क्रिकेट को ‘ग्लोरियस अनसर्टेन्टीज़’ (शानदार अनिश्चितताओं) का खेल कहा जाता है। पूरी मेहनत, पूरी तैयारी और पूरी कुशलता से खेलने पर भी इसमें कब क्या हो जाये, कोई नहीं जानता। इसमें कोई भी टीम जीतते-जीतते हार सकती है और हारते-हारते जीत सकती है। यह अनिश्चितता ही इस खेल को इतना रोचक, रोमांचक और लोकप्रिय बनाती है।
खेल के मैदान में जाकर या अपने घर में टी।वी. के सामने बैठकर क्रिकेट मैच देखने के शौकीन दर्शकों को इसकी अनिश्चितता में ही आनंद आता है। यदि वन डे में अंत के पहले मैच एकतरफा हो जाने से एक टीम की जीत निश्चित हो जाये, या टैस्ट में हार-जीत के फैसले की जगह मैच ड्रॉ की ओर बढ़ने लगे, तो दर्शकों की उत्सुकता खत्म हो जाती है। मैदान में बैठे दर्शक उठकर चल देते हैं, घर में देख रहे दर्शक टी.वी. बंद कर देते हैं। सबसे दिलचस्प खेल वह होता है, जिसमें दोनों टीमों के बीच काँटे का मुकाबला हो और ज्यों-ज्यों मैच अंत की ओर बढ़े, दर्शकों की उत्सुकता, चिंता और दिल की धड़कन बढ़ती जाये। कितने ही दर्शक अपने वांछित परिणाम के लिए प्रार्थना करने लगते हैं। अवांछित परिणाम निकलने पर किसी-किसी का हार्टफेल भी हो जाता है।
हमारा जीवन भी शानदार अनिश्चितताओं का खेल है। इसमें भी कोई नहीं जानता कि कब क्या हो जायेगा। लेकिन इस अनिश्चितता में ही आशा है और सही दिशा में उचित प्रयास करने की प्रेरणा भी। उतार-चढ़ाव और सफलता-विफलता के अवसर आते रहते हैं, लेकिन जीवन में उत्सुकता, उम्मीद और उमंग बनी रहती है। अनिश्चितता ही जीवन को दिलचस्प और अच्छे ढंग से जीने लायक बनाती है।
लेकिन जब से ‘मैच फिक्सिंग’ का सिलसिला शुरू हुआ है (और अब तो ‘स्पॉट फिक्सिंग' भी होने लगी है, जैसी पिछले दिनों इंग्लैंड और पाकिस्तान के बीच खेले गये एक मैच में पहले से तयशुदा तीन ‘नो बॉल’ फेंके जाने के रूप में सामने आयी), तब से क्रिकेट का खेल देखने का मजा ही जाता रहा। यह भरोसा ही नहीं रहा कि जो हम देख रहे हैं, वह वास्तव में हो रहा है या पहले से कहीं और, किसी और के द्वारा ‘फिक्स्ड’ होकर तयशुदा तरीके से किया जा रहा है!
यही हाल हमारे जीवन का हो गया है। पहले भी धाँधलियाँ होती थीं, फिर भी कहीं न कहीं न्याय और ‘फेयरनेस’ में विश्वास बना रहता था। योग्यता के आधार पर कहीं चुने जा सकने की उम्मीद बनी रहती थी। लेकिन अब तो ऐसा लगता है, जैसे जीवन में भी हर चीज़ पहले से ‘फिक्स्ड’ है--परीक्षा में, इंटरव्यू में, प्रतियोगिता में, हर तरह के चयन और नामांकन में। और तो और, जनतंत्र के नाम पर लड़े जाने वाले चुनावों में, जनहित के नाम पर बनायी जाने वाली नीतियों में, शासन और प्रशासन के कार्यों में, यहाँ तक कि न्यायालयों के निर्णयों में भी! ऐसी स्थिति में आशा कहाँ से पैदा हो? प्रयास की प्रेरणा कैसे मिले? जीवन में रुचि कैसे बनी रहे? आनंद कहाँ से आये?
जब पहले से ही मालूम हो कि ‘वे’ ही जीतेंगे और ‘हम’ ही हारेंगे, तो जीवन में क्या रुचि रहेगी? क्या आशा और क्या प्रेरणा?
--रमेश उपाध्याय
Wednesday, September 29, 2010
Saturday, September 25, 2010
कहाँ है जनता जनार्दन?
कल (24 सितंबर, 2010) के दैनिक ‘जनसत्ता’ में अरुण कुमार पानीबाबा का लेख छपा है, ‘खेल-कूद और नौकरशाह’, जिसमें बताया गया है कि दिल्ली में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में एक लाख करोड़ रुपये का घोटाला हो चुका है। लिखा है--‘‘आम सूचनाओं के मुताबिक 2002 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार ने खेल समारोह की स्वीकृति दी, तब 617.5 करोड़ रुपये खर्च का अनुमान था। 2004 से अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री ने मजबूत अर्थव्यवस्था के लिए महँगाई में दुगनी-तिगुनी वृद्धि की, तो लागत बढ़कर दो हजार करोड़ तक हो जाना लाजमी था। फिर पता चला कि 2008 में संशोधित अनुमान सात हजार करोड़ का हो गया था। अगले बरस 2009 में प्रमुख लेखाकार के हिसाब से तेरह हजार करोड़ रुपये का प्रावधान हो गया था। अब दो शोधकर्ताओं ने विभिन्न सूत्रों से विविध आँकड़े जुटाकर सत्तर हजार छह सौ आठ करोड़ का आँकड़ा नाप-तोलकर प्रस्तुत कर दिया।’’
आगे लिखा है--‘‘हमारे संकुचित विवेक की समस्या यह है कि इन आँकड़ों पर विश्वास कर लें, तो यह कैसे बूझें कि इतनी बड़ी रकम बिना ‘बजट’ आयी कहाँ से? और अगर प्रावधान करके खर्च की गयी है, तो क्या बजट सत्र में पूरी संसद सो रही थी? और किन्हीं अंतरराष्ट्रीय स्रोतों से ऋण लिया गया, तो यह काम गुपचुप कैसे होता रहा? यह विश्वास भी नहीं होता कि भारत सरकार ने सब कुछ अनधिकृत तौर पर कर लिया होगा।’’
इसके पहले एक जगह लिखा है--‘‘जनता दल (एकीकृत) के अध्यक्ष शरद यादव ने लोकसभा में डंके की चोट पर चुनौती दे दी कि खेल समारोह के नाम पर घोटाला एक लाख करोड़ रुपये का हो चुका है। हम हतप्रभ थे, चकित भाव से सोच रहे थे कि ‘अतिशयोक्ति’ पर नाप और नियंत्रण लागू होगा। मगर किसी सरकारी बाबू ने आज तक चूँ भी नहीं की।’’
लिखा है--‘‘भारत सरकार ने ‘आश्वासन’ दिया है कि पैसे-पैसे का हिसाब होगा और चोरों को कड़ी सजा दी जायेगी। लेकिन सभी जानते हैं, आम नागरिक भी अवगत है कि पिछले पाँच-छह दशक में जो शासन-प्रशासन विकसित हुआ है, उसमें भ्रष्ट नौकरशाह या नेता की धींगाधींगी को नियंत्रित करने का हाल-फिलहाल कोई तरीका नहीं है।’’ अतः ‘‘किसी के मन में कोई डर नहीं है। तमाम दोषी अफसर-नेता आश्वस्त हैं। प्रजातंत्र के फसाद में ऐसा कौन है, जिसके हाथ मल में नहीं सने, और मुख पर कालिख नहीं लगी है?’’
लेख के अंत में लिखा है--‘‘हमारी समझ से, प्रजातंत्र में जनता को स्वयं जनार्दन की भूमिका का निर्वहन करना होता है। क्या इस एक लाख करोड़ रुपये के घोटाले के बाद भी देश सोता रहेगा?’’
मेरा प्रश्न है: कहाँ है जनता जनार्दन?
--रमेश उपाध्याय
आगे लिखा है--‘‘हमारे संकुचित विवेक की समस्या यह है कि इन आँकड़ों पर विश्वास कर लें, तो यह कैसे बूझें कि इतनी बड़ी रकम बिना ‘बजट’ आयी कहाँ से? और अगर प्रावधान करके खर्च की गयी है, तो क्या बजट सत्र में पूरी संसद सो रही थी? और किन्हीं अंतरराष्ट्रीय स्रोतों से ऋण लिया गया, तो यह काम गुपचुप कैसे होता रहा? यह विश्वास भी नहीं होता कि भारत सरकार ने सब कुछ अनधिकृत तौर पर कर लिया होगा।’’
इसके पहले एक जगह लिखा है--‘‘जनता दल (एकीकृत) के अध्यक्ष शरद यादव ने लोकसभा में डंके की चोट पर चुनौती दे दी कि खेल समारोह के नाम पर घोटाला एक लाख करोड़ रुपये का हो चुका है। हम हतप्रभ थे, चकित भाव से सोच रहे थे कि ‘अतिशयोक्ति’ पर नाप और नियंत्रण लागू होगा। मगर किसी सरकारी बाबू ने आज तक चूँ भी नहीं की।’’
लिखा है--‘‘भारत सरकार ने ‘आश्वासन’ दिया है कि पैसे-पैसे का हिसाब होगा और चोरों को कड़ी सजा दी जायेगी। लेकिन सभी जानते हैं, आम नागरिक भी अवगत है कि पिछले पाँच-छह दशक में जो शासन-प्रशासन विकसित हुआ है, उसमें भ्रष्ट नौकरशाह या नेता की धींगाधींगी को नियंत्रित करने का हाल-फिलहाल कोई तरीका नहीं है।’’ अतः ‘‘किसी के मन में कोई डर नहीं है। तमाम दोषी अफसर-नेता आश्वस्त हैं। प्रजातंत्र के फसाद में ऐसा कौन है, जिसके हाथ मल में नहीं सने, और मुख पर कालिख नहीं लगी है?’’
लेख के अंत में लिखा है--‘‘हमारी समझ से, प्रजातंत्र में जनता को स्वयं जनार्दन की भूमिका का निर्वहन करना होता है। क्या इस एक लाख करोड़ रुपये के घोटाले के बाद भी देश सोता रहेगा?’’
मेरा प्रश्न है: कहाँ है जनता जनार्दन?
--रमेश उपाध्याय
Friday, September 3, 2010
रचनाशीलता को बचाने और बढ़ाने के लिए एक पहल
‘‘आज के समय में यह भी एक बड़ा भारी काम है कि अपनी और दूसरों की रचनाशीलता को बचाने और बढ़ाने का प्रयास किया जाये। उसे आज के रचना-विरोधी माहौल में असंभव न होने दिया जाये। क्या इसके लिए कोई सकारात्मक पहल की जा सकती है? यदि हाँ, तो कैसे? इस पर रचनाकारों को मिल-बैठकर, आपस में, छोटी-बड़ी गोष्ठियों और सम्मेलनों में विचार करना चाहिए। लेकिन इंटरनेट भी एक मंच है, इस पर भी इस सवाल पर बात होनी चाहिए। नहीं?’’
फेसबुक पर मेरे इस विचार का जो व्यापक स्वागत हुआ है, उससे मैं बहुत प्रसन्न और उत्साहित हूँ। लगता है कि हिंदी के अनेक लेखक, पाठक, पत्रकार, प्राध्यापक आदि ऐसी पहल के विचार से सहमत ही नहीं, बल्कि उसे तुरंत शुरू करने के लिए तैयार भी हैं। उनमें से कुछ मित्रों ने सुझाव दिया है कि मैं इस पहल की एक रूपरेखा प्रस्तावित करूँ, जिस पर विचार-विमर्श के बाद एक न्यूनतम सहमति बने और काम शुरू हो।
तो, मित्रो, ऐसी कोई रूपरेखा प्रस्तुत करने के बजाय मैं उससे पहले की कुछ बातें स्पष्ट कर देना चाहता हूँ। मैं कोई नया मंच या संगठन बनाने की बात नहीं कर रहा हूँ, बल्कि इंटरनेट के रूप में जो एक बहुत बड़ा, व्यापक और प्रभावशाली मंच पहले से ही मौजूद है, उसी पर एक नयी पहल की जरूरत की बात कर रहा हूँ। हम लोग, जो इस मंच पर उपस्थित हैं, कुछ काम पहले से ही कर रहे हैं। मसलन, हम एक-दूसरे को अपनी तथा दूसरों की रचनाओं की जानकारी दे रहे हैं, अपनी तथा दूसरों की रचनाशीलता से संबंधित समस्याओं को सामने ला रहे हैं, अपने साहित्यिक अनुभवों और सामाजिक तथा सांस्कृतिक सरोकारों को साझा कर रहे हैं और इस प्रकार दूर-दूर बैठे होने पर भी एक-दूसरे के निकट आकर एक साहित्यिक वातावरण बना रहे हैं। मगर मुझे लगता है कि इस माध्यम की अपार संभावनाओं के शतांश, बल्कि सहस्रांश का भी उपयोग अभी हम नहीं कर पा रहे हैं।
मैं केवल ब्लॉग और फेसबुक की बात नहीं, पूरे इंटरनेट की बात कर रहा हूँ। मुझे लगता है कि यह हमारी रचनाशीलता को बचाने और बढ़ाने के लिए एक अत्यंत उपयोगी और प्रभावशाली माध्यम है, जो हमें व्यक्तिगत और सामाजिक, ऐतिहासिक और भौगोलिक, स्थानीय और भूमंडलीय सभी स्तरों पर एक साथ सोचने और सक्रिय होने में समर्थ बना सकता है। लेकिन फिलहाल मैं इतने विस्तार में न जाकर केवल लेखकों से अपनी और दूसरों की रचनाशीलता को बचाने और बढ़ाने के माध्यम के रूप में इसके उपयोग की बात करना चाहता हूँ।
शायद आपको याद हो, मैंने 12 जुलाई, 2010 की अपनी पोस्ट में ‘सोशल नेटवर्किंग’ के बारे में लिखते हुए यह सवाल उठया था कि हम इंटरनेट की आभासी दुनिया का रिश्ता वास्तविक दुनिया से कैसे जोड़ें। मैंने लिखा था--‘‘क्या हम इस माध्यम का उपयोग वास्तविक दुनिया के उन जीते-जागते लोगों तक पहुँचने के लिए कर सकते हैं, जिनके पास जाकर हम उनसे हाथ मिला सकें, गले मिल सकें, आमने-सामने बैठकर चाय-कॉफी पीते हुए बात कर सकें, हँसी-मजाक और धौल-धप्पा कर सकें, लड़-झगड़ सकें और मिल-जुलकर कोई सार्थक काम करने की सोच सकें?’’
इसी बात को आगे बढ़ाते हुए मैं कहना चाहता हूँ: क्या हम लेखकों के रूप में अपनी और दूसरों की रचनाशीलता को बचाने और बढ़ाने के लिए इस माध्यम का उपयोग कर सकते हैं? ‘दूसरों’ से मेरा अभिप्राय दूसरे लेखकों से नहीं, बल्कि पाठकों से है; क्योंकि मैं यह मानता हूँ कि पाठक भी रचनाशील होते हैं और इस नाते वे लेखक के साथी-सहयोगी रचनाकार होते हैं। मैं यह भी मानता हूँ कि पाठकों की रचनाशीलता को बचाये-बढ़ाये बिना हम अपनी रचनाशीलता को भी नहीं बचा-बढ़ा सकते। लेकिन यह हमारा दुर्भाग्य है--और दुर्भाग्य का कारण भी--कि हम अपने पाठकों की परवाह नहीं करते। हम न तो उन्हें जानते हैं, न उनके लिए लिखते हैं। हम लिखते हैं संपादकों, प्रकाशकों, आलोचकों, पुरस्कारदाताओं या किसी अन्य प्रकार से बाजार में हमारी जगह बना सकने वालों के लिए; जबकि हमारी रचनाशीलता को बचाने और बढ़ाने वाले होते हैं हमारे पाठक। पत्रिकाओं और पुस्तकों के माध्यम से पाठकों तक हमारी सीधी पहुँच नहीं होती, लेकिन इंटरनेट के माध्यम से हम उन तक सीधे पहुँच सकते हैं।
कारण यह कि हमारे लिए इंटरनेट एक ऐसा मंच है, जो सार्वजनिक और सार्वदेशिक होते हुए भी हमें अपनी बात अपने ढंग से कहने की पूरी आज़ादी देता है। यहाँ हम किसी और संस्था या संगठन के सदस्य नहीं, बल्कि स्वयं ही एक संस्था या संगठन हैं। किसी और नेता के अनुयायी नहीं, स्वयं ही अपने नेता और मार्गदर्शक हैं। किसी और संपादक या प्रकाशक के मोहताज नहीं, स्वयं ही अपने संपादक और प्रकाशक हैं। लेकिन इस स्वतंत्रता और स्वायत्तता का उपयोग हम अपनी और अपने पाठकों की रचनाशीलता को बचाने-बढ़ाने के लिए बहुत ही कम कर पा रहे हैं।
मेरी मूल चिंता यह है कि यह काम कैसे किया जाये। मगर, मित्रो, मैं अकेला इस समस्या का समाधान खोज पाने में असमर्थ हूँ और मुझे लगता है कि यह काम हम सब रचनाकारों को मिल-जुलकर ही करना पड़ेगा। मगर कैसे? इस पर आप सोचें और मुझे बतायें। मिलकर न बताना चाहें, तो इंटरनेट के जरिये ही बतायें, पर बतायें जरूर; क्योंकि यह काम अत्यंत आवश्यक होने के साथ-साथ आपका भी उतना ही है, जितना कि मेरा।
--रमेश उपाध्याय
फेसबुक पर मेरे इस विचार का जो व्यापक स्वागत हुआ है, उससे मैं बहुत प्रसन्न और उत्साहित हूँ। लगता है कि हिंदी के अनेक लेखक, पाठक, पत्रकार, प्राध्यापक आदि ऐसी पहल के विचार से सहमत ही नहीं, बल्कि उसे तुरंत शुरू करने के लिए तैयार भी हैं। उनमें से कुछ मित्रों ने सुझाव दिया है कि मैं इस पहल की एक रूपरेखा प्रस्तावित करूँ, जिस पर विचार-विमर्श के बाद एक न्यूनतम सहमति बने और काम शुरू हो।
तो, मित्रो, ऐसी कोई रूपरेखा प्रस्तुत करने के बजाय मैं उससे पहले की कुछ बातें स्पष्ट कर देना चाहता हूँ। मैं कोई नया मंच या संगठन बनाने की बात नहीं कर रहा हूँ, बल्कि इंटरनेट के रूप में जो एक बहुत बड़ा, व्यापक और प्रभावशाली मंच पहले से ही मौजूद है, उसी पर एक नयी पहल की जरूरत की बात कर रहा हूँ। हम लोग, जो इस मंच पर उपस्थित हैं, कुछ काम पहले से ही कर रहे हैं। मसलन, हम एक-दूसरे को अपनी तथा दूसरों की रचनाओं की जानकारी दे रहे हैं, अपनी तथा दूसरों की रचनाशीलता से संबंधित समस्याओं को सामने ला रहे हैं, अपने साहित्यिक अनुभवों और सामाजिक तथा सांस्कृतिक सरोकारों को साझा कर रहे हैं और इस प्रकार दूर-दूर बैठे होने पर भी एक-दूसरे के निकट आकर एक साहित्यिक वातावरण बना रहे हैं। मगर मुझे लगता है कि इस माध्यम की अपार संभावनाओं के शतांश, बल्कि सहस्रांश का भी उपयोग अभी हम नहीं कर पा रहे हैं।
मैं केवल ब्लॉग और फेसबुक की बात नहीं, पूरे इंटरनेट की बात कर रहा हूँ। मुझे लगता है कि यह हमारी रचनाशीलता को बचाने और बढ़ाने के लिए एक अत्यंत उपयोगी और प्रभावशाली माध्यम है, जो हमें व्यक्तिगत और सामाजिक, ऐतिहासिक और भौगोलिक, स्थानीय और भूमंडलीय सभी स्तरों पर एक साथ सोचने और सक्रिय होने में समर्थ बना सकता है। लेकिन फिलहाल मैं इतने विस्तार में न जाकर केवल लेखकों से अपनी और दूसरों की रचनाशीलता को बचाने और बढ़ाने के माध्यम के रूप में इसके उपयोग की बात करना चाहता हूँ।
शायद आपको याद हो, मैंने 12 जुलाई, 2010 की अपनी पोस्ट में ‘सोशल नेटवर्किंग’ के बारे में लिखते हुए यह सवाल उठया था कि हम इंटरनेट की आभासी दुनिया का रिश्ता वास्तविक दुनिया से कैसे जोड़ें। मैंने लिखा था--‘‘क्या हम इस माध्यम का उपयोग वास्तविक दुनिया के उन जीते-जागते लोगों तक पहुँचने के लिए कर सकते हैं, जिनके पास जाकर हम उनसे हाथ मिला सकें, गले मिल सकें, आमने-सामने बैठकर चाय-कॉफी पीते हुए बात कर सकें, हँसी-मजाक और धौल-धप्पा कर सकें, लड़-झगड़ सकें और मिल-जुलकर कोई सार्थक काम करने की सोच सकें?’’
इसी बात को आगे बढ़ाते हुए मैं कहना चाहता हूँ: क्या हम लेखकों के रूप में अपनी और दूसरों की रचनाशीलता को बचाने और बढ़ाने के लिए इस माध्यम का उपयोग कर सकते हैं? ‘दूसरों’ से मेरा अभिप्राय दूसरे लेखकों से नहीं, बल्कि पाठकों से है; क्योंकि मैं यह मानता हूँ कि पाठक भी रचनाशील होते हैं और इस नाते वे लेखक के साथी-सहयोगी रचनाकार होते हैं। मैं यह भी मानता हूँ कि पाठकों की रचनाशीलता को बचाये-बढ़ाये बिना हम अपनी रचनाशीलता को भी नहीं बचा-बढ़ा सकते। लेकिन यह हमारा दुर्भाग्य है--और दुर्भाग्य का कारण भी--कि हम अपने पाठकों की परवाह नहीं करते। हम न तो उन्हें जानते हैं, न उनके लिए लिखते हैं। हम लिखते हैं संपादकों, प्रकाशकों, आलोचकों, पुरस्कारदाताओं या किसी अन्य प्रकार से बाजार में हमारी जगह बना सकने वालों के लिए; जबकि हमारी रचनाशीलता को बचाने और बढ़ाने वाले होते हैं हमारे पाठक। पत्रिकाओं और पुस्तकों के माध्यम से पाठकों तक हमारी सीधी पहुँच नहीं होती, लेकिन इंटरनेट के माध्यम से हम उन तक सीधे पहुँच सकते हैं।
कारण यह कि हमारे लिए इंटरनेट एक ऐसा मंच है, जो सार्वजनिक और सार्वदेशिक होते हुए भी हमें अपनी बात अपने ढंग से कहने की पूरी आज़ादी देता है। यहाँ हम किसी और संस्था या संगठन के सदस्य नहीं, बल्कि स्वयं ही एक संस्था या संगठन हैं। किसी और नेता के अनुयायी नहीं, स्वयं ही अपने नेता और मार्गदर्शक हैं। किसी और संपादक या प्रकाशक के मोहताज नहीं, स्वयं ही अपने संपादक और प्रकाशक हैं। लेकिन इस स्वतंत्रता और स्वायत्तता का उपयोग हम अपनी और अपने पाठकों की रचनाशीलता को बचाने-बढ़ाने के लिए बहुत ही कम कर पा रहे हैं।
मेरी मूल चिंता यह है कि यह काम कैसे किया जाये। मगर, मित्रो, मैं अकेला इस समस्या का समाधान खोज पाने में असमर्थ हूँ और मुझे लगता है कि यह काम हम सब रचनाकारों को मिल-जुलकर ही करना पड़ेगा। मगर कैसे? इस पर आप सोचें और मुझे बतायें। मिलकर न बताना चाहें, तो इंटरनेट के जरिये ही बतायें, पर बतायें जरूर; क्योंकि यह काम अत्यंत आवश्यक होने के साथ-साथ आपका भी उतना ही है, जितना कि मेरा।
--रमेश उपाध्याय
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