Monday, December 20, 2010

जब मैंने पहली बार प्रेमचंद को पढ़ा

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की एक शोध छात्रा गुलशन बानो का संदेश आया कि वहाँ के शोध छात्र एक योजना के तहत ‘‘जब मैंने पहली बार प्रेमचंद को पढ़ा’’ विषय पर प्रतिष्ठित विद्वानों, लेखकों और आलोचकों के लेखों का एक संग्रह प्रकाशित करना चाहते हैं। उन्होंने लिखा--‘‘आलोचना और संस्मरण के इस समन्वित प्रयास के माध्यम से हम यह भी जानना चाहते हैं कि प्रेमचंद के साहित्य ने आपके व्यक्तित्व को किस तरह प्रभावित किया।’’ इसके उत्तर में मैंने यह लिखा :

1953 की बात है। मैं उत्तर प्रदेश के एटा जिले की तहसील कासगंज के एक हाई स्कूल में सातवीं कक्षा में पढ़ता था। पढ़ता क्या था, छठी पास करने के बाद सातवीं में आया ही था। जुलाई का महीना था। गरमी की छुट्टियों के बाद स्कूल खुल गया था। मेरे लिए नयी कक्षा की किताबें आ गयी थीं। नयी छपी हुई किताबों की गंध, जो पता नहीं, नये कागज की होती थी या उस पर की गयी छपाई में इस्तेमाल हुई सियाही की, या जिल्दसाजी में लगी चीजों की, या बरसात के मौसम में कागज में आयी हल्की-सी सीलन की, मुझे बहुत अच्छी लगती थी। ज्यों ही मेरे लिए नयी किताबें आतीं, मैं सबसे पहले अपनी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक पढ़ डालता। सो एक दिन स्कूल से लौटकर मैं अपनी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक पढ़ रहा था, जिसमें एक पाठ था ‘बड़े भाई साहब‘। पुस्तक में अवश्य ही लिखा रहा होगा कि यह कहानी है और इसके लेखक हैं प्रेमचंद। लेकिन इस सबसे मुझे क्या! मैं तो ‘बड़े भाई साहब’ शीर्षक देखकर ही उसे पढ़ने लगा।

उसमें बड़े भाई साहब के बारे में मैंने पढ़ा :

‘‘वह स्वभाव से बड़े अध्ययनशील थे। हरदम किताब खोले बैठे रहते और शायद दिमाग को आराम देने के लिए कभी कापी पर, कभी किताब के हाशियों पर चिड़ियों, कुत्तों, बिल्लियों की तस्वीरें बनाया करते थे। कभी-कभी एक ही नाम या शब्द या वाक्य दस-बीस बार लिख डालते। कभी एक शेर को बार-बार सुंदर अक्षरों से नकल करते। कभी ऐसी शब्द-रचना करते, जिसमें न कोई अर्थ होता, न कोई सामंजस्य! मसलन एक बार उनकी कापी पर मैंने यह इबारत देखी--स्पेशल, अमीना, भाइयों-भाइयों, दर-असल, भाई-भाई, राधेश्याम, श्रीयुत राधेश्याम, एक घंटे तक--इसके बाद एक आदमी का चेहरा बना हुआ था।...’’

पढ़ते-पढ़ते मुझे इतनी जोर की हँसी छूटी कि रोके न रुके। घर के लोगों ने मेरी हँसी की आवाज सुनकर देखा कि मैं अकेला बैठा हँस रहा हूँ, तो उन्होंने कारण पूछा और मैं बता नहीं पाया। मैंने खुली हुई किताब उनके आगे कर दी और उँगली रखकर बताया कि जिस चीज को पढ़कर मैं हँस रहा हूँ, उसे वे भी पढ़ लें। उन्होंने भी पढ़ा और वे भी हँसे, हालाँकि मेरी तरह नहीं।

बाद में, न जाने कब, मुझे पता चला कि ‘बड़े भाई साहब’ कहानी थी और वह प्रेमचंद की लिखी हुई थी। और उसके बाद तो मैं कहानियाँ और खास तौर से प्रेमचंद की कहानियाँ ढूँढ़-ढूँढ़कर पढ़ने लगा। लेकिन प्रेमचंद की यह कहानी मुझे हमेशा के लिए अपनी एक मनपंसद कहानी के रूप में याद रह गयी। बाद में मैंने इसे कई बार पढ़ा है, पढ़ाया भी है, लेकिन आज भी उन पंक्तियों को पढ़कर मुझे हँसी आ जाती है।

मैं ठीक-ठीक नहीं कह सकता कि यह प्रेमचंद की कहानी ‘बड़े भाई साहब’ का असर था या कुछ और, लेकिन मेरे साथ यह जरूर हुआ कि मैंने अपनी पढ़ाई को कभी उस कहानी के बड़े भाई साहब की तरह गंभीरता से नहीं लिया। हमेशा खेलता-कूदता रहा और अच्छे नंबरों से पास भी होता रहा। हो सकता है, यह उस कहानी का ही असर हो कि बाद में जब मैं लेखक बना, तो हल्का-सा यह अहसास मेरे मन में हमेशा रहा कि रचना पाठक को प्रभावित करती है--वह कभी उसे हँसाती है, कभी रुलाती है, कभी गुस्सा दिलाती है, कभी विपरीत परिस्थितियों से लड़ने का हौसला बँधाती है और लड़ाई में जीतने की उम्मीद भी जगाती है।

--रमेश उपाध्याय

4 comments:

  1. नि‍स्‍संदेह 'रचना पाठक को प्रभावि‍त करती है', आपका हल्‍का-सा अहसास
    मुझे एकदम पूरा लगता है।
    अच्‍छी व उपयोगी पोस्‍ट।

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  2. प्रेमचंद की वह कहानी आज भी पढ़कर बहुत मज़ा आता है…शिक्षा व्यवस्था पर क्या अद्भुत व्यंग्य

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  3. जब मैंने प्रेमचन्द को पहली बार पढ़ा तो तब तक चैन से नहीं बैठा, जब तक पूरा नहीं पढ़ डाला। बड़े भाई साहब तो अभी भी पढ़ डालते हैं, उतना ही रस आता है।

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  4. premchand ji ki kayi kahaniyan hain jinhe ek baar padhne ke baad bool sakna sambhav nahi. hamesha dil men bas jaati hai.

    sundar post
    aabhaar

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