रमेश उपाध्याय की नयी कहानी
शिखर सुकुमार के नाटक ‘असत्य हरिश्चंद्र’ का विरोध। विरोधियों ने प्रेक्षागृह में घुसकर नारेबाजी, हाथापाई और कुछ तोड़-फोड़ भी की। पुलिस बुलानी पड़ी। गिरफ्तार किये गये लोगों के नेता ने कहा कि इस नाटक में सत्यवादी हरिश्चंद्र का मजाक उड़ाकर भारतीय संस्कृति का अपमान किया गया है। सरकार को इस नाटक पर अविलंब प्रतिबंध लगाना चाहिए।
कल इसी अखबार में नाटक की समीक्षा छपी थी, जिसमें नाटक को ‘‘पौराणिक कथा के ढाँचे में वर्तमान के यथार्थ को हास्य-व्यंग्य की शैली में मनोरंजक ढंग से सामने लाने वाला नाटक’’ बताते हुए लेखक की प्रशंसा की गयी थी कि ‘‘शिखर सुकुमार एक दलित लेखक होने के बावजूद वेदों और पुराणों के अध्येता तथा संस्कृत नाटकों और महाकाव्यों के मर्मज्ञ हैं’’। लेकिन आज उस पर ‘‘अविलंब प्रतिबंध’’ लगाने की माँग करने वाले समाचार के साथ-साथ ‘बॉक्स आइटम’ बनाकर बड़े ध्यानाकर्षक ढंग से यह भी छापा गया था कि ‘‘दलित लेखकों ने पल्ला झाड़ा: शिखर सुकुमार को ब्राह्मणवादी लेखक बताया’’।
रविवार की छुट्टी का दिन था। सुबह के आठ बज चुके थे, लेकिन जय और विजय अभी तक अपने कमरे में सोये पड़े थे। मैं और प्रभा सुबह की ताजी हवा और खुशनुमा धूप का आनंद लेते हुए बालकनी में बैठे चाय पी रहे थे और अखबार पढ़ रहे थे। मैंने हिंदी अखबार में छपा समाचार पढ़कर प्रभा से कहा, ‘‘देखना, सुकुमार जी के नाटक के बारे में अंग्रेजी में भी कुछ छपा है क्या?’’
‘‘क्यों, क्या हो गया?’’ पूछकर प्रभा अंग्रेजी अखबार के पन्ने पलटने लगी और अगले ही क्षण चौंककर बोली, ‘‘हें, यह क्या?’’
अंग्रेजी अखबार में भी प्रदर्शनकारियों को पकड़कर ले जाती पुलिस का वैसा ही चित्र छपा था, लेकिन समाचार कुछ भिन्न था। विरोध-प्रदर्शन करने वालों के द्वारा नाटक पर प्रतिबंध लगाने की माँग की खबर तो थी, लेकिन दलित लेखकों द्वारा शिखर सुकुमार को ब्राह्मणवादी लेखक बताये जाने की खबर उसमें नहीं थी। हाँ, उसमें नाटक की सराहना उसे ‘‘पुरानी कहानी का नया कॉमिक रूप’’ और ‘‘हिलेरियस कॉमेडी’’ बताते हुए अलग से की गयी थी।
मैंने शिखर सुकुमार को फोन करने के लिए मोबाइल उठाया, लेकिन नंबर मिलाने के पहले ही वह बजने लगा।
रामाधार ठाकुर का फोन था। एक प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित पत्रिका के प्रधान संपादक रामाधार ठाकुर का, जो पत्रकार ही नहीं, प्रसिद्ध साहित्यकार भी हैं।
‘‘अहा, रामाधार जी, नमस्कार! कहिए, सुबह-सुबह कैसे याद किया?’’
‘‘चंडीप्रसाद जी, आपसे एक निवेदन करना था।’’
‘‘आज्ञा कीजिए।’’
‘‘क्या बात करते हैं! आप इतने बड़े लेखक हैं, उम्र में भी मुझसे बड़े हैं, मैं आपको आज्ञा दूँगा?’’
‘‘फिर भी। आप संपादक ठहरे और मैं लेखक!’’ मैंने हँसते हुए कहा।
लेकिन रामाधार ठाकुर विनम्रता के साथ बोले, ‘‘आपको पता नहीं, चंडीप्रसाद जी, मैं आपका पुराना पाठक और प्रशंसक हूँ। आपकी पुस्तक ‘शिखर सुकुमार: एक औघड़ साहित्यकार’ मैंने खरीदकर पढ़ी थी और वह आज भी मेरे पास है। सुकुमार जी मेरे प्रिय लेखक हैं और आपने उन पर इतनी अच्छी किताब लिखी है, इसलिए आप भी मेरे प्रिय लेखक हैं...’’
‘‘मैं भी आपका प्रशंसक हूँ, रामाधार जी! आपके पत्रकार और साहित्यकार दोनों रूपों का। खैर, बताइए, क्या बात है?’’
‘‘सुकुमार जी का नया नाटक ‘असत्य हरिश्चंद्र’ आपने देख लिया होगा...?’’
‘‘अभी नहीं देखा, लेकिन देखना है।’’
‘‘तब तो मेरा निवेदन है कि आप उसे आज ही देख लें। उस पर कुछ विवाद छिड़ गया है।’’
‘‘हाँ, मैंने अभी-अभी अखबार में पढ़ा...लेकिन कारण समझ में नहीं आया। किस्सा क्या है?’’
‘‘कल का किस्सा तो इतना ही है कि शाम के शो में कुछ उपद्रवी लोगों ने हॉल में घुसकर नाटक बंद कराने की कोशिश की। मौके पर पहुँची पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। दर्शकों के हित में अच्छी बात यह रही कि तकरीबन आधे घंटे के इस व्यवधान के बावजूद वे पूरा नाटक देख पाये। लेकिन आज क्या होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। हो सकता है, आज और आगे के शो कैंसिल हो जायें, या नाटक पर प्रतिबंध ही लग जाये। इसलिए मेरा निवेदन है कि आप आज ही और पहला ही शो देख लें और हमारी पत्रिका के लिए उसकी समीक्षा लिख दें।’’
‘‘ठीक है, मैं आज ही देख लूँगा।’’ मैंने कहा, ‘‘समीक्षा कब तक लिखकर देनी होगी?’’
‘‘पत्रिका, आप जानते हैं, पाक्षिक है। अगला अंक आने में अभी दस दिन हैं। इसलिए आप आराम से एक सप्ताह का समय ले सकते हैं। बाकी टिकट वगैरह की चिंता आप न करें। दफ्तर की गाड़ी आपको लेने आ जायेगी और शो के बाद आपको वापस घर पहुँचा देगी। गाड़ी में ड्राइवर के अलावा दो लोग और रहेंगेµएक रिपोर्टर, एक फोटोग्राफर। अगर कोई गड़बड़ी हुई, तो वे एक तरह से आपके अंगरक्षक भी होंगे।’’
‘‘क्या इतना खतरा है?’’
‘‘घबराइए नहीं। मजाक कर रहा हूँ। मामला मीडिया में उछल गया है, इसलिए फुटेज चाहने वाले नेता लोग विरोध-प्रदर्शन तो जरूर करेंगे। लेकिन पुलिस का बंदोबस्त भी तगड़ा होगा। लगता तो नहीं कि कोई गड़बड़ी होगी, फिर भी सावधानी तो हमें बरतनी ही चाहिए। आप नि¯श्चत रहें, आपकी सुरक्षा हमारी जिम्मेदारी है। बस, दुआ करें कि आज का पहला शो कैंसिल न हो। छुट्टी का दिन है। आप घर पर ही रहें। शो तीन बजे शुरू होगा, गाड़ी दो बजे आपके घर पहुँच जायेगी। ठीक है?’’
‘‘जी, रामाधार जी, ठीक है। मैं दो बजे तैयार मिलूँगा।’’
खतरे वाली बात सुनकर प्रभा चौकन्नी हो गयी थी। मैंने ज्यों ही फोन रखा, उसने पूछा, ‘‘क्या बात है? कहाँ जाना है?’’
मैंने पूरी बात उसे बता दी। उपद्रव की आशंका और अंगरक्षकों वाली बात सुनकर वह डर गयी। बोली, ‘‘कोई जरूरत नहीं इस तरह जान जोखिम में डालने की! फौरन फोन उठाओ और मना कर दो।’’
मैंने चाय की एक चुस्की ली, प्याला नीचे रखा और फोन उठा लिया। प्रभा मुझे अपने आदेश का पालन करते देख संतुष्ट-सी होकर बच्चों को जगाने चली गयी। लेकिन मैंने रामाधार ठाकुर का नहीं, शिखर सुकुमार का नंबर मिलाया।
अपने फोन पर मेरा नंबर देखते ही उन्होंने कहा, ‘‘हाँ, चंडीप्रसाद! कैसे हो?’’
‘‘मैं तो ठीक हूँ, गुरुजी, लेकिन आपने यह क्या बवाल खड़ा कर दिया?’’
‘‘सवाल उठेंगे, तो बवाल भी खड़े होंगे।’’ कहकर उन्होंने ठहाका लगाया।
‘‘ऐसा क्या सवाल उठा दिया आपने?’’
‘‘इसका मतलब है, तुमने नाटक अभी तक देखा नहीं है!’’
‘‘आज जा रहा हूँ देखने। पहला ही शो।’’
‘‘तो ठीक है, नाटक देखने के बाद बात करना। मैं वहीं मिलूँगा।’’ कहकर उन्होंने फोन काट दिया।
प्रभा बच्चों के कमरे से निकलकर रसोईघर की तरफ जा रही थी, लेकिन उसके कान शायद मेरी तरफ ही लगे हुए थे। शिखर सुकुमार से बात करके ज्यों ही मैंने फोन रखा, उसने ठिठककर पूछा, ‘‘मना कर दिया न?’’
मैंने झूठ बोला, ‘‘वे नहीं मान रहे। नाटक देखने जाना ही पड़ेगा।’’
प्रभा कुछ और कहे, इसके पहले ही मैंने कहा, ‘‘डरो मत। दो अंगरक्षक मेरे साथ रहेंगे। मामला मीडिया में उछल गया है, इसलिए प्रशासन भी चुस्त हो गया होगा। वहाँ पुलिस का अच्छा बंदोबस्त होगा। डरने की कोई बात नहीं है।’’
‘‘मेरी कोई बात मत सुनना!’’ प्रभा ने गुस्से में पैर पटककर जाते हुए कहा, ‘‘हमेशा अपने ही मन की करना!’’
उसके जाते ही बड़े बेटे जय ने आकर मुझसे पूछा, ‘‘पापा, आप हमारे साथ टी.वी. देखेंगे या घूमने जायेंगे?’’
रविवार की सुबह जय और विजय दोनों नियम से टी.वी. देखते हैं। प्रभा नाश्ते और दोपहर के खाने की तैयारी में लगती है और मैं कभी बाहर घूमने चला जाता हूँ, कभी बच्चों के साथ टी.वी. देखने बैठ जाता हूँ।
‘‘तुम लोग देखो, मैं तो आज घूमने जाऊँगा।’’ मैंने अपनी चाय खत्म की और अपने ही बनाये नियम के अनुसार अपना जूठा प्याला स्वयं धोकर रखने के लिए रसोईघर में जा पहुँचा।
प्रभा की नाराजगी दूर करने के लिए मैंने कहा, ‘‘घूमने जा रहा हूँ। बाजार से कुछ लाना है?’’
प्रभा ने उत्तर नहीं दिया, तो मैंने पीछे से उसके कंधों पर दोनों हाथ रखते हुए कहा, ‘‘गुस्सा मत करो। नि¯श्चत रहो, मुझे कुछ नहीं होगा। यह सोचो कि तुम्हारा पति अचानक कैसा वी.आइ.पी. बन गया है! इतना बड़ा संपादक खुद फोन करके अपनी पत्रिका में लिखने के लिए कह रहा है। आने-जाने के लिए गाड़ी भेज रहा है। साथ में दो अंगरक्षक भी। कभी सुने हैं किसी हिंदी लेखक के ऐसे ठाठ? फिर, शिखर सुकुमार के नाटक पर लिखने का अवसर मिल रहा है। सो भी एक विवादास्पद नाटक पर लिखने का अवसर। नाटक तो चर्चित होगा ही, लगे हाथ नाट्य समीक्षक के भी चर्चित हो जाने का अच्छा अवसर है!’’
‘‘तो ठीक है! जाओ, बनो अवसरवादी, हमें क्या!’’ प्रभा ने अपने कंधों पर से मेरे हाथ हटाते हुए कहा। उसके स्वर और स्पर्श से मैं समझ गया कि उसकी नाराजगी दूर हो गयी है।
पब्लिक पार्क में घूमते समय मैं सोचता रहा कि शिखर सुकुमार ने आखिर ऐसा क्या लिख दिया होगा, जिस पर इतना बखेड़ा खड़ा हो गया है। अचानक मुझे उनकी एक बात और उनसे अपनी पहली मुलाकात याद आ गयी।
यह तब की बात है, जब मैंने पीएच.डी. के लिए अपना शोधकार्य शिखर सुकुमार के नाटकों पर करने का निश्चय किया था। संयोग से मेरे शोध निर्देशक प्रोफेसर डी.के. राय भी शिखर सुकुमार के मित्र और प्रशंसक थे। उन्होंने मुझसे कहा कि काम शुरू करने से पहले उनके नाटकों को अच्छी तरह पढ़ लो और एक बार उनसे मिल भी लो। मैंने प्रोफेसर राय को बताया कि सुकुमार जी के तीनों नाटक मैं पढ़ चुका हूँ और पढ़कर बहुत प्रभावित हुआ हूँ, तो उन्होंने प्रसन्न होकर अपने मित्र का फोन मिलाकर कहा, ‘‘सुुकुमार, मेरे एक शोधछात्र चंडीप्रसाद तुम्हारे नाटकों पर काम कर रहे हैं। वे तुमसे मिलना चाहते हैं। उन्हें तुम्हारे पास कब भेजूँ?’’
निर्धारित तिथि और समय पर मैं सुकुमार से मिलने गया, तो मन में एक भय-सा था। इतने बड़े साहित्यकार हैं, मुझसे उन्होंने कुछ पूछा और मैं जवाब न दे पाया, तो? कहीं मुझे डाँटकर भगा न दें। इसलिए जब मैंने उनके दरवाजे की घंटी बजायी, तो घंटी के स्विच पर मेरी उँगली काँप रही थी।
एक अधेड़ आदमी ने दरवाजा खोला, जो नीले चारखाने की लुंगी और सफेद बनियान पहने हुए था। साँवले रंग के, स्वस्थ शरीर वाले, लंबे कद के उस आदमी के सिर के खिचड़ी बालों में से गंजापन दिख रहा था। मुझे उसका चौड़ा माथा गंजेपन में जा मिलने से कुछ ज्यादा ही चौड़ा लगा। ठक् से मेरी चेतना में कहीं पढ़ा हुआ एक शब्द आ टकरायाµप्रशस्त ललाट! मैंने देखा, उस आदमी की दाढ़ी-मूँछ सफाचट थीं और काले रंग के मोटे फ्रेम के चश्मे में से उसकी छोटी-छोटी पैनी आँखें मुझसे पूछ रही थीं--कहिए?
‘‘सर, मैं चंडीप्रसाद पंडित, मुझे...’’
‘‘आइए, आइए। देवेंद्र ने, मतलब आपके प्रोफेसर डी.के. राय ने आपको भेजा है न?’’
‘‘जी, सर!’’ कहते हुए मैं उनके पैर छूने के लिए झुका।
‘‘नहीं-नहीं।’’ कहते हुए शिखर सुकुमार पीछे हट गये, ‘‘मैं पैर छूना-छुआना पसंद नहीं करता।’’ फिर मुझे सोफे पर बैठने के लिए कहकर मेरे सामने बैठते हुए उन्होंने व्यंग्यपूर्ण मुस्कान के साथ कहा, ‘‘वैसे भी मैं शूद्र, आप ब्राह्मण। आप से पैर छुआकर मैं नरक में जाऊँ न जाऊँ, आपका धर्म तो भ्रष्ट हो ही जायेगा न!’’
‘‘क्षमा करें, सर, आपके नाटकों को पढ़कर तो लगता है कि आप जात-पाँत और छुआछूत कुछ नहीं मानते। आप साहित्यकार हैं, मेरे गुरुजी के मित्र हैं, गुरु समान हैं, आपके पैर छूना मेरा धर्म है। और जहाँ तक स्वर्ग और नरक में जाने की बात है, आपने अपने नाटक ‘देवासुर संग्राम’ में लिखा है कि ये तो कपोल कल्पनाएँ हैं। स्वर्ग राजा द्वारा प्रजा को लुभाने के लिए दिखाये जाने वाले सब्जबाग की कल्पना है और नरक उसे डराने के लिए दिखाये जाने वाले यातनागृह की कल्पना!’’
‘‘अरे वाह! लगता है, आप खासी तैयारी करके मुझसे मिलने आये हैं!’’ सुकुमार प्रसन्न होकर हँसते हुए बोले, ‘‘देवेंद्र ने मुझे बता दिया था कि आप वामपंथी छात्र संगठन में सक्रिय रहे हैं। ऐसा माना जाता है कि वामपंथी लोग जात-पाँत नहीं मानते। लेकिन मैं ऐसे कई वामपंथियों को जानता हूँ, जो बातों में मार्क्सवादी और व्यवहार में ब्राह्मणवादी होते हैं। इसलिए मैंने सोचा कि पानी पिलाने से पहले आपको अपनी जात बता दूँ!’’
‘‘तो पहले पानी ही पिला दीजिए, सर! बस स्टैंड से आपके घर का पता पूछता पैदल चला आ रहा हूँ और बाहर बड़ी तेज धूप और गर्मी पड़ रही है।’’
‘‘अभी लाया।’’ कहकर सुकुमार घर के अंदर चले गये।
जब तक वे पानी लेकर आये, मैं उनकी बैठक को देखता रहा। एक तरफ सोफा सेट। दूसरी तरफ डाइनिंग टेबल। एक कोने में टेलीफोन। दूसरे कोने में टेलीविजन। एक दीवार में बनी बड़ी खिड़की के बंद शीशों के पार धूप में चमकते नीम और जामुन के पेड़। दूसरी लंबी दीवार पर लेटे हुए बुद्ध की विशाल प्रतिमा का बहुत बड़ा फोटोग्राफ। सोफों के बीच छोटी मेज की शीशे वाली टॉप पर खुली हुई मगर औंधाकर रखी हुई एक पुस्तक, जिसके नीले आवरण पर छपा नाम पढ़ने में आ रहा था--‘सोशल मूवमेंट्स इन इंडिया’। कमरे में ए.सी. की ठंडक थी, लेकिन ए.सी. कहीं दिखायी नहीं दे रहा था।
थोड़ी देर बाद सुकुमार अंदर आये। उनके एक हाथ में पानी का गिलास था और दूसरे में फ्रिज से निकाली गयी ठंडे पानी की बोतल। पीछे-पीछे एक ट्रे में लाल शर्बत के चार गिलास लिये उनकी पत्नी दमयंती जी आयीं और उनके पीछे मिठाई और नमकीन की ट्रे उठाये उनका युवा बेटा अतुल।
बातों-बातों में पता चला कि दमयंती जी एक सरकारी दफ्तर में बड़ी अधिकारी हैं और अतुल दिल्ली विश्वविद्यालय में एम.ए. मनोविज्ञान का छात्र। सुकुमार कोई नौकरी नहीं करते, ‘शिखर’ नामक अपनी एक नाट्य संस्था चलाते हैं और उसकी गतिविधियों में व्यस्त रहते हैं। आज छुट्टी का दिन होने से तीनों एक साथ दोपहर के समय घर में हैं, अन्यथा इस समय घर अक्सर बंद ही रहता है।
फिर जब बातों का सिलसिला शुरू हुआ, तो दोपहर के भोजन के समय तक चलता चला गया। मेरे बहुत ना-ना करने पर भी सुकुमार ने, और उनसे भी अधिक दमयंती जी ने, आग्रहपूर्वक मुझे अपने साथ बिठाकर भोजन कराया। भोजन करते समय मैंने मजाक में कहा, ‘‘आज तो आप लोगों ने एक ब्राह्मण का धर्म पूरी तरह भ्रष्ट कर दिया!’’
‘‘लेकिन सावधान!’’ दमयंती जी ने अपने पति की ओर संकेत करते हुए कहा, ‘‘ये कहीं आपकी बुद्धि भी भ्रष्ट न कर दें! ये अपने ढंग के एक ही हैं। जहाँ लाभ की संभावना हो, वहाँ नहीं जायेंगे; लेकिन जहाँ हानि की आशंका हो, वहाँ जरूर जायेंगे! दलित हैं, लेकिन आरक्षण के विरोधी हैं। खुद तो आरक्षण का कभी कोई लाभ नहीं ही उठाया, अतुल को भी नहीं उठाने दिया। अपनी तरह इसे भी जनरल कैटेगरी में डाल रखा है। मेरी पढ़ाई, नौकरी और पदोन्नति आरक्षण के आधार पर हुई है, सो मुझे कोटे वाली कहकर चिढ़ाते रहते हैं। नाटक ऐसे लिखते हैं कि विरोध हो, बवाल मचे, प्रशंसा की जगह इनकी पिटाई हो! दूसरे लोग पैसा कमाने और पुरस्कार वगैरह पाने के लिए थियेटर करते हैं। इन्होंने अपनी संस्था के लिए किसी भी तरह की फंडिंग लेने से इनकार कर रखा है!’’
सुकुमार ने उनकी बात का उत्तर एक हल्की हँसी से देकर मुझसे कहा, ‘‘निंदक नियरे राखिए!’’
हँसी-खुशी भोजन समाप्त हुआ, तो दमयंती जी और अतुल अपने-अपने कमरे में आराम करने चले गये। बैठक में सुकुमार और मैं ही रह गये, तो उन्होंने हिंदी में होने वाले शोधकार्यों का मजाक-सा उड़ाते हुए कहा, ‘‘हाँ, भई, अब बताइए, क्या खोजना चाहते हैं आप मेरे नाटकों में?’’
‘‘सर, मेरे शोध का विषय है ‘शिखर सुकुमार के नाटकों में पौराणिक मिथकों का उपयोग’।’’
‘‘सिरे से गलत!’’ उन्होंने हँसते हुए कहा। लेकिन अगले ही क्षण गंभीर होकर बोले, ‘‘मैं अपने नाटकों में मिथकों का उपयोग नहीं करता, बल्कि उन्हें तोड़ने का काम करता हूँ। मिथक समाज की किसी व्यवस्था को बनाये रखने के लिए गढ़े और बनाये रखे जाते हैं। यथास्थितिवादी साहित्य में मिथकों का उपयोग इसी उद्देश्य से किया जाता है। लेकिन समाज की व्यवस्था में बदलाव चाहने वाले यथार्थवादी साहित्य में बने-बनाये मिथकों को तोड़ा जाता है। मसलन, अपने नाटक ‘आरण्यक’ में मैंने राम के ईश्वरीय मिथक को तोड़ा है। मैंने राम को साधारण मनुष्य बना दिया है। राम उसमें जंगलों को जलाकर कृषि योग्य भूमि पाना चाहने वाली कृषि-आधारित सामाजिक व्यवस्था का नायक है, जबकि रावण जंगलों में रहने वाली आदिवासी जनजातियों का नायक। एक पक्ष को जंगल जलाकर खेती के लिए जमीन चाहिए, तो दूसरे पक्ष के लिए जंगल ही जीवन का आधार है। यही है राम-रावण युद्ध का कारण। राम का पक्ष प्रबल है, क्योंकि उसमें जंगल में रहने वाली जनजातियों को ही नहीं, रावण के भाई विभीषण तक को अपने पक्ष में मिला लेने की और शत्रु पक्ष को कमजोर कर देने की क्षमता है। राम के पास अपनी कोई सेना नहीं थी। जंगल के मूल निवासियों को संगठित करके उसने अपनी सेना बनायी, जो रावण की सेना पर भारी पड़ी। इस प्रकार मैंने राम-रावण युद्ध को पौराणिक संदर्भ से निकालकर ऐतिहासिक संदर्भ से जोड़ दिया है।’’
‘‘ऐतिहासिक संदर्भ?’’ मैंने चकित होकर पूछा।
‘‘कैसे वामपंथी हो, भाई? मोड ऑफ प्रोडक्शन जानते हो न? उत्पादन का तरीका! राम-रावण का युद्ध उत्पादन के दो तरीकों की लड़ाई है। पुराना तरीका है जंगलों में रहकर शिकार और आहार संग्रह करना। नया तरीका है जंगल जलाकर खेती करना। पुराने तरीके पर नये तरीके की विजय होती है। यह ऐतिहासिक संदर्भ है। समझे?’’
मेरे लिए यह व्याख्या बिलकुल नयी थी, जिसे मैं समझ नहीं पाया था, इसलिए मैंने नासमझी के साथ कहा, ‘‘जी!’’
सुकुमार हँस पड़े, ‘‘वाह! जो बात मेरी समझ में दसियों साल इतिहास-पुराण खँगालने पर आयी, उसे आप दो मिनट में समझ गये? घर जाइए, मेरे नाटक को फिर से पढ़िए, नये सिरे से उस पर सोचिए, तब फिर आकर बताइए कि क्या समझे!’’
मैं उठ खड़ा हुआ, लेकिन चलते-चलते ठिठककर मैंने पूछा, ‘‘मगर, सर, मेरे शोध का विषय तो आपके नाटकों में पौराणिक मिथकों का ‘उपयोग’ है। उसमें मिथकों को ‘तोड़ने’ की बात कैसे...?’’
‘‘यह आपकी समस्या है। एक लेखक के रूप में मेरा कहना यह है कि अगर आप किसी नये या पुराने मिथक को ध्वस्त नहीं कर सकते, तो आप सृजनशील लेखक नहीं हैं; क्योंकि सृजन का तो अर्थ ही है पुराने का ध्वंस और नये का निर्माण!’’
धूप तेज होने लगी थी। मैंने पब्लिक पार्क से निकलकर घर की ओर कदम बढ़ाये ही थे कि सड़क पर पत्रकार प्रभात अपनी कार में जाते दिखायी दिये। उन्होंने शायद मुझे नहीं देखा और मैं उनकी ओर अभिवादन में हाथ हिलाता रह गया।
उन्हें देखकर मुझे सुकुमार के नाटक ‘आरण्यक’ पर हुए हिंसक विवाद की याद आ गयी। ‘आरण्यक’ के प्रदर्शन बरसों से होते आ रहे थे, लेकिन उस बार उसके शो फिर से शुरू किये गये, तो न जाने कैसे भारतीय संस्कृति की रक्षा के कुछ ठेकेदारों की भावनाएँ भड़क गयी थीं और उन्होंने सुकुमार पर लगभग जानलेवा हमला करके उन्हें बुरी तरह घायल कर दिया था। इलाज कराने के लिए सुकुमार को कई दिन तक एक अस्पताल के प्राइवेट वार्ड में कमरा लेकर रहना पड़ा था। जब अतुल को कॉलेज और दमयंती जी को अपने दफ्तर जाना होता, तो मैं अस्पताल जाकर उनकी देखभाल किया करता था।
एक दिन प्रभात सुकुमार का साक्षात्कार लेने आये थे। सुकुमार के शरीर पर पट्टियाँ बँधी हुई थीं। वे बिस्तर पर तकियों के सहारे अधलेटे-से बैठे थे। उनके सिरहाने की तरफ रखी कुर्सी पर बैठे प्रभात ने टेपरिकॉर्डर चालू करके अपने और उनके बीच रख दिया था। बातचीत कुछ-कुछ इस तरह हुई थी :
प्रभात: लोग कह रहे हैं कि आप पर जो हमला हुआ, उसके लिए आप स्वयं ही जिम्मेदार हैं।
सुकुमार: जाहिर है कि मैं ही जिम्मेदार हूँ।
प्रभात: यानी हमला हुआ तो ठीक हुआ? हमलावर सही थे?
सुकुमार: मैं ठीक-बेठीक और सही-गलत की बात नहीं कर रहा हूँ। इसका फैसला तो मेरे नाटक के दर्शकों, समीक्षकों और आप पत्रकार लोगों को करना है। या फिर कोर्ट-कचहरी वालों को। मैं केवल यह कह रहा हूँ कि मैंने नाटक में जो लिखा है, पूरे होशो-हवास में और अपने विचार से बिलकुल ठीक मानते हुए लिखा है। हमले से डरकर मैं उसे बदलने वाला या उसके लिए पछताने वाला नहीं हूँ।
प्रभात: लेकिन आप पर आरोप है कि ‘आरण्यक’ में आपने रामकथा को बिलकुल बदल दिया है। राम को ईश्वर से साधारण मनुष्य बना दिया है।
सुकुमार: इसमें आरोप क्या है? यह तो सच है। मैंने ऐसा ही किया है और जान-बूझकर किया है।
प्रभात: लेकिन अगर इससे राम को भगवान मानने वालों की भावनाएँ आहत होती हैं, तो?
सुकुमार: तो क्या? उनकी भावनाओं की अभिव्यक्ति को आप मेरे शरीर पर लगी चोटों के रूप में देख ही रहे हैं।
प्रभात: अर्थात् जन-भावनाओं का आदर करते हुए आप अपने नाटक में कोई परिवर्तन करने को तैयार नहीं हैं?
सुकुमार: जी, नहीं। राम हजारों साल से साहित्य में चित्रित होते आ रहे एक चरित्र हैं। हर साहित्यकार उन्हें अपने ढंग से चित्रित करता है। मैंने भी यही किया है। और यह मेरा अधिकार है। आपको शायद मालूम होगा कि रामकथा कोई एक ही या एक-सी चीज नहीं है। उसके विभिन्न रूप हैं और उसमें रामकथा की घटनाएँ और पात्र विभिन्न रूपों में चित्रित हुए हैं।
प्रभात: अच्छा, आप दलित होते हुए भी पौराणिक विषयों पर क्यों लिखते हैं?
सुकुमार: क्या किसी दलित को पौराणिक विषयों पर लिखने का अधिकार नहीं है?
प्रभात: इन विषयों पर लिखने के कारण दलित लेखक आपको दलित नहीं, ब्राह्मणवादी लेखक मानते हैं।
सुकुमार: यह उनकी समस्या है।
प्रभात: आप पर इतना भयानक हमला हुआ और दलित लेखक आपके समर्थन में खड़े नहीं हुए, इसकी वजह क्या आपका ब्राह्मणवादी होना नहीं है?
सुकुमार: मैं नहीं जानता।
प्रभात: लेकिन जो लोग आपको अच्छी तरह जानते हैं...
सुकुमार: वे कौन हैं, जो मुझे अच्छी तरह जानते हैं? अच्छी तरह जानने का मतलब होता है पूरी तरह जानना। किसी को अच्छी तरह जानने का दावा करने वालों के पास उसके बारे में अक्सर बहुत कम और आधी-अधूरी जानकारी होती है। अब, अगर कोई गीली मिट्टी हाथों में लेकर उसका एक गोला बनाये और आपसे कहे कि यह पृथ्वी है और मैं इसे अच्छी तरह जानता या जानती हूँ, तो क्या आप मान लेंगे कि मिट्टी का वह गोला सचमुच पृथ्वी है और उस व्यक्ति का उसे जानने का दावा सही है?
प्रभात: आप तो बाल की खाल निकालने लगे!
सुकुमार: नहीं, मैं आपसे एक ठोस प्रश्न पूछ रहा हूँ। अपने हाथों बनाये मिट्टी के गोले को पृथ्वी बताने वाला आदमी क्या सचमुच पृथ्वी को जानता है? क्या बड़े से बड़ा भूगोलवेत्ता, खगोलवेत्ता और भूगर्भवेत्ता भी यह दावा कर सकता है कि वह पृथ्वी को पूरी तरह जानता है? पृथ्वी की बात छोड़िए, आप अपने हाथों बनाये मिट्टी के गोले के बारे में ही कितना जानते हैं? उसमें कौन-सी मिट्टी है और किस प्रकार की? उसमें कितने कण हैं और कितने अणु-परमाणु? उसमें कितने ठोस, द्रव और गैसीय तत्त्व हैं? उसमें कौन-कौन-से भौतिक, जैविक और रासायनिक पदार्थ हैं?
प्रभात: यह कुतर्क है, जिसके सहारे आप बातचीत से बचना या साक्षात्कार से इनकार करना चाह रहे हैं। आपके इस कुतर्क को ही आगे बढ़ाते हुए कहूँ, तो क्या पृथ्वी स्वयं को जानती है? या मिट्टी का एक गोला ही स्वयं को जानता है?
सुकुमार: पता नहीं, लेकिन मैंने पृथ्वी को या मिट्टी के किसी गोले को स्वयं को अच्छी तरह जानने का दावा करते नहीं देखा। हम पृथ्वी को पृथ्वी और ढेले को ढेला कहते हैं। लेकिन क्या हम जानते हैं कि पृथ्वी स्वयं को पृथ्वी मानती है या ढेला स्वयं को ढेला मानता है?
प्रभात: अच्छा, आप बताइए, आप खुद को क्या मानते हैं?
सुकुमार: एक लेखक, एक नाटककार।
प्रभात: सफल या असफल?
सुकुमार: पता नहीं।
प्रभात: आप स्वयं को किसी भी प्रतिस्पर्धात्मक दौड़ से बाहर क्यों कहते हैं?
सुकुमार: इसलिए कि मैं सचमुच किसी दौड़ में शामिल नहीं हूँ।
प्रभात: अच्छा, आपके प्रशंसक भी आपको औघड़ साहित्यकार कहते हैं। क्या यह आपको ठीक लगता है?
सुकुमार: ठीक? मैं तो यह भी नहीं जानता कि औघड़ शब्द का अर्थ क्या होता है!
मेरे सामने हुई इस बातचीत के वर्षों बाद जब मैं अपनी पहली पुस्तक ‘शिखर सुकुमार : एक औघड़ साहित्यकार’ की पहली प्रति भेंट करने गया था, तब मुझसे भी उन्होंने व्यंग्यपूर्वक मुस्कराते हुए पूछा था, ‘‘औघड़ का क्या अर्थ होता है?’’
और मैंने उनसे पूछा था, ‘‘सर, धृष्टता क्षमा करें, कई बार जी में आया कि आपसे आपके नाम के बारे में पूछूँ। यह नाम आपने स्वयं रखा है या...?’’
‘‘पहला आधा मेरे पिता का रखा हुआ है और दूसरा आधा मैंने खुद रखा है। वैसे मेरा नाम था शिखर दुसाध। दुसाध जाति का होने के कारण। लेकिन वेद, पुराण और संस्कृत साहित्य के आधुनिक व्याख्याकार मेरे गुरु कमलाकर जी ने मुझे पढ़ाना शुरू करते ही मेरा नाम बदल दिया। दुसाध की जगह दुस्साध्य। मुझे न दुसाध पसंद था न दुस्साध्य। किसी ने उसके बदले सुसाध्य सुझाया, लेकिन वह तो मुझे और भी खराब लगा। आखिरकार मैंने खुद ही अपना नाम शिखर सुकुमार रख लिया।’’
मैं यह तो समझ गया था कि दुसाध उनकी जाति है, लेकिन यह शब्द मैंने पहली बार सुना था। मेरे चेहरे पर अचरज या जिज्ञासा जैसा कुछ रहा होगा, जिसे पढ़कर उन्होंने कहा, ‘‘मेरे पिता कबीर को बहुत मानते थे। कबीर की यह बात उन्होंने बचपन में ही जिंदगी भर के लिए गाँठ बाँध ली थी कि ‘जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान; मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान’। वे देहाती दुसाधों में पैदा हुए थे। सूअर पालना और बेचना उनका पुश्तैनी पेशा था। दुसाध बहुत नीची जाति मानी जाती थी। मेरे पिता ने प्रतिज्ञा की कि दुसाध नहीं रहेंगे, साधु बनेंगे। लेकिन दुनिया से संन्यास लेकर भीख माँगने निकल पड़ने वाले साधु-संन्यासी नहीं, बल्कि सच्चे साधु। सच्चे, सज्जन, चतुर, निपुण, योग्य और प्रशंसनीय वाले अर्थ में साधु। दुनिया से भागंेगे नहीं, दुनिया को बदलेंगे। कोई गुरु भी उन्हें अच्छा मिल गया था। उसने मेरे पिता को किसी अंग्रेज अफसर से मिलवा दिया, जिसने उन्हें सेना को सूअर सप्लाई करने की सलाह दी। शायद कुछ पैसा भी दिया, जिससे वे बड़े पैमाने पर सूअर पाल सकें। काम अच्छा चलने लगा। फौजी अफसरों से बात करने के लिए मेरे पिता ने कामचलाऊ अंग्रेजी सीख ली और कोट-पैंट वाली वेश-भूषा भी अपना ली। गाँव छोड़ शहर में रहने लगे। उन्होंने मुझे अंग्रेजी शिक्षा दिलायी। वे चाहते, तो स्कूल में मेरी जाति कुछ और भी लिखवा सकते थे। कौन पूछने वाला था? मगर उनका कहना था कि जन्म से दुसाध हो तो क्या हुआ? कर्म से साधु बनो। सो मैं जाति से आज भी दुसाध हूँ, बाकी तुम देख ही रहे हो!’’
पूछते संकोच हुआ, मगर फिर भी मैंने पूछ लिया, ‘‘और आपके पिताजी का व्यवसाय? उसका क्या हुआ?’’
सुकुमार जी मुस्कराते हुए बोले, ‘‘तुम्हें पता है, विश्वामित्र एक प्रतिसृष्टि करने या दूसरी दुनिया बनाने चला था और देवताओं के भेजे ब्रह्मा ने उसे समझा-बुझाकर ऐसा करने से रोक दिया था? मेरे पिता को भी मिल गये एक ब्रह्मा जी! उन्होंने कहाµ‘यह क्या कर रहे हो? हम देश की आजादी के लिए जिन अंग्रेजों से लड़ रहे हैं, तुम उन्हीं अंग्रेजों को खाने के लिए सूअर सप्लाई कर रहे हो? बंद करो यह धंधा और चलो हमारे साथ।’ मेरे पिता ने उनकी न सुनी होती, तो दूसरे विश्वयुद्ध में सेना को सामान सप्लाई करने वाले कई ठेकेदारों की तरह मालामाल होकर शायद बड़े पूँजीपति बन गये होते। लेकिन उन्होंने अपना धंधा बंद कर दिया और देश की सेवा करने चल दिये। आजादी के आंदोलन में शामिल हुए और जेल चले गये। आजादी मिलने पर जेल से छूटे, तो देखा कि दुनिया बदली नहीं, बल्कि बेहतर होने की जगह और बदतर हो गयी है। देश बँट गया है, लाखों लोग मारे जा रहे हैं, इधर से उधर और उधर से इधर विस्थापित हो रहे हैं। शरणार्थी कैंपों में स्वयंसेवक बनकर काम करते समय उन्होंने इतना दुख देखा कि विक्षिप्त-से हो गये। सबसे ज्यादा गुस्सा उन्हें उन लोगों पर आया, जो आजादी के आंदोलन में शामिल होने की कीमत वसूल करते हुए नेता और मंत्री बन बैठे थे। मेरे पिता को तो स्वतंत्रता सेनानी होने के कारण मिल सकने वाले लाभ उठाने वालों से भी सख्त नफरत थी। वे तो आरक्षण के भी सख्त खिलाफ थे।’’
‘‘अच्छा? क्यों?’’
‘‘वे कहते थे, जाति के नाम पर जो भी कोई लाभ उठाता है, चाहे वह सवर्ण हो या शूद्र, ऊँची जाति का हो या नीची जाति का, जात-पाँत की व्यवस्था को मजबूत बनाता है। तुम्हें जातिवाद को बढ़ाना नहीं है, खत्म करना है।’’
दोपहर के भोजन के समय खाने की मेज पर एक तरफ मैं और प्रभा बैठे थे, दूसरी तरफ जय और विजय। अचानक प्रभा ने शिखर सुकुमार के नये नाटक की बात छेड़ दी।
‘‘अब यह ‘असत्य हरिश्चंद्र’ क्या है?’’ प्रभा ने झुँझलाहट भरे स्वर में कहा, ‘‘दलित लेखक होने का मतलब यह तो नहीं कि आप पूरी भारतीय संस्कृति को ब्राह्मणवादी हथकंडा बतायें और उसके उजले पक्षों पर भी कालिख पोतने लगें! सत्यवादी हरिश्चंद्र तो एक नैतिक आदर्श है। राजा हरिश्चंद्र का आदर्श सामने रखकर हम अपने बच्चों को सत्यवादी बनने के लिए प्रेरित करते हैं। इसमें क्या बुराई है? उसे असत्यवादी बना-दिखाकर सुकुमार जी को क्या मिलेगा?’’
‘‘नाटक देखे बिना तुम यह कैसे कह सकती हो कि उसमें सत्यवादी हरिश्चंद्र को असत्यवादी बनाया गया होगा? यह भी तो हो सकता है कि सुकुमार जी हरिश्चंद्र को एक फेक कैरेक्टर मानते हों और उसकी जगह एक जेनुइन कैरेक्टर की रचना करना चाहते हों?’’
‘‘पर मैं कहती हूँ कि बुराइयों का विरोध करो, अच्छी बात है। असत्य, अन्याय, अत्याचार का विरोध करो, अच्छी बात है। लेकिन लीक से हटकर चलने के नाम पर या ब्राह्मणवाद का विरोध करने के नाम पर अपने आदर्शों को नष्ट करना क्या अच्छी बात है?’’
मैं प्रभा की बातें सुन रहा था, लेकिन मेरे कान जय-विजय की बातचीत पर भी लगे थे। बड़ा भाई जय अपने छोटे भाई विजय को हरिश्चंद्र की कहानी सुना रहा था, ‘‘सत्यवादी मींस कि वो कब्भी झूठ नहीं बोलता था। जो कहता था, वो ही करता था। एक दिन देवताओं के राजा इंद्रा को लगा कि उसका सिंहासन हिल रहा है। मींस कि कोई और उसका सिंहासन छीनकर स्वर्ग का राजा बनना चाहता है...’’
इधर प्रभा मुझसे कह रही थी, ‘‘सुकुमार जी क्या आसमान से टपके हैं या आसमान में रहते हैं? यह देश उनका नहीं है? इस देश का साहित्य, इस देश की सभ्यता और संस्कृति उनकी नहीं है? क्या उसकी रक्षा करना उनका काम नहीं है? दलित होने का यह मतलब है कि ब्राह्मणवाद का विरोध करने के नाम पर अपने वेद-पुराण वगैरह सब नष्ट कर दो?’’
‘‘नहीं, वेदों-पुराणों की नयी व्याख्याएँ करना उन्हें नष्ट करना नहीं है। और पौराणिक साहित्य में अगर झूठी बातें भरी हुई हैं, तो उनके झूठ को झूठ कहना और सच को सामने लाना दलित लेखकों का ही नहीं, किसी भी लेखक का कर्तव्य है। अधिकार भी है। फिर, सुकुमार जी कोई सामान्य दलित लेखक नहीं हैं। पौराणिक साहित्य के अध्ययन और विश्लेषण के मामले में वे पंडितों के भी पंडित हैं। एक दिन मैंने उनसे पूछा कि आपने पौराणिक मिथकों को अपने लेखन का विषय क्यों बनाया, तो जानती हो, उन्होंने क्या कहा? उन्होंने कहा--चंडीप्रसाद, हर व्यवस्था का अपना एक तर्क होता है। उस तर्क से वह अपनी सुरक्षा का एक मजबूत परकोटा बनाती है। इतना मजबूत कि उसे तोड़ा न जा सके, कोई उसमें सेंध न लगा सके। लेकिन यह उसकी इच्छा और कोशिश ही होती है। ऐसी कोई अभेद्य प्राचीर बनाना उसके वश में नहीं होता। परम अभेद्य प्रतीत होने वाली प्राचीर में भी कहीं न कहीं कोई कमजोर जगह छूट ही गयी होती है। तुम्हारा काम होता है उस कमजोर जगह को ढूँढ़ निकालना और वहाँ से उस प्राचीर को तोड़ना शुरू करना। मैं यही काम करता हूँ।’’
‘‘यानी हमारे पुरखों की बनायी वर्ण-व्यवस्था, जो इतनी मजबूत है कि हजारों साल से चली आ रही है, उसमें दोष देखना, कमियाँ और कमजोरियाँ ढूँढ़ना और तरह-तरह के तर्कों से उसका खंडन करनाµयही है उनका काम?’’
प्रभा आज न जाने क्यों सुकुमार के प्रति असहिष्णु हो उठी थी, जबकि वह उनका आदर करती थी। हमारी शादी के समय से ही हम उनसे मिलने उनके घर जाते हैं, वे हमसे मिलने हमारे घर आते हैं। उनके यहाँ खाते और उन्हें अपने यहाँ खिलाते समय प्रभा के व्यवहार से कभी यह नहीं लगा कि वह वर्ण या जाति को लेकर कोई भेदभाव बरतती है।
शादी के बाद उन लोगों के बारे में बताते समय ही मैंने उससे कह दिया था, ‘‘सुकुमार जी मेरे गुरु होने के नाते पिता समान हैं और दमयंती जी को मैं गुरु-पत्नी होने के नाते माताजी कहता हूँ। वे भी मुझे अपना बेटा ही मानती हैं, अपने बेटे अतुल का बड़ा भाई। लेकिन सोच लो, तुम पंडितानी हो, उस दलित परिवार के साथ यह रिश्ता निभा लोगी? अगर तुम्हें मंजूर नहीं, तो मैं तुम्हें जबर्दस्ती मजबूर नहीं करूँगा। लेकिन मैं उनसे अपना संबंध बनाये रखूँ, इसकी इजाजत तुम्हें देनी होगी।’’
प्रभा ने कहा था, ‘‘पहले उनसे मिलवाओ तो!’’ और जब मैं उसे साथ लेकर सुकुमार के घर गया था, तो उसने बड़ी खूबसूरती से उन लोगों के साथ अपना रिश्ता जोड़ा था। दमयंती जी से उसने कहा था, ‘‘माताजी, मेरे सास-ससुर नहीं हैं। क्या आप लोग मेरे सास-ससुर बनना पसंद करेंगे?’’ और दमयंती जी ने कहा था, ‘‘हमारी भी अभी तक कोई बहू नहीं है। सो आज से तुम हमारी बहू हुईं।’’
यह रिश्ता तब से अब तक दोनों तरफ से बड़े प्रेम से निभाया जाता रहा है। तो आज प्रभा को क्या हो गया है? सीधे पूछना मैंने उचित नहीं समझा, इसलिए थोड़ा घुमा-फिराकर पूछा, ‘‘नाटक देखे बिना ही तुम उसकी इतनी कटु आलोचक क्यों बन बैठी हो?’’
‘‘बात नाटक की नहीं, सुकुमार जी के पूरे एटीट्यूड की है। दलित हैं तो दलितों वाला लेखन करें। दलित साहित्य तो आधुनिक, बल्कि उत्तर-आधुनिक साहित्य है। उसमें वेदों-पुराणों वाले विषय उठाने का क्या मतलब? ऐसा करके क्या वे सवर्ण साहित्यकार बनना चाहते हैं? क्या उन्हें पता नहीं है कि इंसान अपना धर्म वगैरह चाहे बदल ले, अपनी जाति कभी नहीं बदल सकता? आज के अखबार में जब से मैंने पढ़ा है कि दलित लेखक भी सुकुमार जी का साथ नहीं दे रहे हैं, तभी से सोच रही हूँ कि सुकुमार जी अपने पैरों पर खुद ही कुल्हाड़ी क्यों मार रहे हैं?’’
‘‘यह काम वे आज से नहीं, शुरू से कर रहे हैं। लेकिन यह काम वे ब्राह्मण या ब्राह्मणवादी बनने के लिए नहीं कर रहे हैं। यह काम वे साहित्यिक मान्यता प्राप्त करने के लिए भी नहीं कर रहे हैं। लिखना उनके लिए व्यवस्था को बदलने का काम है। बड़े-बड़े विद्वान, इतिहासकार और समाजशास्त्री यह मानते हैंµऔर जातिवादी राजनीति करने वाले लोग तो हजारों तरह से रोजाना कहते ही हैंµकि जाति की व्यवस्था को बदला नहीं जा सकता। लेकिन सुकुमार जी अपने हर नाटक में यह दिखाते हैं कि जाति-व्यवस्था बदलती रही है और उसे बदला जा सकता है।’’
‘‘लेकिन क्या सफेद पर काला पोतने से यह काम हो जायेगा?’’ प्रभा ने अपने गुस्से का सुराग-सा देते हुए कहा, ‘‘सत्य को असत्य कहने से क्या वह असत्य हो जायेगा? सत्यवादी हरिश्चंद्र लोगों के मन में बैठे हुए हैं, कोई लाख कोशिश कर ले, उन्हें असत्यवादी बताकर वहाँ से हिला नहीं सकता।’’
‘‘तो यह सुकुमार जी की समस्या है, तुम क्यों नाराज हो रही हो?’’
‘‘क्योंकि तुम उस नाटक की समीक्षा लिखने जा रहे हो। वे तुम्हारे गुरु हैं, पिता समान हैं, उनकी आलोचना तो तुम कर नहीं सकते। नाटक की प्रशंसा ही करोगे। नतीजा क्या होगा? दलित और गैर-दलित दोनों तुम्हारे भी पीछे पड़ जायेंगे। दो पाटों के बीच में गेहूँ के साथ-साथ घुन भी पिस जायेगा।’’
‘‘ओ, अच्छा! अब समझा! तुम मेरे साहित्यिक भविष्य को लेकर चिंतित हो!’’ मैंने हँसते हुए कहा।
प्रभा ने कोई उत्तर नहीं दिया, तो मैंने खाने की प्लेट से ध्यान हटाकर उसकी तरफ देखा। वह मेरी नहीं, अपने बेटों की बातें सुन रही थी।
विजय को राजा हरिश्चंद्र की कहानी सुनाते हुए जय कह रहा था, ‘‘तो इंद्रा ने उसका टेस्ट लेने के लिए रिशी विश्वामित्रा को बैगर बनाके उसके पास भेजा। विश्वामित्रा बैगर बनके गया, तो हरिश्चंद्रा ने पूछाµबोल, क्या माँगता है? विश्वामित्रा बोलाµआइ वांट योर होल किंगडम...’’
‘‘जय!’’ अचानक प्रभा जोर से चिल्लायी, ‘‘यह क्या हो रहा है? इंद्रा, विश्वामित्रा, हरिश्चंद्रा--यह क्या है?’’
‘ममा, मैंने अपनी इंग्लिश की बुक में जो स्टोरी पढ़ी है, वो ही सुना रहा हूँ।’’
‘‘हाँ, लेकिन यह इंद्रा-विंद्रा क्या है? इंद्र, विश्वामित्र और हरिश्चंद्र नहीं बोल सकते तुम?’’
‘‘ममा, मैंने जो पढ़ा है, वही बोल रहा हूँ। आइ एन डी आर एµइंद्रा। स्कूल में सब ऐसे ही बोलते हैं। टीचर्स भी।’’
‘‘वहाँ सब होंगे अंग्रेज! पर अपने घर में तो तुम इंद्र को इंद्र बोल सकते हो? कोई सुनेगा, तो क्या कहेगा कि हिंदी के प्रोफेसर और राइटर चंडीप्रसाद पंडित के बेटों को इंद्र बोलना भी नहीं आता!’’
मैंने देखा कि लड़के खाना खत्म कर चुके हैं और प्रभा उन्हें लेक्चर पिलाने के मूड में है, तो लड़कों को इशारा किया कि ‘सॉरी’ बोलकर दोनों अपने कमरे में जायें। लड़कों ने इशारा समझा, झटपट यही किया और चले गये।
प्रभा ने मेरी तरफ देखा, ‘‘सत्यानाश हो इंग्लिश मीडियम की इस पढ़ाई का! बच्चे अपने देवताओं, ऋषि-मुनियों और महापुरुषों के नामों का सही उच्चारण तक नहीं कर सकते!’’
‘‘और यह नहीं सुना कि ‘विश्वामित्रा को बैगर बनाके भेजा’? बैगर!’’ कहते-कहते मुझे हँसी आ गयी और मैं जोर से हँस पड़ा।
प्रभा ने जलती आँखों से मेरी तरफ देखा और मेज पर से बर्तन समेटने लगी। उसके गुस्से से बचने के लिए मैंने अपने जूठे बर्तन उठाये और रसोईघर में जाकर सिंक में रख दिये। अपनी स्टडी की तरफ जाते हुए मैं बच्चों के कमरे के सामने से गुजरा, तो पाया कि दरवाजा खुला है, दोनांे लड़के पलंग पर लेटे-बैठे हैं और राजा हरिश्चंद्र की कहानी जारी है।
‘‘वो रियल राजा नहीं है, बुद्धू! वो तो एक कैरेक्टर है!’’ जय कह रहा था।
मेरी इच्छा हुई कि जाकर प्रभा से कहूँ--लड़के जैसे भी हैं, काफी समझदार हैं। लेकिन मैं मुस्कराता हुआ अपनी स्टडी की ओर बढ़ गया।
मैंने घड़ी देखी। एक बजा था। रामाधार ठाकुर के दफ्तर की गाड़ी मुझे दो बजे लेने आने वाली थी। मैंने सोचा, ‘असत्य हरिश्चंद्र’ देखने जाने से पहले भारतेंदु हरिश्चंद का लिखा नाटक ‘सत्य हरिश्चंद्र’ एक बार उलट-पलटकर देख लेना ठीक रहेगा। सो मैंने अपनी किताबों में से ‘सत्य हरिश्चंद्र’ नाटक निकाला और पढ़ने बैठ गया। ‘उपक्रम’ शीर्षक से लिखी गयी भूमिका में भारतेंदु ने लिखा थाµ‘‘जब हरिश्चंद्र के पिता त्रिशंकु ने इसी शरीर से स्वर्ग जाने के हेतु वशिष्ठ जी से कहा तो उन्होंने उत्तर दिया कि यह अशक्य काम हमसे न होगा...’’
मैंने भारतेंदु की भूल पकड़ी। उन्होंने ‘वसिष्ठ’ को ‘वशिष्ठ’ लिखा था और उसके आगे ‘जी’ भी लगाया था, जबकि उनसे कहीं ज्यादा बड़े और बेहतर ऋषि विश्वामित्र को अनादर के साथ केवल विश्वामित्र लिखा था!
भारतेंदु की भूल पकड़ने के चक्कर में मैं नाटक पढ़ना भूल गया और उन दिनों को याद करने लगा, जब अपने शोधकार्य के सिलसिले में शिखर सुकुमार के घर मेरा आना-जाना बहुत बढ़ गया था। मैं उनके परिवार के सदस्य जैसा हो गया था। यों विश्वविद्यालय द्वारा नियुक्त मेरे शोध निर्देशक प्रोफेसर डी.के. राय थे, लेकिन वास्तव में मेरा निर्देशन शिखर सुकुमार ही कर रहे थे। मैं उन्हें ‘सर’ कहना छोड़ ‘गुरुजी’ कहने लगा था और गुरु पत्नी के नाते दमयंती जी को माताजी। वे भी मुझे पुत्रवत मानने लगी थीं। एक दिन जब मैं उनके घर की बैठक में बैठा सुकुमार से कुछ चर्चा कर रहा था, वे एक अधबुना स्वेटर, सलाइयाँ और ऊन का गोला लिये हुए आयीं और सामने बैठकर स्वेटर बुनने लगीं।
बातों-बातों में दमयंती जी ने कहा, ‘‘चंडी मेरा बड़ा बेटा है, अतुल छोटा।’’
‘‘आप अद्भुत माँ हैं!’’ सुकुमार ने हँसकर कहा, ‘‘पहले आपको छोटा बेटा होता है, बाद में बड़ा!’’
फिर उसी विनोद भाव से उन्होंने मुझसे कहा, ‘‘तुम भी बड़े अजीब द्विज हो, चंडीप्रसाद! तुम्हारा पहला जन्म ब्राह्मणों में हुआ है, दूसरा शूद्रों में!’’
‘‘अच्छा ही है न, गुरुजी!’’ मैंने भी हँसते हुए कहा, ‘‘साहित्य में ब्राह्मणों की संख्या बहुत बड़ी है। इसलिए प्रतिस्पर्धा भी बहुत कड़ी है। पता नहीं, कब मान्यता मिले! दूसरी तरफ दलित साहित्य नया है, दलित लेखक भी कम ही हैं, सो दलित लेखक के रूप में मुझे मान्यता जल्दी मिल जायेगी! वाल्मीकि पहले दलित लेखक थे, उन्हें झटपट मान्यता मिल गयी होगी!’’
सुकुमार मुस्कराये, ‘‘वाल्मीकि का उदाहरण सही नहीं है, चंडीप्रसाद! वाल्मीकि शूद्र थे, लेकिन उनकी ‘रामायण’ दलित साहित्य नहीं है। वह ब्राह्मणवादी साहित्य ही है। वह वर्ण-व्यवस्था को चुनौती देने वाला साहित्य नहीं, बल्कि उसको मजबूत बनाने वाला साहित्य है। वाल्मीकि ने यह तो सिद्ध कर दिखाया कि शूद्र भी श्रेष्ठ साहित्यकार हो सकते हैं, लेकिन अनजाने ही उन्होंने अपने उदाहरण से यह भी सिद्ध किया कि इसके लिए उनका ब्राह्मणवादी होना जरूरी है, उसी वर्ण-व्यवस्था को मजबूत बनाना जरूरी है, जिसने उन्हें व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर रख छोड़ा है! वाल्मीकि की जाति आसानी से दिख जाती है, लेकिन उनकी रचना में मौजूद ब्राह्मणवाद आसानी से नहीं दिखता।’’
मैंने पूछा, ‘‘उसे कैसे देखा जा सकता है, गुरुजी?’’
‘‘उसे देखने के लिए समाज में होने वाले संघर्षों को देखो। देखो कि वह संघर्ष क्या है, क्यों है, किनके बीच है और किसलिए है। मैं अपने नाटकों में बार-बार युद्ध की थीम क्यों लेता हूँ? अपने पहले नाटक में मैंने राम-रावण युद्ध को लिया। दूसरे नाटक में कौरवों-पांडवों के युद्ध को लिया। तीसरे नाटक में वैदिक काल के देवासुर संग्राम को लिया। अपना अगला नाटक मैं वसिष्ठ और विश्वामित्र के बीच के संघर्ष पर लिखने की सोच रहा हूँ। तुमने वसिष्ठ और विश्वामित्र के संघर्ष पर कभी गौर किया है? उन दोनों के बीच का संघर्ष क्या है?’’
मैंने संकोचपूर्वक उत्तर दिया, ‘‘गुरुजी, मैं ज्यादा नहीं जानता। इतना ही जानता हूँ कि वसिष्ठ ब्राह्मण ऋषि थे और विश्वामित्र क्षत्रिय राजा। वसिष्ठ के पास एक गाय थी कामधेनु, जिससे जो चाहो मिल जाता था। ऐसी गाय जिसके पास हो, उसे और क्या चाहिए? विश्वामित्र ने वसिष्ठ के पास वह गाय देखी, तो बोले कि यह गाय हमें दे दो। वसिष्ठ ने नहीं दी, तो कहा कि इसे हमें बेच दो और बदले में जो चाहो, कीमत हमसे ले लो। वसिष्ठ ने गाय बेचने से भी इनकार कर दिया, तो विश्वामित्र ने उसे जबर्दस्ती ले जाने के लिए वसिष्ठ के आश्रम पर अपनी सेना के साथ आक्रमण कर दिया। लेकिन कामधेनु ने वसिष्ठ के कहने पर अपनी एक हुंकार से वीरों की ऐसी सेना पैदा कर दी कि विश्वामित्र की सेना उससे हार गयी। इससे विश्वामित्र को लगा कि असली शक्ति क्षत्रिय राजाओं के पास नहीं, ब्राह्मण ऋषियों के पास है। हम तो केवल राजर्षि हैं। वसिष्ठ ब्रह्मर्षि हैं। सो विश्वामित्र ने ब्रह्मर्षि बनने की ठान ली। इसके लिए उन्होंने घोर तपस्या की और आखिरकार ब्रह्मर्षि बन गये।’’
‘‘बस?’’ दमयंती जी ने कहा, ‘‘चंडी, तुम्हें कहानी सुनाना नहीं आता। इतनी बड़ी कथा दो मिनट में सुना दी। कोई कथावाचक पंडित होता, तो रस ले-लेकर दो घंटे में सुनाता।’’
‘‘दो घंटे में?’’ सुकुमार मुस्कराये, ‘‘वसिष्ठ-विश्वामित्र के संघर्ष की पूरी कहानी तो दो सौ साल में भी नहीं सुनायी जा सकती। पहली बात तो यह कि उनकी पूरी कहानी जान पाना ही मुश्किल है। फिर उसमें एक सिलसिला बिठा पाना तो और भी मुश्किल। मैं कई साल से इसी कोशिश में लगा हूँ। ऋग्वेद से लेकर तमाम पौराणिक गं्रथों, महाकाव्यों, नाटकों और दूसरे कई रूपों में कहीं न कहीं इन दोनों के आपसी संघर्ष की कथा मिल जायेगी। कामधेनु वाला प्रसंग तो उस कथा का एक बहुत छोटा-सा अंश है।’’
दमयंती जी ने उनसे पूछा, ‘‘तो तुम्हारे हिसाब से वह संघर्ष क्या है?’’
सुकुमार ने उत्तर दिया, ‘‘सत्ता का संघर्ष। कहीं सीधे-सीधे राज्यसत्ता के लिए संघर्ष, तो कहीं सामाजिक शक्ति या ज्ञान-विज्ञान की शक्ति के जरिये राज्यसत्ता पर परोक्ष नियंत्रण के लिए संघर्ष। मतलब, राजा कोई और है, लेकिन राजा का गुरु या पुरोहित कोई और है, जो परोक्ष रूप में राज्यसत्ता को नियंत्रित करता है। सीधे-सीधे राज्यसत्ता के लिए संघर्ष इस रूप में होता है कि राज्यसत्ता कभी क्षत्रियों के पास रहती है, तो कभी ब्राह्मणों के पास। इसलिए राजा हमेशा क्षत्रिय ही नहीं हुए हैं। राजा ब्राह्मण भी हुए हैं। एक-दूसरे का राज्य छीनने के लिए उनमें लड़ाइयाँ भी हुई हैं, जिनमें कभी क्षत्रिय जीते हैं, तो कभी ब्राह्मण जीते हैं। लेकिन अक्सर दोनों के बीच यह समझौता रहा है कि आओ, दोनों मिलकर राज करें और अपने-अपने काम बाँट लें। क्षत्रियों के पास बल है, तो ब्राह्मणों के पास बुद्धि। सो क्षत्रिय राजा रहें और ब्राह्मण उनके गुरु या पुरोहित। यानी राज्य की नीतियाँ और कानून ब्राह्मण बनायेंगे और उन्हें लागू करेंगे क्षत्रिय!’’
‘‘लेकिन विश्वामित्र तो क्षत्रिय था और बड़ा शक्तिशाली राजा भी। उसे वसिष्ठ की तरह ब्राह्मण या ब्रह्मर्षि बनने की क्या पड़ी थी?’’ दमयंती जी ने पूछा।
‘‘विश्वामित्र ने शायद देख लिया था कि राजा के पास वह ताकत नहीं, जो उसके पुरोहित के पास है। लेकिन यह देखो कि महाकाव्यों का--यानी रामायण और महाभारत काµसमय तो ऋग्वेद की तुलना में बहुत बाद का है, जबकि वसिष्ठ और विश्वामित्र ऋग्वेद में भी मौजूद हैं। राजा सुदास का पुरोहित पहले विश्वामित्र था। फिर उसे हटाकर वसिष्ठ बन गया। इस तरह विश्वामित्र के हाथ से सत्ता छिन गयी, तो वह सुदास का शत्रु हो गया और दाशराज्ञ युद्ध में सुदास के विरुद्ध लड़ा। इतना ही नहीं, सुदास की मृत्यु के बाद सौदासों का, यानी सुदास के वंशजों का पुरोहित फिर से विश्वामित्र बना।’’
मैंने चकित होकर पूछा, ‘‘गुरुजी, राजा बदलते रहते हैं, लेकिन उनके पुरोहित कभी वसिष्ठ और कभी विश्वामित्र ही कैसे रहते हैं? ये दोनों क्या अजर-अमर थे?’’
‘‘नहीं, भाई! ये व्यक्तियों के नहीं, वंशों के नाम लगते हैं। जैसे राजवंश पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलते थे, वैसे ही ऋषियों के वंश भी चलते होंगे। जिस तरह राजवंशों में आपसी संघर्ष होते थे, वैसे ही ऋषिवंशों में भी आपसी संघर्ष होते होंगे। लेकिन एक मजेदार बात बताऊँ? यह जो विश्वामित्र है, चाहे वह एक व्यक्ति हो या एक परंपरा, मुझे बड़ा क्रांतिकारी चरित्र लगता है। वसिष्ठ बहुत शक्तिशाली है, लेकिन विश्वामित्र के मुकाबले वह काफी रूढ़िवादी, पुरातनपंथी और षड्यंत्रकारी लगता है; जबकि विश्वामित्र काफी प्रगतिशील, नयी सोच वाला और क्रांतिकारी।’’
"क्यों?"
‘‘त्रिशंकु की कहानी याद करो!’’ सुकुमार ने कहा और स्वयं ही कहानी सुनाना शुरू कर दिया, ‘‘त्रिशंकु अयोध्या पर राज करने वाले उसी इक्ष्वाकु वंश का एक राजा था, जिसमें तीस-पैंतीस पीढ़ियों के बाद दशरथ और राम पैदा हुए। वसिष्ठ दशरथ और राम के समय में भी अयोध्या का राजपुरोहित था और उनसे कई पीढ़ियों पहले त्रिशंकु के समय में भी। त्रिशंकु का पिता अरुण एक कमजोर-सा राजा था। त्रिशंकु उसका बिगड़ैल बेटा था। त्रिशंकु अपनी जवानी के दिनों में कहीं से एक विवाहित ब्राह्मण स्त्री को उड़ा लाया। वसिष्ठ को यह बात बहुत बुरी लगी। ब्राह्मणों की बनायी वर्ण-व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण तो शेष तीनों वर्णों की स्त्रियों को भोग सकते थे, लेकिन उनकी स्त्रियों को किसी और वर्ण का व्यक्ति भोगे, यह उन्हें मंजूर नहीं था। सो वसिष्ठ ने राजा को आज्ञा दी कि त्रिशंकु को घर से और राज्य से निकाल दो। राजा था कमजोर, उसने अपने इकलौते बेटे त्रिशंकु को जंगल में हँकाल दिया। उसके बाद वह खुद भी रोता-धोता जंगल में चला गया। या क्या पता, वसिष्ठ ने ही उसे राज्य से निकाल दिया हो, क्योंकि उसके जाने के बाद वसिष्ठ खुद अयोध्या का राजा बन बैठा। लेकिन राजा का पुरोहित होने और खुद राजा बनकर राजकाज करने में फर्क है। वसिष्ठ ने नौ साल अयोध्या पर राज किया और सब चौपट कर डाला। आखिर त्रिशंकु ने ही जंगल से आकर अपना राजपाट सँभाला और वसिष्ठ को हटाकर विश्वामित्र को अपना पुरोहित बनाया।’’
दमयंती जी ने कहा, ‘‘वसिष्ठ क्या इतना कमजोर था कि त्रिशंकु ने उसे उसके पद से हटाया और वह हट गया?’’
‘‘नहीं, वसिष्ठ कमजोर नहीं था। उसकी पहुँच ऊपर स्वर्ग तक थी। वह देवताओं की बनायी व्यवस्था को बनाये रखने का काम करता था, इसलिए बड़ा शक्तिशाली था। स्वर्ग की व्यवस्था यह थी कि पृथ्वी के कुछ खास ब्राह्मण और क्षत्रिय ही जीते जी स्वर्ग जा सकते हैं। सो भी ब्राह्मणों के भेजने पर ही। वसिष्ठ एक तरह से स्वर्ग का वीजा-पासपोर्ट देने वाला ब्राह्मण था। त्रिशंकु को पता था कि वसिष्ठ मुझसे खार खाता है, मुझे सशरीर स्वर्ग जाने की अनुमति कभी नहीं देगा। तब मैं उससे कहूँगा कि विश्वामित्र मेरा यह काम कर सकते हैं, इसलिए आप हटिए, मैं आपकी जगह उनको अपना पुरोहित बनाऊँगा।’’
‘‘और जैसा उसने सोचा था, वैसा ही हुआ?’’
‘‘हाँ, वैसा ही हुआ। त्रिशंकु ने वसिष्ठ से कहा कि मुझे सशरीर स्वर्ग भेजो। वसिष्ठ ने कहा कि यह असंभव है। तब त्रिशंकु वसिष्ठ के बेटों के पास गया और उसने उनसे कहा कि तुम्हारा बाप तो मेरा यह काम कर नहीं रहा, तुम करो। बेटों ने भी मना कर दिया, तो त्रिशंकु ने कहा तुम लोग मेरा यह काम नहीं कर सकते, लेकिन विश्वामित्र कर सकता है। अब मैं उसी को अपना पुरोहित बनाऊँगा। इस पर वसिष्ठ के बेटों ने कुपित होकर उसे शाप दे दिया कि जा, तू चांडाल हो जा!’’
‘‘और एक क्षत्रिय चांडाल बन गया?’’
‘‘इसी से तो पता चलता है कि वर्ण और जाति अपरिवर्तनीय नहीं हैं। वाल्मीकि ने रामायण में इसका अच्छा चित्र खींचा है। उन्होंने त्रिशंकु के रूपांतरण का वर्णन इस प्रकार किया हैµनीलवस्त्रधरो नीलः पुरुषो ध्वस्तमूर्धजः। चित्यमाल्यांगरागश्च आयसाभरणोऽभवत्। अर्थात् चांडाल हो जाने पर त्रिशंकु के शरीर का रंग नीला हो गया, कपड़े भी नीले हो गये, सारा शरीर रूखा-सूखा हो गया, सिर के बाल छोटे हो गये, सारे शरीर में चिता की राख-सी लिपट गयी और यथास्थान लोहे के गहने पड़ गये। इसी रूप में वह विश्वामित्र के पास गया और उसे चांडाल के रूप में देखकर विश्वामित्र के हृदय में करुणा भर आयी। उन्होंने ठान लिया कि वे लोग इसे शाप देकर नीचतम जाति का चांडाल बना सकते हैं, तो मैं अपने ज्ञान-विज्ञान से इसे सर्वोच्च स्वर्ग में पहुँचा सकता हूँ। इस प्रकार यह कथा बताती है कि वर्ण और जाति का ऊपर से नीचे की तरफ और नीचे से ऊपर की तरफ बदलना संभव है।’’
‘‘लेकिन त्रिशंकु स्वर्ग पहुँचा कहाँ?’’
‘‘कैसे पहुँचता? वसिष्ठ की विश्वामित्र से पुरानी दुश्मनी थी और स्वर्ग के राजा इंद्र से पुरानी दोस्ती। सो वसिष्ठ ने इंद्र से कहा कि विश्वामित्र त्रिशंकु को स्वर्ग भेजेगा और वह स्वर्ग में आ गया, तो तुम्हारी जगह वही स्वर्ग का राजा होगा। इंद्र वैसे काफी शक्तिशाली थाµसबसे अच्छे, सबसे सुंदर, सबसे बड़े, सबसे समृद्ध, सबसे शक्तिशाली और सर्वोच्च राज्य का राजाµलेकिन उसे अपना राजसिंहासन छिन जाने का डर लगा रहता था। किसी और राज्य में अगर कोई बंदा त्याग, तपस्या, वीरता वगैरह के बल पर उन्नति करने और प्रसिद्धि पाने लगता, तो उसे लगने लगता कि उसका सिंहासन डोल रहा है और वह उस बंदे की तपस्या भंग करा देता या छल-बल से उसे स्वर्ग आने से रोक देता। यही उसने त्रिशंकु के साथ किया। विश्वामित्र ने उसे जीते जी स्वर्ग भेजा, इंद्र ने उसे बीच में ही रोक दिया। त्रिशंकु बेचारा बीच में ही लटका रह गया। लेकिन विश्वामित्र यों हार मानकर बैठ जाने वाला नहीं था। उसने कहाµइस दुनिया में लोगों को जीते जी स्वर्ग नहीं मिल सकता, तो मैं दूसरी दुनिया बनाऊँगा। सृष्टि की प्रतिसृष्टि। और उसने अपनी दूसरी दुनिया बनाना शुरू कर दिया। यह देखकर दुनिया पर शासन करने वाले देवता घबरा गये। उन्होंने अपने सबसे बड़े देवता ब्रह्मा को भेजा और ब्रह्मा ने किसी तरह समझा-बुझाकर विश्वामित्र को दूसरी दुनिया बनाने से रोका।’’
‘‘यह दूसरी दुनिया वाला आइडिया जोरदार है।’’ दमयंती जी ने कहा, ‘‘आजकल वर्ल्ड सोशल फोरम वाले यही नारा तो दे रहे हैंµ‘एनअदर वर्ल्ड इज पॉसिबल! दूसरी दुनिया संभव है!’ तुम इसी पर अपना नया नाटक लिखो।’’
‘‘विश्वामित्र पर नाटक लिखने का विचार मेरे मन में पहले से ही है। दरअसल उसी के लिए मैं तमाम पुराने ग्रंथों की खाक छान रहा हूँ। लेकिन वसिष्ठ और विश्वामित्र की कथा की बुनावट दो सलाइयों से आप जो एक उलटे और एक सीधे फंदे वाली सादा बुनाई कर रही हैं, वैसी नहीं है। लगता है, जैसे उसे चार-चार सलाइयों से कुछ अजीब-से फंदे डालकर बुना गया है।’’
अपनी लिखने-पढ़ने की मेज पर बैठे-बैठे न जाने कब मेरी आँख लग गयी थी। भारतेंदु हरिश्चंद्र का नाटक ‘सत्य हरिश्चंद्र’ मेरे सामने खुला हुआ था और मैं वसिष्ठ-विश्वामित्र की कहानी में खोया हुआ था। अचानक प्रभा मेरे कमरे में आयी और बोली, ‘‘बैठे-बैठे सो रहे हो?’’
‘‘नहीं, पढ़ रहा हूँ। पढ़ते-पढ़ते कुछ सोचने लगा था।’’
‘‘क्या पढ़ रहे हो?’’ उसने मेरी आरामकुर्सी पर बैठते हुए कहा।
‘‘भारतेंदु हरिश्चंद्र का लिखा नाटक ‘सत्य हरिश्चंद्र’। तुमने पढ़ा है?’’
‘‘नहीं। कैसा है?’’
‘‘हिंदी के आरंभिक नाटकों में से है। 1876 में छपा था। इसके पहले राजा हरिश्चंद्र की कथा पर संस्कृत में दो नाटक लिखे गये थेµएक क्षेमेश्वर का ‘चंडकौशिक’ और दूसरा रामचंद्र का ‘सत्य हरिश्चंद्र’। भारतेंदु का ‘सत्य हरिश्चंद्र’ क्षेमेश्वर के ‘चंडकौशिक’ पर आधारित है।’’
‘‘तुमने संस्कृत के ये नाटक पढ़े हैं?’’
‘‘नहीं, लेकिन सुकुमार जी के पास जरूर होंगे। उनसे लेकर पढ़ लूँगा।’’
‘‘वैसे अपने भारतंेदु जी थे बड़े साहसी! एक नाटक का नाम उड़ा लिया और दूसरे का प्लॉट!’’ प्रभा ने हँसते हुए कहा। लेकिन अगले ही क्षण गंभीर होकर बोली, ‘‘चंडकौशिक माने?’’
‘‘विश्वामित्र को चंडकौशिक भी कहते हैं। ‘चंड’ इसलिए कि उनके विरोधी उन्हें बहुत उग्र, उद्धत या क्रोधी मानते थे और ‘कौशिक’ इसलिए कि वे कुशिक नामक क्षत्रिय वंश में पैदा हुए थे। वैसे पॉजिटिव सेंस में ‘चंड’ का अर्थ होता हैµतेज, प्रखर, प्रबल या बलवान। और ये सारे गुण विश्वामित्र में थे। ‘चंडकौशिक’ नाटक में शायद उनका नेगेटिव रूप उभारा गया होगा। भारतेंदु ने भी विश्वामित्र को सत्यवादी हरिश्चंद्र को तमाम दुख देने वाले दुष्टात्मा के रूप में दिखाया है।’’
‘‘वह कैसे?’’
‘‘ऐसे कि सत्यवादी हरिश्चंद्र का यश दुनिया भर में फैलने लगता है, तो इंद्र को अपना सिंहासन डोलता महसूस होने लगता है। वह हरिश्चंद्र को सत्य से डिगाने के लिए विश्वामित्र को उसकी परीक्षा लेने के लिए प्रेरित करता है। विश्वामित्र एक क्रोधी ब्राह्मण बनकर आते हैं और हरिश्चंद्र का सारा राज्य दान में लेकर ऊपर से दक्षिणा के रूप में एक हजार स्वर्णमुद्राएँ माँगते हैं...’’
‘‘अच्छा-अच्छा, मैं समझ गयी। यह तो बहुत बार सुनी हुई कहानी है। फिल्मों और टी.वी. सीरियलों में भी आ चुकी है। राजा हरिश्चंद्र विश्वामित्र को दक्षिणा देने के लिए खुद को काशी के एक डोम के हाथ बेच देता है और डोम की सेवा में सच्चा रहने के लिए अपने बेटे रोहिताश्व का दाह-संस्कार करने श्मशान में आयी अपनी पत्नी शैव्या तारामती से भी आधा कफन माँगता है।’’
‘‘हाँ, लेकिन मुझे लगता है, सुकुमार जी ने अपने नाटक में विश्वामित्र को दुष्ट खलनायक नहीं, बल्कि पॉजिटिव हीरो बनाया होगा।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘एक बार उन्होंने बताया था कि वे वसिष्ठ और विश्वामित्र के संघर्ष पर नाटक लिखना चाहते हैं। उनके विचार से वसिष्ठ स्वार्थी, धूर्त, षड्यंत्रकारी और यथास्थितिवादी है, जबकि विश्वामित्र त्यागी, तपस्वी, परोपकारी और क्रांतिकारी।’’
‘‘अच्छा, तो यह बताओ कि विश्वामित्र का नाम विश्वामित्र क्यों है? नाम से क्या यह नहीं लगता कि वह खुद पूरी दुनिया का दुश्मन है या पूरी दुनिया उसे अपना दुश्मन समझती है?’’
‘‘नहीं, विश्वामित्र का अर्थ विश्व का अमित्र या दुनिया का दुश्मन नहीं होता। हालाँकि हमारे भारतेंदु जी ने अपने नाटक में इसका अर्थ ‘विश्व का अमित्र’ ही किया हैµनारद के मुँह से यही कहलाया हैµलेकिन वास्तव में विश्वामित्र का अर्थ होता है विश्व का मित्र। संस्कृत व्याकरण में एक नियम हैµ‘पूर्वपदस्याकारस्य दीर्घः’। इस नियम के अनुसार ‘विश्व’ का ‘विश्वा’ हो जाता है। लेकिन विश्वामित्र का अर्थ विश्व का मित्र ही होता हैµ‘विश्वमेव मित्रं यस्य’--यानी संपूर्ण विश्व ही जिसका मित्र है! सुकुमार जी ने अपने नाटक में विश्वामित्र का यही अर्थ किया होगा और...’’
‘‘संस्कृत व्याकरण मैंने नहीं पढ़ा, लेकिन यह बताओ कि सुकुमार जी को वसिष्ठ और विश्वामित्र के झगड़े में पड़ने की और उसमें विश्वामित्र के पक्ष से बोलने की क्या पड़ी है?’’
‘‘ठीक-ठीक तो मुझे भी नहीं मालूम, लेकिन वर्षों से जो बातचीत उनसे होती रही हैµऔर उनके प्रति लोगों का जो रुख-रवैया मैं देखता रहा हूँµउससे ऐसा लगता है, जैसे सुकुमार जी स्वयं को कहीं न कहीं विश्वामित्र से आइडेंटिफाइ करते हैं।’’
‘‘कैसे?’’
‘‘देखो, दलित होकर भी उन्होंने आरक्षण का लाभ नहीं उठाया। दुसाध होकर भी उन्होंने वेदों, पुराणों और संस्कृत साहित्य का बाकायदा अध्ययन किया। एक्सीलेंट एकेडेमिक कैरियर था उनका। चाहते, तो आइ.ए.एस. वगैरह बन सकते थे। मगर उन्होंने लेखक बनने का फैसला किया। वे अंग्रेजी इतनी अच्छी लिखते-बोलते हैं कि मजे में ‘अंग्रेजी में लिखने वाले भारतीय लेखक’ बन सकते थे। जिन विषयों पर वे लिखते हैं, उन पर लिखी चीजों की पश्चिमी देशों में भारी माँग है। वे चाहते, तो उस माँग की पूर्ति करने वाली चीजें लिखकर विश्वस्तरीय लेखक बन सकते थे। यूरोप या अमरीका में जाकर बस सकते थे। ये सारी संभावनाएँ होने के बावजूद उन्होंने अपने देश में ही रहने का, अपनी भाषा में ही लिखने का और अपने लोगों के लिए ही लिखने का फैसला किया...’’
‘‘अपने ही लोगों के लिए...?’’
‘‘दलित, पिछड़े, गरीब लोगों के लिए। एक बार मैंने उनसे पूछा था कि आपने साहित्य की दूसरी विधाओं में न लिखकर केवल नाटक ही लिखने का फैसला क्यों किया, तो उन्होंने बताया कि नाटक को पाँचवाँ वेद कहते हैं और यह पाँचवाँ वेद उनके लिए बनाया गया है, जो वेद-पुराण पढ़ नहीं सकते या जिनके लिए उनका पढ़ना निषिद्ध है। और अपने देश में आज ऐसे लोग कौन हैं? वे ही, जो गरीब हैं और गरीबी की वजह से शिक्षा और साहित्य से वंचित हैं। ये ही सुकुमार जी के अपने लोग हैं।’’
‘‘हाँ, यह तो मैं समझ गयी, लेकिन इसमें विश्वामित्र से आइडेंटिफाइ करने वाली क्या बात है?’’
‘‘विश्वामित्र ने अपनी एक अलग दुनिया बनायी थी। सुकुमार जी ने भी अपनी एक अलग नाट्य संस्था बनायी है। उसके नाटककार, निर्देशक और व्यवस्थापक वे ही हैं। उसकी एक अलग ही पहचान है--शिखर थियेटर, शिखर रंगमंच। वे अपने नाटक बिना किसी तामझाम के कम से कम खर्च में और सबसे सस्ते टिकट लगाकर करते हैं। कहीं से फंडिंग कराये बिना सिर्फ दर्शकों के बलबूते पर इतने अच्छे, इतने सफल और लगातार नाटक करने वाली संस्था शहर में एक ही है--‘शिखर’!’’
‘‘हाँ, इस लिहाज से तो वे वाकई सबसे अलग और अनोखे हैं।’’
‘‘विश्वामित्र भी ऐसे ही सबसे अलग और अनोखे चरित्र हैं। उन्होंने अपने समय के विश्व की व्यवस्था को अच्छी तरह समझ लिया था और उसे वे बदलना चाहते थे। सुकुमार जी ने एक बार मुझे विस्तार से बताया था कि वर्ण और जाति की व्यवस्था कोई प्राकृतिक, शाश्वत और अपरिवर्तनीय व्यवस्था नहीं है। यह बनायी गयी है। यह व्यवस्था उन देवताओं ने बनायी है, जो स्वर्ग में रहते हैं। स्वर्ग में देखो, तो छोटे-बड़े देवता तो मिलेंगे, लेकिन उनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जैसे भेद नहीं मिलेंगे। क्यों? इसलिए कि स्वर्ग का मतलब है शासक वर्ग...’’ कहते-कहते मुझे हँसी आ गयी।
प्रभा ने पूछा, ‘‘हँस क्यों पड़े?’’
मैंने कहा, ‘‘एक मजेदार बात याद आ गयी। एक दिन मैं सुकुमार जी के घर बैठा था और वे स्वर्ग की अपनी यह व्याख्या मुझे बता रहे थे। अतुल भी पास बैठा हमारी बातचीत सुन रहा था। बोला, ‘स्वर्ग को रोमन में लिखिए और ‘एस’ को अलग करके उसके आगे फुलस्टॉप लगा दीजिए। हो गया एस. वर्ग। एस वर्ग यानी शासक वर्ग। यानी स्वर्ग। अतुल की इस अनोखी व्याख्या पर सुकुमार जी ने हँसते हुए उसे शाबाशी दी। तब से जब भी मैं स्वर्ग के बारे में पढ़ता-सुनता या कुछ कहता हूँ, मुझे इस बात को याद करके हँसी आ जाती है।’’
‘‘बात में दम तो है।’’ प्रभा ने कहा, ‘‘आज की दुनिया का असली शासक वर्ग कौन है? कॉरपोरेट सेक्टर। उसमें छोटे और बड़े तो हैं, लेकिन उनमें कौन किस जाति का, किस धर्म का या किस देश का है, इस सबको लेकर कोई भेदभाव नहीं है। सब कॉरपोरेट हैं। सब मल्टीनेशनल हैं। सब ग्लोबल हैं।’’
‘‘वाह! तुमने तो सुकुमार जी की व्याख्या को और विस्तार दे दिया!’’
‘‘लेकिन अभी भी मेरी समझ में यह नहीं आया कि सुकुमार जी विश्वामित्र से खुद को आइडेंटिफाइ क्यों और कैसे करते हैं?’’
‘‘सुकुमार जी का कहना है कि वर्णों और जातियों की व्यवस्था स्वर्ग में रहने वाले देवताओं ने बनायी है। लेकिन अपने लिए नहीं, बल्कि पृथ्वी पर रहने वाले लोगों के लिए। पृथ्वी यानी हमारा समाज। और देवता यानी शासक वर्ग। ‘डिवाइड एंड रूल’ की नीति आज की या सिर्फ अंग्रेजों के जमाने की नहीं है। यह तो हमेशा से शासक वर्ग की नीति रही है। प्राचीन काल के शासक वर्ग ने हमारे समाज को वर्णों और जातियों में बाँट दिया और यह बात लोगों के मन में भर दी कि यह व्यवस्था शाश्वत है--हमेशा से ऐसी ही रही है और हमेशा ऐसी ही रहेगी। विश्वामित्र ने इस व्यवस्था को चुनौती दी। कहा कि यह व्यवस्था शाश्वत नहीं है। बदलती रही है और बदली जा सकती है। उन्होंने खुद राजर्षि से ब्रह्मर्षि बनकर अपनी बात को सही साबित कर दिखाया।’’
‘‘ओ, अच्छा! अब समझी! शिखर दुसाध से शिखर सुकुमार बनने की कहानी भी तो यही है कि दुसाधों में भी कोई पंडितों का पंडित हो सकता है!’’
‘‘विश्वामित्र के चरित्र का एक और पक्ष देखो। उन्होंने जिस त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेजा, वह क्षत्रिय राजा त्रिशंकु नहीं, ब्राह्मणवादी वसिष्ठ के पुत्रों द्वारा चांडाल बना दिया गया त्रिशंकु था। विश्वामित्र ने इससे यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि पृथ्वी के देवता कहलाने वाले ब्राह्मणों के पास इतनी शक्ति है कि वे शाप देकर एक क्षत्रिय राजा को नीच जाति का चांडाल बना सकते हैं, तो इस व्यवस्था को उचित न मानने वाले लोग एक चांडाल को स्वर्ग में या शासक वर्ग में पहुँचा सकते हैं। विश्वामित्र त्रिशंकु को स्वर्ग में नहीं भेज पाते, क्योंकि देवताओं के पास ताकत ज्यादा है। लेकिन विश्वामित्र ने त्रिशंकु के उदाहरण से यह तो सिद्ध कर ही दिया कि देवताओं की व्यवस्था शाश्वत नहीं है, तथाकथित नीची जातियों के लोग भी शासक बन सकते हैं। वे त्रिशंकु को ऊपर नहीं उठा सके, लेकिन उन्होंने उसे नीचे भी नहीं गिरने दिया। यहाँ तक कि उन्होंने अपनी प्रतिसृष्टि में उसे हमेशा चमकता रहने वाला एक नक्षत्र बनाकर स्थापित कर दिया। इस प्रकार उन्होंने जो किया, वह उनकी असफलता नहीं, बल्कि एक उज्ज्वल संभावना है।’’
‘‘वाह! यह तो बहुत ही बढ़िया व्याख्या है! एकदम नयी!’’
‘‘अब समझीं कि विश्वामित्र विश्व के मित्र क्यों हैं?’’
‘‘हाँ, और यह भी समझी कि वे किनके लिए विश्व के मित्र हैं और किनके लिए विश्व के अमित्र!’’
‘‘तो यह भी समझ लो कि शिखर सुकुमार आज के विश्वामित्र हैं। वे अपने नाटकों के जरिये बार-बार यही सिद्ध कर रहे हैं कि समाज की व्यवस्था शाश्वत नहीं है। वह बदली जानी चाहिए और बदल सकती है।’’
नाटकों की बात सुनते ही प्रभा ने घड़ी की तरफ देखा और बोली, ‘‘अरे, दो बजने वाले हैं! नाटक देखने जाना है या नहीं?’’
ठीक दो बजे रामाधार ठाकुर द्वारा भेजी गयी गाड़ी मुझे लेने आ गयी। उसमें ड्राइवर के अलावा एक रिपोर्टर और एक फोटोग्राफर पहले से मौजूद थे। उन्होंने गाड़ी से उतरकर मेरा अभिवादन किया, अपना परिचय दिया और पीछे की सीट पर मुझे बीच में बिठाकर मेरे अगल-बगल बैठ गये। मैं समझ गयाµओह! मेरे अंगरक्षक!
लेकिन जहाँ नाटक होने वाला था, वहाँ पुलिस के साधारण और सशस्त्र लोग इतनी भारी संख्या में तैनात थे कि दर्शकों की भीड़ के बावजूद गड़बड़ी की कोई आशंका नजर नहीं आ रही थी। मैं प्रेक्षागृह के बाहरी दरवाजे के पास पहुँचा ही था कि भीतरी दरवाजे के पास एक ओर अलग हटकर खड़े सुकुमार किसी से हाथ मिलाते दिखायी पड़े। मैंने उनके पास पहुँचकर अभिवादन किया और पूछा, ‘‘माताजी और अतुल कहाँ हैं?’’
‘‘वे दोनों कल देख चुके।’’ कहते हुए सुकुमार ने मेरे अंगरक्षकों के बारे में पूछा, ‘‘ये लोग?’’
मैंने रामाधार ठाकुर से हुई सुबह वाली बात बताते हुए कहा, ‘‘वे बहुत आतंकित लग रहे थे, पर यहाँ तो सब ठीक लग रहा है।’’
‘‘मीडिया की मेहरबानी है!’’ सुकुमार ने व्यंग्यपूर्वक कहा, ‘‘तुमने शायद देखा नहीं, ज्यादातर खबरों में कल की गड़बड़ी के जिम्मेदार लोगों को नासमझ बताते हुए नाटक को ‘पुरानी कहानी का नया कॉमिक रूप’ और ‘हिलेरियस कॉमेडी’ बताया गया है। मीडिया जिस चीज को नयी और कॉमिक बता दे, वह खतरनाक नहीं रहती। बाजार और सरकार दोनों को स्वीकार्य हो जाती है। और जनता के जीवन में हँसी इतनी कम रह गयी है कि वह कॉमेडी सुनकर कुछ भी देखने को टूट पड़ती है। फिर, ‘शिखर’ के नाटकों के जो स्थायी दर्शक हैं, उन्हें तो आना ही है।’’
मैंने देखा, सचमुच दर्शकों की भीड़ उमड़ पड़ी थी। हॉल के दरवाजे अभी खुले भी नहीं थे, जबकि टिकट खिड़की पर ‘हाउस फुल’ की तख्ती लगा दी गयी थी।
मेरे साथ आये रिपोर्टर ने सुकुमार से कुछ बातचीत की और फोटोग्राफर ने उनके कुछ फोटो खींचे। इतने में हॉल का दरवाजा खुल गया और दर्शक भीतर जाने लगे। हम भी सुकुमार से विदा लेकर अंदर जा बैठे।
नाटक की संकल्पना कुछ विचित्र किंतु नयी, आकर्षक और प्रभावशाली थी। पात्र पौराणिक थे, किंतु आधुनिक वेशभूषा में थे। नाटक में नाटक की रिहर्सल हो रही थी। नाटक भी चल रहा था और साथ-साथ अभिनेताओं का आपसी हँसी-मजाक भी। पौराणिक काल के संवादों के साथ-साथ वर्तमान यथार्थ को उजागर करती हुई हास्य-व्यंग्यपूर्ण उक्तियाँ, फब्तियाँ और आलोचनात्मक टिप्पणियाँ भी चल रही थीं।
एक सर्वथा नया प्रयोग यह था कि कौन-सी बात किस आधार पर कही जा रही है, यह दिखाने के लिए नाटक का सूत्रधार प्रसंग से संबंधित किसी प्राचीन ग्रन्थ के नाम वाली तख्ती दर्शकों को दिखाता हुआ मंच के अग्रभाग में एक से दूसरी ओर आता-जाता रहता था। किसी पर लिखा होता ‘ऋग्वेद’, किसी पर ‘महाभारत’, किसी पर ‘रामायण’, किसी पर ‘भागवत’, किसी पर ‘मार्कंडेयपुराण’, तो किसी पर ‘ऐतरेय ब्राह्मण’।
नाटक में इतिहास और पुराण, वर्तमान और भविष्य, यथार्थ और फैंटेसी को कुछ इस प्रकार मिलाया गया था कि नाटक एक स्तर पर बड़े गंभीर अर्थ देता था, तो दूसरे स्तर पर दर्शकों का मनोरंजन करते हुए उन्हें हँसाता था। प्रेक्षागृह में कभी गहरा सन्नाटा छा जाता, तो कभी दर्शकों के ठहाके गूँजने लगते।
‘‘पुरानी कहानी का नया कॉमिक रूप’’ यह था कि अयोध्या के राजा अरुण का युवा पुत्र त्रिशंकु एक विवाहिता ब्राह्मणी से प्रेम कर बैठा और उसे अपने घर ले आया। राजपुरोहित वसिष्ठ को बहुत बुरा लगा। उसने राजा अरुण से कहा कि यह त्रिशंकु तो हमारी वर्ण और जाति की व्यवस्था का विरोधी है। इसे घर से ही नहीं, राज्य से भी निकाल दो। अरुण बड़ा कमजोर राजा था। वह वसिष्ठ से डरता भी था, क्योंकि वसिष्ठ की पहुँच ऊपर स्वर्ग के देवताओं तक थी। उसने अपने पुत्र त्रिशंकु को निकाल तो दिया, लेकिन चुपके से उसके कान में कह दिया कि वह जंगल में विश्वामित्र के आश्रम में चला जाये, जो उसे शस्त्र और शास्त्र दोनों की अच्छी शिक्षा दे सकता है। त्रिशंकु ने विश्वामित्र के आश्रम में जाकर उसे अपना गुरु बना लिया। इधर वसिष्ठ अरुण को हटाकर खुद अयोध्या पर शासन करने लगा। लेकिन वह इतना भ्रष्ट और अकुशल शासक था कि राज्य की अर्थव्यवस्था चौपट हो गयी, अकाल पड़ने लगे और जनता त्राहि-त्राहि करने लगी।
अरुण तो न जाने कहाँ मर-खप गया, लेकिन त्रिशंकु अपने गुरु विश्वामित्र से राजनीति और युद्ध-विद्या की शिक्षा पाकर अयोध्या लौट आया। उसने अपना राजपाट तो वापस पा लिया, लेकिन वसिष्ठ को राजपुरोहित के पद से नहीं हटा सका, क्योंकि वसिष्ठ की पीठ पर स्वर्ग के देवताओं का हाथ था। त्रिशंकु ने विश्वामित्र की शिक्षा के अनुसार पृथ्वी को ही स्वर्ग बनाने की ठानी और पुरानी व्यवस्था को बदलने लगा। वसिष्ठ उसके काम में टाँग अड़ाने लगा, तो उसने विश्वामित्र को बुला लिया और वसिष्ठ की जगह उसी को अपना पुरोहित बना लिया। अब त्रिशंकु और विश्वामित्र मिलकर पृथ्वी को स्वर्ग बनाने में जुट गये।
स्वर्ग के देवताओं ने पृथ्वी पर स्वर्ग की प्रतिसृष्टि होते देखी, तो उनमें खलबली मच गयी। उन्होंने वसिष्ठ से कहा कि त्रिशंकु को रोको और ब्रह्मा से कहा कि विश्वामित्र को रोको। वसिष्ठ ने त्रिशंकु को दरिद्र चांडाल बना दिया, जिससे वह पृथ्वी पर स्वर्ग का निर्माता तो क्या बनता, अपने राज्य का राजा भी नहीं रहा। उधर ब्रह्मा ने विश्वामित्र को प्रतिसृष्टि से विरत करने के लिए पहले तो उसकी प्रशंसा की कि तुम तो मंत्र-द्रष्टा कवि हो, तुम्हारी रचनाएँ तो ऋग्वेद में संकलित होती हैं, तुम्हारा रचा हुआ गायत्री मंत्र तो समस्त संसार में लोकप्रिय हो गया है। फिर उसे समझाया कि तुम अपने आश्रम में लोगों को राजनीति और युद्ध-विद्या की शिक्षा देकर बहुत बड़ा काम कर रहे हो, इसलिए पृथ्वी पर स्वर्ग की प्रतिसृष्टि करने का पागलपन छोड़ो और अपने आश्रम में जाकर अपना अध्ययन-अध्यापन और मंत्रों का सृजन करो। विश्वामित्र ने ब्रह्मा की बात मान ली और अयोध्या छोड़कर जंगल में अपने आश्रम में चला गया। इस प्रकार पृथ्वी पर स्वर्ग की प्रतिसृष्टि रुकवाकर देवताओं ने त्रिशंकु के पुत्र हरिश्चंद्र को अयोध्या का राजा और वसिष्ठ को उसका पुरोहित बना दिया।
अब, राजा हरिश्चंद था तो बड़ा अय्याश, उसने सौ शादियाँ की थीं, मगर वह नपुंसक था। सौ रानियों के रहते भी वह निपूता था। जब बूढ़ा होने लगा, तो उसे दो चिंताएँ सताने लगीं। एक यह कि पुत्र का मुख देखे बिना वह स्वर्ग नहीं जा पायेगा और दूसरी यह कि उत्तराधिकारी के बिना उसके मरने के बाद अयोध्या का राजपाट कौन सँभालेगा। वसिष्ठ ने उसे सलाह दी कि तुम वही करो, जो नपुंसक राजा करते आये हैं। अपनी किसी रानी का किसी देवता, ऋषि या मुनि से नियोग करा दो और पुत्र उत्पन्न करा लो। हरिश्चंद्र अपनी रानी शैव्या तारामती को वरुण देवता के पास ले गया और बोलाµ‘‘मैं पुत्र का मुख देखे बिना स्वर्ग नहीं जा सकता और...’’
वरुण ने उसकी पूरी बात सुने बिना ही कहा, ‘‘पुत्र तो पैदा कर दूँगा, लेकिन इस शर्त पर कि उसके युवा होते ही तुम मेरे नाम पर उसकी बलि चढ़ा दोगे। तब तक तुम उसका मुख देख-देखकर स्वर्ग में अपना स्थान आरक्षित करा लेना।’’
हरिश्चंद्र ने सोचा कि अभी शर्त मान लेता हूँ, आगे की आगे देखी जायेगी। आखिरकार मैं राजा हूँ और वसिष्ठ जैसा घाघ ब्राह्मण मेरा पुरोहित है। शर्त से बचने या मुकरने की कोई न कोई तरकीब निकल ही आयेगी। उसने वरुण को वचन दे दिया कि ठीक है, पुत्र के युवा होते ही मैं तुम्हारे नाम पर उसकी बलि चढ़ा दूँगा।
लेकिन पुत्र रोहित या रोहिताश्व जब युवा हो गया और वरुण को दिये हुए वचन के मुताबिक उसकी बलि देने का समय आया, तो हरिश्चंद्र टालमटोल करने लगा। बहाने बनाने लगा। तरह-तरह के झूठ बोलने लगा।
आखिरकार वरुण को गुस्सा आ गया। उसने हरिश्चंद्र को झूठा, मक्कार और बेईमान बताते हुए फटकारा और रोहित की बलि का एक दिन निश्चित कर दिया। हरिश्चंद्र ने वसिष्ठ से रोहित को बचाने का कोई उपाय बताने को कहा, तो वसिष्ठ ने कहा, ‘‘यदि विश्वामित्र रोहित को शरण देकर अपने आश्रम में छिपाकर रख ले, तो रोहित बच सकता है; क्योंकि विश्वामित्र के पास ऐसी शक्तियाँ हैं कि देवता भी उससे डरते हैं।’’ हरिश्चंद्र को यह उपाय अच्छा लगा। वह वसिष्ठ को साथ लेकर विश्वामित्र के आश्रम में गया।
जिस समय ये दोनों वहाँ पहुँचे, विश्वामित्र के कई शिष्य शस्त्रों और शास्त्रों का अभ्यास कर रहे थे और विश्वामित्र के सामने बैठा एक युवक उसे अपनी कविता सुना रहा था। पास पहुँचकर दोनों ने विश्वामित्र को युवक की प्रशंसा करते सुना, ‘‘साधु, वत्स, साधु! तुम तो युवावस्था में ही मंत्र-द्रष्टा कवि बन गये हो। मैं तुम्हारी रचनाएँ ऋग्वेद में संकलित कराऊँगा।’’
निकट आकर वसिष्ठ ने व्यंग्यपूर्वक कहा, ‘‘अरे, भाई विश्वामित्र, मैंने भी कुछ मंत्र रचे हैं। मेरे मंत्र भी ऋग्वेद में संकलित करा दो!’’
विश्वामित्र ने उठकर वसिष्ठ और हरिश्चंद्र का स्वागत किया और उन्हें बिठाकर उस युवक के बारे में बताया कि ‘‘यह मेरे मित्र अजीगर्त का पुत्र शुनःशेप है। बड़ा प्रतिभाशाली है। इसकी माता मुझे भाई मानती है, इसलिए यह मुझे मामा कहता है। यहीं पास में इसका घर है। कुछ रच लेता है, तो मुझे सुनाने चला आता है।’’
शुनःशेप ने दोनों आगंतुकों को प्रणाम किया और विश्वामित्र से घर जाने की आज्ञा लेकर चला गया। वसिष्ठ ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा, ‘‘यह अजीगर्त का पुत्र है? उस दरिद्र ब्राह्मण अजीगर्त का, जो आजकल भूखों मर रहा है?’’
‘‘एक भाई के रहते बहन का परिवार भूखों नहीं मर सकता।’’ विश्वामित्र ने कहा, ‘‘हाँ, बुरा समय किसी पर भी आ सकता है। अजीगर्त पर आजकल बुरा समय आया हुआ है। लेकिन यह शुनःशेप बड़ा होनहार है। यह जल्दी ही अपने परिवार का भार उठाने में समर्थ हो जायेगा। खैर, तुम सुनाओ, आज इधर कैसे?’’
वसिष्ठ ने हरिश्चंद्र के साथ आने का कारण बताया और हरिश्चंद्र हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगा कि ‘‘आप रोहित को अपने आश्रम में छिपा लें।’’
विश्वामित्र ने हरिश्चंद्र को फटकारते हुए कहा, ‘‘वचन देकर उसका पालन न करने वाले असत्यवादी हरिश्चंद्र, तूने वरुण को जो वचन दिया है, उसका पालन कर। मैं तेरे पुत्र को अपने आश्रम में छिपाकर तेरे मिथ्याचार में शामिल नहीं हो सकता।’’ फिर उसने वसिष्ठ को भी आड़े हाथों लिया, ‘‘और वसिष्ठ, तुम कैसे गुरु और पुरोहित हो? तुम्हें तो इस हरिश्चंद्र को प्रेरित करना चाहिए था कि यह पृथ्वी को ही स्वर्ग बनाने का अपने पिता त्रिशंकु का अधूरा काम पूरा करे। इसके विपरीत तुमने इसे पुराने अंधविश्वास में फँसा दिया कि निपूता आदमी मरने के बाद स्वर्ग नहीं जा सकता। मरने के बाद कौन कहाँ जाता है, कौन जानता है? लेकिन लोग इस अंधविश्वास में फँसकर अपनी पत्नी को व्यभिचार के लिए भी विवश कर देते हैं। पूछो इस हरिश्चंद्र से, जब यह अपनी पत्नी को नियोग के लिए वरुण के पास ले गया था, क्या इसने अपनी पत्नी की इच्छा-अनिच्छा पूछी थी? फिर, पुत्र की बलि से संबंधित वरुण की शर्त इसने क्यों मान ली? इसने तभी सोच लिया था कि यह शर्त के अनुसार दिये गये वचन का पालन नहीं करेगा। तो फिर इसने झूठा वचन क्यों दिया?’’
वसिष्ठ ने हरिश्चंद्र का बचाव करते हुए कहा, ‘‘यह रोहित की बलि चढ़ा देगा, तो इसके राज्य का उत्तराधिकारी कौन होगा?’’
विश्वामित्र ने कहा, ‘‘राज्य का उत्तराधिकारी राजा का पुत्र या कोई पुरुष ही क्यों होना चाहिए? हरिश्चंद्र की सौ रानियाँ हैं। उनमें से कोई एक या वे सब मिलकर राज्य नहीं कर सकतीं?’’
‘‘कैसी नीति-विरोधी बातें करते हो, विश्वामित्र! भला स्त्रियाँ भी कहीं...’’
‘‘तुम मेरे सामने नैतिकता की बात मत करो, वसिष्ठ! इस नपुसंक राजा हरिश्चंद्र ने सौ विवाह किये, क्या यह नैतिक था? पुत्र प्राप्त करने के लिए यह अपनी पत्नी को स्वयं व्यभिचार के लिए ले गया, क्या यह नैतिक था? इसने जान-बूझकर वरुण को झूठा वचन दिया, क्या यह नैतिक था? और अब तुम दोनों मेरे पास जो प्रस्ताव लेकर आये हो, क्या वह नैतिक है?’’
काम बनता न देख वसिष्ठ उठ खड़ा हुआ और बेशर्म हँसी के साथ हरिश्चंद्र से बोला, ‘‘चलो, राजा हरिश्चंद्र! यह निष्ठुर विश्वामित्र तुम पर दया नहीं करेगा।’’ लेकिन आश्रम से बाहर आते ही उसने खलनायकों वाली क्रुद्ध और कुटिल हँसी के साथ घोषणा की, ‘‘मेरे रचे मंत्रों की उपेक्षा करने वाला यह विश्वामित्र अपने जैसा एक और मंत्र-द्रष्टा कवि बनाना चाहता है! मैं ऐसा कदापि नहीं होने दूँगा! कदापि नहीं!’’
वसिष्ठ के साथ चलते हरिश्चंद्र ने पूछा कि अब क्या किया जाये, तो वसिष्ठ ने कहा, ‘‘मैं वरुण को समझा-बुझाकर इसके लिए राजी कर लूँगा कि वह रोहित की जगह उसी की उम्र के किसी और युवक की बलि ले ले।’’
‘‘लेकिन ऐसा युवक मिलेगा कहाँ, जिसके माता-पिता उसे बेचने को तैयार हों और जो स्वयं भी बिकने को तैयार हो?’’ हरिश्चंद्र ने पूछा। वसिष्ठ ने दूसरी दिशा में शुनःशेप को जाते देख कहा, ‘‘देखो, वह रहा ऐसा युवक। वह अपने घर ही जा रहा है। चलो, हम भी उसके घर चलते हैं और उसके पिता अजीगर्त को मुँहमाँगा मूल्य देकर इसे खरीद लेते हैं।’’
और वे अपने उद्देश्य में सफल हुए। अजीगर्त अपनी घोर गरीबी के कारण पुत्र शुनःशेप को बेचने के लिए और शुनःशेप अपने निर्धन परिवार के प्रति कर्तव्य पालन करने के उद्देश्य से बिकने को राजी हो गया। हरिश्चंद्र ने सौ गायों के बदले में शुनःशेप को खरीद लिया।
नाटक का अंतिम दृश्य इस प्रकार था :
हरिश्चंद्र, वसिष्ठ, वरुण आदि कई लोगों के बीच शुनःशेप बलि के लिए गाड़े जाने वाले खंभे से बँधा खड़ा है। एक जल्लाद नंगी तलवार लिये उसके निकट खड़ा है और एक ब्राह्मण बलि के समय पढ़े जाने वाले मंत्र पढ़ रहा है। बलि का समय आने ही वाला है कि विश्वामित्र आ जाता है और ऊँचे स्वर में सबको सुनाते हुए कहता है, ‘‘धिक्कार है! धिक्कार है इस नपुंसक, स्वार्थी और मिथ्यावादी हरिश्चंद्र को! धिक्कार है इर क्रूर, कुटिल और पाखंडी वसिष्ठ को! धिक्कार है देवता कहलाने वाले इस व्यभिचारी और नरभक्षी वरुण को! और धिक्कार है यहाँ उपस्थित उन सब लोगों को, जो मनुष्य की बलि को खेल-तमाशा समझकर देखने के लिए यहाँ एकत्र हुए हैं! मैं विश्वामित्र घोषणा करता हूँ कि एक गरीब पिता की मजबूरी का और परिवार के प्रति उत्तरदायी एक पुत्र की कर्तव्यनिष्ठा का लाभ उठाकर, राजा हरिश्चंद्र ने सौ गायों के बदले में शुनःशेप को खरीदकर, बलि के नाम पर उसकी हत्या करने का यह जो आयोजन किया है, वह सर्वथा अनुचित, अनैतिक और निंदनीय है। मैं उन सौ गायों को ले आया हूँ, जिनके बदले इस नीच ने शुनःशेप को खरीदा है। गायें उधर खड़ी हैं, हरिश्चंद्र चाहे तो जाकर उन्हें गिन ले। मैं शुनःशेप को ले जा रहा हूँ।’’
विश्वामित्र बलि-पशु की तरह बाँधे गये शुनःशेप को मुक्त करता है और जाते-जाते कहता है, ‘‘राजा, ब्राह्मण, देवता और नागरिक सब देख लें कि मैं शुनःशेप को ले जा रहा हूँ। किसी में हिम्मत और ताकत हो तो मुझे रोक ले। मैं इसे अपना पुत्र, शिष्य और ऋषि बनाऊँगा। इसके रचे मंत्रांे को ऋग्वेद में संकलित कराऊँगा, जिनसे इसका यश दुनिया भर में फैलेगा और इसकी कीर्ति अनंत काल तक कायम रहेगी।’’
विश्वामित्र चला जाता है। मंच पर सब स्तब्ध खड़े रह जाते हैं। कुछ देर बाद वसिष्ठ आगे आता है और व्यंग्यपूर्वक बोलता है, ‘‘यह विश्वामित्र महाज्ञानी है, किंतु बहुत भोला है! यह समझता है कि यश और कीर्ति का आधार ज्ञान है। यह नहीं जानता कि यश और कीर्ति का वास्तविक आधार धन और राज्य के बल पर किया जाने वाला प्रचार है। मैं इस आधार पर ऐसा चमत्कार कर दिखाऊँगा कि राजा हरिश्चंद्र युगों-युगों तक सत्यवादी कहलायेगा, विश्वामित्र एक क्रोधी और दुष्ट ऋषि के रूप में जाना जायेगा और शुनःशेप को कोई नहीं जानेगा। उसकी कथा केवल किताबों में बंद होकर रह जायेगी!’’
अचानक सूत्रधार, मंच के अग्रभाग में दर्शकों के ठीक सामने आकर कहता है, ‘‘वसिष्ठों को हमेशा यह भ्रम रहा है कि वे असत्य को सत्य के रूप में प्रचारित करके उसे सदा के लिए सत्य बना देंगे। लेकिन वे भूल जाते हैं कि विश्वामित्रों ने उन्हें हमेशा चुनौतियाँ दी हैं और देते रहेंगे। विश्वामित्रों ने वसिष्ठों को ही नहीं, ब्रह्माओं तक को चुनौतियाँ दी हैं और देते रहेंगे। विश्वामित्रों ने उनकी बनायी मिथ्या सृष्टियों के विरुद्ध सच्ची प्रतिसृष्टियाँ की हैं और करते रहेंगे।’’
नाटक समाप्त हुआ, तो प्रेक्षागृह तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। दर्शक खड़े होकर देर तक तालियाँ बजाते रहे। अंततः जब पटाक्षेप हुआ, तो मैंने बाहर आकर अपने ‘अंगरक्षकों’ से विदा ली और सुकुमार से मिलने, उनको बधाई देने, नेपथ्य की ओर चल दिया। लेकिन वहाँ मैं यह देखकर हैरान रह गया कि सुकुमार, दमयंती जी, अतुल, प्रभा, जय और विजय सब एक साथ खड़े हैं और हँस-हँसकर बातें कर रहे हैं।
मुझे देखते ही दमयंती जी स्नेहपूर्वक डाँटते हुए बोलीं, ‘‘तुम तो बड़े स्वार्थी हो, चंडी! अपनी सृष्टि को घर छोड़कर यहाँ दूसरों की प्रतिसृष्टि देखने चले आये? प्रभा और बच्चों को साथ नहीं ला सकते थे? प्रभा ने मुझे फोन करके बताया, तो मैं तुरंत अतुल के साथ तुम्हारे घर गयी और इन लोगों को ले आयी।’’
मैं कुछ कह पाता, इसके पहले ही विजय ने मुझसे कहा, ‘‘पापा, हमने हॉल के अंदर आपको देख लिया था, आपने हमें नहीं देखा!’’
प्रभा ने ताना मारा, ‘‘वी.आइ.पी. लोग इधर-उधर नहीं देखते, बेटा! सीधे सामने ही देखते हैं!’’
मैंने हाथ जोड़कर संकेतों में उससे क्षमा माँगी और सुकुमार को बधाई देकर नाटक की प्रशंसा करने लगा। तभी जय ने सुकुमार से पूछा, ‘‘दादू जी, राजा हरिश्चंद्र इतना झूठा था, तो हमारे स्कूल की किताब उसे सत्यवादी क्यों बताती है?’’
सुकुमार ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘जैसे लोग सच्चे और झूठे होते हैं, बेटा, उसी तरह किताबें भी सच्ची और झूठी होती हैं।’’
शिखर सुकुमार के नाटक ‘असत्य हरिश्चंद्र’ का विरोध। विरोधियों ने प्रेक्षागृह में घुसकर नारेबाजी, हाथापाई और कुछ तोड़-फोड़ भी की। पुलिस बुलानी पड़ी। गिरफ्तार किये गये लोगों के नेता ने कहा कि इस नाटक में सत्यवादी हरिश्चंद्र का मजाक उड़ाकर भारतीय संस्कृति का अपमान किया गया है। सरकार को इस नाटक पर अविलंब प्रतिबंध लगाना चाहिए।
कल इसी अखबार में नाटक की समीक्षा छपी थी, जिसमें नाटक को ‘‘पौराणिक कथा के ढाँचे में वर्तमान के यथार्थ को हास्य-व्यंग्य की शैली में मनोरंजक ढंग से सामने लाने वाला नाटक’’ बताते हुए लेखक की प्रशंसा की गयी थी कि ‘‘शिखर सुकुमार एक दलित लेखक होने के बावजूद वेदों और पुराणों के अध्येता तथा संस्कृत नाटकों और महाकाव्यों के मर्मज्ञ हैं’’। लेकिन आज उस पर ‘‘अविलंब प्रतिबंध’’ लगाने की माँग करने वाले समाचार के साथ-साथ ‘बॉक्स आइटम’ बनाकर बड़े ध्यानाकर्षक ढंग से यह भी छापा गया था कि ‘‘दलित लेखकों ने पल्ला झाड़ा: शिखर सुकुमार को ब्राह्मणवादी लेखक बताया’’।
रविवार की छुट्टी का दिन था। सुबह के आठ बज चुके थे, लेकिन जय और विजय अभी तक अपने कमरे में सोये पड़े थे। मैं और प्रभा सुबह की ताजी हवा और खुशनुमा धूप का आनंद लेते हुए बालकनी में बैठे चाय पी रहे थे और अखबार पढ़ रहे थे। मैंने हिंदी अखबार में छपा समाचार पढ़कर प्रभा से कहा, ‘‘देखना, सुकुमार जी के नाटक के बारे में अंग्रेजी में भी कुछ छपा है क्या?’’
‘‘क्यों, क्या हो गया?’’ पूछकर प्रभा अंग्रेजी अखबार के पन्ने पलटने लगी और अगले ही क्षण चौंककर बोली, ‘‘हें, यह क्या?’’
अंग्रेजी अखबार में भी प्रदर्शनकारियों को पकड़कर ले जाती पुलिस का वैसा ही चित्र छपा था, लेकिन समाचार कुछ भिन्न था। विरोध-प्रदर्शन करने वालों के द्वारा नाटक पर प्रतिबंध लगाने की माँग की खबर तो थी, लेकिन दलित लेखकों द्वारा शिखर सुकुमार को ब्राह्मणवादी लेखक बताये जाने की खबर उसमें नहीं थी। हाँ, उसमें नाटक की सराहना उसे ‘‘पुरानी कहानी का नया कॉमिक रूप’’ और ‘‘हिलेरियस कॉमेडी’’ बताते हुए अलग से की गयी थी।
मैंने शिखर सुकुमार को फोन करने के लिए मोबाइल उठाया, लेकिन नंबर मिलाने के पहले ही वह बजने लगा।
रामाधार ठाकुर का फोन था। एक प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित पत्रिका के प्रधान संपादक रामाधार ठाकुर का, जो पत्रकार ही नहीं, प्रसिद्ध साहित्यकार भी हैं।
‘‘अहा, रामाधार जी, नमस्कार! कहिए, सुबह-सुबह कैसे याद किया?’’
‘‘चंडीप्रसाद जी, आपसे एक निवेदन करना था।’’
‘‘आज्ञा कीजिए।’’
‘‘क्या बात करते हैं! आप इतने बड़े लेखक हैं, उम्र में भी मुझसे बड़े हैं, मैं आपको आज्ञा दूँगा?’’
‘‘फिर भी। आप संपादक ठहरे और मैं लेखक!’’ मैंने हँसते हुए कहा।
लेकिन रामाधार ठाकुर विनम्रता के साथ बोले, ‘‘आपको पता नहीं, चंडीप्रसाद जी, मैं आपका पुराना पाठक और प्रशंसक हूँ। आपकी पुस्तक ‘शिखर सुकुमार: एक औघड़ साहित्यकार’ मैंने खरीदकर पढ़ी थी और वह आज भी मेरे पास है। सुकुमार जी मेरे प्रिय लेखक हैं और आपने उन पर इतनी अच्छी किताब लिखी है, इसलिए आप भी मेरे प्रिय लेखक हैं...’’
‘‘मैं भी आपका प्रशंसक हूँ, रामाधार जी! आपके पत्रकार और साहित्यकार दोनों रूपों का। खैर, बताइए, क्या बात है?’’
‘‘सुकुमार जी का नया नाटक ‘असत्य हरिश्चंद्र’ आपने देख लिया होगा...?’’
‘‘अभी नहीं देखा, लेकिन देखना है।’’
‘‘तब तो मेरा निवेदन है कि आप उसे आज ही देख लें। उस पर कुछ विवाद छिड़ गया है।’’
‘‘हाँ, मैंने अभी-अभी अखबार में पढ़ा...लेकिन कारण समझ में नहीं आया। किस्सा क्या है?’’
‘‘कल का किस्सा तो इतना ही है कि शाम के शो में कुछ उपद्रवी लोगों ने हॉल में घुसकर नाटक बंद कराने की कोशिश की। मौके पर पहुँची पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। दर्शकों के हित में अच्छी बात यह रही कि तकरीबन आधे घंटे के इस व्यवधान के बावजूद वे पूरा नाटक देख पाये। लेकिन आज क्या होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। हो सकता है, आज और आगे के शो कैंसिल हो जायें, या नाटक पर प्रतिबंध ही लग जाये। इसलिए मेरा निवेदन है कि आप आज ही और पहला ही शो देख लें और हमारी पत्रिका के लिए उसकी समीक्षा लिख दें।’’
‘‘ठीक है, मैं आज ही देख लूँगा।’’ मैंने कहा, ‘‘समीक्षा कब तक लिखकर देनी होगी?’’
‘‘पत्रिका, आप जानते हैं, पाक्षिक है। अगला अंक आने में अभी दस दिन हैं। इसलिए आप आराम से एक सप्ताह का समय ले सकते हैं। बाकी टिकट वगैरह की चिंता आप न करें। दफ्तर की गाड़ी आपको लेने आ जायेगी और शो के बाद आपको वापस घर पहुँचा देगी। गाड़ी में ड्राइवर के अलावा दो लोग और रहेंगेµएक रिपोर्टर, एक फोटोग्राफर। अगर कोई गड़बड़ी हुई, तो वे एक तरह से आपके अंगरक्षक भी होंगे।’’
‘‘क्या इतना खतरा है?’’
‘‘घबराइए नहीं। मजाक कर रहा हूँ। मामला मीडिया में उछल गया है, इसलिए फुटेज चाहने वाले नेता लोग विरोध-प्रदर्शन तो जरूर करेंगे। लेकिन पुलिस का बंदोबस्त भी तगड़ा होगा। लगता तो नहीं कि कोई गड़बड़ी होगी, फिर भी सावधानी तो हमें बरतनी ही चाहिए। आप नि¯श्चत रहें, आपकी सुरक्षा हमारी जिम्मेदारी है। बस, दुआ करें कि आज का पहला शो कैंसिल न हो। छुट्टी का दिन है। आप घर पर ही रहें। शो तीन बजे शुरू होगा, गाड़ी दो बजे आपके घर पहुँच जायेगी। ठीक है?’’
‘‘जी, रामाधार जी, ठीक है। मैं दो बजे तैयार मिलूँगा।’’
खतरे वाली बात सुनकर प्रभा चौकन्नी हो गयी थी। मैंने ज्यों ही फोन रखा, उसने पूछा, ‘‘क्या बात है? कहाँ जाना है?’’
मैंने पूरी बात उसे बता दी। उपद्रव की आशंका और अंगरक्षकों वाली बात सुनकर वह डर गयी। बोली, ‘‘कोई जरूरत नहीं इस तरह जान जोखिम में डालने की! फौरन फोन उठाओ और मना कर दो।’’
मैंने चाय की एक चुस्की ली, प्याला नीचे रखा और फोन उठा लिया। प्रभा मुझे अपने आदेश का पालन करते देख संतुष्ट-सी होकर बच्चों को जगाने चली गयी। लेकिन मैंने रामाधार ठाकुर का नहीं, शिखर सुकुमार का नंबर मिलाया।
अपने फोन पर मेरा नंबर देखते ही उन्होंने कहा, ‘‘हाँ, चंडीप्रसाद! कैसे हो?’’
‘‘मैं तो ठीक हूँ, गुरुजी, लेकिन आपने यह क्या बवाल खड़ा कर दिया?’’
‘‘सवाल उठेंगे, तो बवाल भी खड़े होंगे।’’ कहकर उन्होंने ठहाका लगाया।
‘‘ऐसा क्या सवाल उठा दिया आपने?’’
‘‘इसका मतलब है, तुमने नाटक अभी तक देखा नहीं है!’’
‘‘आज जा रहा हूँ देखने। पहला ही शो।’’
‘‘तो ठीक है, नाटक देखने के बाद बात करना। मैं वहीं मिलूँगा।’’ कहकर उन्होंने फोन काट दिया।
प्रभा बच्चों के कमरे से निकलकर रसोईघर की तरफ जा रही थी, लेकिन उसके कान शायद मेरी तरफ ही लगे हुए थे। शिखर सुकुमार से बात करके ज्यों ही मैंने फोन रखा, उसने ठिठककर पूछा, ‘‘मना कर दिया न?’’
मैंने झूठ बोला, ‘‘वे नहीं मान रहे। नाटक देखने जाना ही पड़ेगा।’’
प्रभा कुछ और कहे, इसके पहले ही मैंने कहा, ‘‘डरो मत। दो अंगरक्षक मेरे साथ रहेंगे। मामला मीडिया में उछल गया है, इसलिए प्रशासन भी चुस्त हो गया होगा। वहाँ पुलिस का अच्छा बंदोबस्त होगा। डरने की कोई बात नहीं है।’’
‘‘मेरी कोई बात मत सुनना!’’ प्रभा ने गुस्से में पैर पटककर जाते हुए कहा, ‘‘हमेशा अपने ही मन की करना!’’
उसके जाते ही बड़े बेटे जय ने आकर मुझसे पूछा, ‘‘पापा, आप हमारे साथ टी.वी. देखेंगे या घूमने जायेंगे?’’
रविवार की सुबह जय और विजय दोनों नियम से टी.वी. देखते हैं। प्रभा नाश्ते और दोपहर के खाने की तैयारी में लगती है और मैं कभी बाहर घूमने चला जाता हूँ, कभी बच्चों के साथ टी.वी. देखने बैठ जाता हूँ।
‘‘तुम लोग देखो, मैं तो आज घूमने जाऊँगा।’’ मैंने अपनी चाय खत्म की और अपने ही बनाये नियम के अनुसार अपना जूठा प्याला स्वयं धोकर रखने के लिए रसोईघर में जा पहुँचा।
प्रभा की नाराजगी दूर करने के लिए मैंने कहा, ‘‘घूमने जा रहा हूँ। बाजार से कुछ लाना है?’’
प्रभा ने उत्तर नहीं दिया, तो मैंने पीछे से उसके कंधों पर दोनों हाथ रखते हुए कहा, ‘‘गुस्सा मत करो। नि¯श्चत रहो, मुझे कुछ नहीं होगा। यह सोचो कि तुम्हारा पति अचानक कैसा वी.आइ.पी. बन गया है! इतना बड़ा संपादक खुद फोन करके अपनी पत्रिका में लिखने के लिए कह रहा है। आने-जाने के लिए गाड़ी भेज रहा है। साथ में दो अंगरक्षक भी। कभी सुने हैं किसी हिंदी लेखक के ऐसे ठाठ? फिर, शिखर सुकुमार के नाटक पर लिखने का अवसर मिल रहा है। सो भी एक विवादास्पद नाटक पर लिखने का अवसर। नाटक तो चर्चित होगा ही, लगे हाथ नाट्य समीक्षक के भी चर्चित हो जाने का अच्छा अवसर है!’’
‘‘तो ठीक है! जाओ, बनो अवसरवादी, हमें क्या!’’ प्रभा ने अपने कंधों पर से मेरे हाथ हटाते हुए कहा। उसके स्वर और स्पर्श से मैं समझ गया कि उसकी नाराजगी दूर हो गयी है।
पब्लिक पार्क में घूमते समय मैं सोचता रहा कि शिखर सुकुमार ने आखिर ऐसा क्या लिख दिया होगा, जिस पर इतना बखेड़ा खड़ा हो गया है। अचानक मुझे उनकी एक बात और उनसे अपनी पहली मुलाकात याद आ गयी।
यह तब की बात है, जब मैंने पीएच.डी. के लिए अपना शोधकार्य शिखर सुकुमार के नाटकों पर करने का निश्चय किया था। संयोग से मेरे शोध निर्देशक प्रोफेसर डी.के. राय भी शिखर सुकुमार के मित्र और प्रशंसक थे। उन्होंने मुझसे कहा कि काम शुरू करने से पहले उनके नाटकों को अच्छी तरह पढ़ लो और एक बार उनसे मिल भी लो। मैंने प्रोफेसर राय को बताया कि सुकुमार जी के तीनों नाटक मैं पढ़ चुका हूँ और पढ़कर बहुत प्रभावित हुआ हूँ, तो उन्होंने प्रसन्न होकर अपने मित्र का फोन मिलाकर कहा, ‘‘सुुकुमार, मेरे एक शोधछात्र चंडीप्रसाद तुम्हारे नाटकों पर काम कर रहे हैं। वे तुमसे मिलना चाहते हैं। उन्हें तुम्हारे पास कब भेजूँ?’’
निर्धारित तिथि और समय पर मैं सुकुमार से मिलने गया, तो मन में एक भय-सा था। इतने बड़े साहित्यकार हैं, मुझसे उन्होंने कुछ पूछा और मैं जवाब न दे पाया, तो? कहीं मुझे डाँटकर भगा न दें। इसलिए जब मैंने उनके दरवाजे की घंटी बजायी, तो घंटी के स्विच पर मेरी उँगली काँप रही थी।
एक अधेड़ आदमी ने दरवाजा खोला, जो नीले चारखाने की लुंगी और सफेद बनियान पहने हुए था। साँवले रंग के, स्वस्थ शरीर वाले, लंबे कद के उस आदमी के सिर के खिचड़ी बालों में से गंजापन दिख रहा था। मुझे उसका चौड़ा माथा गंजेपन में जा मिलने से कुछ ज्यादा ही चौड़ा लगा। ठक् से मेरी चेतना में कहीं पढ़ा हुआ एक शब्द आ टकरायाµप्रशस्त ललाट! मैंने देखा, उस आदमी की दाढ़ी-मूँछ सफाचट थीं और काले रंग के मोटे फ्रेम के चश्मे में से उसकी छोटी-छोटी पैनी आँखें मुझसे पूछ रही थीं--कहिए?
‘‘सर, मैं चंडीप्रसाद पंडित, मुझे...’’
‘‘आइए, आइए। देवेंद्र ने, मतलब आपके प्रोफेसर डी.के. राय ने आपको भेजा है न?’’
‘‘जी, सर!’’ कहते हुए मैं उनके पैर छूने के लिए झुका।
‘‘नहीं-नहीं।’’ कहते हुए शिखर सुकुमार पीछे हट गये, ‘‘मैं पैर छूना-छुआना पसंद नहीं करता।’’ फिर मुझे सोफे पर बैठने के लिए कहकर मेरे सामने बैठते हुए उन्होंने व्यंग्यपूर्ण मुस्कान के साथ कहा, ‘‘वैसे भी मैं शूद्र, आप ब्राह्मण। आप से पैर छुआकर मैं नरक में जाऊँ न जाऊँ, आपका धर्म तो भ्रष्ट हो ही जायेगा न!’’
‘‘क्षमा करें, सर, आपके नाटकों को पढ़कर तो लगता है कि आप जात-पाँत और छुआछूत कुछ नहीं मानते। आप साहित्यकार हैं, मेरे गुरुजी के मित्र हैं, गुरु समान हैं, आपके पैर छूना मेरा धर्म है। और जहाँ तक स्वर्ग और नरक में जाने की बात है, आपने अपने नाटक ‘देवासुर संग्राम’ में लिखा है कि ये तो कपोल कल्पनाएँ हैं। स्वर्ग राजा द्वारा प्रजा को लुभाने के लिए दिखाये जाने वाले सब्जबाग की कल्पना है और नरक उसे डराने के लिए दिखाये जाने वाले यातनागृह की कल्पना!’’
‘‘अरे वाह! लगता है, आप खासी तैयारी करके मुझसे मिलने आये हैं!’’ सुकुमार प्रसन्न होकर हँसते हुए बोले, ‘‘देवेंद्र ने मुझे बता दिया था कि आप वामपंथी छात्र संगठन में सक्रिय रहे हैं। ऐसा माना जाता है कि वामपंथी लोग जात-पाँत नहीं मानते। लेकिन मैं ऐसे कई वामपंथियों को जानता हूँ, जो बातों में मार्क्सवादी और व्यवहार में ब्राह्मणवादी होते हैं। इसलिए मैंने सोचा कि पानी पिलाने से पहले आपको अपनी जात बता दूँ!’’
‘‘तो पहले पानी ही पिला दीजिए, सर! बस स्टैंड से आपके घर का पता पूछता पैदल चला आ रहा हूँ और बाहर बड़ी तेज धूप और गर्मी पड़ रही है।’’
‘‘अभी लाया।’’ कहकर सुकुमार घर के अंदर चले गये।
जब तक वे पानी लेकर आये, मैं उनकी बैठक को देखता रहा। एक तरफ सोफा सेट। दूसरी तरफ डाइनिंग टेबल। एक कोने में टेलीफोन। दूसरे कोने में टेलीविजन। एक दीवार में बनी बड़ी खिड़की के बंद शीशों के पार धूप में चमकते नीम और जामुन के पेड़। दूसरी लंबी दीवार पर लेटे हुए बुद्ध की विशाल प्रतिमा का बहुत बड़ा फोटोग्राफ। सोफों के बीच छोटी मेज की शीशे वाली टॉप पर खुली हुई मगर औंधाकर रखी हुई एक पुस्तक, जिसके नीले आवरण पर छपा नाम पढ़ने में आ रहा था--‘सोशल मूवमेंट्स इन इंडिया’। कमरे में ए.सी. की ठंडक थी, लेकिन ए.सी. कहीं दिखायी नहीं दे रहा था।
थोड़ी देर बाद सुकुमार अंदर आये। उनके एक हाथ में पानी का गिलास था और दूसरे में फ्रिज से निकाली गयी ठंडे पानी की बोतल। पीछे-पीछे एक ट्रे में लाल शर्बत के चार गिलास लिये उनकी पत्नी दमयंती जी आयीं और उनके पीछे मिठाई और नमकीन की ट्रे उठाये उनका युवा बेटा अतुल।
बातों-बातों में पता चला कि दमयंती जी एक सरकारी दफ्तर में बड़ी अधिकारी हैं और अतुल दिल्ली विश्वविद्यालय में एम.ए. मनोविज्ञान का छात्र। सुकुमार कोई नौकरी नहीं करते, ‘शिखर’ नामक अपनी एक नाट्य संस्था चलाते हैं और उसकी गतिविधियों में व्यस्त रहते हैं। आज छुट्टी का दिन होने से तीनों एक साथ दोपहर के समय घर में हैं, अन्यथा इस समय घर अक्सर बंद ही रहता है।
फिर जब बातों का सिलसिला शुरू हुआ, तो दोपहर के भोजन के समय तक चलता चला गया। मेरे बहुत ना-ना करने पर भी सुकुमार ने, और उनसे भी अधिक दमयंती जी ने, आग्रहपूर्वक मुझे अपने साथ बिठाकर भोजन कराया। भोजन करते समय मैंने मजाक में कहा, ‘‘आज तो आप लोगों ने एक ब्राह्मण का धर्म पूरी तरह भ्रष्ट कर दिया!’’
‘‘लेकिन सावधान!’’ दमयंती जी ने अपने पति की ओर संकेत करते हुए कहा, ‘‘ये कहीं आपकी बुद्धि भी भ्रष्ट न कर दें! ये अपने ढंग के एक ही हैं। जहाँ लाभ की संभावना हो, वहाँ नहीं जायेंगे; लेकिन जहाँ हानि की आशंका हो, वहाँ जरूर जायेंगे! दलित हैं, लेकिन आरक्षण के विरोधी हैं। खुद तो आरक्षण का कभी कोई लाभ नहीं ही उठाया, अतुल को भी नहीं उठाने दिया। अपनी तरह इसे भी जनरल कैटेगरी में डाल रखा है। मेरी पढ़ाई, नौकरी और पदोन्नति आरक्षण के आधार पर हुई है, सो मुझे कोटे वाली कहकर चिढ़ाते रहते हैं। नाटक ऐसे लिखते हैं कि विरोध हो, बवाल मचे, प्रशंसा की जगह इनकी पिटाई हो! दूसरे लोग पैसा कमाने और पुरस्कार वगैरह पाने के लिए थियेटर करते हैं। इन्होंने अपनी संस्था के लिए किसी भी तरह की फंडिंग लेने से इनकार कर रखा है!’’
सुकुमार ने उनकी बात का उत्तर एक हल्की हँसी से देकर मुझसे कहा, ‘‘निंदक नियरे राखिए!’’
हँसी-खुशी भोजन समाप्त हुआ, तो दमयंती जी और अतुल अपने-अपने कमरे में आराम करने चले गये। बैठक में सुकुमार और मैं ही रह गये, तो उन्होंने हिंदी में होने वाले शोधकार्यों का मजाक-सा उड़ाते हुए कहा, ‘‘हाँ, भई, अब बताइए, क्या खोजना चाहते हैं आप मेरे नाटकों में?’’
‘‘सर, मेरे शोध का विषय है ‘शिखर सुकुमार के नाटकों में पौराणिक मिथकों का उपयोग’।’’
‘‘सिरे से गलत!’’ उन्होंने हँसते हुए कहा। लेकिन अगले ही क्षण गंभीर होकर बोले, ‘‘मैं अपने नाटकों में मिथकों का उपयोग नहीं करता, बल्कि उन्हें तोड़ने का काम करता हूँ। मिथक समाज की किसी व्यवस्था को बनाये रखने के लिए गढ़े और बनाये रखे जाते हैं। यथास्थितिवादी साहित्य में मिथकों का उपयोग इसी उद्देश्य से किया जाता है। लेकिन समाज की व्यवस्था में बदलाव चाहने वाले यथार्थवादी साहित्य में बने-बनाये मिथकों को तोड़ा जाता है। मसलन, अपने नाटक ‘आरण्यक’ में मैंने राम के ईश्वरीय मिथक को तोड़ा है। मैंने राम को साधारण मनुष्य बना दिया है। राम उसमें जंगलों को जलाकर कृषि योग्य भूमि पाना चाहने वाली कृषि-आधारित सामाजिक व्यवस्था का नायक है, जबकि रावण जंगलों में रहने वाली आदिवासी जनजातियों का नायक। एक पक्ष को जंगल जलाकर खेती के लिए जमीन चाहिए, तो दूसरे पक्ष के लिए जंगल ही जीवन का आधार है। यही है राम-रावण युद्ध का कारण। राम का पक्ष प्रबल है, क्योंकि उसमें जंगल में रहने वाली जनजातियों को ही नहीं, रावण के भाई विभीषण तक को अपने पक्ष में मिला लेने की और शत्रु पक्ष को कमजोर कर देने की क्षमता है। राम के पास अपनी कोई सेना नहीं थी। जंगल के मूल निवासियों को संगठित करके उसने अपनी सेना बनायी, जो रावण की सेना पर भारी पड़ी। इस प्रकार मैंने राम-रावण युद्ध को पौराणिक संदर्भ से निकालकर ऐतिहासिक संदर्भ से जोड़ दिया है।’’
‘‘ऐतिहासिक संदर्भ?’’ मैंने चकित होकर पूछा।
‘‘कैसे वामपंथी हो, भाई? मोड ऑफ प्रोडक्शन जानते हो न? उत्पादन का तरीका! राम-रावण का युद्ध उत्पादन के दो तरीकों की लड़ाई है। पुराना तरीका है जंगलों में रहकर शिकार और आहार संग्रह करना। नया तरीका है जंगल जलाकर खेती करना। पुराने तरीके पर नये तरीके की विजय होती है। यह ऐतिहासिक संदर्भ है। समझे?’’
मेरे लिए यह व्याख्या बिलकुल नयी थी, जिसे मैं समझ नहीं पाया था, इसलिए मैंने नासमझी के साथ कहा, ‘‘जी!’’
सुकुमार हँस पड़े, ‘‘वाह! जो बात मेरी समझ में दसियों साल इतिहास-पुराण खँगालने पर आयी, उसे आप दो मिनट में समझ गये? घर जाइए, मेरे नाटक को फिर से पढ़िए, नये सिरे से उस पर सोचिए, तब फिर आकर बताइए कि क्या समझे!’’
मैं उठ खड़ा हुआ, लेकिन चलते-चलते ठिठककर मैंने पूछा, ‘‘मगर, सर, मेरे शोध का विषय तो आपके नाटकों में पौराणिक मिथकों का ‘उपयोग’ है। उसमें मिथकों को ‘तोड़ने’ की बात कैसे...?’’
‘‘यह आपकी समस्या है। एक लेखक के रूप में मेरा कहना यह है कि अगर आप किसी नये या पुराने मिथक को ध्वस्त नहीं कर सकते, तो आप सृजनशील लेखक नहीं हैं; क्योंकि सृजन का तो अर्थ ही है पुराने का ध्वंस और नये का निर्माण!’’
धूप तेज होने लगी थी। मैंने पब्लिक पार्क से निकलकर घर की ओर कदम बढ़ाये ही थे कि सड़क पर पत्रकार प्रभात अपनी कार में जाते दिखायी दिये। उन्होंने शायद मुझे नहीं देखा और मैं उनकी ओर अभिवादन में हाथ हिलाता रह गया।
उन्हें देखकर मुझे सुकुमार के नाटक ‘आरण्यक’ पर हुए हिंसक विवाद की याद आ गयी। ‘आरण्यक’ के प्रदर्शन बरसों से होते आ रहे थे, लेकिन उस बार उसके शो फिर से शुरू किये गये, तो न जाने कैसे भारतीय संस्कृति की रक्षा के कुछ ठेकेदारों की भावनाएँ भड़क गयी थीं और उन्होंने सुकुमार पर लगभग जानलेवा हमला करके उन्हें बुरी तरह घायल कर दिया था। इलाज कराने के लिए सुकुमार को कई दिन तक एक अस्पताल के प्राइवेट वार्ड में कमरा लेकर रहना पड़ा था। जब अतुल को कॉलेज और दमयंती जी को अपने दफ्तर जाना होता, तो मैं अस्पताल जाकर उनकी देखभाल किया करता था।
एक दिन प्रभात सुकुमार का साक्षात्कार लेने आये थे। सुकुमार के शरीर पर पट्टियाँ बँधी हुई थीं। वे बिस्तर पर तकियों के सहारे अधलेटे-से बैठे थे। उनके सिरहाने की तरफ रखी कुर्सी पर बैठे प्रभात ने टेपरिकॉर्डर चालू करके अपने और उनके बीच रख दिया था। बातचीत कुछ-कुछ इस तरह हुई थी :
प्रभात: लोग कह रहे हैं कि आप पर जो हमला हुआ, उसके लिए आप स्वयं ही जिम्मेदार हैं।
सुकुमार: जाहिर है कि मैं ही जिम्मेदार हूँ।
प्रभात: यानी हमला हुआ तो ठीक हुआ? हमलावर सही थे?
सुकुमार: मैं ठीक-बेठीक और सही-गलत की बात नहीं कर रहा हूँ। इसका फैसला तो मेरे नाटक के दर्शकों, समीक्षकों और आप पत्रकार लोगों को करना है। या फिर कोर्ट-कचहरी वालों को। मैं केवल यह कह रहा हूँ कि मैंने नाटक में जो लिखा है, पूरे होशो-हवास में और अपने विचार से बिलकुल ठीक मानते हुए लिखा है। हमले से डरकर मैं उसे बदलने वाला या उसके लिए पछताने वाला नहीं हूँ।
प्रभात: लेकिन आप पर आरोप है कि ‘आरण्यक’ में आपने रामकथा को बिलकुल बदल दिया है। राम को ईश्वर से साधारण मनुष्य बना दिया है।
सुकुमार: इसमें आरोप क्या है? यह तो सच है। मैंने ऐसा ही किया है और जान-बूझकर किया है।
प्रभात: लेकिन अगर इससे राम को भगवान मानने वालों की भावनाएँ आहत होती हैं, तो?
सुकुमार: तो क्या? उनकी भावनाओं की अभिव्यक्ति को आप मेरे शरीर पर लगी चोटों के रूप में देख ही रहे हैं।
प्रभात: अर्थात् जन-भावनाओं का आदर करते हुए आप अपने नाटक में कोई परिवर्तन करने को तैयार नहीं हैं?
सुकुमार: जी, नहीं। राम हजारों साल से साहित्य में चित्रित होते आ रहे एक चरित्र हैं। हर साहित्यकार उन्हें अपने ढंग से चित्रित करता है। मैंने भी यही किया है। और यह मेरा अधिकार है। आपको शायद मालूम होगा कि रामकथा कोई एक ही या एक-सी चीज नहीं है। उसके विभिन्न रूप हैं और उसमें रामकथा की घटनाएँ और पात्र विभिन्न रूपों में चित्रित हुए हैं।
प्रभात: अच्छा, आप दलित होते हुए भी पौराणिक विषयों पर क्यों लिखते हैं?
सुकुमार: क्या किसी दलित को पौराणिक विषयों पर लिखने का अधिकार नहीं है?
प्रभात: इन विषयों पर लिखने के कारण दलित लेखक आपको दलित नहीं, ब्राह्मणवादी लेखक मानते हैं।
सुकुमार: यह उनकी समस्या है।
प्रभात: आप पर इतना भयानक हमला हुआ और दलित लेखक आपके समर्थन में खड़े नहीं हुए, इसकी वजह क्या आपका ब्राह्मणवादी होना नहीं है?
सुकुमार: मैं नहीं जानता।
प्रभात: लेकिन जो लोग आपको अच्छी तरह जानते हैं...
सुकुमार: वे कौन हैं, जो मुझे अच्छी तरह जानते हैं? अच्छी तरह जानने का मतलब होता है पूरी तरह जानना। किसी को अच्छी तरह जानने का दावा करने वालों के पास उसके बारे में अक्सर बहुत कम और आधी-अधूरी जानकारी होती है। अब, अगर कोई गीली मिट्टी हाथों में लेकर उसका एक गोला बनाये और आपसे कहे कि यह पृथ्वी है और मैं इसे अच्छी तरह जानता या जानती हूँ, तो क्या आप मान लेंगे कि मिट्टी का वह गोला सचमुच पृथ्वी है और उस व्यक्ति का उसे जानने का दावा सही है?
प्रभात: आप तो बाल की खाल निकालने लगे!
सुकुमार: नहीं, मैं आपसे एक ठोस प्रश्न पूछ रहा हूँ। अपने हाथों बनाये मिट्टी के गोले को पृथ्वी बताने वाला आदमी क्या सचमुच पृथ्वी को जानता है? क्या बड़े से बड़ा भूगोलवेत्ता, खगोलवेत्ता और भूगर्भवेत्ता भी यह दावा कर सकता है कि वह पृथ्वी को पूरी तरह जानता है? पृथ्वी की बात छोड़िए, आप अपने हाथों बनाये मिट्टी के गोले के बारे में ही कितना जानते हैं? उसमें कौन-सी मिट्टी है और किस प्रकार की? उसमें कितने कण हैं और कितने अणु-परमाणु? उसमें कितने ठोस, द्रव और गैसीय तत्त्व हैं? उसमें कौन-कौन-से भौतिक, जैविक और रासायनिक पदार्थ हैं?
प्रभात: यह कुतर्क है, जिसके सहारे आप बातचीत से बचना या साक्षात्कार से इनकार करना चाह रहे हैं। आपके इस कुतर्क को ही आगे बढ़ाते हुए कहूँ, तो क्या पृथ्वी स्वयं को जानती है? या मिट्टी का एक गोला ही स्वयं को जानता है?
सुकुमार: पता नहीं, लेकिन मैंने पृथ्वी को या मिट्टी के किसी गोले को स्वयं को अच्छी तरह जानने का दावा करते नहीं देखा। हम पृथ्वी को पृथ्वी और ढेले को ढेला कहते हैं। लेकिन क्या हम जानते हैं कि पृथ्वी स्वयं को पृथ्वी मानती है या ढेला स्वयं को ढेला मानता है?
प्रभात: अच्छा, आप बताइए, आप खुद को क्या मानते हैं?
सुकुमार: एक लेखक, एक नाटककार।
प्रभात: सफल या असफल?
सुकुमार: पता नहीं।
प्रभात: आप स्वयं को किसी भी प्रतिस्पर्धात्मक दौड़ से बाहर क्यों कहते हैं?
सुकुमार: इसलिए कि मैं सचमुच किसी दौड़ में शामिल नहीं हूँ।
प्रभात: अच्छा, आपके प्रशंसक भी आपको औघड़ साहित्यकार कहते हैं। क्या यह आपको ठीक लगता है?
सुकुमार: ठीक? मैं तो यह भी नहीं जानता कि औघड़ शब्द का अर्थ क्या होता है!
मेरे सामने हुई इस बातचीत के वर्षों बाद जब मैं अपनी पहली पुस्तक ‘शिखर सुकुमार : एक औघड़ साहित्यकार’ की पहली प्रति भेंट करने गया था, तब मुझसे भी उन्होंने व्यंग्यपूर्वक मुस्कराते हुए पूछा था, ‘‘औघड़ का क्या अर्थ होता है?’’
और मैंने उनसे पूछा था, ‘‘सर, धृष्टता क्षमा करें, कई बार जी में आया कि आपसे आपके नाम के बारे में पूछूँ। यह नाम आपने स्वयं रखा है या...?’’
‘‘पहला आधा मेरे पिता का रखा हुआ है और दूसरा आधा मैंने खुद रखा है। वैसे मेरा नाम था शिखर दुसाध। दुसाध जाति का होने के कारण। लेकिन वेद, पुराण और संस्कृत साहित्य के आधुनिक व्याख्याकार मेरे गुरु कमलाकर जी ने मुझे पढ़ाना शुरू करते ही मेरा नाम बदल दिया। दुसाध की जगह दुस्साध्य। मुझे न दुसाध पसंद था न दुस्साध्य। किसी ने उसके बदले सुसाध्य सुझाया, लेकिन वह तो मुझे और भी खराब लगा। आखिरकार मैंने खुद ही अपना नाम शिखर सुकुमार रख लिया।’’
मैं यह तो समझ गया था कि दुसाध उनकी जाति है, लेकिन यह शब्द मैंने पहली बार सुना था। मेरे चेहरे पर अचरज या जिज्ञासा जैसा कुछ रहा होगा, जिसे पढ़कर उन्होंने कहा, ‘‘मेरे पिता कबीर को बहुत मानते थे। कबीर की यह बात उन्होंने बचपन में ही जिंदगी भर के लिए गाँठ बाँध ली थी कि ‘जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान; मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान’। वे देहाती दुसाधों में पैदा हुए थे। सूअर पालना और बेचना उनका पुश्तैनी पेशा था। दुसाध बहुत नीची जाति मानी जाती थी। मेरे पिता ने प्रतिज्ञा की कि दुसाध नहीं रहेंगे, साधु बनेंगे। लेकिन दुनिया से संन्यास लेकर भीख माँगने निकल पड़ने वाले साधु-संन्यासी नहीं, बल्कि सच्चे साधु। सच्चे, सज्जन, चतुर, निपुण, योग्य और प्रशंसनीय वाले अर्थ में साधु। दुनिया से भागंेगे नहीं, दुनिया को बदलेंगे। कोई गुरु भी उन्हें अच्छा मिल गया था। उसने मेरे पिता को किसी अंग्रेज अफसर से मिलवा दिया, जिसने उन्हें सेना को सूअर सप्लाई करने की सलाह दी। शायद कुछ पैसा भी दिया, जिससे वे बड़े पैमाने पर सूअर पाल सकें। काम अच्छा चलने लगा। फौजी अफसरों से बात करने के लिए मेरे पिता ने कामचलाऊ अंग्रेजी सीख ली और कोट-पैंट वाली वेश-भूषा भी अपना ली। गाँव छोड़ शहर में रहने लगे। उन्होंने मुझे अंग्रेजी शिक्षा दिलायी। वे चाहते, तो स्कूल में मेरी जाति कुछ और भी लिखवा सकते थे। कौन पूछने वाला था? मगर उनका कहना था कि जन्म से दुसाध हो तो क्या हुआ? कर्म से साधु बनो। सो मैं जाति से आज भी दुसाध हूँ, बाकी तुम देख ही रहे हो!’’
पूछते संकोच हुआ, मगर फिर भी मैंने पूछ लिया, ‘‘और आपके पिताजी का व्यवसाय? उसका क्या हुआ?’’
सुकुमार जी मुस्कराते हुए बोले, ‘‘तुम्हें पता है, विश्वामित्र एक प्रतिसृष्टि करने या दूसरी दुनिया बनाने चला था और देवताओं के भेजे ब्रह्मा ने उसे समझा-बुझाकर ऐसा करने से रोक दिया था? मेरे पिता को भी मिल गये एक ब्रह्मा जी! उन्होंने कहाµ‘यह क्या कर रहे हो? हम देश की आजादी के लिए जिन अंग्रेजों से लड़ रहे हैं, तुम उन्हीं अंग्रेजों को खाने के लिए सूअर सप्लाई कर रहे हो? बंद करो यह धंधा और चलो हमारे साथ।’ मेरे पिता ने उनकी न सुनी होती, तो दूसरे विश्वयुद्ध में सेना को सामान सप्लाई करने वाले कई ठेकेदारों की तरह मालामाल होकर शायद बड़े पूँजीपति बन गये होते। लेकिन उन्होंने अपना धंधा बंद कर दिया और देश की सेवा करने चल दिये। आजादी के आंदोलन में शामिल हुए और जेल चले गये। आजादी मिलने पर जेल से छूटे, तो देखा कि दुनिया बदली नहीं, बल्कि बेहतर होने की जगह और बदतर हो गयी है। देश बँट गया है, लाखों लोग मारे जा रहे हैं, इधर से उधर और उधर से इधर विस्थापित हो रहे हैं। शरणार्थी कैंपों में स्वयंसेवक बनकर काम करते समय उन्होंने इतना दुख देखा कि विक्षिप्त-से हो गये। सबसे ज्यादा गुस्सा उन्हें उन लोगों पर आया, जो आजादी के आंदोलन में शामिल होने की कीमत वसूल करते हुए नेता और मंत्री बन बैठे थे। मेरे पिता को तो स्वतंत्रता सेनानी होने के कारण मिल सकने वाले लाभ उठाने वालों से भी सख्त नफरत थी। वे तो आरक्षण के भी सख्त खिलाफ थे।’’
‘‘अच्छा? क्यों?’’
‘‘वे कहते थे, जाति के नाम पर जो भी कोई लाभ उठाता है, चाहे वह सवर्ण हो या शूद्र, ऊँची जाति का हो या नीची जाति का, जात-पाँत की व्यवस्था को मजबूत बनाता है। तुम्हें जातिवाद को बढ़ाना नहीं है, खत्म करना है।’’
दोपहर के भोजन के समय खाने की मेज पर एक तरफ मैं और प्रभा बैठे थे, दूसरी तरफ जय और विजय। अचानक प्रभा ने शिखर सुकुमार के नये नाटक की बात छेड़ दी।
‘‘अब यह ‘असत्य हरिश्चंद्र’ क्या है?’’ प्रभा ने झुँझलाहट भरे स्वर में कहा, ‘‘दलित लेखक होने का मतलब यह तो नहीं कि आप पूरी भारतीय संस्कृति को ब्राह्मणवादी हथकंडा बतायें और उसके उजले पक्षों पर भी कालिख पोतने लगें! सत्यवादी हरिश्चंद्र तो एक नैतिक आदर्श है। राजा हरिश्चंद्र का आदर्श सामने रखकर हम अपने बच्चों को सत्यवादी बनने के लिए प्रेरित करते हैं। इसमें क्या बुराई है? उसे असत्यवादी बना-दिखाकर सुकुमार जी को क्या मिलेगा?’’
‘‘नाटक देखे बिना तुम यह कैसे कह सकती हो कि उसमें सत्यवादी हरिश्चंद्र को असत्यवादी बनाया गया होगा? यह भी तो हो सकता है कि सुकुमार जी हरिश्चंद्र को एक फेक कैरेक्टर मानते हों और उसकी जगह एक जेनुइन कैरेक्टर की रचना करना चाहते हों?’’
‘‘पर मैं कहती हूँ कि बुराइयों का विरोध करो, अच्छी बात है। असत्य, अन्याय, अत्याचार का विरोध करो, अच्छी बात है। लेकिन लीक से हटकर चलने के नाम पर या ब्राह्मणवाद का विरोध करने के नाम पर अपने आदर्शों को नष्ट करना क्या अच्छी बात है?’’
मैं प्रभा की बातें सुन रहा था, लेकिन मेरे कान जय-विजय की बातचीत पर भी लगे थे। बड़ा भाई जय अपने छोटे भाई विजय को हरिश्चंद्र की कहानी सुना रहा था, ‘‘सत्यवादी मींस कि वो कब्भी झूठ नहीं बोलता था। जो कहता था, वो ही करता था। एक दिन देवताओं के राजा इंद्रा को लगा कि उसका सिंहासन हिल रहा है। मींस कि कोई और उसका सिंहासन छीनकर स्वर्ग का राजा बनना चाहता है...’’
इधर प्रभा मुझसे कह रही थी, ‘‘सुकुमार जी क्या आसमान से टपके हैं या आसमान में रहते हैं? यह देश उनका नहीं है? इस देश का साहित्य, इस देश की सभ्यता और संस्कृति उनकी नहीं है? क्या उसकी रक्षा करना उनका काम नहीं है? दलित होने का यह मतलब है कि ब्राह्मणवाद का विरोध करने के नाम पर अपने वेद-पुराण वगैरह सब नष्ट कर दो?’’
‘‘नहीं, वेदों-पुराणों की नयी व्याख्याएँ करना उन्हें नष्ट करना नहीं है। और पौराणिक साहित्य में अगर झूठी बातें भरी हुई हैं, तो उनके झूठ को झूठ कहना और सच को सामने लाना दलित लेखकों का ही नहीं, किसी भी लेखक का कर्तव्य है। अधिकार भी है। फिर, सुकुमार जी कोई सामान्य दलित लेखक नहीं हैं। पौराणिक साहित्य के अध्ययन और विश्लेषण के मामले में वे पंडितों के भी पंडित हैं। एक दिन मैंने उनसे पूछा कि आपने पौराणिक मिथकों को अपने लेखन का विषय क्यों बनाया, तो जानती हो, उन्होंने क्या कहा? उन्होंने कहा--चंडीप्रसाद, हर व्यवस्था का अपना एक तर्क होता है। उस तर्क से वह अपनी सुरक्षा का एक मजबूत परकोटा बनाती है। इतना मजबूत कि उसे तोड़ा न जा सके, कोई उसमें सेंध न लगा सके। लेकिन यह उसकी इच्छा और कोशिश ही होती है। ऐसी कोई अभेद्य प्राचीर बनाना उसके वश में नहीं होता। परम अभेद्य प्रतीत होने वाली प्राचीर में भी कहीं न कहीं कोई कमजोर जगह छूट ही गयी होती है। तुम्हारा काम होता है उस कमजोर जगह को ढूँढ़ निकालना और वहाँ से उस प्राचीर को तोड़ना शुरू करना। मैं यही काम करता हूँ।’’
‘‘यानी हमारे पुरखों की बनायी वर्ण-व्यवस्था, जो इतनी मजबूत है कि हजारों साल से चली आ रही है, उसमें दोष देखना, कमियाँ और कमजोरियाँ ढूँढ़ना और तरह-तरह के तर्कों से उसका खंडन करनाµयही है उनका काम?’’
प्रभा आज न जाने क्यों सुकुमार के प्रति असहिष्णु हो उठी थी, जबकि वह उनका आदर करती थी। हमारी शादी के समय से ही हम उनसे मिलने उनके घर जाते हैं, वे हमसे मिलने हमारे घर आते हैं। उनके यहाँ खाते और उन्हें अपने यहाँ खिलाते समय प्रभा के व्यवहार से कभी यह नहीं लगा कि वह वर्ण या जाति को लेकर कोई भेदभाव बरतती है।
शादी के बाद उन लोगों के बारे में बताते समय ही मैंने उससे कह दिया था, ‘‘सुकुमार जी मेरे गुरु होने के नाते पिता समान हैं और दमयंती जी को मैं गुरु-पत्नी होने के नाते माताजी कहता हूँ। वे भी मुझे अपना बेटा ही मानती हैं, अपने बेटे अतुल का बड़ा भाई। लेकिन सोच लो, तुम पंडितानी हो, उस दलित परिवार के साथ यह रिश्ता निभा लोगी? अगर तुम्हें मंजूर नहीं, तो मैं तुम्हें जबर्दस्ती मजबूर नहीं करूँगा। लेकिन मैं उनसे अपना संबंध बनाये रखूँ, इसकी इजाजत तुम्हें देनी होगी।’’
प्रभा ने कहा था, ‘‘पहले उनसे मिलवाओ तो!’’ और जब मैं उसे साथ लेकर सुकुमार के घर गया था, तो उसने बड़ी खूबसूरती से उन लोगों के साथ अपना रिश्ता जोड़ा था। दमयंती जी से उसने कहा था, ‘‘माताजी, मेरे सास-ससुर नहीं हैं। क्या आप लोग मेरे सास-ससुर बनना पसंद करेंगे?’’ और दमयंती जी ने कहा था, ‘‘हमारी भी अभी तक कोई बहू नहीं है। सो आज से तुम हमारी बहू हुईं।’’
यह रिश्ता तब से अब तक दोनों तरफ से बड़े प्रेम से निभाया जाता रहा है। तो आज प्रभा को क्या हो गया है? सीधे पूछना मैंने उचित नहीं समझा, इसलिए थोड़ा घुमा-फिराकर पूछा, ‘‘नाटक देखे बिना ही तुम उसकी इतनी कटु आलोचक क्यों बन बैठी हो?’’
‘‘बात नाटक की नहीं, सुकुमार जी के पूरे एटीट्यूड की है। दलित हैं तो दलितों वाला लेखन करें। दलित साहित्य तो आधुनिक, बल्कि उत्तर-आधुनिक साहित्य है। उसमें वेदों-पुराणों वाले विषय उठाने का क्या मतलब? ऐसा करके क्या वे सवर्ण साहित्यकार बनना चाहते हैं? क्या उन्हें पता नहीं है कि इंसान अपना धर्म वगैरह चाहे बदल ले, अपनी जाति कभी नहीं बदल सकता? आज के अखबार में जब से मैंने पढ़ा है कि दलित लेखक भी सुकुमार जी का साथ नहीं दे रहे हैं, तभी से सोच रही हूँ कि सुकुमार जी अपने पैरों पर खुद ही कुल्हाड़ी क्यों मार रहे हैं?’’
‘‘यह काम वे आज से नहीं, शुरू से कर रहे हैं। लेकिन यह काम वे ब्राह्मण या ब्राह्मणवादी बनने के लिए नहीं कर रहे हैं। यह काम वे साहित्यिक मान्यता प्राप्त करने के लिए भी नहीं कर रहे हैं। लिखना उनके लिए व्यवस्था को बदलने का काम है। बड़े-बड़े विद्वान, इतिहासकार और समाजशास्त्री यह मानते हैंµऔर जातिवादी राजनीति करने वाले लोग तो हजारों तरह से रोजाना कहते ही हैंµकि जाति की व्यवस्था को बदला नहीं जा सकता। लेकिन सुकुमार जी अपने हर नाटक में यह दिखाते हैं कि जाति-व्यवस्था बदलती रही है और उसे बदला जा सकता है।’’
‘‘लेकिन क्या सफेद पर काला पोतने से यह काम हो जायेगा?’’ प्रभा ने अपने गुस्से का सुराग-सा देते हुए कहा, ‘‘सत्य को असत्य कहने से क्या वह असत्य हो जायेगा? सत्यवादी हरिश्चंद्र लोगों के मन में बैठे हुए हैं, कोई लाख कोशिश कर ले, उन्हें असत्यवादी बताकर वहाँ से हिला नहीं सकता।’’
‘‘तो यह सुकुमार जी की समस्या है, तुम क्यों नाराज हो रही हो?’’
‘‘क्योंकि तुम उस नाटक की समीक्षा लिखने जा रहे हो। वे तुम्हारे गुरु हैं, पिता समान हैं, उनकी आलोचना तो तुम कर नहीं सकते। नाटक की प्रशंसा ही करोगे। नतीजा क्या होगा? दलित और गैर-दलित दोनों तुम्हारे भी पीछे पड़ जायेंगे। दो पाटों के बीच में गेहूँ के साथ-साथ घुन भी पिस जायेगा।’’
‘‘ओ, अच्छा! अब समझा! तुम मेरे साहित्यिक भविष्य को लेकर चिंतित हो!’’ मैंने हँसते हुए कहा।
प्रभा ने कोई उत्तर नहीं दिया, तो मैंने खाने की प्लेट से ध्यान हटाकर उसकी तरफ देखा। वह मेरी नहीं, अपने बेटों की बातें सुन रही थी।
विजय को राजा हरिश्चंद्र की कहानी सुनाते हुए जय कह रहा था, ‘‘तो इंद्रा ने उसका टेस्ट लेने के लिए रिशी विश्वामित्रा को बैगर बनाके उसके पास भेजा। विश्वामित्रा बैगर बनके गया, तो हरिश्चंद्रा ने पूछाµबोल, क्या माँगता है? विश्वामित्रा बोलाµआइ वांट योर होल किंगडम...’’
‘‘जय!’’ अचानक प्रभा जोर से चिल्लायी, ‘‘यह क्या हो रहा है? इंद्रा, विश्वामित्रा, हरिश्चंद्रा--यह क्या है?’’
‘ममा, मैंने अपनी इंग्लिश की बुक में जो स्टोरी पढ़ी है, वो ही सुना रहा हूँ।’’
‘‘हाँ, लेकिन यह इंद्रा-विंद्रा क्या है? इंद्र, विश्वामित्र और हरिश्चंद्र नहीं बोल सकते तुम?’’
‘‘ममा, मैंने जो पढ़ा है, वही बोल रहा हूँ। आइ एन डी आर एµइंद्रा। स्कूल में सब ऐसे ही बोलते हैं। टीचर्स भी।’’
‘‘वहाँ सब होंगे अंग्रेज! पर अपने घर में तो तुम इंद्र को इंद्र बोल सकते हो? कोई सुनेगा, तो क्या कहेगा कि हिंदी के प्रोफेसर और राइटर चंडीप्रसाद पंडित के बेटों को इंद्र बोलना भी नहीं आता!’’
मैंने देखा कि लड़के खाना खत्म कर चुके हैं और प्रभा उन्हें लेक्चर पिलाने के मूड में है, तो लड़कों को इशारा किया कि ‘सॉरी’ बोलकर दोनों अपने कमरे में जायें। लड़कों ने इशारा समझा, झटपट यही किया और चले गये।
प्रभा ने मेरी तरफ देखा, ‘‘सत्यानाश हो इंग्लिश मीडियम की इस पढ़ाई का! बच्चे अपने देवताओं, ऋषि-मुनियों और महापुरुषों के नामों का सही उच्चारण तक नहीं कर सकते!’’
‘‘और यह नहीं सुना कि ‘विश्वामित्रा को बैगर बनाके भेजा’? बैगर!’’ कहते-कहते मुझे हँसी आ गयी और मैं जोर से हँस पड़ा।
प्रभा ने जलती आँखों से मेरी तरफ देखा और मेज पर से बर्तन समेटने लगी। उसके गुस्से से बचने के लिए मैंने अपने जूठे बर्तन उठाये और रसोईघर में जाकर सिंक में रख दिये। अपनी स्टडी की तरफ जाते हुए मैं बच्चों के कमरे के सामने से गुजरा, तो पाया कि दरवाजा खुला है, दोनांे लड़के पलंग पर लेटे-बैठे हैं और राजा हरिश्चंद्र की कहानी जारी है।
‘‘वो रियल राजा नहीं है, बुद्धू! वो तो एक कैरेक्टर है!’’ जय कह रहा था।
मेरी इच्छा हुई कि जाकर प्रभा से कहूँ--लड़के जैसे भी हैं, काफी समझदार हैं। लेकिन मैं मुस्कराता हुआ अपनी स्टडी की ओर बढ़ गया।
मैंने घड़ी देखी। एक बजा था। रामाधार ठाकुर के दफ्तर की गाड़ी मुझे दो बजे लेने आने वाली थी। मैंने सोचा, ‘असत्य हरिश्चंद्र’ देखने जाने से पहले भारतेंदु हरिश्चंद का लिखा नाटक ‘सत्य हरिश्चंद्र’ एक बार उलट-पलटकर देख लेना ठीक रहेगा। सो मैंने अपनी किताबों में से ‘सत्य हरिश्चंद्र’ नाटक निकाला और पढ़ने बैठ गया। ‘उपक्रम’ शीर्षक से लिखी गयी भूमिका में भारतेंदु ने लिखा थाµ‘‘जब हरिश्चंद्र के पिता त्रिशंकु ने इसी शरीर से स्वर्ग जाने के हेतु वशिष्ठ जी से कहा तो उन्होंने उत्तर दिया कि यह अशक्य काम हमसे न होगा...’’
मैंने भारतेंदु की भूल पकड़ी। उन्होंने ‘वसिष्ठ’ को ‘वशिष्ठ’ लिखा था और उसके आगे ‘जी’ भी लगाया था, जबकि उनसे कहीं ज्यादा बड़े और बेहतर ऋषि विश्वामित्र को अनादर के साथ केवल विश्वामित्र लिखा था!
भारतेंदु की भूल पकड़ने के चक्कर में मैं नाटक पढ़ना भूल गया और उन दिनों को याद करने लगा, जब अपने शोधकार्य के सिलसिले में शिखर सुकुमार के घर मेरा आना-जाना बहुत बढ़ गया था। मैं उनके परिवार के सदस्य जैसा हो गया था। यों विश्वविद्यालय द्वारा नियुक्त मेरे शोध निर्देशक प्रोफेसर डी.के. राय थे, लेकिन वास्तव में मेरा निर्देशन शिखर सुकुमार ही कर रहे थे। मैं उन्हें ‘सर’ कहना छोड़ ‘गुरुजी’ कहने लगा था और गुरु पत्नी के नाते दमयंती जी को माताजी। वे भी मुझे पुत्रवत मानने लगी थीं। एक दिन जब मैं उनके घर की बैठक में बैठा सुकुमार से कुछ चर्चा कर रहा था, वे एक अधबुना स्वेटर, सलाइयाँ और ऊन का गोला लिये हुए आयीं और सामने बैठकर स्वेटर बुनने लगीं।
बातों-बातों में दमयंती जी ने कहा, ‘‘चंडी मेरा बड़ा बेटा है, अतुल छोटा।’’
‘‘आप अद्भुत माँ हैं!’’ सुकुमार ने हँसकर कहा, ‘‘पहले आपको छोटा बेटा होता है, बाद में बड़ा!’’
फिर उसी विनोद भाव से उन्होंने मुझसे कहा, ‘‘तुम भी बड़े अजीब द्विज हो, चंडीप्रसाद! तुम्हारा पहला जन्म ब्राह्मणों में हुआ है, दूसरा शूद्रों में!’’
‘‘अच्छा ही है न, गुरुजी!’’ मैंने भी हँसते हुए कहा, ‘‘साहित्य में ब्राह्मणों की संख्या बहुत बड़ी है। इसलिए प्रतिस्पर्धा भी बहुत कड़ी है। पता नहीं, कब मान्यता मिले! दूसरी तरफ दलित साहित्य नया है, दलित लेखक भी कम ही हैं, सो दलित लेखक के रूप में मुझे मान्यता जल्दी मिल जायेगी! वाल्मीकि पहले दलित लेखक थे, उन्हें झटपट मान्यता मिल गयी होगी!’’
सुकुमार मुस्कराये, ‘‘वाल्मीकि का उदाहरण सही नहीं है, चंडीप्रसाद! वाल्मीकि शूद्र थे, लेकिन उनकी ‘रामायण’ दलित साहित्य नहीं है। वह ब्राह्मणवादी साहित्य ही है। वह वर्ण-व्यवस्था को चुनौती देने वाला साहित्य नहीं, बल्कि उसको मजबूत बनाने वाला साहित्य है। वाल्मीकि ने यह तो सिद्ध कर दिखाया कि शूद्र भी श्रेष्ठ साहित्यकार हो सकते हैं, लेकिन अनजाने ही उन्होंने अपने उदाहरण से यह भी सिद्ध किया कि इसके लिए उनका ब्राह्मणवादी होना जरूरी है, उसी वर्ण-व्यवस्था को मजबूत बनाना जरूरी है, जिसने उन्हें व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर रख छोड़ा है! वाल्मीकि की जाति आसानी से दिख जाती है, लेकिन उनकी रचना में मौजूद ब्राह्मणवाद आसानी से नहीं दिखता।’’
मैंने पूछा, ‘‘उसे कैसे देखा जा सकता है, गुरुजी?’’
‘‘उसे देखने के लिए समाज में होने वाले संघर्षों को देखो। देखो कि वह संघर्ष क्या है, क्यों है, किनके बीच है और किसलिए है। मैं अपने नाटकों में बार-बार युद्ध की थीम क्यों लेता हूँ? अपने पहले नाटक में मैंने राम-रावण युद्ध को लिया। दूसरे नाटक में कौरवों-पांडवों के युद्ध को लिया। तीसरे नाटक में वैदिक काल के देवासुर संग्राम को लिया। अपना अगला नाटक मैं वसिष्ठ और विश्वामित्र के बीच के संघर्ष पर लिखने की सोच रहा हूँ। तुमने वसिष्ठ और विश्वामित्र के संघर्ष पर कभी गौर किया है? उन दोनों के बीच का संघर्ष क्या है?’’
मैंने संकोचपूर्वक उत्तर दिया, ‘‘गुरुजी, मैं ज्यादा नहीं जानता। इतना ही जानता हूँ कि वसिष्ठ ब्राह्मण ऋषि थे और विश्वामित्र क्षत्रिय राजा। वसिष्ठ के पास एक गाय थी कामधेनु, जिससे जो चाहो मिल जाता था। ऐसी गाय जिसके पास हो, उसे और क्या चाहिए? विश्वामित्र ने वसिष्ठ के पास वह गाय देखी, तो बोले कि यह गाय हमें दे दो। वसिष्ठ ने नहीं दी, तो कहा कि इसे हमें बेच दो और बदले में जो चाहो, कीमत हमसे ले लो। वसिष्ठ ने गाय बेचने से भी इनकार कर दिया, तो विश्वामित्र ने उसे जबर्दस्ती ले जाने के लिए वसिष्ठ के आश्रम पर अपनी सेना के साथ आक्रमण कर दिया। लेकिन कामधेनु ने वसिष्ठ के कहने पर अपनी एक हुंकार से वीरों की ऐसी सेना पैदा कर दी कि विश्वामित्र की सेना उससे हार गयी। इससे विश्वामित्र को लगा कि असली शक्ति क्षत्रिय राजाओं के पास नहीं, ब्राह्मण ऋषियों के पास है। हम तो केवल राजर्षि हैं। वसिष्ठ ब्रह्मर्षि हैं। सो विश्वामित्र ने ब्रह्मर्षि बनने की ठान ली। इसके लिए उन्होंने घोर तपस्या की और आखिरकार ब्रह्मर्षि बन गये।’’
‘‘बस?’’ दमयंती जी ने कहा, ‘‘चंडी, तुम्हें कहानी सुनाना नहीं आता। इतनी बड़ी कथा दो मिनट में सुना दी। कोई कथावाचक पंडित होता, तो रस ले-लेकर दो घंटे में सुनाता।’’
‘‘दो घंटे में?’’ सुकुमार मुस्कराये, ‘‘वसिष्ठ-विश्वामित्र के संघर्ष की पूरी कहानी तो दो सौ साल में भी नहीं सुनायी जा सकती। पहली बात तो यह कि उनकी पूरी कहानी जान पाना ही मुश्किल है। फिर उसमें एक सिलसिला बिठा पाना तो और भी मुश्किल। मैं कई साल से इसी कोशिश में लगा हूँ। ऋग्वेद से लेकर तमाम पौराणिक गं्रथों, महाकाव्यों, नाटकों और दूसरे कई रूपों में कहीं न कहीं इन दोनों के आपसी संघर्ष की कथा मिल जायेगी। कामधेनु वाला प्रसंग तो उस कथा का एक बहुत छोटा-सा अंश है।’’
दमयंती जी ने उनसे पूछा, ‘‘तो तुम्हारे हिसाब से वह संघर्ष क्या है?’’
सुकुमार ने उत्तर दिया, ‘‘सत्ता का संघर्ष। कहीं सीधे-सीधे राज्यसत्ता के लिए संघर्ष, तो कहीं सामाजिक शक्ति या ज्ञान-विज्ञान की शक्ति के जरिये राज्यसत्ता पर परोक्ष नियंत्रण के लिए संघर्ष। मतलब, राजा कोई और है, लेकिन राजा का गुरु या पुरोहित कोई और है, जो परोक्ष रूप में राज्यसत्ता को नियंत्रित करता है। सीधे-सीधे राज्यसत्ता के लिए संघर्ष इस रूप में होता है कि राज्यसत्ता कभी क्षत्रियों के पास रहती है, तो कभी ब्राह्मणों के पास। इसलिए राजा हमेशा क्षत्रिय ही नहीं हुए हैं। राजा ब्राह्मण भी हुए हैं। एक-दूसरे का राज्य छीनने के लिए उनमें लड़ाइयाँ भी हुई हैं, जिनमें कभी क्षत्रिय जीते हैं, तो कभी ब्राह्मण जीते हैं। लेकिन अक्सर दोनों के बीच यह समझौता रहा है कि आओ, दोनों मिलकर राज करें और अपने-अपने काम बाँट लें। क्षत्रियों के पास बल है, तो ब्राह्मणों के पास बुद्धि। सो क्षत्रिय राजा रहें और ब्राह्मण उनके गुरु या पुरोहित। यानी राज्य की नीतियाँ और कानून ब्राह्मण बनायेंगे और उन्हें लागू करेंगे क्षत्रिय!’’
‘‘लेकिन विश्वामित्र तो क्षत्रिय था और बड़ा शक्तिशाली राजा भी। उसे वसिष्ठ की तरह ब्राह्मण या ब्रह्मर्षि बनने की क्या पड़ी थी?’’ दमयंती जी ने पूछा।
‘‘विश्वामित्र ने शायद देख लिया था कि राजा के पास वह ताकत नहीं, जो उसके पुरोहित के पास है। लेकिन यह देखो कि महाकाव्यों का--यानी रामायण और महाभारत काµसमय तो ऋग्वेद की तुलना में बहुत बाद का है, जबकि वसिष्ठ और विश्वामित्र ऋग्वेद में भी मौजूद हैं। राजा सुदास का पुरोहित पहले विश्वामित्र था। फिर उसे हटाकर वसिष्ठ बन गया। इस तरह विश्वामित्र के हाथ से सत्ता छिन गयी, तो वह सुदास का शत्रु हो गया और दाशराज्ञ युद्ध में सुदास के विरुद्ध लड़ा। इतना ही नहीं, सुदास की मृत्यु के बाद सौदासों का, यानी सुदास के वंशजों का पुरोहित फिर से विश्वामित्र बना।’’
मैंने चकित होकर पूछा, ‘‘गुरुजी, राजा बदलते रहते हैं, लेकिन उनके पुरोहित कभी वसिष्ठ और कभी विश्वामित्र ही कैसे रहते हैं? ये दोनों क्या अजर-अमर थे?’’
‘‘नहीं, भाई! ये व्यक्तियों के नहीं, वंशों के नाम लगते हैं। जैसे राजवंश पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलते थे, वैसे ही ऋषियों के वंश भी चलते होंगे। जिस तरह राजवंशों में आपसी संघर्ष होते थे, वैसे ही ऋषिवंशों में भी आपसी संघर्ष होते होंगे। लेकिन एक मजेदार बात बताऊँ? यह जो विश्वामित्र है, चाहे वह एक व्यक्ति हो या एक परंपरा, मुझे बड़ा क्रांतिकारी चरित्र लगता है। वसिष्ठ बहुत शक्तिशाली है, लेकिन विश्वामित्र के मुकाबले वह काफी रूढ़िवादी, पुरातनपंथी और षड्यंत्रकारी लगता है; जबकि विश्वामित्र काफी प्रगतिशील, नयी सोच वाला और क्रांतिकारी।’’
"क्यों?"
‘‘त्रिशंकु की कहानी याद करो!’’ सुकुमार ने कहा और स्वयं ही कहानी सुनाना शुरू कर दिया, ‘‘त्रिशंकु अयोध्या पर राज करने वाले उसी इक्ष्वाकु वंश का एक राजा था, जिसमें तीस-पैंतीस पीढ़ियों के बाद दशरथ और राम पैदा हुए। वसिष्ठ दशरथ और राम के समय में भी अयोध्या का राजपुरोहित था और उनसे कई पीढ़ियों पहले त्रिशंकु के समय में भी। त्रिशंकु का पिता अरुण एक कमजोर-सा राजा था। त्रिशंकु उसका बिगड़ैल बेटा था। त्रिशंकु अपनी जवानी के दिनों में कहीं से एक विवाहित ब्राह्मण स्त्री को उड़ा लाया। वसिष्ठ को यह बात बहुत बुरी लगी। ब्राह्मणों की बनायी वर्ण-व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण तो शेष तीनों वर्णों की स्त्रियों को भोग सकते थे, लेकिन उनकी स्त्रियों को किसी और वर्ण का व्यक्ति भोगे, यह उन्हें मंजूर नहीं था। सो वसिष्ठ ने राजा को आज्ञा दी कि त्रिशंकु को घर से और राज्य से निकाल दो। राजा था कमजोर, उसने अपने इकलौते बेटे त्रिशंकु को जंगल में हँकाल दिया। उसके बाद वह खुद भी रोता-धोता जंगल में चला गया। या क्या पता, वसिष्ठ ने ही उसे राज्य से निकाल दिया हो, क्योंकि उसके जाने के बाद वसिष्ठ खुद अयोध्या का राजा बन बैठा। लेकिन राजा का पुरोहित होने और खुद राजा बनकर राजकाज करने में फर्क है। वसिष्ठ ने नौ साल अयोध्या पर राज किया और सब चौपट कर डाला। आखिर त्रिशंकु ने ही जंगल से आकर अपना राजपाट सँभाला और वसिष्ठ को हटाकर विश्वामित्र को अपना पुरोहित बनाया।’’
दमयंती जी ने कहा, ‘‘वसिष्ठ क्या इतना कमजोर था कि त्रिशंकु ने उसे उसके पद से हटाया और वह हट गया?’’
‘‘नहीं, वसिष्ठ कमजोर नहीं था। उसकी पहुँच ऊपर स्वर्ग तक थी। वह देवताओं की बनायी व्यवस्था को बनाये रखने का काम करता था, इसलिए बड़ा शक्तिशाली था। स्वर्ग की व्यवस्था यह थी कि पृथ्वी के कुछ खास ब्राह्मण और क्षत्रिय ही जीते जी स्वर्ग जा सकते हैं। सो भी ब्राह्मणों के भेजने पर ही। वसिष्ठ एक तरह से स्वर्ग का वीजा-पासपोर्ट देने वाला ब्राह्मण था। त्रिशंकु को पता था कि वसिष्ठ मुझसे खार खाता है, मुझे सशरीर स्वर्ग जाने की अनुमति कभी नहीं देगा। तब मैं उससे कहूँगा कि विश्वामित्र मेरा यह काम कर सकते हैं, इसलिए आप हटिए, मैं आपकी जगह उनको अपना पुरोहित बनाऊँगा।’’
‘‘और जैसा उसने सोचा था, वैसा ही हुआ?’’
‘‘हाँ, वैसा ही हुआ। त्रिशंकु ने वसिष्ठ से कहा कि मुझे सशरीर स्वर्ग भेजो। वसिष्ठ ने कहा कि यह असंभव है। तब त्रिशंकु वसिष्ठ के बेटों के पास गया और उसने उनसे कहा कि तुम्हारा बाप तो मेरा यह काम कर नहीं रहा, तुम करो। बेटों ने भी मना कर दिया, तो त्रिशंकु ने कहा तुम लोग मेरा यह काम नहीं कर सकते, लेकिन विश्वामित्र कर सकता है। अब मैं उसी को अपना पुरोहित बनाऊँगा। इस पर वसिष्ठ के बेटों ने कुपित होकर उसे शाप दे दिया कि जा, तू चांडाल हो जा!’’
‘‘और एक क्षत्रिय चांडाल बन गया?’’
‘‘इसी से तो पता चलता है कि वर्ण और जाति अपरिवर्तनीय नहीं हैं। वाल्मीकि ने रामायण में इसका अच्छा चित्र खींचा है। उन्होंने त्रिशंकु के रूपांतरण का वर्णन इस प्रकार किया हैµनीलवस्त्रधरो नीलः पुरुषो ध्वस्तमूर्धजः। चित्यमाल्यांगरागश्च आयसाभरणोऽभवत्। अर्थात् चांडाल हो जाने पर त्रिशंकु के शरीर का रंग नीला हो गया, कपड़े भी नीले हो गये, सारा शरीर रूखा-सूखा हो गया, सिर के बाल छोटे हो गये, सारे शरीर में चिता की राख-सी लिपट गयी और यथास्थान लोहे के गहने पड़ गये। इसी रूप में वह विश्वामित्र के पास गया और उसे चांडाल के रूप में देखकर विश्वामित्र के हृदय में करुणा भर आयी। उन्होंने ठान लिया कि वे लोग इसे शाप देकर नीचतम जाति का चांडाल बना सकते हैं, तो मैं अपने ज्ञान-विज्ञान से इसे सर्वोच्च स्वर्ग में पहुँचा सकता हूँ। इस प्रकार यह कथा बताती है कि वर्ण और जाति का ऊपर से नीचे की तरफ और नीचे से ऊपर की तरफ बदलना संभव है।’’
‘‘लेकिन त्रिशंकु स्वर्ग पहुँचा कहाँ?’’
‘‘कैसे पहुँचता? वसिष्ठ की विश्वामित्र से पुरानी दुश्मनी थी और स्वर्ग के राजा इंद्र से पुरानी दोस्ती। सो वसिष्ठ ने इंद्र से कहा कि विश्वामित्र त्रिशंकु को स्वर्ग भेजेगा और वह स्वर्ग में आ गया, तो तुम्हारी जगह वही स्वर्ग का राजा होगा। इंद्र वैसे काफी शक्तिशाली थाµसबसे अच्छे, सबसे सुंदर, सबसे बड़े, सबसे समृद्ध, सबसे शक्तिशाली और सर्वोच्च राज्य का राजाµलेकिन उसे अपना राजसिंहासन छिन जाने का डर लगा रहता था। किसी और राज्य में अगर कोई बंदा त्याग, तपस्या, वीरता वगैरह के बल पर उन्नति करने और प्रसिद्धि पाने लगता, तो उसे लगने लगता कि उसका सिंहासन डोल रहा है और वह उस बंदे की तपस्या भंग करा देता या छल-बल से उसे स्वर्ग आने से रोक देता। यही उसने त्रिशंकु के साथ किया। विश्वामित्र ने उसे जीते जी स्वर्ग भेजा, इंद्र ने उसे बीच में ही रोक दिया। त्रिशंकु बेचारा बीच में ही लटका रह गया। लेकिन विश्वामित्र यों हार मानकर बैठ जाने वाला नहीं था। उसने कहाµइस दुनिया में लोगों को जीते जी स्वर्ग नहीं मिल सकता, तो मैं दूसरी दुनिया बनाऊँगा। सृष्टि की प्रतिसृष्टि। और उसने अपनी दूसरी दुनिया बनाना शुरू कर दिया। यह देखकर दुनिया पर शासन करने वाले देवता घबरा गये। उन्होंने अपने सबसे बड़े देवता ब्रह्मा को भेजा और ब्रह्मा ने किसी तरह समझा-बुझाकर विश्वामित्र को दूसरी दुनिया बनाने से रोका।’’
‘‘यह दूसरी दुनिया वाला आइडिया जोरदार है।’’ दमयंती जी ने कहा, ‘‘आजकल वर्ल्ड सोशल फोरम वाले यही नारा तो दे रहे हैंµ‘एनअदर वर्ल्ड इज पॉसिबल! दूसरी दुनिया संभव है!’ तुम इसी पर अपना नया नाटक लिखो।’’
‘‘विश्वामित्र पर नाटक लिखने का विचार मेरे मन में पहले से ही है। दरअसल उसी के लिए मैं तमाम पुराने ग्रंथों की खाक छान रहा हूँ। लेकिन वसिष्ठ और विश्वामित्र की कथा की बुनावट दो सलाइयों से आप जो एक उलटे और एक सीधे फंदे वाली सादा बुनाई कर रही हैं, वैसी नहीं है। लगता है, जैसे उसे चार-चार सलाइयों से कुछ अजीब-से फंदे डालकर बुना गया है।’’
अपनी लिखने-पढ़ने की मेज पर बैठे-बैठे न जाने कब मेरी आँख लग गयी थी। भारतेंदु हरिश्चंद्र का नाटक ‘सत्य हरिश्चंद्र’ मेरे सामने खुला हुआ था और मैं वसिष्ठ-विश्वामित्र की कहानी में खोया हुआ था। अचानक प्रभा मेरे कमरे में आयी और बोली, ‘‘बैठे-बैठे सो रहे हो?’’
‘‘नहीं, पढ़ रहा हूँ। पढ़ते-पढ़ते कुछ सोचने लगा था।’’
‘‘क्या पढ़ रहे हो?’’ उसने मेरी आरामकुर्सी पर बैठते हुए कहा।
‘‘भारतेंदु हरिश्चंद्र का लिखा नाटक ‘सत्य हरिश्चंद्र’। तुमने पढ़ा है?’’
‘‘नहीं। कैसा है?’’
‘‘हिंदी के आरंभिक नाटकों में से है। 1876 में छपा था। इसके पहले राजा हरिश्चंद्र की कथा पर संस्कृत में दो नाटक लिखे गये थेµएक क्षेमेश्वर का ‘चंडकौशिक’ और दूसरा रामचंद्र का ‘सत्य हरिश्चंद्र’। भारतेंदु का ‘सत्य हरिश्चंद्र’ क्षेमेश्वर के ‘चंडकौशिक’ पर आधारित है।’’
‘‘तुमने संस्कृत के ये नाटक पढ़े हैं?’’
‘‘नहीं, लेकिन सुकुमार जी के पास जरूर होंगे। उनसे लेकर पढ़ लूँगा।’’
‘‘वैसे अपने भारतंेदु जी थे बड़े साहसी! एक नाटक का नाम उड़ा लिया और दूसरे का प्लॉट!’’ प्रभा ने हँसते हुए कहा। लेकिन अगले ही क्षण गंभीर होकर बोली, ‘‘चंडकौशिक माने?’’
‘‘विश्वामित्र को चंडकौशिक भी कहते हैं। ‘चंड’ इसलिए कि उनके विरोधी उन्हें बहुत उग्र, उद्धत या क्रोधी मानते थे और ‘कौशिक’ इसलिए कि वे कुशिक नामक क्षत्रिय वंश में पैदा हुए थे। वैसे पॉजिटिव सेंस में ‘चंड’ का अर्थ होता हैµतेज, प्रखर, प्रबल या बलवान। और ये सारे गुण विश्वामित्र में थे। ‘चंडकौशिक’ नाटक में शायद उनका नेगेटिव रूप उभारा गया होगा। भारतेंदु ने भी विश्वामित्र को सत्यवादी हरिश्चंद्र को तमाम दुख देने वाले दुष्टात्मा के रूप में दिखाया है।’’
‘‘वह कैसे?’’
‘‘ऐसे कि सत्यवादी हरिश्चंद्र का यश दुनिया भर में फैलने लगता है, तो इंद्र को अपना सिंहासन डोलता महसूस होने लगता है। वह हरिश्चंद्र को सत्य से डिगाने के लिए विश्वामित्र को उसकी परीक्षा लेने के लिए प्रेरित करता है। विश्वामित्र एक क्रोधी ब्राह्मण बनकर आते हैं और हरिश्चंद्र का सारा राज्य दान में लेकर ऊपर से दक्षिणा के रूप में एक हजार स्वर्णमुद्राएँ माँगते हैं...’’
‘‘अच्छा-अच्छा, मैं समझ गयी। यह तो बहुत बार सुनी हुई कहानी है। फिल्मों और टी.वी. सीरियलों में भी आ चुकी है। राजा हरिश्चंद्र विश्वामित्र को दक्षिणा देने के लिए खुद को काशी के एक डोम के हाथ बेच देता है और डोम की सेवा में सच्चा रहने के लिए अपने बेटे रोहिताश्व का दाह-संस्कार करने श्मशान में आयी अपनी पत्नी शैव्या तारामती से भी आधा कफन माँगता है।’’
‘‘हाँ, लेकिन मुझे लगता है, सुकुमार जी ने अपने नाटक में विश्वामित्र को दुष्ट खलनायक नहीं, बल्कि पॉजिटिव हीरो बनाया होगा।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘एक बार उन्होंने बताया था कि वे वसिष्ठ और विश्वामित्र के संघर्ष पर नाटक लिखना चाहते हैं। उनके विचार से वसिष्ठ स्वार्थी, धूर्त, षड्यंत्रकारी और यथास्थितिवादी है, जबकि विश्वामित्र त्यागी, तपस्वी, परोपकारी और क्रांतिकारी।’’
‘‘अच्छा, तो यह बताओ कि विश्वामित्र का नाम विश्वामित्र क्यों है? नाम से क्या यह नहीं लगता कि वह खुद पूरी दुनिया का दुश्मन है या पूरी दुनिया उसे अपना दुश्मन समझती है?’’
‘‘नहीं, विश्वामित्र का अर्थ विश्व का अमित्र या दुनिया का दुश्मन नहीं होता। हालाँकि हमारे भारतेंदु जी ने अपने नाटक में इसका अर्थ ‘विश्व का अमित्र’ ही किया हैµनारद के मुँह से यही कहलाया हैµलेकिन वास्तव में विश्वामित्र का अर्थ होता है विश्व का मित्र। संस्कृत व्याकरण में एक नियम हैµ‘पूर्वपदस्याकारस्य दीर्घः’। इस नियम के अनुसार ‘विश्व’ का ‘विश्वा’ हो जाता है। लेकिन विश्वामित्र का अर्थ विश्व का मित्र ही होता हैµ‘विश्वमेव मित्रं यस्य’--यानी संपूर्ण विश्व ही जिसका मित्र है! सुकुमार जी ने अपने नाटक में विश्वामित्र का यही अर्थ किया होगा और...’’
‘‘संस्कृत व्याकरण मैंने नहीं पढ़ा, लेकिन यह बताओ कि सुकुमार जी को वसिष्ठ और विश्वामित्र के झगड़े में पड़ने की और उसमें विश्वामित्र के पक्ष से बोलने की क्या पड़ी है?’’
‘‘ठीक-ठीक तो मुझे भी नहीं मालूम, लेकिन वर्षों से जो बातचीत उनसे होती रही हैµऔर उनके प्रति लोगों का जो रुख-रवैया मैं देखता रहा हूँµउससे ऐसा लगता है, जैसे सुकुमार जी स्वयं को कहीं न कहीं विश्वामित्र से आइडेंटिफाइ करते हैं।’’
‘‘कैसे?’’
‘‘देखो, दलित होकर भी उन्होंने आरक्षण का लाभ नहीं उठाया। दुसाध होकर भी उन्होंने वेदों, पुराणों और संस्कृत साहित्य का बाकायदा अध्ययन किया। एक्सीलेंट एकेडेमिक कैरियर था उनका। चाहते, तो आइ.ए.एस. वगैरह बन सकते थे। मगर उन्होंने लेखक बनने का फैसला किया। वे अंग्रेजी इतनी अच्छी लिखते-बोलते हैं कि मजे में ‘अंग्रेजी में लिखने वाले भारतीय लेखक’ बन सकते थे। जिन विषयों पर वे लिखते हैं, उन पर लिखी चीजों की पश्चिमी देशों में भारी माँग है। वे चाहते, तो उस माँग की पूर्ति करने वाली चीजें लिखकर विश्वस्तरीय लेखक बन सकते थे। यूरोप या अमरीका में जाकर बस सकते थे। ये सारी संभावनाएँ होने के बावजूद उन्होंने अपने देश में ही रहने का, अपनी भाषा में ही लिखने का और अपने लोगों के लिए ही लिखने का फैसला किया...’’
‘‘अपने ही लोगों के लिए...?’’
‘‘दलित, पिछड़े, गरीब लोगों के लिए। एक बार मैंने उनसे पूछा था कि आपने साहित्य की दूसरी विधाओं में न लिखकर केवल नाटक ही लिखने का फैसला क्यों किया, तो उन्होंने बताया कि नाटक को पाँचवाँ वेद कहते हैं और यह पाँचवाँ वेद उनके लिए बनाया गया है, जो वेद-पुराण पढ़ नहीं सकते या जिनके लिए उनका पढ़ना निषिद्ध है। और अपने देश में आज ऐसे लोग कौन हैं? वे ही, जो गरीब हैं और गरीबी की वजह से शिक्षा और साहित्य से वंचित हैं। ये ही सुकुमार जी के अपने लोग हैं।’’
‘‘हाँ, यह तो मैं समझ गयी, लेकिन इसमें विश्वामित्र से आइडेंटिफाइ करने वाली क्या बात है?’’
‘‘विश्वामित्र ने अपनी एक अलग दुनिया बनायी थी। सुकुमार जी ने भी अपनी एक अलग नाट्य संस्था बनायी है। उसके नाटककार, निर्देशक और व्यवस्थापक वे ही हैं। उसकी एक अलग ही पहचान है--शिखर थियेटर, शिखर रंगमंच। वे अपने नाटक बिना किसी तामझाम के कम से कम खर्च में और सबसे सस्ते टिकट लगाकर करते हैं। कहीं से फंडिंग कराये बिना सिर्फ दर्शकों के बलबूते पर इतने अच्छे, इतने सफल और लगातार नाटक करने वाली संस्था शहर में एक ही है--‘शिखर’!’’
‘‘हाँ, इस लिहाज से तो वे वाकई सबसे अलग और अनोखे हैं।’’
‘‘विश्वामित्र भी ऐसे ही सबसे अलग और अनोखे चरित्र हैं। उन्होंने अपने समय के विश्व की व्यवस्था को अच्छी तरह समझ लिया था और उसे वे बदलना चाहते थे। सुकुमार जी ने एक बार मुझे विस्तार से बताया था कि वर्ण और जाति की व्यवस्था कोई प्राकृतिक, शाश्वत और अपरिवर्तनीय व्यवस्था नहीं है। यह बनायी गयी है। यह व्यवस्था उन देवताओं ने बनायी है, जो स्वर्ग में रहते हैं। स्वर्ग में देखो, तो छोटे-बड़े देवता तो मिलेंगे, लेकिन उनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जैसे भेद नहीं मिलेंगे। क्यों? इसलिए कि स्वर्ग का मतलब है शासक वर्ग...’’ कहते-कहते मुझे हँसी आ गयी।
प्रभा ने पूछा, ‘‘हँस क्यों पड़े?’’
मैंने कहा, ‘‘एक मजेदार बात याद आ गयी। एक दिन मैं सुकुमार जी के घर बैठा था और वे स्वर्ग की अपनी यह व्याख्या मुझे बता रहे थे। अतुल भी पास बैठा हमारी बातचीत सुन रहा था। बोला, ‘स्वर्ग को रोमन में लिखिए और ‘एस’ को अलग करके उसके आगे फुलस्टॉप लगा दीजिए। हो गया एस. वर्ग। एस वर्ग यानी शासक वर्ग। यानी स्वर्ग। अतुल की इस अनोखी व्याख्या पर सुकुमार जी ने हँसते हुए उसे शाबाशी दी। तब से जब भी मैं स्वर्ग के बारे में पढ़ता-सुनता या कुछ कहता हूँ, मुझे इस बात को याद करके हँसी आ जाती है।’’
‘‘बात में दम तो है।’’ प्रभा ने कहा, ‘‘आज की दुनिया का असली शासक वर्ग कौन है? कॉरपोरेट सेक्टर। उसमें छोटे और बड़े तो हैं, लेकिन उनमें कौन किस जाति का, किस धर्म का या किस देश का है, इस सबको लेकर कोई भेदभाव नहीं है। सब कॉरपोरेट हैं। सब मल्टीनेशनल हैं। सब ग्लोबल हैं।’’
‘‘वाह! तुमने तो सुकुमार जी की व्याख्या को और विस्तार दे दिया!’’
‘‘लेकिन अभी भी मेरी समझ में यह नहीं आया कि सुकुमार जी विश्वामित्र से खुद को आइडेंटिफाइ क्यों और कैसे करते हैं?’’
‘‘सुकुमार जी का कहना है कि वर्णों और जातियों की व्यवस्था स्वर्ग में रहने वाले देवताओं ने बनायी है। लेकिन अपने लिए नहीं, बल्कि पृथ्वी पर रहने वाले लोगों के लिए। पृथ्वी यानी हमारा समाज। और देवता यानी शासक वर्ग। ‘डिवाइड एंड रूल’ की नीति आज की या सिर्फ अंग्रेजों के जमाने की नहीं है। यह तो हमेशा से शासक वर्ग की नीति रही है। प्राचीन काल के शासक वर्ग ने हमारे समाज को वर्णों और जातियों में बाँट दिया और यह बात लोगों के मन में भर दी कि यह व्यवस्था शाश्वत है--हमेशा से ऐसी ही रही है और हमेशा ऐसी ही रहेगी। विश्वामित्र ने इस व्यवस्था को चुनौती दी। कहा कि यह व्यवस्था शाश्वत नहीं है। बदलती रही है और बदली जा सकती है। उन्होंने खुद राजर्षि से ब्रह्मर्षि बनकर अपनी बात को सही साबित कर दिखाया।’’
‘‘ओ, अच्छा! अब समझी! शिखर दुसाध से शिखर सुकुमार बनने की कहानी भी तो यही है कि दुसाधों में भी कोई पंडितों का पंडित हो सकता है!’’
‘‘विश्वामित्र के चरित्र का एक और पक्ष देखो। उन्होंने जिस त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेजा, वह क्षत्रिय राजा त्रिशंकु नहीं, ब्राह्मणवादी वसिष्ठ के पुत्रों द्वारा चांडाल बना दिया गया त्रिशंकु था। विश्वामित्र ने इससे यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि पृथ्वी के देवता कहलाने वाले ब्राह्मणों के पास इतनी शक्ति है कि वे शाप देकर एक क्षत्रिय राजा को नीच जाति का चांडाल बना सकते हैं, तो इस व्यवस्था को उचित न मानने वाले लोग एक चांडाल को स्वर्ग में या शासक वर्ग में पहुँचा सकते हैं। विश्वामित्र त्रिशंकु को स्वर्ग में नहीं भेज पाते, क्योंकि देवताओं के पास ताकत ज्यादा है। लेकिन विश्वामित्र ने त्रिशंकु के उदाहरण से यह तो सिद्ध कर ही दिया कि देवताओं की व्यवस्था शाश्वत नहीं है, तथाकथित नीची जातियों के लोग भी शासक बन सकते हैं। वे त्रिशंकु को ऊपर नहीं उठा सके, लेकिन उन्होंने उसे नीचे भी नहीं गिरने दिया। यहाँ तक कि उन्होंने अपनी प्रतिसृष्टि में उसे हमेशा चमकता रहने वाला एक नक्षत्र बनाकर स्थापित कर दिया। इस प्रकार उन्होंने जो किया, वह उनकी असफलता नहीं, बल्कि एक उज्ज्वल संभावना है।’’
‘‘वाह! यह तो बहुत ही बढ़िया व्याख्या है! एकदम नयी!’’
‘‘अब समझीं कि विश्वामित्र विश्व के मित्र क्यों हैं?’’
‘‘हाँ, और यह भी समझी कि वे किनके लिए विश्व के मित्र हैं और किनके लिए विश्व के अमित्र!’’
‘‘तो यह भी समझ लो कि शिखर सुकुमार आज के विश्वामित्र हैं। वे अपने नाटकों के जरिये बार-बार यही सिद्ध कर रहे हैं कि समाज की व्यवस्था शाश्वत नहीं है। वह बदली जानी चाहिए और बदल सकती है।’’
नाटकों की बात सुनते ही प्रभा ने घड़ी की तरफ देखा और बोली, ‘‘अरे, दो बजने वाले हैं! नाटक देखने जाना है या नहीं?’’
ठीक दो बजे रामाधार ठाकुर द्वारा भेजी गयी गाड़ी मुझे लेने आ गयी। उसमें ड्राइवर के अलावा एक रिपोर्टर और एक फोटोग्राफर पहले से मौजूद थे। उन्होंने गाड़ी से उतरकर मेरा अभिवादन किया, अपना परिचय दिया और पीछे की सीट पर मुझे बीच में बिठाकर मेरे अगल-बगल बैठ गये। मैं समझ गयाµओह! मेरे अंगरक्षक!
लेकिन जहाँ नाटक होने वाला था, वहाँ पुलिस के साधारण और सशस्त्र लोग इतनी भारी संख्या में तैनात थे कि दर्शकों की भीड़ के बावजूद गड़बड़ी की कोई आशंका नजर नहीं आ रही थी। मैं प्रेक्षागृह के बाहरी दरवाजे के पास पहुँचा ही था कि भीतरी दरवाजे के पास एक ओर अलग हटकर खड़े सुकुमार किसी से हाथ मिलाते दिखायी पड़े। मैंने उनके पास पहुँचकर अभिवादन किया और पूछा, ‘‘माताजी और अतुल कहाँ हैं?’’
‘‘वे दोनों कल देख चुके।’’ कहते हुए सुकुमार ने मेरे अंगरक्षकों के बारे में पूछा, ‘‘ये लोग?’’
मैंने रामाधार ठाकुर से हुई सुबह वाली बात बताते हुए कहा, ‘‘वे बहुत आतंकित लग रहे थे, पर यहाँ तो सब ठीक लग रहा है।’’
‘‘मीडिया की मेहरबानी है!’’ सुकुमार ने व्यंग्यपूर्वक कहा, ‘‘तुमने शायद देखा नहीं, ज्यादातर खबरों में कल की गड़बड़ी के जिम्मेदार लोगों को नासमझ बताते हुए नाटक को ‘पुरानी कहानी का नया कॉमिक रूप’ और ‘हिलेरियस कॉमेडी’ बताया गया है। मीडिया जिस चीज को नयी और कॉमिक बता दे, वह खतरनाक नहीं रहती। बाजार और सरकार दोनों को स्वीकार्य हो जाती है। और जनता के जीवन में हँसी इतनी कम रह गयी है कि वह कॉमेडी सुनकर कुछ भी देखने को टूट पड़ती है। फिर, ‘शिखर’ के नाटकों के जो स्थायी दर्शक हैं, उन्हें तो आना ही है।’’
मैंने देखा, सचमुच दर्शकों की भीड़ उमड़ पड़ी थी। हॉल के दरवाजे अभी खुले भी नहीं थे, जबकि टिकट खिड़की पर ‘हाउस फुल’ की तख्ती लगा दी गयी थी।
मेरे साथ आये रिपोर्टर ने सुकुमार से कुछ बातचीत की और फोटोग्राफर ने उनके कुछ फोटो खींचे। इतने में हॉल का दरवाजा खुल गया और दर्शक भीतर जाने लगे। हम भी सुकुमार से विदा लेकर अंदर जा बैठे।
नाटक की संकल्पना कुछ विचित्र किंतु नयी, आकर्षक और प्रभावशाली थी। पात्र पौराणिक थे, किंतु आधुनिक वेशभूषा में थे। नाटक में नाटक की रिहर्सल हो रही थी। नाटक भी चल रहा था और साथ-साथ अभिनेताओं का आपसी हँसी-मजाक भी। पौराणिक काल के संवादों के साथ-साथ वर्तमान यथार्थ को उजागर करती हुई हास्य-व्यंग्यपूर्ण उक्तियाँ, फब्तियाँ और आलोचनात्मक टिप्पणियाँ भी चल रही थीं।
एक सर्वथा नया प्रयोग यह था कि कौन-सी बात किस आधार पर कही जा रही है, यह दिखाने के लिए नाटक का सूत्रधार प्रसंग से संबंधित किसी प्राचीन ग्रन्थ के नाम वाली तख्ती दर्शकों को दिखाता हुआ मंच के अग्रभाग में एक से दूसरी ओर आता-जाता रहता था। किसी पर लिखा होता ‘ऋग्वेद’, किसी पर ‘महाभारत’, किसी पर ‘रामायण’, किसी पर ‘भागवत’, किसी पर ‘मार्कंडेयपुराण’, तो किसी पर ‘ऐतरेय ब्राह्मण’।
नाटक में इतिहास और पुराण, वर्तमान और भविष्य, यथार्थ और फैंटेसी को कुछ इस प्रकार मिलाया गया था कि नाटक एक स्तर पर बड़े गंभीर अर्थ देता था, तो दूसरे स्तर पर दर्शकों का मनोरंजन करते हुए उन्हें हँसाता था। प्रेक्षागृह में कभी गहरा सन्नाटा छा जाता, तो कभी दर्शकों के ठहाके गूँजने लगते।
‘‘पुरानी कहानी का नया कॉमिक रूप’’ यह था कि अयोध्या के राजा अरुण का युवा पुत्र त्रिशंकु एक विवाहिता ब्राह्मणी से प्रेम कर बैठा और उसे अपने घर ले आया। राजपुरोहित वसिष्ठ को बहुत बुरा लगा। उसने राजा अरुण से कहा कि यह त्रिशंकु तो हमारी वर्ण और जाति की व्यवस्था का विरोधी है। इसे घर से ही नहीं, राज्य से भी निकाल दो। अरुण बड़ा कमजोर राजा था। वह वसिष्ठ से डरता भी था, क्योंकि वसिष्ठ की पहुँच ऊपर स्वर्ग के देवताओं तक थी। उसने अपने पुत्र त्रिशंकु को निकाल तो दिया, लेकिन चुपके से उसके कान में कह दिया कि वह जंगल में विश्वामित्र के आश्रम में चला जाये, जो उसे शस्त्र और शास्त्र दोनों की अच्छी शिक्षा दे सकता है। त्रिशंकु ने विश्वामित्र के आश्रम में जाकर उसे अपना गुरु बना लिया। इधर वसिष्ठ अरुण को हटाकर खुद अयोध्या पर शासन करने लगा। लेकिन वह इतना भ्रष्ट और अकुशल शासक था कि राज्य की अर्थव्यवस्था चौपट हो गयी, अकाल पड़ने लगे और जनता त्राहि-त्राहि करने लगी।
अरुण तो न जाने कहाँ मर-खप गया, लेकिन त्रिशंकु अपने गुरु विश्वामित्र से राजनीति और युद्ध-विद्या की शिक्षा पाकर अयोध्या लौट आया। उसने अपना राजपाट तो वापस पा लिया, लेकिन वसिष्ठ को राजपुरोहित के पद से नहीं हटा सका, क्योंकि वसिष्ठ की पीठ पर स्वर्ग के देवताओं का हाथ था। त्रिशंकु ने विश्वामित्र की शिक्षा के अनुसार पृथ्वी को ही स्वर्ग बनाने की ठानी और पुरानी व्यवस्था को बदलने लगा। वसिष्ठ उसके काम में टाँग अड़ाने लगा, तो उसने विश्वामित्र को बुला लिया और वसिष्ठ की जगह उसी को अपना पुरोहित बना लिया। अब त्रिशंकु और विश्वामित्र मिलकर पृथ्वी को स्वर्ग बनाने में जुट गये।
स्वर्ग के देवताओं ने पृथ्वी पर स्वर्ग की प्रतिसृष्टि होते देखी, तो उनमें खलबली मच गयी। उन्होंने वसिष्ठ से कहा कि त्रिशंकु को रोको और ब्रह्मा से कहा कि विश्वामित्र को रोको। वसिष्ठ ने त्रिशंकु को दरिद्र चांडाल बना दिया, जिससे वह पृथ्वी पर स्वर्ग का निर्माता तो क्या बनता, अपने राज्य का राजा भी नहीं रहा। उधर ब्रह्मा ने विश्वामित्र को प्रतिसृष्टि से विरत करने के लिए पहले तो उसकी प्रशंसा की कि तुम तो मंत्र-द्रष्टा कवि हो, तुम्हारी रचनाएँ तो ऋग्वेद में संकलित होती हैं, तुम्हारा रचा हुआ गायत्री मंत्र तो समस्त संसार में लोकप्रिय हो गया है। फिर उसे समझाया कि तुम अपने आश्रम में लोगों को राजनीति और युद्ध-विद्या की शिक्षा देकर बहुत बड़ा काम कर रहे हो, इसलिए पृथ्वी पर स्वर्ग की प्रतिसृष्टि करने का पागलपन छोड़ो और अपने आश्रम में जाकर अपना अध्ययन-अध्यापन और मंत्रों का सृजन करो। विश्वामित्र ने ब्रह्मा की बात मान ली और अयोध्या छोड़कर जंगल में अपने आश्रम में चला गया। इस प्रकार पृथ्वी पर स्वर्ग की प्रतिसृष्टि रुकवाकर देवताओं ने त्रिशंकु के पुत्र हरिश्चंद्र को अयोध्या का राजा और वसिष्ठ को उसका पुरोहित बना दिया।
अब, राजा हरिश्चंद था तो बड़ा अय्याश, उसने सौ शादियाँ की थीं, मगर वह नपुंसक था। सौ रानियों के रहते भी वह निपूता था। जब बूढ़ा होने लगा, तो उसे दो चिंताएँ सताने लगीं। एक यह कि पुत्र का मुख देखे बिना वह स्वर्ग नहीं जा पायेगा और दूसरी यह कि उत्तराधिकारी के बिना उसके मरने के बाद अयोध्या का राजपाट कौन सँभालेगा। वसिष्ठ ने उसे सलाह दी कि तुम वही करो, जो नपुंसक राजा करते आये हैं। अपनी किसी रानी का किसी देवता, ऋषि या मुनि से नियोग करा दो और पुत्र उत्पन्न करा लो। हरिश्चंद्र अपनी रानी शैव्या तारामती को वरुण देवता के पास ले गया और बोलाµ‘‘मैं पुत्र का मुख देखे बिना स्वर्ग नहीं जा सकता और...’’
वरुण ने उसकी पूरी बात सुने बिना ही कहा, ‘‘पुत्र तो पैदा कर दूँगा, लेकिन इस शर्त पर कि उसके युवा होते ही तुम मेरे नाम पर उसकी बलि चढ़ा दोगे। तब तक तुम उसका मुख देख-देखकर स्वर्ग में अपना स्थान आरक्षित करा लेना।’’
हरिश्चंद्र ने सोचा कि अभी शर्त मान लेता हूँ, आगे की आगे देखी जायेगी। आखिरकार मैं राजा हूँ और वसिष्ठ जैसा घाघ ब्राह्मण मेरा पुरोहित है। शर्त से बचने या मुकरने की कोई न कोई तरकीब निकल ही आयेगी। उसने वरुण को वचन दे दिया कि ठीक है, पुत्र के युवा होते ही मैं तुम्हारे नाम पर उसकी बलि चढ़ा दूँगा।
लेकिन पुत्र रोहित या रोहिताश्व जब युवा हो गया और वरुण को दिये हुए वचन के मुताबिक उसकी बलि देने का समय आया, तो हरिश्चंद्र टालमटोल करने लगा। बहाने बनाने लगा। तरह-तरह के झूठ बोलने लगा।
आखिरकार वरुण को गुस्सा आ गया। उसने हरिश्चंद्र को झूठा, मक्कार और बेईमान बताते हुए फटकारा और रोहित की बलि का एक दिन निश्चित कर दिया। हरिश्चंद्र ने वसिष्ठ से रोहित को बचाने का कोई उपाय बताने को कहा, तो वसिष्ठ ने कहा, ‘‘यदि विश्वामित्र रोहित को शरण देकर अपने आश्रम में छिपाकर रख ले, तो रोहित बच सकता है; क्योंकि विश्वामित्र के पास ऐसी शक्तियाँ हैं कि देवता भी उससे डरते हैं।’’ हरिश्चंद्र को यह उपाय अच्छा लगा। वह वसिष्ठ को साथ लेकर विश्वामित्र के आश्रम में गया।
जिस समय ये दोनों वहाँ पहुँचे, विश्वामित्र के कई शिष्य शस्त्रों और शास्त्रों का अभ्यास कर रहे थे और विश्वामित्र के सामने बैठा एक युवक उसे अपनी कविता सुना रहा था। पास पहुँचकर दोनों ने विश्वामित्र को युवक की प्रशंसा करते सुना, ‘‘साधु, वत्स, साधु! तुम तो युवावस्था में ही मंत्र-द्रष्टा कवि बन गये हो। मैं तुम्हारी रचनाएँ ऋग्वेद में संकलित कराऊँगा।’’
निकट आकर वसिष्ठ ने व्यंग्यपूर्वक कहा, ‘‘अरे, भाई विश्वामित्र, मैंने भी कुछ मंत्र रचे हैं। मेरे मंत्र भी ऋग्वेद में संकलित करा दो!’’
विश्वामित्र ने उठकर वसिष्ठ और हरिश्चंद्र का स्वागत किया और उन्हें बिठाकर उस युवक के बारे में बताया कि ‘‘यह मेरे मित्र अजीगर्त का पुत्र शुनःशेप है। बड़ा प्रतिभाशाली है। इसकी माता मुझे भाई मानती है, इसलिए यह मुझे मामा कहता है। यहीं पास में इसका घर है। कुछ रच लेता है, तो मुझे सुनाने चला आता है।’’
शुनःशेप ने दोनों आगंतुकों को प्रणाम किया और विश्वामित्र से घर जाने की आज्ञा लेकर चला गया। वसिष्ठ ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा, ‘‘यह अजीगर्त का पुत्र है? उस दरिद्र ब्राह्मण अजीगर्त का, जो आजकल भूखों मर रहा है?’’
‘‘एक भाई के रहते बहन का परिवार भूखों नहीं मर सकता।’’ विश्वामित्र ने कहा, ‘‘हाँ, बुरा समय किसी पर भी आ सकता है। अजीगर्त पर आजकल बुरा समय आया हुआ है। लेकिन यह शुनःशेप बड़ा होनहार है। यह जल्दी ही अपने परिवार का भार उठाने में समर्थ हो जायेगा। खैर, तुम सुनाओ, आज इधर कैसे?’’
वसिष्ठ ने हरिश्चंद्र के साथ आने का कारण बताया और हरिश्चंद्र हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगा कि ‘‘आप रोहित को अपने आश्रम में छिपा लें।’’
विश्वामित्र ने हरिश्चंद्र को फटकारते हुए कहा, ‘‘वचन देकर उसका पालन न करने वाले असत्यवादी हरिश्चंद्र, तूने वरुण को जो वचन दिया है, उसका पालन कर। मैं तेरे पुत्र को अपने आश्रम में छिपाकर तेरे मिथ्याचार में शामिल नहीं हो सकता।’’ फिर उसने वसिष्ठ को भी आड़े हाथों लिया, ‘‘और वसिष्ठ, तुम कैसे गुरु और पुरोहित हो? तुम्हें तो इस हरिश्चंद्र को प्रेरित करना चाहिए था कि यह पृथ्वी को ही स्वर्ग बनाने का अपने पिता त्रिशंकु का अधूरा काम पूरा करे। इसके विपरीत तुमने इसे पुराने अंधविश्वास में फँसा दिया कि निपूता आदमी मरने के बाद स्वर्ग नहीं जा सकता। मरने के बाद कौन कहाँ जाता है, कौन जानता है? लेकिन लोग इस अंधविश्वास में फँसकर अपनी पत्नी को व्यभिचार के लिए भी विवश कर देते हैं। पूछो इस हरिश्चंद्र से, जब यह अपनी पत्नी को नियोग के लिए वरुण के पास ले गया था, क्या इसने अपनी पत्नी की इच्छा-अनिच्छा पूछी थी? फिर, पुत्र की बलि से संबंधित वरुण की शर्त इसने क्यों मान ली? इसने तभी सोच लिया था कि यह शर्त के अनुसार दिये गये वचन का पालन नहीं करेगा। तो फिर इसने झूठा वचन क्यों दिया?’’
वसिष्ठ ने हरिश्चंद्र का बचाव करते हुए कहा, ‘‘यह रोहित की बलि चढ़ा देगा, तो इसके राज्य का उत्तराधिकारी कौन होगा?’’
विश्वामित्र ने कहा, ‘‘राज्य का उत्तराधिकारी राजा का पुत्र या कोई पुरुष ही क्यों होना चाहिए? हरिश्चंद्र की सौ रानियाँ हैं। उनमें से कोई एक या वे सब मिलकर राज्य नहीं कर सकतीं?’’
‘‘कैसी नीति-विरोधी बातें करते हो, विश्वामित्र! भला स्त्रियाँ भी कहीं...’’
‘‘तुम मेरे सामने नैतिकता की बात मत करो, वसिष्ठ! इस नपुसंक राजा हरिश्चंद्र ने सौ विवाह किये, क्या यह नैतिक था? पुत्र प्राप्त करने के लिए यह अपनी पत्नी को स्वयं व्यभिचार के लिए ले गया, क्या यह नैतिक था? इसने जान-बूझकर वरुण को झूठा वचन दिया, क्या यह नैतिक था? और अब तुम दोनों मेरे पास जो प्रस्ताव लेकर आये हो, क्या वह नैतिक है?’’
काम बनता न देख वसिष्ठ उठ खड़ा हुआ और बेशर्म हँसी के साथ हरिश्चंद्र से बोला, ‘‘चलो, राजा हरिश्चंद्र! यह निष्ठुर विश्वामित्र तुम पर दया नहीं करेगा।’’ लेकिन आश्रम से बाहर आते ही उसने खलनायकों वाली क्रुद्ध और कुटिल हँसी के साथ घोषणा की, ‘‘मेरे रचे मंत्रों की उपेक्षा करने वाला यह विश्वामित्र अपने जैसा एक और मंत्र-द्रष्टा कवि बनाना चाहता है! मैं ऐसा कदापि नहीं होने दूँगा! कदापि नहीं!’’
वसिष्ठ के साथ चलते हरिश्चंद्र ने पूछा कि अब क्या किया जाये, तो वसिष्ठ ने कहा, ‘‘मैं वरुण को समझा-बुझाकर इसके लिए राजी कर लूँगा कि वह रोहित की जगह उसी की उम्र के किसी और युवक की बलि ले ले।’’
‘‘लेकिन ऐसा युवक मिलेगा कहाँ, जिसके माता-पिता उसे बेचने को तैयार हों और जो स्वयं भी बिकने को तैयार हो?’’ हरिश्चंद्र ने पूछा। वसिष्ठ ने दूसरी दिशा में शुनःशेप को जाते देख कहा, ‘‘देखो, वह रहा ऐसा युवक। वह अपने घर ही जा रहा है। चलो, हम भी उसके घर चलते हैं और उसके पिता अजीगर्त को मुँहमाँगा मूल्य देकर इसे खरीद लेते हैं।’’
और वे अपने उद्देश्य में सफल हुए। अजीगर्त अपनी घोर गरीबी के कारण पुत्र शुनःशेप को बेचने के लिए और शुनःशेप अपने निर्धन परिवार के प्रति कर्तव्य पालन करने के उद्देश्य से बिकने को राजी हो गया। हरिश्चंद्र ने सौ गायों के बदले में शुनःशेप को खरीद लिया।
नाटक का अंतिम दृश्य इस प्रकार था :
हरिश्चंद्र, वसिष्ठ, वरुण आदि कई लोगों के बीच शुनःशेप बलि के लिए गाड़े जाने वाले खंभे से बँधा खड़ा है। एक जल्लाद नंगी तलवार लिये उसके निकट खड़ा है और एक ब्राह्मण बलि के समय पढ़े जाने वाले मंत्र पढ़ रहा है। बलि का समय आने ही वाला है कि विश्वामित्र आ जाता है और ऊँचे स्वर में सबको सुनाते हुए कहता है, ‘‘धिक्कार है! धिक्कार है इस नपुंसक, स्वार्थी और मिथ्यावादी हरिश्चंद्र को! धिक्कार है इर क्रूर, कुटिल और पाखंडी वसिष्ठ को! धिक्कार है देवता कहलाने वाले इस व्यभिचारी और नरभक्षी वरुण को! और धिक्कार है यहाँ उपस्थित उन सब लोगों को, जो मनुष्य की बलि को खेल-तमाशा समझकर देखने के लिए यहाँ एकत्र हुए हैं! मैं विश्वामित्र घोषणा करता हूँ कि एक गरीब पिता की मजबूरी का और परिवार के प्रति उत्तरदायी एक पुत्र की कर्तव्यनिष्ठा का लाभ उठाकर, राजा हरिश्चंद्र ने सौ गायों के बदले में शुनःशेप को खरीदकर, बलि के नाम पर उसकी हत्या करने का यह जो आयोजन किया है, वह सर्वथा अनुचित, अनैतिक और निंदनीय है। मैं उन सौ गायों को ले आया हूँ, जिनके बदले इस नीच ने शुनःशेप को खरीदा है। गायें उधर खड़ी हैं, हरिश्चंद्र चाहे तो जाकर उन्हें गिन ले। मैं शुनःशेप को ले जा रहा हूँ।’’
विश्वामित्र बलि-पशु की तरह बाँधे गये शुनःशेप को मुक्त करता है और जाते-जाते कहता है, ‘‘राजा, ब्राह्मण, देवता और नागरिक सब देख लें कि मैं शुनःशेप को ले जा रहा हूँ। किसी में हिम्मत और ताकत हो तो मुझे रोक ले। मैं इसे अपना पुत्र, शिष्य और ऋषि बनाऊँगा। इसके रचे मंत्रांे को ऋग्वेद में संकलित कराऊँगा, जिनसे इसका यश दुनिया भर में फैलेगा और इसकी कीर्ति अनंत काल तक कायम रहेगी।’’
विश्वामित्र चला जाता है। मंच पर सब स्तब्ध खड़े रह जाते हैं। कुछ देर बाद वसिष्ठ आगे आता है और व्यंग्यपूर्वक बोलता है, ‘‘यह विश्वामित्र महाज्ञानी है, किंतु बहुत भोला है! यह समझता है कि यश और कीर्ति का आधार ज्ञान है। यह नहीं जानता कि यश और कीर्ति का वास्तविक आधार धन और राज्य के बल पर किया जाने वाला प्रचार है। मैं इस आधार पर ऐसा चमत्कार कर दिखाऊँगा कि राजा हरिश्चंद्र युगों-युगों तक सत्यवादी कहलायेगा, विश्वामित्र एक क्रोधी और दुष्ट ऋषि के रूप में जाना जायेगा और शुनःशेप को कोई नहीं जानेगा। उसकी कथा केवल किताबों में बंद होकर रह जायेगी!’’
अचानक सूत्रधार, मंच के अग्रभाग में दर्शकों के ठीक सामने आकर कहता है, ‘‘वसिष्ठों को हमेशा यह भ्रम रहा है कि वे असत्य को सत्य के रूप में प्रचारित करके उसे सदा के लिए सत्य बना देंगे। लेकिन वे भूल जाते हैं कि विश्वामित्रों ने उन्हें हमेशा चुनौतियाँ दी हैं और देते रहेंगे। विश्वामित्रों ने वसिष्ठों को ही नहीं, ब्रह्माओं तक को चुनौतियाँ दी हैं और देते रहेंगे। विश्वामित्रों ने उनकी बनायी मिथ्या सृष्टियों के विरुद्ध सच्ची प्रतिसृष्टियाँ की हैं और करते रहेंगे।’’
नाटक समाप्त हुआ, तो प्रेक्षागृह तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। दर्शक खड़े होकर देर तक तालियाँ बजाते रहे। अंततः जब पटाक्षेप हुआ, तो मैंने बाहर आकर अपने ‘अंगरक्षकों’ से विदा ली और सुकुमार से मिलने, उनको बधाई देने, नेपथ्य की ओर चल दिया। लेकिन वहाँ मैं यह देखकर हैरान रह गया कि सुकुमार, दमयंती जी, अतुल, प्रभा, जय और विजय सब एक साथ खड़े हैं और हँस-हँसकर बातें कर रहे हैं।
मुझे देखते ही दमयंती जी स्नेहपूर्वक डाँटते हुए बोलीं, ‘‘तुम तो बड़े स्वार्थी हो, चंडी! अपनी सृष्टि को घर छोड़कर यहाँ दूसरों की प्रतिसृष्टि देखने चले आये? प्रभा और बच्चों को साथ नहीं ला सकते थे? प्रभा ने मुझे फोन करके बताया, तो मैं तुरंत अतुल के साथ तुम्हारे घर गयी और इन लोगों को ले आयी।’’
मैं कुछ कह पाता, इसके पहले ही विजय ने मुझसे कहा, ‘‘पापा, हमने हॉल के अंदर आपको देख लिया था, आपने हमें नहीं देखा!’’
प्रभा ने ताना मारा, ‘‘वी.आइ.पी. लोग इधर-उधर नहीं देखते, बेटा! सीधे सामने ही देखते हैं!’’
मैंने हाथ जोड़कर संकेतों में उससे क्षमा माँगी और सुकुमार को बधाई देकर नाटक की प्रशंसा करने लगा। तभी जय ने सुकुमार से पूछा, ‘‘दादू जी, राजा हरिश्चंद्र इतना झूठा था, तो हमारे स्कूल की किताब उसे सत्यवादी क्यों बताती है?’’
सुकुमार ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘जैसे लोग सच्चे और झूठे होते हैं, बेटा, उसी तरह किताबें भी सच्ची और झूठी होती हैं।’’
सुबह सुबह एक अच्छी कहानी (अच्छी की तात्कालीन परिभाषा की खिड़की से बाहर देखती व् ताज़ी हवा महसूस कराती )एक सार्थक कहानी | अभी तक ‘’अच्छी ‘’ कहानियों को उनके अच्छाई की जिन चौखटों के भीतर पढ़ा यानी कहानी के समसामयिक सर्वाधिक ज्वलंत विषय ‘’दलित साहित्य ‘’(प्राय्ह दलित लेखकों के द्वारा रचा गया ) और स्त्री विमर्श से सम्बंधित स्त्री प्रताडनाओं ,धारणाओं,आव्हान करती या राजनैतिक अराजकताओं व् वर्गगत पीडाओं की कहानियां )उनसे अलग लेकिन पौराणिक प्रकरणों के ज़रिये नए अर्थ तलाशती कहानी |नयापन भी नए की तात्कालीन अर्थों से अलग (शायद कहानी के लिए चुने गए नए विषय के कारन )|लेखक ने दलित साहित्य को उत्तर आधुनिक साहित्य कहा है |नायक शिखर सुकुमार का परिवार ..खुद कहानी का एक मज़बूत पक्ष है वो ऐसे कि सुकुमार घोषित रूप से स्वयं दलित लेखक होते हुए दलित लेखन के साहित्यिक परकोटे को तोड़ते हैं चुनौती देते हैं इससे दो बातें स्पष्ट होती हैं पहली कहानी का मूल लेखक आधुनिक दलित साहित्य की उस मान्यता को खारिज करना चाहता है जिसमे दलित लेखक दलित इतिहास और समस्या से आगे कुछ भी लिखने में कोताही बरतते हैं दुसरे, सुकुमार के चार सदस्यीय परिवार जिनमे उनकी पत्नी दमयंती जो स्वयं को दलित मानते हुए और दलितों को व्यवस्था द्वारा प्रदत्त सभी सुविधाओं का समर्थन उसी तरह पारंपरिक दलीलों के चलते करती है जो वतमान में एक आम दलित लेखक की भावनाओं ,कुंठाओं और क्षोभ तथा उलाहनों का प्रतिनिधित्व करती है |(दलित हैं तो दलित वाला लेखन करें –एक वाक्य)....सुकुमार के दौनों कान्वेंट में शिक्षा पा रहे बेटों के वार्तालाप को एक तरफ लेखक पीडी की नई पौध की तटस्थता को दिखता है दूसरी और एक छोटी सी झलक इस आने वाली पीढी के इस दलित-ब्राह्मण संघर्ष के प्रति समझदारी भरी तटस्थ सोच को भी प्रदर्शित करता है इस लिहाज से ये कहानी न सिर्फ एतिहासिक या पौराणिक विषयों की बहस तक सिमटी है बल्कि आने वाली पीढ़ियों को इस बेहूदा और जातिवादी संघर्षों को खारिज करती हुई भी चलती हैं | कहानी में कुछ एतिहासिक सन्दर्भों सहित मज़बूत उदहारण भी दिए गए हैं जैसे वाल्मीकि शूद्र थे लेकिन रामायण दलित साहित्य नहीं ..ये और इस तरह के कई एतिहासिक सन्दर्भ जो चालू मिथकों को तोड़ने पर विवश करते हैं |बीच में त्रिशंकु सहित कुछ एतिहासिक घटनाएँ तथ्य कही कहीं लम्बे लगते हैं लेकिन वो संभवतः कहानी को ठोस रूप प्रदान करने और उसके स्तम्भ वाक्य रहे हों और ज़रूरी हों ...लेकिन कहानी बहुत अलग ,आम विषयों से दूर..इसीलिये पाठक को एक ताजेपन का अहसास कराती ...| बतौर एक पाठक कहानी बहुत अच्छी लगी |
ReplyDeleteबेह्तरीन कहानी .पौरणिक आख्यानों और पात्रों की जो विवेकपूर्ण और तर्क सम्मत व्याख्या आपने की है वो लाजवाब है . दरअसल ये कहानी से अधिक पौराणिक सन्दर्भों पर आलेख है जिसे बड़ी खूबसूरती से कथा सूत्र मे पिरोया गया है .यहां कथाकार के अन्दर का अध्यापक भी जोरदार उपस्थिति दर्ज़ कराता है .ये कहानी अनायास ही नरेन्द्र कोहली का स्मरण करा देती है .मैने उनको पढ़ा नहीं है .पर अब उनको भी पढ़ने की उत्कंठा तीव्र हो गयी है.
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