Friday, May 27, 2011

कैसे बनेगा साहित्य का बाज़ार?

जो लेखक यह समझते हैं कि हिंदी साहित्य का बाजार है और उसमें उन्हें अपनी जगह बनानी है, उन्हें सबसे पहले यह देखना चाहिए कि क्या सचमुच हिंदी साहित्य का कोई बाजार है। पुस्तकों के प्रकाशक तो बड़े और छोटे असंख्य हैं, लेकिन पुस्तकों का बाजार कहाँ है? क्या आपके शहर में कोई ऐसी दुकान है, जहाँ आपकी मनचाही नयी साहित्यिक पुस्तकें मिल जायें? या कोई ऐसा पुस्तकालय, जो नवीनतम साहित्यिक पुस्तकें साहित्यिक गुणवत्ता के आधार पर और निरंतर खरीदता हो?

हिंदी के अखबारों की संख्या और उनकी प्रसार-संख्या को देखें, तो लगता है कि हिंदी के पाठक बढ़ रहे हैं
और वे करोड़ों की संख्या में हैं, लेकिन सोचें कि हिंदी का बेस्ट सेलर उपन्यास भी कितना छपता है? कितना बिकता है? हो सकता है, खूब बिकता हो, लेकिन क्या उसकी बिक्री के आधार पर मिलने वाले मेहनताने से लेखक अपने परिवार के साथ आराम से जी सकता है? हो सकता है, हों कुछ ऐसे भाग्यशाली, मगर वे कितने होंगे?

उन असंख्य लेखकों की सोचिए, जो साहित्य के इस बाजार में, जिसे बाजार कहना भी बाजार की तौहीन है, अपनी पुस्तक छपवाने के लिए प्रकाशक को मुँहमाँगी रकम देते हैं! प्रकाशक पैसा लेकर तीन सौ प्रतियाँ छापता है और पैसे के बदले सौ या पचास प्रतियाँ लेखक को देकर कहता है कि हिसाब बराबर! अब यह लेखक पर है कि वह उन प्रतियों को बेचे या बाँटे। लेखक उन प्रतियों को कहाँ और कैसे बेचे? किसी तरह बेच भी ले, तो उसे क्या मिलेगा? उसकी लागत भी नहीं निकलेगी। मगर वह जानता है कि हिंदी लेखकों को दिये जाने वाले असंख्य सरकारी और गैर-सरकारी पुरस्कार मौजूद हैं और उनमें से कोई ऐसा पुरस्कार भी मिल जाये तो गनीमत, जिससे प्रकाशक को दी हुई रकम वापस मिल जाये। रकम न मिले, गम नहीं; ऐसी साहित्यिक प्रतिष्ठा तो मिल ही जाये, जो भविष्य में उसे साहित्य के राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों के योग्य बना सके! तब हो सकता है कि वह हिंदी साहित्य के बाजार में न सही, अनुवाद के जरिये अखिल भारतीय और फिर अखिल भूमंडलीय बाजार में बिकने लायक बन जाये!

इस प्रकार हिंदी का वह लेखक, जो आज बड़े ठसके से कहता है कि वह बाजार में बिकने और अपने लेखन की ऊँची कीमत पाने में कोई बुराई नहीं समझता (‘‘जब चित्रकार हुसैन बाजार में बिक सकते हैं, तो हम क्यों नहीं?), दरअसल उस बाजार में बिकने की बात कर रहा होता है, जो वास्तव में कोई बाजार है ही नहीं! अगर उसे बाजार कहा ही जाना हो, तो वह ऐसा बाजार है, जिसमें लेखक पाठक या ग्राहक के लिए नहीं, पुरस्कारदाताओं के लिए लिखता है; प्रकाशक पाठक या ग्राहक के लिए नहीं, थोक सरकारी खरीद के लिए किताब छापता है; सरकारी खरीद करने वाला अफसर किताब की क्वालिटी और कीमत नहीं, अपना कमीशन देखता है और उसे इससे कोई मतलब नहीं होता कि किताब पाठकों तक पहुँचे। यही वजह है कि हिंदी में क्या छपता है, कहाँ बिकता है और पाठक तक न पहुँचकर कहाँ ‘डंप’ हो जाता है, कोई नहीं जानता!

क्या इसे साहित्य का बाजार कहा जा सकता है? यदि नहीं, तो हम हिंदी लेखकों को गंभीरतापूर्वक सोचना चाहिए कि बाजार के समर्थक के रूप में ही नहीं, बाजार के विरोधी के रूप में भी हम क्या कर रहे हैं!

मुझे बाजार-विरोधी समझा जाता है, लेकिन मैं बाजार का नहीं, बाजारवाद का विरोधी हूँ। इसीलिए मैंने 17 मई, 2011 को यहीं पर ‘साहित्य में जगह बनानी है या बाजार में?’ शीर्षक टिप्पणी में कहा था कि ‘‘मैं बाज़ार का विरोधी नहीं हूँ। मैं तो दिल से चाहता हूँ कि साहित्य का बाज़ार बढ़े। साहित्य खूब छपे, खूब बिके, ज्यादा से ज्यादा पाठकों तक पहुंचे। प्रकाशक और मीडिया के मालिक शौक से उसे बेच कर मुनाफा कमायें और लेखकों को भी इतना मेहनताना दें कि वे अपने लेखन के दम पर आराम से जी सकें। किसी भी लेखक को, चाहे वह नया हो या पुराना, स्त्री हो या पुरुष, दलित हो या सवर्ण, अल्पसंख्यक हो या बहुसंख्यक, व्यवस्था और शासक वर्ग का समर्थक हो या विरोधी, उसके लेखन की गुणवत्ता के आधार पर प्रकाशित किया जाये। उसे किसी साहित्येतर कारण से भेदभाव या पक्षपात का शिकार न होना पड़े। यदि ऐसा बाज़ार बन जाये, तो लेखकों को यह भरोसा हो सकेगा कि उनके लेखन की परख साहित्यिक गुणवत्ता के आधार पर होगी और बाज़ार में उसका उचित मूल्य उन्हें मिलेगा।’’

जाहिर है कि साहित्य के लिए ऐसा बाजार हमारे देश में तो क्या, दुनिया भर में कहीं भी उपलब्ध नहीं है। साहित्य के प्रकाशन, विपणन, विज्ञापन, मूल्यांकन, पुरस्करण, प्रतिष्ठापन (कैननाइजेशन) आदि की समस्त प्रक्रियाएँ उस बाजार में चलती हैं, जो बुनियादी तौर पर साहित्येतर कारणों से नियंत्रित-निर्देशित बाजार है। ऐसे बाजार में लेखक स्वेच्छा से बिके या मजबूरी में, तमीज से बिके या फूहड़पन के साथ, उसकी सफलता-असफलता का निर्णय उसके साहित्य की गुणवत्ता के आधार पर नहीं, बल्कि साहित्येतर कारणों के आधार पर ही होगा।

अतः प्रश्न उठता है : ऐसा बाजार कैसे बन सकता है, जो वास्तव में साहित्य का बाजार हो? इस प्रश्न का कोई बना-बनाया उत्तर मेरे पास नहीं है। अतः मैं चाहता हूँ कि मेरे लेखक और पाठक मित्र इस प्रश्न पर विचार करें और इसका उत्तर खोजें।

--रमेश उपाध्याय

2 comments:

  1. साहित्य का बाजार बनने के पहले उसे आर्थिक रूप में स्थापित होना होगा।

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  2. बाज़ार कैसे बने/बढ़े जब यहाँ खरीद कर पढने वालों का अकाल है!

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