Wednesday, December 18, 2013

प्रतिसृष्टि

रमेश उपाध्याय की नयी कहानी 

शिखर सुकुमार के नाटक ‘असत्य हरिश्चंद्र’ का विरोध। विरोधियों ने प्रेक्षागृह में घुसकर नारेबाजी, हाथापाई और कुछ तोड़-फोड़ भी की। पुलिस बुलानी पड़ी। गिरफ्तार किये गये लोगों के नेता ने कहा कि इस नाटक में सत्यवादी हरिश्चंद्र का मजाक उड़ाकर भारतीय संस्कृति का अपमान किया गया है। सरकार को इस नाटक पर अविलंब प्रतिबंध लगाना चाहिए।

कल इसी अखबार में नाटक की समीक्षा छपी थी, जिसमें नाटक को ‘‘पौराणिक कथा के ढाँचे में वर्तमान के यथार्थ को हास्य-व्यंग्य की शैली में मनोरंजक ढंग से सामने लाने वाला नाटक’’ बताते हुए लेखक की प्रशंसा की गयी थी कि ‘‘शिखर सुकुमार एक दलित लेखक होने के बावजूद वेदों और पुराणों के अध्येता तथा संस्कृत नाटकों और महाकाव्यों के मर्मज्ञ हैं’’। लेकिन आज उस पर ‘‘अविलंब प्रतिबंध’’ लगाने की माँग करने वाले समाचार के साथ-साथ ‘बॉक्स आइटम’ बनाकर बड़े ध्यानाकर्षक ढंग से यह भी छापा गया था कि ‘‘दलित लेखकों ने पल्ला झाड़ा: शिखर सुकुमार को ब्राह्मणवादी लेखक बताया’’।

रविवार की छुट्टी का दिन था। सुबह के आठ बज चुके थे, लेकिन जय और विजय अभी तक अपने कमरे में सोये पड़े थे। मैं और प्रभा सुबह की ताजी हवा और खुशनुमा धूप का आनंद लेते हुए बालकनी में बैठे चाय पी रहे थे और अखबार पढ़ रहे थे। मैंने हिंदी अखबार में छपा समाचार पढ़कर प्रभा से कहा, ‘‘देखना, सुकुमार जी के नाटक के बारे में अंग्रेजी में भी कुछ छपा है क्या?’’

‘‘क्यों, क्या हो गया?’’ पूछकर प्रभा अंग्रेजी अखबार के पन्ने पलटने लगी और अगले ही क्षण चौंककर बोली, ‘‘हें, यह क्या?’’

अंग्रेजी अखबार में भी प्रदर्शनकारियों को पकड़कर ले जाती पुलिस का वैसा ही चित्र छपा था, लेकिन समाचार कुछ भिन्न था। विरोध-प्रदर्शन करने वालों के द्वारा नाटक पर प्रतिबंध लगाने की माँग की खबर तो थी, लेकिन दलित लेखकों द्वारा शिखर सुकुमार को ब्राह्मणवादी लेखक बताये जाने की खबर उसमें नहीं थी। हाँ, उसमें नाटक की सराहना उसे ‘‘पुरानी कहानी का नया कॉमिक रूप’’ और ‘‘हिलेरियस कॉमेडी’’ बताते हुए अलग से की गयी थी।

मैंने शिखर सुकुमार को फोन करने के लिए मोबाइल उठाया, लेकिन नंबर मिलाने के पहले ही वह बजने लगा।
रामाधार ठाकुर का फोन था। एक प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित पत्रिका के प्रधान संपादक रामाधार ठाकुर का, जो पत्रकार ही नहीं, प्रसिद्ध साहित्यकार भी हैं।

‘‘अहा, रामाधार जी, नमस्कार! कहिए, सुबह-सुबह कैसे याद किया?’’

‘‘चंडीप्रसाद जी, आपसे एक निवेदन करना था।’’

‘‘आज्ञा कीजिए।’’

‘‘क्या बात करते हैं! आप इतने बड़े लेखक हैं, उम्र में भी मुझसे बड़े हैं, मैं आपको आज्ञा दूँगा?’’

‘‘फिर भी। आप संपादक ठहरे और मैं लेखक!’’ मैंने हँसते हुए कहा।

लेकिन रामाधार ठाकुर विनम्रता के साथ बोले, ‘‘आपको पता नहीं, चंडीप्रसाद जी, मैं आपका पुराना पाठक और प्रशंसक हूँ। आपकी पुस्तक ‘शिखर सुकुमार: एक औघड़ साहित्यकार’ मैंने खरीदकर पढ़ी थी और वह आज भी मेरे पास है। सुकुमार जी मेरे प्रिय लेखक हैं और आपने उन पर इतनी अच्छी किताब लिखी है, इसलिए आप भी मेरे प्रिय लेखक हैं...’’

‘‘मैं भी आपका प्रशंसक हूँ, रामाधार जी! आपके पत्रकार और साहित्यकार दोनों रूपों का। खैर, बताइए, क्या बात है?’’

‘‘सुकुमार जी का नया नाटक ‘असत्य हरिश्चंद्र’ आपने देख लिया होगा...?’’

‘‘अभी नहीं देखा, लेकिन देखना है।’’

‘‘तब तो मेरा निवेदन है कि आप उसे आज ही देख लें। उस पर कुछ विवाद छिड़ गया है।’’

‘‘हाँ, मैंने अभी-अभी अखबार में पढ़ा...लेकिन कारण समझ में नहीं आया। किस्सा क्या है?’’

‘‘कल का किस्सा तो इतना ही है कि शाम के शो में कुछ उपद्रवी लोगों ने हॉल में घुसकर नाटक बंद कराने की कोशिश की। मौके पर पहुँची पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। दर्शकों के हित में अच्छी बात यह रही कि तकरीबन आधे घंटे के इस व्यवधान के बावजूद वे पूरा नाटक देख पाये। लेकिन आज क्या होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। हो सकता है, आज और आगे के शो कैंसिल हो जायें, या नाटक पर प्रतिबंध ही लग जाये। इसलिए मेरा निवेदन है कि आप आज ही और पहला ही शो देख लें और हमारी पत्रिका के लिए उसकी समीक्षा लिख दें।’’

‘‘ठीक है, मैं आज ही देख लूँगा।’’ मैंने कहा, ‘‘समीक्षा कब तक लिखकर देनी होगी?’’

‘‘पत्रिका, आप जानते हैं, पाक्षिक है। अगला अंक आने में अभी दस दिन हैं। इसलिए आप आराम से एक सप्ताह का समय ले सकते हैं। बाकी टिकट वगैरह की चिंता आप न करें। दफ्तर की गाड़ी आपको लेने आ जायेगी और शो के बाद आपको वापस घर पहुँचा देगी। गाड़ी में ड्राइवर के अलावा दो लोग और रहेंगेµएक रिपोर्टर, एक फोटोग्राफर। अगर कोई गड़बड़ी हुई, तो वे एक तरह से आपके अंगरक्षक भी होंगे।’’

‘‘क्या इतना खतरा है?’’

‘‘घबराइए नहीं। मजाक कर रहा हूँ। मामला मीडिया में उछल गया है, इसलिए फुटेज चाहने वाले नेता लोग विरोध-प्रदर्शन तो जरूर करेंगे। लेकिन पुलिस का बंदोबस्त भी तगड़ा होगा। लगता तो नहीं कि कोई गड़बड़ी होगी, फिर भी सावधानी तो हमें बरतनी ही चाहिए। आप नि¯श्चत रहें, आपकी सुरक्षा हमारी जिम्मेदारी है। बस, दुआ करें कि आज का पहला शो कैंसिल न हो। छुट्टी का दिन है। आप घर पर ही रहें। शो तीन बजे शुरू होगा, गाड़ी दो बजे आपके घर पहुँच जायेगी। ठीक है?’’

‘‘जी, रामाधार जी, ठीक है। मैं दो बजे तैयार मिलूँगा।’’

खतरे वाली बात सुनकर प्रभा चौकन्नी हो गयी थी। मैंने ज्यों ही फोन रखा, उसने पूछा, ‘‘क्या बात है? कहाँ जाना है?’’

मैंने पूरी बात उसे बता दी। उपद्रव की आशंका और अंगरक्षकों वाली बात सुनकर वह डर गयी। बोली, ‘‘कोई जरूरत नहीं इस तरह जान जोखिम में डालने की! फौरन फोन उठाओ और मना कर दो।’’

मैंने चाय की एक चुस्की ली, प्याला नीचे रखा और फोन उठा लिया। प्रभा मुझे अपने आदेश का पालन करते देख संतुष्ट-सी होकर बच्चों को जगाने चली गयी। लेकिन मैंने रामाधार ठाकुर का नहीं, शिखर सुकुमार का नंबर मिलाया।

अपने फोन पर मेरा नंबर देखते ही उन्होंने कहा, ‘‘हाँ, चंडीप्रसाद! कैसे हो?’’

‘‘मैं तो ठीक हूँ, गुरुजी, लेकिन आपने यह क्या बवाल खड़ा कर दिया?’’

‘‘सवाल उठेंगे, तो बवाल भी खड़े होंगे।’’ कहकर उन्होंने ठहाका लगाया।

‘‘ऐसा क्या सवाल उठा दिया आपने?’’

‘‘इसका मतलब है, तुमने नाटक अभी तक देखा नहीं है!’’

‘‘आज जा रहा हूँ देखने। पहला ही शो।’’

‘‘तो ठीक है, नाटक देखने के बाद बात करना। मैं वहीं मिलूँगा।’’ कहकर उन्होंने फोन काट दिया।

प्रभा बच्चों के कमरे से निकलकर रसोईघर की तरफ जा रही थी, लेकिन उसके कान शायद मेरी तरफ ही लगे हुए थे। शिखर सुकुमार से बात करके ज्यों ही मैंने फोन रखा, उसने ठिठककर पूछा, ‘‘मना कर दिया न?’’

मैंने झूठ बोला, ‘‘वे नहीं मान रहे। नाटक देखने जाना ही पड़ेगा।’’

प्रभा कुछ और कहे, इसके पहले ही मैंने कहा, ‘‘डरो मत। दो अंगरक्षक मेरे साथ रहेंगे। मामला मीडिया में उछल गया है, इसलिए प्रशासन भी चुस्त हो गया होगा। वहाँ पुलिस का अच्छा बंदोबस्त होगा। डरने की कोई बात नहीं है।’’

‘‘मेरी कोई बात मत सुनना!’’ प्रभा ने गुस्से में पैर पटककर जाते हुए कहा, ‘‘हमेशा अपने ही मन की करना!’’

उसके जाते ही बड़े बेटे जय ने आकर मुझसे पूछा, ‘‘पापा, आप हमारे साथ टी.वी. देखेंगे या घूमने जायेंगे?’’

रविवार की सुबह जय और विजय दोनों नियम से टी.वी. देखते हैं। प्रभा नाश्ते और दोपहर के खाने की तैयारी में लगती है और मैं कभी बाहर घूमने चला जाता हूँ, कभी बच्चों के साथ टी.वी. देखने बैठ जाता हूँ।

‘‘तुम लोग देखो, मैं तो आज घूमने जाऊँगा।’’ मैंने अपनी चाय खत्म की और अपने ही बनाये नियम के अनुसार अपना जूठा प्याला स्वयं धोकर रखने के लिए रसोईघर में जा पहुँचा।

प्रभा की नाराजगी दूर करने के लिए मैंने कहा, ‘‘घूमने जा रहा हूँ। बाजार से कुछ लाना है?’’

प्रभा ने उत्तर नहीं दिया, तो मैंने पीछे से उसके कंधों पर दोनों हाथ रखते हुए कहा, ‘‘गुस्सा मत करो। नि¯श्चत रहो, मुझे कुछ नहीं होगा। यह सोचो कि तुम्हारा पति अचानक कैसा वी.आइ.पी. बन गया है! इतना बड़ा संपादक खुद फोन करके अपनी पत्रिका में लिखने के लिए कह रहा है। आने-जाने के लिए गाड़ी भेज रहा है। साथ में दो अंगरक्षक भी। कभी सुने हैं किसी हिंदी लेखक के ऐसे ठाठ? फिर, शिखर सुकुमार के नाटक पर लिखने का अवसर मिल रहा है। सो भी एक विवादास्पद नाटक पर लिखने का अवसर। नाटक तो चर्चित होगा ही, लगे हाथ नाट्य समीक्षक के भी चर्चित हो जाने का अच्छा अवसर है!’’

‘‘तो ठीक है! जाओ, बनो अवसरवादी, हमें क्या!’’ प्रभा ने अपने कंधों पर से मेरे हाथ हटाते हुए कहा। उसके स्वर और स्पर्श से मैं समझ गया कि उसकी नाराजगी दूर हो गयी है।




पब्लिक पार्क में घूमते समय मैं सोचता रहा कि शिखर सुकुमार ने आखिर ऐसा क्या लिख दिया होगा, जिस पर इतना बखेड़ा खड़ा हो गया है। अचानक मुझे उनकी एक बात और उनसे अपनी पहली मुलाकात याद आ गयी।

यह तब की बात है, जब मैंने पीएच.डी. के लिए अपना शोधकार्य शिखर सुकुमार के नाटकों पर करने का निश्चय किया था। संयोग से मेरे शोध निर्देशक प्रोफेसर डी.के. राय भी शिखर सुकुमार के मित्र और प्रशंसक थे। उन्होंने मुझसे कहा कि काम शुरू करने से पहले उनके नाटकों को अच्छी तरह पढ़ लो और एक बार उनसे मिल भी लो। मैंने प्रोफेसर राय को बताया कि सुकुमार जी के तीनों नाटक मैं पढ़ चुका हूँ और पढ़कर बहुत प्रभावित हुआ हूँ, तो उन्होंने प्रसन्न होकर अपने मित्र का फोन मिलाकर कहा, ‘‘सुुकुमार, मेरे एक शोधछात्र चंडीप्रसाद तुम्हारे नाटकों पर काम कर रहे हैं। वे तुमसे मिलना चाहते हैं। उन्हें तुम्हारे पास कब भेजूँ?’’

निर्धारित तिथि और समय पर मैं सुकुमार से मिलने गया, तो मन में एक भय-सा था। इतने बड़े साहित्यकार हैं, मुझसे उन्होंने कुछ पूछा और मैं जवाब न दे पाया, तो? कहीं मुझे डाँटकर भगा न दें। इसलिए जब मैंने उनके दरवाजे की घंटी बजायी, तो घंटी के स्विच पर मेरी उँगली काँप रही थी।

एक अधेड़ आदमी ने दरवाजा खोला, जो नीले चारखाने की लुंगी और सफेद बनियान पहने हुए था। साँवले रंग के, स्वस्थ शरीर वाले, लंबे कद के उस आदमी के सिर के खिचड़ी बालों में से गंजापन दिख रहा था। मुझे उसका चौड़ा माथा गंजेपन में जा मिलने से कुछ ज्यादा ही चौड़ा लगा। ठक् से मेरी चेतना में कहीं पढ़ा हुआ एक शब्द आ टकरायाµप्रशस्त ललाट! मैंने देखा, उस आदमी की दाढ़ी-मूँछ सफाचट थीं और काले रंग के मोटे फ्रेम के चश्मे में से उसकी छोटी-छोटी पैनी आँखें मुझसे पूछ रही थीं--कहिए?

‘‘सर, मैं चंडीप्रसाद पंडित, मुझे...’’

‘‘आइए, आइए। देवेंद्र ने, मतलब आपके प्रोफेसर डी.के. राय ने आपको भेजा है न?’’

‘‘जी, सर!’’ कहते हुए मैं उनके पैर छूने के लिए झुका।

‘‘नहीं-नहीं।’’ कहते हुए शिखर सुकुमार पीछे हट गये, ‘‘मैं पैर छूना-छुआना पसंद नहीं करता।’’ फिर मुझे सोफे पर बैठने के लिए कहकर मेरे सामने बैठते हुए उन्होंने व्यंग्यपूर्ण मुस्कान के साथ कहा, ‘‘वैसे भी मैं शूद्र, आप ब्राह्मण। आप से पैर छुआकर मैं नरक में जाऊँ न जाऊँ, आपका धर्म तो भ्रष्ट हो ही जायेगा न!’’

‘‘क्षमा करें, सर, आपके नाटकों को पढ़कर तो लगता है कि आप जात-पाँत और छुआछूत कुछ नहीं मानते। आप साहित्यकार हैं, मेरे गुरुजी के मित्र हैं, गुरु समान हैं, आपके पैर छूना मेरा धर्म है। और जहाँ तक स्वर्ग और नरक में जाने की बात है, आपने अपने नाटक ‘देवासुर संग्राम’ में लिखा है कि ये तो कपोल कल्पनाएँ हैं। स्वर्ग राजा द्वारा प्रजा को लुभाने के लिए दिखाये जाने वाले सब्जबाग की कल्पना है और नरक उसे डराने के लिए दिखाये जाने वाले यातनागृह की कल्पना!’’

‘‘अरे वाह! लगता है, आप खासी तैयारी करके मुझसे मिलने आये हैं!’’ सुकुमार प्रसन्न होकर हँसते हुए बोले, ‘‘देवेंद्र ने मुझे बता दिया था कि आप वामपंथी छात्र संगठन में सक्रिय रहे हैं। ऐसा माना जाता है कि वामपंथी लोग जात-पाँत नहीं मानते। लेकिन मैं ऐसे कई वामपंथियों को जानता हूँ, जो बातों में मार्क्सवादी और व्यवहार में ब्राह्मणवादी होते हैं। इसलिए मैंने सोचा कि पानी पिलाने से पहले आपको अपनी जात बता दूँ!’’

‘‘तो पहले पानी ही पिला दीजिए, सर! बस स्टैंड से आपके घर का पता पूछता पैदल चला आ रहा हूँ और बाहर बड़ी तेज धूप और गर्मी पड़ रही है।’’

‘‘अभी लाया।’’ कहकर सुकुमार घर के अंदर चले गये।

जब तक वे पानी लेकर आये, मैं उनकी बैठक को देखता रहा। एक तरफ सोफा सेट। दूसरी तरफ डाइनिंग टेबल। एक कोने में टेलीफोन। दूसरे कोने में टेलीविजन। एक दीवार में बनी बड़ी खिड़की के बंद शीशों के पार धूप में चमकते नीम और जामुन के पेड़। दूसरी लंबी दीवार पर लेटे हुए बुद्ध की विशाल प्रतिमा का बहुत बड़ा फोटोग्राफ। सोफों के बीच छोटी मेज की शीशे वाली टॉप पर खुली हुई मगर औंधाकर रखी हुई एक पुस्तक, जिसके नीले आवरण पर छपा नाम पढ़ने में आ रहा था--‘सोशल मूवमेंट्स इन इंडिया’। कमरे में ए.सी. की ठंडक थी, लेकिन ए.सी. कहीं दिखायी नहीं दे रहा था।

थोड़ी देर बाद सुकुमार अंदर आये। उनके एक हाथ में पानी का गिलास था और दूसरे में फ्रिज से निकाली गयी ठंडे पानी की बोतल। पीछे-पीछे एक ट्रे में लाल शर्बत के चार गिलास लिये उनकी पत्नी दमयंती जी आयीं और उनके पीछे मिठाई और नमकीन की ट्रे उठाये उनका युवा बेटा अतुल।

बातों-बातों में पता चला कि दमयंती जी एक सरकारी दफ्तर में बड़ी अधिकारी हैं और अतुल दिल्ली विश्वविद्यालय में एम.ए. मनोविज्ञान का छात्र। सुकुमार कोई नौकरी नहीं करते, ‘शिखर’ नामक अपनी एक नाट्य संस्था चलाते हैं और उसकी गतिविधियों में व्यस्त रहते हैं। आज छुट्टी का दिन होने से तीनों एक साथ दोपहर के समय घर में हैं, अन्यथा इस समय घर अक्सर बंद ही रहता है।

फिर जब बातों का सिलसिला शुरू हुआ, तो दोपहर के भोजन के समय तक चलता चला गया। मेरे बहुत ना-ना करने पर भी सुकुमार ने, और उनसे भी अधिक दमयंती जी ने, आग्रहपूर्वक मुझे अपने साथ बिठाकर भोजन कराया। भोजन करते समय मैंने मजाक में कहा, ‘‘आज तो आप लोगों ने एक ब्राह्मण का धर्म पूरी तरह भ्रष्ट कर दिया!’’

‘‘लेकिन सावधान!’’ दमयंती जी ने अपने पति की ओर संकेत करते हुए कहा, ‘‘ये कहीं आपकी बुद्धि भी भ्रष्ट न कर दें! ये अपने ढंग के एक ही हैं। जहाँ लाभ की संभावना हो, वहाँ नहीं जायेंगे; लेकिन जहाँ हानि की आशंका हो, वहाँ जरूर जायेंगे! दलित हैं, लेकिन आरक्षण के विरोधी हैं। खुद तो आरक्षण का कभी कोई लाभ नहीं ही उठाया, अतुल को भी नहीं उठाने दिया। अपनी तरह इसे भी जनरल कैटेगरी में डाल रखा है। मेरी पढ़ाई, नौकरी और पदोन्नति आरक्षण के आधार पर हुई है, सो मुझे कोटे वाली कहकर चिढ़ाते रहते हैं। नाटक ऐसे लिखते हैं कि विरोध हो, बवाल मचे, प्रशंसा की जगह इनकी पिटाई हो! दूसरे लोग पैसा कमाने और पुरस्कार वगैरह पाने के लिए थियेटर करते हैं। इन्होंने अपनी संस्था के लिए किसी भी तरह की फंडिंग लेने से इनकार कर रखा है!’’

सुकुमार ने उनकी बात का उत्तर एक हल्की हँसी से देकर मुझसे कहा, ‘‘निंदक नियरे राखिए!’’

हँसी-खुशी भोजन समाप्त हुआ, तो दमयंती जी और अतुल अपने-अपने कमरे में आराम करने चले गये। बैठक में सुकुमार और मैं ही रह गये, तो उन्होंने हिंदी में होने वाले शोधकार्यों का मजाक-सा उड़ाते हुए कहा, ‘‘हाँ, भई, अब बताइए, क्या खोजना चाहते हैं आप मेरे नाटकों में?’’

‘‘सर, मेरे शोध का विषय है ‘शिखर सुकुमार के नाटकों में पौराणिक मिथकों का उपयोग’।’’

‘‘सिरे से गलत!’’ उन्होंने हँसते हुए कहा। लेकिन अगले ही क्षण गंभीर होकर बोले, ‘‘मैं अपने नाटकों में मिथकों का उपयोग नहीं करता, बल्कि उन्हें तोड़ने का काम करता हूँ। मिथक समाज की किसी व्यवस्था को बनाये रखने के लिए गढ़े और बनाये रखे जाते हैं। यथास्थितिवादी साहित्य में मिथकों का उपयोग इसी उद्देश्य से किया जाता है। लेकिन समाज की व्यवस्था में बदलाव चाहने वाले यथार्थवादी साहित्य में बने-बनाये मिथकों को तोड़ा जाता है। मसलन, अपने नाटक ‘आरण्यक’ में मैंने राम के ईश्वरीय मिथक को तोड़ा है। मैंने राम को साधारण मनुष्य बना दिया है। राम उसमें जंगलों को जलाकर कृषि योग्य भूमि पाना चाहने वाली कृषि-आधारित सामाजिक व्यवस्था का नायक है, जबकि रावण जंगलों में रहने वाली आदिवासी जनजातियों का नायक। एक पक्ष को जंगल जलाकर खेती के लिए जमीन चाहिए, तो दूसरे पक्ष के लिए जंगल ही जीवन का आधार है। यही है राम-रावण युद्ध का कारण। राम का पक्ष प्रबल है, क्योंकि उसमें जंगल में रहने वाली जनजातियों को ही नहीं, रावण के भाई विभीषण तक को अपने पक्ष में मिला लेने की और शत्रु पक्ष को कमजोर कर देने की क्षमता है। राम के पास अपनी कोई सेना नहीं थी। जंगल के मूल निवासियों को संगठित करके उसने अपनी सेना बनायी, जो रावण की सेना पर भारी पड़ी। इस प्रकार मैंने राम-रावण युद्ध को पौराणिक संदर्भ से निकालकर ऐतिहासिक संदर्भ से जोड़ दिया है।’’

‘‘ऐतिहासिक संदर्भ?’’ मैंने चकित होकर पूछा।

‘‘कैसे वामपंथी हो, भाई? मोड ऑफ प्रोडक्शन जानते हो न? उत्पादन का तरीका! राम-रावण का युद्ध उत्पादन के दो तरीकों की लड़ाई है। पुराना तरीका है जंगलों में रहकर शिकार और आहार संग्रह करना। नया तरीका है जंगल जलाकर खेती करना। पुराने तरीके पर नये तरीके की विजय होती है। यह ऐतिहासिक संदर्भ है। समझे?’’

मेरे लिए यह व्याख्या बिलकुल नयी थी, जिसे मैं समझ नहीं पाया था, इसलिए मैंने नासमझी के साथ कहा, ‘‘जी!’’

सुकुमार हँस पड़े, ‘‘वाह! जो बात मेरी समझ में दसियों साल इतिहास-पुराण खँगालने पर आयी, उसे आप दो मिनट में समझ गये? घर जाइए, मेरे नाटक को फिर से पढ़िए, नये सिरे से उस पर सोचिए, तब फिर आकर बताइए कि क्या समझे!’’

मैं उठ खड़ा हुआ, लेकिन चलते-चलते ठिठककर मैंने पूछा, ‘‘मगर, सर, मेरे शोध का विषय तो आपके नाटकों में पौराणिक मिथकों का ‘उपयोग’ है। उसमें मिथकों को ‘तोड़ने’ की बात कैसे...?’’

‘‘यह आपकी समस्या है। एक लेखक के रूप में मेरा कहना यह है कि अगर आप किसी नये या पुराने मिथक को ध्वस्त नहीं कर सकते, तो आप सृजनशील लेखक नहीं हैं; क्योंकि सृजन का तो अर्थ ही है पुराने का ध्वंस और नये का निर्माण!’’



धूप तेज होने लगी थी। मैंने पब्लिक पार्क से निकलकर घर की ओर कदम बढ़ाये ही थे कि सड़क पर पत्रकार प्रभात अपनी कार में जाते दिखायी दिये। उन्होंने शायद मुझे नहीं देखा और मैं उनकी ओर अभिवादन में हाथ हिलाता रह गया।

उन्हें देखकर मुझे सुकुमार के नाटक ‘आरण्यक’ पर हुए हिंसक विवाद की याद आ गयी। ‘आरण्यक’ के प्रदर्शन बरसों से होते आ रहे थे, लेकिन उस बार उसके शो फिर से शुरू किये गये, तो न जाने कैसे भारतीय संस्कृति की रक्षा के कुछ ठेकेदारों की भावनाएँ भड़क गयी थीं और उन्होंने सुकुमार पर लगभग जानलेवा हमला करके उन्हें बुरी तरह घायल कर दिया था। इलाज कराने के लिए सुकुमार को कई दिन तक एक अस्पताल के प्राइवेट वार्ड में कमरा लेकर रहना पड़ा था। जब अतुल को कॉलेज और दमयंती जी को अपने दफ्तर जाना होता, तो मैं अस्पताल जाकर उनकी देखभाल किया करता था।

एक दिन प्रभात सुकुमार का साक्षात्कार लेने आये थे। सुकुमार के शरीर पर पट्टियाँ बँधी हुई थीं। वे बिस्तर पर तकियों के सहारे अधलेटे-से बैठे थे। उनके सिरहाने की तरफ रखी कुर्सी पर बैठे प्रभात ने टेपरिकॉर्डर चालू करके अपने और उनके बीच रख दिया था। बातचीत कुछ-कुछ इस तरह हुई थी :

प्रभात: लोग कह रहे हैं कि आप पर जो हमला हुआ, उसके लिए आप स्वयं ही जिम्मेदार हैं।

सुकुमार: जाहिर है कि मैं ही जिम्मेदार हूँ।

प्रभात: यानी हमला हुआ तो ठीक हुआ? हमलावर सही थे?

सुकुमार: मैं ठीक-बेठीक और सही-गलत की बात नहीं कर रहा हूँ। इसका फैसला तो मेरे नाटक के दर्शकों, समीक्षकों और आप पत्रकार लोगों को करना है। या फिर कोर्ट-कचहरी वालों को। मैं केवल यह कह रहा हूँ कि मैंने नाटक में जो लिखा है, पूरे होशो-हवास में और अपने विचार से बिलकुल ठीक मानते हुए लिखा है। हमले से डरकर मैं उसे बदलने वाला या उसके लिए पछताने वाला नहीं हूँ।

प्रभात: लेकिन आप पर आरोप है कि ‘आरण्यक’ में आपने रामकथा को बिलकुल बदल दिया है। राम को ईश्वर से साधारण मनुष्य बना दिया है।

सुकुमार: इसमें आरोप क्या है? यह तो सच है। मैंने ऐसा ही किया है और जान-बूझकर किया है।

प्रभात: लेकिन अगर इससे राम को भगवान मानने वालों की भावनाएँ आहत होती हैं, तो?

सुकुमार: तो क्या? उनकी भावनाओं की अभिव्यक्ति को आप मेरे शरीर पर लगी चोटों के रूप में देख ही रहे हैं।

प्रभात: अर्थात् जन-भावनाओं का आदर करते हुए आप अपने नाटक में कोई परिवर्तन करने को तैयार नहीं हैं?

सुकुमार: जी, नहीं। राम हजारों साल से साहित्य में चित्रित होते आ रहे एक चरित्र हैं। हर साहित्यकार उन्हें अपने ढंग से चित्रित करता है। मैंने भी यही किया है। और यह मेरा अधिकार है। आपको शायद मालूम होगा कि रामकथा कोई एक ही या एक-सी चीज नहीं है। उसके विभिन्न रूप हैं और उसमें रामकथा की घटनाएँ और पात्र विभिन्न रूपों में चित्रित हुए हैं।

प्रभात: अच्छा, आप दलित होते हुए भी पौराणिक विषयों पर क्यों लिखते हैं?

सुकुमार: क्या किसी दलित को पौराणिक विषयों पर लिखने का अधिकार नहीं है?

प्रभात: इन विषयों पर लिखने के कारण दलित लेखक आपको दलित नहीं, ब्राह्मणवादी लेखक मानते हैं।

सुकुमार: यह उनकी समस्या है।

प्रभात: आप पर इतना भयानक हमला हुआ और दलित लेखक आपके समर्थन में खड़े नहीं हुए, इसकी वजह क्या आपका ब्राह्मणवादी होना नहीं है?

सुकुमार: मैं नहीं जानता।

प्रभात: लेकिन जो लोग आपको अच्छी तरह जानते हैं...

सुकुमार: वे कौन हैं, जो मुझे अच्छी तरह जानते हैं? अच्छी तरह जानने का मतलब होता है पूरी तरह जानना। किसी को अच्छी तरह जानने का दावा करने वालों के पास उसके बारे में अक्सर बहुत कम और आधी-अधूरी जानकारी होती है। अब, अगर कोई गीली मिट्टी हाथों में लेकर उसका एक गोला बनाये और आपसे कहे कि यह पृथ्वी है और मैं इसे अच्छी तरह जानता या जानती हूँ, तो क्या आप मान लेंगे कि मिट्टी का वह गोला सचमुच पृथ्वी है और उस व्यक्ति का उसे जानने का दावा सही है?

प्रभात: आप तो बाल की खाल निकालने लगे!

सुकुमार: नहीं, मैं आपसे एक ठोस प्रश्न पूछ रहा हूँ। अपने हाथों बनाये मिट्टी के गोले को पृथ्वी बताने वाला आदमी क्या सचमुच पृथ्वी को जानता है? क्या बड़े से बड़ा भूगोलवेत्ता, खगोलवेत्ता और भूगर्भवेत्ता भी यह दावा कर सकता है कि वह पृथ्वी को पूरी तरह जानता है? पृथ्वी की बात छोड़िए, आप अपने हाथों बनाये मिट्टी के गोले के बारे में ही कितना जानते हैं? उसमें कौन-सी मिट्टी है और किस प्रकार की? उसमें कितने कण हैं और कितने अणु-परमाणु? उसमें कितने ठोस, द्रव और गैसीय तत्त्व हैं? उसमें कौन-कौन-से भौतिक, जैविक और रासायनिक पदार्थ हैं?

प्रभात: यह कुतर्क है, जिसके सहारे आप बातचीत से बचना या साक्षात्कार से इनकार करना चाह रहे हैं। आपके इस कुतर्क को ही आगे बढ़ाते हुए कहूँ, तो क्या पृथ्वी स्वयं को जानती है? या मिट्टी का एक गोला ही स्वयं को जानता है?

सुकुमार: पता नहीं, लेकिन मैंने पृथ्वी को या मिट्टी के किसी गोले को स्वयं को अच्छी तरह जानने का दावा करते नहीं देखा। हम पृथ्वी को पृथ्वी और ढेले को ढेला कहते हैं। लेकिन क्या हम जानते हैं कि पृथ्वी स्वयं को पृथ्वी मानती है या ढेला स्वयं को ढेला मानता है?

प्रभात: अच्छा, आप बताइए, आप खुद को क्या मानते हैं?

सुकुमार: एक लेखक, एक नाटककार।

प्रभात: सफल या असफल?

सुकुमार: पता नहीं।

प्रभात: आप स्वयं को किसी भी प्रतिस्पर्धात्मक दौड़ से बाहर क्यों कहते हैं?

सुकुमार: इसलिए कि मैं सचमुच किसी दौड़ में शामिल नहीं हूँ।

प्रभात: अच्छा, आपके प्रशंसक भी आपको औघड़ साहित्यकार कहते हैं। क्या यह आपको ठीक लगता है?

सुकुमार: ठीक? मैं तो यह भी नहीं जानता कि औघड़ शब्द का अर्थ क्या होता है!

मेरे सामने हुई इस बातचीत के वर्षों बाद जब मैं अपनी पहली पुस्तक ‘शिखर सुकुमार : एक औघड़ साहित्यकार’ की पहली प्रति भेंट करने गया था, तब मुझसे भी उन्होंने व्यंग्यपूर्वक मुस्कराते हुए पूछा था, ‘‘औघड़ का क्या अर्थ होता है?’’

और मैंने उनसे पूछा था, ‘‘सर, धृष्टता क्षमा करें, कई बार जी में आया कि आपसे आपके नाम के बारे में पूछूँ। यह नाम आपने स्वयं रखा है या...?’’

‘‘पहला आधा मेरे पिता का रखा हुआ है और दूसरा आधा मैंने खुद रखा है। वैसे मेरा नाम था शिखर दुसाध। दुसाध जाति का होने के कारण। लेकिन वेद, पुराण और संस्कृत साहित्य के आधुनिक व्याख्याकार मेरे गुरु कमलाकर जी ने मुझे पढ़ाना शुरू करते ही मेरा नाम बदल दिया। दुसाध की जगह दुस्साध्य। मुझे न दुसाध पसंद था न दुस्साध्य। किसी ने उसके बदले सुसाध्य सुझाया, लेकिन वह तो मुझे और भी खराब लगा। आखिरकार मैंने खुद ही अपना नाम शिखर सुकुमार रख लिया।’’

मैं यह तो समझ गया था कि दुसाध उनकी जाति है, लेकिन यह शब्द मैंने पहली बार सुना था। मेरे चेहरे पर अचरज या जिज्ञासा जैसा कुछ रहा होगा, जिसे पढ़कर उन्होंने कहा, ‘‘मेरे पिता कबीर को बहुत मानते थे। कबीर की यह बात उन्होंने बचपन में ही जिंदगी भर के लिए गाँठ बाँध ली थी कि ‘जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान; मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान’। वे देहाती दुसाधों में पैदा हुए थे। सूअर पालना और बेचना उनका पुश्तैनी पेशा था। दुसाध बहुत नीची जाति मानी जाती थी। मेरे पिता ने प्रतिज्ञा की कि दुसाध नहीं रहेंगे, साधु बनेंगे। लेकिन दुनिया से संन्यास लेकर भीख माँगने निकल पड़ने वाले साधु-संन्यासी नहीं, बल्कि सच्चे साधु। सच्चे, सज्जन, चतुर, निपुण, योग्य और प्रशंसनीय वाले अर्थ में साधु। दुनिया से भागंेगे नहीं, दुनिया को बदलेंगे। कोई गुरु भी उन्हें अच्छा मिल गया था। उसने मेरे पिता को किसी अंग्रेज अफसर से मिलवा दिया, जिसने उन्हें सेना को सूअर सप्लाई करने की सलाह दी। शायद कुछ पैसा भी दिया, जिससे वे बड़े पैमाने पर सूअर पाल सकें। काम अच्छा चलने लगा। फौजी अफसरों से बात करने के लिए मेरे पिता ने कामचलाऊ अंग्रेजी सीख ली और कोट-पैंट वाली वेश-भूषा भी अपना ली। गाँव छोड़ शहर में रहने लगे। उन्होंने मुझे अंग्रेजी शिक्षा दिलायी। वे चाहते, तो स्कूल में मेरी जाति कुछ और भी लिखवा सकते थे। कौन पूछने वाला था? मगर उनका कहना था कि जन्म से दुसाध हो तो क्या हुआ? कर्म से साधु बनो। सो मैं जाति से आज भी दुसाध हूँ, बाकी तुम देख ही रहे हो!’’

पूछते संकोच हुआ, मगर फिर भी मैंने पूछ लिया, ‘‘और आपके पिताजी का व्यवसाय? उसका क्या हुआ?’’

सुकुमार जी मुस्कराते हुए बोले, ‘‘तुम्हें पता है, विश्वामित्र एक प्रतिसृष्टि करने या दूसरी दुनिया बनाने चला था और देवताओं के भेजे ब्रह्मा ने उसे समझा-बुझाकर ऐसा करने से रोक दिया था? मेरे पिता को भी मिल गये एक ब्रह्मा जी! उन्होंने कहाµ‘यह क्या कर रहे हो? हम देश की आजादी के लिए जिन अंग्रेजों से लड़ रहे हैं, तुम उन्हीं अंग्रेजों को खाने के लिए सूअर सप्लाई कर रहे हो? बंद करो यह धंधा और चलो हमारे साथ।’ मेरे पिता ने उनकी न सुनी होती, तो दूसरे विश्वयुद्ध में सेना को सामान सप्लाई करने वाले कई ठेकेदारों की तरह मालामाल होकर शायद बड़े पूँजीपति बन गये होते। लेकिन उन्होंने अपना धंधा बंद कर दिया और देश की सेवा करने चल दिये। आजादी के आंदोलन में शामिल हुए और जेल चले गये। आजादी मिलने पर जेल से छूटे, तो देखा कि दुनिया बदली नहीं, बल्कि बेहतर होने की जगह और बदतर हो गयी है। देश बँट गया है, लाखों लोग मारे जा रहे हैं, इधर से उधर और उधर से इधर विस्थापित हो रहे हैं। शरणार्थी कैंपों में स्वयंसेवक बनकर काम करते समय उन्होंने इतना दुख देखा कि विक्षिप्त-से हो गये। सबसे ज्यादा गुस्सा उन्हें उन लोगों पर आया, जो आजादी के आंदोलन में शामिल होने की कीमत वसूल करते हुए नेता और मंत्री बन बैठे थे। मेरे पिता को तो स्वतंत्रता सेनानी होने के कारण मिल सकने वाले लाभ उठाने वालों से भी सख्त नफरत थी। वे तो आरक्षण के भी सख्त खिलाफ थे।’’

‘‘अच्छा? क्यों?’’

‘‘वे कहते थे, जाति के नाम पर जो भी कोई लाभ उठाता है, चाहे वह सवर्ण हो या शूद्र, ऊँची जाति का हो या नीची जाति का, जात-पाँत की व्यवस्था को मजबूत बनाता है। तुम्हें जातिवाद को बढ़ाना नहीं है, खत्म करना है।’’



दोपहर के भोजन के समय खाने की मेज पर एक तरफ मैं और प्रभा बैठे थे, दूसरी तरफ जय और विजय। अचानक प्रभा ने शिखर सुकुमार के नये नाटक की बात छेड़ दी।

‘‘अब यह ‘असत्य हरिश्चंद्र’ क्या है?’’ प्रभा ने झुँझलाहट भरे स्वर में कहा, ‘‘दलित लेखक होने का मतलब यह तो नहीं कि आप पूरी भारतीय संस्कृति को ब्राह्मणवादी हथकंडा बतायें और उसके उजले पक्षों पर भी कालिख पोतने लगें! सत्यवादी हरिश्चंद्र तो एक नैतिक आदर्श है। राजा हरिश्चंद्र का आदर्श सामने रखकर हम अपने बच्चों को सत्यवादी बनने के लिए प्रेरित करते हैं। इसमें क्या बुराई है? उसे असत्यवादी बना-दिखाकर सुकुमार जी को क्या मिलेगा?’’

‘‘नाटक देखे बिना तुम यह कैसे कह सकती हो कि उसमें सत्यवादी हरिश्चंद्र को असत्यवादी बनाया गया होगा? यह भी तो हो सकता है कि सुकुमार जी हरिश्चंद्र को एक फेक कैरेक्टर मानते हों और उसकी जगह एक जेनुइन कैरेक्टर की रचना करना चाहते हों?’’

‘‘पर मैं कहती हूँ कि बुराइयों का विरोध करो, अच्छी बात है। असत्य, अन्याय, अत्याचार का विरोध करो, अच्छी बात है। लेकिन लीक से हटकर चलने के नाम पर या ब्राह्मणवाद का विरोध करने के नाम पर अपने आदर्शों को नष्ट करना क्या अच्छी बात है?’’

मैं प्रभा की बातें सुन रहा था, लेकिन मेरे कान जय-विजय की बातचीत पर भी लगे थे। बड़ा भाई जय अपने छोटे भाई विजय को हरिश्चंद्र की कहानी सुना रहा था, ‘‘सत्यवादी मींस कि वो कब्भी झूठ नहीं बोलता था। जो कहता था, वो ही करता था। एक दिन देवताओं के राजा इंद्रा को लगा कि उसका सिंहासन हिल रहा है। मींस कि कोई और उसका सिंहासन छीनकर स्वर्ग का राजा बनना चाहता है...’’

इधर प्रभा मुझसे कह रही थी, ‘‘सुकुमार जी क्या आसमान से टपके हैं या आसमान में रहते हैं? यह देश उनका नहीं है? इस देश का साहित्य, इस देश की सभ्यता और संस्कृति उनकी नहीं है? क्या उसकी रक्षा करना उनका काम नहीं है? दलित होने का यह मतलब है कि ब्राह्मणवाद का विरोध करने के नाम पर अपने वेद-पुराण वगैरह सब नष्ट कर दो?’’

‘‘नहीं, वेदों-पुराणों की नयी व्याख्याएँ करना उन्हें नष्ट करना नहीं है। और पौराणिक साहित्य में अगर झूठी बातें भरी हुई हैं, तो उनके झूठ को झूठ कहना और सच को सामने लाना दलित लेखकों का ही नहीं, किसी भी लेखक का कर्तव्य है। अधिकार भी है। फिर, सुकुमार जी कोई सामान्य दलित लेखक नहीं हैं। पौराणिक साहित्य के अध्ययन और विश्लेषण के मामले में वे पंडितों के भी पंडित हैं। एक दिन मैंने उनसे पूछा कि आपने पौराणिक मिथकों को अपने लेखन का विषय क्यों बनाया, तो जानती हो, उन्होंने क्या कहा? उन्होंने कहा--चंडीप्रसाद, हर व्यवस्था का अपना एक तर्क होता है। उस तर्क से वह अपनी सुरक्षा का एक मजबूत परकोटा बनाती है। इतना मजबूत कि उसे तोड़ा न जा सके, कोई उसमें सेंध न लगा सके। लेकिन यह उसकी इच्छा और कोशिश ही होती है। ऐसी कोई अभेद्य प्राचीर बनाना उसके वश में नहीं होता। परम अभेद्य प्रतीत होने वाली प्राचीर में भी कहीं न कहीं कोई कमजोर जगह छूट ही गयी होती है। तुम्हारा काम होता है उस कमजोर जगह को ढूँढ़ निकालना और वहाँ से उस प्राचीर को तोड़ना शुरू करना। मैं यही काम करता हूँ।’’

‘‘यानी हमारे पुरखों की बनायी वर्ण-व्यवस्था, जो इतनी मजबूत है कि हजारों साल से चली आ रही है, उसमें दोष देखना, कमियाँ और कमजोरियाँ ढूँढ़ना और तरह-तरह के तर्कों से उसका खंडन करनाµयही है उनका काम?’’

प्रभा आज न जाने क्यों सुकुमार के प्रति असहिष्णु हो उठी थी, जबकि वह उनका आदर करती थी। हमारी शादी के समय से ही हम उनसे मिलने उनके घर जाते हैं, वे हमसे मिलने हमारे घर आते हैं। उनके यहाँ खाते और उन्हें अपने यहाँ खिलाते समय प्रभा के व्यवहार से कभी यह नहीं लगा कि वह वर्ण या जाति को लेकर कोई भेदभाव बरतती है।

शादी के बाद उन लोगों के बारे में बताते समय ही मैंने उससे कह दिया था, ‘‘सुकुमार जी मेरे गुरु होने के नाते पिता समान हैं और दमयंती जी को मैं गुरु-पत्नी होने के नाते माताजी कहता हूँ। वे भी मुझे अपना बेटा ही मानती हैं, अपने बेटे अतुल का बड़ा भाई। लेकिन सोच लो, तुम पंडितानी हो, उस दलित परिवार के साथ यह रिश्ता निभा लोगी? अगर तुम्हें मंजूर नहीं, तो मैं तुम्हें जबर्दस्ती मजबूर नहीं करूँगा। लेकिन मैं उनसे अपना संबंध बनाये रखूँ, इसकी इजाजत तुम्हें देनी होगी।’’

प्रभा ने कहा था, ‘‘पहले उनसे मिलवाओ तो!’’ और जब मैं उसे साथ लेकर सुकुमार के घर गया था, तो उसने बड़ी खूबसूरती से उन लोगों के साथ अपना रिश्ता जोड़ा था। दमयंती जी से उसने कहा था, ‘‘माताजी, मेरे सास-ससुर नहीं हैं। क्या आप लोग मेरे सास-ससुर बनना पसंद करेंगे?’’ और दमयंती जी ने कहा था, ‘‘हमारी भी अभी तक कोई बहू नहीं है। सो आज से तुम हमारी बहू हुईं।’’

यह रिश्ता तब से अब तक दोनों तरफ से बड़े प्रेम से निभाया जाता रहा है। तो आज प्रभा को क्या हो गया है? सीधे पूछना मैंने उचित नहीं समझा, इसलिए थोड़ा घुमा-फिराकर पूछा, ‘‘नाटक देखे बिना ही तुम उसकी इतनी कटु आलोचक क्यों बन बैठी हो?’’

‘‘बात नाटक की नहीं, सुकुमार जी के पूरे एटीट्यूड की है। दलित हैं तो दलितों वाला लेखन करें। दलित साहित्य तो आधुनिक, बल्कि उत्तर-आधुनिक साहित्य है। उसमें वेदों-पुराणों वाले विषय उठाने का क्या मतलब? ऐसा करके क्या वे सवर्ण साहित्यकार बनना चाहते हैं? क्या उन्हें पता नहीं है कि इंसान अपना धर्म वगैरह चाहे बदल ले, अपनी जाति कभी नहीं बदल सकता? आज के अखबार में जब से मैंने पढ़ा है कि दलित लेखक भी सुकुमार जी का साथ नहीं दे रहे हैं, तभी से सोच रही हूँ कि सुकुमार जी अपने पैरों पर खुद ही कुल्हाड़ी क्यों मार रहे हैं?’’

‘‘यह काम वे आज से नहीं, शुरू से कर रहे हैं। लेकिन यह काम वे ब्राह्मण या ब्राह्मणवादी बनने के लिए नहीं कर रहे हैं। यह काम वे साहित्यिक मान्यता प्राप्त करने के लिए भी नहीं कर रहे हैं। लिखना उनके लिए व्यवस्था को बदलने का काम है। बड़े-बड़े विद्वान, इतिहासकार और समाजशास्त्री यह मानते हैंµऔर जातिवादी राजनीति करने वाले लोग तो हजारों तरह से रोजाना कहते ही हैंµकि जाति की व्यवस्था को बदला नहीं जा सकता। लेकिन सुकुमार जी अपने हर नाटक में यह दिखाते हैं कि जाति-व्यवस्था बदलती रही है और उसे बदला जा सकता है।’’

‘‘लेकिन क्या सफेद पर काला पोतने से यह काम हो जायेगा?’’ प्रभा ने अपने गुस्से का सुराग-सा देते हुए कहा, ‘‘सत्य को असत्य कहने से क्या वह असत्य हो जायेगा? सत्यवादी हरिश्चंद्र लोगों के मन में बैठे हुए हैं, कोई लाख कोशिश कर ले, उन्हें असत्यवादी बताकर वहाँ से हिला नहीं सकता।’’

‘‘तो यह सुकुमार जी की समस्या है, तुम क्यों नाराज हो रही हो?’’

‘‘क्योंकि तुम उस नाटक की समीक्षा लिखने जा रहे हो। वे तुम्हारे गुरु हैं, पिता समान हैं, उनकी आलोचना तो तुम कर नहीं सकते। नाटक की प्रशंसा ही करोगे। नतीजा क्या होगा? दलित और गैर-दलित दोनों तुम्हारे भी पीछे पड़ जायेंगे। दो पाटों के बीच में गेहूँ के साथ-साथ घुन भी पिस जायेगा।’’

‘‘ओ, अच्छा! अब समझा! तुम मेरे साहित्यिक भविष्य को लेकर चिंतित हो!’’ मैंने हँसते हुए कहा।
प्रभा ने कोई उत्तर नहीं दिया, तो मैंने खाने की प्लेट से ध्यान हटाकर उसकी तरफ देखा। वह मेरी नहीं, अपने बेटों की बातें सुन रही थी।

विजय को राजा हरिश्चंद्र की कहानी सुनाते हुए जय कह रहा था, ‘‘तो इंद्रा ने उसका टेस्ट लेने के लिए रिशी विश्वामित्रा को बैगर बनाके उसके पास भेजा। विश्वामित्रा बैगर बनके गया, तो हरिश्चंद्रा ने पूछाµबोल, क्या माँगता है? विश्वामित्रा बोलाµआइ वांट योर होल किंगडम...’’

‘‘जय!’’ अचानक प्रभा जोर से चिल्लायी, ‘‘यह क्या हो रहा है? इंद्रा, विश्वामित्रा, हरिश्चंद्रा--यह क्या है?’’

‘ममा, मैंने अपनी इंग्लिश की बुक में जो स्टोरी पढ़ी है, वो ही सुना रहा हूँ।’’

‘‘हाँ, लेकिन यह इंद्रा-विंद्रा क्या है? इंद्र, विश्वामित्र और हरिश्चंद्र नहीं बोल सकते तुम?’’

‘‘ममा, मैंने जो पढ़ा है, वही बोल रहा हूँ। आइ एन डी आर एµइंद्रा। स्कूल में सब ऐसे ही बोलते हैं। टीचर्स भी।’’

‘‘वहाँ सब होंगे अंग्रेज! पर अपने घर में तो तुम इंद्र को इंद्र बोल सकते हो? कोई सुनेगा, तो क्या कहेगा कि हिंदी के प्रोफेसर और राइटर चंडीप्रसाद पंडित के बेटों को इंद्र बोलना भी नहीं आता!’’

मैंने देखा कि लड़के खाना खत्म कर चुके हैं और प्रभा उन्हें लेक्चर पिलाने के मूड में है, तो लड़कों को इशारा किया कि ‘सॉरी’ बोलकर दोनों अपने कमरे में जायें। लड़कों ने इशारा समझा, झटपट यही किया और चले गये।

प्रभा ने मेरी तरफ देखा, ‘‘सत्यानाश हो इंग्लिश मीडियम की इस पढ़ाई का! बच्चे अपने देवताओं, ऋषि-मुनियों और महापुरुषों के नामों का सही उच्चारण तक नहीं कर सकते!’’

‘‘और यह नहीं सुना कि ‘विश्वामित्रा को बैगर बनाके भेजा’? बैगर!’’ कहते-कहते मुझे हँसी आ गयी और मैं जोर से हँस पड़ा।

प्रभा ने जलती आँखों से मेरी तरफ देखा और मेज पर से बर्तन समेटने लगी। उसके गुस्से से बचने के लिए मैंने अपने जूठे बर्तन उठाये और रसोईघर में जाकर सिंक में रख दिये। अपनी स्टडी की तरफ जाते हुए मैं बच्चों के कमरे के सामने से गुजरा, तो पाया कि दरवाजा खुला है, दोनांे लड़के पलंग पर लेटे-बैठे हैं और राजा हरिश्चंद्र की कहानी जारी है।

‘‘वो रियल राजा नहीं है, बुद्धू! वो तो एक कैरेक्टर है!’’ जय कह रहा था।

मेरी इच्छा हुई कि जाकर प्रभा से कहूँ--लड़के जैसे भी हैं, काफी समझदार हैं। लेकिन मैं मुस्कराता हुआ अपनी स्टडी की ओर बढ़ गया।



मैंने घड़ी देखी। एक बजा था। रामाधार ठाकुर के दफ्तर की गाड़ी मुझे दो बजे लेने आने वाली थी। मैंने सोचा, ‘असत्य हरिश्चंद्र’ देखने जाने से पहले भारतेंदु हरिश्चंद का लिखा नाटक ‘सत्य हरिश्चंद्र’ एक बार उलट-पलटकर देख लेना ठीक रहेगा। सो मैंने अपनी किताबों में से ‘सत्य हरिश्चंद्र’ नाटक निकाला और पढ़ने बैठ गया। ‘उपक्रम’ शीर्षक से लिखी गयी भूमिका में भारतेंदु ने लिखा थाµ‘‘जब हरिश्चंद्र के पिता त्रिशंकु ने इसी शरीर से स्वर्ग जाने के हेतु वशिष्ठ जी से कहा तो उन्होंने उत्तर दिया कि यह अशक्य काम हमसे न होगा...’’
मैंने भारतेंदु की भूल पकड़ी। उन्होंने ‘वसिष्ठ’ को ‘वशिष्ठ’ लिखा था और उसके आगे ‘जी’ भी लगाया था, जबकि उनसे कहीं ज्यादा बड़े और बेहतर ऋषि विश्वामित्र को अनादर के साथ केवल विश्वामित्र लिखा था!
भारतेंदु की भूल पकड़ने के चक्कर में मैं नाटक पढ़ना भूल गया और उन दिनों को याद करने लगा, जब अपने शोधकार्य के सिलसिले में शिखर सुकुमार के घर मेरा आना-जाना बहुत बढ़ गया था। मैं उनके परिवार के सदस्य जैसा हो गया था। यों विश्वविद्यालय द्वारा नियुक्त मेरे शोध निर्देशक प्रोफेसर डी.के. राय थे, लेकिन वास्तव में मेरा निर्देशन शिखर सुकुमार ही कर रहे थे। मैं उन्हें ‘सर’ कहना छोड़ ‘गुरुजी’ कहने लगा था और गुरु पत्नी के नाते दमयंती जी को माताजी। वे भी मुझे पुत्रवत मानने लगी थीं। एक दिन जब मैं उनके घर की बैठक में बैठा सुकुमार से कुछ चर्चा कर रहा था, वे एक अधबुना स्वेटर, सलाइयाँ और ऊन का गोला लिये हुए आयीं और सामने बैठकर स्वेटर बुनने लगीं।

बातों-बातों में दमयंती जी ने कहा, ‘‘चंडी मेरा बड़ा बेटा है, अतुल छोटा।’’

‘‘आप अद्भुत माँ हैं!’’ सुकुमार ने हँसकर कहा, ‘‘पहले आपको छोटा बेटा होता है, बाद में बड़ा!’’

फिर उसी विनोद भाव से उन्होंने मुझसे कहा, ‘‘तुम भी बड़े अजीब द्विज हो, चंडीप्रसाद! तुम्हारा पहला जन्म ब्राह्मणों में हुआ है, दूसरा शूद्रों में!’’

‘‘अच्छा ही है न, गुरुजी!’’ मैंने भी हँसते हुए कहा, ‘‘साहित्य में ब्राह्मणों की संख्या बहुत बड़ी है। इसलिए प्रतिस्पर्धा भी बहुत कड़ी है। पता नहीं, कब मान्यता मिले! दूसरी तरफ दलित साहित्य नया है, दलित लेखक भी कम ही हैं, सो दलित लेखक के रूप में मुझे मान्यता जल्दी मिल जायेगी! वाल्मीकि पहले दलित लेखक थे, उन्हें झटपट मान्यता मिल गयी होगी!’’

सुकुमार मुस्कराये, ‘‘वाल्मीकि का उदाहरण सही नहीं है, चंडीप्रसाद! वाल्मीकि शूद्र थे, लेकिन उनकी ‘रामायण’ दलित साहित्य नहीं है। वह ब्राह्मणवादी साहित्य ही है। वह वर्ण-व्यवस्था को चुनौती देने वाला साहित्य नहीं, बल्कि उसको मजबूत बनाने वाला साहित्य है। वाल्मीकि ने यह तो सिद्ध कर दिखाया कि शूद्र भी श्रेष्ठ साहित्यकार हो सकते हैं, लेकिन अनजाने ही उन्होंने अपने उदाहरण से यह भी सिद्ध किया कि इसके लिए उनका ब्राह्मणवादी होना जरूरी है, उसी वर्ण-व्यवस्था को मजबूत बनाना जरूरी है, जिसने उन्हें व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर रख छोड़ा है! वाल्मीकि की जाति आसानी से दिख जाती है, लेकिन उनकी रचना में मौजूद ब्राह्मणवाद आसानी से नहीं दिखता।’’

मैंने पूछा, ‘‘उसे कैसे देखा जा सकता है, गुरुजी?’’

‘‘उसे देखने के लिए समाज में होने वाले संघर्षों को देखो। देखो कि वह संघर्ष क्या है, क्यों है, किनके बीच है और किसलिए है। मैं अपने नाटकों में बार-बार युद्ध की थीम क्यों लेता हूँ? अपने पहले नाटक में मैंने राम-रावण युद्ध को लिया। दूसरे नाटक में कौरवों-पांडवों के युद्ध को लिया। तीसरे नाटक में वैदिक काल के देवासुर संग्राम को लिया। अपना अगला नाटक मैं वसिष्ठ और विश्वामित्र के बीच के संघर्ष पर लिखने की सोच रहा हूँ। तुमने वसिष्ठ और विश्वामित्र के संघर्ष पर कभी गौर किया है? उन दोनों के बीच का संघर्ष क्या है?’’

मैंने संकोचपूर्वक उत्तर दिया, ‘‘गुरुजी, मैं ज्यादा नहीं जानता। इतना ही जानता हूँ कि वसिष्ठ ब्राह्मण ऋषि थे और विश्वामित्र क्षत्रिय राजा। वसिष्ठ के पास एक गाय थी कामधेनु, जिससे जो चाहो मिल जाता था। ऐसी गाय जिसके पास हो, उसे और क्या चाहिए? विश्वामित्र ने वसिष्ठ के पास वह गाय देखी, तो बोले कि यह गाय हमें दे दो। वसिष्ठ ने नहीं दी, तो कहा कि इसे हमें बेच दो और बदले में जो चाहो, कीमत हमसे ले लो। वसिष्ठ ने गाय बेचने से भी इनकार कर दिया, तो विश्वामित्र ने उसे जबर्दस्ती ले जाने के लिए वसिष्ठ के आश्रम पर अपनी सेना के साथ आक्रमण कर दिया। लेकिन कामधेनु ने वसिष्ठ के कहने पर अपनी एक हुंकार से वीरों की ऐसी सेना पैदा कर दी कि विश्वामित्र की सेना उससे हार गयी। इससे विश्वामित्र को लगा कि असली शक्ति क्षत्रिय राजाओं के पास नहीं, ब्राह्मण ऋषियों के पास है। हम तो केवल राजर्षि हैं। वसिष्ठ ब्रह्मर्षि हैं। सो विश्वामित्र ने ब्रह्मर्षि बनने की ठान ली। इसके लिए उन्होंने घोर तपस्या की और आखिरकार ब्रह्मर्षि बन गये।’’

‘‘बस?’’ दमयंती जी ने कहा, ‘‘चंडी, तुम्हें कहानी सुनाना नहीं आता। इतनी बड़ी कथा दो मिनट में सुना दी। कोई कथावाचक पंडित होता, तो रस ले-लेकर दो घंटे में सुनाता।’’

‘‘दो घंटे में?’’ सुकुमार मुस्कराये, ‘‘वसिष्ठ-विश्वामित्र के संघर्ष की पूरी कहानी तो दो सौ साल में भी नहीं सुनायी जा सकती। पहली बात तो यह कि उनकी पूरी कहानी जान पाना ही मुश्किल है। फिर उसमें एक सिलसिला बिठा पाना तो और भी मुश्किल। मैं कई साल से इसी कोशिश में लगा हूँ। ऋग्वेद से लेकर तमाम पौराणिक गं्रथों, महाकाव्यों, नाटकों और दूसरे कई रूपों में कहीं न कहीं इन दोनों के आपसी संघर्ष की कथा मिल जायेगी। कामधेनु वाला प्रसंग तो उस कथा का एक बहुत छोटा-सा अंश है।’’

दमयंती जी ने उनसे पूछा, ‘‘तो तुम्हारे हिसाब से वह संघर्ष क्या है?’’

सुकुमार ने उत्तर दिया, ‘‘सत्ता का संघर्ष। कहीं सीधे-सीधे राज्यसत्ता के लिए संघर्ष, तो कहीं सामाजिक शक्ति या ज्ञान-विज्ञान की शक्ति के जरिये राज्यसत्ता पर परोक्ष नियंत्रण के लिए संघर्ष। मतलब, राजा कोई और है, लेकिन राजा का गुरु या पुरोहित कोई और है, जो परोक्ष रूप में राज्यसत्ता को नियंत्रित करता है। सीधे-सीधे राज्यसत्ता के लिए संघर्ष इस रूप में होता है कि राज्यसत्ता कभी क्षत्रियों के पास रहती है, तो कभी ब्राह्मणों के पास। इसलिए राजा हमेशा क्षत्रिय ही नहीं हुए हैं। राजा ब्राह्मण भी हुए हैं। एक-दूसरे का राज्य छीनने के लिए उनमें लड़ाइयाँ भी हुई हैं, जिनमें कभी क्षत्रिय जीते हैं, तो कभी ब्राह्मण जीते हैं। लेकिन अक्सर दोनों के बीच यह समझौता रहा है कि आओ, दोनों मिलकर राज करें और अपने-अपने काम बाँट लें। क्षत्रियों के पास बल है, तो ब्राह्मणों के पास बुद्धि। सो क्षत्रिय राजा रहें और ब्राह्मण उनके गुरु या पुरोहित। यानी राज्य की नीतियाँ और कानून ब्राह्मण बनायेंगे और उन्हें लागू करेंगे क्षत्रिय!’’

‘‘लेकिन विश्वामित्र तो क्षत्रिय था और बड़ा शक्तिशाली राजा भी। उसे वसिष्ठ की तरह ब्राह्मण या ब्रह्मर्षि बनने की क्या पड़ी थी?’’ दमयंती जी ने पूछा।

‘‘विश्वामित्र ने शायद देख लिया था कि राजा के पास वह ताकत नहीं, जो उसके पुरोहित के पास है। लेकिन यह देखो कि महाकाव्यों का--यानी रामायण और महाभारत काµसमय तो ऋग्वेद की तुलना में बहुत बाद का है, जबकि वसिष्ठ और विश्वामित्र ऋग्वेद में भी मौजूद हैं। राजा सुदास का पुरोहित पहले विश्वामित्र था। फिर उसे हटाकर वसिष्ठ बन गया। इस तरह विश्वामित्र के हाथ से सत्ता छिन गयी, तो वह सुदास का शत्रु हो गया और दाशराज्ञ युद्ध में सुदास के विरुद्ध लड़ा। इतना ही नहीं, सुदास की मृत्यु के बाद सौदासों का, यानी सुदास के वंशजों का पुरोहित फिर से विश्वामित्र बना।’’

मैंने चकित होकर पूछा, ‘‘गुरुजी, राजा बदलते रहते हैं, लेकिन उनके पुरोहित कभी वसिष्ठ और कभी विश्वामित्र ही कैसे रहते हैं? ये दोनों क्या अजर-अमर थे?’’

‘‘नहीं, भाई! ये व्यक्तियों के नहीं, वंशों के नाम लगते हैं। जैसे राजवंश पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलते थे, वैसे ही ऋषियों के वंश भी चलते होंगे। जिस तरह राजवंशों में आपसी संघर्ष होते थे, वैसे ही ऋषिवंशों में भी आपसी संघर्ष होते होंगे। लेकिन एक मजेदार बात बताऊँ? यह जो विश्वामित्र है, चाहे वह एक व्यक्ति हो या एक परंपरा, मुझे बड़ा क्रांतिकारी चरित्र लगता है। वसिष्ठ बहुत शक्तिशाली है, लेकिन विश्वामित्र के मुकाबले वह काफी रूढ़िवादी, पुरातनपंथी और षड्यंत्रकारी लगता है; जबकि विश्वामित्र काफी प्रगतिशील, नयी सोच वाला और क्रांतिकारी।’’

"क्यों?"

‘‘त्रिशंकु की कहानी याद करो!’’ सुकुमार ने कहा और स्वयं ही कहानी सुनाना शुरू कर दिया, ‘‘त्रिशंकु अयोध्या पर राज करने वाले उसी इक्ष्वाकु वंश का एक राजा था, जिसमें तीस-पैंतीस पीढ़ियों के बाद दशरथ और राम पैदा हुए। वसिष्ठ दशरथ और राम के समय में भी अयोध्या का राजपुरोहित था और उनसे कई पीढ़ियों पहले त्रिशंकु के समय में भी। त्रिशंकु का पिता अरुण एक कमजोर-सा राजा था। त्रिशंकु उसका बिगड़ैल बेटा था। त्रिशंकु अपनी जवानी के दिनों में कहीं से एक विवाहित ब्राह्मण स्त्री को उड़ा लाया। वसिष्ठ को यह बात बहुत बुरी लगी। ब्राह्मणों की बनायी वर्ण-व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण तो शेष तीनों वर्णों की स्त्रियों को भोग सकते थे, लेकिन उनकी स्त्रियों को किसी और वर्ण का व्यक्ति भोगे, यह उन्हें मंजूर नहीं था। सो वसिष्ठ ने राजा को आज्ञा दी कि त्रिशंकु को घर से और राज्य से निकाल दो। राजा था कमजोर, उसने अपने इकलौते बेटे त्रिशंकु को जंगल में हँकाल दिया। उसके बाद वह खुद भी रोता-धोता जंगल में चला गया। या क्या पता, वसिष्ठ ने ही उसे राज्य से निकाल दिया हो, क्योंकि उसके जाने के बाद वसिष्ठ खुद अयोध्या का राजा बन बैठा। लेकिन राजा का पुरोहित होने और खुद राजा बनकर राजकाज करने में फर्क है। वसिष्ठ ने नौ साल अयोध्या पर राज किया और सब चौपट कर डाला। आखिर त्रिशंकु ने ही जंगल से आकर अपना राजपाट सँभाला और वसिष्ठ को हटाकर विश्वामित्र को अपना पुरोहित बनाया।’’

दमयंती जी ने कहा, ‘‘वसिष्ठ क्या इतना कमजोर था कि त्रिशंकु ने उसे उसके पद से हटाया और वह हट गया?’’

‘‘नहीं, वसिष्ठ कमजोर नहीं था। उसकी पहुँच ऊपर स्वर्ग तक थी। वह देवताओं की बनायी व्यवस्था को बनाये रखने का काम करता था, इसलिए बड़ा शक्तिशाली था। स्वर्ग की व्यवस्था यह थी कि पृथ्वी के कुछ खास ब्राह्मण और क्षत्रिय ही जीते जी स्वर्ग जा सकते हैं। सो भी ब्राह्मणों के भेजने पर ही। वसिष्ठ एक तरह से स्वर्ग का वीजा-पासपोर्ट देने वाला ब्राह्मण था। त्रिशंकु को पता था कि वसिष्ठ मुझसे खार खाता है, मुझे सशरीर स्वर्ग जाने की अनुमति कभी नहीं देगा। तब मैं उससे कहूँगा कि विश्वामित्र मेरा यह काम कर सकते हैं, इसलिए आप हटिए, मैं आपकी जगह उनको अपना पुरोहित बनाऊँगा।’’

‘‘और जैसा उसने सोचा था, वैसा ही हुआ?’’

‘‘हाँ, वैसा ही हुआ। त्रिशंकु ने वसिष्ठ से कहा कि मुझे सशरीर स्वर्ग भेजो। वसिष्ठ ने कहा कि यह असंभव है। तब त्रिशंकु वसिष्ठ के बेटों के पास गया और उसने उनसे कहा कि तुम्हारा बाप तो मेरा यह काम कर नहीं रहा, तुम करो। बेटों ने भी मना कर दिया, तो त्रिशंकु ने कहा तुम लोग मेरा यह काम नहीं कर सकते, लेकिन विश्वामित्र कर सकता है। अब मैं उसी को अपना पुरोहित बनाऊँगा। इस पर वसिष्ठ के बेटों ने कुपित होकर उसे शाप दे दिया कि जा, तू चांडाल हो जा!’’

‘‘और एक क्षत्रिय चांडाल बन गया?’’

‘‘इसी से तो पता चलता है कि वर्ण और जाति अपरिवर्तनीय नहीं हैं। वाल्मीकि ने रामायण में इसका अच्छा चित्र खींचा है। उन्होंने त्रिशंकु के रूपांतरण का वर्णन इस प्रकार किया हैµनीलवस्त्रधरो नीलः पुरुषो ध्वस्तमूर्धजः। चित्यमाल्यांगरागश्च आयसाभरणोऽभवत्। अर्थात् चांडाल हो जाने पर त्रिशंकु के शरीर का रंग नीला हो गया, कपड़े भी नीले हो गये, सारा शरीर रूखा-सूखा हो गया, सिर के बाल छोटे हो गये, सारे शरीर में चिता की राख-सी लिपट गयी और यथास्थान लोहे के गहने पड़ गये। इसी रूप में वह विश्वामित्र के पास गया और उसे चांडाल के रूप में देखकर विश्वामित्र के हृदय में करुणा भर आयी। उन्होंने ठान लिया कि वे लोग इसे शाप देकर नीचतम जाति का चांडाल बना सकते हैं, तो मैं अपने ज्ञान-विज्ञान से इसे सर्वोच्च स्वर्ग में पहुँचा सकता हूँ। इस प्रकार यह कथा बताती है कि वर्ण और जाति का ऊपर से नीचे की तरफ और नीचे से ऊपर की तरफ बदलना संभव है।’’

‘‘लेकिन त्रिशंकु स्वर्ग पहुँचा कहाँ?’’

‘‘कैसे पहुँचता? वसिष्ठ की विश्वामित्र से पुरानी दुश्मनी थी और स्वर्ग के राजा इंद्र से पुरानी दोस्ती। सो वसिष्ठ ने इंद्र से कहा कि विश्वामित्र त्रिशंकु को स्वर्ग भेजेगा और वह स्वर्ग में आ गया, तो तुम्हारी जगह वही स्वर्ग का राजा होगा। इंद्र वैसे काफी शक्तिशाली थाµसबसे अच्छे, सबसे सुंदर, सबसे बड़े, सबसे समृद्ध, सबसे शक्तिशाली और सर्वोच्च राज्य का राजाµलेकिन उसे अपना राजसिंहासन छिन जाने का डर लगा रहता था। किसी और राज्य में अगर कोई बंदा त्याग, तपस्या, वीरता वगैरह के बल पर उन्नति करने और प्रसिद्धि पाने लगता, तो उसे लगने लगता कि उसका सिंहासन डोल रहा है और वह उस बंदे की तपस्या भंग करा देता या छल-बल से उसे स्वर्ग आने से रोक देता। यही उसने त्रिशंकु के साथ किया। विश्वामित्र ने उसे जीते जी स्वर्ग भेजा, इंद्र ने उसे बीच में ही रोक दिया। त्रिशंकु बेचारा बीच में ही लटका रह गया। लेकिन विश्वामित्र यों हार मानकर बैठ जाने वाला नहीं था। उसने कहाµइस दुनिया में लोगों को जीते जी स्वर्ग नहीं मिल सकता, तो मैं दूसरी दुनिया बनाऊँगा। सृष्टि की प्रतिसृष्टि। और उसने अपनी दूसरी दुनिया बनाना शुरू कर दिया। यह देखकर दुनिया पर शासन करने वाले देवता घबरा गये। उन्होंने अपने सबसे बड़े देवता ब्रह्मा को भेजा और ब्रह्मा ने किसी तरह समझा-बुझाकर विश्वामित्र को दूसरी दुनिया बनाने से रोका।’’

‘‘यह दूसरी दुनिया वाला आइडिया जोरदार है।’’ दमयंती जी ने कहा, ‘‘आजकल वर्ल्ड सोशल फोरम वाले यही नारा तो दे रहे हैंµ‘एनअदर वर्ल्ड इज पॉसिबल! दूसरी दुनिया संभव है!’ तुम इसी पर अपना नया नाटक लिखो।’’

‘‘विश्वामित्र पर नाटक लिखने का विचार मेरे मन में पहले से ही है। दरअसल उसी के लिए मैं तमाम पुराने ग्रंथों की खाक छान रहा हूँ। लेकिन वसिष्ठ और विश्वामित्र की कथा की बुनावट दो सलाइयों से आप जो एक उलटे और एक सीधे फंदे वाली सादा बुनाई कर रही हैं, वैसी नहीं है। लगता है, जैसे उसे चार-चार सलाइयों से कुछ अजीब-से फंदे डालकर बुना गया है।’’



अपनी लिखने-पढ़ने की मेज पर बैठे-बैठे न जाने कब मेरी आँख लग गयी थी। भारतेंदु हरिश्चंद्र का नाटक ‘सत्य हरिश्चंद्र’ मेरे सामने खुला हुआ था और मैं वसिष्ठ-विश्वामित्र की कहानी में खोया हुआ था। अचानक प्रभा मेरे कमरे में आयी और बोली, ‘‘बैठे-बैठे सो रहे हो?’’

‘‘नहीं, पढ़ रहा हूँ। पढ़ते-पढ़ते कुछ सोचने लगा था।’’

‘‘क्या पढ़ रहे हो?’’ उसने मेरी आरामकुर्सी पर बैठते हुए कहा।

‘‘भारतेंदु हरिश्चंद्र का लिखा नाटक ‘सत्य हरिश्चंद्र’। तुमने पढ़ा है?’’

‘‘नहीं। कैसा है?’’

‘‘हिंदी के आरंभिक नाटकों में से है। 1876 में छपा था। इसके पहले राजा हरिश्चंद्र की कथा पर संस्कृत में दो नाटक लिखे गये थेµएक क्षेमेश्वर का ‘चंडकौशिक’ और दूसरा रामचंद्र का ‘सत्य हरिश्चंद्र’। भारतेंदु का ‘सत्य हरिश्चंद्र’ क्षेमेश्वर के ‘चंडकौशिक’ पर आधारित है।’’

‘‘तुमने संस्कृत के ये नाटक पढ़े हैं?’’

‘‘नहीं, लेकिन सुकुमार जी के पास जरूर होंगे। उनसे लेकर पढ़ लूँगा।’’

‘‘वैसे अपने भारतंेदु जी थे बड़े साहसी! एक नाटक का नाम उड़ा लिया और दूसरे का प्लॉट!’’ प्रभा ने हँसते हुए कहा। लेकिन अगले ही क्षण गंभीर होकर बोली, ‘‘चंडकौशिक माने?’’

‘‘विश्वामित्र को चंडकौशिक भी कहते हैं। ‘चंड’ इसलिए कि उनके विरोधी उन्हें बहुत उग्र, उद्धत या क्रोधी मानते थे और ‘कौशिक’ इसलिए कि वे कुशिक नामक क्षत्रिय वंश में पैदा हुए थे। वैसे पॉजिटिव सेंस में ‘चंड’ का अर्थ होता हैµतेज, प्रखर, प्रबल या बलवान। और ये सारे गुण विश्वामित्र में थे। ‘चंडकौशिक’ नाटक में शायद उनका नेगेटिव रूप उभारा गया होगा। भारतेंदु ने भी विश्वामित्र को सत्यवादी हरिश्चंद्र को तमाम दुख देने वाले दुष्टात्मा के रूप में दिखाया है।’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘ऐसे कि सत्यवादी हरिश्चंद्र का यश दुनिया भर में फैलने लगता है, तो इंद्र को अपना सिंहासन डोलता महसूस होने लगता है। वह हरिश्चंद्र को सत्य से डिगाने के लिए विश्वामित्र को उसकी परीक्षा लेने के लिए प्रेरित करता है। विश्वामित्र एक क्रोधी ब्राह्मण बनकर आते हैं और हरिश्चंद्र का सारा राज्य दान में लेकर ऊपर से दक्षिणा के रूप में एक हजार स्वर्णमुद्राएँ माँगते हैं...’’

‘‘अच्छा-अच्छा, मैं समझ गयी। यह तो बहुत बार सुनी हुई कहानी है। फिल्मों और टी.वी. सीरियलों में भी आ चुकी है। राजा हरिश्चंद्र विश्वामित्र को दक्षिणा देने के लिए खुद को काशी के एक डोम के हाथ बेच देता है और डोम की सेवा में सच्चा रहने के लिए अपने बेटे रोहिताश्व का दाह-संस्कार करने श्मशान में आयी अपनी पत्नी शैव्या तारामती से भी आधा कफन माँगता है।’’

‘‘हाँ, लेकिन मुझे लगता है, सुकुमार जी ने अपने नाटक में विश्वामित्र को दुष्ट खलनायक नहीं, बल्कि पॉजिटिव हीरो बनाया होगा।’’

‘‘क्यों?’’

‘‘एक बार उन्होंने बताया था कि वे वसिष्ठ और विश्वामित्र के संघर्ष पर नाटक लिखना चाहते हैं। उनके विचार से वसिष्ठ स्वार्थी, धूर्त, षड्यंत्रकारी और यथास्थितिवादी है, जबकि विश्वामित्र त्यागी, तपस्वी, परोपकारी और क्रांतिकारी।’’

‘‘अच्छा, तो यह बताओ कि विश्वामित्र का नाम विश्वामित्र क्यों है? नाम से क्या यह नहीं लगता कि वह खुद पूरी दुनिया का दुश्मन है या पूरी दुनिया उसे अपना दुश्मन समझती है?’’

‘‘नहीं, विश्वामित्र का अर्थ विश्व का अमित्र या दुनिया का दुश्मन नहीं होता। हालाँकि हमारे भारतेंदु जी ने अपने नाटक में इसका अर्थ ‘विश्व का अमित्र’ ही किया हैµनारद के मुँह से यही कहलाया हैµलेकिन वास्तव में विश्वामित्र का अर्थ होता है विश्व का मित्र। संस्कृत व्याकरण में एक नियम हैµ‘पूर्वपदस्याकारस्य दीर्घः’। इस नियम के अनुसार ‘विश्व’ का ‘विश्वा’ हो जाता है। लेकिन विश्वामित्र का अर्थ विश्व का मित्र ही होता हैµ‘विश्वमेव मित्रं यस्य’--यानी संपूर्ण विश्व ही जिसका मित्र है! सुकुमार जी ने अपने नाटक में विश्वामित्र का यही अर्थ किया होगा और...’’

‘‘संस्कृत व्याकरण मैंने नहीं पढ़ा, लेकिन यह बताओ कि सुकुमार जी को वसिष्ठ और विश्वामित्र के झगड़े में पड़ने की और उसमें विश्वामित्र के पक्ष से बोलने की क्या पड़ी है?’’

‘‘ठीक-ठीक तो मुझे भी नहीं मालूम, लेकिन वर्षों से जो बातचीत उनसे होती रही हैµऔर उनके प्रति लोगों का जो रुख-रवैया मैं देखता रहा हूँµउससे ऐसा लगता है, जैसे सुकुमार जी स्वयं को कहीं न कहीं विश्वामित्र से आइडेंटिफाइ करते हैं।’’

‘‘कैसे?’’

‘‘देखो, दलित होकर भी उन्होंने आरक्षण का लाभ नहीं उठाया। दुसाध होकर भी उन्होंने वेदों, पुराणों और संस्कृत साहित्य का बाकायदा अध्ययन किया। एक्सीलेंट एकेडेमिक कैरियर था उनका। चाहते, तो आइ.ए.एस. वगैरह बन सकते थे। मगर उन्होंने लेखक बनने का फैसला किया। वे अंग्रेजी इतनी अच्छी लिखते-बोलते हैं कि मजे में ‘अंग्रेजी में लिखने वाले भारतीय लेखक’ बन सकते थे। जिन विषयों पर वे लिखते हैं, उन पर लिखी चीजों की पश्चिमी देशों में भारी माँग है। वे चाहते, तो उस माँग की पूर्ति करने वाली चीजें लिखकर विश्वस्तरीय लेखक बन सकते थे। यूरोप या अमरीका में जाकर बस सकते थे। ये सारी संभावनाएँ होने के बावजूद उन्होंने अपने देश में ही रहने का, अपनी भाषा में ही लिखने का और अपने लोगों के लिए ही लिखने का फैसला किया...’’

‘‘अपने ही लोगों के लिए...?’’

‘‘दलित, पिछड़े, गरीब लोगों के लिए। एक बार मैंने उनसे पूछा था कि आपने साहित्य की दूसरी विधाओं में न लिखकर केवल नाटक ही लिखने का फैसला क्यों किया, तो उन्होंने बताया कि नाटक को पाँचवाँ वेद कहते हैं और यह पाँचवाँ वेद उनके लिए बनाया गया है, जो वेद-पुराण पढ़ नहीं सकते या जिनके लिए उनका पढ़ना निषिद्ध है। और अपने देश में आज ऐसे लोग कौन हैं? वे ही, जो गरीब हैं और गरीबी की वजह से शिक्षा और साहित्य से वंचित हैं। ये ही सुकुमार जी के अपने लोग हैं।’’

‘‘हाँ, यह तो मैं समझ गयी, लेकिन इसमें विश्वामित्र से आइडेंटिफाइ करने वाली क्या बात है?’’

‘‘विश्वामित्र ने अपनी एक अलग दुनिया बनायी थी। सुकुमार जी ने भी अपनी एक अलग नाट्य संस्था बनायी है। उसके नाटककार, निर्देशक और व्यवस्थापक वे ही हैं। उसकी एक अलग ही पहचान है--शिखर थियेटर, शिखर रंगमंच। वे अपने नाटक बिना किसी तामझाम के कम से कम खर्च में और सबसे सस्ते टिकट लगाकर करते हैं। कहीं से फंडिंग कराये बिना सिर्फ दर्शकों के बलबूते पर इतने अच्छे, इतने सफल और लगातार नाटक करने वाली संस्था शहर में एक ही है--‘शिखर’!’’

‘‘हाँ, इस लिहाज से तो वे वाकई सबसे अलग और अनोखे हैं।’’

‘‘विश्वामित्र भी ऐसे ही सबसे अलग और अनोखे चरित्र हैं। उन्होंने अपने समय के विश्व की व्यवस्था को अच्छी तरह समझ लिया था और उसे वे बदलना चाहते थे। सुकुमार जी ने एक बार मुझे विस्तार से बताया था कि वर्ण और जाति की व्यवस्था कोई प्राकृतिक, शाश्वत और अपरिवर्तनीय व्यवस्था नहीं है। यह बनायी गयी है। यह व्यवस्था उन देवताओं ने बनायी है, जो स्वर्ग में रहते हैं। स्वर्ग में देखो, तो छोटे-बड़े देवता तो मिलेंगे, लेकिन उनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जैसे भेद नहीं मिलेंगे। क्यों? इसलिए कि स्वर्ग का मतलब है शासक वर्ग...’’ कहते-कहते मुझे हँसी आ गयी।

प्रभा ने पूछा, ‘‘हँस क्यों पड़े?’’

मैंने कहा, ‘‘एक मजेदार बात याद आ गयी। एक दिन मैं सुकुमार जी के घर बैठा था और वे स्वर्ग की अपनी यह व्याख्या मुझे बता रहे थे। अतुल भी पास बैठा हमारी बातचीत सुन रहा था। बोला, ‘स्वर्ग को रोमन में लिखिए और ‘एस’ को अलग करके  उसके आगे फुलस्टॉप लगा दीजिए। हो गया एस. वर्ग। एस वर्ग यानी शासक वर्ग। यानी स्वर्ग। अतुल की इस अनोखी व्याख्या पर सुकुमार जी ने हँसते हुए उसे शाबाशी दी। तब से जब भी मैं स्वर्ग के बारे में पढ़ता-सुनता या कुछ कहता हूँ, मुझे इस बात को याद करके हँसी आ जाती है।’’

‘‘बात में दम तो है।’’ प्रभा ने कहा, ‘‘आज की दुनिया का असली शासक वर्ग कौन है? कॉरपोरेट सेक्टर। उसमें छोटे और बड़े तो हैं, लेकिन उनमें कौन किस जाति का, किस धर्म का या किस देश का है, इस सबको लेकर कोई भेदभाव नहीं है। सब कॉरपोरेट हैं। सब मल्टीनेशनल हैं। सब ग्लोबल हैं।’’

‘‘वाह! तुमने तो सुकुमार जी की व्याख्या को और विस्तार दे दिया!’’

‘‘लेकिन अभी भी मेरी समझ में यह नहीं आया कि सुकुमार जी विश्वामित्र से खुद को आइडेंटिफाइ क्यों और कैसे करते हैं?’’

‘‘सुकुमार जी का कहना है कि वर्णों और जातियों की व्यवस्था स्वर्ग में रहने वाले देवताओं ने बनायी है। लेकिन अपने लिए नहीं, बल्कि पृथ्वी पर रहने वाले लोगों के लिए। पृथ्वी यानी हमारा समाज। और देवता यानी शासक वर्ग। ‘डिवाइड एंड रूल’ की नीति आज की या सिर्फ अंग्रेजों के जमाने की नहीं है। यह तो हमेशा से शासक वर्ग की नीति रही है। प्राचीन काल के शासक वर्ग ने हमारे समाज को वर्णों और जातियों में बाँट दिया और यह बात लोगों के मन में भर दी कि यह व्यवस्था शाश्वत है--हमेशा से ऐसी ही रही है और हमेशा ऐसी ही रहेगी। विश्वामित्र ने इस व्यवस्था को चुनौती दी। कहा कि यह व्यवस्था शाश्वत नहीं है। बदलती रही है और बदली जा सकती है। उन्होंने खुद राजर्षि से ब्रह्मर्षि बनकर अपनी बात को सही साबित कर दिखाया।’’

‘‘ओ, अच्छा! अब समझी! शिखर दुसाध से शिखर सुकुमार बनने की कहानी भी तो यही है कि दुसाधों में भी कोई पंडितों का पंडित हो सकता है!’’

‘‘विश्वामित्र के चरित्र का एक और पक्ष देखो। उन्होंने जिस त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेजा, वह क्षत्रिय राजा त्रिशंकु नहीं, ब्राह्मणवादी वसिष्ठ के पुत्रों द्वारा चांडाल बना दिया गया त्रिशंकु था। विश्वामित्र ने इससे यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि पृथ्वी के देवता कहलाने वाले ब्राह्मणों के पास इतनी शक्ति है कि वे शाप देकर एक क्षत्रिय राजा को नीच जाति का चांडाल बना सकते हैं, तो इस व्यवस्था को उचित न मानने वाले लोग एक चांडाल को स्वर्ग में या शासक वर्ग में पहुँचा सकते हैं। विश्वामित्र त्रिशंकु को स्वर्ग में नहीं भेज पाते, क्योंकि देवताओं के पास ताकत ज्यादा है। लेकिन विश्वामित्र ने त्रिशंकु के उदाहरण से यह तो सिद्ध कर ही दिया कि देवताओं की व्यवस्था शाश्वत नहीं है, तथाकथित नीची जातियों के लोग भी शासक बन सकते हैं। वे त्रिशंकु को ऊपर नहीं उठा सके, लेकिन उन्होंने उसे नीचे भी नहीं गिरने दिया। यहाँ तक कि उन्होंने अपनी प्रतिसृष्टि में उसे हमेशा चमकता रहने वाला एक नक्षत्र बनाकर स्थापित कर दिया। इस प्रकार उन्होंने जो किया, वह उनकी असफलता नहीं, बल्कि एक उज्ज्वल संभावना है।’’

‘‘वाह! यह तो बहुत ही बढ़िया व्याख्या है! एकदम नयी!’’

‘‘अब समझीं कि विश्वामित्र विश्व के मित्र क्यों हैं?’’

‘‘हाँ, और यह भी समझी कि वे किनके लिए विश्व के मित्र हैं और किनके लिए विश्व के अमित्र!’’

‘‘तो यह भी समझ लो कि शिखर सुकुमार आज के विश्वामित्र हैं। वे अपने नाटकों के जरिये बार-बार यही सिद्ध कर रहे हैं कि समाज की व्यवस्था शाश्वत नहीं है। वह बदली जानी चाहिए और बदल सकती है।’’

नाटकों की बात सुनते ही प्रभा ने घड़ी की तरफ देखा और बोली, ‘‘अरे, दो बजने वाले हैं! नाटक देखने जाना है या नहीं?’’  



ठीक दो बजे रामाधार ठाकुर द्वारा भेजी गयी गाड़ी मुझे लेने आ गयी। उसमें ड्राइवर के अलावा एक रिपोर्टर और एक फोटोग्राफर पहले से मौजूद थे। उन्होंने गाड़ी से उतरकर मेरा अभिवादन किया, अपना परिचय दिया और पीछे की सीट पर मुझे बीच में बिठाकर मेरे अगल-बगल बैठ गये। मैं समझ गयाµओह! मेरे अंगरक्षक!

लेकिन जहाँ नाटक होने वाला था, वहाँ पुलिस के साधारण और सशस्त्र लोग इतनी भारी संख्या में तैनात थे कि दर्शकों की भीड़ के बावजूद गड़बड़ी की कोई आशंका नजर नहीं आ रही थी। मैं प्रेक्षागृह के बाहरी दरवाजे के पास पहुँचा ही था कि भीतरी दरवाजे के पास एक ओर अलग हटकर खड़े सुकुमार किसी से हाथ मिलाते दिखायी पड़े। मैंने उनके पास पहुँचकर अभिवादन किया और पूछा, ‘‘माताजी और अतुल कहाँ हैं?’’

‘‘वे दोनों कल देख चुके।’’ कहते हुए सुकुमार ने मेरे अंगरक्षकों के बारे में पूछा, ‘‘ये लोग?’’

मैंने रामाधार ठाकुर से हुई सुबह वाली बात बताते हुए कहा, ‘‘वे बहुत आतंकित लग रहे थे, पर यहाँ तो सब ठीक लग रहा है।’’

‘‘मीडिया की मेहरबानी है!’’ सुकुमार ने व्यंग्यपूर्वक कहा, ‘‘तुमने शायद देखा नहीं, ज्यादातर खबरों में कल की गड़बड़ी के जिम्मेदार लोगों को नासमझ बताते हुए नाटक को ‘पुरानी कहानी का नया कॉमिक रूप’ और ‘हिलेरियस कॉमेडी’ बताया गया है। मीडिया जिस चीज को नयी और कॉमिक बता दे, वह खतरनाक नहीं रहती। बाजार और सरकार दोनों को स्वीकार्य हो जाती है। और जनता के जीवन में हँसी इतनी कम रह गयी है कि वह कॉमेडी सुनकर कुछ भी देखने को टूट पड़ती है। फिर, ‘शिखर’ के नाटकों के जो स्थायी दर्शक हैं, उन्हें तो आना ही है।’’

मैंने देखा, सचमुच दर्शकों की भीड़ उमड़ पड़ी थी। हॉल के दरवाजे अभी खुले भी नहीं थे, जबकि टिकट खिड़की पर ‘हाउस फुल’ की तख्ती लगा दी गयी थी।

मेरे साथ आये रिपोर्टर ने सुकुमार से कुछ बातचीत की और फोटोग्राफर ने उनके कुछ फोटो खींचे। इतने में हॉल का दरवाजा खुल गया और दर्शक भीतर जाने लगे। हम भी सुकुमार से विदा लेकर अंदर जा बैठे।

नाटक की संकल्पना कुछ विचित्र किंतु नयी, आकर्षक और प्रभावशाली थी। पात्र पौराणिक थे, किंतु आधुनिक वेशभूषा में थे। नाटक में नाटक की रिहर्सल हो रही थी। नाटक भी चल रहा था और साथ-साथ अभिनेताओं का आपसी हँसी-मजाक भी। पौराणिक काल के संवादों के साथ-साथ वर्तमान यथार्थ को उजागर करती हुई हास्य-व्यंग्यपूर्ण उक्तियाँ, फब्तियाँ और आलोचनात्मक टिप्पणियाँ भी चल रही थीं।

एक सर्वथा नया प्रयोग यह था कि कौन-सी बात किस आधार पर कही जा रही है, यह दिखाने के लिए नाटक का सूत्रधार प्रसंग से संबंधित किसी प्राचीन ग्रन्थ के नाम वाली तख्ती दर्शकों को दिखाता हुआ मंच के अग्रभाग में एक से दूसरी ओर आता-जाता रहता था। किसी पर लिखा होता ‘ऋग्वेद’, किसी पर ‘महाभारत’, किसी पर ‘रामायण’, किसी पर ‘भागवत’, किसी पर ‘मार्कंडेयपुराण’, तो किसी पर ‘ऐतरेय ब्राह्मण’।

नाटक में इतिहास और पुराण, वर्तमान और भविष्य, यथार्थ और फैंटेसी को कुछ इस प्रकार मिलाया गया था कि नाटक एक स्तर पर बड़े गंभीर अर्थ देता था, तो दूसरे स्तर पर दर्शकों का मनोरंजन करते हुए उन्हें हँसाता था। प्रेक्षागृह में कभी गहरा सन्नाटा छा जाता, तो कभी दर्शकों के ठहाके गूँजने लगते।

‘‘पुरानी कहानी का नया कॉमिक रूप’’ यह था कि अयोध्या के राजा अरुण का युवा पुत्र त्रिशंकु एक विवाहिता ब्राह्मणी से प्रेम कर बैठा और उसे अपने घर ले आया। राजपुरोहित वसिष्ठ को बहुत बुरा लगा। उसने राजा अरुण से कहा कि यह त्रिशंकु तो हमारी वर्ण और जाति की व्यवस्था का विरोधी है। इसे घर से ही नहीं, राज्य से भी निकाल दो। अरुण बड़ा कमजोर राजा था। वह वसिष्ठ से डरता भी था, क्योंकि वसिष्ठ की पहुँच ऊपर स्वर्ग के देवताओं तक थी। उसने अपने पुत्र त्रिशंकु को निकाल तो दिया, लेकिन चुपके से उसके कान में कह दिया कि वह जंगल में विश्वामित्र के आश्रम में चला जाये, जो उसे शस्त्र और शास्त्र दोनों की अच्छी शिक्षा दे सकता है। त्रिशंकु ने विश्वामित्र के आश्रम में जाकर उसे अपना गुरु बना लिया। इधर वसिष्ठ अरुण को हटाकर खुद अयोध्या पर शासन करने लगा। लेकिन वह इतना भ्रष्ट और अकुशल शासक था कि राज्य की अर्थव्यवस्था चौपट हो गयी, अकाल पड़ने लगे और जनता त्राहि-त्राहि करने लगी।

अरुण तो न जाने कहाँ मर-खप गया, लेकिन त्रिशंकु अपने गुरु विश्वामित्र से राजनीति और युद्ध-विद्या की शिक्षा पाकर अयोध्या लौट आया। उसने अपना राजपाट तो वापस पा लिया, लेकिन वसिष्ठ को राजपुरोहित के पद से नहीं हटा सका, क्योंकि वसिष्ठ की पीठ पर स्वर्ग के देवताओं का हाथ था। त्रिशंकु ने विश्वामित्र की शिक्षा के अनुसार पृथ्वी को ही स्वर्ग बनाने की ठानी और पुरानी व्यवस्था को बदलने लगा। वसिष्ठ उसके काम में टाँग अड़ाने लगा, तो उसने विश्वामित्र को बुला लिया और वसिष्ठ की जगह उसी को अपना पुरोहित बना लिया। अब त्रिशंकु और विश्वामित्र मिलकर पृथ्वी को स्वर्ग बनाने में जुट गये।

स्वर्ग के देवताओं ने पृथ्वी पर स्वर्ग की प्रतिसृष्टि होते देखी, तो उनमें खलबली मच गयी। उन्होंने वसिष्ठ से कहा कि त्रिशंकु को रोको और ब्रह्मा से कहा कि विश्वामित्र को रोको। वसिष्ठ ने त्रिशंकु को दरिद्र चांडाल बना दिया, जिससे वह पृथ्वी पर स्वर्ग का निर्माता तो क्या बनता, अपने राज्य का राजा भी नहीं रहा। उधर ब्रह्मा ने विश्वामित्र को प्रतिसृष्टि से विरत करने के लिए पहले तो उसकी प्रशंसा की कि तुम तो मंत्र-द्रष्टा कवि हो, तुम्हारी रचनाएँ तो ऋग्वेद में संकलित होती हैं, तुम्हारा रचा हुआ गायत्री मंत्र तो समस्त संसार में लोकप्रिय हो गया है। फिर उसे समझाया कि तुम अपने आश्रम में लोगों को राजनीति और युद्ध-विद्या की शिक्षा देकर बहुत बड़ा काम कर रहे हो, इसलिए पृथ्वी पर स्वर्ग की प्रतिसृष्टि करने का पागलपन छोड़ो और अपने आश्रम में जाकर अपना अध्ययन-अध्यापन और मंत्रों का सृजन करो। विश्वामित्र ने ब्रह्मा की बात मान ली और अयोध्या छोड़कर जंगल में अपने आश्रम में चला गया। इस प्रकार पृथ्वी पर स्वर्ग की प्रतिसृष्टि रुकवाकर देवताओं ने त्रिशंकु के पुत्र हरिश्चंद्र को अयोध्या का राजा और वसिष्ठ को उसका पुरोहित बना दिया।

अब, राजा हरिश्चंद था तो बड़ा अय्याश, उसने सौ शादियाँ की थीं, मगर वह नपुंसक था। सौ रानियों के रहते भी वह निपूता था। जब बूढ़ा होने लगा, तो उसे दो चिंताएँ सताने लगीं। एक यह कि पुत्र का मुख देखे बिना वह स्वर्ग नहीं जा पायेगा और दूसरी यह कि उत्तराधिकारी के बिना उसके मरने के बाद अयोध्या का राजपाट कौन सँभालेगा। वसिष्ठ ने उसे सलाह दी कि तुम वही करो, जो नपुंसक राजा करते आये हैं। अपनी किसी रानी का किसी देवता, ऋषि या मुनि से नियोग करा दो और पुत्र उत्पन्न करा लो। हरिश्चंद्र अपनी रानी शैव्या तारामती को वरुण देवता के पास ले गया और बोलाµ‘‘मैं पुत्र का मुख देखे बिना स्वर्ग नहीं जा सकता और...’’

वरुण ने उसकी पूरी बात सुने बिना ही कहा, ‘‘पुत्र तो पैदा कर दूँगा, लेकिन इस शर्त पर कि उसके युवा होते ही तुम मेरे नाम पर उसकी बलि चढ़ा दोगे। तब तक तुम उसका मुख देख-देखकर स्वर्ग में अपना स्थान आरक्षित करा लेना।’’

हरिश्चंद्र ने सोचा कि अभी शर्त मान लेता हूँ, आगे की आगे देखी जायेगी। आखिरकार मैं राजा हूँ और वसिष्ठ जैसा घाघ ब्राह्मण मेरा पुरोहित है। शर्त से बचने या मुकरने की कोई न कोई तरकीब निकल ही आयेगी। उसने वरुण को वचन दे दिया कि ठीक है, पुत्र के युवा होते ही मैं तुम्हारे नाम पर उसकी बलि चढ़ा दूँगा।

लेकिन पुत्र रोहित या रोहिताश्व जब युवा हो गया और वरुण को दिये हुए वचन के मुताबिक उसकी बलि देने का समय आया, तो हरिश्चंद्र टालमटोल करने लगा। बहाने बनाने लगा। तरह-तरह के झूठ बोलने लगा।

आखिरकार वरुण को गुस्सा आ गया। उसने हरिश्चंद्र को झूठा, मक्कार और बेईमान बताते हुए फटकारा और रोहित की बलि का एक दिन निश्चित कर दिया। हरिश्चंद्र ने वसिष्ठ से रोहित को बचाने का कोई उपाय बताने को कहा, तो वसिष्ठ ने कहा, ‘‘यदि विश्वामित्र रोहित को शरण देकर अपने आश्रम में छिपाकर रख ले, तो रोहित बच सकता है; क्योंकि विश्वामित्र के पास ऐसी शक्तियाँ हैं कि देवता भी उससे डरते हैं।’’ हरिश्चंद्र को यह उपाय अच्छा लगा। वह वसिष्ठ को साथ लेकर विश्वामित्र के आश्रम में गया।

जिस समय ये दोनों वहाँ पहुँचे, विश्वामित्र के कई शिष्य शस्त्रों और शास्त्रों का अभ्यास कर रहे थे और विश्वामित्र के सामने बैठा एक युवक उसे अपनी कविता सुना रहा था। पास पहुँचकर दोनों ने विश्वामित्र को युवक की प्रशंसा करते सुना, ‘‘साधु, वत्स, साधु! तुम तो युवावस्था में ही मंत्र-द्रष्टा कवि बन गये हो। मैं तुम्हारी रचनाएँ ऋग्वेद में संकलित कराऊँगा।’’

निकट आकर वसिष्ठ ने व्यंग्यपूर्वक कहा, ‘‘अरे, भाई विश्वामित्र, मैंने भी कुछ मंत्र रचे हैं। मेरे मंत्र भी ऋग्वेद में संकलित करा दो!’’

विश्वामित्र ने उठकर वसिष्ठ और हरिश्चंद्र का स्वागत किया और उन्हें बिठाकर उस युवक के बारे में बताया कि ‘‘यह मेरे मित्र अजीगर्त का पुत्र शुनःशेप है। बड़ा प्रतिभाशाली है। इसकी माता मुझे भाई मानती है, इसलिए यह मुझे मामा कहता है। यहीं पास में इसका घर है। कुछ रच लेता है, तो मुझे सुनाने चला आता है।’’

शुनःशेप ने दोनों आगंतुकों को प्रणाम किया और विश्वामित्र से घर जाने की आज्ञा लेकर चला गया। वसिष्ठ ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा, ‘‘यह अजीगर्त का पुत्र है? उस दरिद्र ब्राह्मण अजीगर्त का, जो आजकल भूखों मर रहा है?’’

‘‘एक भाई के रहते बहन का परिवार भूखों नहीं मर सकता।’’ विश्वामित्र ने कहा, ‘‘हाँ, बुरा समय किसी पर भी आ सकता है। अजीगर्त पर आजकल बुरा समय आया हुआ है। लेकिन यह शुनःशेप बड़ा होनहार है। यह जल्दी ही अपने परिवार का भार उठाने में समर्थ हो जायेगा। खैर, तुम सुनाओ, आज इधर कैसे?’’

वसिष्ठ ने हरिश्चंद्र के साथ आने का कारण बताया और हरिश्चंद्र हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगा कि ‘‘आप रोहित को अपने आश्रम में छिपा लें।’’

विश्वामित्र ने हरिश्चंद्र को फटकारते हुए कहा, ‘‘वचन देकर उसका पालन न करने वाले असत्यवादी हरिश्चंद्र, तूने वरुण को जो वचन दिया है, उसका पालन कर। मैं तेरे पुत्र को अपने आश्रम में छिपाकर तेरे मिथ्याचार में शामिल नहीं हो सकता।’’ फिर उसने वसिष्ठ को भी आड़े हाथों लिया, ‘‘और वसिष्ठ, तुम कैसे गुरु और पुरोहित हो? तुम्हें तो इस हरिश्चंद्र को प्रेरित करना चाहिए था कि यह पृथ्वी को ही स्वर्ग बनाने का अपने पिता त्रिशंकु का अधूरा काम पूरा करे। इसके विपरीत तुमने इसे पुराने अंधविश्वास में फँसा दिया कि निपूता आदमी मरने के बाद स्वर्ग नहीं जा सकता। मरने के बाद कौन कहाँ जाता है, कौन जानता है? लेकिन लोग इस अंधविश्वास में फँसकर अपनी पत्नी को व्यभिचार के लिए भी विवश कर देते हैं। पूछो इस हरिश्चंद्र से, जब यह अपनी पत्नी को नियोग के लिए वरुण के पास ले गया था, क्या इसने अपनी पत्नी की इच्छा-अनिच्छा पूछी थी? फिर, पुत्र की बलि से संबंधित वरुण की शर्त इसने क्यों मान ली? इसने तभी सोच लिया था कि यह शर्त के अनुसार दिये गये वचन का पालन नहीं करेगा। तो फिर इसने झूठा वचन क्यों दिया?’’

वसिष्ठ ने हरिश्चंद्र का बचाव करते हुए कहा, ‘‘यह रोहित की बलि चढ़ा देगा, तो इसके राज्य का उत्तराधिकारी कौन होगा?’’

विश्वामित्र ने कहा, ‘‘राज्य का उत्तराधिकारी राजा का पुत्र या कोई पुरुष ही क्यों होना चाहिए? हरिश्चंद्र की सौ रानियाँ हैं। उनमें से कोई एक या वे सब मिलकर राज्य नहीं कर सकतीं?’’

‘‘कैसी नीति-विरोधी बातें करते हो, विश्वामित्र! भला स्त्रियाँ भी कहीं...’’

‘‘तुम मेरे सामने नैतिकता की बात मत करो, वसिष्ठ! इस नपुसंक राजा हरिश्चंद्र ने सौ विवाह किये, क्या यह नैतिक था? पुत्र प्राप्त करने के लिए यह अपनी पत्नी को स्वयं व्यभिचार के लिए ले गया, क्या यह नैतिक था? इसने जान-बूझकर वरुण को झूठा वचन दिया, क्या यह नैतिक था? और अब तुम दोनों मेरे पास जो प्रस्ताव लेकर आये हो, क्या वह नैतिक है?’’

काम बनता न देख वसिष्ठ उठ खड़ा हुआ और बेशर्म हँसी के साथ हरिश्चंद्र से बोला, ‘‘चलो, राजा हरिश्चंद्र! यह निष्ठुर विश्वामित्र तुम पर दया नहीं करेगा।’’ लेकिन आश्रम से बाहर आते ही उसने खलनायकों वाली क्रुद्ध और कुटिल हँसी के साथ घोषणा की, ‘‘मेरे रचे मंत्रों की उपेक्षा करने वाला यह विश्वामित्र अपने जैसा एक और मंत्र-द्रष्टा कवि बनाना चाहता है! मैं ऐसा कदापि नहीं होने दूँगा! कदापि नहीं!’’

वसिष्ठ के साथ चलते हरिश्चंद्र ने पूछा कि अब क्या किया जाये, तो वसिष्ठ ने कहा, ‘‘मैं वरुण को समझा-बुझाकर इसके लिए राजी कर लूँगा कि वह रोहित की जगह उसी की उम्र के किसी और युवक की बलि ले ले।’’
‘‘लेकिन ऐसा युवक मिलेगा कहाँ, जिसके माता-पिता उसे बेचने को तैयार हों और जो स्वयं भी बिकने को तैयार हो?’’ हरिश्चंद्र ने पूछा। वसिष्ठ ने दूसरी दिशा में शुनःशेप को जाते देख कहा, ‘‘देखो, वह रहा ऐसा युवक।  वह अपने घर ही जा रहा है। चलो, हम भी उसके घर चलते हैं और उसके पिता अजीगर्त को मुँहमाँगा मूल्य देकर इसे खरीद लेते हैं।’’

और वे अपने उद्देश्य में सफल हुए। अजीगर्त अपनी घोर गरीबी के कारण पुत्र शुनःशेप को बेचने के लिए और शुनःशेप अपने निर्धन परिवार के प्रति कर्तव्य पालन करने के उद्देश्य से बिकने को राजी हो गया। हरिश्चंद्र ने सौ गायों के बदले में शुनःशेप को खरीद लिया।

नाटक का अंतिम दृश्य इस प्रकार था :

हरिश्चंद्र, वसिष्ठ, वरुण आदि कई लोगों के बीच शुनःशेप बलि के लिए गाड़े जाने वाले खंभे से बँधा खड़ा है। एक जल्लाद नंगी तलवार लिये उसके निकट खड़ा है और एक ब्राह्मण बलि के समय पढ़े जाने वाले मंत्र पढ़ रहा है। बलि का समय आने ही वाला है कि विश्वामित्र आ जाता है और ऊँचे स्वर में सबको सुनाते हुए कहता है, ‘‘धिक्कार है! धिक्कार है इस नपुंसक, स्वार्थी और मिथ्यावादी हरिश्चंद्र को! धिक्कार है इर क्रूर, कुटिल और पाखंडी वसिष्ठ को! धिक्कार है देवता कहलाने वाले इस व्यभिचारी और नरभक्षी वरुण को! और धिक्कार है यहाँ उपस्थित उन सब लोगों को, जो मनुष्य की बलि को खेल-तमाशा समझकर देखने के लिए यहाँ एकत्र हुए हैं! मैं विश्वामित्र घोषणा करता हूँ कि एक गरीब पिता की मजबूरी का और परिवार के प्रति उत्तरदायी एक पुत्र की कर्तव्यनिष्ठा का लाभ उठाकर, राजा हरिश्चंद्र ने सौ गायों के बदले में शुनःशेप को खरीदकर, बलि के नाम पर उसकी हत्या करने का यह जो आयोजन किया है, वह सर्वथा अनुचित, अनैतिक और निंदनीय है। मैं उन सौ गायों को ले आया हूँ, जिनके बदले इस नीच ने शुनःशेप को खरीदा है। गायें उधर खड़ी हैं, हरिश्चंद्र चाहे तो जाकर उन्हें गिन ले। मैं शुनःशेप को ले जा रहा हूँ।’’

विश्वामित्र बलि-पशु की तरह बाँधे गये शुनःशेप को मुक्त करता है और जाते-जाते कहता है, ‘‘राजा, ब्राह्मण, देवता और नागरिक सब देख लें कि मैं शुनःशेप को ले जा रहा हूँ। किसी में हिम्मत और ताकत हो तो मुझे रोक ले। मैं इसे अपना पुत्र, शिष्य और ऋषि बनाऊँगा। इसके रचे मंत्रांे को ऋग्वेद में संकलित कराऊँगा, जिनसे इसका यश दुनिया भर में फैलेगा और इसकी कीर्ति अनंत काल तक कायम रहेगी।’’

विश्वामित्र चला जाता है। मंच पर सब स्तब्ध खड़े रह जाते हैं। कुछ देर बाद वसिष्ठ आगे आता है और व्यंग्यपूर्वक बोलता है, ‘‘यह विश्वामित्र महाज्ञानी है, किंतु बहुत भोला है! यह समझता है कि यश और कीर्ति का आधार ज्ञान है। यह नहीं जानता कि यश और कीर्ति का वास्तविक आधार धन और राज्य के बल पर किया जाने वाला प्रचार है। मैं इस आधार पर ऐसा चमत्कार कर दिखाऊँगा कि राजा हरिश्चंद्र युगों-युगों तक सत्यवादी कहलायेगा, विश्वामित्र एक क्रोधी और दुष्ट ऋषि के रूप में जाना जायेगा और शुनःशेप को कोई नहीं जानेगा। उसकी कथा केवल किताबों में बंद होकर रह जायेगी!’’

अचानक सूत्रधार, मंच के अग्रभाग में दर्शकों के ठीक सामने आकर कहता है, ‘‘वसिष्ठों को हमेशा यह भ्रम रहा है कि वे असत्य को सत्य के रूप में प्रचारित करके उसे सदा के लिए सत्य बना देंगे। लेकिन वे भूल जाते हैं कि विश्वामित्रों ने उन्हें हमेशा चुनौतियाँ दी हैं और देते रहेंगे। विश्वामित्रों ने वसिष्ठों को ही नहीं, ब्रह्माओं तक को चुनौतियाँ दी हैं और देते रहेंगे। विश्वामित्रों ने उनकी बनायी मिथ्या सृष्टियों के विरुद्ध सच्ची प्रतिसृष्टियाँ की हैं और करते रहेंगे।’’



नाटक समाप्त हुआ, तो प्रेक्षागृह तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। दर्शक खड़े होकर देर तक तालियाँ बजाते रहे। अंततः जब पटाक्षेप हुआ, तो मैंने बाहर आकर अपने ‘अंगरक्षकों’ से विदा ली और सुकुमार से मिलने, उनको बधाई देने, नेपथ्य की ओर चल दिया। लेकिन वहाँ मैं यह देखकर हैरान रह गया कि सुकुमार, दमयंती जी, अतुल, प्रभा, जय और विजय सब एक साथ खड़े हैं और हँस-हँसकर बातें कर रहे हैं।

मुझे देखते ही दमयंती जी स्नेहपूर्वक डाँटते हुए बोलीं, ‘‘तुम तो बड़े स्वार्थी हो, चंडी! अपनी सृष्टि को घर छोड़कर यहाँ दूसरों की प्रतिसृष्टि देखने चले आये? प्रभा और बच्चों को साथ नहीं ला सकते थे? प्रभा ने मुझे फोन करके बताया, तो मैं तुरंत अतुल के साथ तुम्हारे घर गयी और इन लोगों को ले आयी।’’

मैं कुछ कह पाता, इसके पहले ही विजय ने मुझसे कहा, ‘‘पापा, हमने हॉल के अंदर आपको देख लिया था, आपने हमें नहीं देखा!’’

प्रभा ने ताना मारा, ‘‘वी.आइ.पी. लोग इधर-उधर नहीं देखते, बेटा! सीधे सामने ही देखते हैं!’’

मैंने हाथ जोड़कर संकेतों में उससे क्षमा माँगी और सुकुमार को बधाई देकर नाटक की प्रशंसा करने लगा। तभी जय ने सुकुमार से पूछा, ‘‘दादू जी, राजा हरिश्चंद्र इतना झूठा था, तो हमारे स्कूल की किताब उसे सत्यवादी क्यों बताती है?’’

सुकुमार ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘जैसे लोग सच्चे और झूठे होते हैं, बेटा, उसी तरह किताबें भी सच्ची और झूठी होती हैं।’’

Wednesday, November 6, 2013

कहानी समीक्षा


आज का यथार्थ : आज की कहानी 
विशेष संदर्भ : विमल चंद्र पांडेय की कहानी काली कविता के कारनामे


ऐसा कम ही होता है कि कहानियाँ और उन पर लिखी समीक्षाएँ साथ-साथ पढ़ने को मिल जायें। विजय राय के संपादन में लखनऊ से निकलने वाली पत्रिका लमहीके सुशील सिद्धार्थ के अतिथि संपादन में निकले कहानी विशेषांक (अप्रैल-सितंबर, 2013) ने यह दुर्लभ अवसर उपलब्ध कराया है। विशेषांक में प्रकाशित दस कहानियों पर लिखी गयी समीक्षाओं से पता चलता है कि आज की हिंदी कहानी तो आज के गतिशील तथा परिवर्तनशील यथार्थ को विभिन्न रूपों में सामने लाती हुई यथार्थवाद का विकास कर रही है, मगर हिंदी की कहानी-समीक्षा उस यथार्थ को और कहानी में निरूपित उसके विभिन्न रूपों को समझने के नये उपकरण विकसित करने के बजाय कलावाद, अनुभववाद, विमर्शवाद इत्यादि की यथार्थवाद-विरोधी दिशाओं में ही भटक रही है। कहानी और कहानी-समीक्षा दोनों का विकास अन्योन्याश्रित है और इसके लिए दोनों का साथ चलना जरूरी है। लेकिन आज की कहानी तेजी से अपना विकास कर रही है, जबकि कहानी-समीक्षा उसके साथ कदम से कदम मिलाकर न चल पाने के कारण पिछड़ रही है और कहानी के विकास को भी बाधित कर रही है।
विडंबना यह है कि कहानी के साथ न चल पा रही, पिछड़ रही या उसके विकास की दिशा से भिन्न और विपरीत दिशाओं में जाकर भटक रही समीक्षा कहानी का सही मूल्यांकन करने में समर्थ होने का, कहानी की साहित्यिकता या कलात्मकता के बारे में फतवे देने का, कहानी को गलत दिशा में जाने से रोककर सही दिशा में आगे बढ़ाने में समर्थ होने का दंभ भी पाले हुए है। 

उदाहरण के तौर पर लमहीके उक्त विशेषांक में प्रकाशित एक बेहतरीन यथार्थवादी कहानी और उसकी बेहद खराब कलावादी समीक्षा को देखा जा सकता है। कहानी है विमल चंद्र पांडेय की काली कविता के कारनामेऔर कहानी की समीक्षा है अर्चना वर्मा की यथार्थ की जटिलता बरक्स उपाय की सरलता का पारस पत्थर। 

जैसा कि शीर्षक से ही स्पष्ट है, कहानी काली कविता के कारनामेकविता नामक एक स्त्री की कहानी है। आजकल हिंदी में स्त्री और दलित रचनाकारों के संदर्भ में स्वानुभूतिऔर सहानुभूतिका प्रश्न बड़े जोर-शोर से उठाया जाता है। अतः पहले ही स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि स्त्री द्वारा ही स्त्री के बारे में लिखी गयी कहानी को स्वानुभूतिके आधार पर लिखी गयी प्रामाणिककहानी मानने वाले तथा पुरुष द्वारा स्त्री के बारे में लिखी गयी कहानी को सहानुभूतिके आधार पर लिखी गयी अप्रामाणिककहानी बताने वाले कहानी-समीक्षकों द्वारा दिये जाने वाले चरित्र प्रमाणपत्र अनुभववादी कहानी के संदर्भ में भले ही कुछ उपयोगी होते हों, यथार्थवादी कहानी के लिए उनकी कोई उपयोगिता या सार्थकता नहीं होती। यह कहानी विमल चंद्र पांडेय ने लिखी है। लेकिन अगर किन्हीं विमला कुमारी पांडेय ने लिखी होती, तो भी इसे ऐसे किसी चरित्र प्रमाणपत्र की आवश्यकता न होती। इसमें कुछ दलित पात्र भी हैं और उनके प्रति एक ब्राह्मण लेखक द्वारा सहानुभूति व्यक्त की गयी है। फिर भी इसके संदर्भ में यह प्रश्न अप्रासंगिक है कि इसे दलितवादी कहानी कहा जाये कि न कहा जाये और कहा जाये, तो प्रामाणिक कहा जाये या अप्रामाणिक। यथार्थवादी कोई भी हो सकता है और यथार्थवादी रचना का निजी अनुभव पर ही आधारित होना आवश्यक नहीं है। इसलिए यथार्थवादी कहानी और कहानी-समीक्षा के लिए यह पूरी बहस ही बेमानी है। 

जहाँ तक इस कहानी की कलात्मकता का प्रश्न है, उसे भी कलावादी नहीं, यथार्थवादी कहानी-समीक्षा ही सामने ला सकती है, क्योंकि कलावादी कहानी-समीक्षा के पास वह दृष्टि ही नहीं है, जो यथार्थवादी कहानी की कलात्मकता को देख सके। 

कलावादी कहानी-समीक्षा के लिए इस बात का कोई विशेष मूल्य नहीं होता कि कहानी में क्या कहा गया है। उसके लिए प्राथमिक और महत्त्वपूर्ण होता है यह देखना कि कहानी कैसे कही या लिखी गयी है। अर्चना वर्मा को इस बात से विशेष मतलब नहीं है कि इस कहानी का कथ्य क्या है। उनका जोर इस पर है कि इस कहानी का रूप या शिल्प क्या है। उन्हें कहानी सरल ढंग से कही गयी लगती है, जबकि उन्हें (या सभी कलावादियों को) साहित्य में सरलता नहीं, जटिलता पसंद है। समीक्षा की शुरुआत से ही वे सरलता-जटिलता की बात करने लगती हैं : 

‘‘सरल होना बहुत सरल नहीं है। बिना सरलीकरण किये हुए सरल होना तो दरअसल कठिन भी है। बहुत-सी जटिलताओं का इलाज तो सरल होने में ही छिपा है। और इलाज का रास्ता रोग की समझ से होकर या जटिलताओं को दरकिनार करके नहीं, उनके बीच से गुजरकर जाता है।’’ 

इसके बाद वे सरलता-जटिलता का संबंध यथार्थवाद से जोड़ती हैं और प्रेमचंद में दो तरह का यथार्थवाद बताती हैंµएक कफनकहानी वाला जटिल यथार्थवाद और दूसरा कफनसे पहले वाला सरल यथार्थवाद। उन्हें कफनवाले प्रेमचंद का यथार्थवाद पसंद है, जिसे वे आज के कहानीकारों में देखती हैं या देखना चाहती हैं, लेकिन पाती हैं कि विमल चंद्र पांडेय ने अपनी कहानी में ‘‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद के जमाने वाले प्रेमचंद की परंपरा का’’ उत्तराधिकारी होना चुना है। 

अर्चना वर्मा प्रेमचंद की परंपरा के जिन दो रूपों की बात कर रही हैं, उनके प्रसंग में याद रखना जरूरी है कि 1980 के दशक में प्रेमचंद की परंपरा पर हिंदी के कलावादी और यथार्थवादी लेखकों के बीच एक घमासान मचा था। उसमें कलावादियों ने प्रेमचंद की परंपरा को कफनकहानी वाले प्रेमचंद से जोड़ा था, जबकि यथार्थवादियों ने संपूर्ण प्रेमचंद साहित्य से। इस संदर्भ को ध्यान में रखने पर स्पष्ट हो जायेगा कि अर्चना वर्मा हिंदी कहानी में यथार्थवाद के सवाल पर कहाँ खड़ी हैं। 

अर्चना जी शायद यह मानती हैं कि विमल चंद्र पांडेय वाली पीढ़ी की सोच-समझ प्रेमचंद की कफनवाली परंपरा से जुड़ती है। लेकिन पूरी पीढ़ी की सोच-समझ ऐसी ही है, यह दावा कोई नहीं कर सकता। फिर, यदि अकेले विमल ने ही अपना संबंध प्रेमचंद की आदर्शोन्मुख यथार्थवाद वाली परंपरा से जोड़ा है, तो भी कहानी-समीक्षक के लिए यह एक विशेष और महत्त्वपूर्ण बात होनी चाहिए थी, जिस पर उसे विशेष ध्यान देना चाहिए था। लेकिन अर्चना जी विमल की कहानी के यथार्थवाद पर बात ही नहीं करतीं। बल्कि उसे उपेक्षणीय मुद्दा मानकर जटिलता और सरलता की बात करते-करते यह बताने लगती हैं कि साहित्य और पत्रकारिता दो अलग चीजें हैं और पत्रकारिता को साहित्य नहीं कहा जा सकता। इस आधार पर वे विमल की कहानी को ही नहीं, प्रेमचंद की भी ‘‘बहुत-सी’’ कहानियों को पत्रकारिता से जोड़कर साहित्य से खारिज कर देती हैं। उनके अनुसार लेखक ने यह कहानी ‘‘अपने समय के यथार्थ की पकड़ के साथ यथार्थोन्मुख बनाते हुए’’ लिखी है और ‘‘इस काम को अंजाम देने में बड़ा हाथ वृत्तांत शैली की पत्रकारिता का भी है’’। अर्चना जी इसे कहानी नहीं, बल्कि यथार्थ की रिपोर्टिंग या ‘‘कवरेज’’ मानती हैं और लिखती हैं :

‘‘पत्रकारिता में भी ऐसे कवरेज को स्टोरी या कहानी ही कहा जाता है। प्रेमचंद ने भी अपने समय की सुर्खियों को लेकर बहुत-सी ऐसी कहानियाँ लिखी थीं, जिनका सत्यापन दैनिक अखबार से किया जा सकता था।’’ 

इस समीक्षा में ‘‘प्रेमचंद की ही तरह विमल के सामने अपना लक्ष्यार्थ और लक्षित पाठक दोनों ही सुस्पष्ट और सुपरिभाषित हैं’’ जैसे वाक्य ऊपर से प्रशंसात्मक लगते हैं, लेकिन उनसे निकलने वाली ध्वनि को ध्यान से सुना जाये, तो पता चलता है कि प्रेमचंद और विमल दोनों को साहित्यकार की जगह ‘‘वृत्तांत शैली का पत्रकार’’ बताया जा रहा है और उनके लेखन को सरल या सपाट बताकर साहित्य से खारिज किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि साहित्य का गुण है जटिलता, जो इस कहानी में नहीं है, इसलिए इसे साहित्य नहीं माना जा सकता। साहित्य तो वह होता है, जो जटिल हो; जिसकी व्याख्या करना मुश्किल हो! पत्रकारिता की-सी ‘‘कवरेज’’ वाली कहानी में यह बात कहाँ! अतः उसे ध्यान से पढ़ने-समझने की जरूरत ही नहीं! अर्चना जी प्रशंसा के शिल्प में विमल की कहानी की निंदा करते हुए लिखती हैं : 

‘‘किस्सा तो कुल इतना है कि कविता काली है, लेकिन उसका दिल उजला है, दुनिया भर की लड़कियों की तरह बहुत छोटी उम्र में ही उसको समझ में आ गया है कि दुनिया सुंदर नहीं है, लेकिन छोड़िए, किस्सा तो आप पढ़ ही लेंगे और इस किस्से की खासियत यह है कि जटिलता के बावजूद इसे किसी व्याख्या की जरूरत नहीं है। इसकी जटिलता यथार्थ की भले हो, संरचना या अभिव्यक्ति की नहीं है। यथार्थ भी जानकारी के अतिशय और अति परिचय की वजह से अपनी जटिलता का जटाभाव (?) खो बैठा है।’’ 

फिर जटिलता को रचनात्मकता का पर्याय-सा मानते हुए वे लिखती हैं कि विमल की कहानी (या किस्से या वृत्तांत शैली की पत्रकारिता वाले कवरेज) में ‘‘यथार्थ को निरुद्वेग सूचना की तरह दर्ज करने की विधि से रचनात्मकता निचोड़ी गयी है।’’ मानो यथार्थ सूखा नींबू हो, जिसमें से जबर्दस्ती रचनात्मकता का रस निचोड़ा गया हो! वे कहना दरअसल यह चाहती हैं कि जिस कहानी में जटिलता नहीं, उसमें रचनात्मकता नहीं। मगर उन्हें मालूम है कि इस कहानी को कलावादी ढंग से ही नहीं, यथार्थवादी ढंग से भी पढ़ा जा सकता है, इसलिए वे दो तरह के पाठकों की बात करती हैं। (कलावादी) ‘‘पाठक को अपनी संवेदना और रुचि के अनुसार तहदारी और परत-दर-परत गहराई में उतरते जाने की कमी खल सकती है’’, जबकि भिन्न ‘‘स्वाद और रुचि’’ वाले (यथार्थवादी) पाठक कह सकते हैं कि ‘‘यह कहानी यथार्थ के विस्तार की है और इस विन्यास में से उभरने वाली प्रत्याशाओं की कसौटी पर खरी उतरती है।’’ 

इसके बाद वे एक गुरु-गंभीर प्रश्न उठाती हैं--‘‘इस कहानी में ऐसा क्या है, जो इसे पत्रकारिता से अलग और रचनात्मक कथासाहित्य से एक करता है?’’ उत्तर में वे पुराने साहित्यशास्त्र से लेकर उत्तर-संरचनावाद तक की चर्चा करते हुए (और पाठकों को आतंकित करने के लिए कुछ विदेशी नाम टपकाते हुए) एक लंबा वक्तव्य देती हैं, जिसमें यह चुटकुला भी सुना देती हैं कि ‘‘यदि किसी को रेलवे-टाइम-टेबिल में कविता या कहानी दिखायी दे जाये तो वह कविता या कहानी ही है।’’

वक्तव्य के अंत में वे लिखती हैं-- ‘‘बुनियादी सवाल अब यह है कि साहित्य को सदियों के अंतराल में उत्पादित एक सांस्कृतिक संरचना माना जाये जो अपनी विशिष्ट रूढ़ियों द्वारा पोषित हुई और जो अब संचार-माध्यमों के समक्ष संभावित विनाश का सामना कर रही है या फिर वह अपने आप में विमर्श की कोई विशिष्ट और बुनियादी कोटि भी है?’’ 

अपने जटिलता के जटाभाव वाले अंदाज में वे अपने सवाल का विमल की कहानी के संदर्भ में ‘‘सीधा उत्तर’’ यह कहकर देती हैं :

‘‘वास्तविक भौगोलिक लोकेशन वास्तविक व्यक्ति और वास्तविक आँकड़ों से पुष्ट यथातथ्य प्रामाणिकता के साथ यही कहानी अखबार में छपकर अखबारी वृत्तांत या वृत्तांत शैली की पत्रकारिता होगी और साहित्यिक पत्रिका में इस दावों (?)  के बगैर वृत्तांत शैली की साहित्य रचना।’’
प्रस्तुत पंक्तियों का लेखक स्वीकार करता है कि वह अर्चना जी के वक्तव्य की ‘‘तहदारी और परत-दर-परत गहराई’’ में उतरते जाने में असमर्थ है। वह लगभग पाँच दशकों से साहित्य और पत्रकारिता दोनों में थोड़ा दखल रखने के बावजूद यह समझ पाने में असमर्थ है कि कोई रचना अखबार में छपने पर पत्रकारिता और साहित्यिक पत्रिका में छपने से साहित्य कैसे हो जाती है! बहरहाल, वह विमल को बधाई देता है कि साहित्यिक पत्रिका में छपने के कारण ही सही, उनकी कहानी आखिर साहित्य तो मानी गयी! 

समीक्षा के उत्तरार्ध में कहानी के बारे में जो कहा गया है, इतना ही है कि इस कहानी में ‘‘एक वृत्तांत है, जो शिक्षा की व्यवस्था और संस्थान के अभावों और विकृतियों को अपने केंद्र में रखकर उसके इर्द-गिर्द अन्य तरह-तरह के अस्मिता-विमर्शों के ताने-बाने से कथा की शक्ल अख्तियार करता है।’’ ये विमर्श हैंµस्त्री विमर्श और चूँकि कविता काली है, इसलिए ‘‘साहचर्य- संकेत से कथातत्त्व में खींच लाया गया’’ रंगभेद-विमर्श। लेकिन अर्चना जी के विचार से ‘‘इस वृत्तांत का विमर्श तत्त्व’’ भी गड़बड़ है, क्योंकि ‘‘शिक्षासंस्थान और व्यवस्था के विश्लेषण को कथात्मक बनाये रखना कहानी के उत्तरार्ध में उतना आसान नहीं दिखता, जितना कि पूर्वार्ध में कविता के अस्मिता-बोध की रचना का वृत्तांत।’’ उसमें उल्लेखनीय कुछ है, तो ‘‘ज्ञात और परिचित भ्रष्टाचारों के सपाट और थोक की सामान्यता के निरसन और अनावश्यक ब्यौरों के संक्षेपण के लिए दो अलंकृतियों का इस्तेमाल’’! ये दो अलंकृतियाँ हैंµ‘‘स्कूल की मुँडेर पर बैठने वाले विशालकाय गिद्ध, जिन्हें शायद केवल कविता देख पाती है, और (शिक्षण का) पारस पत्थर जिससे घिस-घिसकर वह अपने छात्र-छात्राओं के लोहे को सोने में बदलती है।’’ 

लेकिन उल्लेखनीय का अर्थ प्रशंसनीय नहीं है। इन ‘‘अलंकृतियों’’ में भी खोट है। अर्चना जी शायद इन्हें ‘‘अलंकरण’’ कहना चाहती हैं, इसलिए अलंकरणशब्द लाये बिना स्त्रीलिंग अलंकृतियोंको पु¯ल्लग में बदलते हुए लिखती हैंµ‘‘ये अपनी इकहरी पारदर्शिता की वजह से रूपकीय संक्षेपण की सघनता या जादुई-यथार्थ की अनुभवात्मक सत्ता तक नहीं जाते, सायन-विधान तक ही रह जाते हैं।’’
समीक्षा की अंतिम पंक्तियाँ हैं :

‘‘वृत्तांत के अंत की तरफ गिद्ध मुँडेर छोड़कर उड़ जाते हैं। सिर्फ वृत्तांत का अंत क्योंकि कहानी खत्म नहीं होती, एक बहुत सार्थक समापन टिप्पणी के हस्तक्षेप से वृत्तांत के आमने-सामने खड़ी रह जाती है। कथाकार विमल की स्वागत योग्य संभावनाओं को उजागर करती हुई।’’ 

यह प्रशंसा है या निंदा? या व्याजोक्ति का नमूना? पाठक स्वयं तय करें। 

कुल मिलाकर अर्चना वर्मा ने उत्तर-आधुनिकतावाद के घिसे-पिटे पत्थर पर घिसकर पैनायी गयी भोंथरी कलावादी छुरी से विमल की बेहतरीन यथार्थवादी कहानी का गला रेतने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। लेकिन वे इसकी हत्या करने के प्रयास में सफल नहीं हो पायी हैं। समीक्षा खराब रचना में जान नहीं डाल सकती, तो अच्छी रचना को मार भी नहीं सकती।

आइए, अब उनकी समीक्षा से अलग हटकर आज के यथार्थ और आज की कहानी के संदर्भ में विमल चंद्र पांडेय की कहानी काली कविता के कारनामेको देखें। 

यह कहानी आज के उस समय में लिखी गयी है, जो भारत में ही नहीं, समूचे विश्व में भारी उथल-पुथल का समय है। लेकिन यह उथल-पुथल दुनिया को बेहतर और सुंदर बना सकने वाली किन्हीं क्रांतिकारी शक्तियों ने नहीं, बल्कि पूँजीवाद की संकटग्रस्त भूमंडलीय व्यवस्था ने मचा रखी है। इस उथल-पुथल का असर कर्ज के शिकंजे में जकड़े जाकर लगभग पराधीन हो चुके भारत जैसे देशों के जन-जीवन पर यह पड़ रहा है कि जीवन की सारी सच्चाई, अच्छाई और सुंदरता गायब होती जा रही है। राजनीति हो या अर्थनीति, धर्म हो या संस्कृति, उद्योग हो या व्यापार, सरकारी नौकरियाँ हों या निजी काम-धंधे, हर जगह झूठ, बेईमानी, छल-कपट, अनैतिकता, स्वार्थपरता, भ्रष्टाचार, हिंसा, शोषण, दमन, उत्पीड़न, हर तरह की बुराई और हर तरह की कुरूपता का बोलबाला है। सच्चाई, अच्छाई और सुंदरता जैसी चीजें भी हैं, लेकिन वे दबी रहती हैं या दबा दी जाती हैं, इसलिए अक्सर दिखायी नहीं देतीं। उनको सामने लाने वाला कोई सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन तो क्या, साहित्यिक-सांस्कृतिक आंदोलन भी नहीं चल रहा। नतीजा यह है कि अच्छे और भले लोग अपने-अपने काम में अकेले लगे रहने को मजबूर हैं। वे अकेले और अलग-थलग पड़कर गुमनामी में जीते हैं, इसलिए समाज में दिखायीनहीं देते और इसीलिए साहित्य और कलाओं में भी नजर नहीं आते। 

आज के इस निराशाजनक यथार्थ के बरक्स आज की हिंदी कहानी को देखने पर यह समझना मुश्किल नहीं रहता कि उसमें आशावाद और आदर्शवाद लगभग अनुपस्थित क्यों मिलता है। आजकल कहानी हो या उपन्यास, नाटक हो या सिनेमा, हर जगह नकारात्मक चरित्रों की भरमार है। नकारात्मकता हर जगह इतनी हावी है कि वही सच और यथार्थ लगती है। सकारात्मक चरित्र नकली, बनावटी और अविश्वसनीय लगते हैं। इसीलिए हिंदी फिल्मों में कल का विलेन आज हीरो है और कल का हीरो हास्यास्पद चरित्र। आज की हिंदी कहानी में भी कमोबेश यही हाल है। लोग सिनेमा और संचार माध्यमों में पसरी और उनके द्वारा पसारी जाती नकारात्मकता से तंग आकर कुछ सकारात्मक पाने की आशा में कहानी की ओर आते हैं, लेकिन पाते हैं कि यहाँ भी ज्यादातर नकारात्मक चीजों को ही यथार्थ बताकर परोसा जा रहा है और सकारात्मक चीजों को अक्सर काल्पनिक, आदर्श, यूटोपिया आदि कहकर या तो खारिज किया जा रहा है या उनकी खिल्ली उड़ायी जा रही है। इन सब चीजों का असर कुल मिलाकर यह होता है कि लोग पड़ोस में रहने वाले एक भले आदमी की भलाई को जानते हुए भी उस पर विश्वास नहीं करते, जबकि जनहित की बातें और जन-विरोधी काम करने वाले नेताओं तथा ढोंगी, पाखंडी, हिंसक और बलात्कारी बाबाओं के चरित्र को जानते हुए भी उन पर विश्वास करते हैं और उनके भाषण और प्रवचन सुनने चले जाते हैं। 

तो क्या यह मान लिया जाये कि कहानी सच कहने की शक्ति खो चुकी है? क्या वह अब सच्चाई और अच्छाई को सामने लाने में समर्थ नहीं रह गयी है? नहीं। उसमें यह शक्ति और सामर्थ्य अभी है। इसीलिए आज के उपयोगितावादी और बाजारवादी समय में भी पाठक उसे पढ़ते हैं और लेखक, उससे कोई खास लाभ न होने पर भी, उसे लिखते हैं। अतः यह कहना गलत है कि अब कहानी कोई नहीं पढ़ता और कहानीकार पाठकों के लिए नहीं, बल्कि संपादकों, समीक्षकों और पुरस्कार आदि देने वालों के लिए ही लिखते हैं। आजकल कहानीकारों पर, खास तौर से नये कहानीकारों पर, यह आरोप भी लगाया जाता है कि वे बाजारवादी हो गये हैं, बाजार में बिक सकने वाली चीजें ही लिखते हैं, समाज और साहित्य की उन्हें कोई परवाह नहीं है, इत्यादि। लेकिन ये बातें कुछ हद तक सच होते हुए भी पूरी तरह सच नहीं हैं। दुनिया के अन्य तमाम क्षेत्रों की तरह साहित्य के क्षेत्र में भी बुराइयाँ मौजूद हैं, लेकिन दुनिया के अन्य तमाम क्षेत्रों की तरह ही साहित्य के क्षेत्र में भी अच्छाइयाँ मौजूद हैं। अब यह हम पर हैµइस क्षेत्र में सक्रिय लेखकों, पाठकों, समीक्षकों, संपादकों, प्रकाशकों, शिक्षकों आदि परµकि हम अच्छाइयों पर ध्यान देते हैं या बुराइयों पर। साहित्य में निहित नकारात्मकता को ही उभारते हैं या सकारात्मकता को भी सामने लाते हैं! 

इस तरह देखें, तो आज की हिंदी कहानी आज के इसी यथार्थ को देखने-दिखाने वाली कहानी है, जो अंधकारमय है, पर जिसमें उजाले भी हैं; जो निराशाजनक है, पर जिसमें उम्मीदें भी हैं; जो बुरा है, पर जिसमें अच्छाइयाँ भी हैं। और यह साहित्य से जुड़े किसी भी सदाशयी व्यक्ति के लिए सुख और संतोष की बात हो सकती है कि यथार्थवाद- विरोधी शक्तियों और प्रवृत्तियों की बड़ी भारी उपस्थिति के बावजूद आज की हिंदी कहानी उन शक्तियों और प्रवृत्तियों से संघर्ष करती हुई अपनी यथार्थवादी परंपरा में ही अपना विकास कर रही है। हाँ, यथार्थवाद के विभिन्न रूप हैं और यह कहानीकार की निजी रुचि, प्रवृत्ति, शक्ति और क्षमता पर निर्भर है कि वह अपनी कहानी के लिए यथार्थवाद के किस रूप को उचित और आवश्यक समझता है अथवा उसके किसी नये रूप के आविष्कार की आवश्यकता अनुभव करता है। 

विमल चंद्र पांडेय पिछले दस-पंद्रह वर्षों में हिंदी कहानीकारों की जो नयी पीढ़ी उभरकर सामने आयी है, उसके एक महत्त्वपूर्ण कहानीकार हैं। काली कविता के कारनामेसे पहले की अपनी कहानियों में भी उन्होंने प्रेमचंद की यथार्थवादी परंपरा को ही आगे बढ़ाने का काम किया है। उन्होंने अपनी पीढ़ी के उन कहानीकारों से, जो कहानी में कथ्य से अधिक भाषा और शिल्प पर जोर देते हैं, अपनी अलग पहचान बनायी है। यद्यपि उनकी कहानियों में भी भाषा का अपना एक अलग और विशिष्ट अंदाज है, जो जन-जीवन से उनके गहरे लगाव-जुड़ाव का परिचय देता है; उनकी शैली में भी अपनी पीढ़ी के कहानीकारों का-सा चुलबुलापन और खिलंदड़ापन है; लेकिन वे शिल्पगत चमत्कारों के चक्कर में नहीं पड़ते। अतः उनकी कहानियाँ सहज संप्रेषणीय होती हैं। सबसे बड़ी बात यह कि वे कलावादी, अनुभववादी और उत्तर-आधुनिकतावादी प्रभावों से सचेत रूप से बचते हुए स्वयं को हिंदी कहानी की यथार्थवादी परंपरा से जोड़े रखकर उसे आगे बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील दिखायी देते हैं। 

लेकिन हिंदी की यथार्थवादी कहानी-समीक्षा आज के ऐसे कहानीकारों द्वारा लिखी जा रही उत्कृष्ट यथार्थवादी कहानियों पर अपेक्षित ध्यान नहीं दे पा रही है। अतः प्रस्तुत पंक्तियों का लेखक, जो स्वयं कहानीकार है, कहानी-समीक्षक नहीं है, आपद्धर्म के रूप में विमल चंद्र पांडेय की कहानी को एक उदाहरण के तौर पर सामने रखते हुए यथार्थवादी कहानी-समीक्षा के विकास के लिए आज की यथार्थवादी कहानी की चार प्रमुख विशेषताओं को रेखांकित करना चाहता है।

एक : आज की यथार्थवादी कहानी जीवन और जगत के यथार्थ को समग्रता में देखती है। उत्तर-आधुनिकतावाद यथार्थ को समग्रता के विरुद्ध विखंडित रूप में देखने की बात करता है। यह आज के पूँजीवाद की विचारधारा है, लेकिन इसके पीछे एक बहुत पुराना शासकवर्गीय सिद्धांत काम करता हैµबाँटो और शासन करो। कहानी-लेखन में यह विचार और सिद्धांत इस रूप में आता है कि यथार्थ को समग्रता में नहीं समझा जा सकता, खंड-खंड करके ही समझा जा सकता है; अतः कहानी में उसका चित्रण समग्र रूप में नहीं, विखंडित रूप में ही होना चाहिए। इसके लिए यह सिद्धांत विभिन्न अस्मिताओं की बात करता है और बताता है कि प्रत्येक देश का, प्रत्येक समाज का, प्रत्येक समुदाय का, प्रत्येक जाति का और प्रत्येक व्यक्ति का यथार्थ भिन्न होता है। पुनः व्यक्तियों में भी गोरों, कालों, स्त्रियों, पुरुषों, दलितों, सवर्णों, बच्चों, युवाओं, वृद्धों, समलैंगिकों, विषमलैंगिकों इत्यादि सबके यथार्थ भिन्न होते हैं और समग्र यथार्थ से उनका कोई लेना-देना नहीं होता। इसके विपरीत यथार्थवादी कहानी इन सारी भिन्नताओं को एक समग्रता के विभिन्न अंगों के रूप में देखती है। 

विमल चंद्र पांडेय इन समस्त भिन्नताओं को जानते और पहचानते हैं, कहानियों में उन्हें सामने भी लाते हैं, लेकिन उन्हें समग्रता में ही देखते हैं। काली कविता के कारनामेमें शहरी मध्यवर्गीय जीवन से लेकर ग्रामीण जन-जीवन तक का यथार्थ सामने लाते हुए वे एक लड़की की कहानी कहते हैं, लेकिन उसमें वे कई विभिन्न प्रकार के चरित्रों की कहानियाँ एक साथ और बड़ी सहजता के साथ इस प्रकार गूँथ देते हैं कि वे अलग- अलग होकर भी एक हो जाती हैं। 

दो : आज की यथार्थवादी कहानी यथार्थ को गतिशील और परिवर्तनशील रूप में देखती-दिखाती है। वह मानव समाज के ऐतिहासिक अनुभव के आधार पर यथार्थ को बदलकर दुनिया को बेहतर बनाये जा सकने को संभव मानती है और यह मानकर चलती है कि इसमें कथासाहित्य की भी एक भूमिका होती है। इसके विरुद्ध उत्तर-आधुनिकतावाद साहित्य को भाषा का खेल या खिलवाड़ मानता है और हर प्रकार की अभिव्यक्ति को एक भाषिक रूप या डिस्कोर्सबताता है, जिसके लिए हिंदी में विमर्शशब्द प्रचलित है। इस विमर्शवाद  ने साहित्य को सामाजिक सरोकारों से काटकर तथा सामाजिक परिवर्तन में उसकी भूमिका को नकारकर उसे निरर्थक और निरुद्देश्य बना दिया है। विभिन्न प्रकार की अस्मिताओं वाला विमर्शवादी साहित्य ऊपर से बड़ा यथार्थवादी और क्रांतिकारी लगता है, लेकिन भीतर से वह यथार्थवाद-विरोधी तथा यथास्थितिवादी होता है। 

इसके उदाहरण हम अपने साहित्य के स्त्री विमर्श और दलित विमर्श में देख सकते हैं। स्त्रियों और दलितों की वास्तविक परिस्थितियों को बदलने के लिए सामाजिक आंदोलन जरूरी हैं। ये आंदोलन हमारे समाज में चले हैं, उनसे साहित्य का भी संबंध रहा है, और साहित्य में हम उन्हें स्त्री आंदोलन तथा दलित आंदोलन के रूप में जानते रहे हैं। लेकिन उनके स्त्री विमर्श और दलित विमर्श में बदल जाने पर उनका सामाजिक आंदोलनकारी रूप समाप्त हो गया है और उन पर यथार्थवाद की जगह अनुभववाद या ‘‘लेखक का अपना जिया- भोगावाद’’ हावी हो गया है। इस प्रवृत्ति का एक भयंकर दुष्परिणाम यह भी हुआ है कि स्त्री विमर्श देहवाद में और दलित विमर्श जातिवाद में सिमटकर वास्तव में स्त्री-विरोधी और दलित-विरोधी भी होता जा रहा है। 

सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों में यह होता है कि जो वर्ग या समुदाय आंदोलन करता है, वह अन्य वर्गों और समुदायों के समर्थन और सहयोग से अपने आंदोलन को मजबूत बनाकर आगे बढ़ाने की कोशिश करता है। इसके लिए एक प्रकार की उदारता और सहिष्णुता आवश्यक होती है। हिंदी साहित्य में जब ये आंदोलन शुरू हुए, इनमें भी यह उदारता और सहिष्णुता थी। इसीलिए बहुत-से पुरुष और गैर-दलित लेखकों ने भी इनका समर्थन किया। (खास तौर से प्रगतिशील-जनवादी आंदोलन से जुड़े लेखकों ने, जिनकी सहानुभूति पहले से ही इनके साथ थी।) लेकिन ज्यों ही इनका आंदोलनकारी रूप विमर्शवाद में बदला, इनमें कट्टरता और असहिष्णुता आती गयी और बढ़ती गयी। स्त्रियों को हर पुरुष पितृसत्ता का प्रतीक और अपना शत्रु दिखायी देने लगा। दलितों के लिए हर गैर-दलित मनुवादी या ब्राह्मणवादी होकर घृणा और विरोध का पात्र हो गया। 

इसके बाद यह बात होने लगी कि स्त्रियाँ ही स्त्री लेखन कर सकती हैं और दलित ही दलित लेखन कर सकते हैं। इसी के आधार पर स्वानुभूति और सहानुभूति का भेद किया जाने लगा। फिर स्वानुभूति के साहित्य को प्रामाणिक और सहानुभूति के साहित्य को अप्रामाणिक कहा जाने लगा। इसके दो दुष्परिणाम हुए। एक: कई पुरुष लेखकों ने स्त्रियों के बारे में और कई गैर-दलित लेखकों ने दलितों के बारे में लिखना बंद कर दिया। दो: स्त्री और दलित लेखकों ने अपने-अपने विमर्शों तक ही अपने लेखन को (अपनी यथार्थ-दृष्टि और रचना-दृष्टि को भी) सीमित कर लिया और तेजी से बदलते भूमंडलीय यथार्थ को जान-बूझकर अनदेखा करते हुए या तो अमूर्त पितृसत्तावाद और ब्राह्मणवाद को कोसते रहे, या स्त्रीवाद को देहवाद और दलितवाद को जातिवाद में बदलकर यथार्थवाद से और भी दूर होते गये। 

इससे हमारे साहित्य को भारी नुकसान हुआ है। उसमें सामाजिक अन्याय, भेदभाव, शोषण, दमन और उत्पीड़न के विरुद्ध उठने वाली सामूहिक आवाजें उठनी बंद हो गयी हैं। विरोध और प्रतिरोध के स्वर क्षीण हो गये हैं। साहित्यिक समाज, जो पहले ही काफी बँटा हुआ था, अब और ज्यादा बँट गया है। साहित्यिक बिरादरी बिखर गयी है। लेखक संगठनों की हालत खराब है और साहित्यिक आंदोलन तो कोई रह ही नहीं गया है। 

काली कविता के कारनामेइस विमर्शवाद का प्रत्याख्यान करने वाली कहानी है। इसे चालू फैशन के अनुसार बड़े आराम से स्त्री विमर्श की कहानी बनाया जा सकता था। लेकिन कहानी पढ़ते हुए कदम- कदम पर पता चलता है कि कहानीकार विमर्शवाद और उससे जुड़े अनुभववाद की संकीर्णताओं से स्वयं को सचेत रूप से बचाते हुए कहानी को यथार्थवादी बनाये रखने के लिए प्रयत्नशील है। 

यह कहानी एक पुरुष लेखक द्वारा एक स्त्री चरित्र को केंद्र में रखकर लिखी गयी है और इस बात की परवाह किये बिना लिखी गयी है कि इसे स्वानुभूतिकी नहीं, बल्कि सहानुभूतिकी कहानी माना जायेगा और स्त्री विमर्श वाली कहानियों में या तो गिना ही नहीं जायेगा (जैसा कि आजकल हिंदी की कहानी-समीक्षा में हो रहा है कि पुरुषों द्वारा स्त्री चरित्रों पर लिखी गयी कई अच्छी कहानियाँ इसी कारण अचर्चित रह जाती हैं) या ‘‘लेखक के जिये-भोगे यथार्थ’’ पर आधारित न होने के कारण इसे ‘‘प्रामाणिक’’ नहीं माना जायेगा। 

लेकिन कहानीकार की कोशिश है कि इस कहानी को स्त्री विमर्श की कहानी न माना जाये और इसे स्वानुभूति-सहानुभूति वाली निरर्थक बहस से बाहर ही रखा जाये। कारण यह कि यह कहानी स्त्री विमर्श वाली ज्यादातर कहानियों की तरह न तो पुरुष (या पितृसत्ता) द्वारा स्त्री के दमन और उत्पीड़न की कहानी है और न स्त्री-स्वातंत्रय का ऐसा उद्घोष करने वाली कहानी कि ‘‘मेरी देह मेरी है, मैं इसका जो चाहूँ कर सकती हूँ’’ या ‘‘मुझमें भी पुरुषों जैसी बुद्धि और शक्ति है, जिससे मैं पुरुषों को नीचा दिखा सकती हूँ, उन्हें अपनी उँगलियों पर नचा सकती हूँ, या प्रतिद्वंद्विता में पछाड़ सकती हूँ’’! 

तीन : आज की यथार्थवादी कहानी यथार्थ को बदलकर बेहतर बनाने का प्रयास करती है। वह कभी निरुद्देश्य अथवा निष्प्रयोजन नहीं होती। इस कारण वह कलावाद, आधुनिकतावाद, उत्तर-आधुनिकतावाद आदि तमाम यथार्थवाद-विरोधी साहित्य- सिद्धांतों को ठेंगा दिखाते हुए स्वयं को सोद्देश्य बनाये रखती है। 

काली कविता के कारनामेडंके की चोट पर एक सोद्देश्य कहानी है। यह एक ऐसी लड़की की कहानी है, जिसकी त्वचा का रंग साँवला है, लेकिन दिल का रंग उजला। उसे काली कविताकहा जाता है, जिससे वह आहत होती है, अपमानित अनुभव करती है, लेकिन समझ लेती है कि त्वचा का रंग नहीं बदला जा सकता। लड़की होने के नाते जिन अनुभवों से लड़कियों को गुजरना होता है, वह भी गुजरी हैµ‘‘उसके एक चाचा, एक फेरी वाले और दुनिया के सभी मर्दों ने उसमें एक अश्लील कहानी की संभावना कभी न कभी जरूर देखी थी।’’ हालाँकि वह अपने कारनामोंसे अपने साथ होने वाली अश्लील हरकतों से खुद को बचा लेती है, लेकिन उन अनुभवों के आधार पर वह न तो पुरुष-विरोधी संघर्ष छेड़कर उसमें पुरुष पर स्त्री की विजय की आशा करती है, न यह सोचकर हताश होती है कि जब तक पुरुषों की मानसिकता नहीं बदलेगी, तब तक स्त्रियों की मुक्ति नहीं होगी। वह समझ लेती है कि जैसे वह अपनी त्वचा का रंग नहीं बदल सकती, वैसे ही पुरुषों की मानसिकता को नहीं बदल सकती। 

वह दुनिया को बदलना चाहती है। बचपन में उसे कॉमिक्स पढ़ने और माँ से कहानियाँ सुनने का जुनून था। ‘‘उसे सारे हीरोज की कॉमिक्स पढ़ते हुए लगता था कि कोई लड़की क्यों नहीं ध्रुव या नागराज जैसी सुपर हीरोइन होती। यह सवाल उसे और उकसाता और वह खुद सुपर हीरोइन होने के बारे में कल्पनाएँ करने लगती। उसकी माँ ने उसका बचपन कहानियाँ सुनाते हुए बिताया था, जिनमें झाँसी की रानी और जीजाबाई जैसे ऐतिहासिक पात्रों से लेकर सीता और दुर्गा जैसे पौराणिक पात्र शामिल थे, लेकिन कविता की पसंदीदा कहानी पारस पत्थर वाली थी। इस कहानी में समाज में उपेक्षित एक अपाहिज लड़के को एक पारस पत्थर मिल जाता है, जिसे किसी भी लोहे से छुआ देने पर वह सोना बन जाता है। वह लड़का इस पत्थर की मदद से अपने पूरे गाँव की मदद करता है और फिर पूरी दुनिया की मदद करता हुआ हर तरफ से गरीबी, भूख और लाचारी को मिटाकर इस दुनिया को खूब सुंदर बना देता है।’’ 

एक गाँव से लेकर पूरी दुनिया तक के बदलाव की बात इस कहानी में एक अपाहिज लड़के की कहानी के जरिये कही गयी है। कहाँ एक अपाहिज लड़का और कहाँ पूरी दुनिया को बदलने का काम! ऐसा कहानियों में ही हो सकता है और लोहे को सोना बना देने वाला पारस पत्थर भी कोई वास्तविकता नहीं, एक मिथक या कल्पना ही है। लेकिन लड़की का यह सोचना कि ‘‘वह जरूर उस पत्थर को खोजेगी, जिससे एक ही बार में दुनिया की समस्याएँ खत्म हो जायें’’ महज एक कल्पना, सपना या निरी बच्चों वाली बात नहीं है--‘‘ऐसा वह बड़ी होने के बाद भी सोचती रही, भले कभी-कभी उसे अपनी सोच पर हँसी आती थी, लेकिन वह मन में हमेशा मानती थी कि किसी भी चीज से हार नहीं माननी चाहिए।’’ 

कहानीकार आज के भूमंडलीय यथार्थ में जीने और रचने वाला कहानीकार है और जानता है कि एक गाँव से लेकर पूरी दुनिया तक का यथार्थ एक ही है, इसलिए एक गाँव को सुंदर बनाने का काम हो या पूरी दुनिया को सुंदर बनाने का काम, इसके लिए जरूरी है ‘‘हर तरफ से गरीबी, भूख और लाचारी को मिटाना’’। अर्थात् गाँव को बदलने के लिए पूरी दुनिया को बदलना पड़ेगा। अथवा पूरी दुनिया को सुंदर बनाने पर ही गाँव को भी सुंदर बनाया जा सकेगा। यह आज का नया यथार्थवाद है। भूमंडलीय यथार्थवाद। 

यथार्थवाद में ‘‘जो है’’ वही यथार्थ नहीं होता, बल्कि ‘‘जो होना चाहिए’’ और ‘‘जो हो सकता है’’, वह भी यथार्थ ही होता है। कहानी में इस यथार्थ के दो आधार हैं। एक: पूरी दुनिया को सुंदर बनाया जाना चाहिए। और दो: पूरी दुनिया को सुंदर बनाया जा सकता है। किसी को लग सकता है कि यह एक कल्पना (कपोल कल्पना), सपना (दिवास्वप्न) या आदर्श (यूटोपिया) है और इसके आधार पर लिखी गयी यह कहानी प्रेमचंद की आदर्शोन्मुख यथार्थवादवाली पुरानी परंपरा की कहानी है। (और हिंदी के आलोचकों ने आदर्शोन्मुख यथार्थवादको कभी खरा यथार्थवाद नहीं माना। उन्होंने प्रेमचंद की कफनकहानी वाले यथार्थवाद को ही खरा यथार्थवाद माना, जिसमें कोई स्वप्न या आदर्श नहीं है।) और उस आदर्श तक पहुँचने वाला पारस पत्थर? वह तो नितांत काल्पनिक है ही! 

विमल चंद्र पांडेय ने प्रेमचंद की परंपरा को अपनाने और आगे बढ़ाने का एक सचेत प्रयास इस कहानी में किया है। (स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के नाम जान-बूझकर घीसू, माधव, सनीचर और सूरदास रखकर उन्होंने पाठकों को भी सचेत कर दिया है कि वे ऐसा कर रहे हैं।) क्या उन्हें नहीं मालूम होगा कि प्रेमचंद के आदर्शोन्मुख यथार्थवाद को हिंदी के कहानी-समीक्षक यथार्थवाद नहीं मानते और इस कहानी में उसे देखकर इसे भी यथार्थवादी कहानी नहीं मानेंगे

लेकिन कहानी बताती है कि उन्हें सब मालूम है। कहानी में वही दिखाया गया है, जो आजकल ‘‘है’’ या ‘‘होता है’’। लेकिन साथ-साथ वह भी दिखाया गया है, जो इसी यथार्थ में ‘‘हो सकता है’’ या ‘‘किया जा सकता है’’। कहानी की काली कविता जो कारनामेकरती है, उनमें से एक भी ऐसा नहीं है, जो असंभव हो। वह ऐसा कुछ चाहती भी नहीं है, जिसे करना या पाना असंभव हो। इस प्रकार कहानीकार शुरू से आखिर तक कहानी को ‘‘यथार्थवादी’’ बनाये रखता है। नितांत काल्पनिक पारस पत्थर भी यहाँ यथार्थ ही है, कोई साहित्यिक या कथात्मक युक्ति (अथवा ‘‘अलंकृति’’) नहीं। वह कोई जादुई यथार्थवादी चीज भी नहीं है। वह यहाँ भूमंडलीय यथार्थ को बदलने के एक तरीके या तरकीब का प्रतीक है। और इतना स्पष्ट कि उसे समझने में पाठक को कोई परेशानी न हो। 

कविता शिक्षिका बनकर गाँव के स्कूल में पढ़ाने जाती है। ‘‘उसकी सहेलियों के साथ-साथ उसकी माँ ने भी बताया कि गाँवों के विद्यालयों में पढ़ाने की कोई अनिवार्यता नहीं होती...(लेकिन) कविता ने कहा कि कोई नहीं पढ़ाता तो न पढ़ाये, वह अपना फर्ज पूरा करेगी।’’ अब ‘‘अपना फर्ज पूरा करना’’ तो कोई आदर्शवाद नहीं है। वह तो एक यथार्थ कर्तव्य है, जो सबको करना ही चाहिए। अलबत्ता अपना फर्ज अच्छे ढंग से पूरा करते-करते उसे वह पारस पत्थर मिल जाता है, जिसको खोजने की बात वह बचपन में ही नहीं, बड़ी होने के बाद भी सोचती थी। अब यह इस देश और दुनिया का दुर्भाग्य है कि यहाँ इंसान को अपना फर्ज भी अच्छे ढंग से पूरा नहीं करने दिया जाता है। उसमें अड़ंगे अटकाये जाते हैं, उसका विरोध किया जाता है। लेकिन कविता शुरू से ही ‘‘मन में हमेशा मानती थी कि किसी चीज से हार नहीं माननी चाहिए’’। 

कहानी उसके इसी संघर्ष की और वांछित पारस पत्थर पा लेने की कहानी है, जो एक गाँव को ही नहीं, पूरी दुनिया को सुंदर बना दे। वह पारस पत्थर क्या है? बराबरी का विचार और गैर-बराबरी तथा उससे जुड़े भेदभाव और अन्याय को दूर करने का उपाय। यह विचार और उपाय उसे बड़े  यथार्थवादी ढंग से सूझता है। 

कविता देखती है कि स्कूल में कई दलित बच्चे हैं, जिन्हें पहले दुत्कारकर भगा दिया जाता था, या सफाई वगैरह के कामों में लगा दिया जाता था। उन्हें दूसरे बच्चों के साथ नहीं बैठने दिया जाता था और पढ़ाया तो जाता ही नहीं था, क्योंकि स्कूल में पढ़ाई होती ही नहीं थी। कविता उनके साथ बराबरी का बरताव करती है, तो चीजें बदलने लगती हैं। बच्चे अच्छी तरह पढ़ने लगते हैं। उनकी योग्यताएँ सामने आने लगती हैं। यही है वह पारस पत्थर, जिससे कविता अपने छात्रों के लोहे को ही नहीं, पूरे स्कूल की व्यवस्था के लोहे को भी सोने में बदलती है। उसके कारनामोंका असर दूसरे अध्यापकों पर भी पड़ता है और अंततः स्कूल के प्रबंधन पर भी।

आरंभ में स्कूल का प्रबंधन कविता के कारनामोंसे खुश होने और स्वयं को सुधारने के बजाय उसे डराने, उससे उसका पारस पत्थर छीन लेने तथा स्कूल से उसे भगा देने के प्रयास करता है, क्योंकि वह शिक्षा की समूची भ्रष्ट व्यवस्था का अंग होने के कारण भ्रष्ट है और कविता जैसे कर्तव्यपरायण शिक्षकों के लिए भयानक भी। लेकिन कविता उस कुप्रबंधन रूपी गिद्ध से डरकर भागती नहीं है। वह उसका सामना करती है और अंततः उस गिद्ध को वहाँ से उड़ जाना पड़ता है। 

कविता का पढ़ाना देखकर स्कूल के अन्य शिक्षकों का रवैया भी बदलता है और स्कूल में पढ़ाई होने लगती है। कहानीकार जानता है कि भ्रष्ट व्यवस्था में अपना काम ईमानदारी से करने वाले लोगों को खतरनाक मानकर या तो भगा दिया जाता है या मार दिया जाता है। कहानी के अंत में वह ऐसी तमाम खतरनाक संभावनाओं को सामने रख देता है :

‘‘देखिए, यह मात्र एक विद्यालय में ईमानदारी से पढ़ाने का मामला है और यह घटना इतनी मामूली है कि इससे कुछ लोगों को खतरा तो महसूस हो रहा है, लेकिन इतना नहीं कि वे कोई बड़ा कदम उठायें। मैंने पहले भी आपसे बताया था कि अगर यह स्टेट हाइवे या आयकर विभाग में ईमानदारी करने का मामला होता, तो कविता को अब तक इतनी धमकियाँ मिली होतीं कि कहानी जरूर किसी रोमांचक मोड़ तक पहुँच जाती। अगर यह नेशनल हाइवे या लोक निर्माण विभाग का मामला होता, तो कविता की अब तक किसी अज्ञात दुर्घटना में मौत हो चुकी होती और पुलिस इसे छानबीन करने के बाद असावधानी से गाड़ी चलाने का मामला बता एकाध लोगों को गिरफ्तार कर केस बंद कर चुकी होती।...मगर मैं फिर से आपसे क्षमाप्रार्थी हूँ कि मैं इस अतिसाधारण पात्रों वाली अतिसाधारण कहानी को कोई ऐसा रोमांचक मोड़ दे सकने में असमर्थ हूँ। बस इतना ही कह सकता हूँ कि कविता अब भी अपने तरीकों पर डटी हुई है।’’ 

कहानीकार जानता है कि कविता का यह प्रयास ‘‘टिटहरी की तरह बालू लाकर समंदर को भरने जैसा है’’, लेकिन वह इस यथार्थ से न तो स्वयं निराश है, न अपने पाठकों को होने देना चाहता है। इसलिए अंत में कहता है कि यदि कविता से उसके इस छोटे-से प्रयास की बात की गयी, तो ‘‘मैं शर्त लगाकर कह सकता हूँ, वह ऐसा जवाब देगी कि आप लाजवाब होकर मुस्कराते हुए लौटेंगे।’’ 

इस प्रकार आज की दुनिया में पसरी हुई पूरी नकारात्मकता के यथार्थ को खुली आँखों देखने और दिखाने के बावजूद कहानीकार पूरी कहानी को सकारात्मक बनाये रखता है। इसे यदि प्रेमचंद की परंपरा का आदर्शोन्मुख यथार्थवाद कहा जाता है, तो ठीक ही है। लेकिन कहानीकार का पूरा प्रयास रहा है कि वह कोई असंभव आदर्श पाठकों के सामने न रखे। वह ठोस यथार्थ पर अपने पाँव टिकाये इतना ही बताता है कि ‘‘यह तो होना ही चाहिए’’ और तमाम विषम परिस्थितियों के बावजूद ‘‘इतना तो किया ही जा सकता है’’। 

चार : आज की यथार्थवादी कहानी कहानीपन और कथा-रस से भरपूर मुकम्मल कहानी होती है। उसमें आज की कोई बड़ी सामाजिक समस्या उठाकर उसका समाधान सुझाते हुए कहानी को पूर्णता प्रदान की जाती है। 

कहानी कलात्मक है या नहीं, इसका निर्णय उसकी भाषा, शिल्प, शैली आदि के आधार पर नहीं हो सकता। इसका निर्णय होता है इस आधार पर कि कहानी पूरी अर्थात् मुकम्मल है या नहीं। आधुनिकतावाद के जमाने से (हिंदी में नयी कहानीके जमाने से) एक निहायत गलत बात सिद्धांत के तौर पर कहानी-समीक्षा में की जाती रही है कि कहानी कभी खत्म नहीं होती, अर्थात् वह अधूरी ही रहती है और अधूरी ही रहनी चाहिए। जैसे बार-बार बोला जाने वाला झूठ लोगों को सच लगने लगता है, वैसे ही यह सिद्धांतभी सर्वमान्य-सा लगता है। लेकिन यह कोई सिद्धांत नहीं है, बल्कि    इस निहायत गलत बात को मानकर कई अच्छे-भले कहानीकार भी अपनी कहानियों को खराब कर लेते हैं। 

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कविता और कहानी का फर्क बताते हुए कहा था कि कविता सुनने वाला कहता है, ‘‘जरा फिर तो कहिए’’, जबकि कहानी सुनने वाला कहता है, ‘‘हाँ, तब क्या हुआ?’’ कविता सुनने वाला कविता सुनने के दौरान ही किन्हीं खास पंक्तियों को सुनकर वाह-वाह कर सकता है और उन्हें फिर से सुनाने का अनुरोध करते हुए उनकी खूबसूरती या कलात्मकता की दाद दे सकता है, लेकिन कहानी सुनने वाला जब तक पूरी कहानी न सुन ले, तब तक न वह संतुष्ट हो सकता है, न उस पर आहया वाहकर सकता है। विद्वान आलोचक आधी-अधूरी कहानियों को कितना ही कलात्मक कहें, कहानी का सामान्य पाठक या श्रोता प्रत्येक देश-काल में मुकम्मल कहानी को ही कलात्मक मानता आया है। और वह मुकम्मल कहानी उसे मानता है, जिसमें उसके जीवन से जुड़ी (अर्थात् अपने समय के व्यापक जन-जीवन से जुड़ी कोई बड़ी) समस्या उठायी गयी हो और उसका समाधान भी किया गया हो। 

लेकिन कलावादी हों या अनुभववादी, आधुनिकतावादी हों या उत्तर-आधुनिकतावादी समीक्षक, वे कहानी की इस विशेषता को उसकी सबसे बड़ी कमी और खामी मानते हैं। हिंदी की कहानी-समीक्षा नयी कहानीके जमाने से ही इस बात पर जोर देती रही है कि सामाजिक समस्याएँ उठाना और उनके समाधान सुझाना कहानी को यथार्थवादी न रहने देकर आदर्शवादी, नैतिकतावादी या राजनीतिक फार्मूलावादी बना देता है। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए कई लेखक यह मानते रहे हैं कि कहानी में सामाजिक समस्याएँ उठाना उनका काम नहीं है। अथवा, लेखक प्रश्न (समस्या) उठा दे, इतना ही पर्याप्त है, उत्तर देना (समाधान सुझाना) लेखक का काम नहीं है। 

इस संदर्भ में महान कहानीकार चेखोव का यह कथन याद रखने लायक है कि ‘‘यदि आप यह नहीं मानते कि सर्जनात्मक लेखन में किसी समस्या को हल करने अथवा किसी उद्देश्य तक पहुँचने का भाव रहता है, तो आप यह मानने को मजबूर होंगे कि कलाकार पहले से कुछ भी सोचे-समझे बिना रचना कर डालता है; कि वह सोच-समझकर और एक इरादे के साथ काम नहीं करता, बल्कि जो उसके जी में आता है, कर डालता है। अतः यदि कोई लेखक मेरे सामने आकर यह शेखी बघारे कि उसने कहानी के प्रयोजन पर पहले से सोच-विचार किये बिना, केवल प्रेरणा के वशीभूत होकर, कहानी लिख डाली है, तो मैं कहूँगा कि यह आदमी पागल है।’’

अर्चना वर्मा द्वारा की गयी काली कविता के कारनामेकी समीक्षा में इस कहानी को बड़ी हिकारत के साथ किस्साया वृत्तांतबताते हुए कहा गया है कि इसे किसी व्याख्या की जरूरत नहीं है। मगर व्याख्या के लिए इस कहानी में बहुत कुछ है। मसलन, इसमें हमारे समय की कौन-सी बड़ी समस्या उठायी गयी है? और, उसका क्या समाधान किया गया है? इन प्रश्नों के उत्तर खोजने चलें, तो इस कहानी में गजब की ‘‘तहदारी’’ दिखायी पड़ेगी और समीक्षक को ‘‘परत-दर-परत गहराई में उतरते जाने’’ के लिए काफी मौका मिलेगा। 

इस कहानी में कविता का स्त्री होना, उसकी त्वचा का रंग साँवला होना, उसका गाँव के स्कूल में अध्यापिका होना और स्कूल के प्रबंधन अथवा देश की शिक्षा व्यवस्था से संघर्ष करना आदि कहानी के महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं। लेकिन इनमें से कोई एक अथवा ये सब मिलाकर भी कहानी की मुख्य समस्या नहीं हैं। मुख्य समस्या है: हर तरफ से गरीबी, भूख और लाचारी को मिटाकर इस दुनिया को सुंदर कैसे बनाया जाये? इस समस्या का समाधान भी कहानी में सुझाया गया है। मगर सीधे-सपाट ढंग से नहीं, बल्कि पूरी कहानी में कलात्मक ढंग से गूँथकर। 

कहानी को एक मुकम्मल कहानी के रूप में सामने रखकर गंभीरता से पढ़े बिना कोई यह सतही निष्कर्ष निकाल सकता है कि गरीबी, भूख और लाचारी का कारण है बच्चों को अच्छी शिक्षा का न मिलना और अच्छी शिक्षा ही वह उपाय (पारस पत्थर) है, जिससे यह समस्या हल की जा सकती है; लेकिन इसके लिए जरूरी है कि प्रत्येक शिक्षक काली कविता की तरह मेहनत और ईमानदारी से पढ़ाने वाला आदर्श शिक्षक हो। मगर कुल कहानी इतनी ही होती, तो इसे गाँव के स्कूल से ही शुरू करके वहीं पर खत्म किया जा सकता था। स्कूल में जो कारनामेकविता ने किये, वे ही पर्याप्त होते और शहर में जो कारनामेउसने किये, वे कहानी में फालतू या गैर-जरूरी लगते। मगर कहानी इस सतही निष्कर्ष को गलत साबित करती है। 

कहानी ‘‘हर तरफ से गरीबी, भूख और लाचारी को मिटाकर इस दुनिया को सुंदर बनाने’’ की समस्या उठाती है और बताती है कि इसके लिए दुनिया से हर तरह की गैर-बराबरी और उससे जुड़े भेदभाव तथा अन्याय को समाप्त किया जाना चाहिए। प्रश्न उठता है: कैसे? उपाय क्या है? कहानीकार का उत्तर है: भूमंडलीय स्तर के किसी बड़े बदलाव की उम्मीद में हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने के बजाय स्थानीय और व्यक्तिगत स्तर पर, चाहे छोटे पैमाने के ही सही, मगर बुनियादी बदलाव शुरू करके। (हाँ, इस पर बहस हो सकती है कि यह  उपाय सही है या गलत, अथवा क्या इससे बेहतर दूसरे उपाय नहीं हो सकते। विभिन्न लेखक विभिन्न प्रकार के उपाय सोच और सुझा सकते हैं और उनके आधार पर इसी समस्या पर विभिन्न प्रकार की कहानियाँ लिख सकते हैं।) 

विमल की कहानी में दो उपाय सुझाये गये हैं और उनसे होने वाले बदलावों को दिखाने के लिए दलित और स्त्री पात्रों को चुना गया है, जिनके साथ गैर-बराबरी के आधार पर भेदभाव और अन्याय किया जाता है। मगर ये उपाय विमर्शवादी ढंग से नहीं, आंदोलनकारी ढंग से, और ‘‘वृत्तांत शैली की पत्रकारिता’’ वाले ढंग से नहीं, बल्कि एक मुकम्मल कहानी कहने के कलात्मक ढंग से सुझाये गये हैं।  

तमाम दलित चिंतकों का कहना है  कि दलितों की मुक्ति शिक्षा से ही हो सकती है। मगर उसके लिए जरूरी है कि शिक्षा संस्थाओं में दलित छात्रों के साथ किये जाने वाले भेदभाव और अन्याय को दूर किया जाये। इस कहानी में यही दिखाया गया है कि इस भेदभाव और अन्याय का यथार्थ क्या है और उस यथार्थ को कैसे बदला जा सकता है। 

इसी तरह तमाम स्त्री चिंतकों का कहना है कि स्त्रियों की मुक्ति परिवार में स्त्रियों की स्थिति को बदलने से ही हो सकती है। इसके लिए जरूरी है कि घरों में लड़कियों के साथ किये जाने वाले भेदभाव और अन्याय को दूर किया जाये। 

कविता द्वारा शहर में रहते किये गये कारनामोंमें सबसे महत्त्वपूर्ण है घर-परिवार में लड़कों और लड़कियों के लिए समान अधिकारों की माँग। इसके जरिये वह पहले अपनी नानी के घर में और फिर अपने मुहल्ले में लड़कियों को उनके घरों में भाइयों के बराबर के अधिकार दिलाने में सफल होती है। 

कहानीकार यह संकेत करना भी नहीं भूलता कि दलितों की मुक्ति केवल दलितों द्वारा और स्त्रियों की मुक्ति केवल स्त्रियों द्वारा नहीं हो सकती। स्कूल में दलित बच्चों के साथ किये जाने वाले भेदभाव को दूर करने के मामले में तो यह स्पष्ट ही है, घरों में लड़कियों के प्रति होने वाले भेदभाव के मामले में भी यह स्पष्ट है कि इसे भी पुरुषों को साथ लिये बिना दूर नहीं किया जा सकता।

कहानी में यह बात एक मार्मिक प्रसंग के जरिये सामने आती है। कविता अपने ममेरे भाई को प्रेरित करती है और वह उससे प्रभावित होकर अपनी बहन के लिए दूध और फल का इंतजाम करवाता है। कविता को विदा करते समय वह एक डायरी भेंट करता है, जिस पर लिखा है--‘‘जिंदगी के बड़े सबक सिखाने वाली छुटकी-सी बहन के लिए।’’ 

यह कहानी भी छोटी-छोटी बातों के जरिये बड़े-बड़े सबक सिखाती है। मगर नारों या उपदेशों के रूप में नहीं, बल्कि कलात्मक ढंग से लिखी गयी एक सुंदर और सार्थक कहानी के रूप में, जिसमें यथार्थवादी कहानी की उपर्युक्त चारों प्रमुख विशेषताएँ कलात्मक रूप में सुसंयोजित हैं।

पुनश्च :
1. प्रस्तुत लेख में जिसे ‘‘आज की यथार्थवादी कहानी’’ कहा गया है, वह न तो नयी कहानी’, ‘समांतर कहानीया जनवादी कहानीजैसे किसी आंदोलन से जुड़ी कहानी है और न ही वह स्त्रीवादीया दलितवादीजैसी किसी खास पहचान से जुड़ी कहानी। लेख में विमल चंद्र पांडेय को ‘‘पिछले दस-पंद्रह वर्षों में उभरकर सामने आयी नयी पीढ़ी’’ का कहानीकार कहा गया है। लेकिन ‘‘आज की यथार्थवादी कहानी’’ केवल इसी पीढ़ी के लेखकों द्वारा लिखी जा रही कहानी नहीं है। वर्तमान समय में हिंदी कहानी एक नहीं, बल्कि अनेक पीढ़ियों तथा अनेक भिन्न प्रवृत्तियों के लेखकों द्वारा लिखी जा रही है और यथार्थवाद किसी भी लेखक की कहानी में हो सकता है, चाहे वह नयी पीढ़ी का हो या पुरानी पीढ़ी का, स्त्रीवादी हो या दलितवादी, प्रगतिशील हो या जनवादी, इत्यादि। यहाँ तक कि जो लेखक किसी वादमें विश्वास नहीं करता, उसकी कहानी में भी यदि आज का यथार्थ आ रहा है, और उसमें आज की यथार्थवादी कहानी की प्रस्तुत लेख में उल्लिखित चारों विशेषताएँ पायी जाती हैं, तो उसकी कहानी भी यथार्थवादी ही होगी। हाँ, किसी कहानी में कितना और कैसा यथार्थवाद है, यह देखना यथार्थवादी कहानी-समीक्षा का काम है। 

2. आज की कहानी कहीं और जा रही है, तो कहानी-समीक्षा कहीं और। शायद यही देखकर लमहीके कहानी विशेषांक के अतिथि संपादकीय में यह लिखा गया कि ‘‘कहानीकार रचने के लिए स्वतंत्र हैं, तो आलोचक अपना पाठ निर्मित करने के लिए।’’ लेकिन प्रस्तुत लेख के लेखक के विचार से कहानी और कहानी-समीक्षा एक ही गतिविधि (साहित्यिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया) के अंग हैं, जिनमें होड़ तो हो सकती है, अंतर्विरोध भी हो सकते हैं, लेकिन वे एक-दूसरे से पृथक् या स्वतंत्र नहीं हो सकते; क्योंकि दोनों का संबंध यथार्थ से तथा उसमें होने वाले और किये जा सकने वाले परिवर्तनों की प्रक्रिया से है। दोनों में यथार्थ और उसमें होने तथा किये जा सकने वाले परिवर्तनों की प्रक्रिया की समझ भिन्न हो सकती है, लेकिन दोनों का उद्देश्य एक ही है अथवा होना चाहिए: यथार्थ को समग्रता में देखना और उसे बदलकर बेहतर बनाना।  समीक्षा के (अथवा साहित्यशास्त्र, सौंदर्यशास्त्र आदि के) नियमों का पालन करने के लिए कहानी बाध्य नहीं है, बल्कि अक्सर तो वह उन नियमों की सीमाओं को समझते हुए उनका उल्लंघन करके ही अपना विकास करती है; फिर भी वह देश-काल के ऐतिहासिक संदर्भ तथा अपने समय के सामाजिक यथार्थ के अनुशासन में रहकर ही उन नियमों का उल्लंघन करने के लिए स्वतंत्र हो सकती है। यही अनुशासन कहानी-समीक्षा पर भी लागू होता है। समीक्षक कहानीकार का अनुगमन करने के लिए बाध्य नहीं है, वह उसका विरोधी या निंदक भी हो सकता है; यदि कहानीकार गलत दिशा में जा रहा है, तो वह उसे सही रास्ता भी बता सकता है; लेकिन वह यह सब देश-काल के ऐतिहासिक संदर्भ और अपने समय के सामाजिक यथार्थ के आधार पर ही कर सकता है। 

इस प्रकार यथार्थ कहानी और कहानी- समीक्षा दोनों का साझा संदर्भ बिंदु है और दोनों के खरेपन को परखने का निकष भी। इसीलिए मुक्तिबोध ने एक अन्य प्रसंग में कहा था कि रचनाकार और आलोचक में होड़ है कि यथार्थ को कौन अधिक या बेहतर जानता है। लेकिन उनमें होड़ ही नहीं होती, उद्देश्य की एकता के कारण पारस्परिक सहयोग भी होता है, जिससे दोनों का विकास होता है।

--रमेश उपाध्याय