अंग्रेजी में होने वाली आख्यान-चर्चा में ‘नैरेटिव’ (आख्यान) के साथ-साथ ‘स्यूडो-नैरेटिव’ (छद्म-आख्यान) की चर्चा भी होती है, जिसका संबंध प्रायः सोवियत संघ की समाजवादी व्यवस्था का गुणगान करने के लिए लिखी या लिखवायी गयी प्रचारात्मक कहानियों से जोड़ा जाता है। कहा जाता है कि ‘समाजवादी यथार्थवाद’ के नाम पर लिखी या लिखवायी गयी ऐसी कहानियाँ झूठी या गढ़ी हुई कहानियाँ थीं, जिनसे आख्यान का नाम बदनाम हुआ। लेकिन उस चर्चा में उन कहानियों का जिक्र कहीं नहीं होता, जो धर्म, नैतिकता, सदाचार, शिष्टाचार या व्यापार की शिक्षा देने के नाम पर अथवा जनता का मनोरंजन करने के नाम पर लिखी या लिखवायी जाती हैं। ऐसी कहानियाँ रूस की समाजवादी व्यवस्था के जन्म से पहले भी लिखी-लिखवायी जाती थीं और आज भी दुनिया भर में लिखी-लिखवायी जाती हैं, जबकि सोवियत संघ का नाम ही दुनिया के नक्शे से मिट चुका है।
लेखक को थोड़े-से पैसे या कोई प्रलोभन देकर किसी भी विषय पर कैसी भी कहानी लिखवा लेने वाले लोग केवल फिल्मी दुनिया में नहीं होते, वे पत्रकारिता, पुस्तक-प्रकाशन, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और धर्म तथा राजनीति के क्षेत्रों में भी होते हैं। मगर आख्यानशास्त्रियों का ध्यान या तो इस तरफ जाता ही नहीं, या वे ऐसी कहानियों को ‘छद्म-आख्यान’ की कोटि में नहीं रखते। आजकल मिथकों पर बच्चों और बड़ों के लिए कहानियाँ लिखवाने, चित्रमालाएँ बनवाने, फिल्मों और टी.वी. सीरियलों के लिए मिथक-आधारित कथाएँ-पटकथाएँ लिखवाने का धंधा दुनिया भर में खूब चल रहा है। लेकिन मिथकों को कोई आख्यानशास्त्री ‘छद्म-आख्यान’ नहीं कहता। उलटे, उन्हें ‘पवित्र आख्यान’ कहकर महिमामंडित किया जाता है। उदाहरण के लिए, 1984 में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (बर्कले) से प्रकाशित पुस्तक ‘सेक्रेड नैरेटिव: रीडिंग्स इन दि थियरी ऑफ मिथ’ को देखा जा सकता है, जो संपादक एलन डंडास के इस वक्तव्य से शुरू होती है कि ‘‘मिथक पवित्र आख्यान हैं’’ और पुस्तक में शामिल इक्कीस टिप्पणीकार इसका समर्थन करते हैं!
आख्यानशास्त्री जानते और मानते हैं कि टी.वी. पर दिखाये जाने वाले प्रायः सभी विज्ञापनों में एक आख्यान होता है--कुछ सेकेंड जितनी छोटी ही सही, एक कहानी होती है--और विज्ञापन का दूसरा नाम प्रचार है। लेकिन इन आख्यानों को न तो कोई छद्म-आख्यान कहता है और न प्रचारात्मक कहानियाँ। इसी तरह धर्म, सभ्यता, संस्कृति, नैतिकता, सदाचार, देशभक्ति या राष्ट्रवाद के नाम पर राजनीतिक प्रचार करने वाली कहानियों को भी कोई प्रचारात्मक नहीं कहता। मगर जनहित, जनवाद, समाजवाद इत्यादि की बात करने वाली कहानियों पर तुरंत ‘प्रचारात्मक’ का ठप्पा लगा दिया जाता है और उन्हें ‘छद्म-आख्यान’ की कोटि में डाल दिया जाता है।
यह सब देखकर लगता है कि पिछले कुछ वर्षों में पूँजीवादी भूमंडलीकरण के साथ-साथ जिस आख्यानशास्त्र का बोलबाला हुआ है, वह शायद स्वयं ही एक जबर्दस्त प्रचार और छद्म-आख्यान है। ‘महा-आख्यानों’ के अंत की घोषणा करने वाले उत्तर-आधुनिकतावाद से आख्यानशास्त्र का क्या संबंध है, यह जगजाहिर है। और अब यह भी कोई छिपी हुई बात नहीं रह गयी कि उत्तर-आधुनिकतावाद आज के भूमंडलीय पूँजीवाद की विचारधारा है। अतः जब ‘आख्यान’ के आगे ‘छद्म’ और ‘पवित्र’ जैसे विशेषण लगाये जायें, तो इसमें निहित राजनीति और प्रचारात्मकता को समझना कुछ मुश्किल नहीं रहता।
लेकिन हमारा वर्तमान समय कुछ ऐसा है कि इसमें सच और झूठ या ‘फैक्ट’ और ‘फिक्शन’ में फर्क कर पाना बहुत मुश्किल हो गया है। कारण यह है कि घर में माता-पिता और स्कूल में अपने शिक्षकों से झूठ बोलने वाले बच्चों से लेकर अपने देश की जनता और शेष सारी दुनिया से झूठ बोलने वाले राष्ट्राध्यक्षों तक तमाम लोग झूठी कहानियाँ गढ़ते हैं और मीडिया तो छोटे-छोटे विज्ञापनों से लेकर बड़ी-बड़ी खबरों तक में प्रायः झूठी ही कहानियों (‘स्टोरीज’) का कारोबार करता है।
उदाहरण के लिए, अमरीका ने इराक में व्यापक विनाशकारी हथियारों के होने की झूठी कहानी गढ़ी और उसके आधार पर किये गये आक्रमण से लाखों लोगों को तबाह करके उस देश पर कब्जा कर लिया। लेकिन इस महा छद्म-आख्यान का विरोध कितने आख्यानशास्त्रियों और उत्तर-आधुनिकतावादियों ने किया? और इस सबमें मीडिया की भूमिका क्या रही, जिसने असंख्य छोटे-छोटे छद्म-आख्यान समाचारों के नाम पर सारी दुनिया में फैलाये?
साहित्य के बारे में कुछ लोग कहते हैं कि सच कहने के लिए यही एक जगह बची है। लेकिन क्या यह भी सच है? शायद नहीं। साहित्य में भी खूब झूठ बोला जाता है और, बकौल रामविलास शर्मा, कुछ लोग तो झूठ इतनी सफाई और खूबसूरती से बोलते हैं कि उसे सच से भी ज्यादा सुंदर, आकर्षक और प्रभावशाली बना देते हैं। यह चीज आज हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य में ही नहीं, सभी देशों की सभी भाषाओं के जन-विरोधी या मानव-विरोधी साहित्य में देखी जा सकती है।
ऐसी स्थिति में अगर कोई यह कहे कि वह यथार्थवादी है या यथार्थवादी कहानी लिखता है, तो सयाने लोग उससे शायद यही पूछेंगे कि यथार्थवाद क्या होता है। और निश्चित है कि आज बड़े से बड़े यथार्थवादी के लिए यह बताना मुश्किल हो जायेगा कि यथार्थवाद क्या है। यथार्थवाद के कुछ भिन्न और परस्पर-विरोधी रूप तो पहले के साहित्य में भी देखे जा सकते थे--मसलन, ‘नेचुरलिस्ट’ लोगों का यथार्थवाद, ‘रोमेंटिक रिवोल्यूशनरी’ लोगों का यथार्थवाद, ‘बुर्जुआ क्रिटिकल रियलिज्म’ या ‘सोशलिस्ट रियलिज्म’ में यकीन करने वालों का यथार्थवाद और हम हिंदी वालों का ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’। इन विभिन्न प्रकार के यथार्थवादों के बीच चाहे जितना फर्क, अंतराल या अंतर्विरोध रहा हो, एक चीज समान थी: सच के पक्ष में खड़े होकर झूठ से लड़ना। ज्यादातर मामलों में सबके ‘सच’ और ‘झूठ’ अलग-अलग होते थे, फिर भी एक चीज सबमें समान रहती थी: असत्य के विरुद्ध सत्य के लिए लड़ना, अन्याय के विरुद्ध न्याय के लिए लड़ना, बुराई के विरुद्ध अच्छाई के लिए लड़ना, अनैतिकता के विरुद्ध नैतिकता के लिए लड़ना, भदेसपन के विरुद्ध उदात्तता के लिए लड़ना, कुरूपता के विरुद्ध सुंदरता के लिए लड़ना और बर्बरता के विरुद्ध मनुष्यता के लिए लड़ना। यथार्थवाद वास्तव में यही था, चाहे उसका नाम और रूप कुछ भी हो।
मगर आज? उत्तर-आधुनिकतावाद ने सारे यथार्थवादों की छुट्टी कर दी है। उसमें सत्य और असत्य के बीच, न्याय और अन्याय के बीच, अच्छे और बुरे के बीच, नैतिक और अनैतिक के बीच, उदात्त और भदेस के बीच, सुंदर और असुंदर के बीच, मनुष्यता और बर्बरता के बीच कोई फर्क ही नहीं किया जाता। उसमें तमाम परस्पर-विरोधी यथार्थ कथाकार के खिलंदड़ेपन या मसखरेपन और हर चीज को तुच्छ तथा हास्यास्पद बताकर खारिज कर देने वाले बड़प्पन के चलते एक जैसे हो जाते हैं! उत्तर-आधुनिकतावादी साहित्यिक सिद्धांत लेखकों को यही सिखाते हैं और उनके अनुसार लिखने वाले लेखक अपनी कहानियों में यही दिखाते हैं!
शायद इसीलिए आज के अधिकांश फैशनेबल कथा-लेखन को देखकर तरह-तरह के संदेह मन में उठते हैं, जैसेµक्या हम एक विश्वव्यापी विराट् विभ्रम में जी रहे हैं, जहाँ सच, यथार्थ या वास्तविकता को पकड़ पाना और उसे समझकर उसकी कहानी कह पाना असंभव हो गया है? क्या कहानी लिखना ही व्यर्थ हो गया है? क्या इसीलिए बहुत-से कहानीकारों ने कहानी लिखना बंद कर दिया है? क्या इसीलिए नये कहानीकार भी कहानी में कुछ खास नया नहीं कर पा रहे हैं? क्या इसीलिए ऐसा लग रहा है कि कहानी ठहर-सी गयी है और आगे नहीं बढ़ पा रही है?
लेकिन कहानी हमारे जीवन की एक अनिवार्य आवश्यकता है। मानवीय जीवन जीने के लिए हमें बहुत सारी अमानवीयता से लड़ते-भिड़ते आगे बढ़ना होता है। उस लड़ाई में कहानियाँ कदम-कदम पर हमारा साथ देती हैं। इसीलिए हम कहानियाँ कहते-सुनते हैं, पुरानी कहानियों को नये रूप तथा नये अर्थ देते हैं (तथाकथित पवित्र आख्यानों को भी नयी व्याख्याएँ देकर फिर-फिर रचते हैं) और नयी जरूरतों के मुताबिक नयी कहानियाँ गढ़ते हैं। इसी तरह जिंदगी आगे बढ़ती है, इसी तरह कहानी आगे बढ़ती है।
1960 के आसपास सारी दुनिया में यह महसूस किया जाने लगा था कि आधुनिकतावाद कहानी का दुश्मन है, क्योंकि वह कहानी को मनुष्य के उपयोग की वस्तु नहीं रहने देना चाहता, बल्कि एक शुद्ध कलात्मक या सौंदर्यशास्त्रीय वस्तु बनाना चाहता है। इसके लिए आधुनिकतावादियों ने कहानी में से आख्यान को निकालने की कोशिश की, जिससे कहानी का कहानीपन खत्म हुआ और वह कहानी ही नहीं रही, ‘एंटी-स्टोरी’ (या हिंदी की ‘अकहानी’) बन गयी। उन्होंने कहानी के जो सौंदर्यशास्त्रीय प्रतिमान बनाये, वे कहानी के ही विरुद्ध थे। इसीलिए उन प्रतिमानों के आधार पर की गयी कहानी-समीक्षा में यह प्रश्न कभी नहीं उठाया गया कि कहानीकार को अपनी कहानी की अंतर्वस्तु जिस समाज से मिलती है, उस समाज के प्रति और जिस भाषा में वह कहानी लिखता है, उस भाषा के प्रति और स्वयं कहानी की साहित्यिक विधा के प्रति भी उसका कोई दायित्व होता है या नहीं!
हिंदी में ‘जनवादी कहानी’ ने आधुनिकतावादी ‘नयी कहानी’ और ‘अकहानी’ के आंदोलनों की कमियों, कमजोरियों और गलतियों से काफी कुछ सीखा। उसने स्वयं को जनता और जन-आंदोलनों से जोड़ा। कहानी को सामाजिक परिवर्तन का उपकरण बनाने का प्रयास किया। हिंदी कहानी की समृद्ध परंपरा को पहचाना और उसे आगे बढ़ाने का प्रयास किया। उसी के जरिये हिंदी कहानी, जो एकदम सपाट चेहरे वाले ‘वह’ की बकवास हो गयी थी, ऐसे जीते-जागते लोगों की कहानी बनी, जो अपने नाम-धाम और काम से पहचाने जा सकते थे। और उसी के जरिये कहानी में वह कहानीपन वापस आया, जो ‘नयी कहानी’ और ‘अकहानी’ के आधुनिकतावादियों ने लगभग गायब कर दिया था।
लेकिन देखते-देखते कहानी क्या, दुनिया ही बदल गयी। पूँजीवादी भूमंडलीकरण की प्रचंड आँधी पहले का बहुत कुछ उड़ा ले गयी। यहाँ तक कि सोवियत संघ जैसी ‘महाशक्ति’ भी उसमें ध्वस्त हो गयी और आत्मनिर्भरता की बात करने वाले हमारे देश में निजीकरण तथा उदारीकरण की तेज धूल भरी हवाएँ चलने लगीं, जिनके कारण समाजवाद का सपना तो धूमिल हुआ ही, जनवाद को भी बेकार बताने और बनाने के सिलसिले शुरू हो गये। ‘जनवादी कहानी’ साहित्य में ‘आउट ऑफ फैशन’ हो गयी और ‘जादुई यथार्थवाद’ का नया फैशन चल पड़ा।
ऐसा लगने लगा, जैसे कल तक जो सामाजिक यथार्थ कहानी में आ रहा था, वह किसी जादू के जोर से अचानक गायब हो गया हो! जैसे भूख, गरीबी, बीमारी, बेरोजगारी, शोषण, दमन, उत्पीड़न आदि की समस्याएँ छूमंतर हो गयी हों! शोषक-उत्पीड़क पूँजीपतियों और भूस्वामियों को मानो आम माफी मिल गयी हो और वामपंथी-जनवादी लोग ही कटघरे में खड़े किये जाने लायक रह गये हों! कल तक हिंदी का जो कहानीकार प्रेमचंद, निराला और मुक्तिबोध के नाम जपता हुआ दबे-कुचले, सताये हुए मजदूरों, किसानों और मध्यवर्गीय मेहनतकश स्त्री-पुरुषों को क्रांति का हिरावल दस्ता समझता था, वह मानो गरीब ‘हिंदीवाला’ से अचानक अमीर अंग्रेजी वाला हो गया और किसी ऊँचे आसन पर बैठकर हिंदी के लेखकों पर हिकारत के साथ हँसने लगा। यथार्थ को समझने और बदलने से संबंधित गंभीर चिंताएँ मानो एकाएक ही बेमानी हो गयीं और खिलंदड़ापन ही सबसे बड़ा साहित्यिक मूल्य बन गया। हिंदी के बहुत-से कहानीकार एकदम पलटकर जनोन्मुख से अभिजनोन्मुख हो गये। वे अपनी कहानियों में अभिजनों की-सी भाषा बोलने लगे तथा अभिजनों के प्रिय विषयों पर चटपटी कहानियाँ लिखने लगे।
इसी दौरान यह भी हुआ कि हिंदी के ऐसे बहुत-से लेखक, जो अपसंस्कृति, उपभोक्तावाद और बाजारवाद को तथा इन चीजों से समाज को प्रदूषित करने वाले मीडिया को कोसा करते थे, अचानक मीडिया में छाये रहने में ही अपनी कुशलता और सफलता समझने लगे। वे ‘‘जन-जन तक अपनी बात पहुँचाने’’ के लिए ‘‘बड़े संचार माध्यमों का इस्तेमाल’’ करने की बातें करने लगे और लघु पत्रिकाओं के बारे में कहने लगे कि ये लेखकों द्वारा और लेखकों के लिए ही निकाली जाती हैं, आम जनता तक तो पहुँचती नहीं, इसलिए इनमें लिखना व्यर्थ है! अब यह तो वे ही जानें कि मीडिया का इस्तेमाल उन्होंने किया अथवा मीडिया ने उनका, लेकिन उनके द्वारा लिखी जा रही कहानियों पर मीडिया का असर साफ दिखायी पड़ रहा है। मीडिया हर चीज को सनसनीखेज बनाता है, चाहे वह समाचार हो या विचार, लोगों की जिंदगी हो या उनकी कहानी। वह कहानी को सेक्स, हिंसा और स्केंडलबाजी से ही सनसनीखेज बना सकता था और यही उसने किया। विडंबना यह कि कुछ ही हजार छपने वाली कुछ साहित्यिक पत्रिकाएँ भी बड़े संचार माध्यमों की-सी सनसनीखेज पत्रकारिता करने लगीं। उनमें ऐसी कहानियाँ छपने लगीं, जिनकी साहित्यिक गुणवत्ता या मूल्यवत्ता चाहे अत्यंत संदिग्ध हो, पर उनसे किसी तरह की सनसनी पैदा होती हो!
यहाँ कहानी-समीक्षा एक सार्थक हस्तक्षेप कर सकती थी। लेकिन हिंदी में कहानी की समीक्षा नहीं, सिर्फ चर्चा होती है और चर्चित कहानी को ही अच्छी, श्रेष्ठ, महत्त्वपूर्ण और प्रतिनिधि कहानी मान लिया जाता है। इसलिए हिंदी के कहानीकार चर्चित हो जाने में ही अपनी सफलता समझने लगते हैं। उन्हें कहानी का सार्थक, सोद्देश्य, प्रासंगिक, कलात्मक आदि होना महत्त्वपूर्ण नहीं लगता, महत्त्वपूर्ण लगता है चर्चित होना। और चतुर कहानीकार जानते हैं कि चर्चा कैसी कहानियों की होती है तथा किस प्रकार करायी जाती है। लेकिन ऐसी प्रायोजित चर्चाओं से न तो कहानी आगे बढ़ती है, न कहानी-समीक्षा। आगे बढ़ने के लिए बदलती हुई वर्तमान परिस्थितियों को अतीत और भविष्य के संदर्भ में समझना तथा उनके बीच से आगे जाने का रास्ता निकालना जरूरी है।
आज के हिंदी साहित्य में परिवर्तन तो बहुत हो रहे हैं, लेकिन हर तरह के परिवर्तन विकास और प्रगति के सूचक नहीं होते। अतः उनकी गंभीर समीक्षा अत्यंत आवश्यक है। उदाहरण के लिए, पिछले कुछ ही वर्षों में हमारी साहित्यिक शब्दावली में जो परिवर्तन आये हैं, उन पर विचार करें। साहित्य में तो कोई आंदोलन रहा ही नहीं, जन-आंदोलनों या सामाजिक आंदोलनों के प्रति भी हमारा रवैया किस तरह बदल गया है, इसे हम अपनी साहित्यिक शब्दावली के स्तर पर स्पष्ट देख सकते हैं। ‘आंदोलन’ देखते-देखते ‘विमर्श’ बन गये हैं। स्त्री आंदोलन की जगह स्त्री विमर्श! दलित आंदोलन की जगह दलित विमर्श! आंदोलन की कहानी लिखने के लिए लेखक को आंदोलनकारियों के बीच जाना पड़ता था, उनके सुख-दुख और संघर्ष में शामिल होना पड़ता था, कुछ कष्ट उठाने पड़ते थे, कुछ त्याग और बलिदान करने के लिए भी तैयार रहना पड़ता था; जबकि विमर्श मंचों पर बोलकर या घर में अकेले बैठकर लिखते हुए भी किया जा सकता है। अतः विमर्शों वाली कहानी जन-आंदोलनों से ही नहीं, जन-जीवन से भी कटती जा रही है।
इसी तरह ‘वर्ग’ की जगह ‘जाति’ की बात होने लगी है। ‘जनता’ की जगह ‘अस्मिता’ की बात होने लगी है। ‘सामाजिक संघर्ष’ की जगह ‘पहचान के संकट’ की बात होने लगी है। ‘मुक्ति’ की जगह ‘मान’ की बात होने लगी है। लेकिन इन परिवर्तनों से हासिल क्या हो रहा है? क्या वर्ग को भुलाकर जाति की बात करने से गरीब दलितों का शोषण, दमन और उत्पीड़न बंद हो जायेगा? क्या अलग-अलग अस्मिताओं की बात करने से जनता की समस्याएँ हल हो जायेंगी? क्या अपनी अस्तित्व-रक्षा के लिए सामाजिक संघर्ष करने वालों का अस्तित्व अपनी कोई अलग पहचान बना लेने से बच जायेगा? क्या ‘मुक्ति’ के लिए संघर्ष करने की जगह ‘मान’ की माँग करने से स्त्रियों और दलितों को समाज में आजादी और बराबरी के अधिकार मिल जायेंगे?
यदि नहीं, तो हिंदी कहानी और कहानी-समीक्षा में कहीं कोई ऐसी रचनात्मक या आलोचनात्मक पहल क्यों नहीं हुई, जिससे पता चलता कि सामाजिक समस्याओं के प्रति हमारे दृष्टिकोण में यह भारी परिवर्तन अचानक कैसे और क्यों हो गया? मसलन, क्या स्त्रियों और दलितों की शोषण, दमन और उत्पीड़न से मुक्ति हो चुकी थी कि अब सिर्फ उनके मान-सम्मान का सवाल हल करना ही बाकी रह गया था? यदि नहीं, तो क्या उनकी रोजी-रोटी के सवाल से ज्यादा जरूरी उनके मान-सम्मान का सवाल था? समझ में नहीं आता कि हिंदी की कहानी और कहानी-समीक्षा ने इन बेहद जरूरी सवालों के जवाब खोजने की कोई कोशिश किये बगैर इन परिवर्तनों को क्यों और किस आधार पर स्वीकार कर लिया!
बीसवीं सदी के आठवें दशक में जब हिंदी में प्रगतिशील और जनवादी कहानी का एक नया दौर शुरू हुआ था, ऐसे सवालों पर व्यापक विचार-विमर्श हुआ था, जिससे कहानी-लेखन पर छायी हुई बहुत-सी वैचारिक धुंध साफ हुई थी और नयी सृजनशीलता की दिशाएँ स्पष्ट हुई थीं। उस समय की कहानी ‘नयी कहानी’, ‘अकहानी’, ‘समांतर कहानी’ आदि के नारों और फार्मूलों में कैद थी और कहानीकार ‘अपने जिये-भोगे’ को ‘स्वानुभूत सत्य’ के रूप में व्यक्त करने को ही कहानी लिखना समझते थे। ये नारे और फार्मूले अब बेकार हो चुके थे, अतः उस समय की कहानी से आगे की कहानी की बातें होने लगी थीं। उदाहरण के लिए, 1976 में हिंदी कहानी का पुनर्मूल्यांकन करने के लिए दिल्ली में आयोजित एक संगोष्ठी में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने आगे की कहानी के लिए एक पंचसूत्री कार्यक्रम प्रस्तुत किया था :
1. पश्चिमी फैशनपरस्त अंधानुकरण से बचो।
2. शिल्प को आतंक मत बनाओ।
3. उनके लिए भी लिखो जो अर्द्धशिक्षित हैं और उनके लिए भी जो अशिक्षित हैं, जिन्हें तुम्हारी कहानी पढ़कर सुनायी जा सके।
4. इस देश की तीन-चौथाई जनता की सोच-समझ को वाणी दो, जो वह खुद नहीं कह सकती। और,
5. कहानी को लोककथाओं और ‘फेबल्स’ की सादगी की ओर मोड़ो, उनके विन्यास से सीखो, और उसे आम आदमी के मन से जोड़ो।
जाहिर है, ये बातें इसीलिए कही गयी थीं कि उस समय की हिंदी कहानी में पश्चिमी फैशनपरस्त अंधानुकरण हो रहा था, शिल्प को आतंक बनाया जा रहा था, कहानी केवल शिक्षितों के लिए लिखी जा रही थी, उसमें देश की तीन-चौथाई जनता की सोच-समझ को वाणी नहीं दी जा रही थी और कहानी ऐसे जटिल विन्यास वाली कहानी बनती जा रही थी कि वह आम आदमी के मन से नहीं जुड़ पा रही थी। इन्हीं चीजों के विरुद्ध ‘जनवादी कहानी’ का आंदोलन शुरू हुआ था, जो उस समय के हिसाब से ‘आगे की कहानी’ थी।
क्या आज की हिंदी कहानी में, कुछ बदले हुए रूपों में, कमोबेश यही सब फिर से नहीं हो रहा है? ध्यान से देखें, तो लगेगा कि न केवल हो रहा है, बल्कि और ज्यादा बुरे तथा विकृत रूपों में हो रहा है।
जाहिर है कि ‘जनवादी कहानी’ के बाद हिंदी कहानी उस कार्यक्रम के अनुसार आगे नहीं बढ़ी। इसके विपरीत वह आगे बढ़ी ऐसी दो दिशाओं में, जो इस कार्यक्रम से कहानी को दूर ले जाने वाली थीं। एक दिशा थी ‘‘पश्चिमी फैशनपरस्त अंधानुकरण’’ तथा ‘‘शिल्प को आतंक बनाने’’ वाले कहानी-लेखन की दिशा, जिसमें आगे बढ़कर हिंदी कहानी जादुई यथार्थवादी और उत्तर-आधुनिकतावादी हुई। इस दिशा में जाकर हिंदी कहानी जनोन्मुख होने के बजाय बड़ी बेशर्मी से अभिजनोन्मुख हुई और ‘‘आम आदमी के मन से जुड़ने’’ के बजाय खास आदमियों के मन को मोहने की आकांक्षा से किये जाने वाले बौद्धिकता के व्यापार में बदल गयी। दूसरी दिशा ऊपरी तौर पर हिंदी कहानी को जनोन्मुख बनाने वाली लगती थी, जिसमें आगे बढ़कर हिंदी कहानी स्त्रीवादी और दलितवादी विमर्शों की कहानी बनी। लेकिन वास्तव में यह दिशा कहानी को सेक्स, हिंसा और जातिवादी लेखन के फार्मूलों की ओर ले गयी और कहानी जनोन्मुख होने के बजाय बाजारोन्मुख हो गयी।
‘जनवादी कहानी’ से पहले के फैशनपरस्त कहानीकार पश्चिमी फैशनों का अनुकरण करते थे, तो कम से कम पश्चिम की चीजों को पढ़ते तो थे। आगे चलकर यह हुआ कि उस अनुकरण का ही अनुकरण करते हुए बहुत-सी कहानियाँ लिखी जाने लगीं। ‘जनवादी कहानी’ के बाद शिल्प को पुनः आतंक बनाया जाने लगा। अशिक्षितों और अर्द्धशिक्षितों की तो बात ही क्या, शिक्षितों में भी केवल कुछ प्रभुत्वशाली संपादकों तथा आलोचकों को ध्यान में रखकर कहानियाँ लिखी जाने लगीं। जनता की सोच-समझ को वाणी देने की बात दूर, बहुत-से कहानीकार तो जन, जनता, जनवाद, समाजवाद आदि के नाम से ही बिदकने लगे और स्वयं ‘जन’ होकर भी ‘अभिजनों’ की-सी सोच-समझ के साथ और उन्हीं के लिए कहानी लिखने लगे। ‘सादगी’ या ‘आम आदमी के मन’ से तो कहानी का मानो कोई संबंध ही नहीं रहा। आयातित उच्च प्रौद्योगिकी के साथ आयी और अंधानुकरण के रूप में अपना ली गयी पश्चिमी जीवन-शैली में सादगी कहाँ?
ऐसी स्थिति में आगे बढ़ने के लिए कहानीकारों को यह सोचना होगा कि आज के पूँजीवाद का विकल्प क्या हो सकता है। आज के वैश्विक पूँजीवाद का विकल्प वैश्विक समाजवाद ही हो सकता है। अतः सोचना यह है कि हम उसकी दिशा में कैसे आगे बढ़ें।
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने आगे की कहानी का जो पंचसूत्री कार्यक्रम दिया था, वह अभी अप्रासंगिक नहीं हुआ है। लेकिन आज की नयी परिस्थितियों में वह अपर्याप्त अवश्य लगता है। इसलिए मैं उसमें अपनी तरफ से पाँच सूत्र और जोड़ना चाहता हूँ :
1. चालू विमर्शों की कहानी लिखने से बचो।
2. बदलते हुए यथार्थ को देखो और यथार्थ को बदलने के लिए लिखो।
3. दुनिया भर के उत्कृष्ट कहानी-लेखन से सीखो, पर अपनी कथा परंपरा में और अपनी जनता के लिए लिखो।
4. साहित्य की बदली हुई शब्दावली को आँख मूँदकर मत अपनाओ।
5. वैश्विक पूँजीवाद के विरुद्ध वैश्विक समाजवाद का स्वप्न साकार करने के लिए अच्छी कहानियाँ बेखटके गढ़ो।
--रमेश उपाध्याय