Sunday, February 28, 2010

राष्ट्रीय साहित्य

साहित्य राष्ट्रीय होकर ही भूमंडलीय होगा

हमारे देश में राष्ट्रवाद के दो रूप रहे हैं। एक वह, जो देश को जोड़ता है और दूसरा वह, जो तोड़ता है। आज की परिस्थिति में साहित्य का कर्त्तव्य है कि वह जोड़ने वाले राष्ट्रवाद को अपनाए और तोड़ने वाले राष्ट्रवाद से सचेत रहे। तोड़ने वाले राष्ट्रवाद को आज के पूंजीवादी भूमंडलीकरण के सन्दर्भ में देखना चाहिए, जो यह भ्रम फैला रहा है कि दुनिया एक हो गयी है और अब अलग-अलग राष्ट्रों की कोई ज़रुरत नहीं रह गयी है। वास्तविकता यह है कि भूमंडलीकरण राष्ट्र-राज्यों के आधार पर ही हो रहा है और उनके ख़त्म हो जाने की फिलहाल कोई संभावना नहीं है। इसलिए भारतीय साहित्य स्वयं को चाहे जितना वैश्विक समझे, उसे राष्ट्रीय होना ही होगा। यदि वह देश को जोड़ने वाले राष्ट्रवाद को अपनाये, तो उसमें एक नयी जान आ सकती है और इसके सुन्दर परिणाम महान कृतियों के रूप में प्राप्त हो सकते हैं।

कुछ सम्प्रदायवादी दल और संगठन स्वयं को देशभक्त और राष्ट्रवादी कहते हुए ऐसा प्रभाव पैदा करने की कोशिश करते हैं कि जो लोग उनसे सहमत नहीं, वे मानो देशद्रोही और राष्ट्र-विरोधी हों। अतः बहुत-से साहित्यकार सोचते हैं कि यदि हमने देशभक्ति या राष्ट्रवाद की बात की, तो हमें भी सम्प्रदायवादी समझ लिया जाएगा। मगर आज की परिस्थिति में साहित्यकारों को ऐसी सोच से उबरकर यह समझना होगा कि देशभक्त और राष्ट्रवादी कोई भी हो सकता है, किन्हीं ख़ास दलों और संगठनों ने ही देशभक्त और राष्ट्रवादी होने का ठेका नहीं ले रखा है।

आज हमारा देश एक नए ढंग से पराधीन हो रहा है। इसलिए अपनी स्वाधीनता की रक्षा करने और उसे शोषण, दमन, उत्पीडन की शिकार भारतीय जनता की सच्ची स्वाधीनता में बदलने के लिए हमें एक नए ढंग से राष्ट्रीय मुक्ति और स्वाधीनता की लड़ाई लड़नी है। यह एक लम्बी लड़ाई होगी और उसमें देश की समूची जनता को एकजुट होकर लड़ना होगा। इसलिए जनता को बांटने और आपस में लड़ाने के प्रयासों का विरोध तथा उसे सचेत और संगठित बनाने के प्रयासों का समर्थन करने वाला साहित्य ही सच्चा राष्ट्रवादी साहित्य होगा।

आज की दुनिया को एक व्यापक विश्व-दृष्टि से देखना और वैश्विक परिस्थिति के सन्दर्भ में अपनी राष्ट्रीय परिस्थिति को समझना आज के प्रत्येक साहित्यकार के लिए आवश्यक है। अतः साहित्यकारों को व्यक्तिवादी, कलावादी, अभिजनवादी प्रवृत्तियों से बचते हुए उन विभ्रमों से मुक्त होना होगा, जो साहित्य की स्वायत्तता , समाज-निरपेक्षता के कला-सिद्धांतों के ज़रिये फैलाए जाते हैं। आज के साहित्यकार को साहित्य से साहित्य पैदा करने का प्रयास करने के बजाय ज्ञान के सभी अनुशासनों से प्राप्त वैश्विक बोध से अपने राष्ट्रीय साहित्य का निर्माण करना होगा।

मनुष्य की अन्य तमाम गतिविधियों की भाँति लेखन को भी आज बाज़ार के अधीन करने तथा साहित्य को पण्य वस्तु बनाने के प्रयास किये जा रहे हैं। विभिन्न उपायों से लेखकों के मन में यह भावना पैदा की जा रही है कि अपनी भाषा में लिखना व्यर्थ है, अंग्रेजी में लिखना और विश्व-बाज़ार में बिकना आज के लेखकों के लिए अनिवार्य हो गया है। इससे राष्ट्रीय भाषाओं में लिखने वाले लेखक अपनी भाषा में लिखने और अपने देश का साहित्य पढ़ने के प्रति उदासीन होते जा रहे हैं। सच्चा राष्ट्रवादी साहित्य इस उदासीनता को दूर कर सकता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम साहित्य में भी 'स्वदेशी' की बात करते हुए दूसरे देशों के साहित्य से विमुख हो जाएँ या उससे घृणा करने लगें। आज के साहित्यकार को न केवल अपनी भाषा के, न केवल भारतीय भाषाओं के, बल्कि विश्व की सभी भाषाओं के साहित्य की थोड़ी-बहुत समझ और जानकारी रखनी होगी। अंग्रेजी में लिखना और विश्व-बाज़ार में बिकना भी कोई पाप नहीं है। ध्यान रखने की बात केवल यह है कि साहित्य पण्य वस्तु बनकर न रह जाए, बल्कि अपने समय और समाज में अपनी ज़रूरी भूमिका निबाहे।

यह तभी हो सकता है, जब साहित्य अपने देश की जनता की ज़रूरतों को ध्यान में रखकर लिखा जाये। संसार की वे सभी महान साहित्यिक कृतियाँ, जो विश्व-साहित्य की अमूल्य धरोहर मानी जाती हैं, अपने देश की होकर ही सारी दुनिया की हुई हैं।

--रमेश उपाध्याय

4 comments:

  1. आप एक लंबे अरसे बाद ब्‍लॉग पर आए हैं, थोड़ा समय मिलने पर इस पोस्‍ट कर पढूंगा...

    होली की अग्रिम शुभकामनाएं...

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  2. तोड़ने वाले राष्ट्रवाद से सचेत रहे।

    सुन्दर ..मनोहर....

    होली की ढेरों ....शुभकामनाएं,,

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  3. sir it is nice to see a personality like you on blog,the exposure u have is useful for new writers ,if u get time than pls read my blog on
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  4. तोड़ने वाले राष्ट्रवाद से सचेत रहे।

    ज़रूरी यही है

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