Wednesday, September 29, 2010

कहाँ है वह शानदार अनिश्चितताओं का खेल?

क्रिकेट को ‘ग्लोरियस अनसर्टेन्टीज़’ (शानदार अनिश्चितताओं) का खेल कहा जाता है। पूरी मेहनत, पूरी तैयारी और पूरी कुशलता से खेलने पर भी इसमें कब क्या हो जाये, कोई नहीं जानता। इसमें कोई भी टीम जीतते-जीतते हार सकती है और हारते-हारते जीत सकती है। यह अनिश्चितता ही इस खेल को इतना रोचक, रोमांचक और लोकप्रिय बनाती है।

खेल के मैदान में जाकर या अपने घर में टी।वी. के सामने बैठकर क्रिकेट मैच देखने के शौकीन दर्शकों को इसकी अनिश्चितता में ही आनंद आता है। यदि वन डे में अंत के पहले मैच एकतरफा हो जाने से एक टीम की जीत निश्चित हो जाये, या टैस्ट में हार-जीत के फैसले की जगह मैच ड्रॉ की ओर बढ़ने लगे, तो दर्शकों की उत्सुकता खत्म हो जाती है। मैदान में बैठे दर्शक उठकर चल देते हैं, घर में देख रहे दर्शक टी.वी. बंद कर देते हैं। सबसे दिलचस्प खेल वह होता है, जिसमें दोनों टीमों के बीच काँटे का मुकाबला हो और ज्यों-ज्यों मैच अंत की ओर बढ़े, दर्शकों की उत्सुकता, चिंता और दिल की धड़कन बढ़ती जाये। कितने ही दर्शक अपने वांछित परिणाम के लिए प्रार्थना करने लगते हैं। अवांछित परिणाम निकलने पर किसी-किसी का हार्टफेल भी हो जाता है।

हमारा जीवन भी शानदार अनिश्चितताओं का खेल है। इसमें भी कोई नहीं जानता कि कब क्या हो जायेगा। लेकिन इस अनिश्चितता में ही आशा है और सही दिशा में उचित प्रयास करने की प्रेरणा भी। उतार-चढ़ाव और सफलता-विफलता के अवसर आते रहते हैं, लेकिन जीवन में उत्सुकता, उम्मीद और उमंग बनी रहती है। अनिश्चितता ही जीवन को दिलचस्प और अच्छे ढंग से जीने लायक बनाती है।

लेकिन जब से ‘मैच फिक्सिंग’ का सिलसिला शुरू हुआ है (और अब तो ‘स्पॉट फिक्सिंग' भी होने लगी है, जैसी पिछले दिनों इंग्लैंड और पाकिस्तान के बीच खेले गये एक मैच में पहले से तयशुदा तीन ‘नो बॉल’ फेंके जाने के रूप में सामने आयी), तब से क्रिकेट का खेल देखने का मजा ही जाता रहा। यह भरोसा ही नहीं रहा कि जो हम देख रहे हैं, वह वास्तव में हो रहा है या पहले से कहीं और, किसी और के द्वारा ‘फिक्स्ड’ होकर तयशुदा तरीके से किया जा रहा है!

यही हाल हमारे जीवन का हो गया है। पहले भी धाँधलियाँ होती थीं, फिर भी कहीं न कहीं न्याय और ‘फेयरनेस’ में विश्वास बना रहता था। योग्यता के आधार पर कहीं चुने जा सकने की उम्मीद बनी रहती थी। लेकिन अब तो ऐसा लगता है, जैसे जीवन में भी हर चीज़ पहले से ‘फिक्स्ड’ है--परीक्षा में, इंटरव्यू में, प्रतियोगिता में, हर तरह के चयन और नामांकन में। और तो और, जनतंत्र के नाम पर लड़े जाने वाले चुनावों में, जनहित के नाम पर बनायी जाने वाली नीतियों में, शासन और प्रशासन के कार्यों में, यहाँ तक कि न्यायालयों के निर्णयों में भी! ऐसी स्थिति में आशा कहाँ से पैदा हो? प्रयास की प्रेरणा कैसे मिले? जीवन में रुचि कैसे बनी रहे? आनंद कहाँ से आये?

जब पहले से ही मालूम हो कि ‘वे’ ही जीतेंगे और ‘हम’ ही हारेंगे, तो जीवन में क्या रुचि रहेगी? क्या आशा और क्या प्रेरणा?

--रमेश उपाध्याय

3 comments:

  1. बहुत अच्छी प्रस्तुति। भारतीय एकता के लक्ष्य का साधन हिंदी भाषा का प्रचार है!
    मध्यकालीन भारत धार्मिक सहनशीलता का काल, मनोज कुमार,द्वारा राजभाषा पर पधारें

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  2. अनिश्चितता और अंकीय आवरण।

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  3. एक बार जब ऐसा हुआ था तब बहुत शोर मचा था और इस खेल की विश्वसनीयता समाप्त हो गई थी । उसके बाद इस विश्वसनीयता को वापस लाने केलिए अनेक उपाय किये गए जिनमें लगान फिल्म का निर्माण भी शामिल है। लेकिन शायद वह दौर अब लौटकर न आये । अब तो केवल विशेष क्षणो मे उन्माद के लिये यह खेल देखा जाता है ।

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