Wednesday, May 30, 2012

हिंदी में विज्ञान कथाओं का अभाव : कुछ प्रचलित भ्रमों का निराकरण


हिंदी में विज्ञान लेखन बीसवीं शताब्दी के आरंभ में ही शुरू हो गया था और तब से अब तक बराबर किया जाता रहा है। हिंदी में वैज्ञानिक विषयों पर लिखने वाले कम नहीं हैं। उनमें से कई लेखक समय-समय पर विज्ञान कथाएँ भी लिखते रहे हैं। लेकिन कठिनाई यह है कि हिंदी में विज्ञान कथाओं को साहित्य और उनके लेखकों को साहित्यकार नहीं माना जाता। इसीलिए हिंदी में लिखी गयी विज्ञान कथाएँ चर्चित, प्रतिष्ठित और पुरस्कृत होकर साहित्य और समाज में स्वीकृत नहीं हो पातीं। कहीं से कोई प्रोत्साहन न मिलने पर वे लेखक भी, जो अच्छी विज्ञान कथाएँ लिख सकते हैं, इस तरफ से उदासीन हो जाते हैं। पश्चिमी देशों में विज्ञान और साहित्य निकट आये हैं, लेकिन हमारे यहाँ उनके बीच अलगाव और दूरी की स्थिति बनी हुई है।

अंग्रेजी वैज्ञानिक और साहित्यकार सी.पी. स्नो ने अपनी किताब ‘टू कल्चर्स’ (1959) में विज्ञान और मानविकी के क्षेत्रें में काम करने वाले लोगों के बारे में लिखा था कि ये दोनों मानो दो अलग-अलग दुनियाओं में रहते हैं, जबकि दोनों की दुनिया एक ही है और उस दुनिया को बेहतर बनाने के लिए दोनों को निकट आकर परस्पर संवाद ही नहीं, मिल-जुलकर काम भी करना चाहिए।

सी. पी. स्नो की बात काफी हद तक सही थी, लेकिन अपनी बात पर जोर देने के लिए शायद उन्होंने थोड़ी अतिशयोक्ति कर दी थी। विज्ञान और मानविकी के क्षेत्रों में भिन्नता तो है, पर ऐसा अलगाव शायद ही कभी रहा हो कि दोनों क्षेत्रों के लोग एक-दूसरे से अलग और अप्रभावित अपनी-अपनी दुनियाओं में रहते हों। आधुनिक साहित्य की तो विशेषता ही यह है कि वह उत्तरोत्तर अधिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाता गया है। विज्ञान भी साहित्य के प्रभाव से अछूता नहीं रहा है। यदि साहित्य में उसके प्रभाव से भावुकता कम हुई है, तथ्यपरकता और यथार्थपरकता बढ़ी है, तो विज्ञान में भी मानवीय संवेदना, नैतिकता और सुंदरता पर ध्यान दिया जाने लगा है। उदाहरण के लिए, बर्टोल्ट ब्रेश्ट का नाटक ‘गैलीलियो का जीवन’ साहित्य और विज्ञान की निकटता का सूचक था, तो इस नाटक पर सोवियत संघ के वैज्ञानिकों के बीच जो व्यापक बहस हुई थी, वह विज्ञान और साहित्य की निकटता का प्रमाण थी। (यह बहस सोवियत संघ से 1975 में रूसी से अंग्रेजी में अनूदित होकर आयी पुस्तक ‘साइंस एंड मॉरेलिटी’ में छपी थी।)

इसलिए यह मानकर चलना ठीक नहीं कि विज्ञान और साहित्य में जो अलगाव आज दिखायी देता है, उसे दूर नहीं किया जा सकता। मुझे लगता है कि यह मान्यता कुछ भ्रमों पर आधारित है और वास्तविकता को समझने के लिए उन भ्रमों का निराकरण जरूरी है।

एक बड़ा भ्रम यह है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी एक ही चीज है। बहुत-से लोग यह समझते हैं कि फोन, फ्रिज, टी.वी., कार, कंप्यूटर वगैरह ही विज्ञान है और इन चीजों के साथ जीना ही मानो वैज्ञानिक ढंग से जीना है। साहित्य को अपने ही जिये-भोगे की अभिव्यक्ति मानने वाले लोग इस समझ के आधार पर कहते हैं कि वैज्ञानिक ढंग से जिये बिना विज्ञान कथाएँ नहीं लिखी जा सकतीं। उन्नत देशों की प्रौद्योगिकी इतनी आगे बढ़ गयी है कि वहाँ का लेखक उसके साथ जीते हुए उसके बारे में आसानी से लिख सकता है, पर हम तो इस दृष्टि से बहुत गरीब और पिछड़े हुए हैं। हम कैसे वैज्ञानिक ढंग का ऐसा जीवन जी सकते हैं कि उसके अनुभवों से विज्ञान कथाएँ लिख सकें? लेकिन यह एक भ्रम ही है। अभी तक किसी विज्ञान लेखक ने अंतरिक्ष यात्रा नहीं की, जबकि अंतरिक्ष यात्रा संबंधी विज्ञान कथाएँ अंतरिक्ष यानों के आविष्कार के पहले से लिखी जा रही हैं। दूसरी तरफ तमाम ‘आधुनिक’ और ‘वैज्ञानिक’ चीजों के साथ जीते हुए भी हमारा जीवन, चिंतन, लेखन और आचरण नितांत अवैज्ञानिक या विज्ञान-विरोधी हो सकता है। इसके उदाहरण हमारे ही देश में नहीं, प्रौद्योगिकी में बहुत आगे बढ़े हुए देशों में भी खूब मिल सकते हैं।

दूसरा बहुत बड़ा भ्रम यह है कि विज्ञान कथाएँ ‘साहित्य’ नहीं, ‘विज्ञान’ हैं, इसलिए उनको लिखना वैज्ञानिकों का या विज्ञान के क्षेत्र से संबंधित लोगों का काम है। यह भ्रम साहित्य के उन आलोचकों में ही नहीं पाया जाता, जो विज्ञान कथाओं को साहित्य में शुमार नहीं करते; बल्कि उन लेखकों में भी पाया जाता है, जो विज्ञान कथाओं के लेखन को ‘साहित्यिक’ लेखन से भिन्न और भिन्न प्रकार के लेखकों द्वारा किया जाने वाला कार्य समझते हैं। इस भ्रम से मुक्त होने के लिए जहाँ एक तरफ यह जरूरी है कि हम विज्ञान और प्रौद्योगिकी में फर्क करेंµयानी प्रौद्योगिकी को ही विज्ञान समझ लेने की भूल न करेंµवहीं दूसरी तरफ इस तथ्य को अच्छी तरह हृदयंगम कर लेना भी जरूरी है कि विज्ञान का संबंध वैज्ञानिकों या विज्ञान पढ़ने-पढ़ाने वालों से ही नहीं, बल्कि प्रत्येक मनुष्य से है। उदाहरण के लिए, कलम से कागज पर कहानी लिखने वाला लेखक यदि कंप्यूटर पर लिखने लगे, तो इसी बात से वह विज्ञान कथा लिखने में समर्थ नहीं हो जायेगा और विज्ञान की विधिवत शिक्षा पाये बिना या स्वयं वैज्ञानिक हुए बिना भी कोई सर्जनात्मक लेखक स्वाध्याय इत्यादि के जरिये विज्ञान से स्वयं को इस तरह जोड़ सकता है कि वह मौलिक वैज्ञानिक चिंतन और लेखन कर सके।

तीसरा और सबसे बड़ा भ्रम, जो बहुत पहले से चला आ रहा है, यह है कि साहित्य ‘कला’ है, ‘शास्त्र’ नहीं। ऐसा मानने वाले लोग साहित्य को कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना या हद से हद नाटक तक ही सीमित समझते हैं और यह मानते हैं कि ‘साहित्य’ दिमाग से नहीं, दिल से लिखी जाने वाली चीज है। उसमें थोड़ी बौद्धिकता तो हो सकती है, थोड़ी-बहुत होनी भी चाहिए, लेकिन उसे पढ़ने-समझने-सराहने के लिए किसी और ‘शास्त्र’ का ज्ञान आवश्यक नहीं होना चाहिए।

विचित्र बात है कि ‘शास्त्र’ और ‘साहित्य’ को अलग और विपरीत मानने की प्रवृत्ति हिंदी साहित्य में दो भिन्न प्रकार के और परस्पर-विरोधी विमर्शों में दिखायी देती है। एक ओर वे लोग हैं, जो साहित्य को ‘‘जन-जन तक पहुँचाने लायक’’ बनाने के लिए ‘‘सरल’’ और ‘‘सबकी समझ में आने वाला’’ बनाने की बात करते हैं। वे साहित्य को ‘लोकप्रिय संगीत’ की तरह लोकप्रिय बनाने की बात करते हैंµफिल्मी गीतों वाले ‘लोकप्रिय संगीत’ की तरह लोकप्रियµजिसके बारे में उनका खयाल शायद यह होता है कि उसे सुनने-समझने-सराहने के लिए न कविता की समझ जरूरी है न संगीत की। अर्थात् जिस तरह हिंदी के फिल्मी गीतों को समझने-सराहने के लिए समाज, दर्शन या विज्ञान के ‘शास्त्रों’ की जानकारी जरूरी नहीं, उसी तरह काव्य और संगीत के ‘शास्त्रों’ की जानकारी जरूरी नहीं है।

दूसरी ओर वे लोग हैं, जो साहित्य को ‘शुद्ध’ रखने के लिए उसे ‘शास्त्रों’ के ‘‘आक्रमण से’’ या उनकी ‘‘शरण में जाने से’’ बचाने की बात करते हैं। उन्हें ‘लोकप्रिय’ अथवा ‘जनता का साहित्य’ नहीं चाहिए और वे साहित्य की ‘सोद्देश्यता’ में विश्वास नहीं करते। इसलिए साहित्य यदि बौद्धिक या अतिबौद्धिक होकर चंद लोगों के पढ़ने-समझने-सराहने की ही चीज बनकर रह जाये, तो भी उन्हें कोई परवाह नहीं। लेकिन ‘शास्त्रों’ से साहित्य को बचाना उन्हें भी जरूरी लगता है।

इस प्रकार हिंदी साहित्य में दो परस्पर-विरोधी विमर्श प्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष रूप से विज्ञान कथाओं के लेखन को हिंदी साहित्य से बाहर ही रखना चाहते हैं। इनमें उस ‘यथार्थवादी’ विमर्श को भी जोड़ लिया जाये, जो कथासाहित्य में फैंटेसी या कल्पना को अच्छा नहीं समझता, तो विज्ञान कथाओं को हिंदी साहित्य में न आने देने के लिए एक मुकम्मल नाकाबंदी हो जाती है, क्योंकि फैंटेसी या कल्पना के बिना तो विज्ञान कथाएँ लिखी ही नहीं जा सकतीं।

अतः यदि हम हिंदी में विज्ञान कथाओं की कमी को वाकई दूर करना चाहते हैं, तो हमें हिंदी साहित्य के चालू विमर्शों से थोड़ा अलग हटकर सोचना होगा और कुछ नये प्रश्न उठाने होंगे। उदाहरण के लिए, यह प्रश्न कि क्या ‘लोकप्रिय’ अथवा ‘जनता का साहित्य’ दिमाग से नहीं, दिल से लिखा जाता है और ‘शास्त्र’ के स्पर्श से वह ‘‘सबकी समझ में आने लायक’’ नहीं रह जाता? विज्ञान कथाओं की भारी लोकप्रियता से तो इस प्रश्न का उत्तर मिलता ही है, फिल्मी गीतों या ‘लोकप्रिय संगीत’ की रचना करने वालों के अनुभवों से भी इस प्रश्न का उत्तर मिल सकता है। जो फिल्मी गीत वास्तव में लोकप्रिय होते हैंµअर्थात् चार दिन चलकर बेकार नहीं हो जाते, बल्कि जिन्हें हम बार-बार सुनना चाहते हैं और पीढ़ी-दर-पीढ़ी पसंद करते जाते हैंµउन पर गंभीरता से विचार करें, तो स्पष्ट होगा कि उनमें जो ‘अच्छा काव्य’ और ‘अच्छा संगीत’ है, वह काव्यशास्त्र और संगीतशास्त्र के ज्ञान के बिना संभव नहीं था। इतना ही नहीं, उन गीतों की रचना सिर्फ दिल से नहीं हुई थी, बल्कि उनमें काफी दिमाग भी लगा थाµऔर किसी एक का नहीं, बल्कि बहुत-से लोगों का दिमाग लगा था, जिनमें सब ‘कलाकार’ ही नहीं, कई ‘टेक्नीशियन’ भी थे।

इतना ही नहीं, उन संगीत रचनाओं की लोकप्रियता का रहस्य उनके श्रोताओं का काव्य या संगीत के शास्त्र-ज्ञान से शून्य होने में नहीं, बल्कि उनमें उस ज्ञान के होने में है। यह समझना भारी भूल है कि जनता या साधारण लोग, जिनमें अशिक्षित और शास्त्र-ज्ञान से वंचित लोग भी शामिल हैं, काव्य और संगीत के ज्ञान से शून्य होते हैं। परंपरा और निजी अनुभव से उन्हें यह विवेक प्राप्त होता है कि वे एक अच्छे फिल्मी गीत और एक बुरे फिल्मी गीत में फर्क कर सकें। हो सकता है, वे यह न बता सकें कि अमुक गीत में जो कविता है, उसमें काव्यशास्त्र के अनुसार कौन-से गुण या दोष हैं, लेकिन वे यह बता सकते हैं कि एक गीत के बोल दूसरे गीत से बेहतर हैं या बदतर। इसी तरह, हो सकता है, वे किसी राग का नाम न बता सकें, लेकिन वे यह अवश्य बता सकते हैं कि उस राग पर बना एक फिल्मी गीत उसी राग पर बने दूसरे फिल्मी गीत से बेहतर है या बदतर।

ठीक यही बात विज्ञान कथाओं के पाठकों पर लागू होती है। उन्हें मूर्ख या अज्ञानी समझकर उनके लिए ‘सरल’ या ‘सुबोध’ किस्म की विज्ञान कथाएँ लिखना दरअसल साहित्य को विकृत करना और पाठकों की समझ का अपमान करना है। बच्चों और नवसाक्षरों के लिए हिंदी में जो सरल-सुबोध किस्म की चीजें लिखी जाती हैं, वे प्रायः बहुत घटिया होती हैं। वे साहित्यिक दृष्टि से ही नहीं, पाठकों की दृष्टि में भी कूड़ा ही होती हैं। दूसरी तरफ दुनिया की उत्कृष्ट और लोकप्रिय विज्ञान कथाओं के उदाहरण से इस बात को अच्छी तरह समझा जा सकता है कि वे अपने पाठकों को मूर्ख या ज्ञानशून्य मानकर नहीं, बल्कि बुद्धिमान और ज्ञानवान मानकर लिखी जाती हैं। और यह बात केवल विज्ञान कथाओं के बारे में नहीं, बल्कि सभी प्रकार के साहित्य के बारे में सच है। अच्छी रचना हमेशा अपने पाठक, श्रोता या दर्शक को प्रबुद्ध मानकर चलती है और उसे मिलने वाला ‘रेस्पांस’ उसके ‘जजमेंट’ को सही साबित करता है।

साहित्य सिर्फ दिल से या सिर्फ दिमाग से कभी नहीं रचा जाता। उसकी रचना हमेशा ही संवेदना और बौद्धिकता के ऐसे अद्भुत मिश्रण से होती है, जिसमें कभी यह पता नहीं चलता कि कौन-से तत्त्व की मात्रा कितनी है। अतः देखना यह चाहिए कि विज्ञान कथाओं के लेखन के लिए संवेदना और बौद्धिकता का वह अद्भुत मिश्रण कैसे संभव है, जो अच्छी साहित्यिक रचना के लिए हमेशा आवश्यक रहा है।

मेरे विचार से हिंदी में अच्छी विज्ञान कथाओं का लिखा जाना तभी संभव है, जब एक वैज्ञानिक विमर्श हमारे जीवन का अभिन्न अंग हो। वैसे ही, जैसे बहुत-से नैतिक और सौंदर्यशास्त्रीय मूल्य हमारे जीवन के अभिन्न अंग होते हैं, चाहे हम उनके प्रति सचेत हों या न हों। लेकिन विमर्श भाषा में होता है, इसलिए भाषा की समस्या पर सबसे पहले ध्यान देना जरूरी है। आखिर क्यों हमारे देश में विज्ञान की उच्चस्तरीय पढ़ाई आजादी के इतने साल बाद भी हिंदी में न होकर अंग्रेजी में होती है? क्यों विज्ञान संबंधी सारा कामकाज अंग्रेजी में ही होता है? और क्यों विज्ञान संबंधी ज्यादातर लेखन अंग्रेजी में ही होता है?

हिंदी में विज्ञान कथाएँ लिखना चाहने वाले लेखक के सामने सबसे बड़ी समस्या भाषा की होती है। जिन चीजों को उसने अंग्रेजी के माध्यम से ही जाना और सोचा-समझा है, उन्हें वह हिंदी के माध्यम से कैसे व्यक्त करे? यदि वह सारी शब्दावली और अभिव्यक्तियाँ अंग्रेजी से लेता है, तो उसे लगता है, इससे तो बेहतर है कि वह सीधे अंग्रेजी में ही लिखे। और यदि वह अंग्रेजी की शब्दावली और अभिव्यक्तियों का शब्दकोश की सहायता से हिंदी में अनुवाद करता है, तो भाषा में वह सहजता नहीं रहती, जो साहित्यिक रचना की अनिवार्य शर्त है।

इस समस्या का समाधान यही है कि हिंदी में विज्ञान कथाओं के लेखन के लिए समाज में ऐसा वातावरण बनाया जाये, जैसा किसी भी विषय से संबंधित सर्जनात्मक लेखन के लिए जरूरी होता है। आजादी से पहले विज्ञान की पढ़ाई तो पूरी तरह अंग्रेजी में होती ही थी, हिंदी भी आज की तरह विकसित और समृद्ध भाषा नहीं थी। उस समय हिंदी में वैज्ञानिक विषयों पर लिखने वालों की और उनके लिखे हुए को प्रकाश में लाने वाले माध्यमों की भी बेहद कमी थी। फिर भी उस समय के लेखक वैज्ञानिक ज्ञान और उसके प्रचार-प्रसार को देश की आजादी और तरक्की के लिए जरूरी समझते थे। इसलिए उन्होंने हिंदी में एक ऐसा वैज्ञानिक विमर्श शुरू किया, जिसने विज्ञान संबंधी चिंतन, लेखन, पत्रकारिता और साहित्य को संभव बनाया। वैज्ञानिक साहित्य लिखने वाले जानते थे कि वे एक बड़े उद्देश्य के लिएµलोगों में वैज्ञानिकता की चेतना जगाने के लिए और उसके जरिये देश की आजादी और जनता की खुशहाली के लिएµलिख रहे हैं। पाठक भी उस साहित्य को इसी बड़े उद्देश्य को ध्यान में रखकर पढ़ते थे और उससे अपने जीवन के लिए उचित और आवश्यक प्रेरणाएँ ग्रहण करते थे।

आजादी के बाद हिंदी में सबसे बड़ी दुर्घटना शायद यही हुई कि साहित्यकारों ने पाठकांे को उचित और आवश्यक दिशाओं में प्रेरित करने के लिए लिखना और पाठकों ने ऐसी प्रेरणाएँ पाने के लिए साहित्य को पढ़ना कम कर दिया। लेखक समझने लगे कि लिखना प्रतिष्ठा, पैसा, पद, पुरस्कार आदि पाने का साधन है, तो पाठक समझने लगे कि पढ़ना मनोरंजन करने या वक्त काटने का साधन। ऐसी स्थिति में आजादी की लड़ाई के दौरान भारतीय साहित्य में जो वैज्ञानिक विमर्श शुरू हुआ था और जिसने हमारे बहुत-से भ्रमों तथा अंधविश्वासों से हमें मुक्त किया था, वह आजादी के बाद लगभग बंद हो गया। नतीजा यह हुआ कि विज्ञान ही नहीं, साहित्य भी जन-जीवन से दूर हो गया और दोनों के बीच आपस में भी एक ऐसा अलगाव पैदा हो गया, जिसने विज्ञान कथाओं की रचना को एक कठिन काम बना दिया।

आजादी के बाद एक और दुर्घटना घटी: हिंदी भाषा और विज्ञान लेखन को प्रोत्साहन देने के प्रयास तो हुए, सरकारी स्तर पर इस काम के लिए पैसा भी खूब बहाया गया, लेकिन वर्चस्व अंग्रेजी का ही बनाये रखा गया। नतीजा यह हुआ कि आजादी के बाद भारतेंदु युग का वह सूत्र कहीं बिला गया कि अपनी भाषा की उन्नति ही सभी प्रकार की उन्नतियों की जड़ होती है। आजादी के बाद उस जड़ को सींचने के बजाय उसमें मट्ठा डालने का काम ज्यादा किया गया। हिंदी वालों को खुश रखने के लिए सरकारी और गैर-सरकारी दोनों स्तरों पर लेखकों को बड़े-बड़े पद और पुरस्कार दिये जाने लगे। उधर विज्ञान के प्रचार-प्रसार के नाम पर भी खूब पैसा बहाया गया। इस काम के लिए सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं ने कुछ काम भी किया, लेकिन जन-जीवन में वह ‘वैज्ञानिक मानसिकता’ पैदा नहीं की जा सकी, जिसकी वकालत हमारे देश के वैज्ञानिकों ने ही नहीं, बल्कि राजनीतिक नेताओं, बुद्धिजीवियों, लेखकों, कलाकारों, पत्रकारों आदि ने भी की थी। हालाँकि हिंदी में विज्ञान संबंधी कुछ पत्रिकाएँ निकलीं, हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं में विज्ञान संबंधी सामग्री प्रकाशित होने लगी और कई विज्ञान लेखक सामने आये, मगर विज्ञान की उच्चतर शिक्षा और शोध का माध्यम अंग्रेजी ही बनी रही। ऐसी स्थिति में कोई वैज्ञानिक विमर्श शुरू नहीं हो सकता था, जो हिंदी में विज्ञान संबंधी मौलिक चिंतन और सर्जनात्मक लेखन को प्रेरित-प्रोत्साहित करता।

दूसरी तरफ आजादी के बाद विज्ञान और प्रौद्योगिकी की शिक्षा पाकर विदेशों में जाकर बस जाना आसान हो गया, तो उच्च-मध्यवर्गीय माता-पिता अपने बच्चों को इसी उद्देश्य से विज्ञान की शिक्षा दिलाने लगे और अपने बच्चों के वहाँ जाकर बस जाने पर गर्व करने लगे। इस प्रकार भारतीय मध्यवर्ग के ऊपरी तबके में अपने देश और अपनी भाषा (वह हिंदी हो या कोई और भारतीय भाषा) के प्रति वह लगाव-जुड़ाव नहीं रह गया, जो आजादी से पहले था।

चूँकि ज्यादातर राजनेता, वैज्ञानिक, साहित्यकार, कलाकार आदि, जो मुखर बुद्धिजीवी होने के कारण समाज को दिशा और गति देते हैं, मध्यवर्ग के इसी तबके से आते हैं, इसलिए जब यह तबका अपने देश और अपनी भाषा की चिंता छोड़कर अपनी चिंता करने लगा, तो एक प्रकार की दिशाहीनता फैली, जो देश की विकास संबंधी नीतियों में आज भी दिखायी पड़ती है। ध्यान से देखें, तो यही वह तबका है, जो भारत में पूँजी के भूमंडलीकरण का सबसे बड़ा समर्थक है। भूमंडलीकरण के विचार ने मानो उसे अपने देश और अपनी भाषा के प्रति महसूस होने वाली रही-सही नैतिक जिम्मेदारी से भी मुक्त कर दिया है। उदाहरण के लिए, उसे जनता को यह बताना चाहिए था कि भारत में जब से आत्मनिर्भरता की नीति को त्यागकर निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियाँ अपनायी गयी हैं, तब से हम प्रौद्योगिकी के मामले में दूसरे देशों पर उत्तरोत्तर अधिक निर्भर होकर इस दिशा में अपनी स्वतंत्रता और स्वायत्तता खोते जा रहे हैं। मगर क्या उसने ऐसा किया?

इस वर्ग के ज्यादातर लोगों के लिए उन्नति, प्रगति, विकास आदि सब चीजें मानो सार्वजनिक से व्यक्तिगत हो गयी हैं। उनके लिए अपनी और अधिक से अधिक अपने बच्चों की चिंता ही सब कुछ हो गयी है, जबकि यह नितांत अवैज्ञानिक विचार है, जो व्यक्ति को समाज, प्रकृति, पर्यावरण और संपूर्ण मनुष्यता का शत्रु बनाते हुए सबसे पहले उसी की मनुष्यता को नष्ट करता है।

भारत के शासक वर्ग का प्रयास रहा है कि हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाएँ समाज में कोई वैज्ञानिक विमर्श चलाने में समर्थ न हो पायें। इसके पीछे कौन-से कारक या कारण हैं, इसकी पूरी जाँच-पड़ताल अभी नहीं हुई है, लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि हिंदी को इस मामले में असमर्थ बनाये रखने की एक कोशिश बराबर की जाती रही है। यह तो हिंदी की अपनी ताकत है कि वह तमाम उपेक्षाओं और अवरोधों-प्रतिरोधों के बावजूद आगे बढ़ी है, समृद्ध हुई है और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान का माध्यम बनने में समर्थ बनी है। हालाँकि स्वयं हिंदी के ही कई लेखक लगातार यह रोना रोते रहते हैं कि हिंदी में कुछ नहीं है और हिंदी का कोई भविष्य नहीं है, फिर भी हिंदी ऐसी घोषणाएँ करने वालों को अँगूठा दिखाती हुई आगे बढ़ रही है और अपना विकास कर रही है। अन्यथा हिंदी में इतने ज्यादा अखबार और उनके नित नये संस्करण कैसे निकल रहे होते? हिंदी में इतनी पत्रिकाएँ क्यों निकल रही होतीं? तमाम तरह के विषयों की इतनी सारी किताबें हिंदी में कैसे छप रही होतीं?

लेकिन हिंदी के बहुत-से लेखक इस वस्तुपरक यथार्थ को अनदेखा करते हुए यही राग अलापते जा रहे हैं कि हिंदी में कुछ नहीं है और कुछ नहीं हो सकता। वे देख रहे हैं कि हिंदी के अखबारों और पत्रिकाओं में तमाम तरह के विषयों पर तमाम तरह का लेखन हो रहा है, लेकिन उन्होंने मानो साहित्य के उसी कुएँ का मेंढक बने रहने का फैसला कर रखा है, जिसमें ‘‘अपने जिये-भोगे यथार्थ’’ के नाम पर लेखक अपने अत्यंत सीमित निजी अनुभवों को लेकर ही सारी उछल-कूद करते रहते हैं। लेकिन वह दिन दूर नहीं, जब हिंदी के पाठक कथासाहित्य के नाम पर लेखकों की आत्मकथाओं या अन्य लेखकों की जीवनियों से संतुष्ट नहीं हो पायेंगे और ऐसे बहुत-से नये लेखक पैदा हो जायेंगे, जो पाठकों को उनकी जरूरत का नया साहित्य उपलब्ध करायेंगे। उस नये साहित्य में विज्ञान कथाएँ भी अवश्य होंगी।

--रमेश उपाध्याय  

Monday, May 21, 2012

नये कहानीकार एक नया आंदोलन चलायें

कथाकार रमेश उपाध्याय से अशोक कुमार पांडेय की बातचीत

अशोक कुमार पांडेय : रमेश जी, आजकल हिंदी की पत्रिकाओं में जिस तरह युवा-आधारित विशेषांकों की लगभग होड़-सी दिखायी देती है, उसकी क्या वजहें हैं और क्या सचमुच उससे कुछ हासिल हो रहा है?

रमेश उपाध्याय : देखिए, अशोक जी, एक वजह तो एकदम प्रत्यक्ष है कि हिंदी साहित्य में लेखकों की एक नयी पीढ़ी आ गयी है। देखते-देखते एक साथ बहुत-से युवा रचनाकार सामने आ गये हैं और उन्हें सामने लाने में हिंदी की उन पत्रिकाओं की बड़ी भूमिका रही है, जिन्होंने युवा पीढ़ी पर केंद्रित विशेषांक निकाले हैं। हालाँकि उन्होंने ये विशेषांक न निकाले होते, तो भी ये रचनाकार देर-सबेर सामने आते ही, फिर भी एक साथ बहुत-से रचनाकारों को एक मंच पर ले आने से पाठकों का ध्यान उनकी तरफ जल्दी जाता है। इसे उन विशेषांकों की एक उपलब्धि कहा जा सकता है।

जहाँ तक युवा पीढ़ी पर केंद्रित विशेषांकों की लगभग होड़-सी दिखायी देने की बात है, मेरे विचार से उसके दो-तीन कारण हैं। एक तो यह कि प्रायः सभी पत्रिकाओं को--विशेष रूप से नियमित रूप से निकलने वाली मासिक पत्रिकाओं को--अपने पृष्ठ भरने के लिए सामग्री चाहिए। ढेर सारी सामग्री चाहिए और निरंतर चाहिए। आज हिंदी में हमेशा से कहीं ज्यादा बड़ी संख्या में पत्रिकाएँ निकल रही हैं। सामग्री प्राप्त करने के लिए उनमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से एक होड़-सी हमेशा लगी रहती है। उनके संपादक लगातार इस कोशिश में रहते हैं कि अधिक से अधिक संख्या में लेखकों की रचनाएँ उन्हें निरंतर प्राप्त होती रहें। इसके लिए वे युवा लेखकों को पकड़ते हैं--अंग्रेजी के मुहावरे ‘कैच दैम यंग’ के अर्थ में भी--क्योंकि उनमें रचनात्मक ऊर्जा ज्यादा होती है और जल्दी से जल्दी प्रकाशित और प्रतिष्ठित हो जाने की ललक भी। इसमें युवा पीढ़ी विशेषांक बहुत सहायक होते हैं, जिनके जरिये एक साथ बहुत-से युवा रचनाकारों को पकड़ा जा सकता है और अपनी पत्रिका से जोड़ा जा सकता है।

दूसरा कारण यह है कि पहले से स्थापित प्रौढ़ लेखकों की रचनाएँ प्राप्त कर पाना कठिन होता है, क्योंकि एक तो वे लिखते कम हैं और दूसरे वे हर किसी पत्रिका में नहीं लिखते। इस कारण उनसे अच्छी रचनाएँ निरंतर प्राप्त करते रहना संपादकों के लिए मुश्किल होता है। पाठक भी प्रौढ़ और प्रसिद्ध लेखकों से अच्छी रचनाओं की अपेक्षा करते हैं और अपेक्षा पूरी न होने पर पत्रिका से कटने लगते हैं। ऐसी स्थिति में संपादकों को युवा पीढ़ी के लेखकों को अधिक से अधिक संख्या में अपनी पत्रिका से जोड़ना जरूरी लगता है। युवा लेखक उत्साहपूर्वक और भरपूर रचनात्मक सहयोग देते हैं, इसलिए एक तो संपादकों को पत्रिका के लिए सामग्री की कमी नहीं रहती और दूसरे, उनकी कच्ची-पक्की रचनाओं को भी यह कहकर छापा जा सकता है कि ये अभी नये हैं, लिखना सीख रहे हैं, इसलिए इनकी रचनाओं में कच्चापन या अधकचरापन होना स्वाभाविक है। पत्रिका के पाठक भी युवा लेखकों की रचनाओं को एक प्रकार का ‘कंसेशन’ देते हुए पढ़ते हैं और उनसे वैसी अपेक्षाएँ नहीं रखते, जैसी प्रौढ़ लेखकों से की जाती हैं। इस प्रकार युवा पीढ़ी विशेषांक निकालने वाले संपादक को एक तरफ अपनी पत्रिका के लिए ढेर सारी रचनाएँ मिल जाती हैं और दूसरी तरफ युवा पीढ़ी को सामने लाने के श्रेय के साथ-साथ उसे स्तरहीन रचनाएँ प्रकाशित करने का ‘लाइसेंस’ भी मिल जाता है।

तीसरा कारण राजनीतिक है। प्रौढ़ और प्रसिद्ध लेखकों की प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कोई न कोई राजनीति होती है। पत्रिकाओं के संपादक उनसे अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने वाली रचनाएँ नहीं लिखवा सकते। इसलिए वे युवा लेखकों को अपनी ओर खींचते हैं और उन्हें अपनी राजनीति या विचारधारा के अनुसार ढालने का प्रयास करते हैं। व्यावसायिक पत्रिकाएँ राजनीति से ऊपर उठकर काम करने का दिखावा करती हैं, लेकिन उनकी भी अपनी कोई न कोई राजनीति अवश्य होती है। उनमें लिखने वाले युवा लेखक जाने-अनजाने उसी राजनीति में ढल जाते हैं। यह अकारण नहीं है कि ‘वागर्थ’ और ‘नया ज्ञानोदय’ के माध्यम से जो युवा कहानीकार सामने आये हैं, वे या तो हर तरह की राजनीति के खिलाफ हैं, या विशेष रूप से वाम राजनीति के खिलाफ। फिर, सफल होने के लिए बाजार की शर्तों पर लिखना अराजनीतिक लगते हुए भी एक प्रकार का राजनीतिक लेखन करना है। कुछ लघु पत्रिकाएँ घोषित रूप से प्रगतिशील या जनवादी पत्रिकाएँ हैं और उनकी राजनीति स्पष्ट है। लेकिन युवा लेखकों को अपनी ओर खींचने के लिए उनके संपादक भी नयी पीढ़ी के लेखकों द्वारा लिखी जा रही प्रगतिशील या जनवादी कहानी के विशेषांक नहीं निकालते, बल्कि ‘युवा पीढ़ी’ की कहानी के विशेषांक ही निकालते हैं। उदाहरण के लिए, ‘प्रगतिशील वसुधा’ के दो खंडों में निकले कहानी विशेषांक को आवरण पर भले ही ‘युवा कहानी विशेषांक’ के बजाय ‘समकालीन कहानी विशेषांक’ कहा गया हो, पर उनमें छपे ज्यादातर लेखक वही थे, जो अन्य पत्रिकाओं के युवा पीढ़ी विशेषांकों में छपे थे। ‘प्रगतिशील वसुधा’ में भी उन्हें युवा कथाकार या युवा पीढ़ी के कहानीकार ही कहा गया। यहाँ तक कि उनके द्वारा लिखी जा रही कहानी को भी ‘युवा कहानी’ कहा गया! संपादक कमला प्रसाद ने लिखा कि ‘‘प्रगतिशील वसुधा के ये दोनों अंक युवा कहानी पर केंद्रित हैं।’’ अर्थात् प्रगतिशील लेखक संघ की पत्रिका के इस विशेषांक में लेखकों या उनकी कहानियों पर प्रगतिशील होने की शर्त नहीं लगायी गयी है!

अशोक कुमार पांडेय : ‘युवा’ को आप कैसे परिभाषित करेंगे?

रमेश उपाध्याय : कई साल पहले, जब मेरी गिनती नयी पीढ़ी के लेखकों में होती थी, मैंने ‘पहल’ में एक लेख लिखा था ‘हिंदी की कहानी समीक्षा: घपलों का इतिहास’। उसमें मैंने हिंदी कहानी को नयी, पुरानी, युवा आदि विशेषणों वाली पीढ़ियों में बाँटकर देखने की प्रवृत्ति का विश्लेषण किया था। इस प्रवृत्ति से दो भ्रांत धारणाएँ पैदा हुई थीं, जो कमोबेश आज तक भी चली आ रही हैं। एक तो यह कि हिंदी कहानी बीसवीं सदी के प्रत्येक दशक में उत्तरोत्तर अपना विकास करती गयी है और दूसरी यह कि कहानीकारों की हर नयी पीढ़ी पूर्ववर्ती पीढ़ियों से बेहतर कहानी लिखती है। आज वही पीढ़ीवादी प्रवृत्ति पुनः प्रबल होती दिखायी पड़ रही है। इसलिए अपने उस लेख की कुछ बातें मैं आपको सुनाना चाहता हूँ। सुनाऊँ?

अशोक कुमार पांडेय : जरूर सुनाइए।

रमेश उपाध्याय : सुनिए, मैंने लिखा था--नयी पीढ़ी के नाम पर किये गये घपले में निहित आत्मप्रचारात्मक व्यावसायिकता की गंध आगे आने वाले लेखकों को भी मिल गयी। उनमें से भी कुछ लोगों ने खुद को जमाने के लिए अपने से पहले वालों को उखाड़ने का वही तरीका अपनाया, जो ‘नयी कहानी’ वाले कुछ लोग आजमा चुके थे। पीढ़ीवाद का यह घटिया खेल आज भी जारी है और उसे कुछ नयी उम्र के लोग ही नहीं, बल्कि कुछ साठे-पाठे भी खेलते देखे जा सकते हैं। बदनाम भी होंगे, तो क्या नाम न होगा!

आगे मैंने लिखा था--यह खेल कितना वाहियात और मूर्खतापूर्ण है, इसका अंदाजा आपको ‘युवा पीढ़ी’ पद से लग सकता है। इसे ‘नयी पीढ़ी’ की तर्ज पर चलाया गया और इसकी कहानी को ‘नयी कहानी’ की तर्ज पर ‘युवा कहानी’ कहा गया। कई पत्रिकाओं के ‘युवा कहानी विशेषांक’ निकले। ‘युवा कहानी’ पर लेख लिखे गये। ‘युवा कथाकार’ जैसे कहानी संकलन निकाले गये। मेरी आदत है कि पत्रिका या संकलन के लिए कोई मेरी कहानी माँगता है, तो मैं आम तौर पर मना नहीं करता। इसलिए आप देखेंगे कि मेरी कहानियाँ साठोत्तरी कहानी, पैंसठोत्तरी कहानी, सातवें दशक की कहानी, सचेतन कहानी, अकहानी, समांतर कहानी, स्वातंत्र्योत्तर कहानी, अमुक-तमुक वर्ष की श्रेष्ठ कहानी, प्रगतिशील कहानी, जनवादी कहानी आदि से संबंधित पत्रिकाओं और संकलनों में छपी हुई हैं। ‘युवा कथाकार’ नामक संकलन में भी मेरी कहानी छपी है। लेकिन मैं कभी नहीं समझ पाया कि ‘युवा कहानी’ क्या होती है। किसी को युवा कहने से उसकी उम्र के अलावा क्या पता चलता है? ‘युवा वर्ग’ कहने से किस वर्ग का बोध होता है? युवक तो शोषक और शोषित दोनों वर्गों में होते हैं। इसी तरह युवकों में सच्चे और झूठे, शरीफ और बदमाश, बुद्धिमान और मूर्ख, शक्तिशाली और दुर्बल, प्रगतिशील और दकियानूस--सभी तरह के लोग हो सकते हैं। तब ‘युवा कहानी’ का क्या मतलब? यह किस वर्ग के युवाओं की कहानी है? यह किस काल से किस काल तक की कहानी है? यह किस उम्र से किस उम्र तक के लेखकों की कहानी है?

और निष्कर्ष के रूप में मैंने लिखा था--कहानी को किसी दशक या पीढ़ी की छतरी के नीचे ले आने से कहानी की किसी प्रवृत्ति का पता नहीं चलता। हिंदी कहानी के दशक उसके विकास के सूचक नहीं हैं। विकास की गति सदा इकसार और कालक्रमानुसार नहीं होती, क्योंकि विकास हमेशा अंतर्विरोधों के बीच होता है। साहित्य में यह अंतर्विरोध दशकों और पीढ़ियों के बीच न होकर सामाजिक यथार्थ के प्रति अपनाये जाने वाले दृष्टिकोणों के बीच और रचना में अपनाये जाने वाले कला-सिद्धांतों के बीच होते हैं।

आपने देखा होगा, पिछले दिनों मैंने अपने ब्लॉग ‘बेहतर दुनिया की तलाश’ पर आज की ‘युवा पीढ़ी’ के कहानीकारों से कहा था कि वे पीढ़ीवाद की निरर्थकता से बचकर सामाजिक यथार्थ के प्रति अपनाये जाने वाले दृष्टिकोणों तथा रचना में अपनाये जाने वाले कला-सिद्धांतों पर सार्थक बहस चलायें।

अशोक कुमार पांडेय : आपके ब्लॉग पर मैंने ‘लेखकों के मुँह में चाँदी का चम्मच’ वाली पोस्ट भी पढ़ी थी, जो ‘नया ज्ञानोदय’ के जून, 2010 के संपादकीय में रवींद्र कालिया के इन शब्दों पर टिप्पणी करती थी कि ‘‘आज की युवा पीढ़ी उन खुशकिस्मत पीढ़ियों में है, जिन्हें मुँह में चाँदी का चम्मच थामे पैदा होने का अवसर मिलता है।’’

रमेश उपाध्याय : हाँ, मैंने उसमें लिखा था कि कालिया द्वारा लिखा गया यह वाक्य एक अंग्रेजी मुहावरे का हिंदी अनुवाद करके बनाया गया है--‘‘बॉर्न विद अ सिल्वर स्पून इन वंस माउथ’’, अर्थात् वह, जो किसी धनाढ्य के यहाँ पैदा हुआ हो। इस पर अंग्रेजी के ही एक और मुहावरे का इस्तेमाल करते हुए कहा जा सकता है कि कालिया के इन शब्दों से ‘‘बिल्ली बस्ते से बाहर आ गयी है’’! मतलब, कालिया कहानीकारों की जिस नयी पीढ़ी को हिंदी साहित्य में ले आने का श्रेय स्वयं ही लेने को आतुर हैं, उसका वर्ग-चरित्र उन्होंने स्वयं ही बता दिया है। वैसे यह कोई रहस्य नहीं था कि सेठों के संस्थान से निकलने वाली पत्रिकाओं से--यानी पहले भारतीय भाषा परिषद् की पत्रिका ‘वागर्थ’ से और फिर भारतीय ज्ञानपीठ की पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ से--पैदा हुई नयी पीढ़ी ही नयी पीढ़ी के रूप में क्यों और कैसे प्रतिष्ठित हुई! अन्यथा उसी समय में ‘परिकथा’ जैसी कई और पत्रिकाएँ ‘नवलेखन’ पर अंक निकालकर जिस नयी पीढ़ी को सामने लायीं, उसके लेखक इतने खुशकिस्मत क्यों न निकले? जाहिर है, वे लघु पत्रिकाएँ थीं, जबकि ‘वागर्थ’ और ‘नया ज्ञानोदय’ तथाकथित बड़ी पत्रिकाएँ! और ‘नया ज्ञानोदय’ तो भारतीय ज्ञानपीठ जैसे बड़े प्रकाशन संस्थान की ही पत्रिका थी, जिसका संपादक उस प्रकाशन संस्थान का निदेशक होने के नाते अपने द्वारा सामने लायी गयी पीढ़ी के मुँह में चाँदी का चम्मच दे सकता था!

अशोक कुमार पांडेय : अच्छा, यह बताइए कि 1980 के दशक के बाद के कालखंड में हिंदी कविता और कहानी, दोनों में किसी आंदोलन का जो अभाव दिखता है, उसके क्या कारण हैं?

रमेश उपाध्याय : इस प्रश्न पर सही ढंग से विचार करने के लिए साहित्यिक आंदोलन और साहित्यिक फैशन में फर्क करना चाहिए। साहित्यिक आंदोलन--जैसे भक्ति आंदोलन या आधुनिक युग में प्रगतिशील और जनवादी आंदोलन--हमेशा अपने समय के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक आंदोलनों से सार्थक और सोद्देश्य रूप में जुड़े होते हैं, जबकि साहित्यिक फैशन ‘कला के लिए कला’ के सिद्धांत पर चलते हैं और अंततः उनका संबंध साहित्य के बाजार और व्यापार से जुड़ता है। आपने 1980 के दशक के बाद के कालखंड की बात की। अर्थात् आप 1991 से 2010 तक के बीस वर्षों में हिंदी साहित्य में किसी आंदोलन को अनुपस्थित पाते हैं। तो आप यह देखें कि आजादी के बाद से 1980 के दशक तक हिंदी साहित्य में आंदोलनों की स्थिति क्या रही। आजादी से पहले का हिंदी साहित्य मुख्य रूप से दो बड़े आंदोलनों से जुड़ा हुआ था--एक राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन से और दूसरे प्रगतिशील-जनवादी आंदोलन से। और यह दोनों ही प्रकार का साहित्य अपने-अपने ढंग से सार्थक और सोद्देश्य साहित्य था। लेकिन आजादी के बाद जो साहित्यिक आंदोलन चले, वे आंदोलन कम और साहित्य के नये फैशन ज्यादा थे।

अशोक कुमार पांडेय : इस बात को जरा स्पष्ट करें।

रमेश उपाध्याय : देखिए, आजादी के तुरंत बाद हिंदी में ‘नयी कविता’ और ‘नयी कहानी’ के जो आंदोलन चले, उनमें आपको दो तरह का लेखन दिखता है, जिसे मोटे तौर पर आप कलावादी और जनवादी कह सकते हैं। उनमें से एक का उद्देश्य साहित्य में कुछ नयापन लाना है, तो दूसरे का उद्देश्य साहित्य के जरिये एक नया समाज बनाना है। यह बात मैं ‘एब्सोल्यूट टर्म्स’ में नहीं, सापेक्ष ढंग से कह रहा हूँ, क्योंकि साहित्य में, और जीवन में भी, बहुत स्पष्ट विभाजन नहीं हुआ करते। एक प्रवृत्ति में दूसरी प्रवृत्ति घुली-मिली रहती है। देखना यह चाहिए कि उनमें मुख्य प्रवृत्ति कौन-सी है। ‘नयी कविता’ और ‘नयी कहानी’ दोनों में आपको प्रगतिशील और जनवादी लेखक दिखायी पड़ते हैं। लेकिन प्रमुखता है आधुनिकतावादी, व्यक्तिवादी, कलावादी प्रवृत्ति की। उदाहरण के लिए, ‘नयी कविता’ में मुक्तिबोध भी हैं, लेकिन प्रमुखता प्राप्त है अज्ञेय को। ‘नयी कहानी’ में अमरकांत, मार्कंडेय और शेखर जोशी भी हैं, लेकिन प्रमुखता प्राप्त करते हैं मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव। इसलिए ‘नयी कविता’ और ‘नयी कहानी’ दोनों साहित्य के आंदोलन कम हैं, साहित्य के फैशन ज्यादा हैं। इन दोनों के बाद हिंदी में जो साहित्यिक आंदोलन चले, वे भी मोटे तौर पर फैशनेबल ही थे...

अशोक कुमार पांडेय : 1970-80 के दशकों में फिर से उभरा प्रगतिशील-जनवादी आंदोलन भी?

रमेश उपाध्याय : जी हाँ, काफी हद तक वह भी। आप देखिए कि ‘नयी कविता’ और ‘नयी कहानी’ के दौर में आधुनिकतावाद एक फैशन की तरह आता है और बहुत-से लेखक एलियट, एजरा पाउंड, हेमिंग्वे आदि की तर्ज पर लेखन में नयापन पैदा करने लगते हैं। फिर ‘अकविता’ और ‘अकहानी’ के दौर में बहुत-से लेखक सार्त्र, कामू, काफ्का और एब्सर्ड थिएटर की तर्ज पर एक नया फैशन चलाते हैं। उसके बाद प्रगतिशील-जनवादी आंदोलन फिर से उभरता है, तो पक्षधरता, प्रतिबद्धता और वर्ग-संघर्ष से दूर रहने वाले कई लेखक भी मार्क्स, लेनिन, माओ आदि की चर्चा करते हुए क्रांतिकारी-सी लगने वाली चीजें लिखने लगते हैं। फैशन की एक खास बात यह होती है कि वह जल्दी-जल्दी बदलता रहता है। इस मामले में भी यही हुआ। मार्क्सवाद का फैशन भी जल्दी ही बदल गया। उसकी जगह दलितवाद आ गया, स्त्रीवाद आ गया, उत्तर-आधुनिकतावाद आ गया, जादुई यथार्थवाद आ गया। एक और बात है। फैशनपरस्त लेखक हमेशा अद्वितीय होना चाहते हैं। इसलिए वे अन्य लेखकों के साथ एकजुट या संगठित होने में अपनी अद्वितीयता की हानि समझते हैं। इसी कारण वे स्वयं कोई आंदोलन चलाने या किसी आंदोलन में शामिल होने में विश्वास नहीं रखते। हाँ, ऐसा हो सकता है कि जब कोई आंदोलन अपने उत्कर्ष पर हो, तो वे उसे भी कोई नया फैशन मानकर उसके साथ चलते नजर आने लगें। मगर उत्कर्ष के समय वे जितनी तेजी के साथ उसमें आते हैं, अपकर्ष के समय उतनी ही तेजी के साथ उससे अलग भी हो जाते हैं। सोवियत संघ का विघटन होने और पूँजीवादी भूमंडलीकरण के शुरू होने के बाद प्रगतिशील-जनवादी आंदोलन का उभार एक प्रकार के उतार में बदल गया, तो उससे अलग हो जाने वाले लेखकों के उदाहरण से इस सत्य को समझा जा सकता है। आंदोलन में आते समय ऐसे कई लेखक स्वयं को सबसे अधिक प्रगतिशील, सबसे अधिक जनवादी, सबसे अधिक क्रांतिकारी जताते थे। लेकिन उससे अलग होते समय उसकी निंदा करने या उसका मजाक उड़ाने में भी वे सबसे आगे दिखायी दिये।

अशोक कुमार पांडेय : क्या इस कालखंड की कहानी को, जिसे युवा पीढ़ी की कहानी कहा जा रहा है, आप कोई नाम देना चाहेंगे?

रमेश उपाध्याय : इस कालखंड में कोई एक प्रवृत्ति नहीं रही, जिसे कोई एक नाम दिये जा सके। विभिन्न प्रवृत्तियाँ रही हैं और उनके अनुसार कहानी के विभिन्न नामकरण भी होते रहे हैं, जैसे जनवादी कहानी, दलितवादी कहानी और स्त्रीवादी कहानी--इन दोनों को दलित विमर्श और स्त्री विमर्श की कहानी कहा जाता है--और फिर उत्तर-आधुनिक कहानी, जादुई यथार्थवाद की कहानी और भूमंडलीय यथार्थवाद की कहानी। ये नाम कितने सही और सार्थक हैं, इस पर बहस हो सकती है। लेकिन ये नाम इस कालखंड की कहानी की विभिन्न प्रवृत्तियों को दरशाते हैं, जबकि ‘युवा कहानी’ कहने से किसी प्रवृत्ति का पता नहीं चलता। इसलिए उम्र के आधार पर कहानीकारों को बाँटना और युवा लेखकों की कहानी को युवा कहानी जैसा नाम देना किसी भी दृष्टि से तर्कसंगत नहीं है। इस कालखंड की कहानी को ‘आज की कहानी’ या ‘समकालीन कहानी’ कहना भी तर्कसंगत नहीं है, क्योंकि उससे पता नहीं चलता कि ‘आज’ की व्याप्ति कब से कब तक है। दूसरे, इस कालखंड में कहानीकारों की एक ही पीढ़ी नहीं, अनेक पीढ़ियाँ एक साथ सक्रिय हैं और कहानी में कोई एक नहीं, बल्कि अनेक प्रवृत्तियाँ मौजूद हैं। उम्र के आधार पर तो आज जो युवा है, उसे कल प्रौढ़ और परसों बूढ़ा होना ही है। तो क्या हम आज के युवा लेखक की कहानी को आज युवा कहानी, कल प्रौढ़ कहानी और परसों बूढ़ी कहानी कहेंगे? फिर, आज के युवाओं में भी सबका लेखन एक जैसा नहीं है। उसमें बड़ी भिन्नताएँ हैं। इसलिए देखा यह जाना चाहिए कि ‘आज की कहानी’ में कौन-कौन-सी प्रवृत्तियाँ पायी जाती हैं और उनमें से मुख्य प्रवृत्ति कौन-सी है, जिसके आधार पर आज की कहानी का नामकरण किया जा सके।

अशोक कुमार पांडेय : आपके विचार से आज की कहानी की मुख्य प्रवृत्ति कौन-सी है?

रमेश उपाध्याय : यदि आप आज की कहानी को सोवियत संघ का विघटन होने और पूँजीवादी भूमंडलीकरण के शुरू होने के बाद की कहानी मानें, तो 1991 से 2010 तक का बीस वर्षों का यह कालखंड देश और दुनिया के यथार्थ में हुए एक जबर्दस्त उलटफेर का समय है। इसमें हमारा आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन ही नहीं बदला है, बल्कि हमारे साहित्य और संस्कृति में भी एक स्पष्ट बदलाव आया है। निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण ने हमारे यथार्थ को ही नहीं बदला है, यथार्थ को देखने की हमारी दृष्टि को भी बदला है। पहले हम लेखक-कलाकार आदि दुनिया के बेहतर भविष्य में विश्वास रखते थे और अपनी रचनाओं से उस भविष्य को बनाने की कोशिश करते थे। अब हममें से ज्यादातर लोग यह मानने लगे हैं कि दुनिया जैसी बन सकती थी, बन चुकी है और आगे इसमें कोई परिवर्तन नहीं होने वाला है। इसलिए भविष्य के बारे में सोचने और उसका निर्माण करने की कोशिश करने के बजाय इस कालखंड के ज्यादातर लेखक वर्तमान में जीते हैं और वर्तमान में उन्हें सिर्फ बाजार दिखता है--एक भूमंडलीय बाजार--जिसमें अपनी जगह बनाना, अपना बाजार बनाना, उस बाजार में टिके रहना और ऊँची कीमत पर बिकना ही उन्हें अपना और अपने लेखन का एकमात्र उद्देश्य दिखता है। दूसरे शब्दों में इस कालखंड के ज्यादातर लेखक वर्तमान व्यवस्था में ही अपनी जगह बनाने और कामयाब होने को ही अपने जीवन और लेखन का उद्देश्य मानने लगे हैं। इस प्रवृत्ति को आप बाजारोन्मुखी कह सकते हैं और आज की मुख्य प्रवृत्ति यही है।

अशोक कुमार पांडेय : मैं जानता हूँ कि आप बाजारवाद के विरोधी हैं, इसलिए आप इस बाजारोन्मुखी प्रवृत्ति के समर्थक नहीं हो सकते। तो आज की कहानी की वह कौन-सी प्रवृत्ति है, जिसे आप सही मानते हैं?
रमेश उपाध्याय: भविष्योन्मुखी प्रवृत्ति। कहानीकार किसी भी पीढ़ी का हो, आज उसमें भविष्योन्मुखी दृष्टि से भूमंडलीय यथार्थ को समझने की और उसे कहानी में प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत करने की क्षमता होनी चाहिए।

अशोक कुमार पांडेय : तो आपकी इन अपेक्षाओं पर युवा पीढ़ी कितनी खरी उतर पा रही है?

रमेश उपाध्याय : मुझे प्रसन्नता है कि आज की हिंदी कहानी में कई लेखक इस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। मैं कहानी पढ़ते समय यह नहीं देखता कि कहानीकार युवा है या प्रौढ़, स्त्री है या पुरुष, दलित है या सवर्ण, हिंदू है या मुसलमान या किसी और धर्म का। जिन्हें कहानीकारों में ऐसे भेद करना जरूरी लगता है, उनकी वे जानें, मैं तो कहानी को देखता हूँ और हर तरह के कहानीकारों की कहानियाँ पढ़ता हूँ। इससे कई बार मुझे बड़ी आश्चर्यजनक उपलब्धियाँ हो जाती हैं। उदाहरण के लिए, एक कहानीकार हैं द्वारकेश नेमा, जिनका पहला कहानी संग्रह उनकी उम्र के इकहत्तरवें वर्ष में छपा है। आज के चट मँगनी पट ब्याह वाले समय में यह वाकई एक अद्भुत और विलक्षण बात है कि एक कहानीकार का पहला कहानी संग्रह इकहत्तर वर्ष की उम्र में छपे और उसकी ग्यारह में से नौ कहानियाँ पैंसठ साल की उम्र के बाद लिखी गयी हों। लेकिन इस बुजुर्ग कहानीकार की कहानियों का-सा नयापन आज के बहुत-से युवा कहानीकारों की कहानियों में भी मिलना मुश्किल है। आपको विश्वास न हो, तो उनका कहानी संग्रह ‘हीरामन-अमर्त्य सेन और अन्य कहानियाँ’ पढ़कर देख लें। दूसरी तरफ एक नितांत नये लेखक अमित मनोज की ‘परिकथा’ के नवलेखन अंक (सितंबर-अक्टूबर, 2008) में छपी कहानी ‘चूड़ियाँ’ पढ़ें, तो आप पायेंगे कि नये लेखक भी आज के भूमंडलीय यथार्थ को एक भविष्योन्मुखी दृष्टि से देख रहे हैं और उनकी कहानियों में जो नयापन है, वह उस यथार्थ के व्यापक परिप्रेक्ष्य में कहानी लिखने के कारण आ रहा है।

अशोक कुमार पांडेय : कुछ ऐसे युवा कहानीकार, जिनमें आपको संभावना दिखायी देती है? कुछ ऐसी कहानियाँ, जिनमें वाकई नयी रचनाशीलता दिखायी दी हो?

रमेश उपाध्याय : देखिए, संभावना तो हर लेखक में रहती है और हर लेखक के विषय में यह आशंका भी कि आज वह जो बहुत अच्छा लिख रहा है, कल बहुत खराब लिखने लगे। या आज जो बहुत नया लग रहा है, कल ही पुराना पड़ जाये। मैं नाम नहीं लूँगा, लेकिन रवींद्र कालिया ‘वागर्थ’ और ‘नया ज्ञानोदय’ से जिस युवा पीढ़ी को सामने लाये और परमानंद श्रीवास्तव जैसे नामगिनाऊ आलोचकों ने उस पीढ़ी के जिन कहानीकारों को रातोंरात आसमान पर चढ़ा दिया, वे अपने से आगे वाले युवा कहानीकारों की तुलना में आज ही पुराने पड़ गये लगते हैं। उदाहरण के लिए, ‘नया ज्ञानोदय’ के ही मई-जून, 2007 में निकले युवा पीढ़ी विशेषांक में छपे लेखकों की कहानियों की तुलना जून, 2010 में निकले युवा पीढ़ी विशेषांक में छपे लेखकों की कहानियों से करें, तो आप पायेंगे कि इन तीन सालों में ही ‘युवा पीढ़ी’ के कई चमकीले सितारे अपनी चमक खोकर पुराने-से लगने लगे हैं। मैं यह नहीं कहता कि उनमें संभावना नहीं रही। मैं केवल यह कहना चाहता हूँ कि संभावना के नाम पर की गयी भविष्यवाणियाँ अक्सर गलत साबित होती हैं। नयी पीढ़ी का स्वागत अवश्य किया जाना चाहिए, लेकिन इस प्रकार नहीं कि उनके आगमन मात्र से जैसे कोई क्रांति हो गयी हो और अब तक साहित्य में जो कुछ हुआ, वह सब पुराना और बेकार हो गया हो। लेखकों की उम्र से नयी रचनाशीलता का कोई सीधा संबंध नहीं होता। उदाहरण के लिए, अभी मैंने जिन दो कहानीकारों के नाम लिये, उनमें अमित मनोज केवल 28 वर्ष के हैं और द्वारकेश नेमा 71 वर्ष के। लेकिन दोनों की कहानियों में नयी रचनाशीलता दिखायी पड़ती है। अमित मनोज की कहानी के बारे में मैंने विस्तार से ‘परिकथा’ के नवंबर-दिसंबर, 2008 के अंक में लिखा था और नेमा जी कहानियों पर विस्तार से ‘कथन’ के जुलाई-सितंबर, 2010 के अंक में लिखा है।

अशोक कुमार पांडेय : इस नयी रचनाशीलता की क्या विशेषताएँ हैं?

रमेश उपाध्याय : नयी रचनाशीलता का कोई एक रूप नहीं होता। उसके विभिन्न रूप होते हैं। उदाहरण के लिए, एक प्रकार की नयी रचनाशीलता आपको ‘नया ज्ञानोदय’ के युवा पीढ़ी विशेषांकों में मिलेगी, तो दूसरी प्रकार की नयी रचनाशीलता ‘परिकथा’ तथा अन्य पत्रिकाओं के नवलेखन विशेषांकों में। ‘नया ज्ञानोदय’ वाली युवा पीढ़ी की विशेषताएँ उसके संपादक रवींद्र कालिया के शब्दों में ये हैं--‘‘इस पीढ़ी के पास अपनी शब्द संपदा है, अपने मुहावरे हैं। वाक्य विन्यास में भी नये-नये प्रयोग देखे जा सकते हैं। ये भाषा के स्तर पर बहुत शुद्धतावादी नहीं हैं और न ही आदिवासियों, दलितों और शोषितों के प्रति घड़ियाली आँसू बहाते हैं।’’ ध्यान से देखें, तो यहाँ नयी रचनाशीलता भाषा में आये बदलाव में देखी जा रही है। कथ्य में आये बदलाव की बात यहाँ सकारात्मक रूप से नहीं, बल्कि नकारात्मक रूप में की जा रही है। उससे ‘युवा पीढ़ी’ की कहानी की अंतर्वस्तु का पता नहीं चलता कि उसमें क्या है। बस, इतना पता चलता है कि क्या नहीं है। और उससे ‘युवा पीढ़ी’ की प्रशंसा के बहाने प्रगतिशील-जनवादी कहानी की निंदा की गयी है और उस पर कुछ आक्षेप किये गये हैं। मसलन, प्रगतिशील-जनवादी कहानीकार भाषा के स्तर पर बहुत शुद्धतावादी हैं, जो ये युवा पीढ़ी के कहानीकार नहीं हैं। या प्रगतिशील-जनवादी कहानीकार अपनी कहानियों में आदिवासियों, दलितों और शोषितों के प्रति घड़ियाली आँसू बहाते हैं, जो युवा पीढ़ी के कहानीकार नहीं बहाते। मतलब यह कि प्रगतिशील-जनवादी कहानीकारों का लेखन एक प्रकार का छद्म लेखन है और इस युवा पीढ़ी का लेखन जेनुइन है। मैं ‘छद्म’ और ‘जेनुइन’ शब्दों का इस्तेमाल जान-बूझकर कर रहा हूँ, क्योंकि यह शब्दावली हिंदी को प्रगतिशील-जनवादी लेखन के विरोधियों की देन है।

अशोक कुमार पांडेय : तो आपके विचार से ‘परिकथा’ तथा अन्य पत्रिकाओं के नवलेखन विशेषांकों से सामने आ रही नयी पीढ़ी के कहानीकारों की कहानी की क्या विशेषताएँ हैं?

रमेश उपाध्याय : मैंने ‘परिकथा’ के सितंबर-अक्टूबर, 2008 वाले नवलेखन अंक में प्रकाशित कहानियों पर जो लेख उसके नवंबर-दिसंबर, 2008 वाले अंक में लिखा था, उसका शीर्षक था ‘कलावाद और अनुभववाद से मुक्त होती हिंदी कहानी’। लेकिन इधर की चर्चित, बल्कि जरूरत से ज्यादा चर्चित ‘युवा पीढ़ी’ की ये ही दो विशेषताएँ हैं--कलावाद और अनुभववाद! आप इस ‘युवा पीढ़ी’ की सारी कहानियाँ पढ़ जाइए, उनमें ‘बात’ पर कम और ‘बात कहने के ढंग’ पर ज्यादा जोर है। ये कहानीकार कहानी का कथ्य अपने निजी अनुभव से लेते हैं, जो स्वाभाविक है कि पहले की पीढ़ियों के अनुभव से भिन्न है, नया है--नयी टेक्नोलॉजी, नयी सूचना-संस्कृति, नयी जीवन-शैली के कारण--लेकिन आज के भूमंडलीय यथार्थ की व्यापकता को देखते हुए वह अत्यंत सीमित है। वह लगभग निरुद्देश्य और लगभग निरर्थक भी है, क्योंकि ये लेखक शायद यह मानकर चल रहे हैं कि दुनिया जैसी है, वैसी ही हमेशा रहनी है और उसका कोई विकल्प नहीं है। इससे बेहतर दुनिया की कोई कल्पना या परिकल्पना उनके पास नहीं है, इसलिए उनकी कहानियों का कथ्य किसी बेहतर भविष्य की ओर प्रवाहित गतिशील धारा का नहीं, बल्कि यथास्थितिवाद के पोखर में रुके हुए सड़ते पानी का-सा अहसास कराता है, जिसे वे भाषाई चमत्कारों से सुंदर बनाने की कोशिश करते दिखायी देते हैं। लेकिन यह कोशिश सड़ते हुए पानी में कमल के फूल खिलाने की-सी कोशिश होती है--हिंदी की जगह हिंग्लिश के प्रयोग से, गालियों और भदेस अभिव्यक्तियों से, दुनिया भर की सूचनाओं की भरमार से, विदेशी लेखकों के संदर्भरहित उद्धरणों से, कहानी के बीच में लंबे-लंबे चमत्कारपूर्ण उपशीर्षकों से, किसी भी संदर्भ में घुसा दिये जाने वाले यौन-प्रसंगों से या एक प्रकार का बौद्धिक आतंक उत्पन्न करने के प्रयासों से!

अशोक कुमार पांडेय : पर आज की सभी कहानियों में तो यह सब नहीं होता।

रमेश उपाध्याय : मैं सभी कहानियों की नहीं, इधर की चर्चित और जरूरत से ज्यादा चर्चित ‘युवा पीढ़ी’ की कहानियों की बात कर रहा हूँ। इस ‘युवा पीढ़ी’ के कहानीकार गर्व से कहते हैं कि वे उदय प्रकाश को अपना आदर्श मानते हैं। अब आप देखें कि उदय प्रकाश के लेखन में सबसे ज्यादा जोर किस चीज पर होता है। उस भाषा पर, जो बौद्धिक आतंक उत्पन्न करने वाली सूचनाओं से लदी-फँदी भाषा है। ‘युवा पीढ़ी’ के लेखक भी ऐसी भाषा लिखने की कोशिश करते हैं। उदाहरण के लिए, प्रभात रंजन स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हैं कि ‘‘जब मैं कहानियाँ लिखता हूँ, यह उदय प्रकाश से सीखा है कि जो चीज आप उस समय पढ़ रहे हैं, उसका उपयोग जरूर कर लें।’’ इन कहानीकारों का जोर कहानी के कथ्य पर उतना नहीं है, जितना भाषा और शिल्प पर। मगर ये सभी कहानीकार इस मामले में एक जैसे नहीं हैं। भाषा और शिल्प पर जरूरत से ज्यादा जोर देना ठीक नहीं है, यह बात इनमें से कई लेखक आत्मालोचना के रूप में कहते भी हैं। लेकिन ज्यादातर का जोर भाषा और शिल्प पर ही रहता है।

अशोक कुमार पांडेय : कुछ उदाहरण?

रमेश उपाध्याय : उदाहरण के लिए, ‘प्रगतिशील वसुधा’ में छपे युवा लेखकों के संवाद को देखें। उसमें आपको दोनों प्रकार के विचार मिल जायेंगे। मसलन, ज्योति चावला कहती हैं कि ‘‘विषय तो हर युग में बदलते रहे हैं। लेकिन इस युवा कहानी ने जो अपनी अलग पहचान बनायी है, इसका कारण उसका अपना शिल्प है, उसकी भाषा है, उसका ट्रीटमेंट है, उसका प्रेजेंटेशन है।’’ लेकिन संजय कुंदन इससे सहमत नहीं। वे कहते हैं कि ‘‘कई बार तो हम पूरी कहानी पढ़ जाते हैं और भाषा के चमत्कार में बँधकर रह जाते हैं। अंत में पता चलता है कि कहानी में तो कुछ था ही नहीं।’’ प्रभात रंजन कहते हैं कि ‘‘मैं मानता हूँ, कोई भी लेखक जो है, वह भाषा से ही है।’’ इसके विपरीत योगेंद्र आहूजा का विचार है कि ‘‘कई बार कंटेंट की कमी को भाषा से ढँकने की कोशिश भी की जाती है।’’ लेकिन कुणाल सिंह पुनः भाषा पर जोर देते हुए कहते हैं कि ‘‘भाषा अपने-आप में कंटेंट है।’’ शायद भाषा और शिल्प पर इतना जोर देने के कारण ही ये लेखक स्वयं को प्रगतिशील और जनवादी लेखकों की परंपरा का नहीं, बल्कि निर्मल वर्मा, मनोहर श्याम जोशी और उदय प्रकाश की परंपरा में रखकर देखते हैं। उदय प्रकाश इनके आदर्श शायद इसलिए भी हैं कि उन्हें साहित्य के बाजार में अद्वितीय और असाधारण सफलता प्राप्त हुई है। ये लेखक भी ऐसी ही सफलता के आकांक्षी हैं।

अशोक कुमार पांडेय : लेकिन इसी पीढ़ी में दूसरे लेखक भी तो हैं, जो भाषा या शिल्प और शैली पर इतना जोर न देकर कहानी के कथ्य और आज के यथार्थ का चित्रण करने पर जोर देते हैं। वे भी बहुत अच्छी और महत्त्वपूर्ण कहानियाँ लिख रहे हैं, पर उनकी इतनी चर्चा नहीं होती। इसका क्या कारण है?

रमेश उपाध्याय : यह सवाल आलोचकों से पूछा जाना चाहिए।

अशोक कुमार पांडेय : हिंदी कहानी की आलोचना की अब क्या भूमिका है? क्या वह वास्तव में नये रचनाकारों की परख कर पा रही है?

रमेश उपाध्याय : आपके प्रश्न में ही उसका उत्तर निहित है। लेकिन यह देखना चाहिए कि इसका कारण क्या है। मुझे लगता है कि हिंदी कहानी और कहानी की आलोचना दोनों को बाजारवाद बुरी तरह प्रभावित कर रहा है। बाजारोन्मुख कहानीकार और आलोचक यह मानकर चल रहे हैं कि पूँजीवाद का कोई विकल्प नहीं है, इसलिए यह दुनिया अब हमेशा ऐसे ही चलेगी। इसे बदलना, सुधारना, सँवारना, बेहतर बनाना संभव नहीं है। साहित्य से, और कहानी जैसी विधा से तो बिलकुल नहीं। वे कहानी को बाजार में बिकने वाली वस्तु मानते हैं। कहानीकार आलोचकों से अपेक्षा करते हैं कि वे उनकी कहानी को--और उनको भी--बाजार में ऊँचे दामों में बिकने लायक बनायें। अर्थात् उनका विज्ञापन करें, बाजार में उनकी जगह बनायें, उनकी कीमत बढ़ायें। दुर्भाग्य से आलोचक स्वयं भी यही चाहते हैं कि वे लेखकों का बाजार बना और बिगाड़ सकने की भूमिका में बने रहें, ताकि वे स्वयं भी बाजार में टिके रहें और उनकी अपनी कीमत भी बढ़ती रहे। ऐसे लेखक और आलोचक दुनिया के भविष्य के बारे में नहीं, केवल अपने भविष्य के बारे में सोचते हैं।

अशोक कुमार पांडेय : लेकिन ऐसे कहानीकार और ऐसे आलोचक भी तो हैं, जो अपना भविष्य दुनिया के भविष्य के साथ जोड़कर देखते हैं?

रमेश उपाध्याय : निश्चित रूप से हैं। मगर उन्हें आपस में जोड़ने वाला कोई आंदोलन न होने के कारण वे बिखरे हुए हैं, अलग-थलग पड़े हुए हैं। जरूरत है कि वे निकट आयें और मिल-जुलकर एक आंदोलन चलायें। एक नया कहानी आंदोलन।

अशोक कुमार पांडेय : आपके विचार से उस नये आंदोलन का नाम और रूप?

रमेश उपाध्याय : रूप तो आंदोलन चलाने वाले लेखक ही उसे देंगे, पर मैं एक नाम सुझा सकता हूँ। हमारी इस बातचीत में अभी-अभी दो शब्द आये--बाजारोन्मुखी और भविष्योन्मुखी। तो हम बाजारोन्मुखी कहानी के बरक्स भविष्योन्मुखी कहानी का आंदोलन ही क्यों न चलायें?


--रमेश उपाध्याय

Sunday, April 22, 2012

मौसम की भविष्यवाणी


बहुत दिनों बाद अपने ब्लॉग पर लौटा हूँ. प्रस्तुत है इस बीच लिखी गयी कहानी 'मौसम की भविष्यवाणी'. यह कहानी कथा-पत्रिका 'सारिका' में धारावाहिक रूप से प्रकाशित मेरी कथा-शृंखला 'किसी देश के किसी शहर में' के अंतर्गत अगस्त, 1984 के अंक में 'मौसम' शीर्षक से प्रकाशित हुई थी. फिर यह कहानी मेरे आठवें कहानी संग्रह 'किसी देश के किसी शहर में' में 'भविष्य' शीर्षक से कुछ परिवर्तनों के साथ शामिल हुई. जलवायु-परिवर्तन की वर्तमान समस्या के संदर्भ में मैंने इसे फिर से लिखा है.


किसी देश के किसी शहर में एक आदमी मौसम-विज्ञान की प्रयोगशाला में काम करता  था। वह एक वरिष्ठ और प्रसिद्ध मौसम-विज्ञानी था। उस प्रयोगशाला में शहर के घटते-बढ़ते तापमान का, हवा की दिशा और गति का, उसमें मौजूद नमी और गैसों का, और समय-समय पर आने वाले आँधी, तूफान, बादलों आदि का अध्ययन किया जाता था। वहाँ मौसम के अनुसार पड़ने वाली सर्दी, गर्मी, बर्फ और बारिश की मात्र दर्ज की जाती थी और मौसम संबंधी भविष्यवाणियाँ तैयार की जाती थीं, जो हर दिन उस देश के रेडियो-टेलीविजन से प्रसारित और अखबारों में प्रकाशित होती थीं।

उस प्रयोगशाला में काम करने वाले वैज्ञानिकों का मुख्य काम मौसम का अध्ययन करना, अनुमान लगाना और भविष्यवाणी करना ही था, लेकिन वह आदमी इसके साथ-साथ एक अनुसंधान भी कर रहा था। वह पता लगाना चाहता था कि आजकल मौसम विभाग द्वारा की जाने वाली भविष्यवाणियाँ अक्सर गलत क्यों साबित हो जाती हैं। कहा जाता है कि आसमान साफ रहेगा, लेकिन अचानक बादल घिर आते हैं और बारिश होने लगती है। कहा जाता है कि तापमान गिरेगा, बर्फ भी पड़ सकती है, लेकिन अचानक गर्मी और उमस बढ़ जाती है। कहा जाता है कि मौसम खुशगवार रहेगा, लेकिन अचानक तापमान गिर जाता है, आँधी-तूफान आ जाते हैं और बर्फ पड़ने लगती है...

मौसम की कुछ भविष्यवाणियाँ पहले भी गलत निकला करती थीं, लेकिन ऐसा अपवादस्वरूप ही होता था। अब यह नियम-सा बनता जा रहा था। मौसम में अचानक भारी तब्दीलियाँ हो जाती थीं और ऐसी आकस्मिकताओं की आवृत्ति बढ़ती जा रही थी।

पहले जो ऋतुएँ कमोबेश ठीक समय पर एक ही प्रकार से आया-जाया करती थीं, अब अपना समय और स्वभाव बदल रही थीं। उस देश के लोग यह परिवर्तन कई वर्षों से देख रहे थे। वे देख रहे थे कि ठंड के दिन साल में लगातार कम होते जा रहे हैं, लेकिन ठंड पहले से बहुत ज्यादा पड़ने लगी है। गर्मी के दिन साल में लगातार ज्यादा होते जा रहे हैं और उनके ताप की तीक्ष्णता भी बढ़ती जा रही है। उनके लिए सबसे चिंताजनक बात यह थी कि वर्षा की अवधि और मात्रा हर साल कम से कमतर होती जा रही है, लेकिन अचानक फट पड़ने वाले बादलों से आयी बाढ़ से होने वाली तबाही की घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं। लेकिन लोग यह नहीं समझ पा रहे थे कि इसका कारण क्या है। वह आदमी उस कारण का पता लगाना और उसका निराकरण करना चाहता था।

देश के पर्यावरणवादी इसके तीन कारण बता रहे थे। एक यह कि जंगल के ठेकेदारों ने पेड़ों की अंधाधुंध कटाई करके उस हरियाली को नष्ट कर दिया है, जो पर्यावरण को संतुलित रखती है। दूसरा यह कि देश के शहर बेहिसाब फैलते और खेतों तथा बाग- बगीचों की हरियाली को निगलते चले जा रहे हैं। और तीसरा यह कि ग्रीनहाउस गैसों के अत्यधिक उत्सर्जन से पैदा हुई ‘ग्लोबल वार्मिंग’ नामक बीमारी से पृथ्वी का तापमान  बढ़ रहा है, जिसका असर सारी दुनिया के साथ-साथ हमारे देश पर भी पड़ रहा है।

वह आदमी देश का एक जाना-माना वैज्ञानिक था। वह अपने लेखों और भाषणों के जरिये अपने देश की जनता और सरकार, दोनों से कहा करता था, ‘‘अंधाधुंध पेड़ काटना बंद करो। ज्यादा से ज्यादा नये पेड़ उगाओ। बस्तियों के बेहिसाब फैलाव को रोको। हरियाली को जहाँ तक हो सके, बचाओ-बढ़ाओ और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम से कम करो।’’

एक दिन उसे लगा कि शायद सरकार ने उसकी बात मान ली है। हर साल लाखों नये पेड़ लगाने के लिए वृक्षारोपण अभियान चालू कर दिया है और जंगलों की अंधाधुंध कटाई के खिलाफ कुछ कानून भी बना दिये हैं। लेकिन बाद में उसे पता चला कि सरकार ये काम उसकी बात मानकर नहीं, बल्कि ‘उत्तर’ के देशों की सरकारों के दबाव में आकर कर रही है, जो चाहती हैं कि उनके देशों द्वारा पैदा की गयी ग्लोबल वार्मिंग की बीमारी का इलाज ‘दक्षिण’ के देश करें।

‘‘चलो, अच्छा है।’’ उस आदमी ने सोचा, ‘‘इसी बहाने पृथ्वी का कुछ भला होता है, तो ठीक है।’’

लेकिन वह जानता था कि हरियाली को बचाने और बढ़ाने जैसे उपायों के नतीजे जल्दी नहीं निकलने वाले, जबकि जलवायु परिवर्तन के परिणाम आज ही भीषण रूप लेने लगे हैं।

उस भीषणता का एक रूप तो उसे अपने ही क्षेत्र में प्रत्यक्ष दिख रहा था। कई वर्षों से यह हो रहा था कि मानसून के बादल या तो उस क्षेत्र की तरफ रुख ही न करते, या देर-सबेर आते और बहुत थोड़ा पानी बरसाकर चले जाते।

उस आदमी ने इस समस्या पर विचार किया और समाधान के लिए सरकार के पास जाकर कहा, ‘‘मैंने देखा है कि इस इलाके पर से मानसून के बादल गुजरते तो हैं, लेकिन बरसते नहीं। कभी-कभी थमकर गरजते हैं, बिजलियाँ चमकाकर वर्षा का आश्वासन-सा भी देते हैं, लेकिन तभी कहीं से तेज हवा चल पड़ती है और उन्हें उड़ा ले जाती है।’’

‘‘तो आप सरकार से क्या चाहते हैं?’’ सरकार ने उसका मजाक उड़ाते हुए कहा, ‘‘क्या हम अपनी वायुसेना को आदेश दें कि वह बादलों को घेरकर रोके और उनसे जबर्दस्ती वर्षा करवाये?’’

‘‘यह काम किसी सैनिक शक्ति से नहीं, किसी वैज्ञानिक युक्ति से ही होगा।’’ उस आदमी ने जवाब दिया, ‘‘मैं उस वैज्ञानिक युक्ति का आविष्कार करना चाहता हूँ।’’

सरकार बहुत उत्साहित हुई, क्योंकि उसने जंगलों की अंधाधुंध कटाई के खिलाफ कानून तो पास कर दिये थे, लेकिन तभी से जंगल के ठेकेदार उसकी जान खाये जा रहे थे। उनका कहना था कि सरकार पेड़ों की नहीं, ठेकेदारों की है और ठेकेदारों को पेड़ काटने का हक हासिल रहना ही चाहिए। सरकार को पेड़ों की कटाई पर रोक लगाने की जगह कुछ ऐसा करना चाहिए कि पेड़ जल्दी उगें और जल्दी बड़े हों, ताकि ठेकेदारों को काटने के लिए हरे-भरे जंगल हमेशा मिलते रहें।

सरकार ठेकेदारों को नाराज नहीं करना चाहती थी, इसलिए वह उस क्षेत्र में वर्षा न होने से चिंतित और परेशान थी। वह चाहती थी कि उस क्षेत्र में खूब वर्षा हो, जंगल हमेशा हरे-भरे रहें और किसी तरह पेड़ जल्दी से जल्दी बढ़-पनपकर ठेकेदारों को काटने के लिए मिल सकें।

सरकार ने सोचा, अगर यह आदमी किसी वैज्ञानिक युक्ति से जबरन बारिश करा सके, तो क्या बात है! ठेकेदारों को खुश करने का एक अच्छा मौका हाथ लगेगा। ठेकेदार तो हमेशा यही चाहते हैं कि सरकार सार्वजनिक धन से उनको निजी लाभ पहुँचाने वाले काम ही किया करे।

‘‘अच्छा, बताइए, आप सरकार से क्या चाहते हैं?’’ सरकार ने उस आदमी से कहा।

वह आदमी ‘जबरिया बरसात परियोजना’ के नाम से अपने अनुसंधान की पूरी योजना बनाकर लाया था। उसने विस्तार से अपनी योजना सरकार को समझायी। सरकार पहले से ही उसे मंजूरी देने को तैयार बैठी थी। फिर भी औपचारिकता पूरी करने के लिए उसने परियोजना को समझने का नाटक किया। कुछ प्रश्न पूछे और उस आदमी के उत्तरों से संतुष्ट हुई।

‘‘ठीक है, हमने आपकी रिसर्च का खर्च मंजूर किया।’’ सरकार ने कहा, ‘‘लेकिन आपको जल्दी से जल्दी इस जबरिया बरसात के तरीके का पता लगाना होगा।’’

उस आदमी ने सरकार को धन्यवाद देते हुए कहा, ‘‘मैं खुद बहुत चिंतित हूँ, क्योंकि यही हाल कुछ साल और रहा, तो सारा इलाका रेगिस्तान बन जायेगा।’’

सरकार से रिसर्च का खर्च मिल जाने के बाद उस आदमी ने अपना काम शुरू कर दिया। वह देश के कई प्रतिभाशाली मौसम-विज्ञानियों को जानता था। उसने स्वयं अनुरोध करके उन्हें अपने पास अनुसंधान करने के लिए बुलाया और अपनी ‘जबरिया बरसात परियोजना’ का उद्देश्य बताते हुए उनसे कहा, ‘‘कुछ लोगों ने इस हरे-भरे क्षेत्र की हरियाली उजाड़ देने की आत्मघाती मूर्खता कर डाली है, जिससे यहाँ हर साल सूखा पड़ने लगा है और यह उपजाऊ धरती रेगिस्तान बनती जा रही है। हमें इसको रोकना है।’’

बुलाये गये मौसम-विज्ञानियों में से कुछ नये विचारों के थे, जो एक महत्त्वपूर्ण नये अनुसंधान की साहसपूर्ण चुनौती स्वीकार करके आये थे। उन्होंने उस आदमी से कहा, ‘‘आप चिंता न करें, हम जी-जान से जुट जायेंगे और हमें पूरी उम्मीद है कि आपके निर्देशन में हम बादलों को बरसने पर मजबूर करने का कोई न कोई तरीका जरूर खोज निकालेंगे।’’

लेकिन कुछ मौसम-विज्ञानी ऐसे भी आ गये थे, जो वर्षों पहले कोई महत्त्वपूर्ण काम कर चुके थे और उसी से प्राप्त प्रतिष्ठा के बल पर आज भी मौसम-विज्ञानी बने हुए थे। नया कुछ सोचना और करना उनके बस की बात नहीं थी। उन्होंने उस आदमी के द्वारा बनायी गयी परियोजना में मीन-मेख निकालते हुए कहा, ‘‘सच कहें, भाई, हमें तो यह परियोजना बहुत हवाई, दुस्साहसिक और बेतुकी मालूम हो रही है। काटे गये पेड़ों की जगह नये पेड़ लगाने का आपका सुझाव बढ़िया था। सरकार उस पर अमल भी कर रही है। बड़ी संख्या में पेड़ लगाये जा रहे हैं। हमारे विचार से वही एक व्यावहारिक तरीका है।’’

‘‘लेकिन आप जानते हैं कि नये पेड़ लगाने का काम व्यावहारिक रूप में किस तरह हो रहा है? पेड़ लगा तो दिये जाते हैं, लेकिन फिर कोई नहीं जानता कि उनका क्या हुआ! जाकर देखिए, ज्यादातर पौधे पानी के बिना सूख गये हैं। बहुत-सों को जानवर चर गये हैं। और जिनको क्षेत्र के लोगों ने बचा लिया है, उनको भी बड़े होने में अभी बहुत वक्त लगेगा। क्या तब तक के लिए हमें वर्षा की उम्मीद छोड़ देनी चाहिए?’’ उसने कुछ उत्तेजित स्वर में कहा।

‘‘लेकिन मौसम-विज्ञान के अनुसार जब तक प्राकृतिक परिस्थितियाँ नहीं बदलतीं, तब तक वर्षा हो ही कैसे सकती है? क्या ऐसा हो सकता है कि हम बादलों को गर्दन पकड़कर झुका दें और कहें कि बरसो!’’ एक बुजुर्गवार ने कहा और दूसरे बुजुर्गवार हँस पड़े।

नये लोगों को उनका हँसना बुरा लगा। वे बोले, ‘‘विज्ञान का इतिहास बताता है कि प्रत्येक प्राकृतिक शक्ति को आदमी ने इसी तरह गर्दन पकड़कर झुकाया है!’’

बुजुर्ग लोग नये लोगों की आलोचना करने लगे, ‘‘आप लोग हर चीज में उतावली दिखाते हैं। लेकिन विज्ञान में उतावली से काम नहीं चलता। विज्ञान के क्षेत्र में बड़े धैर्य, संयम और समझदारी के साथ काम करने की जरूरत होती है।’’

उस आदमी ने नये-पुराने लोगों को आपस में ही उलझने से रोका। पुरानों से उसने कहा, ‘‘क्या कोई भी नया काम करने के लिए साहस और पहलशक्ति की जरूरत नहीं होती है? क्या विज्ञान द्वारा किये गये अब तक के सभी महत्त्वपूर्ण आविष्कार  सामने आने से पहले असंभव-सी कल्पनाएँ ही नहीं थे?’’

फिर उसने नयों को समझाया, ‘‘हमारे वरिष्ठ वैज्ञानिक धैर्य, संयम और समझदारी के साथ काम करने की जो सलाह दे रहे हैं, वह बिलकुल सही है।’’

इस प्रकार नये-पुराने दोनों तरह के लोगों को समझा-बुझाकर उस आदमी ने काम में लगा दिया और खुद भी उनके साथ जुट गया। वह खुद सबसे ज्यादा मेहनत करता। प्रयोगों और परीक्षणों में जान जोखिम में डालने के लिए खुद को सबसे आगे रखता। लेकिन कोई भी काम करते समय वह अपने तमाम सहकर्मियों से राय जरूर लिया करता।

लेकिन उन सब लोगों के द्वारा किया जा रहा काम किसी परिणाम पर नहीं पहुँच रहा था। उधर सरकार बार-बार काम की प्रगति की रिपोर्ट माँग रही थी। दरअसल, बात यह थी कि उन दिनों उस क्षेत्र में कायदे से बारिश का मौसम होना चाहिए था, लेकिन अभी तक एक बूँद भी पानी नहीं बरसा था। ऐसा लग रहा था कि इस साल ऐसा सूखा पड़ेगा कि अकाल की स्थिति पैदा हो जायेगी। वह आदमी और उसके उत्साही सहकर्मी खुद यह चाहते थे कि जबरिया बरसात का कोई तरीका जल्दी से जल्दी निकल आये, ताकि इसी साल से जबरिया बरसात करायी जा सके। लेकिन बहुत कोशिश करने पर भी कोई तरीका समझ में नहीं आ रहा था।

उधर सरकार की परेशानी यह थी कि वह उस क्षेत्र के लोगों को अकाल से बचाने का कोई उपाय नहीं कर पा रही थी। उस शहर के तथा आसपास के लोग ‘पानी-पानी’ चिल्ला रहे थे, क्योंकि वर्षा न होने के कारण कूप-नलकूप और नदी-नाले सब सूख गये थे। नहाने-धोने के लिए तो दूर, पीने तक के लिए लोगों को पर्याप्त पानी नहीं मिल रहा था। नदियों का जल-स्तर घट जाने से कई पनबिजलीघर बंद हो गये थे और शहर में बिजली का भी अभूतपूर्व संकट पैदा हो गया था। आम लोगों के घरों में कूलरों की कौन कहे, पंखे भी चलने बंद हो गये थे, जबकि शहर में भीषण गर्मी पड़ रही थी। रात में आम लोगों को लैंपों और मोमबत्तियों से काम चलाना पड़ रहा था, जिनसे रोशनी कम मिलती थी, जानमारू ताप और दमघोंटू धुआँ ज्यादा।

सरकार को लग रहा था कि अब जबरिया बरसात ही एकमात्र उपाय रह गया है। आम लोगों को तसल्ली देने के लिए उसने इस परियोजना का प्रचार भी खूब किया था। इसलिए लोगों को भी यह लग रहा था कि इस परियोजना के जरिये मौसम बदल जाने पर ही राहत मिलेगी। मगर परियोजना किसी परिणाम पर नहीं पहुँच रही थी और लोगों का असंतोष बढ़ता जा रहा था। वे कहने लगे थे, ‘‘इस अकाल के लिए सरकार ही जिम्मेदार है। इसी ने ठेकेदारों से सारे जंगल कटवाकर इस इलाके को रेगिस्तान बनाया है।’’

उधर ठेकेदार जंगलों की कटाई के विरुद्ध बने कानून को ठेंगा दिखाते हुए जंगल के बचे-खुचे पेड़ों को भी कटवा रहे थे। लोगों ने सरकार से शिकायत की, ‘‘कानून तोड़कर ठेकेदार पेड़ों को कटवाते जा रहे हैं।’’

सरकार को ठेकेदारों के विरुद्ध कार्रवाई करनी पड़ी। ठेकेदारों ने अपना गुस्सा उस आदमी पर उतारा, ‘‘लोगों को उसी बदमाश ने भड़काया है। हम हमेशा से पेड़ काटते आ रहे हैं। पहले तो कभी लोगों ने हमारे खिलाफ इस तरह की शिकायत नहीं की।’’ उन्होंने सरकार से उसकी शिकायत की और पूछा, ‘‘उसके खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं की जाती?’’

‘‘वह तो आप ही लोगों के लिए काम कर रहा है।’’ सरकार ने उन्हें समझाया, ‘‘उसने अगर जबरिया बरसात करा दी, तो पेड़ उगेंगे, जल्दी-जल्दी बड़े होंगे और आपके ही काम आयेंगे।’’

‘‘ऐसी बेकार की भविष्यवाणियाँ करना बंद करो!’’ ठेकेदारों ने सरकार को धमकाते हुए कहा, ‘‘हम उस आदमी की सारी चाल समझ गये हैं। वह चाहता है कि हम पेड़ न काटें। लेकिन हमारा तो व्यवसाय ही पेड़ काटना है। पेड़ काटना हम कैसे बंद कर सकते हैं? उस आदमी को रिसर्च का खर्च देना बंद करो और उससे कहो कि वह अपनी परियोजना को भूल जाये। उसका काम मौसम की सही भविष्यवाणी करना है। वह अपना काम करे और यह देखे कि मौसम की भविष्यवाणियाँ, जो आजकल अक्सर गलत निकलती हैं, सही साबित हुआ करें। यह तुम्हारे अपने हित में भी जरूरी है। आजकल तुम्हारी ज्यादातर भविष्यवाणियाँ गलत साबित हो रही हैं--चाहे फसल अच्छी होने की हों या औद्योगिक उत्पादन बढ़ने की। इससे तुम्हारी विश्वसनीयता कम होती जा रही है। सोच लो, इसका परिणाम क्या होगा!’’

सरकार ठेकेदारों की ही थी, इसलिए डर गयी। उसने अगले ही दिन एक सख्त आदमी को उस प्रयोगशाला का सर्वोच्च अधिकारी बनाकर भेज दिया।

अधिकारी बड़े ठसके से आया और आते ही उसने प्रयोगशाला के तमाम मौसम-विज्ञानियों को बुलाकर कहा, ‘‘कान खोलकर सुन लीजिए आप लोग! मैं बहुत सख्त प्रशासक हूँ और अपने आदेशों की अवहेलना मुझे बिलकुल पसंद नहीं है। मेरा पहला आदेश है कि आज से आप लोग सिर्फ अपने काम से काम रखेंगे। आप लोगों का काम सिर्फ मौसम की भविष्यवाणी करना है, जंगल की कटाई या सरकारी कामकाज में दखल देना नहीं। आज से आप मौसम के संबंध में दैनिक भविष्यवाणी करने के अलावा न तो कोई लेख लिखेंगे, न भाषण देंगे, न कोई बयान देंगे। मुझे मालूम हुआ है कि आप लोगों का सारा समय इन्हीं कामों में जाता है। अब यह सब नहीं चलेगा।’’

‘‘यह हमारी वैज्ञानिक स्वतंत्रता पर कुठाराघात है। हम इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे।’’ कुछ नये वैज्ञानिकों ने एक साथ कहा।

‘‘चुप रहिए!’’ अधिकारी चिल्लाकर बोला, ‘‘मैं यहाँ का सर्वोच्च अधिकारी हूँ। आप लोगों को वही करना पड़ेगा, जो मैं कहूँगा।’’

‘‘आप सिर्फ अधिकारी हैं, मौसम-विज्ञानी नहीं।’’ उस आदमी ने आगे बढ़कर कहा, ‘‘मेरे ये साथी ‘जबरिया बरसात परियोजना’ में काम कर रहे हैं, जो मेरी देख-रेख में चल रही है। आपको जो आदेश देना हो, मुझे दीजिए। मेरे सहकर्मियों को आदेश देने का आपको कोई अधिकार नहीं है।’’

‘‘अच्छा, तो आप हैं!’’ अधिकारी ने उस आदमी को पहचानते हुए भी अनजान बनकर कहा, ‘‘आपको मालूम होना चाहिए कि मौसम विभाग की कोई भविष्यवाणी गलत निकलती है, तो उसका क्या परिणाम होता है। उससे लोगों में असंतोष पैदा होता है और सरकार की साख गिरती है। देश के हित में सरकार की साख बचाये और बनाये रखना सभी देशभक्तों की, और खास तौर से सरकारी कर्मचारियों की, जिम्मेदारी है। आप वैज्ञानिक हैं, लेकिन सरकारी कर्मचारी हैं। यहाँ जिस काम के लिए सरकार ने आपको नियुक्त किया है, वह है मौसम की सही भविष्यवाणी करना। इसलिए आज से आपकी परियोजना बंद की जाती है।’’

‘‘बंद?’’ वह आदमी बौखला गया, ‘‘उसमें इतने लोगों का इतना श्रम और समय लगा है। सरकार का, यानी जनता का, इतना पैसा खर्च हुआ है। उसे इस तरह बिना किसी परिणाम तक पहुँचाये बंद कैसे किया जा सकता है?’’

लेकिन अधिकारी ने उसकी एक न सुनी। उसे और ज्यादा धमकाते हुए कहा, ‘‘मुझे मालूम हुआ है कि पिछले कुछ समय से आपके द्वारा की गयी मौसम की भविष्यवाणियाँ गलत साबित हो रही हैं। लोगों का विश्वास इस विभाग पर से और सरकार पर से उठता जा रहा है। उस विश्वास को फिर से जमाने के लिए भविष्यवाणियों का सही साबित होना जरूरी है। और यह देखना आपका काम है कि वे सही साबित हों। जाइए, अपना काम कीजिए!’’

‘जबरिया बरसात परियोजना’ बंद कर दी गयी। जो मौसम-विज्ञानी अनुसंधान के लिए बुलाये गये थे, उन्हें वापस उनकी जगहों पर भेज दिया गया। प्रयोगशाला में अब केवल मौसम की भविष्यवाणी से संबंधित काम होने लगा। वह आदमी अपने अधीन काम करने वाले वैज्ञानिकों और दूसरे कर्मचारियों की सहायता से यह काम पहले भी किया करता था। वह प्राप्त जानकारियों के आधार पर अगले चौबीस घंटों के मौसम के बारे में लगाया गया अनुमान स्वयं लिखता था और अखबारों में प्रकाशित तथा रेडियो-टेलीविजन से प्रसारित होने के लिए भिजवा देता था। लेकिन अब मौसम की भविष्यवाणी को प्रकाशन और प्रसारण के लिए भेजने का काम नया अधिकारी खुद करने लगा, जो उसमें अक्सर कुछ फेर-बदल कर दिया करता था।

पहली बार जब ऐसा हुआ, तो उस आदमी ने अधिकारी से कहा, ‘‘यह आपने क्या किया? कल आँधी-तूफान आने के आसार हैं और आपने ‘आँधी-तूफान आने के आसार’ की जगह ‘तेज हवाएँ चलने के आसार’ कर दिया!’’

‘‘आँधी-तूफान की बात से लोग डर जाते हैं। मैं उन्हें डराना नहीं चाहता।’’

‘‘लेकिन यह तो एक वैज्ञानिक अनुमान को अवैज्ञानिक बनाना हुआ। सच को झूठ बनाना!’’

‘‘इसमें झूठ क्या है?’’ अधिकारी दुष्टतापूर्वक मुस्कराया, ‘‘तेज हवाओं की आशंका लेकर चलने वाले लोग आँधी-तूफान भी झेल जायेंगे।’’

‘‘लेकिन आपने तो कहा था कि भविष्यवाणी सच होनी चाहिए, सरकार की साख का सवाल है?’’

‘‘सरकार का ही कहना है कि लोगों को आतंकित करने वाली भविष्यवाणियाँ न की जायें।’’

‘‘लेकिन...’’

‘‘बहस मत करो। मौसम की भविष्यवाणियाँ अनुमान के आधार पर की जाती हैं और कोई भी अनुमान पूरी तरह सही नहीं होता। जाओ, अपना काम करो।’’

वह आदमी क्षुब्ध हो उठा। अपनी जगह पर लौटकर सोचने लगा कि इस तरह की राजनीतिक दखलंदाजी से तो सारा वैज्ञानिक कामकाज बेकार हो जायेगा। उसकी इच्छा हुई कि वह इस नौकरी से इस्तीफा देकर कहीं और चला जाये, जहाँ सच्चाई और वैज्ञानिकता की कद्र होती हो और मानवता के हित में किये जाने वाले अनुसंधानों को रोका नहीं, प्रोत्साहित किया जाता हो।

लेकिन वह यह सोचकर अपने काम में लग गया कि जब तक उसकी आजीविका  की कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं हो जाती, उसे यही काम करना है, क्योंकि वह अकेला नहीं है, उसका परिवार है और वह एक जिम्मेदार गृहस्थ है।

आजीविका की कोई वैकल्पिक व्यवस्था उस जैसे जाने-माने वैज्ञानिक के लिए मुश्किल नहीं थी। भूमंडलीकरण ने दुनिया को ऐसे बाजार में बदल दिया था, जिसमें वस्तुएँ ही नहीं, प्रतिभाएँ और सेवाएँ भी बिकती थीं। वह आदमी प्रतिभाशाली था और अपनी सेवाएँ किसी भी बहुराष्ट्रीय कंपनी को बेच सकता था। लेकिन वह कुछ देशभक्त किस्म का प्राणी था, आशावादी था, और अपने देश और विश्व को हरा-भरा देखने की आकांक्षा से जो अनुसंधान उसने शुरू किया था, उसे वह जारी रखना चाहता था। उसे उम्मीद थी कि अगले आम चुनावों से शायद देश में कोई बेहतर सरकार बन जाये। तब हो सकता है कि उसकी ‘जबरिया बरसात परियोजना’ को फिर से मंजूरी मिल जाये और शायद इस दुष्ट अधिकारी को भी यहाँ से हटा दिया जाये।



प्रयोगशाला शहर से कुछ दूर एक पहाड़ी पर थी। वह आदमी जिस कमरे में बैठकर काम करता था, उसकी खिड़कियों से नीचे झाँकने पर शहर बड़ा खूबसूरत दिखायी देता था। वह थक जाता या उसका मन काम से ऊबने लगता, तो वह दो-चार मिनट के लिए खिड़की के पास जाकर अपने शहर को और शहर के पीछे खड़े ऊँचे-नीचे पहाड़ों को देखने लगता।

एक दिन वह इसी तरह चुपचाप खड़ा अपने शहर को देख रहा था। वे सर्दियों के बाद आये बसंत के दिन थे। शहर धूप में जगमगा रहा था। बाजार में काफी रौनक थी और लोग ही लोग दिखायी दे रहे थे। ठंड के दिनों में गाढ़े रंगों के भारी लबादे पहनने वाले वहाँ के लोग उन दिनों कम से कम कपड़े पहनना पसंद करते थे। तरह-तरह के उजले-चटकीले रंगों के कपड़े पहने हुए लोग उन दिनों खूब खुश और खूबसूरत नजर आते थे। वह आदमी उन्हीं को देख रहा था और खुश हो रहा था। ठंड के दिनों में हमेशा बंद रहने वाली खिड़कियाँ पूरी खुली हुई थीं। उनमें हवा फरफरा रही थी और वह आदमी एक हल्की-सी कमीज और पतलून पहने खड़ा सुहावने मौसम का आनंद ले रहा था।

हालाँकि कल जब वह आज के लिए मौसम की भविष्यवाणी तैयार कर रहा था, उसे कुछ ऐसे संकेत मिले थे, जिनसे आँधी या तूफान आने की आशंका होती थी, लेकिन अधिकारी ने उसकी आशंका को ‘‘व्यर्थ ही लोगों को आतंकित करने वाली बात’’ कहते हुए अपनी कलम से काट दिया था और जो भविष्यवाणी प्रकाशित-प्रसारित हुई थी, वह यह थी कि अभी कई दिनों तक मौसम ऐसा ही खुशगवार रहेगा।

अचानक उस आदमी ने पहाड़ों के पीछे से काले बादलों को तेजी से उमड़ते हुए देखा और महसूस किया कि हवा की रफ्तार अचानक बहुत तेज हो गयी है। देखते-देखते धूप गायब हो गयी। नीला आसमान काली राख के रंग का हो गया। पहले पानी की कुछ बूँदें गिरीं और फिर तेज बर्फीली आँधी आ गयी। खिड़की के पास खड़े-खड़े ही वह आदमी शहर को निहारना छोड़ मौसम का निरीक्षण करने में व्यस्त हो गया। मौसम में हुआ यह आकस्मिक परिवर्तन उसकी समझ में नहीं आ रहा था और वह एकदम हक्का-बक्का रह गया था। प्रयोगशाला में काम करने वाले दूसरे लोग चीखते-चिल्लाते धड़ाधड़ खिड़कियाँ बंद करने लगे, तब उसने भी अनुभव किया कि वह ठंड में ठिठुर रहा है और उसका सारा शरीर काँप रहा है।

अपने कमरे की खिड़कियाँ बंद करते हुए उसने देखा, शहर में भगदड़ मची हुई है। रंग बदरंग हो गये हैं, लोग बदहवास। बाजार वीरान होने लगा है। उसके दिमाग में भी भारी हलचल मची हुई थी। मौसम की भविष्यवाणी के सहसा इस तरह गलत हो जाने से वह आतंकित हो गया था।

तभी उसके इंटरकॉम की घंटी बजी। रिसीवर उठाकर कान पर लगाते ही उसे अधिकारी की दहाड़ती हुई आवाज सुनायी पड़ी, ‘‘यह क्या किया तुमने, कमबख्त? मौसम की रिपोर्ट तैयार करते हो या सोते रहते हो? मैं तुम पर भरोसा करता हूँ, इसका यह मतलब है? जानते हो, इसका नतीजा क्या होगा? अचानक आसमान से फट पड़ी यह बर्फ हजारों लोगों की जान ले लेगी। हजारों लोग बीमार हो जायेंगे। कल अखबारों में सबसे बड़ी सुर्खी होगी--बसंत में बर्फ! शिकायतों का अंबार लग जायेगा। लोग हमारी भविष्यवाणियों पर विश्वास करना बंद कर देंगे। ओफ्फ, यह ठंड! लगता है, खून सर्द होकर जम जायेगा...’’

कोई और वक्त होता, तो वह आदमी दौड़कर अधिकारी के पास जाता और कल तक के निरीक्षण से प्राप्त तथ्य और आँकड़े सामने रखकर उससे कहता, ‘‘आँधी-तूफान की मेरी आशंका सही थी, लेकिन आपने ही उसे यह कहते हुए काट दिया था कि...’’

लेकिन इस वक्त वह इतना हड़बड़ाया हुआ था और अपनी मेज पर फैले हुए कागजों से मौसम में हुए आकस्मिक परिवर्तन को समझने में इतना तल्लीन कि उसने अधिकारी की बात का जवाब तक नहीं दिया। अधिकारी ने पल-दो पल उसके जवाब का इंतजार करने के बाद किसी और भाषा में चीखकर कहा, ‘‘मर गये क्या?’’

‘‘नहीं, जनाब, मैं कल वाली रिपोर्ट की जाँच कर रहा हूँ। अभी आपकी सेवा में हाजिर होता हूँ।’’ उस आदमी ने जैसे-तैसे कहा।

‘‘कल वाली रिपोर्ट को गोली मारो।’’ उधर से अधिकारी फिर चिल्लाया, ‘‘आज की रिपोर्ट लेकर आओ। ऊपर से फोन आ चुका है। प्रचार विभाग फौरन भविष्यवाणी करना चाहता है।’’

उस आदमी ने कोई जवाब नहीं दिया। अधिकारी ने उसे बर्खास्त करने और गोली से उड़ा देने तक की धमकियाँ देकर बात बंद कर दी।

दरअसल वह आदमी यह पता लगाने की कोशिश कर रहा था कि कल उसे आँधी-तूफान की मामूली आशंका ही क्यों हुई, इतने बड़े आकस्मिक परिवर्तन का ठीक-ठीक अनुमान वह क्यों नहीं लगा पाया। लेकिन कल तक के चार्टों से कुछ भी पता नहीं चल रहा था। तापमान का रिकॉर्ड सही था। हवा की गति और दिशा का हिसाब ठीक था। उसमें मौजूद नमी और गैसों की मात्रा बताने वाले आँकड़े भी बर्फीली आँधी का कोई संकेत नहीं दे रहे थे। दूर-दूर तक ऐसे किसी दबाव-क्षेत्र का पता भी नहीं चल रहा था, जिससे अनुमान किया जा सके कि मौसम इतनी जल्दी अचानक इस तरह बदल जायेगा।

‘‘फिर?’’ उस आदमी ने अपने-आप से पूछा और चार्टों को परे फेंक अलमारी से वह मोटा रजिस्टर निकाला, जिसमें मौसम के आकस्मिक परिवर्तनों के सारे मामले ब्योरेवार दर्ज किये जाते थे। बरसों पुराना वह रजिस्टर उसने जल्दी-जल्दी उलट-पलट डाला, मगर ऐसे जबर्दस्त परिवर्तन का कोई हवाला उसे नहीं मिला। अन्य देशों में ऐसी घटनाएँ अवश्य हुई थीं, पर उसके देश में ऐसा कभी नहीं हुआ था।

कल वाली रिपोर्ट पर अब और ज्यादा माथापच्ची करना बेकार था। आज वाली रिपोर्ट तैयार करने के लिए उस आदमी ने इंटरकॉम पर अपने सहायकों से संपर्क करना शुरू किया, जो उसे मौसम से संबंधित अलग-अलग जानकारियाँ दिया करते थे। लेकिन कहीं से भी जवाब नहीं आया। शायद कोई भी सहायक अपनी जगह पर मौजूद नहीं था। कारण जानने के लिए वह आदमी अपने कमरे से बाहर निकला।

बाहर आते ही उसकी हड्डियाँ काँप गयीं। गजब की ठंड पड़ रही थी। प्रयोगशाला में हड़कंप मचा हुआ था। मामूली कर्मचारियों से लेकर बड़े-बड़े अधिकारियों तक सब लोग ठंड में काँप रहे थे और मानो अपने जिस्मों को गर्म रखने के लिए ही निरर्थक इधर से उधर दौड़ रहे थे। पता चला, सर्दी के दिनों में प्रयोगशाला के अंदर गर्मी बनाये रखने के लिए वातानुकूलन की जो व्यवस्था मौजूद थी, उसमें कोई खराबी आ गयी है। उस खराबी को दूर करने का प्रयास किया जा रहा था। सभी लोग खुशनुमा मौसम के अनुमान के अनुसार बहुत कम कपड़े पहने हुए थे, इसलिए ठंड में ठिठुर रहे थे और अपने-अपने परिवारों को संदेश भेज रहे थे कि उनके गर्म कपड़े फौरन भेज दिये जायें।

उस आदमी ने सोचा कि वह भी अपने घर अपनी पत्नी को फोन कर दे, लेकिन तत्काल उसके दिमाग में आयी दो बातों ने उसे ऐसा करने से रोक दिया। एक तो यह कि पत्नी ऐसे तूफानी मौसम में कैसे उसके गर्म कपड़े लेकर आयेगी? दूसरी यह कि उसका अधिकारी आज की भविष्यवाणी की प्रतीक्षा कर रहा है, इसलिए उसे एक क्षण भी गँवाये बिना भविष्यवाणी तैयार कर देनी चाहिए।

उसने अपने सहायकों के भरोसे बैठे रहने के बजाय खुद ही दौड़-दौड़कर मौसम की ताजा स्थिति के आँकड़े इकट्ठे किये। हवा का रुख कल से आज तक बिलकुल उलट गया था। पूर्वोत्तर से दक्षिण-पश्चिम की ओर चलने वाली हवा पश्चिमोत्तर से दक्षिण-पूर्व की ओर चल रही थी। देश के ऊपर और आसपास जगह-जगह वायु के दबाव-क्षेत्र बनने के संकेत मिल रहे थे, जो भारी चक्रवातों की पूर्वसूचना देते हुए लग रहे थे। बर्फ अब भी गिर रही थी, लेकिन ताज्जुब की बात, हवा में नमी बेहद कम थी। उसके अंदर की गैसों का संतुलन एकदम गड़बड़ाया हुआ था। तापमान काफी देर पहले शून्य हो चुका था और उत्तरोत्तर कम होता जा रहा था।

रोबोट की-सी तेजी के साथ उस आदमी ने इस तमाम जानकारी को कंप्यूटर में डाला और तत्काल निष्कर्ष उसके सामने था: मौसम अगले कई दिनों तक ऐसा ही रहेगा।

जल्दी से इस भविष्यवाणी को एक कागज पर घसीटकर वह आदमी अपने अधिकारी के पास दौड़ा। उसका अनुमान था कि अधिकारी गुस्से में पाँव पटकता हुआ अपने कमरे में चक्कर काट रहा होगा।

लेकिन अधिकारी अपनी कुर्सी पर मुर्दा हुआ पड़ा था। उसकी अकड़ी हुई गर्दन कुर्सी की पीठ पर पड़ी थी। आँखें काँच हो चुकी थीं। शरीर नीला पड़ चुका था। उस आदमी ने पास जाकर उसे झकझोरा, तो लाश एक तरफ को लुढ़क गयी।

वह आदमी ठंड से तो पहले ही काँप रहा था, अब भय से भी सिहर उठा। उसे लगा, उसका खून भी सर्द होकर जमने लगा है। वह चीख मारकर वहाँ से भागने ही वाला था कि तभी अधिकारी की मेज पर रखे टेलीफोन की घंटी बज उठी। उसने अपना सर्द-सुन्न हाथ बढ़ाकर बड़ी मुश्किल से रिसीवर पकड़ा और कान से लगाया। उधर से सरकार की मधुर आवाज सुनायी पड़ी, ‘‘हैलो, भविष्यवाणी तैयार है?’’

‘‘जी।’’ उस आदमी ने जैसे-तैसे कहा।

‘‘क्या है? बोलिए, मैं लिख रही हूँ।’’ आवाज में वही मधुर गर्मजोशी।

‘‘लिखिए, मौसम कई दिनों तक ऐसा ही रहेगा।’’ उस आदमी ने बड़े कष्ट के साथ कहा, क्योंकि उसके दाँत बज रहे थे और उससे बोला नहीं जा रहा था।

‘‘जी नहीं, यह नहीं।’’ दूसरे छोर पर बोलती हुई सरकार हँसी, ‘‘जनता में आतंक फैलाना है क्या? लिखवाइए कि डरने या घबराने की कोई बात नहीं, कल से मौसम साफ हो जायेगा। आप तो जानते हैं कि...’’

‘‘पर यह मैं कैसे लिखवा सकता हूँ, जबकि...’’

‘‘आप कौन बोल रहे हैं?’’ सहसा उधर से आने वाली आवाज में परेशानी ध्वनित हुई, ‘‘इस नंबर पर जो साहब मिलते हैं, वे...’’

‘‘वे साहब जा चुके हैं।’’ उस आदमी ने अधिकारी की लाश की तरफ देखते हुए कहा, ‘‘इस समय उनकी जगह मैं हूँ और मैं जो लिखवा रहा हूँ, ठीक लिखवा रहा हूँ। आपको लिखना हो, तो लिखिए।’’

सरकार की आवाज में अचानक सख्ती आ गयी, ‘‘आप जो भी हों, फौरन प्रचार विभाग में तशरीफ ले आइए।’’



‘‘फौरन प्रचार विभाग में तशरीफ ले आइए।’’ टेलीफोन पर मिला आदेश उस आदमी के दिमाग में हथौड़े की तरह बज रहा था। भयानक शीत में उसकी देह के साथ-साथ मानो उसकी चेतना भी सुन्न होती जा रही थी। फिर भी उसे अपना भविष्य साफ दिखायी दे रहा था: वहाँ मुझसे मौसम के बारे में कोई झूठ लिखवाया जायेगा और मैं इनकार करूँगा, तो दंड मिलना निश्चित है।

‘‘तब क्या करूँ? चला जाऊँ? जो कुछ लिखवाया जाये, लिख दूँ?’’ उसने अपने-आप से पूछा और खुद ही उत्तर दिया, ‘‘नौकरी करनी है, तो जाना ही पड़ेगा। जो कहा जायेगा, करना ही पड़ेगा। पर यह भी तो हो सकता है कि सरकार को मेरे अधिकारी की मृत्यु का पता चल गया हो और वह  मुझे इस संकट काल में तत्काल उसकी जगह नियुक्त करने की सोच रही हो? आखिर इस प्रयोगशाला में उसके बाद मैं ही सबसे सीनियर हूँ। कायदे से उस पद पर मेरी ही नियुक्ति होनी चाहिए, क्योंकि भविष्यवाणियाँ तैयार करने का काम तो मैं ही करता हूँ। अधिकारी या तो उन पर सिर्फ सही करता था, या प्रचार विभाग के कहने पर उनमें हेरा-फेरी करता था। मैं वैज्ञानिक हूँ। सत्य का खोजी। आज तक मैं सच्चाई और ईमानदारी के रास्ते पर चला हूँ। झूठ और बेईमानी के रास्ते पर चलूँगा, तो मेरी अंतरात्मा को कष्ट होगा। लेकिन अंतरात्मा का थोड़ा-सा कष्ट सहकर इतना बड़ा पद मिलता हो, तो क्या बुरा है? अपना भविष्य बनाने के लिए सबको कभी न कभी कोई समझौता करना ही पड़ता है।’’

बाहर बर्फीली आँधी अब भी चल रही थी और कमरे के बंद खिड़की-दरवाजों पर जोरदार धक्के मारती हुई तेज हवा साँय-साँय कर रही थी। खिड़कियों के शीशे अंधे हो चुके थे और अब उनके पार कुछ भी दिखायी नहीं दे रहा था।

‘‘ऐसे मौसम में गर्म कपड़ों के बिना मैं बाहर कैसे जा सकता हूँ? और घर से कौन मेरे गर्म कपड़े लेकर आयेगा?’’ वह आदमी सोच रहा था, ‘‘कपड़े आ भी जायें, तो मैं जाऊँगा कैसे? स्टाफ कार का ड्राइवर ऐसे मौसम में गाड़ी चलाने से साफ इनकार कर देगा। गाड़ी तो मेरी अपनी भी खड़ी है, पर इस मौसम में खुद भी कैसे ड्राइव कर पाऊँगा मैं? लेकिन प्रचार विभाग कोई बहाना नहीं सुनेगा। सरकार कितने मजे में पूरे नाज-नखरों के साथ बात कर रही थी। वह तो वहाँ किसी वातानुकूलित कमरे में बैठी होगी। उसे क्या पता कि यहाँ कोई ठंड में अकड़कर मर गया है और जिसे उसने फौरन चले आने का आदेश दिया है, वह भी इस भयानक शीत में किसी भी क्षण मर सकता है!’’

अधिकारी के कमरे से निकलकर उस आदमी ने पाया कि प्रयोगशाला के सारे कमरे खाली पड़े हैं। दौड़-दौड़कर वह तमाम कमरों में झाँक आया, उसे कोई स्त्री या पुरुष कर्मचारी दिखायी नहीं दिया। लेकिन कहीं से आवाजें आ रही थीं। वह उन आवाजों की दिशा में दौड़ पड़ा। दौड़ना और लगातार दौड़ते रहना इस समय उसे बहुत आवश्यक लग रहा था। खून में हरकत और हरारत बनाये रखने के लिए उसे यही एक उपाय कारगर प्रतीत हो रहा था।

दौड़ता हुआ वह उस बड़े कमरे में पहुँचा, जो अनुसंधान संबंधी कुछ नये यंत्र और उपकरण लगाने के लिए बनाया गया था, लेकिन अभी खाली पड़ा था। प्रयोगशाला के वैज्ञानिक और अन्य कर्मचारी उसमें भरे हुए थे। बीच में आग जल रही थी और वे उसी के ताप से जीवन पा रहे थे। रद्दी कागजों के ढेर ला-लाकर उस आग पर डाले जा रहे थे, जिससे लपटें उठ रही थीं, लेकिन धुआँ भी खूब निकल रहा था।

कोई और वक्त होता, तो ऐसे दमघोंटू धुएँ से भरे कमरे में वह आदमी कभी न जाता। लेकिन उस वक्त आग उसे इतनी आकर्षक लगी कि वह धुएँ की परवाह किये बिना उस कमरे में धँस पड़ा। दूसरे लोगों ने उसे देखा, लेकिन उस पर कोई ध्यान नहीं दिया। हालाँकि उस समय वह प्रयोगशाला का सबसे वरिष्ठ व्यक्ति था, फिर भी किसी ने उसे आदरपूर्वक आग के पास आमंत्रित नहीं किया। उसे खुद ही अपने लिए जगह बनाकर आग तक पहुँचना पड़ा। लेकिन उसे इसका कोई मलाल नहीं था। आग के पास और सहकर्मियों के बीच पहुँचकर उसकी कँपकँपी बंद हो गयी और उसे अद्भुत राहत का अहसास हुआ। वे सब चिल्ला-चिल्लाकर आपस में बातें कर रहे थे। वह भी खामोश नहीं रह सका।

उसने उन्हें प्रयोगशाला के सर्वोच्च अधिकारी की मृत्यु की सूचना दी। फिर संक्षेप में सरकार से हुई अपनी बातचीत का ब्योरा दिया। इसके बाद सबसे पूछा, ‘‘अब आप लोग बताइए, क्या किया जाये? मौसम की सही जानकारी लोगों तक जरूर पहुँचनी चाहिए, नहीं तो बड़े अनर्थ हो जायेंगे।’’

‘‘अनर्थ तो आप कर चुके हैं, श्रीमान!’’ एक समवयस्क लेकिन पद की दृष्टि से उससे छोटी स्त्री सहकर्मी ने कहा, ‘‘यह मुसीबत आपकी ही बुलायी हुई है। अगर कल आपने सही भविष्यवाणी की होती, तो आज हमारी यह हालत न होती।’’

‘‘सच मानो, दोस्तो!’’ उस आदमी ने सबको सुनाते हुए कहा, ‘‘कल मौसम खराब होने की हल्की-सी आशंका तो थी, लेकिन ऐसे कोई आसार नहीं थे कि मौसम यों अचानक इतने भयानक रूप में बदल जायेगा।’’

लेकिन वहाँ कोई उसकी बात मानने को तैयार नहीं था। सब लोग चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगे, ‘‘तुम आम जनता को बेवकूफ बनाते हो, यह तो हम जानते हैं, लेकिन हम तो तुम्हारे साथी हैं। कम से कम हमें तो तुम बता ही सकते थे कि आज क्या होने वाला है।’’

‘‘कसम से, साथियो, मुझे स्वप्न में भी ऐसी आशंका नहीं थी। अगर होती, तो कम से कम मुझे और अधिकारी को तो मालूम रहता ही कि आज क्या होने वाला है। वैसी हालत में हम जान-बूझकर ठंड में मरने के लिए इतने हल्के कपड़े पहनकर न आते। गर्म कपड़े और बर्फ से बचने का लबादा हम जरूर अपने साथ लाये होते। तब हमारा अधिकारी यों ठंड में ठिठुरकर न मर जाता।’’

तभी बाहर से किसी औरत की आवाज सुनायी पड़ी, जो उस आदमी का नाम ले-लेकर जोर से पुकार रही थी। आवाज पहचानकर वह आदमी दरवाजे की तरफ दौड़ा। बाहर उसकी पत्नी बर्फ से बचाने वाला लबादा ओढ़े खड़ी थी। वह उसके लिए गर्म कपड़े और बर्फीले तूफान में पहनने वाला लबादा लेकर आयी थी। ऐसे तूफान में वह किस तरह आयी होगी, यह सोचकर उस आदमी का दिल उमड़ पड़ा और उसने प्यार से पत्नी को बाँहों में भर लिया।

‘‘बाहर तो बड़ा तेज तूफान है। तुम यहाँ तक पहुँचीं कैसे?’’

‘‘जहाँ चाह, वहाँ राह। बस, पहुँच गयी।’’ उसकी पत्नी ने कहा, ‘‘मुझे तुम्हारी चिंता थी। लेकिन तुम अजीब आदमी हो। दुनिया को न मालूम हो, पर तुम तो खुद मौसम की भविष्यवाणियाँ तैयार करते हो। तुम्हें तो मालूम ही होगा कि आज क्या होने वाला है। फिर तुम इतने कम कपड़े पहनकर घर से क्यों निकले?’’

यह सुनकर उस कमरे में मौजूद तमाम लोग मुस्करा दिये। उन्हें विश्वास हो गया कि आज के मौसम की गलत भविष्यवाणी में उस आदमी का हाथ नहीं है। उस आदमी ने अपनी पत्नी से कहा, ‘‘तुम्हें सिर्फ मेरी चिंता हुई? तुमने यह नहीं सोचा कि यहाँ और भी लोग हैं और वे भी मेरी जैसी हालत में ही घरों से निकले हैं?’’

‘‘मैं अकेली नहीं आयी हूँ। अपनी कॉलोनी के दूसरे लोग भी इन सबके लिए गर्म कपड़े लेकर आये हैं...लो, वे आ गये।’’

वे लोग अपने साथ वातानुकूलन की व्यवस्था को समझने और सुधारने वाले एक आदमी को भी लाये थे, जो आते ही अपने काम में लग गया और उसके थोड़े-से प्रयास से ही प्रयोगशाला पुनः वातानुकूलित हो गयी।

जब सब लोगों ने अपने गर्म कपड़े पहन लिये, उस आदमी ने अपने सहकर्मियों से कहा, ‘‘अब तुरंत पुलिस को सूचित करो कि यहाँ का सर्वोच्च अधिकारी ठंड से मर गया है और यहीं पर मीडिया वालों को बुलाकर एक पत्रकार सम्मेलन आयोजित करो।’’

‘‘लेकिन आपको तो प्रचार विभाग में बुलाया गया है...?’’ एक सहकर्मी ने पूछा।

‘‘जैसा कहा है, वैसा करो। मुझे मालूम है कि मुझे प्रचार विभाग में क्यों बुलाया गया है। सरकार मुझसे यह झूठ बुलवाना चाहती है कि लोग घबरायें नहीं, कल से मौसम साफ हो जायेगा। लेकिन सारे तथ्यों और संकेतों के आधार पर मेरा अनुमान है कि मौसम अभी कुछ दिनों तक ऐसा ही रहेगा। बर्फीली आँधी चलती रहेगी। तापमान कुछ और गिरेगा। लोगों को यह बात न बतायी गयी, तो बहुत-से लोग बेमौत मारे जायेंगे। इसलिए देर मत करो, पुलिस को सूचित करो और पत्रकार सम्मेलन बुलाओ।’’

कहते-कहते वह आदमी व्यंग्यपूर्वक मुस्कराया और बोला, ‘‘प्रचार विभाग की चिंता मत करो, वह अपना झूठ खुद ही बोल लेगा।’’



पत्रकार सम्मेलन में अगले कुछ दिनों तक के मौसम की भविष्यवाणी करते हुए उस आदमी ने लोगों को सलाह दी कि बर्फीली आँधी के समय वे यथासंभव अपने घरों में ही रहें। बाहर निकलना जरूरी ही हो, तो पर्याप्त गर्म कपड़े पहनकर निकलें। समर्थ लोग उन लोगों की सहायता करें, जिनके पास गर्म कपड़े नहीं हैं, लेकिन कामकाज के लिए बाहर निकलना जिनके लिए अनिवार्य है।

पत्रकारों के प्रश्नों के उत्तर देने से पहले उसने एक छोटा-सा वक्तव्य दिया। उसने कहा, ‘‘इतिहास बताता है कि मनुष्य हर देश और हर काल में प्राकृतिक शक्तियों को वैज्ञानिक युक्तियों से अपने वश में करता आया है। लेकिन इस मानवीय प्रयास के पीछे एक अलिखित सिद्धांत काम करता है। वह यह कि जिस प्रकार प्रकृति सबके लिए है, उसी प्रकार विज्ञान भी सबके लिए है। उदाहरण के लिए, ठंड एक प्राकृतिक शक्ति है और मनुष्य को ठंड से बचाने वाले गर्म कपड़े एक वैज्ञानिक युक्ति हैं। ठंड सबको सताती है और गर्म कपड़े सबको ठंड से बचाते हैं। लेकिन सामाजिक अन्याय के चलते गर्म कपड़े सबके पास नहीं होते। जिनके पास होते हैं, वे ठंड से बच जाते हैं; जिनके पास नहीं होते, वे ठंड से मर जाते हैं। लेकिन मौसम की भविष्यवाणी गलत हो जाये और खुशगवार मौसम अचानक बेहद ठंडा हो जाये, तो गर्म कपड़े पहन सकने वाले भी ठंड से मर सकते हैं। जैसे हमारी प्रयोगशाला का सर्वोच्च अधिकारी मर गया। अतः मौसम की मार से बचने के लिए, और सामाजिक अन्याय को दूर करने के लिए भी, यह अलिखित सिद्धांत याद रखना जरूरी है कि प्रकृति सबके लिए है, विज्ञान सबके लिए है। जब इस सिद्धांत की अनदेखी करते हुए थोड़े-से लोग प्रकृति और विज्ञान के स्वामी बनकर उसके साथ मनमानी करने लगते हैं, तब संकट शुरू होते हैं, जैसे जलवायु परिवर्तन का वह भूमंडलीय संकट, जिसकी वजह से आज हमारे यहाँ बर्फीली आँधी चल रही है...’’

एक पत्रकार ने उस आदमी को टोकते हुए पूछा, ‘‘आजकल मौसम की भविष्यवाणियाँ अक्सर गलत क्यों निकलती हैं?’’

उस आदमी ने उत्तर दिया, ‘‘मेरे विचार से इसका कारण यह है कि मौसम-विज्ञान में निहित स्वार्थों से प्रेरित स्वहित वाला  राजनीतिक अर्थशास्त्र घुस गया है। उसे अपने भीतर से निकालना मौसम-विज्ञान के बस की बात नहीं। उससे होने वाली उस गड़बड़ी को, जिससे मौसम की भविष्य- वाणी गलत हो जाती है, ठीक करने का काम सर्वहित वाला राजनीतिक अर्थशास्त्र ही कर सकता है, जो हमें केवल अपने हित में सोचने से रोकता है और सबके हित में काम करने के लिए प्रेरित करता है। अगर दुनिया के सब लोग सबके हित में काम करें, तो प्राकृतिक मौसमों के साथ-साथ समाज, राजनीति, सभ्यता और संस्कृति के खराब मौसम भी बदलकर बेहतर हो जायेंगे।’’


रमेश उपाध्याय

Wednesday, November 23, 2011

भूमंडलीय यथार्थ और साहित्यकार की प्रतिबद्धता

15 नवम्बर, 2011 को अलीगढ़ में दिया गया कुंवरपाल सिंह स्मृति व्याख्यान

आदरणीय अध्यक्ष जी जनाब क़ाज़ी अब्दुल सत्तार साहब, आदरणीया नमिता सिंह जी, भाई अजय तिवारी जी, वेदप्रकाश अमिताभ जी, अमरीक गिल साहब, अजय बिसारिया जी और सभागार में उपस्थित सभी मित्रो! मेरे लिए यह बड़े सम्मान की बात है कि मुझे कुंवरपाल सिंह स्मृति व्याख्यान देने के लिए यहाँ बुलाया गया है। कुंवरपाल सिंह मेरे आदरणीय मित्र और साथी थे। सुयोग्य शिक्षक, अच्छे लेखक और आलोचक, जन-आंदोलनों से जुड़े कर्मठ कार्यकर्ता कुंवरपाल सिंह को याद करते हुए मुझे याद आ रहा है कि पहले मैं उनके बुलाने पर अलीगढ़ आया करता था। कार्यक्रम कुछ भी हो, मुख्या उद्देश्य होता था उनसे, नमिता जी से और इनके प्यारे बच्चों से मिलना। आज कुंवरपाल सिंह नहीं हैं, पर मैं उन्हीं के लिए आया हूँ। आप लोगों के साथ उन्हें याद करने के लिए आया हूँ। आज का मेरा व्याख्यान उन्हीं की स्मृति को समर्पित है। मेरे व्याख्यान का विषय है 'भूमंडलीय यथार्त और साहित्यकार की प्रतिबद्धता'।

मित्रो, मेरा मानना है कि भारत के लिए भूमंडलीकरण कोई नयी चीज नहीं है। हमारे यहाँ बड़े पुराने जमाने से दुनिया को एक मानकर चलने की विचार-परंपरा रही है, जिसकी अभिव्यक्ति ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ और ‘सबै भूमि गोपाल की’ जैसी सूक्तियों में होती रही है। ‘भूमंडलीय यथार्थ’ और ‘भूमंडलीय यथार्थवाद’ की शब्दावली अवश्य नयी है, लेकिन ये अवधारणाएँ हमारे आधुनिक चिंतन में मौजूद रही हैं। उदाहरण के लिए, हम आधुनिक युग के अपने दो महापुरुषों--रवींद्रनाथ ठाकुर और महात्मा गांधी--को याद करें, तो पायेंगे कि ये दोनों ही एक प्रकार के भूमंडलीय यथार्थवादी थे। रवींद्रनाथ ने विश्वभारती की स्थापना की, तो उसका आदर्श-वाक्य लिखा ‘यत्र विश्वंभवत्येकनीडम्’ और महात्मा गांधी ने 1 जून, 1921 के ‘यंग इंडिया’ में लिखा--‘‘मैं नहीं चाहता कि मेरा मकान चारों ओर दीवारों से घिरा हो और मेरी खिड़कियाँ बंद हों। मैं तो चाहता हूँ कि सभी देशों की संस्कृतियों की हवाएँ मेरे घर में जितनी भी आजादी से बह सकें, बहें। लेकिन मैं यह नहीं चाहता कि उनमें से कोई हवा मुझे मेरी जड़ों से ही उखाड़ दे।’’

इतिहास को देखें, तो हमारा देश बाकी दुनिया से कटा हुआ कोई अलग-थलग भूखंड कभी नहीं रहा है। हम दूसरे देशों में जाते रहे हैं और दूसरे देशों के लोग हमारे यहाँ आते रहे हैं। व्यापारिक लेन-देन और सांस्कृतिक आदान-प्रदान भी हम हमेशा करते रहे हैं। पूँजीवाद के आने पर तो हमारा भूमंडलीकरण होना ही था, क्योंकि पूँजीवाद शुरू से ही एक विश्व-व्यवस्था है। मार्क्स ने जब यह कहा था कि पूँजीपति अपने मुनाफे के लिए दुनिया के किसी भी कोने-अंतरे में जा सकता है, तो एक प्रकार से भूमंडलीय यथार्थ को ही व्यक्त किया था। भारतीय मार्क्सवादी भी अंतरराष्ट्रीयतावाद में विश्वास करते हुए हमेशा भारतीय यथार्थ को भूमंडलीय यथार्थ के संदर्भ में समझते रहे हैं।

लेकिन पूँजीवादी भूमंडलीकरण हमेशा एक-सा नहीं रहा है। उसके कई रूप और अलग-अलग दौर रहे हैं। मसलन, साम्राज्यवाद या उपनिवेशवाद के दौर का भूमंडलीकरण एक तरह का था, तो समाजवाद और पूँजीवाद के बीच चले शीतयुद्ध के दौर का भूमंडलीकरण दूसरी तरह का। सोवियत संघ के विघटन और शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद पूँजीवादी भूमंडलीकरण का एक नया दौर शुरू हुआ है। उससे भूमंडलीय यथार्थ बदल गया है और इसी कारण साहित्य में एक नये यथार्थवाद की जरूरत महसूस की जा रही है।

इसी तरह साहित्यकार की प्रतिबद्धता भी कोई नयी चीज नहीं है, लेकिन वह भी विभिन्न प्रकार की होती है। उसके भी विभिन्न रूप इतिहास में और आज भी पाये जाते हैं। मैं तो यह मानता हूँ कि साहित्यकार होना ही प्रतिबद्ध होना है, क्योंकि साहित्यकार--किसी भी युग का और किसी भी देश का साहित्यकार--सत्य, न्याय, नैतिकता, सुंदरता, प्रेम, समता, स्वतंत्रता जैसी सकारात्मक चीजों का पक्षधर और असत्य, अन्याय, अनैतिकता, कुरूपता, घृणा, विषमता, पराधीनता जैसी नकारात्मक चीजों का विरोधी होता है। यदि ऐसा नहीं है, तो वह साहित्यकार कहलाने का अधिकारी ही नहीं है। सच्चा साहित्यकार वह है, जिसे बड़े से बड़ा दमन या प्रलोभन भी ऐसी पक्षधरता और प्रतिबद्धता से विचलित न कर सके। किसी भी देश-काल और किसी भी भाषा के महान साहित्यकारों को देखें, सबमें ऐसी पक्षधरता और प्रतिबद्धता दिखायी पड़ेगी।

जहाँ तक वैचारिक प्रतिबद्धता का सवाल है, वह भी कोई नयी अथवा प्रगतिशील और जनवादी साहित्य की ही विशेषता नहीं है। यह विशेषता भी प्रत्येक देश-काल के महान साहित्य में मौजूद रही है। उदाहरण के लिए, भक्तिकाल के हिंदी साहित्य को देखें। उसमें सगुण भक्ति वाले कवि हों या निर्गुण भक्ति वाले कवि, रामभक्त कवि हों या कृष्णभक्त कवि, संत कवि हों या सूफी कवि--सब में वैचारिक प्रतिबद्धता देखी जा सकती है। सूर, तुलसी, कबीर, जायसी, मीरा आदि में से किसी को भी देख लीजिए। सभी में यह चीज मिलेगी। मीराबाई जब कहती हैं कि ‘‘मेरे तो गिरधर गुपाल दूसरो न कोई’’, तो अपनी प्रतिबद्धता ही व्यक्त करती हैं। इसी प्रकार तुलसीदास जब कहते हैं कि ‘‘जाके प्रिय न राम-वैदेही, तजिए ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही’’, तो अपनी प्रतिबद्धता ही प्रकट करते हैं। यह और बात है कि मैं व्यक्तिगत रूप से मीराबाई की-सी प्रतिबद्धता पसंद करता हूँ, जिसमें अपनी प्रतिबद्धता की अभिव्यक्ति तो है, उसके लिए लोकलाज की परवाह न करने से लेकर विष का प्याला तक पी लेने की बात भी है, लेकिन तुलसीदास की तरह दूसरों को यह उपदेश या आदेश देने वाली बात नहीं है कि जो हमारे राम-वैदेही से प्रेम नहीं करते--अथवा हमारी विचारधारा से सहमत नहीं हैं--उन्हें करोड़ों शत्रुओं के समान मानकर त्याग देना चाहिए। आज के साहित्य में भी, प्रगतिशील और जनवादी साहित्य में भी, मीराबाई की-सी और तुलसीदास की-सी प्रतिबद्धताओं के उदाहरण मिल जायेंगे।

1970-80 के दशकों में हिंदी के प्रगतिशील और जनवादी साहित्यकारों के बीच प्रतिबद्धता एक बड़ा मूल्य मानी जाती थी। लेखक का प्रतिबद्ध होना जरूरी माना जाता था, क्योंकि साहित्य और साहित्यकारों को दो खेमों या शिविरों में बँटा माना जाता था, जैसे प्रगतिशील और प्रतिक्रियावादी, समाजवादी और पूँजीवादी, जनवादी और जन-विरोधी, जनपक्षीय और शासकवर्गीय इत्यादि। मगर यह विभाजन प्रगतिशील और जनवादी लेखक ही किया करते थे। वे जिन लेखकों को दूसरे खेमे का कहते थे, वे तो ऐसे नामकरणों को सिरे से नकारते थे। वे लेखकों को खेमों या शिविरों में बाँटना पसंद नहीं करते थे, इसलिए ‘खेमेबाजी’ या ‘शिविरबद्धता’ को साहित्य के लिए हानिकारक समझते हुए प्रतिबद्धता को हिकारत की नजर से देखते थे। वे प्रतिबद्धता को वैचारिक गुलामी कहते थे और लेखक के विचार-स्वातंत्रय को बहुत बड़ा मूल्य मानते थे। वे जनवाद और समाजवाद की जगह व्यक्तिवाद और व्यक्ति-स्वातंत्रय की बात करते थे और साहित्य को राजनीति से अलग तथा ऊपर की कोई चीज मानते थे। दूसरी तरफ प्रगतिशील और जनवादी लेखक यह कहते थे कि साहित्य को राजनीति से अलग या ऊपर की कोई चीज मानना भी एक विचारधारा है, यह भी एक राजनीति है।

उन दिनों प्रगतिशील और जनवादी लेखकों के बीच मुक्तिबोध के दो कथन बहुत प्रचलित थे। एक यह कि ‘‘पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’’ और दूसरा यह कि ‘‘बशर्ते तय करो किस ओर हो तुम’’। मुक्तिबोध ऐसी बातें पूँजीवादी और समाजवादी व्यवस्थाओं के बीच चलने वाले उस शीतयुद्ध के संदर्भ में कहा करते थे, जो विचारधारात्मक और प्रचारात्मक हथियारों से लड़ा जाता था। साहित्यकार भी, चाहे वे प्रतिबद्ध साहित्यकार हों या अप्रतिबद्ध साहित्यकार, अपनी वर्गीय स्थितियों अथवा सामाजिक परिस्थितियों के चलते अनजाने ही या सचेत रूप से उस युद्ध में शामिल रहते थे। जो सचेत रूप से समाजवाद के पक्ष में और पूँजीवाद के विरुद्ध लड़ते थे, वे अपनी पक्षधरता को छिपाते नहीं थे, क्योंकि वे स्वयं को देश और दुनिया के तमाम शोषित-उत्पीड़ित जनों की मुक्ति के लिए लड़ने वाला सिपाही मानते थे। प्रेमचंद की तरह ‘कलम का सिपाही’। वे शोषण, दमन, अन्याय और अत्याचार पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध एक शोषणमुक्त समतामूलक और न्यायपूर्ण व्यवस्था के लिए लड़ने वाले लेखक के रूप में अपने पक्ष को नैतिक आधार पर उचित समझते थे, इसलिए अपनी राजनीति को दूसरे पक्ष के साहित्यकारों की तरह छिपाते नहीं थे। जो लेखक अपनी राजनीति को छिपाते थे, उनसे वे पूछते थे कि ‘‘पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’’ और उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय, सही-गलत आदि में फर्क न कर पाने के कारण दुविधा में पड़े साहित्यकारों को बताते थे कि लड़ाई तो तुम्हें लड़नी ही पड़ेगी, चाहे इस पक्ष में रहकर लड़ो या उस पक्ष में रहकर, इसलिए तय करो कि तुम किस पक्ष में हो।

मुक्तिबोध जिस यथार्थ के संदर्भ में ऐसे प्रश्न उठा रहे थे, वह उनके समय का भूमंडलीय यथार्थ था। उस समय दुनिया तीन दुनियाओं में बँटी हुई थी--पूँजीवादी देशों वाली पहली दुनिया, समाजवादी देशों वाली दूसरी दुनिया और औपनिवेशिक गुलामी से नये-नये आजाद हुए देशों वाली तीसरी दुनिया। पहली और दूसरी दुनियाओं के बीच शीतयुद्ध चल रहा था, जिसके एक पक्ष का नेतृत्व अमरीका कर रहा था और दूसरे पक्ष का नेतृत्व सोवियत संघ। तीसरी दुनिया के देशों के सामने एक विकल्प यह था कि वे पूँजीवादी खेमे में रहें, दूसरा विकल्प यह था कि समाजवादी खेमे में चले जायें और तीसरा विकल्प यह कि वे दोनों गुटों से अलग गुटनिरपेक्ष देशों के रूप में अपनी खिचड़ी अलग ही पकायें। भारत ने तीसरा विकल्प अपनाया और गुटनिरपेक्ष देशों का आंदोलन ही नहीं चलाया, उसका नेतृत्व भी किया। भारत ने वैश्विक राजनीति में ही नहीं, अपनी अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में भी एक मध्यम मार्ग अपनाया। उसमें थोड़ा पूँजीवाद और थोड़ा समाजवाद मिलाकर मिश्रित अर्थव्यवस्था चलायी। यह एक अच्छी विदेशनीति और अच्छी अर्थनीति थी, जो चलती रहती, तो हमारे देश का इतिहास आज कुछ और ही होता। बेहतर ही होता। लेकिन दुर्भाग्य से पूँजीवाद और समाजवाद दोनों के समर्थक इन नीतियों को गलत समझते थे। पूँजीवाद के समर्थक चाहते थे कि भारत अमरीका को अपना आदर्श माने और पूँजीवादी ढंग से अपना विकास करते हुए अमरीका जैसा देश बनने का प्रयास करे। इसलिए उन्हें नेहरू का समाजवादी रुझान, गुट-निरपेक्षता की विदेशनीति और मिश्रित अर्थव्यवस्था वाली आर्थिक नीति पसंद नहीं थी। दूसरी तरफ समाजवाद के समर्थक, जो सोवियत संघ को अपना आदर्श मानते थे, गुट-निरपेक्षता और मिश्रित अर्थव्यवस्था को राजनीतिक अवसरवाद या ढुलमुलपन समझते थे। उन्हें भारत का यह ढुलमुल रवैया पसंद नहीं था। वे चाहते थे कि भारत वैश्विक राजनीति में खुल्लमखुल्ला पूँजीवाद के विरुद्ध समाजवाद के पक्ष में खड़ा हो। यही अपेक्षा वे साहित्यकारों से करते थे। इसीलिए वे मुक्तिबोध के उपर्युक्त कथनों को बार-बार दोहराते थे। इसमें कहीं न कहीं यह भाव भी शामिल होता था कि जो हमारे साथ नहीं है, या तटस्थता की बात करता है, वह निश्चय ही दूसरे खेमे का है और हमारा शत्रु है। यदि ऐसा नहीं है, तो वह समाजवादी खेमे के पक्ष में खुलकर खड़ा हो और अपनी प्रतिबद्धता को स्पष्ट करे। अर्थात् हमारे साथ आकर अपनी प्रतिबद्धता का प्रमाण दे।

आगे चलकर जब समाजवादी शिविर के अंदर आपसी मतभेद उभरे और भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में यह सवाल उठा कि भारत में क्रांति रूसी रास्ते पर चलकर होगी या चीनी रास्ते पर चलकर, और इस सवाल पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन तथा पुनर्विभाजन होने से एक की जगह तीन-तीन कम्युनिस्ट पार्टियाँ बन गयीं, और बाद में तीनों के अपने अलग-अलग लेखक संगठन भी बन गये, तो साहित्यकार की प्रतिबद्धता का प्रश्न एक जटिल समस्या बन गया। लेखकों के लिए यह तय करना मुश्किल हो गया कि वे किससे प्रतिबद्ध हों। नेताओं ने इस समस्या का एक सरल समाधान यह बताया कि साहित्यकार उस दल और संगठन से जुड़ें, जो सबसे सही हो। लेकिन इससे हुआ यह कि वामपंथी दलों और उनसे जुड़े लेखक संगठनों में स्वयं को सही और दूसरों को गलत साबित करने की होड़ मच गयी। संकीर्णता और कट्टरता बढ़ी और इस विचार ने जोर पकड़ा कि जो लेखक हमारे दल और संगठन को सबसे सही नहीं मानता, वह हमारा शत्रु है। हमारा शत्रु, यानी जन-शत्रु, वर्ग-शत्रु, क्रांति का शत्रु, क्रांतिकारी विचारधारा का शत्रु। प्रगतिशील और जनवादी साहित्यकार अपनी प्रतिबद्धता पर ध्यान देने की जगह दूसरों की प्रतिबद्धता को सही-गलत ठहराने लगे और इसी आधार पर उन्हें मित्र या शत्रु समझने लगे। कहने को वे सभी मार्क्सवादी, प्रगतिशील और जनवादी थे, लेकिन उनमें वर्ण, जाति और संप्रदाय जैसे भेद, ऊँच-नीच तथा वैमनस्य के भाव दिखायी पड़ने लगे। इसकी प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति गुलाबी, लाल और गाढ़े लाल रंगों वाले लेखकों के भेद के रूप में हुई। 1973 में रणजीत और केदारनाथ अग्रवाल ने बाँदा में प्रगतिशील लेखकों का जो सम्मेलन आयोजित किया था, उसे ‘‘विभिन्न रंगतों वाले प्रगतिशील लेखकों का सम्मेलन’’ कहा गया।

इस प्रकार साहित्यकार की प्रतिबद्धता का निर्णय उसकी दलगत संबद्धता को देखकर किया जाने लगा। कौन कितना अधिक प्रतिबद्ध है, इसका निर्णय उसकी ‘रंगत’ यानी दलगत संबद्धता को देखकर किया जाता था, जिसको प्रमाणित करने का काम उस दल के नेता अथवा उससे जुड़े लेखक संगठन के नेता करते थे। फिर दल और लेखक संगठन के भीतर भी अलग-अलग गुट होते थे, उन गुटों के अलग-अलग नेता होते थे, इसलिए लेखक को अपनी प्रतिबद्धता प्रमाणित कराने के लिए उनमें से किसी न किसी गुट में शामिल होना पड़ता था और उस गुट के नेता के प्रति निष्ठावान रहना पड़ता था। लेखक संगठनों में पार्टी के सदस्यों और समर्थकों की प्रतिबद्धता में तो भेद किया ही जाता था, पार्टी के सदस्य लेखकों को भी उनकी पार्टी पोजीशन के मुताबिक कम या ज्यादा प्रतिबद्ध माना जाता था।

होना तो यह चाहिए था कि प्रतिबद्धता को लेखक के निजी निर्णय पर आधारित और उसके नैतिक आचरण से संबंधित उसका एक आंतरिक गुण माना जाता, लेकिन हुआ यह कि साहित्यकार की प्रतिबद्धता को उसकी दलगत प्रतिबद्धता में रिड्यूस करके देखा जाने लगा। इससे लेखकों में एक तरफ यह डर पैदा हुआ कि पार्टी की रीति-नीति से अलग कुछ लिखने पर कहीं उन्हें पार्टी-विरोधी न समझ लिया जाये, तो दूसरी तरफ तुलसीदास की-सी कट्टरता पैदा हुई कि ‘‘जाके प्रिय न राम-वैदेही, तजिए ताहि कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही’’! स्वयं को सही और दूसरों को गलत ठहराने की ऐसी होड़ मची कि प्रलेस (प्रगतिशील लेखक संघ) से जुड़े लेखक जलेस (जनवादी लेखक संघ) और जसम (जन संस्कृति मंच) से जुड़े लेखकों को गलत ठहराने लगे, जलेस से जुड़े लेखक प्रलेस और जसम से जुड़े लेखकों को गलत ठहराने लगे और जसम से जुड़े लेखक प्रलेस और जलेस से जुड़े लेखकों को गलत ठहराने लगे। दूसरी पार्टियों को गलत और अपनी पार्टियों को सही सिद्ध करते-करते वे अपनी पार्टी को इतनी ज्यादा सही मानने लगे कि जैसे वह तो गलती कर ही नहीं सकती और उन्हें हर हाल में उसे सही साबित करना ही है। यही कारण था कि ‘‘चीन का चेयरमैन हमारा चेयरमैन’’ का नारा देने वाली पार्टी हो या आपातकाल का समर्थन करने वाली पार्टी या ज्योति बसु को प्रधानमंत्री न बनने देने की ‘‘हिमालयन ब्लंडर’’ करने वाली पार्टी, लेखकों ने अपनी-अपनी पार्टी को सही ही सिद्ध किया। इससे यह भी हुआ कि पार्टियों से प्रतिबद्ध लेखकों की रचनाओं में यथार्थ की जगह पार्टी द्वारा की गयी उसकी राजनीतिक व्याख्या लिखी जाने लगी। यहाँ तक कि मार्क्सवाद भी अपने-आप पढ़ने-समझने की चीज नहीं रहा, पार्टी उसकी जो व्याख्या करती, उसी को मार्क्सवाद मान लिया जाता। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक ही था कि स्वतंत्र रूप से सोचने-समझने वाले लेखक पार्टी-विरोधी मान लिये जायें और अंधभक्तों की तरह व्यवहार करने वाले लेखक प्रतिबद्ध लेखक माने जायें।

मेरे विचार से प्रतिबद्धता का मतलब दलगत राजनीति की रस्सी गले में डालकर पार्टी के खूँटे से बँध जाना नहीं है। मार्क्सवाद से लेखक की प्रतिबद्धता का मतलब है मार्क्सवाद को स्वयं पढ़ना-समझना, उसके आधार पर यथार्थ को अपने ढंग से विश्लेषित और व्याख्यायित करना, और अपनी व्याख्या पार्टी की व्याख्या से भिन्न होने पर अपनी समझ पर भरोसा करते हुए उसी के अनुसार यथार्थ का चित्रण करना, यथार्थवादी रहते हुए अपनी प्रतिबद्धता को कायम रखना, उसे विस्तार और गहराई देना, अपनी कथनी और करनी की एकता पर आधारित सच्चा प्रतिबद्ध आचरण करना और सोद्देश्य, सार्थक, कलात्मक तथा पाठकों को प्रेरित करने वाला लेखन करना। प्रतिबद्ध लेखक को यह मानकर चलना चाहिए कि उसके लेखन के अच्छे-बुरे परिणामों के लिए कोई दल या संगठन नहीं, वह स्वयं जिम्मेदार है। अतः उसे अपनी प्रतिबद्धता को दल या संगठन से प्रमाणित कराने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन 1970-80 के दशकों में हिंदी के प्रगतिशील-जनवादी लेखकों की प्रतिबद्धता दलगत आधारों पर जाँची-परखी जाती थी और पार्टियों के साहित्यिक कमिसार लेखकों को उनकी प्रतिबद्धता के प्रमाणपत्र दिया करते थे। लेकिन जब प्रतिबद्धता को प्रमाणित कराना पड़े, इसके लिए समझौते करने पड़ें, तो प्रतिबद्धता एक मजाक बनकर रह जाती है।

जिन दिनों हिंदी साहित्य में प्रतिबद्धता का यह हाल हो रहा था, ऐसी प्रतिबद्धता से परेशान प्रगतिशील और जनवादी लेखकों के बीच एक चुटकुला चला करता था कि एक लीडर कॉमरेड अपने काडर कॉमरेड से कहता है--‘‘आओ, साथी, तुम्हारी आत्मालोचना करें।’’ इस पर काडर कॉमरेड लीडर कॉमरेड से कहता है--‘‘साथी, इससे तो अच्छा, मैं आत्महत्या कर लूँ।’’ यह सुनकर लीडर कॉमरेड कहता है--‘‘तो ठीक है, आओ, तुम्हारी आत्महत्या करते हैं।’’

इस चुटकुले का ‘आत्मालोचना’ वाला पूर्वार्ध पहले से चला आ रहा था, ‘आत्महत्या’ वाला उत्तरार्ध मैंने गढ़ा था, क्योंकि मैं प्रतिबद्धता को किसी अन्य से प्राप्त प्रमाणपत्र या मैडल नहीं, लेखक का अपना आंतरिक गुण मानता था और मानता हूँ।

मैं साहित्यकार की प्रतिबद्धता को एक नैतिक निर्णय और उस पर आधारित नैतिक आचरण मानता हूँ। मेरी यह मान्यता मार्क्सवाद और साम्यवादी आंदोलन के इतिहास के मेरे अध्ययन पर आधारित है। उसी अध्ययन के आधार पर मैंने 1974 में ‘कम्युनिस्ट नैतिकता’ नामक पुस्तिका लिखी थी, जिसे एक तरफ व्यापक स्वीकृति और सराहना प्राप्त हुई थी, तो दूसरी तरफ जिसकी तीखी आलोचना भी हुई थी। तीखी आलोचना करने वालों में मेरे आदरणीय मित्र सव्यसाची भी थे, लेकिन बाद में जब वैश्विक परिस्थिति बदल गयी थी, उन्होंने अपनी भूल मानते हुए लिखा था कि मैंने उस पुस्तिका में जो सवाल उठाये थे, वे सही और जरूरी थे।

1973 के बाँदा सम्मेलन में मुझे किस रंगत के प्रगतिशील लेखक के रूप में बुलाया गया था, मुझे मालूम नहीं; क्योंकि मैं अपने लेखन के आधार पर प्रगतिशील माना जाता था, किसी कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता के आधार पर नहीं। बाद में जब मैं जनवादी लेखक संघ के निर्माण में सक्रिय हुआ और उसके निर्माण के बाद पहले उसकी केंद्रीय कार्यकारिणी में तथा बाद में उसके राष्ट्रीय सचिव मंडल में मुझे शामिल किया गया, तब भी मैं किसी कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य नहीं था। जनवादी लेखक संघ के मेरे कई साथी--जिनमें चंद्रबली सिंह, भैरव प्रसाद गुप्त, शिव कुमार मिश्र, ओमप्रकाश ग्रेवाल, सव्यसाची, इसराइल और कुँवरपाल सिंह जैसे मेरे कई अग्रज मित्र शामिल थे--मुझसे कहा करते थे कि अब तो तुम्हें पार्टी की सदस्यता ले ही लेनी चाहिए। लेकिन यह जानते हुए भी कि बहुत-से लोग मुझे सी.पी.एम. का कट्टर कार्ड होल्डर कार्यकर्ता समझते हैं--बहुधा मेरे बारे में ऐसा कहा और लिखा भी जाता रहा है--मैंने अपनी प्रतिबद्धता पर किसी पार्टी का ठप्पा लगवाना उचित नहीं समझा। मुझे याद है कि एक बार शिव कुमार मिश्र और अजय तिवारी मुझे पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर लेने का सुझाव देने के लिए मेरे घर आये थे। दोनों मेरे आदर और स्नेह के पात्र हैं, लेकिन मैंने उनके सुझाव को विनम्रतापूर्वक अस्वीकार करते हुए अध्यापक पूर्णसिंह के निबंध ‘आचरण की सभ्यता’ का एक वाक्य उद्धृत किया था कि ‘‘सच्चा साधु धर्म को गौरव देता है, धर्म किसी को गौरवान्वित नहीं करता’’।

बहरहाल, वह दौर गुजर चुका है और ऐसा लगता है कि साहित्यकार की प्रतिबद्धता की बात करना ‘आउट ऑफ फैशन’ हो गया है। आज के साहित्यकारों के लिए, खास तौर से नयी पीढ़ी के साहित्यकारों के लिए, उसका कोई मतलब नहीं रह गया है। जब उनके लिए समाजवाद ही समाप्त हो गया, मार्क्सवाद ही अप्रासंगिक हो गया, प्रगतिशीलता और जनवाद का ही कोई मतलब नहीं रहा, तो प्रतिबद्धता का क्या मतलब? किसी हद तक उनकी बात ठीक भी है, क्योंकि 1970-80 के दशकों की बहुत-सी बातें अब अपना अर्थ खो चुकी हैं। बर्लिन की दीवार के ढहने के बाद से दुनिया का यथार्थ बहुत बदल गया है। सोवियत संघ तो रहा ही नहीं, रूस और पूर्वी यूरोप के देशों में भी समाजवाद की जगह पूँजीवाद आ गया है। चीन में कहने को अब भी कम्युनिस्ट पार्टी का शासन है, लेकिन वहाँ ठाठ से पूँजीवाद चल रहा है। वह जमाना ही हवा हो गया है, जब एक दुनिया पूँजीवादी थी, दूसरी समाजवादी, और तीसरी दुनिया के हमारे जैसे देशों के पास यह विकल्प था कि हम पहली और दूसरी दुनिया के बीच जारी शीतयुद्ध में किसके पक्ष में खड़े हों या दोनों गुटों से अलग अपना गुटनिरपेक्ष आंदोलन चलायें।

बदले हुए यथार्थ में कुछ विकल्प तो वास्तव में नहीं बचे हैं, लेकिन कई विकल्प अब भी बचे हुए हैं और कई नये विकल्प पैदा हो गये हैं। उदाहरण के लिए, यह पुराना विकल्प बचा हुआ है कि निजी क्षेत्र और सार्वजनिक क्षेत्र वाली मिश्रित अर्थव्यवस्था को अब भी जारी रखा जा सकता है और नया विकल्प यह पैदा हुआ है कि अब ‘‘एक देश में समाजवाद’’ की जगह ‘‘पूरी दुनिया में समाजवाद’’ लाया जा सकता है। आज का पूँजीवाद इसी डर से दुनिया को विकल्पहीन बनाने की कोशिश कर रहा है। वह ऐसा करने में समर्थ तो नहीं है, लेकिन अपने विश्वव्यापी प्रचार तंत्र के जरिये बहुत-से लोगों के मन में यह बात भरने में जरूर सफल हो रहा है कि पूँजीवाद का कोई विकल्प नहीं है। वह अपने असंख्य मुखों से कह रहा है कि शीतयुद्ध समाप्त हो गया है, उस युद्ध में समाजवाद हार गया है, पूँजीवाद जीत गया है, और इस प्रकार दुनिया दो ध्रुवों वाली न रहकर एकध्रुवीय हो गयी है। भूमंडलीकरण ने पहली, दूसरी और तीसरी दुनिया के भेद मिटा दिये हैं। दुनिया एक ग्लोबल गाँव बन गयी है। अब उस ग्लोबल गाँव के चौधरी जी-7 वाले सात देश हों या जी-20 वाले बीस देश, उन सबका मुखिया एक अमरीका ही है, जो ईश्वर की इच्छा से अखिल भूमंडल का स्वाभाविक शासक है। अब सारी दुनिया में और हमेशा पूँजीवाद ही चलेगा--निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों वाला नव-उदार पूँजीवाद--जिसका कोई विकल्प नहीं है।

इस पूँजीवादी प्रचार का प्रतिवाद भी हो रहा है। समाजवादी विचारक किशन पटनायक ने एक पुस्तक लिखी है ‘विकल्पहीन नहीं है दुनिया’। मुझ जैसे बहुत-से हिंदी लेखक भी यह मानते हैं कि दुनिया विकल्पहीन नहीं है। फिर भी, विकल्पहीनता के इस प्रचार से आज के बहुत-से साहित्यकार प्रभावित हैं। आपको याद होगा कि ब्रिटेन की पूर्व प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर के मुँह से बार-बार ‘‘देयर इज नो ऑल्टरनेटिव’’ सुनकर वहाँ के लोगों ने इस कथन के प्रथमाक्षरों को जोड़कर उनका नाम ‘टीना’ रख दिया था। मैंने जब हिंदी के कई साहित्यकारों को बार-बार ‘‘कोई विकल्प नहीं’’ कहते सुना, तो उसी तर्ज पर इस पद के प्रथमाक्षरों को जोड़कर उनका नाम ‘कोविन’ रख दिया और एक निबंध लिखा ‘हिंदी साहित्य के कोविन’। उसमें मैंने लिखा कि हिंदी के कई लेखक पहले हर चीज के विकल्प की जरूरत बताते थे--वैकल्पिक व्यवस्था, वैकल्पिक सरकार, वैकल्पिक राजनीति, वैकल्पिक मीडिया, वैकल्पिक शिक्षा, वैकल्पिक साहित्य, वैकल्पिक संस्कृति आदि--लेकिन अब उन्हें अपनी ही बातें गलत या झूठी लगती हैं। अब उनका नारा है: कोई विकल्प नहीं है। वे यह मानते हैं, और खुल्लमखुल्ला कहते भी हैं, कि पहले वे नासमझ थे, अब समझदार हो गये हैं। दुनिया बदल गयी है, एक सर्वथा नयी परिस्थिति पैदा हो गयी है, इसलिए साहित्य, साहित्यकारों, साहित्यिक संस्थाओं, साहित्यिक संगठनों, साहित्यिक पत्रिकाओं आदि को भी बदल जाना चाहिए।

मैंने उस निबंध में यह भी लिखा था कि हिंदी साहित्य के कोविन लेखक की पक्षधरता और प्रतिबद्धता तथा साहित्य की सार्थकता और सोद्देश्यता को भुलाकर यह मानने लगे हैं कि साहित्य स्वायत्त है। समाज से उसका कोई लेना-देना नहीं है। उसका कोई प्रयोजन नहीं होता। वह भाषा का खेल या खिलवाड़ है। वह मीडिया के जरिये बाजार में बिकने वाला माल है। उसे बेचकर अधिक से अधिक लाभ कमाना ही लेखक का उद्देश्य है। जो जितना ज्यादा बिके, उतना ही बड़ा लेखक है। समाज वगैरह की चिंता छोड़कर लेखक को अपना बाजार बनाना चाहिए। हिंदी का या भारत का बाजार बहुत छोटा है, इसलिए उसे विश्व बाजार में अपनी जगह बनानी चाहिए!

आज के नये लेखकों पर कोविनों का काफी असर है। बात यह है कि साहित्य के शिक्षक, आलोचक, साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादक, साहित्यिक संस्थाओं के नियामक, पुरस्कारों के निर्णायक आदि यथार्थ को जिस रूप में देखते-दिखाते हैं, नयी पीढ़ी के लेखक अक्सर उसी को यथार्थ मानने लगते हैं। आज के वे नये लेखक, जो विकल्पहीनता को ही यथार्थ मानते हुए साहित्य की दुनिया में आये हैं, बाजार और बाजारवाद में फर्क नहीं कर पाते हैं। उन्हें शायद किसी ने बताया ही नहीं कि बाजार तो पूँजीवाद के आने के पहले भी था और शायद पूँजीवाद के जाने के बाद भी रहेगा, लेकिन बाजारवाद एक विशेष प्रकार का पूँजीवाद है, जिसे नव-उदार पूँजीवाद कहते हैं और जिसमें यह माना जाता है कि अर्थव्यवस्था में राज्य का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए, क्योंकि बाजार की ताकतें अर्थव्यवस्था को ज्यादा अच्छी तरह चला सकती हैं। बाजारवाद पूँजीवाद का एक प्रकार है और वह शाश्वत या निर्विकल्प नहीं है। इसका विकल्प है समाजवाद। और आज का भूमंडलीय यथार्थ यह है कि दुनिया पूँजीवाद से तंग आ चुकी है और इसके विकल्प समाजवाद की ओर जा रही है। भूमंडलीय पूँजीवाद की जगह भूमंडलीय समाजवाद का विचार आज की दुनिया का सबसे नया और प्रेरक विचार है।

आज का पूँजीवाद अपनी कब्र खोदने वाले इस विचार से आतंकित है। वह इसे दबाने, गलत ठहराने और खत्म करने के तमाम हथकंडे अपना रहा है, लेकिन इसमें सफल नहीं हो पा रहा है। यह आज का भूमंडलीय यथार्थ है। नयी पीढ़ी को इस यथार्थ से परिचित कराने का काम प्रगतिशील और जनवादी साहित्यकारों को, उनके लेखक संगठनों को, वामपंथी दलों को और उनसे संबद्ध सामाजिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्र के कार्यकर्ताओं को करना चाहिए। लेकिन जब उनमें से अधिकांश कोविन बन गये हों, विकल्पहीनता को ही यथार्थ मानने लगे हों, सोवियत संघ के विघटन से हताश और लस्त-पस्त होकर बैठ गये हों, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी को अपना आदर्श मानकर समाजवाद की जगह पूँजीवाद को ही भूमंडलीय यथार्थ मानने लगे हों, उसी के अनुसार अपनी रीति-नीति निर्धारित करने लगे हों, तो नये साहित्यकारों को भूमंडलीय समाजवाद के विचार से प्रतिबद्ध होने के लिए कौन प्रेरित करेगा?

कोविनों द्वारा इस प्रश्न का जो उत्तर आम तौर पर दिया जाता है, वह विकल्पहीनता के निराशाजनक विचार में से निकलता है और निराशा ही फैलाता है। यह उत्तर कुछ इस प्रकार का होता है: क्या किया जाये, प्रगतिशील और जनवादी साहित्य का वह आंदोलन ही समाप्त हो गया है, जो लेखकों को प्रतिबद्ध होने के लिए प्रेरित करता था। वामपंथी दल और उनके लेखक संगठन ऐसा कोई आंदोलन खड़ा नहीं कर पा रहे, जो नये लेखकों को वामपंथ की ओर आकर्षित करे। वामपंथी राजनीतिक नेताओं को तो साहित्य-वाहित्य की तरफ ध्यान देने की फुर्सत ही नहीं है, लेखक संगठनों के नेता भी नये लेखकों से कोई जीवंत संबंध, संपर्क और संवाद नहीं बना पा रहे हैं। नतीजा यह है कि नये लेखक प्रगतिशीलता, जनवाद, समाजवाद और मार्क्सवाद की ओर आकर्षित होने के बजाय बाजारवादी और अवसरवादी बन रहे हैं। समाज, देश, दुनिया और मानवता की बेहतरी के लिए प्रतिबद्ध लेखन करने के बजाय व्यक्तिगत सफलता और निजी उपलब्धियों के लिए अप्रतिबद्ध लेखन करते हैं। फिर, नये लेखक यह भी देखते हैं कि प्रगतिशील और जनवादी लेखक भी तो प्रतिबद्धता का कोई आदर्श प्रस्तुत नहीं कर रहे हैं--वे या तो अपने दल या संगठन के कार्यकर्ता बनकर रह गये हैं और लिखना बंद कर बैठे हैं, या ऐसा खराब लेखन करते हैं, जिससे नये लेखक प्रेरित होना तो दूर, प्रभावित भी नहीं होते। ऐसे में नये लेखक किससे प्रभावित और प्रेरित होकर प्रतिबद्ध लेखन करें?

जाहिर है कि यह प्रश्न का उत्तर या समस्या का समाधान नहीं, बल्कि विकल्पहीनता से चलकर विकल्पहीनता तक ही पहुँचने वाली निराशाजनक बातें या शिकायतें हैं। ये बातें या शिकायतें निराधार तो नहीं हैं, लेकिन एक बंद दायरे की सोच को सामने लाती हैं। होना यह चाहिए कि हम ‘कला के लिए कला’ वालों की तरह प्रश्न उठाने के लिए प्रश्न न उठायें, बल्कि उनके उत्तर खोजें। समस्याओं की ही बात न करें, उनके समाधान भी सोचें। माना कि आज का साहित्यिक वातावरण निराशाजनक है, लेकिन सवाल यह है कि इसे बदलने और बेहतर बनाने का काम कौन करेगा? क्या इस काम को करने के लिए वामपंथी दलों के नेता और राजनीतिक कार्यकर्ता आयेंगे? क्या इस काम को लेखक संगठनों के नेता करेंगे? उन्हें यह काम करना होता, या वे कर सकते, तो क्या वे इस काम को कर न रहे होते? तो फिर, क्या इस काम को करने के लिए आसमान से कोई फरिश्ते आयेंगे?

मेरा कहना यह है कि यह काम प्रतिबद्ध लेखकों का है और उन्हीं को करना है। यहाँ मुझे अपना ही उदाहरण देने के लिए क्षमा किया जाये, लेकिन मैं आपको बताना चाहता हूँ कि मैं किस तरह सोचता हूँ। मैं अपने-आप से कहता हूँ--क्या तुमसे किसी डॉक्टर ने कहा था कि तुम्हें लेखक बनना है और प्रतिबद्ध लेखक ही बनना है? तुम स्वेच्छा से लेखक बने थे और प्रतिबद्ध लेखन करने का निर्णय तुम्हारा अपना निर्णय था। तुम जब चाहो, अपने इस निर्णय को बदल भी सकते हो। अगर तुम लिखना बंद कर दो, अथवा यह घोषणा कर दो कि अब तुम प्रतिबद्ध लेखक नहीं हो, तो तुम पर, समाज पर और साहित्य पर कोई कहर नहीं टूट पड़ेगा। उलटे, हो सकता है, तुम्हें इससे कुछ फायदा ही हो जाये। लेकिन जब तक तुम अपने निर्णय पर कायम हो, अपनी प्रतिबद्धता में कमी या शिथिलता आ जाने के लिए दूसरों को दोषी नहीं ठहरा सकते। प्रतिबद्ध लेखक बने रहने के लिए जो भी करना जरूरी है, तुमको ही करना है। परिस्थितियाँ प्रतिकूल हैं, तो उनको अनुकूल बनाने का काम किसी और का नहीं, तुम्हारा ही है। माना कि तुम्हारी सीमाएँ हैं, तुम अकेले सब कुछ नहीं कर सकते, लेकिन उस काम को तो ढंग से करो, जिसे करने का निर्णय तुमने लिया है। तुम वही करो, जो कर सकते हो; मगर उसे बेहतरीन ढंग से करना तुम्हारी जिम्मेदारी है। उसको न कर पाने के लिए वातावरण और परिस्थितियों को दोष देकर तुम अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। तुम लेखक हो और नहीं लिख पा रहे हो, या अच्छा नहीं लिख पा रहे हो, तो लिखना बंद कर देने का विकल्प तुम्हारे सामने हमेशा खुला है। यदि तुम प्रतिबद्ध लेखक नहीं बने रहना चाहते, तो अप्रतिबद्ध लेखक बन जाने का विकल्प भी तुम्हारे सामने हमेशा खुला है। मगर जब तक तुम लेखक हो, बेहतरीन ढंग से लिखने की कोशिश करना तुम्हारा काम है। जब तक तुम प्रतिबद्ध लेखक हो, प्रतिबद्ध लेखन के लिए अनुकूल वातावरण बनाना भी तुम्हारा काम है। प्रतिबद्ध लेखक का काम यथार्थ को केवल देखना-दिखाना ही नहीं, उसे बदलना भी है। मौजूदा परिस्थितियाँ वास्तव में प्रतिकूल हैं और उनसे जो निराशा पैदा होती है, वह भी एक यथार्थ है। लेकिन यथार्थ कभी इकहरा नहीं होता। वह द्वंद्वात्मक होता है। कोई भी स्थिति या परिस्थिति सर्वथा और सदा-सर्वदा के लिए निराशाजनक नहीं होती। घना अँधेरा, जिसमें रास्ता नहीं सूझता, एक यथार्थ है। उसमें भटकते हुए लोगों को यदि ऐसा लगता है कि कहीं कोई रास्ता नहीं है, तो उनका यह अनुभव भी यथार्थ है। इस अनुभव से उत्पन्न होने वाली उनकी निराशा भी यथार्थ है। लेकिन यथार्थ यही और इतना ही नहीं है। यथार्थ यह भी है कि प्रत्येक अंधकार में प्रकाश की संभावना मौजूद रहती है। उदाहरण के लिए, घने अँधेरे में माचिस की एक नन्ही-सी तीली या एक छोटी-सी टॉर्च भी प्रकाश पैदा कर सकती है। यह संभावना भी यथार्थ है। इसलिए केवल अंधकार को देखना और उसमें प्रकाश की संभावना को न देखना यथार्थवाद नहीं है। यथार्थ को उसके द्वंद्वात्मक रूप में देखना ही यथार्थवाद है।

अपने-आप से इस तरह का संवाद करते रहने के कारण ही मैं यह समझ पाया हूँ कि आज के लेखक के लिए यथार्थवादी होना पहले के किसी भी समय से ज्यादा जरूरी है। मैं देख रहा हूँ कि आज के यथार्थ को केवल अपने देश के अथवा स्थानीय यथार्थ के रूप में नहीं समझा जा सकता। उसे भूमंडलीय यथार्थ के रूप में ही समझा जा सकता है। इसलिए आज का यथार्थवाद पहले के सभी यथार्थवादों से भिन्न एक नया यथार्थवाद है। मैं इसे भूमंडलीय यथार्थवाद कहता हूँ। और मुझे लगता है कि आज का लेखक इसी यथार्थवाद को अपनाकर विकल्पहीनता के निराशावादी विचार से बच सकता है और आशावादी होकर आगे बढ़ सकता है।

सच कहूँ, तो मैं भी निराशा के एक दौर से गुजरा हूँ। सोवियत संघ का विघटन मेरे लिए निजी तौर पर एक बहुत बड़ा धक्का था। हालाँकि मैं सोवियत संघ कभी नहीं गया, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार का उम्मीदवार भी कभी नहीं रहा, सोवियत संघ की समर्थक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य भी कभी नहीं रहा; फिर भी, सोवियत संघ के विघटन से मुझे धक्का लगा। विश्वास ही नहीं हुआ कि समाजवाद का इतना बड़ा और मजबूत किला अपने ही आप कैसे ढह गया। दुनिया की दूसरी महाशक्ति माना जाने वाला देश इतना शक्तिहीन क्यों साबित हुआ? वहाँ की समाजवादी व्यवस्था ने पूँजीवादी व्यवस्था के आगे क्यों और कैसे घुटने टेक दिये? मेरे कुछ दिन गहरी निराशा में बीते। लेकिन मेरे यथार्थवाद ने मुझे उस निराशा से उबार लिया।

उस समय उत्तर-आधुनिकतावाद का बोलबाला था, जिसे हिंदी में प्रचारित-प्रसारित करने वाले लोग हर चीज के अंत की बातें कर रहे थे--इतिहास का अंत, विचारधारा का अंत, मार्क्सवाद का अंत, राष्ट्रवाद और समाजवाद जैसे महाआख्यानों का अंत, यहाँ तक कि कविता का अंत, कहानी का अंत, साहित्य का अंत और साहित्यकार का भी अंत! इससे जो निराशा फैल रही थी, उससे अपने-आप को उबारने के लिए मैंने भूमंडलीय यथार्थ को सामने लाने वाली एक किताब लिखी। मैं उसका शीर्षक रखना चाहता था ‘यह सब कुछ का अंत नहीं है’। लेकिन ग्रंथशिल्पी प्रकाशन वाले मेरे मित्र श्याम बिहारी राय ने कहा कि यह तो किसी कविता की किताब का नाम लगता है, इस किताब का नाम कुछ और होना चाहिए। मुझे उनकी बात ठीक लगी और मैंने उस किताब का नाम रखा ‘आज का पूँजीवाद और उसका उत्तर-आधुनिकतावाद’। इस किताब का पहला अध्याय था ‘भविष्य-स्वप्न का लोप और उसकी पुनर्प्राप्ति’। (पहले यह अध्याय ज्ञानरंजन ने एक लेख के रूप में ‘पहल’ में छापा था। मराठी लेखक सूर्यनारायण रणसुभे को यह लेख इतना अच्छा और जरूरी लगा कि उन्होंने इसका अनुवाद मराठी में किया और ‘मार्क्सवाद्यांचे स्वप्न आणि नवी फेरमांडणी’ के नाम से स्वतंत्र पुस्तक के रूप में प्रकाशित कराया।) उसमें मैंने स्वयं को ही संबोधित करते हुए लिखा था :

‘‘तुम कैसे मार्क्सवादी हो कि द्वंद्ववाद को भूलकर तस्वीर का एक ही पहलू देखते हो और निराश हो जाते हो? कल तक तुम्हें भविष्य उज्ज्वल ही उज्ज्वल क्यों नजर आता था? आज वही भविष्य अँधेरा ही अँधेरा क्यों दिखायी देता है? ऐसा कौन-सा प्रकाश होता है, जिसमें अंधकार की आशंका न हो? और, ऐसा कौन-सा अंधकार होता है, जिसमें प्रकाश की संभावना न हो? कल तक पूर्ण आशावादी बनकर तुम एक प्रकार की गलती कर रहे थे, आज पूर्ण निराशावादी बनकर दूसरे प्रकार की गलती कर रहे हो। बेहतर हो कि पहले प्रकार की गलती के लिए आत्मालोचना करो और दूसरे प्रकार की गलती न करने का निश्चय करो।’’

आत्मालोचना करते हुए मैंने पाया कि प्रगतिशील-जनवादी साहित्यकारों में फैली निराशा का कारण सोवियत संघ का बिखर जाना नहीं, बल्कि दुनिया में हो रहे परिवर्तनों को समझकर अपनी दशा और दिशा का सही आकलन न कर पाना है। दुनिया बड़ी तेजी से बदल रही है और हम पुराने ढंग से ही सोच रहे हैं, पुराने ढंग से ही काम कर रहे हैं। नयी परिस्थितियों में नये ढंग से काम करने की कोई परिकल्पना ही हमारे पास नहीं है--न प्रगतिशील-जनवादी साहित्यकारों के पास, न वामपंथी दलों और उनसे संबद्ध लेखक संगठनों के पास। मैं उन्हें तो बदल नहीं सकता था, लेकिन मैंने सोचा, मैं स्वयं को तो बदल सकता हूँ; अपने काम करने के पुराने तौर-तरीकों को तो बदल सकता हूँ। सबसे पहले तो मुझे अपने तईं इस नयी वैश्विक परिस्थिति को समझना है और फिर हो सके, तो अपने पाठकों को समझाना है। और इस प्रयास में भूमंडलीकरण का अध्ययन करते हुए यह यथार्थ मेरी समझ में आया कि पूँजीवाद एक वैश्विक व्यवस्था है, तो समाजवाद भी एक वैश्विक व्यवस्था ही है। जब पूँजी का भूमंडलीकरण हो सकता है, तो श्रम का क्यों नहीं? जब पूँजीवाद का भूमंडलीकरण हो सकता है, तो समाजवाद का क्यों नहीं? और मुझे लगा कि इस बदली हुई परिस्थिति में पूँजीवाद और समाजवाद के बारे में ही नहीं, यथार्थ और यथार्थवाद के बारे में भी नये सिरे से सोचना होगा; नये यथार्थवादी लेखक के रूप में सक्रिय होना होगा। मैंने सोचा, राजनीतिक दल और उनके लेखक संगठन कब इस तरह सोचेंगे और कब इस तरह सक्रिय होंगे, पता नहीं, लेकिन मैं स्वयं तो एक लेखक के रूप में नये ढंग से सक्रिय हो ही सकता हूँ।

लेकिन आसपास के लेखकों और साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादकों से मैंने इस बारे में बात की, तो पता चला कि वे अभी ऐसा कुछ सोचने और करने की स्थिति या मनःस्थिति में नहीं हैं। हिंदी साहित्य पर उस समय एक तरफ उत्तर-आधुनिकतावाद और जादुई यथार्थवाद के नये फैशन छाये हुए थे, तो दूसरी तरफ वे अनुभववादी और कलावादी प्रवृत्तियाँ पुनः हावी हो रही थीं, जिन्हें 1970-80 के दशकों में प्रगतिशील-जनवादी साहित्य ने काफी पीछे धकेल दिया था। कई प्रगतिशील और जनवादी लेखक-संपादक भी भूमंडलीय यथार्थ को समझने और उसके बारे में कुछ करने की सोचने के बजाय बहती गंगा में हाथ धोते हुए उत्तर-उत्तर कर रहे थे--उत्तर-आधुनिकतावाद, उत्तर-समाजवाद, उत्तर-मार्क्सवाद! यथार्थ और यथार्थवाद पर नये सिरे से विचार करने की उन्हें फुर्सत ही नहीं थी। उलटे, मुझे ऐसी बातें करते देख उन्होंने मुझे पुरानी लकीर का फकीर समझा और मुँह फेरकर अपने काम में लग गये।

तब मैंने अपनी बेटी संज्ञा, कुछ पुराने मित्रों तथा कुछ नये उत्साही लेखकों को साथ लेकर अपनी पत्रिका ‘कथन’ को फिर से निकालना शुरू किया, जो पिछले पंद्रह साल से बंद पड़ी थी। और मुझे देखकर अत्यंत सुखद आश्चर्य हुआ कि बदलते हुए भूमंडलीय यथार्थ की चिंता करने वालों, उसका गंभीर अध्ययन करने वालों, उस पर चिंतन-मनन और लेखन करने वालों की कमी नहीं है। हिंदी में अभी ऐसे लोग कम हैं, लेकिन अंग्रेजी में कई लोग इससे संबंधित विषयों पर खूब लिख-बोल रहे हैं। विभिन्न देशों में पूँजीवादी भूमंडलीकरण के विरुद्ध अनेक प्रकार के आंदोलन चल रहे हैं। उनके बारे में लिखा जा रहा है और भूमंडलीय यथार्थ को सामने लाने वाली ढेरों पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं।

मुझे आश्चर्य हुआ कि जब हिंदी के लेखकों को लिखने के लिए नये विषय नहीं मिल रहे हैं और वे अपने पुराने अनुभवों को ही नये रूपों में लिखते हुए अथवा अपने लेखन में कुछ नयापन लाने के लिए विदेशी लेखकों की नकल करते हुए एक ही जगह खड़े कदमताल कर रहे हैं, तब आज का भूमंडलीय यथार्थ सोचने-समझने और लिखने के लिए नित्य नये विषय प्रस्तुत कर रहा है। अतः ‘कथन’ में हमने भूमंडलीय यथार्थ के विभिन्न पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करना शुरू किया और हर अंक में एक नया विषय उठाकर उस पर विशेष सामग्री देने लगे। ‘कथन’ के लेखकों और पाठकों ने इस नयेपन का स्वागत किया और हमने नहीं, उन्हीं ने ‘कथन’ के लिए ‘‘हर बार कुछ नया: हर अंक एक विशेषांक’’ का नारा दिया। इस प्रकार अत्यंत सीमित निजी संसाधनों के बावजूद ‘कथन’ के अंक निरंतर नियत समय पर तथा उत्तरोत्तर बेहतर रूप में निकलने लगे। ‘कथन’ को हिंदी के बड़े से बड़े और नये से नये लेखकों का सहयोग मिलने लगा। नये विषयों पर अंग्रेजी में लिखने वाले लेखकों, विशेषज्ञों तथा चिंतकों-विचारकों को भी हमने ‘कथन’ से जोड़ा। हमने उन्हें यह सुविधा दी कि वे हमारे लिए अंग्रेजी में लिख दें, हम अनुवाद कर लेंगे; या उन्हें लिखने की फुर्सत नहीं है, तो बोल ही दें, हम रिकॉर्ड कर लेंगे और उनके विचारों को हिंदी में लिखकर प्रकाशित कर देंगे। नतीजा यह हुआ कि हमें ऐसे लोगों का भी भरपूर सहयोग मिला। इस प्रकार ‘कथन’ में ऐसे नये से नये विषयों पर केंद्रित अंकों का सिलसिला शुरू हुआ, जो हिंदी में पहली बार उठाये गये थे। उदाहरण के लिए, कुछ विषय हैं--‘यूटोपिया की जरूरत’, ‘आशा के स्रोतों की तलाश’, ‘विकल्प की अवधारणा’, ‘श्रम का भूमंडलीकरण’, ‘नयी विश्व व्यवस्था की परिकल्पना’, ‘नयी संस्थाओं की जरूरत’, ‘सांस्कृतिक साम्राज्यवाद’, ‘भाषा और भूमंडलीकरण’, ‘शिक्षा और भूमंडलीकरण’, ‘दुनिया की बहुध्रुवीयता’, ‘बाजारवाद और नयी सृजनशीलता’, ‘उत्पादक श्रम और आवारा पूँजी’, ‘भूमंडलीय यथार्थवाद’, ‘वर्तमान संकट और दुनिया का भविष्य’ इत्यादि। और आज, जब ‘कथन’ के साठ अंक निकालने के बाद मैं उसका संपादन पूरी तरह संज्ञा को सौंप चुका हूँ और वह स्वतंत्र रूप से अपने संपादन में बारह अंक और निकाल चुकी है, तब मुझे लगता है कि इस काम को करते हुए एक लेखक के रूप में मेरा जो विकास हुआ है, अन्यथा कभी न हो पाता। मैं यह काम न करता, तो ‘आज के सवाल’ शृंखला की अब तक प्रकाशित पच्चीस पुस्तकें कैसे संपादित कर पाता? ‘बेहतर दुनिया की तलाश में’ तथा ‘साहित्य और भूमंडलीय यथार्थ’ जैसी पुस्तकें कैसे लिख पाता? ‘डॉक्यूड्रामा’, ‘प्रजा का तंत्र’, ‘ग्लोबल गाँव के अकेले’, ‘त्रासदी...माइ फुट!’ और ‘प्राइवेट पब्लिक’ जैसी कहानियाँ कैसे लिख पाता? और सबसे बड़ी बात यह कि नितांत प्रतिकूल परिस्थितियों में भी निरंतर उत्साही और आशावादी कैसे बना रह पाता?

इस दौरान मैंने यह भी देखा कि आजकल हिंदी लेखकों पर विकल्पहीनता के विचार और उससे पैदा होने वाली निराशा के हावी हो जाने का एक बहुत बड़ा कारण यह है कि उन्होंने अनुभववाद को ही यथार्थवाद समझते हुए, और उसी से संतुष्ट रहते हुए, अपने साहित्य की यथार्थवादी परंपरा को आत्मसात करने, उसे आगे बढ़ाने और इसके लिए आज के यथार्थ को समझकर यथार्थवाद का विकास करने का जरूरी काम करना छोड़ दिया है। इसके लिए बहुत हद तक आज का पूँजीवाद जिम्मेदार है, जो अपने विश्वव्यापी प्रचारतंत्र के जरिये लोगों का ध्यान यथार्थ से हटाने का काम करता है, ताकि लोग यथार्थ को देखें ही नहीं, जानें ही नहीं, समझें ही नहीं; क्योंकि यथार्थ को देखने, जानने और समझने से लोग उसे बदलने और बेहतर बनाने की जरूरत महसूस करने लगते हैं तथा इसके लिए संगठित होकर सक्रिय होने लगते हैं। अतः वह अपने मीडिया के जरिये, शिक्षा संस्थानों और प्रकाशन संस्थानों के जरिये, मनोरंजन उद्योग के जरिये और नये-नये वैचारिक तथा साहित्यिक फैशनों के जरिये आम लोगों को ही नहीं, साहित्यकारों को भी यथार्थ से विमुख करता है। इसलिए आज के साहित्यकार के लिए जरूरी हो गया है कि वह केवल उसी को यथार्थ न समझे, जो उसके सामने आ रहा है या लाया जा रहा है; बल्कि स्वयं उसे उसके व्यापक रूप में जानने, समझने, आत्मसात करने और अपनी रचना में रूपायित करने का प्रयास करे।

इसका सबसे अच्छा तरीका तो यही है कि साहित्यकार स्वयं बाहर निकलकर दुनिया के यथार्थ को प्रत्यक्ष देखे और उसमें जीकर उसे जाने। लेकिन यह वांछित होते हुए भी संभव नहीं है। अतः आज के भूमंडलीय यथार्थ को जानने और उसके आधार पर यथार्थवादी रचना करने का एक ही तरीका है कि वह ज्ञान के वैकल्पिक माध्यमों से जुड़े। हालाँकि ऐसे वैकल्पिक माध्यमों में आज इंटरनेट एक मुख्य माध्यम बनकर उभर रहा है, फिर भी इसका सर्वोत्तम माध्यम आज भी किताबें ही हैं। अतः मुझे लगा कि ऐसी किताबें पढ़ना मेरे लिए तो जरूरी है ही, दूसरे लेखकों-पाठकों को उनकी जानकारी देना भी जरूरी है। यह सोचकर मैंने ‘कथन’ में ‘जरूरी किताबें’ नामक एक स्तंभ नियमित रूप से लिखना शुरू किया। उत्पल कुमार के नाम से यह स्तंभ मैं ही लिखता हूँ और ‘कथन’ का संपादन संज्ञा को सौंपने के बाद भी मैं इसे लिखना जारी रखे हुए हूँ। इस स्तंभ में मैं हर बार अंग्रेजी की एक किताब का विस्तार से, लगभग चार पृष्ठों में, परिचय देता हूँ और बताता हूँ कि इस किताब में क्या है और इसे पढ़ना क्यों जरूरी है। ‘कथन’ का प्रत्येक अंक किसी विशेष विषय पर केंद्रित होता है और मैं उसी विषय से संबंधित एक किताब चुनकर उसके बारे में लिखता हूँ। अब तक जिन किताबों का परिचय मैंने दिया है, उनमें से कुछ के नाम हैं--अंर्स्ट ब्लॉख की ‘दि प्रिंसिपल ऑफ होप’, माइकेल लोवी की ‘ऑन चेंजिंग दि वर्ल्ड’, मिशेल बॉड की ‘अ हिस्टरी ऑफ कैपिटलिज्म’, समीर अमीन की ‘कैपिटलिज्म इन दि एज ऑफ ग्लोबलाइजेशन’, फ्रांसिस मुलहेर्न की ‘कल्चर/मेटाकल्चर’, जॉन टॉमलिंसन की ‘कल्चरल इंपीरियलिज्म’, रॉबर्ट फिलिपसन की ‘लिंग्विस्टिक इंपीरियलिज्म’, मार्था नुसबॉम की ‘सेक्स एंड सोशल जस्टिस’, रोमी क्लार्क तथा रॉस इवानिच की ‘दि पॉलिटिक्स ऑफ राइटिंग’, रोनाल्डो मुंक की ‘ग्लोबलाइजेशन एंड लेबर’ इत्यादि।

ऐसी किताबों से पता चलता है कि आज की दुनिया में ऐसे असंख्य सामाजिक तथा राजनीतिक आंदोलन चल रहे हैं, जिनसे दुनिया भविष्य में तो बदलेगी ही, आज भी बदल रही है। इन आंदोलनों के जरिये आज का भूमंडलीय यथार्थ तो सामने आ ही रहा है, दुनिया के लोगों में व्याप्त आशावादिता, दुनिया को बेहतर बनाने की मजबूत इच्छाशक्ति और समाजवादी प्रतिबद्धता भी सामने आ रही है। पिछले दिनों ऐसी एक किताब मेरे पढ़ने में आयी ‘ग्लोबल रिवोल्ट : अ गाइड टु दि मूवमेंट्स अगेंस्ट ग्लोबलाइजेशन’। अमोरी स्टार द्वारा लिखी गयी यह किताब वर्ल्ड सोशल फोरम के नारे ‘‘एक और दुनिया संभव है’’ को सच साबित करती है। इस किताब में दुनिया भर में चल रहे आंदोलनों के उदाहरण सामने रखकर बताया गया है कि आज भूमंडलीकरण के दो रूप सामने आ रहे हैं--एक वह, जो पूँजीवादी शक्तियों द्वारा ‘‘ऊपर से किया जा रहा भूमंडलीकरण’’ है और दूसरा वह, जो दुनिया के तमाम लोगों द्वारा ‘‘नीचे से किया जा रहा भूमंडलीकरण’’ है। शायद यह नीचे से किया जा रहा भूमंडलीकरण भूमंडलीय पूँजीवाद की जगह भूमंडलीय समाजवाद के निर्माण की शुरूआत है।

इधर जब से पूँजीवादी व्यवस्था विश्वव्यापी मंदी की चपेट में आकर अपने इतिहास के सबसे बड़े संकट में फँसी है, उसके विरुद्ध दुनिया में जगह-जगह जन-असंतोष भड़क रहा है। उसके विरुद्ध जन-आंदोलनों और जन-विद्रोहों का सिलसिला अमरीका से लेकर यूरोप के उन देशों तक में चल पड़ा है, जो पूँजीवाद के सबसे मजबूत गढ़ रहे हैं। शातिर पूँजीवाद अपनी रक्षा के लिए इस स्थिति का भी लाभ उठा रहा है। वह विभिन्न देशों में ऐसे आंदोलन चलवा रहा है, जो होते तो जन-असंतोष से उत्पन्न तथा स्थानीय शासकों के विरुद्ध ही हैं, लेकिन फायदा भूमंडलीय पूँजीवाद को पहुँचाते हैं। पिछले दिनों अरब-अफ्रीकी देशों में वहाँ के तानाशाहों के विरुद्ध जो आंदोलन चले, कुछ इसी तरह के आंदोलन थे।

लेकिन पूँजीवाद की यह चाल ज्यादा चलने वाली नहीं है। पूँजीवाद द्वारा चलवाये जाने वाले तथाकथित जन-आंदोलनों और असली जन-आंदोलनों का फर्क अब स्पष्ट होने लगा है। खुद अमरीका में, जो दुनिया में जगह-जगह नकली जन-आंदोलन चलवाता है, पिछले दिनों यह फर्क स्पष्ट हो गया है। अमरीकी अर्थव्यवस्था के संकट में आने पर जब वहाँ की जनता की दुर्दशा हद से ज्यादा बढ़ गयी, तो यह माँग होने लगी कि गरीबों को राहत देने के लिए अमीरों पर टैक्स बढ़ाये जायें। यह माँग पूरी हो जाती, तो अमीरों को नुकसान होता। उससे बचने के लिए उन्होंने गरीबों को खरीदने के लिए पानी की तरह पैसा बहाया और उनसे एक आंदोलन चलवाया--‘टी-पार्टी’ नाम का आंदोलन--जिसमें गरीब लोग खुद अपने हितों के खिलाफ जाकर यह माँग करते थे कि अमीरों पर टैक्स न बढ़ाये जायें। लेकिन कुछ ही समय बाद अमरीकी जनता ने ‘ऑकुपाई वॉल स्ट्रीट’ (वॉल स्ट्रीट पर कब्जा करो) नामक एक असली जन-आंदोलन शुरू कर दिया, जो देखते-देखते दुनिया के कई देशों में फैल गया है।

यह तो सिर्फ एक उदाहरण है। ऐसे न जाने कितने असली जन-आंदोलन आज दुनिया भर में चल रहे हैं। भारत में मीडिया चूँकि पूँजीवादी मीडिया है, इसलिए वह पूँजीवाद को बनाये रखने के लिए चलवाये जाने वाले नकली जन-आंदोलनों को तो खूब दिखाता है, जैसे पिछले दिनों उसने भारत के अण्णा हजारे के आंदोलन को दिखाया, लेकिन पूँजीवाद को खत्म करके समाजवाद को लाने के लिए चलाये जाने वाले किसानों, मजदूरों, स्त्रियों, दलितों, आदिवासियों आदि के असली आंदोलनों के बारे में बिलकुल खामोश रहता है। लेकिन मीडिया के न दिखाने से उनका अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता। वे चल रहे हैं, चलेंगे और मुझे पूरा विश्वास है कि एक दिन सफल भी जरूर होंगे। यह आज का भूमंडलीय यथार्थ है और आज के प्रतिबद्ध साहित्यकारों का कर्तव्य है कि वे इस यथार्थ को सामने लायें।

--रमेश उपाध्याय