'तद्भव' के आख्यान पर एकाग्र अंक (अक्टूबर, 2011) में पिछले पच्चीस वर्षों की हिंदी कहानी पर एक लंबा लेख प्रकाशित हुआ था. मैंने उस पर एक टिप्पणी 'तद्भव' के नये अंक (अक्टूबर, 2012) में लिखी है. यह टिप्पणी 'बहस' के अंतर्गत छापी गयी है, लेकिन मेरी टिप्पणी के साथ ही उस लेख के लेखक का 'जवाब' (?) प्रकाशित करते हुए सम्पादकीय टिप्पणी में अखिलेश ने "इस बहस को अब यहीं विराम दिया जा रहा है" लिख कर बहस को बंद कर दिया है, जबकि बहस तो अब शुरू होनी चाहिए थी. मेरी टिप्पणी यहाँ प्रस्तुत है. आप चाहें, तो यहाँ या अन्यत्र इस बहस को आगे बढ़ा सकते हैं.
यथार्थवाद और मार्क्सवाद को विकसित करें
Capitalism is a world system. Its victims can effectively
face its challenges only if they are also organized at the global level.
--Samir Amin
The World We Wish To See (2008)
हिंदी की कथा-समीक्षा में नवीनता पर जितना ज्यादा जोर दिया जाता है, उतना मौलिकता पर दिया गया होता, तो उसका बेहतर विकास होता। नवीनता और मौलिकता में कोई अंतर्विरोध नहीं है, बल्कि सच्ची नवीनता तो मौलिकता में से ही आती है, लेकिन मौलिकता उत्पन्न करना मुश्किल काम है, जबकि नवीनता नये फैशन के कपड़े पहन लेने की तरह आसानी से प्रदर्शित की जा सकती है। मसलन, जब तक आधुनिकतावाद का फैशन रहे, आप आधुनिकतावादी बने रहें, और जब उत्तर-आधुनिकतावाद का नया फैशन आये, तो आप उत्तर-आधुनिकतावादी हो जायें! लेकिन फैशन में तमाम खूबियों के बावजूद यह एक बड़ी खामी होती है कि उसमें मौलिकता नहीं, नकल होती है। विडंबना यह है कि हिंदी का कथा-समीक्षक, जो ‘भूमंडलीय दक्षिण’ का होने के नाते ‘भूमंडलीय उत्तर’ के वर्चस्व का विरोधी होना चाहिए, फैशनेबल नवीनता के चक्कर में फँसकर उसका अनुयायी बन जाता है। उदाहरण के लिए, यदि ‘वहाँ’ यह घोषणा कर दी जाती है कि साहित्य में यथार्थवाद और मार्क्सवाद का अंत हो चुका है, तो वह अपनी स्थिति और परिस्थिति की वास्तविकता की ओर से आँख मूँदकर ‘यहाँ’ भी उस घोषणा को दोहराने लगता है!
‘तद्भव’ के ‘आख्यान पर एकाग्र’ अंक (अक्टूबर, 2011) में प्रोफेसर राजकुमार ने पिछले पच्चीस वर्षों की हिंदी कहानी पर एक लंबा लेख लिखा है, जिसमें उनका कहना है कि ‘‘यथार्थवादोत्तर/मार्क्सवादोत्तर ज्ञान और आख्यान कला से रचनात्मक संवाद किये बगैर हिंदी कथा का सार्थक विकास असंभव है।’’
अंग्रेजी के ‘पोस्ट’ का हिंदी अनुवाद ‘उत्तर’ उस चीज के अंत का सूचक होता है, जिसके पहले (जैसे ‘उत्तर-आधुनिकता’ में) या पीछे (जैसे ‘साम्यवादोत्तर’ में) इसे लगा दिया जाता है। इस प्रकार बनाये गये शब्द पुरानी चीजों के खत्म हो जाने के बाद आयी नयी चीजों के सूचक भी होते हैं। अतः ऊपर उद्धृत वाक्य का अर्थ यह हुआ कि यथार्थवाद और मार्क्सवाद नामक पुरानी चीजें खत्म हुईं, उनके बाद नया ज्ञान आ गया है, नयी आख्यान कला आ गयी है और ये दोनों नयी चीजें हिंदी कथा के लिए इतनी जरूरी हैं कि इनके बिना उसका सार्थक विकास नहीं हो सकता।
‘‘यथार्थवादोत्तर/मार्क्सवादोत्तर’’ का यह अर्थ तो स्पष्ट है कि इन दोनों का वैसा ही उत्तर-आधुनिकतावादी अंत हो चुका है, जैसा आधुनिकता का अंत, इतिहास का अंत, विचारधारा का अंत इत्यादि, लेकिन ‘‘हिंदी कथा का सार्थक विकास’’ में ‘सार्थक’ शब्द कुछ चक्कर में डालने वाला है, क्योंकि उत्तर-आधुनिकतावाद तो ‘अर्थ’ और ‘सार्थकता’ का भी अंत कर चुका है। फिर, ‘‘यथार्थवादोत्तर/मार्क्सवादोत्तर’’ में बीच की तिरछी रेखा का क्या मतलब है, जो प्रायः ‘अथवा’ की सूचक होती है? क्या यथार्थवाद और मार्क्सवाद समानार्थक हैं? एक-दूसरे के पर्यायवाची या स्थानापन्न हैं? या अभिन्न? अगर ऐसा है, तो मार्क्सवादियों के लिए यह प्रसन्नता की बात होनी चाहिए, क्योंकि वे तो यह मानते ही हैं कि यथार्थवादी ही सच्चा मार्क्सवादी हो सकता है, और जो यथार्थवादी है, वह घोषित रूप से मार्क्सवादी न होने पर भी मार्क्सवादी हो सकता है। यथार्थवाद के लिए ही मार्क्स-एंगेल्स बाल्जाक के प्रशंसक थे और लेनिन तोल्सतोय के!
खैर, इन बारीकियों में न जायें, उत्तर-आधुनिकतावादी ‘अंतों’ की ही बात करें, तो यदि यथार्थवाद और मार्क्सवाद का अंत हो चुका है, तो प्रश्न उठता है: इनके बाद जो ‘ज्ञान’ आया है और जो ‘आख्यान कला’ आयी है, वह क्या है? मैंने अपनी पुस्तक ‘आज का पूँजीवाद और उसका उत्तर-आधुनिकतावाद’ (1999) में इस प्रश्न का उत्तर खोजने का प्रयास किया था और पाया था कि उत्तर-आधुनिकतावाद आज के पूँजीवाद की विचारधारा है, जो ज्ञान की जगह अज्ञान का, तर्क की जगह तर्कहीनता का और विवेक की जगह विवेकहीनता का प्रचार-प्रसार करती है। इसका उद्देश्य लोगों को समाजवाद और साम्यवाद की दिशा में जाने से रोकना तो है ही, पूँजीवादी जनवाद को समाप्त करना भी है।
उत्तर-आधुनिकतावाद का सबसे प्रमुख तत्त्व है ‘एलीटिज्म’ (अभिजनवाद), जिसके द्वारा विशिष्ट और सामान्य लोगों में भेद किया जाता है और सामान्य लोगों को--अर्थात् गरीब, शोषित, उत्पीड़ित जनता और उसके पक्षधरों को नीची नजर से देखा जाता है। रिचर्ड रोर्टी, जो उत्तर-आधुनिकतावाद के एक प्रमुख चिंतक माने जाते हैं, अपनी पुस्तक ‘कंटिंजेंसी, आयरनी एंड सॉलिडैरिटी’ (1989) में बौद्धिक और सामान्य लोगों में यह भेद बताते हैं कि बौद्धिक लोग ‘आयरनिस्ट’ (विडंबनावादी) होते हैं, जबकि सामान्य लोग जीवन को गंभीरता से लेते हैं। अर्थात् सामाजिक यथार्थ को ध्यान से देखना, जीवन की समस्याओं पर गंभीरतापूर्वक विचार करना और उनके समाधान के लिए प्रयत्नशील होना जीवन को गंभीरता से लेना है, और यह सामान्य लोगों का काम है, जबकि विशिष्ट बौद्धिक व्यक्ति जीवन को गंभीरता से नहीं लेते, उस पर हँसते हैं।
इस ‘मार्क्सवादोत्तर ज्ञान’ के साथ आयी ‘यथार्थवादोत्तर आख्यान कला’ के बारे में मैंने लिखा था :
आजकल हिंदी के लेखकों को यह अभिजनवाद खूब प्रभावित कर रहा है। गंभीर लेखन उत्तर-आधुनिकतावादी लोगों की नजर में पुराना, पिछड़ा हुआ और उपेक्षणीय लेखन है। साधारण पाठकों की समझ में आने वाला लेखन घटिया है। श्रेष्ठ लेखन वह है, जो विशिष्ट पाठकों के लिए किया जाये, मगर हल्का-फुल्का हो; जिसमें व्यंग्य, विडंबना, भदेस और आत्मोपहास का मिश्रण हो! उसकी तुलना में गंभीर सामाजिक समस्याएँ उठाने वाला लेखन बेकार है! ऐसा लेखन घटिया और छोटे लेखक करते हैं!
लेकिन हिंदी साहित्य का सौभाग्य है कि उत्तर-आधुनिकतावादियों की तमाम कोशिशों के बावजूद इस ‘मार्क्सवादोत्तर ज्ञान’ और इस ‘यथार्थवादोत्तर आख्यान कला’ को थोड़े-से फैशनपरस्त लेखकों ने ही अपनाया। फैशनपरस्त लेखकों के लिए विचार भी फैशन की तरह अपनायी और त्याग दी जाने वाली चीजों की तरह होते हैं। उनके लिए अस्तित्ववाद हो या मार्क्सवाद या उत्तर-आधुनिकतावाद--सब साहित्यिक फैशन हैं। और फैशन तो बदलते ही रहते हैं। कल मार्क्सवाद का फैशन था, आज ‘मार्क्सवादोत्तर’ का फैशन है। मैंने अपने निबंध ‘साहित्य में फैशन और नवोन्मेष’ (2000) में लिखा था :
साहित्य में भी फैशन चलते हैं। उदाहरण के लिए, बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के हिंदी साहित्य को देखें। एक समय आता है, जब बहुत-से लेखक सार्त्र, कामू, काफ्का आदि की चर्चा करते हुए ऊब, कुंठा, अकेलेपन, अजनबीपन आदि पर लिखने-बोलने लगते हैं। फिर एक समय आता है, जब बहुत-से लेखक मार्क्स, लेनिन, माओ आदि की चर्चा करते हुए वर्ग-संघर्ष, क्रांति, पक्षधरता, प्रतिबद्धता आदि पर लिखने-बोलने लगते हैं। इसी तरह फिर एक समय आता है, जब बहुत-से लेखक ल्योतार, फूको, दरीदा आदि की चर्चा करते हुए आख्यान, पाठ, अंत, विमर्श आदि पर लिखने-बोलने लगते हैं।
लेकिन फैशनपरस्त लेखकों की दिक्कत यह होती है कि वे उन चीजों का भी अंत हुआ मान लेते हैं, जिनका वास्तव में अंत हुआ नहीं होता। उदाहरण के लिए, उन्होंने उत्तर-आधुनिकतावादियों की बातों पर भरोसा करके यह मान लिया कि आधुनिकता का अंत हो गया और उसके साथ-साथ मार्क्सवाद तथा यथार्थवाद का अंत भी हो गया। उन्होंने यह नहीं सोचा कि साहित्य में आधुनिकता, मार्क्सवाद और यथार्थवाद का आगमन दुनिया में पूँजीवाद के आगमन के साथ-साथ हुआ है और पूँजीवाद का अंत अभी नहीं हुआ है। अपने भीतर हुए तमाम परिवर्तनों के बाद भी पूँजीवाद पूँजीवाद ही है और शीत युद्ध की समाप्ति के बाद नव-उदारवाद या बाजारवाद के रूप में तो वह अपनी सारी प्रगतिशीलता खोकर पुराने पूँजीवाद की ही ओर लौट गया है। अतः जब पूँजीवाद का ही अंत नहीं हुआ, तो आधुनिकता का अंत कब और कैसे हो गया? पूँजीवाद का प्रतिपक्ष और विकल्प समाजवाद तथा उसकी विश्व-दृष्टि मार्क्सवाद भी आधुनिकता की ही देन है। सो जब तक आधुनिकता का अंत नहीं होता, समाजवाद और मार्क्सवाद का अंत कैसे हो जायेगा?
हाँ, लेकिन जिस तरह पूँजीवाद अपने उदयकाल के समय का पूँजीवाद नहीं रह गया है--व्यापारिक पूँजीवाद, औद्योगिक पूँजीवाद, साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, एकाधिकारी पूँजीवाद जैसे उसके विभिन्न रूप रहे हैं और आज वह नव-उदारवाद या बाजारवाद के नये रूप में मौजूद है--उसी तरह समाजवाद और मार्क्सवाद के भी विभिन्न रूप रहे हैं। आज का मार्क्सवाद मार्क्स-एंगेल्स के जमाने का मार्क्सवाद नहीं है। वह भी बदलता और विकसित होता रहा है--रूस में एक ढंग से, चीन में दूसरे ढंग से, पूर्वी यूरोप में तीसरे ढंग से और तीसरी दुनिया के विभिन्न देशों में अपने-अपने अलग ढंग से। भारत में भी उसका कोई एक ही रूप नहीं है। यहाँ भी वह विभिन्न रूपों में मौजूद है और विभिन्न प्रकार से विकसित हो रहा है। वैश्विक स्तर पर वह राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों, जनता की जनवादी क्रांतियों और समाजवादी क्रांतियों में विकसित होता रहा है। आज भी वह विभिन्न देशों की विभिन्न प्रकार की परिस्थितियों में कहीं सामंतवाद के विरुद्ध, कहीं पूँजीवाद के विरुद्ध, कहीं अधिनायकवाद के विरुद्ध, कहीं फासीवाद के विरुद्ध, कहीं रंगभेदवाद के विरुद्ध, कहीं मर्दवाद के विरुद्ध, कहीं जातिवाद के विरुद्ध, कहीं संप्रदायवाद के विरुद्ध, कहीं बाजारवाद के विरुद्ध और कहीं प्रकृति एवं पर्यावरण का नाश करने वाली शक्तियों के विरुद्ध जारी जन-आंदोलनों में सतत विकासमान है। इस प्रकार वह कोई जड़ या मृत सिद्धांत अथवा पुराने फैशन की चीज नहीं है, जिसका अंत हो चुका हो।
इसी तरह यथार्थवाद के रूप भी बदलते रहे हैं। अपने प्रारंभिक रूप यथातथ्यवाद या प्रकृतवाद से आगे विकसित होता हुआ वह आलोचनात्मक यथार्थवाद और समाजवादी यथार्थवाद के बाद अब भूमंडलीकरण के दौर में एक नये ढंग के यथार्थवाद तक आ पहुँचा है। उसके विभिन्न रूप बदलते हुए यथार्थ और उसको देखने की बदलती हुई जीवन-दृष्टि से संबंधित हैं। पूँजीवादी व्यवस्था को अपनी सहजात आधुनिकता से उत्पन्न यथार्थवाद का आज का बदला हुआ रूप रास नहीं आता, क्योंकि उसके जरिये पूँजीवाद की आलोचना और समाजवाद की माँग की जाती है। अतः आज के पूँजीवाद की विचारधारा उत्तर-आधुनिकतावाद से प्रभावित विद्वान तरह-तरह से यथार्थवाद का विरोध करते हैं। वे कभी यथार्थवाद को यथातथ्यवाद तक, कभी अनुभववाद तक और कभी लेखन की एक पद्धति या फैशन तक सीमित कर देते हैं। यही कारण है कि उन्हें साहित्य में अनुभववाद (‘‘लेखक के अपने जिये-भोगे यथार्थ’’ के रूप में) और जादुई यथार्थवाद (यथार्थ को देखने की जीवन-दृष्टि के रूप में नहीं, बल्कि लेखन की एक विशेष पद्धति या फैशन के रूप में) तो पसंद आते हैं और वे इस प्रकार की रचनाओं का ऊँचा मूल्य आँककर उसका प्रचार करते हैं, जबकि यथार्थवाद को पुराना बताकर खारिज करते हैं।
प्रोफेसर राजकुमार ने पिछले पच्चीस साल की हिंदी कहानी पर लिखते हुए एक स्पष्टीकरण दिया है कि ‘‘हमारा उद्देश्य इस दौर का सांगोपांग इतिहास लिखना नहीं, बल्कि इस दौर में लिखी गयी कुछ बेहतरीन कहानियों का चयन करना है।’’ सब जानते हैं कि साहित्य में चुनने और छोड़ने की प्रक्रिया निरंतर और हर स्तर पर चलती है। रचनाकार दुनिया में मौजूद असंख्य विषयों में से कुछ ही विषय चुनकर उन पर लिखता है, संपादक असंख्य रचनाओं में से कुछ ही चुनकर प्रकाशित करता है, समीक्षक असंख्य रचनाओं में से कुछ ही चुनकर उनकी समीक्षा करता है और पाठक भी असंख्य रचनाओं और समीक्षाओं में से कुछ ही चुनकर पढ़ता है। फिर भी प्रोफेसर राजकुमार ने न जाने किन संभावित आपत्तियों से आशंकित होकर यह सफाई दी है कि ‘‘शायद ही कोई ऐसा लेखन हो, जो चयनधर्मी न हो। यह लेख भी चयनधर्मी है।’’ बेशक ऐसा ही है, लेकिन हर चयन के पीछे चयनकर्ता की एक दृष्टि होती है। अब चयनकर्ता की दृष्टि अगर ‘‘यथार्थवादोत्तर/मार्क्सवादोत्तर’’ दृष्टि है, तो कम से कम वे कहानियाँ तो उसके चयन से बाहर रह ही जायेंगी, जो घोषित रूप से यथार्थवादी और मार्क्सवादी लेखकों द्वारा लिखी गयी हों!
मुझे अपना ही उदाहरण देने के लिए क्षमा किया जाये, लेकिन बात को स्पष्ट करने के लिए यह जरूरी है। पिछले पच्चीस वर्षों में मेरे पाँच (यदि ‘चर्चित कहानियाँ’ और ‘दस प्रतिनिधि कहानियाँ’ भी जोड़ लें, तो सात) कहानी संग्रह आये हैं--‘किसी देश के किसी शहर में’ (1987), ‘कहाँ हो प्यारेलाल!’ (1991), ‘अर्थतंत्र तथा अन्य कहानियाँ’ (1996), ‘डॉक्यूड्रामा तथा अन्य कहानियाँ’ (2006) और ‘एक घर की डायरी’ (2009)। इनमें शामिल मेरी कई कहानियाँ, जैसे ‘मिट्टी’, ‘दिशा’, ‘लाइ लो’, ‘सफाइयाँ’, ‘रात अब भी उतनी ही काली है’, ‘डेल्टा’, ‘अर्थतंत्र’, ‘स्पंदन’, ‘फासी-फंतासी’, ‘डॉक्यूड्रामा’, ‘आप जानते हैं’ आदि और इन संग्रहों के बाद लिखी गयी ‘त्रासदी...माइ फुट!’, ‘प्राइवेट पब्लिक’, ‘ग्लोबल गाँव के अकेले’ आदि कई कहानियाँ काफी चर्चित हुई हैं। इनमें से एक ‘आप जानते हैं’ राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा रूपांतरित नाटक के रूप में मंचित हुई है और दो कहानियाँ ‘लाइ लो’ और ‘सफाइयाँ’ दूरदर्शन द्वारा निर्मित टेलीफिल्मों के रूप में प्रसारित हुई हैं। इनमें से कुछ कहानियाँ भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनूदित भी हुई हैं तथा भाँति-भाँति के संकलनों में शामिल की गयी हैं। ताजा उदाहरण है अभी-अभी यतीश अग्रवाल द्वारा संपादित और रूपा से अंग्रेजी में प्रकाशित संकलन ‘। 'A Hundred Lamps' (2012), जिसमें मेरी कहानी ‘स्पंदन’ प्रेमचंद, फणीश्वरनाथ रेणु, निर्मल वर्मा, उदय प्रकाश, अवधेश प्रीत और रेखा अग्रवाल की कहानियों के साथ शामिल की गयी है। लेकिन प्रोफेसर राजकुमार ने मेरी किसी कहानी का उल्लेख करना उचित या आवश्यक नहीं समझा।
खैर, मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं है। मैं उनकी चयनधर्मिता वाले स्पष्टीकरण से संतुष्ट हूँ। समीक्षक क्या चुने और क्या छोड़े, यह उसके चयन के निजी अधिकार तथा अपने मत को व्यक्त करने के स्वातंत्रय का मामला है। लेकिन आलोचना में अपनायी जाने वाली चयन-दृष्टि प्रवृत्तिगत होने के कारण किसी एक व्यक्ति की नहीं होती। वह एक प्रवृत्ति के रूप में साहित्य के विकास या ह्रास का कारण बन सकती है। अतः उस पर विचार करना आवश्यक है।
हिंदी की कथा-समीक्षा में नवीनतम कहानी को मूल्यवान मानकर चुनने और उसकी पूर्ववर्ती कहानी को महत्त्वहीन समझकर छोड़ देने की एक परिपाटी चली आ रही है, जिसके तहत ‘नये’ को उभारने के लिए ‘पुराने’ को बेकार या गैर-जरूरी मानकर चलना तथा उसे ‘नये’ के विकास में बाधक बताना जरूरी माना जाता है। इसी का एक रूप है यथार्थवादी और मार्क्सवादी लेखकों द्वारा लिखे गये कथासाहित्य को पुराना घोषित करते हुए उसे हिंदी कथा के सार्थक विकास में बाधक बताना।
हिंदी की कहानी समीक्षा में अक्सर यह हुआ है कि कहानी को दशकों और पीढ़ियों में बाँटकर देखा गया है और पूर्ववर्ती कहानी को ‘पुरानी’ तथा परवर्ती कहानी को ‘नयी’ बताते हुए ‘कहानी के विकास’ को समझने-समझाने की कोशिशें की गयी हैं। यह सिलसिला ‘नयी कहानी’ के दौर से शुरू होता है, जब बीसवीं सदी के पाँचवें दशक वाली पीढ़ी की ‘पुरानी’ कहानी के मुकाबले छठे दशक वाली पीढ़ी की ‘नयी’ कहानी में हिंदी कहानी का विकास देखा गया। इसी तर्ज पर आगे चलकर छठे दशक वाली पीढ़ी की ‘नयी कहानी’ के मुकाबले सातवें दशक की पीढ़ी की ‘अकहानी’ को हिंदी कहानी का विकास माना गया। इसके बाद लगभग यही सिलसिला ‘अकहानी’ के विरुद्ध ‘समांतर कहानी’ को, ‘समांतर कहानी’ के विरुद्ध ‘जनवादी कहानी’ को, ‘जनवादी कहानी’ के विरुद्ध ‘जादुई यथार्थवादी’ कहानी को नयी कहानी मानते हुए जारी रहा। इसी सिलसिले की अगली कड़ी है यथार्थवादी और मार्क्सवादी कहानी को पुरानी मानकर उत्तर-आधुनिकतावादी कहानी को नयी बताना।
हालाँकि ज्ञान जहाँ से भी मिले, ले लेना चाहिए; कला जहाँ से भी सीखने को मिले, सीख लेनी चाहिए; फिर भी यह ध्यान रखना जरूरी है कि हम कोई नयी चीज कहीं से लेकर अपनायें, तो अपनी परिस्थितियों में अपनी जरूरतों के मुताबिक और अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आवश्यक होने पर अपनायें। वैसे नहीं, जैसे हमारे किसान आजकल खेती की नयी तकनीक अपनाते हैं। मसलन, एक बहुराष्ट्रीय कंपनी अपने मुनाफे के लिए खेती की कोई नयी तकनीक लेकर आती है और भारतीय किसान से कहती है कि खेती की तुम्हारी अपनी तकनीक पुरानी और बेकार हो चुकी है, हमारी यह नयी तकनीक लो, इससे अधिक लाभदायक खेती करो और अपने खेतों में वह पैदा करो, जिसकी तुम्हें जरूरत हो या न हो, हमें जरूरत है! किसान तो अपनी गरीबी, अशिक्षा, राज्य और समाज द्वारा की जाने वाली उपेक्षा और बाजार की ताकतों का संगठित प्रतिरोध करने में अक्षम होने के कारण मजबूरी में उसके झाँसे में आकर अपनी खेती की बर्बादी के साथ खुद को भी तबाह करके आत्महत्या कर लेता है; लेकिन हिंदी लेखकों की ऐसी क्या मजबूरी है कि वे अपने साहित्य के विकास के लिए निहायत जरूरी यथार्थवाद और मार्क्सवाद को त्यागकर नवीनता के नाम पर लेखन के उत्तर-आधुनिकतावादी तौर-तरीके अपनाने का आत्मघाती कदम उठायें?
आज का साहित्यकार, चाहे वह घोषित रूप से यथार्थवादी और मार्क्सवादी न भी हो, वर्तमान पूँजीवादी विश्व व्यवस्था के यथार्थ को समझे बिना, जनतांत्रिक और मानवीय मूल्यों के आधार पर उसकी आलोचना किये बिना, और इस व्यवस्था के बदले जाने तथा एक बेहतर व्यवस्था के बनाये जाने की जरूरत पर जोर दिये बिना एक भी सार्थक पंक्ति नहीं लिख सकता। आज जनतांत्रिक मूल्यों--समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के मूल्यों--पर ही नहीं, बल्कि सच्चाई, अच्छाई, न्याय, नैतिकता, प्रेम, सहिष्णुता, सहयोग, सहानुभूति, करुणा, परदुखकातरता जैसे मानवीय मूल्यों पर भी संकट छाया हुआ है। इन मूल्यों को बचाने और बढ़ाने की जिम्मेदारी जितनी सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक संस्थाओं तथा संगठनों की है, उतनी ही साहित्यकारों की। आज के साहित्यकारों का यथार्थवादी और मार्क्सवादी होना प्रासंगिक बने रहने के लिए ही नहीं, अपनी मनुष्यता को बचाये रखने के लिए भी आवश्यक है। अलबत्ता यथार्थवाद और मार्क्सवाद के बारे में किये जाने वाले दुष्प्रचार से बचने के लिए आज के यथार्थवाद और आज के मार्क्सवाद को समझना तथा रचना एवं आलोचना में उसको विकसित करना आवश्यक है।
यथार्थवाद का मतलब यथातथ्यवाद--अथवा यथास्थिति का चित्रण करने जैसा काम--नहीं है। यथार्थवाद का मतलब है अतीत और भविष्य के संदर्भ में वर्तमान को देखना और ‘जो है’ उसके बारे में ही नहीं, बल्कि ‘जो होना चाहिए’ उसके बारे में भी लिखना। इसी तरह मार्क्सवादी कथा-लेखन का मतलब कथा में किसी मार्क्सवादी दल या संगठन का प्रवक्ता होकर उसकी राजनीति का प्रचार करना या केवल किसानों-मजदूरों के संघर्ष और क्रांति को ही विषय बनाकर लिखना नहीं है। आज की दुनिया में मार्क्सवादी कथाकार होने का मतलब है वर्तमान पूँजीवादी विश्व-व्यवस्था की जगह समाजवादी विश्व-व्यवस्था के निर्माण के लिए संघर्षरत शक्तियों के साथ खड़े होना। कथा में यह काम वर्ग-संघर्ष या क्रांति के बारे में लिखकर ही नहीं, बल्कि सच्चाई और अच्छाई जैसी ‘मामूली’ चीजों के बारे में लिखकर भी किया जा सकता है। हिंदी कथा का सार्थक विकास इसी प्रकार होता आया है और आगे भी किया जा सकता है।
सौभाग्य से हिंदी कथाकारों में से ज्यादातर ‘सफलता’ को उतना बड़ा मूल्य नहीं मानते, जितना ‘सार्थकता’ को। यही कारण है कि थोड़े-से फैशनपरस्त लोगों को छोड़कर हिंदी के प्रायः सभी कथाकार किसी न किसी रूप में यथार्थवादी हैं और उनमें से जो घोषित रूप से मार्क्सवादी नहीं हैं, वे भी अपनी रचनाओं में लगभग वही काम करते नजर आते हैं, जो मार्क्सवादी लेखक करते हैं या उन्हें करना चाहिए।
‘तद्भव’ के इस अंक में प्रकाशित कहानियों को देखें, तो उनमें से किसी में भी ‘‘यथार्थवादोत्तर/मार्क्सवादोत्तर ज्ञान और आख्यान कला’’ के दर्शन नहीं होते। ये सभी कहानियाँ आज के बदलते हुए यथार्थ को नये यथार्थवादी रूप-शिल्प में सामने लाने वाली यथार्थवादी कहानियाँ हैं। इनमें यथार्थवाद का निषेध नहीं, बल्कि उसका विकास किया जाता दिखायी पड़ता है। लेकिन इस विकास को हम तभी देख सकते हैं, जब हम यथार्थवाद को महज एक ‘साहित्यिक पद्धति’ न मानें, बल्कि एक जीवन-दृष्टि मानकर चलें--हालाँकि इन कहानियों को पढ़ने पर पता चलता है कि एक साहित्यिक पद्धति के रूप में भी यथार्थवाद की उपयोगिता अभी समाप्त नहीं हुई है, जैसा कि शिवमूर्ति, सारा राय और मनोज कुमार पांडेय की कहानियों में तो स्पष्ट ही देखा जा सकता है, अन्य कहानियों में भी थोड़े बौद्धिक आयास के जरिये उसे समझा जा सकता है। उदाहरण के लिए, काशीनाथ सिंह की कहानी में जहाँ-तहाँ गद्य को कविता की पंक्तियों की तरह लिखते हुए, राजेश जोशी की कहानी में ‘पूर्वकथा’, ‘विष्कंभक’ और ‘डायरी’ के शिल्प में किस्से को आगे-पीछे घुमाते हुए, योगेंद्र आहूजा की कहानी में एक ही कहानी को अनेक पात्रों के दृष्टिकोण से कहते हुए और नीलाक्षी सिंह की कहानी में एक ठेठ ग्रामीण यथार्थ की कहानी को उच्च शिक्षा प्राप्त शहरी बौद्धिकों वाली भाषा में सुनाते हुए कथा-लेखन के जो नये प्रयोग किये गये हैं, वे कोई ‘‘यथार्थवादोत्तर आख्यान कला’’ के नमूने नहीं, बल्कि यथार्थवादी कथा-लेखन के ही विविध रूप हैं। यथार्थवादी कथा-लेखन में इस प्रकार के नये प्रयोगों की गुंजाइश और जरूरत हमेशा रही है, आज भी है और आगे भी रहेगी।
जहाँ तक ‘‘मार्क्सवादोत्तर ज्ञान और आख्यान कला’’ का प्रश्न है, यह सही है कि प्रगतिशील और जनवादी कहानी के आंदोलनों के दौरान मार्क्सवाद या क्रांति का प्रचार करने वाली जो कहानियाँ लिखी गयी थीं, वैसी कहानियाँ लिखने का दौर बीत चुका है, और यह अच्छा ही हुआ है, लेकिन इससे मार्क्सवाद की जरूरत या अहमियत कम नहीं हुई, बल्कि बढ़ी है। आज मार्क्सवाद कहानी की विषयवस्तु के रूप में नहीं, बल्कि कहानीकार की विश्व-दृष्टि के रूप में कहानी में अनुस्यूत रहता है। वह कहानी में उन मूल्यों के रूप में गुँथा रहता है, जो मानवीय, जनतांत्रिक और अंततः समाजवाद की ओर ले जाने वाले मूल्य हैं।
इस दृष्टि से देखें, तो ‘तद्भव’ के इस अंक में प्रकाशित सातों कहानियाँ यथार्थवादी जीवन-दृष्टि तथा मार्क्सवादी विश्व-दृष्टि से लिखी गयी कहानियाँ हैं, चाहे इनके लेखक स्वयं को यथार्थवादी और मार्क्सवादी मानते हों या न मानते हों। पहली बात तो यह है कि इनमें से कोई भी कहानी वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था के औचित्य का प्रतिपादन नहीं करती, बल्कि सभी कहानियाँ किसी न किसी रूप में उसके यथार्थ को सामने लाकर उसकी निंदा या आलोचना ही करती हैं। दूसरी बात यह कि इनके लेखक जिन मूल्यों को बचाने और बढ़ाने के उद्देश्य से कहानी लिख रहे हैं, वे सभी मूल्य आज की दुनिया की जगह एक बेहतर दुनिया की जरूरत बताने वाले मूल्य हैं। तीसरी और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इन कहानियों के पात्रों के प्रति लेखकीय सहानुभूति आम तौर पर वर्गीय सहानुभूति है।
कहानीकार अपनी कहानी के लिए कौन-सा विषय चुने, कौन-सी समस्या उठाये, उस विषय या समस्या को कहानी में उठाने के लिए कैसे पात्र चुने, उनके भीतरी-बाहरी संघर्षों को कैसे सामने लाये और कहानी को एक तार्किक परिणति वाले कलात्मक अंत तक कैसे पहुँचाये--कहानी की रचना-प्रक्रिया से संबंधित ये तमाम प्रश्न निरे साहित्यिक प्रश्न नहीं, बल्कि बड़े गहरे अर्थों में राजनीतिक अर्थशास्त्र के प्रश्न हैं और आज की दुनिया का राजनीतिक अर्थशास्त्र तब तक हमारी समझ में नहीं आ सकता, जब तक हम उसे मार्क्सवादी विश्व-दृष्टि से न देखें। मार्क्सवादी विश्व-दृष्टि की एक अनन्य विशेषता है वर्गीय पक्षधरता, जो कथासाहित्य में कथा-पात्रों के प्रति लेखकीय सहानुभूति के रूप में व्यक्त होती है। लेकिन यह विशेषता बहुत-से गैर-मार्क्सवादी लेखकों के कथा-लेखन में भी पायी जाती है। अतः कथाकार की विश्व-दृष्टि क्या है, यह हम तभी जान सकते हैं, जब यह देखें कि कथाकार की सहानुभूति किन पात्रों के प्रति है और उस सहानुभूति का वह--जाहिर है, कहानी के माध्यम से--करना क्या चाहता है। कहानी की रचना-प्रक्रिया का यह प्रश्न लेखन की पद्धति का प्रश्न नहीं, बल्कि लेखक की विश्व-दृष्टि का प्रश्न है, जिससे वह देखता है कि जिन पात्रों को वह अपनी सहानुभूति दे रहा है, उनकी वास्तविक दशा और दिशा क्या है; उनका अतीत क्या रहा है और वर्तमान में निहित उनके भविष्य की संभावनाएँ क्या हैं।
इस दृष्टि से ‘तद्भव’ के इस अंक में प्रकाशित सातों कहानियों को देखें, तो पायेंगे कि इन कहानियों के लेखक मार्क्सवादी हों या न हों, उनकी लेखकीय सहानुभूति कहानी में ताकतवर के खिलाफ कमजोर के साथ है और वह उसके पक्ष में स्पष्ट रूप से व्यक्त होती है। उदाहरण के लिए, काशीनाथ सिंह की कहानी ‘महुआचरित’ में महुआ के प्रति, राजेश जोशी की कहानी ‘गाइबबाज’ में कप्पू के प्रति, शिवमूर्ति की कहानी ‘ख्वाजा, ओ मेरे पीर!’ में बूढ़े मामा-मामी के प्रति, सारा राय की कहानी ‘अपराध’ में बड़ी मम्मी के प्रति, योगेंद्र आहूजा की कहानी ‘एक्यूरेट पैथोलॉजी’ में गनपत, रोशनलाल, कवि, ज्योतिर्मयी और पेशे से पेशाब विश्लेषक लेखक के प्रति, नीलाक्षी सिंह की कहानी ‘साया कोई’ में किरण और मुसमातिन के प्रति और मनोज कुमार पांडेय की कहानी ‘पुरोहित जिसने मछलियाँ पालीं’ में पार्वती, मैना और रामदत्त के प्रति। इन सब कहानियों में लेखकीय सहानुभूति ही वह आधार है, जिस पर इनकी समूची मूल्य-संरचना खड़ी होती है और लेखक की रचना-प्रक्रिया पक्षधरता और प्रतिबद्धता के ही नहीं, बल्कि संप्रेषण और कलात्मकता के प्रश्नों को भी हल करती हुई एक तार्किक परिणति वाले कलात्मक अंत तक पहुँचकर कहानी को एक मुकम्मल कहानी बनाती है।
भाषा, शिल्प और शैली का नयापन इन कहानियों में भी है, लेकिन वह दिखावटी नयापन नहीं है। ‘तद्भव’ के संपादक अखिलेश ने, जो स्वयं आज के एक महत्त्वपूर्ण कथाकार हैं, इस अंक के संपादकीय में दिखावटी नयेपन की ओर ध्यान दिलाते हुए यह चौकसी बरतने की सलाह ठीक ही दी है कि ‘‘कहीं यह ‘नया दिखना’ महज दिखावा न हो।’’ लेकिन उन्होंने उत्तर-आधुनिकतावादी भाषा में आज की हिंदी कहानी में जिस ‘नवोन्मेष’ के होने पर प्रसन्नता प्रकट की है, वह विचारणीय है। वे इस ‘नवोन्मेष’ का एक कारण यह बताते हैं कि हिंदी के कथाकार आधुनिकता और मार्क्सवाद ‘‘दोनों की महान परंपराओं और महावृत्तांतों के प्रति सतर्क दृष्टिकोण रखते हुए अपने समय की मीमांसा कर रहे हैं’’। यदि वे ऐसा कहते हुए प्रोफेसर राजकुमार के ‘‘यथार्थवादोत्तर/मार्क्सवादोत्तर ज्ञान और आख्यान’’ से अपनी सहमति जता रहे हैं, तो यह चिंता का विषय है।
यह सही है कि हिंदी कहानी में एक नवोन्मेष की आवश्यकता है और उस दिशा में कुछ प्रयास भी हो रहा है, लेकिन वह हो चुका है, ऐसा मानना शायद जल्दबाजी है। और वह नवोन्मेष यथार्थवाद और मार्क्सवाद को त्यागकर उत्तर-आधुनिकतावाद को अपनाने से होगा, यह मानकर चलना तो बहुत ही चिंताजनक है। मैंने अपने निबंध ‘साहित्य में फैशन और नवोन्मेष’ (2000) में लिखा था :
आज के हिंदी साहित्य को देखकर लगता है कि उसमें किसी मौलिक नवोन्मेष की सख्त जरूरत है। इस जरूरत को आज बहुत-से लेखक महसूस कर रहे हैं। इसीलिए ऐसी बहुत-सी रचनाएँ सामने आ रही हैं, जिनमें कुछ अलग ढंग से कोई नयी बात कहने की कोशिश दिखायी पड़ती है और एक सामूहिक इच्छा का पता चलता है कि साहित्य आज जहाँ है, वहाँ से आगे बढ़ना चाहिए। मगर कोई लक्ष्य और दिशा स्पष्ट न होने से एक विभ्रम-सा फैला हुआ है, जिसमें ऐसे प्रयास व्यक्तिगत प्रयास बनकर रह जाते हैं, साहित्य को ऊर्जा, गति और दिशा देने वाला कोई नवोन्मेष नहीं बन पाते।
साहित्यिक नवोन्मेष के लिए आवश्यक है कि रचना और आलोचना के वर्तमान तौर-तरीकों को बदला जाये। लेकिन यह काम न तो उन लेखकों से हो सकता है, जो कुछ भी नया करके तत्काल प्रतिष्ठा, पुरस्कार आदि प्राप्त कर लेना चाहते हैं और न उन लेखकों से, जो किसी दल या संगठन की नित्य बदलने वाली ‘लाइन’ के अनुसार अपनी रचनाशीलता को ‘राजनीतिक रूप से सही’ रखने की कोशिशों में लगे रहते हैं। यह काम वे ही कर सकते हैं, जो सिर्फ आज के नहीं, बल्कि भविष्य के पाठकों को भी ध्यान में रखकर लिखते हैं और ‘आज का लेखन’ करने के बजाय ‘आगे का लेखन’ करते हैं; जो परिवर्तन और निरंतरता को समझते हुए परंपरा को आगे बढ़ाने में विश्वास करते हैं; जो ‘पुराने’ का पूर्ण निषेध करने के बजाय उसे समझते हैं और उसमें निहित जड़ एवं मृत को त्यागकर उसमें जो जीवंत है, उसे अपनाकर आगे बढ़ते हैं। ऐसे लेखक ही आगे का साहित्य रच सकते हैं।
‘आगे के साहित्य’ की अपनी परिकल्पना को मैंने पाँच वर्ष बाद लिखे गये अपने एक अन्य निबंध ‘आगे की कहानी’ (2005) में सामने लाने की कोशिश की थी। मैंने महाआख्यानों के अंत की घोषणा करने वाले उत्तर-आधुनिकतावाद को आज के भूमंडलीय पूँजीवाद की विचारधारा बताते हुए लिखा था :
आगे बढ़ने के लिए कहानीकारों को यह सोचना होगा कि आज के पूँजीवाद का विकल्प क्या हो सकता है। आज के वैश्विक पूँजीवाद का विकल्प वैश्विक समाजवाद ही हो सकता है। अतः सोचना यह है कि हम उसकी दिशा में कैसे आगे बढ़ें।
इस निबंध में मैंने लिखा था कि ‘आगे की कहानी’ की बात बीसवीं सदी के आठवें दशक में ही होने लगी थी। 1976 में हिंदी कहानी का पुनर्मूल्यांकन करने के लिए दिल्ली में आयोजित एक संगोष्ठी में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने ‘आगे की कहानी’ के लिए एक पंचसूत्री कार्यक्रम प्रस्तुत किया था, जो इस प्रकार था :
1. पश्चिमी फैशनपरस्त अंधानुकरण से बचो।
2. शिल्प को आतंक मत बनाओ।
3. उनके लिए भी लिखो जो अर्द्धशिक्षित हैं और उनके लिए भी जो अशिक्षित हैं, जिन्हें तुम्हारी कहानी पढ़कर सुनायी जा सके।
4. इस देश की तीन-चौथाई जनता की सोच-समझ को वाणी दो, जो वह खुद नहीं कह सकती। और,
5. कहानी को लोककथाओं और ‘फेबल्स’ की सादगी की ओर मोड़ो, उनके विन्यास से सीखो, और उसे आम आदमी के मन से जोड़ो।
इस पंचसूत्री कार्यक्रम को उद्धृत करते हुए मैंने अपने निबंध में लिखा था :
जाहिर है, ये बातें इसीलिए कही गयी थीं कि उस समय की हिंदी कहानी में पश्चिमी फैशनपरस्त अंधानुकरण हो रहा था, शिल्प को आतंक बनाया जा रहा था, कहानी केवल शिक्षितों के लिए लिखी जा रही थी, उसमें देश की तीन-चौथाई जनता की सोच-समझ को वाणी नहीं दी जा रही थी और कहानी ऐसे जटिल विन्यास वाली कहानी बनती जा रही थी कि वह आम आदमी के मन से नहीं जुड़ पा रही थी। इन्हीं चीजों के विरुद्ध ‘जनवादी कहानी’ का आंदोलन शुरू हुआ था, जो उस समय के हिसाब से ‘आगे की कहानी’ थी।
लेकिन
‘जनवादी कहानी’ के बाद हिंदी कहानी उस कार्यक्रम के अनुसार आगे नहीं बढ़ी। इसके विपरीत वह आगे बढ़ी ऐसी दो दिशाओं में, जो इस कार्यक्रम से कहानी को दूर ले जाने वाली थीं। एक दिशा थी ‘‘पश्चिमी फैशनपरस्त अंधानुकरण’’ तथा ‘‘शिल्प को आतंक बनाने’’ वाले कहानी-लेखन की दिशा, जिसमें आगे बढ़कर हिंदी कहानी जादुई यथार्थवादी और उत्तर-आधुनिकतावादी हुई। इस दिशा में जाकर हिंदी कहानी जनोन्मुख होने के बजाय बड़ी बेशर्मी से अभिजनोन्मुख हुई और ‘‘आम आदमी के मन से जुड़ने’’ के बजाय खास आदमियों के मन को मोहने की आकांक्षा से किये जाने वाले बौद्धिकता के व्यापार में बदल गयी। दूसरी दिशा ऊपरी तौर पर हिंदी कहानी को जनोन्मुख बनाने वाली लगती थी, जिसमें आगे बढ़कर हिंदी कहानी स्त्रीवादी और दलितवादी विमर्शों की कहानी बनी। लेकिन वास्तव में यह दिशा कहानी को सेक्स, हिंसा और जातिवादी लेखन के फार्मूलों की ओर ले गयी और कहानी जनोन्मुख होने के बजाय बाजारोन्मुख हो गयी।
‘जनवादी कहानी’ से पहले के फैशनपरस्त कहानीकार पश्चिमी फैशनों का अनुकरण करते थे, तो कम से कम पश्चिम की चीजों को पढ़ते तो थे। आगे चलकर यह हुआ कि उस अनुकरण का ही अनुकरण करते हुए बहुत-सी कहानियाँ लिखी जाने लगीं। ‘जनवादी कहानी’ के बाद शिल्प को पुनः आतंक बनाया जाने लगा। अशिक्षितों और अर्द्धशिक्षितों की तो बात ही क्या, शिक्षितों में भी केवल कुछ प्रभुत्वशाली संपादकों तथा आलोचकों को ध्यान में रखकर कहानियाँ लिखी जाने लगीं। जनता की सोच-समझ को वाणी देने की बात दूर, बहुत-से कहानीकार तो जन, जनता, जनवाद, समाजवाद आदि के नाम से ही बिदकने लगे और स्वयं ‘जन’ होकर भी ‘अभिजनों’ की-सी सोच-समझ के साथ और उन्हीं के लिए कहानी लिखने लगे। ‘सादगी’ या ‘आम आदमी के मन’ से तो कहानी का मानो कोई संबंध ही नहीं रहा। आयातित उच्च प्रौद्योगिकी के साथ आयी और अंधानुकरण के रूप में अपना ली गयी पश्चिमी जीवन-शैली में सादगी कहाँ?
मेरे विचार से हिंदी कहानी में नवोन्मेष के लिए आवश्यक था कि बीसवीं सदी के अंतिम दशक में सोवियत संघ के विघटन, शीतयुद्ध की समाप्ति और पूँजीवादी भूमंडलीकरण के साथ तेजी से बदले और बदलते यथार्थ की कहानी लिखी जाती। लेकिन उस यथार्थ की कहानी लिखने के उस समय जो यत्किंचित प्रयास हुए, उन्हें उस समय के चालू फैशनों के चलते ‘काल्पनिक’ और ‘गढ़ी हुई’ कहानियाँ कहा गया। अतः मैंने लिखा :
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने आगे की कहानी का जो पंचसूत्री कार्यक्रम दिया था, वह अभी अप्रासंगिक नहीं हुआ है। लेकिन आज की नयी परिस्थितियों में वह अपर्याप्त अवश्य लगता है। इसलिए मैं उसमें अपनी तरफ से पाँच सूत्र और जोड़ना चाहता हूँ :
1. चालू विमर्शों की कहानी लिखने से बचो।
2. बदलते हुए यथार्थ को देखो और यथार्थ को बदलने के लिए लिखो।
3. दुनिया भर के उत्कृष्ट कहानी-लेखन से सीखो, पर अपनी कथा परंपरा में और अपनी जनता के लिए लिखो।
4. साहित्य की बदली हुई शब्दावली को आँख मूँदकर मत अपनाओ।
5. वैश्विक पूँजीवाद के विरुद्ध वैश्विक समाजवाद का स्वप्न साकार करने के लिए अच्छी कहानियाँ बेखटके गढ़ो।
मेरा यह पंचसूत्री कार्यक्रम दूसरों से ज्यादा खुद अपने लिए था। मैंने इसी को ध्यान में रखकर अपनी कहानियाँ लिखीं और साथ-साथ भूमंडलीय यथार्थवाद की अपनी अवधारणा को विकसित करते हुए एक निबंध लिखा ‘भूमंडलीय यथार्थवाद’ (2008)। इस निबंध की अंतिम पंक्तियाँ हैं :
आज की दुनिया का सबसे अहम प्रश्न है: क्या पूँजीवाद की वैश्विक व्यवस्था की जगह कोई और वैश्विक किंतु बेहतर व्यवस्था संभव है? यदि हाँ, तो उसकी रूपरेखा क्या है और वह व्यवस्था किन आधारों पर, किन शक्तियों के द्वारा और किन तरीकों से बनायी जा सकती है? इस प्रश्न का उत्तर भूमंडलीय यथार्थवाद के आधार पर ही दिया जा सकता है, क्योंकि इसका उत्तर देने के लिए यह आवश्यक है कि आज की दुनिया के यथार्थ को भौगोलिक के साथ-साथ ऐतिहासिक दृष्टि से भी देखा जाये और ऐतिहासिक दृष्टि को केवल अतीत को देखने वाली दृष्टि नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य को भी देखने वाली ऐसी सर्जनात्मक दृष्टि मानकर चला जाये, जो आने वाले कल की बेहतर दुनिया बनाने के लिए हमें आज ही प्रेरित और सक्रिय कर सके।
संयोग से यह निबंध जिस साल लिखा गया, उसी साल से वैश्विक पूँजीवाद का वर्तमान संकट शुरू हुआ है। इस संकट ने बाजारवाद की कलई खोल दी है तथा उत्तर-आधुनिकतावाद का मुलम्मा भी उतार दिया है। आज का भूमंडलीय यथार्थ मार्क्सवाद की मदद के बिना समझ में नहीं आ सकता। और इस यथार्थ की कहानी लिखने के लिए कथाकार को सचेत अथवा असचेत रूप से यथार्थवादी और मार्क्सवादी होना ही पड़ेगा। अतः आज के हिंदी कथाकारों के लिए आवश्यक है कि वे यथार्थवाद और मार्क्सवाद को फैशन की तरह अपनाने और त्यागने के बजाय अपनी जीवन-दृष्टि तथा विश्व-दृष्टि के रूप में विकसित करें।
अंततः भूमंडलीय यथार्थवादी कथा-लेखन के बारे में दो बातें :
एक : भूमंडलीय यथार्थवाद का मतलब यह नहीं है कि हम अपने देश, अपने समाज या अपने निजी जीवन की कहानी कहना बंद कर देंगे। कहानी तो हम अपने देश, अपने समाज और अपने जीवन की ही कहेंगे, लेकिन अपने यथार्थ को देखने का हमारा परिप्रेक्ष्य भूमंडलीय होगा। कारण यह है कि अब हम इस परिप्रेक्ष्य के बिना अपने यथार्थ को समझ ही नहीं सकते।
दो : किसी साहित्यिक रचना में व्यापक और जटिल भूमंडलीय यथार्थ को किस तरह प्रस्तुत किया जा सकता है, इस प्रश्न का उत्तर खोजने में मुक्तिबोध हमारी सहायता कर सकते हैं। भूमंडलीय यथार्थ को आत्मसात् करने के मामले में उनकी ‘ज्ञानात्मक संवेदन’ और ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ की अवधारणाएँ उपयोगी हो सकती हैं, तो उस यथार्थ का चित्रण करने के मामले में उनका निबंध ‘डबरे पर सूरज का बिंब’ हमें उचित प्रेरणा दे सकता है। इस निबंध में मुक्तिबोध ने यही समस्या उठायी थी कि एक बड़े और व्यापक यथार्थ को साहित्यिक रचना में कैसे लायें। और समाधान यह सुझाया था कि जैसे पानी के एक छोटे-से डबरे पर भी सूरज का पूरा बिंब दिखायी देता है, वैसे ही छोटी-सी साहित्यिक रचना में बड़े और व्यापक यथार्थ का चित्रण किया जा सकता है।
नोट : लेख में मेरे जिन निबंधों का उल्लेख है, वे मेरे साहित्यिक निबंधों के संग्रह ‘साहित्य और भूमंडलीय यथार्थ’ (2008) में संकलित हैं।
--रमेश उपाध्याय