Sunday, March 15, 2015

'परिकथा' के नवलेखन अंक (जनवरी-फरवरी, 2015) में प्रकाशित कुछ कहानियों के संदर्भ में आज की हिंदी कहानी पर कुछ विचार


हिंदी कहानी में फिर एक नया बदलाव

रमेश उपाध्याय


दस साल पहले, 2005 में, मैंने एक लेख लिखा था ‘आगे की कहानी’, जो मेरी पुस्तक ‘साहित्य और भूमंडलीय यथार्थ’ (2008) में संकलित है। उसमें मैंने लिखा था :

देखते-देखते कहानी क्या, दुनिया ही बदल गयी। पूँजीवादी भूमंडलीकरण की प्रचंड आँधी पहले का बहुत कुछ उड़ा ले गयी। यहाँ तक कि सोवियत संघ जैसी ‘महाशक्ति’ भी उसमें ध्वस्त हो गयी और आत्मनिर्भरता की बात करने वाले हमारे देश में निजीकरण तथा उदारीकरण की तेज धूल भरी हवाएँ चलने लगीं, जिनके कारण समाजवाद का सपना तो धूमिल हुआ ही, जनवाद को भी बेकार बताने और बनाने के सिलसिले शुरू हो गये। ‘जनवादी कहानी’ साहित्य में ‘आउट ऑफ फैशन’ हो गयी और ‘जादुई यथार्थवाद’ का नया फैशन चल पड़ा।

ऐसा लगने लगा, जैसे कल तक जो सामाजिक यथार्थ कहानी में आ रहा था, वह किसी जादू के जोर से अचानक गायब हो गया हो! जैसे भूख, गरीबी, बीमारी, बेरोजगारी, शोषण, दमन, उत्पीड़न आदि की समस्याएँ छूमंतर हो गयी हों! शोषक-उत्पीड़क पूँजीपतियों और भूस्वामियों को मानो आम माफी मिल गयी हो और वामपंथी-जनवादी लोग ही कटघरे में खड़े किये जाने लायक रह गये हों! कल तक हिंदी का जो कहानीकार प्रेमचंद, निराला और मुक्तिबोध के नाम जपता हुआ दबे-कुचले, सताये हुए मजदूरों, किसानों और मध्यवर्गीय मेहनतकश स्त्री-पुरुषों को क्रांति का हिरावल दस्ता समझता था, वह मानो गरीब ‘हिंदीवाला’ से अचानक अमीर अंग्रेजी वाला हो गया और किसी ऊँचे आसन पर बैठकर हिंदी के लेखकों पर हिकारत के साथ हँसने लगा। यथार्थ को समझने और बदलने से संबंधित गंभीर चिंताएँ मानो एकाएक ही बेमानी हो गयीं और खिलंदड़ापन ही सबसे बड़ा साहित्यिक मूल्य बन गया। हिंदी के बहुत-से कहानीकार एकदम पलटकर जनोन्मुख से अभिजनोन्मुख हो गये। वे अपनी कहानियों में अभिजनों की-सी भाषा बोलने लगे तथा अभिजनों के प्रिय विषयों पर चटपटी कहानियाँ लिखने लगे।

लेकिन अब लगता है कि हिंदी कहानी में फिर एक नया बदलाव आ रहा है, फिर से एक नयापन दिखायी दे रहा है। अनुभववादी और कलावादी फैशनों से हटकर यथार्थवादी कहानियाँ लिखी जा रही हैं। उनके पात्र स्त्री, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक आदि सभी तरह के हैं, लेकिन वे विमर्शवादी कहानियाँ नहीं हैं। उनमें से ज्यादातर कहानियाँ किसी न किसी बड़ी सामाजिक समस्या को उठाती हैं और उसके कारणों को इस प्रकार सामने लाती हैं कि पाठक उसके समाधान के बारे में सोचने को प्रेरित हों। ऐसी कहानियाँ अवसरवादी किस्म के तटस्थतावाद के विरुद्ध लेखकीय पक्षधरता के साथ सामाजिक अंतर्विरोधों को सामने लाती हैं। आज के नये कहानीकार अपनी कहानियों में प्रायः जाने-पहचाने विषयों और प्रश्नों को उठाते हैं, लेकिन नये संदर्भों में उन्हें नये-नये रूपों में सामने लाते हैं।

उदाहरण के लिए, ‘परिकथा’ के नवलेखन अंक (जनवरी-फरवरी, 2015) की कुछ कहानियों को देखा जा सकता है। ‘परिकथा’ कई वर्षों से नवलेखन अंक निकालती आ रही है और प्रस्तुत अंक के संपादकीय में लिखी गयी संपादक शंकर की इन बातों से शायद ही कोई असहमत होगा कि नये लेखकों को एक साथ मंच पर लाने का यह उपक्रम ‘‘एक दौर की रचनाशीलता को समझने-पहचानने’’ का, ‘‘अपने समय की सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों और उनके समानांतर लेखन-सृजन में उभर रही प्रवृत्तियों को साथ-साथ देखने-परखने’’ का, ‘‘मौजूदा परिस्थितियों में लेखन की सामाजिक भूमिका को समझने’’ का और नये लेखकों के लिए ‘‘आत्म-मंथन तथा आत्म-विश्लेषण’’ का भी उपयुक्त अवसर होता है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए इस अंक की कहानियों को देखा जाये, तो कहानी की रचना और आलोचना में शायद कुछ कदम आगे बढ़ा जा सकता है।

इस अंक में नये लेखकों की बीस कहानियाँ हैं। सभी पर एक लेख में विचार करना संभव नहीं, इसलिए मैं केवल पाँच कहानियों की चर्चा करूँगा और इधर हिंदी कहानी में फिर से जो एक नया बदलाव आता दिख रहा है, उसे सामने लाने का प्रयत्न करूँगा।

पूस की एक और रात : गंगा सहाय मीणा
प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाने वाली कहानी

अद्भुत संयोग है कि हाल ही में ‘पूस की एक और रात’ शीर्षक से हिंदी में दो कहानियाँ लिखी गयी हैं। एक लक्ष्मी शर्मा की, जो पिछले दिनों ‘कथादेश’ में आयी थी और दूसरी गंगा सहाय मीणा की, जो ‘परिकथा’ के प्रस्तुत नवलेखन अंक में प्रकाशित हुई है। यद्यपि दोनों कहानियों के विषय भिन्न हैं और शीर्षक के सिवा कोई और समानता उनमें नहीं है, तथापि एक ही समय में एक ही शीर्षक से दो कहानियों का लिखा जाना सिर्फ संयोग नहीं, बल्कि हिंदी कहानी में एक नये विकास तथा प्रेमचंद की यथार्थवादी कथा-परंपरा को एक बार फिर दृढ़तापूर्वक अपनाकर आगे बढ़ाने के नये संकल्प की सूचना है। यहाँ दोनों कहानियों को साथ रखकर उन पर विचार करने का अवकाश नहीं है, इसलिए मैं गंगा सहाय मीणा की कहानी पर ही बात करूँगा।

यह कहानी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी ‘पूस की रात’ की याद दिलाती है, लेकिन यह उससे भिन्न बिलकुल आज के (इक्कीसवीं सदी के) भारत के ग्रामीण यथार्थ और किसान जीवन की और विशेष रूप से खेती-किसानी करने वाली स्त्रियों के कठिन जीवन की कहानी है। यह राजस्थान के एक जनजाति बहुल गाँव के जनजातीय किसान परिवार की कहानी है, जिसमें पिता की मृत्यु हो चुकी है, विधवा माँ बूढ़ी है, जिसके दो बेटों में से बड़ा हरकेश गाँव से दो सौ किलोमीटर दूर एक स्कूल में ‘शिक्षामित्र’ के रूप में काम करता है और उसका छोटा भाई बी.ए. करने के बाद जयपुर में प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहा है। हरकेश की युवा पत्नी भूरी तथा बूढ़ी माँ गाँव में खेती-बाड़ी सँभालती हैं। पहले खेतों की सिंचाई गाँव के तालाब और कुओं से होती थी और किसी किसान को पानी की किल्लत नहीं होती थी। लेकिन वर्तमान पूँजीवादी प्रपंच के चलते गाँव की परस्पर सहयोग वाली सामाजिक संरचना ध्वस्त हो गयी है, स्वार्थपरता पनप गयी है, जिसके कारण प्रकृति और पर्यावरण की भारी क्षति हुई है। तालाब का भरना बंद हो गया है, कुएँ सूख गये हैं और जमीन के अंदर गहराई तक बोरिंग करके निकाले गये पानी से खेतों को सींचने का नया चलन चल निकला है।

भारतीय कृषि व्यवस्था में पूँजीवाद के प्रसार ने प्रेमचंद के समय के भारतीय गाँवों को बिलकुल बदल दिया है। जब गाँवों में हमेशा भरे रहने वाले कुएँ हमेशा के लिए सूख गये, तो ‘‘बड़े किसानों ने बोरिंग करना शुरू किया। बोरिंग से सिंचाई महँगी हुई और मुश्किल भी। एक बोर करने में तीन-चार लाख तक का खर्च सामान्य था। उस पर बोर फेल होने का खतरा अलग। परिणाम यह हुआ कि बोर मालिकों ने दूसरे किसानों के खेतों में सिंचाई कर इस खर्च को निकालना शुरू कर दिया। गाँव में कुल मिलाकर आधा दर्जन ही बोर थे, इसलिए किसानों की भी मजबूरी थी उनसे महँगी रेट पर पानी लेने की। बोर मालिक दिन में अपने खेतों को भराते थे और रात में दूसरे किसानों को पानी देते।’’

कहानी यों है कि पूस का महीना है, जब हड्डियों तक को कँपा देने वाला जाड़ा पड़ता है। हरकेश गाँव से दो सौ किलोमीटर दूर अपनी नौकरी पर है और गाँव में उसके सरसों के खेत की भराई (सिंचाई) होनी है। उसकी पत्नी भूरी हफ्ते भर से कोशिश कर रही है कि बोर का मालिक रामजीलाल पटेल, जिसके साथ चार सौ रुपये प्रति घंटे की दर से पानी लेने का सौदा तय हो चुका है, उसके खेत के लिए पानी दे दे। आखिरकार भूरी की सरसों भराने की बारी आ जाती है और रामजीलाल मोबाइल पर ‘‘मिस कॉल करके’’ हरकेश मास्टर को बताता है कि आज रात आठ बजे उसका नंबर है। हरकेश मोबाइल पर गाँव में अपनी पत्नी और माँ से बात करता है कि सरसों आज ही भरा ली जाये। सास बूढ़ी है और भूरी अकेली यह काम कर नहीं सकती, इसलिए तीन सौ रुपये में आधी रात के लिए एक मजूर तय कर लेती है। आठ बजे से पहले वह अपने दोनों बच्चों को खाना खिलाकर सुला देती है और सास तथा मजूर के साथ एक टॉर्च और गैस लेकर खेत पर चली जाती है। भयंकर शीत की रात में वह अपने खेत की सिंचाई करती है। बोर से खेत तक आने वाले पानी के पाइप के टूट जाने पर वह अपने ओढ़े हुए शॉल को ही टूटे हुए पाइप में बाँधकर उसकी मरम्मत करती है। इस प्रक्रिया में वह शीत की रात में पानी की बौछारों में भीग भी जाती है। फिर भी वह पूरे धीरज और परिश्रम के साथ अपना काम पूरा करती है।

गंगा सहाय मीणा अगर चाहते, तो विगत बीसेक वर्षों से हिंदी कहानी में चल रही चीजों की तर्ज पर इस कहानी को एक जनजाति से संबंधित और पति से दूर गाँव में अकेली रहने वाली स्त्री की कहानी के रूप में लिखकर मजे में जातिवादी या देहवादी किस्म की कहानी बना सकते थे, लेकिन उन्होंने इसे परिवार और खेती को अकेले अपने दम पर सँभालने वाली एक किसान स्त्री की कहानी के रूप में लिखकर सचेत रूप से प्रेमचंद की यथार्थवादी कथा-परंपरा को आगे बढ़ाने का नया प्रयास किया है। कहानी का शीर्षक प्रेमचंद के समय के किसान जीवन के यथार्थ की याद दिलाता है, लेकिन वे कहानी के पहले ही वाक्य में कहानी का ‘काल’ स्पष्ट रूप से बताकर (कि यह ‘‘इक्कीसवीं सदी का पहला दशक बीत जाने के बाद के एक बरस के पूस के महीने’’ की कहानी है) पाठक को सचेत कर देते हैं कि यह हमारे बिलकुल आज के समय के यथार्थ की कहानी है। यह समय निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण का समय है, जिसमें गाँव का और किसान जीवन का यथार्थ बिलकुल बदल गया है।

यह एक नया यथार्थ है। ग्रामीण जीवन और कृषि कर्म में कई नयी चीजें आ गयी हैं। जनजाति बहुल गाँव के लड़के खेती-किसानी पर निर्भर न रहकर पढ़-लिख रहे हैं और पढ़ा भी रहे हैं। वे गाँव से दूर जाकर नौकरियाँ कर रहे हैं, उच्च शिक्षा पाकर परीक्षाएँ दे रहे हैं और ऊँचे-ऊँचे पदों पर पहुँच रहे हैं। गाँव में पीछे छूटा उनका परिवार भी अब ज्यादा दिन वहाँ नहीं रहने वाला है, क्योंकि देहाती जीवन और कृषि कर्म में उच्च तकनीक वाली बड़ी पूँजी के प्रवेश ने छोटे किसानों का खेती पर निर्भर रहना मुश्किल कर दिया है। पूँजी ने देहाती लोगों को स्वार्थी बना दिया है, जिससे प्रकृति और पर्यावरण का नाश हो गया है। प्राकृतिक संसाधनों के नष्ट हो जाने से किसान नयी तकनीक से खेती करने को विवश है और नयी तकनीक के तार बड़ी भूमंडलीय पूँजी से जुड़े हैं। एक छोटे-से खेत को सींचने के लिए चार सौ रुपये प्रति घंटे की दर से पानी लेना पड़ता है और तीन सौ रुपये में आधी रात के लिए मजदूर करना पड़ता है। कहानी में मोबाइल फोन की भूमिका और ‘‘मिस कॉल’’ वाला व्यंग्य भी गौर करने लायक है। इतनी महँगी खेती के लिए जरूरी है कि किसान अपने लिए अन्न पैदा करने के बजाय बाजार के लिए नकदी फसलें उगाये। (कहानी में भूरी का खेत भी नकदी फसल सरसों का खेत है।) लेकिन जाहिर है कि यह पूँजीवादी विकास ‘सस्टेनेबल’ (टिकाऊ) नहीं है और इसमें छोटे किसान को बर्बाद होना ही है, चाहे वह कर्जदार होकर आत्महत्या करे या खेती और गाँव छोड़कर कहीं और चला जाये, कोई और पेशा अपनाये।

यह कहानी आज के इसी बदले हुए यथार्थ को सामने लाती है। लेकिन इस बदले हुए यथार्थ के दो पहलू हैं--किसानों के कष्टों और आत्महत्या के प्रयासों वाला निराशाजनक पहलू और गैर-टिकाऊ खेती से जुड़ा ग्रामीण जीवन जीते रहने के बजाय शिक्षित होकर कोई वैकल्पिक और बेहतर जीवन जीने के प्रयासों वाला आशाजनक पहलू। इस कहानी में बदलते हुए यथार्थ के आशाजनक पहलू को सामने लाया गया है। भूरी का जीवन हमेशा ऐसा ही रहने वाला नहीं है। उसका पति पढ़-लिखकर पढ़ाने लगा है, उसका देवर ऊँचे पद पर पहुँचने के लिए तैयारी कर रहा है, उसके बच्चे भी पढ़-लिख जायेंगे, तो गाँव में न रहकर बाहर चले जायेंगे। यह भी हो सकता है कि वे ‘लोकल’ न रहकर ‘ग्लोबल’ हो जायें।

इस प्रकार यह कहानी ठेठ भारतीय यथार्थ की कहानी होते हुए भी आज के भूमंडलीय यथार्थ की कहानी है और इसका यथार्थवाद प्रेमचंद की यथार्थवादी परंपरा को आगे बढ़ाने वाला भूमंडलीय यथार्थवाद है।

तस्वीर के पीछे : प्रज्ञा
पितृसत्ता के पीछे छिपी अर्थव्यवस्था की कहानी

विगत बीसेक वर्षों में दलित विमर्श की भाँति स्त्री विमर्श की कहानियाँ भी हिंदी में खूब लिखी गयीं। दलित लेखन की तर्ज पर स्त्री लेखन की भी एक अलग कोटि बना ली गयी और शेष साहित्य से उसे अलगाकर देखा गया। जिस प्रकार दलित लेखन ब्राह्मणवाद के बजाय सवर्णों के विरुद्ध विद्रोह का लेखन था, उसी प्रकार स्त्री लेखन पितृसत्तावाद के बजाय पुरुषों के विरुद्ध विद्रोह का लेखन बन गया। जिस प्रकार दलित लेखन में जाति सर्वप्रमुख रही, उसी प्रकार स्त्री लेखन में देह सर्वप्रमुख रही। लेकिन दोनों प्रकार के लेखन की सबसे बड़ी सीमा यह थी कि ब्राह्मणवाद और पितृसत्तावाद को सामाजिक समस्याओं के रूप में न देखकर मनोवैज्ञानिक समस्याओं के रूप में देखा गया। दलित लेखन में यह मान्यता प्रचलित रही कि जब तक सवर्णों की मानसिकता नहीं बदलती, तब तक दलितों के प्रति अन्याय होता रहेगा। स्त्री लेखन में यह माना जाता रहा कि जब तक पुरुषों की मानसिकता नहीं बदलती, तब तक स्त्रियों पर अत्याचार होता रहेगा।

इस मान्यता के मुताबिक मानसिकता को बदलने का उपाय यह माना गया कि दलितों के द्वारा सवर्णों के प्रति और स्त्रियों के द्वारा पुरुषों के प्रति घृणा का प्रचार किया जाये। यह नहीं देखा गया कि समाज की व्यवस्था को बदले बिना लोगों की मानसिकता को नहीं बदला जा सकता। समाज की व्यवस्था को बदलने के लिए जाति और लिंग के आधार पर किये जाने वाले शोषण को समाप्त करना, शोषण को समाप्त करने के लिए वर्गों में बँटी समाज व्यवस्था को बदलना और उसे बदलने के लिए जाति, धर्म, लिंग आदि के भेद भुलाकर वर्गीय शोषण के खिलाफ लड़ना जरूरी है। यह बात प्रगतिशील-जनवादी साहित्यकार शुरू से कहते आ रहे थे, लेकिन दलित और स्त्री लेखकों ने इसे अनसुना तो किया ही, इसका विरोध भी यह कहते हुए किया कि वर्गभेद को समाप्त करने से पहले जातिभेद और लिंगभेद को समाप्त करना जरूरी है और इसके लिए समाज की व्यवस्था से पहले सवर्णों तथा पुरुषों की मानसिकता को बदलना जरूरी है। इस प्रकार उनका लेखन यथार्थ को बदलने के बजाय यथास्थिति को बनाये रखने वाला लेखन बन गया।

लेकिन इधर की कहानियों में दलितों और स्त्रियों के लेखन में एक बदलाव दिखायी दे रहा है। उदाहरण के लिए, ‘परिकथा’ के प्रस्तुत अंक में प्रज्ञा की कहानी ‘तस्वीर के पीछे’ में स्त्री के प्रति होने वाले अन्याय और अत्याचार को पुरुष मानसिकता से जोड़कर नहीं, बल्कि स्त्री की कमजोर आर्थिक स्थिति से जोड़कर देखा गया है। जैसा कि शीर्षक से ही जाहिर है, यह प्रत्यक्ष दिखायी देते यथार्थ के पीछे छिपे यथार्थ को सामने लाने वाली कहानी है।

प्रत्यक्ष दिखायी देता यथार्थ यह है कि कहानी की प्रमुख पात्र रानी रूप और गुणों की खान है। वह स्वयं को प्यार करने वाली चाची के परिवार और नाते-रिश्ते के लोगों के बीच सदा हँसती-खिलखिलाती और पूरी मुस्तैदी से, कुशलतापूर्वक तथा हँसते-हँसते काम में जुटी रहती है, जिससे लगता है कि वह एक सुखी और संतुष्ट स्त्री है। लेकिन उसका जीवन दुख भरी कथा है। छोटी उम्र में ही माँ का साया सिर से उठ गया था। पिता और दो अविवाहित भाइयों के खाने-पीने और घर की व्यवस्था का दायित्व उसके जिम्मे आ गया था। पिता ने उसकी पढ़ाई को व्यर्थ समझकर दसवीं के बाद ही स्कूल छुड़ा दिया, कई वर्षों तक विवाह के बाद की जिम्मेदारियों को सँभालने लायक और सिलाई-बुनाई जैसे कामों में पारंगत बनाने के नाम पर उसे घरेलू नौकरानी बनाये रखा और उसके बाद कम खर्च में उसके विवाह की जिम्मेदारी का बोझ सिर से उतारने के लिए उसका विवाह एक कम पढ़े-लिखे, काफी बड़ी उम्र के, कुरूप और क्रूर व्यक्ति से कर दिया।

शादी से पहले पिता शक करते थे कि रानी किसी के संग भाग न जाये, शादी के बाद रूप-गुण में रानी से हीन पति उस पर शक करने लगा। वह उस पर पहरा बिठाने लगा, बात-बात पर उसे नीचा दिखाने लगा, उसे मारने-पीटने लगा। एक बार मार-पीट के बाद रानी को प्यार करने वाली चाची उसके फोन करने पर उसे अपने साथ ले आयी, तो रानी के सगे भाई अपनी बहन को बहनोई के अत्याचार से बचाने के लिए स्वयं कुछ करने के बजाय चाची से ही लड़ने आ गये कि ‘‘आप क्यों हमारी बहन का घर तुड़वाने पर तुली हैं?’’ रानी कोई चारा न देख पति के पास लौट गयी और उसके सारे अत्याचार सहते हुए अपने बच्चों (एक बेटा, एक बेटी) को प्यार से पालने लगी। उसने तमाम दुखों और कष्टों में भी हँसते-हँसते जीने का पाठ पढ़ लिया कि ‘‘जब कोई रास्ता नहीं है और सब सहना ही है, तो खुश दिखकर ही सह लो सब।’’

लेकिन जब उसने देखा कि उसका पति बेटे को तो प्यार करता है, बेटी को प्यार नहीं करता, बल्कि बेटी को खिलाने-पिलाने और पढ़ाने-लिखाने पर होने वाले खर्च पर कुढ़ा करता है, तो उसने ठान लिया कि वह स्वयं अपने सपनों का जो जीवन नहीं जी पायी, वह जीवन उसकी बच्ची जिये। इसके लिए वह पति से छिपाकर भी अपनी बेटी की सारी इच्छाएँ पूरी करती है। उसका पति चाहता है कि बेटी को पढ़ाने-लिखाने के बजाय वह ‘‘उसे अपनी तरह सीना-पिरोना ही सिखा दे।’’ लेकिन रानी अपनी बच्ची को स्कूल भेजने के साथ-साथ कंप्यूटर, डांस और टाइक्वांडो भी सीखने के लिए भेजती है। बेटी रुचिका जब स्कूल में फुटबॉल टीम की कप्तान चुनी जाती है, तो रानी के पति को यह बात इतनी अखर जाती है कि वह खराब खाना बनाने का दोष मढ़कर गुस्से में थाली रानी पर दे मारता है।

ऐसे अत्याचारों को सहते-सहते रानी जब बीमार हो जाती है, तो उसका पति अपना खर्च बचाने के लिए उचित ढंग से उसका इलाज नहीं कराता। वह रानी को अस्पताल ले जाने के बजाय झाड़-फूँक करने वाले ओझा को घर बुलाकर अपना खर्च बचाने का जतन करता है। रानी की हालत बिगड़ती जाती है और एक दिन रुचिका रानी की स्नेहमयी चाची को फोन करती है, ‘‘नानी, तुरंत आ जाओ, मम्मी आपको बुला रही हैं।’’ चाची आती हैं, तो रानी अपनी बेटी रुचिका को उन्हें सौंप देती है। चाची को आश्चर्य होता है कि रानी का पति ऐसा कैसे होने देगा। लेकिन रानी बताती है कि उसके पति को बेटी की कोई परवाह नहीं है। वह तो बेटी के बारे में कहता है, ‘‘नौकरी करूँगा या लड़की जात को सँभालूँगा? और कुछ जिम्मेदारी तो तेरे घर की भी बनती है आखिर?’’ लेकिन अपने बेटे को अपने पास रखने में उसे कोई ऐतराज नहीं है, क्योंकि बेटा उसके लिए लाभदायक है।

रानी शुरू से जानती है कि पुरुषों की मानसिकता को नहीं बदला जा सकता, क्योंकि वह मानसिकता आर्थिक हानि-लाभ से जुड़ी है। बेटी को पढ़ाना-लिखाना हानिकर है, उसे मुफ्त की घरेलू नौकरानी बनाकर उससे काम लेना लाभकर। इसी तरह बेटे को अपने पास रखने में फायदा है, जबकि बेटी की जिम्मेदारी दूसरों पर डाल देने में फायदा है। रानी पहले अपने पिता और भाइयों की और बाद में अपने पति की इस अपरिवर्तनीय मानसिकता को जानने के कारण उसे बदलने का प्रयास नहीं करती, लेकिन अपनी बेटी को आत्मनिर्भर बनाकर पति के परिवार की व्यवस्था को ही बदल देती है।

कहने की जरूरत नहीं कि प्रज्ञा की यह कहानी एक स्त्री के द्वारा स्त्री के बारे में लिखी हुई होने पर भी चालू स्त्री विमर्श से बिलकुल हटकर लिखी गयी कहानी है। इस कहानी की नवीनता और खूबसूरती इसका यथार्थवाद है। प्रगतिशील-जनवादी कहानी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाला यथार्थवाद। इसी यथार्थवाद के जरिये प्रज्ञा नितांत प्रतिकूल परिस्थितियों में भी शोषित-उत्पीड़ित व्यक्ति को साहसपूर्वक जीते और समझौते के बजाय संघर्ष करते हुए दिखाती हैं। कहानी की खूबी यह है कि रानी बाहर से समझौते कर चुकी स्त्री दिखती है, लेकिन भीतर से वह एक मजबूत संघर्षशील स्त्री है।

जहाँ कर्फ्यू नहीं लगा है : सत्यम सत्येंद्र पांडेय
दलित प्रश्न को सांप्रदायिकता से जोड़कर दिखाने वाली कहानी

सत्यम सत्येंद्र पांडेय की कहानी ‘जहाँ कर्फ्यू नहीं लगा है’ दलितों के अपमान की तथा उनके साथ होने वाले सामाजिक अन्याय और उनके जनतांत्रिक अधिकारों के सार्वजनिक रूप से किये जाने वाले हनन की समस्या को एक नये रूप में सामने लाती है।

कहानी हिंदुओं और मुसलमानों के बीच के सांप्रदायिक तनाव, दंगे और शहर में कर्फ्यू लग जाने की खबर से शुरू होती है। कॉलेज में पढ़ने वाला एक दलित युवक राजकुमार अपनी मोटरसाइकिल पर कॉलेज जाने के लिए निकलता है कि शहर की तरफ से बदहवास लौटते उसके एक पड़ोसी उसे शहर में कर्फ्यू लग जाने की खबर देते हैं। मिडिल स्कूल में उसके सहपाठी रहे उसके ये पड़ोसी, जो आठवीं में दूसरी बार फेल होने पर पढ़ाई से तौबा कर चुके थे, कई धंधे चलाकर उनमें असफल हो चुके हैं और अब धर्म रक्षा मिशन के फुलटाइम कार्यकर्ता हैं। राजकुमार उनसे दंगे का कारण पूछता है, तो पाता है कि दंगा हिंदू हुड़दंगियों की वजह से हुआ। वह हुड़दंगियों को गलत बताता है, तो धर्मरक्षक कहते हैं, ‘‘अबे, तुम जैसों के कारण ही तो इन मुसल्लों के हौसले बढ़ते जा रहे हैं। साले तुम हिंदू होकर भी ऐसी बात करते हो, शर्म नहीं आती तुम्हें?’’

जवाब में दलित युवक राजकुमार कहता है, ‘‘अरे काहे का हिंदू, कैसी शर्म? अपने घर में तो पानी नहीं दे सकते, मंदिर में घुसने नहीं देते। उस समय क्यों नहीं हिंदू मानते हमको?’’

धर्मरक्षक राजकुमार को उसके जाति के नाम से गाली देते-देते रुक जाते हैं, क्योंकि ‘‘जब से हरिजन एक्ट और हरिजन थाने प्रकट हुए हैं, ये पसंदीदा शब्द मुँह से निकालने में डर लगता है।’’ तभी राजकुमार देखता है कि कॉलेज में उसकी सहपाठी दीपाली, जो उसके पड़ोसी पंडित रामधन की पाँच संतानों में सबसे छोटी है, कॉलेज जाने के लिए ऑटोरिक्शा में सवार हो रही है। राजकुमार उसे रोकता है और उससे दो मिनट बात करके उसे अपनी मोटरसाइकिल पर बिठाकर नर्मदा नदी के भेड़ाघाट की ओर चल देता है। धर्मरक्षक धर्म की रक्षा के लिए मोबाइल पर दीपाली के भाइयों को इसकी सूचना दे देते हैं। 

ट्रैक्टर से खेतों की जुताई करके लौटते दीपाली के तीन भाइयों को यह सूचना मिलती है, तो वे ‘‘प्रेम से परिपूर्ण सुखद भविष्य की योजनाएँ बनाते हुए’’ चले जा रहे राजकुमार और दीपाली का रास्ता रोक लेते हैं। वे अनिष्ट के भय से काँपती बहन के सामने ही राजकुमार को लात-घूँसों से पीटने लगते हैं और गालियाँ देते हुए पूछने लगते हैं, ‘‘अब मिलेगा दीपाली से? बिठायेगा कभी मोटरसाइकिल पर?’’ राजकुमार एक नजर दीपाली पर डालता है और अपने प्रेम की शक्ति को संचित करते हुए कहता है, ‘‘हाँ, मिलूँगा। जरूर मिलूँगा।’’ उससे बार-बार यही सवाल पूछा जाता है और वह बार-बार यही जवाब देता है, तो तीनों भाई उसे और पीटते हैं। लेकिन जब वे देखते हैं कि चारों तरफ भीड़ इकट्ठी हो गयी है, तो बहन की बदनामी के डर से दीपाली का नाम लेना तो बंद कर देते हैं, लेकिन राजकुमार को ट्रैक्टर से बाँधकर घसीटते हुए नर्मदा के पुल की ओर चल देते हैं। घिसटते हुए राजकुमार की मर्मांतक चीखों के साथ टैªक्टर पुल पार करता है, जिस पर उसके खून की पट्टी बन जाती है। दीपाली भाइयों की तवज्जो अपनी ओर न देख पुल पर से नदी में छलाँग लगाकर आत्महत्या कर लेती है।

यह दृश्य जितना भयानक है, उससे भी अधिक भयानक यह है कि हजारों लोगों के सामने दिनदहाड़े एक युवक को ट्रैक्टर से बाँधकर घसीटा और मार डाला जाता है, एक युवती इस अन्याय को सह न पाने के कारण आत्महत्या कर लेती है, लेकिन हजारों की वह भीड़ पूरी तरह खामोश होकर इस दृश्य को देखती रहती है, जबकि यहाँ कोई कर्फ्यू नहीं लगा है।

यह कहानी दलित प्रश्न को बड़ी शिद्दत से उठाती है, लेकिन चालू दलित विमर्श की कहानियों से भिन्न है। यह केवल सवर्णों और दलितों के बीच के अंतर्विरोध की बात नहीं करती। इसका नयापन यह है कि यह कहानी सामाजिक अन्याय को सांप्रदायिकता की समस्या से जोड़कर देखती है और इन दोनों के बने रहने तथा बढ़ते जाने के कारणों को लोगों में सामाजिक चेतना के अभाव तथा उनकी राजनीतिक हस्तक्षेप न करने वाली निष्क्रियता में खोजती है, जिसके शिकार वे दलित भी हैं, जो सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ते-लड़ते हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक शक्तियों से हाथ मिला लेते हैं। कहानी में जो भीड़ चुपचाप तमाशा देख रही है, क्या उसमें सब सवर्ण ही होंगे? उस नौजवान की अपनी बिरादरी के लोग न होंगे? अवश्य होंगे, लेकिन वे अन्याय होते देखकर भी मूक दर्शक बने रहते हैं, उसका विरोध और प्रतिरोध नहीं करते।

इस प्रकार यह कहानी आज के इस बृहत्तर यथार्थ की ओर संकेत करती है कि हमारे समाज में ही नहीं, समूचे देश और विश्व में हिंसा और उसके सार्वजनिक प्रदर्शन में बढ़ोतरी हो रही है। युद्धों के रूप में, धर्म के नाम पर की जाने वाली आतंकवादी कार्रवाई के रूप में, राज्य द्वारा की जाने वाली जन-दमनकारी हिंसा के रूप में हम उसे नित्यप्रति देखते हैं, लेकिन चुपचाप, निष्क्रिय होकर देखते रहते हैं। जबकि हिंसा किसी के भी द्वारा किसी के भी प्रति की जा रही हो, उसके विरुद्ध नागरिक अथवा जन-हस्तक्षेप होना ही चाहिए। यह तभी हो सकता है, जब लोगों में सामाजिक चेतना हो और हिंसा के विरुद्ध राजनीतिक हस्तक्षेप करने वाली सक्रियता हो। मगर वर्तमान व्यवस्था इस प्रकार की चेतना और सक्रियता को कुंद करने के लिए धर्म का सहारा लेती है और इसके लिए इस कहानी के धर्मरक्षक जैसे लोगों का इस्तेमाल करती है।

शहर में जो सांप्रदायिक दंगा हुआ है, वह धर्मरक्षक जैसे लोगों के ही कारण हुआ है। धर्मरक्षक स्वयं भी देशी कट्टा जेब में रखकर वहाँ मुसलमानों को मारने जाता है, लेकिन कर्फ्यू लग जाने के कारण पुलिस द्वारा खदेड़ दिया जाता है। राजकुमार उससे मजाक करता है, ‘‘तो टपका देते दो-तीन पुलिस वालों को ही।’’ तो वह कहता है, ‘‘पुलिस में कौन रहता है बे, सब अपनी ही तरफ के लोग न? काहे मारें उनको?’’ वही धर्मरक्षक जहाँ कर्फ्यू नहीं लगा है, वहाँ ब्राह्मण दीपाली से प्रेम करने वाले चमार राजकुमार को मारने के लिए दीपाली के भाइयों को बुलाता है। अर्थात् दोनों जगह हो रही हिंसा में धर्मरक्षक या उस जैसे लोगों का ही हाथ है। इस दृष्टि से देखें, तो कहानी का धर्मरक्षक नामक चरित्र बहुत महत्त्वपूर्ण और कहानी का शीर्षक बहुत अर्थपूर्ण हो जाता है।


कबीर का मोहल्ला : मज्कूर आलम
जानी-पहचानी चीजों को नये अंदाज में प्रस्तुत करने वाली कहानी

आज के नये लेखक सांप्रदायिकता की समस्या पर नये ढंग से सोचते हैं और उस पर कुछ नये ढंग की कहानी लिखने का प्रयास करते हैं। इसके चलते आज की कहानी में कई बार कुछ नये प्रयोग किये जाते दिखायी देते हैं। उदाहरण के लिए, मज्कूर आलम की कहानी ‘कबीर का मोहल्ला’ को देखा जा सकता है। यह कहानी अत्यंत जानी-पहचानी और बार-बार पढ़ी-सुनी चीजों को एक नये अंदाज में, एक नयी तरतीब देकर पेश करती है और सांप्रदायिक वैमनस्य के विरुद्ध सद्भाव का संदेश देती है।

कबीर के बारे में किंवदंती है कि हिंदू उन्हें हिंदू मानते थे और मुसलमान मुसलमान। इसलिए जब कबीर की मृत्यु हुई, तो हिंदुओं ने कहा कि वे उनकी चिता जलायेंगे और मुसलमानों ने कहा कि वे उनकी कब्र बनायेंगे। लेकिन दोनांे की मंशा पूरी न हुई, क्योंकि कबीर की लाश फूलों में बदल गयी। यह किंवदंती स्वयं ही सांप्रदायिक सद्भाव का संदेश देती है। मज्कूर आलम ने इसी का इस्तेमाल करते हुए कहानी में एक नया प्रयोग किया है।

एक मोहल्ला है, जिसमें गली की एक तरफ हिंदू रहते हैं और दूसरी तरफ मुसलमान। यह सांप्रदायिकता पर लिखी जाने वाली कहानियों की एक चिर-परिचित स्थिति है और भारत के कई शहरों-कस्बों की हकीकत भी। कहानीकार भी कहता है कि ‘‘यह जैसा मोहल्ला है, वैसे मोहल्ले गंगा-जमुनी तहजीब वाले वतन के कई शहरों में आपको देखने को मिल जायेंगे।’’ ऐसे मोहल्लों में सांप्रदायिक तनाव तो रहता ही है, इसलिए ‘‘चार-पाँच साल में यहाँ दंगे हो ही जाते हैं।’’ लेकिन ‘‘कमाल की बात है कि तमाम तनावों के बाद भी गली की दोनों तरफ के बीच रिश्ते की डोर भी उतनी ही मजबूत और यकीनी है।’’

ऐसे मोहल्ले में एक दिन एक बच्चा कहीं से चला आया। लोगों से उसका नाम पूछा, तो तोतली भाषा में उसने जो बताया, किसी की समझ में न आया। मोहल्ले के लोगों ने उसे आश्रय दे दिया और वह अलग-अलग दिन अलग-अलग परिवार के साथ रहने लगा। लोगों ने उसे छोटू कहना शुरू कर दिया। बच्चा बड़ा होता गया, लेकिन वह कौन है, कहाँ से आया है, उसकी जाति और धर्म क्या है, कुछ भी पता नहीं चला। ‘‘जब वह थोड़ा बड़ा हुआ, तो मोहल्ले वालों ने ही नीम के पेड़ के नीचे उसके रहने की व्यवस्था कर दी। उसके फूस के छप्पर के ऊपर ही मोहल्ले के नाम का बैनर भी लगा दिया--कबीरगंज।’’ उस बैनर के चलते उस लड़के का नाम कबीर पड़ गया। वह किस जात-मजहब का है, यह तो उसे तब भी नहीं पता था, जब यहाँ आया था और अब वह जानना भी नहीं चाहता था, क्योंकि वह भीख माँगकर गुजारा करता था। यदि वह किसी एक धर्म का हो जाता, तो ‘‘धर्म उसके कर्म के मार्ग की बाधा’’ बन जाता, जबकि किसी भी धर्म का न होने से उसे हिंदू, मुसलमान, सिख और ईसाई सभी धर्मस्थलों के बाहर खड़े होकर भीख माँगने की सुविधा थी। वह किसी धर्म का नहीं था, ‘‘शायद यही वजह थी कि वह गली के दोनों तरफ दुलारा था।’’ जब कोई सांप्रदायिक तनाव भड़काने वाली घटना हो जाती, तो लोग एक-दूसरे पर शक करते, लेकिन कबीर पर कभी शक न करते।

कहानी उस रात की है, जब भयंकर बारिश हो रही थी और बर्फ पड़ रही थी। कबीर जिस पेड़ के नीचे सोता था, उसके नीचे एक साँड़ बारिश और बर्फ से बचने के लिए आ खड़ा हुआ। संयोग से उसी पेड़ पर मधुमक्खियों का छत्ता था, जो बर्फबारी के कारण टूट गया और इससे गुस्सायी मधुमक्खियों ने कबीर और साँड़ दोनांे पर हमला बोल दिया। उनके हमले से बचने के लिए दोनों भागे, लेकिन अँधेरे में दोनों एक नाले में जा गिरे। साँड़ का एक सींग कबीर के पेट में घुस जाने से कबीर की और नाले में गिर जाने से साँड़ की मौत हो गयी। मरने से पहले दोनों चिल्लाये। साँड़ के रँभाने और कबीर के चीखने की दर्द भरी आवाजें मोहल्ले के लोगों ने सुनीं, तो हिंदुओं ने समझा कि मुसलमानों ने किसी गाय को मार डाला है और मुसलमानों ने समझा कि हिंदुओं ने किसी मुसलमान को। बस, अनुमान के आधार पर ही दोनों तरफ सांप्रदायिक तनाव फैल गया और एक तरफ से ‘‘हर-हर महादेव’’ के और दूसरी तरफ से ‘‘अल्लाहो अकबर’’ के नारे लगने लगे। दंगे की आशंका से पुलिस आ पहुँची। तब तक बारिश बंद हो चुकी थी और सुबह भी हो चुकी थी। पुलिस की जीप आयी देख घरों में छिपे डरे-सहमे लोग निकल पड़े। लेकिन उन्होंने देखा कि पुलिस की जीप नाले के पास खड़ी है, जहाँ कबीर और साँड़ दोनों मधुमक्खियों के काटने और उनसे बचने के प्रयास में नाले में गिर जाने के कारण मारे गये हैं।

कहानी में घटना का वर्णन इस प्रकार पूरा किया जाता है कि ‘‘लाश का पंचनामा कर इनवेस्टिगेशन रिपोर्ट तैयार करने के बाद पुलिस ने लोगों से पूछा कि इसका कोई अपना है, जो अंतिम संस्कार कर सके। दोनों तरफ के लोग आगे आ गये ...हाँ, हम करेंगे इसका अंतिम संस्कार...पूरा मोहल्ला है इसका...इसके बाद दोनों तरफ के लोगों में एक बार फिर कमान खिंच गयी कि शव को दफनाया जाये कि लाश को जलाया जाये...दोनों तरफ के लोग एक बार फिर से बाँहें फड़काने लगे थे, लेकिन आज कबीर की लाश फूलों में तब्दील नहीं हुई।’’

लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती। इसके बाद कहानी में एक ‘उत्तर कथा’ भी है, जो कहानी लेखन में एक नया प्रयोग है। यह प्रयोग आज के मीडिया और सोशल मीडिया के द्वारा बड़े पैमाने पर फैलायी जाने वाली सांप्रदायिकता का, लेकिन लोगों में मौजूद आपसी सद्भाव का यथार्थ सामने लाने के लिए किया गया है। सांप्रदायिकता की आग भड़काने वाले तत्त्व इस घटना के काल्पनिक वीडियो बनाते हैं, जिनमें दिखाया जाता है कि कैसे मुसलमानों ने एक गाय की हत्या कर दी और कैसे हिंदुओं ने एक मुसलमान लड़के को मार डाला। ये वीडियो आननफानन सोशल साइट्स पर वायरल हो जाते हैं और उन्हें देखकर देश में कई जगह सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठती है। यह सच्चाई सामने आ जाने पर भी कि साँड़ और कबीर की मौत मधुमक्खियों के काटने से हुई है, मीडिया में मनगढ़ंत ‘समाचार’ और ‘कार्यक्रम’ दिखाये जाते रहते हैं, जो देशी मीडिया से चलकर विदेशी मीडिया तक में जा पहुँचते हैं। सांप्रदायिक तनाव लंबे समय तक बना रहता है।

कहानी का अंत इस प्रकार किया जाता है कि एक साल बाद ‘‘कबीर की पुण्यतिथि पर मोहल्ले वालों ने एक बार फिर इस अहद को दोहराया कि वे हर समस्या का हल आपस में मिल-बैठकर करेंगे, किसी के बहकावे में नहीं आयेंगे।’’

मीडिया की कार्यप्रणाली को व्यंग्यात्मक रूप में दिखाते हुए जो प्रयोग कहानी में किया गया है, वह सांप्रदायिक राजनीति, बाजारवादी मीडिया तथा उसके द्वारा फैलाये जाने वाले तनावों और दंगों को रोकने में अक्षम विधि-व्यवस्था के यथार्थ को एक नये रूप में सामने लाता है।

भोला बबवा के पैर : प्रमोद राय
‘फुटलूज लेबर’ के यथार्थ को सामने लाने वाली कहानी

अनुभववादी और कलावादी किस्म की हिंदी कहानियों में चित्रित पात्र या तो केवल अपने तन, मन और निजी जीवन में व्यस्त लोग होते हैं, या ऐसे लोग, जिनकी कोई सामाजिक पहचान ही नहीं होती। या फिर वे स्त्री, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक आदि होते हैं, जिनकी पहचान केवल लिंग, जाति या धर्म से होती है। ऐसे पात्रों की कहानियाँ पढ़कर लगता है कि जैसे कहानीकारों ने अमीर-गरीब या मालिक-मजदूर जैसी वर्गीय स्थितियों वाले पात्रों के यथार्थ-चित्रण को सर्वथा अनावश्यक मान लिया हो। शायद इसका एक कारण विगत बीसेक वर्षों की कहानी समीक्षा भी है, जो अनुभववाद और कलावाद पर जोर देती है। वह कहानी में विचारधारा, पक्षधरता और प्रतिबद्धता को पुरानी और गैर-जरूरी चीज ही नहीं, बल्कि साहित्य के लिए हानिकारक चीज भी मानकर चलती है। शायद यही कारण है कि इधर की हिंदी कहानी में किसानों, मजदूरों और छोटे-मोटे काम-धंधे करने वाले गरीब श्रमजीवी लोगों के जीवन के यथार्थ को सामने लाने वाले चरित्र दुर्लभ हो गये हैं। 

इस दृष्टि से ‘परिकथा’ में प्रस्तुत अंक में प्रकाशित प्रमोद राय की ‘भोला बबवा के पैर’ एक उल्लेखनीय कहानी है। यह उन लोगों की कहानी है, जो गाँवों से शहरों में आकर असंगठित क्षेत्र में मजदूरी करते हैं, घरेलू नौकर, दरबान, ड्राइवर वगैरह बनते हैं, ठेलों पर छोटी-मोटी चीजें बेचते हैं या राज-मिस्त्री, रिक्शाचालक वगैरह बनकर अपना पेट भरते हैं--बल्कि अपना पेट काटकर गाँव में पीछे छूटे अपने परिवारों को पैसा भेजकर जीवित रखते हैं। 

इस कहानी को पढ़ते हुए मुझे ‘टेेमिंग दि कुली बीस्ट’, ‘बियोंड पैट्रोनेज एंड एक्सप्लॉयटेशन’, ‘वेज हंटर्स एंड गैदरर्स’ आदि पुस्तकों के लेखक जान ब्रेमन की पुस्तक ‘फुटलूज लेबर’ की याद आयी। एम्सटर्डम विश्वविद्यालय में तुलनात्मक समाजशास्त्र के प्रोफेसर जान ब्रेमन ने कई बार भारत आकर यहाँ के असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों का अध्ययन किया था। उनकी पुस्तक ‘फुटलूज लेबर वर्किंग इन इंडिया’ज इनफॉर्मल इकॉनॉमी’ (भारत की अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में काम करने वाले घुमंतू श्रमिक) के बारे में मैंने 2003 में एक लेख लिखा था, जो मेरी पुस्तक ‘भूमंडलीय यथार्थवाद की पृष्ठभूमि’ (2014) में संकलित है। प्रमोद राय की कहानी के संदर्भ में अपने उस लेख का प्रारंभिक अंश उद्धृत करना मुझे जरूरी लग रहा है :

भारतीय श्रम का भूमंडलीकरण एक बार औपनिवेशिक शासन काल में हुआ और दूसरी बार निजीकरण की नीति के चलते अब हो रहा है, क्योंकि यह नीति भारत पर (और लगभग सारी दुनिया में) विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन जैसी भूमंडलीय संस्थाओं द्वारा थोपी गयी है। इस नीति का संबंध पूँजीवादी भूमंडलीकरण और आज के उस पूँजीवाद से है, जो कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को त्याग चुका है और उससे जुड़ी तमाम चीजों को नष्ट करने में लगा है। अब उसे राज्य का हस्तक्षेप केवल पूँजी की रक्षा करने, पूँजीपतियों के हित में नीतियाँ बनाने और उन्हें सख्ती से लागू करने में ही चाहिए, जनहित की नीतियाँ बनाने और उन्हें लागू करने के लिए नहीं। राज्य के हस्तक्षेप से बन सकने वाली जनहित की नीतियों को न बनने देने के लिए ही मुक्त बाजार की वैश्विक नीति अपनायी गयी है, जिसके तहत श्रम के बाजार को भी राज्य के हस्तक्षेप से मुक्त रखने का आग्रह किया जा रहा है। इसी नीति के तहत सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों में विनिवेश की या उन उद्योगों को निजी क्षेत्र के हाथों बेचने की नीति अपनायी गयी है और कहा जा रहा है कि श्रमिकों को ‘औपचारिक’ तथा ‘अनौपचारिक’ दो क्षेत्रों में बाँटने के बजाय केवल अनौपचारिक क्षेत्र में रहने देना चाहिए।

व्यवहार में इस नीति का अर्थ यह है कि सरकार न तो श्रमिकों को रोजगार देने की चिंता करे और न उनके हित में कोई नियम-कानून बनाकर उन्हें लागू करे। मसलन, न्यूनतम वेतन या मजदूरी तय करने, श्रमिकों को जरूरी सुविधाएँ और सामाजिक सुरक्षाएँ देने-दिलाने के उन कामों से, जिनसे ‘औपचारिक अर्थव्यवस्था’ का निर्माण होता है, सरकार को अलग रहना चाहिए। उसे श्रम के बाजार को माँग और पूर्ति के अपने नियमों से ही चलने देना चाहिए और इस बात की चिंता नहीं करनी चाहिए कि श्रमिकों को स्थायी रोजगार, न्यूनतम वेतन, शिक्षा, आवास, चिकित्सा, बीमा, पेंशन आदि देने से संबंधित नियम-कायदों का पालन किया जा रहा है या नहीं। ऐसे कोई नियम-कायदे होने ही नहीं चाहिए। जो बने हुए हैं, उन्हें भी समाप्त कर देना चाहिए, क्योंकि उनके रहने पर श्रमिक उन्हें लागू कराने की कोशिश करते हैं और इसके लिए संगठित होकर संघर्ष करते हैं। इस चीज को रोकने के लिए श्रमिकों के संगठनों को भंग कर देना चाहिए और ऐसे कानून बना देने चाहिए कि श्रमिक संगठित न हो सकें। इसके अलावा ऐसी परिस्थितियाँ पैदा करनी चाहिए कि श्रमिकों का संगठित होना स्वतः ही मुश्किल हो जाये। इसका एक कारगर तरीका यह हो सकता है कि श्रमिक किसी एक स्थान पर इकट्ठे और टिककर न रह सकें, बल्कि जहाँ उनकी जरूरत हो, वहाँ जायें और जब तक उनकी जरूरत हो, तभी तक वहाँ रहें।

‘भोला बबवा के पैर’ ऐसे ही श्रमिकों की कहानी है। यह बिहार के एक गाँव के भोलानाथ दुबे और उनके तेरह वर्षीय पुत्र गोल्डेन कुमार दुबे की कहानी है। भोलानाथ दुबे थोड़ा पढ़े-लिखे थे, पर कोई अच्छी नौकरी नहीं पा सके। जमीन-जायदाद ज्यादा थी नहीं, सो गाँव के एक धरमदेव के साथ दिल्ली चले गये, जो दिल्ली में एक सेठ के यहाँ नौकरी करता था और सेठ या उसके संबंधियों को किसी भरोसेमंद नौकर की जरूरत होने पर गाँव आकर किसी लड़के को अच्छी नौकरी दिलाने का वादा करके दिल्ली ले जाता था। उसने भोलानाथ दुबे को नौकरी दिलायी, लेकिन वे वहाँ टिके नहीं। उन्होंने दिल्ली में कई तरह के काम किये और एक दिन अचानक कहीं गायब हो गये। तीन साल बीत गये, पर न तो वे गाँव लौटे और न उनके मर जाने की खबर मिली। गाँव में उनकी पत्नी उन्हें जीवित मानती रही और इस इंतजार में कि वे पैसा कमाकर लौटेंगे, तो कर्ज चुका दिया जायेगा, खेत गिरवी रखकर लिये गये कर्ज से किसी तरह काम चलाती रही और अपने बेटे गोल्डेन कुमार को पढ़ाती रही। उधर धरमदेव के मालिक की बेटी को भरोसेमंद घरेलू नौकर की जरूरत महसूस हुई, तो वह गाँव आया और अच्छी नौकरी दिलाने का वादा करके गोल्डेन कुमार को अपने साथ दिल्ली ले गया। वह भोलानाथ दुबे को भोला बाबा कहता था (‘बाबा’ प्यार और तिरस्कार दोनों में ‘बबवा’ हो जाता है) और गोल्डेन कुमार को गोल्डेन बाबा कहता है। वही गोल्डेन को बताता है कि उसके पिता कहीं टिककर नहीं रहते थे, ‘‘उनके पैरों में चक्कर था।’’ इसीलिए कहानी का शीर्षक है ‘भोला बबवा के पैर’।

लेकिन तेरह वर्षीय गोल्डेन कुमार केवल नौकरी करने दिल्ली नहीं जाता, बल्कि दिल्ली में अपने खोये हुए पिता को खोजने जाता है। दिल्ली की खोड़ा कॉलोनी में उसके गाँव के कई लोग रहते हैं, जो तरह-तरह के छोटे-मोटे काम या नौकरी-चाकरी करते हैं। गोल्डेन वहाँ जाकर उनसे मिलता है। वे लोग उसे बताते हैं कि भोला बबवा कहीं टिककर कोई काम नहीं करते थे। कभी किसी फैक्टरी में काम किया, तो कभी किसी स्कूल में चौकीदारी की। कभी किसी सिक्योरिटी एजेंसी में भरती होकर एटीएम गार्ड बने, तो कभी दिल्ली की प्राइवेट बसों में कंडक्टर। कभी किसी ठेकेदार के नौकर रहे, तो कभी जूस बेचने की अपनी ठेली लगायी। हालाँकि नौकरी की मजबूरी में उन्होंने फैक्टरी के संगठित मजदूरों की हड़ताल तोड़ने वाले के रूप में भी काम किया, मगर अपनी ईमानदारी और गलत कामों को रोकने की प्रवृत्ति के चलते वे नौकरी से या तो खुद निकले या निकाले गये; हर जगह लड़े-भिड़े और मारे-पीटे गये। कभी चाकू से घायल होने पर अस्पताल ले जाये गये, तो कभी पुलिस को हफ्ता न देने पर पुलिस चौकी में ले जाकर पीटे गये। भोला बबवा के गायब हो जाने या मर जाने के बारे में गाँव वालों को ठीक-ठीक कुछ मालूम नहीं। केवल अटकलें हैं कि उन्हें किसी ने मारकर नाले में फेंक दिया था या उन्हें एड्स-वेड्स हो गया था। लेकिन लोगों को यह विश्वास भी है कि ‘‘सब फालतू बात है, भोला बबवा वैसा आदमी नहीं था।’’

गोल्डेन जिस कोठी में काम करता है, वहाँ से खोड़ा कॉलोनी जाकर अपने गाँव के लोगों से मिलने के बाद जब लौटता है, तो उसे तरह-तरह के काम करते लोगों में अपने पिता नजर आते हैं। इस प्रकार कहानीकार बड़ी कुशलता और कलात्मकता के साथ गाँवों से शहरों में आकर तरह-तरह के काम करने वाले लोगों के जीने और मरने का भयावह यथार्थ सामने लाता है। कहानी से पता चलता है कि चक्कर सिर्फ भोला बाबा के पैरों में नहीं था, इन तमाम लोगों के पैरों में है। ये सब एक अस्थिर और अस्थायी जीवन जी रहे हैं और भोला बाबा की तरह शहर में आकर खो गये हैं। कहानी का नयापन इसमें है कि यह भारत की उस ‘अनौपचारिक अर्थव्यवस्था’ पर हमारा ध्यान केंद्रित करती है, जो अस्थायी श्रमिकों के बल पर चलती है।

इस प्रकार आज की हिंदी कहानी में कई नये स्वर उभर रहे हैं। पिछले कुछ समय से हिंदी कहानी अपनी यथार्थवादी परंपरा से कटकर भटक-सी गयी थी। लेकिन अब वह फिर पटरी पर लौट रही है और आगे बढ़ रही है। इसमें नये कहानीकारों के साथ-साथ ‘परिकथा’ जैसी पत्रिकाओं की भी भूमिका है, जो नयी रचनाशीलता को निरंतर सामने लाने का सार्थक और जरूरी काम करती हैं।

4 comments:

  1. तस्स्थता के विरुद्ध पक्षधरता कलावादीपन की बजाय कथ्यपरकता जादुई यस्थार्थवाद की जगह कहानी का फिर से कथ्य की रक्षा लेखकीय प्रतिबद्धता और यथार्थवाद की वापसी को आपने एकदम नयी कहानियों के जरिये पकड़ा। उन कहानियों को बताकर बल्कि अपनेशब्दों में पढ़ाकर आपने उन ज़रूरी सवालों के सन्दर्भ में अपनी बात रखी जो साहित्य की बड़ी ज़मीन से बेदखल किये जा रहे हैं। इस लेख ने ठोस परिप्रेक्ष्य में साम्प्रदायिकता दलित किसान स्त्री असंगठित क्षेत्र के मज़दूर आर्थिक आत्मनिर्भरता खोजती औरत अल्पसंख्यको के सवाल इनके अंदर बहते करन्ट को भी आपकी नज़र ने पकड़ा। इन कझनियों के साथ आपने बदलाव के समय और कहानी के समय में आ रहेबदलाव दोनों पर बात की है। ये एक गम्भीर लेख तो है ही साहित्य के प्रति सकारत्मक ऊर्जा से भरा लेख भी है। इस लेख और इसमें विवेचित कहानियाँ के जरिये आपने यथार्थवाद की मज़बूत वापसी की आहट को सुना है। जाहिर है ये बात चुनींदा कहानियों के हवाले से कही गयी है पर आपने जो वैचारिक पहलू उभारे हैं उनके आधार पर कई और कहानियाँ भी इस और आती दिखेंगी। हैं ही। लेख के लिये बधाई।

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  2. धन्यवाद, प्रज्ञा.

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  4. रमेश जी मेरी कहानी 'भोला बबवा के पैर' पर आपकी बहुमूल्य टिप्पणी के लिए आभार। आपने जिस गहराई से कहानी पढ़ी और उसके मर्म की गंभीर प्रासंगिक संदर्भों में व्याख्या की, मेरे लिए उत्साहवर्धक ही नहीं ज्ञानवर्धक भी है। जान ब्रेमन की पुस्तक के बहाने आपने‘फुटलूज लेबर’ की जो याद दिलाई वो मेरे लिए बिल्कुल नई और रोमांचक है। कहानी बेशक फुटलूज लेबर के इर्दगिर्द घूमती है, लेकिन इस टर्म और अवधारणा से आपकी टिप्पणी के बाद परिचित हो पाया। यह भी जाना कि एम्सटर्डम विश्वविद्यालय में तुलनात्मक समाजशास्त्र के प्रोफेसर जान ब्रेमन ने कई बार भारत आकर यहाँ के असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों का अध्ययन किया था। मैं आपका वह लेख ‘भूमंडलीय यथार्थवाद की पृष्ठभूमि’भी पढ़ना चाहूंगा। कहानी की इससे स्तरीय समीक्षा या टिप्पणी की कल्पना मैंने नहीं की थी। शायद यही वजह है कि यह समीक्षा फेसबुक पर शेयर करने से पहले कई बार सोचा कि पहले कुछ और अच्छी कहानियां लिखकर उस आत्मविश्वास के स्तर तक पहुंचा जाए। एक बार फिर शुक्रिया और आभार

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