‘परिकथा’ के तीन ‘युवा कहानी अंक’ मेरे सामने हैं। यद्यपि मैं ‘युवा कहानी’ को एक ‘मिसनोमर’ मानता हूँ और चाहता हूँ कि आज की कहानी को रचनाकारों की उम्र से जोड़कर देखने के बजाय उनकी रचनाशीलता को आज के यथार्थ से जोड़कर कोई सार्थक नाम दिया जाये, तथापि मैं ‘परिकथा’ के संपादक शंकर को इस विशाल एवं भव्य आयोजन के लिए और इसे संभव बनाने के लिए इसमें शामिल रचनाकारों को बधाई देता हूँ।
मैं इसे एक विशाल एवं भव्य आयोजन केवल इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि इन तीनों बृहदाकार अंकों की कुल पृष्ठ संख्या लगभग साढे़ चार सौ है, इनमें नये कहानीकारों की इक्यावन कहानियाँ हैं, अठारह नये कहानीकारों के आज की कहानी से संबंधित प्रश्नों पर व्यक्त किये गये विचार हैं और पाँच वरिष्ठ कथाकारों के नये कथाकारों द्वारा लिये गये साक्षात्कार हैं; यह आयोजन इस दृष्टि से भी विशाल एवं भव्य है कि इसके जरिये आज की हिंदी कहानी को रचनात्मक एवं वैचारिक दोनों धरातलों पर समझने में सहायक विपुल सामग्री पाठकों को उपलब्ध करायी गयी है।
‘युवा कहानी’ और ‘युवा कहानीकारों’ का जिक्र होने पर पहले ‘वागर्थ’ और फिर ‘नया ज्ञानोदय’ के जरिये कहानीकारों की एक नयी पीढ़ी को सामने ले आने का श्रेय स्वयं ही लेने को आतुर रहने वाले रवींद्र कालिया का ध्यान आता है। लेकिन वे नयी पीढ़ी को एक नये उत्पाद की तरह बाजार में ले आने का उत्सव-सा मनाते और उसका विज्ञापन तथा प्रचार करते हुए उसकी मार्केटिंग-सी करते नजर आते हैं, जबकि शंकर पहले ‘अब’ के और अब ‘परिकथा’ के संपादक के रूप में अपने ‘नवलेखन’ तथा ‘युवा कहानी’ विशेषांकों के जरिये रवींद्र कालिया की तुलना में कहीं ज्यादा बड़ी संख्या में नये रचनाकारों को सामने लाने के बावजूद इसका श्रेय लेने या इसका डंका पीटने की कोशिश नहीं करते। उनकी कोशिश नये रचनाकारों को बाजारोन्मुख बनाने के बजाय समाजोन्मुख बनाने की रहती है। इसके लिए वे नये रचनाकारों के प्रति परम आत्मीयता रखते हुए भी उनकी सख्त आलोचना करने से नहीं चूकते। उदाहरण के लिए, युवा कहानी अंक-1 के संपादकीय में उन्होंने उल्लेख किया है कि 1974 में जब उन्होंने ‘अब’ का तीसरा अंक बिलकुल नये लेखकों पर केंद्रित किया था, तब अपने समय के महत्त्वपूर्ण कथा-समीक्षक सुरेंद्र चौधरी ने उन्हें एक पत्र में लिखा था कि नये लेखकों की कहानियाँ आसपास मौजूद स्थितियों के रोजमर्रापन को रेखांकित करें, यह तो ठीक है, किंतु यदि वे उसी में बँधी रहें और स्थितियों के पार न जायें, तो यह उनकी नाकामी है। शंकर ने इसी के आधार पर अपने संपादकीय को शीर्षक दिया है ‘स्थितियों के पार’ और उसमें लिखा है :
‘‘युवा कथाकार से हमेशा यह अपेक्षा रहती है कि वह आसपास मौजूद स्थितियों में चाहे जितनी भी तन्मयता और तल्लीनता से डूबे और उनमें रमे, लेकिन उसकी सोच का एक हिस्सा उन स्थितियों के पार भी जाये। जब कोई कहानी स्थितियों के पार की तरफ भी कुछ सूत्रों के सहारे, कुछ कल्पना-परिकल्पना के सहारे, कुछ संवादों के सहारे, पात्रों की मानसिक हलचलों के सहारे या किसी पात्र की सोच के सहारे जाती है, तभी मौजूद परिस्थितियों के समानांतर कोई विकल्प भी झिलमिलाता है, कोई स्वप्न आहिस्ता से उठ खड़ा होता है, कोई रोशनी की लकीर अनायास फूट पड़ती है। इधर की अधिकांश चर्चित युवा कहानियाँ आसपास मौजूद स्थितियों की गहराई में बहुत तन्मयता के साथ डूबकर लिखी गयी कहानियाँ हैं, लेकिन उनमें स्थितियों के पार देख पाने की स्थितियाँ शायद ही कहीं दिखायी पड़ती हैं। ये चेतना और बोध के स्तर पर सामाजिक जिम्मेदारियों से मुक्त रहकर किये गये लेखन कार्य के दृष्टांत हैं, यह विलक्षण रचनाशीलता के दौर के शोक-कथाओं के दौर में बदल जाने का सिलसिला भी है।’’
नये कहानीकारों को बाजार से परहेज नहीं है, बल्कि बाजार में प्रतिष्ठित और सफल होने के लिए जो भी साधन उपलब्ध हों, उनका इस्तेमाल कर लेना वे उचित और आवश्यक समझते हैं, लेकिन रचनाकार होने के नाते वे अपने और अपनी रचना के, साहित्य और समाज के तथा समूची दुनिया के भविष्य के बारे में भी सजग हैं। दो शब्दों में कहूँ, तो कहानीकारों की यह नयी पीढ़ी निरी बाजारोन्मुखी नहीं, भविष्योन्मुखी भी है। शायद इसीलिए वह ‘नया ज्ञानोदय’ में छपने के साथ-साथ ‘परिकथा’ में भी छपना चाहती है, जिसके संपादक उन्हें पूरा महत्त्व देकर प्रकाशित करने के साथ-साथ उनकी सख्त आलोचना करके उन्हें सही दिशा दिखाने से नहीं चूकते। युवा कहानी अंक-3 के संपादकीय में शंकर ने लिखा है :
‘‘जिस तरह कोई भी सभ्यता अपनी अधिरचना भी पैदा करती है, उसी तरह बाजार भी अपनी अधिरचना खड़ी करने में लगा हुआ है। इसी अधिरचना से (साहित्य, संस्कृति, कला जिसके अनिवार्य हिस्से हैं), वे जो साहित्य की लोकोन्मुखता की परंपरा से जुड़े हैं, सीधे रू-ब-रू हैं। दृष्टियों और मूल्यों की टकराहट साहित्य, संस्कृति, कला की दुनिया में बहुत स्वाभाविक रूप से शुरू हो गयी है। विचारधारा का अंत, इतिहास का अंत, यथार्थ से निरपेक्षता और उसका इनकार, अंतर्वस्तु से परहेज, अंतर्वस्तु की जगह भाषा-शिल्प या कला विन्यास की सर्वोच्चता, समाज के मुद्दों की जगह हल्के-फुल्के विषयों की स्थापना, वैचारिक रुझानों की जगह मनोरंजन के पक्ष, चुटकुलों और लतीफों का साहित्यिक रूपांतरण, गहरी और समझदारी भरी पाठकीयता की जगह रोचकता का पक्ष, वैयक्तिकता का ग्लैमराइजेशन, दूसरों की चिंता से परहेज, मनुष्य-समुदाय और समाज से निरपेक्षता--ये स्थापनाएँ, प्रवृत्तियाँ और अपेक्षाएँ साहित्य में बाजार की संस्कृति और उसके मूल्यों के ही प्रतिबिंबन हैं। कहना न होगा कि साहित्य जिस हद तक मनुष्यता और समाज का पक्षधर है, उस हद तक वह बाजार का प्रतिपक्ष है। ये टकराहटें अलग-अलग रूपों में युवा कहानी में भी मौजूद हैं। हमें यह विश्वास है कि युवा कहानी अंततः लोकोन्मुखता की धारा से ही जुड़ेगी और समाज के पक्ष में ही खड़ी होगी।’’
नये कहानीकारों से ऐसी बातें इतनी बेबाकी से वही संपादक कह सकता है, जो स्वयं तो विवेकवान है ही, अपने रचनाकारों को भी विवेकवान बनाने का इच्छुक है। इन तीन विशेषांकों के जरिये जितना बड़ा काम शंकर ने किया है, उसका अहसास उन्हें है, लेकिन उसका श्रेय लेने तथा रचनाकारों पर अहसान जताने के बजाय वे कहानी के पाठकों तथा समीक्षकों से कहते हैं कि ‘‘तीन अंकों में प्रकाशित ये पचास-इक्यावन कहानियाँ एक नया कारवाँ रचती हैं। ये नये बोध, नये संज्ञान की कहानियाँ हैं। इनसे युवा कहानी की एक नयी पहचान अन्वेषित होती है और एक नया चेहरा उभरकर सामने आता है। इनमें कम से कम पचीस कहानियाँ जरूर ऐसी हैं, जिनकी चर्चा के बगैर युवा कहानी की चर्चा अधूरी रहेगी। इनकी चर्चा न हो, तो यह इनके साथ नाइंसाफी भी होगी।’’
मैंने इन तीनों अंकों की सभी कहानियाँ पढ़ी हैं और मुझे शंकर का यह दावा गलत नहीं लगता। मैं इन कहानियों में से अपनी पसंद की कहानियों की एक सूची बनाऊँ, तो वह कुछ इस प्रकार की होगी--प्रियदर्शन की ‘शेफाली चली गयी’, संजय कुंदन की ‘डार्क रूम’, हरिओम की ‘जिंदगी मेल’, अरुण कुमार ‘असफल’ की ‘तरबूज का बीज’, रवींद्र स्वप्निल प्रजापति की ‘टीन टप्पर’, आनंद वर्धन की ‘सिवइयाँ’, प्रेम रंजन अनिमेष की ‘सात सहेलियाँ खड़ी-खड़ी...’, राकेश बिहारी की ‘बिसात’, सत्यनारायण पटेल की ‘गम्मत’, वसंत त्रिपाठी की ‘घुन’, अशोक कुमार पांडेय की ‘पागल है साला’, चरण सिंह पथिक की ‘परछाइयों में गुलाब’, घनश्याम कुमार ‘देवांश’ की ‘दुनिया खतरे में है’, पंकज मित्र की ‘बिजुरी महतो की अजब दास्तान’, अजय नावरिया की ‘गंगासागर’, विमल चंद्र पांडेय की ‘हाइवे पर कुत्ते’, प्रत्यक्षा की ‘दिल, दो लड़कियाँ और एक इतना-सा नश्तर’, सुभाष चंद्र कुशवाहा की ‘रात के अँधियारे में’, एम. हनीफ मदार की ‘सपने जैसा सपना’, विवेक मिश्र की ‘घड़ा’, मजकूर आलम की ‘पानीदार...’, इंदिरा दांगी की ‘हमें मुस्कराना आता है’, प्रमोद कुमार बर्णवाल की ‘थूक से सना हुआ चेहरा’ और विपिन चौधरी की ‘हुक्का-पानी’।
ये कहानियाँ (और बाकी जो छूट गयी हैं, शायद वे भी) अपने-अपने ढंग की ‘अच्छी’ कहानियाँ हैं। मगर इनको पढ़ते हुए मुझे एक अजीब-सी बेचैनी महसूस होती रही और मैं सोचता रहा: क्या इन कहानियों में आज का यथार्थ आ रहा है? नहीं आ रहा है, तो क्यों नहीं आ रहा है? ये कहानियाँ निरे वर्तमान और उसके रोजमर्रापन तक ही सीमित क्यों रहती हैं? उसके पार क्यों नहीं जातीं? इनमें से ज्यादातर शहरी और शिक्षित मध्यवर्ग तक ही और उसमें भी प्रायः लेखकों के अपने आसपास के ‘‘जिये-भोगे यथार्थ’’ तक ही सीमित अनुभववादी या प्रकृतवादी कहानियाँ ही क्यों हैं? इनमें गरीब, अशिक्षित, ग्रामीण, दलित, आदिवासी, किसान, मजदूर और उनके संगठनों, आंदोलनों तथा संघर्षों का यथार्थ, जो वर्तमान परिस्थितियों में एक देश का स्थानीय यथार्थ न रहकर भूमंडलीय यथार्थ बन चुका है, क्यों नजर नहीं आता? इनमें से ज्यादातर कहानियाँ (पुरुषों द्वारा लिखी गयी कहानियाँ भी) स्त्रियों पर और उनके माध्यम से व्यक्त सेक्स और हिंसा पर केंद्रित क्यों हैं? इक्यावन में से बमुश्किल चार कहानियाँ ही जन-संगठन तथा जन-आंदोलन से संबंधित हैं। पंकज मित्र की ‘बिजुरी महतो की अजब दास्तान’, विमल चंद्र पांडेय की ‘हाइवे पर कुत्ते’, सुभाष चंद्र कुशवाहा की ‘रात के अँधियारे में’ और अशोक कुमार पांडेय की ‘पागल है साला’। मगर इनमें भी जन-संगठन तथा जन-आंदोलन नेपथ्य में सांकेतिक रूप में और प्रायः पस्त या पराजित रूप में ही दिखते हैं। आखिर क्यों?
उत्तर पाने के लिए मैंने तीनों अंकों में आयोजित परिचर्चा ‘युवा कहानी और उसका समय’ में कहानीकारों द्वारा व्यक्त विचार पढ़े। पत्रिका की ओर से पूछा गया एक प्रश्न है--‘‘हिंदी कहानी की लगभग सौ वर्षों की जो परंपरा है, आपके अपने रचनाकर्म के लिए उसकी क्या प्रासंगिकता है?’’ मैं इस प्रश्न के उत्तर में कहानीकारों द्वारा गिनाये गये नामों को देखकर चकित रह गया। उनमें प्रेमचंद, यशपाल, भैरव प्रसाद गुप्त, अमरकांत, मार्कंडेय, शेखर जोशी, नागार्जुन, मुक्तिबोध, हरिशंकर परसाई, भीष्म साहनी, रमाकांत, रमेश उपाध्याय, विजयकांत, इसराइल, नमिता सिंह, विजेंद्र अनिल, असगर वजाहत, अरुण प्रकाश, सतीश जमाली, सुरेश कांटक, शंकर, अभय, नर्मदेश्वर आदि प्रगतिशील-जनवादी कथाकारों का नामोल्लेख तक नहीं है! इतना ही नहीं, हिंदी कहानी के विभिन्न आंदोलनों का भी, विशेष रूप से प्रगतिशील-जनवादी कहानी के आंदोलन का भी कोई जिक्र नहीं है। अथवा जिक्र है, तो नकारात्मक रूप में, जैसे अंक-2 में प्रेम भारद्वाज का वक्तव्य है कि ‘‘एक दौर में जब विचारधारा के फ्रेम में रचने का प्रचलन जोरों पर था, कई सतही और उपदेशात्मक रचनाएँ सामने आयीं, खासकर कथा आंदोलन के दौर में। आज उन कहानियों और कहानीकारों का नामलेवा भी नहीं बचा है।’’
हिंदी साहित्य में ‘विचारधारा’ का मतलब मार्क्सवादी या प्रगतिशील-जनवादी विचारधारा होता है (जैसे और कोई विचारधारा तो विचारधारा होती ही नहीं) और ‘युवा कहानीकार’ लगभग सर्वसम्मति से यह मानते प्रतीत होते हैं कि इस विचारधारा और इस कथा-परंपरा से उनका कोई लेना-देना नहीं है! शायद इन ‘युवा कहानीकारों’ ने सोवियत संघ के विघटन के बाद पूँजीवाद की ओर से किये गये इस धुआँधार प्रचार को सच मानकर आत्मसात कर लिया है कि समाजवाद समाप्त हो गया, मार्क्सवाद अप्रासंगिक हो गया, प्रगतिशील-जनवादी साहित्य बेकार हो गया, साहित्यिक आंदोलन गैर-जरूरी हो गये...इत्यादि। कहना न होगा कि यह भी एक विचारधारा है। आज के पूँजीवाद और साम्राज्यवाद को बहुत रास आने वाली विचारधारा। जन-विरोधी और जनतंत्र-विरोधी विचारधारा। समाज-विरोधी और समाजवाद-विरोधी विचारधारा। यह विचारधारा रचनाकार को वर्तमान स्थितियों के पार नहीं देखने देती, अतः उसे भविष्योन्मुखी नहीं बनने देती, बल्कि बाजारोन्मुखी बना देती है।
इस विचारधारा से प्रेरित रचनाकार न तो आज के यथार्थ को उसकी पूरी व्यापकता में देख पाता है और न अपने रचनाकर्म से आज की परिस्थितियों के अनुरूप यथार्थवाद का विकास करते हुए अपने साहित्य की यथार्थवादी परंपरा से जुड़कर उसे आगे बढ़ा पाता है। वह यथार्थवादी बनने की जगह यथास्थितिवादी बन जाता है। इसीलिए वह दुनिया को सुधारने, सँवारने, बदलने और बेहतर बनाने में सक्षम शक्तियों तथा उनके संगठनों और आंदोलनों से जुड़ने की जगह उनका विरोधी बन जाता है। सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों से ही नहीं, वह साहित्यिक आंदोलनों से भी नफरत करता है और उनसे दूर रहना ही उचित समझता है।
मैं शिद्दत से एक साहित्यिक आंदोलन की जरूरत महसूस करता हूँ, क्योंकि आज का समय आंदोलनों का समय है। आज दुनिया भर में तरह-तरह के आंदोलन चल रहे हैं। अमोरी स्टार अपनी किताब ‘ग्लोबल रिवोल्ट’ में ठीक ही कहती हैं कि आज की दुनिया में एक महासंघर्ष चल रहा है। पूँजीवादी भूमंडलीकरण के विरुद्ध एक गैर-पूँजीवादी भूमंडलीकरण के लिए किया जाने वाला संघर्ष। ‘‘ऊपर से किये जा रहे भूमंडलीकरण’’ के विरुद्ध ‘‘नीचे से हो रहे भूमंडलीकरण’’ का संघर्ष। यह संघर्ष विभिन्न प्रकार के आंदोलनों के रूप में चल रहा है और दुनिया भर के ये आंदोलन ‘वर्ल्ड सोशल फोरम’ जैसे मंचों पर एकत्र भी हो रहे हैं। इनमें से कई आंदोलन सफल भी हो रहे हैं। जैसे अरब देशों के तानाशाहों के विरुद्ध जारी आंदोलन। या हमारे यहाँ भ्रष्टाचार के विरुद्ध चला अण्णा हजारे का आंदोलन। इन आंदोलनों की सफलता पूरी है या अधूरी, वास्तविक है या अवास्तविक, स्थायी है या क्षणिक, यह बात अलग है।
ऐसे समय में किसी भी आंदोलन की बात से जनगण उत्साहित हो जाते हैं और स्थापित सत्ताएँ, चाहे वे साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र की सत्ताएँ ही क्यों न हों, चिंतित और भयभीत हो जाती हैं। अतः वे एक तरफ तो यह प्रयत्न करती हैं कि कोई आंदोलन शुरू ही न हो पाये और दूसरी तरफ यह कि भ्रामक प्रचार के जरिये समस्त आंदोलनों को गलत, गैर-जरूरी, अवांछित और खतरनाक बताकर बदनाम किया जाये, ताकि लोग उनसे दूर ही रहें और जब स्थापित सत्ताएँ नितांत अमानवीय, गैर-जनतांत्रिक या तानाशाही तरीकों से उनका दमन करें, तो लोग खामोश रहें। आज साहित्य के क्षेत्र में भी यही स्थिति दिखायी दे रही है। साहित्यिक आंदोलनों को बदनाम किया जाता है, उनका दमन किया जाता है और बहुत-से नये रचनाकार इसका विरोध करने के बजाय आंदोलनों के ही विरोधी बन जाते हैं।
इसीलिए ‘परिकथा’ के युवा कहानी अंक-1 में प्रकाशित अशोक कुमार पांडेय से हुई अपनी बातचीत में मैंने कहा था कि नये कहानीकारों को एक नया आंदोलन चलाना चाहिए। बहुत-से नये कहानीकारों ने इस विचार का स्वागत और समर्थन किया। ‘परिकथा’ के अगले अंकों में इस आशय के कई पत्र प्रकाशित हुए। व्यक्तिगत रूप से मुझे जो प्रतिक्रियाएँ मिलीं, उनमें बार-बार एक सुझाव मिला कि इस पर आगे बात होनी चाहिए। अतः ‘कथन’ के जनवरी-मार्च, 2011 के अंक में उस बातचीत को पुनः प्रकाशित करते हुए उस पर एक परिचर्चा आयोजित की गयी, जिसमें छह नये कहानीकारों--योगेंद्र आहूजा, मनीषा कुलश्रेष्ठ, मनोज कुलकर्णी, प्रियदर्शन, प्रभात रंजन और राकेश बिहारी--ने भाग लिया। इस पर भी मुझे बड़ी उत्साहजनक प्रतिक्रियाएँ मिल रही हैं।
लेकिन अप्रैल, 2011 के ‘नया ज्ञानोदय’ में मैंने देखा कि वहाँ एक और ही तरह की प्रतिक्रिया हो रही है। संपादक रवींद्र कालिया ने किसी का नाम लिये बिना कहानी आंदोलनों को गलत और अवांछित बताते हुए नये कहानीकारों से मानो यह कहने की कोशिश की है कि वे किसी नये आंदोलन के चक्कर में न पड़ें। इसके लिए उन्होंने फिर वही दशक और पीढ़ी वाला पुराना राग छेड़ा है, जो कहानी आंदोलनों के विरोधी लंबे समय से गाते आ रहे हैं। मैंने अपने साक्षात्कार में (और अन्यत्र भी) यह कहा है कि ‘‘कहानी को किसी दशक या पीढ़ी की छतरी के नीचे ले आने से कहानी की किसी प्रवृत्ति का पता नहीं चलता। हिंदी कहानी के दशक उसके विकास के सूचक नहीं हैं। विकास की गति सदा इकसार और काल-क्रमानुसार नहीं होती, क्योंकि विकास हमेशा अंतर्विरोधों के बीच होता है। साहित्य में ये अंतर्विरोध दशकों और पीढ़ियों के बीच न होकर सामाजिक यथार्थ के प्रति अपनाये जाने वाले दृष्टिकोणों के बीच और रचना में अपनाये जाने वाले कला-सिद्धांतों के बीच होते हैं।’’
रवींद्र कालिया इन अंतर्विरोधों की बात कभी नहीं करते। वे पीढ़ियों के आपसी झगड़ों की बात करते हुए लिखते हैं--‘‘जब-जब हिंदी में किसी नयी पीढ़ी का उदय हुआ है, उसे पहले की पीढ़ियों ने प्रायः नकारने की ही कोशिशें की हैं। यह कोई नयी प्रवृत्ति नहीं है, दशकों से चली आ रही है। जब सन् साठ के बाद की पीढ़ी ने लिखना शुरू किया था, तो अग्रज पीढ़ियों का भी यही नजरिया था।...ठीक इसी तरह आज कुछ बुजुर्ग आलोचक नितांत नयी पीढ़ी के प्रति सशंकित दिखायी देते हैं।...आलोचकों में विजयमोहन सिंह का दृष्टिकोण इस पीढ़ी के प्रति अवश्य सकारात्मक है। इस अंक से वे युवा पीढ़ी की रचनाशीलता को रेखांकित भी कर रहे हैं।’’
विजयमोहन सिंह ने क्या किया है, इसकी चर्चा बाद में, पहले रवींद्र कालिया के संपादकीय को थोड़ा और देख लें। उन्होंने वर्तमान युवा पीढ़ी के कहानीकारों द्वारा कोई आंदोलन न चलाये जाने की सराहना करते हुए लिखा है--‘‘हिंदी में ‘नयी कहानी’ पहला कथा-आंदोलन था। उसके बाद आंदोलनों की झड़ी लग गयी। सब अपनी-अपनी डफली और अपना-अपना राग बजाने लगे। कमलेश्वर ने ‘नयी कहानी’ आंदोलन के अंतिम दौर में अपना नया आंदोलन ‘समांतर कहानी’ के नाम से आरंभ कर दिया। सैद्धांतिकी तैयार की गयी और कहानियों को उस सैद्धांतिकी में फिट किया जाने लगा या सैद्धांतिकी के अनुरूप कहानियाँ गढ़ी जाने लगीं। इस सब के विपरीत आज की युवा पीढ़ी कोई गिरोह बनाकर अवतरित नहीं हुई। एक दौर में बहुत-से कथाकार उभरकर सामने आये। सबका अपना नजरिया था और अपना तेवर।’’
इस वक्तव्य में साहित्यिक आंदोलनों के प्रति अपनाया गया हिकारत और भर्त्सना का भाव तो स्पष्ट ही है, इसमें ‘ओमिशन’ तथा ‘ऐलिगेशन’ के जरिये किया गया एक मिथ्या प्रचार भी अंतर्निहित है। ‘ओमिशन’ इस प्रकार कि इस वक्तव्य में हिंदी कहानी के दो ही आंदोलनों की बात की गयी है--‘नयी कहानी’ और ‘समांतर कहानी’ की--जबकि अन्य कहानी आंदोलनों का, खास तौर से ‘समांतर कहानी’ के बाद चले प्रगतिशील-जनवादी कहानी के आंदोलन का पूरा विलोपन कर दिया गया है, जिससे लगे कि उसमें शामिल कहानीकारों तथा उनकी कहानियों का कभी कोई अस्तित्व ही नहीं था। और ‘ऐलिगेशन’ यह कि साहित्यिक आंदोलन चलाने के लिए पहले एक ‘सैद्धांतिकी’ तैयार की जाती है और फिर या तो कहानियों को उसमें फिट किया जाता है या उसके अनुरूप कहानियाँ गढ़ी जाती हैं। रवींद्र कालिया शायद यह समझते हैं कि वे आज के लेखकों और पाठकों को जैसे चाहेंगे, भरमा लेंगे और अपनी गलत-सलत बातें भी उनसे मनवा लेंगे। मगर आज के लेखक और पाठक साहित्य के इतिहास को जानते हैं और आंदोलन की प्रक्रिया को समझते हैं। वे जानते हैं कि प्रगतिशील-जनवादी कहानी एक ऐतिहासिक वास्तविकता है और साहित्यिक आंदोलन या तो ऐतिहासिक परिस्थिति के दबाव में स्वतःस्फूर्त रूप में उभरते हैं, या अन्यत्र चल रहे आंदोलनों से प्रेरित होकर पैदा होते हैं। पहले रचना होती है, फिर आलोचना। पहले आंदोलन चलते हैं, फिर उनके सिद्धांत बनते हैं। ऐसा कभी नहीं होता कि पहले सिद्धांत बना लिये जायें और फिर उनके अनुसार रचनाएँ गढ़ी जायें।
लगता है, रवींद्र कालिया को भय है कि नये कहानीकारों ने कोई नया आंदोलन चलाया, तो कहानीकारों की ‘युवा पीढ़ी’ तथा उसके द्वारा लिखी जा रही ‘युवा कहानी’ को सामने लाने और साहित्य में प्रतिष्ठित करने का जो श्रेय उन्होंने हासिल किया है, शायद उनसे छिन जायेगा। अतः वे हिंदी कहानी को दशकों और पीढ़ियों में बाँटकर दिखा रहे हैं और जहाँ कोई संघर्ष नहीं है, वहाँ भी ‘‘पीढ़ियों के संघर्ष’’ की बात कर रहे हैं, जबकि आज नयी तथा अग्रज पीढ़ी के कथाकारों में खासा सद्भाव है और वे एक-दूसरे से बातचीत करते हुए और एक-दूसरे को समझते-समझाते नजर आते हैं। उदाहरण के लिए, ‘परिकथा’ के युवा कहानी अंक-1 में अग्रज पीढ़ी के कथाकारों से नयी पीढ़ी के कथाकारों ने जो बातचीत की है, उसमें न तो कहीं ‘‘पीढ़ियों का संघर्ष’’ है और न कहीं ‘‘नयी पीढ़ी को नकारने’’ की कोशिश!
लेकिन रवींद्र कालिया ने एक नये कहानी आंदोलन की संभावना से भयभीत होकर दशकवाद और पीढ़ीवाद का चक्कर चलाना शुरू कर दिया है। इसका शुभारंभ उन्होंने ‘नया ज्ञानोदय’ के उक्त अंक में विजयमोहन सिंह के लेख ‘नयी कहानी, साठोत्तरी कहानी और आज की कहानी’ से किया है। कहानी आंदोलनों को खारिज करना है और दशकवाद-पीढ़ीवाद के कंकाल को कब्र से निकालकर पुनः खड़ा करना है, यह पहले से तय है। अतः विजयमोहन सिंह के लेख का पहला वाक्य है--‘‘ ‘नयी कहानी’ एक छद्म नाम था।’’ संपादक जी अपने संपादकीय में कह चुके हैं कि ‘‘हिंदी में ‘नयी कहानी’ पहला कथा-आंदोलन था।’’ और आलोचक जी बता रहे हैं कि ‘नयी कहानी’ कोई नयी कहानी नहीं थी, वास्तव में नयी कहानी तो ‘साठोत्तरी कहानी’ थी। उनके लेख की सबसे प्रमुख स्थापना है--‘‘साठोत्तरी कहानी...ने हिंदी कहानी को एक ऐसा आलोकवृत्त दिया, जिसका प्रभाव आज की कहानी पर स्पष्ट देखा जा सकता है।’’
आज के नये कहानीकारों में से ज्यादातर ने शायद ‘साठोत्तरी कहानी’ का नाम भी नहीं सुना होगा। अतः इसका थोड़ा इतिहास सामने लाना जरूरी है। हिंदी कहानी में ‘नयी कहानी’ का आंदोलन जब पुराना पड़ने लगा, तो उसकी जगह लेने के लिए अनेक आंदोलन उठ खड़े हुए। उनमें से तत्काल उभरने वाले दो मुख्य आंदोलन थे--‘अकहानी’ और ‘सचेतन कहानी’। यह समय था 1960 के आसपास का। अतः जो नये कहानीकार ‘नयी कहानी’ के विरोधी थे, किंतु साहित्यिक आंदोलनों के भी विरोधी थे, और जिन्होंने 1960 के बाद लिखना शुरू किया था, उन्होंने अपना कोई आंदोलन चलाने या किसी दूसरे आंदोलन में शामिल होने के बजाय अलग रहना पसंद किया। उन्होंने स्वयं को साठोत्तरी पीढ़ी का घोषित करते हुए अपनी कहानी को ‘साठोत्तरी कहानी’ का नाम दिया। इसे ‘सन् साठ के बाद की कहानी’ और ‘सातवें दशक की कहानी’ भी कहा गया। यहीं से हिंदी कहानी को दशकों और पीढ़ियों में बाँटकर देखने का सिलसिला शुरू हुआ।
लेकिन स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कहानी आंदोलनधर्मी रही है। वह आंदोलनों से ही विकसित हुई है। ‘नयी कहानी’, ‘अकहानी’, ‘सचेतन कहानी’, ‘समांतर कहानी’, ‘प्रगतिशील कहानी’, ‘जनवादी कहानी’, ‘स्त्रीवादी कहानी’, ‘दलितवादी कहानी’ आदि के रूप में उसके विकास का पूरा इतिहास लिखा जा सकता है। लेकिन इसके साथ-साथ एक आंदोलन-विरोधी प्रवृत्ति भी मौजूद रही है, जो आंदोलनों में शामिल लेखकों को ‘गुट’ और ‘गिरोह’ जैसे हिकारत भरे शब्दों से पुकारती है। (रवींद्र कालिया ने अपने उक्त संपादकीय में लिखा है--‘‘आज की युवा पीढ़ी कोई गिरोह बनाकर अवतरित नहीं हुई।’’) इस प्रवृत्ति के लोग कहानी में आने वाले बदलावों को समय, समाज, यथार्थ, लेखकीय दृष्टिकोण और कला-मूल्यों आदि में मौजूद अंतर्विरोधों के आधार पर नहीं, बल्कि पीढ़ियों के अंतर या अंतराल के आधार पर देखते हैं और यह मानकर चलते हैं कि पुरानी पीढ़ी हमेशा नयी पीढ़ी को नकारती है, अतः नयी पीढ़ी को उसके विरुद्ध संघर्ष करके आगे बढ़ना होता है। इसी को ‘‘पीढ़ियों का संघर्ष’’ कहा जाता है।
मजेदार बात यह है कि इस प्रवृत्ति के लोग जहाँ ऐसा कोई संघर्ष नहीं हो रहा होता, वहाँ भी उसे देखने-दिखाने का प्रयास करते हैं। उदाहरण के लिए, वर्तमान नयी पीढ़ी के कहानीकारों को उनसे पहले की किसी पीढ़ी के लेखकों ने नहीं नकारा। उलटे, सबने उनकी नयी रचनाशीलता का स्वागत-सत्कार ही किया। रवींद्र कालिया द्वारा संपादित ‘वागर्थ’ और ‘नया ज्ञानोदय’ ने ही नहीं, हिंदी की लगभग सभी पत्रिकाओं ने उनकी कहानियाँ तथा उनकी पुस्तकों की समीक्षाएँ छापी हैं। लगभग सभी आलोचकों ने उनकी कहानियाँ पढ़ी और सराही हैं। ये सभी संपादक और आलोचक अग्रज पीढ़ियों के हैं। फिर भी उन पर नयी पीढ़ी को नकारने का आरोप लगाया जाता है। इसीलिए ‘परिकथा’ के सितंबर-अक्टूबर, 2010 के अंक में जब राकेश बिहारी दूधनाथ सिंह से पीढ़ियों की टकराहट के बारे में पूछते हैं, तो दूधनाथ सिंह सही कहते हैं--‘‘पीढ़ियों की टकराहट कब और कहाँ हुई, मुझे नहीं मालूम।’’
आज की हिंदी कहानी में कहानीकारों की अनेक पीढ़ियाँ सक्रिय हैं और ऐसे बहुत-से कथाकार तथा कथा-समीक्षक, जो विभिन्न कहानी आंदोलनों में शामिल रहे हैं, आज लेखक, आलोचक और संपादक के रूप में नये कहानीकारों के नयेपन को पसंद और रेखांकित भी करते हैं। (‘परिकथा’ ने तो यह काम सबसे आगे बढ़-चढ़कर किया है।) लेकिन किसी ने यह नहीं कहा कि नयी पीढ़ी हमसे प्रभावित है; जबकि नयी पीढ़ी के प्रति ‘‘सकारात्मक दृष्टिकोण’’ रखने की घोषणा करने वाले ‘साठोत्तरी’ आलोचक विजयमोहन सिंह ‘साठोत्तरी’ संपादक रवींद्र कालिया द्वारा संपादित पत्रिका में लिख रहे हैं कि आज की कहानी पर ‘साठोत्तरी कहानी’ का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है!
लेकिन प्रभावित होना तो दूर की बात है, जैसा मैंने पहले कहा, आज के नये कहानीकारों में से ज्यादातर ने शायद ‘साठोत्तरी कहानी’ का नाम भी नहीं सुना होगा। विजयमोहन सिंह और रवींद्र कालिया जिस ‘साठोत्तरी पीढ़ी’ के हैं, उस पीढ़ी का शायद ही कोई कहानीकार आज स्वयं को ‘साठोत्तरी कहानीकार’ कहता या मानता हो, क्योंकि इस नाम की कहानी की कोई पहचान कभी बनी ही नहीं। अलबत्ता ‘नयी कहानी’ आंदोलन के बाद हिंदी में जो कहानी आंदोलन चले, उनसे संबद्ध-असंबद्ध कहानीकारों की अपनी पहचानें हैं और उनके प्रभाव आज की कहानी पर खोजे जा सकते हैं।
उदाहरण के लिए, ‘नयी कहानी’ आंदोलन के बाद ‘अकहानी’ नाम का जो आंदोलन चला था, उसमें ज्यादातर लेखक उसी पीढ़ी के थे, जिसे 1960 के बाद की पीढ़ी कहा जाता है। लेकिन चूँकि आंदोलन कहानीकारों की उम्र के आधार पर नहीं चलते, इसलिए उसमें कुछ अग्रज पीढ़ियों के कहानीकार भी शामिल थे। बाद में उस आंदोलन के समाप्त हो जाने पर उनमें से कई कहानीकार अन्य कहानी आंदोलनों में शामिल हो गये या पूर्ववर्ती ‘नयी कहानी’ के आंदोलन में ही शामिल माने जाते रहे। मैंने भी 1960 के बाद लिखना शुरू किया था और मैं भी कुछ समय तक ‘अकहानी’ के आंदोलन में शामिल था, जैसे कि आगे चलकर ‘समांतर कहानी’ और फिर ‘प्रगतिशील-जनवादी कहानी’ के आंदोलन में शामिल रहा। ‘अकहानी’ एक अत्यंत अल्पजीवी आंदोलन था, लेकिन यह कैसा रहा होगा, इसका कुछ अंदाजा आज के कहानीकार इस बात से लगा सकते हैं कि 1967 में प्रकाशित ‘अकहानी’ नामक संकलन में शामिल कहानीकार विभिन्न पीढ़ियों के, विभिन्न विचारधाराओं वाले, विभिन्न राजनीतिक दलों तथा संगठनों से संबंध रखने वाले और विभिन्न प्रकार की कहानियाँ लिखने वाले कहानीकार थे। उनके नाम हैं--निर्मल वर्मा, योगेश गुप्त, ममता कालिया, श्याम मोहन श्रीवास्तव, सुरेंद्र अरोड़ा, श्रीकांत वर्मा, कुलभूषण, रवींद्र कालिया, राजकमल चौधरी, सुधा अरोड़ा, रघुवीर सहाय, हिमांशु जोशी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, ज्ञानप्रकाश, रमेश उपाध्याय, जगदीश चतुर्वेदी, सुरेश सिनहा और कामतानाथ।
आज इनमें से किस कहानीकार को ‘साठोत्तरी कहानीकार’ के रूप में जाना या पहचाना जाता है? सबकी अपनी अलग पहचान है, चाहे वह किसी कहानी आंदोलन से संबंधित हो या नहीं। शायद रवींद्र कालिया एकमात्र ऐसे कहानीकार हैं, जो आज भी स्वयं को ‘साठोत्तरी कहानीकार’ मानते हैं। मगर यदि वे यह सोचते हैं कि दशकवाद और पीढ़ीवाद का चक्कर चलाकर किसी नये कहानी आंदोलन का होना असंभव बना देंगे, तो वे भारी मुगालते में हैं। विगत दो दशकों में कोई नया साहित्यिक आंदोलन नहीं चला, तो इसके विशेष ऐतिहासिक कारण रहे हैं। यहाँ मैं उन कारणों में नहीं जाऊँगा, लेकिन इतना अवश्य कह सकता हूँ कि यह दो दशकों की शांति तूफान के पहले की शांति थी। आज दुनिया के हर हिस्से में और जीवन के हर क्षेत्र में नित्य नये आंदोलन उभर रहे हैं। यह असंभव है कि हिंदी साहित्य में नये आंदोलन न उभरें।
हिंदी में प्रगतिशील-जनवादी कहानी के आंदोलन के बाद कोई आंदोलन नहीं चला। लेकिन विगत दो दशकों में समय बदल गया है, ऐतिहासिक परिस्थिति बदल गयी है, भौगोलिक परिप्रेक्ष्य बदल गया है, इसलिए अब वह या उसी तरह का कोई आंदोलन उसी पुराने तरीके से नहीं चल सकता। एक नये आंदोलन की जरूरत है और वह नये ही ढंग से चलेगा। मैंने अशोक कुमार पांडेय से की गयी अपनी बातचीत में भविष्योन्मुखी कहानी का नाम सुझाया था। उसके पीछे भविष्य की एक बेहतर दुनिया की परिकल्पना थी। उसे अपने शब्दों में बताने के बजाय मैं ‘दि वर्ल्ड वी विश टु सी’ नामक पुस्तक के लेखक समीर अमीन के शब्दों में बताना चाहूँगा। उनके अनुसार ‘‘वह दुनिया समस्त मनुष्यों तथा जनगणों की एकजुटता के आधार पर बनेगी। वह पूरी तरह और समूचे तौर पर नागरिक तथा लैंगिक समानता पर आधारित होगी। उसमें एक ऐसी सार्वभौम सभ्यता होगी, जो जीवन के सभी क्षेत्रों में सर्जनात्मक विकास की पूरी संभावनाएँ प्रस्तुत करेगी। उसमें प्रकृति, पृथ्वी के संसाधन तथा कृषि-भूमि विक्रय की वस्तु नहीं होंगे। उसमें कला, साहित्य, संस्कृति, विज्ञान, शिक्षा और स्वास्थ्य भी क्रय-विक्रय की वस्तु नहीं होंगे। उसमें जीवन की समस्त गतिविधियाँ पूरी तरह जनतांत्रिक होंगी और उसकी नीतियाँ सभी समाजों, राष्ट्रों तथा जनगणों की स्वायत्तता की रक्षा करते हुए उनकी प्रगति को सुनिश्चित करेंगी।’’
मैं जानता हूँ कि ऐसी दुनिया साहित्य से और उसकी एक विधा कहानी से नहीं बनेगी। फिर भी मैं यह मानता हूँ कि कहानीकार ऐसा स्वप्न लेकर चलेंगे, तो उनकी कहानी ऐसी दुनिया के निर्माण में अपना यत्किंचित् योगदान अवश्य करेगी। अतः भविष्योन्मुखी कहानी का उद्देश्य आज की दुनिया को बदलकर एक बेहतर दुनिया बनाना होगा। इस बड़े उद्देश्य के लिए उसे अन्य बड़े और व्यापक आंदोलनों से जुड़कर चलना होगा और वे बड़े आंदोलन भी अब तक चले आंदोलनों से भिन्न नये ढंग के आंदोलन होंगे। मसलन, हो सकता है कि हिंदी कहानी के अब तक अलग-अलग चले प्रगतिशील-जनवादी, स्त्रीवादी, दलितवादी इत्यादि विभिन्न आंदोलन सब मिलकर एक साथ, एक ही आंदोलन के रूप में, या किसी एक बड़े और व्यापक आंदोलन के विभिन्न अंगों के रूप में चलें।
जाहिर है कि ये तमाम आंदोलन जिस बेहतर दुनिया को बनाने के लिए चलेंगे, वह पूँजीवादी दुनिया नहीं हो सकती। इसलिए वह पूँजीवादी व्यवस्था को बदलकर ही बनेगी। और पूँजीवादी व्यवस्था पुनः समीर अमीन के ही शब्दों में ‘‘एक विश्व-व्यवस्था है, अतः इसके शिकार लोग इसकी चुनौतियों का सामना भूमंडलीय स्तर पर संगठित होकर ही कर सकते हैं।’’
अतः अब जो आंदोलन चलेंगे, उनकी प्रकृति और संस्कृति अब तक के आंदोलनों से भिन्न होगी। मसलन, भविष्योन्मुखी कहानी यथार्थवादी कहानी की परंपरा से अपना नाता तो जोड़ेगी, उस परंपरा को आगे भी बढ़ायेगी, लेकिन वह यथार्थवाद के अब तक के तमाम रूपों से भिन्न एक नया यथार्थवाद होगा। मैं उसे भूमंडलीय यथार्थवाद कहता हूँ। आज की कहानी जाने-अनजाने इसी यथार्थवाद की दिशा में जा रही है, जिसके कुछ संकेत ‘परिकथा’ के युवा कहानी अंकों में प्रकाशित कहानियों में भी पाये जा सकते हैं।
अंततः मैं ‘परिकथा’ के संपादक शंकर और उनकी पूरी टीम को ‘युवा कहानी’ अंकों की शृंखला के लिए बधाई देते हुए एक दोस्ताना सलाह देना चाहता हूँ कि ‘युवा कहानी’ की जगह आज की कहानी के लिए कोई बेहतर नाम अपनायें और इस नाम को ‘साठोत्तरी’ लोगों के लिए छोड़ दें।
--रमेश उपाध्याय
युवा और चिरयुवा का भेद छोड़ साहित्य सेवानिरत हो जायें, सुन्दर विश्लेषण।
ReplyDeleteअच्छी कही आपने हिन्दी कहानी की रामकथा -मगर हिन्दी कहानीकार और समीक्षक/आलोचक अभी भी इतने पोंगे क्यों बने हुए हैं कि विज्ञान गल्पों /कथाओं (साईंस फिक्शन /फैंटेसी ) की चर्चा तक नहीं करते !
ReplyDeleteआप के इस पूरे आलेख में बस भविष्यमुखी कहानियों का जिक्र तो आया मगर बस पासिंग रिफरेन्स के रूप में ही ..
वैज्ञानिक कहानियां ही दरअसल सही अर्थों में भविष्यमुखी कहानियों का प्रतिनिधित्व करती हैं ....
इनकी ओर भी ज़रा नजरे ईनायत हो जाय गुरु घंटालों के ...
सर जिन नामों की आपने बात की है उसके सन्दर्भ में अपने आलेख का यह हिस्सा पढ़ने की गुजारिश करूँगा
ReplyDelete''मेरे ही नहीं किसी भी रचनाकार के लिये उसकी परंपरा एक ऐसा तत्व है जिसकी आप चाहे जितनी आलोचना कर लें, उससे मुक्त नहीं हो सकते। हिन्दी का साहित्य चूंकि उपनिवेशवाद में देशी साहित्य के तौर पर विकसित हुआ इसलिये प्रतिरोध का एक तत्व हमेशा ही उसमें प्रभावी तौर पर रहा है। लेकिन इसकी अपनी सीमायें रही हैं और अपनी ख़ूबियां। मेरे लिये परंपरा का अर्थ केवल देशज़ भर नहीं है। मेरे लिये जितने प्रेमचंद, यशपाल, दूधनाथ सिंह, अमरकांत, मुक्तिबोध, केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर, नागार्जुन, गोरख, पाश, फैज आदि अपने हैं उतने ही गोर्की, टालस्टाय, चेखव ,मार्खेज, ब्रेख्त, नेरुदा, एंत्सेबर्गर, रिल्के, लोर्का, मार्टिन एस्पादा आदि भी। और इस परंपरा से मैने साहित्य को प्रतिरोध के एक हथियार के रूप में प्रयोग करना सीखा है। इस परंपरा ने मुझे एक बेहतर दुनिया का स्वपन देखना सिखाया है और यह भी कि एक रचनाकार के लिये यह स्वप्न देख भर लेना काफ़ी नहीं होता है बल्कि उसे पूरा करने के लिये हर तरह की लड़ाई के लिये तैयार होना और ज़रूरत पड़ने पर प्रत्यक्ष लड़ाईयों में भागीदार होना भी ज़रूरी होता है। इसी से जोड़कर अगर मैं आपके एक और सवाल का उत्तर दूं तो विचार बोध के बिना कोई साहित्य रचा जा सकता है ऐसा कम से कम मैं नहीं मानता। प्रश्न केवल यह है कि वह विचार बोध किस प्रकार का है? वह किसके पक्ष में है और किसके विरोध में? मेरा मानना है कि जनता के पक्ष में लिखा गया साहित्य ही सच्चा साहित्य होता है। और इस रूप में देशकाल की समझ के लिये, एक बेहतर और शोषणमुक्त समाज के निर्माण के लिये आज भी मुझे वामपंथ या मार्क्सवाद सबसे बेहतर विचार सरणी लगती है। इसीलिये इस विचार के प्रति तार्किक प्रतिबद्धता मुझे लेखन के लिये महत्वपूर्ण लगती है। ''