Monday, January 24, 2011
नाम जो भी हो, आन्दोलन चलना चाहिए
('कथन' के जनवरी-मार्च, 2011 के अंक में प्रकाशित)
साहित्यिक आंदोलन सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों से भिन्न होते हैं। उन्हें प्रायः नये लेखक चलाते हैं, या ऐसे स्थापित लेखक, जो साहित्य में कुछ नया करना चाहते हैं। आंदोलन में शामिल सब लेखक एक जैसे नहीं होते। उनमें से प्रत्येक अपने लेखन में दूसरों से भिन्न और विशिष्ट होता है। लेकिन वह प्रवृत्तिगत नयापन उन सबमें समान रूप से मौजूद रहता है, जिसके कारण वे पुराने लेखकों या अपने समकालीन अन्य लेखकों से भिन्न होते हैं। उस नयेपन को साहित्य में स्थापित और प्रतिष्ठित करना मुश्किल होता है, अतः इसके लिए एक सामूहिक प्रयास आवश्यक होता है। सामूहिक रूप से उठायी गयी आवाज का असर जल्दी और ज्यादा होता है। यही कारण है कि अपनी विलक्षणता या अद्वितीयता की बात करने वाले लेखक भी कई बार साहित्यिक आंदोलन चलाते पाये जाते हैं।
साहित्यिक आंदोलन में अपने समय के साहित्य की किसी मुख्य प्रवृत्ति पर जोर दिया जाता है। चूँकि एक ही समय के साहित्य में विभिन्न प्रवृत्तियाँ मौजूद रहती हैं, इसलिए आंदोलन में शामिल लेखकों को अपने लेखन की मुख्य प्रवृत्ति की उस नवीनता, सार्थकता और प्रासंगिकता को स्पष्ट करना पड़ता है, जो उसे अन्य प्रवृत्तियों से भिन्न और विशिष्ट बनाती है। यह काम नकारात्मक ढंग से नहीं, सकारात्मक ढंग से किया जाता है। मसलन, आप ‘अकहानी’ जैसा कोई आंदोलन चलाना चाहेंगे, तो नहीं चलेगा; जबकि ‘नयी कहानी’, ‘सचेतन कहानी’, ‘समांतर कहानी’, ‘जनवादी कहानी’, ‘स्त्रीवादी कहानी’ या ‘दलितवादी कहानी’ जैसे सकारात्मक नाम वाले आंदोलन चलेंगे; क्योंकि सकारात्मक ढंग से ही आप यह स्पष्ट कर पायेंगे कि आपकी कहानी में नया क्या है और वह पुरानी अथवा समकालीन दूसरी प्रवृत्तियों वाली कहानी की तुलना में क्यों अधिक सार्थक तथा प्रासंगिक है।
इसी बात को ध्यान में रखकर मैंने ‘परिकथा’ वाले अपने साक्षात्कार में यह कहा था कि नये कहानीकारों को एक नया कहानी आंदोलन चलाना चाहिए। बातचीत के क्रम में यह बात सहज रूप से कह दी गयी थी। इसके पीछे किसी आंदोलन की सुविचारित योजना अथवा परिकल्पना नहीं थी। जब मुझसे पूछा गया कि ‘‘आपके विचार से उस नये आंदोलन का नाम और रूप?’’ तो मैंने कहा था कि ‘‘रूप तो आंदोलन चलाने वाले लेखक ही उसे देंगे, पर मैं एक नाम सुझा सकता हूँ। हमारी इस बातचीत में अभी-अभी दो शब्द आये--बाजारोन्मुखी और भविष्योन्मुखी। तो हम बाजारोन्मुखी कहानी के बरक्स भविष्योन्मुखी कहानी का आंदोलन ही क्यों न चलायें?’’
जाहिर है, यह सिर्फ एक सुझाव था, कोई प्रस्ताव नहीं। लेकिन ‘कथन’ द्वारा मेरे उस साक्षात्कार पर आयोजित प्रस्तुत परिचर्चा में व्यक्त किये गये विचारों से लगता है, मानो मैंने खूब सोच-समझकर भविष्योन्मुखी कहानी के आंदोलन का प्रस्ताव किया हो। अतः यहाँ जोर देकर कहना जरूरी है कि आंदोलन यदि चलाना है, तो नये कहानीकारों को ही चलाना है और उसे जो भी नाम और रूप देना है, वह भी उन्हें ही देना है। मेरा ऐसा कोई आग्रह नहीं है कि वे आंदोलन चलायें ही और मेरे द्वारा सुझाये गये नाम से ही चलायें।
वैसे, साहित्यिक आंदोलनों के नाम न तो बहुत सोच-समझकर रखे जाते हैं और न वे हमेशा बहुत तर्कसंगत ही होते हैं। उदाहरण के लिए, ‘नयी कहानी’, ‘सचेतन कहानी’ और ‘समांतर कहानी’। इनका इतिहास बताता है कि ये नाम अनायास ही रख लिये गये थे और जब चल पड़े, तब इनकी व्याख्याएँ हुईं; इनको उचित सिद्ध करने के प्रयास किये गये।
कोई नाम आंदोलन चलाना चाहने वाले, या अनायास चल पड़े आंदोलन में शामिल होने वाले सभी लेखकों को स्वीकार्य हो, यह असंभव है। जिन्होंने साहित्यिक आंदोलन चलाये हैं, या जो उनमें शामिल रहे हैं, जानते हैं कि आंदोलन के नाम से असहमति का कारण उस नाम का संगत या असंगत होना नहीं, बल्कि कुछ और ही होता है। मसलन, किसी एक मुख्य प्रवृत्ति के आधार पर किसी कालखंड या किसी पीढ़ी के लेखन को कोई नाम देना कुछ लोगों को इस कारण असंगत प्रतीत हो सकता है कि इससे उस कालखंड या पीढ़ी के लेखन की दूसरी या अमुख्य प्रवृत्तियाँ दबकर रह जा सकती हैं और कोई एक प्रवृत्ति मुख्य होकर अतिरिक्त, अनावश्यक या अनुचित महत्त्व प्राप्त कर सकती है।
दूसरा कारण यह है कि साहित्यिक आंदोलन में विचारधारात्मक मतभेदों के चलते विभिन्न प्रकार के लेखक अपनी-अपनी विचारधारा के अनुसार आंदोलन को चलाने के लिए अलग-अलग नाम प्रस्तावित करते हैं और अपने द्वारा प्रस्तावित नाम को ही सही सिद्ध करने का प्रयास करते हैं।
कुछ स्थापित हो चुके पुराने या स्थापित हो जाने की आशा रखने वाले नये लेखकों को लगता है कि आंदोलन चला, तो शायद उनकी स्थिति सुरक्षित नहीं रह पायेगी। ऐसे लेखक आंदोलन के नाम से भयभीत होकर आंदोलन के विचार का ही विरोध करने लगते हैं। लेकिन साहित्यिक आंदोलनों के इतिहास को देखकर समझा जा सकता है कि साहित्यिक आंदोलन विभिन्न प्रकार के लेखकों द्वारा अनुभव की जाने वाली किसी ऐतिहासिक आवश्यकता से पैदा होता है और वह एक तरह का संयुक्त मोर्चा होता है, जिसमें विभिन्न विचारधाराओं, विभिन्न कला-सिद्धांतों तथा विभिन्न लेखन-शैलियों वाले लेखक शामिल होते हैं।
उदाहरण के लिए, ‘नयी कहानी’ का आंदोलन स्वतंत्रता के बाद की नयी ऐतिहासिक आवश्यकता से बना एक संयुक्त मोर्चा था, जिसमें विचारधारात्मक दृष्टि से देखें, तो प्रगतिशील, जनवादी, गांधीवादी, लोहियावादी आदि विभिन्न विचारधाराओं वाले कहानीकार शामिल थे। कला-सिद्धांतों की दृष्टि से देखें, तो उसमें यथार्थवादी, अनुभववादी, कलावादी आदि कई प्रकार के लेखक शामिल थे। लेखन-शैलियों की दृष्टि से देखें, तो उसमें आंचलिक या ग्रामीण कहानी लिखने वालों से लेकर कस्बाई, शहरी और महानगरीय परिवेश तक की कहानियाँ लिखने वाले; ठेठ यथार्थवादी, फैंटेसीपरक, हास्य-व्यंग्यमूलक तथा विभिन्न प्रकार के भाषा-प्रयोगों वाली कहानियाँ लिखने वाले भी शामिल थे।
इसी तरह प्रगतिशील-जनवादी कहानी के आंदोलन में भी विभिन्न प्रवृत्तियों वाले लेखक अपनी भिन्नता और विशिष्टता को बरकरार रखते हुए शामिल रहे हैं। उदाहरण के लिए, ज्ञानरंजन, काशीनाथ सिंह, इसराइल, रमेश उपाध्याय, नमिता सिंह, स्वयं प्रकाश आदि एक ही आंदोलन में शामिल रहते हुए भी अपने कहानी-लेखन में एक-दूसरे से भिन्न और विशिष्ट हैं।
फिर भी कुछ लोगों को लगता है कि कोई नया आंदोलन चला, तो अनर्थ हो जायेगा। इस भय से वे अपनी स्थिति-रक्षा के लिए सन्नद्ध होकर एक परिवर्तन-विरोधी और यथास्थितिवादी रुख अपना लेते हैं। हिंदी कहानी में विभिन्न आंदोलनों के साथ-साथ यह आंदोलन-विरोधी प्रवृत्ति भी लगातार चलती रही है। इसके तहत कहानी को किसी मुख्य प्रवृत्ति के आधार पर पहचानने के बजाय दशकों और पीढ़ियों के आधार पर अलगाने की कोशिश की जाती रही है। इस कोशिश में लेखन की तमाम भिन्नताओं और विशिष्टताओं को दबाकर ‘सब धान बाईस पसेरी’ के हिसाब से तोलने वाला काम किया जाता है। मसलन, ‘साठोत्तरी कहानी’ या ‘युवा कहानी’ जैसे नामकरण इसीलिए किये जाते हैं कि एक कालखंड में मौजूद विभिन्न प्रवृत्तियों तथा लेखन की भिन्नताओं और लेखकों की विशिष्टताओं पर पाटा चलाकर ऐसी सपाट जमीन तैयार की जा सके, जिस पर शासकवर्गीय राजनीति के रथ और व्यावसायिकता (आज के संदर्भ में बाजारवाद) की मोटरगाड़ियाँ आराम से दौड़ सकें।
यह साहित्य की नयी प्रवृत्तियों को, जो मूलतः स्थापित सत्ता और व्यवस्था का प्रतिपक्ष बनकर उभरती हैं, ‘कोऑप्ट’ (सहयोजित) कर लेने का तरीका है। पुराना, चाहे वह समाज में हो या साहित्य में, आसानी से अपनी जगह नहीं छोड़ता, बल्कि नये को भी अपने साँचे में ढालने की कोशिश करता है और उसे कमजोर पाता है, तो ढाल भी लेता है। कोई भी स्थापित व्यवस्था व्यक्तियों से बड़ी और अधिक शक्तिशाली होती है। ज्यादातर व्यक्तियों को तो वह सहज ही अपने अनुकूल ढाल लेती है और शेष के व्यक्तिगत विद्रोह या विरोध को स्वयं में सहयोजित करके विफल बना देती है। आज के नये लेखकों को साहित्य की पुरानी प्रवृत्तियों से कोई संघर्ष किये बिना ही जो स्वीकृति और मान्यता सहज ही मिल गयी है, वह भी एक प्रकार का ‘सहयोजन’ ही है।
साहित्यिक आंदोलन एक सामूहिक प्रयास होने के कारण इस ‘सहयोजन’ के विरुद्ध संघर्ष करते हुए वस्तुतः लेखन की स्वतंत्रता और लेखक की निजी विशिष्टता को बचाने का काम करते हैं। शायद इसी कारण सत्ता और व्यवस्था को साहित्यिक आंदोलन रास नहीं आते। आधुनिकतावाद के दौर तक इनको किसी प्रकार बर्दाश्त कर लिया जाता था, लेकिन उत्तर-आधुनिकतावाद के दौर में वह यत्किंचित् सहिष्णुता भी गायब हो गयी। साहित्यिक आंदोलनों का दमन चूँकि उस तरह नहीं किया जा सकता, जिस तरह जन-आंदोलनों का किया जाता है, इसलिए उन्हें एक तरफ कुछ अघोषित सेंसर लगाकर और दूसरी तरफ भाषाई छल-प्रपंचों के जरिये नाकाम किया जाता है। उदाहरण के लिए, हिंदी कहानी में ‘जनवादी कहानी’ के आंदोलन के बाद दो सशक्त आंदोलन उभरे--स्त्रीवादी कहानी और दलितवादी कहानी। लेकिन उत्तर-आधुनिकतावादी भाषाई छल ने उन्हें ‘आंदोलन’ की जगह ‘विमर्श’ बना दिया। नतीजा यह हुआ कि ये दोनों साहित्यिक प्रवृत्तियाँ, जो समाज में चल रहे स्त्रियों और दलितों के आंदोलनों में सहायक हो सकती थीं, समाज से कटकर सिर्फ भाषा का खेल बनकर रह गयीं। ‘विमर्श’ आखिर अंग्रेजी का ‘डिस्कोर्स’ ही है न!
‘युवा कहानी’ भी इसी प्रकार का एक भाषाई छल है। यह एक प्रकार का ‘मिसनोमर’ (मिथ्या नामकरण) है, जो आज की कहानी पर किन्हीं संपादकों और आलोचकों ने थोप दिया है। वे जानते हैं कि ‘युवा कहानी’ किसी साहित्यिक आंदोलन का नाम नहीं हो सकता। कारण यह कि ‘युवा कहानी’ कहने से कहानीकारों की उम्र का ही संकेत मिलता है, उनके द्वारा लिखी जा रही कहानी के बारे में कुछ पता नहीं चलता।
‘युवा कहानी’ पद एक भाषाई छल है, जिसकी काट तभी हो सकती है, जब आज के युवा लेखक अपनी कहानी के इस मिथ्या नामकरण को अस्वीकार करें और अपने कहानी लेखन की विभिन्न प्रवृत्तियों की पहचान करते हुए उस मुख्य प्रवृत्ति को--दूसरों के लिए ही नहीं, अपने लिए भी--स्पष्ट करें, जो उनके कहानी लेखन को नया, भिन्न और विशिष्ट बनाती है। अन्यथा यह होगा कि नये कहानीकार अपनी समझ-बूझ से अपना कोई नया कहानी आंदोलन चलाने और स्वयं उसे कोई नाम देने के बजाय ‘युवा कहानी’ जैसे मिथ्या नामकरण को ढोते हुए उनके इशारों पर चलते रहेंगे, जो ऐसे मिथ्या नामकरण किया करते हैं और यह अधिकार अपने पास रखते हैं कि वे किसे युवा कहानीकार मानें और किसे न मानें!
हिंदी कहानी में आजकल यही हो रहा है। विभिन्न पत्रिकाओं से सामने आये नये कहानीकारों की कुल संख्या बहुत बड़ी है, लेकिन चर्चा बार-बार उनमें से कुछ गिने-चुने कहानीकारों की ही होती है। जिनकी नहीं होती, वे उपेक्षित महसूस करते हैं और इस ‘अन्याय’ से क्षुब्ध भी रहते हैं। लेकिन उनकी समझ में नहीं आता कि यह क्या हो रहा है और क्यों हो रहा है। अपने साथ होने वाले ‘अन्याय’ की शिकायत करते हुए वे जहाँ-तहाँ थोड़ी भड़ास निकालते हैं, लेकिन सावधान भी रहते हैं कि ‘युवा कहानी’ के भाग्य- विधाता कहीं उनसे नाराज न हो जायें। उन्हें लगता है कि ‘युवा पीढ़ी’ को सामने लाने वाले और ‘युवा कहानी’ का भविष्य निर्धारित करने वाले तो वे ही हैं!
हिंदी साहित्य में युवा पीढ़ियाँ पहले भी पैदा होती रही हैं, लेकिन उनसे संबंधित नये लेखक अपनी अलग पहचान के लिए किन्हीं भाग्य-विधाताओं पर निर्भर रहने के बजाय प्रायः साहित्यिक आंदोलन चलाते रहे हैं, जिनसे वे भी आगे बढ़े हैं और साहित्य भी आगे बढ़ा है। यह अवश्य है कि इसके लिए उन्होंने ‘‘एकला चलो’’ के बजाय ‘‘मिलकर चलो’’ की नीति अपनाकर, साथ बैठकर आपस में सघन और विस्तृत बहसें चलायी हैं, छोटी-छोटी पत्रिकाएँ निकाली हैं, छोटे-बड़े मंच बनाये हैं और रचना तथा आलोचना के जरिये अपने लेखन के नयेपन को, उसकी भिन्नता और विशिष्टता को प्रमाणित तथा स्थापित किया है।
उदाहरण के लिए, जनवादी कहानी का आंदोलन जब चला, तब भी हिंदी कहानीकारों की लगभग चार पीढ़ियाँ एक साथ कहानी लिख रही थीं। उनमें ‘नयी कहानी’, ‘अकहानी’, ‘सचेतन कहानी’ और ‘समांतर कहानी’ नामक आंदोलनों से संबंधित कहानीकार भी थे। हालाँकि उस समय ‘समांतर’ को छोड़कर शेष आंदोलन समाप्त हो चुके थे, फिर भी उनसे संबंधित रहे लेखक उनकी कुछ प्रवृत्तियों को जीवित रखे हुए थे।
‘जनवादी कहानी’ के सामने एक समस्या यह भी थी कि वह स्वयं को ‘प्रगतिशील कहानी’ से कैसे अलगाये, क्योंकि दोनों की विचारधारा लगभग एक-सी थी। कुछ लोगों ने दलगत आधार पर उनका अंतर स्पष्ट करने का प्रयास किया कि ‘प्रगतिशील कहानी’ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) से जुड़े कहानीकार लिखते हैं, जबकि ‘जनवादी कहानी’ मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और जनवादी लेखक संघ (जलेस) से जुड़े कहानीकार। यद्यपि ऐसा फर्क करना सरासर गलत था और कहानीकारों ने इसका प्रतिवाद भी किया था, फिर भी यह फर्क किया गया, क्योंकि प्रलेस से जुड़े लोग, जो जलेस के निर्माण से खुश नहीं थे, ‘जनवादी कहानी’ के आंदोलन से भी खुश नहीं थे। नामवर सिंह ने स्पष्ट रूप से इस नामकरण को असाहित्यिक बताते हुए इस नये आंदोलन को नकारने का प्रयास किया था। लेकिन अंततः जिस तरह प्रलेस और जलेस दोनों संगठन मौजूद रहे, उसी तरह प्रगतिशील और जनवादी कहानी के आंदोलन भी चलते रहे। कालांतर में मुझ जैसे कुछ कहानीकारों ने दोनों के सहअस्तित्व को पहचानते हुए, किंतु उस समय लिखी जा रही प्रगतिशील कहानी को पुराने प्रगतिशील आंदोलन के समय की कहानी से भिन्न मानते हुए, पूरे आंदोलन को प्रगतिशील-जनवादी कहानी का आंदोलन कहना शुरू किया।
आज इस बात पर बहस हो सकती है कि प्रगतिशील-जनवादी कहानी का आंदोलन कैसा था, उसके अंतर्गत कैसी कहानियाँ लिखी गयीं, और अंततः उस आंदोलन ने हिंदी साहित्य को क्या दिया; लेकिन यह तो इस आंदोलन के विरोधी भी मानेंगे कि उसने अपने समय की दो प्रचलित प्रवृत्तियों-- फैशनपरस्ती और व्यावसायिकता--के विरुद्ध एक सफल संघर्ष चलाया और हिंदी कहानी को ही नहीं, बल्कि समूचे साहित्य को ही जनोन्मुख बनाने का प्रयास किया। इसी का परिणाम था कि हिंदी में नुक्कड़ नाटक जैसी एक नयी विधा अस्तित्व में आयी, जो साहित्य को सीधे जनता से जोड़ने का एक सार्थक प्रयास थी। यह आकस्मिक नहीं था कि नुक्कड़ नाटक लिखने की शुरूआत असगर वजाहत, रमेश उपाध्याय, स्वयं प्रकाश आदि प्रगतिशील-जनवादी कहानीकारों ने की थी।
लेकिन आज के युवा लेखकों को या तो अपने साहित्य की इस आंदोलनधर्मी परंपरा का पता नहीं है, या वे कुछ अजीब-से तर्कों के सहारे उससे पल्ला झाड़ लेने में यकीन रखते हैं। इसके कुछ उदाहरण ‘कथन’ की प्रस्तुत परिचर्चा में भी मौजूद हैं।
एक तर्क यह है कि जब समाज में ही कोई आंदोलन नहीं है, तो साहित्य में कहाँ से होगा। इसे सिद्ध करने के लिए प्रभात रंजन मेरी कहानी ‘प्राइवेट पब्लिक’ से एक वाक्य उद्धृत करते हुए लिखते हैं--‘‘कहानी में बुद्धिप्रकाश कहता है, ‘जनता लुट रही है, फिर भी कोई विरोध या प्रतिरोध नहीं हो रहा है।’ जब समाज में ही प्रतिरोध कम होता जा रहा है, तो क्या आंदोलन की जरूरत केवल कहानी को है?’’
लेकिन यहाँ कहानी के एक वाक्य को उसके संदर्भ से काटकर प्रस्तुत किया गया है। कहानी में बुद्धिप्रकाश के उक्त कथन का प्रतिवाद करते हुए शिवदत्त कहता है--‘‘क्या हमें जनता की लूट प्रत्यक्ष दिखायी देती है? हम स्वयं कहाँ-कहाँ और किस-किस तरह लुटते हैं, हमें पता चलता है? तो क्या ऐसा नहीं हो सकता कि लूट का विरोध या प्रतिरोध भी हमें प्रत्यक्ष न दिखायी देता हो?’’
राकेश बिहारी तो और भी कई कदम आगे बढ़कर कहानी की आंदोलनधर्मिता का विरोध करते हुए कहते हैं कि ‘‘जब गरीबी, महँगाई, गैर-बराबरी और भ्रष्टाचार जैसे आम जन के मुद्दों पर आंदोलन करने वाली शक्तियाँ प्रतिरोध के बदले प्रतिरोध का व्यापार चलाने में व्यस्त हों, कहानियों में सामूहिक प्रतिरोध की माँग करना कितना न्यायसंगत हो सकता है...’’
जैसा कि मैंने पहले कहा, कुछ लेखक आंदोलन के नाम से ही भयभीत होकर परिवर्तन-विरोधी और यथास्थितिवादी रुख अपना लेते हैं। राकेश बिहारी इसी प्रवृत्ति का परिचय देते हुए कहते हैं--‘‘आज का लेखक दो मोर्चों पर लड़ रहा है। अपनी निजी और पारिवारिक जिम्मेदारियों का कुशलतापूर्वक निर्वहन करते हुए या कि उसके उपाय खोजने की जद्दोजहद करते हुए लिखना कोई खेल नहीं है। उसे साहित्य तो लिखना ही है, अपनी संततियों से यह भी नहीं सुनना है कि ‘लेखक होकर आपने समाज के लिए क्या किया, पता नहीं, लेकिन हमारे लिए क्या किया?’ विगत में देखे गये सपनों के टूटने और सामने से आकर्षित कर रही सुख-सुविधाओं की नयी दुनिया की अभिसंधि पर बैठा नया लेखक पूर्णकालिक और परंपरागत अर्थों में रूढ़ हो चला आंदोलनधर्मी लेखन नहीं कर सकता।’’
लेकिन वे जिन दो मोर्चों पर लेखक के लड़ने की बात करते हैं, उन पर क्या आज का ही लेखक लड़ रहा है? पहले के लेखक नहीं लड़ते रहे हैं? क्या साहित्यिक आंदोलन चलाने वाले लेखक निजी या पारिवारिक स्तर पर गैर-जिम्मेदार होते हैं? क्या वे किसी पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता की तरह होते हैं, जो आंदोलनधर्मी लेखन के सिवा कुछ और नहीं करते? क्या नये लेखकों को साहित्यिक आंदोलन चलाने का सुझाव देना उनसे ‘‘कहानियों में सामूहिक प्रतिरोध की माँग करना’’ अथवा ‘‘रूढ़ हो चला आंदोलनधर्मी लेखन’’ करने के लिए कहना है? और सबसे बड़ा सवाल: क्या आज का समाज सचमुच आंदोलनरहित है? क्या किसानों, मजदूरों, विस्थापितों, स्त्रियों, दलितों, आदिवासियों आदि के द्वारा किये जा रहे आंदोलन आंदोलन नहीं हैं? क्या ये तमाम आंदोलन ‘‘प्रतिरोध के बदले प्रतिरोध का व्यापार’’ हैं?
फिर, जैसा कि मैंने शुरू में ही कहा, साहित्यिक आंदोलन सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों से भिन्न होते हैं। वे सामाजिक- राजनीतिक आंदोलनों से प्रेरणा ले सकते हैं और किसी हद तक उनकी मदद भी कर सकते हैं, लेकिन उन पर निर्भर रहने वाले या उनका अनुसरण करने वाले नहीं होते। अपनी तमाम सामाजिक सोद्देश्यता और राजनीतिक प्रतिबद्धता के बावजूद साहित्य की अपनी कुछ स्वायत्तता और साहित्यकार की अपनी कुछ स्वतंत्रता होती है। उसी के आधार पर वह वर्तमान सामाजिक यथार्थ का अतिक्रमण कर भविष्य के स्वप्न देखने-दिखाने वाला और प्रेमचंद के शब्दों में राजनीति के आगे मशाल लेकर चलने वाला बनता है।
लेकिन ऐसा साहित्य और साहित्यकार यथार्थवादी होता है, यथास्थितिवादी नहीं। फिर, जिस तरह यथार्थ निरंतर गतिशील और परिवर्तनशील होता है, उसी तरह यथार्थवाद भी सदा एक-सा नहीं रहता। इसीलिए उसके नाम और रूप बदलते रहते हैं। किंतु हिंदी कहानी पर अनुभववाद की--यानी अपने जिये-भोगे को ही यथार्थ मानकर चलने की--प्रवृत्ति इस कदर हावी है कि यथार्थवाद की बात सुनकर ही कई कहानीकार डर जाते हैं। शायद उन्हें लगता है कि अनुभववादी ढंग से कहानी लिखने का आसान, सुविधाजनक और सुरक्षित रास्ता छोड़ यथार्थवादी लेखन करना पड़ा, तो वे मुश्किल में पड़ जायेंगे। राकेश बिहारी इसी प्रवृत्ति का परिचय देते हुए भूमंडलीय यथार्थवाद के नाम से भयभीत हो जाते हैं। यहाँ तक कि वे ‘‘भूमंडलीय यथार्थ का हौवा और उसका भय खड़ा करने’’ की पुनरुक्ति के भी शिकार हो जाते हैं!
आज की दुनिया में ऊपर से थोपे जा रहे पूँजीवादी भूमंडलीकरण के विरुद्ध नीचे से हो रहे जनगण के भूमंडलीकरण की जो प्रक्रिया चल रही है, वह भूमंडलीय यथार्थ को बदलने के साथ-साथ यथार्थवाद का भी एक नया रूप सामने ला रही है। मैं उसी को भूमंडलीय यथार्थवाद कहता हूँ। जरूरत उससे डरने या बिदकने की नहीं, कहानी-लेखन में उसे साहसपूर्वक अपनाने की है।
अच्छी बात यह है कि आज के नये कहानीकारों में से कुछ यदि आंदोलन चलाये जाने के खिलाफ हैं, तो बहुत-से उसके पक्ष में भी हैं। मसलन, प्रस्तुत परिचर्चा में मनीषा कुलश्रेष्ठ ने लिखा है कि अब युवा लेखकों को एक होना चाहिए और मिल-जुलकर एक आंदोलन चलाना चाहिए--‘‘साहित्य के भविष्योन्मुख होने का आंदोलन, बाजारवाद से बचकर बाजार में होने की कला का आंदोलन, अंतरराष्ट्रीय स्तर तक हिंदी कथा-साहित्य को पहुँचाने का आंदोलन...’’
मनीषा कुलश्रेष्ठ अपनी टिप्पणी में आलोचना और आत्मालोचना करते हुए एक नये आंदोलन के रूप का ही नहीं, उसकी अंतर्वस्तु का भी संकेत करती हैं। वे कहती हैं--‘‘बहुत पुराना हुआ जादुई यथार्थवाद, इसके बाद आया ‘इन्फ्रा-सर्रियलिज्म’ भी!...इस समय में ‘जादुई यथार्थवाद’ हमारी जरूरत नहीं, भूमंडलीय यथार्थवाद की अवधारणा को समझना हमारी जरूरत है।’’
इसी तरह मनोज कुलकर्णी भी एक नये साहित्यिक आंदोलन की जरूरत महसूस करते हुए एक ऐसी लामबंदी को संभव बनाने की बात करते हैं, ‘‘जो भूमंडलीकृत दुनिया की मायावी ताकत को सीधे सींगों से पकड़े। जाहिर है, यह काम मुश्किल है, चुनौतीपूर्ण और खतरनाक भी। पर जरूरी भी।’’
मैं योगेंद्र आहूजा की इस बात से पूरी सहमति व्यक्त करना चाहता हूँ कि ‘‘हर दौर में नये कहानीकार कहानियों के लिए नये स्वरूप, संरचना, नये शिल्प और कथा विधियों की तलाश करते हैं, जो हमेशा स्वागतयोग्य है। इसी तरह विधाओं का विकास होता है।’’ लेकिन मैं इसमें अपने साक्षात्कार में कही गयी यह बात जोड़ना चाहता हूँ कि विकास की गति सदा इकसार और काल-क्रमानुसार नहीं होती, क्योंकि विकास हमेशा अंतर्विरोधों के बीच होता है। साहित्य में ये अंतर्विरोध दशकों और पीढ़ियों के बीच न होकर सामाजिक यथार्थ के प्रति अपनाये जाने वाले दृष्टिकोणों के बीच और रचना में अपनाये जाने वाले कला-सिद्धांतों के बीच होते हैं और इन पर नये कहानीकारों को सार्थक बहसें चलानी चाहिए।
मुझे प्रसन्नता है कि योगेंद्र आहूजा इसके लिए कहानी आंदोलन की जरूरत महसूस करते हुए लिखते हैं कि ‘‘ऐसा कोई आंदोलन शुरू होता है, तो उसका सबसे जरूरी हिस्सा होगा उन बौद्धिक, वैचारिक, अवधारणापरक बहसों को पुनर्जीवित कर पाना, जिनकी हिंदी में बहुत मजबूत रवायत रही है।’’
अंततः बाजार को मुक्तिदाता मानने वाले कहानीकारों से एक सवाल: बाजार जब पत्रकारों को ‘पेड न्यूज’ लिखने का पेशा करने वाला बना सकता है, तो क्या कहानीकारों को ‘पेड फिक्शन’ लिखने का पेशा करने वाला नहीं बना सकता? क्या इस नियति के विरुद्ध आंदोलन चलाना एक ऐतिहासिक जरूरत नहीं?
--रमेश उपाध्याय
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