क्या हिंदी का उपन्यास वर्तमान परिदृश्य में अपनी सार्थक भूमिका निभा रहा है? क्या वह आजादी के बाद के यथार्थ को अभिव्यक्ति प्रदान करने में सक्षम रहा है? क्या वह अनुभूति और अभिव्यक्ति से आगे जाकर अपने पाठकों को मुक्ति की ओर--राजनीतिक अर्थों में ही नहीं, चेतना और दृष्टि के अर्थों में भी मुक्ति की ओर--अग्रसर कर सका है?
ये और इन जैसे अनेक प्रश्न कृष्ण किशोर द्वारा संपादित पत्रिका ‘अन्यथा’ के पंद्रहवें अंक में उठाये गये हैं तथा उन पर विस्तृत विचार किया गया है। ‘अन्यथा’ का यह अंक उपन्यास विधा पर केंद्रित महत्त्वपूर्ण सामग्री से युक्त 344 पृष्ठों का एक बृहदाकार विशेषांक है, जिसमें कई भारतीय तथा विदेशी भाषाओं के उपन्यासों के अंश, उनकी रचना-प्रक्रिया से संबंधित लेखकीय वक्तव्य, अन्य लेखकों के आत्मकथ्य, डायरी, लेख, समीक्षाएँ, साक्षात्कार आदि प्रकाशित किये गये हैं। इस विपुल सामग्री में हिंदी उपन्यास लेखन पर एक परिचर्चा भी है, जिसका शीर्षक है ‘हिंदी उपन्यास साहित्य में स्वातंत्र्योत्तर भारत की उपस्थिति’। ऊपर जिन प्रश्नों का उल्लेख किया गया है, वे इस परिचर्चा के संयोजक जवरीमल्ल पारख ने अपने आरंभिक वक्तव्य में उठाये हैं। परिचर्चा के सहभागी हैं--रामशरण जोशी, मृदुला गर्ग, पंकज बिष्ट, अब्दुल बिस्मिल्लाह, भगवानदास मोरवाल, ज्योतिष जोशी और विभूति नारायण राय।
यह परिचर्चा यद्यपि उपन्यास विधा पर केंद्रित है, लेकिन इसमें जो प्रश्न और मुद्दे उठाये गये हैं, उनका संबंध जितना उपन्यास की रचना और आलोचना से है, उतना ही कहानी की रचना और आलोचना से भी। अतः इसे केवल उपन्यास तक सीमित करके देखने के बजाय आज के समूचे हिंदी कथासााहित्य के संदर्भ में देखा जा सकता है--खासकर कथा-समीक्षा के संदर्भ में, क्योंकि इस परिचर्चा में कई कथाकारों के वक्तव्यों में कथा-समीक्षा के वर्तमान रूप से एक असंतोष प्रकट किया जाता दिखायी पड़ता है, जो यदि सीधे-सीधे नहीं, तो परोक्षतः कथा-समीक्षा की एक नयी दृष्टि और पद्धति की माँग करता प्रतीत होता है। यों इस परिचर्चा में बहुत-से और बहुत तरह के प्रश्न उठाये गये हैं, लेकिन इसका मुख्य प्रश्न है: कथासाहित्य की रचना और आलोचना किस दृष्टि से की जाये?
परिचर्चा से पहले उसका उद्देश्य स्पष्ट करने के लिए रामशरण जोशी ने कहा है--‘‘इस परिचर्चा के आयोजन का एकमात्र उद्देश्य यह पड़ताल करना है कि आजादी के बाद के इस छह दशक के काल में हिंदी उपन्यास की यात्रा कैसी रही है। क्या इस यात्रा में देश के सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक यथार्थ की अनुगूँजें सुनायी देती हैं?’’
और उस यथार्थ को मिनिएचर रूप में प्रस्तुत करते हुए उन्होंने हिंदी उपन्यासों में उठाये जाने वाले कुछ मुद्दे गिनाये हैं, जैसे--ग्रामीण और शहरी यथार्थ, परंपरा और आधुनिकता, सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता, स्त्री और दलित अस्मिता, जनजातीय अभिकथन, विस्थापन और पलायन, सीमांतीकरण, तकनोलॉजी क्रांति और मिलिटेंट धार्मिकता, स्थानीयकरण और भूमंडलीकरण, आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता आदि। इसके बाद उन्होंने प्रश्न उठाया है--‘‘इन मुद्दों को रचनात्मक अभिव्यक्ति देने में हिंदी उपन्यास कितने सफल या विफल रहे हैं?’’
परिचर्चा में शामिल कथाकारों में से किसी ने भी जोशी द्वारा प्रस्तुत यथार्थ तथा उससे संबंधित मुद्दों से अपनी असहमति व्यक्त नहीं की है। लेकिन इन मुद्दों को उपन्यास में कैसे उठाया जाये, अथवा इस यथार्थ का चित्रण उसमें किस प्रकार किया जाये, इस पर उनके बीच खासे मतभेद हैं। उदाहरण के लिए, जवरीमल्ल पारख द्वारा उठाये गये अनुभूति, अभिव्यक्ति और मुक्ति संबंधी प्रश्न पर मृदुला गर्ग कहती हैं:
‘‘मुझे खुशी है कि आपकी चिंता केवल यह नहीं है कि क्या हिंदी उपन्यास आजादी के बाद के यथार्थ को अभिव्यक्ति दे सका है? यह भी है कि क्या यह अभिव्यक्ति या अनुभूति पाठकों को चेतना और दृष्टि के स्तर पर मुक्ति की ओर अग्रसर कर सकी है? आपकी दूसरी चिंता मुझे ज्यादा सार्थक लगती है।’’
मृदुला गर्ग मानती हैं कि ‘‘हिंदी में यथार्थवादी उपन्यास का वर्चस्व रहा है’’...‘‘उपन्यास ऐसी विधा है, जिसमें यथार्थ हर हाल में रहता ही है’’...और ‘‘उपन्यास का स्वरूप फंतासी का हो, तब भी उसमें यथार्थ ही व्यंजित होता है’’, लेकिन वे यथार्थ-चित्रण के विभिन्न रूपों में फर्क करती हैं। यथार्थ-चित्रण का एक रूप प्रकृतवादी है, जिसमें स्थितियों के यथावत चित्रण को ही पर्याप्त माना जाता है। इसके बारे में वे कहती हैं--‘‘आज के युग में जब विवरणात्मक जानकारियाँ टी.वी. और इंटरनेट पर ही नहीं, प्रादेशिक समाचारपत्रों में भी सुलभ हैं, मात्र स्थूल विवरण का शैक्षिक महत्त्व तक नगण्य हो चला है।’’ इसी तरह यथार्थ-चित्रण का एक रूप अनुभववादी है, जिसमें लेखक के अपने जिये-भोगे को ही यथार्थ माना जाता है। हिंदी के स्त्री और दलित लेखन में यथार्थ प्रायः इसी रूप में चित्रित होता है। इस पर मृदुला गर्ग का कहना है: ‘‘पिछले छह दशकों में हिंदी के यथार्थवादी उपन्यास में उन क्षेत्रों, अंचलों, जातियों और वर्गों को स्थान मिला है, जिन्हें अब तक नहीं मिला था। और अधिकतर भुक्तभोगियों के लेखन द्वारा। स्त्री और दलित इसी श्रेणी में आते हैं। जब भुक्तभोगी अपना अनुभव स्वयं लिखता है, तो निश्चय ही उसका स्वरूप उससे भिन्न होता है, जो संवेदनशील दर्शक या चिंतक उसके बारे में लिखता है। पर समग्र सत्य या यथार्थ को ग्रहणशील बनाने में दोनों महत्त्वपूर्ण हैं। बल्कि मैं कहूँगी कि उनमें से जिसकी सामाजिक चेतना, संवेदन-शक्ति तथा ऐतिहासिक स्मृति अधिक गहन और सूक्ष्म होगी, वही उस यथार्थ का बेहतर निरूपण करेगा।’’
इस प्रकार मृदुला गर्ग लेखक के अपने जिये-भोगे को ही यथार्थ मानकर चलने वाली अनुभववादी कथा-समीक्षा से असंतोष और असहमति व्यक्त करते हुए कहती हैं कि ‘‘असल महत्त्व दृष्टि, चिंतन और प्रतिरोध का है।’’ क्योंकि ‘‘पाठकों की चेतना को विवेकसंपन्न बनाने में अहम भूमिका कृति में व्यंजित जीवन-दृष्टि की होती है; इसकी नहीं कि उसके केंद्रीय पात्र पुरुष हैं या स्त्री। महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि पात्र कहाँ से उठाये गये हैं या वे क्या कहते हैं, बल्कि यह है कि वे विभिन्न जीवन-स्थितियों में क्या करते हैं। उनके किये को पढ़कर ही पाठक रूढ़िगत मान्यताओं और अन्याय से प्रतिरोध करने की प्रेरणा पा सकता है। इसलिए यह सहज संभव है कि कोई स्त्री-केंद्रित उपन्यास इतिहास, राजनीति, समाज और व्यवस्था के विद्रूप की सक्षम और सूक्ष्म व्यंजना करे...।’’
अनुभववादी कथा-समीक्षा कथाकारों में कैसे असंतोष उत्पन्न करती है, इसका उदाहरण भी मृदुला गर्ग ने प्रस्तुत किया है। उन्होंने कहा है--‘‘समय आ गया है कि हम स्त्री लेखन की अलग से बात करना छोड़ दें। अपने संदर्भ में कहूँ, तो 1970 के दशक में जब मैंने लेखन शुरू किया था, तो स्त्री(वादी) विमर्श के व्यावसायिक पैरोकार पैदा नहीं हुए थे। इसलिए तब सबसे ज्यादा अनुशीलन-आकलन 1980 में लिखे मेरे उपन्यास ‘अनित्य’ का हुआ, जिसका मूल विषय ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में राजनीतिक एवं चारित्रिक विघटन था। दुख की बात यह हुई कि स्त्री(वादी) विमर्श के फैशन में आने पर संपादकों-आलोचकों ने अपनी सुविधा के लिए मुझे स्त्री-केंद्रित उपन्यासों का लेखक घोषित कर दिया और मेरी लेखन-सूची से ‘अनित्य’ का नाम ही निकाल दिया। इससे नुकसान मेरा ही नहीं, साहित्य के मूल्यांकन की स्वस्थ परंपरा का भी हुआ।’’
‘विमर्शों’ पर आधारित अनुभववादी कथा-समीक्षा से अब्दुल बिस्मिल्लाह ने भी अपना असंतोष व्यक्त किया है। उनका कहना है--‘‘दलित विमर्श या स्त्री विमर्श का मामला भले ही सार्थक हो, पर इसके साथ मुस्लिम लेखन या अल्पसंख्यक विमर्श को नहीं जोड़ा जाना चाहिए। दलित विमर्श या स्त्री विमर्श का मुद्दा कुछ वर्गों द्वारा उठाया जा रहा है। मगर मुसलमान लेखक तो यह मुद्दा नहीं उठा रहे हैं। फिर यह कहाँ से आ गया?’’
उन्होंने अपना ही उदाहरण देते हुए कहा है--‘‘जब मेरा उपन्यास ‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’ आया, तो प्रायः यही कहा गया कि यह मुस्लिम जीवन को चित्रित करने वाला उपन्यास है। मगर मैं कहता हूँ कि यह मूलतः दस्तकारों के जीवन को चित्रित करने वाला उपन्यास है। बनारस में जो साड़ी-बुनकर हैं, वे मुसलमान भी हैं और हिंदू भी। गिरस्त लोग भले ही मुसलमान हों, पर उनके कारीगरों में हिंदू भी होते हैं। फिर बनारस के आसपास के गाँवों में जाकर देखिए, वहाँ के अधिकांश बुनकर हिंदू मिलेंगे।...जो लोग मुझे मुस्लिम जीवन का कथाकार मानते हैं, उनसे मैं कहता हूँ कि वे मेरा उपन्यास ‘मुखड़ा क्या देखे’ पढ़ें। उसका तो आरंभ ही पंडित रामबृक्ष पांडेय की कन्या के विवाह से होता है...तो ऐसा नहीं है कि हिंदू लेखक मुस्लिम जीवन के बारे में नहीं लिख सकता या मुसलमान लेखक हिंदू जीवन के बारे में। यहाँ बात अनुभव-संसार की है। जिसका अनुभव-संसार जितना व्यापक होगा, उसके उपन्यास में उतनी ही व्यापकता चित्रित होगी।’’
ज्योतिष जोशी ने मृदुला गर्ग और अब्दुल बिस्मिल्लाह से सहमत होते हुए कहा है--‘‘सचमुच एक मुस्लिम द्वारा लिखे गये उपन्यास को ‘मुस्लिम उपन्यास’ और स्त्री द्वारा लिखे गये उपन्यास को ‘स्त्री उपन्यास’ के तहत देखना अनुचित है। उपन्यास में वैयक्तिक, क्षेत्रीय तथा जातीय अस्मिताओं के लिए जगह तो है, पर उन्हें समग्र लेखन के तौर पर देखे जाने की जरूरत है।’’
पंकज बिष्ट यथार्थ-चित्रण के मामले में एक जगह अनुभववादी रुख अपनाते हैं, तो दूसरी जगह यथार्थवादी। मसलन, एक जगह वे जाति, लिंग, क्षेत्र और धर्म से संबंधित विमर्शों वाले लेखन को उचित ठहराते हुए कहते हैं--‘‘अगर मैं पहाड़ी हूँ, तो पहाड़ों में खास तरह की भौगोलिक-सांस्कृतिक स्थितियाँ हैं, जिनमें मैं पला, बढ़ा, पनपा हूँ। पहाड़ी परिवेश के तत्त्व मेरी रचनाओं को व्याख्यायित करते हैं। इसलिए अगर एक मुस्लिम लेखक की रचनाओं को यह कहा जाता है कि वह एक मुस्लिम समाज को अभिव्यक्त कर रहा है, तो मेरे खयाल से इसमें कोई बहुत गलत बात नहीं है, क्योंकि उसके बहाने हमंे उस समाज की जटिलताओं को ज्यादा सूक्ष्म स्तर पर समझने में मदद मिलती है।’’
इसी तरह वे ‘स्त्री-लेखन’ का समर्थन करते हुए कहते हैं--‘‘स्त्रियों को इस पितृसत्तात्मक समाज में सीमित किया जाता है; उनको घर में रहने को कहा जाता है; उनकी यौनिकता, उनकी शारीरिक सीमाएँ, उनकी सामाजिक सीमाएँ, उनके ऊपर थोपे गये मूल्य, पुरुषवादी वर्चस्व; वे सारी बातें हैं, जिन्हें वे एक अलग तरीके से देख रही हैं। उस तरीके से मैं या फिर अब्दुल बिस्मिल्लाह या और कोई नहीं देख सकता, क्योंकि उनकी बारीकियाँ हमारी समझ में कभी भी नहीं आयेंगी।’’
यहाँ भगवानदास मोरवाल पंकज बिष्ट से असहमति और अब्दुल बिस्मिल्लाह से सहमति व्यक्त करते हुए कहते हैं कि स्त्रियाँ स्त्रियों के ही बारे में, दलित दलितों के ही बारे में और मुसलमान मुसलमानों के ही बारे में लिखें, यह गलत है, क्योंकि ‘‘भारतीय समाज की एक बड़ी भारी विशेषता है कि ये सारे समुदाय, सारे समूह इस तरह से गड्डमड्ड हैं, घुले हुए हैं कि आप उनको एक-दूसरे से अलग करके नहीं देख सकते हैं।’’
परिचर्चा के संयोजक जवरीमल्ल पारख मोरवाल से सहमत होते हुए कहते हैं कि भारतीय समाज ‘‘काफी जटिल किस्म का समाज है। उस जटिल समाज के अंदर हम केवल कुछ खास तरह के रूपों को ही यथार्थ मानकर पेश नहीं कर सकते।’’ और फिर पंकज बिष्ट से पूछते हैं कि हमारा साहित्य हमारे उस समग्र यथार्थ से अछूता क्यों है, जो पूरे भारत को प्रभावित कर रहा है?
इस प्रश्न के उत्तर में पंकज बिष्ट पहले कही गयी स्थानीय यथार्थ की अपनी बात से अलग हटकर भूमंडलीय यथार्थ की बात करते हुए कहते हैं कि भूमंडलीकरण से बड़ा संकट पैदा हो गया है, जो लगातार कई रूपों में सामने आ रहा है, जैसे बेरोजगारी, दमन, विस्थापन आदि। उस संकट के ये विभिन्न रूप तात्कालिक रूप से हमारे समाज को प्रभावित कर रहे हैं और अंततः पूरी मानव सभ्यता को प्रभावित करेंगे। लेकिन यह भूमंडलीय यथार्थ हिंदी कथासाहित्य में नहीं आ पा रहा है, क्योंकि हिंदी का लेखक अभी तक इस यथार्थ की चेतना से संपन्न नहीं हो पाया है--‘‘वह लगातार छोटे दायरे में उसको देख रहा है’’, जैसे जातिगत सवाल के रूप में, स्त्री की समस्याओं के सवाल के रूप में या अल्पसंख्यकों के सवाल के रूप में और ‘‘इनसे बड़े सवालों को वह नहीं देख पा रहा है।’’
जवरीमल्ल पारख अब्दुल बिस्मिल्लाह से पूछते हैं कि भूमंडलीकरण की पूरी प्रक्रिया हमारे साहित्य में क्यों नहीं दिखायी देती, तो अब्दुल बिस्मिल्लाह कहते हैं कि हमारे यहाँ भारत-विभाजन जैसी बड़ी घटना पर कोई महान कृति नहीं लिखी गयी, जैसे कि विश्व युद्ध पर ‘‘यूरोप के लगभग हर देश में कोई न कोई महान कृति रची गयी।’’ इसका कारण उनके विचार से यह है कि हमारे यहाँ राष्ट्र की वह अवधारणा नहीं है, जो यूरोप में है। यूरोप में जो घटित हुआ, उससे पूरे के पूरे राष्ट्र प्रभावित हुए, केवल कोई जाति विशेष या कोई धर्म विशेष नहीं। जब पूरा राष्ट्र प्रभावित होता है, तो उसकी प्रतिक्रिया भी राष्ट्रीय होती है। अतः वहाँ के लेखक राष्ट्रीय लेखक हैं, वहाँ का लेखन राष्ट्रीय लेखन है। हमारे यहाँ यह अवधारणा विकसित नहीं हो पायी।
विभूति नारायण राय कहते हैं कि हमारे यहाँ देश का विभाजन होने से लेकर बाबरी मस्जिद के ढहाये जाने और गुजरात में हुए नरसंहार तक अनेक बड़ी घटनाएँ घटित हुईं, लेकिन ऐसी बड़ी घटनाओं पर भी कोई बड़ी कृति नहीं लिखी गयी, क्योंकि हम अभी तक स्वयं को वर्ण, जाति, क्षेत्र आदि के छोटे दायरों में ही देखते रहे हैं। हम स्वयं को एक राष्ट्र के रूप में नहीं देख पा रहे हैं।
वे अब्दुल बिस्मिल्लाह से सहमति व्यक्त करते हुए कहते हैं--‘‘नेशन-स्टेट बनने की हमारी प्रक्रिया तो शुरू हो गयी 19वीं शताब्दी के आखिर तक और 1947 के बाद हम लगभग एक नेशन-स्टेट बन गये हैं। लेकिन अभी भी हम नेशन नहीं बन पाये हैं। और वर्ण-व्यवस्था उसमें सबसे बड़ी बाधा है, जो हमको नेशन बनने से रोकती है।’’
विभूति नारायण राय ने यह स्पष्ट नहीं किया कि राष्ट्र और राष्ट्र-राज्य में क्या फर्क है और उसका साहित्य की रचना तथा आलोचना से क्या संबंध है। यदि करते, तो शायद यह परिचर्चा पुनः उस प्रश्न पर लौटती और उसका उत्तर पाने का प्रयत्न करती, जो इसके आरंभ में उठाया गया था। वह प्रश्न था मुक्ति का प्रश्न--‘‘राजनीतिक अर्थों में ही नहीं, चेतना और दृष्टि के अर्थों में भी मुक्ति’’ का प्रश्न। कारण यह कि जब हम राष्ट्र के संदर्भ में मुक्ति की बात करेंगे, तो राष्ट्र को राष्ट्रवाद से तथा राष्ट्रवाद को साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष से जोड़ेंगे। और तब यह देखना आसान होगा कि अपने राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन से तथा उससे निकले समता, स्वतंत्रता और भाईचारे के जनतांत्रिक मूल्यों से हमारे साहित्य का क्या संबंध है। यदि हम ‘हिंदी उपन्यास साहित्य में स्वातंत्र्योत्तर भारत की उपस्थिति’ पर विचार कर रहे हैं, तो हमें यह तो देखना ही होगा कि क्या हम ‘स्वातंत्र्योत्तर भारत’ को वास्तव में एक स्वतंत्र देश मानकर चल रहे हैं? या कि वह आज भी अपनी वास्तविक मुक्ति के लिए संघर्ष करता हुआ देश है? यदि हाँ, तो यह संघर्ष किसके विरुद्ध है? क्या उस नये साम्राज्यवाद के विरुद्ध ही नहीं, जो आज पूँजीवादी भूमंडलीकरण के रूप में अखिल भूमंडल में अपने पाँव पसार रहा है?
यदि ये प्रश्न उठाये गये होते, तो यह समझना भी आसान होता कि पूँजीवादी भूमंडलीकरण के रूप में जो एक नया साम्राज्यवाद हमारे सामने है--आर्थिक स्तर पर सर्वत्र नव-उदार पूँजीवाद के थोपे जाने के रूप में, राजनीतिक स्तर पर एकध्रुवीय विश्व-व्यवस्था बनाने के प्रयास के रूप में, सांस्कृतिक स्तर पर विभिन्न प्रकार की अस्मिताओं को उभारकर आपस में लड़ाये जाने के रूप में और सामाजिक स्तर पर वर्ण, लिंग, जाति, क्षेत्र, धर्म, संप्रदाय आदि विभिन्न आधारों पर लोगों को बाँटकर उन पर राज करने के रूप में--उससे मुक्ति पाने के लिए हम क्या कर सकते हैं?
यह नया साम्राज्यवाद हमारी साहित्यिक रचना और आलोचना के स्तर पर भी हमें प्रभावित कर रहा है। अतः इस स्तर पर भी उससे मुक्ति पाने के लिए प्रतिरोध और संघर्ष करना आवश्यक है। उदाहरण के लिए, हम देखें कि हमारे साहित्य में भक्ति आंदोलन से आज तक विभिन्न प्रकार के आंदोलनों की जो परंपरा रही है, उसका क्या हुआ? ध्यान से देखें, तो 1970 और 1980 के दशकों में स्त्रियों और दलितों ने हिंदी साहित्य में अपनी उपस्थिति ‘स्त्री आंदोलन’ और ‘दलित आंदोलन’ के ही रूप में दर्ज करायी थी। फिर क्या हुआ कि ये ‘आंदोलन’, जो साहित्यिक ही नहीं, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक आंदोलन भी थे, और एक नया यथार्थ सामने लाकर साहित्य में एक नये यथार्थवाद की माँग कर रहे थे, कब और क्यों ‘विमर्शों’ में बदल गये? यह तब हुआ, जब सोवियत संघ के विघटन और पूँजीवादी भूमंडलीकरण के नये दौर के आगमन के साथ ही एक नयी विचारधारा भी सारी दुनिया में फैलायी गयी थी, जिसका नाम था उत्तर-आधुनिकतावाद। ‘आंदोलनों’ को विस्थापित करके उनकी जगह ‘विमर्शों’ को स्थापित करने का काम इसी विचारधारा ने किया था। मैंने अपनी पुस्तक ‘आज का पूँजीवाद और उसका उत्तर-आधुनिकतावाद’ में बताया था कि उत्तर-आधुनिकतावाद आज के पूँजीवाद की विचारधारा है, जिसे उस समय ‘लेट कैपिटलिज्म’ कहा जाता था और आज ‘निओ-लिबरल कैपिटलिज्म’ के नाम से जाना जाता है।
‘अन्यथा’ की परिचर्चा पढ़ते हुए मुझे याद आया कि 1999 में साहित्य अकादेमी ने एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया था, जिसका विषय था ‘राष्ट्र की तलाश में उपन्यास’। उसके संदर्भ में मैंने एक निबंध उसी साल लिखा था, जिसका शीर्षक था ‘साहित्य को राष्ट्र की तलाश?’। यह निबंध मेरे साहित्यिक निबंधों के संग्रह ‘साहित्य और भूमंडलीय यथार्थ’ में संकलित है। उसमें मैंने पूँजीवादी भूमंडलीकरण को एक नये साम्राज्यवादी आक्रमण के रूप में देखते हुए लिखा था कि ऐसी स्थिति में साहित्य को यदि राष्ट्र और राष्ट्रवाद की चिंता होती है, तो यह स्वाभाविक ही है। आज राष्ट्रवाद हमारी एक वस्तुगत आवश्यकता बन गया है।
उस निबंध में मैंने यह भी लिखा था कि हमारे देश में राष्ट्रवाद के दो रूप रहे हैं। एक वह, जो देश को जोड़ता है और दूसरा वह, जो तोड़ता है। आज की परिस्थिति में साहित्य का कर्तव्य है कि वह जोड़ने वाले राष्ट्रवाद को अपनाये और तोड़ने वाले राष्ट्रवाद से सचेत रहे। तोड़ने वाले राष्ट्रवाद को आज के पूँजीवादी भूमंडलीकरण के संदर्भ में देखना चाहिए, जो यह भ्रम फैला रहा है कि दुनिया एक हो गयी है और दुनिया को अब अलग-अलग राष्ट्रों की कोई जरूरत नहीं रह गयी है। वास्तविकता यह है कि भूमंडलीकरण राष्ट्र-राज्यों के आधार पर ही हो रहा है और राष्ट्र-राज्यों के खत्म हो जाने की फिलहाल कोई संभावना नहीं है। इसलिए भारतीय साहित्य देश को जोड़ने वाले राष्ट्रवाद को अपनाये, तो उसमें एक नयी जान आ सकती है और इसके सुंदर परिणाम महान कृतियों के रूप में प्राप्त हो सकते हैं।
मगर इसके लिए हमें आज की दुनिया को एक व्यापक विश्व-दृष्टि से देखना होगा और भूमंडलीय यथार्थ के संदर्भ में अपने देश के यथार्थ को अपनी रचनाओं में चित्रित करना होगा। आलोचना के स्तर पर भी हमें भूमंडलीय यथार्थवाद को अपनाकर अनुभववाद की सीमाओं से मुक्त होना होगा। इस प्रकार हम अपने कथासाहित्य को तो अधिक सुंदर, सार्थक और सोद्देश्य बनायेंगे ही, कथा-समीक्षा की एक नयी दृष्टि और पद्धति के विकास की दिशा में भी आगे बढ़ेंगे।
--रमेश उपाध्याय