Monday, February 9, 2009

जनवादी कहानी : एक सवाल का जवाब

प्रगतिशील वसुधा के समकालीन कहानी विशेषांक में

'समकालीन हिन्दी कहानी--कुछ सवाल' शीर्षक परिचर्चा में मुझसे अन्य सवालों के साथ एक सवाल यह पूछा गया कि "क्या सन् २००० के बाद की हिन्दी कहानी को 'उत्तर-जनवादी कहानी' कहा जा सकता है?" इस प्रश्न के उत्तर में मैंने लिखा है :

सन् २००० में ऐसी क्या ख़ास बात है कि आपकी प्रश्नावली के दो प्रश्नों में इसे हिन्दी कहानी के इतिहास की एक महत्वपूर्ण तिथि के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है? मुझे तो इसमें कोई ऐसी बात नज़र नहीं आती कि इसे महत्व दिया जाए।

आपका 'उत्तर-जनवादी कहानी' पद भी बहुत अजीब है। हिन्दी में आजकल 'उत्तर' शब्द अंग्रेज़ी के 'पोस्ट' के अर्थ में प्रयुक्त होता है। इस प्रकार आपके इस पद का अंग्रेज़ी अनुवाद होगा 'पोस्ट-डेमोक्रेटिक शार्ट स्टोरी'। अर्थात जनवाद के बाद की या जनवादी कहानी के बाद की कहानी। क्या आपके विचार से भारत में जनवाद समाप्त हो गया है? या जनवाद और जनवादी कहानी कि ज़रूरत ख़त्म हो गई है? ... यह बात मेरी समझ से परे है कि २००० में ऐसा क्या हुआ कि उसके बाद की कहानी को 'उत्तर-जनवादी कहानी' कहा जाए। कहीं इसका सम्बन्ध २००० में प्रकाशित मेरी पुस्तक 'जनवादी कहानी : पृष्ठभूमि से पुनर्विचार तक' से तो नहीं है, जो मेरे १९७३ से १९९५ तक लिखे गए साहित्यिक रिपोर्ताजों का संकलन थी? कहीं ऐसा तो नहीं कि २००० में प्रकाशित इस पुस्तक के उपशीर्षक में प्रयुक्त 'पुनर्विचार' शब्द से आपने यह अर्थ निकाल लिया हो कि जनवादी कहानी का अंत हो चुका है, अब उस पर पुनर्विचार हो रहा है और इसके बाद कि कहानी को 'उत्तर-जनवादी कहानी' कहा जा सकता है?

यदि ऐसा है, तो मेरा निवेदन है कि 'जनवादी कहानी : पृष्ठभूमि से पुनर्विचार तक' की भूमिका को एक बार फिर से पढ़ने का कष्ट करें। उसमें संकलित 'अब' पत्रिका के 'कहानी अंक' (जनवरी, १९९५) में प्रकाशित अपने साहित्यिक रिपोर्ताज के बारे में मैंने लिखा था--"जनवादी कहानी के सन्दर्भ में यह बातचीत भी मेरे विचार से ऐतिहासिक महत्त्व रखती है, क्योंकि यह एक प्रकार से जनवादी कहानी की दो दशक की यात्रा का पुनरावलोकन तो है ही, भविष्य की दृष्टि से किया गया पुनर्विचार भी है।" क्या जनवादी कहानी के "भविष्य की दृष्टि से किए गए पुनर्विचार" को उसका अंत माना जा सकता है?

एक बात और : पूंजीवाद आज भूमंडलीय स्तर पर जिस आर्थिक संकट से ग्रस्त है, वह १९३० के बाद की आर्थिक मंदी और उससे उत्पन्न फासीवाद की याद ताज़ा कर रहा है। दुनिया में ही नहीं, हमारे देश में भी फासीवाद की आहटें साफ़ सुनाई पड़ रही हैं। अतः जनवाद को बचाना और आगे बढ़ाना आज पहले के किसी भी समय से ज़्यादा ज़रूरी हो गया है। तदनुसार जनवादी कहानी की ज़रूरत आज पहले से भी ज़्यादा है।
--रमेश उपाध्याय

3 comments:

  1. रमेश जी
    यह उत्तर का भूत उतर ही नही रहा है।
    अरे जनवाद कोई बुखार तो था नही कि साहित्यिक परिवेश को उसके चढने और उतरने से जाना जाये। जब तक जन है,जन के ख़िलाफ़ खडी व्यवस्था है जनवादी कहानियों / कविताओं की ज़रूरत बनी रहेगी और उसके रचनाकार भी रहेंगें। हाँ! आलोचक ज़रूर इस समय स्नोवा बार्नो और ज्ञानोदयी पीढी के ज़ादूई कहानीकारो के परे नही देख पा रहे हैं …

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  2. जनवाद को बचाना और आगे बढ़ाना आज पहले के किसी भी समय से ज़्यादा ज़रूरी हो गया है। तदनुसार जनवादी कहानी की ज़रूरत आज पहले से भी ज़्यादा है।
    bilkul sahi likha hai aapne.

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  3. aapka ye sawaal wajib lagta hai ki 2000 men aisa kya ho gaya, lekin ab kathakaron men kisi tarah ki pratibadhhta nahi dikhyi deti, ek ye bara badlav hai.
    ab aapko blog par parhne ka sukh bhi milega,aasha hai aaap isi tarah blog par sarthak sawal uthate rahenge,
    prabhat ranjan

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