हिन्दी का पुस्तक प्रकाशन भी 'सेलेब्रिटीज' की ओर?
दिवाली के त्यौहार के लिए घर की सफाई करते समय मुझे अपने कुछ पुराने नोट्स मिले। कुछ कागजों पर मैंने आधा-अधूरा-सा कुछ लिख रखा था। कुछ उद्धरण थे, लेकिन उनके सन्दर्भ नहीं थे। ऐसे कागजों को फाड़कर फेंकते समय एक कागज़ पर नज़र पड़ी, जिस पर लिखा था :
"सुबह अखबार में पढा लेख याद आ गया--'बियोंड लेफ्ट एंड राइट'। उसमें लिखा था कि परिस्थिति बदल जाने से बहुत-से वामपंथी मार्क्स, माओ, मंडेला को छोड़कर मैनेजमेंट, मार्केटिंग और मीडिया की तरफ़ चले गए हैं। वाम और दक्षिण का अब कोई मतलब नहीं रह गया है। बहुत-से लेखकों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों ने दलगत राजनीति और उससे सम्बद्ध विचारधाराओं से ही नहीं, बल्कि राजनीति मात्र से ही पल्ला झाड़ लिया है। लेकिन सभी ऐसा नहीं कर रहे हैं। जाक दरीदा मार्क्सवाद के अंत पर पुनर्विचार कर रहा है। ल्योतार उत्तर-आधुनिक नैतिकता पर किताब लिख रहा है। फ्रांस्वा फ्यूरे कम्युनिज्म का अध्ययन कर रहा है। लेकिन तीन-चार दिन पहले मैंने एक और लेख पढा था--'सेलेब्रिटी नोवेल्स'। उसमें लिखा था--'बुक पब्लिशिंग नाउ रिज़म्बल्स हॉलीवुड एंड दि फ़िल्म इंडस्ट्री। इट हैज़ दि सेम रिलेंटलेस सेलेब्रिटी पफ्स, सिनिकल मार्केटिंग प्लोयज़ एंड रूथलेस टैक्टिक्स...'। तभी तो पश्चिम के प्रकाशक एक लेखक की पुस्तकों की चार करोड़ प्रतियाँ तक बेच लेते हैं। इतना बिकने वाला एक लेखक है कैन फालेट, जिसे ब्रिटेन के आलोचक 'शैम्पेन सोशलिस्ट' कहते हैं..."
ये बातें शायद मैंने कोई लेख लिखने की तैयारी करते समय नोट की होंगी। लेकिन कब? याद नहीं। जिन लेखों का यहाँ ज़िक्र है, वे किनके थे, कब और कहाँ छपे थे, यह भी याद नहीं। लेकिन इन बातों को फिर से पढ़ा, तो लगा कि अब हिन्दी का पुस्तक प्रकाशन भी सेलेब्रिटीज की तरफ़ जा रहा है। उसकी शक्ल भी फ़िल्म उद्योग से मिलने लगी है। उसमें भी मार्केटिंग के सिनिकल तौर-तरीके अपनाए जाने लगे हैं और अपनाई जाने लगी हैं 'रूथलेस टैक्टिक्स'। और आज नहीं तो कल, हिन्दी के भी अपने कैन फालेट होंगे! हिन्दी के भी अपने 'शैम्पेन सोशलिस्ट' होंगे!
--रमेश उपाध्याय
Monday, October 19, 2009
Wednesday, October 7, 2009
साहित्य में संबोधन
संबोधन बदलेगा तो संवाद भी बदल जाएगा
साहित्य सबसे पहले एक संवाद है। लेखक का अपने पाठक, श्रोता या दर्शक से होने वाला संवाद। रचना को ध्यान से पढ़ें, तो उसमें दोनों परस्पर संवाद करते दिख जायेंगे और उन्हें सुनकर पता चल जाएगा कि लेखक क्या, क्यों और कैसे कह रहा है।
नन्द भारद्वाज का उपन्यास 'आगे खुलता रास्ता' पढ़ते हुए मुझे लगा कि जब यह उपन्यास राजस्थानी में लिखा गया था, तब यह राजस्थानी पाठक को संबोधित था और अब जब लेखक ने स्वयं इसका हिन्दी में "अनुवाद और पुनर्सृजन" किया है, इसका पाठक बदल गया है। यह आसान नहीं होता कि आप एक व्यक्ति से एक भाषा में कही गई बात दूसरे व्यक्ति से दूसरी भाषा में ज्यों की त्यों कह सकें। ऊपरी तौर पर लग सकता है--जैसा कि अनुवादकों को लगता है--कि एक भाषा में कही गई बात दूसरी भाषा में यथावत कह दी गई है, लेकिन मैं अंग्रेज़ी, गुजराती और पंजाबी से किए गए अनुवादों के अपने अनुभव से जानता हूँ कि हर अनुवाद एक "पुनर्सृजन" ही होता है, क्योंकि रचना मूलतः जिस पाठक को संबोधित होती है, उसके अनुवाद का पाठक उससे भिन्न होता है। अनूदित रचना में लेखक एक दुभाषिये के माध्यम से दूसरी भाषा के पाठक को संबोधित करता है। अब यह दुभाषिये पर निर्भर करता है कि वह लेखक की भाषा में कही हुई बात दूसरी भाषा के पाठक तक कैसे पहुंचाता है। वह उस बात को ज्यों की त्यों दूसरी भाषा में नहीं कह सकता, इसलिए अच्छे से अच्छा अनुवाद भी मूल का लगभग सही रूप ही होता है। अर्थात्, लगभग सदृश, ज्यों का त्यों नहीं। लेखक यदि स्वयं दूसरी भाषा में अनुवाद करता है, तो वह मूल लेखक होने के नाते अपनी रचना का "पुनर्सृजन" करने की--अर्थात् जहाँ ज़रूरत हो, वहाँ उसे फिर से या दूसरे रूप में लिखने की--छूट ले सकता है और अक्सर लेता ही है। नन्द भारद्वाज ने अपने राजस्थानी उपन्यास का हिन्दी अनुवाद करते समय यह छूट इस प्रकार ली है :
"जब इसके अनुवाद का काम हाथ में लिया, तो आरम्भ से ही यह अनुभव करने लगा कि इसके राजस्थानी पाठ में कुछ अंश ऐसे हैं, जिन्हें दुबारा से लिखने की ज़रूरत है। इसके आरम्भ और अंत से भी मैं संतुष्ट नहीं था। पाठ में कसावट की कमी बराबर खलती रही। इस पुनर्सृजन के दौरान मुझे यह भी लगा कि इसकी मूल भाषा और अनुवाद की भाषा की प्रकृति एक-सरीखी नहीं है। जो वाक्य अपनी मूल भाषा में बेहद व्यंजनापरक और असरदार लगता है, उसके यथावत शाब्दिक अनुवाद में वह सारी व्यंजना और चमक खो जाती है। ऐसी सूरत में उस प्रसंग के पूरे वाक्य-विन्यास और अभिव्यक्ति को हिन्दी की प्रकृति के अनुरूप रखने की दृष्टि से मुझे इसका पुनर्सृजन करना बेहतर लगा।"
यह पढ़ते हुए मुझे लगा कि साहित्य को देखने-परखने का एक अच्छा तरीका यह देखना हो सकता है कि रचना में लेखक किस प्रकार के पाठक को संबोधित कर रहा है। इससे लेखक का भाषा-व्यवहार ही नहीं, समाज और जीवन के प्रति उसका दृष्टिकोण भी सामने आ जाता है।
नन्द भारद्वाज ने जो कठिनाई महसूस की, उसका कारण यही था कि उपन्यास को राजस्थानी से हिन्दी में लाने की प्रक्रिया में उनका पाठक बदल गया। हिन्दी के पाठक को वे उसी तरह संबोधित नहीं कर सकते थे, जिस तरह उन्होंने राजस्थानी के पाठक को संबोधित किया था। संबोधन बदला, तो लेखक-पाठक संवाद की, अर्थात् रचना की प्रकृति भी बदल गई।
--रमेश उपाध्याय
साहित्य सबसे पहले एक संवाद है। लेखक का अपने पाठक, श्रोता या दर्शक से होने वाला संवाद। रचना को ध्यान से पढ़ें, तो उसमें दोनों परस्पर संवाद करते दिख जायेंगे और उन्हें सुनकर पता चल जाएगा कि लेखक क्या, क्यों और कैसे कह रहा है।
नन्द भारद्वाज का उपन्यास 'आगे खुलता रास्ता' पढ़ते हुए मुझे लगा कि जब यह उपन्यास राजस्थानी में लिखा गया था, तब यह राजस्थानी पाठक को संबोधित था और अब जब लेखक ने स्वयं इसका हिन्दी में "अनुवाद और पुनर्सृजन" किया है, इसका पाठक बदल गया है। यह आसान नहीं होता कि आप एक व्यक्ति से एक भाषा में कही गई बात दूसरे व्यक्ति से दूसरी भाषा में ज्यों की त्यों कह सकें। ऊपरी तौर पर लग सकता है--जैसा कि अनुवादकों को लगता है--कि एक भाषा में कही गई बात दूसरी भाषा में यथावत कह दी गई है, लेकिन मैं अंग्रेज़ी, गुजराती और पंजाबी से किए गए अनुवादों के अपने अनुभव से जानता हूँ कि हर अनुवाद एक "पुनर्सृजन" ही होता है, क्योंकि रचना मूलतः जिस पाठक को संबोधित होती है, उसके अनुवाद का पाठक उससे भिन्न होता है। अनूदित रचना में लेखक एक दुभाषिये के माध्यम से दूसरी भाषा के पाठक को संबोधित करता है। अब यह दुभाषिये पर निर्भर करता है कि वह लेखक की भाषा में कही हुई बात दूसरी भाषा के पाठक तक कैसे पहुंचाता है। वह उस बात को ज्यों की त्यों दूसरी भाषा में नहीं कह सकता, इसलिए अच्छे से अच्छा अनुवाद भी मूल का लगभग सही रूप ही होता है। अर्थात्, लगभग सदृश, ज्यों का त्यों नहीं। लेखक यदि स्वयं दूसरी भाषा में अनुवाद करता है, तो वह मूल लेखक होने के नाते अपनी रचना का "पुनर्सृजन" करने की--अर्थात् जहाँ ज़रूरत हो, वहाँ उसे फिर से या दूसरे रूप में लिखने की--छूट ले सकता है और अक्सर लेता ही है। नन्द भारद्वाज ने अपने राजस्थानी उपन्यास का हिन्दी अनुवाद करते समय यह छूट इस प्रकार ली है :
"जब इसके अनुवाद का काम हाथ में लिया, तो आरम्भ से ही यह अनुभव करने लगा कि इसके राजस्थानी पाठ में कुछ अंश ऐसे हैं, जिन्हें दुबारा से लिखने की ज़रूरत है। इसके आरम्भ और अंत से भी मैं संतुष्ट नहीं था। पाठ में कसावट की कमी बराबर खलती रही। इस पुनर्सृजन के दौरान मुझे यह भी लगा कि इसकी मूल भाषा और अनुवाद की भाषा की प्रकृति एक-सरीखी नहीं है। जो वाक्य अपनी मूल भाषा में बेहद व्यंजनापरक और असरदार लगता है, उसके यथावत शाब्दिक अनुवाद में वह सारी व्यंजना और चमक खो जाती है। ऐसी सूरत में उस प्रसंग के पूरे वाक्य-विन्यास और अभिव्यक्ति को हिन्दी की प्रकृति के अनुरूप रखने की दृष्टि से मुझे इसका पुनर्सृजन करना बेहतर लगा।"
यह पढ़ते हुए मुझे लगा कि साहित्य को देखने-परखने का एक अच्छा तरीका यह देखना हो सकता है कि रचना में लेखक किस प्रकार के पाठक को संबोधित कर रहा है। इससे लेखक का भाषा-व्यवहार ही नहीं, समाज और जीवन के प्रति उसका दृष्टिकोण भी सामने आ जाता है।
नन्द भारद्वाज ने जो कठिनाई महसूस की, उसका कारण यही था कि उपन्यास को राजस्थानी से हिन्दी में लाने की प्रक्रिया में उनका पाठक बदल गया। हिन्दी के पाठक को वे उसी तरह संबोधित नहीं कर सकते थे, जिस तरह उन्होंने राजस्थानी के पाठक को संबोधित किया था। संबोधन बदला, तो लेखक-पाठक संवाद की, अर्थात् रचना की प्रकृति भी बदल गई।
--रमेश उपाध्याय
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