Monday, February 23, 2009

नई पीढ़ी के कहानीकारों से

किसी नए साहित्यिक आन्दोलन से अपनी पहचान बनाएं

मैं युवा लेखकों का स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। मैं उन्हें ध्यान से पढ़ता हूँ और उनसे कुछ सीखने की कोशिश भी करता हूँ। लेकिन मैं उनसे कहता हूँ कि आप अपनी पहचान नई अथवा युवा पीढ़ी के रूप में नहीं, बल्कि अपने लेखन की किसी ऐसी विशेषता के आधार पर बनायें, जो आपको अन्य लेखकों से भिन्न और विशिष्ट बनाती हो; जिसे एक नई प्रवृत्ति के रूप में पहचाना जा सके और जिसे कोई सार्थक नाम दिया जा सके।

इसके लिए ज़रूरी है कि आप 'युवा लेखक' के रूप में अपने स्वागत-सत्कार से संतुष्ट हो रहने के बजाय कोई नया साहित्यिक आन्दोलन चलायें और उसके ज़रिये अपनी अलग पहचान बनायें।

और इसके लिए ज़रूरी है कि आप यथार्थ के प्रति अपनाए जाने वाले अपने दृष्टिकोण, अपने वैचारिक परिप्रेक्ष्य तथा अपने कला-सिद्धांत को स्पष्ट करें।

क्या मैं ग़लत कहता हूँ?

--रमेश उपाध्याय

4 comments:

  1. रमेशजी, दरअसल ये बातें पढ़ने-सुनने में तो बहुत अच्छी लगती हैं मगर ढकोसलों को तोड़ने को, न नया न पुराना, कोई तैयार नहीं।
    हमारे बीच से जब तक पुराने नहीं हटेंगे कोई नया साहित्यिक आंदोलन नहीं चल सकता।

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  2. रमेश जी
    यह शार्टकट का ज़माना है। युवा एक ब्राण्ड मन चुका है। विचार और जनपक्षधरता जैसी चीज़ें इस रास्ते की स्वाभाविक बाधक हैं तो उन्हे कूडे पर डाल दिया गया है। पुरानो को हटाने जैसी बाते की जायेगी पर पुरानी जडताओ को तोड कर नये सिरे से पूरी वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ नवसाम्राज्यवाद और इसकी सांस्कृतिक hegemony के ख़िलाफ़ खडे होने की कतई नही। सारा झगडा स्पेस कब्ज़ाने का है। कभी विमर्शों के नाम पर कभी युवा लेखन के नाम पर। अगर मुझे ठीक से याद है तो आपने या सँज्ञा ने सम्पादकीय मे लिखा था कि नये लेखको नही नयी रचनात्मकता होती है।(सही शब्द ये नही पर भाव शायद यही था) पर इस ओर किसी का ध्यान नही गया।

    वैचारिक परिप्रेक्ष्य है ज़ादूई (?)भाषा का,कथ्य की तिलान्जलि का और नये मसीहा गढने का। आप क्या नाम देन्गे इसको - बाज़ार प्रवीण पीढी?

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  3. rameshji,
    aapne achha sawaal uthaya hai. pahchan lekhan se banni chahiye umra se nahin. abhi shor-sharaba zyada lag raha hai, iske thamne ke baad samajh aayega ki is daur ke lekhan ki kya pahchan banegi.
    prabhat ranjan

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  4. आदरणीय,
    यह बात ज़्यादा ठीक लगी...
    "और इसके लिए ज़रूरी है कि आप यथार्थ के प्रति अपनाए जाने वाले अपने दृष्टिकोण, अपने वैचारिक परिप्रेक्ष्य तथा अपने कला-सिद्धांत को स्पष्ट करें।"
    बस यही वह जगह है, जहां से शुरुआत होनी चाहिये....पर यही आज के परिदृश्य से, हमारी युवा चेतना के परिदृश्य से गायब है...मुझे ऐसा लगता है....

    स्पष्ट तभी ना करेंगे जब विकसित करेंगे.....
    यानि यही हमारी प्रमुख प्राथमिकता होनी चाहिये...

    यदि पहचान प्रमुख प्राथमिकता है, तो फिर इसके लिये जैसे रास्ते समय सुझाता जायेगा वैसे वैसे.......
    आपके द्वारा सुझाया रास्ता भी सीढी की ही तरह काम आयेगा.....

    अगर हम अपने चिन्तन, समझ और लेखन से अपने अंदर ही कुछ बदल नहीं पा रहे हैं....तो लगता है हमने अपने लिये कुछ ज्यादा ही बडे़ और अविश्वशनीय लक्ष्य निर्धारित कर लिये हैं....

    बहुत बढिया सीख दी है, आपने....शुक्रिया.....

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