Wednesday, November 6, 2013

कहानी समीक्षा


आज का यथार्थ : आज की कहानी 
विशेष संदर्भ : विमल चंद्र पांडेय की कहानी काली कविता के कारनामे


ऐसा कम ही होता है कि कहानियाँ और उन पर लिखी समीक्षाएँ साथ-साथ पढ़ने को मिल जायें। विजय राय के संपादन में लखनऊ से निकलने वाली पत्रिका लमहीके सुशील सिद्धार्थ के अतिथि संपादन में निकले कहानी विशेषांक (अप्रैल-सितंबर, 2013) ने यह दुर्लभ अवसर उपलब्ध कराया है। विशेषांक में प्रकाशित दस कहानियों पर लिखी गयी समीक्षाओं से पता चलता है कि आज की हिंदी कहानी तो आज के गतिशील तथा परिवर्तनशील यथार्थ को विभिन्न रूपों में सामने लाती हुई यथार्थवाद का विकास कर रही है, मगर हिंदी की कहानी-समीक्षा उस यथार्थ को और कहानी में निरूपित उसके विभिन्न रूपों को समझने के नये उपकरण विकसित करने के बजाय कलावाद, अनुभववाद, विमर्शवाद इत्यादि की यथार्थवाद-विरोधी दिशाओं में ही भटक रही है। कहानी और कहानी-समीक्षा दोनों का विकास अन्योन्याश्रित है और इसके लिए दोनों का साथ चलना जरूरी है। लेकिन आज की कहानी तेजी से अपना विकास कर रही है, जबकि कहानी-समीक्षा उसके साथ कदम से कदम मिलाकर न चल पाने के कारण पिछड़ रही है और कहानी के विकास को भी बाधित कर रही है।
विडंबना यह है कि कहानी के साथ न चल पा रही, पिछड़ रही या उसके विकास की दिशा से भिन्न और विपरीत दिशाओं में जाकर भटक रही समीक्षा कहानी का सही मूल्यांकन करने में समर्थ होने का, कहानी की साहित्यिकता या कलात्मकता के बारे में फतवे देने का, कहानी को गलत दिशा में जाने से रोककर सही दिशा में आगे बढ़ाने में समर्थ होने का दंभ भी पाले हुए है। 

उदाहरण के तौर पर लमहीके उक्त विशेषांक में प्रकाशित एक बेहतरीन यथार्थवादी कहानी और उसकी बेहद खराब कलावादी समीक्षा को देखा जा सकता है। कहानी है विमल चंद्र पांडेय की काली कविता के कारनामेऔर कहानी की समीक्षा है अर्चना वर्मा की यथार्थ की जटिलता बरक्स उपाय की सरलता का पारस पत्थर। 

जैसा कि शीर्षक से ही स्पष्ट है, कहानी काली कविता के कारनामेकविता नामक एक स्त्री की कहानी है। आजकल हिंदी में स्त्री और दलित रचनाकारों के संदर्भ में स्वानुभूतिऔर सहानुभूतिका प्रश्न बड़े जोर-शोर से उठाया जाता है। अतः पहले ही स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि स्त्री द्वारा ही स्त्री के बारे में लिखी गयी कहानी को स्वानुभूतिके आधार पर लिखी गयी प्रामाणिककहानी मानने वाले तथा पुरुष द्वारा स्त्री के बारे में लिखी गयी कहानी को सहानुभूतिके आधार पर लिखी गयी अप्रामाणिककहानी बताने वाले कहानी-समीक्षकों द्वारा दिये जाने वाले चरित्र प्रमाणपत्र अनुभववादी कहानी के संदर्भ में भले ही कुछ उपयोगी होते हों, यथार्थवादी कहानी के लिए उनकी कोई उपयोगिता या सार्थकता नहीं होती। यह कहानी विमल चंद्र पांडेय ने लिखी है। लेकिन अगर किन्हीं विमला कुमारी पांडेय ने लिखी होती, तो भी इसे ऐसे किसी चरित्र प्रमाणपत्र की आवश्यकता न होती। इसमें कुछ दलित पात्र भी हैं और उनके प्रति एक ब्राह्मण लेखक द्वारा सहानुभूति व्यक्त की गयी है। फिर भी इसके संदर्भ में यह प्रश्न अप्रासंगिक है कि इसे दलितवादी कहानी कहा जाये कि न कहा जाये और कहा जाये, तो प्रामाणिक कहा जाये या अप्रामाणिक। यथार्थवादी कोई भी हो सकता है और यथार्थवादी रचना का निजी अनुभव पर ही आधारित होना आवश्यक नहीं है। इसलिए यथार्थवादी कहानी और कहानी-समीक्षा के लिए यह पूरी बहस ही बेमानी है। 

जहाँ तक इस कहानी की कलात्मकता का प्रश्न है, उसे भी कलावादी नहीं, यथार्थवादी कहानी-समीक्षा ही सामने ला सकती है, क्योंकि कलावादी कहानी-समीक्षा के पास वह दृष्टि ही नहीं है, जो यथार्थवादी कहानी की कलात्मकता को देख सके। 

कलावादी कहानी-समीक्षा के लिए इस बात का कोई विशेष मूल्य नहीं होता कि कहानी में क्या कहा गया है। उसके लिए प्राथमिक और महत्त्वपूर्ण होता है यह देखना कि कहानी कैसे कही या लिखी गयी है। अर्चना वर्मा को इस बात से विशेष मतलब नहीं है कि इस कहानी का कथ्य क्या है। उनका जोर इस पर है कि इस कहानी का रूप या शिल्प क्या है। उन्हें कहानी सरल ढंग से कही गयी लगती है, जबकि उन्हें (या सभी कलावादियों को) साहित्य में सरलता नहीं, जटिलता पसंद है। समीक्षा की शुरुआत से ही वे सरलता-जटिलता की बात करने लगती हैं : 

‘‘सरल होना बहुत सरल नहीं है। बिना सरलीकरण किये हुए सरल होना तो दरअसल कठिन भी है। बहुत-सी जटिलताओं का इलाज तो सरल होने में ही छिपा है। और इलाज का रास्ता रोग की समझ से होकर या जटिलताओं को दरकिनार करके नहीं, उनके बीच से गुजरकर जाता है।’’ 

इसके बाद वे सरलता-जटिलता का संबंध यथार्थवाद से जोड़ती हैं और प्रेमचंद में दो तरह का यथार्थवाद बताती हैंµएक कफनकहानी वाला जटिल यथार्थवाद और दूसरा कफनसे पहले वाला सरल यथार्थवाद। उन्हें कफनवाले प्रेमचंद का यथार्थवाद पसंद है, जिसे वे आज के कहानीकारों में देखती हैं या देखना चाहती हैं, लेकिन पाती हैं कि विमल चंद्र पांडेय ने अपनी कहानी में ‘‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद के जमाने वाले प्रेमचंद की परंपरा का’’ उत्तराधिकारी होना चुना है। 

अर्चना वर्मा प्रेमचंद की परंपरा के जिन दो रूपों की बात कर रही हैं, उनके प्रसंग में याद रखना जरूरी है कि 1980 के दशक में प्रेमचंद की परंपरा पर हिंदी के कलावादी और यथार्थवादी लेखकों के बीच एक घमासान मचा था। उसमें कलावादियों ने प्रेमचंद की परंपरा को कफनकहानी वाले प्रेमचंद से जोड़ा था, जबकि यथार्थवादियों ने संपूर्ण प्रेमचंद साहित्य से। इस संदर्भ को ध्यान में रखने पर स्पष्ट हो जायेगा कि अर्चना वर्मा हिंदी कहानी में यथार्थवाद के सवाल पर कहाँ खड़ी हैं। 

अर्चना जी शायद यह मानती हैं कि विमल चंद्र पांडेय वाली पीढ़ी की सोच-समझ प्रेमचंद की कफनवाली परंपरा से जुड़ती है। लेकिन पूरी पीढ़ी की सोच-समझ ऐसी ही है, यह दावा कोई नहीं कर सकता। फिर, यदि अकेले विमल ने ही अपना संबंध प्रेमचंद की आदर्शोन्मुख यथार्थवाद वाली परंपरा से जोड़ा है, तो भी कहानी-समीक्षक के लिए यह एक विशेष और महत्त्वपूर्ण बात होनी चाहिए थी, जिस पर उसे विशेष ध्यान देना चाहिए था। लेकिन अर्चना जी विमल की कहानी के यथार्थवाद पर बात ही नहीं करतीं। बल्कि उसे उपेक्षणीय मुद्दा मानकर जटिलता और सरलता की बात करते-करते यह बताने लगती हैं कि साहित्य और पत्रकारिता दो अलग चीजें हैं और पत्रकारिता को साहित्य नहीं कहा जा सकता। इस आधार पर वे विमल की कहानी को ही नहीं, प्रेमचंद की भी ‘‘बहुत-सी’’ कहानियों को पत्रकारिता से जोड़कर साहित्य से खारिज कर देती हैं। उनके अनुसार लेखक ने यह कहानी ‘‘अपने समय के यथार्थ की पकड़ के साथ यथार्थोन्मुख बनाते हुए’’ लिखी है और ‘‘इस काम को अंजाम देने में बड़ा हाथ वृत्तांत शैली की पत्रकारिता का भी है’’। अर्चना जी इसे कहानी नहीं, बल्कि यथार्थ की रिपोर्टिंग या ‘‘कवरेज’’ मानती हैं और लिखती हैं :

‘‘पत्रकारिता में भी ऐसे कवरेज को स्टोरी या कहानी ही कहा जाता है। प्रेमचंद ने भी अपने समय की सुर्खियों को लेकर बहुत-सी ऐसी कहानियाँ लिखी थीं, जिनका सत्यापन दैनिक अखबार से किया जा सकता था।’’ 

इस समीक्षा में ‘‘प्रेमचंद की ही तरह विमल के सामने अपना लक्ष्यार्थ और लक्षित पाठक दोनों ही सुस्पष्ट और सुपरिभाषित हैं’’ जैसे वाक्य ऊपर से प्रशंसात्मक लगते हैं, लेकिन उनसे निकलने वाली ध्वनि को ध्यान से सुना जाये, तो पता चलता है कि प्रेमचंद और विमल दोनों को साहित्यकार की जगह ‘‘वृत्तांत शैली का पत्रकार’’ बताया जा रहा है और उनके लेखन को सरल या सपाट बताकर साहित्य से खारिज किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि साहित्य का गुण है जटिलता, जो इस कहानी में नहीं है, इसलिए इसे साहित्य नहीं माना जा सकता। साहित्य तो वह होता है, जो जटिल हो; जिसकी व्याख्या करना मुश्किल हो! पत्रकारिता की-सी ‘‘कवरेज’’ वाली कहानी में यह बात कहाँ! अतः उसे ध्यान से पढ़ने-समझने की जरूरत ही नहीं! अर्चना जी प्रशंसा के शिल्प में विमल की कहानी की निंदा करते हुए लिखती हैं : 

‘‘किस्सा तो कुल इतना है कि कविता काली है, लेकिन उसका दिल उजला है, दुनिया भर की लड़कियों की तरह बहुत छोटी उम्र में ही उसको समझ में आ गया है कि दुनिया सुंदर नहीं है, लेकिन छोड़िए, किस्सा तो आप पढ़ ही लेंगे और इस किस्से की खासियत यह है कि जटिलता के बावजूद इसे किसी व्याख्या की जरूरत नहीं है। इसकी जटिलता यथार्थ की भले हो, संरचना या अभिव्यक्ति की नहीं है। यथार्थ भी जानकारी के अतिशय और अति परिचय की वजह से अपनी जटिलता का जटाभाव (?) खो बैठा है।’’ 

फिर जटिलता को रचनात्मकता का पर्याय-सा मानते हुए वे लिखती हैं कि विमल की कहानी (या किस्से या वृत्तांत शैली की पत्रकारिता वाले कवरेज) में ‘‘यथार्थ को निरुद्वेग सूचना की तरह दर्ज करने की विधि से रचनात्मकता निचोड़ी गयी है।’’ मानो यथार्थ सूखा नींबू हो, जिसमें से जबर्दस्ती रचनात्मकता का रस निचोड़ा गया हो! वे कहना दरअसल यह चाहती हैं कि जिस कहानी में जटिलता नहीं, उसमें रचनात्मकता नहीं। मगर उन्हें मालूम है कि इस कहानी को कलावादी ढंग से ही नहीं, यथार्थवादी ढंग से भी पढ़ा जा सकता है, इसलिए वे दो तरह के पाठकों की बात करती हैं। (कलावादी) ‘‘पाठक को अपनी संवेदना और रुचि के अनुसार तहदारी और परत-दर-परत गहराई में उतरते जाने की कमी खल सकती है’’, जबकि भिन्न ‘‘स्वाद और रुचि’’ वाले (यथार्थवादी) पाठक कह सकते हैं कि ‘‘यह कहानी यथार्थ के विस्तार की है और इस विन्यास में से उभरने वाली प्रत्याशाओं की कसौटी पर खरी उतरती है।’’ 

इसके बाद वे एक गुरु-गंभीर प्रश्न उठाती हैं--‘‘इस कहानी में ऐसा क्या है, जो इसे पत्रकारिता से अलग और रचनात्मक कथासाहित्य से एक करता है?’’ उत्तर में वे पुराने साहित्यशास्त्र से लेकर उत्तर-संरचनावाद तक की चर्चा करते हुए (और पाठकों को आतंकित करने के लिए कुछ विदेशी नाम टपकाते हुए) एक लंबा वक्तव्य देती हैं, जिसमें यह चुटकुला भी सुना देती हैं कि ‘‘यदि किसी को रेलवे-टाइम-टेबिल में कविता या कहानी दिखायी दे जाये तो वह कविता या कहानी ही है।’’

वक्तव्य के अंत में वे लिखती हैं-- ‘‘बुनियादी सवाल अब यह है कि साहित्य को सदियों के अंतराल में उत्पादित एक सांस्कृतिक संरचना माना जाये जो अपनी विशिष्ट रूढ़ियों द्वारा पोषित हुई और जो अब संचार-माध्यमों के समक्ष संभावित विनाश का सामना कर रही है या फिर वह अपने आप में विमर्श की कोई विशिष्ट और बुनियादी कोटि भी है?’’ 

अपने जटिलता के जटाभाव वाले अंदाज में वे अपने सवाल का विमल की कहानी के संदर्भ में ‘‘सीधा उत्तर’’ यह कहकर देती हैं :

‘‘वास्तविक भौगोलिक लोकेशन वास्तविक व्यक्ति और वास्तविक आँकड़ों से पुष्ट यथातथ्य प्रामाणिकता के साथ यही कहानी अखबार में छपकर अखबारी वृत्तांत या वृत्तांत शैली की पत्रकारिता होगी और साहित्यिक पत्रिका में इस दावों (?)  के बगैर वृत्तांत शैली की साहित्य रचना।’’
प्रस्तुत पंक्तियों का लेखक स्वीकार करता है कि वह अर्चना जी के वक्तव्य की ‘‘तहदारी और परत-दर-परत गहराई’’ में उतरते जाने में असमर्थ है। वह लगभग पाँच दशकों से साहित्य और पत्रकारिता दोनों में थोड़ा दखल रखने के बावजूद यह समझ पाने में असमर्थ है कि कोई रचना अखबार में छपने पर पत्रकारिता और साहित्यिक पत्रिका में छपने से साहित्य कैसे हो जाती है! बहरहाल, वह विमल को बधाई देता है कि साहित्यिक पत्रिका में छपने के कारण ही सही, उनकी कहानी आखिर साहित्य तो मानी गयी! 

समीक्षा के उत्तरार्ध में कहानी के बारे में जो कहा गया है, इतना ही है कि इस कहानी में ‘‘एक वृत्तांत है, जो शिक्षा की व्यवस्था और संस्थान के अभावों और विकृतियों को अपने केंद्र में रखकर उसके इर्द-गिर्द अन्य तरह-तरह के अस्मिता-विमर्शों के ताने-बाने से कथा की शक्ल अख्तियार करता है।’’ ये विमर्श हैंµस्त्री विमर्श और चूँकि कविता काली है, इसलिए ‘‘साहचर्य- संकेत से कथातत्त्व में खींच लाया गया’’ रंगभेद-विमर्श। लेकिन अर्चना जी के विचार से ‘‘इस वृत्तांत का विमर्श तत्त्व’’ भी गड़बड़ है, क्योंकि ‘‘शिक्षासंस्थान और व्यवस्था के विश्लेषण को कथात्मक बनाये रखना कहानी के उत्तरार्ध में उतना आसान नहीं दिखता, जितना कि पूर्वार्ध में कविता के अस्मिता-बोध की रचना का वृत्तांत।’’ उसमें उल्लेखनीय कुछ है, तो ‘‘ज्ञात और परिचित भ्रष्टाचारों के सपाट और थोक की सामान्यता के निरसन और अनावश्यक ब्यौरों के संक्षेपण के लिए दो अलंकृतियों का इस्तेमाल’’! ये दो अलंकृतियाँ हैंµ‘‘स्कूल की मुँडेर पर बैठने वाले विशालकाय गिद्ध, जिन्हें शायद केवल कविता देख पाती है, और (शिक्षण का) पारस पत्थर जिससे घिस-घिसकर वह अपने छात्र-छात्राओं के लोहे को सोने में बदलती है।’’ 

लेकिन उल्लेखनीय का अर्थ प्रशंसनीय नहीं है। इन ‘‘अलंकृतियों’’ में भी खोट है। अर्चना जी शायद इन्हें ‘‘अलंकरण’’ कहना चाहती हैं, इसलिए अलंकरणशब्द लाये बिना स्त्रीलिंग अलंकृतियोंको पु¯ल्लग में बदलते हुए लिखती हैंµ‘‘ये अपनी इकहरी पारदर्शिता की वजह से रूपकीय संक्षेपण की सघनता या जादुई-यथार्थ की अनुभवात्मक सत्ता तक नहीं जाते, सायन-विधान तक ही रह जाते हैं।’’
समीक्षा की अंतिम पंक्तियाँ हैं :

‘‘वृत्तांत के अंत की तरफ गिद्ध मुँडेर छोड़कर उड़ जाते हैं। सिर्फ वृत्तांत का अंत क्योंकि कहानी खत्म नहीं होती, एक बहुत सार्थक समापन टिप्पणी के हस्तक्षेप से वृत्तांत के आमने-सामने खड़ी रह जाती है। कथाकार विमल की स्वागत योग्य संभावनाओं को उजागर करती हुई।’’ 

यह प्रशंसा है या निंदा? या व्याजोक्ति का नमूना? पाठक स्वयं तय करें। 

कुल मिलाकर अर्चना वर्मा ने उत्तर-आधुनिकतावाद के घिसे-पिटे पत्थर पर घिसकर पैनायी गयी भोंथरी कलावादी छुरी से विमल की बेहतरीन यथार्थवादी कहानी का गला रेतने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। लेकिन वे इसकी हत्या करने के प्रयास में सफल नहीं हो पायी हैं। समीक्षा खराब रचना में जान नहीं डाल सकती, तो अच्छी रचना को मार भी नहीं सकती।

आइए, अब उनकी समीक्षा से अलग हटकर आज के यथार्थ और आज की कहानी के संदर्भ में विमल चंद्र पांडेय की कहानी काली कविता के कारनामेको देखें। 

यह कहानी आज के उस समय में लिखी गयी है, जो भारत में ही नहीं, समूचे विश्व में भारी उथल-पुथल का समय है। लेकिन यह उथल-पुथल दुनिया को बेहतर और सुंदर बना सकने वाली किन्हीं क्रांतिकारी शक्तियों ने नहीं, बल्कि पूँजीवाद की संकटग्रस्त भूमंडलीय व्यवस्था ने मचा रखी है। इस उथल-पुथल का असर कर्ज के शिकंजे में जकड़े जाकर लगभग पराधीन हो चुके भारत जैसे देशों के जन-जीवन पर यह पड़ रहा है कि जीवन की सारी सच्चाई, अच्छाई और सुंदरता गायब होती जा रही है। राजनीति हो या अर्थनीति, धर्म हो या संस्कृति, उद्योग हो या व्यापार, सरकारी नौकरियाँ हों या निजी काम-धंधे, हर जगह झूठ, बेईमानी, छल-कपट, अनैतिकता, स्वार्थपरता, भ्रष्टाचार, हिंसा, शोषण, दमन, उत्पीड़न, हर तरह की बुराई और हर तरह की कुरूपता का बोलबाला है। सच्चाई, अच्छाई और सुंदरता जैसी चीजें भी हैं, लेकिन वे दबी रहती हैं या दबा दी जाती हैं, इसलिए अक्सर दिखायी नहीं देतीं। उनको सामने लाने वाला कोई सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन तो क्या, साहित्यिक-सांस्कृतिक आंदोलन भी नहीं चल रहा। नतीजा यह है कि अच्छे और भले लोग अपने-अपने काम में अकेले लगे रहने को मजबूर हैं। वे अकेले और अलग-थलग पड़कर गुमनामी में जीते हैं, इसलिए समाज में दिखायीनहीं देते और इसीलिए साहित्य और कलाओं में भी नजर नहीं आते। 

आज के इस निराशाजनक यथार्थ के बरक्स आज की हिंदी कहानी को देखने पर यह समझना मुश्किल नहीं रहता कि उसमें आशावाद और आदर्शवाद लगभग अनुपस्थित क्यों मिलता है। आजकल कहानी हो या उपन्यास, नाटक हो या सिनेमा, हर जगह नकारात्मक चरित्रों की भरमार है। नकारात्मकता हर जगह इतनी हावी है कि वही सच और यथार्थ लगती है। सकारात्मक चरित्र नकली, बनावटी और अविश्वसनीय लगते हैं। इसीलिए हिंदी फिल्मों में कल का विलेन आज हीरो है और कल का हीरो हास्यास्पद चरित्र। आज की हिंदी कहानी में भी कमोबेश यही हाल है। लोग सिनेमा और संचार माध्यमों में पसरी और उनके द्वारा पसारी जाती नकारात्मकता से तंग आकर कुछ सकारात्मक पाने की आशा में कहानी की ओर आते हैं, लेकिन पाते हैं कि यहाँ भी ज्यादातर नकारात्मक चीजों को ही यथार्थ बताकर परोसा जा रहा है और सकारात्मक चीजों को अक्सर काल्पनिक, आदर्श, यूटोपिया आदि कहकर या तो खारिज किया जा रहा है या उनकी खिल्ली उड़ायी जा रही है। इन सब चीजों का असर कुल मिलाकर यह होता है कि लोग पड़ोस में रहने वाले एक भले आदमी की भलाई को जानते हुए भी उस पर विश्वास नहीं करते, जबकि जनहित की बातें और जन-विरोधी काम करने वाले नेताओं तथा ढोंगी, पाखंडी, हिंसक और बलात्कारी बाबाओं के चरित्र को जानते हुए भी उन पर विश्वास करते हैं और उनके भाषण और प्रवचन सुनने चले जाते हैं। 

तो क्या यह मान लिया जाये कि कहानी सच कहने की शक्ति खो चुकी है? क्या वह अब सच्चाई और अच्छाई को सामने लाने में समर्थ नहीं रह गयी है? नहीं। उसमें यह शक्ति और सामर्थ्य अभी है। इसीलिए आज के उपयोगितावादी और बाजारवादी समय में भी पाठक उसे पढ़ते हैं और लेखक, उससे कोई खास लाभ न होने पर भी, उसे लिखते हैं। अतः यह कहना गलत है कि अब कहानी कोई नहीं पढ़ता और कहानीकार पाठकों के लिए नहीं, बल्कि संपादकों, समीक्षकों और पुरस्कार आदि देने वालों के लिए ही लिखते हैं। आजकल कहानीकारों पर, खास तौर से नये कहानीकारों पर, यह आरोप भी लगाया जाता है कि वे बाजारवादी हो गये हैं, बाजार में बिक सकने वाली चीजें ही लिखते हैं, समाज और साहित्य की उन्हें कोई परवाह नहीं है, इत्यादि। लेकिन ये बातें कुछ हद तक सच होते हुए भी पूरी तरह सच नहीं हैं। दुनिया के अन्य तमाम क्षेत्रों की तरह साहित्य के क्षेत्र में भी बुराइयाँ मौजूद हैं, लेकिन दुनिया के अन्य तमाम क्षेत्रों की तरह ही साहित्य के क्षेत्र में भी अच्छाइयाँ मौजूद हैं। अब यह हम पर हैµइस क्षेत्र में सक्रिय लेखकों, पाठकों, समीक्षकों, संपादकों, प्रकाशकों, शिक्षकों आदि परµकि हम अच्छाइयों पर ध्यान देते हैं या बुराइयों पर। साहित्य में निहित नकारात्मकता को ही उभारते हैं या सकारात्मकता को भी सामने लाते हैं! 

इस तरह देखें, तो आज की हिंदी कहानी आज के इसी यथार्थ को देखने-दिखाने वाली कहानी है, जो अंधकारमय है, पर जिसमें उजाले भी हैं; जो निराशाजनक है, पर जिसमें उम्मीदें भी हैं; जो बुरा है, पर जिसमें अच्छाइयाँ भी हैं। और यह साहित्य से जुड़े किसी भी सदाशयी व्यक्ति के लिए सुख और संतोष की बात हो सकती है कि यथार्थवाद- विरोधी शक्तियों और प्रवृत्तियों की बड़ी भारी उपस्थिति के बावजूद आज की हिंदी कहानी उन शक्तियों और प्रवृत्तियों से संघर्ष करती हुई अपनी यथार्थवादी परंपरा में ही अपना विकास कर रही है। हाँ, यथार्थवाद के विभिन्न रूप हैं और यह कहानीकार की निजी रुचि, प्रवृत्ति, शक्ति और क्षमता पर निर्भर है कि वह अपनी कहानी के लिए यथार्थवाद के किस रूप को उचित और आवश्यक समझता है अथवा उसके किसी नये रूप के आविष्कार की आवश्यकता अनुभव करता है। 

विमल चंद्र पांडेय पिछले दस-पंद्रह वर्षों में हिंदी कहानीकारों की जो नयी पीढ़ी उभरकर सामने आयी है, उसके एक महत्त्वपूर्ण कहानीकार हैं। काली कविता के कारनामेसे पहले की अपनी कहानियों में भी उन्होंने प्रेमचंद की यथार्थवादी परंपरा को ही आगे बढ़ाने का काम किया है। उन्होंने अपनी पीढ़ी के उन कहानीकारों से, जो कहानी में कथ्य से अधिक भाषा और शिल्प पर जोर देते हैं, अपनी अलग पहचान बनायी है। यद्यपि उनकी कहानियों में भी भाषा का अपना एक अलग और विशिष्ट अंदाज है, जो जन-जीवन से उनके गहरे लगाव-जुड़ाव का परिचय देता है; उनकी शैली में भी अपनी पीढ़ी के कहानीकारों का-सा चुलबुलापन और खिलंदड़ापन है; लेकिन वे शिल्पगत चमत्कारों के चक्कर में नहीं पड़ते। अतः उनकी कहानियाँ सहज संप्रेषणीय होती हैं। सबसे बड़ी बात यह कि वे कलावादी, अनुभववादी और उत्तर-आधुनिकतावादी प्रभावों से सचेत रूप से बचते हुए स्वयं को हिंदी कहानी की यथार्थवादी परंपरा से जोड़े रखकर उसे आगे बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील दिखायी देते हैं। 

लेकिन हिंदी की यथार्थवादी कहानी-समीक्षा आज के ऐसे कहानीकारों द्वारा लिखी जा रही उत्कृष्ट यथार्थवादी कहानियों पर अपेक्षित ध्यान नहीं दे पा रही है। अतः प्रस्तुत पंक्तियों का लेखक, जो स्वयं कहानीकार है, कहानी-समीक्षक नहीं है, आपद्धर्म के रूप में विमल चंद्र पांडेय की कहानी को एक उदाहरण के तौर पर सामने रखते हुए यथार्थवादी कहानी-समीक्षा के विकास के लिए आज की यथार्थवादी कहानी की चार प्रमुख विशेषताओं को रेखांकित करना चाहता है।

एक : आज की यथार्थवादी कहानी जीवन और जगत के यथार्थ को समग्रता में देखती है। उत्तर-आधुनिकतावाद यथार्थ को समग्रता के विरुद्ध विखंडित रूप में देखने की बात करता है। यह आज के पूँजीवाद की विचारधारा है, लेकिन इसके पीछे एक बहुत पुराना शासकवर्गीय सिद्धांत काम करता हैµबाँटो और शासन करो। कहानी-लेखन में यह विचार और सिद्धांत इस रूप में आता है कि यथार्थ को समग्रता में नहीं समझा जा सकता, खंड-खंड करके ही समझा जा सकता है; अतः कहानी में उसका चित्रण समग्र रूप में नहीं, विखंडित रूप में ही होना चाहिए। इसके लिए यह सिद्धांत विभिन्न अस्मिताओं की बात करता है और बताता है कि प्रत्येक देश का, प्रत्येक समाज का, प्रत्येक समुदाय का, प्रत्येक जाति का और प्रत्येक व्यक्ति का यथार्थ भिन्न होता है। पुनः व्यक्तियों में भी गोरों, कालों, स्त्रियों, पुरुषों, दलितों, सवर्णों, बच्चों, युवाओं, वृद्धों, समलैंगिकों, विषमलैंगिकों इत्यादि सबके यथार्थ भिन्न होते हैं और समग्र यथार्थ से उनका कोई लेना-देना नहीं होता। इसके विपरीत यथार्थवादी कहानी इन सारी भिन्नताओं को एक समग्रता के विभिन्न अंगों के रूप में देखती है। 

विमल चंद्र पांडेय इन समस्त भिन्नताओं को जानते और पहचानते हैं, कहानियों में उन्हें सामने भी लाते हैं, लेकिन उन्हें समग्रता में ही देखते हैं। काली कविता के कारनामेमें शहरी मध्यवर्गीय जीवन से लेकर ग्रामीण जन-जीवन तक का यथार्थ सामने लाते हुए वे एक लड़की की कहानी कहते हैं, लेकिन उसमें वे कई विभिन्न प्रकार के चरित्रों की कहानियाँ एक साथ और बड़ी सहजता के साथ इस प्रकार गूँथ देते हैं कि वे अलग- अलग होकर भी एक हो जाती हैं। 

दो : आज की यथार्थवादी कहानी यथार्थ को गतिशील और परिवर्तनशील रूप में देखती-दिखाती है। वह मानव समाज के ऐतिहासिक अनुभव के आधार पर यथार्थ को बदलकर दुनिया को बेहतर बनाये जा सकने को संभव मानती है और यह मानकर चलती है कि इसमें कथासाहित्य की भी एक भूमिका होती है। इसके विरुद्ध उत्तर-आधुनिकतावाद साहित्य को भाषा का खेल या खिलवाड़ मानता है और हर प्रकार की अभिव्यक्ति को एक भाषिक रूप या डिस्कोर्सबताता है, जिसके लिए हिंदी में विमर्शशब्द प्रचलित है। इस विमर्शवाद  ने साहित्य को सामाजिक सरोकारों से काटकर तथा सामाजिक परिवर्तन में उसकी भूमिका को नकारकर उसे निरर्थक और निरुद्देश्य बना दिया है। विभिन्न प्रकार की अस्मिताओं वाला विमर्शवादी साहित्य ऊपर से बड़ा यथार्थवादी और क्रांतिकारी लगता है, लेकिन भीतर से वह यथार्थवाद-विरोधी तथा यथास्थितिवादी होता है। 

इसके उदाहरण हम अपने साहित्य के स्त्री विमर्श और दलित विमर्श में देख सकते हैं। स्त्रियों और दलितों की वास्तविक परिस्थितियों को बदलने के लिए सामाजिक आंदोलन जरूरी हैं। ये आंदोलन हमारे समाज में चले हैं, उनसे साहित्य का भी संबंध रहा है, और साहित्य में हम उन्हें स्त्री आंदोलन तथा दलित आंदोलन के रूप में जानते रहे हैं। लेकिन उनके स्त्री विमर्श और दलित विमर्श में बदल जाने पर उनका सामाजिक आंदोलनकारी रूप समाप्त हो गया है और उन पर यथार्थवाद की जगह अनुभववाद या ‘‘लेखक का अपना जिया- भोगावाद’’ हावी हो गया है। इस प्रवृत्ति का एक भयंकर दुष्परिणाम यह भी हुआ है कि स्त्री विमर्श देहवाद में और दलित विमर्श जातिवाद में सिमटकर वास्तव में स्त्री-विरोधी और दलित-विरोधी भी होता जा रहा है। 

सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों में यह होता है कि जो वर्ग या समुदाय आंदोलन करता है, वह अन्य वर्गों और समुदायों के समर्थन और सहयोग से अपने आंदोलन को मजबूत बनाकर आगे बढ़ाने की कोशिश करता है। इसके लिए एक प्रकार की उदारता और सहिष्णुता आवश्यक होती है। हिंदी साहित्य में जब ये आंदोलन शुरू हुए, इनमें भी यह उदारता और सहिष्णुता थी। इसीलिए बहुत-से पुरुष और गैर-दलित लेखकों ने भी इनका समर्थन किया। (खास तौर से प्रगतिशील-जनवादी आंदोलन से जुड़े लेखकों ने, जिनकी सहानुभूति पहले से ही इनके साथ थी।) लेकिन ज्यों ही इनका आंदोलनकारी रूप विमर्शवाद में बदला, इनमें कट्टरता और असहिष्णुता आती गयी और बढ़ती गयी। स्त्रियों को हर पुरुष पितृसत्ता का प्रतीक और अपना शत्रु दिखायी देने लगा। दलितों के लिए हर गैर-दलित मनुवादी या ब्राह्मणवादी होकर घृणा और विरोध का पात्र हो गया। 

इसके बाद यह बात होने लगी कि स्त्रियाँ ही स्त्री लेखन कर सकती हैं और दलित ही दलित लेखन कर सकते हैं। इसी के आधार पर स्वानुभूति और सहानुभूति का भेद किया जाने लगा। फिर स्वानुभूति के साहित्य को प्रामाणिक और सहानुभूति के साहित्य को अप्रामाणिक कहा जाने लगा। इसके दो दुष्परिणाम हुए। एक: कई पुरुष लेखकों ने स्त्रियों के बारे में और कई गैर-दलित लेखकों ने दलितों के बारे में लिखना बंद कर दिया। दो: स्त्री और दलित लेखकों ने अपने-अपने विमर्शों तक ही अपने लेखन को (अपनी यथार्थ-दृष्टि और रचना-दृष्टि को भी) सीमित कर लिया और तेजी से बदलते भूमंडलीय यथार्थ को जान-बूझकर अनदेखा करते हुए या तो अमूर्त पितृसत्तावाद और ब्राह्मणवाद को कोसते रहे, या स्त्रीवाद को देहवाद और दलितवाद को जातिवाद में बदलकर यथार्थवाद से और भी दूर होते गये। 

इससे हमारे साहित्य को भारी नुकसान हुआ है। उसमें सामाजिक अन्याय, भेदभाव, शोषण, दमन और उत्पीड़न के विरुद्ध उठने वाली सामूहिक आवाजें उठनी बंद हो गयी हैं। विरोध और प्रतिरोध के स्वर क्षीण हो गये हैं। साहित्यिक समाज, जो पहले ही काफी बँटा हुआ था, अब और ज्यादा बँट गया है। साहित्यिक बिरादरी बिखर गयी है। लेखक संगठनों की हालत खराब है और साहित्यिक आंदोलन तो कोई रह ही नहीं गया है। 

काली कविता के कारनामेइस विमर्शवाद का प्रत्याख्यान करने वाली कहानी है। इसे चालू फैशन के अनुसार बड़े आराम से स्त्री विमर्श की कहानी बनाया जा सकता था। लेकिन कहानी पढ़ते हुए कदम- कदम पर पता चलता है कि कहानीकार विमर्शवाद और उससे जुड़े अनुभववाद की संकीर्णताओं से स्वयं को सचेत रूप से बचाते हुए कहानी को यथार्थवादी बनाये रखने के लिए प्रयत्नशील है। 

यह कहानी एक पुरुष लेखक द्वारा एक स्त्री चरित्र को केंद्र में रखकर लिखी गयी है और इस बात की परवाह किये बिना लिखी गयी है कि इसे स्वानुभूतिकी नहीं, बल्कि सहानुभूतिकी कहानी माना जायेगा और स्त्री विमर्श वाली कहानियों में या तो गिना ही नहीं जायेगा (जैसा कि आजकल हिंदी की कहानी-समीक्षा में हो रहा है कि पुरुषों द्वारा स्त्री चरित्रों पर लिखी गयी कई अच्छी कहानियाँ इसी कारण अचर्चित रह जाती हैं) या ‘‘लेखक के जिये-भोगे यथार्थ’’ पर आधारित न होने के कारण इसे ‘‘प्रामाणिक’’ नहीं माना जायेगा। 

लेकिन कहानीकार की कोशिश है कि इस कहानी को स्त्री विमर्श की कहानी न माना जाये और इसे स्वानुभूति-सहानुभूति वाली निरर्थक बहस से बाहर ही रखा जाये। कारण यह कि यह कहानी स्त्री विमर्श वाली ज्यादातर कहानियों की तरह न तो पुरुष (या पितृसत्ता) द्वारा स्त्री के दमन और उत्पीड़न की कहानी है और न स्त्री-स्वातंत्रय का ऐसा उद्घोष करने वाली कहानी कि ‘‘मेरी देह मेरी है, मैं इसका जो चाहूँ कर सकती हूँ’’ या ‘‘मुझमें भी पुरुषों जैसी बुद्धि और शक्ति है, जिससे मैं पुरुषों को नीचा दिखा सकती हूँ, उन्हें अपनी उँगलियों पर नचा सकती हूँ, या प्रतिद्वंद्विता में पछाड़ सकती हूँ’’! 

तीन : आज की यथार्थवादी कहानी यथार्थ को बदलकर बेहतर बनाने का प्रयास करती है। वह कभी निरुद्देश्य अथवा निष्प्रयोजन नहीं होती। इस कारण वह कलावाद, आधुनिकतावाद, उत्तर-आधुनिकतावाद आदि तमाम यथार्थवाद-विरोधी साहित्य- सिद्धांतों को ठेंगा दिखाते हुए स्वयं को सोद्देश्य बनाये रखती है। 

काली कविता के कारनामेडंके की चोट पर एक सोद्देश्य कहानी है। यह एक ऐसी लड़की की कहानी है, जिसकी त्वचा का रंग साँवला है, लेकिन दिल का रंग उजला। उसे काली कविताकहा जाता है, जिससे वह आहत होती है, अपमानित अनुभव करती है, लेकिन समझ लेती है कि त्वचा का रंग नहीं बदला जा सकता। लड़की होने के नाते जिन अनुभवों से लड़कियों को गुजरना होता है, वह भी गुजरी हैµ‘‘उसके एक चाचा, एक फेरी वाले और दुनिया के सभी मर्दों ने उसमें एक अश्लील कहानी की संभावना कभी न कभी जरूर देखी थी।’’ हालाँकि वह अपने कारनामोंसे अपने साथ होने वाली अश्लील हरकतों से खुद को बचा लेती है, लेकिन उन अनुभवों के आधार पर वह न तो पुरुष-विरोधी संघर्ष छेड़कर उसमें पुरुष पर स्त्री की विजय की आशा करती है, न यह सोचकर हताश होती है कि जब तक पुरुषों की मानसिकता नहीं बदलेगी, तब तक स्त्रियों की मुक्ति नहीं होगी। वह समझ लेती है कि जैसे वह अपनी त्वचा का रंग नहीं बदल सकती, वैसे ही पुरुषों की मानसिकता को नहीं बदल सकती। 

वह दुनिया को बदलना चाहती है। बचपन में उसे कॉमिक्स पढ़ने और माँ से कहानियाँ सुनने का जुनून था। ‘‘उसे सारे हीरोज की कॉमिक्स पढ़ते हुए लगता था कि कोई लड़की क्यों नहीं ध्रुव या नागराज जैसी सुपर हीरोइन होती। यह सवाल उसे और उकसाता और वह खुद सुपर हीरोइन होने के बारे में कल्पनाएँ करने लगती। उसकी माँ ने उसका बचपन कहानियाँ सुनाते हुए बिताया था, जिनमें झाँसी की रानी और जीजाबाई जैसे ऐतिहासिक पात्रों से लेकर सीता और दुर्गा जैसे पौराणिक पात्र शामिल थे, लेकिन कविता की पसंदीदा कहानी पारस पत्थर वाली थी। इस कहानी में समाज में उपेक्षित एक अपाहिज लड़के को एक पारस पत्थर मिल जाता है, जिसे किसी भी लोहे से छुआ देने पर वह सोना बन जाता है। वह लड़का इस पत्थर की मदद से अपने पूरे गाँव की मदद करता है और फिर पूरी दुनिया की मदद करता हुआ हर तरफ से गरीबी, भूख और लाचारी को मिटाकर इस दुनिया को खूब सुंदर बना देता है।’’ 

एक गाँव से लेकर पूरी दुनिया तक के बदलाव की बात इस कहानी में एक अपाहिज लड़के की कहानी के जरिये कही गयी है। कहाँ एक अपाहिज लड़का और कहाँ पूरी दुनिया को बदलने का काम! ऐसा कहानियों में ही हो सकता है और लोहे को सोना बना देने वाला पारस पत्थर भी कोई वास्तविकता नहीं, एक मिथक या कल्पना ही है। लेकिन लड़की का यह सोचना कि ‘‘वह जरूर उस पत्थर को खोजेगी, जिससे एक ही बार में दुनिया की समस्याएँ खत्म हो जायें’’ महज एक कल्पना, सपना या निरी बच्चों वाली बात नहीं है--‘‘ऐसा वह बड़ी होने के बाद भी सोचती रही, भले कभी-कभी उसे अपनी सोच पर हँसी आती थी, लेकिन वह मन में हमेशा मानती थी कि किसी भी चीज से हार नहीं माननी चाहिए।’’ 

कहानीकार आज के भूमंडलीय यथार्थ में जीने और रचने वाला कहानीकार है और जानता है कि एक गाँव से लेकर पूरी दुनिया तक का यथार्थ एक ही है, इसलिए एक गाँव को सुंदर बनाने का काम हो या पूरी दुनिया को सुंदर बनाने का काम, इसके लिए जरूरी है ‘‘हर तरफ से गरीबी, भूख और लाचारी को मिटाना’’। अर्थात् गाँव को बदलने के लिए पूरी दुनिया को बदलना पड़ेगा। अथवा पूरी दुनिया को सुंदर बनाने पर ही गाँव को भी सुंदर बनाया जा सकेगा। यह आज का नया यथार्थवाद है। भूमंडलीय यथार्थवाद। 

यथार्थवाद में ‘‘जो है’’ वही यथार्थ नहीं होता, बल्कि ‘‘जो होना चाहिए’’ और ‘‘जो हो सकता है’’, वह भी यथार्थ ही होता है। कहानी में इस यथार्थ के दो आधार हैं। एक: पूरी दुनिया को सुंदर बनाया जाना चाहिए। और दो: पूरी दुनिया को सुंदर बनाया जा सकता है। किसी को लग सकता है कि यह एक कल्पना (कपोल कल्पना), सपना (दिवास्वप्न) या आदर्श (यूटोपिया) है और इसके आधार पर लिखी गयी यह कहानी प्रेमचंद की आदर्शोन्मुख यथार्थवादवाली पुरानी परंपरा की कहानी है। (और हिंदी के आलोचकों ने आदर्शोन्मुख यथार्थवादको कभी खरा यथार्थवाद नहीं माना। उन्होंने प्रेमचंद की कफनकहानी वाले यथार्थवाद को ही खरा यथार्थवाद माना, जिसमें कोई स्वप्न या आदर्श नहीं है।) और उस आदर्श तक पहुँचने वाला पारस पत्थर? वह तो नितांत काल्पनिक है ही! 

विमल चंद्र पांडेय ने प्रेमचंद की परंपरा को अपनाने और आगे बढ़ाने का एक सचेत प्रयास इस कहानी में किया है। (स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के नाम जान-बूझकर घीसू, माधव, सनीचर और सूरदास रखकर उन्होंने पाठकों को भी सचेत कर दिया है कि वे ऐसा कर रहे हैं।) क्या उन्हें नहीं मालूम होगा कि प्रेमचंद के आदर्शोन्मुख यथार्थवाद को हिंदी के कहानी-समीक्षक यथार्थवाद नहीं मानते और इस कहानी में उसे देखकर इसे भी यथार्थवादी कहानी नहीं मानेंगे

लेकिन कहानी बताती है कि उन्हें सब मालूम है। कहानी में वही दिखाया गया है, जो आजकल ‘‘है’’ या ‘‘होता है’’। लेकिन साथ-साथ वह भी दिखाया गया है, जो इसी यथार्थ में ‘‘हो सकता है’’ या ‘‘किया जा सकता है’’। कहानी की काली कविता जो कारनामेकरती है, उनमें से एक भी ऐसा नहीं है, जो असंभव हो। वह ऐसा कुछ चाहती भी नहीं है, जिसे करना या पाना असंभव हो। इस प्रकार कहानीकार शुरू से आखिर तक कहानी को ‘‘यथार्थवादी’’ बनाये रखता है। नितांत काल्पनिक पारस पत्थर भी यहाँ यथार्थ ही है, कोई साहित्यिक या कथात्मक युक्ति (अथवा ‘‘अलंकृति’’) नहीं। वह कोई जादुई यथार्थवादी चीज भी नहीं है। वह यहाँ भूमंडलीय यथार्थ को बदलने के एक तरीके या तरकीब का प्रतीक है। और इतना स्पष्ट कि उसे समझने में पाठक को कोई परेशानी न हो। 

कविता शिक्षिका बनकर गाँव के स्कूल में पढ़ाने जाती है। ‘‘उसकी सहेलियों के साथ-साथ उसकी माँ ने भी बताया कि गाँवों के विद्यालयों में पढ़ाने की कोई अनिवार्यता नहीं होती...(लेकिन) कविता ने कहा कि कोई नहीं पढ़ाता तो न पढ़ाये, वह अपना फर्ज पूरा करेगी।’’ अब ‘‘अपना फर्ज पूरा करना’’ तो कोई आदर्शवाद नहीं है। वह तो एक यथार्थ कर्तव्य है, जो सबको करना ही चाहिए। अलबत्ता अपना फर्ज अच्छे ढंग से पूरा करते-करते उसे वह पारस पत्थर मिल जाता है, जिसको खोजने की बात वह बचपन में ही नहीं, बड़ी होने के बाद भी सोचती थी। अब यह इस देश और दुनिया का दुर्भाग्य है कि यहाँ इंसान को अपना फर्ज भी अच्छे ढंग से पूरा नहीं करने दिया जाता है। उसमें अड़ंगे अटकाये जाते हैं, उसका विरोध किया जाता है। लेकिन कविता शुरू से ही ‘‘मन में हमेशा मानती थी कि किसी चीज से हार नहीं माननी चाहिए’’। 

कहानी उसके इसी संघर्ष की और वांछित पारस पत्थर पा लेने की कहानी है, जो एक गाँव को ही नहीं, पूरी दुनिया को सुंदर बना दे। वह पारस पत्थर क्या है? बराबरी का विचार और गैर-बराबरी तथा उससे जुड़े भेदभाव और अन्याय को दूर करने का उपाय। यह विचार और उपाय उसे बड़े  यथार्थवादी ढंग से सूझता है। 

कविता देखती है कि स्कूल में कई दलित बच्चे हैं, जिन्हें पहले दुत्कारकर भगा दिया जाता था, या सफाई वगैरह के कामों में लगा दिया जाता था। उन्हें दूसरे बच्चों के साथ नहीं बैठने दिया जाता था और पढ़ाया तो जाता ही नहीं था, क्योंकि स्कूल में पढ़ाई होती ही नहीं थी। कविता उनके साथ बराबरी का बरताव करती है, तो चीजें बदलने लगती हैं। बच्चे अच्छी तरह पढ़ने लगते हैं। उनकी योग्यताएँ सामने आने लगती हैं। यही है वह पारस पत्थर, जिससे कविता अपने छात्रों के लोहे को ही नहीं, पूरे स्कूल की व्यवस्था के लोहे को भी सोने में बदलती है। उसके कारनामोंका असर दूसरे अध्यापकों पर भी पड़ता है और अंततः स्कूल के प्रबंधन पर भी।

आरंभ में स्कूल का प्रबंधन कविता के कारनामोंसे खुश होने और स्वयं को सुधारने के बजाय उसे डराने, उससे उसका पारस पत्थर छीन लेने तथा स्कूल से उसे भगा देने के प्रयास करता है, क्योंकि वह शिक्षा की समूची भ्रष्ट व्यवस्था का अंग होने के कारण भ्रष्ट है और कविता जैसे कर्तव्यपरायण शिक्षकों के लिए भयानक भी। लेकिन कविता उस कुप्रबंधन रूपी गिद्ध से डरकर भागती नहीं है। वह उसका सामना करती है और अंततः उस गिद्ध को वहाँ से उड़ जाना पड़ता है। 

कविता का पढ़ाना देखकर स्कूल के अन्य शिक्षकों का रवैया भी बदलता है और स्कूल में पढ़ाई होने लगती है। कहानीकार जानता है कि भ्रष्ट व्यवस्था में अपना काम ईमानदारी से करने वाले लोगों को खतरनाक मानकर या तो भगा दिया जाता है या मार दिया जाता है। कहानी के अंत में वह ऐसी तमाम खतरनाक संभावनाओं को सामने रख देता है :

‘‘देखिए, यह मात्र एक विद्यालय में ईमानदारी से पढ़ाने का मामला है और यह घटना इतनी मामूली है कि इससे कुछ लोगों को खतरा तो महसूस हो रहा है, लेकिन इतना नहीं कि वे कोई बड़ा कदम उठायें। मैंने पहले भी आपसे बताया था कि अगर यह स्टेट हाइवे या आयकर विभाग में ईमानदारी करने का मामला होता, तो कविता को अब तक इतनी धमकियाँ मिली होतीं कि कहानी जरूर किसी रोमांचक मोड़ तक पहुँच जाती। अगर यह नेशनल हाइवे या लोक निर्माण विभाग का मामला होता, तो कविता की अब तक किसी अज्ञात दुर्घटना में मौत हो चुकी होती और पुलिस इसे छानबीन करने के बाद असावधानी से गाड़ी चलाने का मामला बता एकाध लोगों को गिरफ्तार कर केस बंद कर चुकी होती।...मगर मैं फिर से आपसे क्षमाप्रार्थी हूँ कि मैं इस अतिसाधारण पात्रों वाली अतिसाधारण कहानी को कोई ऐसा रोमांचक मोड़ दे सकने में असमर्थ हूँ। बस इतना ही कह सकता हूँ कि कविता अब भी अपने तरीकों पर डटी हुई है।’’ 

कहानीकार जानता है कि कविता का यह प्रयास ‘‘टिटहरी की तरह बालू लाकर समंदर को भरने जैसा है’’, लेकिन वह इस यथार्थ से न तो स्वयं निराश है, न अपने पाठकों को होने देना चाहता है। इसलिए अंत में कहता है कि यदि कविता से उसके इस छोटे-से प्रयास की बात की गयी, तो ‘‘मैं शर्त लगाकर कह सकता हूँ, वह ऐसा जवाब देगी कि आप लाजवाब होकर मुस्कराते हुए लौटेंगे।’’ 

इस प्रकार आज की दुनिया में पसरी हुई पूरी नकारात्मकता के यथार्थ को खुली आँखों देखने और दिखाने के बावजूद कहानीकार पूरी कहानी को सकारात्मक बनाये रखता है। इसे यदि प्रेमचंद की परंपरा का आदर्शोन्मुख यथार्थवाद कहा जाता है, तो ठीक ही है। लेकिन कहानीकार का पूरा प्रयास रहा है कि वह कोई असंभव आदर्श पाठकों के सामने न रखे। वह ठोस यथार्थ पर अपने पाँव टिकाये इतना ही बताता है कि ‘‘यह तो होना ही चाहिए’’ और तमाम विषम परिस्थितियों के बावजूद ‘‘इतना तो किया ही जा सकता है’’। 

चार : आज की यथार्थवादी कहानी कहानीपन और कथा-रस से भरपूर मुकम्मल कहानी होती है। उसमें आज की कोई बड़ी सामाजिक समस्या उठाकर उसका समाधान सुझाते हुए कहानी को पूर्णता प्रदान की जाती है। 

कहानी कलात्मक है या नहीं, इसका निर्णय उसकी भाषा, शिल्प, शैली आदि के आधार पर नहीं हो सकता। इसका निर्णय होता है इस आधार पर कि कहानी पूरी अर्थात् मुकम्मल है या नहीं। आधुनिकतावाद के जमाने से (हिंदी में नयी कहानीके जमाने से) एक निहायत गलत बात सिद्धांत के तौर पर कहानी-समीक्षा में की जाती रही है कि कहानी कभी खत्म नहीं होती, अर्थात् वह अधूरी ही रहती है और अधूरी ही रहनी चाहिए। जैसे बार-बार बोला जाने वाला झूठ लोगों को सच लगने लगता है, वैसे ही यह सिद्धांतभी सर्वमान्य-सा लगता है। लेकिन यह कोई सिद्धांत नहीं है, बल्कि    इस निहायत गलत बात को मानकर कई अच्छे-भले कहानीकार भी अपनी कहानियों को खराब कर लेते हैं। 

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कविता और कहानी का फर्क बताते हुए कहा था कि कविता सुनने वाला कहता है, ‘‘जरा फिर तो कहिए’’, जबकि कहानी सुनने वाला कहता है, ‘‘हाँ, तब क्या हुआ?’’ कविता सुनने वाला कविता सुनने के दौरान ही किन्हीं खास पंक्तियों को सुनकर वाह-वाह कर सकता है और उन्हें फिर से सुनाने का अनुरोध करते हुए उनकी खूबसूरती या कलात्मकता की दाद दे सकता है, लेकिन कहानी सुनने वाला जब तक पूरी कहानी न सुन ले, तब तक न वह संतुष्ट हो सकता है, न उस पर आहया वाहकर सकता है। विद्वान आलोचक आधी-अधूरी कहानियों को कितना ही कलात्मक कहें, कहानी का सामान्य पाठक या श्रोता प्रत्येक देश-काल में मुकम्मल कहानी को ही कलात्मक मानता आया है। और वह मुकम्मल कहानी उसे मानता है, जिसमें उसके जीवन से जुड़ी (अर्थात् अपने समय के व्यापक जन-जीवन से जुड़ी कोई बड़ी) समस्या उठायी गयी हो और उसका समाधान भी किया गया हो। 

लेकिन कलावादी हों या अनुभववादी, आधुनिकतावादी हों या उत्तर-आधुनिकतावादी समीक्षक, वे कहानी की इस विशेषता को उसकी सबसे बड़ी कमी और खामी मानते हैं। हिंदी की कहानी-समीक्षा नयी कहानीके जमाने से ही इस बात पर जोर देती रही है कि सामाजिक समस्याएँ उठाना और उनके समाधान सुझाना कहानी को यथार्थवादी न रहने देकर आदर्शवादी, नैतिकतावादी या राजनीतिक फार्मूलावादी बना देता है। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए कई लेखक यह मानते रहे हैं कि कहानी में सामाजिक समस्याएँ उठाना उनका काम नहीं है। अथवा, लेखक प्रश्न (समस्या) उठा दे, इतना ही पर्याप्त है, उत्तर देना (समाधान सुझाना) लेखक का काम नहीं है। 

इस संदर्भ में महान कहानीकार चेखोव का यह कथन याद रखने लायक है कि ‘‘यदि आप यह नहीं मानते कि सर्जनात्मक लेखन में किसी समस्या को हल करने अथवा किसी उद्देश्य तक पहुँचने का भाव रहता है, तो आप यह मानने को मजबूर होंगे कि कलाकार पहले से कुछ भी सोचे-समझे बिना रचना कर डालता है; कि वह सोच-समझकर और एक इरादे के साथ काम नहीं करता, बल्कि जो उसके जी में आता है, कर डालता है। अतः यदि कोई लेखक मेरे सामने आकर यह शेखी बघारे कि उसने कहानी के प्रयोजन पर पहले से सोच-विचार किये बिना, केवल प्रेरणा के वशीभूत होकर, कहानी लिख डाली है, तो मैं कहूँगा कि यह आदमी पागल है।’’

अर्चना वर्मा द्वारा की गयी काली कविता के कारनामेकी समीक्षा में इस कहानी को बड़ी हिकारत के साथ किस्साया वृत्तांतबताते हुए कहा गया है कि इसे किसी व्याख्या की जरूरत नहीं है। मगर व्याख्या के लिए इस कहानी में बहुत कुछ है। मसलन, इसमें हमारे समय की कौन-सी बड़ी समस्या उठायी गयी है? और, उसका क्या समाधान किया गया है? इन प्रश्नों के उत्तर खोजने चलें, तो इस कहानी में गजब की ‘‘तहदारी’’ दिखायी पड़ेगी और समीक्षक को ‘‘परत-दर-परत गहराई में उतरते जाने’’ के लिए काफी मौका मिलेगा। 

इस कहानी में कविता का स्त्री होना, उसकी त्वचा का रंग साँवला होना, उसका गाँव के स्कूल में अध्यापिका होना और स्कूल के प्रबंधन अथवा देश की शिक्षा व्यवस्था से संघर्ष करना आदि कहानी के महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं। लेकिन इनमें से कोई एक अथवा ये सब मिलाकर भी कहानी की मुख्य समस्या नहीं हैं। मुख्य समस्या है: हर तरफ से गरीबी, भूख और लाचारी को मिटाकर इस दुनिया को सुंदर कैसे बनाया जाये? इस समस्या का समाधान भी कहानी में सुझाया गया है। मगर सीधे-सपाट ढंग से नहीं, बल्कि पूरी कहानी में कलात्मक ढंग से गूँथकर। 

कहानी को एक मुकम्मल कहानी के रूप में सामने रखकर गंभीरता से पढ़े बिना कोई यह सतही निष्कर्ष निकाल सकता है कि गरीबी, भूख और लाचारी का कारण है बच्चों को अच्छी शिक्षा का न मिलना और अच्छी शिक्षा ही वह उपाय (पारस पत्थर) है, जिससे यह समस्या हल की जा सकती है; लेकिन इसके लिए जरूरी है कि प्रत्येक शिक्षक काली कविता की तरह मेहनत और ईमानदारी से पढ़ाने वाला आदर्श शिक्षक हो। मगर कुल कहानी इतनी ही होती, तो इसे गाँव के स्कूल से ही शुरू करके वहीं पर खत्म किया जा सकता था। स्कूल में जो कारनामेकविता ने किये, वे ही पर्याप्त होते और शहर में जो कारनामेउसने किये, वे कहानी में फालतू या गैर-जरूरी लगते। मगर कहानी इस सतही निष्कर्ष को गलत साबित करती है। 

कहानी ‘‘हर तरफ से गरीबी, भूख और लाचारी को मिटाकर इस दुनिया को सुंदर बनाने’’ की समस्या उठाती है और बताती है कि इसके लिए दुनिया से हर तरह की गैर-बराबरी और उससे जुड़े भेदभाव तथा अन्याय को समाप्त किया जाना चाहिए। प्रश्न उठता है: कैसे? उपाय क्या है? कहानीकार का उत्तर है: भूमंडलीय स्तर के किसी बड़े बदलाव की उम्मीद में हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने के बजाय स्थानीय और व्यक्तिगत स्तर पर, चाहे छोटे पैमाने के ही सही, मगर बुनियादी बदलाव शुरू करके। (हाँ, इस पर बहस हो सकती है कि यह  उपाय सही है या गलत, अथवा क्या इससे बेहतर दूसरे उपाय नहीं हो सकते। विभिन्न लेखक विभिन्न प्रकार के उपाय सोच और सुझा सकते हैं और उनके आधार पर इसी समस्या पर विभिन्न प्रकार की कहानियाँ लिख सकते हैं।) 

विमल की कहानी में दो उपाय सुझाये गये हैं और उनसे होने वाले बदलावों को दिखाने के लिए दलित और स्त्री पात्रों को चुना गया है, जिनके साथ गैर-बराबरी के आधार पर भेदभाव और अन्याय किया जाता है। मगर ये उपाय विमर्शवादी ढंग से नहीं, आंदोलनकारी ढंग से, और ‘‘वृत्तांत शैली की पत्रकारिता’’ वाले ढंग से नहीं, बल्कि एक मुकम्मल कहानी कहने के कलात्मक ढंग से सुझाये गये हैं।  

तमाम दलित चिंतकों का कहना है  कि दलितों की मुक्ति शिक्षा से ही हो सकती है। मगर उसके लिए जरूरी है कि शिक्षा संस्थाओं में दलित छात्रों के साथ किये जाने वाले भेदभाव और अन्याय को दूर किया जाये। इस कहानी में यही दिखाया गया है कि इस भेदभाव और अन्याय का यथार्थ क्या है और उस यथार्थ को कैसे बदला जा सकता है। 

इसी तरह तमाम स्त्री चिंतकों का कहना है कि स्त्रियों की मुक्ति परिवार में स्त्रियों की स्थिति को बदलने से ही हो सकती है। इसके लिए जरूरी है कि घरों में लड़कियों के साथ किये जाने वाले भेदभाव और अन्याय को दूर किया जाये। 

कविता द्वारा शहर में रहते किये गये कारनामोंमें सबसे महत्त्वपूर्ण है घर-परिवार में लड़कों और लड़कियों के लिए समान अधिकारों की माँग। इसके जरिये वह पहले अपनी नानी के घर में और फिर अपने मुहल्ले में लड़कियों को उनके घरों में भाइयों के बराबर के अधिकार दिलाने में सफल होती है। 

कहानीकार यह संकेत करना भी नहीं भूलता कि दलितों की मुक्ति केवल दलितों द्वारा और स्त्रियों की मुक्ति केवल स्त्रियों द्वारा नहीं हो सकती। स्कूल में दलित बच्चों के साथ किये जाने वाले भेदभाव को दूर करने के मामले में तो यह स्पष्ट ही है, घरों में लड़कियों के प्रति होने वाले भेदभाव के मामले में भी यह स्पष्ट है कि इसे भी पुरुषों को साथ लिये बिना दूर नहीं किया जा सकता।

कहानी में यह बात एक मार्मिक प्रसंग के जरिये सामने आती है। कविता अपने ममेरे भाई को प्रेरित करती है और वह उससे प्रभावित होकर अपनी बहन के लिए दूध और फल का इंतजाम करवाता है। कविता को विदा करते समय वह एक डायरी भेंट करता है, जिस पर लिखा है--‘‘जिंदगी के बड़े सबक सिखाने वाली छुटकी-सी बहन के लिए।’’ 

यह कहानी भी छोटी-छोटी बातों के जरिये बड़े-बड़े सबक सिखाती है। मगर नारों या उपदेशों के रूप में नहीं, बल्कि कलात्मक ढंग से लिखी गयी एक सुंदर और सार्थक कहानी के रूप में, जिसमें यथार्थवादी कहानी की उपर्युक्त चारों प्रमुख विशेषताएँ कलात्मक रूप में सुसंयोजित हैं।

पुनश्च :
1. प्रस्तुत लेख में जिसे ‘‘आज की यथार्थवादी कहानी’’ कहा गया है, वह न तो नयी कहानी’, ‘समांतर कहानीया जनवादी कहानीजैसे किसी आंदोलन से जुड़ी कहानी है और न ही वह स्त्रीवादीया दलितवादीजैसी किसी खास पहचान से जुड़ी कहानी। लेख में विमल चंद्र पांडेय को ‘‘पिछले दस-पंद्रह वर्षों में उभरकर सामने आयी नयी पीढ़ी’’ का कहानीकार कहा गया है। लेकिन ‘‘आज की यथार्थवादी कहानी’’ केवल इसी पीढ़ी के लेखकों द्वारा लिखी जा रही कहानी नहीं है। वर्तमान समय में हिंदी कहानी एक नहीं, बल्कि अनेक पीढ़ियों तथा अनेक भिन्न प्रवृत्तियों के लेखकों द्वारा लिखी जा रही है और यथार्थवाद किसी भी लेखक की कहानी में हो सकता है, चाहे वह नयी पीढ़ी का हो या पुरानी पीढ़ी का, स्त्रीवादी हो या दलितवादी, प्रगतिशील हो या जनवादी, इत्यादि। यहाँ तक कि जो लेखक किसी वादमें विश्वास नहीं करता, उसकी कहानी में भी यदि आज का यथार्थ आ रहा है, और उसमें आज की यथार्थवादी कहानी की प्रस्तुत लेख में उल्लिखित चारों विशेषताएँ पायी जाती हैं, तो उसकी कहानी भी यथार्थवादी ही होगी। हाँ, किसी कहानी में कितना और कैसा यथार्थवाद है, यह देखना यथार्थवादी कहानी-समीक्षा का काम है। 

2. आज की कहानी कहीं और जा रही है, तो कहानी-समीक्षा कहीं और। शायद यही देखकर लमहीके कहानी विशेषांक के अतिथि संपादकीय में यह लिखा गया कि ‘‘कहानीकार रचने के लिए स्वतंत्र हैं, तो आलोचक अपना पाठ निर्मित करने के लिए।’’ लेकिन प्रस्तुत लेख के लेखक के विचार से कहानी और कहानी-समीक्षा एक ही गतिविधि (साहित्यिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया) के अंग हैं, जिनमें होड़ तो हो सकती है, अंतर्विरोध भी हो सकते हैं, लेकिन वे एक-दूसरे से पृथक् या स्वतंत्र नहीं हो सकते; क्योंकि दोनों का संबंध यथार्थ से तथा उसमें होने वाले और किये जा सकने वाले परिवर्तनों की प्रक्रिया से है। दोनों में यथार्थ और उसमें होने तथा किये जा सकने वाले परिवर्तनों की प्रक्रिया की समझ भिन्न हो सकती है, लेकिन दोनों का उद्देश्य एक ही है अथवा होना चाहिए: यथार्थ को समग्रता में देखना और उसे बदलकर बेहतर बनाना।  समीक्षा के (अथवा साहित्यशास्त्र, सौंदर्यशास्त्र आदि के) नियमों का पालन करने के लिए कहानी बाध्य नहीं है, बल्कि अक्सर तो वह उन नियमों की सीमाओं को समझते हुए उनका उल्लंघन करके ही अपना विकास करती है; फिर भी वह देश-काल के ऐतिहासिक संदर्भ तथा अपने समय के सामाजिक यथार्थ के अनुशासन में रहकर ही उन नियमों का उल्लंघन करने के लिए स्वतंत्र हो सकती है। यही अनुशासन कहानी-समीक्षा पर भी लागू होता है। समीक्षक कहानीकार का अनुगमन करने के लिए बाध्य नहीं है, वह उसका विरोधी या निंदक भी हो सकता है; यदि कहानीकार गलत दिशा में जा रहा है, तो वह उसे सही रास्ता भी बता सकता है; लेकिन वह यह सब देश-काल के ऐतिहासिक संदर्भ और अपने समय के सामाजिक यथार्थ के आधार पर ही कर सकता है। 

इस प्रकार यथार्थ कहानी और कहानी- समीक्षा दोनों का साझा संदर्भ बिंदु है और दोनों के खरेपन को परखने का निकष भी। इसीलिए मुक्तिबोध ने एक अन्य प्रसंग में कहा था कि रचनाकार और आलोचक में होड़ है कि यथार्थ को कौन अधिक या बेहतर जानता है। लेकिन उनमें होड़ ही नहीं होती, उद्देश्य की एकता के कारण पारस्परिक सहयोग भी होता है, जिससे दोनों का विकास होता है।

--रमेश उपाध्याय

Wednesday, July 31, 2013

प्रेमचंद को हम बार-बार ‘पहली बार’ पढ़ते हैं

प्रेमचंद को मैं लड़कपन से पढ़ता आ रहा हूँ और उनका लगभग सारा साहित्य पढ़ चुका हूँ। फिर भी ऐसा नहीं लगता कि उनको पढ़ना पूरा हो गया है। मैं अब भी उन्हें पढ़ता हूँ, पहले कई बार पढ़ी हुई उनकी रचनाओं को भी फिर-फिर पढ़ता हूँ और उनमें से कुछ को पढ़ते हुए लगता है कि जैसे पहली बार ही पढ़ रहा हूँ।

बात यह है कि पढ़ना पाठक पर ही नहीं, लेखक पर भी निर्भर करता है। किसी लेखक को हम पढ़ना शुरू करते हैं और चंद पंक्तियाँ पढ़कर ही छोड़ देते हैं। किसी की एकाध रचना पूरी पढ़ते हैं और फिर कभी उसकी किसी रचना को हाथ नहीं लगाते। कोई लेखक पहली बार पढ़ने पर बड़ा नया और अच्छा लगता है, लेकिन फिर से पढ़ने पर विस्मय होता है कि हमने इसे क्यों पढ़ा था और क्यों पसंद किया था। महान लेखकों में कुछ लेखक ऐसे होते हैं, जो पहली बार पढ़ने पर समझ में नहीं आते और जिनकी रचनाएँ बार-बार पढ़े जाने पर ही अपनी महानता के रहस्य खोलती हैं। लेकिन कुछ महान लेखक ऐसे भी होते हैं, जो पहली बार पढ़ने पर बड़े साधारण-से लगते हैं, लेकिन जिन्हें फिर से पढ़ने पर हम उनकी असाधारणता देखकर चकित रह जाते हैं और उन्हें बार-बार पढ़ते हैं। प्रेमचंद ऐसे ही महान लेखक हैं।

प्रेमचंद को पहली बार मैंने तब पढ़ा, जब मैं बारह साल का था, मेरा नाम रमेश चंद्र शर्मा था और मैं उत्तर प्रदेश के एटा जिले की तहसील कासगंज के एक हाई स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ता था। यह 1954 के जुलाई के महीने की बात है। गर्मी की छुट्टियों के बाद स्कूल खुल गया था। मेरे लिए नयी किताबें आ गयी थीं। नयी किताबों को पढ़ना मुझे बहुत अच्छा लगता था। उनसे आती गंध, जो पता नहीं, नये कागज की होती थी या उस पर की गयी छपाई में इस्तेमाल हुई सियाही की, या जिल्दसाजी में लगी चीजों की, या बरसात के मौसम में कागज में आयी हल्की-सी सीलन की, मुझे बहुत प्रिय थी। ज्यों ही मेरे लिए नयी किताबें आतीं, मैं सबसे पहले अपनी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक पढ़ डालता, क्योंकि मुझे कहानियाँ पढ़ने का चस्का लग चुका था और हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में कुछ कहानियाँ होती थीं।

एक दिन मैं स्कूल से लौटा और खाना खाकर हिंदी की नयी पाठ्य-पुस्तक लेकर बैठ गया। उसमें एक कहानी थी ‘बड़े भाई साहब’। पुस्तक में अवश्य ही लिखा रहा होगा कि इस कहानी के लेखक प्रेमचंद हैं। लेकिन उस समय मेरी उम्र लेखक का नाम देखकर कहानी पढ़ने की नहीं थी। मैंने तो ‘बड़े भाई साहब’ शीर्षक देखा और पढ़ने लगा। कहानी के शीर्षक ने मुझे शायद इसलिए आकर्षित किया कि मेरे एक नहीं, दो-दो बड़े भाई साहब थे।

मेरे बड़े भैया नरोत्तम दत्त शर्मा वैद्य थे। आयुर्वेदाचार्य। वे माने हुए वैद्य थे और उनका यश दूर-दूर तक फैला हुआ था, क्योंकि वे आयुर्वेदिक दवाओं की एक फार्मेसी भी चलाते थे। वे साहित्यानुरागी थे और राजनीति में भी रुचि रखते थे। अतः वे साहित्यिक पत्रिकाएँ मँगाते थे और उनके दवाखाने में रोगियों के अलावा कवि, लेखक, पत्रकार और नेतानुमा लोग भी बैठे रहते थे। बड़े भैया रोगियों को देखते रहते और साथ-साथ साहित्यिक-राजनीतिक चर्चाओं में भी हिस्सेदारी करते रहते। उन्हें रतौंधी आती थी, जिसके कारण शाम होने के बाद उन्हें कुछ कम दिखायी पड़ता था। इसलिए शाम को दवाखाना बंद करने और उनका हाथ पकड़कर घर ले आने का काम मेरा था। यह काम मुझे बहुत अच्छा लगता था, क्योंकि इस बहाने मैं शाम को खेलने-कूदने निकल जाता, खेलकर दवाखाने पहुँच जाता, वहाँ आने वाली पत्रिकाओं में कहानियाँ पढ़ता और वहाँ बैठे हुए लोगों की बातें और किस्से सुनता। बड़े भैया मुझे बहुत होशियार और होनहार मानते थे, प्यार करते थे और कभी डाँटते नहीं थे।

इसके विपरीत छोटे भैया रामनिवास शर्मा, जो अच्छी तरह पढ़-लिख न पाने के कारण प्राइमरी स्कूल के मास्टर बनकर रह गये थे, बड़े कठोर स्वभाव के, अनुशासनप्रिय और बात-बेबात डाँटने-मारने के आदी थे। वे मेहनत बहुत करते थे--स्कूल में सख्त पाबंदी के साथ पढ़ाकर घर आते, खाना खाते और ट्यूशनें करने निकल जाते। लेकिन कई घरों में जा-जाकर दस-दस, बीस-बीस रुपये माहवार की ट्यूशनें करने के बावजूद वे बड़े भैया के मुकाबले बहुत कम कमा पाते थे, इसलिए खीजे रहते थे। शहर में जितना मान-सम्मान बड़े भैया का था, उनका नहीं था। इस बात ने भी उन्हें कुंठित और क्रोधी बना दिया था। उनका क्रोध प्रायः मुझ पर उतरता था, क्योंकि मैं घर में सबसे छोटा था। बहाना यह होता था कि मैं अपनी पढ़ाई पर कम ध्यान देता हूँ और खेलने-कूदने तथा बड़े भैया के दवाखाने पर जाकर वहाँ आने वाले ‘‘ठलुओं की बकवास’’ सुनने में अपना कीमती समय ज्यादा बर्बाद करता हूँ। छुट्टी वाले दिन वे घर में पड़े-पड़े जासूसी और तिलिस्मी उपन्यास पढ़ा करते थे, जिन्हें चोरी-छिपे मैं भी पढ़ लेता था। छोटे भैया मेरी चोरी पकड़ लेते, तो पिटाई करते और सख्त ताकीद करते कि मैं अपनी पढ़ाई पर ध्यान दूँ।

लेकिन मुझे कहानी पढ़ने का ऐसा चाव था कि अखबार या किसी पत्रिका में ज्यों ही कहानी दिखती, मैं पढ़ डालता। इसीलिए हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में छपी कहानियाँ मैं सबसे पहले पढ़ता। सो उस दिन मैं अपनी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में ‘बड़े भाई साहब’ कहानी पढ़ रहा था। उसमें बड़े भाई साहब के बारे में लिखा था :

‘‘वह स्वभाव से बड़े अध्ययनशील थे। हरदम किताब खोले बैठे रहते और शायद दिमाग को आराम देने के लिए कभी कापी पर, कभी किताब के हाशियों पर चिड़ियों, कुत्तों, बिल्लियों की तस्वीरें बनाया करते थे। कभी-कभी एक ही नाम या शब्द या वाक्य दस-बीस बार लिख डालते। कभी एक शेर को बार-बार सुंदर अक्षरों से नकल करते। कभी ऐसी शब्द-रचना करते, जिसमें न कोई अर्थ होता, न कोई सामंजस्य! मसलन एक बार उनकी कापी पर मैंने यह इबारत देखी--स्पेशल, अमीना, भाइयों-भाइयों, दर-असल, भाई-भाई, राधेश्याम, श्रीयुत राधेश्याम, एक घंटे तक--इसके बाद एक आदमी का चेहरा बना हुआ था।’’

पढ़ते-पढ़ते मुझे इतनी जोर की हँसी छूटी कि रोके न रुके। मेरी दोनों भाभियों ने मेरी हँसी की आवाज सुनकर देखा कि मैं अकेला बैठा हँस रहा हूँ, तो उन्होंने कारण पूछा और मैं बता नहीं पाया। मैंने खुली हुई किताब उनके आगे कर दी और उँगली रखकर बताया कि जिस चीज को पढ़कर मैं हँस रहा हूँ, उसे वे भी पढ़ लें। उन्होंने भी पढ़ा और वे भी हँसीं, हालाँकि मेरी तरह नहीं।

बाद में, न जाने कब, मुझे पता चला कि ‘बड़े भाई साहब’ कहानी प्रेमचंद की लिखी हुई थी। उसके बाद मैं प्रेमचंद की कहानियाँ ढूँढ़-ढूँढ़कर पढ़ने लगा। लेकिन प्रेमचंद की यह कहानी मुझे हमेशा के लिए अपनी एक मनपंसद कहानी के रूप में याद रह गयी। बाद में मैंने इसे कई बार पढ़ा है, पढ़ाया भी है, लेकिन आज भी उन पंक्तियों को पढ़कर मुझे हँसी आ जाती है।

मैं ठीक-ठीक नहीं कह सकता कि यह प्रेमचंद की कहानी ‘बड़े भाई साहब’ का असर था या कुछ और, लेकिन मेरे साथ यह जरूर हुआ कि मैंने अपनी पढ़ाई को कभी उस कहानी के बड़े भाई साहब की तरह गंभीरता से नहीं लिया। हमेशा खेलता-कूदता रहा और अच्छे नंबरों से पास भी होता रहा। हो सकता है, यह उस कहानी का ही असर हो कि बाद में जब मैं लेखक बना, तो हल्का-सा यह अहसास मेरे मन में हमेशा रहा कि रचना पाठक को प्रभावित करती है--वह कभी उसे हँसाती है, कभी रुलाती है, कभी गुस्सा दिलाती है, कभी विपरीत परिस्थितियों से लड़ने का हौसला बँधाती है और लड़ाई में जीतने की उम्मीद भी जगाती है।

लोग मुझे प्रेमचंद की परंपरा का लेखक कहते हैं। लेकिन मेरे विचार से प्रेमचंद की परंपरा में होने का मतलब प्रेमचंद की नकल करना नहीं है। मेरे लिए प्रेमचंद की परंपरा में होने का अर्थ है मनुष्य होना और मानवता के पक्ष में खड़े होना, जनोन्मुख होना और जनतांत्रिक मूल्यों वाला लेखन करना, न्यायप्रिय होना और अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाना, प्रगतिशील होना और सामाजिक रूढ़ियों-कुरीतियों का विरोध करना, धर्मनिरपेक्ष होना और सांप्रदायिकता के विरुद्ध समाज को जागरूक बनाना, यथार्थवादी होना और यथार्थवादी लेखन करना...और जाहिर है कि यह सब आप प्रेमचंद की--या दुनिया के किसी भी महान लेखक की--नकल करके नहीं कर सकते। इसके लिए तो आपको अपने समय की समस्याओं से जूझते हुए, अपने समय में संभव समाधानों की तलाश करते हुए, अपने ही ढंग की रचना करनी होगी। तभी आपका लेखन सार्थक और प्रासंगिक हो सकेगा।
लेकिन मैं देखता हूँ कि हिंदी साहित्य में ‘प्रेमचंद की परंपरा’ के कई भिन्न और परस्पर-विरोधी अर्थ लगाये जाते हैं। कोई कहता है कि वह गाँवों और किसानों के बारे में लिखने की परंपरा है, तो कोई कहता है कि वह दीन-हीन लोगों के बारे में लिखने की परंपरा है। कोई कहता है कि वह आदर्शवादी लेखन की परंपरा है, तो कोई कहता है कि वह यथार्थवादी लेखन की परंपरा है। कोई कहता है कि वह कथा-पात्रों का हृदय-परिवर्तन करा देने के नुस्खे की परंपरा है, तो कोई कहता है कि प्रेमचंद की परंपरा उनकी अंतिम समय की कुछ रचनाओं की परंपरा है, न कि उनसे पहले की तमाम रचनाओं की।

1980 में जब प्रेमचंद जन्मशती मनाने के लिए छोटे-बड़े बहुत-से आयोजन हुए, पत्रिकाओं के विशेषांक निकले, प्रेमचंद पर लिखी गयी पुस्तकें प्रकाशित हुईं, तो जहाँ एक तरफ प्रगतिशील-जनवादी लेखकों द्वारा प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाने की बात शुरू हुई, वहीं दूसरी तरफ उसेे सिरे से ही खारिज करने की एक मुहिम चली। यह मुहिम कलावादी खेमे की तरफ से चलायी गयी। उसी के तहत अशोक वाजपेयी के संपादन में मध्यप्रदेश कला परिषद् की पत्रिका ‘पूर्वग्रह’ का एक विशेषांक ‘इधर की कथा’ के नाम से निकला, जिसमें निर्मल वर्मा ने लिखा :

‘‘आज जब कुछ समीक्षक और लेखक प्रेमचंद की परंपरा की बात डंके की चोट के साथ दोहराते हैं--उसे कसौटी मानकर आधुनिक लेखन को प्रगतिशील या प्रतिक्रियावादी घोषित करते हैं--तो मुझे काफी हैरानी होती है। मुझसे ज्यादा हैरानी और क्षोभ शायद प्रेमचंद को होता, यदि वे जीवित होते। वे शायद हँसी में उनसे कहते, ‘भई, आप तो मेरी परंपरा में आते हैं, लेकिन मैं? मैं कौन-सी परंपरा में आता हूँ--‘सेवासदन’ की परंपरा में या ‘कफन’ की परंपरा में?’ और तब हमें अचानक पता चलेगा कि स्वयं प्रेमचंद को ‘प्रेमचंद की परंपरा’ से मुक्त करना जरूरी है...’’

तब मैंने प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’ एक बार फिर से पढ़ी और ‘सारिका’ (फरवरी, 1987) में एक लंबा लेख लिखा, जिसका शीर्षक था ‘‘क्या प्रेमचंद की परंपरा ‘कफन’ से बनती है?’’। इस लेख में मैंने यह बताया कि जिसे हम प्रेमचंद की परंपरा कहते हैं, वह केवल ‘कफन’ की नहीं, बल्कि प्रेमचंद के संपूर्ण साहित्य की परंपरा है।

लेकिन यह देखकर मुझे आश्चर्य हुआ कि अशोक वाजपेयी जैसे कलावादी और निर्मल वर्मा जैसे आधुनिकतावादी ही नहीं, बल्कि नामवर सिंह जैसे प्रगतिवादी भी प्रेमचंद की परंपरा को ‘कफन’ की परंपरा मानते हैं। नामवर सिंह ने ‘आलोचना’ में रवींद्र वर्मा का एक लेख प्रकाशित किया, जो ‘सारिका’ वाले मेरे लेख की प्रतिक्रिया में लिखा गया था। अपने संपादकीय में नामवर सिंह ने ‘कफन’ की मेरी व्याख्या को ‘अजीबोगरीब’ और रवींद्र वर्मा के लेख को ‘सुचिंतित’ बताते हुए अपना पक्ष स्पष्ट किया। तब मैंने एक और लेख लिखा, जिसका शीर्षक था ‘‘ ‘कफन’ के बारे में कुछ और’’। यह लेख ‘कथ्य-रूप’ पत्रिका के जनवरी-मार्च, 1991 के अंक में छपा था। इस लेख में मैंने दो प्रश्न उठाये :

1. क्या ‘कफन’ लिखते समय प्रेमचंद की विचारधारा वाकई बदल गयी थी? अर्थात् क्या यह कहानी ऐसा कोई साक्ष्य प्रस्तुत करती है?

2. यदि नहीं, तो इस कहानी में वह कौन-सी चीज है, जो आधुनिकतावादियों और कलावादियों को इसकी मनचाही व्याख्याएँ करने की और अंतिम समय के प्रेमचंद को अपने पक्ष में खड़ा कर लेने की छूट देती है? अर्थात् क्या समीक्षा के वे प्रतिमान सचमुच इस कहानी पर लागू होते हैं, जिनके आधार पर ये लोग किसी रचना को महत्त्वपूर्ण और कलात्मक सिद्ध किया करते हैं?

इन प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए मैंने प्रेमचंद साहित्य पर एक बार फिर से विचार करने और ‘कफन’ को नये सिरे से समझने का प्रयास किया, तो पता चला कि कई प्रगतिशील और जनवादी लेखक-आलोचक भी इस कहानी की व्याख्या गलत ढंग से करते हैं। यदि कहानी के कथ्य को ठीक तरह से समझा जाये, तो पता चलेगा कि इसमें न तो प्रेमचंद की विचारधारा बदली है, न पक्षधरता, न प्रतिबद्धता, और न इसे उनकी अन्य रचनाओं से काटकर अलग किया जा सकता है।

प्रेमचंद को पहली बार पढ़ने का-सा अनुभव मुझे एक बार फिर उस समय हुआ, जब हिंदी में प्रगतिशील-जनवादी लेखन के नये दौर के संदर्भ में यथार्थवाद पर पुनः एक बहस चली और मैंने प्रेमचंद के ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ को स्पष्ट करते हुए एक लेख लिखा ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की जरूरत’, जो 2001 में ‘कथन’ में छपा  था और जो 2008 में प्रकाशित मेरे साहित्यिक निबंधों के संकलन ‘साहित्य और भूमंडलीय यथार्थ’ में संकलित है। इस लेख में मैंने लिखा :

हिंदी के लेखकों को गर्व होना चाहिए था कि हमारे प्रेमचंद ने साहित्य को ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ दिया। उन्हें प्रेमचंद की इस अद्भुत देन के लिए कृतज्ञ होना चाहिए था और इसे अपनाकर आगे बढ़ाना चाहिए था। लेकिन उन्होंने आदर्शवाद को प्रेमचंद की कमजोरी माना और खुद को खरा यथार्थवादी मानते हुए प्रेमचंद में भी खरा यथार्थवाद खोजा। नतीजा यह हुआ कि उन्हें प्रेमचंद की अंतिम कुछ रचनाओं में ही यथार्थवाद नजर आया। शेष रचनाओं कोे आदर्शवादी मानते हुए या तो उन्होंने खारिज कर दिया, या उनका मूल्य बहुत कम करके आँका। इससे उन्हें या साहित्य को फायदा क्या हुआ, यह तो पता नहीं, पर नुकसान यह जरूर हुआ कि स्वयं को यथार्थवादी समझने वाले लेखक ‘जो है’ उसी का चित्रण करने को यथार्थवाद समझते रहे और ‘जो होना चाहिए’ उसे आदर्शवाद समझकर उसका चित्रण करने से बचते रहे।

इस लेख में मैंने यह भी लिखा कि लेखक के सामने जब कोई आदर्श नहीं होता, तो उसकी समझ में नहीं आता कि वह क्या लिखे और क्यों लिखे। किसी बड़ी प्रेरणा के अभाव में वह या तो लिखना छोड़कर कोई ऐसा काम करने लगता है, जो उसे ज्यादा जरूरी, ज्यादा लाभदायक या ज्यादा संतुष्टि देने वाला लगता है; या वह निरुद्देश्य ढंग का कलावादी अथवा पैसा कमाने के उद्देश्य से लिखने वाला बाजारू लेखक बन जाता है। आदर्शोन्मुख यथार्थवादी लेखक कुछ नैतिक मूल्यों से प्रेरित-परिचालित होने के कारण अपनी रचना में सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय, उचित-अनुचित, आवश्यक-अनावश्यक तथा सुंदर-असुंदर के बीच विवेकपूर्वक फर्क करने में जितना समर्थ होता है, उतना आदर्शरहित निरा यथार्थवादी लेखक कभी नहीं हो सकता। इतना ही नहीं, निरा यथार्थवादी लेखक अपनी रचना को उस पूर्णता तक कभी नहीं पहुँचा सकता, जिससे उसे आत्मसंतोष और पाठक को आनंद मिलता है। कहानी, उपन्यास और नाटक के लेखन पर तो यह बात कुछ ज्यादा ही लागू होती है।

लेकिन हिंदी साहित्य का यह विचित्र विरोधाभास है कि उसमें कथा-रचना जितनी समृद्ध है, कथा-समीक्षा उतनी ही दरिद्र। यही कारण है कि जहाँ कथाकारों ने आदर्शोनमुख यथार्थवाद को अपनी रचनाओं में बड़ी आसानी से अपना लिया और उसके आधार पर प्रभूत मात्रा में उत्कृष्ट कथा-लेखन किया, वहाँ कथा-समीक्षक आदर्शवाद और यथार्थवाद का संबंध ही नहीं समझ पाये। इसी का नतीजा है कि हिंदी की कथा-समीक्षा में यथार्थ और कल्पना, यथार्थ और फैंटेसी, यथार्थ और यूटोपिया आदि के आपसी रिश्तों की कोई स्पष्ट समझ आज तक भी विकसित नहीं हो पायी है।

स्वयं को मार्क्सवादी मानने वाले कई प्रगतिशील-जनवादी कथा-समीक्षक भी प्रेमचंद के आदर्शोन्मुख यथार्थवाद को नहीं समझ पाते। वे ‘अर्ली मार्क्स’ और ‘लेटर मार्क्स’ की तर्ज पर प्रेमचंद की रचनाओं को भी ‘पूर्ववर्ती’ और ‘परवर्ती’ रचनाओं में बाँटकर उन्हें क्रमशः आदर्शवादी और यथार्थवादी बताते हुए प्रेमचंद का विचारधारात्मक विकास दिखाया करते हैं। वे यह नहीं देख पाते कि ऐसा करते हुए वे उन लेखकों-समीक्षकों की-सी बातें करने लगते हैं, जो प्रेमचंद के अंतिम समय की ‘कफन’ जैसी कुछ रचनाओं को ही यथार्थवादी बताते हुए प्रेमचंद के पूरे साहित्य और उनकी यथार्थवादी परंपरा को खारिज किया करते हैं। ऐसे प्रगतिशील-जनवादी कथा-समीक्षकों की तुलना में प्रगतिशील-जनवादी कथाकार यथार्थ और आदर्श के रिश्ते को, प्रेमचंद के आदर्शोन्मुख यथार्थवाद को तथा प्रेमचंद की परंपरा को बहुत बेहतर ढंग से समझते हैं। उदाहरण के लिए, कथाकार इसराइल ने अपने पहले कहानी संग्रह ‘फर्क’ (1978) की भूमिका में लिखा था :

‘‘एक मार्क्सवादी के रूप में मेरे कलाकार ने सीखा है कि सिर्फ वही सच नहीं है, जो सामने है, बल्कि वह भी सच है, जो कहीं दूर अनागत की कोख में जन्म लेने के लिए कसमसा रहा है। उस अनागत सच तक पहुँचने की प्रक्रिया को तीव्र करने के संघर्ष को समर्पित मेरे कलाकार की चेतना अगर तीसरी आँख की तरह अपने पात्रों में उपस्थित नजर आती हो, तो यह मेरी सफलता है।’’

मेरा अपना मानना है कि प्रेमचंद के आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की सही समझ विकसित की जाये, तो उससे हिंदी कथासाहित्य और कथा-समीक्षा दोनों को अपने विकास की सही समझ और दिशा प्राप्त हो सकती है। इतना ही नहीं, यथार्थवाद के नाम पर हमने बेहतर दुनिया के भविष्य-स्वप्न को अपने साहित्य से जो देशनिकाला दे रखा है, उसे उसके सही स्थान पर लाकर हम हिंदी साहित्य के इतिहास को भी एक नये और बेहतर ढंग से लिख सकते हैं।

इसीलिए मैं प्रेमचंद के आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की बात बार-बार करता हूँ। पिछले दिनों ‘आलोचना’ के एक अंक (अक्टूबर-दिसंबर, 2010) में ‘हमारे समय के स्वप्न’ विषय पर आयोजित परिचर्चा में हिस्सेदारी करते हुए मैंने लिखा है कि स्वाधीनता के बाद के हिंदी साहित्य में लगभग दो दशकों तक ‘मोहभंग’ और ‘क्षणवाद’ की विचारधारा हावी रही और वर्तमान व्यवस्था की जगह भविष्य की किसी बेहतर व्यवस्था का स्वप्न देखने वालों को गैर-यथार्थवादी, आदर्शवादी अथवा यूटोपियाई बताकर खारिज किया जाता रहा। इसी के चलते हिंदी साहित्य में यथार्थवाद और आदर्शवाद, दोनों की एक गलत समझ बनायी और प्रचारित की गयी। इस प्रवृत्ति के शिकार समसामयिक लेखक तो हुए ही, पहले के लेखक भी हुए। उदाहरण के लिए, प्रेमचंद के अधिकांश साहित्य को आदर्शवादी बताते हुए उनकी अंतिम समय की कुछ रचनाओं को ही यथार्थवादी माना गया और यह बात सिरे से ही भुला दी गयी कि प्रेमचंद ‘आदर्श’ और ‘यथार्थ’ को परस्पर विरोधी नहीं मानते थे, बल्कि उन्होंने तो ‘नग्न यथार्थवाद’ (प्रकृतवाद) के विरुद्ध ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ की स्थापना की थी!

भूमंडलीय यथार्थवाद की अवधारणा को विकसित करते समय मुझे प्रेमचंद के आदर्शोन्मुख यथार्थवाद को फिर एक बार नये सिरे से समझने की जरूरत महसूस हुई और इस सिलसिले में उनकी कई रचनाएँ पढ़ते समय मुझे लगा कि जैसे मैं उन्हें पहली ही बार पढ़ रहा हूँ।

--रमेश उपाध्याय