Thursday, February 1, 2018

साहित्यिक आंदोलन और लेखक संगठन

पिछले दिनों प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच तीनों ही लेखक संगठनों में एक उत्साहवर्धक सक्रियता दिखायी दी है. किन्हीं भी कारणों से, किन्ही भी उद्देश्यों से और किन्हीं भी लोगों के प्रयासों से यह संभव हुआ हो, स्वागतयोग्य है. इस संदर्भ में 'परिकथा' पत्रिका के नए अंक (जनवरी-फरवरी, 2018) में प्रकाशित हमारा लेख 'साहित्यिक आंदोलन और लेखक संगठन' प्रस्तुत है.--रमेश उपाध्याय


‘परिकथा’ के सितंबर-अक्टूबर, 2017 के अंक में शंकर ने अपने संपादकीय ‘लेखक संगठन और यह समय’ में बीसवीं सदी के अंतिम तीन दशकों और इक्कीसवीं सदी के पहले दो दशकों के हिंदी साहित्य की तुलना करते हुए कहा है कि तब के लेखन के एक बड़े हिस्से में जो गुण थे, वे अब के लेखन के एक बड़े हिस्से में या तो अनुपस्थित हैं या दुर्गुणों में बदल गये हैं। उनके अनुसार तब के लेखन में यथार्थवाद, लोकोन्मुखता और सामाजिक सरोकारों को सर्वोच्चता प्राप्त थी, अब के लेखन में या तो इनसे इनकार है या इनकी उपस्थिति बहुत धुँधली है। तब के लेखन में अंतर्वस्तु को प्रमुखता दी जाती थी, अब के लेखन में रूप को प्राथमिकता दी जाती है। तब के लेखन में निजी या वैयक्तिक किस्म के विषय कम होते थे, अब के लेखन में वे बहुतायत में पाये जाते हैं और महिमामंडित भी किये जाते हैं। तब के लेखन में आत्मालोचना दिखती थी, अब के लेखन में उसकी जगह गहरी आत्ममुग्धता दिखती है। तब की साहित्यिक आलोचना में जरूरी और उत्कृष्ट रचनाओं को महत्त्व दिया जाता था, अब की साहित्यिक आलोचना में गैर-जरूरी और घटिया रचनाओं को महत्त्वपूर्ण बताने की जिद भरी कोशिश की जाती है। तब के लेखन में अनुभवों की पुनर्रचना, सकारात्मक स्थितियों की परिकल्पना और बेहतर स्थितियों की कामना की जाती थी, अब के लेखन में विभ्रम, विफलता और विकल्पहीनता के ही आख्यान दिखायी देते हैं। 

आज के हिंदी साहित्य में आयी इस गिरावट के कारणों को आज के समय में खोजते हुए शंकर ने आज के समय को बाजार, उच्चस्तरीय भोग-संस्कृति, विलासितापूर्ण परिवेश की चकाचैंध, किसानों की आत्महत्याओं, असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए रोजगार के अभाव तथा दलितों, स्त्रियों और अल्पसंख्यकों के लिए मुश्किलों और अनिश्चितताओं का समय बताया है, जिसके कारण साहित्य, कला और संस्कृति के क्षेत्र में अवांतर मूल्य सर्वोपरि बन गये हैं। 

ऐसे समय की चुनौतियों का सामना करने की आशा और अपेक्षा शंकर विवेकवान और प्रबुद्ध सामाजिक इकाइयों के साथ-साथ लेखक संगठनों तथा उनके समानधर्मा संगठनों से करते हैं, जो उनके अनुसार इन्हीं प्रतिकूलताओं में आगे चलते रहेंगे, क्रियाशील बने रहेंगे और जो लोग जोखिमों के इस दौर में भी अपनी प्रतिबद्धता के अनुसार कुछ कर रहे हैं, उनके पीछे सुरक्षा-पंक्ति बनकर खड़े रहेंगे। 

‘‘विवेकवान और प्रबुद्ध सामाजिक इकाइयों’’ से उनका क्या आशय है, यह स्पष्ट नहीं है, लेकिन यह स्पष्ट है कि वे वाम-जनवादी लेखक संगठनों की बात कर रहे हैं और उनसे कुछ ज्यादा ही आशा और अपेक्षा कर रहे हैं। शायद उन्हें लगता है कि लेखक संगठन आज की प्रतिकूल परिस्थितियों में भी सक्रिय हैं, आगे बढ़ रहे हैं और प्रतिबद्ध लेखकों, लघु पत्रिकाओं के संपादकों और साहित्य को जनता तक पहुँचाने के कार्यों में लगे लोगों की सुरक्षा करने में समर्थ हैं। लेकिन उनका यह आकलन यथार्थ से बहुत दूर का लगता है। 

हिंदी साहित्य आंदोलनधर्मी रहा है। उसमें ‘छायावाद’ और ‘प्रगतिवाद’ से लेकर ‘नयी कविता’, ‘नयी कहानी’, ‘अकविता’, ‘अकहानी’, ‘सचेतन कहानी’, ‘समांतर कहानी’ आदि कई साहित्यिक आंदोलन चले हैं। इनमें से प्रगतिवादी आंदोलन को छोड़कर, जो साहित्यिक के साथ-साथ सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन भी था, सभी आंदोलन निरे साहित्यिक और प्रायः किसी एक साहित्यिक विधा के आंदोलन रहे हैं। आजादी से पहले चले प्रगतिवादी आंदोलन जैसा ही एक आंदोलन आजादी के बाद बीसवीं सदी के आठवें और नवें दशकों में चला, जिसे वाम-जनवादी आंदोलन कहा जाता है। इन दोनों की विशेषता यह रही कि इनका जोर ‘लिखने’ के साथ-साथ कुछ ‘करने’ पर भी रहा। मसलन, साहित्य को समाज से जोड़ने के लिए सभाएँ, सम्मेलन, नाटक, नुक्कड़ नाटक आदि करना, जलसों-जुलूसों में गाकर सुनाये जाने वाले जनगीत लिखना और उन्हें हजारों श्रोताओं के बीच गाकर सुनाना, व्यावसायिक रंगमंच के विरुद्ध जन-रंगमंच का विकास करना, व्यावसायिक पत्रिकाओं के विरुद्ध जन-चेतना जगाने वाले साहित्य की लघु पत्रिकाओं तथा पुस्तकों का प्रकाशन करना इत्यादि। 

पुराने प्रगतिवादी आंदोलन से प्रगतिशील लेखक संघ और ‘इप्टा’ (इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन) का जन्म हुआ था। नये वाम-जनवादी आंदोलन से जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच जैसे नये लेखक संगठन बने तथा जन नाट्य मंच और निशांत नाट्य मंच जैसी नयी नाटक मंडलियाँ अस्तित्व में आयीं। इस नये आंदोलन ने पुराने प्रगतिशील लेखक  संघ में तो नये प्राण फूँके ही, लेखन के पुराने तौर-तरीके भी बदले, जिससे साहित्य में एक नवोन्मेष हुआ और पोस्टर कविता, किस्सागोई, जनगीत तथा नुक्कड़ नाटक जैसी नयी साहित्यिक विधाओं का जन्म हुआ। इस आंदोलन से साहित्यिक आलोचना भी अभूतपूर्व रूप से समृद्ध हुई। लेखकीय पक्षधरता, प्रतिबद्धता, साहित्य के समाजशास्त्र, सौंदर्यशास्त्र आदि पर जैसा व्यापक विचार-विमर्श इस आंदोलन के दौरान हुआ, वैसा उसके बाद आज तक नहीं हुआ।  

वाम-जनवादी आंदोलन में शामिल लेखकों ने अपने समय और समाज की जरूरतों के मुताबिक साहित्य में कुछ नया करने का प्रयास किया। उन्होंने नये के नाम पर पुराने सब कुछ को नकारने के बजाय पुरानी रूढ़ियों को त्यागकर उसकी जीवंत परंपरा को अपनाया और आगे बढ़ाया। उन्होंने जो आंदोलन चलाया, वह किसी नये दशक, नयी पीढ़ी या किसी नये साहित्यिक फैशन के आधार पर नया नहीं था। वह नये विचारों, नये सरोकारों और साहित्य में एक नवोन्मेष करने के कारण नया था। उसमें विभिन्न पीढ़ियों के, विभिन्न विधाओं के और विभिन्न प्रकार की लेखन शैलियों वाले लेखक एकजुट थे। उसमें प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच नामक तीनों लेखक संगठनों से जुड़े हुए तथा इन तीनों से स्वतंत्र भी ऐसे बहुत-से लेखक शामिल थे, जो वाम-जनवादी साहित्य में एक नवोन्मेष करना चाहते थे। 

आज लेखक संगठन तो हैं, पर कोई साहित्यिक आंदोलन नहीं है। और दिक्कत यह है कि आंदोलन से संगठन बनते हैं, संगठनों से कोई आंदोलन नहीं चलता। 

आज कोई साहित्यिक आंदोलन नहीं है, जबकि उसकी साहित्य को ही नहीं, समाज को भी सख्त जरूरत है। आज देश और दुनिया में प्रायः सर्वत्र यथार्थवाद, प्रगतिशीलता और जनवाद की विरोधी शक्तियाँ शासन कर रही हैं, जो वाम-जनवादी साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों पर ही नहीं, सच बोलकर यथार्थ को सामने लाने की आजादी तक पर प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रतिबंध लगा रही हैं। वे अज्ञान तथा अंधविश्वास फैलाने वाली अपनी विचारधाराओं तथा जन और जनतंत्र का दमन करने वाली अपनी तानाशाही नीतियों के चलते यथार्थवादी लेखकों-कलाकारों को आतंकित करने से लेकर उनकी हत्याएँ तक कराने से नहीं चूक रही हैं। आम लोगों के बीच फैले अज्ञान और अंधविश्वास को दूर करने तथा उन्हें बढ़ाने वाली राजनीति का विरोध करने वाले नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे, एम.एम. कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्याएँ इसके ताजा उदाहरण हैं। लेखकों को आतंकित और प्रताड़ित करके उन्हें साहित्यकार के रूप में जीते जी मार डालने के उदाहरण (जैसे पेरुमल मुरुगन) भी सामने आ रहे हैं। इन स्थितियों के चलते एक नये साहित्यिक आंदोलन की जरूरत स्वतः स्पष्ट है।
और एक नये साहित्यिक आंदोलन की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता। हम देख सकते हैं कि आज की अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों में भी देश और दुनिया के जनगण सब कुछ सहते हुए चुपचाप नहीं बैठे हैं। सतही तौर पर सर्वत्र भय और आतंक का साम्राज्य नजर आता है, पर सतह के नीचे देखें, तो किसान, मजदूर, दलित, आदिवासी, स्त्रियाँ, छात्र, बेरोजगार युवा, लेखक, पत्रकार, कलाकार, रंगकर्मी, शिक्षक आदि अपने देश में और दुनिया के सभी देशों में तरह-तरह के आंदोलन चला रहे हैं। उन्हें आतंकित और गुमराह करके आंदोलन से विरत करने की तमाम कोशिशों और साजिशों के बावजूद उनके आंदोलनों की संख्या और आवृत्ति उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। पूँजीपतियों का खरीदा हुआ मीडिया चाहे उनके समाचार न देता हो, पर देश और दुनिया में आज ऐसे असंख्य आंदोलन चल रहे हैं। वे अभी अलग-अलग बहने वाली छोटी-छोटी धाराएँ हैं, जो भविष्य में मिलकर एक वेगवान और शक्तिशाली प्रवाह बन सकती हैं। इसी प्रकार साहित्य में यथार्थवादी, प्रगतिशील और जनवादी लेखन करने वाले लेखकों, उनके लेखन को सामने लाने वाली पत्रिकाओं के संपादकों तथा लेखक संगठनों के छोटे-छोटे प्रयास अलग-अलग जारी हैं। अनुकूल परिस्थिति पैदा होने पर ये प्रयास भी आपस में जुड़ सकते हैं और एक सशक्त साहित्यिक आंदोलन का रूप ले सकते हैं। 

मैं वाम-जनवादी आंदोलन में शामिल रहने, लगभग दो दशकों तक जनवादी लेखक संघ की केंद्रीय कार्यकारिणी के सदस्य के रूप में सक्रिय रहने तथा वाम-जनवादी साहित्य की पत्रिका ‘कथन’ के संस्थापक संपादक के रूप में उसके साठ अंक संपादित करने के अपने अनुभव के आधार पर कुछ बातें आज के वाम-जनवादी लेखकों, लेखक संगठनों और लघु पत्रिकाओं के संपादकों के समक्ष विचार-विमर्श के लिए रखना चाहता हूँ, ताकि एक नया साहित्यिक आंदोलन शुरू करने के बारे में सोचा जा सके और वाम-जनवादी आंदोलन में रही कमजोरी से बचा जा सके।  मेरे विचार से उसकी मुख्य कमजोरी थी: नवीनता, यथार्थवाद, पक्षधरता और प्रतिबद्धता की सही समझ का न होना या कम होना। 


नवीनता

मैंने 2000 में एक निबंध लिखा था ‘साहित्य में फैशन और नवोन्मेष’, जो मेरी पुस्तक ‘साहित्य और भूमंडलीय यथार्थ’ (2008) में संकलित है। उसमें मैंने लिखा था कि फैशन को अक्सर परिवर्तन और नयेपन के रूप में समझा जाता है, पर उसमें कोई वास्तविक परिवर्तन या नयापन नहीं होता। फैशन बहुत बड़े पैमाने पर किया जाने वाला अनुकरण होता है। साहित्य में भी फैशन चलते हैं। उदाहरण के लिए, बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के हिंदी साहित्य को देखें। एक समय आता है, जब बहुत-से लेखक सात्र्र, कामू, काफ्का आदि की चर्चा करते हुए ऊब, कुंठा, अकेलेपन, अजनबीपन आदि पर लिखने-बोलने लगते हैं। फिर एक समय आता है, जब बहुत-से लेखक माक्र्स, लेनिन, माओ आदि की चर्चा करते हुए वर्ग-संघर्ष, क्रांति, पक्षधरता, प्रतिबद्धता आदि पर लिखने-बोलने लगते हैं। इसी तरह फिर एक समय आता है, जब बहुत-से लेखक ल्योतार, फूको, दरीदा आदि की चर्चा करते हुए आख्यान, पाठ, अंत, विमर्श आदि पर लिखने-बोलने लगते हैं।

फैशनपरस्त लेखक अन्य लेखकों से भिन्न और विशिष्ट दिखने के लिए कोई नयी-सी विचारधारा तथा रचना-शैली अपनाकर स्वयं को नवीनतम सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। फैशनपरस्त आलोचक भी चूँकि भिन्नता, विशिटता और नवीनता को बहुत मूल्यवान मानते हैं, इसलिए फैशनपरस्त लेखकों का ऊँचा मूल्य आँकते हैं। इससे प्रभावित होकर बहुत-से लेखक फैशनपरस्त लेखकों की नकल करते हुए उनके जैसा लिखने की चेष्टा करने लगते हैं। यह न जानते हुए--या जानते हुए भी--कि फैशनपरस्त लेखक स्वयं किन्हीं और लेखकों की नकल कर रहे हैं। इस प्रकार नकल-दर-नकल का एक सिलसिला चल पड़ता है, जिसमें साहित्यिक फैशन तेजी से पुराना पड़ता जाता है।

साहित्यिक फैशन और साहित्यिक आंदोलन में फर्क करना आवश्यक है। फैशनपरस्त लेखक हमेशा अद्वितीय होना चाहते हैं, अतः अन्य लेखकों के साथ एकजुट या संगठित होने में अपनी अद्वितीयता की हानि समझते हैं। इसी कारण वे स्वयं कोई आंदोलन चलाने या किसी आंदोलन में शामिल होने में विश्वास नहीं रखते। हाँ, ऐसा हो सकता है कि जब कोई आंदोलन अपने उत्कर्ष पर हो, तो वे उसे भी कोई नया फैशन मानकर उसके साथ चलते नजर आने लगें। मगर उत्कर्ष के समय वे जितनी तेजी के साथ उसमें आते हैं, अपकर्ष के समय उतनी ही तेजी के साथ उससे अलग भी हो जाते हैं। हिंदी के वाम-जनवादी आंदोलन में आने तथा उससे अलग हो जाने वाले लेखकों के उदाहरण से इस तथ्य को समझा जा सकता है। आंदोलन में आते समय ऐसे लेखक स्वयं को सबसे अधिक प्रगतिशील, सबसे अधिक जनवादी, सबसे अधिक क्रांतिकारी जताते हैं और उससे अलग होते समय उसकी निंदा करने या उसका मजाक उड़ाने में भी सबसे आगे दिखायी देते हैं।

हिंदी साहित्य में नवीनता को दशकों और पीढ़ियों से जोड़कर भी देखा जाता है और यह माना जाता है कि हर दशक के बाद लेखकों की जो ‘नयी’ या ‘युवा’ पीढ़ी आती है, वह साहित्य में नयापन लाती है। लेकिन यह बहुत ही गलत और भ्रामक मान्यता है। साहित्य में वास्तविक नयापन तब आता है, जब बहुत-से लेखक मिलकर रचना और आलोचना के पुराने तौर-तरीकों को बदलते समय की जरूरतों के मुताबिक बदलने का प्रयास करते हैं। उनका यह सामूहिक प्रयास ही साहित्यिक आंदोलन कहलाता है और इसी से साहित्य में एक नवोन्मेष होता है। 

वाम-जनवादी आंदोलन की शक्ति यही नवोन्मेष था, पर उसकी कमजोरी यह थी कि उसमें ऐसे भी बहुत-से लेखक शामिल थे, जो उसे एक नया साहित्यिक आंदोलन नहीं, बल्कि एक नया साहित्यिक फैशन मानकर चल रहे थे। इसीलिए बीसवीं सदी के अंतिम दशक में जब सोवियत संघ के विघटन और पूँजीवादी भूमंडलीकरण से वाम-जनवादी आंदोलन को एक जबर्दस्त धक्का लगा, तो उसमें शामिल फैशनपरस्त लोगों ने नये फैशन अपना लिये। 

वाम-जनवादी आंदोलन की कमजोरी यह रही कि उसने भूमंडलीय पूँजीवाद की विचारधारा उत्तर-आधुनिकतावाद के ‘पोस्ट-माकर््िसस्ट’ (माक्र्सवादोत्तर) और ‘पोस्ट-रियलिस्ट’ (यथार्थवादोत्तर) जैसे फैशनेबल नारों का सक्षम प्रतिकार नहीं किया और माक्र्सवाद तथा यथार्थवाद को दृढ़तापूर्वक अपनाये रखकर किसी नवोन्मेष के जरिये स्वयं को आगे नहीं बढ़ाया। उलटे, सोवियत संघ के विघटन को समाजवाद के अंत और पूँजीवादी भूमंडलीकरण को दुनिया की नयी नियति के रूप में स्वीकार कर लिया। इस प्रकार वह आंदोलन विघटित हो गया और हिंदी साहित्य में नयेपन को पुनः नये दशक और नयी पीढ़ी से जोड़कर या नये विमर्शवादी फैशन से जोड़कर देखा जाने लगा। अतः नये आंदोलन को नवीनता की सही समझ के साथ यह देखना होगा कि उसमें फैशन वाली नकली नवीनता नहीं, नवोन्मेष वाली असली नवीनता हो।

यथार्थवाद

सोवियत संघ के विघटन और पूँजीवादी भूमंडलीकरण के बाद अत्यंत आवश्यक था कि वाम-जनवादी लेखक और उनके संगठन यथार्थवाद को नये संदर्भों में पुनः परिभाषित करते हुए पूँजीवाद के इस मिथ्या प्रचार का जोरदार खंडन करते कि सोवियत संघ के विघटन के साथ ही माक्र्सवाद अप्रासंगिक हो गया है, पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के बीच की लड़ाई में समाजवाद हार गया है और अब सारी दुनिया में और हमेशा पूँजीवाद ही चलेगा, क्योंकि उसका कोई विकल्प नहीं है। लेकिन वे न तो इस दुष्प्रचार का खंडन कर पाये और न ही नये पूँजीवाद का कोई नया विकल्प प्रस्तुत कर पाये। पूँजीवादी भूमंडलीकरण के बाद शीतयुद्ध के समय वाला पूँजीवाद बदल गया था। अतः उसका विकल्प रूसी या चीनी किस्म का समाजवाद नहीं, एक नया समाजवाद ही हो सकता था। नये पूँजीवाद और नये समाजवाद को स्पष्ट करने के लिए एक नये यथार्थवाद की जरूरत थी। मगर वाम-जनवादी लेखकों ने अपने बीच यथार्थवाद पर कोई बहस चलाना तक जरूरी नहीं समझा। 

हिंदी में उत्तर-आधुनिकतावाद के आने से पहले ही तरह-तरह के यथार्थवाद-विरोधी साहित्य-सिद्धांत प्रचारित किये जाने लगे थे, जिनमें सबसे सशक्त और प्रभावशाली साबित हुआ अनुभववाद, जो सतही तौर पर यथार्थवाद से मिलता-जुलता था, लेकिन वास्तव में उसका विरोधी था। अनुभववाद हिंदी में ‘नयी कहानी’ आंदोलन के दौरान ही बहुत-से लेखकों-आलोचकों ने अपना लिया था। उसके अनुसार लेखक के अनुभवों को (उसके ‘‘अपने जिये-भोगे यथार्थ’’ को) ही यथार्थ, बल्कि ‘‘प्रामाणिक यथार्थ’’,  और उसकी अभिव्यक्ति को ही यथार्थवाद माना जाता था। उसके अनुसार वर्तमान में ‘जो है’, उसी का चित्रण करने वाले लेखकों को यथार्थवादी माना जाता था। ‘जो होना चाहिए’ की बात करने वाले लेखकों को आदर्शवादी या नैतिकतावादी बताकर और भविष्य में ‘जो हो सकता है’ की बात करने  वाली रचनाओं को काल्पनिक, गढ़ी हुई या गैर-यथार्थवादी कहकर खारिज किया जाता था। इससे रचना में यथार्थ को देखने-दिखाने की दृष्टि अत्यंत संकुचित हुई तथा वाम-जनवादी रचना और आलोचना, दोनों की अपार क्षति हुई। वाम-जनवादी लेखक यथार्थवाद को दृढ़तापूर्वक अपनाये रहकर नयी परिस्थिति में एक नया यथार्थवाद विकसित नहीं कर पाये, इसलिए वे स्वयं को उत्तर-आधुनिकतावाद के हमले से नहीं बचा सके, जो साहित्य में ‘यथार्थवादोत्तर’ लेखन की सैद्धांतिकी प्रचारित कर रहा था। 

जरूरत इस बात की थी कि यथार्थवाद पर व्यापक बहस चलाकर देश और दुनिया के बदले हुए यथार्थ को सामने लाने के लिए यथार्थवाद को पुनः परिभाषित किया जाता और उसे एक नया नाम देकर आगे बढ़ाया जाता। इसके लिए यह समझना आवश्यक था कि वाम-जनवादी साहित्य उस माक्र्सवादी विश्व-दृष्टि से प्रेरित-परिचालित था, जो पूँजीवाद को ही नहीं, उसके विकल्प समाजवाद को भी एक विश्व-व्यवस्था के रूप में देखती थी। पूँजीवादी भूमंडलीकरण से यह बात स्पष्ट हो गयी थी कि अब पूँजीवाद का विकल्प किसी एक देश या कुछ देशों के स्तर पर नहीं, बल्कि भूमंडलीय स्तर पर ही खोजना होगा और यथार्थवादी लेखकों को अपने स्थानीय यथार्थ को भूमंडलीय यथार्थ से जोड़कर समझना होगा। इस प्रकार नया यथार्थवादी साहित्य अब भूमंडलीय यथार्थवादी साहित्य होगा और वह भूमंडलीय समाजवादी विश्व-व्यवस्था को भूमंडलीय पूँजीवादी विश्व-व्यवस्था का विकल्प मानकर चलेगा।  

जरूरत इस बात की भी थी कि भूमंडलीय यथार्थवाद को हिंदी साहित्य की अपनी परंपरा में विकसित किया जाये। हिंदी के वाम-जनवादी लेखन की आधारभूत विशेषता यथार्थवाद थी और यथार्थवाद का अर्थ यथार्थ का चित्रण करना मात्र नहीं, वर्तमान यथार्थ को बेहतर भविष्य की परिकल्पना के साथ बदलने के उद्देश्य से चित्रित करना भी था। लेकिन यथार्थ निरंतर बदलता रहता है, इसलिए उसे बदलने के तौर-तरीके भी बदलते रहते हैं। तदनुसार साहित्य में यथार्थवाद के रूप भी बदलते रहते हैं, जो साहित्यिक आलोचना तथा सौंदर्यशास्त्र को भी बदलते हैं। यह बात 1930 के दशक से 1950 के दशक तक जर्मनी में यथार्थवाद पर चली उस महान बहस से बखूबी स्पष्ट हो गयी थी, जिसमें भाग लेने वाली हस्तियाँ थीं--जाॅर्ज लुकाच, बर्टोल्ट बे्रष्ट, अंस्र्ट ब्लाॅख, वाल्टर बेंजामिन तथा थियोडोर एडोर्नो। हिंदी में प्रेमचंद ने भी अपने समय के बदलते यथार्थ के अनुसार यथार्थवाद को ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ का नया नाम दिया था। लेकिन अधिकतर वाम-जनवादी लेखक यथार्थवाद के नाम पर प्रायः अनुभववाद को ही अपनाये रहे। 

उन्हें गर्व होना चाहिए था कि हमारे प्रेमचंद ने साहित्य को ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ दिया। उन्हें प्रेमचंद की इस अद्भुत देन के लिए कृतज्ञ होना चाहिए था और इसे अपनाकर आगे बढ़ाना चाहिए था। लेकिन उन्होंने आदर्शवाद को प्रेमचंद की कमजोरी माना और खुद को खरा यथार्थवादी मानते हुए प्रेमचंद में भी खरा यथार्थवाद खोजा। नतीजा यह हुआ कि उन्हें प्रेमचंद की अंतिम कुछ रचनाओं में ही यथार्थवाद नजर आया। शेष रचनाओं कोे आदर्शवादी मानते हुए या तो उन्होंने खारिज कर दिया, या उनका मूल्य बहुत कम करके आँका। इससे उन्हें या साहित्य को फायदा क्या हुआ, यह तो पता नहीं, पर नुकसान यह जरूर हुआ कि स्वयं को यथार्थवादी समझने वाले लेखक ‘जो है’ उसी का चित्रण करने को यथार्थवाद समझते रहे और ‘जो होना चाहिए’ उसे आदर्शवाद समझकर उसका चित्रण करने से बचते रहे। 

लेखक के सामने जब कोई आदर्श नहीं होता, तो उसकी समझ में नहीं आता कि वह क्या लिखे और क्यों लिखे। किसी बड़ी प्रेरणा के अभाव में वह या तो लिखना छोड़कर कोई ऐसा काम करने लगता है, जो उसे ज्यादा जरूरी, ज्यादा लाभदायक या ज्यादा संतुष्टि देने वाला लगता है; या वह निरुद्देश्य ढंग का कलावादी अथवा पैसा कमाने के उद्देश्य से लिखने वाला बाजारू लेखक बन जाता है। आदर्शोन्मुख यथार्थवादी लेखक कुछ नैतिक मूल्यों से प्रेरित-परिचालित होने के कारण अपनी रचना में सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय, उचित-अनुचित, आवश्यक-अनावश्यक तथा सुंदर-असुंदर के बीच विवेकपूर्वक फर्क करने में जितना समर्थ होता है, उतना आदर्शरहित निरा यथार्थवादी लेखक कभी नहीं हो सकता। इतना ही नहीं, निरा यथार्थवादी लेखक अपनी रचना को उस पूर्णता तक कभी नहीं पहुँचा सकता, जिससे उसे आत्मसंतोष और पाठक को आनंद मिलता है। कहानी, उपन्यास और नाटक के लेखन पर तो यह बात कुछ ज्यादा ही लागू होती है।

मैंने अपनी पत्रिका ‘कथन’ के जरिये वर्षों तक भूमंडलीय यथार्थ के विभिन्न पक्षों को सामने लाते हुए एक नये यथार्थवाद की जरूरत बतायी। दो पुस्तकें भी लिखीं--‘साहित्य और भूमंडलीय यथार्थ’ (2008) तथा ‘भूमंडलीय यथार्थवाद की पृष्ठभूमि’ (2014)। मेरा मानना है कि साहित्य और कला में वास्तविक नयापन तो यथार्थवाद ही लाता है, क्योंकि नये यथार्थों को सामने लाना या पुरानी वास्तविकताओं को नयी दृष्टि से देखना-दिखाना ही उसका काम है। यह काम हिंदी साहित्य में प्रेमचंद के बाद मुक्तिबोध ने सबसे ज्यादा और सबसे अच्छे ढंग से किया। उनके समय में भूमंडलीय शब्द नहीं था, लेकिन उनकी रचनाओं में जो यथार्थवाद है, वह भूमंडलीय यथार्थवाद ही है। यह बात मैंने अपनी पुस्तक ‘मुक्तिबोध का मुक्तिकामी स्वप्नद्रष्टा’ (2017) में विस्तार से स्पष्ट की है। अतः आज के हिंदी साहित्य को भूमंडलीय यथार्थवाद का विकास प्रेमचंद और मुक्तिबोध की यथार्थवादी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए करना होगा।   

पक्षधरता

किसी भी युग का और किसी भी देश का साहित्यकार सत्य, न्याय, नैतिकता, सुंदरता, प्रेम, समता, स्वतंत्रता जैसी सकारात्मक चीजों का पक्षधर और असत्य, अन्याय, अनैतिकता, कुरूपता, घृणा, विषमता, पराधीनता जैसी नकारात्मक चीजों का विरोधी होता है। यदि ऐसा नहीं है, तो वह साहित्यकार कहलाने का अधिकारी ही नहीं है। सच्चा साहित्यकार वह है, जिसे बड़े से बड़ा दमन या प्रलोभन भी ऐसी पक्षधरता से विचलित न कर सके। 

बीसवीं सदी के आठवें-नवें दशकों में हिंदी के वाम-जनवादी लेखकों के बीच मुक्तिबोध के दो कथन बहुत प्रचलित थे। एक  यह कि ‘‘पार्टनर, तुम्हारी पाॅलिटिक्स क्या है?’’ और दूसरा यह कि ‘‘बशर्ते तय करो किस ओर हो तुम’’। मुक्तिबोध ऐसी बातें पूँजीवादी और समाजवादी व्यवस्थाओं के बीच चलने वाले उस शीतयुद्ध के संदर्भ में कहा करते थे, जो विचारधारात्मक और प्रचारात्मक हथियारों से लड़ा जाता था। साहित्यकार भी, चाहे वे प्रतिबद्ध साहित्यकार हों या अप्रतिबद्ध साहित्यकार, अपनी वर्गीय स्थितियों अथवा सामाजिक परिस्थितियों के चलते अनजाने ही या सचेत रूप से उस युद्ध में शामिल रहते थे। जो लेखक सचेत रूप से समाजवाद के पक्ष में और पूँजीवाद के विरुद्ध लड़ते थे, वे अपनी पक्षधरता को छिपाते नहीं थे, क्योंकि वे स्वयं को देश और दुनिया के तमाम शोषित-उत्पीड़ित जनों की मुक्ति के लिए लड़ने वाला सिपाही मानते थे। प्रेमचंद की तरह ‘कलम का सिपाही’। वे शोषण, दमन, अन्याय और अत्याचार पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध एक शोषणमुक्त समतामूलक और न्यायपूर्ण व्यवस्था के लिए लड़ने वाले लेखक के रूप में अपने पक्ष को नैतिक आधार पर उचित समझते थे, इसलिए अपनी राजनीति को दूसरे पक्ष के साहित्यकारों की तरह छिपाते नहीं थे। जो लेखक अपनी राजनीति को छिपाते थे, उनसे वे पूछते थे कि ‘‘पार्टनर, तुम्हारी पाॅलिटिक्स क्या है?’’ और उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय, सही-गलत आदि में फर्क न कर पाने के कारण दुविधा में पड़े साहित्यकारों को बताते थे कि लड़ाई तो तुम्हें लड़नी ही पड़ेगी, चाहे इस पक्ष में रहकर लड़ो या उस पक्ष में रहकर, इसलिए तय करो कि तुम किस पक्ष में हो। 

मुक्तिबोध जिस यथार्थ के संदर्भ में ऐसे प्रश्न उठा रहे थे, वह उनके समय का भूमंडलीय यथार्थ था। उस समय दुनिया तीन दुनियाओं में बँटी हुई थी--पूँजीवादी देशों वाली पहली दुनिया, समाजवादी देशों वाली दूसरी दुनिया और औपनिवेशिक गुलामी से नये-नये आजाद हुए देशों वाली तीसरी दुनिया। पहली और दूसरी दुनियाओं के बीच शीतयुद्ध चल रहा था, जिसके एक पक्ष का नेतृत्व अमरीका कर रहा था और दूसरे पक्ष का नेतृत्व सोवियत संघ। तीसरी दुनिया के देशों के सामने एक विकल्प यह था कि वे पूँजीवादी खेमे में रहें, दूसरा विकल्प यह था कि समाजवादी खेमे में चले जायें और तीसरा विकल्प यह कि वे दोनों गुटों से अलग रहें। भारत ने तीसरा विकल्प अपनाया और गुटनिरपेक्ष देशों का आंदोलन ही नहीं चलाया, उसका नेतृत्व भी किया। लेकिन वाम-जनवादी लेखक चाहते थे कि भारत वैश्विक राजनीति में खुल्लमखुल्ला पूँजीवाद के विरुद्ध समाजवाद के पक्ष में खड़ा हो। इसीलिए वे मुक्तिबोध के उपर्युक्त कथनों को बार-बार दोहराते थे। इसमें कहीं न कहीं यह भाव भी शामिल होता था कि जो हमारे साथ नहीं है, वह निश्चय ही दूसरे खेमे का है और हमारा शत्रु है। यदि ऐसा नहीं है, तो वह समाजवादी खेमे के पक्ष में खुलकर खड़ा हो। अर्थात् हमारे साथ आकर अपनी पक्षधरता का प्रमाण दे। 

आगे चलकर जब समाजवादी शिविर के अंदर आपसी मतभेद उभरे और भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में यह सवाल उठा कि भारत में क्रांति रूसी रास्ते पर चलकर होगी या चीनी रास्ते पर चलकर, और इस सवाल पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन तथा पुनर्विभाजन होने से एक की जगह तीन-तीन कम्युनिस्ट पार्टियाँ बन गयीं, और बाद में तीनों के अपने अलग-अलग लेखक संगठन भी बन गये, तो साहित्यकार की पक्षधरता का प्रश्न एक जटिल समस्या बन गया। लेखकों के लिए यह तय करना मुश्किल हो गया कि वे किसके पक्षधर हों। नेताओं ने इस समस्या का एक सरल समाधान यह बताया कि साहित्यकार उस दल और संगठन से जुड़ें, जो सबसे सही हो। लेकिन इससे हुआ यह कि वामपंथी दलों और उनसे जुड़े लेखक संगठनों में स्वयं को सही और दूसरों को गलत साबित करने की होड़ मच गयी। संकीर्णता और कट्टरता बढ़ी और इस विचार ने जोर पकड़ा कि जो लेखक हमारे दल और संगठन को सबसे सही नहीं मानता, वह हमारा शत्रु है। 

वाम-जनवादी साहित्यिक आंदोलन शोषित-उत्पीड़ित सभी मुक्तिकामी जनों का, अर्थात् किसानों, मजदूरों, स्त्रियों, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों आदि का साझा आंदोलन था, जो इनके सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों से जुड़कर चलता था। भूमंडलीय पूँजीवाद और उसकी विचारधारा उत्तर-आधुनिकतावाद ने इस समग्रता को तोड़कर इन्हें अलग किया और इनकी मुक्ति के साझे आंदोलन को अस्मिता के अलग-अलग विमर्शों में बाँट दिया। वाम-जनवादी लेखकों को यथार्थवादी ढंग से इस खेल को समझकर ‘आंदोलन’ और ‘विमर्श’ में फर्क करके इसके विरुद्ध वैचारिक संघर्ष चलाना चाहिए था। लेकिन वे ऐसा नहीं कर सके और नतीजा यह हुआ कि स्त्रियाँ, दलित, आदिवासी आदि सबकी पक्षधरताएँ अलग-अलग हो गयीं। मसलन, स्त्रियाँ पुरुषों के विरुद्ध स्त्रियों की पक्षधर होकर लिखने लगीं और दलित सवर्णों के विरुद्ध दलितों के पक्षधर होकर लिखने लगे। इससे सबका साझा संघर्ष, जो भूमंडलीय पूँजीवाद का एक सशक्त प्रतिरोध बन सकता था, विभाजित होकर कमजोर हो गया और ऐसा प्रतीत होने लगा कि जैसे भूमंडलीय पूँजीवाद का कोई विकल्प ही नहीं रह गया हो। 

आज विकल्पहीनता के निराशाजनक विचार के विरुद्ध विकल्प का आशाजनक विचार ही वाम-जनवादी आंदोलन को पुनर्जीवित कर सकता है। इसी विचार के आधार पर वह स्त्रियों, दलितों, आदिवासियों आदि को विमर्शों के विभ्रम से निकालकर आंदोलन के यथार्थ से जोड़ने में समर्थ हो सकता है।

प्रतिबद्धता

साहित्य में प्रतिबद्धता कोई नयी चीज नहीं है। और वह केवल वाम-जनवादी साहित्य की ही विशेषता नहीं है। यह विशेषता भी प्रत्येक देश-काल के महान साहित्य में मौजूद रही है। उदाहरण के लिए, भक्तिकाल के हिंदी साहित्य को देखें। उसमें सगुण भक्ति वाले कवि हों या निर्गुण भक्ति वाले कवि, रामभक्त कवि हों या कृष्णभक्त कवि, संत कवि हों या सूफी कवि--सब में वैचारिक प्रतिबद्धता देखी जा सकती है। सूर, तुलसी, कबीर, जायसी, मीरा आदि में से किसी को भी देख लीजिए। सभी में यह चीज मिलेगी। मीराबाई जब कहती हैं कि ‘‘मेरे तो गिरधर गुपाल दूसरो न कोई’’, तो अपनी प्रतिबद्धता ही व्यक्त करती हैं। इसी प्रकार तुलसीदास जब कहते हैं कि ‘‘जाके प्रिय न राम-वैदेही, तजिए ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही’’, तो अपनी प्रतिबद्धता ही प्रकट करते हैं। मुझे मीराबाई की-सी प्रतिबद्धता बेहतर लगती है, जिसमें अपनी प्रतिबद्धता की अभिव्यक्ति तो है, उसके लिए लोकलाज की परवाह न करने से लेकर विष का प्याला तक पी लेने की दृढ़ता भी है, लेकिन तुलसीदास की तरह दूसरों को यह उपदेश या आदेश देने वाली बात नहीं है कि जो हमारे राम-वैदेही से प्रेम नहीं करते--अथवा हमारी विचारधारा से सहमत नहीं हैं--उन्हें करोड़ों शत्रुओं के समान मानकर त्याग देना चाहिए। वाम-जनवादी लेखन की कमजोरी यह रही कि उसमें मीराबाई की-सी प्रतिबद्धता कम और तुलसीदास की-सी प्रतिबद्धता अधिक थी।  

प्रतिबद्धता दरअसल एक नैतिक निर्णय और उस पर आधारित नैतिक आचरण है। बीसवीं सदी के आठवें-नवें दशकों का वाम-जनवादी आंदोलन लेखकों को प्रतिबद्ध होने के लिए प्रेरित करता था। उस आंदोलन के समाप्त होने पर यह जिम्मेदारी स्वयं लेखकों पर आ पड़ी कि वे अपनी प्रतिबद्धता को बचाये रखें और उस पर दृढ़ रहें। प्रश्न उठता है--कैसे? मैं इसके उत्तर में वही कहना चाहता हूँ, जो अक्सर अपने-आप से कहता हूँ। 

मैं अपने-आप से कहता हूँ--क्या तुमसे किसी डाॅक्टर ने कहा था कि तुम्हें लेखक बनना है और प्रतिबद्ध लेखक ही बनना है? तुम स्वेच्छा से लेखक बने थे और प्रतिबद्ध लेखन करने का निर्णय तुम्हारा अपना निर्णय था। तुम जब चाहो, अपने इस निर्णय को बदल भी सकते हो। अगर तुम लिखना बंद कर दो, अथवा यह घोषणा कर दो कि अब तुम प्रतिबद्ध लेखक नहीं हो, तो तुम पर, समाज पर और साहित्य पर कोई कहर नहीं टूट पड़ेगा। उलटे, हो सकता है, तुम्हें इससे कुछ फायदा ही हो जाये। लेकिन जब तक तुम अपने निर्णय पर कायम हो, अपनी प्रतिबद्धता में कमी या शिथिलता आ जाने के लिए दूसरों को दोषी नहीं ठहरा सकते। प्रतिबद्ध लेखक बने रहने के लिए जो भी करना जरूरी है, तुमको ही करना है। परिस्थितियाँ प्रतिकूल हैं, तो उनको अनुकूल बनाने का काम किसी और का नहीं, तुम्हारा ही है। माना कि तुम्हारी सीमाएँ हैं, तुम अकेले सब कुछ नहीं कर सकते, लेकिन उस काम को तो ढंग से करो, जिसे करने का निर्णय तुमने लिया है। तुम वही करो, जो कर सकते हो; मगर उसे बेहतरीन ढंग से करना तुम्हारी जिम्मेदारी है। उसको न कर पाने के लिए वातावरण और परिस्थितियों को दोष देकर तुम अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। तुम लेखक हो और नहीं लिख पा रहे हो, या अच्छा नहीं लिख पा रहे हो, तो लिखना बंद कर देने का विकल्प तुम्हारे सामने हमेशा खुला है। यदि तुम प्रतिबद्ध लेखक नहीं बने रहना चाहते, तो अप्रतिबद्ध लेखक बन जाने का विकल्प भी तुम्हारे सामने हमेशा खुला है। मगर जब तक तुम लेखक हो, बेहतरीन ढंग से लिखने की कोशिश करना तुम्हारा काम है। जब तक तुम प्रतिबद्ध लेखक हो, प्रतिबद्ध लेखन के लिए अनुकूल वातावरण बनाना भी तुम्हारा काम है। प्रतिबद्ध लेखक का काम यथार्थ को केवल देखना-दिखाना ही नहीं, उसे बदलना भी है। मौजूदा परिस्थितियाँ वास्तव में प्रतिकूल हैं और उनसे जो निराशा पैदा होती है, वह भी एक यथार्थ है। लेकिन यथार्थ कभी इकहरा नहीं होता। वह द्वंद्वात्मक होता है। कोई भी स्थिति या परिस्थिति सर्वथा और सदा-सर्वदा के लिए निराशाजनक नहीं होती। घना अँधेरा, जिसमें रास्ता नहीं सूझता, एक यथार्थ है। उसमें भटकते हुए लोगों को यदि ऐसा लगता है कि कहीं कोई रास्ता नहीं है, तो उनका यह अनुभव भी यथार्थ है। इस अनुभव से उत्पन्न होने वाली उनकी निराशा भी यथार्थ है। लेकिन यथार्थ यही और इतना ही नहीं है। यथार्थ यह भी है कि प्रत्येक अंधकार में प्रकाश की संभावना मौजूद रहती है। उदाहरण के लिए, घने अँधेरे में माचिस की एक नन्ही-सी तीली या एक छोटी-सी टाॅर्च भी प्रकाश पैदा कर सकती है। यह संभावना भी यथार्थ है। इसलिए केवल अंधकार को देखना और उसमें प्रकाश की संभावना को न देखना यथार्थवाद नहीं है। यथार्थ को उसके द्वंद्वात्मक रूप में देखना ही यथार्थवाद है।