Thursday, January 29, 2009

मीडिया और जनतंत्र

मीडिया का जनतांत्रिक होना क्यों ज़रूरी है?

जनतंत्र जनतांत्रिक संस्थाओं के दम पर चलता है। लेकिन आज वे संस्थाएँ भीतर से स्वयं अपने कारणों से नष्ट हो रही हैं और बाहर से जनतंत्र-विरोधी शक्तियों द्वारा नष्ट की जा रही हैं। मीडिया जनतंत्र को बचाने, बेहतर बनाने और मजबूत बनाकर आगे बढ़ाने वाली शक्ति के रूप में स्वयं जनतांत्रिक होना चाहिए। उसे स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के जनतांत्रिक मूल्यों को अपनाकर चलना चाहिए और इन्ही मूल्यों का प्रचार-प्रसार करते हुए राज्य और समाज को जनतांत्रिक बनाने तथा बनाये रखने का काम करना चाहिए। मीडिया यह काम सत्यनिष्ठ, नीतिनिष्ठ और न्यायनिष्ठ होकर ही कर सकता है, क्योंकि ऐसा होने पर ही वह प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने के लिए भीतर से स्वयं नैतिक रूप से मजबूत और बाहर से जन-समर्थन पाकर शक्तिशाली बना रह सकता है।

लेकिन आज का मीडिया स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के जनतांत्रिक मूल्यों को ताक पर रखकर एक तरफ़ अपने मालिकों को अधिक से अधिक मुनाफा कमाकर देने का और दूसरी तरफ़ उनकी गैर-जनतांत्रिक और कई मायनों में जनतंत्र-विरोधी राजनीति को आगे बढ़ाने का काम करता है। ऐसी स्थिति में वह सत्यनिष्ठ, नीतिनिष्ठ और न्यायनिष्ठ नहीं हो सकता और अपनी नैतिक शक्ति खोकर कमज़ोर होता जाता है, दृढ़तापूर्वक प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना नहीं कर पाता और तरह-तरह के दबावों में तरह-तरह के समझौते करने को मजबूर हो जाता है। इस प्रकार भीतर से कमज़ोर मीडिया जन-समर्थन खोकर बाहर से भी कमज़ोर हो जाता है।

यही कारण है कि उस पर शासन और प्रशासन के तरह-तरह के दबाव पड़ते हैं, तरह-तरह के अंकुश लगाए जाते हैं (जैसे सीधी सेंसरशिप नहीं तो अखबार को मिलने वाले विज्ञापनों पर रोक) और सत्ताधारी दल के नेताओं को ही नहीं, उसे विरोधी दलों के नेताओं को भी खुश रखना पड़ता है। यहाँ तक कि पुलिस और गुंडों को भी। उन्हें नाराज़ करने का मतलब होता है अखबार या चैनल पर हमला, उसके दफ्तर में की जाने वाली तोड़-फोड़, उसके कर्मचारियों के साथ की जाने वाली मार-पीट, पत्रकारों की हत्याएं आदि। और जब ऐसी घटनाएं होती हैं, जनता मूक दर्शक बनी रहती है, क्योंकि वह जानती है कि मीडिया उसे क्या समझता है! जब अखबार अपने पाठक को और चैनल अपने दर्शक को सिर्फ़ उपभोक्ता मानकर चलेंगे, सूचना और समाचार को महज एक उत्पाद मानकर बनाने और बेचने का काम करेंगे और उसमें भी ग्राहक के साथ धोखाधड़ी करेंगे--यानी सूचना के नाम पर ग़लत सूचना देंगे, सच के नाम पर झूठ बेचेंगे, रिपोर्टिंग के नाम पर सनसनी और मनोरंजन के नाम पर फूहड़पन फैलायेंगे--तो उनकी पिटाई होते देख जनता उन्हें बचाने क्यों आयेगी?

अखबारों की प्रसार संख्या और उनकी बिक्री का बढ़ना या चैनलों की टी आर पी का बढ़ना और उसके आधार पर उन्हें अधिक विज्ञापनों का मिलना उनकी लोकप्रियता के बढ़ने का सूचक नहीं है। लोग जागरूक हो रहे हैं। उन्हें प्रामाणिक सूचनाओं, सही समाचारों, ज़रूरी विचारों और अच्छे मनोरंजक कार्यक्रमों की ज़रूरत है। लेकिन क्या मीडिया उनकी यह ज़रूरत पूरी कर रहा है?

मीडिया उनकी यह ज़रूरत जनतांत्रिक होकर ही पूरी कर सकता है।

--रमेश उपाध्याय

Friday, January 23, 2009

भूमंडलीय यथार्थवाद का मतलब

जब से मेरी किताब 'साहित्य और भूमंडलीय यथार्थ' प्रकाशित हुई है, मेरे कई पाठक मुझसे पूछ रहे हैं कि भूमंडलीय यथार्थवाद क्या होता हैकुछ ऐसे भी पाठक होंगे, जो यह जानना तो चाहते होंगे, पर मझसे पूछने में संकोच करते होंगेउन पाठकों के लिए मेरा कहना यह है कि आज के बदले हुए और तेजी से बदलते हुए यथार्थ के सन्दर्भ में यथार्थ को वर्ण, जाति, लिंग, नस्ल, राष्ट्र आदि के आधार पर खंड-खंड करके नहीं, बल्कि समग्रता में भूमंडलीय यथार्थ के रूप में देखना आवश्यक हैआज के साहित्य की सार्थकता और सोद्देश्यता के लिए एक नए ढंग के यथार्थवाद का विकास करना आवश्यक है, जिसे मैं भूमंडलीय यथार्थवाद कहता हूँ


भूमंडलीय यथार्थवाद का मतलब यह नहीं है कि हम अपने देश, अपने समाज या अपने निजी जीवन की कथा कहना बंद कर देंगेकथा तो हम अपने देश, अपने समाज और अपने जीवन की ही कहेंगे, लेकिन अपने यथार्थ को देखने का हमारा परिप्रेक्ष्य भूमंडलीय होगाकारण यह है कि अब हम इस परिप्रेक्ष्य के बिना अपने यथार्थ को समझ ही नहीं सकतेउदाहरण के लिए, आज की वैश्विक मंदी एक ऐसा भूमंडलीय यथार्थ है, जिसको समझे बिना आज हम अपने देश, अपने समाज और अपने जीवन में उत्पन्न हुई नई समस्याओं को समझ ही नहीं सकते


प्रश्न उठता है : भूमंडलीय यथार्थ तो बड़ी व्यापक, जटिल और गतिशील चीज़ है, उसे आत्मसात करके कथासाहित्य कैसे लिखा जा सकता है? इसका उत्तर खोजने में मुक्तिबोध हमारी सहायता कर सकते हैंभूमंडलीय यथार्थ को आत्मसात करने के मामले में उनकी 'ज्ञानात्मक संवेदन' और 'संवेदनात्मक ज्ञान' की अवधारणायें उपयोगी हो सकती हैं, तो उस यथार्थ का चित्रण करने के मामले में उनका निबंध 'डबरे पर सूरज का बिम्ब' हमें उचित प्रेरणा दे सकता हैजैसे पानी के छोटे-से डबरे पर भी सूरज का पूरा बिम्ब दिखाई देता है, वैसे ही छोटी-सी साहित्यिक रचना में बड़े और व्यापक यथार्थ का चित्रण किया जा सकता है

--रमेश उपाध्याय

Friday, January 16, 2009

बच्चों के लिए एक कविता

उस दिन दुनिया ने छुट्टी ली

घड़ी सुबह के पाँच बजाकर बोली जागो, जागो!
दुनिया जागी, ख़ुद से बोली भागो, भागो, भागो!

बिस्तर से उठकर दुनिया ने देखा घना अँधेरा
यह कैसा अंधेर है, भाई, जब हो चुका सवेरा?

दुनिया बाहर आई, देखा, आसमान पर बादल
अंधड़ बनकर हवा चल रही मानो होकर पागल

ज़ोर-ज़ोर से पेड़ हिल रहे खड़खड़ करते पत्ते
अंधड़ दिल्ली से ज्यों सरपट जाता हो कलकत्ते

चमचम बिजली चमकी गड़गड़ बादल लगा गरजने
टीन की छत पर तडतड करता पानी लगा बरसने

छुट्टी लेकर दुनिया चढ़ गई अपने घर की छत पर
उछल-उछलकर खूब नहाई बारिश में जी भरकर।

--रमेश उपाध्याय
बाल विज्ञान पत्रिका 'चकमक' के दिसम्बर, 2008 के अंक में प्रकाशित

Wednesday, January 14, 2009

नमस्कार!

नमस्कार मित्रो!
नया वर्ष आपको मुबारक हो! इस नए वर्ष में मैंने एक नया काम किया है। वह यह कि मैंने 'कथन' के सम्पादन से संन्यास लेकर उसका सम्पादन अपनी बेटी संज्ञा उपाध्याय को सौंप दिया है। आपसे गुजारिश है कि 'कथन' को अपना स्नेह और सहयोग पहले की तरह देते रहें।
यह तो आप जानते ही होंगे कि कुछ दिन पहले ज्ञानरंजन ने अपनी पत्रिका 'पहल' बंद करने की घोषणा की है। लघु पत्रिकाएँ निकलती हैं और बंद हो जाती हैं। लेकिन मेरा मानना है कि यदि संभव हो, तो लघु पत्रिका को शुरू करने वाले सम्पादक की कोई ख़ास ही मजबूरी न हो, तो पत्रिका को जीवित रखने के लिए उसे किसी दूसरे योग्य सम्पादक को सौंप देना चाहिए। 'पहल' हिन्दी की एक महत्त्वपूर्ण पत्रिका थी। उसे जीवित रहना चाहिए था। अपनी इसी मान्यता के कारण मैंने सोचा कि मैं सम्पादक रहूँ या न रहूँ, 'कथन' को जीवित रहना चाहिए। आप इस विषय में क्या सोचते हैं, मुझे बताएँ।
शुभकामनाओं के साथ
आपका
रमेश उपाध्याय