15 नवम्बर, 2011 को अलीगढ़ में दिया गया कुंवरपाल सिंह स्मृति व्याख्यान
आदरणीय अध्यक्ष जी जनाब क़ाज़ी अब्दुल सत्तार साहब, आदरणीया नमिता सिंह जी, भाई अजय तिवारी जी, वेदप्रकाश अमिताभ जी, अमरीक गिल साहब, अजय बिसारिया जी और सभागार में उपस्थित सभी मित्रो! मेरे लिए यह बड़े सम्मान की बात है कि मुझे कुंवरपाल सिंह स्मृति व्याख्यान देने के लिए यहाँ बुलाया गया है। कुंवरपाल सिंह मेरे आदरणीय मित्र और साथी थे। सुयोग्य शिक्षक, अच्छे लेखक और आलोचक, जन-आंदोलनों से जुड़े कर्मठ कार्यकर्ता कुंवरपाल सिंह को याद करते हुए मुझे याद आ रहा है कि पहले मैं उनके बुलाने पर अलीगढ़ आया करता था। कार्यक्रम कुछ भी हो, मुख्या उद्देश्य होता था उनसे, नमिता जी से और इनके प्यारे बच्चों से मिलना। आज कुंवरपाल सिंह नहीं हैं, पर मैं उन्हीं के लिए आया हूँ। आप लोगों के साथ उन्हें याद करने के लिए आया हूँ। आज का मेरा व्याख्यान उन्हीं की स्मृति को समर्पित है। मेरे व्याख्यान का विषय है 'भूमंडलीय यथार्त और साहित्यकार की प्रतिबद्धता'।
मित्रो, मेरा मानना है कि भारत के लिए भूमंडलीकरण कोई नयी चीज नहीं है। हमारे यहाँ बड़े पुराने जमाने से दुनिया को एक मानकर चलने की विचार-परंपरा रही है, जिसकी अभिव्यक्ति ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ और ‘सबै भूमि गोपाल की’ जैसी सूक्तियों में होती रही है। ‘भूमंडलीय यथार्थ’ और ‘भूमंडलीय यथार्थवाद’ की शब्दावली अवश्य नयी है, लेकिन ये अवधारणाएँ हमारे आधुनिक चिंतन में मौजूद रही हैं। उदाहरण के लिए, हम आधुनिक युग के अपने दो महापुरुषों--रवींद्रनाथ ठाकुर और महात्मा गांधी--को याद करें, तो पायेंगे कि ये दोनों ही एक प्रकार के भूमंडलीय यथार्थवादी थे। रवींद्रनाथ ने विश्वभारती की स्थापना की, तो उसका आदर्श-वाक्य लिखा ‘यत्र विश्वंभवत्येकनीडम्’ और महात्मा गांधी ने 1 जून, 1921 के ‘यंग इंडिया’ में लिखा--‘‘मैं नहीं चाहता कि मेरा मकान चारों ओर दीवारों से घिरा हो और मेरी खिड़कियाँ बंद हों। मैं तो चाहता हूँ कि सभी देशों की संस्कृतियों की हवाएँ मेरे घर में जितनी भी आजादी से बह सकें, बहें। लेकिन मैं यह नहीं चाहता कि उनमें से कोई हवा मुझे मेरी जड़ों से ही उखाड़ दे।’’
इतिहास को देखें, तो हमारा देश बाकी दुनिया से कटा हुआ कोई अलग-थलग भूखंड कभी नहीं रहा है। हम दूसरे देशों में जाते रहे हैं और दूसरे देशों के लोग हमारे यहाँ आते रहे हैं। व्यापारिक लेन-देन और सांस्कृतिक आदान-प्रदान भी हम हमेशा करते रहे हैं। पूँजीवाद के आने पर तो हमारा भूमंडलीकरण होना ही था, क्योंकि पूँजीवाद शुरू से ही एक विश्व-व्यवस्था है। मार्क्स ने जब यह कहा था कि पूँजीपति अपने मुनाफे के लिए दुनिया के किसी भी कोने-अंतरे में जा सकता है, तो एक प्रकार से भूमंडलीय यथार्थ को ही व्यक्त किया था। भारतीय मार्क्सवादी भी अंतरराष्ट्रीयतावाद में विश्वास करते हुए हमेशा भारतीय यथार्थ को भूमंडलीय यथार्थ के संदर्भ में समझते रहे हैं।
लेकिन पूँजीवादी भूमंडलीकरण हमेशा एक-सा नहीं रहा है। उसके कई रूप और अलग-अलग दौर रहे हैं। मसलन, साम्राज्यवाद या उपनिवेशवाद के दौर का भूमंडलीकरण एक तरह का था, तो समाजवाद और पूँजीवाद के बीच चले शीतयुद्ध के दौर का भूमंडलीकरण दूसरी तरह का। सोवियत संघ के विघटन और शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद पूँजीवादी भूमंडलीकरण का एक नया दौर शुरू हुआ है। उससे भूमंडलीय यथार्थ बदल गया है और इसी कारण साहित्य में एक नये यथार्थवाद की जरूरत महसूस की जा रही है।
इसी तरह साहित्यकार की प्रतिबद्धता भी कोई नयी चीज नहीं है, लेकिन वह भी विभिन्न प्रकार की होती है। उसके भी विभिन्न रूप इतिहास में और आज भी पाये जाते हैं। मैं तो यह मानता हूँ कि साहित्यकार होना ही प्रतिबद्ध होना है, क्योंकि साहित्यकार--किसी भी युग का और किसी भी देश का साहित्यकार--सत्य, न्याय, नैतिकता, सुंदरता, प्रेम, समता, स्वतंत्रता जैसी सकारात्मक चीजों का पक्षधर और असत्य, अन्याय, अनैतिकता, कुरूपता, घृणा, विषमता, पराधीनता जैसी नकारात्मक चीजों का विरोधी होता है। यदि ऐसा नहीं है, तो वह साहित्यकार कहलाने का अधिकारी ही नहीं है। सच्चा साहित्यकार वह है, जिसे बड़े से बड़ा दमन या प्रलोभन भी ऐसी पक्षधरता और प्रतिबद्धता से विचलित न कर सके। किसी भी देश-काल और किसी भी भाषा के महान साहित्यकारों को देखें, सबमें ऐसी पक्षधरता और प्रतिबद्धता दिखायी पड़ेगी।
जहाँ तक वैचारिक प्रतिबद्धता का सवाल है, वह भी कोई नयी अथवा प्रगतिशील और जनवादी साहित्य की ही विशेषता नहीं है। यह विशेषता भी प्रत्येक देश-काल के महान साहित्य में मौजूद रही है। उदाहरण के लिए, भक्तिकाल के हिंदी साहित्य को देखें। उसमें सगुण भक्ति वाले कवि हों या निर्गुण भक्ति वाले कवि, रामभक्त कवि हों या कृष्णभक्त कवि, संत कवि हों या सूफी कवि--सब में वैचारिक प्रतिबद्धता देखी जा सकती है। सूर, तुलसी, कबीर, जायसी, मीरा आदि में से किसी को भी देख लीजिए। सभी में यह चीज मिलेगी। मीराबाई जब कहती हैं कि ‘‘मेरे तो गिरधर गुपाल दूसरो न कोई’’, तो अपनी प्रतिबद्धता ही व्यक्त करती हैं। इसी प्रकार तुलसीदास जब कहते हैं कि ‘‘जाके प्रिय न राम-वैदेही, तजिए ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही’’, तो अपनी प्रतिबद्धता ही प्रकट करते हैं। यह और बात है कि मैं व्यक्तिगत रूप से मीराबाई की-सी प्रतिबद्धता पसंद करता हूँ, जिसमें अपनी प्रतिबद्धता की अभिव्यक्ति तो है, उसके लिए लोकलाज की परवाह न करने से लेकर विष का प्याला तक पी लेने की बात भी है, लेकिन तुलसीदास की तरह दूसरों को यह उपदेश या आदेश देने वाली बात नहीं है कि जो हमारे राम-वैदेही से प्रेम नहीं करते--अथवा हमारी विचारधारा से सहमत नहीं हैं--उन्हें करोड़ों शत्रुओं के समान मानकर त्याग देना चाहिए। आज के साहित्य में भी, प्रगतिशील और जनवादी साहित्य में भी, मीराबाई की-सी और तुलसीदास की-सी प्रतिबद्धताओं के उदाहरण मिल जायेंगे।
1970-80 के दशकों में हिंदी के प्रगतिशील और जनवादी साहित्यकारों के बीच प्रतिबद्धता एक बड़ा मूल्य मानी जाती थी। लेखक का प्रतिबद्ध होना जरूरी माना जाता था, क्योंकि साहित्य और साहित्यकारों को दो खेमों या शिविरों में बँटा माना जाता था, जैसे प्रगतिशील और प्रतिक्रियावादी, समाजवादी और पूँजीवादी, जनवादी और जन-विरोधी, जनपक्षीय और शासकवर्गीय इत्यादि। मगर यह विभाजन प्रगतिशील और जनवादी लेखक ही किया करते थे। वे जिन लेखकों को दूसरे खेमे का कहते थे, वे तो ऐसे नामकरणों को सिरे से नकारते थे। वे लेखकों को खेमों या शिविरों में बाँटना पसंद नहीं करते थे, इसलिए ‘खेमेबाजी’ या ‘शिविरबद्धता’ को साहित्य के लिए हानिकारक समझते हुए प्रतिबद्धता को हिकारत की नजर से देखते थे। वे प्रतिबद्धता को वैचारिक गुलामी कहते थे और लेखक के विचार-स्वातंत्रय को बहुत बड़ा मूल्य मानते थे। वे जनवाद और समाजवाद की जगह व्यक्तिवाद और व्यक्ति-स्वातंत्रय की बात करते थे और साहित्य को राजनीति से अलग तथा ऊपर की कोई चीज मानते थे। दूसरी तरफ प्रगतिशील और जनवादी लेखक यह कहते थे कि साहित्य को राजनीति से अलग या ऊपर की कोई चीज मानना भी एक विचारधारा है, यह भी एक राजनीति है।
उन दिनों प्रगतिशील और जनवादी लेखकों के बीच मुक्तिबोध के दो कथन बहुत प्रचलित थे। एक यह कि ‘‘पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’’ और दूसरा यह कि ‘‘बशर्ते तय करो किस ओर हो तुम’’। मुक्तिबोध ऐसी बातें पूँजीवादी और समाजवादी व्यवस्थाओं के बीच चलने वाले उस शीतयुद्ध के संदर्भ में कहा करते थे, जो विचारधारात्मक और प्रचारात्मक हथियारों से लड़ा जाता था। साहित्यकार भी, चाहे वे प्रतिबद्ध साहित्यकार हों या अप्रतिबद्ध साहित्यकार, अपनी वर्गीय स्थितियों अथवा सामाजिक परिस्थितियों के चलते अनजाने ही या सचेत रूप से उस युद्ध में शामिल रहते थे। जो सचेत रूप से समाजवाद के पक्ष में और पूँजीवाद के विरुद्ध लड़ते थे, वे अपनी पक्षधरता को छिपाते नहीं थे, क्योंकि वे स्वयं को देश और दुनिया के तमाम शोषित-उत्पीड़ित जनों की मुक्ति के लिए लड़ने वाला सिपाही मानते थे। प्रेमचंद की तरह ‘कलम का सिपाही’। वे शोषण, दमन, अन्याय और अत्याचार पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध एक शोषणमुक्त समतामूलक और न्यायपूर्ण व्यवस्था के लिए लड़ने वाले लेखक के रूप में अपने पक्ष को नैतिक आधार पर उचित समझते थे, इसलिए अपनी राजनीति को दूसरे पक्ष के साहित्यकारों की तरह छिपाते नहीं थे। जो लेखक अपनी राजनीति को छिपाते थे, उनसे वे पूछते थे कि ‘‘पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’’ और उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय, सही-गलत आदि में फर्क न कर पाने के कारण दुविधा में पड़े साहित्यकारों को बताते थे कि लड़ाई तो तुम्हें लड़नी ही पड़ेगी, चाहे इस पक्ष में रहकर लड़ो या उस पक्ष में रहकर, इसलिए तय करो कि तुम किस पक्ष में हो।
मुक्तिबोध जिस यथार्थ के संदर्भ में ऐसे प्रश्न उठा रहे थे, वह उनके समय का भूमंडलीय यथार्थ था। उस समय दुनिया तीन दुनियाओं में बँटी हुई थी--पूँजीवादी देशों वाली पहली दुनिया, समाजवादी देशों वाली दूसरी दुनिया और औपनिवेशिक गुलामी से नये-नये आजाद हुए देशों वाली तीसरी दुनिया। पहली और दूसरी दुनियाओं के बीच शीतयुद्ध चल रहा था, जिसके एक पक्ष का नेतृत्व अमरीका कर रहा था और दूसरे पक्ष का नेतृत्व सोवियत संघ। तीसरी दुनिया के देशों के सामने एक विकल्प यह था कि वे पूँजीवादी खेमे में रहें, दूसरा विकल्प यह था कि समाजवादी खेमे में चले जायें और तीसरा विकल्प यह कि वे दोनों गुटों से अलग गुटनिरपेक्ष देशों के रूप में अपनी खिचड़ी अलग ही पकायें। भारत ने तीसरा विकल्प अपनाया और गुटनिरपेक्ष देशों का आंदोलन ही नहीं चलाया, उसका नेतृत्व भी किया। भारत ने वैश्विक राजनीति में ही नहीं, अपनी अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में भी एक मध्यम मार्ग अपनाया। उसमें थोड़ा पूँजीवाद और थोड़ा समाजवाद मिलाकर मिश्रित अर्थव्यवस्था चलायी। यह एक अच्छी विदेशनीति और अच्छी अर्थनीति थी, जो चलती रहती, तो हमारे देश का इतिहास आज कुछ और ही होता। बेहतर ही होता। लेकिन दुर्भाग्य से पूँजीवाद और समाजवाद दोनों के समर्थक इन नीतियों को गलत समझते थे। पूँजीवाद के समर्थक चाहते थे कि भारत अमरीका को अपना आदर्श माने और पूँजीवादी ढंग से अपना विकास करते हुए अमरीका जैसा देश बनने का प्रयास करे। इसलिए उन्हें नेहरू का समाजवादी रुझान, गुट-निरपेक्षता की विदेशनीति और मिश्रित अर्थव्यवस्था वाली आर्थिक नीति पसंद नहीं थी। दूसरी तरफ समाजवाद के समर्थक, जो सोवियत संघ को अपना आदर्श मानते थे, गुट-निरपेक्षता और मिश्रित अर्थव्यवस्था को राजनीतिक अवसरवाद या ढुलमुलपन समझते थे। उन्हें भारत का यह ढुलमुल रवैया पसंद नहीं था। वे चाहते थे कि भारत वैश्विक राजनीति में खुल्लमखुल्ला पूँजीवाद के विरुद्ध समाजवाद के पक्ष में खड़ा हो। यही अपेक्षा वे साहित्यकारों से करते थे। इसीलिए वे मुक्तिबोध के उपर्युक्त कथनों को बार-बार दोहराते थे। इसमें कहीं न कहीं यह भाव भी शामिल होता था कि जो हमारे साथ नहीं है, या तटस्थता की बात करता है, वह निश्चय ही दूसरे खेमे का है और हमारा शत्रु है। यदि ऐसा नहीं है, तो वह समाजवादी खेमे के पक्ष में खुलकर खड़ा हो और अपनी प्रतिबद्धता को स्पष्ट करे। अर्थात् हमारे साथ आकर अपनी प्रतिबद्धता का प्रमाण दे।
आगे चलकर जब समाजवादी शिविर के अंदर आपसी मतभेद उभरे और भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में यह सवाल उठा कि भारत में क्रांति रूसी रास्ते पर चलकर होगी या चीनी रास्ते पर चलकर, और इस सवाल पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन तथा पुनर्विभाजन होने से एक की जगह तीन-तीन कम्युनिस्ट पार्टियाँ बन गयीं, और बाद में तीनों के अपने अलग-अलग लेखक संगठन भी बन गये, तो साहित्यकार की प्रतिबद्धता का प्रश्न एक जटिल समस्या बन गया। लेखकों के लिए यह तय करना मुश्किल हो गया कि वे किससे प्रतिबद्ध हों। नेताओं ने इस समस्या का एक सरल समाधान यह बताया कि साहित्यकार उस दल और संगठन से जुड़ें, जो सबसे सही हो। लेकिन इससे हुआ यह कि वामपंथी दलों और उनसे जुड़े लेखक संगठनों में स्वयं को सही और दूसरों को गलत साबित करने की होड़ मच गयी। संकीर्णता और कट्टरता बढ़ी और इस विचार ने जोर पकड़ा कि जो लेखक हमारे दल और संगठन को सबसे सही नहीं मानता, वह हमारा शत्रु है। हमारा शत्रु, यानी जन-शत्रु, वर्ग-शत्रु, क्रांति का शत्रु, क्रांतिकारी विचारधारा का शत्रु। प्रगतिशील और जनवादी साहित्यकार अपनी प्रतिबद्धता पर ध्यान देने की जगह दूसरों की प्रतिबद्धता को सही-गलत ठहराने लगे और इसी आधार पर उन्हें मित्र या शत्रु समझने लगे। कहने को वे सभी मार्क्सवादी, प्रगतिशील और जनवादी थे, लेकिन उनमें वर्ण, जाति और संप्रदाय जैसे भेद, ऊँच-नीच तथा वैमनस्य के भाव दिखायी पड़ने लगे। इसकी प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति गुलाबी, लाल और गाढ़े लाल रंगों वाले लेखकों के भेद के रूप में हुई। 1973 में रणजीत और केदारनाथ अग्रवाल ने बाँदा में प्रगतिशील लेखकों का जो सम्मेलन आयोजित किया था, उसे ‘‘विभिन्न रंगतों वाले प्रगतिशील लेखकों का सम्मेलन’’ कहा गया।
इस प्रकार साहित्यकार की प्रतिबद्धता का निर्णय उसकी दलगत संबद्धता को देखकर किया जाने लगा। कौन कितना अधिक प्रतिबद्ध है, इसका निर्णय उसकी ‘रंगत’ यानी दलगत संबद्धता को देखकर किया जाता था, जिसको प्रमाणित करने का काम उस दल के नेता अथवा उससे जुड़े लेखक संगठन के नेता करते थे। फिर दल और लेखक संगठन के भीतर भी अलग-अलग गुट होते थे, उन गुटों के अलग-अलग नेता होते थे, इसलिए लेखक को अपनी प्रतिबद्धता प्रमाणित कराने के लिए उनमें से किसी न किसी गुट में शामिल होना पड़ता था और उस गुट के नेता के प्रति निष्ठावान रहना पड़ता था। लेखक संगठनों में पार्टी के सदस्यों और समर्थकों की प्रतिबद्धता में तो भेद किया ही जाता था, पार्टी के सदस्य लेखकों को भी उनकी पार्टी पोजीशन के मुताबिक कम या ज्यादा प्रतिबद्ध माना जाता था।
होना तो यह चाहिए था कि प्रतिबद्धता को लेखक के निजी निर्णय पर आधारित और उसके नैतिक आचरण से संबंधित उसका एक आंतरिक गुण माना जाता, लेकिन हुआ यह कि साहित्यकार की प्रतिबद्धता को उसकी दलगत प्रतिबद्धता में रिड्यूस करके देखा जाने लगा। इससे लेखकों में एक तरफ यह डर पैदा हुआ कि पार्टी की रीति-नीति से अलग कुछ लिखने पर कहीं उन्हें पार्टी-विरोधी न समझ लिया जाये, तो दूसरी तरफ तुलसीदास की-सी कट्टरता पैदा हुई कि ‘‘जाके प्रिय न राम-वैदेही, तजिए ताहि कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही’’! स्वयं को सही और दूसरों को गलत ठहराने की ऐसी होड़ मची कि प्रलेस (प्रगतिशील लेखक संघ) से जुड़े लेखक जलेस (जनवादी लेखक संघ) और जसम (जन संस्कृति मंच) से जुड़े लेखकों को गलत ठहराने लगे, जलेस से जुड़े लेखक प्रलेस और जसम से जुड़े लेखकों को गलत ठहराने लगे और जसम से जुड़े लेखक प्रलेस और जलेस से जुड़े लेखकों को गलत ठहराने लगे। दूसरी पार्टियों को गलत और अपनी पार्टियों को सही सिद्ध करते-करते वे अपनी पार्टी को इतनी ज्यादा सही मानने लगे कि जैसे वह तो गलती कर ही नहीं सकती और उन्हें हर हाल में उसे सही साबित करना ही है। यही कारण था कि ‘‘चीन का चेयरमैन हमारा चेयरमैन’’ का नारा देने वाली पार्टी हो या आपातकाल का समर्थन करने वाली पार्टी या ज्योति बसु को प्रधानमंत्री न बनने देने की ‘‘हिमालयन ब्लंडर’’ करने वाली पार्टी, लेखकों ने अपनी-अपनी पार्टी को सही ही सिद्ध किया। इससे यह भी हुआ कि पार्टियों से प्रतिबद्ध लेखकों की रचनाओं में यथार्थ की जगह पार्टी द्वारा की गयी उसकी राजनीतिक व्याख्या लिखी जाने लगी। यहाँ तक कि मार्क्सवाद भी अपने-आप पढ़ने-समझने की चीज नहीं रहा, पार्टी उसकी जो व्याख्या करती, उसी को मार्क्सवाद मान लिया जाता। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक ही था कि स्वतंत्र रूप से सोचने-समझने वाले लेखक पार्टी-विरोधी मान लिये जायें और अंधभक्तों की तरह व्यवहार करने वाले लेखक प्रतिबद्ध लेखक माने जायें।
मेरे विचार से प्रतिबद्धता का मतलब दलगत राजनीति की रस्सी गले में डालकर पार्टी के खूँटे से बँध जाना नहीं है। मार्क्सवाद से लेखक की प्रतिबद्धता का मतलब है मार्क्सवाद को स्वयं पढ़ना-समझना, उसके आधार पर यथार्थ को अपने ढंग से विश्लेषित और व्याख्यायित करना, और अपनी व्याख्या पार्टी की व्याख्या से भिन्न होने पर अपनी समझ पर भरोसा करते हुए उसी के अनुसार यथार्थ का चित्रण करना, यथार्थवादी रहते हुए अपनी प्रतिबद्धता को कायम रखना, उसे विस्तार और गहराई देना, अपनी कथनी और करनी की एकता पर आधारित सच्चा प्रतिबद्ध आचरण करना और सोद्देश्य, सार्थक, कलात्मक तथा पाठकों को प्रेरित करने वाला लेखन करना। प्रतिबद्ध लेखक को यह मानकर चलना चाहिए कि उसके लेखन के अच्छे-बुरे परिणामों के लिए कोई दल या संगठन नहीं, वह स्वयं जिम्मेदार है। अतः उसे अपनी प्रतिबद्धता को दल या संगठन से प्रमाणित कराने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन 1970-80 के दशकों में हिंदी के प्रगतिशील-जनवादी लेखकों की प्रतिबद्धता दलगत आधारों पर जाँची-परखी जाती थी और पार्टियों के साहित्यिक कमिसार लेखकों को उनकी प्रतिबद्धता के प्रमाणपत्र दिया करते थे। लेकिन जब प्रतिबद्धता को प्रमाणित कराना पड़े, इसके लिए समझौते करने पड़ें, तो प्रतिबद्धता एक मजाक बनकर रह जाती है।
जिन दिनों हिंदी साहित्य में प्रतिबद्धता का यह हाल हो रहा था, ऐसी प्रतिबद्धता से परेशान प्रगतिशील और जनवादी लेखकों के बीच एक चुटकुला चला करता था कि एक लीडर कॉमरेड अपने काडर कॉमरेड से कहता है--‘‘आओ, साथी, तुम्हारी आत्मालोचना करें।’’ इस पर काडर कॉमरेड लीडर कॉमरेड से कहता है--‘‘साथी, इससे तो अच्छा, मैं आत्महत्या कर लूँ।’’ यह सुनकर लीडर कॉमरेड कहता है--‘‘तो ठीक है, आओ, तुम्हारी आत्महत्या करते हैं।’’
इस चुटकुले का ‘आत्मालोचना’ वाला पूर्वार्ध पहले से चला आ रहा था, ‘आत्महत्या’ वाला उत्तरार्ध मैंने गढ़ा था, क्योंकि मैं प्रतिबद्धता को किसी अन्य से प्राप्त प्रमाणपत्र या मैडल नहीं, लेखक का अपना आंतरिक गुण मानता था और मानता हूँ।
मैं साहित्यकार की प्रतिबद्धता को एक नैतिक निर्णय और उस पर आधारित नैतिक आचरण मानता हूँ। मेरी यह मान्यता मार्क्सवाद और साम्यवादी आंदोलन के इतिहास के मेरे अध्ययन पर आधारित है। उसी अध्ययन के आधार पर मैंने 1974 में ‘कम्युनिस्ट नैतिकता’ नामक पुस्तिका लिखी थी, जिसे एक तरफ व्यापक स्वीकृति और सराहना प्राप्त हुई थी, तो दूसरी तरफ जिसकी तीखी आलोचना भी हुई थी। तीखी आलोचना करने वालों में मेरे आदरणीय मित्र सव्यसाची भी थे, लेकिन बाद में जब वैश्विक परिस्थिति बदल गयी थी, उन्होंने अपनी भूल मानते हुए लिखा था कि मैंने उस पुस्तिका में जो सवाल उठाये थे, वे सही और जरूरी थे।
1973 के बाँदा सम्मेलन में मुझे किस रंगत के प्रगतिशील लेखक के रूप में बुलाया गया था, मुझे मालूम नहीं; क्योंकि मैं अपने लेखन के आधार पर प्रगतिशील माना जाता था, किसी कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता के आधार पर नहीं। बाद में जब मैं जनवादी लेखक संघ के निर्माण में सक्रिय हुआ और उसके निर्माण के बाद पहले उसकी केंद्रीय कार्यकारिणी में तथा बाद में उसके राष्ट्रीय सचिव मंडल में मुझे शामिल किया गया, तब भी मैं किसी कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य नहीं था। जनवादी लेखक संघ के मेरे कई साथी--जिनमें चंद्रबली सिंह, भैरव प्रसाद गुप्त, शिव कुमार मिश्र, ओमप्रकाश ग्रेवाल, सव्यसाची, इसराइल और कुँवरपाल सिंह जैसे मेरे कई अग्रज मित्र शामिल थे--मुझसे कहा करते थे कि अब तो तुम्हें पार्टी की सदस्यता ले ही लेनी चाहिए। लेकिन यह जानते हुए भी कि बहुत-से लोग मुझे सी.पी.एम. का कट्टर कार्ड होल्डर कार्यकर्ता समझते हैं--बहुधा मेरे बारे में ऐसा कहा और लिखा भी जाता रहा है--मैंने अपनी प्रतिबद्धता पर किसी पार्टी का ठप्पा लगवाना उचित नहीं समझा। मुझे याद है कि एक बार शिव कुमार मिश्र और अजय तिवारी मुझे पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर लेने का सुझाव देने के लिए मेरे घर आये थे। दोनों मेरे आदर और स्नेह के पात्र हैं, लेकिन मैंने उनके सुझाव को विनम्रतापूर्वक अस्वीकार करते हुए अध्यापक पूर्णसिंह के निबंध ‘आचरण की सभ्यता’ का एक वाक्य उद्धृत किया था कि ‘‘सच्चा साधु धर्म को गौरव देता है, धर्म किसी को गौरवान्वित नहीं करता’’।
बहरहाल, वह दौर गुजर चुका है और ऐसा लगता है कि साहित्यकार की प्रतिबद्धता की बात करना ‘आउट ऑफ फैशन’ हो गया है। आज के साहित्यकारों के लिए, खास तौर से नयी पीढ़ी के साहित्यकारों के लिए, उसका कोई मतलब नहीं रह गया है। जब उनके लिए समाजवाद ही समाप्त हो गया, मार्क्सवाद ही अप्रासंगिक हो गया, प्रगतिशीलता और जनवाद का ही कोई मतलब नहीं रहा, तो प्रतिबद्धता का क्या मतलब? किसी हद तक उनकी बात ठीक भी है, क्योंकि 1970-80 के दशकों की बहुत-सी बातें अब अपना अर्थ खो चुकी हैं। बर्लिन की दीवार के ढहने के बाद से दुनिया का यथार्थ बहुत बदल गया है। सोवियत संघ तो रहा ही नहीं, रूस और पूर्वी यूरोप के देशों में भी समाजवाद की जगह पूँजीवाद आ गया है। चीन में कहने को अब भी कम्युनिस्ट पार्टी का शासन है, लेकिन वहाँ ठाठ से पूँजीवाद चल रहा है। वह जमाना ही हवा हो गया है, जब एक दुनिया पूँजीवादी थी, दूसरी समाजवादी, और तीसरी दुनिया के हमारे जैसे देशों के पास यह विकल्प था कि हम पहली और दूसरी दुनिया के बीच जारी शीतयुद्ध में किसके पक्ष में खड़े हों या दोनों गुटों से अलग अपना गुटनिरपेक्ष आंदोलन चलायें।
बदले हुए यथार्थ में कुछ विकल्प तो वास्तव में नहीं बचे हैं, लेकिन कई विकल्प अब भी बचे हुए हैं और कई नये विकल्प पैदा हो गये हैं। उदाहरण के लिए, यह पुराना विकल्प बचा हुआ है कि निजी क्षेत्र और सार्वजनिक क्षेत्र वाली मिश्रित अर्थव्यवस्था को अब भी जारी रखा जा सकता है और नया विकल्प यह पैदा हुआ है कि अब ‘‘एक देश में समाजवाद’’ की जगह ‘‘पूरी दुनिया में समाजवाद’’ लाया जा सकता है। आज का पूँजीवाद इसी डर से दुनिया को विकल्पहीन बनाने की कोशिश कर रहा है। वह ऐसा करने में समर्थ तो नहीं है, लेकिन अपने विश्वव्यापी प्रचार तंत्र के जरिये बहुत-से लोगों के मन में यह बात भरने में जरूर सफल हो रहा है कि पूँजीवाद का कोई विकल्प नहीं है। वह अपने असंख्य मुखों से कह रहा है कि शीतयुद्ध समाप्त हो गया है, उस युद्ध में समाजवाद हार गया है, पूँजीवाद जीत गया है, और इस प्रकार दुनिया दो ध्रुवों वाली न रहकर एकध्रुवीय हो गयी है। भूमंडलीकरण ने पहली, दूसरी और तीसरी दुनिया के भेद मिटा दिये हैं। दुनिया एक ग्लोबल गाँव बन गयी है। अब उस ग्लोबल गाँव के चौधरी जी-7 वाले सात देश हों या जी-20 वाले बीस देश, उन सबका मुखिया एक अमरीका ही है, जो ईश्वर की इच्छा से अखिल भूमंडल का स्वाभाविक शासक है। अब सारी दुनिया में और हमेशा पूँजीवाद ही चलेगा--निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों वाला नव-उदार पूँजीवाद--जिसका कोई विकल्प नहीं है।
इस पूँजीवादी प्रचार का प्रतिवाद भी हो रहा है। समाजवादी विचारक किशन पटनायक ने एक पुस्तक लिखी है ‘विकल्पहीन नहीं है दुनिया’। मुझ जैसे बहुत-से हिंदी लेखक भी यह मानते हैं कि दुनिया विकल्पहीन नहीं है। फिर भी, विकल्पहीनता के इस प्रचार से आज के बहुत-से साहित्यकार प्रभावित हैं। आपको याद होगा कि ब्रिटेन की पूर्व प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर के मुँह से बार-बार ‘‘देयर इज नो ऑल्टरनेटिव’’ सुनकर वहाँ के लोगों ने इस कथन के प्रथमाक्षरों को जोड़कर उनका नाम ‘टीना’ रख दिया था। मैंने जब हिंदी के कई साहित्यकारों को बार-बार ‘‘कोई विकल्प नहीं’’ कहते सुना, तो उसी तर्ज पर इस पद के प्रथमाक्षरों को जोड़कर उनका नाम ‘कोविन’ रख दिया और एक निबंध लिखा ‘हिंदी साहित्य के कोविन’। उसमें मैंने लिखा कि हिंदी के कई लेखक पहले हर चीज के विकल्प की जरूरत बताते थे--वैकल्पिक व्यवस्था, वैकल्पिक सरकार, वैकल्पिक राजनीति, वैकल्पिक मीडिया, वैकल्पिक शिक्षा, वैकल्पिक साहित्य, वैकल्पिक संस्कृति आदि--लेकिन अब उन्हें अपनी ही बातें गलत या झूठी लगती हैं। अब उनका नारा है: कोई विकल्प नहीं है। वे यह मानते हैं, और खुल्लमखुल्ला कहते भी हैं, कि पहले वे नासमझ थे, अब समझदार हो गये हैं। दुनिया बदल गयी है, एक सर्वथा नयी परिस्थिति पैदा हो गयी है, इसलिए साहित्य, साहित्यकारों, साहित्यिक संस्थाओं, साहित्यिक संगठनों, साहित्यिक पत्रिकाओं आदि को भी बदल जाना चाहिए।
मैंने उस निबंध में यह भी लिखा था कि हिंदी साहित्य के कोविन लेखक की पक्षधरता और प्रतिबद्धता तथा साहित्य की सार्थकता और सोद्देश्यता को भुलाकर यह मानने लगे हैं कि साहित्य स्वायत्त है। समाज से उसका कोई लेना-देना नहीं है। उसका कोई प्रयोजन नहीं होता। वह भाषा का खेल या खिलवाड़ है। वह मीडिया के जरिये बाजार में बिकने वाला माल है। उसे बेचकर अधिक से अधिक लाभ कमाना ही लेखक का उद्देश्य है। जो जितना ज्यादा बिके, उतना ही बड़ा लेखक है। समाज वगैरह की चिंता छोड़कर लेखक को अपना बाजार बनाना चाहिए। हिंदी का या भारत का बाजार बहुत छोटा है, इसलिए उसे विश्व बाजार में अपनी जगह बनानी चाहिए!
आज के नये लेखकों पर कोविनों का काफी असर है। बात यह है कि साहित्य के शिक्षक, आलोचक, साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादक, साहित्यिक संस्थाओं के नियामक, पुरस्कारों के निर्णायक आदि यथार्थ को जिस रूप में देखते-दिखाते हैं, नयी पीढ़ी के लेखक अक्सर उसी को यथार्थ मानने लगते हैं। आज के वे नये लेखक, जो विकल्पहीनता को ही यथार्थ मानते हुए साहित्य की दुनिया में आये हैं, बाजार और बाजारवाद में फर्क नहीं कर पाते हैं। उन्हें शायद किसी ने बताया ही नहीं कि बाजार तो पूँजीवाद के आने के पहले भी था और शायद पूँजीवाद के जाने के बाद भी रहेगा, लेकिन बाजारवाद एक विशेष प्रकार का पूँजीवाद है, जिसे नव-उदार पूँजीवाद कहते हैं और जिसमें यह माना जाता है कि अर्थव्यवस्था में राज्य का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए, क्योंकि बाजार की ताकतें अर्थव्यवस्था को ज्यादा अच्छी तरह चला सकती हैं। बाजारवाद पूँजीवाद का एक प्रकार है और वह शाश्वत या निर्विकल्प नहीं है। इसका विकल्प है समाजवाद। और आज का भूमंडलीय यथार्थ यह है कि दुनिया पूँजीवाद से तंग आ चुकी है और इसके विकल्प समाजवाद की ओर जा रही है। भूमंडलीय पूँजीवाद की जगह भूमंडलीय समाजवाद का विचार आज की दुनिया का सबसे नया और प्रेरक विचार है।
आज का पूँजीवाद अपनी कब्र खोदने वाले इस विचार से आतंकित है। वह इसे दबाने, गलत ठहराने और खत्म करने के तमाम हथकंडे अपना रहा है, लेकिन इसमें सफल नहीं हो पा रहा है। यह आज का भूमंडलीय यथार्थ है। नयी पीढ़ी को इस यथार्थ से परिचित कराने का काम प्रगतिशील और जनवादी साहित्यकारों को, उनके लेखक संगठनों को, वामपंथी दलों को और उनसे संबद्ध सामाजिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्र के कार्यकर्ताओं को करना चाहिए। लेकिन जब उनमें से अधिकांश कोविन बन गये हों, विकल्पहीनता को ही यथार्थ मानने लगे हों, सोवियत संघ के विघटन से हताश और लस्त-पस्त होकर बैठ गये हों, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी को अपना आदर्श मानकर समाजवाद की जगह पूँजीवाद को ही भूमंडलीय यथार्थ मानने लगे हों, उसी के अनुसार अपनी रीति-नीति निर्धारित करने लगे हों, तो नये साहित्यकारों को भूमंडलीय समाजवाद के विचार से प्रतिबद्ध होने के लिए कौन प्रेरित करेगा?
कोविनों द्वारा इस प्रश्न का जो उत्तर आम तौर पर दिया जाता है, वह विकल्पहीनता के निराशाजनक विचार में से निकलता है और निराशा ही फैलाता है। यह उत्तर कुछ इस प्रकार का होता है: क्या किया जाये, प्रगतिशील और जनवादी साहित्य का वह आंदोलन ही समाप्त हो गया है, जो लेखकों को प्रतिबद्ध होने के लिए प्रेरित करता था। वामपंथी दल और उनके लेखक संगठन ऐसा कोई आंदोलन खड़ा नहीं कर पा रहे, जो नये लेखकों को वामपंथ की ओर आकर्षित करे। वामपंथी राजनीतिक नेताओं को तो साहित्य-वाहित्य की तरफ ध्यान देने की फुर्सत ही नहीं है, लेखक संगठनों के नेता भी नये लेखकों से कोई जीवंत संबंध, संपर्क और संवाद नहीं बना पा रहे हैं। नतीजा यह है कि नये लेखक प्रगतिशीलता, जनवाद, समाजवाद और मार्क्सवाद की ओर आकर्षित होने के बजाय बाजारवादी और अवसरवादी बन रहे हैं। समाज, देश, दुनिया और मानवता की बेहतरी के लिए प्रतिबद्ध लेखन करने के बजाय व्यक्तिगत सफलता और निजी उपलब्धियों के लिए अप्रतिबद्ध लेखन करते हैं। फिर, नये लेखक यह भी देखते हैं कि प्रगतिशील और जनवादी लेखक भी तो प्रतिबद्धता का कोई आदर्श प्रस्तुत नहीं कर रहे हैं--वे या तो अपने दल या संगठन के कार्यकर्ता बनकर रह गये हैं और लिखना बंद कर बैठे हैं, या ऐसा खराब लेखन करते हैं, जिससे नये लेखक प्रेरित होना तो दूर, प्रभावित भी नहीं होते। ऐसे में नये लेखक किससे प्रभावित और प्रेरित होकर प्रतिबद्ध लेखन करें?
जाहिर है कि यह प्रश्न का उत्तर या समस्या का समाधान नहीं, बल्कि विकल्पहीनता से चलकर विकल्पहीनता तक ही पहुँचने वाली निराशाजनक बातें या शिकायतें हैं। ये बातें या शिकायतें निराधार तो नहीं हैं, लेकिन एक बंद दायरे की सोच को सामने लाती हैं। होना यह चाहिए कि हम ‘कला के लिए कला’ वालों की तरह प्रश्न उठाने के लिए प्रश्न न उठायें, बल्कि उनके उत्तर खोजें। समस्याओं की ही बात न करें, उनके समाधान भी सोचें। माना कि आज का साहित्यिक वातावरण निराशाजनक है, लेकिन सवाल यह है कि इसे बदलने और बेहतर बनाने का काम कौन करेगा? क्या इस काम को करने के लिए वामपंथी दलों के नेता और राजनीतिक कार्यकर्ता आयेंगे? क्या इस काम को लेखक संगठनों के नेता करेंगे? उन्हें यह काम करना होता, या वे कर सकते, तो क्या वे इस काम को कर न रहे होते? तो फिर, क्या इस काम को करने के लिए आसमान से कोई फरिश्ते आयेंगे?
मेरा कहना यह है कि यह काम प्रतिबद्ध लेखकों का है और उन्हीं को करना है। यहाँ मुझे अपना ही उदाहरण देने के लिए क्षमा किया जाये, लेकिन मैं आपको बताना चाहता हूँ कि मैं किस तरह सोचता हूँ। मैं अपने-आप से कहता हूँ--क्या तुमसे किसी डॉक्टर ने कहा था कि तुम्हें लेखक बनना है और प्रतिबद्ध लेखक ही बनना है? तुम स्वेच्छा से लेखक बने थे और प्रतिबद्ध लेखन करने का निर्णय तुम्हारा अपना निर्णय था। तुम जब चाहो, अपने इस निर्णय को बदल भी सकते हो। अगर तुम लिखना बंद कर दो, अथवा यह घोषणा कर दो कि अब तुम प्रतिबद्ध लेखक नहीं हो, तो तुम पर, समाज पर और साहित्य पर कोई कहर नहीं टूट पड़ेगा। उलटे, हो सकता है, तुम्हें इससे कुछ फायदा ही हो जाये। लेकिन जब तक तुम अपने निर्णय पर कायम हो, अपनी प्रतिबद्धता में कमी या शिथिलता आ जाने के लिए दूसरों को दोषी नहीं ठहरा सकते। प्रतिबद्ध लेखक बने रहने के लिए जो भी करना जरूरी है, तुमको ही करना है। परिस्थितियाँ प्रतिकूल हैं, तो उनको अनुकूल बनाने का काम किसी और का नहीं, तुम्हारा ही है। माना कि तुम्हारी सीमाएँ हैं, तुम अकेले सब कुछ नहीं कर सकते, लेकिन उस काम को तो ढंग से करो, जिसे करने का निर्णय तुमने लिया है। तुम वही करो, जो कर सकते हो; मगर उसे बेहतरीन ढंग से करना तुम्हारी जिम्मेदारी है। उसको न कर पाने के लिए वातावरण और परिस्थितियों को दोष देकर तुम अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। तुम लेखक हो और नहीं लिख पा रहे हो, या अच्छा नहीं लिख पा रहे हो, तो लिखना बंद कर देने का विकल्प तुम्हारे सामने हमेशा खुला है। यदि तुम प्रतिबद्ध लेखक नहीं बने रहना चाहते, तो अप्रतिबद्ध लेखक बन जाने का विकल्प भी तुम्हारे सामने हमेशा खुला है। मगर जब तक तुम लेखक हो, बेहतरीन ढंग से लिखने की कोशिश करना तुम्हारा काम है। जब तक तुम प्रतिबद्ध लेखक हो, प्रतिबद्ध लेखन के लिए अनुकूल वातावरण बनाना भी तुम्हारा काम है। प्रतिबद्ध लेखक का काम यथार्थ को केवल देखना-दिखाना ही नहीं, उसे बदलना भी है। मौजूदा परिस्थितियाँ वास्तव में प्रतिकूल हैं और उनसे जो निराशा पैदा होती है, वह भी एक यथार्थ है। लेकिन यथार्थ कभी इकहरा नहीं होता। वह द्वंद्वात्मक होता है। कोई भी स्थिति या परिस्थिति सर्वथा और सदा-सर्वदा के लिए निराशाजनक नहीं होती। घना अँधेरा, जिसमें रास्ता नहीं सूझता, एक यथार्थ है। उसमें भटकते हुए लोगों को यदि ऐसा लगता है कि कहीं कोई रास्ता नहीं है, तो उनका यह अनुभव भी यथार्थ है। इस अनुभव से उत्पन्न होने वाली उनकी निराशा भी यथार्थ है। लेकिन यथार्थ यही और इतना ही नहीं है। यथार्थ यह भी है कि प्रत्येक अंधकार में प्रकाश की संभावना मौजूद रहती है। उदाहरण के लिए, घने अँधेरे में माचिस की एक नन्ही-सी तीली या एक छोटी-सी टॉर्च भी प्रकाश पैदा कर सकती है। यह संभावना भी यथार्थ है। इसलिए केवल अंधकार को देखना और उसमें प्रकाश की संभावना को न देखना यथार्थवाद नहीं है। यथार्थ को उसके द्वंद्वात्मक रूप में देखना ही यथार्थवाद है।
अपने-आप से इस तरह का संवाद करते रहने के कारण ही मैं यह समझ पाया हूँ कि आज के लेखक के लिए यथार्थवादी होना पहले के किसी भी समय से ज्यादा जरूरी है। मैं देख रहा हूँ कि आज के यथार्थ को केवल अपने देश के अथवा स्थानीय यथार्थ के रूप में नहीं समझा जा सकता। उसे भूमंडलीय यथार्थ के रूप में ही समझा जा सकता है। इसलिए आज का यथार्थवाद पहले के सभी यथार्थवादों से भिन्न एक नया यथार्थवाद है। मैं इसे भूमंडलीय यथार्थवाद कहता हूँ। और मुझे लगता है कि आज का लेखक इसी यथार्थवाद को अपनाकर विकल्पहीनता के निराशावादी विचार से बच सकता है और आशावादी होकर आगे बढ़ सकता है।
सच कहूँ, तो मैं भी निराशा के एक दौर से गुजरा हूँ। सोवियत संघ का विघटन मेरे लिए निजी तौर पर एक बहुत बड़ा धक्का था। हालाँकि मैं सोवियत संघ कभी नहीं गया, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार का उम्मीदवार भी कभी नहीं रहा, सोवियत संघ की समर्थक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य भी कभी नहीं रहा; फिर भी, सोवियत संघ के विघटन से मुझे धक्का लगा। विश्वास ही नहीं हुआ कि समाजवाद का इतना बड़ा और मजबूत किला अपने ही आप कैसे ढह गया। दुनिया की दूसरी महाशक्ति माना जाने वाला देश इतना शक्तिहीन क्यों साबित हुआ? वहाँ की समाजवादी व्यवस्था ने पूँजीवादी व्यवस्था के आगे क्यों और कैसे घुटने टेक दिये? मेरे कुछ दिन गहरी निराशा में बीते। लेकिन मेरे यथार्थवाद ने मुझे उस निराशा से उबार लिया।
उस समय उत्तर-आधुनिकतावाद का बोलबाला था, जिसे हिंदी में प्रचारित-प्रसारित करने वाले लोग हर चीज के अंत की बातें कर रहे थे--इतिहास का अंत, विचारधारा का अंत, मार्क्सवाद का अंत, राष्ट्रवाद और समाजवाद जैसे महाआख्यानों का अंत, यहाँ तक कि कविता का अंत, कहानी का अंत, साहित्य का अंत और साहित्यकार का भी अंत! इससे जो निराशा फैल रही थी, उससे अपने-आप को उबारने के लिए मैंने भूमंडलीय यथार्थ को सामने लाने वाली एक किताब लिखी। मैं उसका शीर्षक रखना चाहता था ‘यह सब कुछ का अंत नहीं है’। लेकिन ग्रंथशिल्पी प्रकाशन वाले मेरे मित्र श्याम बिहारी राय ने कहा कि यह तो किसी कविता की किताब का नाम लगता है, इस किताब का नाम कुछ और होना चाहिए। मुझे उनकी बात ठीक लगी और मैंने उस किताब का नाम रखा ‘आज का पूँजीवाद और उसका उत्तर-आधुनिकतावाद’। इस किताब का पहला अध्याय था ‘भविष्य-स्वप्न का लोप और उसकी पुनर्प्राप्ति’। (पहले यह अध्याय ज्ञानरंजन ने एक लेख के रूप में ‘पहल’ में छापा था। मराठी लेखक सूर्यनारायण रणसुभे को यह लेख इतना अच्छा और जरूरी लगा कि उन्होंने इसका अनुवाद मराठी में किया और ‘मार्क्सवाद्यांचे स्वप्न आणि नवी फेरमांडणी’ के नाम से स्वतंत्र पुस्तक के रूप में प्रकाशित कराया।) उसमें मैंने स्वयं को ही संबोधित करते हुए लिखा था :
‘‘तुम कैसे मार्क्सवादी हो कि द्वंद्ववाद को भूलकर तस्वीर का एक ही पहलू देखते हो और निराश हो जाते हो? कल तक तुम्हें भविष्य उज्ज्वल ही उज्ज्वल क्यों नजर आता था? आज वही भविष्य अँधेरा ही अँधेरा क्यों दिखायी देता है? ऐसा कौन-सा प्रकाश होता है, जिसमें अंधकार की आशंका न हो? और, ऐसा कौन-सा अंधकार होता है, जिसमें प्रकाश की संभावना न हो? कल तक पूर्ण आशावादी बनकर तुम एक प्रकार की गलती कर रहे थे, आज पूर्ण निराशावादी बनकर दूसरे प्रकार की गलती कर रहे हो। बेहतर हो कि पहले प्रकार की गलती के लिए आत्मालोचना करो और दूसरे प्रकार की गलती न करने का निश्चय करो।’’
आत्मालोचना करते हुए मैंने पाया कि प्रगतिशील-जनवादी साहित्यकारों में फैली निराशा का कारण सोवियत संघ का बिखर जाना नहीं, बल्कि दुनिया में हो रहे परिवर्तनों को समझकर अपनी दशा और दिशा का सही आकलन न कर पाना है। दुनिया बड़ी तेजी से बदल रही है और हम पुराने ढंग से ही सोच रहे हैं, पुराने ढंग से ही काम कर रहे हैं। नयी परिस्थितियों में नये ढंग से काम करने की कोई परिकल्पना ही हमारे पास नहीं है--न प्रगतिशील-जनवादी साहित्यकारों के पास, न वामपंथी दलों और उनसे संबद्ध लेखक संगठनों के पास। मैं उन्हें तो बदल नहीं सकता था, लेकिन मैंने सोचा, मैं स्वयं को तो बदल सकता हूँ; अपने काम करने के पुराने तौर-तरीकों को तो बदल सकता हूँ। सबसे पहले तो मुझे अपने तईं इस नयी वैश्विक परिस्थिति को समझना है और फिर हो सके, तो अपने पाठकों को समझाना है। और इस प्रयास में भूमंडलीकरण का अध्ययन करते हुए यह यथार्थ मेरी समझ में आया कि पूँजीवाद एक वैश्विक व्यवस्था है, तो समाजवाद भी एक वैश्विक व्यवस्था ही है। जब पूँजी का भूमंडलीकरण हो सकता है, तो श्रम का क्यों नहीं? जब पूँजीवाद का भूमंडलीकरण हो सकता है, तो समाजवाद का क्यों नहीं? और मुझे लगा कि इस बदली हुई परिस्थिति में पूँजीवाद और समाजवाद के बारे में ही नहीं, यथार्थ और यथार्थवाद के बारे में भी नये सिरे से सोचना होगा; नये यथार्थवादी लेखक के रूप में सक्रिय होना होगा। मैंने सोचा, राजनीतिक दल और उनके लेखक संगठन कब इस तरह सोचेंगे और कब इस तरह सक्रिय होंगे, पता नहीं, लेकिन मैं स्वयं तो एक लेखक के रूप में नये ढंग से सक्रिय हो ही सकता हूँ।
लेकिन आसपास के लेखकों और साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादकों से मैंने इस बारे में बात की, तो पता चला कि वे अभी ऐसा कुछ सोचने और करने की स्थिति या मनःस्थिति में नहीं हैं। हिंदी साहित्य पर उस समय एक तरफ उत्तर-आधुनिकतावाद और जादुई यथार्थवाद के नये फैशन छाये हुए थे, तो दूसरी तरफ वे अनुभववादी और कलावादी प्रवृत्तियाँ पुनः हावी हो रही थीं, जिन्हें 1970-80 के दशकों में प्रगतिशील-जनवादी साहित्य ने काफी पीछे धकेल दिया था। कई प्रगतिशील और जनवादी लेखक-संपादक भी भूमंडलीय यथार्थ को समझने और उसके बारे में कुछ करने की सोचने के बजाय बहती गंगा में हाथ धोते हुए उत्तर-उत्तर कर रहे थे--उत्तर-आधुनिकतावाद, उत्तर-समाजवाद, उत्तर-मार्क्सवाद! यथार्थ और यथार्थवाद पर नये सिरे से विचार करने की उन्हें फुर्सत ही नहीं थी। उलटे, मुझे ऐसी बातें करते देख उन्होंने मुझे पुरानी लकीर का फकीर समझा और मुँह फेरकर अपने काम में लग गये।
तब मैंने अपनी बेटी संज्ञा, कुछ पुराने मित्रों तथा कुछ नये उत्साही लेखकों को साथ लेकर अपनी पत्रिका ‘कथन’ को फिर से निकालना शुरू किया, जो पिछले पंद्रह साल से बंद पड़ी थी। और मुझे देखकर अत्यंत सुखद आश्चर्य हुआ कि बदलते हुए भूमंडलीय यथार्थ की चिंता करने वालों, उसका गंभीर अध्ययन करने वालों, उस पर चिंतन-मनन और लेखन करने वालों की कमी नहीं है। हिंदी में अभी ऐसे लोग कम हैं, लेकिन अंग्रेजी में कई लोग इससे संबंधित विषयों पर खूब लिख-बोल रहे हैं। विभिन्न देशों में पूँजीवादी भूमंडलीकरण के विरुद्ध अनेक प्रकार के आंदोलन चल रहे हैं। उनके बारे में लिखा जा रहा है और भूमंडलीय यथार्थ को सामने लाने वाली ढेरों पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं।
मुझे आश्चर्य हुआ कि जब हिंदी के लेखकों को लिखने के लिए नये विषय नहीं मिल रहे हैं और वे अपने पुराने अनुभवों को ही नये रूपों में लिखते हुए अथवा अपने लेखन में कुछ नयापन लाने के लिए विदेशी लेखकों की नकल करते हुए एक ही जगह खड़े कदमताल कर रहे हैं, तब आज का भूमंडलीय यथार्थ सोचने-समझने और लिखने के लिए नित्य नये विषय प्रस्तुत कर रहा है। अतः ‘कथन’ में हमने भूमंडलीय यथार्थ के विभिन्न पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करना शुरू किया और हर अंक में एक नया विषय उठाकर उस पर विशेष सामग्री देने लगे। ‘कथन’ के लेखकों और पाठकों ने इस नयेपन का स्वागत किया और हमने नहीं, उन्हीं ने ‘कथन’ के लिए ‘‘हर बार कुछ नया: हर अंक एक विशेषांक’’ का नारा दिया। इस प्रकार अत्यंत सीमित निजी संसाधनों के बावजूद ‘कथन’ के अंक निरंतर नियत समय पर तथा उत्तरोत्तर बेहतर रूप में निकलने लगे। ‘कथन’ को हिंदी के बड़े से बड़े और नये से नये लेखकों का सहयोग मिलने लगा। नये विषयों पर अंग्रेजी में लिखने वाले लेखकों, विशेषज्ञों तथा चिंतकों-विचारकों को भी हमने ‘कथन’ से जोड़ा। हमने उन्हें यह सुविधा दी कि वे हमारे लिए अंग्रेजी में लिख दें, हम अनुवाद कर लेंगे; या उन्हें लिखने की फुर्सत नहीं है, तो बोल ही दें, हम रिकॉर्ड कर लेंगे और उनके विचारों को हिंदी में लिखकर प्रकाशित कर देंगे। नतीजा यह हुआ कि हमें ऐसे लोगों का भी भरपूर सहयोग मिला। इस प्रकार ‘कथन’ में ऐसे नये से नये विषयों पर केंद्रित अंकों का सिलसिला शुरू हुआ, जो हिंदी में पहली बार उठाये गये थे। उदाहरण के लिए, कुछ विषय हैं--‘यूटोपिया की जरूरत’, ‘आशा के स्रोतों की तलाश’, ‘विकल्प की अवधारणा’, ‘श्रम का भूमंडलीकरण’, ‘नयी विश्व व्यवस्था की परिकल्पना’, ‘नयी संस्थाओं की जरूरत’, ‘सांस्कृतिक साम्राज्यवाद’, ‘भाषा और भूमंडलीकरण’, ‘शिक्षा और भूमंडलीकरण’, ‘दुनिया की बहुध्रुवीयता’, ‘बाजारवाद और नयी सृजनशीलता’, ‘उत्पादक श्रम और आवारा पूँजी’, ‘भूमंडलीय यथार्थवाद’, ‘वर्तमान संकट और दुनिया का भविष्य’ इत्यादि। और आज, जब ‘कथन’ के साठ अंक निकालने के बाद मैं उसका संपादन पूरी तरह संज्ञा को सौंप चुका हूँ और वह स्वतंत्र रूप से अपने संपादन में बारह अंक और निकाल चुकी है, तब मुझे लगता है कि इस काम को करते हुए एक लेखक के रूप में मेरा जो विकास हुआ है, अन्यथा कभी न हो पाता। मैं यह काम न करता, तो ‘आज के सवाल’ शृंखला की अब तक प्रकाशित पच्चीस पुस्तकें कैसे संपादित कर पाता? ‘बेहतर दुनिया की तलाश में’ तथा ‘साहित्य और भूमंडलीय यथार्थ’ जैसी पुस्तकें कैसे लिख पाता? ‘डॉक्यूड्रामा’, ‘प्रजा का तंत्र’, ‘ग्लोबल गाँव के अकेले’, ‘त्रासदी...माइ फुट!’ और ‘प्राइवेट पब्लिक’ जैसी कहानियाँ कैसे लिख पाता? और सबसे बड़ी बात यह कि नितांत प्रतिकूल परिस्थितियों में भी निरंतर उत्साही और आशावादी कैसे बना रह पाता?
इस दौरान मैंने यह भी देखा कि आजकल हिंदी लेखकों पर विकल्पहीनता के विचार और उससे पैदा होने वाली निराशा के हावी हो जाने का एक बहुत बड़ा कारण यह है कि उन्होंने अनुभववाद को ही यथार्थवाद समझते हुए, और उसी से संतुष्ट रहते हुए, अपने साहित्य की यथार्थवादी परंपरा को आत्मसात करने, उसे आगे बढ़ाने और इसके लिए आज के यथार्थ को समझकर यथार्थवाद का विकास करने का जरूरी काम करना छोड़ दिया है। इसके लिए बहुत हद तक आज का पूँजीवाद जिम्मेदार है, जो अपने विश्वव्यापी प्रचारतंत्र के जरिये लोगों का ध्यान यथार्थ से हटाने का काम करता है, ताकि लोग यथार्थ को देखें ही नहीं, जानें ही नहीं, समझें ही नहीं; क्योंकि यथार्थ को देखने, जानने और समझने से लोग उसे बदलने और बेहतर बनाने की जरूरत महसूस करने लगते हैं तथा इसके लिए संगठित होकर सक्रिय होने लगते हैं। अतः वह अपने मीडिया के जरिये, शिक्षा संस्थानों और प्रकाशन संस्थानों के जरिये, मनोरंजन उद्योग के जरिये और नये-नये वैचारिक तथा साहित्यिक फैशनों के जरिये आम लोगों को ही नहीं, साहित्यकारों को भी यथार्थ से विमुख करता है। इसलिए आज के साहित्यकार के लिए जरूरी हो गया है कि वह केवल उसी को यथार्थ न समझे, जो उसके सामने आ रहा है या लाया जा रहा है; बल्कि स्वयं उसे उसके व्यापक रूप में जानने, समझने, आत्मसात करने और अपनी रचना में रूपायित करने का प्रयास करे।
इसका सबसे अच्छा तरीका तो यही है कि साहित्यकार स्वयं बाहर निकलकर दुनिया के यथार्थ को प्रत्यक्ष देखे और उसमें जीकर उसे जाने। लेकिन यह वांछित होते हुए भी संभव नहीं है। अतः आज के भूमंडलीय यथार्थ को जानने और उसके आधार पर यथार्थवादी रचना करने का एक ही तरीका है कि वह ज्ञान के वैकल्पिक माध्यमों से जुड़े। हालाँकि ऐसे वैकल्पिक माध्यमों में आज इंटरनेट एक मुख्य माध्यम बनकर उभर रहा है, फिर भी इसका सर्वोत्तम माध्यम आज भी किताबें ही हैं। अतः मुझे लगा कि ऐसी किताबें पढ़ना मेरे लिए तो जरूरी है ही, दूसरे लेखकों-पाठकों को उनकी जानकारी देना भी जरूरी है। यह सोचकर मैंने ‘कथन’ में ‘जरूरी किताबें’ नामक एक स्तंभ नियमित रूप से लिखना शुरू किया। उत्पल कुमार के नाम से यह स्तंभ मैं ही लिखता हूँ और ‘कथन’ का संपादन संज्ञा को सौंपने के बाद भी मैं इसे लिखना जारी रखे हुए हूँ। इस स्तंभ में मैं हर बार अंग्रेजी की एक किताब का विस्तार से, लगभग चार पृष्ठों में, परिचय देता हूँ और बताता हूँ कि इस किताब में क्या है और इसे पढ़ना क्यों जरूरी है। ‘कथन’ का प्रत्येक अंक किसी विशेष विषय पर केंद्रित होता है और मैं उसी विषय से संबंधित एक किताब चुनकर उसके बारे में लिखता हूँ। अब तक जिन किताबों का परिचय मैंने दिया है, उनमें से कुछ के नाम हैं--अंर्स्ट ब्लॉख की ‘दि प्रिंसिपल ऑफ होप’, माइकेल लोवी की ‘ऑन चेंजिंग दि वर्ल्ड’, मिशेल बॉड की ‘अ हिस्टरी ऑफ कैपिटलिज्म’, समीर अमीन की ‘कैपिटलिज्म इन दि एज ऑफ ग्लोबलाइजेशन’, फ्रांसिस मुलहेर्न की ‘कल्चर/मेटाकल्चर’, जॉन टॉमलिंसन की ‘कल्चरल इंपीरियलिज्म’, रॉबर्ट फिलिपसन की ‘लिंग्विस्टिक इंपीरियलिज्म’, मार्था नुसबॉम की ‘सेक्स एंड सोशल जस्टिस’, रोमी क्लार्क तथा रॉस इवानिच की ‘दि पॉलिटिक्स ऑफ राइटिंग’, रोनाल्डो मुंक की ‘ग्लोबलाइजेशन एंड लेबर’ इत्यादि।
ऐसी किताबों से पता चलता है कि आज की दुनिया में ऐसे असंख्य सामाजिक तथा राजनीतिक आंदोलन चल रहे हैं, जिनसे दुनिया भविष्य में तो बदलेगी ही, आज भी बदल रही है। इन आंदोलनों के जरिये आज का भूमंडलीय यथार्थ तो सामने आ ही रहा है, दुनिया के लोगों में व्याप्त आशावादिता, दुनिया को बेहतर बनाने की मजबूत इच्छाशक्ति और समाजवादी प्रतिबद्धता भी सामने आ रही है। पिछले दिनों ऐसी एक किताब मेरे पढ़ने में आयी ‘ग्लोबल रिवोल्ट : अ गाइड टु दि मूवमेंट्स अगेंस्ट ग्लोबलाइजेशन’। अमोरी स्टार द्वारा लिखी गयी यह किताब वर्ल्ड सोशल फोरम के नारे ‘‘एक और दुनिया संभव है’’ को सच साबित करती है। इस किताब में दुनिया भर में चल रहे आंदोलनों के उदाहरण सामने रखकर बताया गया है कि आज भूमंडलीकरण के दो रूप सामने आ रहे हैं--एक वह, जो पूँजीवादी शक्तियों द्वारा ‘‘ऊपर से किया जा रहा भूमंडलीकरण’’ है और दूसरा वह, जो दुनिया के तमाम लोगों द्वारा ‘‘नीचे से किया जा रहा भूमंडलीकरण’’ है। शायद यह नीचे से किया जा रहा भूमंडलीकरण भूमंडलीय पूँजीवाद की जगह भूमंडलीय समाजवाद के निर्माण की शुरूआत है।
इधर जब से पूँजीवादी व्यवस्था विश्वव्यापी मंदी की चपेट में आकर अपने इतिहास के सबसे बड़े संकट में फँसी है, उसके विरुद्ध दुनिया में जगह-जगह जन-असंतोष भड़क रहा है। उसके विरुद्ध जन-आंदोलनों और जन-विद्रोहों का सिलसिला अमरीका से लेकर यूरोप के उन देशों तक में चल पड़ा है, जो पूँजीवाद के सबसे मजबूत गढ़ रहे हैं। शातिर पूँजीवाद अपनी रक्षा के लिए इस स्थिति का भी लाभ उठा रहा है। वह विभिन्न देशों में ऐसे आंदोलन चलवा रहा है, जो होते तो जन-असंतोष से उत्पन्न तथा स्थानीय शासकों के विरुद्ध ही हैं, लेकिन फायदा भूमंडलीय पूँजीवाद को पहुँचाते हैं। पिछले दिनों अरब-अफ्रीकी देशों में वहाँ के तानाशाहों के विरुद्ध जो आंदोलन चले, कुछ इसी तरह के आंदोलन थे।
लेकिन पूँजीवाद की यह चाल ज्यादा चलने वाली नहीं है। पूँजीवाद द्वारा चलवाये जाने वाले तथाकथित जन-आंदोलनों और असली जन-आंदोलनों का फर्क अब स्पष्ट होने लगा है। खुद अमरीका में, जो दुनिया में जगह-जगह नकली जन-आंदोलन चलवाता है, पिछले दिनों यह फर्क स्पष्ट हो गया है। अमरीकी अर्थव्यवस्था के संकट में आने पर जब वहाँ की जनता की दुर्दशा हद से ज्यादा बढ़ गयी, तो यह माँग होने लगी कि गरीबों को राहत देने के लिए अमीरों पर टैक्स बढ़ाये जायें। यह माँग पूरी हो जाती, तो अमीरों को नुकसान होता। उससे बचने के लिए उन्होंने गरीबों को खरीदने के लिए पानी की तरह पैसा बहाया और उनसे एक आंदोलन चलवाया--‘टी-पार्टी’ नाम का आंदोलन--जिसमें गरीब लोग खुद अपने हितों के खिलाफ जाकर यह माँग करते थे कि अमीरों पर टैक्स न बढ़ाये जायें। लेकिन कुछ ही समय बाद अमरीकी जनता ने ‘ऑकुपाई वॉल स्ट्रीट’ (वॉल स्ट्रीट पर कब्जा करो) नामक एक असली जन-आंदोलन शुरू कर दिया, जो देखते-देखते दुनिया के कई देशों में फैल गया है।
यह तो सिर्फ एक उदाहरण है। ऐसे न जाने कितने असली जन-आंदोलन आज दुनिया भर में चल रहे हैं। भारत में मीडिया चूँकि पूँजीवादी मीडिया है, इसलिए वह पूँजीवाद को बनाये रखने के लिए चलवाये जाने वाले नकली जन-आंदोलनों को तो खूब दिखाता है, जैसे पिछले दिनों उसने भारत के अण्णा हजारे के आंदोलन को दिखाया, लेकिन पूँजीवाद को खत्म करके समाजवाद को लाने के लिए चलाये जाने वाले किसानों, मजदूरों, स्त्रियों, दलितों, आदिवासियों आदि के असली आंदोलनों के बारे में बिलकुल खामोश रहता है। लेकिन मीडिया के न दिखाने से उनका अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता। वे चल रहे हैं, चलेंगे और मुझे पूरा विश्वास है कि एक दिन सफल भी जरूर होंगे। यह आज का भूमंडलीय यथार्थ है और आज के प्रतिबद्ध साहित्यकारों का कर्तव्य है कि वे इस यथार्थ को सामने लायें।
--रमेश उपाध्याय