Tuesday, March 31, 2009

आत्मकथात्मक लेखन की राजनीति

साहित्य की सेलेब्रिटीज़ से सावधान!

'Intimations of Postmodernity', 'Postmodern Ethics', 'Life in Fregments : Esseys in Postmodern Morality', 'Globalization : The Human Consiquences' आदि महत्त्वपूर्ण पुस्तकों के लेखक जिग्मुंट बौमाँ के जीवनीकारों ने, जिनमें 'Winter in the Morning' नामक उनकी जीवनी लिखने वाली उनकी पत्नी जेनिना बौमाँ भी शामिल हैं, बताया है कि उन्हें एक पोलिश यहूदी होने के नाते बहुत कुछ सहना पड़ा--जैसे हिटलर के डर से अपना देश छोड़कर भागना पड़ा, दूसरे देशों में शरण लेकर रहना पड़ा, मातृभाषा में लिखना छोड़कर अन्य भाषाओं में लेखन करना पड़ा, इत्यादि--लेकिन उन्होंने आत्मकथा के रूप में यह सब लिखकर दुनिया को बताना ज़रूरी नहीं समझा।

एक साक्षात्कार में जब उनसे पूछा गया कि उन्होंने आत्मकथा क्यों नहीं लिखी, तो रिचर्ड सेंनेट की पुस्तक 'The Fall of Public Man' का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि वर्तमान 'पौपुलर कल्चर' ने आत्मकथात्मक लेखन को एक बाजारू चीज़ बना दिया है। इसने सार्वजनिक जीवन को नष्ट कर दिया है और निजी तथा सार्वजनिक का भेद मिटा दिया है। पहले सार्वजनिक जीवन में सभ्य और शिष्ट आचरण करने वाला व्यक्ति अच्छा माना जाता था, जबकि इस संस्कृति के चलते अच्छा व्यक्ति वह है, जो सार्वजनिक रूप से (जैसे टेलीविजन के चैटशो में) सबको सब कुछ बताने को तैयार रहता है। अब लोग 'सच्चा' और 'प्रामाणिक' उसी को मानते हैं, जो अन्तरंग संबंधों का व्यापार करता है--यानी अपने निजी जीवन में दूसरों को ताक-झांक करने की खुली छूट देता है और दूसरों के निजी जीवन में ताक-झांक करके उसकी 'प्रामाणिक सूचना' बाज़ार में बेचने का काम करता है। पहले व्यक्ति अच्छा बनने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र में जाकर काम करता था और 'सार्वजनिक मनुष्य' बनता था, जबकि आज उसे अच्छा बनने के लिए अपने और दूसरों के निजी जीवन को सबके सामने उघाड़कर 'सेलेब्रिटी' बनना पड़ता है। 'सार्वजनिक मनुष्य' अपनी ज़िन्दगी को बदलना और अपनी दुनिया को बेहतर बनाना चाहने वाले लोगों के साथ सामूहिक आन्दोलन और संघर्ष करता है, जबकि 'सेलेब्रिटी' बना व्यक्ति एक स्वार्थपूर्ण बाजारू लेन-देन करता है, जिसका आधार होती है 'cult of celebrity' वाली यह बाजारू 'नैतिकता' कि हम में और दूसरों में एक ही चीज़ समान है और वह यह कि दूसरों की तरह हमारे भी कुछ रहस्य हैं, हम ने भी कुछ झूठ बोले हैं, हम ने भी कुछ पाप किए हैं। और जब हम अपना सच सबके सामने उघाड़ रहे हैं, तो हमें भी दूसरों को नंगा करने का हक़ है!

बौमाँ का कहना है कि आत्मकथा लिखने से इनकार करने का मतलब है इस बाजारू खेल में शामिल होने से इनकार करना, जिसमें कुछ लोगों को तो मज़ा आता है, लेकिन जिसकी सज़ा जनता को भुगतनी पड़ती है--इस रूप में कि इस खेल के चलते उसे सार्वजनिक जीवन से, अर्थात अपनी ज़िन्दगी को बदलने तथा अपनी दुनिया को बेहतर बनाने के लिए की जाने वाली सिद्धांत-आधारित तथा सम्मानपूर्ण राजनीति से वंचित कर दिया जाता है।

--रमेश उपाध्याय

Thursday, March 12, 2009

नई पीढ़ी और नवलेखन के बारे में

जब मैं युवा लेखक था...

हिन्दी साहित्य में आज एक बार फिर युवा पीढ़ी और नवलेखन चर्चा में है। मुझे अपनी युवावस्था याद आती है। मेरी पहली कहानी 'एक घर की डायरी' अजमेर से प्रकाशित होने वाली साहित्यिक पत्रिका 'लहर' के सितम्बर, १९६२ के अंक में छपी थी। उसी के जुलाई, १९६१ के अंक में प्रसिद्ध आलोचक शिवदान सिंह चौहान ने लिखा था :

"हमारे कुछ नए आलोचक, और उनकी देखा-देखी विचारहीन अध्यापक, नयी और पुरानी पीढ़ी की चर्चा करने लगे हैं। कुछ इस खतरनाक अंदाज़ में, मानो पुरानी पीढ़ी के लेखक सारे के सारे दकियानूसी नज़रिए के हों और नए लेखक सारे के सारे युग की नवीनतम चेतना के वाहक हों।...मुझसे पूछिए, तो मैं साहित्य में नई या पुरानी किसी भी पीढ़ी का न कायल हूँ, न हमदर्द और न मुरीद। मैं सिर्फ़ प्रतिभा का कायल हूँ, चाहे लेखक नई पीढ़ी का हो या पुरानी। और जीवन के प्रति व्यापक मानववादी प्रगतिशील दृष्टिकोण का हामी हूँ, इसलिए ऐसा दृष्टिकोण अगर पुरानी पीढ़ी के लेखन में मिले तो, और नई पीढ़ी के लेखन में मिले तो, मैं उसका दोस्त, हमदर्द और हमनवा हूँ।...नई और पुरानी दोनों पीढ़ियों में कुछ प्रतिभावान हैं, तो अधिकतर प्रतिभाहीन लेखक हैं, जैसा कि हर ज़माने में रहा है, और दोनों पीढ़ियों में कुछ उदार और व्यापक मानवीय दृष्टिकोण वाले हैं, तो कुछ संकीर्ण- हृदय और मानवद्रोही दृष्टि वाले लेखक हैं। नए 'शिल्प-सौंदर्य', 'कथन-वैचित्र्य' आदि का इजारा न नई पीढ़ी के लेखकों के पास है और न पुरानी पीढ़ी के लेखकों के पास, न मानववादी दृष्टिकोण वालों के पास है और न मानवद्रोही दृष्टिकोण वालों के पास। इसलिए आप ख़ुद देख सकते हैं कि ऐसे समष्टि-सूचक शब्दों (नई कहानी या नई पीढ़ी) के प्रयोग, जिनका कोई तात्विक आधार नहीं है, कितना बड़ा घपला पैदा कर देते हैं।"

क्या ये बातें आज के नए पीढ़ीवाद के सन्दर्भ में सहसा पुनः प्रासंगिक नहीं हो उठी हैं?

--रमेश उपाध्याय