Friday, September 3, 2010

रचनाशीलता को बचाने और बढ़ाने के लिए एक पहल

‘‘आज के समय में यह भी एक बड़ा भारी काम है कि अपनी और दूसरों की रचनाशीलता को बचाने और बढ़ाने का प्रयास किया जाये। उसे आज के रचना-विरोधी माहौल में असंभव न होने दिया जाये। क्या इसके लिए कोई सकारात्मक पहल की जा सकती है? यदि हाँ, तो कैसे? इस पर रचनाकारों को मिल-बैठकर, आपस में, छोटी-बड़ी गोष्ठियों और सम्मेलनों में विचार करना चाहिए। लेकिन इंटरनेट भी एक मंच है, इस पर भी इस सवाल पर बात होनी चाहिए। नहीं?’’

फेसबुक पर मेरे इस विचार का जो व्यापक स्वागत हुआ है, उससे मैं बहुत प्रसन्न और उत्साहित हूँ। लगता है कि हिंदी के अनेक लेखक, पाठक, पत्रकार, प्राध्यापक आदि ऐसी पहल के विचार से सहमत ही नहीं, बल्कि उसे तुरंत शुरू करने के लिए तैयार भी हैं। उनमें से कुछ मित्रों ने सुझाव दिया है कि मैं इस पहल की एक रूपरेखा प्रस्तावित करूँ, जिस पर विचार-विमर्श के बाद एक न्यूनतम सहमति बने और काम शुरू हो।

तो, मित्रो, ऐसी कोई रूपरेखा प्रस्तुत करने के बजाय मैं उससे पहले की कुछ बातें स्पष्ट कर देना चाहता हूँ। मैं कोई नया मंच या संगठन बनाने की बात नहीं कर रहा हूँ, बल्कि इंटरनेट के रूप में जो एक बहुत बड़ा, व्यापक और प्रभावशाली मंच पहले से ही मौजूद है, उसी पर एक नयी पहल की जरूरत की बात कर रहा हूँ। हम लोग, जो इस मंच पर उपस्थित हैं, कुछ काम पहले से ही कर रहे हैं। मसलन, हम एक-दूसरे को अपनी तथा दूसरों की रचनाओं की जानकारी दे रहे हैं, अपनी तथा दूसरों की रचनाशीलता से संबंधित समस्याओं को सामने ला रहे हैं, अपने साहित्यिक अनुभवों और सामाजिक तथा सांस्कृतिक सरोकारों को साझा कर रहे हैं और इस प्रकार दूर-दूर बैठे होने पर भी एक-दूसरे के निकट आकर एक साहित्यिक वातावरण बना रहे हैं। मगर मुझे लगता है कि इस माध्यम की अपार संभावनाओं के शतांश, बल्कि सहस्रांश का भी उपयोग अभी हम नहीं कर पा रहे हैं।

मैं केवल ब्लॉग और फेसबुक की बात नहीं, पूरे इंटरनेट की बात कर रहा हूँ। मुझे लगता है कि यह हमारी रचनाशीलता को बचाने और बढ़ाने के लिए एक अत्यंत उपयोगी और प्रभावशाली माध्यम है, जो हमें व्यक्तिगत और सामाजिक, ऐतिहासिक और भौगोलिक, स्थानीय और भूमंडलीय सभी स्तरों पर एक साथ सोचने और सक्रिय होने में समर्थ बना सकता है। लेकिन फिलहाल मैं इतने विस्तार में न जाकर केवल लेखकों से अपनी और दूसरों की रचनाशीलता को बचाने और बढ़ाने के माध्यम के रूप में इसके उपयोग की बात करना चाहता हूँ।

शायद आपको याद हो, मैंने 12 जुलाई, 2010 की अपनी पोस्ट में ‘सोशल नेटवर्किंग’ के बारे में लिखते हुए यह सवाल उठया था कि हम इंटरनेट की आभासी दुनिया का रिश्ता वास्तविक दुनिया से कैसे जोड़ें। मैंने लिखा था--‘‘क्या हम इस माध्यम का उपयोग वास्तविक दुनिया के उन जीते-जागते लोगों तक पहुँचने के लिए कर सकते हैं, जिनके पास जाकर हम उनसे हाथ मिला सकें, गले मिल सकें, आमने-सामने बैठकर चाय-कॉफी पीते हुए बात कर सकें, हँसी-मजाक और धौल-धप्पा कर सकें, लड़-झगड़ सकें और मिल-जुलकर कोई सार्थक काम करने की सोच सकें?’’

इसी बात को आगे बढ़ाते हुए मैं कहना चाहता हूँ: क्या हम लेखकों के रूप में अपनी और दूसरों की रचनाशीलता को बचाने और बढ़ाने के लिए इस माध्यम का उपयोग कर सकते हैं? ‘दूसरों’ से मेरा अभिप्राय दूसरे लेखकों से नहीं, बल्कि पाठकों से है; क्योंकि मैं यह मानता हूँ कि पाठक भी रचनाशील होते हैं और इस नाते वे लेखक के साथी-सहयोगी रचनाकार होते हैं। मैं यह भी मानता हूँ कि पाठकों की रचनाशीलता को बचाये-बढ़ाये बिना हम अपनी रचनाशीलता को भी नहीं बचा-बढ़ा सकते। लेकिन यह हमारा दुर्भाग्य है--और दुर्भाग्य का कारण भी--कि हम अपने पाठकों की परवाह नहीं करते। हम न तो उन्हें जानते हैं, न उनके लिए लिखते हैं। हम लिखते हैं संपादकों, प्रकाशकों, आलोचकों, पुरस्कारदाताओं या किसी अन्य प्रकार से बाजार में हमारी जगह बना सकने वालों के लिए; जबकि हमारी रचनाशीलता को बचाने और बढ़ाने वाले होते हैं हमारे पाठक। पत्रिकाओं और पुस्तकों के माध्यम से पाठकों तक हमारी सीधी पहुँच नहीं होती, लेकिन इंटरनेट के माध्यम से हम उन तक सीधे पहुँच सकते हैं।

कारण यह कि हमारे लिए इंटरनेट एक ऐसा मंच है, जो सार्वजनिक और सार्वदेशिक होते हुए भी हमें अपनी बात अपने ढंग से कहने की पूरी आज़ादी देता है। यहाँ हम किसी और संस्था या संगठन के सदस्य नहीं, बल्कि स्वयं ही एक संस्था या संगठन हैं। किसी और नेता के अनुयायी नहीं, स्वयं ही अपने नेता और मार्गदर्शक हैं। किसी और संपादक या प्रकाशक के मोहताज नहीं, स्वयं ही अपने संपादक और प्रकाशक हैं। लेकिन इस स्वतंत्रता और स्वायत्तता का उपयोग हम अपनी और अपने पाठकों की रचनाशीलता को बचाने-बढ़ाने के लिए बहुत ही कम कर पा रहे हैं।

मेरी मूल चिंता यह है कि यह काम कैसे किया जाये। मगर, मित्रो, मैं अकेला इस समस्या का समाधान खोज पाने में असमर्थ हूँ और मुझे लगता है कि यह काम हम सब रचनाकारों को मिल-जुलकर ही करना पड़ेगा। मगर कैसे? इस पर आप सोचें और मुझे बतायें। मिलकर न बताना चाहें, तो इंटरनेट के जरिये ही बतायें, पर बतायें जरूर; क्योंकि यह काम अत्यंत आवश्यक होने के साथ-साथ आपका भी उतना ही है, जितना कि मेरा।

--रमेश उपाध्याय

15 comments:

  1. चलिये अच्छा है कि आप जैसे वरिष्ठ लोगों ने शुरूआत की है. आभार. वर्ना हालत ये है कि तथाकथित स्थापित रचनाधर्मी या तो इंटरनेट से तो डरे-सहमे बैठे लगते हैं कि इसके चलते उनके वर्चस्व पर हमला हुआ ही समझो या फिर, इससे अनभिज्ञ बस इसे यूं ही खारिज करने पर आमादा दिखते हैं...यह सब भूल कर कि न तो कबूतर के आंखें मूंद लेने से बिल्ली कभी गई है और न ही पहिये के अविष्कार से लोगों ने पैदल चलना बंद किया है.

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  2. संग्रहणीय प्रस्तुति!

    हिन्दी, भाषा के रूप में एक सामाजिक संस्था है, संस्कृति के रूप में सामाजिक प्रतीक और साहित्य के रूप में एक जातीय परंपरा है।
    स्‍वच्‍छंदतावाद और काव्‍य प्रयोजन , राजभाषा हिन्दी पर, पधारें

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  3. इण्टरनेट एक सशक्त माध्यम है और सही समय पर उपस्थित हुआ है हिन्दी जगत के खेवनहार के रूप में। अधिकतम उपयोग और गुणवत्ता ही उपाय है।

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  4. बहुत सच कहा है आपने !

    ___________________

    एक ब्लॉग में अच्छी पोस्ट का मतलब क्या होना चाहिए ?

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  5. मेरा मानना है कि क्या किया जा सकता है इस पर विचार के लिये एक बार मिल बैठना उचित होगा। विचार के लिये प्रमुख विषय हो सकते हैं- (1) आज जनपक्षधर रचना के मायने क्या हों? (2)पाठकों तक पहुंचने के लिये क्या किया जा सकता है? (3) नेट पर हिन्दी साहित्य के सम्यक प्रचार-प्रसार के लिये और क्या किया जा सकता है? (4) नेट पर जो अराजकता है उसका सामना कैसे किय जा सकता है।

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  6. Aapne kai mahatvapurna baaten uthayee hai.Internet jo khula space de raha hai, uska upayog kaise ho ,is per gambhir chintan-manan ki zarurat hai.Hamare desh mai aab bhi shreshthi -verg hi is madhyam ka upayog kar pa raha hai, usme bhi Hindi ka Lekhak-pathak nam matra ka hi hai.Aap dekhe ki Face-Book ho ya Blog, Hindi ka mahanagariya Lekhak hi usase juda hua hai.Jis aam-samaj tak hame darasal pahuchana hai ,us tak isase kaise pahunche, Is per socha jana chahiye.

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  7. पाठक भी रचनाशील होते हैं और इस नाते वे लेखक के साथी-सहयोगी रचनाकार होते हैं।
    इंटरनेट एक ऐसा मंच है, जो सार्वजनिक और सार्वदेशिक होते हुए भी हमें अपनी बात अपने ढंग से कहने की पूरी आज़ादी देता है। यहाँ हम किसी और संस्था या संगठन के सदस्य नहीं, बल्कि स्वयं ही एक संस्था या संगठन हैं। किसी और नेता के अनुयायी नहीं, स्वयं ही अपने नेता और मार्गदर्शक हैं। किसी और संपादक या प्रकाशक के मोहताज नहीं, स्वयं ही अपने संपादक और प्रकाशक हैं। लेकिन इस स्वतंत्रता और स्वायत्तता का उपयोग हम अपनी और अपने पाठकों की रचनाशीलता को बचाने-बढ़ाने के लिए बहुत ही कम कर पा रहे हैं।
    ...Saarthak charcha...

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  8. Main Ashok Kumar Pandey se sahmat hun ki ek baar milna baithna jaroori hai. saari baat facebook ya net par sambhav nahi hai. Rachnashilta bachane ka mudda mahtvapuran hai.

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  9. उपाध्याय जी , आपका यह विचार स्वागतेय है । इस मंच का उपयोग वाकई बहुत अच्छे तरीके से किया जा सकता है ।भाई अशोक कुमार पाण्डेय ने जो प्रस्ताव रखे है उनपर सिलसिलेवार बात करना ज़रूरी है । आप हम सभी से वरिष्ठ है आप यदि शुरुआत करे तो हमे अच्छा लगेगा इसलिये भी कि आपने प्रिंट मीडिया के प्रारम्भ से अब तक कए समय का अवलोकन किया है और सम्भावनाओं के अतिरिक्त इसके खतरों को भी आप भलिभाँति जानते हैं । प्रिंट माध्यम की तरह इस माध्यम से भी कुछ इस तर्ह के लोग जुडे हो सकते हैं जिनकी मूल चिंतायें भिन्न हो सकती है लेकिन एक जैसी चिंता वाले लोगों को एक मंच पर लाना बहुत ज़रूरी है । इस विषय मे कोई कार्य योजना बनाकर यदि शुरुआत की जाये तो बेहतर होगा ।

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  10. आपकी चिंता जायज है. पर हिंदी का रचनाकार जो कंप्यूटर से दूर है, वो आज भी इसकी महत्ता को जानने समझने से इंकार किए जा रहा है. मैंने जब रचनाकार (http://rachanakar.blogspot.com) प्रकल्प प्रारंभ किया था तो कोई 300 रचनाकारों को इंटरनेट पर अपनी रचनाएँ प्रकाशन हेतु भेजने (मौलिक अप्रकाशित जैसा बंधन नहीं, बल्कि प्रिंट मीडिया में पूर्वप्रकाशित का स्वागत)का व्यक्तिगत आग्रह पत्र लिखकर किया था और एक बार हंस जैसी पत्रिका में विज्ञापन भी दिया था! मगर दुख की बात है कि दर्जन भर लोगों ने भी प्रत्युत्तर नहीं दिया.
    लोग लिखे जा रहे हैं, लिखे जा रहे हैं, छपने-छपाने के लिए कोई जरिया नहीं है, शिद्दत से चाहते हैं कि उनका सृजन लोगबाग पढ़ें, मगर फिर भी इंटरनेट (जहाँ छपने-छपाने के लिए शून्य कीमत लगता है और कोई सीमा नहीं है)की ओर मुँह नहीं मोड़ रहे हैं.

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  11. रवि भाई , इसका कारण तकनीकी ज्ञान का न होना है और समस्या तो यह है कि लेखक इसके लिये प्रयास भी नही करते । इसके लिये प्रेरित करना ज़रूरी है और लेखक शिविरो और कार्यक्रमो मे भी इस बात को रखना ज़रूरी है । इस बारे मे सब मिलकर सोचे कि इसे कैसे किया जा सकता है ।

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  12. वर्तमान में इण्टरनेट वह औजार है जिसका ज़्यादातर उपयोग ग़लत के लिये हो रहा है सही के लिये नहीं। अब इस ग़लत के बरक्स खडा होने के लिये ज़रूरी है कि इसी माध्यम का सदुपयोग किया जाए।

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  13. आपके ब्लॉग को आज चर्चामंच पर संकलित किया है.. एक बार देखिएगा जरूर..
    http://charchamanch.blogspot.com/

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  14. आज दिनांक 22 सितम्‍बर 2010 के दैनिक जनसत्‍ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्‍तंभ में आपकी यह पोस्‍ट रचनाशीलता की पहल शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई। स्‍कैनबिम्‍ब देखने के लिए जनसत्‍ता पर क्लिक कर सकते हैं। कोई कठिनाई आने पर मुझसे संपर्क कर लें।

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