Wednesday, July 7, 2010

पीढ़ी-विवाद पर

‘युवा पीढ़ी’ के लेखकों से

वर्षों पहले, जब मेरी गिनती नयी पीढ़ी के लेखकों में होती थी, मैंने ‘पहल’ में एक लेख लिखा था ‘हिंदी की कहानी समीक्षा: घपलों का इतिहास’। उसमें मैंने हिंदी कहानी को नयी, पुरानी, युवा आदि विशेषणों वाली पीढ़ियों में बाँटकर देखने की प्रवृत्ति का विश्लेषण किया था। इस प्रवृत्ति से दो भ्रांत धारणाएँ पैदा हुईं, जो कमोबेश आज तक भी चली आ रही हैं।

एक: हिंदी कहानी बीसवीं सदी के प्रत्येक दशक में उत्तरोत्तर अपना विकास करती गयी है, अतः उसके विकास-क्रम को दशकों में देखा जाना चाहिए।

दो: कहानीकारों की प्रत्येक नयी पीढ़ी पूर्ववर्ती पीढ़ियों से बेहतर कहानी लिखती है, अतः नयी पीढ़ी की कहानी को अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाना चाहिए।

आज वही पीढ़ीवादी प्रवृत्ति पुनः प्रबल होती दिखायी पड़ रही है, इसलिए मुझे अपने उस लेख की कुछ बातें आज की नयी पीढ़ी के लेखकों के विचारार्थ प्रस्तुत करना प्रासंगिक लग रहा है। मैंने लिखा था:

‘‘नयी पीढ़ी के नाम पर किये गये घपले में निहित आत्मप्रचारात्मक व्यावसायिकता की गंध आगे आने वाले लेखकों को भी मिल गयी। उनमें से भी कुछ लोगों ने खुद को जमाने के लिए अपने से पहले वालों को उखाड़ने का वही तरीका अपनाया, जिसे ‘नयी कहानी’ वाले कुछ लोग आजमा चुके थे। पीढ़ीवाद का यह घटिया खेल आज भी जारी है और इसे कुछ नयी उम्र के लोग ही नहीं, बल्कि कुछ साठे-पाठे भी खेलते दिखायी दे सकते हैं। बदनाम भी होंगे, तो क्या नाम न होगा!

‘‘लेकिन यह खेल कितना वाहियात और मूर्खतापूर्ण है, इसका अंदाजा आपको ‘युवा पीढ़ी’ पद से लग सकता है। इसे ‘नयी पीढ़ी’ की तर्ज पर चलाया गया और इसकी कहानी को ‘नयी कहानी’ की तर्ज पर ‘युवा कहानी’ कहा गया। कई पत्रिकाओं के ‘युवा कहानी विशेषांक’ निकले। ‘युवा कहानी’ (नरेंद्र मोहन) जैसे लेख लिखे गये। ‘युवा कथाकार’ (सं। कुलदीप बग्गा और तारकेश्वरनाथ) जैसे कहानी संकलन निकाले गये। मेरी आदत है कि पत्रिका या संकलन के लिए कोई मेरी कहानी माँगता है, तो मैं आम तौर पर मना नहीं करता। इसलिए आप देखेंगे कि मेरी कहानियाँ साठोत्तरी कहानी, पैंसठोत्तरी कहानी, सातवें दशक की कहानी, सचेतन कहानी, अकहानी, समांतर कहानी, स्वातंत्र्योत्तर कहानी, अमुक-तमुक वर्ष की श्रेष्ठ कहानी, प्रगतिशील कहानी, जनवादी कहानी आदि से संबंधित पत्रिकाओं और संकलनों में छपी हुई हैं। ‘युवा कथाकार’ नामक संकलन में भी मेरी कहानी छपी है। लेकिन मैं कभी नहीं समझ पाया कि ‘युवा कहानी’ क्या होती है। किसी को युवा कहने से उसकी उम्र के अलावा क्या पता चलता है? ‘युवा वर्ग’ कहने से किस वर्ग का बोध होता है? युवक तो शोषक और शोषित दोनों वर्गों में होते हैं। इसी तरह युवकों में सच्चे और झूठे, शरीफ और बदमाश, बुद्धिमान और मूर्ख, शक्तिशाली और दुर्बल, प्रगतिशील और दकियानूस--सभी तरह के लोग हो सकते हैं। तब ‘युवा कहानी’ का क्या मतलब? यह किस काल से किस काल तक की कहानी है? यह किस उम्र से किस उम्र तक के लेखकों की कहानी है?

‘‘मुझे ऐसा लगता है कि आंदोलनधर्मी लोग अपने-आप को आगे बढ़ाने के लिए कुछ लोगों की भीड़ जुटाने भर के लिए नये लेखकों को पकड़ते हैं। इन नये लेखकों की कहानियों की प्रकृति क्या है, गुणवत्ता और मूल्यवत्ता क्या है, इससे उन्हें कोई मतलब नहीं। उन्हें मतलब है लेखक की उम्र से। तुम आजादी के बाद पैदा हुए? आओ, स्वातंत्र्योत्तर कहानी की छतरी के नीचे आ जाओ। तुम साठ के बाद पैदा हुए? आओ, साठोत्तरी कहानी की छतरी के नीचे आओ। तुम सत्तर के बाद? चलो, आठवें दशक की कहानी की छतरी के नीचे। तुम उम्र नहीं बताना चाहते? कोई बात नहीं, तुम युवा हो, क्योंकि हिंदुस्तान में तो साठा भी पाठा होता है!

‘‘इस तरह कुछ लोगों को जुटाकर अपनी छतरी को कोई ऐसा नाम दे दिया जाता है, जिसके नीचे विभिन्न प्रकार की और परस्पर-विरोधी प्रवृत्तियों को भी खड़ा किया जा सके। नयी, पुरानी, अगली, पिछली, युवा, युवतर, वयस्क, अग्रज, सशक्त, जीवंत, थकी हुई, चुकी हुई आदि-आदि न जाने कितने विशेषण कहानीकारों की पीढ़ियों के साथ जोड़े जा चुके हैं। और हमारी कहानी-समीक्षा है कि इन विशेषणों की निरर्थकता को समझने के बजाय धड़ल्ले से इनका प्रयोग करती है।

‘‘कहानी को किसी दशक या पीढ़ी की छतरी के नीचे ले आने से कहानी की किसी प्रवृत्ति का पता नहीं चलता। हिंदी कहानी के दशक उसके विकास के सूचक नहीं हैं। विकास की गति सदा इकसार और कालक्रमानुसार नहीं होती, क्योंकि विकास हमेशा अंतर्विरोधों के बीच होता है। साहित्य में यह अंतर्विरोध दशकों और पीढ़ियों के बीच न होकर सामाजिक यथार्थ के प्रति अपनाये जाने वाले दृष्टिकोणों के बीच और रचना में अपनाये जाने वाले कला-सिद्धांतों के बीच होते हैं।’’

मुझे आशा है, आज की ‘युवा पीढ़ी’ के कहानीकार वर्षों पहले लिखी गयी मेरी इन पंक्तियों को प्रासंगिक पायेंगे और पीढ़ीवाद की निरर्थकता से बचकर सामाजिक यथार्थ के प्रति अपनाये जाने वाले दृष्टिकोणों तथा रचना में अपनाये जाने वाले कला-सिद्धांतों पर सार्थक बहस चलायेंगे।

--रमेश उपाध्याय

5 comments:

  1. रमेश जी, आपकी यह टिप्‍पणी भले ही पुरानी हो पढ़कर कम से कम मुझे तो बहुत संबल मिला। क्‍योंकि मुझे कल ही किसी ने कह दिया कि तीन पीढ़ी पुराने लोग अब अप्रसांगिक हो गए हैं।
    आपकी बात सही है कि लेखन समय के सापेक्ष होता है। उससे लेखक की उम्र का क्‍या लेना देना।

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  2. pidivad me ghire log ye bhi tai kar dein ki nai pidi ki samay seema kitni hai. us seema ke baad kya sabhi aprasangik ho jayenge?baat bahut seedhi hai umra nahi chintan naya ya purana hota hai aur uska aaklan samay sapekshta hi hai.
    pragya.

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  3. रचना में अपनाये गये कला सिद्धांतो और पक्षधरताओं पर बहस न हो सके, इसीलिये तो यह 'युवा' और दशक का खेल खेला जाता है। राजनीति में जब पुराने चेहरों की गंदगी साफ़ दिखने लगती है तो जनता को भ्रमित करने के लिये नये गांधी,जिंदल,सिंधिया,पायलट,यादव आदि लाये जाते हैं…साहित्य में भी इसी रीति का पालन कुछ मठाधीश कर रहे हैं।

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  4. saahitykaar ya lekhak ka koi vaad vishesh ho yah apane aap me hasyaspad hae,kyonki vo apani drishti jahaan rakhat hai(rakhnaa chaahiye)vo aam aadami ki saadhharan evm buddhijivitaa ke prapancho se alag uske jivan sangharsho ki duniya he.usko koi vicharak roti nahi de jaata.
    usaki chhatri usakaa juzaarupan hota hae,aise me jo lekhak saare MAHHAN VADO ki chhatriyon ka moh tyag ke us thigli lagi chhidr bhari chhatri ke neeche khada hota he vahi chintak/lekhak hoga aur chir uvaa hoga ki vo chirantan ke saath hai.baki to baaten hain baaton ka kya....

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  5. बिना वाद का लेखन सिर्फ़ अवसरवाद होता है…

    यह सत्ता व्यवस्था और उसका अर्थतंत्र ही तय करता है कि रोटी कैसे-किसको मिलेगी, धरती कैसे-किसमें बंटेगी…तो साहित्यकार इस व्यवस्था के सांस्कृतिक प्रपंच को नंगा करता है और एक बेहतर व्यवस्था का तार्किक स्वप्न उपस्थित करता है जिसकी निश्चित तौर पर एक वैचारिक पद्धति होती है…ऐसे में उसका उस विचार और वाद से संबद्ध तथा प्रतिबद्ध होना ही जन से उसकी प्रतिबद्धता का द्योतक होता है।

    वैसे अभिधा में कविता की कोई भी किताब रोटी नहीं बन सकती,बरसात की बूंदे नहीं रोक सकती…बातों पर वह दोहा सुना ही होगा…बातहिं हाथी पाईये…

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