Monday, October 19, 2009

हिन्दी प्रकाशन की दिशा

हिन्दी का पुस्तक प्रकाशन भी 'सेलेब्रिटीज' की ओर?

दिवाली के त्यौहार के लिए घर की सफाई करते समय मुझे अपने कुछ पुराने नोट्स मिले। कुछ कागजों पर मैंने आधा-अधूरा-सा कुछ लिख रखा था। कुछ उद्धरण थे, लेकिन उनके सन्दर्भ नहीं थे। ऐसे कागजों को फाड़कर फेंकते समय एक कागज़ पर नज़र पड़ी, जिस पर लिखा था :

"सुबह अखबार में पढा लेख याद आ गया--'बियोंड लेफ्ट एंड राइट'। उसमें लिखा था कि परिस्थिति बदल जाने से बहुत-से वामपंथी मार्क्स, माओ, मंडेला को छोड़कर मैनेजमेंट, मार्केटिंग और मीडिया की तरफ़ चले गए हैं। वाम और दक्षिण का अब कोई मतलब नहीं रह गया है। बहुत-से लेखकों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों ने दलगत राजनीति और उससे सम्बद्ध विचारधाराओं से ही नहीं, बल्कि राजनीति मात्र से ही पल्ला झाड़ लिया है। लेकिन सभी ऐसा नहीं कर रहे हैं। जाक दरीदा मार्क्सवाद के अंत पर पुनर्विचार कर रहा है। ल्योतार उत्तर-आधुनिक नैतिकता पर किताब लिख रहा है। फ्रांस्वा फ्यूरे कम्युनिज्म का अध्ययन कर रहा है। लेकिन तीन-चार दिन पहले मैंने एक और लेख पढा था--'सेलेब्रिटी नोवेल्स'। उसमें लिखा था--'बुक पब्लिशिंग नाउ रिज़म्बल्स हॉलीवुड एंड दि फ़िल्म इंडस्ट्री। इट हैज़ दि सेम रिलेंटलेस सेलेब्रिटी पफ्स, सिनिकल मार्केटिंग प्लोयज़ एंड रूथलेस टैक्टिक्स...'। तभी तो पश्चिम के प्रकाशक एक लेखक की पुस्तकों की चार करोड़ प्रतियाँ तक बेच लेते हैं। इतना बिकने वाला एक लेखक है कैन फालेट, जिसे ब्रिटेन के आलोचक 'शैम्पेन सोशलिस्ट' कहते हैं..."

ये बातें शायद मैंने कोई लेख लिखने की तैयारी करते समय नोट की होंगी। लेकिन कब? याद नहीं। जिन लेखों का यहाँ ज़िक्र है, वे किनके थे, कब और कहाँ छपे थे, यह भी याद नहीं। लेकिन इन बातों को फिर से पढ़ा, तो लगा कि अब हिन्दी का पुस्तक प्रकाशन भी सेलेब्रिटीज की तरफ़ जा रहा है। उसकी शक्ल भी फ़िल्म उद्योग से मिलने लगी है। उसमें भी मार्केटिंग के सिनिकल तौर-तरीके अपनाए जाने लगे हैं और अपनाई जाने लगी हैं 'रूथलेस टैक्टिक्स'। और आज नहीं तो कल, हिन्दी के भी अपने कैन फालेट होंगे! हिन्दी के भी अपने 'शैम्पेन सोशलिस्ट' होंगे!

--रमेश उपाध्याय

Wednesday, October 7, 2009

साहित्य में संबोधन

संबोधन बदलेगा तो संवाद भी बदल जाएगा

साहित्य सबसे पहले एक संवाद है। लेखक का अपने पाठक, श्रोता या दर्शक से होने वाला संवाद। रचना को ध्यान से पढ़ें, तो उसमें दोनों परस्पर संवाद करते दिख जायेंगे और उन्हें सुनकर पता चल जाएगा कि लेखक क्या, क्यों और कैसे कह रहा है।

नन्द भारद्वाज का उपन्यास 'आगे खुलता रास्ता' पढ़ते हुए मुझे लगा कि जब यह उपन्यास राजस्थानी में लिखा गया था, तब यह राजस्थानी पाठक को संबोधित था और अब जब लेखक ने स्वयं इसका हिन्दी में "अनुवाद और पुनर्सृजन" किया है, इसका पाठक बदल गया है। यह आसान नहीं होता कि आप एक व्यक्ति से एक भाषा में कही गई बात दूसरे व्यक्ति से दूसरी भाषा में ज्यों की त्यों कह सकें। ऊपरी तौर पर लग सकता है--जैसा कि अनुवादकों को लगता है--कि एक भाषा में कही गई बात दूसरी भाषा में यथावत कह दी गई है, लेकिन मैं अंग्रेज़ी, गुजराती और पंजाबी से किए गए अनुवादों के अपने अनुभव से जानता हूँ कि हर अनुवाद एक "पुनर्सृजन" ही होता है, क्योंकि रचना मूलतः जिस पाठक को संबोधित होती है, उसके अनुवाद का पाठक उससे भिन्न होता है। अनूदित रचना में लेखक एक दुभाषिये के माध्यम से दूसरी भाषा के पाठक को संबोधित करता है। अब यह दुभाषिये पर निर्भर करता है कि वह लेखक की भाषा में कही हुई बात दूसरी भाषा के पाठक तक कैसे पहुंचाता है। वह उस बात को ज्यों की त्यों दूसरी भाषा में नहीं कह सकता, इसलिए अच्छे से अच्छा अनुवाद भी मूल का लगभग सही रूप ही होता है। अर्थात्, लगभग सदृश, ज्यों का त्यों नहीं। लेखक यदि स्वयं दूसरी भाषा में अनुवाद करता है, तो वह मूल लेखक होने के नाते अपनी रचना का "पुनर्सृजन" करने की--अर्थात् जहाँ ज़रूरत हो, वहाँ उसे फिर से या दूसरे रूप में लिखने की--छूट ले सकता है और अक्सर लेता ही है। नन्द भारद्वाज ने अपने राजस्थानी उपन्यास का हिन्दी अनुवाद करते समय यह छूट इस प्रकार ली है :

"जब इसके अनुवाद का काम हाथ में लिया, तो आरम्भ से ही यह अनुभव करने लगा कि इसके राजस्थानी पाठ में कुछ अंश ऐसे हैं, जिन्हें दुबारा से लिखने की ज़रूरत है। इसके आरम्भ और अंत से भी मैं संतुष्ट नहीं था। पाठ में कसावट की कमी बराबर खलती रही। इस पुनर्सृजन के दौरान मुझे यह भी लगा कि इसकी मूल भाषा और अनुवाद की भाषा की प्रकृति एक-सरीखी नहीं है। जो वाक्य अपनी मूल भाषा में बेहद व्यंजनापरक और असरदार लगता है, उसके यथावत शाब्दिक अनुवाद में वह सारी व्यंजना और चमक खो जाती है। ऐसी सूरत में उस प्रसंग के पूरे वाक्य-विन्यास और अभिव्यक्ति को हिन्दी की प्रकृति के अनुरूप रखने की दृष्टि से मुझे इसका पुनर्सृजन करना बेहतर लगा।"

यह पढ़ते हुए मुझे लगा कि साहित्य को देखने-परखने का एक अच्छा तरीका यह देखना हो सकता है कि रचना में लेखक किस प्रकार के पाठक को संबोधित कर रहा है। इससे लेखक का भाषा-व्यवहार ही नहीं, समाज और जीवन के प्रति उसका दृष्टिकोण भी सामने आ जाता है।

नन्द भारद्वाज ने जो कठिनाई महसूस की, उसका कारण यही था कि उपन्यास को राजस्थानी से हिन्दी में लाने की प्रक्रिया में उनका पाठक बदल गया। हिन्दी के पाठक को वे उसी तरह संबोधित नहीं कर सकते थे, जिस तरह उन्होंने राजस्थानी के पाठक को संबोधित किया था। संबोधन बदला, तो लेखक-पाठक संवाद की, अर्थात् रचना की प्रकृति भी बदल गई।

--रमेश उपाध्याय

Friday, September 18, 2009

पुरस्कारों की निरर्थकता

अब हकीकत सामने आने लगी है

पुरस्कारों की निरर्थकता अब सामने आने लगी है। वे किन आधारों पर दिए जाते रहे हैं, लोग जानते तो पहले भी थे, पर अब खुलकर बताने भी लगे हैं। और वे ही लोग, जो उनके निर्णायक रहे हैं!

इस बार का भारत भूषण अग्रवाल कविता पुरस्कार 'कथन' में प्रकाशित मनोज कुमार झा की कविता 'स्थगन' को मिला है। लेकिन जिस दिन दिल्ली में यह पुरस्कार दिया गया, उसी दिन से पुरस्कार पर प्रश्नचिन्ह भी लगने शुरू हो गए। उसी दिन पुरस्कार पर केंद्रित पुस्तक 'उर्वर प्रदेश-३' का लोकार्पण किया गया, जिसमें इस पुरस्कार से पुरस्कृत कवियों की कविताएँ संकलित हैं। मैंने वह संकलन देखा नहीं है, लेकिन १५ सितम्बर, २००९ के 'जनसत्ता' दैनिक में पढ़ा कि संकलन की भूमिका विष्णु खरे ने लिखी है, जो स्वयं पुरस्कार के निर्णायकों में से एक रहे हैं। भूमिका का शीर्षक है 'एक पुरस्कार के तीन दशक : एक विवादास्पद जायजा'। 'जनसत्ता' के अनुसार भूमिका में लिखा है--"अन्य पुरस्कारों सहित भारत भूषण पुरस्कार पर भी हर वर्ष जाति, क्षेत्र, बोली, आस्था, विभिन्न किस्मों के अन्तरंग संबंधों, रसूख, विनिमय आदि के सच्चे-झूठे संदेह किए जाते रहे हैं।"

इस पुरस्कार के निर्णायकों में विष्णु खरे के अलावा नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, अशोक वाजपेयी और अरुण कमल शामिल हैं। 'जनसत्ता' लिखता है--"विष्णु खरे ने अपनी भूमिका में जहाँ दूसरे निर्णायकों के निर्णय पर संदेह किया है, वहीं कई कवियों की कविताओं को लेकर भी संदेह खड़े किए हैं और कइयों के उम्मीद पर खरा नहीं उतरने की बात कही है। उन्होंने तमाम पुरस्कृत कवियों की कविता (जिस पर पुरस्कार दिया गया) का जमकर पोस्टमार्टम किया है। खरे की टिप्पणी पर कवियों के बीच भी उतनी ही तीखी प्रतिक्रिया हुई है। कुछ कवि काफी नाराज़ बताये जाते हैं।"

१९८६ में पुरस्कृत कवि विमल कुमार को पुरस्कार देने का निर्णय ख़ुद खरे ने किया था, लेकिन अब उन्होंने लिखा है--"मुझे अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि विमल कुमार ने जो उम्मीदें 'सपने में एक औरत से बातचीत' में जगाईं थीं, वे उन्हें, मेरे विचार से, अपनी बाद की अधिकांश कविताओं में निभा नहीं पा रहे है।"

उदय प्रकाश के बारे में विष्णु खरे का कहना है--"कहानी लेखन में असाधारण ख्याति और सफलता कमाने के बावजूद कवि के रूप में भी स्वीकृत होने की उनकी त्रासद महत्वाकांक्षा उनसे कविता में अतिलेखन करवा रही है।"

विष्णु खरे की इस आलोचना से पुरस्कृत कवि ही नहीं, पुरस्कार देने वाले भी आहत हैं। अब बेचारे पुरस्कृत कवि तो विमल कुमार की तरह पुरस्कार लौटाने और विष्णु खरे की "आलोचना की तानाशाही" की आलोचना ही कर सकते हैं, पर पुरस्कार देने वाले खरी-खरी कहने वाले खरे को निर्णायक मंडल से निकाल देने का दंड देने में समर्थ हैं! और मंडल के पुनर्गठन के नाम पर खरे को निकालने का फ़ैसला उन्होंने शायद कर भी लिया है!

जो भी हो, इससे हिन्दी आलोचना, मूल्यांकन, सम्मानों और पुरस्कारों के बारे में कुछ सच्चाई तो खुलकर सामने आई ही है!

--रमेश उपाध्याय

Sunday, August 16, 2009

लेखकों की नैतिकता

दलगत राजनीति साहित्यिक आलोचना की कसौटी नहीं

७ अगस्त की अपनी टिप्पणी 'निरर्थक विवादों को छोड़ सार्थक बहसें चलायें' में मैंने लिखा था कि लेखकीय नैतिकता की बात करने में कोई बुराई नहीं है। लेखकों के नैतिक आचरण की आलोचना अवश्य की जानी चाहिए। लेकिन ऐसा करने की पहली शर्त यह है कि आलोचना का सैद्धांतिक और मूल्यगत आधार स्पष्ट रहे तथा आलोचक जो कसौटी दूसरों के लिए अपनाए, वही अपने लिए भी अपनाए।

अपनी इसी बात को आगे बढ़ाते हुए मैं यह कहना चाहता हूँ कि दलगत राजनीति को लेखकों के नैतिक आचरण की कसौटी नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि संसदीय लोकतंत्र में कोई भी राजनीतिक दल सर्वमान्य रूप से सही या ग़लत नहीं हो सकता। मसलन, कांग्रेस की नज़र में भाजपा ग़लत हो सकती है और भाजपा की नज़र में कांग्रेस, लेकिन इन दोनों दलों के सदस्य और समर्थक स्वयं को सही समझते रह सकते हैं। यदि वे एक दूसरे को अनैतिक कहते हैं, तो यह कोई वस्तुगत सत्य नहीं, उनका अपना निजी विचार ही हो सकता है। इसे नैतिकता की कसौटी नहीं माना जा सकता। इस प्रकार किसी लेखक को किसी दल का समर्थक होने या न होने के आधार पर नैतिक या अनैतिक नहीं ठहराया जा सकता।

लेकिन हिन्दी लेखकों में दलगत आधार पर स्वयं को नैतिक और दूसरों को अनैतिक सिद्ध करने की एक सर्वथा गैर-जनतांत्रिक प्रवृत्ति पाई जाती है। यह प्रवृत्ति हिन्दी लेखकों में एक तरह के जातिवाद का रूप ले चुकी है, जिसके चलते लेखक जिस दल के सदस्य या समर्थक होते हैं, उसी को सबसे सही और सबसे नैतिक समझते हुए स्वयं को ऊँची और दूसरों को नीची जाति का समझने लगते हैं। कुछ लेखकों का व्यवहार तो ऐसा हो जाता है कि जैसे वे किसी खास दल से जुड़कर ब्राह्मण हो गए हों और बाकी लेखक अछूत। फिर, जैसे ब्राह्मणों में भी अनेक उपजातियां होती हैं, और उनमें भी ऊँच-नीच के भेद होते हैं, वैसे ही एक राजनीतिक दल के बँट जाने से बने विभिन्न दलों के लेखक एक-दूसरे को नीची नज़र से देखने लगते हैं। यह प्रवृत्ति जातिवाद का विरोध करने वाले वामपंथी लेखकों में भी पाई जाती है। उनमें भी प्रगतिशील, जनवादी और क्रांतिकारी लगभग जातिसूचक शब्द बन गए हैं। वे अपनी-अपनी जाति के आधार पर स्वयं को नैतिक और दूसरों को अनैतिक मानते हुए दूसरों की आलोचना करते हैं और स्वयं को सही तथा दूसरों को ग़लत सिद्ध करने की कोशिश किया करते हैं। यह और बात है किक्रांतिकारियों" में भी कुछ उपजातियां हों और उनमें भी ऊँच-नीच का भेद पाया जाता हो।

ज़ाहिर है, ऐसी दलगत राजनीति साहित्यिक आलोचना का आधार नहीं हो सकती। इसके आधार पर लेखकों को नैतिक या अनैतिक नहीं ठहराया जा सकता। हमें लेखकीय आचरण की कोई और ही कसौटियां बनानी होंगी। इसका मतलब यह नहीं है कि लेखकों को राजनीति से अलग रहना चाहिए या दलगत राजनीति को गंदी चीज समझते हुए उससे ऊपर उठने के नाम पर अराजनीतिक हो जाना चाहिए। मेरा कहना केवल यह है कि लेखक की आलोचना उसके लेखन के आधार पर ही की जानी चाहिए। समर्थ आलोचक लेखन में ही लेखक की राजनीति और उसकी नैतिकता खोज सकता है।

--रमेश उपाध्याय

Friday, August 7, 2009

हिन्दी में जारी निरर्थक विवाद

निरर्थक विवादों को छोड़ सार्थक बहसें चलायें

हिन्दी भाषा और साहित्य का विकास न होने देना चाहने वाली शक्तियां आजकल यह देखकर परम प्रसन्न होंगी कि वे जो चाहती हैं, हिन्दी वाले स्वयं कर रहे हैं। कुछ दिन पहले वर्धा के महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की पत्रिकाओं के संपादकों की नियुक्ति का मामला विवादों में रहा। फिर दिल्ली की हिन्दी अकादमी में उपाध्यक्ष की नियुक्ति और सञ्चालन समिति के कुछ सदस्यों के त्यागपत्र विवाद का विषय बने। गोरखपुर में एक कथाकार का एक योगी के हाथों सम्मानित होना अभी चर्चा में ही था कि रायपुर में एक सम्मान समारोह में कुछ लेखकों का भाग लेना और कुछ लेखकों द्वारा उसका बहिष्कार करना विवाद का विषय बन गया। ये विवाद पत्रिकाओं में कम, इन्टरनेट पर अधिक हो रहे हैं और उनमें व्यक्त विचारों तथा भाषा के प्रयोगों को देख कर लगता है कि हिन्दी में होने वाली चर्चाओं का स्तर कितना घटिया और शर्मनाक हो गया है। लगता है, हिन्दी के लेखक-पाठक देश, दुनिया, मानवता, समाज, साहित्य, सभ्यता और संस्कृति से सम्बंधित बृहत्तर प्रश्नों पर विचार करना छोड़ निरर्थक चर्चाओं में व्यस्त हो गए हैं, जिनका उद्देश्य येन केन प्रकारेण स्वयं को चर्चित बनाना होता है। और इसका तरीका होता है कोई ऐसा मुद्दा उछालना, जिस पर बिना किसी जिम्मेदारी या जवाबदेही के कोई भी कुछ भी कह सके। ऐसी चर्चाओं में भाग लेने के लिए न किसी विषय के गंभीर अध्ययन की आवश्यकता होती है, न चिंतन-मनन की। न भाषा पर ध्यान देने की ज़रूरत होती है, न बातचीत को विषय पर केंद्रित रखने के अनुशासन की। अतः कोई भी कितनी ही भद्दी भाषा में कुछ भी कह गुज़रता है।

इन विवादों में भाग लेने वाले लोग आजकल हिन्दी के लेखकों को अनैतिक सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं। उनका दावा है कि वे हिन्दी साहित्य में मौजूद गंदगी के विरुद्ध एक सफाई अभियान चला रहे हैं। वे दूसरों को अनैतिक बताते हुए स्वयं को परम नैतिकतावादी के रूप में प्रस्तुत करते हैं। लेकिन उनके विचारों से ही नहीं, उनकी भाषा तक से पता चल जाता है कि वे नैतिकता का 'न' भी नहीं जानते और स्वयं किसी प्रकार नैतिक अनुशासन को नहीं मानते। दूसरों पर कीचड़ उछालने को वे सफाई करना समझते हैं और यह भी नहीं देखते कि ऐसा करते समय वे स्वयं कितने और कैसे कीचड़ में सन रहे हैं। उन्हें यह भी होश नहीं रहता कि हिन्दी में जो कुछ होता है, उससे हिन्दी वाले ही नहीं, दूसरी भाषाओँ के लोग भी प्रभावित होते हैं। हिन्दी देश की इतनी बड़ी और महत्वपूर्ण भाषा है कि अन्य भारतीय भाषाओँ के लेखक हिन्दी लेखकों से एक नेतृत्वकारी भूमिका तथा मार्गदर्शन की अपेक्षा करते हैं। सोचने की बात है कि हिन्दी में हो रही कुचर्चाओं से वे हिन्दी लेखकों तथा हिन्दी साहित्य के बारे में कैसी धारणाएं बनाते होंगे और कैसे निष्कर्ष निकालते होंगे।

इन्टरनेट का सदुपयोग किया जाए, तो वह अपनी भाषा और साहित्य के विकास तथा व्यापक प्रचार-प्रसार के लिए बेहतरीन माध्यम हो सकता है। लेकिन बड़े खेद की बात है कि इसका दुरुपयोग अपनी भाषा और साहित्य से लोगों को विमुख करने के लिए किया जा रहा है। और यह काम हिन्दी वाले स्वयं कर रहे हैं!

नैतिकता की बात करने में कोई बुराई नहीं है। लेखकों के अनैतिक आचरण की आलोचना अवश्य की जानी चाहिए। लेकिन ऐसा करने की पहली शर्त यह है कि आलोचना का सैद्धांतिक तथा मूल्यगत आधार स्पष्ट रहे तथा आलोचक जो कसौटी दूसरों के लिए अपनाए, वही अपने लिए भी अपनाए। लेकिन हिन्दी लेखकों की अनैतिकता की जो आलोचना आजकल की जा रही है, उसमें कहीं भी यह स्पष्ट नहीं होता कि आलोचक स्वयं क्या है और क्या करना चाहता है।

लेखकों के आचरण को सम्पूर्ण साहित्यिक गतिविधि के सन्दर्भ में ही सही ढंग से समझा जा सकता है और उसके सन्दर्भ में पहला नैतिक प्रश्न आज यह उठाना चाहिए कि साहित्यिक गतिविधियों पर राज्य, राजनीतिक दलों और पूंजीपतियों द्वारा जो रुपया पानी की तरह बहाया जाता है, वह कहाँ से आता है और कहाँ जाता है। एक जनतांत्रिक व्यवस्था में नैतिकता की कसौटी यह है कि जनता का पैसा जनहित में खर्च होना चाहिए। साहित्यिक गतिविधि के सन्दर्भ में इसका अर्थ यह है कि जनता का पैसा जनता की भाषा की उन्नति के लिए तथा जनता को अच्छा साहित्य सुलभ कराने के लिए खर्च होना चाहिए। यदि वह इस जनतांत्रिक उद्देश्य के लिए खर्च न होकर किन्हीं अन्य उद्देश्यों के लिए खर्च होता है, तो यह अनैतिक है। और इस कार्य में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जो भी शामिल है, वह अनैतिक है।

इस दृष्टि से देखें, तो साहित्यिक गतिविधि में अनैतिकता का स्रोत है वह पूंजीवादी व्यवस्था और उसमें शासकवर्ग की वह राजनीति, जो अनेक प्रत्यक्ष और परोक्ष रूपों में लेखकों को भ्रष्ट बनाने के साथ-साथ उनमें छोटे-बड़े का भेद, आपसी ईर्ष्या-द्वेष और गलाकाटू प्रतिद्वंद्विता पैदा करती है। वह साहित्य के विकास और प्रचार-प्रसार के नाम पर असंख्य सरकारी तथा गैर-सरकारी संस्थाओं के जरिये भारी धनराशियाँ खर्च करती है, जिनसे विभिन्न प्रकार की साहित्यिक संस्थाएं, संगठन और संस्थान बनाये-चलाये जाते हैं, उनके द्वारा हर साल काफ़ी बड़े बजट वाले कार्यक्रम किए जाते हैं, छोटे-बड़े असंख्य पुरस्कार बांटे जाते हैं, पुस्तकों और पत्रिकाओं की थोक सरकारी खरीद की जाती है, साहित्यिक पत्रिकाओं को विज्ञापन तथा आर्थिक सहायतायें दी जाती हैं और लेखकों को विभिन्न प्रकार की वृत्तियाँ, सहायताएं, सुविधाएं आदि उपलब्ध कराई जाती हैं। इस प्रक्रिया में जो विशाल धनराशियाँ खर्च की जाती हैं, वे नैतिकता की इस कसौटी पर कदापि जायज़ नहीं ठहराई जा सकतीं कि जनता का पैसा जनता की भाषा की उन्नति के लिए तथा जनता को अच्छा साहित्य सुलभ कराने के लिए खर्च होना चाहिए।

अतः जो लोग हिन्दी साहित्य में वाकई कोई सफाई अभियान चलाना चाहते हैं, उन्हें लेखकों की अनैतिकता के मूल स्रोत पर ध्यान देना चाहिए और ऐसा कुछ करना चाहिए कि उस स्रोत से साहित्य में गन्दगी का आना बंद हो। इस दिशा में पहला और सबसे ज़रूरी काम यह है कि यदि जनता का पैसा साहित्यिक गतिविधि में जनता के लिए खर्च न होकर किन्हीं और लोगों पर किन्हीं और उद्देश्यों के लिए खर्च हो रहा है, तो इससे सम्बंधित तमाम तथ्य और आंकडे जनता के सामने लाकर इसके विरुद्ध एक व्यापक जन-आन्दोलन चलाया जाए।

लेकिन यह गंभीरतापूर्वक मेहनत और ज़िम्मेदारी के साथ किया जाने वाला काम है और यह काम अकेले-अकेले नहीं, मिल-जुलकर ही किया जा सकता है। यह काम निरर्थक विवादों में अपना और दूसरों का समय नष्ट करके नहीं, बल्कि एक-दूसरे के साथ सार्थक बहस चला कर ही किया जा सकता है।

--रमेश उपाध्याय

Thursday, July 9, 2009

एक ताज़ा कविता


बुढ़ऊ का पाजामा

बुढ़ऊ का तकियाकलाम था--
"बैठा मत रह कुछ किया कर
पाजामा उधेड़कर सिया कर।"
औरों को उपदेश नहीं देते थे बुढ़ऊ
ख़ुद इसका पालन करते थे
जब से सेवा मुक्त हुए वे
बैठ गए पाजामा लेकर
रोज़ उधेड़ा करते उसको
रोज़ सिया करते थे उसको
लेकिन आख़िर बोर हो गए
लगे सोचने--
"बहुत हो गई दुनियादारी
कर लो चलने की तैयारी
यह सीना-उधेड़ना आख़िर
क्यूं और कब तक?
रोज़ सुबह उठने से बेहतर
एक रात सो जाएँ सदा को शांतिपूर्वक।"
लेकिन देखा--मृत्यु सामने खड़ी हुई है
उन्हें देख मुस्करा रही है
लिए हाथ में वह पाजामा
जो उधेड़कर बुढ़ऊ ने कल
फ़ेंक दिया था, सिया नहीं था
कहा मृत्यु ने--
"यह लो, बुढ़ऊ!
अभी नहीं मरना है तुमको
कई साल का जीवन बाकी बचा तुम्हारा
कर लो जो करना है तुमको
अपना काम अधूरा क्यों छोड़ो?
पूरा कर जाओ
यह उधडा पाजामा अपना सीकर जाओ।"

--रमेश उपाध्याय

Tuesday, June 2, 2009

लोकसभा चुनावों में

जनता की राजनीतिक समझदारी

भारतीय जनतंत्र में--एक आदर्श जनतंत्र की दृष्टि से--चाहे जितने दोष हों, चुनावों में जनता के विवेक और राजनीतिक समझदारी का परिचय हर बार मिलता है। पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव में भी उसकी यह समझदारी प्रकट हुई। मसलन
१- जनता ने राजनीति में युवाओं को समर्थन दिया है, लेकिन स्पष्ट कर दिया है कि वह राहुल गाँधी जैसे युवाओं को पसंद करती है, वरुण गाँधी जैसे युवाओं को नहीं।
२- उसे बूढे-पुराने राजनीतिज्ञों से भी परहेज़ नहीं, लेकिन वे मनमोहन सिंह जैसे हों, लालकृष्ण अडवानी जैसे नहीं।
३- भाजपा ने भावी प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी को पेश किया, जबकि कांग्रेस ने राहुल गाँधी को। जनता ने नरेन्द्र मोदी को खारिज करके राहुल गाँधी को चुना।
४- सोनिया गाँधी, राहुल और प्रियंका का चुनाव प्रचार दूसरी पार्टियों के चुनाव प्रचार से भिन्न था। उसमें शालीनता और गंभीरता के साथ-साथ एक प्रकार के निस्स्वार्थ भाव का प्रदर्शन भी था, जैसे वे कह रहे हों कि हमें राहुल को प्रधानमंत्री बनाने की कोई जल्दी नहीं है। जनता ने इन बातों को पसंद किया।
५- जनता ने वाम दलों की 'गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा' वाली राजनीति को खारिज कर दिया है, क्योंकि यह नकारात्मक राजनीति है। वाम दल बहुत समय से विकल्प के नाम पर यही कहते आ रहे हैं कि यह नहीं चाहिए-वह नहीं चाहिए। वे यह नहीं बताते कि क्या चाहिए। जनता ने उन्हें बता दिया है कि सकारात्मक राजनीति करो और साफ़-साफ़ बताओ कि हम यह चाहते हैं, हम यह कर सकते हैं, और हम यह करेंगे। इससे उन्हें अपनी ताकत का सही अंदाजा रहेगा और वे 'तीसरा मोर्चा' जैसा भानमती का कुनबा जोड़कर सत्ता में पहुँचने की खामखयाली से मुक्त रह सकेंगे।

--रमेश उपाध्याय

Sunday, May 10, 2009

मल्लिका साराभाई

हमें इसी को बदलना है
(३ मई, २००९ को लिखी गई डायरी)

इस बार के आम चुनावों में जिस व्यक्ति ने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया है, वह है मल्लिका साराभाई। प्रसिद्द नृत्यांगना, जो गुजरात में गांधीनगर से प्रधानमंत्री बनने के इच्छुक लालकृष्ण आडवाणी के विरूद्ध चुनाव लड़ रही है। कहाँ शास्त्रीय नृत्य और कहाँ ऐसी भीषण गर्मी में गाँव-गाँव और घर-घर जाकर किया जाने वाला चुनाव प्रचार! कहाँ कला की साधना और कहाँ राजनीतिक संघर्ष! गुजरात में भाजपा का शासन है और वहां का मीडिया ज़्यादातर भाजपा का ही प्रचारक है। इसलिए वह मल्लका के विचारों और उसके चुनाव प्रचार से सम्बंधित समाचारों को दबा देता है, उसके विरुद्ध प्रचार करता है, उसकी हँसी उड़ाता है--कि देखो, यह औरत उस लौह पुरूष को टक्कर देने चली है, जो इस सीट से भारी बहुमत के साथ चुना जाता रहा है और इस बार का चुनाव जीत कर देश का प्रधानमन्त्री बनने वाला है!

मल्लिका को भी मालूम है कि वह जीतेगी नहीं। उसने यह जानते हुए ही चुनाव लड़ने का निर्णय लिया है। वह मौजूदा राजनीति को एक नए ढंग की राजनीति के ज़रिये चुनौती देने के लिए यह चुनाव लड़ रही है। वह एक नैतिक, सांस्कृतिक और सौन्दर्यात्मक मूल्यों वाली राजनीति की संभावनाओं को सामने लाने के लिए राजनीतिक रणक्षेत्र में उतरी है। वह किसी राजनीतिक दल के टिकट पर नहीं, स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रही है, क्योंकि मुख्यधारा के सभी दलों ने चुनावी राजनीति को भ्रष्टाचार और अपराधीकरण की राजनीति बना दिया है। उनके लिए यह केवल बहुमत पाने का गणित रह गया है, चाहे वह किसी भी तरीके से पाया जाए। अपने इस 'खेल' में उन्होंने देश के नागरिक को बिलकुल भुला दिया है। यही कारण है कि २००४ से २००९ तक की पिछली लोकसभा में ५३४ सांसदों में से १२८ सांसदों पर विभिन्न अपराधों के आरोप थे। मल्लिका पूछती है--"क्या यह शर्मनाक नहीं? हमें इसी को बदलना है।"

शाबाश, मल्लिका!

--रमेश उपाध्याय

आज के हालात पर एक कविता

अँधेरा गहरा रहा है

अँधेरा गहरा रहा है
रास्ते सब खो गए हैं
दिशाएं अंधी हुई हैं
और बढ़ती जा रही है भीड़ उनकी
जो न जाने कहाँ जायेंगे
न जाने क्या करेंगे
क्योंकि अपने रास्तों, अपनी दिशाओं
और अपनी मंजिलों को
ख़ुद नहीं वे जानते हैं
साथ चलते दूसरों को जो नहीं पहचानते हैं
साथ हैं पर चल रहे हैं अजनबी-से
उन सभी से घृणा करते जो कि आगे बढ़ गए हैं
या कि पीछे रह गए हैं
भीड़ में जो ख़ुद धकेले जा रहे हैं
सोचते फिर भी कि निर्जन में अकेले जा रहे हैं
इसलिए उन सभी से उनको शिकायत है--
कि ये क्यों साथ हैं अपने
कि ये क्यों बढ़ गए आगे
कि ये क्यों रह गए पीछे
और वे जो आ रहे हैं सामने से और
दायें या कि बाएँ से
कि जो टकरा रहे हैं--सामने से दे रहे टक्कर
कि जो धकिया रहे हैं उन्हें दायें या कि बाएँ से
सभी उनके शत्रु हैं जो रोकते हैं रास्ता उनका
कि जो चलने नहीं देते उन्हें बढ़ने नहीं देते
उन्हें इन शत्रुओं को ख़त्म करना है
अतः सब लड़ रहे हैं एक-दूजे से
बिना जाने कि यह कैसी लड़ाई है
कहाँ से शुरू होती है
कहाँ पर ख़त्म होती है
कि आख़िर लक्ष्य क्या इसका
कि आख़िर अर्थ क्या इसका?

--रमेश उपाध्याय

Wednesday, April 22, 2009

मुद्दे की बात

क्या सचमुच कोई मुद्दा नहीं है?

कहा जा रहा है कि इस बार के लोकसभा चुनाव में किसी दल के पास कोई मुद्दा नहीं है। यह बड़ी विचित्र बात है। क्या भूख कोई मुद्दा नहीं है? क्या कुपोषण कोई मुद्दा नहीं है? क्या रोटी, कपड़ा और मकान अब कोई मुद्दे नहीं हैं? क्या जनता के एक बहुत बड़े भाग को पीने का साफ़ पानी तक न मिलना कोई मुद्दा नहीं है? क्या करोड़ों लोगों तक स्वास्थ्य सेवाओं का न पहुँच पाना और विशेष रूप से स्त्रियों और बच्चों का लाइलाज मर जाना कोई मुद्दा नहीं है? क्या गरीबों के बच्चों का अच्छी शिक्षा से वंचित रह जाना कोई मुद्दा नहीं है? क्या नौकरियों का तेज़ी से लगातार कम होते जाना और बेरोज़गारी का बढ़ते जाना कोई मुद्दा नहीं है? क्या कृषि का संकट और उसके कारण लाखों किसानों द्बारा की जा रही आत्महत्याएं कोई मुद्दा नहीं हैं?

और तो और आज की वैश्विक मंदी से उत्पन्न आर्थिक संकट भी इस चुनाव में कोई मुद्दा नहीं है, जबकि यह संकट तो केवल गरीब लोगों का नहीं, संपन्न लोगों और उनकी व्यवस्था का संकट भी है। उत्पादन और निर्यात का घटना, उसके कारण उद्योग-धंधों का बंद होना और उस से सम्बंधित तरह-तरह की समस्याओं का पैदा होना भी क्या कोई मुद्दा नहीं है?

सबसे ज़्यादा हैरानी की बात तो यह है कि मीडिया और राजनीतिक दलों को ही नहीं, हिन्दी के समकालीन लेखकों को भी आज के यथार्थ में मौजूद ये ज्वलंत मुद्दे भी कोई मुद्दे नहीं लग रहे। वे इन मुद्दों पर अपनी रचनाओं में चुप या उदासीन क्यों दिखाई दे रहे हैं?

--रमेश उपाध्याय

Tuesday, March 31, 2009

आत्मकथात्मक लेखन की राजनीति

साहित्य की सेलेब्रिटीज़ से सावधान!

'Intimations of Postmodernity', 'Postmodern Ethics', 'Life in Fregments : Esseys in Postmodern Morality', 'Globalization : The Human Consiquences' आदि महत्त्वपूर्ण पुस्तकों के लेखक जिग्मुंट बौमाँ के जीवनीकारों ने, जिनमें 'Winter in the Morning' नामक उनकी जीवनी लिखने वाली उनकी पत्नी जेनिना बौमाँ भी शामिल हैं, बताया है कि उन्हें एक पोलिश यहूदी होने के नाते बहुत कुछ सहना पड़ा--जैसे हिटलर के डर से अपना देश छोड़कर भागना पड़ा, दूसरे देशों में शरण लेकर रहना पड़ा, मातृभाषा में लिखना छोड़कर अन्य भाषाओं में लेखन करना पड़ा, इत्यादि--लेकिन उन्होंने आत्मकथा के रूप में यह सब लिखकर दुनिया को बताना ज़रूरी नहीं समझा।

एक साक्षात्कार में जब उनसे पूछा गया कि उन्होंने आत्मकथा क्यों नहीं लिखी, तो रिचर्ड सेंनेट की पुस्तक 'The Fall of Public Man' का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि वर्तमान 'पौपुलर कल्चर' ने आत्मकथात्मक लेखन को एक बाजारू चीज़ बना दिया है। इसने सार्वजनिक जीवन को नष्ट कर दिया है और निजी तथा सार्वजनिक का भेद मिटा दिया है। पहले सार्वजनिक जीवन में सभ्य और शिष्ट आचरण करने वाला व्यक्ति अच्छा माना जाता था, जबकि इस संस्कृति के चलते अच्छा व्यक्ति वह है, जो सार्वजनिक रूप से (जैसे टेलीविजन के चैटशो में) सबको सब कुछ बताने को तैयार रहता है। अब लोग 'सच्चा' और 'प्रामाणिक' उसी को मानते हैं, जो अन्तरंग संबंधों का व्यापार करता है--यानी अपने निजी जीवन में दूसरों को ताक-झांक करने की खुली छूट देता है और दूसरों के निजी जीवन में ताक-झांक करके उसकी 'प्रामाणिक सूचना' बाज़ार में बेचने का काम करता है। पहले व्यक्ति अच्छा बनने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र में जाकर काम करता था और 'सार्वजनिक मनुष्य' बनता था, जबकि आज उसे अच्छा बनने के लिए अपने और दूसरों के निजी जीवन को सबके सामने उघाड़कर 'सेलेब्रिटी' बनना पड़ता है। 'सार्वजनिक मनुष्य' अपनी ज़िन्दगी को बदलना और अपनी दुनिया को बेहतर बनाना चाहने वाले लोगों के साथ सामूहिक आन्दोलन और संघर्ष करता है, जबकि 'सेलेब्रिटी' बना व्यक्ति एक स्वार्थपूर्ण बाजारू लेन-देन करता है, जिसका आधार होती है 'cult of celebrity' वाली यह बाजारू 'नैतिकता' कि हम में और दूसरों में एक ही चीज़ समान है और वह यह कि दूसरों की तरह हमारे भी कुछ रहस्य हैं, हम ने भी कुछ झूठ बोले हैं, हम ने भी कुछ पाप किए हैं। और जब हम अपना सच सबके सामने उघाड़ रहे हैं, तो हमें भी दूसरों को नंगा करने का हक़ है!

बौमाँ का कहना है कि आत्मकथा लिखने से इनकार करने का मतलब है इस बाजारू खेल में शामिल होने से इनकार करना, जिसमें कुछ लोगों को तो मज़ा आता है, लेकिन जिसकी सज़ा जनता को भुगतनी पड़ती है--इस रूप में कि इस खेल के चलते उसे सार्वजनिक जीवन से, अर्थात अपनी ज़िन्दगी को बदलने तथा अपनी दुनिया को बेहतर बनाने के लिए की जाने वाली सिद्धांत-आधारित तथा सम्मानपूर्ण राजनीति से वंचित कर दिया जाता है।

--रमेश उपाध्याय

Thursday, March 12, 2009

नई पीढ़ी और नवलेखन के बारे में

जब मैं युवा लेखक था...

हिन्दी साहित्य में आज एक बार फिर युवा पीढ़ी और नवलेखन चर्चा में है। मुझे अपनी युवावस्था याद आती है। मेरी पहली कहानी 'एक घर की डायरी' अजमेर से प्रकाशित होने वाली साहित्यिक पत्रिका 'लहर' के सितम्बर, १९६२ के अंक में छपी थी। उसी के जुलाई, १९६१ के अंक में प्रसिद्ध आलोचक शिवदान सिंह चौहान ने लिखा था :

"हमारे कुछ नए आलोचक, और उनकी देखा-देखी विचारहीन अध्यापक, नयी और पुरानी पीढ़ी की चर्चा करने लगे हैं। कुछ इस खतरनाक अंदाज़ में, मानो पुरानी पीढ़ी के लेखक सारे के सारे दकियानूसी नज़रिए के हों और नए लेखक सारे के सारे युग की नवीनतम चेतना के वाहक हों।...मुझसे पूछिए, तो मैं साहित्य में नई या पुरानी किसी भी पीढ़ी का न कायल हूँ, न हमदर्द और न मुरीद। मैं सिर्फ़ प्रतिभा का कायल हूँ, चाहे लेखक नई पीढ़ी का हो या पुरानी। और जीवन के प्रति व्यापक मानववादी प्रगतिशील दृष्टिकोण का हामी हूँ, इसलिए ऐसा दृष्टिकोण अगर पुरानी पीढ़ी के लेखन में मिले तो, और नई पीढ़ी के लेखन में मिले तो, मैं उसका दोस्त, हमदर्द और हमनवा हूँ।...नई और पुरानी दोनों पीढ़ियों में कुछ प्रतिभावान हैं, तो अधिकतर प्रतिभाहीन लेखक हैं, जैसा कि हर ज़माने में रहा है, और दोनों पीढ़ियों में कुछ उदार और व्यापक मानवीय दृष्टिकोण वाले हैं, तो कुछ संकीर्ण- हृदय और मानवद्रोही दृष्टि वाले लेखक हैं। नए 'शिल्प-सौंदर्य', 'कथन-वैचित्र्य' आदि का इजारा न नई पीढ़ी के लेखकों के पास है और न पुरानी पीढ़ी के लेखकों के पास, न मानववादी दृष्टिकोण वालों के पास है और न मानवद्रोही दृष्टिकोण वालों के पास। इसलिए आप ख़ुद देख सकते हैं कि ऐसे समष्टि-सूचक शब्दों (नई कहानी या नई पीढ़ी) के प्रयोग, जिनका कोई तात्विक आधार नहीं है, कितना बड़ा घपला पैदा कर देते हैं।"

क्या ये बातें आज के नए पीढ़ीवाद के सन्दर्भ में सहसा पुनः प्रासंगिक नहीं हो उठी हैं?

--रमेश उपाध्याय

Monday, February 23, 2009

नई पीढ़ी के कहानीकारों से

किसी नए साहित्यिक आन्दोलन से अपनी पहचान बनाएं

मैं युवा लेखकों का स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। मैं उन्हें ध्यान से पढ़ता हूँ और उनसे कुछ सीखने की कोशिश भी करता हूँ। लेकिन मैं उनसे कहता हूँ कि आप अपनी पहचान नई अथवा युवा पीढ़ी के रूप में नहीं, बल्कि अपने लेखन की किसी ऐसी विशेषता के आधार पर बनायें, जो आपको अन्य लेखकों से भिन्न और विशिष्ट बनाती हो; जिसे एक नई प्रवृत्ति के रूप में पहचाना जा सके और जिसे कोई सार्थक नाम दिया जा सके।

इसके लिए ज़रूरी है कि आप 'युवा लेखक' के रूप में अपने स्वागत-सत्कार से संतुष्ट हो रहने के बजाय कोई नया साहित्यिक आन्दोलन चलायें और उसके ज़रिये अपनी अलग पहचान बनायें।

और इसके लिए ज़रूरी है कि आप यथार्थ के प्रति अपनाए जाने वाले अपने दृष्टिकोण, अपने वैचारिक परिप्रेक्ष्य तथा अपने कला-सिद्धांत को स्पष्ट करें।

क्या मैं ग़लत कहता हूँ?

--रमेश उपाध्याय

Monday, February 9, 2009

जनवादी कहानी : एक सवाल का जवाब

प्रगतिशील वसुधा के समकालीन कहानी विशेषांक में

'समकालीन हिन्दी कहानी--कुछ सवाल' शीर्षक परिचर्चा में मुझसे अन्य सवालों के साथ एक सवाल यह पूछा गया कि "क्या सन् २००० के बाद की हिन्दी कहानी को 'उत्तर-जनवादी कहानी' कहा जा सकता है?" इस प्रश्न के उत्तर में मैंने लिखा है :

सन् २००० में ऐसी क्या ख़ास बात है कि आपकी प्रश्नावली के दो प्रश्नों में इसे हिन्दी कहानी के इतिहास की एक महत्वपूर्ण तिथि के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है? मुझे तो इसमें कोई ऐसी बात नज़र नहीं आती कि इसे महत्व दिया जाए।

आपका 'उत्तर-जनवादी कहानी' पद भी बहुत अजीब है। हिन्दी में आजकल 'उत्तर' शब्द अंग्रेज़ी के 'पोस्ट' के अर्थ में प्रयुक्त होता है। इस प्रकार आपके इस पद का अंग्रेज़ी अनुवाद होगा 'पोस्ट-डेमोक्रेटिक शार्ट स्टोरी'। अर्थात जनवाद के बाद की या जनवादी कहानी के बाद की कहानी। क्या आपके विचार से भारत में जनवाद समाप्त हो गया है? या जनवाद और जनवादी कहानी कि ज़रूरत ख़त्म हो गई है? ... यह बात मेरी समझ से परे है कि २००० में ऐसा क्या हुआ कि उसके बाद की कहानी को 'उत्तर-जनवादी कहानी' कहा जाए। कहीं इसका सम्बन्ध २००० में प्रकाशित मेरी पुस्तक 'जनवादी कहानी : पृष्ठभूमि से पुनर्विचार तक' से तो नहीं है, जो मेरे १९७३ से १९९५ तक लिखे गए साहित्यिक रिपोर्ताजों का संकलन थी? कहीं ऐसा तो नहीं कि २००० में प्रकाशित इस पुस्तक के उपशीर्षक में प्रयुक्त 'पुनर्विचार' शब्द से आपने यह अर्थ निकाल लिया हो कि जनवादी कहानी का अंत हो चुका है, अब उस पर पुनर्विचार हो रहा है और इसके बाद कि कहानी को 'उत्तर-जनवादी कहानी' कहा जा सकता है?

यदि ऐसा है, तो मेरा निवेदन है कि 'जनवादी कहानी : पृष्ठभूमि से पुनर्विचार तक' की भूमिका को एक बार फिर से पढ़ने का कष्ट करें। उसमें संकलित 'अब' पत्रिका के 'कहानी अंक' (जनवरी, १९९५) में प्रकाशित अपने साहित्यिक रिपोर्ताज के बारे में मैंने लिखा था--"जनवादी कहानी के सन्दर्भ में यह बातचीत भी मेरे विचार से ऐतिहासिक महत्त्व रखती है, क्योंकि यह एक प्रकार से जनवादी कहानी की दो दशक की यात्रा का पुनरावलोकन तो है ही, भविष्य की दृष्टि से किया गया पुनर्विचार भी है।" क्या जनवादी कहानी के "भविष्य की दृष्टि से किए गए पुनर्विचार" को उसका अंत माना जा सकता है?

एक बात और : पूंजीवाद आज भूमंडलीय स्तर पर जिस आर्थिक संकट से ग्रस्त है, वह १९३० के बाद की आर्थिक मंदी और उससे उत्पन्न फासीवाद की याद ताज़ा कर रहा है। दुनिया में ही नहीं, हमारे देश में भी फासीवाद की आहटें साफ़ सुनाई पड़ रही हैं। अतः जनवाद को बचाना और आगे बढ़ाना आज पहले के किसी भी समय से ज़्यादा ज़रूरी हो गया है। तदनुसार जनवादी कहानी की ज़रूरत आज पहले से भी ज़्यादा है।
--रमेश उपाध्याय

Thursday, January 29, 2009

मीडिया और जनतंत्र

मीडिया का जनतांत्रिक होना क्यों ज़रूरी है?

जनतंत्र जनतांत्रिक संस्थाओं के दम पर चलता है। लेकिन आज वे संस्थाएँ भीतर से स्वयं अपने कारणों से नष्ट हो रही हैं और बाहर से जनतंत्र-विरोधी शक्तियों द्वारा नष्ट की जा रही हैं। मीडिया जनतंत्र को बचाने, बेहतर बनाने और मजबूत बनाकर आगे बढ़ाने वाली शक्ति के रूप में स्वयं जनतांत्रिक होना चाहिए। उसे स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के जनतांत्रिक मूल्यों को अपनाकर चलना चाहिए और इन्ही मूल्यों का प्रचार-प्रसार करते हुए राज्य और समाज को जनतांत्रिक बनाने तथा बनाये रखने का काम करना चाहिए। मीडिया यह काम सत्यनिष्ठ, नीतिनिष्ठ और न्यायनिष्ठ होकर ही कर सकता है, क्योंकि ऐसा होने पर ही वह प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने के लिए भीतर से स्वयं नैतिक रूप से मजबूत और बाहर से जन-समर्थन पाकर शक्तिशाली बना रह सकता है।

लेकिन आज का मीडिया स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के जनतांत्रिक मूल्यों को ताक पर रखकर एक तरफ़ अपने मालिकों को अधिक से अधिक मुनाफा कमाकर देने का और दूसरी तरफ़ उनकी गैर-जनतांत्रिक और कई मायनों में जनतंत्र-विरोधी राजनीति को आगे बढ़ाने का काम करता है। ऐसी स्थिति में वह सत्यनिष्ठ, नीतिनिष्ठ और न्यायनिष्ठ नहीं हो सकता और अपनी नैतिक शक्ति खोकर कमज़ोर होता जाता है, दृढ़तापूर्वक प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना नहीं कर पाता और तरह-तरह के दबावों में तरह-तरह के समझौते करने को मजबूर हो जाता है। इस प्रकार भीतर से कमज़ोर मीडिया जन-समर्थन खोकर बाहर से भी कमज़ोर हो जाता है।

यही कारण है कि उस पर शासन और प्रशासन के तरह-तरह के दबाव पड़ते हैं, तरह-तरह के अंकुश लगाए जाते हैं (जैसे सीधी सेंसरशिप नहीं तो अखबार को मिलने वाले विज्ञापनों पर रोक) और सत्ताधारी दल के नेताओं को ही नहीं, उसे विरोधी दलों के नेताओं को भी खुश रखना पड़ता है। यहाँ तक कि पुलिस और गुंडों को भी। उन्हें नाराज़ करने का मतलब होता है अखबार या चैनल पर हमला, उसके दफ्तर में की जाने वाली तोड़-फोड़, उसके कर्मचारियों के साथ की जाने वाली मार-पीट, पत्रकारों की हत्याएं आदि। और जब ऐसी घटनाएं होती हैं, जनता मूक दर्शक बनी रहती है, क्योंकि वह जानती है कि मीडिया उसे क्या समझता है! जब अखबार अपने पाठक को और चैनल अपने दर्शक को सिर्फ़ उपभोक्ता मानकर चलेंगे, सूचना और समाचार को महज एक उत्पाद मानकर बनाने और बेचने का काम करेंगे और उसमें भी ग्राहक के साथ धोखाधड़ी करेंगे--यानी सूचना के नाम पर ग़लत सूचना देंगे, सच के नाम पर झूठ बेचेंगे, रिपोर्टिंग के नाम पर सनसनी और मनोरंजन के नाम पर फूहड़पन फैलायेंगे--तो उनकी पिटाई होते देख जनता उन्हें बचाने क्यों आयेगी?

अखबारों की प्रसार संख्या और उनकी बिक्री का बढ़ना या चैनलों की टी आर पी का बढ़ना और उसके आधार पर उन्हें अधिक विज्ञापनों का मिलना उनकी लोकप्रियता के बढ़ने का सूचक नहीं है। लोग जागरूक हो रहे हैं। उन्हें प्रामाणिक सूचनाओं, सही समाचारों, ज़रूरी विचारों और अच्छे मनोरंजक कार्यक्रमों की ज़रूरत है। लेकिन क्या मीडिया उनकी यह ज़रूरत पूरी कर रहा है?

मीडिया उनकी यह ज़रूरत जनतांत्रिक होकर ही पूरी कर सकता है।

--रमेश उपाध्याय

Friday, January 23, 2009

भूमंडलीय यथार्थवाद का मतलब

जब से मेरी किताब 'साहित्य और भूमंडलीय यथार्थ' प्रकाशित हुई है, मेरे कई पाठक मुझसे पूछ रहे हैं कि भूमंडलीय यथार्थवाद क्या होता हैकुछ ऐसे भी पाठक होंगे, जो यह जानना तो चाहते होंगे, पर मझसे पूछने में संकोच करते होंगेउन पाठकों के लिए मेरा कहना यह है कि आज के बदले हुए और तेजी से बदलते हुए यथार्थ के सन्दर्भ में यथार्थ को वर्ण, जाति, लिंग, नस्ल, राष्ट्र आदि के आधार पर खंड-खंड करके नहीं, बल्कि समग्रता में भूमंडलीय यथार्थ के रूप में देखना आवश्यक हैआज के साहित्य की सार्थकता और सोद्देश्यता के लिए एक नए ढंग के यथार्थवाद का विकास करना आवश्यक है, जिसे मैं भूमंडलीय यथार्थवाद कहता हूँ


भूमंडलीय यथार्थवाद का मतलब यह नहीं है कि हम अपने देश, अपने समाज या अपने निजी जीवन की कथा कहना बंद कर देंगेकथा तो हम अपने देश, अपने समाज और अपने जीवन की ही कहेंगे, लेकिन अपने यथार्थ को देखने का हमारा परिप्रेक्ष्य भूमंडलीय होगाकारण यह है कि अब हम इस परिप्रेक्ष्य के बिना अपने यथार्थ को समझ ही नहीं सकतेउदाहरण के लिए, आज की वैश्विक मंदी एक ऐसा भूमंडलीय यथार्थ है, जिसको समझे बिना आज हम अपने देश, अपने समाज और अपने जीवन में उत्पन्न हुई नई समस्याओं को समझ ही नहीं सकते


प्रश्न उठता है : भूमंडलीय यथार्थ तो बड़ी व्यापक, जटिल और गतिशील चीज़ है, उसे आत्मसात करके कथासाहित्य कैसे लिखा जा सकता है? इसका उत्तर खोजने में मुक्तिबोध हमारी सहायता कर सकते हैंभूमंडलीय यथार्थ को आत्मसात करने के मामले में उनकी 'ज्ञानात्मक संवेदन' और 'संवेदनात्मक ज्ञान' की अवधारणायें उपयोगी हो सकती हैं, तो उस यथार्थ का चित्रण करने के मामले में उनका निबंध 'डबरे पर सूरज का बिम्ब' हमें उचित प्रेरणा दे सकता हैजैसे पानी के छोटे-से डबरे पर भी सूरज का पूरा बिम्ब दिखाई देता है, वैसे ही छोटी-सी साहित्यिक रचना में बड़े और व्यापक यथार्थ का चित्रण किया जा सकता है

--रमेश उपाध्याय

Friday, January 16, 2009

बच्चों के लिए एक कविता

उस दिन दुनिया ने छुट्टी ली

घड़ी सुबह के पाँच बजाकर बोली जागो, जागो!
दुनिया जागी, ख़ुद से बोली भागो, भागो, भागो!

बिस्तर से उठकर दुनिया ने देखा घना अँधेरा
यह कैसा अंधेर है, भाई, जब हो चुका सवेरा?

दुनिया बाहर आई, देखा, आसमान पर बादल
अंधड़ बनकर हवा चल रही मानो होकर पागल

ज़ोर-ज़ोर से पेड़ हिल रहे खड़खड़ करते पत्ते
अंधड़ दिल्ली से ज्यों सरपट जाता हो कलकत्ते

चमचम बिजली चमकी गड़गड़ बादल लगा गरजने
टीन की छत पर तडतड करता पानी लगा बरसने

छुट्टी लेकर दुनिया चढ़ गई अपने घर की छत पर
उछल-उछलकर खूब नहाई बारिश में जी भरकर।

--रमेश उपाध्याय
बाल विज्ञान पत्रिका 'चकमक' के दिसम्बर, 2008 के अंक में प्रकाशित

Wednesday, January 14, 2009

नमस्कार!

नमस्कार मित्रो!
नया वर्ष आपको मुबारक हो! इस नए वर्ष में मैंने एक नया काम किया है। वह यह कि मैंने 'कथन' के सम्पादन से संन्यास लेकर उसका सम्पादन अपनी बेटी संज्ञा उपाध्याय को सौंप दिया है। आपसे गुजारिश है कि 'कथन' को अपना स्नेह और सहयोग पहले की तरह देते रहें।
यह तो आप जानते ही होंगे कि कुछ दिन पहले ज्ञानरंजन ने अपनी पत्रिका 'पहल' बंद करने की घोषणा की है। लघु पत्रिकाएँ निकलती हैं और बंद हो जाती हैं। लेकिन मेरा मानना है कि यदि संभव हो, तो लघु पत्रिका को शुरू करने वाले सम्पादक की कोई ख़ास ही मजबूरी न हो, तो पत्रिका को जीवित रखने के लिए उसे किसी दूसरे योग्य सम्पादक को सौंप देना चाहिए। 'पहल' हिन्दी की एक महत्त्वपूर्ण पत्रिका थी। उसे जीवित रहना चाहिए था। अपनी इसी मान्यता के कारण मैंने सोचा कि मैं सम्पादक रहूँ या न रहूँ, 'कथन' को जीवित रहना चाहिए। आप इस विषय में क्या सोचते हैं, मुझे बताएँ।
शुभकामनाओं के साथ
आपका
रमेश उपाध्याय