क्या सचमुच कोई मुद्दा नहीं है?
कहा जा रहा है कि इस बार के लोकसभा चुनाव में किसी दल के पास कोई मुद्दा नहीं है। यह बड़ी विचित्र बात है। क्या भूख कोई मुद्दा नहीं है? क्या कुपोषण कोई मुद्दा नहीं है? क्या रोटी, कपड़ा और मकान अब कोई मुद्दे नहीं हैं? क्या जनता के एक बहुत बड़े भाग को पीने का साफ़ पानी तक न मिलना कोई मुद्दा नहीं है? क्या करोड़ों लोगों तक स्वास्थ्य सेवाओं का न पहुँच पाना और विशेष रूप से स्त्रियों और बच्चों का लाइलाज मर जाना कोई मुद्दा नहीं है? क्या गरीबों के बच्चों का अच्छी शिक्षा से वंचित रह जाना कोई मुद्दा नहीं है? क्या नौकरियों का तेज़ी से लगातार कम होते जाना और बेरोज़गारी का बढ़ते जाना कोई मुद्दा नहीं है? क्या कृषि का संकट और उसके कारण लाखों किसानों द्बारा की जा रही आत्महत्याएं कोई मुद्दा नहीं हैं?
और तो और आज की वैश्विक मंदी से उत्पन्न आर्थिक संकट भी इस चुनाव में कोई मुद्दा नहीं है, जबकि यह संकट तो केवल गरीब लोगों का नहीं, संपन्न लोगों और उनकी व्यवस्था का संकट भी है। उत्पादन और निर्यात का घटना, उसके कारण उद्योग-धंधों का बंद होना और उस से सम्बंधित तरह-तरह की समस्याओं का पैदा होना भी क्या कोई मुद्दा नहीं है?
सबसे ज़्यादा हैरानी की बात तो यह है कि मीडिया और राजनीतिक दलों को ही नहीं, हिन्दी के समकालीन लेखकों को भी आज के यथार्थ में मौजूद ये ज्वलंत मुद्दे भी कोई मुद्दे नहीं लग रहे। वे इन मुद्दों पर अपनी रचनाओं में चुप या उदासीन क्यों दिखाई दे रहे हैं?
--रमेश उपाध्याय