दलगत राजनीति साहित्यिक आलोचना की कसौटी नहीं
७ अगस्त की अपनी टिप्पणी 'निरर्थक विवादों को छोड़ सार्थक बहसें चलायें' में मैंने लिखा था कि लेखकीय नैतिकता की बात करने में कोई बुराई नहीं है। लेखकों के नैतिक आचरण की आलोचना अवश्य की जानी चाहिए। लेकिन ऐसा करने की पहली शर्त यह है कि आलोचना का सैद्धांतिक और मूल्यगत आधार स्पष्ट रहे तथा आलोचक जो कसौटी दूसरों के लिए अपनाए, वही अपने लिए भी अपनाए।
अपनी इसी बात को आगे बढ़ाते हुए मैं यह कहना चाहता हूँ कि दलगत राजनीति को लेखकों के नैतिक आचरण की कसौटी नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि संसदीय लोकतंत्र में कोई भी राजनीतिक दल सर्वमान्य रूप से सही या ग़लत नहीं हो सकता। मसलन, कांग्रेस की नज़र में भाजपा ग़लत हो सकती है और भाजपा की नज़र में कांग्रेस, लेकिन इन दोनों दलों के सदस्य और समर्थक स्वयं को सही समझते रह सकते हैं। यदि वे एक दूसरे को अनैतिक कहते हैं, तो यह कोई वस्तुगत सत्य नहीं, उनका अपना निजी विचार ही हो सकता है। इसे नैतिकता की कसौटी नहीं माना जा सकता। इस प्रकार किसी लेखक को किसी दल का समर्थक होने या न होने के आधार पर नैतिक या अनैतिक नहीं ठहराया जा सकता।
लेकिन हिन्दी लेखकों में दलगत आधार पर स्वयं को नैतिक और दूसरों को अनैतिक सिद्ध करने की एक सर्वथा गैर-जनतांत्रिक प्रवृत्ति पाई जाती है। यह प्रवृत्ति हिन्दी लेखकों में एक तरह के जातिवाद का रूप ले चुकी है, जिसके चलते लेखक जिस दल के सदस्य या समर्थक होते हैं, उसी को सबसे सही और सबसे नैतिक समझते हुए स्वयं को ऊँची और दूसरों को नीची जाति का समझने लगते हैं। कुछ लेखकों का व्यवहार तो ऐसा हो जाता है कि जैसे वे किसी खास दल से जुड़कर ब्राह्मण हो गए हों और बाकी लेखक अछूत। फिर, जैसे ब्राह्मणों में भी अनेक उपजातियां होती हैं, और उनमें भी ऊँच-नीच के भेद होते हैं, वैसे ही एक राजनीतिक दल के बँट जाने से बने विभिन्न दलों के लेखक एक-दूसरे को नीची नज़र से देखने लगते हैं। यह प्रवृत्ति जातिवाद का विरोध करने वाले वामपंथी लेखकों में भी पाई जाती है। उनमें भी प्रगतिशील, जनवादी और क्रांतिकारी लगभग जातिसूचक शब्द बन गए हैं। वे अपनी-अपनी जाति के आधार पर स्वयं को नैतिक और दूसरों को अनैतिक मानते हुए दूसरों की आलोचना करते हैं और स्वयं को सही तथा दूसरों को ग़लत सिद्ध करने की कोशिश किया करते हैं। यह और बात है किक्रांतिकारियों" में भी कुछ उपजातियां हों और उनमें भी ऊँच-नीच का भेद पाया जाता हो।
ज़ाहिर है, ऐसी दलगत राजनीति साहित्यिक आलोचना का आधार नहीं हो सकती। इसके आधार पर लेखकों को नैतिक या अनैतिक नहीं ठहराया जा सकता। हमें लेखकीय आचरण की कोई और ही कसौटियां बनानी होंगी। इसका मतलब यह नहीं है कि लेखकों को राजनीति से अलग रहना चाहिए या दलगत राजनीति को गंदी चीज समझते हुए उससे ऊपर उठने के नाम पर अराजनीतिक हो जाना चाहिए। मेरा कहना केवल यह है कि लेखक की आलोचना उसके लेखन के आधार पर ही की जानी चाहिए। समर्थ आलोचक लेखन में ही लेखक की राजनीति और उसकी नैतिकता खोज सकता है।
--रमेश उपाध्याय
हिन्दी लेखकों में दलगत आधार पर स्वयं को नैतिक और दूसरों को अनैतिक सिद्ध करने की एक सर्वथा गैर-जनतांत्रिक प्रवृत्ति पाई जाती है। यह प्रवृत्ति हिन्दी लेखकों में एक तरह के जातिवाद का रूप ले चुकी है, जिसके चलते लेखक जिस दल के सदस्य या समर्थक होते हैं, उसी को सबसे सही और सबसे नैतिक समझते हुए स्वयं को ऊँची और दूसरों को नीची जाति का समझने लगते हैं। कुछ लेखकों का व्यवहार तो ऐसा हो जाता है कि जैसे वे किसी खास दल से जुड़कर ब्राह्मण हो गए हों और बाकी लेखक अछूत। फिर, जैसे ब्राह्मणों में भी अनेक उपजातियां होती हैं, और उनमें भी ऊँच-नीच के भेद होते हैं, वैसे ही एक राजनीतिक दल के बँट जाने से बने विभिन्न दलों के लेखक एक-दूसरे को नीची नज़र से देखने लगते हैं।
ReplyDeleteबहुत ही सटीक विचार है आपके .आपके विचारो से सहमत हूँ . आभार
प्रेमचंद ने कहा है कि जब कोइ अपने-आपको साहित्यकार कहता है तो उसके अनुरूप उसे खुद व्यवहार करना चाहिए क्योंकि यह पदवी उसे किसी के द्वारा दी नहीं जाती बल्कि वह स्वयं अर्जित करता है.तो इतना ध्यान में जरूर रखा जाना चाहिए.....
ReplyDeleteउपाध्याय जी, आप की बात से सहमत हूँ। किसी लेखक पर लगा लेबल देख कर आलोचना करने का कोई अर्थ नहीं है। वस्तुतः हमें रचना की आलोचना पर ध्यान देना चाहिए। आलोचना मूल्य आधारित होनी चाहिए। साहित्यकार का मूल्यांकन उस के रचनाकर्म की दिशा के आधार पर किया जाना चाहिए।
ReplyDeleteek achchhe aalekh ko padha.
ReplyDelete- vijay
आदरणीय उपाध्याय जी .इसके अलावा इन दिनो एक बात और हो रही है कि इस दलगत राजनीति के तहत दल के या कह लें लेखक संगठन के लोग अपने ही संगठन के लोगों पर लिख रहे हैं . इस प्रकार की आलोचना से क्या उम्मीद की जा सकती है . संगठनों के भीतर भी अब जनतंत्र इस तरह आ गया है कि अपनी सदस्य संख्या बढाने के लिये वे प्रतिबद्धता विचारधारा आदि को ताक पर रख कर चेनलों की तरह टी आर पी बढ़ाने के लिये काम कर रहे है . पहले आप लेख को देख कर ही अन्दाज़ लगा सकते थे कि यह लेखक किस संघ का सदस्य हो सकता है लेकिन अब यह समझना आसान नही है . लेकिन जो भी हो आलोचक को अपना काम इन सबसे विरत होकर करना चाहिये . अफसोस कि ऐसा नही हो रहा है -शरद कोकास,दुर्ग
ReplyDeleteआपने सही सवाल उठाया है। लेखन को दलगत कसौटी पर नही देखें बल्कि लेखन के आधार पर लेखक के बारे में राय बनायी जाए। लेखन की कसौटी बदलनी होगी,आज लेखन की कसौटी वही नहीं हो सकती जो प्रेस युग में वर्गीकृत करके रख दी गयी, कथन पत्रिका की साहित्यिक सामग्री और गैर साहित्यिक सामग्री दोनों ही लेखन है। आज यदि आप प्रभातपटनायक का लेख छापते हैं तो वह भी साहित्य का हिस्सा है,नए अर्थों में हिन्दी लेखन का हिस्सा है। आज साहित्य को साहित्य नहीं लेखन कहते हैं। साहित्य का वह दायरा नहीं रहा जो पहले हुआ करता था,आज साहित्य,विधाएं आदि सभी से मुक्त होकर 'लेखन' के युग में दाखिल हो चुके हैं। आज यह कहना सही नहीं होगा कि 'कथन' में छपी कहानी तो कहानी है किंतु किसी दैनिक अखबार में छपी कहानी कहानी नहीं है। प्रभाष जोशी पत्रकार ही नहीं हैं बल्कि हिन्दी के लेखक हैं,उनका समस्त लेखन अखबारी है इसके बावजूद वे लेखक हैं क्योंकि उन्होंने हिन्दी में लिखा है, आपकी पत्रिका के पत्र लेखक भी लेखक हैं, कहने का आशय यह है कि अब हमें 'साहित्य' की बजाय 'लेखन' पदबंध का इस्तेमाल करना चाहिए,विभिन्न विधाओं में वर्गीकरण करने की पुरानी आदत को बदलना होगा,अब समस्त विधाओं का 'लेखन' में रूपान्तरण हो चुका है। अब सब कुछ 'लेखन' है,आलोचना,कहानी,उपन्यास,कविता आदि वर्गीकरण अप्रासंगिक हो गए हैं,हिन्दी के लेखकों को भी इस तथ्य को स्वीकार लेना चाहिए,यदि हम 'साहित्य' और 'विधाओं' की केटेगरी में रखकर चीजों को देखेंगे तो वे सब समस्याएं बनी रहेंगी जिनका आप समय-समय पर लेखन में जिक्र करते रहते हैं। कम से कम अब तो हमें देरिदा की बात मान लेनी चाहिए कि यह लेखन का युग है साहित्य का नहीं।
ReplyDeleteयह एक विचारणीय सवाल है। जैसे दलगत राजनीति से आज तक न तो राजनीति का, और न ही जनता का कोई भला हुआ है, वैसे ही लेखकों पर हावी होते इस जातिवाद से भी किसी का भला नहीं होना। लेखन का तो ख़ैर छोड़ ही दें, लेखक का भी कोई भला नहीं होने वाला।
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