‘‘जब हिंदी में पहले से इतनी पत्रिकाएँ मौजूद हैं, तो फिर एक और नयी पत्रिका क्यों? यह सवाल हमारे भी मन में उठा था और इस पर कई दिनों तक काफी बहस के बाद यह तय किया कि पत्रिकाओं की भीड़ से अलग अगर हम नजर आना चाहते हैं, तो कुछ अलग करना होगा।’’
जयपुर से प्रेमचंद गांधी के संपादन में शुरू हुई नयी पत्रिका ‘कुरजां संदेश’ का प्रवेशांक देखकर लगता है कि उसके संपादकीय में कही गयी यह बात सच है। पत्रिका सचमुच अन्य ‘‘पत्रिकाओं की भीड़ से अलग’’ नजर आती है। यह बड़े आकार में, बढ़िया कागज पर, खूबसूरत ले-आउट और सचित्र साज-सज्जा के साथ सुंदर ढंग से छपी लगभग तीन सौ पृष्ठों की भारी-भरकम और प्रभावशाली पत्रिका है। प्रवेशांक आतंकित करता-सा लगता है। आतंकित करने के लिए एक ही ‘महानायक’ पर्याप्त होता है, पर यहाँ तो एक नहीं, एक शताब्दी के अनेक ‘महानायक’ उपस्थित हैं!
लेकिन आवरण पर छपे चेहरे देखकर तसल्ली हो जाती है कि अरे, ये सब तो अपने ही लोग हैं! भुवनेश्वर, शमशेर, अज्ञेय, केदार, नागार्जुन, अश्क, नेपाली इत्यादि। थोड़ा गौर से देखने पर पता चलता है कि सब साहित्य वाले और हिंदी साहित्य वाले ही नहीं हैं। अकीरा कुरोसावा और अशोक कुमार जैसे सिनेमा वाले भी हैं। विष्णु नारायण भातखंडे और मल्लिकार्जुन मंसूर जैसे संगीत वाले भी हैं। उर्दू के उस्ताद फैज, मजाज और नून मीम राशिद भी हैं। अंग्रेजी के अग्रज अहमद अली भी हैं। राजस्थानी के कन्हैया लाल सहल, गुजराती के उमाशंकर जोशी, तेलुगु के श्रीश्री, बांग्ला के रवींद्रनाथ ठाकुर (अपने उपन्यास ‘गोरा’ के रूप में), पोलिश के जेस्लो मिलोज इत्यादि भी हैं।
इतना विशाल, व्यापक और भव्य आयोजन शायद मासिक या त्रैमासिक नहीं हो सकता, अतः साल में दो बार होगा। तदनुसार प्रवेशांक मार्च, 2011 से अगस्त, 2011 तक का है और आवरण पर ‘प्रवेशांक: मार्च-अगस्त, 2011’ छपा भी है। लेकिन अंदर वाले पृष्ठ पर शायद कुछ नया करने या ‘‘भीड़ से अलग नजर आने’’ के लिए तारीखें भी दे दी गयी हैं--1 मार्च, 2011 से 31 अगस्त, 2011 तक। संपादक प्रेमचंद गांधी प्रस्तुत लेखक के मित्र हैं, अतः उसने तुरंत फोन मिलाया और चुटकी लेने से नहीं चूका--‘‘मेरे जन्मदिन पर नयी पत्रिका को जन्म देने के लिए बधाई!’’ वैसे संपादक और उनकी टीम के सभी सदस्य (संपादकीय सलाहकार ईशमधु तलवार, संपादन सहयोगी फारुख आफरीदी और ओमेंद्र तथा कार्यालय सहायक कालूराम) बधाई के हकदार हैं।
संपादकीय में अन्य पत्रिकाओं में जो नहीं है, उसे ‘कुरजां संदेश’ के माध्यम से करने का संकल्प किया जाता दिखायी देता है। अन्य पत्रिकाओं में जो ‘अभाव’ गिनाये गये हैं, उन्हें सकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया जाये, तो ‘कुरजां संदेश’ का संपादकीय संकल्प कुछ इस प्रकार होगा :
इस पत्रिका में समूचे हिंदी प्रदेश की तस्वीर के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं तथा दुनिया के अन्य देशों के साहित्य और समाज की तस्वीर भी दिखायी देगी। खंड-खंड परिदृश्य के अमूर्त चित्र की जगह इस विशाल महादेश की विभिन्न भाषाओं तथा बोलियों वाली अनंत वैविध्यपूर्ण संस्कृति की मुकम्मल तस्वीर पेश करने की कोशिश की जायेगी। पूर्वग्रह, गुटबाजी और ‘‘मतानुकूलित पारस्परिक सद्भावना और सहयोग वृत्ति’’ से बचते हुए ‘‘समस्त भारतीय भाषाओं का वास्तविक प्रतिनिधित्व’’ किया जायेगा। ‘‘जड़ता और कुहासे को दूर करने की ईमानदार कोशिश’’ की जायेगी। दुनिया के अन्य देशों में क्या रचा जा रहा है और कौन-सी विचार-सरणियाँ किस प्रकार काम कर रही हैं, इसकी जानकारी दी जायेगी। अच्छे अनुवादकों से कराये गये अच्छे अनुवाद प्रस्तुत किये जायेंगे। इंटरनेट का उपयोग करते हुए पाठकों को दुनिया की अन्य भाषाओं के साहित्य से जोड़ा जायेगा। कम से कम भारतीय उपमहाद्वीप के, मलेशिया, थाईलैंड, श्रीलंका, भूटान, नेपाल के तथा सार्क देशों के साहित्य के बारे में तो ठीक-ठीक जानकारी दी ही जायेगी। दुनिया के जिन अन्य देशों में ‘‘वैश्वीकरण से उपजे नव-साम्राज्यवाद ने भारत जैसी ही परिस्थितियाँ पैदा कर दी हैं’’, उन देशों की भाषाओं में ‘‘हिंदी समाज जैसी चिंताओं को लेकर जो रचनाएँ लिखी जा रही हैं’’, उनकी जानकारी दी जायेगी। ‘‘विश्वग्राम में ऐसी साझी चिंताओं के लिए भी तो स्थान होना चाहिए’’, अतः ‘कुरजां संदेश’ द्वारा ऐसा स्थान बनाने का काम किया जायेगा। और अंततः पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा गया है कि ‘‘यह काम मुश्किल जरूर है, नामुमकिन नहीं।’’
निश्चित रूप से यह संकल्प स्वागतयोग्य है और यह आत्मविश्वास प्रशंसनीय। लेकिन लगता है कि यह किंचित् अत्युत्साह में बनायी गयी कुछ अधिक ही महत्त्वाकांक्षी परियोजना है, जो प्रवेशांक के पाठक के मन में आशाओं के साथ-साथ कुछ आशंकाएँ भी पैदा करती है। प्रवेशांक स्वयं उन आशंकाओं को जन्म देता प्रतीत होता है। बेहतर होता कि प्रवेशांक संपादकीय संकल्प को व्यावहारिक रूप में सामने लाने वाली सामग्री के साथ आता। ऐसी सामग्री के साथ, जो नयी तो होती ही, जिसके कारण पत्रिका अन्य पत्रिकाओं की भीड़ से अलग भी नजर आती। किंतु न जाने क्यों, प्रवेशांक को कतिपय साहित्यकारों की संयोग से एक साथ आ पड़ी जन्मशतियों से जोड़कर निकालने का निर्णय लिया गया, जबकि यह विषय पिछले दिनों जगह-जगह हुए जन्मशती समारोहों तथा इसी उपलक्ष्य में विभिन्न पत्रिकाओं द्वारा निकाले गये विशेषांकों के कारण पहले ही घिस-पिट चुका था। ‘कुरजां संदेश’ के इस आयोजन के पक्ष में अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है कि यह केवल अज्ञेय, शमशेर, नागार्जुन, केदार आदि कुछ ही साहित्यकारों की नहीं, बल्कि बहुत-से अन्य साहित्यकारों की जन्मशतियाँ मनाने वाला एक सर्वसमावेशी प्रयास है।
लेकिन इस प्रयास में कई पुरानी और बार-बार पढ़ी जा चुकी चीजों का पुनर्प्रकाशन संपादकीय विवशता जैसा बन गया है, जिसका एहसास संपादक को भी है। उन्होंने संपादकीय में इसका औचित्य सिद्ध करने के लिए कहा है--‘‘इस अंक में बहुत-से पाठकों को लग सकता है कि कई लेख और रचनाएँ पुरानी हैं। उन्हें यहाँ शामिल इसलिए किया गया कि आज के नये पाठकों को बहुत संभव है, इन पुरानी रचनाओं की जानकारी ना हो।’’
एक नयी पत्रिका के प्रवेशांक में पुरानी सामग्री देने को उचित ठहराने के लिए दी गयी यह दलील बहुत आश्वस्त नहीं करती। बेहतर यही होता कि प्रवेशांक ऐसी नयी सामग्री लेकर आता, जो संपादकीय में व्यक्त किये गये संकल्प को चरितार्थ करती।
आशा है, यह काम अगले अंक से शुरू होगा और विश्वास है कि सफलतापूर्वक संपन्न भी होगा। प्रवेशांक के आकार-प्रकार से स्पष्ट है कि ‘कुरजां संदेश’ एक साधन-संपन्न पत्रिका है। इसके पास आर्थिक संसाधन तो पर्याप्त हैं ही, मानवीय संसाधनों की भी कमी नहीं है। प्रवेशांक में शामिल रचनाकारों के अलावा इसके देशी-विदेशी सहयोगियों की सूची देखकर लगता है कि अगले अंकों में यह पत्रिका वह सब कर पायेगी, जिसे करने का इरादा प्रवेशांक के संपादकीय में व्यक्त हुआ है।
अतः अगले अंक की उत्सुक प्रतीक्षा के साथ हार्दिक शुभकामनाएँ।
--रमेश उपाध्याय
Monday, May 30, 2011
Friday, May 27, 2011
कैसे बनेगा साहित्य का बाज़ार?
जो लेखक यह समझते हैं कि हिंदी साहित्य का बाजार है और उसमें उन्हें अपनी जगह बनानी है, उन्हें सबसे पहले यह देखना चाहिए कि क्या सचमुच हिंदी साहित्य का कोई बाजार है। पुस्तकों के प्रकाशक तो बड़े और छोटे असंख्य हैं, लेकिन पुस्तकों का बाजार कहाँ है? क्या आपके शहर में कोई ऐसी दुकान है, जहाँ आपकी मनचाही नयी साहित्यिक पुस्तकें मिल जायें? या कोई ऐसा पुस्तकालय, जो नवीनतम साहित्यिक पुस्तकें साहित्यिक गुणवत्ता के आधार पर और निरंतर खरीदता हो?
हिंदी के अखबारों की संख्या और उनकी प्रसार-संख्या को देखें, तो लगता है कि हिंदी के पाठक बढ़ रहे हैं
और वे करोड़ों की संख्या में हैं, लेकिन सोचें कि हिंदी का बेस्ट सेलर उपन्यास भी कितना छपता है? कितना बिकता है? हो सकता है, खूब बिकता हो, लेकिन क्या उसकी बिक्री के आधार पर मिलने वाले मेहनताने से लेखक अपने परिवार के साथ आराम से जी सकता है? हो सकता है, हों कुछ ऐसे भाग्यशाली, मगर वे कितने होंगे?
उन असंख्य लेखकों की सोचिए, जो साहित्य के इस बाजार में, जिसे बाजार कहना भी बाजार की तौहीन है, अपनी पुस्तक छपवाने के लिए प्रकाशक को मुँहमाँगी रकम देते हैं! प्रकाशक पैसा लेकर तीन सौ प्रतियाँ छापता है और पैसे के बदले सौ या पचास प्रतियाँ लेखक को देकर कहता है कि हिसाब बराबर! अब यह लेखक पर है कि वह उन प्रतियों को बेचे या बाँटे। लेखक उन प्रतियों को कहाँ और कैसे बेचे? किसी तरह बेच भी ले, तो उसे क्या मिलेगा? उसकी लागत भी नहीं निकलेगी। मगर वह जानता है कि हिंदी लेखकों को दिये जाने वाले असंख्य सरकारी और गैर-सरकारी पुरस्कार मौजूद हैं और उनमें से कोई ऐसा पुरस्कार भी मिल जाये तो गनीमत, जिससे प्रकाशक को दी हुई रकम वापस मिल जाये। रकम न मिले, गम नहीं; ऐसी साहित्यिक प्रतिष्ठा तो मिल ही जाये, जो भविष्य में उसे साहित्य के राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों के योग्य बना सके! तब हो सकता है कि वह हिंदी साहित्य के बाजार में न सही, अनुवाद के जरिये अखिल भारतीय और फिर अखिल भूमंडलीय बाजार में बिकने लायक बन जाये!
इस प्रकार हिंदी का वह लेखक, जो आज बड़े ठसके से कहता है कि वह बाजार में बिकने और अपने लेखन की ऊँची कीमत पाने में कोई बुराई नहीं समझता (‘‘जब चित्रकार हुसैन बाजार में बिक सकते हैं, तो हम क्यों नहीं?), दरअसल उस बाजार में बिकने की बात कर रहा होता है, जो वास्तव में कोई बाजार है ही नहीं! अगर उसे बाजार कहा ही जाना हो, तो वह ऐसा बाजार है, जिसमें लेखक पाठक या ग्राहक के लिए नहीं, पुरस्कारदाताओं के लिए लिखता है; प्रकाशक पाठक या ग्राहक के लिए नहीं, थोक सरकारी खरीद के लिए किताब छापता है; सरकारी खरीद करने वाला अफसर किताब की क्वालिटी और कीमत नहीं, अपना कमीशन देखता है और उसे इससे कोई मतलब नहीं होता कि किताब पाठकों तक पहुँचे। यही वजह है कि हिंदी में क्या छपता है, कहाँ बिकता है और पाठक तक न पहुँचकर कहाँ ‘डंप’ हो जाता है, कोई नहीं जानता!
क्या इसे साहित्य का बाजार कहा जा सकता है? यदि नहीं, तो हम हिंदी लेखकों को गंभीरतापूर्वक सोचना चाहिए कि बाजार के समर्थक के रूप में ही नहीं, बाजार के विरोधी के रूप में भी हम क्या कर रहे हैं!
मुझे बाजार-विरोधी समझा जाता है, लेकिन मैं बाजार का नहीं, बाजारवाद का विरोधी हूँ। इसीलिए मैंने 17 मई, 2011 को यहीं पर ‘साहित्य में जगह बनानी है या बाजार में?’ शीर्षक टिप्पणी में कहा था कि ‘‘मैं बाज़ार का विरोधी नहीं हूँ। मैं तो दिल से चाहता हूँ कि साहित्य का बाज़ार बढ़े। साहित्य खूब छपे, खूब बिके, ज्यादा से ज्यादा पाठकों तक पहुंचे। प्रकाशक और मीडिया के मालिक शौक से उसे बेच कर मुनाफा कमायें और लेखकों को भी इतना मेहनताना दें कि वे अपने लेखन के दम पर आराम से जी सकें। किसी भी लेखक को, चाहे वह नया हो या पुराना, स्त्री हो या पुरुष, दलित हो या सवर्ण, अल्पसंख्यक हो या बहुसंख्यक, व्यवस्था और शासक वर्ग का समर्थक हो या विरोधी, उसके लेखन की गुणवत्ता के आधार पर प्रकाशित किया जाये। उसे किसी साहित्येतर कारण से भेदभाव या पक्षपात का शिकार न होना पड़े। यदि ऐसा बाज़ार बन जाये, तो लेखकों को यह भरोसा हो सकेगा कि उनके लेखन की परख साहित्यिक गुणवत्ता के आधार पर होगी और बाज़ार में उसका उचित मूल्य उन्हें मिलेगा।’’
जाहिर है कि साहित्य के लिए ऐसा बाजार हमारे देश में तो क्या, दुनिया भर में कहीं भी उपलब्ध नहीं है। साहित्य के प्रकाशन, विपणन, विज्ञापन, मूल्यांकन, पुरस्करण, प्रतिष्ठापन (कैननाइजेशन) आदि की समस्त प्रक्रियाएँ उस बाजार में चलती हैं, जो बुनियादी तौर पर साहित्येतर कारणों से नियंत्रित-निर्देशित बाजार है। ऐसे बाजार में लेखक स्वेच्छा से बिके या मजबूरी में, तमीज से बिके या फूहड़पन के साथ, उसकी सफलता-असफलता का निर्णय उसके साहित्य की गुणवत्ता के आधार पर नहीं, बल्कि साहित्येतर कारणों के आधार पर ही होगा।
अतः प्रश्न उठता है : ऐसा बाजार कैसे बन सकता है, जो वास्तव में साहित्य का बाजार हो? इस प्रश्न का कोई बना-बनाया उत्तर मेरे पास नहीं है। अतः मैं चाहता हूँ कि मेरे लेखक और पाठक मित्र इस प्रश्न पर विचार करें और इसका उत्तर खोजें।
--रमेश उपाध्याय
हिंदी के अखबारों की संख्या और उनकी प्रसार-संख्या को देखें, तो लगता है कि हिंदी के पाठक बढ़ रहे हैं
और वे करोड़ों की संख्या में हैं, लेकिन सोचें कि हिंदी का बेस्ट सेलर उपन्यास भी कितना छपता है? कितना बिकता है? हो सकता है, खूब बिकता हो, लेकिन क्या उसकी बिक्री के आधार पर मिलने वाले मेहनताने से लेखक अपने परिवार के साथ आराम से जी सकता है? हो सकता है, हों कुछ ऐसे भाग्यशाली, मगर वे कितने होंगे?
उन असंख्य लेखकों की सोचिए, जो साहित्य के इस बाजार में, जिसे बाजार कहना भी बाजार की तौहीन है, अपनी पुस्तक छपवाने के लिए प्रकाशक को मुँहमाँगी रकम देते हैं! प्रकाशक पैसा लेकर तीन सौ प्रतियाँ छापता है और पैसे के बदले सौ या पचास प्रतियाँ लेखक को देकर कहता है कि हिसाब बराबर! अब यह लेखक पर है कि वह उन प्रतियों को बेचे या बाँटे। लेखक उन प्रतियों को कहाँ और कैसे बेचे? किसी तरह बेच भी ले, तो उसे क्या मिलेगा? उसकी लागत भी नहीं निकलेगी। मगर वह जानता है कि हिंदी लेखकों को दिये जाने वाले असंख्य सरकारी और गैर-सरकारी पुरस्कार मौजूद हैं और उनमें से कोई ऐसा पुरस्कार भी मिल जाये तो गनीमत, जिससे प्रकाशक को दी हुई रकम वापस मिल जाये। रकम न मिले, गम नहीं; ऐसी साहित्यिक प्रतिष्ठा तो मिल ही जाये, जो भविष्य में उसे साहित्य के राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों के योग्य बना सके! तब हो सकता है कि वह हिंदी साहित्य के बाजार में न सही, अनुवाद के जरिये अखिल भारतीय और फिर अखिल भूमंडलीय बाजार में बिकने लायक बन जाये!
इस प्रकार हिंदी का वह लेखक, जो आज बड़े ठसके से कहता है कि वह बाजार में बिकने और अपने लेखन की ऊँची कीमत पाने में कोई बुराई नहीं समझता (‘‘जब चित्रकार हुसैन बाजार में बिक सकते हैं, तो हम क्यों नहीं?), दरअसल उस बाजार में बिकने की बात कर रहा होता है, जो वास्तव में कोई बाजार है ही नहीं! अगर उसे बाजार कहा ही जाना हो, तो वह ऐसा बाजार है, जिसमें लेखक पाठक या ग्राहक के लिए नहीं, पुरस्कारदाताओं के लिए लिखता है; प्रकाशक पाठक या ग्राहक के लिए नहीं, थोक सरकारी खरीद के लिए किताब छापता है; सरकारी खरीद करने वाला अफसर किताब की क्वालिटी और कीमत नहीं, अपना कमीशन देखता है और उसे इससे कोई मतलब नहीं होता कि किताब पाठकों तक पहुँचे। यही वजह है कि हिंदी में क्या छपता है, कहाँ बिकता है और पाठक तक न पहुँचकर कहाँ ‘डंप’ हो जाता है, कोई नहीं जानता!
क्या इसे साहित्य का बाजार कहा जा सकता है? यदि नहीं, तो हम हिंदी लेखकों को गंभीरतापूर्वक सोचना चाहिए कि बाजार के समर्थक के रूप में ही नहीं, बाजार के विरोधी के रूप में भी हम क्या कर रहे हैं!
मुझे बाजार-विरोधी समझा जाता है, लेकिन मैं बाजार का नहीं, बाजारवाद का विरोधी हूँ। इसीलिए मैंने 17 मई, 2011 को यहीं पर ‘साहित्य में जगह बनानी है या बाजार में?’ शीर्षक टिप्पणी में कहा था कि ‘‘मैं बाज़ार का विरोधी नहीं हूँ। मैं तो दिल से चाहता हूँ कि साहित्य का बाज़ार बढ़े। साहित्य खूब छपे, खूब बिके, ज्यादा से ज्यादा पाठकों तक पहुंचे। प्रकाशक और मीडिया के मालिक शौक से उसे बेच कर मुनाफा कमायें और लेखकों को भी इतना मेहनताना दें कि वे अपने लेखन के दम पर आराम से जी सकें। किसी भी लेखक को, चाहे वह नया हो या पुराना, स्त्री हो या पुरुष, दलित हो या सवर्ण, अल्पसंख्यक हो या बहुसंख्यक, व्यवस्था और शासक वर्ग का समर्थक हो या विरोधी, उसके लेखन की गुणवत्ता के आधार पर प्रकाशित किया जाये। उसे किसी साहित्येतर कारण से भेदभाव या पक्षपात का शिकार न होना पड़े। यदि ऐसा बाज़ार बन जाये, तो लेखकों को यह भरोसा हो सकेगा कि उनके लेखन की परख साहित्यिक गुणवत्ता के आधार पर होगी और बाज़ार में उसका उचित मूल्य उन्हें मिलेगा।’’
जाहिर है कि साहित्य के लिए ऐसा बाजार हमारे देश में तो क्या, दुनिया भर में कहीं भी उपलब्ध नहीं है। साहित्य के प्रकाशन, विपणन, विज्ञापन, मूल्यांकन, पुरस्करण, प्रतिष्ठापन (कैननाइजेशन) आदि की समस्त प्रक्रियाएँ उस बाजार में चलती हैं, जो बुनियादी तौर पर साहित्येतर कारणों से नियंत्रित-निर्देशित बाजार है। ऐसे बाजार में लेखक स्वेच्छा से बिके या मजबूरी में, तमीज से बिके या फूहड़पन के साथ, उसकी सफलता-असफलता का निर्णय उसके साहित्य की गुणवत्ता के आधार पर नहीं, बल्कि साहित्येतर कारणों के आधार पर ही होगा।
अतः प्रश्न उठता है : ऐसा बाजार कैसे बन सकता है, जो वास्तव में साहित्य का बाजार हो? इस प्रश्न का कोई बना-बनाया उत्तर मेरे पास नहीं है। अतः मैं चाहता हूँ कि मेरे लेखक और पाठक मित्र इस प्रश्न पर विचार करें और इसका उत्तर खोजें।
--रमेश उपाध्याय
Tuesday, May 17, 2011
साहित्य में जगह बनानी है या बाज़ार में?
मैं बाज़ार का विरोधी नहीं हूँ। मैं तो दिल से चाहता हूँ कि साहित्य का बाज़ार बढ़े। साहित्य खूब छपे, खूब बिके, ज्यादा से ज्यादा पाठकों तक पहुंचे। प्रकाशक और मीडिया के मालिक शौक से उसे बेच कर मुनाफा कमायें और लेखकों को भी इतना मेहनताना दें कि वे अपने लेखन के दम पर आराम से जी सकें। किसी भी लेखक को, चाहे वह नया हो या पुराना, स्त्री हो या पुरुष, दलित हो या सवर्ण, अल्पसंख्यक हो या बहुसंख्यक, व्यवस्था और शासक वर्ग का समर्थक हो या विरोधी, उसके लेखन की गुणवत्ता के आधार पर प्रकाशित किया जाये। उसे किसी साहित्येतर कारण से भेदभाव या पक्षपात का शिकार न होना पड़े। यदि ऐसा बाज़ार बन जाये, तो लेखकों को यह भरोसा हो सकेगा कि उनके लेखन की परख साहित्यिक गुणवत्ता के अधर पर होगी और बाज़ार में उसका उचित मूल्य उन्हें मिलेगा। तब वे बाज़ार में अपनी जगह बनाने के बजाय साहित्य में अपनी जगह बनाने का प्रयास करेंगे।
साहित्य में अपनी जगह बनाना बाज़ार में अपनी जगह बनाने से नितांत भिन्न प्रक्रिया है। साहित्य में अपनी जगह बनाने के लिए आप अपनी भाषा और साहित्य के इतिहास को जानेंगे, उसकी विभिन्न परम्पराओं को समझेंगे, उनमें से किसी एक परंपरा से जुड़कर उसे आगे बढ़ाएंगे और इसमें जो दिक्कतें आयेंगी, उनका साहस और दृढ़तापूर्वक सामना करेंगे। इसके लिए आप अपने समानधर्माओं से जुड़ेंगे और ज़रुरत पड़ने पर मिल-जुलकर कोई साहित्यिक आन्दोलन चलाएंगे। यदि सत्ता और व्यवस्था की ओर से विरोध या दमन होगा, तो डटकर उसका सामना करेंगे और असफल या शहीद हो जाने की कीमत पर भी साहित्य में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करते रहेंगे।
दूसरी तरफ बाज़ार में अपनी जगह बनाने के लिए आप यह देखेंगे कि साहित्य के नाम पर आजकल बाज़ार में क्या चल रहा है या क्या बिक रहा है। तब, भाषा और साहित्य का इतिहास जाये भाड़ में, उसकी परम्पराएँ जाएँ भट्ठी में, आप वही और वैसा ही लिखेंगे, जो बाज़ार में चल रहा है या बिक रहा है। फिर आप यह भी अवश्य देखेंगे कि बाज़ार के लिए जो 'माल' अपने तैयार किया है, वह कहाँ, कैसे, किन तरकीबों से और किन व्यापारियों, एजेंटों, विज्ञापनकर्ताओं आदि की मदद से ऊंची कीमत पर बिक सकता है। उनसे आप तरह-तरह के समझौते करेंगे और उनके इशारों पर अपने लेखन को ही नहीं, अपने-आप को भी बाज़ार में आसानी से और ऊंची कीमत पर बिक सकने वाला लेखक बनायेंगे।
आज के बाजारवादी समय में कई लेखकों को इसमें कोई बुराई नज़र नहीं आती कि उनका लेखन ही नहीं, वे खुद भी एक बिकाऊ माल बन रहे हैं। मान लीजिये, कोई संपादक या प्रकाशक, जो साहित्य नामक माल को बेचकर मुनाफा कमाना चाहता है, जिसे भाषा और साहित्य के इतिहास और विकास से कोई लेना-देना नहीं है, जो इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहता कि आज की दुनिया में चल रहा स्त्री आन्दोलन क्या है, उसका इतिहास-भूगोल तथा उद्देश्य क्या है, उससे सम्बंधित स्त्री लेखन का मूल्य और महत्त्व क्या है, वह स्त्री लेखन को महज़ एक उत्पाद मानकर बेचना चाहता है, तो उसके प्रति लेखिकाओं का क्या रवैया होना चाहिए?
अपने साहित्य के दम पर साहित्य में अपनी जगह बनाने वाली लेखिका ऐसे संपादक-प्रकाशक से कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहेगी, जबकि बाज़ार में अपनी जगह बनाना चाहने वाली लेखिका उसकी इस बेहूदगी को यह सोचकर बर्दाश्त कर जाएगी कि यह बेहूदा है तो क्या, मुझे लेखिका तो बना रहा है। वह शायद यह भी नहीं समझ पायेगी कि यह मुझे एक बाजारू वस्तु की तरह बेच रहा है।
--रमेश उपाध्याय
साहित्य में अपनी जगह बनाना बाज़ार में अपनी जगह बनाने से नितांत भिन्न प्रक्रिया है। साहित्य में अपनी जगह बनाने के लिए आप अपनी भाषा और साहित्य के इतिहास को जानेंगे, उसकी विभिन्न परम्पराओं को समझेंगे, उनमें से किसी एक परंपरा से जुड़कर उसे आगे बढ़ाएंगे और इसमें जो दिक्कतें आयेंगी, उनका साहस और दृढ़तापूर्वक सामना करेंगे। इसके लिए आप अपने समानधर्माओं से जुड़ेंगे और ज़रुरत पड़ने पर मिल-जुलकर कोई साहित्यिक आन्दोलन चलाएंगे। यदि सत्ता और व्यवस्था की ओर से विरोध या दमन होगा, तो डटकर उसका सामना करेंगे और असफल या शहीद हो जाने की कीमत पर भी साहित्य में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करते रहेंगे।
दूसरी तरफ बाज़ार में अपनी जगह बनाने के लिए आप यह देखेंगे कि साहित्य के नाम पर आजकल बाज़ार में क्या चल रहा है या क्या बिक रहा है। तब, भाषा और साहित्य का इतिहास जाये भाड़ में, उसकी परम्पराएँ जाएँ भट्ठी में, आप वही और वैसा ही लिखेंगे, जो बाज़ार में चल रहा है या बिक रहा है। फिर आप यह भी अवश्य देखेंगे कि बाज़ार के लिए जो 'माल' अपने तैयार किया है, वह कहाँ, कैसे, किन तरकीबों से और किन व्यापारियों, एजेंटों, विज्ञापनकर्ताओं आदि की मदद से ऊंची कीमत पर बिक सकता है। उनसे आप तरह-तरह के समझौते करेंगे और उनके इशारों पर अपने लेखन को ही नहीं, अपने-आप को भी बाज़ार में आसानी से और ऊंची कीमत पर बिक सकने वाला लेखक बनायेंगे।
आज के बाजारवादी समय में कई लेखकों को इसमें कोई बुराई नज़र नहीं आती कि उनका लेखन ही नहीं, वे खुद भी एक बिकाऊ माल बन रहे हैं। मान लीजिये, कोई संपादक या प्रकाशक, जो साहित्य नामक माल को बेचकर मुनाफा कमाना चाहता है, जिसे भाषा और साहित्य के इतिहास और विकास से कोई लेना-देना नहीं है, जो इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहता कि आज की दुनिया में चल रहा स्त्री आन्दोलन क्या है, उसका इतिहास-भूगोल तथा उद्देश्य क्या है, उससे सम्बंधित स्त्री लेखन का मूल्य और महत्त्व क्या है, वह स्त्री लेखन को महज़ एक उत्पाद मानकर बेचना चाहता है, तो उसके प्रति लेखिकाओं का क्या रवैया होना चाहिए?
अपने साहित्य के दम पर साहित्य में अपनी जगह बनाने वाली लेखिका ऐसे संपादक-प्रकाशक से कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहेगी, जबकि बाज़ार में अपनी जगह बनाना चाहने वाली लेखिका उसकी इस बेहूदगी को यह सोचकर बर्दाश्त कर जाएगी कि यह बेहूदा है तो क्या, मुझे लेखिका तो बना रहा है। वह शायद यह भी नहीं समझ पायेगी कि यह मुझे एक बाजारू वस्तु की तरह बेच रहा है।
--रमेश उपाध्याय
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