी जो संभावना व्यक्त की है, वह ज्यादा विश्वसनीय नहीं है; क्योंकि एक तो वह वर्तमान भूमंडलीय यथार्थ को बदलने की जरूरत और संभावना के आधार पर नहीं, बल्कि वह जैसा भी है, उसी में नये यथार्थ के आविष्कार की बात करती है; दूसरे, वह रचना के रूप तक ही सीमित है, उसके वस्तुतत्त्व की बात नहीं करती। ‘साइंस फिक्शन’ और ‘साइबर पंक’ के रूपों में यथार्थवादी ही नहीं, यथार्थवाद-विरोधी रचनाएँ भी बड़े मजे में की जा सकती हैं। उदाहरण के लिए नवीनतम तकनीक वाली विज्ञान कथाओं तथा अमरीकी फिल्मों को देखा जा सकता है। अतः नये यथार्थवाद के आविष्कार के प्रश्न को रचना के रूप तक सीमित करके नहीं, बल्कि उसके वस्तुतत्त्व और परिप्रेक्ष्य तक फैलाकर देखना जरूरी है।


मैंने भूमंडलीय यथार्थ के बारे में तभी से सोचना शुरू कर दिया था, जब अपनी पुस्तक ‘आज का पूँजीवाद और उसका उत्तर- आधुनिकतावाद’ (1999) में संकलित निबंध लिखे थे। उसके बाद लिखे गये मेरे निबंध जैसे ‘साहित्य में फैशन और नवोन्मेष’, ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की जरूरत’, ‘रूढ़ सोच के साँचों को तोड़ना जरूरी’, ‘आगे की कहानी’, ‘हिंदी में विज्ञान कथाएँ क्यों नहीं हैं?’ इत्यादि भूमंडलीय यथार्थ को ही ध्यान में रखकर लिखे गये थे। अंततः ‘भूमंडलीय यथार्थवाद’ नामक निबंध में भूमंडलीय यथार्थवाद की मेरी अवधारणा विकसित होकर सामने आयी। (ये सभी निबंध 2008 में प्रकाशित मेरे साहित्यिक निबंधों के संग्रह ‘साहित्य और भूमंडलीय यथार्थ’ में संकलित हैं।) भूमंडलीय यथार्थवाद की मेरी अवधारणा संक्षेप में यह है:
आज की दुनिया का सबसे अहम प्रश्न है: क्या पूँजीवाद की वैश्विक व्यवस्था की जगह कोई और वैश्विक किंतु बेहतर व्यवस्था संभव है? यदि हाँ, तो उसकी रूपरेखा क्या है और वह व्यवस्था किन आधारों पर, किन शक्तियों के द्वारा और किन तरीकों से बनायी जा सकती है? इस प्रश्न का उत्तर भूमंडलीय यथार्थवाद के आधार पर ही दिया जा सकता है, क्योंकि इसका उत्तर देने के लिए यह आवश्यक है कि आज की दुनिया के यथार्थ को भौगोलिक के साथ-साथ ऐतिहासिक दृष्टि से भी देखा जाये और ऐतिहासिक दृष्टि को केवल अतीत को देखने वाली दृष्टि नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य को भी देखने वाली ऐसी सर्जनात्मक दृष्टि मानकर चला जाये, जो आने वाले कल की बेहतर दुनिया बनाने के लिए हमें आज ही प्रेरित और सक्रिय कर सके।

हिंदी साहित्य में यह मान्यता न जाने कब से और क्यों चली आ रही है कि यथार्थ और कल्पना परस्पर-विरोधी हैं। मेरा कहना यह है कि यथार्थवाद कल्पना का निषेध नहीं करता। सृजनशील कल्पना तो यथार्थवादी रचना के लिए अपरिहार्य है, क्योंकि वह जिस ‘यूटोपिया’ अथवा भविष्य के स्वप्न को साकार करने के लिए की जाती है, वह सृजनशील कल्पना के बिना साकार हो ही नहीं सकता--न रचना में, न यथार्थ में। कारण यह है कि यथार्थवादी रचना के लिए इतिहास का बोध, वर्तमान का अनुभव और भविष्य का स्वप्न आवश्यक है। और आवश्यक है वह परिप्रेक्ष्य, जो इन तीनों के मेल से बनता है। जाहिर है कि ऐसा यथार्थवाद--रचनाकार के जाने या अनजाने, चाहे या अनचाहे--एक समाजवादी परियोजना है, क्योंकि भविष्य का स्वप्न पूँजीवादी व्यवस्था में समाजवाद ही हो सकता है। चाहे भविष्य में उसका नाम और रूप कुछ और ही हो जाये, आज वह पूँजीवाद का निषेध है और उसके परे जाने का प्रयत्न।

ठीक इसी कारण आज का पूँजीवाद यथार्थवाद का विरोधी है। यथार्थवाद के विकास को तरह-तरह से बाधित करना, उसे तरह-तरह से बदनाम करना, यथार्थवादियों को उपेक्षित या दंडित करना तथा तमाम प्रत्यक्ष और परोक्ष तरीकों से उनका दमन करना पूँजीवादी राजनीति का आवश्यक अंग है।

मगर यह राजनीति अक्सर अराजनीतिक प्रतीत होने वाले रूपों में की जाती है। मसलन, यथार्थवाद की जगह अनुभववाद पर जोर देना, यूटोपिया का मजाक उड़ाना, उसे असंभव बताकर खारिज करना, भविष्य के स्वप्न देखने-दिखाने वाले यथार्थवादियों को स्वप्नजीवी, आदर्शवादी या गैर-यथार्थवादी सिद्ध करना, साहित्य को ‘‘वादमुक्त’’ तथा ‘‘राजनीति से दूर’’ रखने की सलाहें देना इत्यादि। ये अराजनीति की राजनीति के विभिन्न रूप हैं। लेकिन इसके बावजूद आज दुनिया भर में जो साहित्य लिखा जा रहा है, वह अधिकांशतः यथार्थवादी है और नये-नये यथार्थवादी रूपों में लिखा जा रहा है।

कुछ लोग इसे ‘‘यथार्थवाद की वापसी’’ कह रहे हैं। लेकिन वह कहीं चला नहीं गया था। बस, यथार्थवाद-विरोध के शोर-शराबे में उसकी आवाज कुछ कम सुनायी पड़ रही थी। मगर अब जबकि वह शोर-शराबा कम हुआ है, उसकी आवाज साफ सुनायी पड़ रही है। हाँ, उसका रूप कुछ बदला-बदला और नया-नया-सा दिखता है, क्योंकि इस बीच बदलते रहे यथार्थ के मुताबिक उसका रूप भी बदलता रहा है।




--रमेश उपाध्याय

Monday, May 20, 2013

आगे की कहानी



अंग्रेजी में होने वाली आख्यान-चर्चा में ‘नैरेटिव’ (आख्यान) के साथ-साथ ‘स्यूडो-नैरेटिव’ (छद्म-आख्यान) की चर्चा भी होती है, जिसका संबंध प्रायः सोवियत संघ की समाजवादी व्यवस्था का गुणगान करने के लिए लिखी या लिखवायी गयी प्रचारात्मक कहानियों से जोड़ा जाता है। कहा जाता है कि ‘समाजवादी यथार्थवाद’ के नाम पर लिखी या लिखवायी गयी ऐसी कहानियाँ झूठी या गढ़ी हुई कहानियाँ थीं, जिनसे आख्यान का नाम बदनाम हुआ। लेकिन उस चर्चा में उन कहानियों का जिक्र कहीं नहीं होता, जो धर्म, नैतिकता, सदाचार, शिष्टाचार या व्यापार की शिक्षा देने के नाम पर अथवा जनता का मनोरंजन करने के नाम पर लिखी या लिखवायी जाती हैं। ऐसी कहानियाँ रूस की समाजवादी व्यवस्था के जन्म से पहले भी लिखी-लिखवायी जाती थीं और आज भी दुनिया भर में लिखी-लिखवायी जाती हैं, जबकि सोवियत संघ का नाम ही दुनिया के नक्शे से मिट चुका है।

लेखक को थोड़े-से पैसे या कोई प्रलोभन देकर किसी भी विषय पर कैसी भी कहानी लिखवा लेने वाले लोग केवल फिल्मी दुनिया में नहीं होते, वे पत्रकारिता, पुस्तक-प्रकाशन, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और धर्म तथा राजनीति के क्षेत्रों में भी होते हैं। मगर आख्यानशास्त्रियों का ध्यान या तो इस तरफ जाता ही नहीं, या वे ऐसी कहानियों को ‘छद्म-आख्यान’ की कोटि में नहीं रखते। आजकल मिथकों पर बच्चों और बड़ों के लिए कहानियाँ लिखवाने, चित्रमालाएँ बनवाने, फिल्मों और टी.वी. सीरियलों के लिए मिथक-आधारित कथाएँ-पटकथाएँ लिखवाने का धंधा दुनिया भर में खूब चल रहा है। लेकिन मिथकों को कोई आख्यानशास्त्री ‘छद्म-आख्यान’ नहीं कहता। उलटे, उन्हें ‘पवित्र आख्यान’ कहकर महिमामंडित किया जाता है। उदाहरण के लिए, 1984 में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (बर्कले) से प्रकाशित पुस्तक ‘सेक्रेड नैरेटिव: रीडिंग्स इन दि थियरी ऑफ मिथ’ को देखा जा सकता है, जो संपादक एलन डंडास के इस वक्तव्य से शुरू होती है कि ‘‘मिथक पवित्र आख्यान हैं’’ और पुस्तक में शामिल इक्कीस टिप्पणीकार इसका समर्थन करते हैं!

आख्यानशास्त्री जानते और मानते हैं कि टी.वी. पर दिखाये जाने वाले प्रायः सभी विज्ञापनों में एक आख्यान होता है--कुछ सेकेंड जितनी छोटी ही सही, एक कहानी होती है--और विज्ञापन का दूसरा नाम प्रचार है। लेकिन इन आख्यानों को न तो कोई छद्म-आख्यान कहता है और न प्रचारात्मक कहानियाँ। इसी तरह धर्म, सभ्यता, संस्कृति, नैतिकता, सदाचार, देशभक्ति या राष्ट्रवाद के नाम पर राजनीतिक प्रचार करने वाली कहानियों को भी कोई प्रचारात्मक नहीं कहता। मगर जनहित, जनवाद, समाजवाद इत्यादि की बात करने वाली कहानियों पर तुरंत ‘प्रचारात्मक’ का ठप्पा लगा दिया जाता है और उन्हें ‘छद्म-आख्यान’ की कोटि में डाल दिया जाता है।

यह सब देखकर लगता है कि पिछले कुछ वर्षों में पूँजीवादी भूमंडलीकरण के साथ-साथ जिस आख्यानशास्त्र का बोलबाला हुआ है, वह शायद स्वयं ही एक जबर्दस्त प्रचार और छद्म-आख्यान है। ‘महा-आख्यानों’ के अंत की घोषणा करने वाले उत्तर-आधुनिकतावाद से आख्यानशास्त्र का क्या संबंध है, यह जगजाहिर है। और अब यह भी कोई छिपी हुई बात नहीं रह गयी कि उत्तर-आधुनिकतावाद आज के भूमंडलीय पूँजीवाद की विचारधारा है। अतः जब ‘आख्यान’ के आगे ‘छद्म’ और ‘पवित्र’ जैसे विशेषण लगाये जायें, तो इसमें निहित राजनीति और प्रचारात्मकता को समझना कुछ मुश्किल नहीं रहता।

लेकिन हमारा वर्तमान समय कुछ ऐसा है कि इसमें सच और झूठ या ‘फैक्ट’ और ‘फिक्शन’ में फर्क कर पाना बहुत मुश्किल हो गया है। कारण यह है कि घर में माता-पिता और स्कूल में अपने शिक्षकों से झूठ बोलने वाले बच्चों से लेकर अपने देश की जनता और शेष सारी दुनिया से झूठ बोलने वाले राष्ट्राध्यक्षों तक तमाम लोग झूठी कहानियाँ गढ़ते हैं और मीडिया तो छोटे-छोटे विज्ञापनों से लेकर बड़ी-बड़ी खबरों तक में प्रायः झूठी ही कहानियों (‘स्टोरीज’) का कारोबार करता है।

उदाहरण के लिए, अमरीका ने इराक में व्यापक विनाशकारी हथियारों के होने की झूठी कहानी गढ़ी और उसके आधार पर किये गये आक्रमण से लाखों लोगों को तबाह करके उस देश पर कब्जा कर लिया। लेकिन इस महा छद्म-आख्यान का विरोध कितने आख्यानशास्त्रियों और उत्तर-आधुनिकतावादियों ने किया? और इस सबमें मीडिया की भूमिका क्या रही, जिसने असंख्य छोटे-छोटे छद्म-आख्यान समाचारों के नाम पर सारी दुनिया में फैलाये?

साहित्य के बारे में कुछ लोग कहते हैं कि सच कहने के लिए यही एक जगह बची है। लेकिन क्या यह भी सच है? शायद नहीं। साहित्य में भी खूब झूठ बोला जाता है और, बकौल रामविलास शर्मा, कुछ लोग तो झूठ इतनी सफाई और खूबसूरती से बोलते हैं कि उसे सच से भी ज्यादा सुंदर, आकर्षक और प्रभावशाली बना देते हैं। यह चीज आज हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य में ही नहीं, सभी देशों की सभी भाषाओं के जन-विरोधी या मानव-विरोधी साहित्य में देखी जा सकती है।

ऐसी स्थिति में अगर कोई यह कहे कि वह यथार्थवादी है या यथार्थवादी कहानी लिखता है, तो सयाने लोग उससे शायद यही पूछेंगे कि यथार्थवाद क्या होता है। और निश्चित है कि आज बड़े से बड़े यथार्थवादी के लिए यह बताना मुश्किल हो जायेगा कि यथार्थवाद क्या है। यथार्थवाद के कुछ भिन्न और परस्पर-विरोधी रूप तो पहले के साहित्य में भी देखे जा सकते थे--मसलन, ‘नेचुरलिस्ट’ लोगों का यथार्थवाद, ‘रोमेंटिक रिवोल्यूशनरी’ लोगों का यथार्थवाद, ‘बुर्जुआ क्रिटिकल रियलिज्म’ या ‘सोशलिस्ट रियलिज्म’ में यकीन करने वालों का यथार्थवाद और हम हिंदी वालों का ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’। इन विभिन्न प्रकार के यथार्थवादों के बीच चाहे जितना फर्क, अंतराल या अंतर्विरोध रहा हो, एक चीज समान थी: सच के पक्ष में खड़े होकर झूठ से लड़ना। ज्यादातर मामलों में सबके ‘सच’ और ‘झूठ’ अलग-अलग होते थे, फिर भी एक चीज सबमें समान रहती थी: असत्य के विरुद्ध सत्य के लिए लड़ना, अन्याय के विरुद्ध न्याय के लिए लड़ना, बुराई के विरुद्ध अच्छाई के लिए लड़ना, अनैतिकता के विरुद्ध नैतिकता के लिए लड़ना, भदेसपन के विरुद्ध उदात्तता के लिए लड़ना, कुरूपता के विरुद्ध सुंदरता के लिए लड़ना और बर्बरता के विरुद्ध मनुष्यता के लिए लड़ना। यथार्थवाद वास्तव में यही था, चाहे उसका नाम और रूप कुछ भी हो।

मगर आज? उत्तर-आधुनिकतावाद ने सारे यथार्थवादों की छुट्टी कर दी है। उसमें सत्य और असत्य के बीच, न्याय और अन्याय के बीच, अच्छे और बुरे के बीच, नैतिक और अनैतिक के बीच, उदात्त और भदेस के बीच, सुंदर और असुंदर के बीच, मनुष्यता और बर्बरता के बीच कोई फर्क ही नहीं किया जाता। उसमें तमाम परस्पर-विरोधी यथार्थ कथाकार के खिलंदड़ेपन या मसखरेपन और हर चीज को तुच्छ तथा हास्यास्पद बताकर खारिज कर देने वाले बड़प्पन के चलते एक जैसे हो जाते हैं! उत्तर-आधुनिकतावादी साहित्यिक सिद्धांत लेखकों को यही सिखाते हैं और उनके अनुसार लिखने वाले लेखक अपनी कहानियों में यही दिखाते हैं!

शायद इसीलिए आज के अधिकांश फैशनेबल कथा-लेखन को देखकर तरह-तरह के संदेह मन में उठते हैं, जैसेµक्या हम एक विश्वव्यापी विराट् विभ्रम में जी रहे हैं, जहाँ सच, यथार्थ या वास्तविकता को पकड़ पाना और उसे समझकर उसकी कहानी कह पाना असंभव हो गया है? क्या कहानी लिखना ही व्यर्थ हो गया है? क्या इसीलिए बहुत-से कहानीकारों ने कहानी लिखना बंद कर दिया है? क्या इसीलिए नये कहानीकार भी कहानी में कुछ खास नया नहीं कर पा रहे हैं? क्या इसीलिए ऐसा लग रहा है कि कहानी ठहर-सी गयी है और आगे नहीं बढ़ पा रही है?

लेकिन कहानी हमारे जीवन की एक अनिवार्य आवश्यकता है। मानवीय जीवन जीने के लिए हमें बहुत सारी अमानवीयता से लड़ते-भिड़ते आगे बढ़ना होता है। उस लड़ाई में कहानियाँ कदम-कदम पर हमारा साथ देती हैं। इसीलिए हम कहानियाँ कहते-सुनते हैं, पुरानी कहानियों को नये रूप तथा नये अर्थ देते हैं (तथाकथित पवित्र आख्यानों को भी नयी व्याख्याएँ देकर फिर-फिर रचते हैं) और नयी जरूरतों के मुताबिक नयी कहानियाँ गढ़ते हैं। इसी तरह जिंदगी आगे बढ़ती है, इसी तरह कहानी आगे बढ़ती है।

1960 के आसपास सारी दुनिया में यह महसूस किया जाने लगा था कि आधुनिकतावाद कहानी का दुश्मन है, क्योंकि वह कहानी को मनुष्य के उपयोग की वस्तु नहीं रहने देना चाहता, बल्कि एक शुद्ध कलात्मक या सौंदर्यशास्त्रीय वस्तु बनाना चाहता है। इसके लिए आधुनिकतावादियों ने कहानी में से आख्यान को निकालने की कोशिश की, जिससे कहानी का कहानीपन खत्म हुआ और वह कहानी ही नहीं रही, ‘एंटी-स्टोरी’ (या हिंदी की ‘अकहानी’) बन गयी। उन्होंने कहानी के जो सौंदर्यशास्त्रीय प्रतिमान बनाये, वे कहानी के ही विरुद्ध थे। इसीलिए उन प्रतिमानों के आधार पर की गयी कहानी-समीक्षा में यह प्रश्न कभी नहीं उठाया गया कि कहानीकार को अपनी कहानी की अंतर्वस्तु जिस समाज से मिलती है, उस समाज के प्रति और जिस भाषा में वह कहानी लिखता है, उस भाषा के प्रति और स्वयं कहानी की साहित्यिक विधा के प्रति भी उसका कोई दायित्व होता है या नहीं!

हिंदी में ‘जनवादी कहानी’ ने आधुनिकतावादी ‘नयी कहानी’ और ‘अकहानी’ के आंदोलनों की कमियों, कमजोरियों और गलतियों से काफी कुछ सीखा। उसने स्वयं को जनता और जन-आंदोलनों से जोड़ा। कहानी को सामाजिक परिवर्तन का उपकरण बनाने का प्रयास किया। हिंदी कहानी की समृद्ध परंपरा को पहचाना और उसे आगे बढ़ाने का प्रयास किया। उसी के जरिये हिंदी कहानी, जो एकदम सपाट चेहरे वाले ‘वह’ की बकवास हो गयी थी, ऐसे जीते-जागते लोगों की कहानी बनी, जो अपने नाम-धाम और काम से पहचाने जा सकते थे। और उसी के जरिये कहानी में वह कहानीपन वापस आया, जो ‘नयी कहानी’ और ‘अकहानी’ के आधुनिकतावादियों ने लगभग गायब कर दिया था।

लेकिन देखते-देखते कहानी क्या, दुनिया ही बदल गयी। पूँजीवादी भूमंडलीकरण की प्रचंड आँधी पहले का बहुत कुछ उड़ा ले गयी। यहाँ तक कि सोवियत संघ जैसी ‘महाशक्ति’ भी उसमें ध्वस्त हो गयी और आत्मनिर्भरता की बात करने वाले हमारे देश में निजीकरण तथा उदारीकरण की तेज धूल भरी हवाएँ चलने लगीं, जिनके कारण समाजवाद का सपना तो धूमिल हुआ ही, जनवाद को भी बेकार बताने और बनाने के सिलसिले शुरू हो गये। ‘जनवादी कहानी’ साहित्य में ‘आउट ऑफ फैशन’ हो गयी और ‘जादुई यथार्थवाद’ का नया फैशन चल पड़ा।

ऐसा लगने लगा, जैसे कल तक जो सामाजिक यथार्थ कहानी में आ रहा था, वह किसी जादू के जोर से अचानक गायब हो गया हो! जैसे भूख, गरीबी, बीमारी, बेरोजगारी, शोषण, दमन, उत्पीड़न आदि की समस्याएँ छूमंतर हो गयी हों! शोषक-उत्पीड़क पूँजीपतियों और भूस्वामियों को मानो आम माफी मिल गयी हो और वामपंथी-जनवादी लोग ही कटघरे में खड़े किये जाने लायक रह गये हों! कल तक हिंदी का जो कहानीकार प्रेमचंद, निराला और मुक्तिबोध के नाम जपता हुआ दबे-कुचले, सताये हुए मजदूरों, किसानों और मध्यवर्गीय मेहनतकश स्त्री-पुरुषों को क्रांति का हिरावल दस्ता समझता था, वह मानो गरीब ‘हिंदीवाला’ से अचानक अमीर अंग्रेजी वाला हो गया और किसी ऊँचे आसन पर बैठकर हिंदी के लेखकों पर हिकारत के साथ हँसने लगा। यथार्थ को समझने और बदलने से संबंधित गंभीर चिंताएँ मानो एकाएक ही बेमानी हो गयीं और खिलंदड़ापन ही सबसे बड़ा साहित्यिक मूल्य बन गया। हिंदी के बहुत-से कहानीकार एकदम पलटकर जनोन्मुख से अभिजनोन्मुख हो गये। वे अपनी कहानियों में अभिजनों की-सी भाषा बोलने लगे तथा अभिजनों के प्रिय विषयों पर चटपटी कहानियाँ लिखने लगे।

इसी दौरान यह भी हुआ कि हिंदी के ऐसे बहुत-से लेखक, जो अपसंस्कृति, उपभोक्तावाद और बाजारवाद को तथा इन चीजों से समाज को प्रदूषित करने वाले मीडिया को कोसा करते थे, अचानक मीडिया में छाये रहने में ही अपनी कुशलता और सफलता समझने लगे। वे ‘‘जन-जन तक अपनी बात पहुँचाने’’ के लिए ‘‘बड़े संचार माध्यमों का इस्तेमाल’’ करने की बातें करने लगे और लघु पत्रिकाओं के बारे में कहने लगे कि ये लेखकों द्वारा और लेखकों के लिए ही निकाली जाती हैं, आम जनता तक तो पहुँचती नहीं, इसलिए इनमें लिखना व्यर्थ है! अब यह तो वे ही जानें कि मीडिया का इस्तेमाल उन्होंने किया अथवा मीडिया ने उनका, लेकिन उनके द्वारा लिखी जा रही कहानियों पर मीडिया का असर साफ दिखायी पड़ रहा है। मीडिया हर चीज को सनसनीखेज बनाता है, चाहे वह समाचार हो या विचार, लोगों की जिंदगी हो या उनकी कहानी। वह कहानी को सेक्स, हिंसा और स्केंडलबाजी से ही सनसनीखेज बना सकता था और यही उसने किया। विडंबना यह कि कुछ ही हजार छपने वाली कुछ साहित्यिक पत्रिकाएँ भी बड़े संचार माध्यमों की-सी सनसनीखेज पत्रकारिता करने लगीं। उनमें ऐसी कहानियाँ छपने लगीं, जिनकी साहित्यिक गुणवत्ता या मूल्यवत्ता चाहे अत्यंत संदिग्ध हो, पर उनसे किसी तरह की सनसनी पैदा होती हो!

यहाँ कहानी-समीक्षा एक सार्थक हस्तक्षेप कर सकती थी। लेकिन हिंदी में कहानी की समीक्षा नहीं, सिर्फ चर्चा होती है और चर्चित कहानी को ही अच्छी, श्रेष्ठ, महत्त्वपूर्ण और प्रतिनिधि कहानी मान लिया जाता है। इसलिए हिंदी के कहानीकार चर्चित हो जाने में ही अपनी सफलता समझने लगते हैं। उन्हें कहानी का सार्थक, सोद्देश्य, प्रासंगिक, कलात्मक आदि होना महत्त्वपूर्ण नहीं लगता, महत्त्वपूर्ण लगता है चर्चित होना। और चतुर कहानीकार जानते हैं कि चर्चा कैसी कहानियों की होती है तथा किस प्रकार करायी जाती है। लेकिन ऐसी प्रायोजित चर्चाओं से न तो कहानी आगे बढ़ती है, न कहानी-समीक्षा। आगे बढ़ने के लिए बदलती हुई वर्तमान परिस्थितियों को अतीत और भविष्य के संदर्भ में समझना तथा उनके बीच से आगे जाने का रास्ता निकालना जरूरी है।

आज के हिंदी साहित्य में परिवर्तन तो बहुत हो रहे हैं, लेकिन हर तरह के परिवर्तन विकास और प्रगति के सूचक नहीं होते। अतः उनकी गंभीर समीक्षा अत्यंत आवश्यक है। उदाहरण के लिए, पिछले कुछ ही वर्षों में हमारी साहित्यिक शब्दावली में जो परिवर्तन आये हैं, उन पर विचार करें। साहित्य में तो कोई आंदोलन रहा ही नहीं, जन-आंदोलनों या सामाजिक आंदोलनों के प्रति भी हमारा रवैया किस तरह बदल गया है, इसे हम अपनी साहित्यिक शब्दावली के स्तर पर स्पष्ट देख सकते हैं। ‘आंदोलन’ देखते-देखते ‘विमर्श’ बन गये हैं। स्त्री आंदोलन की जगह स्त्री विमर्श! दलित आंदोलन की जगह दलित विमर्श! आंदोलन की कहानी लिखने के लिए लेखक को आंदोलनकारियों के बीच जाना पड़ता था, उनके सुख-दुख और संघर्ष में शामिल होना पड़ता था, कुछ कष्ट उठाने पड़ते थे, कुछ त्याग और बलिदान करने के लिए भी तैयार रहना पड़ता था; जबकि विमर्श मंचों पर बोलकर या घर में अकेले बैठकर लिखते हुए भी किया जा सकता है। अतः विमर्शों वाली कहानी जन-आंदोलनों से ही नहीं, जन-जीवन से भी कटती जा रही है।

इसी तरह ‘वर्ग’ की जगह ‘जाति’ की बात होने लगी है। ‘जनता’ की जगह ‘अस्मिता’ की बात होने लगी है। ‘सामाजिक संघर्ष’ की जगह ‘पहचान के संकट’ की बात होने लगी है। ‘मुक्ति’ की जगह ‘मान’ की बात होने लगी है। लेकिन इन परिवर्तनों से हासिल क्या हो रहा है? क्या वर्ग को भुलाकर जाति की बात करने से गरीब दलितों का शोषण, दमन और उत्पीड़न बंद हो जायेगा? क्या अलग-अलग अस्मिताओं की बात करने से जनता की समस्याएँ हल हो जायेंगी? क्या अपनी अस्तित्व-रक्षा के लिए सामाजिक संघर्ष करने वालों का अस्तित्व अपनी कोई अलग पहचान बना लेने से बच जायेगा? क्या ‘मुक्ति’ के लिए संघर्ष करने की जगह ‘मान’ की माँग करने से स्त्रियों और दलितों को समाज में आजादी और बराबरी के अधिकार मिल जायेंगे?

यदि नहीं, तो हिंदी कहानी और कहानी-समीक्षा में कहीं कोई ऐसी रचनात्मक या आलोचनात्मक पहल क्यों नहीं हुई, जिससे पता चलता कि सामाजिक समस्याओं के प्रति हमारे दृष्टिकोण में यह भारी परिवर्तन अचानक कैसे और क्यों हो गया? मसलन, क्या स्त्रियों और दलितों की शोषण, दमन और उत्पीड़न से मुक्ति हो चुकी थी कि अब सिर्फ उनके मान-सम्मान का सवाल हल करना ही बाकी रह गया था? यदि नहीं, तो क्या उनकी रोजी-रोटी के सवाल से ज्यादा जरूरी उनके मान-सम्मान का सवाल था? समझ में नहीं आता कि हिंदी की कहानी और कहानी-समीक्षा ने इन बेहद जरूरी सवालों के जवाब खोजने की कोई कोशिश किये बगैर इन परिवर्तनों को क्यों और किस आधार पर स्वीकार कर लिया!

बीसवीं सदी के आठवें दशक में जब हिंदी में प्रगतिशील और जनवादी कहानी का एक नया दौर शुरू हुआ था, ऐसे सवालों पर व्यापक विचार-विमर्श हुआ था, जिससे कहानी-लेखन पर छायी हुई बहुत-सी वैचारिक धुंध साफ हुई थी और नयी सृजनशीलता की दिशाएँ स्पष्ट हुई थीं। उस समय की कहानी ‘नयी कहानी’, ‘अकहानी’, ‘समांतर कहानी’ आदि के नारों और फार्मूलों में कैद थी और कहानीकार ‘अपने जिये-भोगे’ को ‘स्वानुभूत सत्य’ के रूप में व्यक्त करने को ही कहानी लिखना समझते थे। ये नारे और फार्मूले अब बेकार हो चुके थे, अतः उस समय की कहानी से आगे की कहानी की बातें होने लगी थीं। उदाहरण के लिए, 1976 में हिंदी कहानी का पुनर्मूल्यांकन करने के लिए दिल्ली में आयोजित एक संगोष्ठी में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने आगे की कहानी के लिए एक पंचसूत्री कार्यक्रम प्रस्तुत किया था :

1. पश्चिमी फैशनपरस्त अंधानुकरण से बचो।
2. शिल्प को आतंक मत बनाओ।
3. उनके लिए भी लिखो जो अर्द्धशिक्षित हैं और उनके लिए भी जो अशिक्षित हैं, जिन्हें तुम्हारी कहानी पढ़कर सुनायी जा सके।
4. इस देश की तीन-चौथाई जनता की सोच-समझ को वाणी दो, जो वह खुद नहीं कह सकती। और,
5. कहानी को लोककथाओं और ‘फेबल्स’ की सादगी की ओर मोड़ो, उनके विन्यास से सीखो, और उसे आम आदमी के मन से जोड़ो।

जाहिर है, ये बातें इसीलिए कही गयी थीं कि उस समय की हिंदी कहानी में पश्चिमी फैशनपरस्त अंधानुकरण हो रहा था, शिल्प को आतंक बनाया जा रहा था, कहानी केवल शिक्षितों के लिए लिखी जा रही थी, उसमें देश की तीन-चौथाई जनता की सोच-समझ को वाणी नहीं दी जा रही थी और कहानी ऐसे जटिल विन्यास वाली कहानी बनती जा रही थी कि वह आम आदमी के मन से नहीं जुड़ पा रही थी। इन्हीं चीजों के विरुद्ध ‘जनवादी कहानी’ का आंदोलन शुरू हुआ था, जो उस समय के हिसाब से ‘आगे की कहानी’ थी।

क्या आज की हिंदी कहानी में, कुछ बदले हुए रूपों में, कमोबेश यही सब फिर से नहीं हो रहा है? ध्यान से देखें, तो लगेगा कि न केवल हो रहा है, बल्कि और ज्यादा बुरे तथा विकृत रूपों में हो रहा है।

जाहिर है कि ‘जनवादी कहानी’ के बाद हिंदी कहानी उस कार्यक्रम के अनुसार आगे नहीं बढ़ी। इसके विपरीत वह आगे बढ़ी ऐसी दो दिशाओं में, जो इस कार्यक्रम से कहानी को दूर ले जाने वाली थीं। एक दिशा थी ‘‘पश्चिमी फैशनपरस्त अंधानुकरण’’ तथा ‘‘शिल्प को आतंक बनाने’’ वाले कहानी-लेखन की दिशा, जिसमें आगे बढ़कर हिंदी कहानी जादुई यथार्थवादी और उत्तर-आधुनिकतावादी हुई। इस दिशा में जाकर हिंदी कहानी जनोन्मुख होने के बजाय बड़ी बेशर्मी से अभिजनोन्मुख हुई और ‘‘आम आदमी के मन से जुड़ने’’ के बजाय खास आदमियों के मन को मोहने की आकांक्षा से किये जाने वाले बौद्धिकता के व्यापार में बदल गयी। दूसरी दिशा ऊपरी तौर पर हिंदी कहानी को जनोन्मुख बनाने वाली लगती थी, जिसमें आगे बढ़कर हिंदी कहानी स्त्रीवादी और दलितवादी विमर्शों की कहानी बनी। लेकिन वास्तव में यह दिशा कहानी को सेक्स, हिंसा और जातिवादी लेखन के फार्मूलों की ओर ले गयी और कहानी जनोन्मुख होने के बजाय बाजारोन्मुख हो गयी।

‘जनवादी कहानी’ से पहले के फैशनपरस्त कहानीकार पश्चिमी फैशनों का अनुकरण करते थे, तो कम से कम पश्चिम की चीजों को पढ़ते तो थे। आगे चलकर यह हुआ कि उस अनुकरण का ही अनुकरण करते हुए बहुत-सी कहानियाँ लिखी जाने लगीं। ‘जनवादी कहानी’ के बाद शिल्प को पुनः आतंक बनाया जाने लगा। अशिक्षितों और अर्द्धशिक्षितों की तो बात ही क्या, शिक्षितों में भी केवल कुछ प्रभुत्वशाली संपादकों तथा आलोचकों को ध्यान में रखकर कहानियाँ लिखी जाने लगीं। जनता की सोच-समझ को वाणी देने की बात दूर, बहुत-से कहानीकार तो जन, जनता, जनवाद, समाजवाद आदि के नाम से ही बिदकने लगे और स्वयं ‘जन’ होकर भी ‘अभिजनों’ की-सी सोच-समझ के साथ और उन्हीं के लिए कहानी लिखने लगे। ‘सादगी’ या ‘आम आदमी के मन’ से तो कहानी का मानो कोई संबंध ही नहीं रहा। आयातित उच्च प्रौद्योगिकी के साथ आयी और अंधानुकरण के रूप में अपना ली गयी पश्चिमी जीवन-शैली में सादगी कहाँ?

ऐसी स्थिति में आगे बढ़ने के लिए कहानीकारों को यह सोचना होगा कि आज के पूँजीवाद का विकल्प क्या हो सकता है। आज के वैश्विक पूँजीवाद का विकल्प वैश्विक समाजवाद ही हो सकता है। अतः सोचना यह है कि हम उसकी दिशा में कैसे आगे बढ़ें।

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने आगे की कहानी का जो पंचसूत्री कार्यक्रम दिया था, वह अभी अप्रासंगिक नहीं हुआ है। लेकिन आज की नयी परिस्थितियों में वह अपर्याप्त अवश्य लगता है। इसलिए मैं उसमें अपनी तरफ से पाँच सूत्र और जोड़ना चाहता हूँ :

1. चालू विमर्शों की कहानी लिखने से बचो।
2. बदलते हुए यथार्थ को देखो और यथार्थ को बदलने के लिए लिखो।
3. दुनिया भर के उत्कृष्ट कहानी-लेखन से सीखो, पर अपनी कथा परंपरा में और अपनी जनता के लिए लिखो।
4. साहित्य की बदली हुई शब्दावली को आँख मूँदकर मत अपनाओ।
5. वैश्विक पूँजीवाद के विरुद्ध वैश्विक समाजवाद का स्वप्न साकार करने के लिए अच्छी कहानियाँ बेखटके गढ़ो।

--रमेश उपाध्याय



Friday, March 29, 2013

रमेश उपाध्याय की नयी किताब ‘मेरा मुझ में कुछ नहीं’ पर विचार-गोष्ठी


‘‘नये लेखकों के लिए तो ‘राइटर्स कंपेनियन’ या लेखक-सचहर की तरह की किताब है यह--पठनीय, संग्रहणी और बहुत दूर तक आचरणीय भी।’’--विश्वनाथ त्रिपाठी

बहुमुखी साहित्यिक प्रतिभा तथा बहुआयामी व्यक्तित्व वाले लेखक और ‘कथन’ के संस्थापक संपादक रमेश उपाध्याय के 71वें जन्मदिन पर उनकी नयी किताब ‘मेरा मुझ में कुछ नहीं’ का लोकार्पण 1 मार्च, 2013 को नयी दिल्ली में गांधी शांति प्रतिष्ठान के सभागार में संपन्न हुआ। इस अवसर पर ‘कथन’ पत्रिका और शब्दसंधान प्रकाशन के संयुक्त प्रयास से एक विचार-गोष्ठी का आयोजन भी किया गया, जिसमें सुप्रसिद्ध साहित्यकारों ने किताब पर तथा उसके बहाने रमेश उपाध्याय के कृतित्व एवं व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों पर अपने विचार व्यक्त किये।


समारोह के अध्यक्ष थे विश्वनाथ त्रिपाठी और मुख्य अतिथि मैनेजर पांडेय। वक्ता थे कवि लीलाधर मंडलोई, कथाकार अल्पना मिश्र, व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय, युवा आलोचक राकेश कुमार और विज्ञान लेखक देवेंद्र मेवाड़ी। ‘कथन’ की संपादक संज्ञा उपाध्याय ने स्वागत वक्तव्य दिया और कार्यक्रम का संचालन युवा आलोचक और ‘बनास जन’ के संपादक पल्लव ने किया। 
 
पल्लव

पल्लव ने रमेश उपाध्याय को जन्मदिन की बधाई देते हुए कहा कि ‘मेरा मुझ में कुछ नहीं’ आत्मकथा नहीं है, किंतु ऐसी आत्मकथात्मक कृति है, जिसे पढ़कर हम रमेश उपाध्याय के विपुल, वैविध्यपूर्ण और विचारोत्तेजक लेखन, ‘कथन’ जैसी महत्त्वपूर्ण पत्रिका तथा ‘आज के सवाल’ जैसी अद्भुत पुस्तक शृंखला के संपादन की विशिष्टता के साथ-साथ उनके अध्ययन, अध्यापन, साहित्यिक आंदोलन, लेखक-संगठन आदि विभिन्न क्षेत्रों में संलग्न रहने के दौरान किये गये गंभीर मनन और चिंतन की व्यापकता को समझ सकते हैं।

पुस्तक पर हुई विचार-गोष्ठी से पहले रमेश उपाध्याय के दो मित्रों ने आत्मीयतापूर्ण संस्मरण सुनाते हुए उनके व्यक्तित्व की विशेषताओं की चर्चा की।

प्रेम जनमेजय
व्यंग्यकार तथा ‘व्यंग्य यात्रा’ के संपादक प्रेम जनमेजय रमेश उपाध्याय के पड़ोसी हैं और 1973 से लेकर 2004 में रमेश उपाध्याय के रिटायर होने तक दिल्ली विश्वविद्यालय में उनके साथी प्राध्यापक रहे हैं। उन्होंने अनेक उदाहरण देते हुए बताया कि रमेश उपाध्याय अच्छे मित्र, अच्छे इंसान, अच्छे लेखक, अच्छे संपादक इत्यादि होने के साथ-साथ बहुत अच्छे शिक्षक भी हैं, जिन्होंने न केवल अपने छात्रों को, बल्कि साथ के शिक्षकों को भी कई प्रकार से शिक्षित किया है। 

देवेन्द्र मेवाड़ी

प्रसिद्ध विज्ञान लेखक देवेंद्र मेवाड़ी ने उस समय के संस्मरण सुनाये, जब 1965 में रमेश उपाध्याय दिल्ली में ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ के संपादकीय विभाग में थे और जब 1969 में उन्होंने अजमेर से ‘ऊर्जा’ नामक विज्ञान पत्रिका निकालने की योजना बनायी। उन्होंने उस समय का रमेश उपाध्याय का लिखा एक पत्र भी पढ़कर सुनाया।


इसके बाद पुस्तक पर विचार-गोष्ठी हुई। उसमें दिये गये वक्तव्य क्रमशः किंचित् संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत किये जा रहे हैं।  

लीलाधर मंडलोई
लीलाधर मंडलोई
रमेश जी मेरे अग्रज हैं और बहुत बड़े साहित्यकार हैं। आज उनकी इकहत्तरवीं सालगिरह है। इसलिए सबसे पहले रमेश जी को बहुत-बहुत मुबारकबाद। इन्होंने जो एक भरा-पूरा साहित्यिक और सांस्कृतिक जीवन जिया है, उस पर हर किसी को रश्क होना चाहिए। इन्होंने जो जीवन जिया है, अपने दम पर जिया है; जो काम किया है, अपनी शर्तों पर किया है। यही वजह है कि इनका जीवन और इनका काम अपने-आप में एकदम अलग है। आज इनकी जिस किताब पर यहाँ चर्चा होने जा रही है, उससे इनका जीवन और इनका काम, दोनों एक अलग ही अंदाज में, एक अलग ही तेवर के साथ सामने आते हैं। इस किताब में एक अध्याय है ‘मनचाहे ढंग से मनचाहा काम’। मुझे लगता है कि यह इस किताब का नाम भी हो सकता था, क्योंकि यह किताब भी इनका मनचाहे ढंग से किया गया मनचाहा काम है।

इस किताब को पढ़कर मन में प्रश्न उठता है कि इसकी विधा या इसका रूपबंध क्या है? यह आत्मकथा नहीं है और क्यों नहीं है, इसका कारण किताब की भूमिका में बताया गया है। इसमें कुछ आत्मकथात्मक लेख हैं, कुछ संस्मरण हैं, कुछ साहित्यिक निबंध हैं और कुछ समय-समय पर दिये गये रमेश जी के व्याख्यान भी हैं। लेखक की ओर से इन सब चीजों को ‘आत्मकथात्मक एवं साहित्यिक विमर्श’ कहा गया है। लेकिन इस किताब का कोई मुकम्मल रूपबंध नहीं है। इसमें एक तरह की आजादखयाली है, जिसके चलते यह किताब दूसरी किताबों से अलग है। इसमें संकलित सब तरह की रचनाओं में लेखक ‘मैं’ के रूप में उपस्थित है और ऐसा लगता है कि उनमें लेखक ने स्वयं को तरह-तरह से ‘इनवेंट’ किया है और अपने पचास वर्षों के लेखकीय जीवन में रचनात्मक और वैचारिक स्तर पर जो अर्जित किया है, वह सरमाया इस किताब में रख दिया है।

लेकिन मेरे विचार से इस किताब के आत्मकथात्मक हिस्से ज्यादा मानीखेज हैं। उदाहरण के लिए, पुस्तक का पहला ही अध्याय, जिसका शीर्षक है ‘अजमेर में पहली बार’, बहुत ही मार्मिक है, बहुत ही अर्थ भरा है। अगर यह पूरी पुस्तक इसी रूप में लिखी गयी होती, तो यह एक ‘एपिकल’ पुस्तक होती। जब मैं पहले अध्याय पर ही निसार हो गया, तो पूरी पुस्तक अगर इसी तरह लिखी गयी होती, तो कितना अच्छा होता। मेरे विचार से तब यह एक अद्भुत पुस्तक होती। इसका अंतिम अध्याय है ‘अजमेर में दूसरी बार’। पहला अध्याय पढ़कर मेरी उत्कंठा जागी और मैं सीधे अंतिम अध्याय पर चला गया। लेकिन वह आत्मकथात्मक रूप में नहीं, पल्लव से की गयी बातचीत या साक्षात्कार के रूप में है। साक्षात्कार की अपनी एक सीमा होती है। उसमें निजता, आत्मीयता, लेखक का जीवन-संघर्ष, उसके लेखकीय व्यक्तित्व का निर्माण वगैरह उस तरह नहीं आ सकता था, जिस तरह पहले अध्याय वाले आत्मकथात्मक रूप में आया है। पहले अध्याय के रूपबंध में एक जादू है, एक तिलिस्म है, जिसमें आप खो जाते हैं। वह जादू व्याख्यान, साक्षात्कार, निबंध और आलोचना जैसे रूपबंधों में पैदा नहीं हो पाता। मगर क्या किया जाये, रमेश जी का अपना तेवर है, मनचाहे ढंग से मनचाहा काम करने की उनकी अपनी एक खास अदा है!

फिर भी, ध्यान से देखें, तो दूसरी तरह के रूपबंधों वाले अध्यायों में भी उनका ‘मैं’ बोलता है। वे आत्मकथात्मक न होकर भी आत्मकथात्मक हैं और उनमें उनके ‘मैं’ का होना कोई दोष नहीं, बल्कि बहुत बड़ा गुण है। हरिशंकर परसाई की बहुत-सी रचनाएँ ‘मैं’ वाले रूप में लिखी गयी हैं, लेकिन वे सारे ‘मैं’ अलग हैं और उन सबको इकट्ठा कर दिया जाये, तो उनका लेखन आजादी के बाद के समय का एक पूरा ‘एपिक’ बन जाता है। अगर इस किताब की गैर-आत्मकथात्मक रचनाओं में मौजूद सारे ‘मैं’ मिला दिये जायें, तो तकरीबन ऐसा ही कुछ हो जायेगा।

उदाहरण के लिए, इस किताब का एक अध्याय है ‘ईश्वर के बिना जीना’। उसमें आस्तिकता, नास्तिकता, धर्म और नैतिकता पर एक लंबी वैचारिक बहस है। फिर भी उसमें लेखक का अपना जीवन-संघर्ष और वैचारिक संघर्ष दिखायी देता रहता है। इसी तरह एक अध्याय है ‘मेरी नाट्यलेखन यात्रा’ और एक अध्याय है ‘प्रेमचंद को हम बार-बार पहली बार पढ़ते हैं’। इन तीनों अध्यायों में जो ‘मैं’ है, वह कमाल का ‘मैं’ है। वह बात शुरू करता है प्रथम पुरुष के रूप में, लेकिन चला जाता है अन्य पुरुष की तरफ और रचना आत्मकथात्मक होकर भी कुछ और बन जाती है या कुछ और होकर भी आत्मकथात्मक बनी रहती है। यहाँ रमेश जी दूसरे लेखकों से एकदम अलग दिखायी देते हैं और मुझ जैसा उनका पाठक उनका सहयात्री होकर उनके साथ-साथ चलने लगता है।

यह शायद आज के साहित्य की विशेषता है कि रचना के रूपबंध में अनेक विधाओं की बहुत तीव्र आवाजाही हो रही है। आत्मकथा, संस्मरण और डायरी जैसे आत्मकथात्मक रूपों में निबंध, आलोचना, बहस, व्याख्यान और यात्रा-आख्यान, स्मृति-व्याख्यान जैसे रूप घुल-मिल जाते हैं। मतलब यह कि साहित्यिक विधाओं की सीमाएँ बहुत अशांत हो गयी हैं। इतनी अशांत कि मानो किसी एक विधा में लिखना संभव ही नहीं रहा।

रमेश जी की इस किताब को पढ़ते हुए मुझे लगा कि इसमें एक ही रचना में अनेक विधाएँ मौजूद हैं। परसाई के लेखन में यह विशेषता थी और रमेश जी के लेखन में परसाई से इनकी निकटता इस रूप में भी दिखायी पड़ती है कि ये बीच-बीच में बड़ा बढ़िया व्यंग्य भी करते चलते हैं। गंभीर विचार और बहस करते हुए रमेश जी बीच- बीच में हास्यजनक उक्तियों या लतीफों का प्रयोग भी करते हैं। आलोचना करने या दूसरों की खबर लेने का उनका अपना तेवर है, चाहे वह ‘सवाल मुकम्मल कहानी का’ में नामवर जी की आलोचना करने का हो, या ‘प्रेमचंद को लाठी बनाना’ में गिरीश मिश्र की खबर लेने का। यह चीज पुस्तक के पाठ को रोचक बनाती है। 

राकेश कुमार
राकेश कुमार
मैं इस किताब के शिल्प या रूपबंध की बात नहीं करूँगा, क्योंकि इस पर काफी चर्चा हो चुकी है। लेकिन मेरा मानना है कि यह किताब आत्मकथा नहीं, आत्मकथात्मक है, तो यह इसकी बहुत बड़ी विशेषता है। इसमें जो ‘आत्मकथात्मक एवं साहित्यिक विमर्श’ हैं, उन्हें ‘आत्मकथात्मक’ और ‘साहित्यिक’ दो भिन्न वर्गों में बाँटकर नहीं देखा जाना चाहिए। इसमें संकलित सभी रचनाएँ आत्मकथात्मक हैं और साथ ही साहित्यिक भी। इसके साहित्यिक विमर्श भी आत्मकथात्मक विमर्शों के ही विस्तार हैं। उनमें उपाध्याय जी अपने अनेक रूपों में हमारे सामने आते हैंµएक संघर्षशील युवा से लेकर एक स्थापित लेखक, आलोचक, संपादक आदि विभिन्न रूपों मेंµऔर इनके इन विभिन्न व्यक्तित्वों से साक्षात्कार करते समय किताब का शीर्षक ‘मेरा मुझ में कुछ नहीं’ बराबर याद आता रहता है, जिसमें अहंकार नहीं, बल्कि विनम्र स्वीकार है। आत्मकथाओं में जाने-अनजाने एक अहंकार का भाव प्रायः आ ही जाता है। इस किताब में वह नहीं है। इस किताब का समर्पण हैµ‘‘उन सबके नाम, जिन्होंने मुझे वह बनाया, जो मैं हूँ’’ और भूमिका में लेखक ने लिखा है :

‘‘मुझे जानने वाले कुछ लोग मुझे ‘सेल्फमेड मैन’ कहते हैं। मैं इससे इनकार करता हूँ। मैंने महान शिक्षाशास्त्री पाओलो फ्रेरे की एक किताब का अनुवाद किया है ‘उत्पीड़ितों का शिक्षाशास्त्र’। किताब की भूमिका लिखते समय मैंने उनका एक कथन उद्धृत किया था कि ‘‘दुनिया में कोई व्यक्ति अपना निर्माण स्वयं नहीं करता। शहर के जिन कोनों में ‘स्वनिर्मित’ लोग रहते हैं, वहाँ बहुत-से अनाम लोग छिपे रहते हैं।’’ मेरा निर्माण प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से दुनिया के उन असंख्य लोगों ने किया है, जिन्होंने मुझे जिंदगी दी है, जिंदगी से प्यार करना सिखाया है, दुनिया को बेहतर और खूबसूरत बनाने के रास्ते पर चलना सिखाया है और इस रास्ते की प्रतिकूलताओं से लड़ने में मेरा साथ निभाया है। उन्होंने ही मुझे वह बनाया है, जो मैं हूँ। इसलिए मैं यह किताब उन सबको कबीर के शब्दों में यह कहते हुए समर्पित करता हूँ कि ‘मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सब तेरा। तेरा तुझको सौंपते, क्या लागै है मेरा।’ ’’

इस किताब की भूमिका में ‘निजी’ और ‘सार्वजनिक’ में भेद करते हुए और केवल ‘निजी’ पर जोर देकर लिखी जाने वाली आत्मकथा लिखने से इनकार किया गया है। उपाध्याय जी दोनों में भेद नहीं करते। इस किताब को पढ़ते हुए हम पाते हैं कि उपाध्याय जी का ‘निजी’ इनके ‘सार्वजनिक’ को शर्मिंदा नहीं करता, बल्कि उसे गौरवान्वित करता है। यहाँ इनके जीवन के निजी और सार्वजनिक दोनों पक्ष मानो धूप में चमकते दिखायी देते हैं। एक ऐसी धूप में, जो इनके निजी को उद्भासित करती है और सार्वजनिक को आत्मीयता की ऊष्मा प्रदान करती है।

उदाहरण के लिए, पुस्तक का पहला अध्याय ‘अजमेर में पहली बार’ आत्मकथात्मक है, जबकि ‘ईश्वर के बिना जीना’ शीर्षक अध्याय ईश्वर के अस्तित्व, आस्तिकता और नास्तिकता के सवाल, धर्म और नैतिकता के संबंध इत्यादि को सामने लाने वाला गंभीर वैचारिक विमर्श है। लेकिन दोनों में एक संबंध-सूत्र है, जो उपाध्याय जी के ‘निजी’ को इनके ‘सार्वजनिक’ से जोड़ता है। पहले अध्याय में इन्होंने अपने बारे में लिखा है :

‘‘1960 के अप्रैल महीने की एक सुहावनी सुबह है। अजमेर के रेलवे स्टेशन पर अठारह साल का एक लड़का गाड़ी से उतरता है। शर्ट-पैंट और चप्पलें पहने हुए। साथ में सिर्फ एक झोला है, जिसमें उसके एक जोड़ी कपड़े हैं और कुछ कागज। लड़का स्टेशन से बाहर आता है। सामने ही घंटाघर है, जिसकी घड़ी में लगभग साढ़े आठ बजे हैं। वहीं कुछ हलवाइयों, चाय वालों, पनवाड़ियों आदि की दुकानें हैं। लड़का जबसे यात्रा पर निकला है, उसने कुछ नहीं खाया है। उसे जोर की भूख लगी है। वह सिर्फ दस रुपये लेकर चला था, जिनमें से रेल का टिकट और सिगरेट का पैकेट खरीदने के बाद अब उसकी जेब में इतने ही पैसे बचे हैं कि वह नाश्ता कर सके और सिगरेट खरीद सके। ‘जो होगा, देखा जायेगा’ के भाव से सिर झटककर लड़का आगे बढ़ता है। सड़क पार करके एक हलवाई की दुकान पर पहुँचता है। दुकान के सामने पड़ी बेंच पर बैठकर मजे से नाश्ता करता है। पनवाड़ी से सिगरेट खरीदता है और बिलकुल खाली जेब हो जाता है।’’

यह खाली जेब हो जाना उपाध्याय जी के आत्मविश्वास का सूचक तो है ही कि ये अपनी मेहनत और अपनी प्रतिभा से एक नितांत अजनबी शहर में भी अपनी जगह बना लेंगे, दूसरे मनुष्यों पर विश्वास का सूचक भी है। यही आत्मविश्वास और दूसरे मनुष्यों पर विश्वास ‘ईश्वर के बिना जीना’ में इस प्रकार सामने आता है :

‘‘लेकिन मैं उस समय एक नौजवान लड़का था, जिसके सामने जिंदा रहने, कमाने-खाने, अपने परिवार का सहारा बनने और अपना भविष्य बनाने के लिए काम करने के साथ-साथ अपने दम पर अपनी पढ़ाई जारी रखने की इतनी सारी समस्याएँ थीं कि मुझे इस दिशा में निश्ंिचत होकर आगे बढ़ने की सुविधा और फुर्सत ही नहीं थी। फिर, वह मेरी प्रेम करने और अपने भविष्य के स्वप्न देखने की उम्र थी। लेकिन मेरे मन में कहीं गहराई तक यह बात पैठ चुकी थी कि मुझे अच्छा मनुष्य तो बनना है, पर ईश्वर के बिना ही जीना है। भाग्य और भगवान के भरोसे बैठे रहने के बजाय अपना भविष्य अपने हाथों बनाना है। इससे एक तरफ मुझमें आत्मविश्वास पैदा हुआ, दूसरी तरफ रूढ़ियों और अंधविश्वासों से बचे रहने की दृढ़ता पैदा हुई और तीसरी तरफ एक प्रकार की वैज्ञानिक मानसिकता के साथ सृजनशील कल्पनाएँ करने और उन्हें कागज पर उतारने की इच्छा पैदा हुई। शायद इन्हीं सब चीजों ने मुझे एक प्रकार का सदाचारी, विद्रोही, दुस्साहसी, स्वप्नदर्शी और लेखक बनाया।’’

इस प्रकार देखें, तो ‘मेरा मुझ में कुछ नहीं’ एक ऐसी किताब है, जिसमें एक लेखक और विचारक के व्यक्तित्व का विकास और उसके निर्माण की प्रक्रिया सामने आती है और फिर उसका परिपक्व रूप उद्घाटित होता है, जिसे इस किताब के कई अध्यायों में देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए, ‘साहित्य-सृजन और चेतना के स्रोत’ में, या ‘हमारे समय के स्वप्न’ में, या ‘भूमंडलीय यथार्थ और साहित्यकार की प्रतिबद्धता’ में।

अपने इस व्यक्तित्व के कारण ही रमेश उपाध्याय एक विश्वसनीय रचनाकार हैं। रचना में विश्वसनीयता पैदा होती है यथार्थवाद से, मानवीय मूल्यों से, आदर्शों से और जन-पक्षधरता से। और ये सब चीजें उपाध्याय जी के लेखन में स्पष्ट दिखायी पड़ती हैं। चाहे ‘डॉक्यूड्रामा’, ‘अर्थतंत्र’ और ‘त्रासदी...माइ फुट!’ जैसी कहानियाँ हों या ‘दंडद्वीप’ और ‘हरे फूल की खुशबू’ जैसे उपन्यास, या ‘पेपरवेट’ और ‘भारत-भाग्य-विधाता’ जैसे नाटक, या ‘साहित्य और भूमंडलीय यथार्थ’ नामक पुस्तक में संकलित साहित्यिक निबंध। यथार्थवाद और आदर्शवाद का जैसा ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवादी’ मेल प्रेमचंद में है, वैसा ही उपाध्याय जी में है। यही कारण है कि उपाध्याय जी एक ओर आज के समय में ‘भूमंडलीय यथार्थवाद’ की नयी अवधारणा प्रस्तुत करते हैं, तो दूसरी ओर ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की जरूरत’ पर जोर देने वाला निबंध भी लिखते हैं।

हालाँकि आज का समय इन्हीं के शब्दों में ‘‘मानवता द्वारा देखे गये अब तक के सारे सुंदर स्वप्नों को मिटाकर दुनिया के यथार्थ को भयानकतम दुःस्वप्नों में बदल देने वाले’’ एक नये ढंग के साम्राज्यवाद का समय है, फिर भी इस किताब में शामिल एक रचना ‘हमारे समय के स्वप्न’ में इन्होंने लिखा हैµ‘‘मनुष्य ऐसा प्राणी है, जो सुंदर स्वप्न देखना बंद नहीं करता। वर्तमान चाहे जितना भीषण हो, मनुष्य बेहतर भविष्य की आशा नहीं छोड़ता, उसके लिए प्रयत्न जारी रखता है।’’ उपाध्याय जी के ये शब्द इनके अपने व्यक्तित्व और कृतित्व को परिभाषित करते हुए लगते हैं।

मैं उपाध्याय जी को व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ। इनके पारिवारिक और साहित्यिक जीवन को मैंने निकट से देखा है। इनके चिंतन और कर्म में, कथनी और करनी में, जीवन और लेखन में कोई द्वैत नहीं है। इनको हमेशा एक खुली किताब की तरह पाया और पढ़ा जा सकता है। ‘मेरा मुझ में कुछ नहीं’ किताब को पढ़ते हुए भी ऐसा ही लगता है कि उपाध्याय जी सामने बैठे हैं और जो कह रहे हैं, उसमें पूरी सादगी है, सच्चाई है, ईमानदारी है। ये जिन मूल्यों में विश्वास करते हैं, उन्हीं के अनुसार आचरण भी करते हैं। इस किताब में संकलित रचना ‘ईश्वर के बिना जीना’ में इन्होंने उन मूल्यों के बारे में लिखा हैµ‘‘ये जीवन-मूल्य प्रेम के हैं, सहयोग के हैं, मित्रता के हैं, वात्सल्य के हैं, अपने प्राकृतिक परिवेश की रक्षा करने के हैं और अपनी सांस्कृतिक निधियों को सँभालकर रखने के भी हैं।’’

यह किताब इन्हीं मूल्यों को सामने लाती है। मैं इस किताब के प्रकाशन पर और उपाध्याय जी के जन्मदिन पर इन्हें हार्दिक बधाई देता हूँ। 
अल्पना मिश्र

अल्पना मिश्र
आज उपाध्याय जी का जन्मदिन है और इनकी नयी किताब का लोकार्पण भी हुआ है। मैं भी इस मुबारक मौके पर इन्हें बधाई और शुभकामनाएँ देती हूँ। लेकिन मैं इनसे बहुत छोटी हूँ, इसलिए प्रणाम भी करती हूँ। इन्हें प्रणाम करके मैं इनके प्रति आदर के साथ-साथ इनके परिवार के प्रति आभार भी व्यक्त कर रही हूँ, जहाँ से मुझे सदा स्नेह और आत्मीयतापूर्ण व्यवहार प्राप्त होता है।

उपाध्याय जी से मेरी पहली मुलाकात 2006 में हुई, जब ये सपरिवार देहरादून आये थे और मैं वहीं रहती थी। वहाँ इनके सम्मान में आयोजित साहित्यिक गोष्ठी में मैं भी शामिल हुई थी। मैं बहुत समय से इनकी पाठक और प्रशंसक थी, लेकिन पहले कभी मिली नहीं थी, इसलिए सोच रही थी कि इतने बड़े लेखक से मिलने जा रही हूँ। मुझे उम्मीद नहीं थी कि ये मुझ जैसे नये लेखकों को भी पढ़ते होंगे। लेकिन उपाध्याय जी ने मुझे पहचाना, बहुत अच्छे ढंग से मिले और मेरी कहानियों पर बात की, तो मुझे बहुत सुखद आश्चर्य हुआ। इनके परिवार से मिलकर भी मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। अभी श्रीमती उपाध्याय मिलीं, तो उन्होंने बहुत प्यार से उस समय को याद किया। फिर मैंने देखा कि ‘कथन’ में लगातार नये लेखकों को जगह मिलती रही है और उपाध्याय जी उन्हें खूब प्रोत्साहित करते हैं। अब यही काम इनकी बेटी संज्ञा ‘कथन’ की संपादक बनकर कर रही है। उस पहली मुलाकात के बाद उपाध्याय जी से जब भी मिलना हुआ है, और जब से मैं दिल्ली आ गयी हूँ, तब से तो अक्सर मिलना हुआ है, मैंने इन्हें हमेशा सक्रिय और उत्साह से भरा हुआ पाया है। आज इस अवसर पर मैं इन्हें प्रणाम करती हूँ और कामना करती हूँ कि ये हमेशा हमें इसी रूप में मिलते रहें।

किताब पर बहुत सारी बातें हो गयी हैं। बहुत अच्छी बातें कही गयी हैं। कई ऐसी बातें, जो मैं भी कहना चाहती थी, पहले ही कह दी गयी हैं। इसलिए मैं केवल तीन रचनाओं पर बात करूँगी, जिन पर बात नहीं हुई है। ये रचनाएँ हैं ‘कैद से निकलने की कोशिश है रचना’, ‘जो घर फूँके आपना...’ और ‘मनचाहे ढंग से मनचाहा काम’। इनमें से पहली रचना में उपाध्याय जी एक रचनाकार के रूप में सामने आते हैं और बड़े ही रोचक तथा प्रेरक ढंग से अपनी रचना-प्रक्रिया के बारे में बताते हैं। दूसरी रचना में ये ‘कथन’ के संपादक के रूप में और अपनी पत्रिका के लिए किये गये अथक संघर्ष के साथ सामने आते हैं। तीसरी रचना में हम इन्हें एक पारिवारिक व्यक्ति के रूप में पाते हैं। मुझे उपाध्याय जी के इन तीनों रूपों ने बहुत प्रभावित किया।

‘कैद से निकलने की कोशिश है रचना’ में पहले एक विदेशी लेखिका की रचना-प्रक्रिया का और फिर एक विदेशी लेखक की उससे बिलकुल भिन्न रचना-प्रक्रिया का उदाहरण बड़े रोचक रूप में प्रस्तुत करते हुए उपाध्याय जी अपनी रचना-प्रक्रिया की भिन्नता स्पष्ट करते हैं और निष्कर्ष के रूप में कहते हैं कि ‘‘प्रत्येक लेखक की अपनी एक अलग ही रचना-प्रक्रिया होती है। अद्वितीय, अतुलनीय। रचना की नकल शायद की जा सके, रचना-प्रक्रिया की नकल नहीं की जा सकती।’’ इसके बाद उपाध्याय जी अपनी रचना-प्रक्रिया बताते हैं कि ‘जुलूस’, ‘कामधेनु’, ‘डॉक्यूड्रामा’, ‘माटीमिली’, ‘अर्थतंत्र’ और ‘दूसरा दरवाजा’ कहानियाँ इन्होंने कैसे लिखीं। रचना-प्रक्रिया का यह वर्णन इतना रोचक और प्रेरणाप्रद है कि कोई लेखक पढ़े, तो अपनी रचना-प्रक्रिया पर अवश्य विचार करे। मुझे इसको पढ़ते हुए अपनी कहानियों की रचना-प्रक्रिया याद आयी और मैं उस पर विचार करने को प्रेरित हुई।

उपाध्याय जी साहित्य में व्यावसायिकता के विरोधी रहे हैं। व्यावसायिक पत्रिकाओं के विरुद्ध अव्यावसायिक साहित्यिक पत्रिकाओं का आंदोलन चलाना, स्वयं ‘कथन’ जैसी अव्यावसायिक साहित्यिक पत्रिका निकालना, लघु पत्रिकाओं के लेखकों और संपादकों को संगठित करना वगैरह इनके व्यावसायिकता-विरोध के बाहरी पहलू हैं। भीतरी पहलू इनकी अपनी रचना-प्रक्रिया से सामने आता है। तब हमारे सामने स्पष्ट होता है कि व्यावसायिकता एक कैद है और रचना उससे निकलने की कोशिश। उपाध्याय जी लिखते हैं--‘‘व्यावसायिकता की कैद से बाहर निकलने की कोशिश में ही आप अपनी रचना-प्रक्रिया में स्वतंत्र हो सकते हैं। लेकिन इस स्वतंत्रता का कोई फार्मूला नहीं हो सकता। इसकी तलाश प्रत्येक लेखक को स्वयं ही करनी पड़ती है। यहाँ तक कि एक ही लेखक को अपनी प्रत्येक रचना में इसकी तलाश एक अलग ही ढंग से करनी पड़ती है।’’

‘मेरा मुझ में कुछ नहीं’ किताब में उपाध्याय जी ने कई जगह हिंदी की लघु पत्रिकाओं के बारे में, उनके आंदोलन और संगठन के बारे में लिखा है। उसमें अपनी पत्रिका ‘कथन’ के बारे में भी लिखा है। इस लिहाज से इस किताब में ‘स्वायत्तता के साथ सहयात्रा’, ‘भूमंडलीय यथार्थ और साहित्यकार की प्रतिबद्धता’ और ‘यह जनोन्मुख पत्रकारिता का सम्मान है’ शीर्षक रचनाएँ विशेष रूप से पठनीय हैं। लेकिन मुझे इस तरह की रचनाओं में सबसे अच्छी लगी ‘जो घर फूँके आपना...’। इसमें ‘कथन’ पत्रिका निकालने के लिए किया गया संघर्ष तो सामने आता ही है, इस काम में उपाध्याय जी को अपने परिवार से जो सहयोग मिला और वह सहयोग इन्होंने कैसे प्राप्त किया, यह भी सामने आता है। लिखते हैं :

‘‘लिखने-पढ़ने और लघु पत्रिका निकालने जैसे सर्जनात्मक कार्यों के लिए घर ही सर्वोत्तम कार्यक्षेत्र है, अतः साहित्यकार तथा साहित्यिक पत्रकार को सबसे पहले अपने घर-परिवार को ऐसा बनाने का प्रयास करना चाहिए कि वह न केवल अपना काम शांतिपूर्वक कर सके, बल्कि परिवार के सदस्यों में भी अपने काम के प्रति भरोसा और उत्साह पैदा करके उनका समर्थन और सहयोग प्राप्त कर सके। लेकिन इसके लिए परिवार के सदस्यों में यह भावना और चेतना उत्पन्न करना आवश्यक है कि सर्जनात्मक लेखन और साहित्यिक पत्रकारिता सांसारिक दृष्टि से भले ही मूर्खता, पागलपन या घाटे का सौदा हो, अपने बौद्धिक तथा सर्जनात्मक व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक है। परिवार में जब यह भावना और चेतना उत्पन्न हो जाती है, तो परिवार में--विशेष रूप से युवाओं में--बौद्धिक तथा सर्जनात्मक कार्यों के प्रति एक उत्साह उत्पन्न होता है। लघु पत्रिका के लिए ऐसे युवाओं की टीम सर्वोत्तम होती है।’’

मैं इस किताब में जिस रचना को पढ़कर सबसे ज्यादा प्रभावित हुई, वह है ‘मनचाहे ढंग से मनचाहा काम’। हालाँकि पूरी किताब में उपाध्याय जी के सामाजिक सरोकार, उनके जनतांत्रिक मूल्य, उनकी जन-पक्षधरता और प्रखर वैचारिकता के विभिन्न रूप सामने आते हैं, लेकिन सबसे ज्यादा प्रभावित करता है इनका पारिवारिक प्राणी वाला रूप। साहित्य और साहित्यकारों की चर्चा में प्रायः घर-परिवार को उपेक्षित कर दिया जाता है। कई लेखकों को लगता है कि लेखन में परिवार एक बहुत बड़ी बाधा है और वे परिवार की उपेक्षा करते हैं, परिवार से अलग रहते हैं या परिवार को तोड़ ही देते हैं।

लेकिन उपाध्याय जी मानते हैं कि अगर साहित्य में वाकई आपको मनचाहा काम करना है, तो अपने घर-परिवार पर ध्यान देना होगा और उसे एक स्वतंत्र, सर्जनात्मक, जनतांत्रिक परिवार बनाना होगा। यह बहुत बड़ा मूल्य है और उपाध्याय जी ने इस मूल्य को अपने जीवन में उतारकर अपने परिवार का निर्माण किया है। मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि स्त्री लेखन में भी परिवार या पारिवारिकता के मूल्य पर ध्यान नहीं दिया जाता। कई क्रांतिकारी लेखक भी उस पर ध्यान नहीं देते। लेकिन मैं पूछती हूँ, अगर आप अपना एक बेहतर परिवार नहीं बना पा रहे, तो पूरी दुनिया को बेहतर बनाने का सपना कैसे देख रहे हैं?

उपाध्याय जी कहते हैंµ‘‘मेरे विचार से ऐसे ही परिवार में लेखक अपने लिए वह जगह बना सकता है, जहाँ उसे मनचाहे ढंग से मनचाहा काम करने की आजादी हो। लेकिन ऐसी आजादी अपने-आप नहीं मिलती, आपको संघर्ष करके हासिल करनी पड़ती है। ऐसी जगह कोई और बनाकर नहीं दे सकता, आपको प्रयासपूर्वक स्वयं ही बनानी पड़ती है। ऐसा परिवार भी कहीं बना-बनाया नहीं मिलता, आपको स्वयं ही बनाना पड़ता है। और यह लेखन से कम सर्जनात्मक काम नहीं है। यह काम उतना ही कठिन और कष्टदायक है, लेकिन उतना ही सुखद और सार्थक भी।’’

अंत में इस पूरी पुस्तक के बारे में एक बात मैं यह कहना चाहूँगी कि इसमें उपाध्याय जी ने अपने संघर्षों के बारे में खूब लिखा है, लेकिन कहीं भी हाय-हाय करते हुए उसका रोना नहीं रोया है। उन्होंने अपने संघर्ष को बहुत दृढ़ता के साथ, बहुत आत्मविश्वास के साथ बहुत सकारात्मक रूप में देखा है। यह सकारात्मकता बहुत ही सुंदर और प्रेरक है। मैं इसके लिए उपाध्याय जी को विशेष रूप से बधाई देती हूँ।
 
मैनेजर पाण्डेय
मैनेजर पांडेय
मैं रमेश जी से साल भर बड़ा हूँ, इसलिए इनके जन्मदिन पर बड़े भाई की हैसियत से बधाई देता हूँ। यह जानते हुए भी कि मेरे बाद विश्वनाथ जी बोलेंगे, जो मुझसे भी बहुत बड़े हैं। रमेश जी की इस किताब पर कुछ कहने से पहले मैं यह कहना चाहता हूँ कि यद्यपि इसका शीर्षक है ‘मेरा मुझ में कुछ नहीं’, पर इस किताब में रमेश जी का बहुत कुछ है। किताब का यह शीर्षक क्यों रखा गया है, यह इसकी भूमिका में बता दिया गया है। लेकिन मुझे यह इसलिए अच्छा लगा कि आजकल साहित्य में ‘मैं’ की भरमार हो गयी है। वह भी ऐसे ‘मैं’ की, जिसके पास ‘पर’ या ‘अन्य’ फटकता तक नहीं। इसलिए बहुत सारे कहानीकार आत्मसंघर्ष की कहानियाँ लिख रहे हैं। मेरा कहना है कि आत्मसंघर्ष तो सबका होता ही है, साहित्यकार को थोड़ा वह संघर्ष भी देखना चाहिए, जो समाज में मौजूद है। रमेश जी की यह किताब शुरू से आखिर तक आत्मकथात्मक है, लेकिन उन्होंने इसे ‘आत्मकथा’ नहीं बनाया है और इसका कारण भूमिका में बताया है। उनका यह कहना सही है कि हाल के दिनों में हिंदी में आत्मकथा काफी बिकाऊ विधा बन गयी है। ‘बिकाऊ’ की जगह ‘व्यावसायिक’ कहूँगा, तो आत्मकथाओं के लेखक नाराज हो जायेंगे, लेकिन दोनों शब्दों का मतलब एक ही है।

आत्मकथा लिखना या अपने बारे में लिखना अपने-आप में कोई बुरी बात नहीं है। लेकिन इधर जो आत्मकथाएँ लिखी जा रही हैं, उनमें से ज्यादातर के लेखक यह भूल गये लगते हैं कि मनुष्य का ‘स्व’ तब तक बनता ही नहीं, जब तक ‘पर’ उसके साथ उपस्थित न हो। आप सब ने वह कहानी पढ़ी होगी, जिसमें मनुष्य का बच्चा भेड़ियों के बीच रहकर भेड़िया ही बन जाता है। मनुष्य के सामने दूसरा मनुष्य नहीं होगा, तो वह मनुष्य नहीं, अमानुष ही बनेगा। इसीलिए साहित्य ‘पर’ की चिंता से संचालित होता है।

हमारे सबसे बड़े कथाकार हैं प्रेमचंद। उनके मित्रों ने बताया है कि उनकी अमुक-अमुक कहानी आत्मकथात्मक है या उनके अपने जीवन से जुड़ी हुई है। लेकिन क्या मजाल कि उन प्रसंगों से अपरिचित पाठक उन कहानियों से उनका जीवन जान ले। उनकी सभी कहानियों और सारे उपन्यासों में ‘स्व’ के साथ ‘पर’ है और ‘पर’ के माध्यम से पूरा समाज है। इसलिए रमेश जी ने अपनी किताब पर जो शीर्षक दिया है, उसका अलग महत्त्व है। इस किताब में इनके अपने तरह-तरह के अनुभवों का भी ब्यौरा है, इसलिए जिसकी इच्छा हो, इस में इनकी आत्मकथा खोजे, लेकिन मुख्य बात यह है कि इनका ‘मैं’ कहीं पर भी ‘पर’ के बिना, दूसरों के बिना, व्यापक समाज के बिना सामने नहीं आता। वह आपबीती के साथ-साथ जगबीती भी कहता चलता है।

यहाँ मैं चलते-चलते यह भी कहूँगा कि रमेश जी काफी लड़ाकू मिजाज के लेखक हैं। मेरा अपना व्यक्तिगत अनुभव है कि ‘‘तुम्हीं से मुहब्बत तुम्हीं से लड़ाई’’। यह उनकी पद्धति है। जिससे प्रेम करते हैं, उसी से बहस भी करते हैं, उसी से लड़ते भी हैं। और यह हिंदी साहित्य की परंपरा है। दोबारा मुझे प्रेमचंद ही याद आ रहे हैं। उन्होंने कहा है कि अगर कोई मूर्खतापूर्ण प्रश्न करे, तो उसका जवाब किसी को जरूर देना चाहिए। रमेश जी की इस किताब में एक लेख है ‘प्रेमचंद को लाठी बनाना’। यह लेख ‘जनसत्ता’ में छपा था और गिरीश मिश्र नामक एक सज्जन के द्वारा हिंदी के लेखकों पर लगाये गये इस आरोप के जवाब में छपा था कि सब ‘बाजारवाद’ के पीछे पड़े हैं, जबकि अंग्रेजी में ‘मार्केटिज्म’ जैसा कोई शब्द नहीं होता। उन्होंने लिखा कि ‘‘हिंदी के पत्रकार और साहित्यकार ‘बाजारवाद’ के रूप में एक काल्पनिक शैतान पैदा कर उसे लगातार पत्थर मार अपनी क्रांतिकारिता दिखा रहे हैं। प्रेमचंद ऐसा कतई न करते।’’ रमेश जी ने बाजारवाद की पूरी अवधारणा को तर्कों और उदाहरणों के साथ प्रस्तुत किया और लिखा कि ‘‘प्रेमचंद ने अपना निबंध ‘महाजनी सभ्यता’ आज लिखा होता, तो वे भी ‘बाजारवाद’ का प्रयोग धड़ल्ले से करते और यह शब्द गढ़ने के लिए खुश होकर हिंदी वालों की पीठ ठोकते।’’

रमेश जी का आग्रह यह है कि हम अंग्रेजी से ही अनुवाद काहे करें? कोई नयी चीज आयी है, कोई नयी अवधारणा आयी है, तो उसके लिए हिंदी का ही कोई शब्द क्यों न गढ़ें? मैं समझता हूँ कि किसी भी भाषा की प्रतिष्ठा ऐसे लेखन से बनती है। एक जमाना था, जब ‘आज’ के संपादक पराड़कर जी थे। उनके संपादकीय इतने महत्त्वपूर्ण होते थे कि अंग्रेज अधिकारी उनके अनुवाद अंग्रेजी में करवाकर पढ़ते थे। रमेश जी उसी परंपरा के लेखक और संपादक हैं। इन्होंने बाजारवाद संबंधी बहस में जो दखल दिया, उससे हिंदी की प्रतिष्ठा और ताकत का पता चलता है।

दूसरी बात यह कि रमेश जी स्वयं मार्क्सवादी होते हुए भी मार्क्सवादियों की आलोचना करने और उनसे बहस चलाने में नहीं हिचकते। अभी कुछ समय पहले टेरी ईगल्टन की एक किताब आयी थी ‘दि ईविल’। दस साल पहले तक कोई सोच भी नहीं सकता था कि ‘ईविल’ पर कोई मार्क्सवादी लिखेगा। उसमें ईगल्टन ने कम्युनिस्ट नैतिकता का सवाल उठाया है। हिंदी में यह सवाल रमेश जी 1974 में ही उठा चुके थे। तब तो मैं व्यक्तिगत रूप से इनको जानता भी नहीं था। जब इनकी पुस्तिका ‘कम्युनिस्ट नैतिकता’ आयी, मैं बनारस में था। कुछ ही दिनों बाद मैं बरेली में अध्यापक हो गया। वहाँ सी.पी.आइ. के एक पुराने नेता थे, जिनसे मिलना-जुलना होता था और मैं उनसे बहुत सीखता था। एक दिन मैंने उनसे पूछा कि तिवारी जी, यह कम्युनिस्ट नैतिकता क्या होती है? तिवारी जी हँसकर बोले कि आपके सामने यह सवाल कहाँ पैदा हो गया? मैंने कहा कि हिंदी के लेखक हैं रमेश उपाध्याय जी, उन्होंने इसी नाम की पुस्तिका लिखी है। तिवारी जी ने तब तक वह पुस्तिका पढ़ी नहीं थी, लेकिन मेरे प्रश्न का एक सामान्य उत्तर देते हुए कहा कि कम्युनिस्ट नैतिकता वही है, जिसे जनता स्वीकार करे। उदाहरण के लिए, अगर आप आदिवासियों के क्षेत्र में काम करने जा रहे हैं और आप केवल गंगाजल पीते हैं, तो तीन दिन में आदिवासी आपको भगा देंगे। वहाँ रहे भी, तो आपकी बात पर कोई विश्वास नहीं करेगा। आपको उनके साथ बैठकर दारू पीना पड़ेगा, क्योंकि यह उनके जीवन का हिस्सा है। और अगर आप किसी ऐसी जगह चले जायें, जहाँ लोग शराब पीने को पाप समझते हों और आप वहाँ बैठकर शराब पीने लगें, तो जो देखेगा, चार गालियाँ देकर आपके पास से भाग जायेगा। आश्चर्य की बात कि ठीक इन्हीं शब्दों में तो नहीं, पर ऐसे ही विचार रमेश जी ने अपनी उस पुस्तिका में व्यक्त किये थे।

‘मेरा मुझ में कुछ नहीं’ में रमेश जी का एक लेख है ‘ईश्वर के बिना जीना’। उसमें रमेश जी ने ‘कम्युनिस्ट नैतिकता’ का एक अंश दिया है, जिसका शीर्षक है ‘नैतिकता और धर्म’। धर्म के मामले में कम्युनिस्ट लोग अक्सर मार्क्स का एक कथन उद्धृत किया करते हैं कि धर्म जनता के लिए अफीम है। रमेश जी ने ऐसे कम्युनिस्टों की आलोचना करते हुए लिखा हैµ‘‘मार्क्स ने धर्म को सिर्फ अफीम नहीं, कुछ और भी कहा है। उन्होंने धर्म को अत्यंत कठिन जीवन जीने वाले लोगों के लिए सुकून की एक साँस भी कहा है, हृदयहीन संसार का हृदय भी कहा है, अनात्मिक परिस्थितियों की आत्मा भी कहा है। और यह सब कहने के बाद ही कहा है कि धर्म जनता के लिए अफीम है।’’

रमेश जी की एक और विशेषता है कि लाभ-हानि का हिसाब लगाकर आलोचकों को खुश रखने के लिए उनकी खुशामद ये नहीं करते, बल्कि उनकी गलत बातों की खुलकर आलोचना करते हैं। इस किताब में इस प्रकार के दो लेख हैं। ‘साहित्य और साधारण पाठक’ और ‘सवाल मुकम्मल कहानी का’। इनमें से पहले लेख में उन्होंने हिंदी के उन आलोचकों की आलोचना की है, जो पाठकों में साहित्य की समझ पैदा करने के बजाय लेखकों को लिखना सिखाने की कोशिश करते हैं। रमेश जी उन आलोचकों को अच्छा आलोचक नहीं मानते, जो किसी लेखक के लेखन को उसके संदर्भों के साथ समग्रता में समझने के बजाय उसकी किसी एक रचना को ‘राजनीतिक रूप से सही’ न पाकर उसकी आलोचना करते हैं और लेखक को ‘सही ढंग से लिखना’ सिखाने की कोशिश करते हैं। लेख के अंत में रमेश जी कहते हैं :

‘‘मैं अच्छा आलोचक उसे मानता हूँ, जो रचना की किसी ऐसी खूबसूरती पर उँगली रख सके, जिसे साधारण पाठक गूँगे के गुड़ की तरह महसूस तो करते हों, पर लिख-बोलकर बता न सकते हों। जो आलोचक यह काम कर सकता है, वह रचना में लाखों कमियाँ बता सकने वाले आलोचक से बड़ा आलोचक है। ऐसा आलोचक लेखकों को लिखना तथा पाठकों को पढ़ना भी सिखा सकता है।’’

इसी तरह ‘सवाल मुकम्मल कहानी का’ शीर्षक लेख में रमेश जी ने नामवर जी की कहानी समीक्षा की आलोचना की है और खास तौर से उनकी कथानक संबंधी बातों पर तीखे प्रश्न उठाये हैं। कुछ और लेख भी हैं इस किताब में, जिनमें रमेश जी ने कहानी के रूप, उसकी अंतर्वस्तु, उसकी रचना-प्रक्रिया पर विचार किया है। इन लेखों से उनकी अपनी रचना-प्रक्रिया भी सामने आती है और उनकी कहानियों को समझने में मदद मिलती है। लेकिन कहानी समीक्षा के संदर्भ में रमेश जी ने भूमंडलीय यथार्थवाद का प्रश्न उठाकर उसकी जो एक नयी अवधारणा निर्मित की है, वह बहुत महत्त्वपूर्ण है। इन्होंने जब पहली बार मुझसे इसकी चर्चा की थी, मुझे थोड़ी परेशानी हुई थी। थोड़ा असमंजस हुआ था। लेकिन इस किताब में शामिल कुछ लेखों में भूमंडलीय यथार्थवाद की अवधारणा स्पष्ट होकर सामने आयी है और वह हमारी समझ को विकसित करती है। रमेश जी पक्के यथार्थवादी हैं। पहले भी थे, इस किताब में भी हैं। लेकिन यथार्थवाद की उनकी समझ समय के साथ-साथ बदलती और विकसित होती रही है। उसका विकसित रूप भूमंडलीय यथार्थवाद की अवधारणा में दिखायी पड़ता है।

यथार्थवाद के संदर्भ में रमेश जी ने अनुभव और अनुभववाद में जो बारीक फर्क किया है, उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। अनुभव और अनुभववाद में अंतर होता है। अनुभव के बिना रचना पैदा नहीं होती, लेकिन अनुभववाद रचना की सीमा बन जाता है। इस पर रमेश जी ने विस्तार से विचार किया है। रमेश जी मानते हैं कि रचना हमेशा यथार्थ के अन्वेषण और रूप के आविष्कार के सहारे चलती है। हर रचनाकार को यह अन्वेषण और आविष्कार करना पड़ता है।

रमेश जी की अपनी कहानियों में यह चीज स्पष्ट दिखायी पड़ती है। इसका एक कारण यह भी है कि ये कहानी लिखने के साथ-साथ कहानी लिखने की प्रक्रिया पर भी विचार करते हैं। इस सिलसिले में इस किताब में संकलित इनके तीन लेख विशेष रूप से पढ़ने लायक हैंµ‘कैद से निकलने की कोशिश है रचना’, ‘सवाल मुकम्मल कहानी का’ और ‘यथार्थवादोत्तर/मार्क्सवादोत्तर?’। इनमें रमेश जी ने हिंदी आलोचना पर, खास तौर से कहानी की वर्तमान आलोचना पर, जो विचार किया है, उससे हिंदी आलोचना की संस्कृति और विकृति दोनों सामने आती हैं। इसलिए अंत में मैं यह कहूँगा कि हिंदी साहित्य की प्रकृति, संस्कृति और लगे हाथ उसकी विकृति--सब को एक साथ देखना हो, तो मेरा निवेदन है कि आप रमेश जी का यह ग्रन्थ जरूर पढ़ें। 


विश्वनाथ त्रिपाठी

विश्वनाथ त्रिपाठी
सबसे पहले मैं एक रहस्य की बात कहना चाहता हूँ। बहुत नाटकीय ढंग से नहीं कहना चाहता, लेकिन यह अवसर ऐसा है--रमेश उपाध्याय का जन्मदिन और इस अवसर पर इनकी पुस्तक ‘मेरा मुझ में कुछ नहीं’ का प्रकाशन--कि उस बात को कहना जरूरी है। वह बात यह है कि मैं चुपके-चुपके रमेश उपाध्याय से प्रेरणा लेता रहा हूँ। इनको लगातार इतना कर्मठ और सक्रिय देखना सचमुच प्रेरक है। कई बार मैंने कहा है कि मैं रमेश उपाध्याय को संपादक के रूप में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की परंपरा में रखता हूँ। यह बात पहली बार मैंने आज से दस-पंद्रह साल पहले कही थी और आज फिर दोहराता हूँ। लेकिन प्रेरणा मैं इनके एक और रूप से लेता हूँ। इनके पारिवारिक रूप से, जिसका जिक्र अभी अल्पना मिश्र ने किया। एक यशस्वी लेखक और प्राध्यापक के लिए अपने परिवार को सँभाले रखना मुश्किल होता है। उसमें एक प्रकार का आर्थिक और भौतिक संकट तो होता ही है, कभी-कभी बड़ा मानसिक संकट भी होता है। मैं इस मामले में अपना विचलन देखता था, अपनी कमजोरियाँ देखता था, लेकिन देखता था कि यह आदमी कभी विचलित नहीं हुआ। इसमें अपने परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाने में कभी कोई कमजोरी दिखायी नहीं दी। इस बात ने मुझे हमेशा प्रभावित और प्रेरित किया।

मैं एक लेखक के रूप में भी इनसे प्रेरणा लेता रहा हूँ। सबसे पहले रमेश उपाध्याय की जिस चीज ने मुझे प्रभावित किया, वह थी इनकी भाषा, इनका गद्य। और इनकी भाषा की प्रशंसा मैंने लिखित रूप में की। यह 1974 के आसपास की बात है, जब इन्होंने आनंद प्रकाश और राजकुमार शर्मा के साथ मिलकर ‘युग-परिबोध’ नामक पत्रिका निकाली थी। इनके ये दोनों मित्र मॉडल टाउन में रहते थे। मैं भी वहीं रहता था। और भी कई पुराने साहित्यकारों और नये लेखकों ने वहाँ मकान ले रखे थे। रमेश उपाध्याय मॉडल टाउन से कुछ दूर राणा प्रताप बाग में रहते थे, लेकिन हमारा एक-दूसरे के घर आना-जाना और मिलना-जुलना होता रहता था। इनके साथियों में उन दिनों सुधीश पचौरी और कर्णसिंह चौहान भी हुआ करते थे। तब मैंने शायद ‘जनयुग’ में किसी प्रसंग में लिखा था कि ये लोग रमेश उपाध्याय से गद्य लिखना सीखें।

अभी तक भी गद्य में मेरा मिजाज बहुत मिलता है रमेश जी के साथ। इनके गद्य की विशेषता है अभिधा में लिखना और अपनी बात सूत्रों और सूक्तियों के रूप में कहना। अभिधा में लिखा गया एक सीधा-सादा वाक्य जितना कह सकता है, उतना प्रतीक, फैंटेसी वगैरह की तिकड़म-विकड़म से नहीं कहा जा सकता। अनंत अर्थ का समुद्र होता है एक सीधा-सादा वाक्य। एक बड़ा नाम लेकर कहना चाहूँ, तो कह सकता हूँ कि यह बात नोम चॉम्स्की ने भी भाषा के बारे में कही है। हमारे भारतीय साहित्य और भाषा-चिंतन में भी अभिधा की बड़ी महिमा है। आज भी अभिधा में एक स्पष्ट वाक्य लिखना लेखन का गुण माना जाता है। रमेश जी की भाषा में यह गुण है।

दूसरी विशेषता इनकी भाषा की यह है कि इनके लेखन में बातें अक्सर सूत्रों और सूक्तियों के रूप में कही जाती हैं। सूत्र निकालना और सूक्तियाँ कहना मामूली बात नहीं है। सरल रेखा खींचना बड़ा टेढ़ा काम है। बड़े लेखक सूक्तियाँ निकालते हैं। यह काम मध्यकालीन संत करते थे। हिंदी में यह काम प्रेमचंद ने किया है। प्रेमचंद का एक वाक्य है--‘‘प्रेम ने बड़ी तपस्या करके घर का वरदान पाया है।’’ या एक और वाक्य है--‘‘बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन होता है।’’ बिलकुल सीधे-सादे वाक्य हैं, लेकिन इनके पीछे पूरा इतिहास है, व्यापक सामाजिक अनुभव है, लेखक का अपना अनुभव और चिंतन-मनन है, जिससे ये सीधे-सादे वाक्य सूक्ति बनते हैं। रमेश जी की इसी किताब में आपको बहुत-सी सूक्तियाँ मिल जायेंगी। जैसे--‘‘मनुष्य ऐसा प्राणी है, जो सुंदर स्वप्न देखना बंद नहीं करता।’’ या ‘‘साधारण पाठक एक जनतांत्रिक अवधारणा है।’’ या ‘‘नवीनता और मौलिकता में कोई अंतर्विरोध नहीं है, बल्कि सच्ची नवीनता तो मौलिकता में से ही आती है।’’

रमेश उपाध्याय की एक बड़ी विशेषता यह भी है कि ये बौद्धिक और वैचारिक स्तर पर असहमत होने पर बहस ही नहीं, आप से झगड़ा भी कर लेंगे। मेरे साथ भी एकाध बार हुआ है। बड़ा भीषण झगड़ा हुआ है। लेकिन जैसा कि पांडेय जी ने कहा कि ‘‘तुम्हीं से मुहब्बत तुम्हीं से लड़ाई’’, रमेश उपाध्याय झगड़ चाहे जितना लें, मुहब्बत करते रहते हैं, मित्रता बनाये रखते हैं। बौद्धिक और वैचारिक स्तर पर हुई तीखी बहसों और झगड़ों के बावजूद मैं इनकी साहित्यधर्मिता से हमेशा प्रभावित रहा हूँ। अच्छे लेखक होने के साथ-साथ ये बहुत पढ़े-लिखे आदमी हैं। बहुत पढ़ाकू हैं। इन्होंने गंभीरता से, योजना बनाकर, बहुत-से देशी-विदेशी लेखकों को पढ़ा है और ये बहुत अच्छे अनुवादक हैं। अंर्स्ट फिशर की किताब का अनुवाद ‘कला की जरूरत’ आप पढ़ें। बहुत अच्छा, बल्कि अद्भुत अनुवाद है। आधुनिकता, उत्तर-आधुनिकतावाद और यथार्थवाद का जैसा अध्ययन इन्होंने किया है, इन चीजों पर जैसा इन्होंने लिखा है, इनके साथ के कितने लेखकों ने ऐसा काम किया है? ये आधुनिक हैं, लेकिन अज्ञेय और निर्मल वर्मा जैसे आधुनिक नहीं; बल्कि नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल जैसे आधुनिक हैं।

पांडेय जी ने गिरीश मिश्र का जिक्र किया। गिरीश मिश्र खुद को बड़ा अंग्रेजीदाँ और पाश्चात्य साहित्य का अध्येता समझते हैं। हिंदी वालों के बारे में अंट-शंट बोलते रहते हैं। हम लोग उनकी खबर लेना चाहते हुए भी चुप रहते थे। रमेश उपाध्याय चुप नहीं रहे। इन्होंने उनको जवाब दिया। वह लेख इस किताब में मौजूद हैµ‘प्रेमचंद को लाठी बनाना’। इन्होंने जमकर उनको जवाब दिया और बताया कि गिरीश मिश्र को हिंदी का ही नहीं, अंग्रेजी भाषा का भी और यहाँ तक कि अपने विषय अर्थशास्त्र का भी कितना कम ज्ञान है। इसी तरह इन्होंने कई उत्तर-आधुनिकतावादियों की खबर ली है, यथार्थवाद और मार्क्सवाद के विरोधियों की भी खबर ली है। ये बहसें भी इनकी इस किताब में हैं।

इस किताब के शीर्षक के बारे में भी मैं एक बात कहना चाहता हूँ। यह शीर्षक इन्होंने कबीर से लिया है। कबीर का-सा अक्खड़पन इनमें भी है, लेकिन ‘‘मेरा मुझ में कुछ नहीं’’ कहने में जो विनम्रता है, जो समर्पण और साधना है, उस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। समर्पण और साधना के लिए साधक का कोई इष्ट होना चाहिए। रमेश उपाध्याय के लेखन में भी एक समर्पण और साधना है और इनका भी एक इष्ट है। वह है जन। लेकिन रमेश उपाध्याय रहस्यवादी नहीं हैं, यथार्थवादी हैं और मार्क्सवादी हैं। इनका चिंतन डायलेक्टिकल है और डायलेक्टिक्स में ‘वाद’ का एक ‘प्रतिवाद’ भी होता है। सो रमेश उपाध्याय के लेखन में ‘जन’ का प्रतिवादी है ‘अभिजन’। एक जन है और एक अभिजन। सौंदर्यबोध में अगर विवादी स्वर नहीं बोल रहा है, तो समझिए कि सौंदर्यबोध कच्चा है। सौंदर्य अच्छा लगता है, इसका मतलब ही यह है कि आपको कुरूपता बुरी लगती है। अगर आप अच्छे के पक्ष में हैं, तो अच्छे पर बल देंगे और बुरे को बुरा कहेंगे, उसका विरोध करेंगे। इसलिए रमेश उपाध्याय के यहाँ एक जन है, दूसरा अभिजन है; एक तरफ जनवादी साहित्य है, तो दूसरी तरफ अभिजनवादी साहित्य है।

इसमें एक बात यह भी है कि जन, जनता, जनवाद इनके यहाँ सिर्फ नाम लेने के लिए नहीं हैं। ये इन चीजों में विश्वास करते हैं। बल्कि स्वयं जन हैं और बने रहने का प्रयास करते हैं। इसीलिए इनकी कथनी और करनी में हम लोगों की अपेक्षा अंतर कम है। यह बहुत बड़ी बात है और मुझे बहुत प्रभावित करती है। हमने मजदूरों को दूर से देखा है, स्वयं मजदूर नहीं रहे हैं। इन्होंने मजदूरी की है, स्वयं मजदूर का जीवन जिया है। इस किताब का जो पहला अध्याय है, आत्मकथात्मक है। उसमें इन्होंने प्रेस में काम करने के अपने अनुभव का अद्भुत वर्णन किया है। कंप्यूटर पर किये जाने वाले कामों से पुराने प्रेसों में किये जाने वाले कामों की तुलना करते हुए इन्होंने लिखा है :

‘‘पुराने प्रेसों में इस तरह के सारे काम सीसे के टाइपों, लकड़ी के केसों, पीतल की स्टिकों, लोहे की गैलियों, केस और गैलियाँ रखने की ऊँची-ऊँची रैकों, पू्रफ उठाने के हैंड-प्रेसों आदि के साथ बड़ी मेहनत-मशक्कत से होते थे। हर भाषा के हर फौंट के हर साइज के टाइप के लिए अलग-अलग केस। अंग्रेजी के दो, हिंदी के तीन या चार। उन केसों के छोटे-छोटे खानों में भरे हुए सीसे के टाइप। अंग्रेजी में अपर-लोअर अलग, हिंदी में अक्षर, मात्राएँ, संयुक्ताक्षर, विरामचिह्न आदि अलग। किस खाने में क्या है, याद रखिए। सामने रखी ‘कॉपी’ को देख-देखकर बायें हाथ में पकड़ी ‘स्टिक’ में दायें हाथ से एक-एक टाइप उठाकर रखते जाइए। लाइन को ‘जस्टीफाई’ करने के लिए शब्दों के बीच स्पेस घटाइए-बढ़ाइए। स्पेस यथासंभव बराबर रहे, इसका ध्यान रखिए। लाइन पूरी हो जाने पर ‘लेड’ डालकर अगली लाइन कंपोज कीजिए। लाइन लंबी है, तो ध्यान रखिए कि टूटकर बिखर न जाये। बिखर जाये, तो फिर से कंपोज कीजिए। बीच में किसी और टाइप में कंपोज करना हो, तो उठकर जाइए, रैक में से उस टाइप के भारी-भारी केस खींचकर बाहर निकालिए और काम करने के बाद उन्हें उठाकर यथास्थान लगाइए। कोई शब्द बोल्ड या इटैलिक करना हो, तो भी यही सब कीजिए। मैटर को अंडरलाइन करना हो, तो रेखांकित शब्दों के बराबर की ‘रूल’ खोजिए और न मिले, तो पीतल की सख्त ‘रूल’ को कतिया से काटकर लगाइए। ‘गेज’ से नाप-नापकर पेज बनाइए, उन्हें डोरी से बाँधिए, सीसे के भारी-भारी पेजों को टूटने-बिखरने से बचाते हुए ‘गैली’ में रखिए, उस भारी ‘गैली’ को उठाकर पू्रफ उठाने की मशीन तक ले जाइए, ‘इंक-प्लेट’ पर स्याही लगाकर ‘रोलर’ से उसे इकसार कीजिए, पेजों पर स्याही लगाइए, कागज को गीला करके उचित ‘दाब’ देकर पू्रफ उठाइए। पू्रफ पढ़कर दे दिये जायें, तो सीसे के टाइपों की उलटी लिखाई पढ़ते हुए चिमटी से गलत टाइप निकालकर उनकी जगह सही टाइप बिठाइए। ‘डबल कंपोजिंग’ या ‘सी कॉपी’ के कारण मैटर घट-बढ़ जाये, तो मैटर को ‘चलाइए’। लाइनें घट-बढ़ जायें, तो बाद के सारे पेज खोल-खोलकर फिर से सबका मेकअप कीजिए, उन्हें बाँधिए और फिर से प्रूफ उठाइए।’’

लंबा उद्धरण है, लेकिन यह मैंने अपने मन की एक रोचक बात बताने के लिए आपके सामने पढ़ा है। जब मैं किताब में इसे पढ़ रहा था, मुझे विष्णु खरे की कविता ‘लालटेन’ याद आ रही थी, जिसमें विस्तार से बताया गया है कि लालटेन कैसे जलायी जाती थी। यहाँ रमेश उपाध्याय विस्तार से बता रहे हैं कि पुराने प्रेसों में काम कैसे किया जाता था। यह अनुभव बहुतों को हुआ होगा, ऐसा संघर्ष बहुतों ने किया होगा, लेकिन इस अनुभव और संघर्ष को चित्रित करना बड़ी बात होती है। खास तौर से तब, जब आप उस अनुभव और संघर्ष से आगे बहुत दूर निकल आये हों। यानी प्रेस में काम करने वाले मजदूर की जगह आप लेखक, पत्रकार, प्राध्यापक और संपादक बन गये हैं, फिर भी आपका मजदूर और मजदूर वाला तेवर आपके भीतर मौजूद है। यही कारण है कि रमेश उपाध्याय के ऊपर बुर्जुआ बुद्धिजीवियों का या आलोचकों का आतंक नहीं है। जो बात कहनी होती है, साफ-साफ कहते हैं, कबीराना अक्खड़पन के साथ कहते हैं, लेकिन उसके पीछे ठोस अध्ययन, मनन और चिंतन होता है। हवाई बातें रमेश उपाध्याय नहीं करते हैं। चाहे वह कम्युनिस्ट नैतिकता का सवाल हो, या धर्म और ईश्वर का सवाल हो, या यथार्थवाद और भूमंडलीकरण का सवाल हो, या इनकी अपनी भूमंडलीय यथार्थवाद की अवधारणा का सवाल हो--किसी भी सवाल पर जब ये लिखते हैं, पूरी तैयारी के साथ लिखते हैं।

इस किताब के बारे में मंडलोई जी ने कहा कि यह पूरी किताब आत्मकथात्मक होती तो अच्छा रहता। इसका पहला अध्याय ‘अजमेर में पहली बार’ पढ़कर किसी को भी ऐसा लग सकता है। मुझे भी लगा, क्योंकि वह इतना रोचक और मार्मिक हैµऔर उसमें इनके प्रेम का जो प्रसंग है, वह तो इतनी शिद्दत से लिखा गया है कि उस प्रेम को मैंने भी महसूस किया। वह प्रेम प्रसंग बड़े संयम से लिखा गया है, लेकिन बहुत प्रभावित करता है। उस अध्याय को पढ़कर मुझे भी लगा कि रमेश उपाध्याय आत्मकथा ही लिखते, तो अच्छा रहता। लेकिन जब मैंने पूरी पुस्तक पर विचार किया, तो पाया कि नहीं, यह इसी रूप में ठीक है। इसमें रमेश उपाध्याय का जो चिंतन है, दूसरों से की गयी जो बहसें हैं, विभिन्न विषयों पर लिखे गये जो लेख हैं, उनसे भी तो इनका जीवन, व्यक्तित्व और संघर्ष सामने आता है। वह आत्मकथात्मक ढाँचे में नहीं आ सकता था। ये गंभीर लेख हैं। रोशनी देने वाले लेख हैं। इनसे पता चलता है कि रमेश उपाध्याय अपने लेखन और चिंतन की किस प्रक्रिया से गुजरे हैं। ये एक ‘प्रैक्टिसिंग राइटर’ के लेख हैं, जो अपने लेखन के साथ-साथ अपने समकालीन साहित्य की समस्याओं पर भी सोचता- विचारता है और उनसे सर्जनात्मक स्तर पर ही नहीं, बल्कि वैचारिक स्तर पर भी जूझता है। इसीलिए जो लेख आत्मकथात्मक नहीं हैं, वे भी प्रासंगिक और पठनीय हैं। उनका इस किताब में रहना जरूरी था। 

इस किताब की एक और विशेषता है। यह किताब रमेश उपाध्याय के बारे में बने हुए या मार्क्सवाद, यथार्थवाद, प्रगतिशीलता और जनवाद के विरोधियों के द्वारा गढ़े गये इस मिथक को तोड़ती है कि ये हमेशा क्रांति की बातें करते हैं या अपने लेखन में सिर्फ नारेबाजी करते हैं। इस संदर्भ में इसी किताब से एक उद्धरण और देकर मैं अपनी बात समाप्त करूँगा। इन्होंने लिखा है :

‘‘आज की दुनिया में मार्क्सवादी कथाकार होने का मतलब है वर्तमान पूँजीवादी विश्व-व्यवस्था की जगह समाजवादी विश्व-व्यवस्था के निर्माण के लिए संघर्षरत शक्तियों के साथ खड़े होना। कथा में यह काम वर्ग-संघर्ष या क्रांति के बारे में लिखकर ही नहीं, बल्कि सच्चाई और अच्छाई जैसी ‘मामूली’ चीजों के बारे में लिखकर भी किया जा सकता है। हिंदी कथा का सार्थक विकास इसी प्रकार होता आया है और आगे भी किया जा सकता है।’’

मैं अंत में केवल यह कहना चाहता हूँ कि मुझे बहुत अच्छी लगी यह किताब। इसको पढ़कर मुझे बड़ा फायदा हुआ। नये लेखकों के लिए तो ‘राइटर्स कंपेनियन’ या लेखक-सहचर की तरह की किताब है यह--पठनीय, संग्रहणीय और बहुत दूर तक आचरणीय भी। इन्हीं शब्दों के साथ मैं रमेश जी को इस किताब के लिए बधाई देता हूँ। मैं इनसे उम्र में बहुत बड़ा हूँ, इसलिए इनके जन्मदिन पर इनके सुदीर्घ जीवन की कामना करता हूँ। मुझे विश्वास है कि ये बहुत दिनों तक स्वस्थ और सक्रिय रहेंगे और मेरे लिए बुढ़ापे का सहारा बनेंगे।

प्रस्तुति : संज्ञा उपाध्याय

Tuesday, December 11, 2012

माध्यमों के ध्वस्त पुल और पुरस्कारों की बाढ़

यह लेख 'समकालीन सरोकार' के दिसंबर, 2012 के अंक में 'पुरस्कारों की बाढ़ में फेंके गये लेखक की मजबूरी' शीर्षक से छपा है. लेकिन मेरे द्वारा दिया गया शीर्षक 'माध्यमों के ध्वस्त पुल और पुरस्कारों की बाढ़' ही था. 

साहित्य और संस्कृति से संबंधित संस्थाओं की दशा या दुर्दशा पर विचार करते हुए हम प्रायः साहित्य और संस्कृति को ही भूल जाते हैं। हम उनकी ढाँचागत कमियों और कमजोरियों की आलोचना करते हैं। हम उनकी नीतियों और गतिविधियों की आलोचना करते हैं। हम उनकी कार्यशैलियों और कार्यप्रणालियों की आलोचना करते हैं। हम उनके पदाधिकारियों की गलत नियुक्तियों और पदोन्नतियों की आलोचना करते हैं। हम उनकी फिजूलखर्चियों और बदइंतजामियों की आलोचना करते हैं। हम उनके अंदर चलने वाली स्वार्थजन्य गुटबंदियों और राजनीतिक दलबंदियों की आलोचना करते हैं। हम उनके द्वारा दिये जाने वाले पुरस्कारों में की गयी मनमानियों और बेईमानियों की आलोचना करते हैं। हम उनके द्वारा पुरस्कृत और उपकृत होने वाले व्यक्तियों की अयोग्यताओं और अपात्रताओं की आलोचना करते हैं। हम उनकी स्वतंत्रता और स्वायत्तता को कम या खत्म करने वाली शक्तियों और प्रवृत्तियों की आलोचना करते हैं। और हम उनमें सुधार या बदलाव की जरूरत बताते हुए उनके अंदर स्वतंत्रता, स्वायत्तता, जनतांत्रिकता, नैतिकता, निष्पक्षता और पारदर्शिता की माँग करते हैं। लेकिन यह नहीं देखते कि यहाँ साहित्य और संस्कृति का क्या हाल है, जिसके विकास और प्रचार-प्रसार के लिए ये संस्थाएँ बनायी गयी हैं।

शायद हम यह मानकर चलते हैं कि ये संस्थाएँ तो ठीक हैं, अच्छे उद्देश्यों से बनायी गयी हैं, इनमें कोई खराबी नहीं है। खराबी है इनमें काम करने वाले व्यक्तियों और उन्हें ऊपर से या पीछे से संचालित करने वाली शक्तियों में, जिन्हें यदि बदल दिया जाये, तो सब ठीक हो जाये। लेकिन हम शायद यह देखते हुए भी नहीं देखते कि इन संस्थाओं को चलाने वाले व्यक्तियों और उन्हें संचालित करने वाली शक्तियों के बदल जाने पर भी ये संस्थाएँ नहीं बदलतीं। वैसे ही, जैसे देश में सरकारें बदलती रहती हैं, देश की व्यवस्था नहीं बदलती, जिसके कारण बदली हुई सरकारें भी वही सब करती हैं, जो पिछली सरकारें करती रही होती हैं। साहित्य और संस्कृति से संबंधित संस्थाओं के कटु-कठोर आलोचक जब स्वयं उन पर काबिज हो जाते हैं, तो वही करते हैं, जो उनसे पहले वाले लोग करते थे। नये आने वाले कई लोग तो इसमें कोई बुराई भी नहीं समझते, बल्कि खुल्लमखुल्ला डंके की चोट पर कहते हैं--हम से पहले वाले लोगों ने अपने लोगों को पुरस्कृत-उपकृत किया, अब हम अपने लोगों को पुरस्कृत-उपकृत कर रहे हैं। 

साहित्यकार सबसे अधिक आलोचना साहित्यिक पुरस्कार देने वाली संस्थाओं की करते हैं, लेकिन उनसे पुरस्कृत होने के लिए लालायित भी रहते हैं। उनकी ज्यादातर आलोचनाएँ इस प्रकार की होती हैं कि पुरस्कार इस लेखक को दिया गया, उस लेखक को क्यों नहीं दिया गया। इस विधा पर दिया गया, उस विधा पर क्यों नहीं दिया गया। इस किताब पर दिया गया, उस किताब पर क्यों नहीं दिया गया। ऐसी आलोचनाएँ पढ़-सुनकर लगता है कि मानो इन लोगों के पसंदीदा लेखक को, इनकी पसंदीदा विधा को और इनकी पसंदीदा किताब को पुरस्कार दे दिया गया होता, तो सब ठीक हो जाता! वे जब स्वयं पुरस्कार पा जाते हैं, तो प्रसन्न और संतुष्ट होकर शांत हो जाते हैं। मानो अब साहित्य जगत में सब कुछ ठीक हो गया हो!

लेकिन साहित्य जगत में कुछ भी ठीक नहीं है। साहित्य आम जनता के बल पर ही जीवित और जीवंत रह सकता है। इसके लिए जरूरी है कि वह अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचे। लोग उसे पढ़ें या दृश्य-श्रव्य रूपों में देखें-सुनें और साहित्यकारों को उससे अपने जीवनयापन के साधनों के साथ-साथ जनता से जरूरी ‘रेस्पांस’ और ‘फीडबैक’ भी मिलता रहे। और इसके लिए यह जरूरी है कि साहित्य के प्रकाशन, प्रसारण, अनुवाद और दृश्य-श्रव्य रूपों में रूपांतरण की एक समुचित व्यवस्था समाज में हो। इतिहास से पता चलता है कि प्रत्येक समाज अपने साहित्य के लिए ऐसी व्यवस्था किसी न किसी रूप में करता रहा है। आधुनिक युग में यह व्यवस्था मुख्यतः तीन प्रकार से होती है--साहित्य को सीधे जनता तक पहुँचाने वाली सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संस्थाओं के द्वारा; पत्रकारिता और पुस्तक प्रकाशन के द्वारा; और रंगमंच, रेडियो, टेलीविजन और सिनेमा जैसे माध्यमों के द्वारा। 

भारत में आजादी से पहले और आजादी के कुछ समय बाद तक भी यह व्यवस्था कायम थी। (आजादी से पहले टेलीविजन नहीं था, लेकिन बाद में जब आया, तो उसके जरिये साहित्य का काफी प्रसारण हुआ।) मगर धीरे-धीरे सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संस्थाओं से साहित्य दूर होता गया और उसका सीधे आम जनता तक पहुँचना कम होता गया। पत्रकारिता और साहित्य का जो घनिष्ठ संबंध पहले से चला आ रहा था, वह भी धीरे-धीरे क्षीण होता गया। पहले के पत्रकार प्रायः ‘साहित्यकार ही’ या ‘साहित्यकार भी’ हुआ करते थे और पत्र-पत्रिकाओं में साहित्य के लिए काफी जगह रहती थी। अब उनकी जगह ऐसे पत्रकारों ने ले ली है, जिनका प्रायः साहित्य से कोई संबंध नहीं होता और पत्र-पत्रिकाओं में साहित्य की जगह कम होते-होते खत्म-सी हो गयी है। रंगमंच, रेडियो, टेलीविजन और सिनेमा का भी साहित्य से अब पहले जैसा संबंध नहीं रहा। रहा पुस्तक प्रकाशन, सो उस पर सरकार और बाजार का ऐसा हमला हुआ है कि साहित्य को जनता तक पहुँचाने वाला यह पुल भी ध्वस्त हो गया है।

पुस्तक प्रकाशन (बड़े संचार माध्यमों और अब इंटरनेट के बावजूद) आज भी साहित्य को जनता तक पहुँचाने का मुख्य माध्यम है। लेकिन अब वह जमाना नहीं रहा, जब प्रकाशक दूसरी तरह की पुस्तकों के साथ-साथ साहित्यिक पुस्तकों का प्रकाशन भी करते थे और कोशिश करते थे कि साहित्यिक पुस्तकें ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचें। इसके लिए वे पुस्तकों की कीमत कम रखते थे और बुकसेलरों को कमीशन देकर खुश रखते थे। हर शहर और हर कस्बे में मौजूद बुकसेलर साहित्यिक पुस्तकें रखते थे और आम पाठकों को बेचते थे। (मेरी कहानी ‘लाला बुकसेलर’ के लाला जैसे चरित्र हर जगह देखने को मिलते थे।) बुकसेलर अपने-आप में एक संस्था होते थे। यह संस्था प्रकाशक और पाठक के बीच एक पुल बनाने का काम करती थी। लेकिन सरकारी संस्थाओं ने थोक में किताबें खरीदना शुरू किया, तो बुकसेलर नामक संस्था ही समाप्त हो गयी। छोटे शहरों और कस्बों की तो बात ही क्या, महानगरों में भी, जहाँ अब हर सड़क और हर गली बाजार है, साहित्यिक पुस्तकों की कोई दुकान ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलेगी।

किताबों की सरकारी थोक खरीद होने लगी, तो प्रकाशकों को आम पाठक की चिंता नहीं रही। थोक में किताबें खरीदने वाले अधिकारी को घूस देकर जब एक बार में ही एक हजार किताबें खपायी जा सकती हों, तो एक हजार खुदरा पाठकों तक पहुँचने की, उनकी क्रयशक्ति का खयाल करके किताबों की कीमत कम रखने की, बुकसेलरों तक किताबें पहुँचाने और उन्हें कमीशन देकर खुश रखने के लंबे झंझट में पड़ने की क्या जरूरत? रद्दी-सद्दी किताबें भी--अनाप-शनाप दाम रखकर भी--अगर घूस के बल पर थोक सरकारी खरीद में खपायी जा सकती हों, तो प्रकाशक पाठकों की परवाह क्यों करे? अच्छे लेखकों से अच्छी किताबें लिखवाने और उन्हें समय से सम्मानपूर्वक रॉयल्टी देने की अब क्या जरूरत, जबकि घटिया से घटिया लेखकों की घटिया से घटिया किताबें भी थोक खरीद में खपायी जा सकती हों?

अतः अब कुछ ‘सेलेब्रिटी’ बन चुके और पाठ्यक्रमों में लग चुके चंद साहित्यकारों को छोड़कर बाकी साहित्यकारों की चिंता प्रकाशक नहीं करते। ‘‘साहित्यिक पुस्तकें बिकती नहीं’’ के तकियाकलाम के साथ वे साहित्यकारों से ऐसे बात करते हैं, जैसे उनकी किताब छापकर उन पर कोई कृपा कर रहे हों। और कृपा भी इस शर्त के साथ कि रॉयल्टी वगैरह तो आप भूल ही जायें, अपने संबंधों और संपर्कों के बल पर अपनी किताब (और हो सके, तो हमारी दूसरी किताबें भी) बिकवाने में हमारी मदद करें! और ऐसे ‘मददगार साहित्यकार’ आला अफसरों, राजनीतिक नेताओं, मंत्रियों आदि के रूप में उन्हें आजकल बहुतायत में मिल जाते हैं। वे साहित्यकार न हों, तो भी उनकी लिखी या किसी गरीब लेखक से लिखवायी गयी किताब प्रकाशक बढ़िया ढंग से छापते हैं और धूमधाम से किसी बड़े साहित्यकार के हाथों उसका लोकार्पण कराकर उन ‘मददगारों’ को रातोंरात बड़ा साहित्यकार बना देते हैं।

बाकी साहित्यकारों से--खास तौर से नये लेखकों से--वे कहते हैं कि ‘‘आपकी पुस्तकें बिकती नहीं, आप छपाई का खर्च दे दें, हम आपकी पुस्तक प्रकाशित कर देंगे।’’ साथ में सलाह भी देते हैं--‘‘साहित्य पर दिये जाने वाले ढेरों पुरस्कार हैं, एकाध झटक लीजिए, सारा खर्चा निकल आयेगा।’’ लेखक सोचता है कि यह तरीका अच्छा है। झटपट किताब छप जायेगी और पुरस्कार मिलने से कुछ ख्याति तो मिलेगी ही, किताब छपवाने में लगी लागत भी निकल आयेगी। सो वह प्रकाशक को पैसा देकर अपनी किताब छपवा लेता है और उससे मिली सौ या पचास प्रतियाँ लेकर समीक्षकों और संपादकों को पटाने निकल पड़ता है कि उसकी किताब की कुछ चर्चा हो जाये, तो उस पर कोई पुरस्कार उसे मिल जाये। अगर बीस हजार देकर छपवायी गयी किताब पर दस हजार का पुरस्कार भी मिल गया, तो गनीमत है। गाँठ से गयी आधी रकम वापस मिल गयी और आधी से जो नाम कमाया, वह एक तरह का सांस्कृतिक पूँजी निवेश हुआ, जो आगे चलकर कोई बड़ा पुरस्कार दिलवायेगा!

और सरकार तथा बाजार की कृपा से लेखकों को दिये जाने वाले पुरस्कारों की बाढ़-सी आ गयी है। विभिन्न प्रकार की छोटी और बड़ी, सरकारी और अर्धसरकारी, गैर-सरकारी और निजी, देशी और विदेशी संस्थाएँ भारतीय लेखकों को विभिन्न प्रकार के छोटे-बड़े पुरस्कार बाँटने लगी हैं। इनमें हजारों रुपयों से लेकर लाखों रुपयों तक के पुरस्कार शामिल हैं। इस प्रकार के कुल पुरस्कार कितने हैं और कुल मिलाकर कितनी धनराशि के हैं, इसके आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन मोटे अनुमान के तौर पर इनकी संख्या हजारों की और इनके जरिये लेखकों को दी जाने वाली धनराशि करोड़ों रुपयों की मानी जा सकती है। इन पुरस्कारों को प्रदान करने के लिए आयोजित कार्यक्रमों पर पुरस्कारों में दी जाने वाली राशि से कई गुना ज्यादा खर्च आता है। एक अनुमान के अनुसार पुरस्कार की राशि और पुरस्कार समारोह पर होने वाले खर्च का अनुपात 1 : 5 का होता है। अर्थात् बीस हजार रुपये का पुरस्कार देने के लिए आयोजित समारोह पर एक लाख रुपये खर्च होते हैं।

इस प्रकार यदि प्रति वर्ष दिये जाने वाले साहित्यिक पुरस्कारों और उनको देने पर हुए कुल खर्चों को जोड़ें, तो मोटे तौर पर भी अनुमानित आँकड़े अंग्रेजी मुहावरे में ‘माइंड बौगलिंग’ होंगे और हिंदी मुहावरे में लगेगा कि भारतीय साहित्य और साहित्यकारों के लिए यह ‘स्वर्णयुग’ है; भारतीय साहित्य खूब फल-फूल रहा है।

लेकिन वास्तविकता यह है कि पुरस्कारों की इस बाढ़ ने साहित्यकारों को समृद्ध नहीं, विपन्न और बेचारा बना दिया है। इस बाढ़ में बहता हुआ लेखक समझ ही नहीं पाता कि उसे जाना कहाँ था और वह जा कहाँ रहा है। उसे प्रकाशक के माध्यम से अपने पाठक तक पहुँचना था। इसके लिए उसे मालिक-मजदूर वाला ही सही, एक ठोस संबंध प्रकाशक के साथ बनाना था, जिसकी शर्त यह होती कि प्रकाशक चाहे अपने मुनाफे के लिए उसका शोषण कर ले, पर उसे उसके पाठक तक पहुँचा दे। फिर पाठक उसे अपनाये या दुतकारे, पुरस्कृत करे या प्रताड़ित करे, लेखक जाने और उसका काम जाने। मगर किताबों की थोक सरकारी खरीद के जरिये भ्रष्ट और बेईमान बना दिया गया प्रकाशक उसे पाठक तक पहुँचाने का झाँसा देकर अपनी नाव में बिठाता है और मँझधार में पहुँचाकर उस नदी में फेंक देता है, जिसमें पुरस्कारों की बाढ़ आयी हुई है। लेखक से मानो वह कहता है--‘‘पाठक को भूल जाओ। लेखन के पारिश्रमिक को भूल जाओ। तुमने किताब लिखने और छपवाने में जो मेहनत और लागत लगायी है, उसके बदले में जो वसूल कर सकते हो, पुरस्कार देने वालों से वसूल करो। मैं चला, अब मेरा-तुम्हारा कोई रिश्ता नहीं।’’ और पुरस्कारों की बाढ़ में बहता लेखक पाता है कि वह इस नदी से निकल भी नहीं पा रहा है, क्योंकि उसे एक ऐसे मायाजाल में बाँधकर यहाँ फेंका गया है, जिसमें बँधा वह छटपटा तो सकता है, पर निकल नहीं सकता।

साहित्यिक पुरस्कारों पर जितना धन लुटाया जाता है, उतने से ऐसी व्यवस्था मजे में की जा सकती है कि साहित्य सस्ता और सुलभ हो जाये, उसके पाठकों की संख्या बढ़े, अन्य भाषाओं में उसके अनुवाद और अन्य माध्यमों के लिए उसके रूपांतरण की व्यवस्थाएँ बनें और साहित्य जनता से जुड़कर जीवित और जीवंत बना रहे। लेकिन हर साल करोड़ों किताबों की सरकारी खरीद के बावजूद, और इतने अधिक बड़े-बड़े पुरस्कारों के बावजूद, साहित्यकार अपने साहित्य के बल पर जीवित नहीं रह सकता। वह अपनी आजीविका के लिए कोई साहित्येतर काम करने पर मजबूर होता है। वह समाज में साहित्यकार के रूप में नहीं, बल्कि उसी काम को करने वाले बाबू, अफसर, अध्यापक आदि के रूप में जाना जाता है। उसकी हालत इतनी खराब है कि वह या तो पुरस्कारों का ‘दान’ पाने के लिए ‘दाताओं’ के सामने याचक की तरह खड़ा होता है या तरह-तरह की तिकड़में करके उनसे पुरस्कार ‘झटक लेने’ की अपसंस्कृति का शिकार होने को मजबूर होता है।

प्रश्न यह है कि साहित्य और साहित्यकार इस मायाजाल से कैसे निकलें? इसका उत्तर साहित्य और संस्कृति से संबंधित संस्थाओं की आलोचना करते रहने से नहीं मिलेगा। सरकार और बाजार इस समस्या को हल कर  देंगे, यह सोचना तो और भी आत्मघाती होगा, क्योंकि यह समस्या तो उन्हीं की पैदा की हुई है। उनकी रुचि इसे हल करने में नहीं, बढ़ाने में ही हो सकती है। अतः इस समस्या का हल स्वयं साहित्यकारों को ही करना होगा। और इसके लिए सबसे पहला काम होगा पुरस्कारों को ‘न’ कहना और स्वयं को तथा अपने साहित्य को पाठकों तक ले जाना। इसके तरीके क्या-क्या हो सकते हैं, यह साहित्यकारों को मिल-जुलकर सोचना होगा।

--रमेश उपाध्याय