हमें इसी को बदलना है
(३ मई, २००९ को लिखी गई डायरी)
इस बार के आम चुनावों में जिस व्यक्ति ने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया है, वह है मल्लिका साराभाई। प्रसिद्द नृत्यांगना, जो गुजरात में गांधीनगर से प्रधानमंत्री बनने के इच्छुक लालकृष्ण आडवाणी के विरूद्ध चुनाव लड़ रही है। कहाँ शास्त्रीय नृत्य और कहाँ ऐसी भीषण गर्मी में गाँव-गाँव और घर-घर जाकर किया जाने वाला चुनाव प्रचार! कहाँ कला की साधना और कहाँ राजनीतिक संघर्ष! गुजरात में भाजपा का शासन है और वहां का मीडिया ज़्यादातर भाजपा का ही प्रचारक है। इसलिए वह मल्लका के विचारों और उसके चुनाव प्रचार से सम्बंधित समाचारों को दबा देता है, उसके विरुद्ध प्रचार करता है, उसकी हँसी उड़ाता है--कि देखो, यह औरत उस लौह पुरूष को टक्कर देने चली है, जो इस सीट से भारी बहुमत के साथ चुना जाता रहा है और इस बार का चुनाव जीत कर देश का प्रधानमन्त्री बनने वाला है!
मल्लिका को भी मालूम है कि वह जीतेगी नहीं। उसने यह जानते हुए ही चुनाव लड़ने का निर्णय लिया है। वह मौजूदा राजनीति को एक नए ढंग की राजनीति के ज़रिये चुनौती देने के लिए यह चुनाव लड़ रही है। वह एक नैतिक, सांस्कृतिक और सौन्दर्यात्मक मूल्यों वाली राजनीति की संभावनाओं को सामने लाने के लिए राजनीतिक रणक्षेत्र में उतरी है। वह किसी राजनीतिक दल के टिकट पर नहीं, स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रही है, क्योंकि मुख्यधारा के सभी दलों ने चुनावी राजनीति को भ्रष्टाचार और अपराधीकरण की राजनीति बना दिया है। उनके लिए यह केवल बहुमत पाने का गणित रह गया है, चाहे वह किसी भी तरीके से पाया जाए। अपने इस 'खेल' में उन्होंने देश के नागरिक को बिलकुल भुला दिया है। यही कारण है कि २००४ से २००९ तक की पिछली लोकसभा में ५३४ सांसदों में से १२८ सांसदों पर विभिन्न अपराधों के आरोप थे। मल्लिका पूछती है--"क्या यह शर्मनाक नहीं? हमें इसी को बदलना है।"
शाबाश, मल्लिका!
--रमेश उपाध्याय
Sunday, May 10, 2009
आज के हालात पर एक कविता
अँधेरा गहरा रहा है
अँधेरा गहरा रहा है
रास्ते सब खो गए हैं
दिशाएं अंधी हुई हैं
और बढ़ती जा रही है भीड़ उनकी
जो न जाने कहाँ जायेंगे
न जाने क्या करेंगे
क्योंकि अपने रास्तों, अपनी दिशाओं
और अपनी मंजिलों को
ख़ुद नहीं वे जानते हैं
साथ चलते दूसरों को जो नहीं पहचानते हैं
साथ हैं पर चल रहे हैं अजनबी-से
उन सभी से घृणा करते जो कि आगे बढ़ गए हैं
या कि पीछे रह गए हैं
भीड़ में जो ख़ुद धकेले जा रहे हैं
सोचते फिर भी कि निर्जन में अकेले जा रहे हैं
इसलिए उन सभी से उनको शिकायत है--
कि ये क्यों साथ हैं अपने
कि ये क्यों बढ़ गए आगे
कि ये क्यों रह गए पीछे
और वे जो आ रहे हैं सामने से और
दायें या कि बाएँ से
कि जो टकरा रहे हैं--सामने से दे रहे टक्कर
कि जो धकिया रहे हैं उन्हें दायें या कि बाएँ से
सभी उनके शत्रु हैं जो रोकते हैं रास्ता उनका
कि जो चलने नहीं देते उन्हें बढ़ने नहीं देते
उन्हें इन शत्रुओं को ख़त्म करना है
अतः सब लड़ रहे हैं एक-दूजे से
बिना जाने कि यह कैसी लड़ाई है
कहाँ से शुरू होती है
कहाँ पर ख़त्म होती है
कि आख़िर लक्ष्य क्या इसका
कि आख़िर अर्थ क्या इसका?
--रमेश उपाध्याय
अँधेरा गहरा रहा है
रास्ते सब खो गए हैं
दिशाएं अंधी हुई हैं
और बढ़ती जा रही है भीड़ उनकी
जो न जाने कहाँ जायेंगे
न जाने क्या करेंगे
क्योंकि अपने रास्तों, अपनी दिशाओं
और अपनी मंजिलों को
ख़ुद नहीं वे जानते हैं
साथ चलते दूसरों को जो नहीं पहचानते हैं
साथ हैं पर चल रहे हैं अजनबी-से
उन सभी से घृणा करते जो कि आगे बढ़ गए हैं
या कि पीछे रह गए हैं
भीड़ में जो ख़ुद धकेले जा रहे हैं
सोचते फिर भी कि निर्जन में अकेले जा रहे हैं
इसलिए उन सभी से उनको शिकायत है--
कि ये क्यों साथ हैं अपने
कि ये क्यों बढ़ गए आगे
कि ये क्यों रह गए पीछे
और वे जो आ रहे हैं सामने से और
दायें या कि बाएँ से
कि जो टकरा रहे हैं--सामने से दे रहे टक्कर
कि जो धकिया रहे हैं उन्हें दायें या कि बाएँ से
सभी उनके शत्रु हैं जो रोकते हैं रास्ता उनका
कि जो चलने नहीं देते उन्हें बढ़ने नहीं देते
उन्हें इन शत्रुओं को ख़त्म करना है
अतः सब लड़ रहे हैं एक-दूजे से
बिना जाने कि यह कैसी लड़ाई है
कहाँ से शुरू होती है
कहाँ पर ख़त्म होती है
कि आख़िर लक्ष्य क्या इसका
कि आख़िर अर्थ क्या इसका?
--रमेश उपाध्याय
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