Wednesday, October 24, 2012

बहस के लिए


'तद्भव'  के आख्यान पर एकाग्र अंक (अक्टूबर, 2011) में पिछले पच्चीस वर्षों की हिंदी कहानी पर एक लंबा लेख प्रकाशित हुआ था. मैंने उस पर एक टिप्पणी 'तद्भव' के नये अंक (अक्टूबर, 2012) में लिखी है. यह टिप्पणी 'बहस' के अंतर्गत छापी गयी है, लेकिन मेरी टिप्पणी के साथ ही उस लेख के लेखक का 'जवाब' (?) प्रकाशित करते हुए सम्पादकीय टिप्पणी में अखिलेश ने "इस बहस को अब यहीं विराम दिया जा रहा है" लिख कर बहस को बंद कर दिया है, जबकि बहस तो अब शुरू होनी चाहिए थी. मेरी टिप्पणी यहाँ प्रस्तुत है. आप चाहें, तो यहाँ या अन्यत्र इस बहस को आगे बढ़ा सकते हैं. 

यथार्थवाद और मार्क्सवाद को विकसित करें


Capitalism is a world system. Its victims can effectively face its challenges only if they are also organized at the global level.
--Samir Amin 
The World We Wish To See (2008)

हिंदी की कथा-समीक्षा में नवीनता पर जितना ज्यादा जोर दिया जाता है, उतना मौलिकता पर दिया गया होता, तो उसका बेहतर विकास होता। नवीनता और मौलिकता में कोई अंतर्विरोध नहीं है, बल्कि सच्ची नवीनता तो मौलिकता में से ही आती है, लेकिन मौलिकता उत्पन्न करना मुश्किल काम है, जबकि नवीनता नये फैशन के कपड़े पहन लेने की तरह आसानी से प्रदर्शित की जा सकती है। मसलन, जब तक आधुनिकतावाद का फैशन रहे, आप आधुनिकतावादी बने रहें, और जब उत्तर-आधुनिकतावाद का नया फैशन आये, तो आप उत्तर-आधुनिकतावादी हो जायें! लेकिन फैशन में तमाम खूबियों के बावजूद यह एक बड़ी खामी होती है कि उसमें मौलिकता नहीं, नकल होती है। विडंबना यह है कि हिंदी का कथा-समीक्षक, जो ‘भूमंडलीय दक्षिण’ का होने के नाते ‘भूमंडलीय उत्तर’ के वर्चस्व का विरोधी होना चाहिए, फैशनेबल नवीनता के चक्कर में फँसकर उसका अनुयायी बन जाता है। उदाहरण के लिए, यदि ‘वहाँ’ यह घोषणा कर दी जाती है कि साहित्य में यथार्थवाद और मार्क्सवाद का अंत हो चुका है, तो वह अपनी स्थिति और परिस्थिति की वास्तविकता की ओर से आँख मूँदकर ‘यहाँ’ भी उस घोषणा को दोहराने लगता है!

‘तद्भव’ के ‘आख्यान पर एकाग्र’ अंक (अक्टूबर, 2011) में प्रोफेसर राजकुमार ने पिछले पच्चीस वर्षों की हिंदी कहानी पर एक लंबा लेख लिखा है, जिसमें उनका कहना है कि ‘‘यथार्थवादोत्तर/मार्क्सवादोत्तर ज्ञान और आख्यान कला से रचनात्मक संवाद किये बगैर हिंदी कथा का सार्थक विकास असंभव है।’’

अंग्रेजी के ‘पोस्ट’ का हिंदी अनुवाद ‘उत्तर’ उस चीज के अंत का सूचक होता है, जिसके पहले (जैसे ‘उत्तर-आधुनिकता’ में) या पीछे (जैसे ‘साम्यवादोत्तर’ में) इसे लगा दिया जाता है। इस प्रकार बनाये गये शब्द पुरानी चीजों के खत्म हो जाने के बाद आयी नयी चीजों के सूचक भी होते हैं। अतः ऊपर उद्धृत वाक्य का अर्थ यह हुआ कि यथार्थवाद और मार्क्सवाद नामक पुरानी चीजें खत्म हुईं, उनके बाद नया ज्ञान आ गया है, नयी आख्यान कला आ गयी है और ये दोनों नयी चीजें हिंदी कथा के लिए इतनी जरूरी हैं कि इनके बिना उसका सार्थक विकास नहीं हो सकता।

‘‘यथार्थवादोत्तर/मार्क्सवादोत्तर’’ का यह अर्थ तो स्पष्ट है कि इन दोनों का वैसा ही उत्तर-आधुनिकतावादी अंत हो चुका है, जैसा आधुनिकता का अंत, इतिहास का अंत, विचारधारा का अंत इत्यादि, लेकिन ‘‘हिंदी कथा का सार्थक विकास’’ में ‘सार्थक’ शब्द कुछ चक्कर में डालने वाला है, क्योंकि उत्तर-आधुनिकतावाद तो ‘अर्थ’ और ‘सार्थकता’ का भी अंत कर चुका है। फिर, ‘‘यथार्थवादोत्तर/मार्क्सवादोत्तर’’ में बीच की तिरछी रेखा का क्या मतलब है, जो प्रायः ‘अथवा’ की सूचक होती है? क्या यथार्थवाद और मार्क्सवाद समानार्थक हैं? एक-दूसरे के पर्यायवाची या स्थानापन्न हैं? या अभिन्न? अगर ऐसा है, तो मार्क्सवादियों के लिए यह प्रसन्नता की बात होनी चाहिए, क्योंकि वे तो यह मानते ही हैं कि यथार्थवादी ही सच्चा मार्क्सवादी हो सकता है, और जो यथार्थवादी है, वह घोषित रूप से मार्क्सवादी न होने पर भी मार्क्सवादी हो सकता है। यथार्थवाद के लिए ही मार्क्स-एंगेल्स बाल्जाक के प्रशंसक थे और लेनिन तोल्सतोय के!

खैर, इन बारीकियों में न जायें, उत्तर-आधुनिकतावादी ‘अंतों’ की ही बात करें, तो यदि यथार्थवाद और मार्क्सवाद का अंत हो चुका है, तो प्रश्न उठता है: इनके बाद जो ‘ज्ञान’ आया है और जो ‘आख्यान कला’ आयी है, वह क्या है? मैंने अपनी पुस्तक ‘आज का पूँजीवाद और उसका उत्तर-आधुनिकतावाद’ (1999) में इस प्रश्न का उत्तर खोजने का प्रयास किया था और पाया था कि उत्तर-आधुनिकतावाद आज के पूँजीवाद की विचारधारा है, जो ज्ञान की जगह अज्ञान का, तर्क की जगह तर्कहीनता का और विवेक की जगह विवेकहीनता का प्रचार-प्रसार करती है। इसका उद्देश्य लोगों को समाजवाद और साम्यवाद की दिशा में जाने से रोकना तो है ही, पूँजीवादी जनवाद को समाप्त करना भी है। 

उत्तर-आधुनिकतावाद का सबसे प्रमुख तत्त्व है ‘एलीटिज्म’ (अभिजनवाद), जिसके द्वारा विशिष्ट और सामान्य लोगों में भेद किया जाता है और सामान्य लोगों को--अर्थात् गरीब, शोषित, उत्पीड़ित जनता और उसके पक्षधरों को नीची नजर से देखा जाता है। रिचर्ड रोर्टी, जो उत्तर-आधुनिकतावाद के एक प्रमुख चिंतक माने जाते हैं, अपनी पुस्तक ‘कंटिंजेंसी, आयरनी एंड सॉलिडैरिटी’ (1989) में बौद्धिक और सामान्य लोगों में यह भेद बताते हैं कि बौद्धिक लोग ‘आयरनिस्ट’ (विडंबनावादी) होते हैं, जबकि सामान्य लोग जीवन को गंभीरता से लेते हैं। अर्थात् सामाजिक यथार्थ को ध्यान से देखना, जीवन की समस्याओं पर गंभीरतापूर्वक विचार करना और उनके समाधान के लिए प्रयत्नशील होना जीवन को गंभीरता से लेना है, और यह सामान्य लोगों का काम है, जबकि विशिष्ट बौद्धिक व्यक्ति जीवन को गंभीरता से नहीं लेते, उस पर हँसते हैं। 


इस ‘मार्क्सवादोत्तर ज्ञान’ के साथ आयी ‘यथार्थवादोत्तर आख्यान कला’ के बारे में मैंने लिखा था :

आजकल हिंदी के लेखकों को यह अभिजनवाद खूब प्रभावित कर रहा है। गंभीर लेखन उत्तर-आधुनिकतावादी लोगों की नजर में पुराना, पिछड़ा हुआ और उपेक्षणीय लेखन है। साधारण पाठकों की समझ में आने वाला लेखन घटिया है। श्रेष्ठ लेखन वह है, जो विशिष्ट पाठकों के लिए किया जाये, मगर हल्का-फुल्का हो; जिसमें व्यंग्य, विडंबना, भदेस और आत्मोपहास का मिश्रण हो! उसकी तुलना में गंभीर सामाजिक समस्याएँ उठाने वाला लेखन बेकार है! ऐसा लेखन घटिया और छोटे लेखक करते हैं! 

लेकिन हिंदी साहित्य का सौभाग्य है कि उत्तर-आधुनिकतावादियों की तमाम कोशिशों के बावजूद इस ‘मार्क्सवादोत्तर ज्ञान’ और इस ‘यथार्थवादोत्तर आख्यान कला’ को थोड़े-से फैशनपरस्त लेखकों ने ही अपनाया। फैशनपरस्त लेखकों के लिए विचार भी फैशन की तरह अपनायी और त्याग दी जाने वाली चीजों की तरह होते हैं। उनके लिए अस्तित्ववाद हो या मार्क्सवाद या उत्तर-आधुनिकतावाद--सब साहित्यिक फैशन हैं। और फैशन तो बदलते ही रहते हैं। कल मार्क्सवाद का फैशन था, आज ‘मार्क्सवादोत्तर’ का फैशन है। मैंने अपने निबंध ‘साहित्य में फैशन और नवोन्मेष’ (2000) में लिखा था :

साहित्य में भी फैशन चलते हैं। उदाहरण के लिए, बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के हिंदी साहित्य को देखें। एक समय आता है, जब बहुत-से लेखक सार्त्र, कामू, काफ्का आदि की चर्चा करते हुए ऊब, कुंठा, अकेलेपन, अजनबीपन आदि पर लिखने-बोलने लगते हैं। फिर एक समय आता है, जब बहुत-से लेखक मार्क्स, लेनिन, माओ आदि की चर्चा करते हुए वर्ग-संघर्ष, क्रांति, पक्षधरता, प्रतिबद्धता आदि पर लिखने-बोलने लगते हैं। इसी तरह फिर एक समय आता है, जब बहुत-से लेखक ल्योतार, फूको, दरीदा आदि की चर्चा करते हुए आख्यान, पाठ, अंत, विमर्श आदि पर लिखने-बोलने लगते हैं। 

लेकिन फैशनपरस्त लेखकों की दिक्कत यह होती है कि वे उन चीजों का भी अंत हुआ मान लेते हैं, जिनका वास्तव में अंत हुआ नहीं होता। उदाहरण के लिए, उन्होंने उत्तर-आधुनिकतावादियों की बातों पर भरोसा करके यह मान लिया कि आधुनिकता का अंत हो गया और उसके साथ-साथ मार्क्सवाद तथा यथार्थवाद का अंत भी हो गया। उन्होंने यह नहीं सोचा कि साहित्य में आधुनिकता, मार्क्सवाद और यथार्थवाद का आगमन दुनिया में पूँजीवाद के आगमन के साथ-साथ हुआ है और पूँजीवाद का अंत अभी नहीं हुआ है। अपने भीतर हुए तमाम परिवर्तनों के बाद भी पूँजीवाद पूँजीवाद ही है और शीत युद्ध की समाप्ति के बाद नव-उदारवाद या बाजारवाद के रूप में तो वह अपनी सारी प्रगतिशीलता खोकर पुराने पूँजीवाद की ही ओर लौट गया है। अतः जब पूँजीवाद का ही अंत नहीं हुआ, तो आधुनिकता का अंत कब और कैसे हो गया? पूँजीवाद का प्रतिपक्ष और विकल्प समाजवाद तथा उसकी विश्व-दृष्टि मार्क्सवाद भी आधुनिकता की ही देन है। सो जब तक आधुनिकता का अंत नहीं होता, समाजवाद और मार्क्सवाद का अंत कैसे हो जायेगा?

हाँ, लेकिन जिस तरह पूँजीवाद अपने उदयकाल के समय का पूँजीवाद नहीं रह गया है--व्यापारिक पूँजीवाद, औद्योगिक पूँजीवाद, साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, एकाधिकारी पूँजीवाद जैसे उसके विभिन्न रूप रहे हैं और आज वह नव-उदारवाद या बाजारवाद के नये रूप में मौजूद है--उसी तरह समाजवाद और मार्क्सवाद के भी विभिन्न रूप रहे हैं। आज का मार्क्सवाद मार्क्स-एंगेल्स के जमाने का मार्क्सवाद नहीं है। वह भी बदलता और विकसित होता रहा है--रूस में एक ढंग से, चीन में दूसरे ढंग से, पूर्वी यूरोप में तीसरे ढंग से और तीसरी दुनिया के विभिन्न देशों में अपने-अपने अलग ढंग से। भारत में भी उसका कोई एक ही रूप नहीं है। यहाँ भी वह विभिन्न रूपों में मौजूद है और विभिन्न प्रकार से विकसित हो रहा है। वैश्विक स्तर पर वह राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों, जनता की जनवादी क्रांतियों और समाजवादी क्रांतियों में विकसित होता रहा है। आज भी वह विभिन्न देशों की विभिन्न प्रकार की परिस्थितियों में कहीं सामंतवाद के विरुद्ध, कहीं पूँजीवाद के विरुद्ध, कहीं अधिनायकवाद के विरुद्ध, कहीं फासीवाद के विरुद्ध, कहीं रंगभेदवाद के विरुद्ध, कहीं मर्दवाद के विरुद्ध, कहीं जातिवाद के विरुद्ध, कहीं संप्रदायवाद के विरुद्ध, कहीं बाजारवाद के विरुद्ध और कहीं प्रकृति एवं पर्यावरण का नाश करने वाली शक्तियों के विरुद्ध जारी जन-आंदोलनों में सतत विकासमान है। इस प्रकार वह कोई जड़ या मृत सिद्धांत अथवा पुराने फैशन की चीज नहीं है, जिसका अंत हो चुका हो।

इसी तरह यथार्थवाद के रूप भी बदलते रहे हैं। अपने प्रारंभिक रूप यथातथ्यवाद या प्रकृतवाद से आगे विकसित होता हुआ वह आलोचनात्मक यथार्थवाद और समाजवादी यथार्थवाद के बाद अब भूमंडलीकरण के दौर में एक नये ढंग के यथार्थवाद तक आ पहुँचा है। उसके विभिन्न रूप बदलते हुए यथार्थ और उसको देखने की बदलती हुई जीवन-दृष्टि से संबंधित हैं। पूँजीवादी व्यवस्था को अपनी सहजात आधुनिकता से उत्पन्न यथार्थवाद का आज का बदला हुआ रूप  रास नहीं आता, क्योंकि उसके जरिये पूँजीवाद की आलोचना और समाजवाद की माँग की जाती है। अतः आज के पूँजीवाद की विचारधारा उत्तर-आधुनिकतावाद से प्रभावित विद्वान तरह-तरह से यथार्थवाद का विरोध करते हैं। वे कभी यथार्थवाद को यथातथ्यवाद तक, कभी अनुभववाद तक और कभी लेखन की एक पद्धति या फैशन तक सीमित कर देते हैं। यही कारण है कि उन्हें साहित्य में अनुभववाद (‘‘लेखक के अपने जिये-भोगे यथार्थ’’ के रूप में) और जादुई यथार्थवाद (यथार्थ को देखने की जीवन-दृष्टि के रूप में नहीं, बल्कि लेखन की एक विशेष पद्धति या फैशन के रूप में) तो पसंद आते हैं और वे इस प्रकार की रचनाओं का ऊँचा मूल्य आँककर उसका प्रचार करते हैं, जबकि यथार्थवाद को पुराना बताकर खारिज करते हैं।

प्रोफेसर राजकुमार ने पिछले पच्चीस साल की हिंदी कहानी पर लिखते हुए एक स्पष्टीकरण दिया है कि ‘‘हमारा उद्देश्य इस दौर का सांगोपांग इतिहास लिखना नहीं, बल्कि इस दौर में लिखी गयी कुछ बेहतरीन कहानियों का चयन करना है।’’ सब जानते हैं कि साहित्य में चुनने और छोड़ने की प्रक्रिया निरंतर और हर स्तर पर चलती है। रचनाकार दुनिया में मौजूद असंख्य विषयों में से कुछ ही विषय चुनकर उन पर लिखता है, संपादक असंख्य रचनाओं में से कुछ ही चुनकर प्रकाशित करता है, समीक्षक असंख्य रचनाओं में से कुछ ही चुनकर उनकी समीक्षा करता है और पाठक भी असंख्य रचनाओं और समीक्षाओं में से कुछ ही चुनकर पढ़ता है। फिर भी प्रोफेसर राजकुमार ने न जाने किन संभावित आपत्तियों से आशंकित होकर यह सफाई दी है कि ‘‘शायद ही कोई ऐसा लेखन हो, जो चयनधर्मी न हो। यह लेख भी चयनधर्मी है।’’ बेशक ऐसा ही है, लेकिन हर चयन के पीछे चयनकर्ता की एक दृष्टि होती है। अब चयनकर्ता की दृष्टि अगर ‘‘यथार्थवादोत्तर/मार्क्सवादोत्तर’’ दृष्टि है, तो कम से कम वे कहानियाँ तो उसके चयन से बाहर रह ही जायेंगी, जो घोषित रूप से यथार्थवादी और मार्क्सवादी लेखकों द्वारा लिखी गयी हों!

मुझे अपना ही उदाहरण देने के लिए क्षमा किया जाये, लेकिन बात को स्पष्ट करने के लिए यह जरूरी है। पिछले पच्चीस वर्षों में मेरे पाँच (यदि ‘चर्चित कहानियाँ’ और ‘दस प्रतिनिधि कहानियाँ’ भी जोड़ लें, तो सात) कहानी संग्रह आये हैं--‘किसी देश के किसी शहर में’ (1987), ‘कहाँ हो प्यारेलाल!’ (1991), ‘अर्थतंत्र तथा अन्य कहानियाँ’ (1996), ‘डॉक्यूड्रामा तथा अन्य कहानियाँ’ (2006) और ‘एक घर की डायरी’ (2009)। इनमें शामिल मेरी कई कहानियाँ, जैसे ‘मिट्टी’, ‘दिशा’, ‘लाइ लो’, ‘सफाइयाँ’, ‘रात अब भी उतनी ही काली है’, ‘डेल्टा’, ‘अर्थतंत्र’, ‘स्पंदन’, ‘फासी-फंतासी’, ‘डॉक्यूड्रामा’, ‘आप जानते हैं’ आदि और इन संग्रहों के बाद लिखी गयी ‘त्रासदी...माइ फुट!’, ‘प्राइवेट पब्लिक’, ‘ग्लोबल गाँव के अकेले’ आदि कई कहानियाँ काफी चर्चित हुई हैं। इनमें से एक ‘आप जानते हैं’ राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा रूपांतरित नाटक के रूप में मंचित हुई है और दो कहानियाँ ‘लाइ लो’ और ‘सफाइयाँ’ दूरदर्शन द्वारा निर्मित टेलीफिल्मों के रूप में प्रसारित हुई हैं। इनमें से कुछ कहानियाँ भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनूदित भी हुई हैं तथा भाँति-भाँति के संकलनों में शामिल की गयी हैं। ताजा उदाहरण है अभी-अभी यतीश अग्रवाल द्वारा संपादित और रूपा से अंग्रेजी में प्रकाशित संकलन ‘। 'A Hundred Lamps' (2012), जिसमें मेरी कहानी ‘स्पंदन’ प्रेमचंद, फणीश्वरनाथ रेणु, निर्मल वर्मा, उदय प्रकाश, अवधेश प्रीत और रेखा अग्रवाल की कहानियों के साथ शामिल की गयी है। लेकिन प्रोफेसर राजकुमार ने मेरी किसी कहानी का उल्लेख करना उचित या आवश्यक नहीं समझा।

खैर, मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं है। मैं उनकी चयनधर्मिता वाले स्पष्टीकरण से संतुष्ट हूँ। समीक्षक क्या चुने और क्या छोड़े, यह उसके चयन के निजी अधिकार तथा अपने मत को व्यक्त करने के स्वातंत्रय का मामला है। लेकिन आलोचना में अपनायी जाने वाली चयन-दृष्टि प्रवृत्तिगत होने के कारण किसी एक व्यक्ति की नहीं होती। वह एक प्रवृत्ति के रूप में साहित्य के विकास या ह्रास का कारण बन सकती है। अतः उस पर विचार करना आवश्यक है।

हिंदी की कथा-समीक्षा में नवीनतम कहानी को मूल्यवान मानकर चुनने और उसकी पूर्ववर्ती कहानी को महत्त्वहीन समझकर छोड़ देने की एक परिपाटी चली आ रही है, जिसके तहत ‘नये’ को उभारने के लिए ‘पुराने’ को बेकार या गैर-जरूरी मानकर चलना तथा उसे ‘नये’ के विकास में बाधक बताना जरूरी माना जाता है। इसी का एक रूप है यथार्थवादी और मार्क्सवादी लेखकों द्वारा लिखे गये कथासाहित्य को पुराना घोषित करते हुए उसे हिंदी कथा के सार्थक विकास में बाधक बताना।
हिंदी की कहानी समीक्षा में अक्सर यह हुआ है कि कहानी को दशकों और पीढ़ियों में बाँटकर देखा गया है और पूर्ववर्ती कहानी को ‘पुरानी’ तथा परवर्ती कहानी को ‘नयी’ बताते हुए ‘कहानी के विकास’ को समझने-समझाने की कोशिशें की गयी हैं। यह सिलसिला ‘नयी कहानी’ के दौर से शुरू होता है, जब बीसवीं सदी के पाँचवें दशक वाली पीढ़ी की ‘पुरानी’ कहानी के मुकाबले छठे दशक वाली पीढ़ी की ‘नयी’ कहानी में हिंदी कहानी का विकास देखा गया। इसी तर्ज पर आगे चलकर छठे दशक वाली पीढ़ी की ‘नयी कहानी’ के मुकाबले सातवें दशक की पीढ़ी की ‘अकहानी’ को हिंदी कहानी का विकास माना गया। इसके बाद लगभग यही सिलसिला ‘अकहानी’ के विरुद्ध ‘समांतर कहानी’ को, ‘समांतर कहानी’ के विरुद्ध ‘जनवादी कहानी’ को, ‘जनवादी कहानी’ के विरुद्ध ‘जादुई यथार्थवादी’ कहानी को नयी कहानी मानते हुए जारी रहा। इसी सिलसिले की अगली कड़ी है यथार्थवादी और मार्क्सवादी कहानी को पुरानी मानकर उत्तर-आधुनिकतावादी कहानी को नयी बताना।

हालाँकि ज्ञान जहाँ से भी मिले, ले लेना चाहिए; कला जहाँ से भी सीखने को मिले, सीख लेनी चाहिए; फिर भी यह ध्यान रखना जरूरी है कि हम कोई नयी चीज कहीं से लेकर अपनायें, तो अपनी परिस्थितियों में अपनी जरूरतों के मुताबिक और अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आवश्यक होने पर अपनायें। वैसे नहीं, जैसे हमारे किसान आजकल खेती की नयी तकनीक अपनाते हैं। मसलन, एक बहुराष्ट्रीय कंपनी अपने मुनाफे के लिए खेती की कोई नयी तकनीक लेकर आती है और भारतीय किसान से कहती है कि खेती की तुम्हारी अपनी तकनीक पुरानी और बेकार हो चुकी है, हमारी यह नयी तकनीक लो, इससे अधिक लाभदायक खेती करो और अपने खेतों में वह पैदा करो, जिसकी तुम्हें जरूरत हो या न हो, हमें जरूरत है! किसान तो अपनी गरीबी, अशिक्षा, राज्य और समाज द्वारा की जाने वाली उपेक्षा और बाजार की ताकतों का संगठित प्रतिरोध करने में अक्षम होने के कारण मजबूरी में उसके झाँसे में आकर अपनी खेती की बर्बादी के साथ खुद को भी तबाह करके आत्महत्या कर लेता है; लेकिन हिंदी लेखकों की ऐसी क्या मजबूरी है कि वे अपने साहित्य के विकास के लिए निहायत जरूरी यथार्थवाद और मार्क्सवाद को त्यागकर नवीनता के नाम पर लेखन के उत्तर-आधुनिकतावादी तौर-तरीके अपनाने का आत्मघाती कदम उठायें?

आज का साहित्यकार, चाहे वह घोषित रूप से यथार्थवादी और मार्क्सवादी न भी हो, वर्तमान पूँजीवादी विश्व व्यवस्था के यथार्थ को समझे बिना, जनतांत्रिक और मानवीय मूल्यों के आधार पर उसकी आलोचना किये बिना, और इस व्यवस्था के बदले जाने तथा एक बेहतर व्यवस्था के बनाये जाने की जरूरत पर जोर दिये बिना एक भी सार्थक पंक्ति नहीं लिख सकता। आज जनतांत्रिक मूल्यों--समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के मूल्यों--पर ही नहीं, बल्कि सच्चाई, अच्छाई, न्याय, नैतिकता, प्रेम, सहिष्णुता, सहयोग, सहानुभूति, करुणा, परदुखकातरता जैसे मानवीय मूल्यों पर भी संकट छाया हुआ है। इन मूल्यों को बचाने और बढ़ाने की जिम्मेदारी जितनी सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक संस्थाओं तथा संगठनों की है, उतनी ही साहित्यकारों की। आज के साहित्यकारों का यथार्थवादी और मार्क्सवादी होना प्रासंगिक बने रहने के लिए ही नहीं, अपनी मनुष्यता को बचाये रखने के लिए भी आवश्यक है। अलबत्ता यथार्थवाद और मार्क्सवाद के बारे में किये जाने वाले दुष्प्रचार से बचने के लिए आज के यथार्थवाद और आज के मार्क्सवाद को समझना तथा रचना एवं आलोचना में उसको विकसित करना आवश्यक है।

यथार्थवाद का मतलब यथातथ्यवाद--अथवा यथास्थिति का चित्रण करने जैसा काम--नहीं है। यथार्थवाद का मतलब है अतीत और भविष्य के संदर्भ में वर्तमान को देखना और ‘जो है’ उसके बारे में ही नहीं, बल्कि ‘जो होना चाहिए’ उसके बारे में भी लिखना। इसी तरह मार्क्सवादी कथा-लेखन का मतलब कथा में किसी मार्क्सवादी दल या संगठन का प्रवक्ता होकर उसकी राजनीति का प्रचार करना या केवल किसानों-मजदूरों के संघर्ष और क्रांति को ही विषय बनाकर लिखना नहीं है। आज की दुनिया में मार्क्सवादी कथाकार होने का मतलब है वर्तमान पूँजीवादी विश्व-व्यवस्था की जगह समाजवादी विश्व-व्यवस्था के निर्माण के लिए संघर्षरत शक्तियों के साथ खड़े होना। कथा में यह काम वर्ग-संघर्ष या क्रांति के बारे में लिखकर ही नहीं, बल्कि सच्चाई और अच्छाई जैसी ‘मामूली’ चीजों के बारे में लिखकर भी किया जा सकता है। हिंदी कथा का सार्थक विकास इसी प्रकार होता आया है और आगे भी किया जा सकता है।

सौभाग्य से हिंदी कथाकारों में से ज्यादातर ‘सफलता’ को उतना बड़ा मूल्य नहीं मानते, जितना ‘सार्थकता’ को। यही कारण है कि थोड़े-से फैशनपरस्त लोगों को छोड़कर हिंदी के प्रायः सभी कथाकार किसी न किसी रूप में यथार्थवादी हैं और उनमें से जो घोषित रूप से मार्क्सवादी नहीं हैं, वे भी अपनी रचनाओं में लगभग वही काम करते नजर आते हैं, जो मार्क्सवादी लेखक करते हैं या उन्हें करना चाहिए।

‘तद्भव’ के इस अंक में प्रकाशित कहानियों को देखें, तो उनमें से किसी में भी ‘‘यथार्थवादोत्तर/मार्क्सवादोत्तर ज्ञान और आख्यान कला’’ के दर्शन नहीं होते। ये सभी कहानियाँ आज के बदलते हुए यथार्थ को नये यथार्थवादी रूप-शिल्प में सामने लाने वाली यथार्थवादी कहानियाँ हैं। इनमें यथार्थवाद का निषेध नहीं, बल्कि उसका विकास किया जाता दिखायी पड़ता है। लेकिन इस विकास को हम तभी देख सकते हैं, जब हम यथार्थवाद को महज एक ‘साहित्यिक पद्धति’ न मानें, बल्कि एक जीवन-दृष्टि मानकर चलें--हालाँकि इन कहानियों को पढ़ने पर पता चलता है कि एक साहित्यिक पद्धति के रूप में भी यथार्थवाद की उपयोगिता अभी समाप्त नहीं हुई है, जैसा कि शिवमूर्ति, सारा राय और मनोज कुमार पांडेय की कहानियों में तो स्पष्ट ही देखा जा सकता है, अन्य कहानियों में भी थोड़े बौद्धिक आयास के जरिये उसे समझा जा सकता है। उदाहरण के लिए, काशीनाथ सिंह की कहानी में जहाँ-तहाँ गद्य को कविता की पंक्तियों की तरह लिखते हुए, राजेश जोशी की कहानी में ‘पूर्वकथा’, ‘विष्कंभक’ और ‘डायरी’ के शिल्प में किस्से को आगे-पीछे घुमाते हुए, योगेंद्र आहूजा की कहानी में एक ही कहानी को अनेक पात्रों के दृष्टिकोण से कहते हुए और नीलाक्षी सिंह की कहानी में एक ठेठ ग्रामीण यथार्थ की कहानी को उच्च शिक्षा प्राप्त शहरी बौद्धिकों वाली भाषा में सुनाते हुए कथा-लेखन के जो नये प्रयोग किये गये हैं, वे कोई ‘‘यथार्थवादोत्तर आख्यान कला’’ के नमूने नहीं, बल्कि यथार्थवादी कथा-लेखन के ही विविध रूप हैं। यथार्थवादी कथा-लेखन में इस प्रकार के नये प्रयोगों की गुंजाइश और जरूरत हमेशा रही है, आज भी है और आगे भी रहेगी।

जहाँ तक ‘‘मार्क्सवादोत्तर ज्ञान और आख्यान कला’’ का प्रश्न है, यह सही है कि प्रगतिशील और जनवादी कहानी के आंदोलनों के दौरान मार्क्सवाद या क्रांति का प्रचार करने वाली जो कहानियाँ लिखी गयी थीं, वैसी कहानियाँ लिखने का दौर बीत चुका है, और यह अच्छा ही हुआ है, लेकिन इससे मार्क्सवाद की जरूरत या अहमियत कम नहीं हुई, बल्कि बढ़ी है। आज मार्क्सवाद कहानी की विषयवस्तु के रूप में नहीं, बल्कि कहानीकार की विश्व-दृष्टि के रूप में कहानी में अनुस्यूत रहता है। वह कहानी में उन मूल्यों के रूप में गुँथा रहता है, जो मानवीय, जनतांत्रिक और अंततः समाजवाद की ओर ले जाने वाले मूल्य हैं।

इस दृष्टि से देखें, तो ‘तद्भव’ के इस अंक में प्रकाशित सातों कहानियाँ यथार्थवादी जीवन-दृष्टि तथा मार्क्सवादी विश्व-दृष्टि से लिखी गयी कहानियाँ हैं, चाहे इनके लेखक स्वयं को यथार्थवादी और मार्क्सवादी मानते हों या न मानते हों। पहली बात तो यह है कि इनमें से कोई भी कहानी वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था के औचित्य का प्रतिपादन नहीं करती, बल्कि सभी कहानियाँ किसी न किसी रूप में उसके यथार्थ को सामने लाकर उसकी निंदा या आलोचना ही करती हैं। दूसरी बात यह कि इनके लेखक जिन मूल्यों को बचाने और बढ़ाने के उद्देश्य से कहानी लिख रहे हैं, वे सभी मूल्य आज की दुनिया की जगह एक बेहतर दुनिया की जरूरत बताने वाले मूल्य हैं। तीसरी और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इन कहानियों के पात्रों के प्रति लेखकीय सहानुभूति आम तौर पर वर्गीय सहानुभूति है।

कहानीकार अपनी कहानी के लिए कौन-सा विषय चुने, कौन-सी समस्या उठाये, उस विषय या समस्या को कहानी में उठाने के लिए कैसे पात्र चुने, उनके भीतरी-बाहरी संघर्षों को कैसे सामने लाये और कहानी को एक तार्किक परिणति वाले कलात्मक अंत तक कैसे पहुँचाये--कहानी की रचना-प्रक्रिया से संबंधित ये तमाम प्रश्न निरे साहित्यिक प्रश्न नहीं, बल्कि बड़े गहरे अर्थों में राजनीतिक अर्थशास्त्र के प्रश्न हैं और आज की दुनिया का राजनीतिक अर्थशास्त्र तब तक हमारी समझ में नहीं आ सकता, जब तक हम उसे मार्क्सवादी विश्व-दृष्टि से न देखें। मार्क्सवादी विश्व-दृष्टि की एक अनन्य विशेषता है वर्गीय पक्षधरता, जो कथासाहित्य में कथा-पात्रों के प्रति लेखकीय सहानुभूति के रूप में व्यक्त होती है। लेकिन यह विशेषता बहुत-से गैर-मार्क्सवादी लेखकों के कथा-लेखन में भी पायी जाती है। अतः कथाकार की विश्व-दृष्टि क्या है, यह हम तभी जान सकते हैं, जब यह देखें कि कथाकार की सहानुभूति किन पात्रों के प्रति है और उस सहानुभूति का वह--जाहिर है, कहानी के माध्यम से--करना क्या चाहता है। कहानी की रचना-प्रक्रिया का यह प्रश्न लेखन की पद्धति का प्रश्न नहीं, बल्कि लेखक की विश्व-दृष्टि का प्रश्न है, जिससे वह देखता है कि जिन पात्रों को वह अपनी सहानुभूति दे रहा है, उनकी वास्तविक दशा और दिशा क्या है; उनका अतीत क्या रहा है और वर्तमान में निहित उनके भविष्य की संभावनाएँ क्या हैं।

इस दृष्टि से ‘तद्भव’ के इस अंक में प्रकाशित सातों कहानियों को देखें, तो पायेंगे कि इन कहानियों के लेखक मार्क्सवादी हों या न हों, उनकी लेखकीय सहानुभूति कहानी में ताकतवर के खिलाफ कमजोर के साथ है और वह उसके पक्ष में स्पष्ट रूप से व्यक्त होती है। उदाहरण के लिए, काशीनाथ सिंह की कहानी ‘महुआचरित’ में महुआ के प्रति, राजेश जोशी की कहानी ‘गाइबबाज’ में कप्पू के प्रति, शिवमूर्ति की कहानी ‘ख्वाजा, ओ मेरे पीर!’ में बूढ़े मामा-मामी के प्रति, सारा राय की कहानी ‘अपराध’ में बड़ी मम्मी के प्रति, योगेंद्र आहूजा की कहानी ‘एक्यूरेट पैथोलॉजी’ में गनपत, रोशनलाल, कवि, ज्योतिर्मयी और पेशे से पेशाब विश्लेषक लेखक के प्रति, नीलाक्षी सिंह की कहानी ‘साया कोई’ में किरण और मुसमातिन के प्रति और मनोज कुमार पांडेय की कहानी ‘पुरोहित जिसने मछलियाँ पालीं’ में पार्वती, मैना और रामदत्त के प्रति। इन सब कहानियों में लेखकीय सहानुभूति ही वह आधार है, जिस पर इनकी समूची मूल्य-संरचना खड़ी होती है और लेखक की रचना-प्रक्रिया पक्षधरता और प्रतिबद्धता के ही नहीं, बल्कि संप्रेषण और कलात्मकता के प्रश्नों को भी हल करती हुई एक तार्किक परिणति वाले कलात्मक अंत तक पहुँचकर कहानी को एक मुकम्मल कहानी बनाती है।

भाषा, शिल्प और शैली का नयापन इन कहानियों में भी है, लेकिन वह दिखावटी नयापन नहीं है। ‘तद्भव’ के संपादक अखिलेश ने, जो स्वयं आज के एक महत्त्वपूर्ण कथाकार हैं, इस अंक के संपादकीय में दिखावटी नयेपन की ओर ध्यान दिलाते हुए यह चौकसी बरतने की सलाह ठीक ही दी है कि ‘‘कहीं यह ‘नया दिखना’ महज दिखावा न हो।’’ लेकिन उन्होंने उत्तर-आधुनिकतावादी भाषा में आज की हिंदी कहानी में जिस ‘नवोन्मेष’ के होने पर प्रसन्नता प्रकट की है, वह विचारणीय है। वे इस ‘नवोन्मेष’ का एक कारण यह बताते हैं कि हिंदी के कथाकार आधुनिकता और मार्क्सवाद ‘‘दोनों की महान परंपराओं और महावृत्तांतों के प्रति सतर्क दृष्टिकोण रखते हुए अपने समय की मीमांसा कर रहे हैं’’। यदि वे ऐसा कहते हुए प्रोफेसर राजकुमार के ‘‘यथार्थवादोत्तर/मार्क्सवादोत्तर ज्ञान और आख्यान’’ से अपनी सहमति जता रहे हैं, तो यह चिंता का विषय है।

यह सही है कि हिंदी कहानी में एक नवोन्मेष की आवश्यकता है और उस दिशा में कुछ प्रयास भी हो रहा है, लेकिन वह हो चुका है, ऐसा मानना शायद जल्दबाजी है। और वह नवोन्मेष यथार्थवाद और मार्क्सवाद को त्यागकर उत्तर-आधुनिकतावाद को अपनाने से होगा, यह मानकर चलना तो बहुत ही चिंताजनक है। मैंने अपने निबंध ‘साहित्य में फैशन और नवोन्मेष’ (2000) में लिखा था : 

आज के हिंदी साहित्य को देखकर लगता है कि उसमें किसी मौलिक नवोन्मेष की सख्त जरूरत है। इस जरूरत को आज बहुत-से लेखक महसूस कर रहे हैं। इसीलिए ऐसी बहुत-सी रचनाएँ सामने आ रही हैं, जिनमें कुछ अलग ढंग से कोई नयी बात कहने की कोशिश दिखायी पड़ती है और एक सामूहिक इच्छा का पता चलता है कि साहित्य आज जहाँ है, वहाँ से आगे बढ़ना चाहिए। मगर कोई लक्ष्य और दिशा स्पष्ट न होने से एक विभ्रम-सा फैला हुआ है, जिसमें ऐसे प्रयास व्यक्तिगत प्रयास बनकर रह जाते हैं, साहित्य को ऊर्जा, गति और दिशा देने वाला कोई नवोन्मेष नहीं बन पाते।

साहित्यिक नवोन्मेष के लिए आवश्यक है कि रचना और आलोचना के वर्तमान तौर-तरीकों को बदला जाये। लेकिन यह काम न तो उन लेखकों से हो सकता है, जो कुछ भी नया करके तत्काल प्रतिष्ठा, पुरस्कार आदि प्राप्त कर लेना चाहते हैं और न उन लेखकों से, जो किसी दल या संगठन की नित्य बदलने वाली ‘लाइन’ के अनुसार अपनी रचनाशीलता को ‘राजनीतिक रूप से सही’ रखने की कोशिशों में लगे रहते हैं। यह काम वे ही कर सकते हैं, जो सिर्फ आज के नहीं, बल्कि भविष्य के पाठकों को भी ध्यान में रखकर लिखते हैं और ‘आज का लेखन’ करने के बजाय ‘आगे का लेखन’ करते हैं; जो परिवर्तन और निरंतरता को समझते हुए परंपरा को आगे बढ़ाने में विश्वास करते हैं; जो ‘पुराने’ का पूर्ण निषेध करने के बजाय उसे समझते हैं और उसमें निहित जड़ एवं मृत को त्यागकर उसमें जो जीवंत है, उसे अपनाकर आगे बढ़ते हैं। ऐसे लेखक ही आगे का साहित्य रच सकते हैं।

‘आगे के साहित्य’ की अपनी परिकल्पना को मैंने पाँच वर्ष बाद लिखे गये अपने एक अन्य निबंध ‘आगे की कहानी’ (2005) में सामने लाने की कोशिश की थी। मैंने महाआख्यानों के अंत की घोषणा करने वाले उत्तर-आधुनिकतावाद को आज के भूमंडलीय पूँजीवाद की विचारधारा बताते हुए लिखा था :

आगे बढ़ने के लिए कहानीकारों को यह सोचना होगा कि आज के पूँजीवाद का विकल्प क्या हो सकता है। आज के वैश्विक पूँजीवाद का विकल्प वैश्विक समाजवाद ही हो सकता है। अतः सोचना यह है कि हम उसकी दिशा में कैसे आगे बढ़ें।

इस निबंध में मैंने लिखा था कि ‘आगे की कहानी’ की बात बीसवीं सदी के आठवें दशक में ही होने लगी थी। 1976 में हिंदी कहानी का पुनर्मूल्यांकन करने के लिए दिल्ली में आयोजित एक संगोष्ठी में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने ‘आगे की कहानी’ के लिए एक पंचसूत्री कार्यक्रम प्रस्तुत किया था, जो इस प्रकार था :

1. पश्चिमी फैशनपरस्त अंधानुकरण से बचो।
2. शिल्प को आतंक मत बनाओ।
3. उनके लिए भी लिखो जो अर्द्धशिक्षित हैं और उनके लिए भी जो अशिक्षित हैं, जिन्हें तुम्हारी कहानी पढ़कर सुनायी जा सके।
4. इस देश की तीन-चौथाई जनता की सोच-समझ को वाणी दो, जो वह खुद नहीं कह सकती। और,
5. कहानी को लोककथाओं और ‘फेबल्स’ की सादगी की ओर मोड़ो, उनके विन्यास से सीखो, और उसे आम आदमी के मन से जोड़ो।


इस पंचसूत्री कार्यक्रम को उद्धृत करते हुए मैंने अपने निबंध में लिखा था :

जाहिर है, ये बातें इसीलिए कही गयी थीं कि उस समय की हिंदी कहानी में पश्चिमी फैशनपरस्त अंधानुकरण हो रहा था, शिल्प को आतंक बनाया जा रहा था, कहानी केवल शिक्षितों के लिए लिखी जा रही थी, उसमें देश की तीन-चौथाई जनता की सोच-समझ को वाणी नहीं दी जा रही थी और कहानी ऐसे जटिल विन्यास वाली कहानी बनती जा रही थी कि वह आम आदमी के मन से नहीं जुड़ पा रही थी। इन्हीं चीजों के विरुद्ध ‘जनवादी कहानी’ का आंदोलन शुरू हुआ था, जो उस समय के हिसाब से ‘आगे की कहानी’ थी।

लेकिन

‘जनवादी कहानी’ के बाद हिंदी कहानी उस कार्यक्रम के अनुसार आगे नहीं बढ़ी। इसके विपरीत वह आगे बढ़ी ऐसी दो दिशाओं में, जो इस कार्यक्रम से कहानी को दूर ले जाने वाली थीं। एक दिशा थी ‘‘पश्चिमी फैशनपरस्त अंधानुकरण’’ तथा ‘‘शिल्प को आतंक बनाने’’ वाले कहानी-लेखन की दिशा, जिसमें आगे बढ़कर हिंदी कहानी जादुई यथार्थवादी और उत्तर-आधुनिकतावादी हुई। इस दिशा में जाकर हिंदी कहानी जनोन्मुख होने के बजाय बड़ी बेशर्मी से अभिजनोन्मुख हुई और ‘‘आम आदमी के मन से जुड़ने’’ के बजाय खास आदमियों के मन को मोहने की आकांक्षा से किये जाने वाले बौद्धिकता के व्यापार में बदल गयी। दूसरी दिशा ऊपरी तौर पर हिंदी कहानी को जनोन्मुख बनाने वाली लगती थी, जिसमें आगे बढ़कर हिंदी कहानी स्त्रीवादी और दलितवादी विमर्शों की कहानी बनी। लेकिन वास्तव में यह दिशा कहानी को सेक्स, हिंसा और जातिवादी लेखन के फार्मूलों की ओर ले गयी और कहानी जनोन्मुख होने के बजाय बाजारोन्मुख हो गयी।

‘जनवादी कहानी’ से पहले के फैशनपरस्त कहानीकार पश्चिमी फैशनों का अनुकरण करते थे, तो कम से कम पश्चिम की चीजों को पढ़ते तो थे। आगे चलकर यह हुआ कि उस अनुकरण का ही अनुकरण करते हुए बहुत-सी कहानियाँ लिखी जाने लगीं। ‘जनवादी कहानी’ के बाद शिल्प को पुनः आतंक बनाया जाने लगा। अशिक्षितों और अर्द्धशिक्षितों की तो बात ही क्या, शिक्षितों में भी केवल कुछ प्रभुत्वशाली संपादकों तथा आलोचकों को ध्यान में रखकर कहानियाँ लिखी जाने लगीं। जनता की सोच-समझ को वाणी देने की बात दूर, बहुत-से कहानीकार तो जन, जनता, जनवाद, समाजवाद आदि के नाम से ही बिदकने लगे और स्वयं ‘जन’ होकर भी ‘अभिजनों’ की-सी सोच-समझ के साथ और उन्हीं के लिए कहानी लिखने लगे। ‘सादगी’ या ‘आम आदमी के मन’ से तो कहानी का मानो कोई संबंध ही नहीं रहा। आयातित उच्च प्रौद्योगिकी के साथ आयी और अंधानुकरण के रूप में अपना ली गयी पश्चिमी जीवन-शैली में सादगी कहाँ?

मेरे विचार से हिंदी कहानी में नवोन्मेष के लिए आवश्यक था कि बीसवीं सदी के अंतिम दशक में सोवियत संघ के विघटन, शीतयुद्ध की समाप्ति और पूँजीवादी भूमंडलीकरण के साथ तेजी से बदले और बदलते यथार्थ की कहानी लिखी जाती। लेकिन उस यथार्थ की कहानी लिखने के उस समय जो यत्किंचित प्रयास हुए, उन्हें उस समय के चालू फैशनों के चलते ‘काल्पनिक’ और ‘गढ़ी हुई’ कहानियाँ कहा गया। अतः मैंने लिखा :

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने आगे की कहानी का जो पंचसूत्री कार्यक्रम दिया था, वह अभी अप्रासंगिक नहीं हुआ है। लेकिन आज की नयी परिस्थितियों में वह अपर्याप्त अवश्य लगता है। इसलिए मैं उसमें अपनी तरफ से पाँच सूत्र और जोड़ना चाहता हूँ :
1. चालू विमर्शों की कहानी लिखने से बचो।
2. बदलते हुए यथार्थ को देखो और यथार्थ को बदलने के लिए लिखो।
3. दुनिया भर के उत्कृष्ट कहानी-लेखन से सीखो, पर अपनी कथा परंपरा में और अपनी जनता के लिए लिखो।
4. साहित्य की बदली हुई शब्दावली को आँख मूँदकर मत अपनाओ।
5. वैश्विक पूँजीवाद के विरुद्ध वैश्विक समाजवाद का स्वप्न साकार करने के लिए अच्छी कहानियाँ बेखटके गढ़ो।


मेरा यह पंचसूत्री कार्यक्रम दूसरों से ज्यादा खुद अपने लिए था। मैंने इसी को ध्यान में रखकर अपनी कहानियाँ लिखीं और साथ-साथ भूमंडलीय यथार्थवाद की अपनी अवधारणा को विकसित करते हुए एक निबंध लिखा ‘भूमंडलीय यथार्थवाद’ (2008)। इस निबंध की अंतिम पंक्तियाँ हैं :

आज की दुनिया का सबसे अहम प्रश्न है: क्या पूँजीवाद की वैश्विक व्यवस्था की जगह कोई और वैश्विक किंतु बेहतर व्यवस्था संभव है? यदि हाँ, तो उसकी रूपरेखा क्या है और वह व्यवस्था किन आधारों पर, किन शक्तियों के द्वारा और किन तरीकों से बनायी जा सकती है? इस प्रश्न का उत्तर भूमंडलीय यथार्थवाद के आधार पर ही दिया जा सकता है, क्योंकि इसका उत्तर देने के लिए यह आवश्यक है कि आज की दुनिया के यथार्थ को भौगोलिक के साथ-साथ ऐतिहासिक दृष्टि से भी देखा जाये और ऐतिहासिक दृष्टि को केवल अतीत को देखने वाली दृष्टि नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य को भी देखने वाली ऐसी सर्जनात्मक दृष्टि मानकर चला जाये, जो आने वाले कल की बेहतर दुनिया बनाने के लिए हमें आज ही प्रेरित और सक्रिय कर सके।

संयोग से यह निबंध जिस साल लिखा गया, उसी साल से वैश्विक पूँजीवाद का वर्तमान संकट शुरू हुआ है। इस संकट ने बाजारवाद की कलई खोल दी है तथा उत्तर-आधुनिकतावाद का मुलम्मा भी उतार दिया है। आज का भूमंडलीय यथार्थ मार्क्सवाद की मदद के बिना समझ में नहीं आ सकता। और इस यथार्थ की कहानी लिखने के लिए कथाकार को सचेत अथवा असचेत रूप से यथार्थवादी और मार्क्सवादी होना ही पड़ेगा। अतः आज के हिंदी कथाकारों के लिए आवश्यक है कि वे यथार्थवाद और मार्क्सवाद को फैशन की तरह अपनाने और त्यागने के बजाय अपनी जीवन-दृष्टि तथा विश्व-दृष्टि के रूप में विकसित करें।

अंततः भूमंडलीय यथार्थवादी कथा-लेखन के बारे में दो बातें :

एक : भूमंडलीय यथार्थवाद का मतलब यह नहीं है कि हम अपने देश, अपने समाज या अपने निजी जीवन की कहानी कहना बंद कर देंगे। कहानी तो हम अपने देश, अपने समाज और अपने जीवन की ही कहेंगे, लेकिन अपने यथार्थ को देखने का हमारा परिप्रेक्ष्य भूमंडलीय होगा। कारण यह है कि अब हम इस परिप्रेक्ष्य के बिना अपने यथार्थ को समझ ही नहीं सकते।

दो : किसी साहित्यिक रचना में व्यापक और जटिल भूमंडलीय यथार्थ को किस तरह प्रस्तुत किया जा सकता है, इस प्रश्न का उत्तर खोजने में मुक्तिबोध हमारी सहायता कर सकते हैं। भूमंडलीय यथार्थ को आत्मसात् करने के मामले में उनकी ‘ज्ञानात्मक संवेदन’ और ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ की अवधारणाएँ उपयोगी हो सकती हैं, तो उस यथार्थ का चित्रण करने के मामले में उनका निबंध ‘डबरे पर सूरज का बिंब’ हमें उचित प्रेरणा दे सकता है। इस निबंध में मुक्तिबोध ने यही समस्या उठायी थी कि एक बड़े और व्यापक यथार्थ को साहित्यिक रचना में कैसे लायें। और समाधान यह सुझाया था कि जैसे पानी के एक छोटे-से डबरे पर भी सूरज का पूरा बिंब दिखायी देता है, वैसे ही छोटी-सी साहित्यिक रचना में बड़े और व्यापक यथार्थ का चित्रण किया जा सकता है।

नोट : लेख में मेरे जिन निबंधों का उल्लेख है, वे मेरे साहित्यिक निबंधों के संग्रह ‘साहित्य और भूमंडलीय यथार्थ’ (2008) में संकलित हैं।

--रमेश उपाध्याय

Wednesday, October 17, 2012

'कथन' को प्रथम वनमाली साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान

29 सितंबर, 2012 को भोपाल में वनमाली सृजन पीठ की ओर से ‘कथन’ को प्रथम वनमाली साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान भारत भवन में आयोजित एक भव्य समारोह में दिया गया। प्रस्तुत है इस अवसर पर मेरे द्वारा दिये गये व्याख्यान का किंचित् संक्षिप्त रूप।--रमेश उपाध्याय

(चित्र में बायें से दायें : मुकेश वर्मा, संतोष चौबे, रमेश उपाध्याय, शशांक, ओम थानवी)


यह  हिंदी की जनोन्मुख पत्रकारिता का सम्मान है

मित्रो, ‘वनमाली साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान’ ‘कथन’ को दिया जाना हिंदी की जनोन्मुख साहित्यिक पत्रकारिता का सम्मान है। यह भारतेंदु हरिश्चंद्र के समय से आज तक चली आ रही उस शानदार परंपरा का सम्मान है, जिसके अंतर्गत लघु पत्रिकाओं के जरिये बड़े साहित्य को पाठकों तक पहुँचाने के प्रयास प्रायः व्यक्तिगत स्तर पर किये जाते रहे हैं। यह हिंदी के लघु पत्रिका आंदोलन का भी सम्मान है, जिसके अंतर्गत विभिन्न उद्देश्यों से, विभिन्न रूपों में, विभिन्न प्रकार का साहित्य सामने लाने का एक ऐसा सामूहिक प्रयास किया जाता रहा है कि उसे स्वायत्तता के साथ सहयात्रा की अनूठी मिसाल कहा जा सकता है। 

मित्रो, साहित्यिक पत्रकारिता से मेरा संबंध मेरे लेखन के आरंभ से ही है और पिछले पचास वर्षों में यह अटूट बना रहा है। यह सितंबर का महीना है और पचास साल पहले सितंबर के महीने में ही मेरी पहली कहानी प्रकाशित हुई थी। वह कहानी थी ‘एक घर की डायरी’, जो अजमेर से निकलने वाली साहित्यिक पत्रिका ‘लहर’ के सितंबर, 1962 के अंक में प्रकाशित हुई थी। ‘लहर’ उस समय की एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका थी, जिसका नाम आज भी उस समय की ‘कल्पना’, ‘कृति’, ‘वसुधा’, ‘बिंदु’, ‘वातायन’ और ‘माध्यम’ जैसी साहित्यिक पत्रिकाओं के साथ आदरपूर्वक लिया जाता है। ‘लहर’ के संपादकद्वय थे प्रकाश जैन और मनमोहिनी जी। उन्हें मैं अपने साहित्यिक जन्मदाताओं के रूप में याद करते हुए आज के दिन को अपने साहित्यिक जन्मदिन के रूप में देख रहा हूँ, जिसे यहाँ धूमधाम से मनाने का इंतजाम आप लोगों ने, अनजाने ही, आज के इस समारोह के रूप में कर रखा है।

आज ‘कथन’ के सम्मानित होने के अवसर पर मुझे अपनी ही एक बात याद आ रही है। जब राजस्थान साहित्य अकादमी की पत्रिका ‘मधुमती’ ने प्रकाश जैन स्मृति विशेषांक निकाला था, मैंने प्रकाश जी को श्रद्धांजलि देते हुए उसमें लिखा था कि उनके प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि यह होगी कि वे ‘लहर’ के माध्यम से जो काम कर रहे थे, उसे हम आगे बढ़ायें। आज मैं किंचित् संकोच किंतु संतोष के साथ कह सकता हूँ कि ‘कथन’ के जरिये मैंने उनके काम को कुछ तो आगे बढ़ाया ही है। शायद इसीलिए आज ‘कथन’ को यह सम्मान दिया जा रहा है। अतः यह सम्मान मैं, अपने साहित्यिक जन्मदाताओं की स्मृति को प्रणाम करते हुए, उन्हीं को समर्पित करता हूँ।

मित्रो, साहित्यिक पत्रकारिता क्या होती है, यह मैंने ‘लहर’ के संपादन और संचालन को निकट से देखकर ही जाना। ‘लहर’ व्यक्तिगत प्रयासों से निकलने वाली एक लघु पत्रिका ही थी, लेकिन उसके संपादकों की जिद थी कि मासिक है, तो मासिक के रूप में ही निकलनी चाहिए। हालाँकि आगे चलकर जब उसके दुर्दिन आये, तब वह मासिक से द्वैमासिक, त्रैमासिक और फिर अनियतकालीन भी हुई और अच्छी सामग्री जुटाना भी उसके लिए मुश्किल हो गया, लेकिन मैं उसके आरंभिक वर्षों में उसके साथ जुड़ा था और मैंने उसके संपादकों का वह जोश और जुनून अपनी आँखों से देखा था, जिसके बिना शायद कोई अच्छी साहित्यिक पत्रिका नहीं निकल सकती।

पत्रिका को निरंतर, नियत समय पर और सामग्री की गुणवत्ता से कोई समझौता किये बिना उत्तरोत्तर बेहतर रूप में निकालने की जिद तभी पूरी हो सकती है, जब आप साहित्यिक पत्रकारिता को एक मिशन मानकर चलें और उस मिशन को कामयाब बनाने का जोश और जुनून भी आपमें हो। इसी का दूसरा नाम प्रतिबद्धता है, जो आपको अपने मिशन के प्रति सच्चा और ईमानदार बनाती है; जो आपकी पत्रिका को सोद्देश्य और सार्थक बनाती है। अब इसमें आर्थिक, शारीरिक और मानसिक कष्ट हों तो हों; निजी समस्याएँ और पारिवारिक परेशानियाँ सामने आयें तो आयें; पत्रिका निरंतर, नियत समय पर और उत्तरोत्तर बेहतर रूप में निकलनी ही चाहिए। दि शो मस्ट गो ऑन!

‘लहर’ के संपादकों से साहित्यिक पत्रकारिता का यह पाठ पढ़ लेने का ही शायद यह परिणाम था कि व्यावसायिक पत्रकारिता से जुड़कर भी, बल्कि उसमें गहरे धँसकर भी, मेरे मन में साहित्यिक पत्रकारिता के प्रति सदा सम्मान का भाव बना रहा और मैं उससे जुड़ा रहा। मैं ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’, ‘सारिका’, ‘कादंबिनी’ आदि व्यावसायिक पत्र-पत्रिकाओं का एक जमाने में बड़ा लाडला लेखक रहा। मेरी कविताएँ, कहानियाँ, लेख, रिपोर्ताज, अनुवाद और उपन्यास तक उनमें छपे। दैनिक, साप्ताहिक और पाक्षिक अखबारों के लिए ही नहीं, मैंने रेडियो और टेलीविजन के लिए भी खूब लिखा। जब मैं बंबई में था, तो फिल्मों के लिए लिखने के भी कई ऑफर मुझे मिले, जो अच्छा ही हुआ कि मैंने ठुकरा दिये। मैंने आजीविका के लिए कई व्यावसायिक पत्र-पत्रिकाओं में काम भी किया। ‘सरिता’, ‘मुक्ता’ और ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में उप-संपादक रहा। ‘शंकर्स वीकली’ और ‘नवनीत’ में सहायक संपादक रहा। लेकिन यह सब करते हुए भी मैं पारिश्रमिक न देने वाली या बहुत कम देने वाली साहित्यिक पत्रिकाओं से जुड़ा रहा; उनमें बराबर लिखता रहा।
मित्रो, साहित्यिक पत्रकारिता का उद्देश्य साहित्य के जरिये मनुष्य और समाज को तथा स्वयं साहित्य और साहित्यिक गतिविधि को बेहतर बनाना होता है। केवल साहित्य-सृजन से यह उद्देश्य पूरा नहीं होता, इसीलिए साहित्यकारों को साहित्यिक पत्रिकाएँ निकालने की जरूरत पड़ती है। भारतेंदु हरिश्चंद्र हों या प्रेमचंद, पंत हों या निराला, यशपाल हों या अज्ञेय, धर्मवीर भारती हों या भैरवप्रसाद गुप्त, नामवर सिंह हों या रामविलास शर्मा, कमलेश्वर हों या राजेंद्र यादव, ज्ञानरंजन हों या राजेश जोशी, आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रत्येक काल में अनेक साहित्यकार साहित्यिक पत्रिकाएँ निकालते रहे हैं और आज भी निकाल रहे हैं।

साहित्यिक पत्रकारिता का संबंध एक तरफ सामाजिक आंदोलनों से होता है, तो दूसरी तरफ साहित्यिक आंदोलनों से; चाहे वह संबंध इन आंदोलनों के समर्थन का हो या इनके विरोध का। कभी-कभी किसी नये आंदोलन को जन्म देने या पुष्ट करने के लिए भी साहित्यिक पत्रिकाएँ निकाली जाती हैं। इसके लिए साहित्यिक पत्रकार का एक ही साथ आदर्शवादी और यथार्थवादी होना जरूरी है। साहित्यिक पत्रिका निकालना एक सर्जनात्मक और कठिन काम है, जो एक प्रकार के आदर्शवाद के साथ ही समर्पित भाव से किया जा सकता है। लेकिन यह काम किसी न किसी रूप में जनता की चेतना जगाने के लिए किया जाता है, इसलिए साहित्यिक पत्रकार के लिए आवश्यक है कि वह यथार्थवादी भी हो। 

आजादी से पहले की हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं को देखें, तो उनका संबंध एक तरफ राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के मूल्यों तथा आदर्शों से था और दूसरी तरफ हिंदीभाषी जनता की चेतना तथा हिंदी भाषा और साहित्य के विकास की प्रक्रिया से। यही कारण था कि उस समय की साहित्यिक पत्रिकाओं की अंतर्वस्तु प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में राजनीतिक होती थी। उनकी सामग्री, प्रेमचंद का एक पद उधार लेकर कहें, तो आदर्शोन्मुख यथार्थवादी होती थी और उसकी प्रस्तुति साधारण पाठकों के लिए आकर्षक तथा सहज बोधगम्य। संक्षेप में, वह एक प्रकार की सोद्देश्य और जनोन्मुख पत्रकारिता थी और इसीलिए समाज में उसका आदर था। साहित्यिक पत्रिकाएँ बहुत छोटी पूँजी और बहुत बड़े श्रम से निकाली जाती थीं। इसलिए उनके संपादक आदर्शवादी, त्यागी, तपस्वी, देशभक्त और जनसेवक माने जाते थे तथा उनके द्वारा निकाली गयी पत्रिकाएँ पढ़ना अपनी एक सांस्कृतिक जरूरत को पूरा करना ही नहीं, बल्कि एक यज्ञ में आहुति डालने जैसा पुनीत कर्तव्य भी समझा जाता था। इसीलिए उस समय की साहित्यिक पत्रिकाएँ साहित्यिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होती थीं और व्यावसायिक दृष्टि से बहुत लाभदायक न होते हुए भी अपने लिए इतने साधन जुटा लेती थीं कि निरंतर निकलती रह सकें और अपने लेखकों को नाममात्र का ही सही, पारिश्रमिक भी दे सकें।
लेकिन आज से पचास साल पहले, जब मैंने लिखना शुरू किया था, हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता आदर्शवाद और यथार्थवाद के इस संबंध को ठीक ढंग से समझ न पाने के कारण एक संक्रमण के दौर से गुजर रही थी।

अब स्वाधीनता आंदोलन के मूल्यों तथा आदर्शों से प्रेरित और ‘सरस्वती’, ‘माधुरी’, ‘चाँद’, ‘मतवाला’, ‘रूपाभ’, ‘हंस’, ‘विप्लव’, ‘नया साहित्य’ आदि पत्रिकाओं की शानदार परंपरा में विकसित सोद्देश्य और जनोन्मुख पत्रकारिता कहीं-कहीं अपवादस्वरूप ही बची हुई थी; जबकि शीतयुद्ध की राजनीति से प्रेरित व्यक्तिवादी और कलावादी रुझानों वाली उस अभिजनोन्मुख साहित्यिक पत्रकारिता का बोलबाला था, जो ‘प्रतीक’, ‘निकष’, ‘नयी कविता’ आदि पत्रिकाओं के माध्यम से सामने आयी थी। वह कहीं साहित्य की ‘शुद्धता’ के नाम पर, कहीं ‘राजनीति से हुए मोहभंग’ के नाम पर, तो कहीं ‘क्षणवाद’ और ‘लघु मानववाद’ के नाम पर हर तरह के आदर्शवाद और यथार्थवाद को मिथ्या और व्यर्थ बता रही थी। दूसरी तरफ वह साहित्य की श्रेष्ठता की बात करते हुए यह कह रही थी कि साहित्य सबके काम की चीज नहीं, इसलिए उसको समझने वाले पाठक अगर कम भी हों, तो कोई हर्ज नहीं। उसने साहित्य की लोकप्रियता के विरुद्ध एक प्रकार का अभियान चलाया और साहित्यिक पत्रिकाओं में ऐसे साहित्य को तरजीह दी, जो साधारण पाठकों के काम का न होकर थोड़े-से ‘समझदार’ या ‘प्रबुद्ध’ पाठकों के ही मतलब का हो। इस प्रकार उसने एक तरफ प्रगतिशील-जनवादी राजनीति से और दूसरी तरफ आम जनता से साहित्य का संबंध समाप्त करने का प्रयास किया। हालाँकि वह इस काम में पूरी तरह सफल नहीं हो पायी, फिर भी उसका काफी असर हिंदी के लेखकों और संपादकों पर पड़ा। उनमें से कई जनोन्मुख लोकप्रिय साहित्य को उसी तरह घटिया समझने लगे, जिस तरह ‘नयी कविता’ के कवि कवि-सम्मेलनों के मंच और सिनेमा के जरिये आम जनता तक पहुँचने वाली छंदबद्ध कविता को। नतीजा यह हुआ कि साहित्यिक पत्रकारिता का संबंध साधारण पाठक से बहुत कम रह गया।

मैंने जब लिखना शुरू किया था, मैं राजस्थान में था। उस समय राजस्थान से हिंदी की कई अच्छी साहित्यिक पत्रिकाएँ संपादकों के व्यक्तिगत प्रयासों से निकल रही थीं, जैसे अजमेर से ‘लहर’, उदयपुर से ‘बिंदु’, जयपुर से ‘कविताएँ’ और बीकानेर से ‘वातायन’। बाद में राजस्थान से और भी कई अच्छी पत्रिकाएँ निकलीं, जैसे अलवर से ‘कविता’, भरतपुर से ‘ओर’, काँकरोली से ‘संबोधन’, उदयपुर से ‘रंगायन’, बीकानेर से ‘संकल्प’, भीनमाल से ‘क्यों’, कोटा से ‘अभिव्यक्ति’, जोधपुर से ‘शेष’ इत्यादि। अकेले जयपुर शहर से ही कई पत्रिकाएँ निकलीं, जिनमें से कुछ बंद हो गयीं और कुछ आज भी निकल रही हैं, जैसे ‘अकथ’, ‘अगली कविता’, ‘अर्थसत्ता’, ‘अहसास’, ‘कृतिओर’, ‘मधुमाधवी’, ‘लोक संपर्क’, ‘संप्रेषण’, ‘एक और अंतरीप’, ‘समय माजरा’, ‘अक्सर’ इत्यादि।

उस समय हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता कितनी समृद्ध थी, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उस समय एक तरफ देशव्यापी प्रसार वाली कई व्यावसायिक पत्रिकाएँ थीं, जैसे ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’, ‘सारिका’, ‘कहानी’, ‘नयी कहानियाँ’ इत्यादि, तो दूसरी तरफ हिंदी क्षेत्रों से ही नहीं, बल्कि अहिंदी क्षेत्रों से भी हिंदी में अनेक साहित्यिक पत्रिकाएँ निकलती थीं, जैसे पश्चिम बंगाल से ‘ज्ञानोदय’, आंध्र प्रदेश से ‘कल्पना’, तमिलनाडु से ‘अंकन’, केरल से ‘युग प्रभात’ इत्यादि। दिल्ली, इलाहाबाद, वाराणसी, कानपुर, लखनऊ, पटना, भोपाल, जबलपुर आदि से तो बहुत-सी साहित्यिक पत्रिकाएँ निकलती ही थीं, शिमला, चंडीगढ़, जालंधर, अंबाला, मुंबई, चेन्नई, हैदराबाद, कोलकाता आदि से भी हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाएँ निकलती थीं। बाद में एक समय तो ऐसा आया कि साहित्यिक पत्रिकाओं की बाढ़-सी आ गयी।

लेकिन साहित्यिक पत्रिकाओं की यह अचानक आयी बाढ़ साहित्यिक पत्रकारिता के विकास की कम, उसके ह्रास की सूचक अधिक थी। हुआ यह था कि 1960 के बाद लगभग एक दशक तक हिंदी में ‘अकविता’ और ‘अकहानी’ जैसे अल्पजीवी साहित्यिक आंदोलन चले और दिशाहीन विद्रोह, सर्वनकार, व्यर्थताबोध, अकेलेपन, अजनबीपन आदि के लेखन के रूप में बहुत-सा ऊलजलूल लेखन हुआ, जो लघु पत्रिकाओं के माध्यम से सामने आया। व्यावसायिकता का विरोध करने के नाम पर इन लघु पत्रिकाओं ने साहित्य को साधारण पाठकों तक पहुँचाने की अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया। लेखन और साहित्यिक पत्रिका का संपादन साधारण पाठकों के लिए न होकर लेखकों के लिए ही होने लगा। जिन्हें सामग्री को संपादित करना, प्रेस कॉपी बनाना और प्रूफ पढ़ना तो क्या, स्वयं अच्छी भाषा लिखना तक नहीं आता था, वे भी संपादक बन बैठे और भद्दे ढंग से छपने वाली, बेशुमार गलतियों वाली, अनियतकालिक रूप से कुछ समय चलकर बंद हो जाने वाली पत्रिकाएँ निकालने लगे। चूँकि साधारण पाठकों से उन्हें कोई लेना-देना नहीं था, इसलिए उनकी तथाकथित लघु पत्रिकाओं का आकार-प्रकार लघु से लघुतर होता गया। अनियतकालिक अठपेजी या चौपेजी परचों से लेकर अंतर्देशीय पत्र तथा पोस्टकार्ड तक के रूप में तथाकथित पत्रिकाएँ निकलीं। इस प्रकार साहित्यिक पत्रकारिता एक भद्दा मजाक बनकर रह गयी।

1960 के दशक के उत्तरार्द्ध में जब देश के जन-आंदोलनों में तेजी आयी, तो साहित्य में भी प्रगतिशील और जनवादी चेतना का एक नया उभार आया। तब हिंदी के लेखकों और साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादकों को फिर से उस आदर्शवाद और यथार्थवाद की जरूरत महसूस हुई, जो सोद्देश्य और जनोन्मुख साहित्यिक पत्रकारिता के लिए आवश्यक था। तब जनता से जुड़ने और जन-चेतना जगाने के उद्देश्य से कई नयी पत्रिकाएँ निकलीं। तभी यह बात भी स्पष्ट हुई कि साहित्यिक और व्यावसायिक पत्रिकाओं में केवल ‘छोटी’ और ‘बड़ी’ का सतही रूपगत फर्क नहीं, बल्कि अंतर्वस्तु संबंधी गहरा फर्क है और बाजार में बिकने भर से कोई पत्रिका व्यावसायिक नहीं हो जाती, जैसे कि बाजार में न बिकने या मुफ्त बँटने भर से कोई पत्रिका साहित्यिक नहीं हो जाती। देखा यह जाना चाहिए कि पत्रिका में प्रकाशित सामग्री क्या है, उसकी साहित्यिक गुणवत्ता क्या है, उसमें व्यक्त विचार किस वर्ग के हितसाधक हैं और उसका प्रकाशन जन-चेतना को जगाने के लिए किया जा रहा है या उसे कुंठित करके सुलाने के लिए।

इस प्रकार साहित्यिक पत्रकारिता की इस नयी समझ के साथ हिंदी में बहुत-सी नयी पत्रिकाएँ निकलीं।  ‘अभिव्यक्ति’, ‘अर्थात्’, ‘इबारत’, ‘इसलिए’, ‘उत्कर्ष’, ‘उत्तरार्द्ध’, ‘ओर’, ‘कथन’, ‘कथा’, ‘कलम’, ‘क्यों’, ‘पक्षधर’, ‘पहल’, ‘पुरुष’, ‘बातचीत’, ‘भंगिमा’, ‘मतांतर’, ‘युग-परिबोध’, ‘वसुधा’, ‘वाम’, ‘समझ’, ‘सर्वनाम’, ‘सामयिक’, ‘साम्य’ आदि पत्रिकाओं ने अपनी अंतर्वस्तु और प्रस्तुति में आजादी से पहले की जनोन्मुख साहित्यिक पत्रकारिता की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए अनेक नवोन्मेष किये।

मित्रो, अब मैं कुछ अपनी और ‘कथन’ की बात करना चाहता हूँ। मैंने ‘कथन’ 1980 में निकालना शुरू किया था। तब तक लेखन करते हुए मुझे अठारह वर्ष हो चुके थे। साहित्य में मेरी एक जगह और पहचान बन चुकी थी। छोटी और बड़ी दोनों तरह की पत्रिकाएँ मेरी रचनाएँ सम्मान के साथ प्रकाशित करती थीं। मेरी कई पुस्तकें प्रकाशित और चर्चित हो चुकी थीं। मेरे नाटक और नुक्कड़ नाटक खूब खेले जाने लगे थे। मैं प्रिंट मीडिया में ही नहीं, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी सक्रिय था। साहित्यिक गोष्ठियों और सम्मेलनों के मंच भी मुझे उपलब्ध थे। इतना ही नहीं, 1973 में बाँदा में हुए प्रगतिशील-जनवादी लेखकों के सम्मेलन में सौंपी गयी जिम्मेदारी के तहत मैं दिल्ली में स्वयं एक मंच--जनवादी लेखक मंच--की स्थापना कर चुका था और उसकी ओर से कई महत्त्वपूर्ण गोष्ठियाँ आयोजित कर चुका था। एक द्वैमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘युग-परिबोध’ के प्रारंभिक छह अंकों का संपादन करके मैं साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में भी कुछ दखलंदाजी कर चुका था। अतः यह तो नहीं ही कहा जा सकता कि मैंने साहित्य में अपनी जगह या पहचान बनाने के लिए ‘कथन’ निकालकर घर फूँक तमाशा देखना शुरू किया होगा।

तो फिर क्या पड़ी थी मुझे ‘कथन’ निकालने की?

बात यह है कि जब साहित्य में आप कोई नया काम करने चलते हैं, तो उसके लिए किसी नये मंच और माध्यम की जरूरत होती ही है। और उस समय मैं दो नये कामों में लगा हुआ था। कुछ नये ढंग का जनोन्मुख लेखन करने में तथा जनवादी लेखकों का एक संगठन बनाने में। मेरे साथ के कई लेखक इन कामों में लगे हुए थे और एक ऐसी पत्रिका की जरूरत महसूस कर रहे थे, जो हमारे लेखन को अच्छे ढंग से सामने लाये और हमारे संगठन को संभव बनाये।

उस समय जनवादी लेखक संघ के निर्माण की प्रक्रिया चल रही थी और मैं उसमें पूरे जोशोखरोश के साथ शामिल था। जगह-जगह लेखकों की बैठकें और गोष्ठियाँ हो रही थीं। लेखक शिविर और सम्मेलन आयोजित किये जा रहे थे। उनमें बड़ी जरूरी और जोरदार बहसें हो रही थीं। लेखन और राजनीति, साहित्य और संगठन आदि से जुड़े बड़े महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर चर्चाएँ हो रही थीं। लेकिन ये तमाम गतिविधियाँ एक राजनीतिक दल विशेष के सदस्य और समर्थक लेखकों के बीच ही चल रही थीं, जबकि मेरे विचार से उन्हें व्यापक साहित्य जगत के बीच चलना चाहिए था। इसके लिए मैं एक ऐसी पत्रिका की जरूरत महसूस कर रहा था, जो नये ढंग के प्रगतिशील-जनवादी लेखन को सामने लाये, लेखक संगठन के निर्माण की उस प्रक्रिया से व्यापक लेखक-पाठक समुदाय को अवगत कराये, उसके अंतर्गत आयोजित गोष्ठियों और सम्मेलनों में चली बहसों का मतलब बताये और उन बहसों में उठे साहित्यिक, सांस्कृतिक, सामाजिक तथा राजनीतिक मुद्दों को रेखांकित करके उन पर खुली चर्चाएँ चलाये।

जनवादी लेखक संघ के निर्माण की प्रक्रिया से जुड़े लेखकों द्वारा उस समय जो पत्रिकाएँ निकाली जा रही थीं--जैसे ‘वाम’, ‘कथा’, ‘कलम’, ‘सामयिक’, ‘उत्तरार्द्ध’, ‘प्रारंभ’ आदि--वे यों तो बहुत अच्छी और महत्त्वपूर्ण पत्रिकाएँ थीं, लेकिन उनके संपादक एक दल विशेष से जुड़े होने के कारण शायद अपनी पत्रिकाओं को दलगत राजनीति के दायरे में तथा दलीय अनुशासन में रहकर ही निकाल सकते थे। दूसरे, वे प्रायः अनियतकालिक थीं और उनके संपादकों में भैरव प्रसाद गुप्त के अलावा शायद किसी को भी साहित्यिक पत्रकारिता का अनुभव नहीं था। मेरे पास पत्रकारिता का अनुभव था और मैं किसी राजनीतिक दल का सदस्य भी नहीं था। अतः मैंने एक ऐसी पत्रिका निकालने का फैसला किया, जो नये प्रगतिशील-जनवादी लेखन को दलगत राजनीति से अलग रहकर अच्छे ढंग से सामने लाये, उस पर चर्चा और बहस चलाये, उसमें से उभरकर आने वाली अच्छी रचनाओं को रेखांकित करे और गैर-प्रगतिशील, गैर-जनवादी लेखकों को जनवादी लेखन के आंदोलन तथा उसके संभावित संगठन के निकट लाये। 

मैं ‘कथन’ को अव्यावसायिक किंतु जनोन्मुख साहित्यिक पत्रिका के रूप में निकालना चाहता था, इसलिए मैंने अपने लिए कुछ नियम बनाये, जो इस प्रकार थे :

पहला नियम : ‘कथन’ द्वैमासिक पत्रिका होगी और पुस्तक के रूप में नहीं, पत्रिका के ही आकार-प्रकार में निकलेगी तथा निरंतर, नियत समय पर निकलेगी।
 
दूसरा नियम : ‘कथन’ का कोई विशेषांक नहीं निकलेगा, ताकि नियमित अंकों की जगह संयुक्तांक न निकालने पड़ें, पृष्ठ संख्या और कीमत न बढ़ानी पड़े, पत्रिका के स्थायी स्तंभों का क्रम न टूटे और नियमित पत्रिका पढ़ना चाहने वाले पाठकों को पत्रिका के कई अंकों की जगह एक मोटा पोथा अधिक मूल्य पर न मिले, बल्कि साधारण अंक यथासमय मिलते रहें।

तीसरा नियम : ‘कथन’ साहित्यकारों के काम की पत्रिका होने के साथ-साथ सामान्य पाठकों के काम की पत्रिका भी होगी। इसके लिए सामग्री की स्तरीयता, उसके समुचित संपादन तथा उसकी सुरुचिपूर्ण प्रस्तुति के साथ-साथ उसकी भाषा पर भी विशेष ध्यान देना होगा।

चौथा नियम : ‘कथन’ हर तरह की कट्टरता और संकीर्णता के खिलाफ एक उदार और जनतांत्रिक पत्रिका होगी, लेकिन सामग्री की गुणवत्ता उसके लिए सर्वप्रमुख होगी। अतः वह नये से नये लेखक की अच्छी रचना सहर्ष प्रकाशित करेगी, लेकिन बड़े से बड़े लेखक की खराब रचना लौटा देने में कोई संकोच नहीं करेगी।

पाँचवाँ नियम : ‘कथन’ में दूसरी पत्रिकाओं की नकल सामग्री, साज-सज्जा या किसी भी स्तर पर नहीं की जायेगी।  सादगी में ही सौंदर्य के नियम का पालन करते हुए ‘कथन’ में सामग्री की नवीनता, गुणवत्ता और प्रासंगिकता पर ध्यान केंद्रित किया जायेगा। और,

छठा नियम : ‘कथन’ किसी दल या संगठन की पत्रिका नहीं, बल्कि लेखकों और पाठकों के सहयोग से चलने वाली अव्यावसायिक पत्रिका होगी। वह राजनीति से परहेज नहीं करेगी, लेकिन दलगत राजनीति से ऊपर उठकर वर्गीय राजनीति, राष्ट्रीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में साहित्य और संस्कृति के सवालों पर विचार करने वाली पत्रिका होगी।

जाहिर है कि इन नियमों का पालन करना आसान काम नहीं था। फिर भी मैंने अपने ही बनाये नियमों का सख्ती से पालन किया। इसके चलते ‘कथन’ को शुरू से ही पत्रिकाओं की भीड़ में अपनी एक अलग छाप छोड़ने और अपनी एक अलग पहचान बनाने में सफलता प्राप्त हुई। इसे लेखकों और पाठकों का भरपूर सहयोग मिला। नये से नये और बड़े से बड़े लेखक ‘कथन’ से जुड़े। इस प्रकार ‘कथन’ ने अपने पहले बीस अंकों से ही एक प्रकार का इतिहास बना लिया था।

जनवादी लेखक संघ के निर्माण में ‘कथन’ ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। उसके प्रस्तावित घोषणापत्र को सबसे पहले ‘कथन’ ने ही प्रकाशित किया था और उसके स्थापना सम्मेलन से लेकर बाद के विभिन्न सम्मेलनों, संगोष्ठियों आदि के समाचार और विस्तृत विवरण ‘कथन’ में प्रकाशित हुए थे। फिर, मैं जनवादी लेखक संघ का संस्थापक सदस्य ही नहीं, उसकी केंद्रीय कार्यकारिणी का सदस्य भी था। इससे यह भ्रम फैला कि ‘कथन’ जनवादी लेखक संघ की पत्रिका है। ‘कथन’ से जुड़े कुछ मित्रों ने सुझाव दिया कि लोग जब ऐसा मान ही रहे हैं, तो क्यों न इसे बाकायदा संगठन की पत्रिका ही बना दिया जाये। लेकिन मैं अपने ही बनाये हुए इस नियम के विपरीत जाना नहीं चाहता था कि ‘कथन’ किसी दल या संगठन की पत्रिका नहीं, बल्कि लेखकों और पाठकों के सहयोग से चलने वाली अव्यावसायिक पत्रिका होगी। इस पर मित्रों से मतभेद होने लगे और ‘कथन’ की टीम टूटकर बिखरने लगी, तो मैंने ‘कथन’ का प्रकाशन स्थगित कर दिया। लेकिन मेरी जिद थी कि परिस्थितियाँ अनुकूल होने पर मैं इसे फिर से निकालूँगा जरूर।

लेकिन ‘कथन’ के स्थगित रहने के पंद्रह वर्षों के दौरान परिस्थितियाँ अनुकूल होने के बजाय उत्तरोत्तर अधिक प्रतिकूल ही होती गयी थीं। सोवियत संघ के विघटन के बाद पूँजीवादी भूमंडलीकरण का दौर शुरू हो गया था और नव-उदारवादी या बाजारवादी पूँजीवाद अपने असंख्य मुखों से कह रहा था कि शीतयुद्ध समाप्त हो गया है, उस युद्ध में समाजवाद हार गया है, पूँजीवाद जीत गया है, और इस प्रकार दुनिया दो ध्रुवों वाली न रहकर एकध्रुवीय हो गयी है। वह कह रहा था कि भूमंडलीकरण ने राष्ट्र-राज्यों को अप्रासंगिक बना दिया है, दुनिया को एक ग्लोबल गाँव बना दिया है, उस ग्लोबल गाँव के चौधरी जी-7 वाले सात या जी-20 वाले बीस देश हैं, और उन सबका मुखिया एक अमरीका ही है, जो ईश्वर की इच्छा से अखिल भूमंडल का स्वाभाविक शासक है। वह कह रहा था कि अब सारी दुनिया में और हमेशा पूँजीवाद ही चलेगा--निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों वाला नव-उदार पूँजीवाद--जिसका कोई विकल्प नहीं है।

मेरे विचार से इस सबका प्रतिवाद और प्रतिरोध किया जाना चाहिए था। लेकिन मैंने देखा कि प्रगतिशील और जनवादी साहित्य का आंदोलन समाप्त-सा हो गया है। नये लेखक नये भूमंडलीय यथार्थ और यथार्थवाद की ओर आकर्षित होने के बजाय नव-उदारवादी पूँजीवाद की विचारधारा उत्तर-आधुनिकतावाद को अपनाकर बाजारवादी और अवसरवादी बन रहेे थे। ज्यादातर लेखक समाज, देश, दुनिया और मानवता की बेहतरी के लिए जनोन्मुख लेखन करने के बजाय व्यक्तिगत सफलता और निजी उपलब्धियों के लिए बाजारोन्मुख लेखन कर रहे थे। ऐसी स्थिति में मुझे लगा कि जनोन्मुख पत्रकारिता की जरूरत पहले के किसी भी समय से ज्यादा आज है।

तब मैंने अपनी बेटी संज्ञा, कुछ पुराने मित्रों तथा कुछ नये उत्साही लेखकों को साथ लेकर ‘कथन’ को फिर से निकालना शुरू किया। और मुझे यह देखकर अत्यंत सुखद आश्चर्य हुआ कि बदलते हुए भूमंडलीय यथार्थ की चिंता करने वालों, उसका गंभीर अध्ययन करने वालों, उस पर चिंतन-मनन और लेखन करने वालों की कमी नहीं है। हिंदी में अभी ऐसे लोग कम हैं, लेकिन अंग्रेजी में कई लोग इससे संबंधित विषयों पर खूब लिख-बोल रहे हैं। विभिन्न देशों में पूँजीवादी भूमंडलीकरण के विरुद्ध अनेक प्रकार के आंदोलन चल रहे हैं। उनके बारे में लिखा जा रहा है और भूमंडलीय यथार्थ को सामने लाने वाली ढेरों पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं।

मुझे आश्चर्य हुआ कि जब हिंदी के लेखकों को लिखने के लिए नये विषय नहीं मिल रहे हैं,  तब आज का भूमंडलीय यथार्थ सोचने-समझने और लिखने के लिए नित्य नये विषय प्रस्तुत कर रहा है। अतः ‘कथन’ में हमने भूमंडलीय यथार्थ के विभिन्न पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करना शुरू किया और हर अंक में एक नया विषय उठाकर उस पर विशेष सामग्री देने लगे। ‘कथन’ के लेखकों और पाठकों ने इस नयेपन का स्वागत किया और हमने नहीं, उन्हीं ने ‘कथन’ के लिए ‘‘हर बार कुछ नया: हर अंक एक विशेषांक’’ का नारा दिया।
इस प्रकार अत्यंत सीमित निजी संसाधनों के बावजूद ‘कथन’ के अंक निरंतर नियत समय पर तथा उत्तरोत्तर बेहतर रूप में निकलने लगे। ‘कथन’ को फिर से हिंदी के बड़े से बड़े और नये से नये लेखकों का सहयोग मिलने लगा। नये विषयों पर अंग्रेजी में लिखने वाले लेखकों, विशेषज्ञों तथा चिंतकों-विचारकों को भी हमने ‘कथन’ से जोड़ा और हमें ऐसे लोगों का भी भरपूर सहयोग मिला।

इसीलिए हम ‘कथन’ में ऐसे नये से नये विषयों पर केंद्रित अंकों का सिलसिला शुरू कर पाये, जो हिंदी में पहली बार उठाये गये थे। उदाहरण के लिए, ‘यूटोपिया की जरूरत’, ‘आशा के स्रोतों की तलाश’, ‘विकल्प की अवधारणा’, ‘श्रम का भूमंडलीकरण’, ‘नयी विश्व व्यवस्था की परिकल्पना’, ‘नयी संस्थाओं की जरूरत’, ‘सांस्कृतिक साम्राज्यवाद’, ‘भाषा और भूमंडलीकरण’, ‘शिक्षा और भूमंडलीकरण’, ‘दुनिया की बहुध्रुवीयता’, ‘बाजारवाद और नयी सृजनशीलता’, ‘उत्पादक श्रम और आवारा पूँजी’, ‘भूमंडलीय यथार्थवाद’, ‘वर्तमान संकट और दुनिया का भविष्य’ इत्यादि। और आज, जब ‘कथन’ के साठ अंक निकालने के बाद मैं उसका संपादन पूरी तरह संज्ञा को सौंप चुका हूँ और वह स्वतंत्र रूप से अपने संपादन में पंद्रह अंक और निकाल चुकी है, यह सिलसिला जारी है।

कई लोग मुझसे पूछते हैं कि मैंने ‘कथन’ के संपादन से संन्यास क्यों लिया। मैं इस प्रश्न का उत्तर यह कहकर देता हूँ कि प्रकृति में मनुष्येतर जितने भी प्राणी हैं, अपनी संतानों को अपने ही जैसा बनना सिखाते हैं और वे वैसे ही बने भी रहते हैं। यह मनुष्य ही है, जो अपनी संतान को अपने से भिन्न, बड़ा और आगे बढ़ता देख प्रसन्न होता है। संज्ञा को मैंने ‘कथन’ के संपादन का दायित्व यह सोचकर सौंपा है कि वह मुझसे आगे की और मुझसे बड़ी संपादक बने।

कुछ लोग मुझसे यह भी पूछते हैं कि ‘कथन’ निकालकर आपको क्या मिला? इसका उत्तर मैं कुछ प्रतिप्रश्नों से देता हूँ: ‘कथन’ का संपादन करते हुए मुझे जो नया पढ़ने, सुनने और जानने को मिला, क्या अन्यथा मिल सकता था? ‘कथन’ निकालने के लिए मैं जिन अच्छे साहित्यकारों, चिंतकों, विचारकों आदि से मिल सका, क्या अन्यथा मिल सकता था? एक लेखक के रूप में मेरा जो विकास हुआ, क्या अन्यथा हो पाता? क्या मैं ‘आज के सवाल’ शृंखला की अब तक प्रकाशित तीस पुस्तकें संपादित कर पाता? क्या मैं ‘बेहतर दुनिया की तलाश में’ तथा ‘साहित्य और भूमंडलीय यथार्थ’ जैसी पुस्तकें लिख पाता? क्या मैं ‘डॉक्यूड्रामा’, ‘प्रजा का तंत्र’, ‘ग्लोबल गाँव के अकेले’, ‘त्रासदी...माइ फुट!’ और ‘प्राइवेट पब्लिक’ जैसी कहानियाँ लिख पाता? और सबसे बड़ी बात यह कि क्या मैं नितांत प्रतिकूल परिस्थितियों में भी निरंतर उत्साही और आशावादी बना रह पाता?

मित्रो, साहित्यिक पत्रिका निकालने का प्रयास चाहे व्यक्तिगत ही हो, उसका निकलना और निकलते रहना एक सामूहिक प्रयास का ही परिणाम होता है। अतः ‘कथन’ का सम्मान केवल उसके संपादकों का सम्मान नहीं, बल्कि उन तमाम लेखकों, पाठकों, सहयोगियों और शुभचिंतकों का भी सम्मान है, जिन्होंने उसके संपादन और प्रकाशन को संभव तथा सार्थक बनाया है। ‘कथन’ की वर्तमान संपादक संज्ञा उपाध्याय तथा उन समस्त साथियों और सहयोगियों के निमित्त--जिनमें से कई इस समय इस समारोह में भी आयोजकों, संचालकों, वक्ताओं और श्रोताओं के रूप में उपस्थित हैं--इसे स्वीकार करते हुए मैं अपनी ओर से तथा उन सभी की ओर से हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ।