Sunday, May 10, 2009

आज के हालात पर एक कविता

अँधेरा गहरा रहा है

अँधेरा गहरा रहा है
रास्ते सब खो गए हैं
दिशाएं अंधी हुई हैं
और बढ़ती जा रही है भीड़ उनकी
जो न जाने कहाँ जायेंगे
न जाने क्या करेंगे
क्योंकि अपने रास्तों, अपनी दिशाओं
और अपनी मंजिलों को
ख़ुद नहीं वे जानते हैं
साथ चलते दूसरों को जो नहीं पहचानते हैं
साथ हैं पर चल रहे हैं अजनबी-से
उन सभी से घृणा करते जो कि आगे बढ़ गए हैं
या कि पीछे रह गए हैं
भीड़ में जो ख़ुद धकेले जा रहे हैं
सोचते फिर भी कि निर्जन में अकेले जा रहे हैं
इसलिए उन सभी से उनको शिकायत है--
कि ये क्यों साथ हैं अपने
कि ये क्यों बढ़ गए आगे
कि ये क्यों रह गए पीछे
और वे जो आ रहे हैं सामने से और
दायें या कि बाएँ से
कि जो टकरा रहे हैं--सामने से दे रहे टक्कर
कि जो धकिया रहे हैं उन्हें दायें या कि बाएँ से
सभी उनके शत्रु हैं जो रोकते हैं रास्ता उनका
कि जो चलने नहीं देते उन्हें बढ़ने नहीं देते
उन्हें इन शत्रुओं को ख़त्म करना है
अतः सब लड़ रहे हैं एक-दूजे से
बिना जाने कि यह कैसी लड़ाई है
कहाँ से शुरू होती है
कहाँ पर ख़त्म होती है
कि आख़िर लक्ष्य क्या इसका
कि आख़िर अर्थ क्या इसका?

--रमेश उपाध्याय

3 comments:

  1. वाह आपकी कहानिया पढी थी अब कविता भी!!

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  2. abhi sanyog-vash mai vist kiya.vakai ye rachna aaj ki halat ko batati hai.jis udherbun me ji rahe hai use batati hai. Apko Dhanyabad apki es rachna ke liye...

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