Friday, November 12, 2010

‘‘साहित्य ग्राम’’ से मेरी एक पाठिका का पत्र

आज की डाक में भोपाल गैस कांड पर लिखी गयी मेरी कहानी ‘त्रासदी...माइ फुट!’ पर एक पत्र मिला, जिसे पढ़कर मैं इतना खुश हुआ कि इस खुशी में सबको शामिल करना चाहता हूँ। पत्र में लिखा है :

आदरणीय,
श्री रमेश महोदय जी,
एक नादान, नासमझ का प्रणाम स्वीकार करें।

पहले मैं अपना परिचय दे दूँ, तदोपरांत अपनी बात कहना ठीक रहेगा। मैं राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले की नोहर तहसील के गाँव परलीका की निवासी हूँ--संजू बिरट। मेरे गाँव परलीका को ‘‘साहित्य ग्राम’’ के नाम से भी जाना जाता है।

साहित्यिक गाँव है तो स्वाभाविक है, पढ़ने-लिखने में मेरी भी रुचि है। मगर अफसोस कि शायद मैंने आपको पहले नहीं पढ़ा। फिलहाल ‘प्रतिश्रुति’ के ताजा अंक में छपी आपकी कहानी ‘त्रासदी...माइ फुट!’ पढ़ी। इस कहानी ने मुझे अंदर तक झकझोर दिया। चूँकि मैं इस बीभत्स कांड के कई साल बाद इस दुनिया में आयी हूँ, सो मुझे इस बारे में कुछ विशेष न मालूम था। हाँ, अपनी छठी या सातवीं की एक किताब में इस पर एक पैराग्राफ लगता था, वह पढ़ा था, पर उसके अर्थ इतने गहरे हैं, यह अहसास आपकी कहानी पढ़कर हुआ। पिछले दिनों भोपाल गैस कांड पर रिपोर्ट को लेकर भी अखबार में पढ़ा, पर जाना तब भी नहीं कि सच्चाई इतनी कड़वी है। महोदय, मैं और मेरे साथ-साथ ‘त्रासदी...माइ फुट!’ पढ़ने वाला हर मेरे वर्ग का युवा तहे दिल से आपका शुक्रगुजार हैं, जो आपने इतनी गहराई और विश्वसनीयता के साथ हमें एक बहुत बड़े राज से अवगत कराया। हम ‘प्रतिश्रुति’ के भी बेहद आभारी हैं, जो एक सार्थक और सच्चाई से लबरेज अनमोल रत्न हमें इनायत किया।

सर, आपकी कहानी में साहित्य और साहित्यकारों पर जो चर्चा सामने आयी है, मैं उससे पूर्णतः सहमत हूँ। मेरा गाँव साहित्यिक गाँव है, यहाँ दिल्ली तक पहुँचे हुए कई नाम (श्री रामस्वरूप किसान, श्री सत्यनारायण सोनी, श्री विनोद स्वामी) हैं, बहुत-से साहित्यिक आयोजन भी होते हैं, मगर वास्तव में उनका मकसद खुद का नाम फैलाना और इनाम बटोरना ही होता है, यह बात मैंने भी शिद्दत से महसूस की है। चूँकि नींव साहित्य की पड़ी है, पर वास्तव में हम (यहाँ मैं अपने आयु-वर्ग की बात कर रही हूँ) जानते ही नहीं कि साहित्य है क्या? मैंने कई बड़े नाम पढ़े हैं, तस्लीमा नसरीन को पढ़ा है, तो कुछ गोर्की को भी पढ़ा है, मगर आपकी कहानी में जो पुट मुझे मिला है, उसके बाद मुझे यही लगा है कि वास्तव में मैं साहित्य से अनजान हूँ। महोदय, आप सोच रहे होंगे कि मैं तारीफ कर रही हूँ, तो ऐसा नहीं है। सचमुच ‘त्रासदी...माइ फुट!’ बहुत गहरी संवेदना वाली कहानी है, जो किसी भी संवेदनशील इंसान को हिला दे। जिस एक कहानी ने ‘प्रतिश्रुति’ को छापने के लिए मजबूर कर दिया, उसी ने मुझे भी विवश कर दिया कि आपको पत्र लिखूँ। एक बार फिर से हम आपके बेहद आभारी हैं, सर!

महोदय, परिवार सहित दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ। कोई भूल हुई हो, तो नासमझ बच्ची समझकर माफ कर दीजिएगा।--संजू बिरट

--रमेश उपाध्याय

13 comments:

  1. और लोग पाठकों की कमी का रोना रो रहे हैं…सच तो यह है कि हमारे समकालीन और वरिष्ठ साहित्यकारों की आलोचकोन्मुखता और विदेशी नामों को रटने की आत्ममुग्ध और साहित्यघातक प्रवृतियों ने ऐसे 'साहित्य ग्रामों' को साहित्य की परिधि से बहिष्कृत कर उसे एक ऐसे लघु वृत्त में बदल दिया है जहां वे अपने पुरष्कारों और महानताबोधों के साथ अकेले रहने के लिये अभिशप्त हैं…

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  2. bahut achha laga sir
    us kahani ko padhne ke baad us samay meri bhi kuchh aisi hi sthiti thi. agar main bhi patra likhta to uska majmoon aisa hi hota. pathakon ki koi kami nahi hai aur sashakt rachnayen apna pata dhundh hi leti hain...
    Vimal C Pandey

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  3. आदरणीय रमेश जी, पाठक और उनकी प्रतिक्रिया ही रचनाकर्म को सार्थक करती है. इस कहानी को पढ़ने की लालसा जाग उठी है. यह कहानी कहाँ से प्राप्त की जा सकती है ? क्या नेट पर इसका लिंक है ?... शुभकामनायें.

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  4. aadarniye sir main bhi sanju ji ki baat se poora ittefaq rakhta hoon. yeh kahani na sirf kroor poonjivaad ka vaastvik chehra saamne laati balki yeh bhasha ke maadhyam se use chipaye jane ke shadyantra ko bhi kholti hai. itne barson main humne yeh nirantar dekha hai ki sattayen such ko ujagar karne se jyaada us par parda dalna pasand karti hain.

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  5. पढ़कर अच्छा लग रहा है।

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  6. प्रिय शेखर जी, यह कहानी नेट पर तो नहीं है, लेकिन भोपाल कांड पर अदालती फैसला आने के बाद कई पत्रिकाओं में फिर से छपी है, जैसे ‘सेतु’, ‘अक्षर पर्व’, ‘प्रतिश्रुति’, ‘अरावली उद्घोष’ में। तेलुगु में यह ‘प्रजा साहिती’ नामक पत्रिका में और पंजाबी में ‘अक्खर’ नामक पत्रिका में अनूदित होकर छपी है। तेलुगु की इसकी अनुवादक श्रीमती आर. शांतासुंदरी ने बताया कि इस कहानी के कारण पत्रिका की सारी प्रतियां हाथों-हाथ बिक गयीं और पंजाबी पाठकों के, जिनमें पंजाबी के कई प्रसिद्ध लेखक भी शामिल थे, इतने फोन आये कि मैं अभिभूत हो गया। ‘अक्खर’ के अगले अंक में जो पत्र छपे, वे भी बड़े उत्साहवर्धक थे।

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  7. "यहाँ दिल्ली तक पहुँचे हुए कई नाम (श्री रामस्वरूप किसान, श्री सत्यनारायण सोनी, श्री विनोद स्वामी) हैं, बहुत-से साहित्यिक आयोजन भी होते हैं, मगर वास्तव में उनका मकसद खुद का नाम फैलाना और इनाम बटोरना ही होता है, यह बात मैंने भी शिद्दत से महसूस की है"

    एक नई पाठक भी यह बात समझ रही है किंतु इनामान्ध, पुरस्कारान्ध लेखक कब समझेंगे कि उनका मूल्यांकन कितना सही हो रहा है। अच्छी रचना का सबसे बड़ा पुरस्कार पाठकों का प्यार ही होता है।

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  8. कहानी मैं बहुत पहले पढ़ चूका हूँ और निस्संदेह एक यादगार कहानी है... कल जोधपुर गया तो प्रशांत अरोड़ा से भी इस कहानी पर लम्बी चर्चा हुई. कहानी का शिल्प तो अद्भुत है ही, जो तथ्य पेश किये हैं और जिस चरित्र को सृजित किया है वह चकित कर देने वाला है.....
    पत्र तो अद्भुत है ही.... कहानीकार और पत्र लेखक को साधुवाद...
    डॉ. सत्यनारायण सोनी..

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  9. सबसे पहले तो रमेश जी आपको साधुवाद आपकी कहानी के लिए .....संजू बिरट का पत्र भी पढ़ा और अच्छा लगा कि युवा वर्ग भी साहित्य साधना करना चाहता है । परलीका निश्चित ही ' साहित्य ग्राम ' है और मैं मेरी साहित्यिक समझ की नींव के रूप में उस गाँव का ऋणी हूँ । एक बात जो पत्र में कही गयी है उससे मैं असहमत हूँ , वह है कुछ आदरजोग नामों को अप्रत्यक्ष तौर पर पुरस्कार पिपासु ठहरा देना उचित नहीं है । संजू अभी शायद साहित्यिक दुनिया को समझने का प्रयत्न कर रही है और शुरूआती अवस्था में इतनी तीव्रता से निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी और नादानी होती है । आपने पत्र को नेट पर लगाया है तो शायद आपकी और परलीका को बहुत बारीकी से समझने वाले मेरे जैसे पाठक की नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि इस पत्र और अन्य टिप्पणीकारों को सच्चाई से वाकिफ करवा दिया जाये । उन साहित्यकारों के बारे में इतना ही कहना चाहता हूँ कि उनकी बदौलत ही संजू ने साहित्य की साधना शुरू की है । सिर्फ संजू ही नहीं इस क्षेत्र के बहुत से लोग साहित्य का ' क , ख , ग' उनसे ही सीखे हैं । जो लोग पुरस्कार पिपासु होते हैं वो किसी और को उभरने का मौका नहीं देते हैं मगर उन्होंने मेरे जैसे न जाने कितने ही नवांकुरित लेखकों को अपनी सलाहों और निर्देशन से लाभान्वित किया है । डाक्टर सत्यनारायण सोनी ने अकेले अपने दम पर पूरे हनुमानगढ़ क्षेत्र में न जाने कितने लेखकों को ब्लॉग से परिचित करवाया है । फेसबुक का इस्तेमाल करने वाले परलीका में तीन अंकों तक पहुँच गये हैं और इनका श्रेय सिर्फ इन्ही को जाता है । विद्यालय और घर में साहित्यिक चर्चाएं करके इन्होने साहित्य जगत को अनेक पाठक दिए हैं । ऐसे मैं मुझे लगता है कि उन सब के लिए ऐसे कथनों का इस्तेमाल करना उनकी निस्वार्थ साहित्य साधना को निरुत्साहित करना होगा । मैं ऐसा कहकर इस बात से इनकार नहीं करता कि साहित्य जगत में पुरस्कार पिपासु नहीं होते हैं , होते हैं मगर वो नहीं जो किसी ग्राम को साहित्य ग्राम बना देते हैं और जिनके प्रयासों से उसी गाँव की बच्ची गोर्की और तसलीमा नसरीन को पढ़ लेती है जो लोग पुरस्कार पिपासु होते हैं वो किसी और को उभरने का मौका नहीं देते हैं । उन लेखकों क बडप्पन देखिये कि उन्होंने यहाँ टिपण्णी करके संजू के लेख को अद्भुत बताया है । उन सभी साहित्यकारों की साहित्य भावना और साधना को नमन करता हुआ , मैं इस आशा में यह टिप्पणी जो कि संजू के त्वरित निष्कर्ष निकालने की नादानी का प्रतिकर है , आपको भेज रहा हूँ कि यह प्रकाशित होगी और शायद हम सब की ओर से उनके आत्मसम्मान की केवल उन्नायक होगी ।


    जितेन्द्र कुमार सोनी , आई .ए. एस.
    लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी , मसूरी

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  10. रमेश जी ,
    अभी कुछ दिन पूर्व ही इस पत्र में उल्लेखित साहित्य ग्राम परलिका में रह कर आया हु , सही मायने में आप उसे साहित्य ग्राम कह सकते है, देश में ऐसे कितने ग्राम होंगे जो मात्र हम एक अवयस्क पाठिका की जल्दबाजी में की गयी टिपण्णी से उन्हें बहिस्कृत करने के निर्णय पर पहुच जाये.पाठिका निश्चय ही संवेदनशील है, लेकिन जिन सम्मानीय नामों का उल्लेख उसने इस पत्र में किया है , ये मात्र नादानी है !!!!

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  11. इस पाठिका जिन लाखको के नाम लिखे है , उनमे से एक श्री रामस्वरुपकिशन राजस्थानी भासा के उत्तम कवियों में से एक है. नीरज देइया, जैसे समीक्षक ने अपने लेखों में श्री किशानजी को आधुनिक राजस्थानी कविता के दस स्तंभों में से एक कहा है. जब आप राजस्थानी कहानी की बात करेंगे तो वो इसी ग्राम के मेहर चाँद जी धामू बिना पूरी नहीं हो सकती, नए कहानी करो के हरावल दस्ते में मीठेश जी के बाद श्री सत्य नारायण सोनी प्रमुख है !! और श्री स्वामी अभी नए लेखक है, पुरुस्कारों से कोसो दूर , जिस प्रगतिशील सोच से वे लिखते है, सायद पुरस्कार उनके दिमाग में कभी भी न रहता हो.
    आपने एक लेखक होने के नाते अपने पाठक के मूल विचारो को सम्पादित किया है पर मेरा निवेदन है कि सम्पादकीय द्रस्ती से अप्प उसे पत्र लिख कर बेहतर लेखन और संयमित टिप्पणी के लिए प्रेरित करे ताकि उसका साहित्यिक जीवें श्रेष्ठ हो, जैसे आपने यह पत्र मुझे निजी रूप से मेरे दिल्ली प्रवास में दिखाया था मैंने उस पर कोई टिपण्णी नहीं कि , पहले वह गया , इन सब को पढ़ा फिर लिखा, सो बेहतर टिपण्णी और बेहतर भासा हेतु बेहतरी से जानना जरूरी है. पाठिका को साधुवाद , उसकी वजह से मुझे परलिका जाने का मोका मिला !!!!!!!

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  12. अब बाकी बातों का एक सवाल मुझे यह कहानी चाहिये।
    www.pdfbookbox.blogspot.com

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