मैं बाज़ार का विरोधी नहीं हूँ। मैं तो दिल से चाहता हूँ कि साहित्य का बाज़ार बढ़े। साहित्य खूब छपे, खूब बिके, ज्यादा से ज्यादा पाठकों तक पहुंचे। प्रकाशक और मीडिया के मालिक शौक से उसे बेच कर मुनाफा कमायें और लेखकों को भी इतना मेहनताना दें कि वे अपने लेखन के दम पर आराम से जी सकें। किसी भी लेखक को, चाहे वह नया हो या पुराना, स्त्री हो या पुरुष, दलित हो या सवर्ण, अल्पसंख्यक हो या बहुसंख्यक, व्यवस्था और शासक वर्ग का समर्थक हो या विरोधी, उसके लेखन की गुणवत्ता के आधार पर प्रकाशित किया जाये। उसे किसी साहित्येतर कारण से भेदभाव या पक्षपात का शिकार न होना पड़े। यदि ऐसा बाज़ार बन जाये, तो लेखकों को यह भरोसा हो सकेगा कि उनके लेखन की परख साहित्यिक गुणवत्ता के अधर पर होगी और बाज़ार में उसका उचित मूल्य उन्हें मिलेगा। तब वे बाज़ार में अपनी जगह बनाने के बजाय साहित्य में अपनी जगह बनाने का प्रयास करेंगे।
साहित्य में अपनी जगह बनाना बाज़ार में अपनी जगह बनाने से नितांत भिन्न प्रक्रिया है। साहित्य में अपनी जगह बनाने के लिए आप अपनी भाषा और साहित्य के इतिहास को जानेंगे, उसकी विभिन्न परम्पराओं को समझेंगे, उनमें से किसी एक परंपरा से जुड़कर उसे आगे बढ़ाएंगे और इसमें जो दिक्कतें आयेंगी, उनका साहस और दृढ़तापूर्वक सामना करेंगे। इसके लिए आप अपने समानधर्माओं से जुड़ेंगे और ज़रुरत पड़ने पर मिल-जुलकर कोई साहित्यिक आन्दोलन चलाएंगे। यदि सत्ता और व्यवस्था की ओर से विरोध या दमन होगा, तो डटकर उसका सामना करेंगे और असफल या शहीद हो जाने की कीमत पर भी साहित्य में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करते रहेंगे।
दूसरी तरफ बाज़ार में अपनी जगह बनाने के लिए आप यह देखेंगे कि साहित्य के नाम पर आजकल बाज़ार में क्या चल रहा है या क्या बिक रहा है। तब, भाषा और साहित्य का इतिहास जाये भाड़ में, उसकी परम्पराएँ जाएँ भट्ठी में, आप वही और वैसा ही लिखेंगे, जो बाज़ार में चल रहा है या बिक रहा है। फिर आप यह भी अवश्य देखेंगे कि बाज़ार के लिए जो 'माल' अपने तैयार किया है, वह कहाँ, कैसे, किन तरकीबों से और किन व्यापारियों, एजेंटों, विज्ञापनकर्ताओं आदि की मदद से ऊंची कीमत पर बिक सकता है। उनसे आप तरह-तरह के समझौते करेंगे और उनके इशारों पर अपने लेखन को ही नहीं, अपने-आप को भी बाज़ार में आसानी से और ऊंची कीमत पर बिक सकने वाला लेखक बनायेंगे।
आज के बाजारवादी समय में कई लेखकों को इसमें कोई बुराई नज़र नहीं आती कि उनका लेखन ही नहीं, वे खुद भी एक बिकाऊ माल बन रहे हैं। मान लीजिये, कोई संपादक या प्रकाशक, जो साहित्य नामक माल को बेचकर मुनाफा कमाना चाहता है, जिसे भाषा और साहित्य के इतिहास और विकास से कोई लेना-देना नहीं है, जो इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहता कि आज की दुनिया में चल रहा स्त्री आन्दोलन क्या है, उसका इतिहास-भूगोल तथा उद्देश्य क्या है, उससे सम्बंधित स्त्री लेखन का मूल्य और महत्त्व क्या है, वह स्त्री लेखन को महज़ एक उत्पाद मानकर बेचना चाहता है, तो उसके प्रति लेखिकाओं का क्या रवैया होना चाहिए?
अपने साहित्य के दम पर साहित्य में अपनी जगह बनाने वाली लेखिका ऐसे संपादक-प्रकाशक से कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहेगी, जबकि बाज़ार में अपनी जगह बनाना चाहने वाली लेखिका उसकी इस बेहूदगी को यह सोचकर बर्दाश्त कर जाएगी कि यह बेहूदा है तो क्या, मुझे लेखिका तो बना रहा है। वह शायद यह भी नहीं समझ पायेगी कि यह मुझे एक बाजारू वस्तु की तरह बेच रहा है।
--रमेश उपाध्याय
यदि अच्छे साहित्य का बाजार से सीधा सम्बन्ध होता तो निराला को सरोज स्मृति में अपनी पीड़ा उकेरने की आवश्यकता न पड़ती। निश्चय कर लें कि अच्छा लिखेंगे, धन स्वयं ही आकर ढूढ़ लेगा, देर सबेर।
ReplyDeleteपति द्वारा क्रूरता की धारा 498A में संशोधन हेतु सुझावअपने अनुभवों से तैयार पति के नातेदारों द्वारा क्रूरता के विषय में दंड संबंधी भा.दं.संहिता की धारा 498A में संशोधन हेतु सुझाव विधि आयोग में भेज रहा हूँ.जिसने भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए के दुरुपयोग और उसे रोके जाने और प्रभावी बनाए जाने के लिए सुझाव आमंत्रित किए गए हैं. अगर आपने भी अपने आस-पास देखा हो या आप या आपने अपने किसी रिश्तेदार को महिलाओं के हितों में बनाये कानूनों के दुरूपयोग पर परेशान देखकर कोई मन में इन कानून लेकर बदलाव हेतु कोई सुझाव आया हो तब आप भी बताये.
ReplyDelete''आज के बाजारवादी समय में कई लेखकों को इसमें कोई बुराई नज़र नहीं आती कि उनका लेखन ही नहीं, वे खुद भी एक बिकाऊ माल बन रहे हैं। मान लीजिये, कोई संपादक या प्रकाशक, जो साहित्य नामक माल को बेचकर मुनाफा कमाना चाहता है, जिसे भाषा और साहित्य के इतिहास और विकास से कोई लेना-देना नहीं है, जो इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहता कि आज की दुनिया में चल रहा स्त्री आन्दोलन क्या है, उसका इतिहास-भूगोल तथा उद्देश्य क्या है, उससे सम्बंधित स्त्री लेखन का मूल्य और महत्त्व क्या है, वह स्त्री लेखन को महज़ एक उत्पाद मानकर बेचना चाहता है, तो उसके प्रति लेखिकाओं का क्या रवैया होना चाहिए?''
ReplyDeleteइसमें असहमति वाली कोई बात है ही नहीं.जब मैंने आपके पहले थ्रेड के पर चली बहस में लिखा था 'बाज़ार में जगह बनाना और बाजारू होना क्या एक ही चीज है? मार्खेज सबसे ज़्यादा बिकने वालों में से हैं क्या आप उन्हें बाजारू कहेंगे?' तो मेरा अभिप्राय यही था. बेहतर होता कि आप वहाँ हस्तक्षेप करते और एक बहस मुकम्मिल हो जाती.
bazar bahut kuchh bech deta hai isleye aadami koi sa bhi ho, lekhak ya sampadak, bikane ko taiyaar hai aur jo nahin bikana chahata vo apane mulyon par ada hai aur zarurat isi bat ki hai bhi ke mulyon ki bat ki jaye
ReplyDeleteआपने एक कड़वी, बहुत कड़वी सच्चाई कह दी रमेश जी, जिसे कह पाना ही नहीं, लोगों के लिए सुन और बर्दाश्त कर पाना भी मुश्किल है। स्त्री-लेखन और दलित लेखन के नाम पर इसीलिए बहुत सी ऐसी चीजें आ रही हैं, जो उन आंदोलनों के प्रभाव को ही उलट रही हैं। लेकिन प्रसिद्धि की सनसनाहट वाली आँधियों में शायद ऐसी बातों पर ध्यान नहीं जाता। हालाँकि कुल मिलाकर नुकसान बहुत हो रहा है। साहित्य या लेखन, लेखक भी कह सकते हैं--की आत्मा मर रही है और समाज पर उसका प्रभाव दिनोंदिन कम होता जा रहा है। इसीलिए बड़े सामाजिक मुद्दों पर हमारा लेखक या लेखन कोई खास हस्तक्षेप नहीं कर पा रहा। और यह दुखद, बहुत दुखद है। अलबत्ता, इस साफगोई के लिए बधाई। प्र.म.
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