Tuesday, April 22, 2014

कार-कथा

 रमेश उपाध्याय की कहानी

‘‘अरे, कपूर साहब, आप? नमस्ते! आइए, बैठिए, कैसे हैं?’’

‘‘अहा, नमस्ते, वर्मा जी! बस में सीट और आप जैसे सज्जन का साथ मिल जाये, तब तो सब ठीक होना ही हुआ!’’

‘‘लेकिन आज आप बस में कैसे?’’

‘‘कार पुरानी हो गयी थी, बेच दी।’’

‘‘लेकिन पिछली बार आप मिले थे, तब तो कह रहे थे कि उसकी जगह नयी खरीद ली है?’’

‘‘हाँ, खरीदी थी, लेकिन वह मैंने अपनी छोटी बहू को दे दी। क्या है कि मेरे दोनों लड़कों के पास तो अपनी-अपनी गाड़ी थी ही और बड़ी बहू अपने लिए अपने दहेज में ले आयी थी। छोटी बहू थोड़े कमजोर घर की है, वह नहीं ला सकी, तो अपनी उसे मैंने दे दी।’’

‘‘मतलब, आपके घर में चार गाड़ियाँ हैं?’’

‘‘वैसे तो पाँच होनी चाहिए। चार बेटों-बहुओं की और पाँचवीं मेरे और मेरी वाइफ के लिए। बड़ा तो कह रहा है कि आप मेरी वाली ले लो। क्या है कि उसे नये मॉडल की कारें खरीदने का खब्त है। एक पुरानी हो नहीं पाती कि तब तक उसे बेचकर नये मॉडल की दूसरी ले लेता है। कह रहा था--मुझे तो बेचनी ही है, आप ले लो।’’

‘‘तो आप ले लेते! बसों में क्यों धक्के खाते फिर रहे हैं?’’

‘‘अब क्या है कि मैं और वाइफ जब से रिटायर हुए हैं, हम दोनों की कोई पब्लिक लाइफ तो रही नहीं। वाइफ दिन-रात नौकरानी की तरह घर में खटती रहती हैं और मैं दिन भर घरेलू नौकर की तरह बाहर के कामों के लिए दौड़ता रहता हूँ। जिनको पैदा किया, पाला-पोसा, पढ़ाया-लिखाया; जिनके लिए तमाम जायज-नाजायज तरीकों से पैसा कमाकर मकान बनवाया; जिनका कैरियर बनाने और घर बसाने के लिए दुनिया भर की भाग-दौड़ और जोड़-तोड़ की; वे आज हमारे घर के ही नहीं, हमारे भी मालिक बन बैठे हैं। मैं और वाइफ दिन-रात उनकी सेवा में लगे रहते हैं। अपने लिए कोई वक्त ही नहीं बचता। सो जब कहीं आना-जाना ही नहीं, तो गाड़ी रखकर क्या करें?’’

‘‘तो इस समय आप कहाँ जा रहे हैं?’’

‘‘क्या है कि सुबह-सुबह दूध लाने गये। फिर बच्चों के बच्चों को उनकी स्कूल बस तक छोड़ने गये। फिर सब्जियाँ, फल, अंडे, मक्खन, ब्रेड वगैरह लेने गये। नाश्ता करके बिजली का बिल जमा कराने गये। लौटकर नहाने-खाने के बाद थोड़ा आराम करने की सोच ही रहे थे कि बड़ी बहू का फोन आ गयाµमेरे लिए कनॉट प्लेस के खादी भंडार से हर्बल शैंपू ले आओ!’’

‘‘तो आप कनॉट प्लेस जा रहे हैं! मैं भी वहीं जा रहा हूँ। चलिए, अच्छा है। बहुत दिन हो गये आपसे मिल-बैठकर बातें किये। कॉफी होम चलेंगे, वहाँ बैठकर कॉफी पियेंगे, गपशप करेंगे और आपकी बहू के लिए हर्बल शैंपू लेकर साथ-साथ ही लौट आयेंगे।’’

‘‘मगर आप कनॉट प्लेस किस काम से जा रहे हैं?’’

‘‘समझिए कि आपकी बहू के लिए हर्बल शैंपू लेने।’’

‘‘मजाक मत कीजिए। वैसे आप न बताना चाहें, तो...’’

‘‘अरे, नहीं-नहीं, कपूर साहब! आप जैसे भले पड़ोसी से क्या छिपाना! बात यह है कि हमारे बच्चे तो, आप जानते हैं, दिल्ली में हैं नहीं। बेटा-बहू बंगलौर में हैं और बेटी सिंगापुर में। यहाँ हम मियाँ-बीवी दो ही हैं। भाभीजी की तरह मेरी बीवी तो नौकरी में थी नहीं। घर की मालकिन कहिए या नौकरानी, सब कुछ शुरू से वही है। लेकिन मेरी पेंशन हम दोनों के लिए काफी है। फ्लैट उस समय ले लिया था, जब मकान सस्ते थे और दफ्तर से इतना लोन मिल जाता था कि छोटा-सा फ्लैट लिया जा सके। गाड़ी-वाड़ी पहले भी कभी नहीं रखी। अपने लिए तो हमेशा दिल्ली परिवहन निगम ही जिंदाबाद रहा। अब तो अपने इलाके में मेट्रो भी आ गयी है, लेकिन मेट्रो स्टेशन हमारे लिए थोड़ा दूर पड़ता है, इसलिए ज्यादातर बस से ही आते-जाते हैं। वैसे, सीट मिल जाये, तो बस से बेहतर कोई सवारी नहीं। अंदर-बाहर के नजारे देखिए, लोगों से बातें कीजिए, आराम करना चाहें तो आँखें बंद करके एक झपकी ले लीजिए। और अब कहीं टाइम पर हाजिरी देने तो जाना नहीं। दोपहर के खाने के बाद श्रीमती जी शाम तक आराम करती हैं। मैं थोड़ा सैर-सपाटा करने और दोस्तों के साथ कॉफी पीने कनॉट प्लेस चला जाता हूँ। घंटे-डेढ़ घंटे बैठे, गपशप की, तरोताजा हुए और शाम तक वापस घर।’’

‘‘आप खुशकिस्मत हैं, वर्मा जी! बेटा-बहू बंगलौर में क्या करते हैं?’’

‘‘दोनों सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। अच्छा कमाते हैं, लेकिन घूमने-फिरने के अलावा उन्हें कोई शौक नहीं। पैसा जोड़ा, छुट्टी ली और देश या विदेश में कहीं घूम आये। दो-तीन बार हम दोनों को भी घुमा लाये हैं।’’

‘‘और आपकी लड़की?’’

‘‘वह एम.बी.ए. करके दिल्ली में एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने लगी थी। वहीं एक लड़का मिल गया, जिससे उसने प्रेम विवाह कर लिया। शादी के बाद दोनों को सिंगापुर में बेहतर जॉब मिल गयी, तो वहाँ चले गये। इसी तरह लड़के ने भी अपने साथ काम करने वाली लड़की से प्रेम विवाह किया है और वे दोनों भी खुश हैं।’’

‘‘आप वाकई खुशकिस्मत हैं, वर्मा जी! आपके बच्चे आपकी अकेले की कमाई के बावजूद अच्छी तरह पढ़-लिखकर काबिल बन गये। इधर मैंने और मुझसे ज्यादा वाइफ ने दोनों लड़कों पर पानी की तरह पैसा बहाया। लेकिन वे पढ़ाई-लिखाई में मन लगाने की जगह मौज-मस्ती में ही डूबे रहे। हमारे यहाँ शुरू से दो गाड़ियाँ थींµएक मेरी, एक वाइफ की। लेकिन लड़कों ने कॉलेज के जमाने में ही दोनों हथिया लीं। साथ के लड़कों और लड़कियों को अपनी गाड़ियों में घुमाना, एक्सीडंेट और लड़ाई-झगड़े करना, बेकार में पेट्रोल और पैसा फूँकना। कई बार पुलिस के चक्कर में भी फँसे। ऐसे लड़कों को अच्छी जॉब कैसे मिलती? मैंने ही जैसे-तैसे जुगाड़ लगाकर उनको नौकरियाँ दिलायीं और उनकी शादियाँ करायीं। बहुएँ दोनों बेहतर पढ़ी-लिखी हैं और लड़कों से बेहतर जॉब में हैं। बड़ी बहू तो काफी पैसे वाले परिवार की है। छोटी बहू, जैसा कि मैंने आपको बताया, जरा कमजोर घर की है, लेकिन छोटे लड़के से ज्यादा पढ़ी है और ज्यादा कमाती है। मगर छोटा लड़का उसकी कद्र नहीं करता। दहेज न लाने के लिए ताने देता रहता है। सबसे बड़ा ताना यह कि वह दहेज में कार क्यों नहीं लायी। मुझे डर लगा कि यह लड़का कार के कारण कहीं बहू को मार न डाले, इसलिए अपनी नयी कार मैंने उसे दे दी।’’

‘‘अच्छा किया।’’

‘‘लेकिन, वर्मा जी, इससे एक नयी मुसीबत खड़ी हो गयी है। मैंने आपको बताया न, बड़े लड़के को नये-नये मॉडलों की कारें खरीदने का खब्त है। मुझसे कह रहा है कि मेरी पुरानी कार आप ले लो। जानते हैं, क्यों? पुरानी कार बेचने से उसे उतने पैसे नहीं मिलेंगे, जितने नयी कार के लिए चाहिए। इसलिए वह चाहता है कि मैं उसकी कार ले लूँ और उसे उतना पैसा दे दूँ, जितने में नयी गाड़ी आ जाये। मैंने कहा कि मुझे गाड़ी की जरूरत नहीं है, तो बोला कि तुमने छोटे भाई को गाड़ी दी है, तो मुझे भी दो। समझे आप? मेरे जीते जी मेरे पैसे पर अपना हक जता रहा है और मुझे नैतिकता सिखा रहा है!’’


‘‘फिर आपने क्या सोचा?’’

‘‘मैंने तो साफ कह दिया कि जब तक जिंदा हूँ, मेरी मर्जी कि मैं अपने पैसे का क्या करूँ। मुझे तेरी कार नहीं चाहिए। वैसे ही हमारे घर में चार कारें होने से पार्किंग की ऐसी प्रॉब्लम पैदा हो गयी है कि आये दिन पड़ोसियों से झगड़े होने लगे हैं। मुझे तो डर लगता है। आजकल ऐसे झगड़ों में गोलियाँ तक चल जाती हैं।’’


‘‘वैसे गाड़ी न रखना अच्छा ही है। अब दिल्ली में ड्राइव करना टेंशन और परेशानी मोल लेने के सिवा कुछ नहीं। बाहर देखिए, सड़क पर कितनी गाड़ियाँ हैं और दौड़ने के बजाय कैसे रेंग रही हैं।’’

‘‘वाकई हद हो गयी है। अब तो कारों की खरीद-बिक्री पर कोई रोक लगनी ही चाहिए।’’

‘‘जी, हाँ, अब उससे कार कंपनियों के अलावा किसी को कोई फायदा नहीं।’’

‘‘फायदा? कहिए कि नुकसान ही नुकसान है। एक तरफ तो बेशुमार पैसे और पेट्रोल की बर्बादी और दूसरी तरफ पॉल्यूशन, क्राइम और करप्शन में दिन दूनी बढ़ोतरी!’’

‘‘बिलकुल सही कहा आपने। कारों के कारण सड़कों पर क्राइम कितना बढ़ गया है!’’

‘‘सही कहने वाले तो बहुत हैं, भाई, पर सुनता कौन है?’’

‘‘क्यों? मैं सुन रहा हूँ। ये भाईसाहब सुन रहे हैं। वो बहनजी सुन रही हैं। कंडक्टर साहब भी सुन रहे हैं। क्यों, कंडक्टर साहब? सुन रहे हैं न?’’

‘‘जी, साहब जी! सब सुन रहे हैं और समझ भी रहे हैं। लेकिन बुरा न मानें तो एक बात कहें? जिनके घरों में चार-चार गाड़ियाँ हैं, पहले उनको ही कुछ सोचना और करना चाहिए।’’

Sunday, March 16, 2014

बाजारूपन के खतरों के बीच एक अलग पगडंडी की खोज : राजेश जोशी

'समावर्तन' के मार्च, 2014 के अंक में राजेश जोशी ने मेरी आत्मकथात्मक पुस्तक 'मेरा मुझ में कुछ नहीं' पर जो लिखा है, वह मैं यहाँ साझा कर रहा हूँ.--रमेश उपाध्याय 

 


'मेरा मुझ में कुछ नहीं' को पढ़ते हुए
(कुछ टूटी-बिखरी-सी टीपें)
राजेश जोशी 




‘मेरा मुझ में कुछ नहीं’ को पढ़ते हुए लगता है, जैसे रमेश उपाध्याय ने समानांतर चलती तीन समवर्ती प्रक्रियाओं को बिना किसी अतिरिक्त बलाघात के सहजता के साथ इसमें दर्ज कर दिया है। इस महाजीवन के बीच उम्र के फासलों को नापते हुए एक व्यक्ति के बनने की प्रक्रिया, व्यक्ति के रचनाकार बनने की प्रक्रिया और रचना के बनने की प्रक्रिया। आत्मकथात्मक अंश हों या जीवन, समाज और साहित्य के सवालों से जूझते विमर्श हों, सब एक-दूसरे से गुँथे-बुने हैं। इसलिए किसी भी एक अंश को दूसरे से अलगाकर नहीं देखा जा सकता। अक्षरों, मात्राओं, संयुक्ताक्षर, विरामचिह्न आदि से शब्द और वाक्य बनाते हुए बायें और दायें हाथ के बीच, शब्दों के बीच एक सही-सही स्पेस बनाते हुए गेज नापकर वे पेज बनाते चले गये हैं। बिना किसी प्रसंग को अलग से अंडरलाइन करते हुए भी उन्होंने सारी स्थितियों और वृत्तांतों को डोरी से बाँध दिया है। उन्होंने इसके प्रूफ पढ़कर यहाँ रख दिये हैं। जुजे सरामागु के उपन्यास ‘लिस्बन की घेराबंदी का इतिहास’ का प्रूफ रीडर जैसे अपनी ही आत्मकथा को कंपोज भी कर रहा है और उसका प्रूफ भी पढ़ रहा है। यह एक ऐसी आत्मकथा है, जो आत्मकथा नहीं है। किताब का प्रारंभ ही इस कथन से होता है कि ‘‘मुझे अपने बारे में लिखना-बोलना पसंद है, लेकिन मैं आत्मकथा नहीं लिखना चाहता’’।

आत्मकथात्मक अंशों को भी रमेश उपाध्याय कथात्मक होने से बचाते हैं। उनमें आत्म के विस्तार के कई वृत्तांत हैं, लेकिन उन्हें कथात्मक होने या बनाने से रमेश उपाध्याय बचाते-से लगते हैं। वे आत्मकथा के खतरों के प्रति भी सतर्क हैं और कथा के खतरों के प्रति भी। पहले ही अध्याय में यह आत्मस्वीकृति दर्ज है कि अपने बारे में लिखना-बोलना मुझे पसंद है, लेकिन मैं आत्मकथा नहीं लिखना चाहता। रिचर्ड सेन्नेट की पुस्तक ‘दि फॉल ऑफ पब्लिक मैन’ के एक अंश का उन्होंने हवाला दिया है, जिसमें वह कहता है कि ‘‘वर्तमान ‘पॉपुलर कल्चर’ ने आत्मकथात्मक लेखन को एक बाजारू चीज बना दिया है। इसने सार्वजनिक जीवन को नष्ट कर दिया है और निजी तथा सार्वजनिक के बीच का भेद मिटा दिया है। पहले सार्वजनिक जीवन में सभ्य और शिष्ट आचरण करने वाला व्यक्ति ‘अच्छा’ माना जाता था, जबकि इस संस्कृति के चलते ‘अच्छा’ व्यक्ति वह है, जो सार्वजनिक रूप से (मसलन, टेलीविजन के चैट शो में) सबको सब कुछ बताने को तैयार रहता है। अब लोग ‘सच्चा’ और ‘प्रामाणिक’ उसी व्यक्ति को मानते हैं, जो अंतरंग संबंधों का व्यापार करता हैµयानी अपने निजी जीवन में दूसरों को ताक-झाँक करने की खुली छूट देता है और दूसरों के निजी जीवन में ताक-झाँक करके उसकी ‘प्रामाणिक सूचना’ बाजार में बेचने का काम करता है।’’

रमेश उपाध्याय की यह एक बड़ी खूबी है कि वे अपनी दिक्कतों की बात भी एक बड़े परिप्रेक्ष्य में करते हैं। समस्या सिर्फ खुद के द्वारा आत्मकथा लिखने तक सीमित नहीं है, सवाल इस समय में आत्मकथात्मक लेखन के खतरों को समझने का है। यह खतरा सिर्फ आत्मकथा तक महदूद नहीं है, कथा पर भी यह खतरा मँडरा रहा है। कथा और बाजारवाद में टकराव की स्थिति बन रही है। ‘कथा को साहित्य बनाये रखने के लिए’ वाली टिप्पणी में भी इस खतरे की ओर संकेत करते हुए रमेश उपाध्याय ने लिखा है कि ‘‘कथासाहित्य के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती यह है कि ‘कथा’ को ‘साहित्य’ कैसे बनाये रखा जाये। बाजारवाद ने यों तो साहित्य की सभी विधाओं को पण्यवस्तु बना दिया है, लेकिन कहानी को (चाहे वह ‘कहानी’ के रूप में लिखी जाये, या ‘उपन्यास’ के रूप में, या फिल्म और टेलीविजन कार्यक्रमों की पटकथा के रूप में) सबसे ज्यादा बाजारू बनाया है।’’ कथा पर मँडराते इस खतरे से जूझने की एक मुसलसल कोशिश उनके लेखों और टिप्पणियों में हर जगह नजर आती है। इस समय सवाल सेलेब्रिटी बनने से इनकार करके बाजारू लेखन में शामिल होने से इनकार करने का है।

किताब की भूमिका में उन्होंने इस बात से इनकार करते हुए कि वे कोई ‘सेल्फमेड मैन’ हैं, पाओलो फ्रेरे का यह कथन उद्धृत किया है कि ‘‘दुनिया में कोई व्यक्ति अपना निर्माण स्वयं नहीं करता। शहर के जिन कोनों में ‘स्वनिर्मित’ लोग रहते हैं, वहाँ बहुत-से अनाम लोग छिपे रहते हैं।’’ इस पूरी किताब की संरचना को समझने के लिए भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है, जितना रमेश उपाध्याय के बनने की प्रक्रिया को समझने के लिए। इस किताब में ऐसे अनेक मित्रों, परिचितों और रचनाओं तथा उनके पात्रों का जिक्र आता है, जिन्होंने रमेश उपाध्याय के व्यक्तित्व और उनके रचनाकार के मानस को बनाने में तरह-तरह से अपनी भूमिका अदा की है। 

: दो :

मैं इस किताब का क्रम तैयार कर रहा होता, तो शायद ‘मेरे अध्ययन का विकास-क्रम’ वाले अध्याय को पहले रखना चाहता और ‘अजमेर में पहली बार’ को उसके बाद। यूँ तो जीवनानुभव और जीवन-प्रसंगों के अनेक टुकड़े यहाँ-वहाँ पूरी किताब में ही बिखरे हुए हैं, लेकिन ‘मेरे अध्ययन का विकास-क्रम’ में बचपन की और बाद के जीवन की कुछ मार्मिक छवियाँ थोड़ी कोताही बरतने के बावजूद सिलसिलेवार ढंग से मौजूद हैं। इस किताब को पढ़ते हुए कई बार लगता है कि रमेश उपाध्याय का कहानीकार रमेश और विमर्शकर्ता उपाध्याय जूझते-भिड़ते हुए एक-दूसरे से ज्यादा से ज्यादा जगह हथिया लेने पर आमादा हैं। कथाकार विमर्शकार को धकेलता है, तो विमर्शकार कथाकार की गर्दन नाप लेना चाहता है। इन दोनों की टकराहट से आत्मकथा का पारंपरिक और बाजार में चलने वाला लोकप्रिय ढाँचा जगह-जगह से टूट-फूट जाता है और एक नया स्वरूप आकार लेता दिखता है। शायद यही इस किताब की सबसे बड़ी उपलब्धि भी है कि उसने इस समय के बाजारूपन के खतरों के बीच अपने लिए एक अलग पगडंडी खोज ली है, जिससे वह अपने समय के बाजारवाद को चुनौती भी दे सकती है, देती है।

जो हिस्से बचपन या जवानी के वृत्तांतों को सामने रखते हैं, उनमें भी अपने और अपने समय से एक बहस लगातार चलती रहती है। कंपोजीटर बनने और एक कंपोजीटर की तरह काम करने का वृत्तांत बहुत दिलचस्प है। कंप्यूटर और ऑफसेट के समय में जनमे और बड़े हुए पाठकों और लेखकों के लिए यह वृत्तांत महत्त्वपूर्ण होगा। रमेश उपाध्याय ने संक्षेप में ही सही, लेकिन उस पूरी प्रक्रिया को और उसकी पूरी टर्मिनोलॉजी को यहाँ दर्ज कर दिया है। प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी में छपाई की उस पुरानी तकनीक की एक बहुत बड़ी भूमिका है। आज भी दुनिया की लाखों महान किताबें उस पुरानी तकनीक से छपी हुई हमारे पास हैं।

रमेश उपाध्याय ने अपने इस अनुभव पर ‘गलत-गलत’ शीर्षक से कहानी भी लिखी है। कहीं यह प्रश्न भी मन में उठता है कि कहानी या उपन्यास भी तो कहीं न कहीं आत्मकथात्मक ही होता है, चाहे अंशतः हो या पूर्णतः, पर होता तो है ही। बल्कि कहा जा सकता है कि पूरा लेखन कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में आत्मकथात्मक होता ही है। अगर रमेश उपाध्याय अपने उन जीवनानुभवों को अपनी कहानियों में लाते हैं, तो फिर आत्मकथा लिखने में क्या हर्ज है? उन्होंने जो खतरे गिनाये हैं, वे खतरे मौजूद हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन बाजार तो कुछ भी बेच सकता है। क्या इसलिए हमें लंबी प्रक्रियाओं से पाये गये अपने फॉर्म्स को बदल देना चाहिए? बाजार से टकराने का क्या कोई और उपाय हम नहीं ईजाद कर सकते? ऐसे कई सवाल मन में उठते हैं, उठ सकते हैं।

‘मेरे अध्ययन का विकास-क्रम’ में पिता की मृत्यु और वापस गाँव लौटने का प्रसंग बहुत मार्मिक है और उसके साथ ही रमेश उपाध्याय का जीवन-संघर्ष शुरू होता है। इस किताब में रमेश उपाध्याय को जानना, बिना किसी अतिशयोक्ति के, एक जीवन-संघर्ष की वृहत् गाथा से गुजरना है। कंपोजीटर बनने, फिर अलग-अलग पत्रिकाओं में साहित्यिक पत्राकारिता करने और वहाँ से अध्यापन की नौकरी तक आने का एक लंबा इतिहास यहाँ टुकड़ों-टुकड़ों में दर्ज है। इसी सब के बीच एक लेखक बनने की प्रक्रिया भी इसमें शामिल है। कहानी लिखने का एक दिलचस्प प्रसंग ‘कैद से निकलने की कोशिश है रचना’ वाले अध्याय में आया है। उनकी कहानी में अंतर्निहित आवेगµजिसकी रास वे अपनी भाषा और कथा-कौशल से एक हद तक हमेशा थामे रखते हैं या कहें कि खींचे रखते हैंµको समझने में यह प्रसंग मदद कर सकता है। इस प्रसंग का एक छोटा-सा हिस्सा है :

‘‘उस जुलूस पर कहानी लिखने के बारे में मैंने बिलकुल नहीं सोचा था। मगर उस दिन, करोल बाग के उस बस-स्टैंड पर बैठे-बैठे अचानक लगा कि उस पर कहानी लिखनी चाहिए। और कहानी लिखने की वह ‘अर्ज’ इतनी जबर्दस्त थी कि मैं उठा, स्टेशनरी की एक दुकान से एक कापी और कलम खरीदी, और वापस बस-स्टैंड पर आकर कहानी लिखने बैठ गया। गर्मियों के दिन थे। बस-स्टैंड के ऊपर एस्बेस्टस की शीट वाला शेड तप रहा था और नीचे तप रही थी सीमेंट से बनी वह पटिया, जिस पर मैं बैठा था। लेकिन परवाह नहीं। मैंने कापी खोलकर घुटनों पर रखी और लिखना शुरू कर दिया।’’

इस प्रसंग से उनकी रचना-प्रक्रिया में स्वतःस्फूर्तता और सामाजिक संघर्षों के प्रति उनके लगाव को समझा जा सकता है।

‘अजमेर में पहली बार’ में मनमोहिनी जी से एकतरफा प्रेम का एक दिलचस्प प्रसंग भी रमेश जी ने बहुत बेबाकी से लिखा है। मैंने रमेश उपाध्याय की कविताएँ कभी नहीं देखीं। जीवन के इस तरह के अनुभव कहीं न कहीं उनकी कविता में शायद ज्यादा मुलायम ढंग से आये हों। यूँ प्रेम-प्रसंग कवियों की संपत्ति नहीं है। इस प्रेम-प्रसंग में और ‘दंडद्वीप’ में क्या संबंध है, यह मुझे इस किताब को पढ़ने के बाद ही मालूम हुआ। ‘दंडद्वीप’ उपन्यास बहुत पहले पढ़ा था। शायद इस रहस्य का पता चलने के बाद उसे दोबारा पढ़ने का कुछ अलग आनंद हो सकता है। प्लेजर ऑफ रीडिंग का एक संबंध कहीं किताब में वर्णित वृत्तांत के पीछे छिपे अनुभव को वास्तविक रूप में जान लेने में भी होता है। किताब के स्रोत जान लेने से धीरे-धीरे किताब के साथ दोस्ती ज्यादा गहरी होती जाती है।

रमेश उपाध्याय की इस किताब में एक अध्याय है ‘साहित्य सृजन और चेतना के स्रोत’। यह अध्याय कई दृष्टियों से बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह अध्याय एक स्तर पर पिछले दो दशकों से चली आती कई बहसों के बारे में बहुत सारी बातों को स्पष्ट कर देता है। इतिहास का अंत, लौंग नाइनटींथ सेंचुरी और दि शॉर्ट ट्वेंटियथ संेचुरी, कींसीय अर्थशास्त्रा, जनतंत्रा को बचाने में साम्यवाद की भूमिका आदि अनेक सवालों को इस छोटे-से व्याख्यान में समेट लिया गया है। इसी अध्याय में हॉब्सबॉम को उद्धृत करते हुए रमेश उपाध्याय का मानना है कि बीसवीं सदी अतीत की दृष्टि से तो अत्यंत महत्त्वपूर्ण है ही, भविष्य की दृष्टि से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। हॉब्सबॉम का कहना है--‘‘हम नहीं जानते कि आगे क्या होगा और तीसरी सहस्राब्दी कैसी होगी, लेकिन वह जैसी भी होगी, इस संक्षिप्त बीसवीं सदी (1914-1991) से ही अपना रूपाकार ग्रहण करेगी।’’

: तीन :

‘मेरी नाट्य-लेखन यात्रा’ में नाट्य-लेखन के क्षेत्रा में रमेश उपाध्याय के कामों का ब्यौरा मौजूद है। उनके अनेक नुक्कड़ नाटकों से मैं परिचित रहा हूँ। लेकिन रेडियो के लिए ध्वनि नाटकों के क्षेत्रा में भी उन्होंने इतना काम किया है, इसकी जानकारी मुझे इस किताब से ही मिली। उन्होंने सेमुअल बैकेट के नाटक ‘वेटिंग फॉर गोदो’ का रूपांतर ‘प्रतीक्षा और प्रतीक्षा’ के नाम से किया और दिलचस्प यह है कि इस नाटक में रमेश उपाध्याय और स्वयं प्रकाश दोनों ने अभिनय भी किया था। ‘पेपरवेट’, ‘सफाई चालू है’ और ‘भारत-भाग्य-विधाता’ नामक मौलिक नाटकों के लेखन के साथ-साथ  अनेक विश्व प्रसिद्ध कहानियों के नाट्य रूपांतर भी उन्होंने किये हैं। इस किताब की एक खूबी यह भी है कि कहीं विस्तार से और कहीं कोताही के साथ रमेश उपाध्याय के सभी पक्ष इस किताब में आ गये हैं।

रमेश उपाध्याय मनचाहे ढंग से मनचाहा काम करना चाहने वाले लेखक हैं। उन्हें अपने कमरे में, अपनी किताबों के बीच, अपनी मेज-कुर्सी पर बैठकर और कमरे का दरवाजा खुला रखकर लिखना प्रिय है। अपने कमरे में जिस कुर्सी पर बैठकर वे लिखते हैं, उसके अलावा किसी और कुर्सी का मोह या चाह उन्हें नहीं है। इस सादगी के साथ ही उनका मानना है और उनका स्वप्न भी है कि ‘‘मार्क्स ने ‘दुनिया के मजदूरो, एक हो!’ का जो नारा दिया था, उसको वास्तविकता में बदलने का समय आ गया है। पूँजीवाद एक वैश्विक व्यवस्था है, तो समाजवाद भी एक वैश्विक व्यवस्था ही है। अतः स्वाभाविक तर्क यह बनता है कि जब पूँजी का भूमंडलीकरण हो सकता है, तो श्रम का भूमंडलीकरण क्यों नहीं हो सकता? पूँजीवाद सारी दुनिया में फैल सकता है, तो समाजवाद भी सारी दुनिया में फैल सकता है। अतः अब ‘एक देश में समाजवाद’ का सीमित स्वप्न देखने की जगह ‘‘सभी देशों में समाजवाद’’ का असीमित स्वप्न देखने का समय आ गया है।’’ (‘हमारे समय के स्वप्न’)