प्रेमचंद को मैं लड़कपन से पढ़ता आ रहा हूँ और उनका लगभग सारा साहित्य पढ़ चुका हूँ। फिर भी ऐसा नहीं लगता कि उनको पढ़ना पूरा हो गया है। मैं अब भी उन्हें पढ़ता हूँ, पहले कई बार पढ़ी हुई उनकी रचनाओं को भी फिर-फिर पढ़ता हूँ और उनमें से कुछ को पढ़ते हुए लगता है कि जैसे पहली बार ही पढ़ रहा हूँ।
बात यह है कि पढ़ना पाठक पर ही नहीं, लेखक पर भी निर्भर करता है। किसी लेखक को हम पढ़ना शुरू करते हैं और चंद पंक्तियाँ पढ़कर ही छोड़ देते हैं। किसी की एकाध रचना पूरी पढ़ते हैं और फिर कभी उसकी किसी रचना को हाथ नहीं लगाते। कोई लेखक पहली बार पढ़ने पर बड़ा नया और अच्छा लगता है, लेकिन फिर से पढ़ने पर विस्मय होता है कि हमने इसे क्यों पढ़ा था और क्यों पसंद किया था। महान लेखकों में कुछ लेखक ऐसे होते हैं, जो पहली बार पढ़ने पर समझ में नहीं आते और जिनकी रचनाएँ बार-बार पढ़े जाने पर ही अपनी महानता के रहस्य खोलती हैं। लेकिन कुछ महान लेखक ऐसे भी होते हैं, जो पहली बार पढ़ने पर बड़े साधारण-से लगते हैं, लेकिन जिन्हें फिर से पढ़ने पर हम उनकी असाधारणता देखकर चकित रह जाते हैं और उन्हें बार-बार पढ़ते हैं। प्रेमचंद ऐसे ही महान लेखक हैं।
प्रेमचंद को पहली बार मैंने तब पढ़ा, जब मैं बारह साल का था, मेरा नाम रमेश चंद्र शर्मा था और मैं उत्तर प्रदेश के एटा जिले की तहसील कासगंज के एक हाई स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ता था। यह 1954 के जुलाई के महीने की बात है। गर्मी की छुट्टियों के बाद स्कूल खुल गया था। मेरे लिए नयी किताबें आ गयी थीं। नयी किताबों को पढ़ना मुझे बहुत अच्छा लगता था। उनसे आती गंध, जो पता नहीं, नये कागज की होती थी या उस पर की गयी छपाई में इस्तेमाल हुई सियाही की, या जिल्दसाजी में लगी चीजों की, या बरसात के मौसम में कागज में आयी हल्की-सी सीलन की, मुझे बहुत प्रिय थी। ज्यों ही मेरे लिए नयी किताबें आतीं, मैं सबसे पहले अपनी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक पढ़ डालता, क्योंकि मुझे कहानियाँ पढ़ने का चस्का लग चुका था और हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में कुछ कहानियाँ होती थीं।
एक दिन मैं स्कूल से लौटा और खाना खाकर हिंदी की नयी पाठ्य-पुस्तक लेकर बैठ गया। उसमें एक कहानी थी ‘बड़े भाई साहब’। पुस्तक में अवश्य ही लिखा रहा होगा कि इस कहानी के लेखक प्रेमचंद हैं। लेकिन उस समय मेरी उम्र लेखक का नाम देखकर कहानी पढ़ने की नहीं थी। मैंने तो ‘बड़े भाई साहब’ शीर्षक देखा और पढ़ने लगा। कहानी के शीर्षक ने मुझे शायद इसलिए आकर्षित किया कि मेरे एक नहीं, दो-दो बड़े भाई साहब थे।
मेरे बड़े भैया नरोत्तम दत्त शर्मा वैद्य थे। आयुर्वेदाचार्य। वे माने हुए वैद्य थे और उनका यश दूर-दूर तक फैला हुआ था, क्योंकि वे आयुर्वेदिक दवाओं की एक फार्मेसी भी चलाते थे। वे साहित्यानुरागी थे और राजनीति में भी रुचि रखते थे। अतः वे साहित्यिक पत्रिकाएँ मँगाते थे और उनके दवाखाने में रोगियों के अलावा कवि, लेखक, पत्रकार और नेतानुमा लोग भी बैठे रहते थे। बड़े भैया रोगियों को देखते रहते और साथ-साथ साहित्यिक-राजनीतिक चर्चाओं में भी हिस्सेदारी करते रहते। उन्हें रतौंधी आती थी, जिसके कारण शाम होने के बाद उन्हें कुछ कम दिखायी पड़ता था। इसलिए शाम को दवाखाना बंद करने और उनका हाथ पकड़कर घर ले आने का काम मेरा था। यह काम मुझे बहुत अच्छा लगता था, क्योंकि इस बहाने मैं शाम को खेलने-कूदने निकल जाता, खेलकर दवाखाने पहुँच जाता, वहाँ आने वाली पत्रिकाओं में कहानियाँ पढ़ता और वहाँ बैठे हुए लोगों की बातें और किस्से सुनता। बड़े भैया मुझे बहुत होशियार और होनहार मानते थे, प्यार करते थे और कभी डाँटते नहीं थे।
इसके विपरीत छोटे भैया रामनिवास शर्मा, जो अच्छी तरह पढ़-लिख न पाने के कारण प्राइमरी स्कूल के मास्टर बनकर रह गये थे, बड़े कठोर स्वभाव के, अनुशासनप्रिय और बात-बेबात डाँटने-मारने के आदी थे। वे मेहनत बहुत करते थे--स्कूल में सख्त पाबंदी के साथ पढ़ाकर घर आते, खाना खाते और ट्यूशनें करने निकल जाते। लेकिन कई घरों में जा-जाकर दस-दस, बीस-बीस रुपये माहवार की ट्यूशनें करने के बावजूद वे बड़े भैया के मुकाबले बहुत कम कमा पाते थे, इसलिए खीजे रहते थे। शहर में जितना मान-सम्मान बड़े भैया का था, उनका नहीं था। इस बात ने भी उन्हें कुंठित और क्रोधी बना दिया था। उनका क्रोध प्रायः मुझ पर उतरता था, क्योंकि मैं घर में सबसे छोटा था। बहाना यह होता था कि मैं अपनी पढ़ाई पर कम ध्यान देता हूँ और खेलने-कूदने तथा बड़े भैया के दवाखाने पर जाकर वहाँ आने वाले ‘‘ठलुओं की बकवास’’ सुनने में अपना कीमती समय ज्यादा बर्बाद करता हूँ। छुट्टी वाले दिन वे घर में पड़े-पड़े जासूसी और तिलिस्मी उपन्यास पढ़ा करते थे, जिन्हें चोरी-छिपे मैं भी पढ़ लेता था। छोटे भैया मेरी चोरी पकड़ लेते, तो पिटाई करते और सख्त ताकीद करते कि मैं अपनी पढ़ाई पर ध्यान दूँ।
लेकिन मुझे कहानी पढ़ने का ऐसा चाव था कि अखबार या किसी पत्रिका में ज्यों ही कहानी दिखती, मैं पढ़ डालता। इसीलिए हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में छपी कहानियाँ मैं सबसे पहले पढ़ता। सो उस दिन मैं अपनी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में ‘बड़े भाई साहब’ कहानी पढ़ रहा था। उसमें बड़े भाई साहब के बारे में लिखा था :
‘‘वह स्वभाव से बड़े अध्ययनशील थे। हरदम किताब खोले बैठे रहते और शायद दिमाग को आराम देने के लिए कभी कापी पर, कभी किताब के हाशियों पर चिड़ियों, कुत्तों, बिल्लियों की तस्वीरें बनाया करते थे। कभी-कभी एक ही नाम या शब्द या वाक्य दस-बीस बार लिख डालते। कभी एक शेर को बार-बार सुंदर अक्षरों से नकल करते। कभी ऐसी शब्द-रचना करते, जिसमें न कोई अर्थ होता, न कोई सामंजस्य! मसलन एक बार उनकी कापी पर मैंने यह इबारत देखी--स्पेशल, अमीना, भाइयों-भाइयों, दर-असल, भाई-भाई, राधेश्याम, श्रीयुत राधेश्याम, एक घंटे तक--इसके बाद एक आदमी का चेहरा बना हुआ था।’’
पढ़ते-पढ़ते मुझे इतनी जोर की हँसी छूटी कि रोके न रुके। मेरी दोनों भाभियों ने मेरी हँसी की आवाज सुनकर देखा कि मैं अकेला बैठा हँस रहा हूँ, तो उन्होंने कारण पूछा और मैं बता नहीं पाया। मैंने खुली हुई किताब उनके आगे कर दी और उँगली रखकर बताया कि जिस चीज को पढ़कर मैं हँस रहा हूँ, उसे वे भी पढ़ लें। उन्होंने भी पढ़ा और वे भी हँसीं, हालाँकि मेरी तरह नहीं।
बाद में, न जाने कब, मुझे पता चला कि ‘बड़े भाई साहब’ कहानी प्रेमचंद की लिखी हुई थी। उसके बाद मैं प्रेमचंद की कहानियाँ ढूँढ़-ढूँढ़कर पढ़ने लगा। लेकिन प्रेमचंद की यह कहानी मुझे हमेशा के लिए अपनी एक मनपंसद कहानी के रूप में याद रह गयी। बाद में मैंने इसे कई बार पढ़ा है, पढ़ाया भी है, लेकिन आज भी उन पंक्तियों को पढ़कर मुझे हँसी आ जाती है।
मैं ठीक-ठीक नहीं कह सकता कि यह प्रेमचंद की कहानी ‘बड़े भाई साहब’ का असर था या कुछ और, लेकिन मेरे साथ यह जरूर हुआ कि मैंने अपनी पढ़ाई को कभी उस कहानी के बड़े भाई साहब की तरह गंभीरता से नहीं लिया। हमेशा खेलता-कूदता रहा और अच्छे नंबरों से पास भी होता रहा। हो सकता है, यह उस कहानी का ही असर हो कि बाद में जब मैं लेखक बना, तो हल्का-सा यह अहसास मेरे मन में हमेशा रहा कि रचना पाठक को प्रभावित करती है--वह कभी उसे हँसाती है, कभी रुलाती है, कभी गुस्सा दिलाती है, कभी विपरीत परिस्थितियों से लड़ने का हौसला बँधाती है और लड़ाई में जीतने की उम्मीद भी जगाती है।
लोग मुझे प्रेमचंद की परंपरा का लेखक कहते हैं। लेकिन मेरे विचार से प्रेमचंद की परंपरा में होने का मतलब प्रेमचंद की नकल करना नहीं है। मेरे लिए प्रेमचंद की परंपरा में होने का अर्थ है मनुष्य होना और मानवता के पक्ष में खड़े होना, जनोन्मुख होना और जनतांत्रिक मूल्यों वाला लेखन करना, न्यायप्रिय होना और अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाना, प्रगतिशील होना और सामाजिक रूढ़ियों-कुरीतियों का विरोध करना, धर्मनिरपेक्ष होना और सांप्रदायिकता के विरुद्ध समाज को जागरूक बनाना, यथार्थवादी होना और यथार्थवादी लेखन करना...और जाहिर है कि यह सब आप प्रेमचंद की--या दुनिया के किसी भी महान लेखक की--नकल करके नहीं कर सकते। इसके लिए तो आपको अपने समय की समस्याओं से जूझते हुए, अपने समय में संभव समाधानों की तलाश करते हुए, अपने ही ढंग की रचना करनी होगी। तभी आपका लेखन सार्थक और प्रासंगिक हो सकेगा।
लेकिन मैं देखता हूँ कि हिंदी साहित्य में ‘प्रेमचंद की परंपरा’ के कई भिन्न और परस्पर-विरोधी अर्थ लगाये जाते हैं। कोई कहता है कि वह गाँवों और किसानों के बारे में लिखने की परंपरा है, तो कोई कहता है कि वह दीन-हीन लोगों के बारे में लिखने की परंपरा है। कोई कहता है कि वह आदर्शवादी लेखन की परंपरा है, तो कोई कहता है कि वह यथार्थवादी लेखन की परंपरा है। कोई कहता है कि वह कथा-पात्रों का हृदय-परिवर्तन करा देने के नुस्खे की परंपरा है, तो कोई कहता है कि प्रेमचंद की परंपरा उनकी अंतिम समय की कुछ रचनाओं की परंपरा है, न कि उनसे पहले की तमाम रचनाओं की।
1980 में जब प्रेमचंद जन्मशती मनाने के लिए छोटे-बड़े बहुत-से आयोजन हुए, पत्रिकाओं के विशेषांक निकले, प्रेमचंद पर लिखी गयी पुस्तकें प्रकाशित हुईं, तो जहाँ एक तरफ प्रगतिशील-जनवादी लेखकों द्वारा प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाने की बात शुरू हुई, वहीं दूसरी तरफ उसेे सिरे से ही खारिज करने की एक मुहिम चली। यह मुहिम कलावादी खेमे की तरफ से चलायी गयी। उसी के तहत अशोक वाजपेयी के संपादन में मध्यप्रदेश कला परिषद् की पत्रिका ‘पूर्वग्रह’ का एक विशेषांक ‘इधर की कथा’ के नाम से निकला, जिसमें निर्मल वर्मा ने लिखा :
‘‘आज जब कुछ समीक्षक और लेखक प्रेमचंद की परंपरा की बात डंके की चोट के साथ दोहराते हैं--उसे कसौटी मानकर आधुनिक लेखन को प्रगतिशील या प्रतिक्रियावादी घोषित करते हैं--तो मुझे काफी हैरानी होती है। मुझसे ज्यादा हैरानी और क्षोभ शायद प्रेमचंद को होता, यदि वे जीवित होते। वे शायद हँसी में उनसे कहते, ‘भई, आप तो मेरी परंपरा में आते हैं, लेकिन मैं? मैं कौन-सी परंपरा में आता हूँ--‘सेवासदन’ की परंपरा में या ‘कफन’ की परंपरा में?’ और तब हमें अचानक पता चलेगा कि स्वयं प्रेमचंद को ‘प्रेमचंद की परंपरा’ से मुक्त करना जरूरी है...’’
तब मैंने प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’ एक बार फिर से पढ़ी और ‘सारिका’ (फरवरी, 1987) में एक लंबा लेख लिखा, जिसका शीर्षक था ‘‘क्या प्रेमचंद की परंपरा ‘कफन’ से बनती है?’’। इस लेख में मैंने यह बताया कि जिसे हम प्रेमचंद की परंपरा कहते हैं, वह केवल ‘कफन’ की नहीं, बल्कि प्रेमचंद के संपूर्ण साहित्य की परंपरा है।
लेकिन यह देखकर मुझे आश्चर्य हुआ कि अशोक वाजपेयी जैसे कलावादी और निर्मल वर्मा जैसे आधुनिकतावादी ही नहीं, बल्कि नामवर सिंह जैसे प्रगतिवादी भी प्रेमचंद की परंपरा को ‘कफन’ की परंपरा मानते हैं। नामवर सिंह ने ‘आलोचना’ में रवींद्र वर्मा का एक लेख प्रकाशित किया, जो ‘सारिका’ वाले मेरे लेख की प्रतिक्रिया में लिखा गया था। अपने संपादकीय में नामवर सिंह ने ‘कफन’ की मेरी व्याख्या को ‘अजीबोगरीब’ और रवींद्र वर्मा के लेख को ‘सुचिंतित’ बताते हुए अपना पक्ष स्पष्ट किया। तब मैंने एक और लेख लिखा, जिसका शीर्षक था ‘‘ ‘कफन’ के बारे में कुछ और’’। यह लेख ‘कथ्य-रूप’ पत्रिका के जनवरी-मार्च, 1991 के अंक में छपा था। इस लेख में मैंने दो प्रश्न उठाये :
1. क्या ‘कफन’ लिखते समय प्रेमचंद की विचारधारा वाकई बदल गयी थी? अर्थात् क्या यह कहानी ऐसा कोई साक्ष्य प्रस्तुत करती है?
2. यदि नहीं, तो इस कहानी में वह कौन-सी चीज है, जो आधुनिकतावादियों और कलावादियों को इसकी मनचाही व्याख्याएँ करने की और अंतिम समय के प्रेमचंद को अपने पक्ष में खड़ा कर लेने की छूट देती है? अर्थात् क्या समीक्षा के वे प्रतिमान सचमुच इस कहानी पर लागू होते हैं, जिनके आधार पर ये लोग किसी रचना को महत्त्वपूर्ण और कलात्मक सिद्ध किया करते हैं?
इन प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए मैंने प्रेमचंद साहित्य पर एक बार फिर से विचार करने और ‘कफन’ को नये सिरे से समझने का प्रयास किया, तो पता चला कि कई प्रगतिशील और जनवादी लेखक-आलोचक भी इस कहानी की व्याख्या गलत ढंग से करते हैं। यदि कहानी के कथ्य को ठीक तरह से समझा जाये, तो पता चलेगा कि इसमें न तो प्रेमचंद की विचारधारा बदली है, न पक्षधरता, न प्रतिबद्धता, और न इसे उनकी अन्य रचनाओं से काटकर अलग किया जा सकता है।
प्रेमचंद को पहली बार पढ़ने का-सा अनुभव मुझे एक बार फिर उस समय हुआ, जब हिंदी में प्रगतिशील-जनवादी लेखन के नये दौर के संदर्भ में यथार्थवाद पर पुनः एक बहस चली और मैंने प्रेमचंद के ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ को स्पष्ट करते हुए एक लेख लिखा ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की जरूरत’, जो 2001 में ‘कथन’ में छपा था और जो 2008 में प्रकाशित मेरे साहित्यिक निबंधों के संकलन ‘साहित्य और भूमंडलीय यथार्थ’ में संकलित है। इस लेख में मैंने लिखा :
हिंदी के लेखकों को गर्व होना चाहिए था कि हमारे प्रेमचंद ने साहित्य को ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ दिया। उन्हें प्रेमचंद की इस अद्भुत देन के लिए कृतज्ञ होना चाहिए था और इसे अपनाकर आगे बढ़ाना चाहिए था। लेकिन उन्होंने आदर्शवाद को प्रेमचंद की कमजोरी माना और खुद को खरा यथार्थवादी मानते हुए प्रेमचंद में भी खरा यथार्थवाद खोजा। नतीजा यह हुआ कि उन्हें प्रेमचंद की अंतिम कुछ रचनाओं में ही यथार्थवाद नजर आया। शेष रचनाओं कोे आदर्शवादी मानते हुए या तो उन्होंने खारिज कर दिया, या उनका मूल्य बहुत कम करके आँका। इससे उन्हें या साहित्य को फायदा क्या हुआ, यह तो पता नहीं, पर नुकसान यह जरूर हुआ कि स्वयं को यथार्थवादी समझने वाले लेखक ‘जो है’ उसी का चित्रण करने को यथार्थवाद समझते रहे और ‘जो होना चाहिए’ उसे आदर्शवाद समझकर उसका चित्रण करने से बचते रहे।
इस लेख में मैंने यह भी लिखा कि लेखक के सामने जब कोई आदर्श नहीं होता, तो उसकी समझ में नहीं आता कि वह क्या लिखे और क्यों लिखे। किसी बड़ी प्रेरणा के अभाव में वह या तो लिखना छोड़कर कोई ऐसा काम करने लगता है, जो उसे ज्यादा जरूरी, ज्यादा लाभदायक या ज्यादा संतुष्टि देने वाला लगता है; या वह निरुद्देश्य ढंग का कलावादी अथवा पैसा कमाने के उद्देश्य से लिखने वाला बाजारू लेखक बन जाता है। आदर्शोन्मुख यथार्थवादी लेखक कुछ नैतिक मूल्यों से प्रेरित-परिचालित होने के कारण अपनी रचना में सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय, उचित-अनुचित, आवश्यक-अनावश्यक तथा सुंदर-असुंदर के बीच विवेकपूर्वक फर्क करने में जितना समर्थ होता है, उतना आदर्शरहित निरा यथार्थवादी लेखक कभी नहीं हो सकता। इतना ही नहीं, निरा यथार्थवादी लेखक अपनी रचना को उस पूर्णता तक कभी नहीं पहुँचा सकता, जिससे उसे आत्मसंतोष और पाठक को आनंद मिलता है। कहानी, उपन्यास और नाटक के लेखन पर तो यह बात कुछ ज्यादा ही लागू होती है।
लेकिन हिंदी साहित्य का यह विचित्र विरोधाभास है कि उसमें कथा-रचना जितनी समृद्ध है, कथा-समीक्षा उतनी ही दरिद्र। यही कारण है कि जहाँ कथाकारों ने आदर्शोनमुख यथार्थवाद को अपनी रचनाओं में बड़ी आसानी से अपना लिया और उसके आधार पर प्रभूत मात्रा में उत्कृष्ट कथा-लेखन किया, वहाँ कथा-समीक्षक आदर्शवाद और यथार्थवाद का संबंध ही नहीं समझ पाये। इसी का नतीजा है कि हिंदी की कथा-समीक्षा में यथार्थ और कल्पना, यथार्थ और फैंटेसी, यथार्थ और यूटोपिया आदि के आपसी रिश्तों की कोई स्पष्ट समझ आज तक भी विकसित नहीं हो पायी है।
स्वयं को मार्क्सवादी मानने वाले कई प्रगतिशील-जनवादी कथा-समीक्षक भी प्रेमचंद के आदर्शोन्मुख यथार्थवाद को नहीं समझ पाते। वे ‘अर्ली मार्क्स’ और ‘लेटर मार्क्स’ की तर्ज पर प्रेमचंद की रचनाओं को भी ‘पूर्ववर्ती’ और ‘परवर्ती’ रचनाओं में बाँटकर उन्हें क्रमशः आदर्शवादी और यथार्थवादी बताते हुए प्रेमचंद का विचारधारात्मक विकास दिखाया करते हैं। वे यह नहीं देख पाते कि ऐसा करते हुए वे उन लेखकों-समीक्षकों की-सी बातें करने लगते हैं, जो प्रेमचंद के अंतिम समय की ‘कफन’ जैसी कुछ रचनाओं को ही यथार्थवादी बताते हुए प्रेमचंद के पूरे साहित्य और उनकी यथार्थवादी परंपरा को खारिज किया करते हैं। ऐसे प्रगतिशील-जनवादी कथा-समीक्षकों की तुलना में प्रगतिशील-जनवादी कथाकार यथार्थ और आदर्श के रिश्ते को, प्रेमचंद के आदर्शोन्मुख यथार्थवाद को तथा प्रेमचंद की परंपरा को बहुत बेहतर ढंग से समझते हैं। उदाहरण के लिए, कथाकार इसराइल ने अपने पहले कहानी संग्रह ‘फर्क’ (1978) की भूमिका में लिखा था :
‘‘एक मार्क्सवादी के रूप में मेरे कलाकार ने सीखा है कि सिर्फ वही सच नहीं है, जो सामने है, बल्कि वह भी सच है, जो कहीं दूर अनागत की कोख में जन्म लेने के लिए कसमसा रहा है। उस अनागत सच तक पहुँचने की प्रक्रिया को तीव्र करने के संघर्ष को समर्पित मेरे कलाकार की चेतना अगर तीसरी आँख की तरह अपने पात्रों में उपस्थित नजर आती हो, तो यह मेरी सफलता है।’’
मेरा अपना मानना है कि प्रेमचंद के आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की सही समझ विकसित की जाये, तो उससे हिंदी कथासाहित्य और कथा-समीक्षा दोनों को अपने विकास की सही समझ और दिशा प्राप्त हो सकती है। इतना ही नहीं, यथार्थवाद के नाम पर हमने बेहतर दुनिया के भविष्य-स्वप्न को अपने साहित्य से जो देशनिकाला दे रखा है, उसे उसके सही स्थान पर लाकर हम हिंदी साहित्य के इतिहास को भी एक नये और बेहतर ढंग से लिख सकते हैं।
इसीलिए मैं प्रेमचंद के आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की बात बार-बार करता हूँ। पिछले दिनों ‘आलोचना’ के एक अंक (अक्टूबर-दिसंबर, 2010) में ‘हमारे समय के स्वप्न’ विषय पर आयोजित परिचर्चा में हिस्सेदारी करते हुए मैंने लिखा है कि स्वाधीनता के बाद के हिंदी साहित्य में लगभग दो दशकों तक ‘मोहभंग’ और ‘क्षणवाद’ की विचारधारा हावी रही और वर्तमान व्यवस्था की जगह भविष्य की किसी बेहतर व्यवस्था का स्वप्न देखने वालों को गैर-यथार्थवादी, आदर्शवादी अथवा यूटोपियाई बताकर खारिज किया जाता रहा। इसी के चलते हिंदी साहित्य में यथार्थवाद और आदर्शवाद, दोनों की एक गलत समझ बनायी और प्रचारित की गयी। इस प्रवृत्ति के शिकार समसामयिक लेखक तो हुए ही, पहले के लेखक भी हुए। उदाहरण के लिए, प्रेमचंद के अधिकांश साहित्य को आदर्शवादी बताते हुए उनकी अंतिम समय की कुछ रचनाओं को ही यथार्थवादी माना गया और यह बात सिरे से ही भुला दी गयी कि प्रेमचंद ‘आदर्श’ और ‘यथार्थ’ को परस्पर विरोधी नहीं मानते थे, बल्कि उन्होंने तो ‘नग्न यथार्थवाद’ (प्रकृतवाद) के विरुद्ध ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ की स्थापना की थी!
भूमंडलीय यथार्थवाद की अवधारणा को विकसित करते समय मुझे प्रेमचंद के आदर्शोन्मुख यथार्थवाद को फिर एक बार नये सिरे से समझने की जरूरत महसूस हुई और इस सिलसिले में उनकी कई रचनाएँ पढ़ते समय मुझे लगा कि जैसे मैं उन्हें पहली ही बार पढ़ रहा हूँ।
--रमेश उपाध्याय
बात यह है कि पढ़ना पाठक पर ही नहीं, लेखक पर भी निर्भर करता है। किसी लेखक को हम पढ़ना शुरू करते हैं और चंद पंक्तियाँ पढ़कर ही छोड़ देते हैं। किसी की एकाध रचना पूरी पढ़ते हैं और फिर कभी उसकी किसी रचना को हाथ नहीं लगाते। कोई लेखक पहली बार पढ़ने पर बड़ा नया और अच्छा लगता है, लेकिन फिर से पढ़ने पर विस्मय होता है कि हमने इसे क्यों पढ़ा था और क्यों पसंद किया था। महान लेखकों में कुछ लेखक ऐसे होते हैं, जो पहली बार पढ़ने पर समझ में नहीं आते और जिनकी रचनाएँ बार-बार पढ़े जाने पर ही अपनी महानता के रहस्य खोलती हैं। लेकिन कुछ महान लेखक ऐसे भी होते हैं, जो पहली बार पढ़ने पर बड़े साधारण-से लगते हैं, लेकिन जिन्हें फिर से पढ़ने पर हम उनकी असाधारणता देखकर चकित रह जाते हैं और उन्हें बार-बार पढ़ते हैं। प्रेमचंद ऐसे ही महान लेखक हैं।
प्रेमचंद को पहली बार मैंने तब पढ़ा, जब मैं बारह साल का था, मेरा नाम रमेश चंद्र शर्मा था और मैं उत्तर प्रदेश के एटा जिले की तहसील कासगंज के एक हाई स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ता था। यह 1954 के जुलाई के महीने की बात है। गर्मी की छुट्टियों के बाद स्कूल खुल गया था। मेरे लिए नयी किताबें आ गयी थीं। नयी किताबों को पढ़ना मुझे बहुत अच्छा लगता था। उनसे आती गंध, जो पता नहीं, नये कागज की होती थी या उस पर की गयी छपाई में इस्तेमाल हुई सियाही की, या जिल्दसाजी में लगी चीजों की, या बरसात के मौसम में कागज में आयी हल्की-सी सीलन की, मुझे बहुत प्रिय थी। ज्यों ही मेरे लिए नयी किताबें आतीं, मैं सबसे पहले अपनी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक पढ़ डालता, क्योंकि मुझे कहानियाँ पढ़ने का चस्का लग चुका था और हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में कुछ कहानियाँ होती थीं।
एक दिन मैं स्कूल से लौटा और खाना खाकर हिंदी की नयी पाठ्य-पुस्तक लेकर बैठ गया। उसमें एक कहानी थी ‘बड़े भाई साहब’। पुस्तक में अवश्य ही लिखा रहा होगा कि इस कहानी के लेखक प्रेमचंद हैं। लेकिन उस समय मेरी उम्र लेखक का नाम देखकर कहानी पढ़ने की नहीं थी। मैंने तो ‘बड़े भाई साहब’ शीर्षक देखा और पढ़ने लगा। कहानी के शीर्षक ने मुझे शायद इसलिए आकर्षित किया कि मेरे एक नहीं, दो-दो बड़े भाई साहब थे।
मेरे बड़े भैया नरोत्तम दत्त शर्मा वैद्य थे। आयुर्वेदाचार्य। वे माने हुए वैद्य थे और उनका यश दूर-दूर तक फैला हुआ था, क्योंकि वे आयुर्वेदिक दवाओं की एक फार्मेसी भी चलाते थे। वे साहित्यानुरागी थे और राजनीति में भी रुचि रखते थे। अतः वे साहित्यिक पत्रिकाएँ मँगाते थे और उनके दवाखाने में रोगियों के अलावा कवि, लेखक, पत्रकार और नेतानुमा लोग भी बैठे रहते थे। बड़े भैया रोगियों को देखते रहते और साथ-साथ साहित्यिक-राजनीतिक चर्चाओं में भी हिस्सेदारी करते रहते। उन्हें रतौंधी आती थी, जिसके कारण शाम होने के बाद उन्हें कुछ कम दिखायी पड़ता था। इसलिए शाम को दवाखाना बंद करने और उनका हाथ पकड़कर घर ले आने का काम मेरा था। यह काम मुझे बहुत अच्छा लगता था, क्योंकि इस बहाने मैं शाम को खेलने-कूदने निकल जाता, खेलकर दवाखाने पहुँच जाता, वहाँ आने वाली पत्रिकाओं में कहानियाँ पढ़ता और वहाँ बैठे हुए लोगों की बातें और किस्से सुनता। बड़े भैया मुझे बहुत होशियार और होनहार मानते थे, प्यार करते थे और कभी डाँटते नहीं थे।
इसके विपरीत छोटे भैया रामनिवास शर्मा, जो अच्छी तरह पढ़-लिख न पाने के कारण प्राइमरी स्कूल के मास्टर बनकर रह गये थे, बड़े कठोर स्वभाव के, अनुशासनप्रिय और बात-बेबात डाँटने-मारने के आदी थे। वे मेहनत बहुत करते थे--स्कूल में सख्त पाबंदी के साथ पढ़ाकर घर आते, खाना खाते और ट्यूशनें करने निकल जाते। लेकिन कई घरों में जा-जाकर दस-दस, बीस-बीस रुपये माहवार की ट्यूशनें करने के बावजूद वे बड़े भैया के मुकाबले बहुत कम कमा पाते थे, इसलिए खीजे रहते थे। शहर में जितना मान-सम्मान बड़े भैया का था, उनका नहीं था। इस बात ने भी उन्हें कुंठित और क्रोधी बना दिया था। उनका क्रोध प्रायः मुझ पर उतरता था, क्योंकि मैं घर में सबसे छोटा था। बहाना यह होता था कि मैं अपनी पढ़ाई पर कम ध्यान देता हूँ और खेलने-कूदने तथा बड़े भैया के दवाखाने पर जाकर वहाँ आने वाले ‘‘ठलुओं की बकवास’’ सुनने में अपना कीमती समय ज्यादा बर्बाद करता हूँ। छुट्टी वाले दिन वे घर में पड़े-पड़े जासूसी और तिलिस्मी उपन्यास पढ़ा करते थे, जिन्हें चोरी-छिपे मैं भी पढ़ लेता था। छोटे भैया मेरी चोरी पकड़ लेते, तो पिटाई करते और सख्त ताकीद करते कि मैं अपनी पढ़ाई पर ध्यान दूँ।
लेकिन मुझे कहानी पढ़ने का ऐसा चाव था कि अखबार या किसी पत्रिका में ज्यों ही कहानी दिखती, मैं पढ़ डालता। इसीलिए हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में छपी कहानियाँ मैं सबसे पहले पढ़ता। सो उस दिन मैं अपनी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में ‘बड़े भाई साहब’ कहानी पढ़ रहा था। उसमें बड़े भाई साहब के बारे में लिखा था :
‘‘वह स्वभाव से बड़े अध्ययनशील थे। हरदम किताब खोले बैठे रहते और शायद दिमाग को आराम देने के लिए कभी कापी पर, कभी किताब के हाशियों पर चिड़ियों, कुत्तों, बिल्लियों की तस्वीरें बनाया करते थे। कभी-कभी एक ही नाम या शब्द या वाक्य दस-बीस बार लिख डालते। कभी एक शेर को बार-बार सुंदर अक्षरों से नकल करते। कभी ऐसी शब्द-रचना करते, जिसमें न कोई अर्थ होता, न कोई सामंजस्य! मसलन एक बार उनकी कापी पर मैंने यह इबारत देखी--स्पेशल, अमीना, भाइयों-भाइयों, दर-असल, भाई-भाई, राधेश्याम, श्रीयुत राधेश्याम, एक घंटे तक--इसके बाद एक आदमी का चेहरा बना हुआ था।’’
पढ़ते-पढ़ते मुझे इतनी जोर की हँसी छूटी कि रोके न रुके। मेरी दोनों भाभियों ने मेरी हँसी की आवाज सुनकर देखा कि मैं अकेला बैठा हँस रहा हूँ, तो उन्होंने कारण पूछा और मैं बता नहीं पाया। मैंने खुली हुई किताब उनके आगे कर दी और उँगली रखकर बताया कि जिस चीज को पढ़कर मैं हँस रहा हूँ, उसे वे भी पढ़ लें। उन्होंने भी पढ़ा और वे भी हँसीं, हालाँकि मेरी तरह नहीं।
बाद में, न जाने कब, मुझे पता चला कि ‘बड़े भाई साहब’ कहानी प्रेमचंद की लिखी हुई थी। उसके बाद मैं प्रेमचंद की कहानियाँ ढूँढ़-ढूँढ़कर पढ़ने लगा। लेकिन प्रेमचंद की यह कहानी मुझे हमेशा के लिए अपनी एक मनपंसद कहानी के रूप में याद रह गयी। बाद में मैंने इसे कई बार पढ़ा है, पढ़ाया भी है, लेकिन आज भी उन पंक्तियों को पढ़कर मुझे हँसी आ जाती है।
मैं ठीक-ठीक नहीं कह सकता कि यह प्रेमचंद की कहानी ‘बड़े भाई साहब’ का असर था या कुछ और, लेकिन मेरे साथ यह जरूर हुआ कि मैंने अपनी पढ़ाई को कभी उस कहानी के बड़े भाई साहब की तरह गंभीरता से नहीं लिया। हमेशा खेलता-कूदता रहा और अच्छे नंबरों से पास भी होता रहा। हो सकता है, यह उस कहानी का ही असर हो कि बाद में जब मैं लेखक बना, तो हल्का-सा यह अहसास मेरे मन में हमेशा रहा कि रचना पाठक को प्रभावित करती है--वह कभी उसे हँसाती है, कभी रुलाती है, कभी गुस्सा दिलाती है, कभी विपरीत परिस्थितियों से लड़ने का हौसला बँधाती है और लड़ाई में जीतने की उम्मीद भी जगाती है।
लोग मुझे प्रेमचंद की परंपरा का लेखक कहते हैं। लेकिन मेरे विचार से प्रेमचंद की परंपरा में होने का मतलब प्रेमचंद की नकल करना नहीं है। मेरे लिए प्रेमचंद की परंपरा में होने का अर्थ है मनुष्य होना और मानवता के पक्ष में खड़े होना, जनोन्मुख होना और जनतांत्रिक मूल्यों वाला लेखन करना, न्यायप्रिय होना और अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाना, प्रगतिशील होना और सामाजिक रूढ़ियों-कुरीतियों का विरोध करना, धर्मनिरपेक्ष होना और सांप्रदायिकता के विरुद्ध समाज को जागरूक बनाना, यथार्थवादी होना और यथार्थवादी लेखन करना...और जाहिर है कि यह सब आप प्रेमचंद की--या दुनिया के किसी भी महान लेखक की--नकल करके नहीं कर सकते। इसके लिए तो आपको अपने समय की समस्याओं से जूझते हुए, अपने समय में संभव समाधानों की तलाश करते हुए, अपने ही ढंग की रचना करनी होगी। तभी आपका लेखन सार्थक और प्रासंगिक हो सकेगा।
लेकिन मैं देखता हूँ कि हिंदी साहित्य में ‘प्रेमचंद की परंपरा’ के कई भिन्न और परस्पर-विरोधी अर्थ लगाये जाते हैं। कोई कहता है कि वह गाँवों और किसानों के बारे में लिखने की परंपरा है, तो कोई कहता है कि वह दीन-हीन लोगों के बारे में लिखने की परंपरा है। कोई कहता है कि वह आदर्शवादी लेखन की परंपरा है, तो कोई कहता है कि वह यथार्थवादी लेखन की परंपरा है। कोई कहता है कि वह कथा-पात्रों का हृदय-परिवर्तन करा देने के नुस्खे की परंपरा है, तो कोई कहता है कि प्रेमचंद की परंपरा उनकी अंतिम समय की कुछ रचनाओं की परंपरा है, न कि उनसे पहले की तमाम रचनाओं की।
1980 में जब प्रेमचंद जन्मशती मनाने के लिए छोटे-बड़े बहुत-से आयोजन हुए, पत्रिकाओं के विशेषांक निकले, प्रेमचंद पर लिखी गयी पुस्तकें प्रकाशित हुईं, तो जहाँ एक तरफ प्रगतिशील-जनवादी लेखकों द्वारा प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाने की बात शुरू हुई, वहीं दूसरी तरफ उसेे सिरे से ही खारिज करने की एक मुहिम चली। यह मुहिम कलावादी खेमे की तरफ से चलायी गयी। उसी के तहत अशोक वाजपेयी के संपादन में मध्यप्रदेश कला परिषद् की पत्रिका ‘पूर्वग्रह’ का एक विशेषांक ‘इधर की कथा’ के नाम से निकला, जिसमें निर्मल वर्मा ने लिखा :
‘‘आज जब कुछ समीक्षक और लेखक प्रेमचंद की परंपरा की बात डंके की चोट के साथ दोहराते हैं--उसे कसौटी मानकर आधुनिक लेखन को प्रगतिशील या प्रतिक्रियावादी घोषित करते हैं--तो मुझे काफी हैरानी होती है। मुझसे ज्यादा हैरानी और क्षोभ शायद प्रेमचंद को होता, यदि वे जीवित होते। वे शायद हँसी में उनसे कहते, ‘भई, आप तो मेरी परंपरा में आते हैं, लेकिन मैं? मैं कौन-सी परंपरा में आता हूँ--‘सेवासदन’ की परंपरा में या ‘कफन’ की परंपरा में?’ और तब हमें अचानक पता चलेगा कि स्वयं प्रेमचंद को ‘प्रेमचंद की परंपरा’ से मुक्त करना जरूरी है...’’
तब मैंने प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’ एक बार फिर से पढ़ी और ‘सारिका’ (फरवरी, 1987) में एक लंबा लेख लिखा, जिसका शीर्षक था ‘‘क्या प्रेमचंद की परंपरा ‘कफन’ से बनती है?’’। इस लेख में मैंने यह बताया कि जिसे हम प्रेमचंद की परंपरा कहते हैं, वह केवल ‘कफन’ की नहीं, बल्कि प्रेमचंद के संपूर्ण साहित्य की परंपरा है।
लेकिन यह देखकर मुझे आश्चर्य हुआ कि अशोक वाजपेयी जैसे कलावादी और निर्मल वर्मा जैसे आधुनिकतावादी ही नहीं, बल्कि नामवर सिंह जैसे प्रगतिवादी भी प्रेमचंद की परंपरा को ‘कफन’ की परंपरा मानते हैं। नामवर सिंह ने ‘आलोचना’ में रवींद्र वर्मा का एक लेख प्रकाशित किया, जो ‘सारिका’ वाले मेरे लेख की प्रतिक्रिया में लिखा गया था। अपने संपादकीय में नामवर सिंह ने ‘कफन’ की मेरी व्याख्या को ‘अजीबोगरीब’ और रवींद्र वर्मा के लेख को ‘सुचिंतित’ बताते हुए अपना पक्ष स्पष्ट किया। तब मैंने एक और लेख लिखा, जिसका शीर्षक था ‘‘ ‘कफन’ के बारे में कुछ और’’। यह लेख ‘कथ्य-रूप’ पत्रिका के जनवरी-मार्च, 1991 के अंक में छपा था। इस लेख में मैंने दो प्रश्न उठाये :
1. क्या ‘कफन’ लिखते समय प्रेमचंद की विचारधारा वाकई बदल गयी थी? अर्थात् क्या यह कहानी ऐसा कोई साक्ष्य प्रस्तुत करती है?
2. यदि नहीं, तो इस कहानी में वह कौन-सी चीज है, जो आधुनिकतावादियों और कलावादियों को इसकी मनचाही व्याख्याएँ करने की और अंतिम समय के प्रेमचंद को अपने पक्ष में खड़ा कर लेने की छूट देती है? अर्थात् क्या समीक्षा के वे प्रतिमान सचमुच इस कहानी पर लागू होते हैं, जिनके आधार पर ये लोग किसी रचना को महत्त्वपूर्ण और कलात्मक सिद्ध किया करते हैं?
इन प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए मैंने प्रेमचंद साहित्य पर एक बार फिर से विचार करने और ‘कफन’ को नये सिरे से समझने का प्रयास किया, तो पता चला कि कई प्रगतिशील और जनवादी लेखक-आलोचक भी इस कहानी की व्याख्या गलत ढंग से करते हैं। यदि कहानी के कथ्य को ठीक तरह से समझा जाये, तो पता चलेगा कि इसमें न तो प्रेमचंद की विचारधारा बदली है, न पक्षधरता, न प्रतिबद्धता, और न इसे उनकी अन्य रचनाओं से काटकर अलग किया जा सकता है।
प्रेमचंद को पहली बार पढ़ने का-सा अनुभव मुझे एक बार फिर उस समय हुआ, जब हिंदी में प्रगतिशील-जनवादी लेखन के नये दौर के संदर्भ में यथार्थवाद पर पुनः एक बहस चली और मैंने प्रेमचंद के ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ को स्पष्ट करते हुए एक लेख लिखा ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की जरूरत’, जो 2001 में ‘कथन’ में छपा था और जो 2008 में प्रकाशित मेरे साहित्यिक निबंधों के संकलन ‘साहित्य और भूमंडलीय यथार्थ’ में संकलित है। इस लेख में मैंने लिखा :
हिंदी के लेखकों को गर्व होना चाहिए था कि हमारे प्रेमचंद ने साहित्य को ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ दिया। उन्हें प्रेमचंद की इस अद्भुत देन के लिए कृतज्ञ होना चाहिए था और इसे अपनाकर आगे बढ़ाना चाहिए था। लेकिन उन्होंने आदर्शवाद को प्रेमचंद की कमजोरी माना और खुद को खरा यथार्थवादी मानते हुए प्रेमचंद में भी खरा यथार्थवाद खोजा। नतीजा यह हुआ कि उन्हें प्रेमचंद की अंतिम कुछ रचनाओं में ही यथार्थवाद नजर आया। शेष रचनाओं कोे आदर्शवादी मानते हुए या तो उन्होंने खारिज कर दिया, या उनका मूल्य बहुत कम करके आँका। इससे उन्हें या साहित्य को फायदा क्या हुआ, यह तो पता नहीं, पर नुकसान यह जरूर हुआ कि स्वयं को यथार्थवादी समझने वाले लेखक ‘जो है’ उसी का चित्रण करने को यथार्थवाद समझते रहे और ‘जो होना चाहिए’ उसे आदर्शवाद समझकर उसका चित्रण करने से बचते रहे।
इस लेख में मैंने यह भी लिखा कि लेखक के सामने जब कोई आदर्श नहीं होता, तो उसकी समझ में नहीं आता कि वह क्या लिखे और क्यों लिखे। किसी बड़ी प्रेरणा के अभाव में वह या तो लिखना छोड़कर कोई ऐसा काम करने लगता है, जो उसे ज्यादा जरूरी, ज्यादा लाभदायक या ज्यादा संतुष्टि देने वाला लगता है; या वह निरुद्देश्य ढंग का कलावादी अथवा पैसा कमाने के उद्देश्य से लिखने वाला बाजारू लेखक बन जाता है। आदर्शोन्मुख यथार्थवादी लेखक कुछ नैतिक मूल्यों से प्रेरित-परिचालित होने के कारण अपनी रचना में सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय, उचित-अनुचित, आवश्यक-अनावश्यक तथा सुंदर-असुंदर के बीच विवेकपूर्वक फर्क करने में जितना समर्थ होता है, उतना आदर्शरहित निरा यथार्थवादी लेखक कभी नहीं हो सकता। इतना ही नहीं, निरा यथार्थवादी लेखक अपनी रचना को उस पूर्णता तक कभी नहीं पहुँचा सकता, जिससे उसे आत्मसंतोष और पाठक को आनंद मिलता है। कहानी, उपन्यास और नाटक के लेखन पर तो यह बात कुछ ज्यादा ही लागू होती है।
लेकिन हिंदी साहित्य का यह विचित्र विरोधाभास है कि उसमें कथा-रचना जितनी समृद्ध है, कथा-समीक्षा उतनी ही दरिद्र। यही कारण है कि जहाँ कथाकारों ने आदर्शोनमुख यथार्थवाद को अपनी रचनाओं में बड़ी आसानी से अपना लिया और उसके आधार पर प्रभूत मात्रा में उत्कृष्ट कथा-लेखन किया, वहाँ कथा-समीक्षक आदर्शवाद और यथार्थवाद का संबंध ही नहीं समझ पाये। इसी का नतीजा है कि हिंदी की कथा-समीक्षा में यथार्थ और कल्पना, यथार्थ और फैंटेसी, यथार्थ और यूटोपिया आदि के आपसी रिश्तों की कोई स्पष्ट समझ आज तक भी विकसित नहीं हो पायी है।
स्वयं को मार्क्सवादी मानने वाले कई प्रगतिशील-जनवादी कथा-समीक्षक भी प्रेमचंद के आदर्शोन्मुख यथार्थवाद को नहीं समझ पाते। वे ‘अर्ली मार्क्स’ और ‘लेटर मार्क्स’ की तर्ज पर प्रेमचंद की रचनाओं को भी ‘पूर्ववर्ती’ और ‘परवर्ती’ रचनाओं में बाँटकर उन्हें क्रमशः आदर्शवादी और यथार्थवादी बताते हुए प्रेमचंद का विचारधारात्मक विकास दिखाया करते हैं। वे यह नहीं देख पाते कि ऐसा करते हुए वे उन लेखकों-समीक्षकों की-सी बातें करने लगते हैं, जो प्रेमचंद के अंतिम समय की ‘कफन’ जैसी कुछ रचनाओं को ही यथार्थवादी बताते हुए प्रेमचंद के पूरे साहित्य और उनकी यथार्थवादी परंपरा को खारिज किया करते हैं। ऐसे प्रगतिशील-जनवादी कथा-समीक्षकों की तुलना में प्रगतिशील-जनवादी कथाकार यथार्थ और आदर्श के रिश्ते को, प्रेमचंद के आदर्शोन्मुख यथार्थवाद को तथा प्रेमचंद की परंपरा को बहुत बेहतर ढंग से समझते हैं। उदाहरण के लिए, कथाकार इसराइल ने अपने पहले कहानी संग्रह ‘फर्क’ (1978) की भूमिका में लिखा था :
‘‘एक मार्क्सवादी के रूप में मेरे कलाकार ने सीखा है कि सिर्फ वही सच नहीं है, जो सामने है, बल्कि वह भी सच है, जो कहीं दूर अनागत की कोख में जन्म लेने के लिए कसमसा रहा है। उस अनागत सच तक पहुँचने की प्रक्रिया को तीव्र करने के संघर्ष को समर्पित मेरे कलाकार की चेतना अगर तीसरी आँख की तरह अपने पात्रों में उपस्थित नजर आती हो, तो यह मेरी सफलता है।’’
मेरा अपना मानना है कि प्रेमचंद के आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की सही समझ विकसित की जाये, तो उससे हिंदी कथासाहित्य और कथा-समीक्षा दोनों को अपने विकास की सही समझ और दिशा प्राप्त हो सकती है। इतना ही नहीं, यथार्थवाद के नाम पर हमने बेहतर दुनिया के भविष्य-स्वप्न को अपने साहित्य से जो देशनिकाला दे रखा है, उसे उसके सही स्थान पर लाकर हम हिंदी साहित्य के इतिहास को भी एक नये और बेहतर ढंग से लिख सकते हैं।
इसीलिए मैं प्रेमचंद के आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की बात बार-बार करता हूँ। पिछले दिनों ‘आलोचना’ के एक अंक (अक्टूबर-दिसंबर, 2010) में ‘हमारे समय के स्वप्न’ विषय पर आयोजित परिचर्चा में हिस्सेदारी करते हुए मैंने लिखा है कि स्वाधीनता के बाद के हिंदी साहित्य में लगभग दो दशकों तक ‘मोहभंग’ और ‘क्षणवाद’ की विचारधारा हावी रही और वर्तमान व्यवस्था की जगह भविष्य की किसी बेहतर व्यवस्था का स्वप्न देखने वालों को गैर-यथार्थवादी, आदर्शवादी अथवा यूटोपियाई बताकर खारिज किया जाता रहा। इसी के चलते हिंदी साहित्य में यथार्थवाद और आदर्शवाद, दोनों की एक गलत समझ बनायी और प्रचारित की गयी। इस प्रवृत्ति के शिकार समसामयिक लेखक तो हुए ही, पहले के लेखक भी हुए। उदाहरण के लिए, प्रेमचंद के अधिकांश साहित्य को आदर्शवादी बताते हुए उनकी अंतिम समय की कुछ रचनाओं को ही यथार्थवादी माना गया और यह बात सिरे से ही भुला दी गयी कि प्रेमचंद ‘आदर्श’ और ‘यथार्थ’ को परस्पर विरोधी नहीं मानते थे, बल्कि उन्होंने तो ‘नग्न यथार्थवाद’ (प्रकृतवाद) के विरुद्ध ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ की स्थापना की थी!
भूमंडलीय यथार्थवाद की अवधारणा को विकसित करते समय मुझे प्रेमचंद के आदर्शोन्मुख यथार्थवाद को फिर एक बार नये सिरे से समझने की जरूरत महसूस हुई और इस सिलसिले में उनकी कई रचनाएँ पढ़ते समय मुझे लगा कि जैसे मैं उन्हें पहली ही बार पढ़ रहा हूँ।
--रमेश उपाध्याय