आज मित्रों के लिए प्रस्तुत है मेरी नवीनतम कहानी :
पागलों ने दुनिया बदल दी
मैं पूछती, ‘‘आप कैसे हैं?’’
और वे हँसने लगते, ‘‘हा-हा-हा!’’
मैं पूछती, ‘‘आपकी यह हालत कब से है?’’
और वे हँसने लगते, ‘‘हा-हा-हा!’’
मैं पूछती, ‘‘आप क्या थे? डॉक्टर, इंजीनियर, पत्रकार, प्रोफेसर…?’’
और वे हँसने लगते, ‘‘हा-हा-हा!’’
मैं पूछती, ‘‘आप लोग यह सामूहिक आत्महत्या क्यों कर रहे हैं?’’
और वे हँसने लगते, ‘‘हा-हा-हा!’’
मैं पूछती, ‘‘आप लोग तो असमर्थों में समर्थ थे, आपको जैविक कूड़ा बन जाने की क्या सूझी?’’
मेरे इस सवाल पर वे और भी जोर से हँसते, ‘‘हा-हा-हा!’’
मैं ‘सभूस’ की पत्रकार थी। ‘सभूस’ यानी
समर्थों की भूमंडलीय समाचारसेवा। मुझे देश-देश जाकर पागलों की गतिविधियों
के समाचार देने का काम सौंपा गया था। काम खतरनाक था, पर मैंने खुशी-खुशी
करना मंजूर कर लिया था। मुझे शुरू से ही शक था कि पागलपन की वह बीमारी, जो
इधर भूमंडलीय महामारी का रूप ले चुकी थी, बीमारी या महामारी नहीं, कोई और
ही चीज है। मैं निजी तौर पर उसका पता लगाना चाहती थी। दूसरे, मुझे हल्की-सी
एक उम्मीद थी कि मेरे देश की तबाही के साथ मेरे सब लोग शायद तबाह न हुए
हों। शायद मेरे दादा-दादी, नाना-नानी, माता-पिता, मामा-मौसी और
भाइयों-बहनों में से कोई बचकर भागने और किसी दूसरे देश में शरण पाने में
सफल हो गया हो। निजी तौर पर तो मैं देश-देश घूमकर अपने लोगों का पता लगा
नहीं सकती थी, सो मैंने सोचा कि पत्रकार के रूप में शायद मैं उन्हें पा
सकूँ।
अपने-अपने कामों में लगे स्वस्थ लोगों के
पागल होने का सिलसिला ठीक-ठीक कब और कहाँ शुरू हुआ, यह तो शायद कोई नहीं
जानता, लेकिन वह समर्थ और असमर्थ दोनों तरह के देशों में और दुनिया भर में
एक साथ शुरू हुआ था। सामान्य जीवन जीते, रोजमर्रा के काम करते, अच्छे-भले
लोग अचानक हँसना शुरू कर देते और हँसते ही चले जाते। वे अपने घरों,
दफ्तरों, खेतों, कारखानों वगैरह से निकलकर सड़कों पर आ जाते। उनमें पुरुष और
स्त्रियाँ, बूढ़े और बूढ़ियाँ, प्रौढ़ और प्रौढ़ाएँ, युवक और युवतियाँ सभी
होते।
ठीक तारीख बताना तो संभव नहीं, पर लोगों
के पागल होने का सिलसिला जब शुरू हुआ, तब अखिल भूमंडल पर समर्थों के शासन
का सत्रहवाँ साल चल रहा था। सोलह साल पहले समर्थ शासकों ने अपनी विश्व संसद
बनायी थी और अपना नया संवत् शुरू किया था। उसके अनुसार वह समर्थ संवत् का
सत्रहवाँ साल था। उसके पहले समर्थों और असमर्थों के बीच एक भूमंडलीय युद्ध
हुआ था, जिसमें समर्थों की विजय और असमर्थों की पराजय हुई थी।
मैं एक असमर्थ देश की लड़की थी, जो युद्ध
के समय एक समर्थ देश में पढ़ रही थी। मैं अपने देश लौटना चाहती थी, लेकिन
मेरे माता-पिता ने सख्ती से मना कर दिया था। उनके विचार से मेरी सुरक्षा
इसी में थी कि मैं जहाँ हूँ, वहीं बनी रहूँ। युद्ध में असमर्थ देश हार रहे
थे और तबाह हो रहे थे।
उन्हें हारना ही था, क्योंकि उस युद्ध में
दुनिया के सभी समर्थ देश एक होकर लड़े थे, जबकि असमर्थ देश आपस में लड़ते
हुए लड़े थे। यों समर्थ देशों में भी कुछ देश कम और कुछ अधिक शक्तिशाली थे
और उनके भीतर भी रंग, नस्ल, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र और भाषा वगैरह के तमाम
झगड़े थे, लेकिन उस समय उनका लक्ष्य एक हो गया था–जैसे भी हो, असमर्थ देशों
पर विजय पाना। दूसरी तरफ असमर्थ देश उस निर्णायक युद्ध में भी अपने भीतर
के झगड़ों को छोड़कर–यानी धर्म-संप्रदाय, खान-पान, रहन-सहन, बोली-बानी,
ऊँच-नीच, छूत-अछूत जैसे झगड़ों को छोड़कर–अपना एक लक्ष्य तय करके नहीं लड़ सके
थे। उनका लक्ष्य समर्थों पर विजय प्राप्त करना नहीं, केवल स्वयं को बचाना
था। उन्हें एक-दूसरे की चिंता नहीं थी, सबको अपनी-अपनी पड़ी थी। नतीजा वही
हुआ, जो होना था। समर्थ जीते, असमर्थ हारे। जीतने के बाद समर्थों ने अपनी
भूमंडलीय समर्थ संसद कायम की, अपना नया संवत् चलाया और अखिल भूमंडल पर शासन
करने लगे।
समर्थों ने जो भूमंडलीय संविधान बनाया,
उसकी सर्वप्रमुख धारा, जिससे समस्त उपधाराएँ निकलती थीं, यह थी कि समर्थों
को ही जीवित रहने का अधिकार है। असमर्थ लोग और असमर्थ देश तभी जीवित रह
सकते हैं, जब वे समर्थ बनने के लिए प्रयत्नशील होकर पूरी निष्ठा से समर्थों
की सेवा करें। जो असमर्थ लोग या देश ऐसा नहीं करेंगे, उन्हें जीवित रहने
का अधिकार नहीं होगा। इतना ही नहीं, वे समर्थों के प्रति कितने निष्ठावान
हैं, यह भी समर्थ तय करेंगे और उन्हें पूरा अधिकार होगा कि निष्ठा में कमी
पायी जाने पर वे असमर्थ लोगों को जैसे चाहें मारें-पीटें, जेलों में डाल
दें या गोली-गोलों से उड़ा दें और असमर्थ देशों को जैसे चाहें लूटें और तबाह
करें।
अब, जीवित और सलामत रहना कौन नहीं चाहता?
दुनिया भर के लोगों और देशों ने समर्थों की सेवा करते हुए स्वयं समर्थ बनने
का प्रयास करना शुरू कर दिया। लेकिन समर्थों को यह अधिकार भी था कि वे
किसे अपनी सेवा में रखें और किसे न रखें, और रखें, तो किस दर्जे का सेवक
बनाकर रखें।
इस अधिकार के चलते असमर्थ लोगों में से
योग्य सेवक छाँटे गये। भूख और कुपोषण से कमजोर तथा रोगों से जर्जर लोगों को
सेवा के अयोग्य पाया गया। समर्थों की संसद में विचार किया गया और तय पाया
गया कि अयोग्य लोग किसी काम के नहीं हैं, दुनिया में फैला हुआ कूड़ा हैं,
उन्हें बुहारकर फेंक देना चाहिए। हाँ, इस प्रश्न पर कुछ बहस हुई कि उन्हें
‘ह्यूमन वेस्ट’ (मानव कूड़ा) कहा जाये अथवा ‘बायो वेस्ट’ (जैविक कूड़ा)। बहस
के बाद तय हुआ कि उन्हें जैविक कूड़ा ही कहा जाना चाहिए, क्योंकि मानव कूड़े
को तो श्मशान में ले जाकर जलाना या कब्रिस्तान में ले जाकर दफ्नाना होगा,
और उसमें बेकार का खर्च होगा, जबकि जैविक कूड़ा खुद-ब-खुद सड़-गलकर मिट्टी
में मिल जायेगा। उसे निपटाने का खर्च तो बचेगा ही, उससे कंपोस्ट खाद भी
बनेगी, जो जमीन को अधिक उपजाऊ बनायेगी।
इस प्रकार चुने गये योग्य सेवकों से कहा
गया कि योग्य सेवक बन जाना ही पर्याप्त नहीं है, उन्हें योग्यतम सेवक बनने
का प्रयास करना चाहिए और इसके लिए आपस में होड़ लगाकर सर्वोच्च समर्थ-भक्ति
का प्रमाण देना चाहिए। इसके लिए उन्हें हर समय अपना सर्वस्व समर्थों को
समर्पित कर देने के लिए, यहाँ तक कि अपने प्राण तक दे देने के लिए, तैयार
रहना चाहिए। जिस की समर्थ-भक्ति में तनिक भी कमी पायी गयी, उस पर कड़ी नजर
रखी जायेगी। जिस किसी के मन में समर्थों के विरुद्ध कोई विचार पाया गया,
हल्की-सी भावना भी पायी गयी, उसे कठोर दंड दिया जायेगा, जो आजीवन कारावास
या तत्काल मृत्युदंड भी हो सकता है। ऐसे विचार या भावनाएँ रखने वालों की
सूचना देने, उनको पकड़वाने या स्वयं ही घेरकर मार डालने वाले समर्थ-भक्तों
को पुरस्कृत किया जायेगा।
असमर्थों को बताया गया कि उनमें से जो लोग
सच्ची निष्ठा और भक्ति के साथ समर्थों की सेवा करेंगे, वे ही समर्थों के
कृपापात्र बनकर समर्थों में शामिल हो सकेंगे। उन्हें समझाया गया कि जीवन एक
दौड़ है, जिसमें उन्हें अपने तमाम प्रतिस्पर्धियों को पीछे छोड़कर आगे
निकलना है। इसके लिए दूसरों को टँगड़ी मारकर गिराना भी पड़े, तो जायज है,
क्योंकि पिछड़ जाने का अर्थ होगा अशक्त, अक्षम और अयोग्य सिद्ध होकर दौड़ से
बाहर हो जाना और जैविक कूड़ा बनकर रह जाना।
समर्थों की यह व्यवस्था इतनी बढ़िया थी कि
दूसरों के आगे निकल जाने के लोभ और दूसरों से पिछड़ जाने के भय से असमर्थ
लोग जी-जान से समर्थों की सेवा दूसरों से बढ़-चढ़कर करने लगे। वे दिन-रात
एक-दूसरे की, यहाँ तक कि अपने घर-परिवार के लोगों तक की जासूसी करने लगे और
प्रमाण सहित उन्हें पकड़वाकर पुरस्कार प्राप्त करने लगे। इसके चलते तमाम
लोग इतने भयभीत और संत्रस्त रहने लगे कि अपने-आप को भी भूल गये। वे भूल गये
कि कल तक इन्हीं समर्थों से लड़ रहे थे। अब समर्थ उन पर चाहे जितना अन्याय
और अत्याचार करें, वे उनके विरुद्ध विद्रोह करना तो दूर, विरोध का विचार भी
मन में न लाते। वे उनके विरुद्ध धरना, प्रदर्शन, हड़ताल, भूख हड़ताल, आमरण
अनशन आदि करना तो दूर, उनसे असहमति व्यक्त करना तक भूल गये थे।
असमर्थों के मन में अपना आतंक जमाये रखने
के लिए समर्थों ने प्रत्येक देश में विभिन्न धर्मों के आतंकी संगठन बनवाये,
उन्हें खूब हथियार दिये, उनका खूब प्रचार किया और उन्हें खूब बढ़ावा दिया।
दूसरी तरफ, यह सोचकर कि ये सशस्त्र आतंकी संगठन किसी दिन समर्थों के ही
विरुद्ध न हो जायें, उन्होंने हर देश में पुलिस और फौज के अलावा तरह-तरह के
आतंक-विरोधी सशस्त्र बल संगठित किये और उन्हें भी खूब हथियार दिये, उनका
भी खूब प्रचार किया और उन्हें भी खूब बढ़ावा दिया। इससे एक तरफ तो पूरी
दुनिया में धार्मिक संगठनों की अपनी-अपनी निजी सेनाएँ बनीं और दूसरी तरफ
हथियारों की माँग बेतहाशा बढ़ी, जिसकी पूर्ति के लिए हथियारों का उत्पादन और
व्यापार अत्यंत तेजी से बढ़ा। इससे असमर्थों में असुरक्षा की भावना बढ़ी।
कोई नहीं जानता था कि कौन कब कहाँ और कैसे मार डाला जायेगा। असमर्थ लोग
साँस भी लेते, तो डर-डरकर।
इसके साथ ही समर्थों ने सत्य, न्याय,
नैतिकता, शांति, अहिंसा, प्रेम, सहयोग, सद्भाव आदि शब्दों के अर्थ अपने हित
में बदल दिये और घोषणा कर दी कि जो लोग पुराने मानव-मूल्यों के अर्थ में
इन शब्दों का प्रयोग करेंगे, वे मूल्य-अपराधी माने जायेंगे।
मूल्य-अपराधियों के लिए उन्होंने विशेष पुलिस थानों और जेलों की व्यवस्था
की। उन्हें नवीनतम हथियारों से लैस किया और मूल्य-अपराधियों को क्रूरतम
यातनाएँ तथा भीषण दंड देने की व्यवस्थाएँ कीं। फिर भी पता नहीं क्यों और
कैसे, मूल्य-अपराध और मूल्य-अपराधी बढ़ते जा रहे थे। शुरू-शुरू में व्यक्ति
ही, जैसे स्त्रियाँ और पुरुष ही, मूल्य-अपराधी होते थे। बाद में उनके संगठन
भी मूल्य-अपराधी होने लगे। फिर पूरे के पूरे इलाके और यहाँ तक कि पूरे के
पूरे देश भी मूल्य-अपराधी होने लगे। मसलन, प्रेम करने वाली लड़कियाँ और लड़के
मूल्य-अपराधी। अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले संगठन मूल्य-अपराधी।
स्वायत्तता की माँग करने वाले इलाके मूल्य-अपराधी। स्वतंत्रता की माँग
करने वाले देश मूल्य-अपराधी। आतंक और युद्ध के विरुद्ध शांति की माँग करने
वाले सभी लोग और देश मूल्य-अपराधी।
समर्थों की सेवा से मुक्त होकर आत्मनिर्भर
होकर जीना चाहने वाले लोग और देश तो सबसे बड़े मूल्य-अपराधी माने जाने लगे।
उन्हें दंड देने के लिए स्थानीय स्तर पर पुलिस और कई दूसरे सशस्त्र बलों
की व्यवस्था थी, जबकि भूमंडलीय स्तर पर समर्थों की भूमंडलीय सेनाएँ हमेशा
तैयार रहतीं और इशारा पाते ही जल, थल और वायु मार्गों से जाकर उन पर टूट
पड़तीं। गोली-गोलों से लेकर अत्यंत विनाशकारी बमों तक का इस्तेमाल करके वे
अपराधी देशों को धूल में मिला देतीं। जो देश धूल में मिलाये जाते, उन देशों
के खेत-खलिहान, बाग-बगीचे, कल-कारखाने, स्कूल-कॉलेज, पुस्तकालय और
संग्रहालय आदि सब धूल में मिला दिये जाते। उनके साथ-साथ करोड़ों लोग और उनके
अरबों-खरबों सपने भी धूल में मिला दिये जाते।
मेरा असमर्थ देश भी इसी तरह धूल में
मिलाया गया था। मेरे देश के करोड़ों लोग मारे गये थे। करोड़ों लोग लापता हो
गये थे। उनमें मेरे माता-पिता, भाई-बहन, सगे-संबंधी, मित्र-परिचित तथा बचपन
में मेरे साथ पढ़ने और खेलने वाले मेरे सहपाठी भी थे। मैं बच गयी थी,
क्योंकि मैं एक समर्थ देश में रहकर पढ़ रही थी।
बाद में मुझे पता चला कि धूल में मिलाये
जा चुके मेरे देश के कुछ लोग बच गये थे, मगर बड़ी मुश्किल से बचे थे। उनका
बाकी सब तो नष्ट हो चुका था, बस उनकी और उनके कुछ लोगों की जान बाकी थी,
जिसे बचाने के लिए वे भागे थे। गोलियों और गोलों से, छोटे और बड़े बमों से,
बचते-बचाते जब वे भाग रहे होते, तभी किसी के पिता की, किसी की माँ की, किसी
के भाई की, किसी की बेटी या बेटे की जान चली जाती। अपने मृतकों को वहीं
पड़ा छोड़ भागते-भागते–समुद्री, पहाड़ी और रेगिस्तानी रास्तों से
भागते-भागते–वे कहीं समुद्रों में जल-समाधि ले लेते, कहीं बर्फ की कब्रें
बनाकर उनमें दफ्न हो जाते, तो कहीं अपने ऊपर रेत के पिरामिड बनाकर उनके
नीचे अदृश्य हो जाते। और इतनी मुसीबतें उठाने के बाद जब वे हजारों-लाखों की
संख्या में समर्थ देशों में शरण लेने पहुँचते, तो उन देशों की सीमाओं पर
खड़ी फौजें उन्हें रोक देतीं। वे कँटीले तारों की बाड़ तोड़कर जबर्दस्ती घुसने
की कोशिश करते, तो फौजें उनका सामूहिक संहार कर डालतीं।
सौभाग्य से जिन्हें समर्थ देशों में शरण
मिल जाती, उन्हें कई कठिन अग्नि-परीक्षाओं से गुजरना पड़ता। पहले उन्हें
ठोक-बजाकर देखा जाता कि उनमें कौन सशक्त है, कौन अशक्त। अशक्तों को शरण न
दी जाती और जैविक कूड़ा मानकर खुद-ब-खुद मरने के लिए छोड़ दिया जाता। सशक्तों
में देखा जाता कि कोई मूल्य-अपराधी तो नहीं है। जिसमें सत्य, न्याय,
नैतिकता आदि के मूल अर्थों वाले कीटाणु पाये जाते, उसे तुरंत मृत्युदंड
देकर खत्म कर दिया जाता। इसके बाद जो बच जाते, उन्हें भी संदिग्ध माना जाता
और उन पर कड़ी नजर रखी जाती। उन्हें ढेर सारी शर्तों के साथ और अत्यंत सख्त
निगरानी में समर्थों की सेवा में लगाया जाता।
मैं धूल में मिलाये जा चुके अपने देश
लौटकर क्या करती? मैंने मान लिया, या कल्पना कर ली, कि मैं वहाँ से अपनी
जान बचाकर भागी हूँ और जहाँ पढ़ रही हूँ, वहाँ मैंने शरण ले रखी है। मैंने
पढ़ाई पूरी करके नौकरी कर ली और पत्रकार बनकर देश-देश घूमने लगी।
समर्थ संवत् सोलह तक ऐसा लगता था, जैसे
पूरी दुनिया पर समर्थों का शासन सदा के लिए कायम हो गया है और दुनिया की
कोई ताकत उसे हिला नहीं सकती। लेकिन अगले साल ही उसकी नींव हिल गयी। समर्थ
संवत् सत्रह में दुनिया के हर देश में एक अजीब-सा परिवर्तन होने लगा।
असमर्थों में दो तरह के लोग थे–सामान्य
असमर्थ और विशिष्ट असमर्थ। सामान्य असमर्थ पुराने जमाने के अकुशल श्रमिकों
जैसे थे, जबकि विशिष्ट असमर्थ कुशल श्रमिकों तथा अपने-अपने कार्यक्षेत्र के
विशेषज्ञों जैसे। उन्हें असमर्थों में समर्थ कहा जाता था और यह माना जाता
था कि देर-सबेर वे भी समर्थ बन जायेंगे और अखिल भूमंडल पर शासन करने वाली
विश्व संसद के सदस्य बन जायेंगे। मगर उन्होंने पाया कि वे एक तरफ तो समर्थ
बन जाने के लोभ में समर्थों की सेवा में दिन-रात एक किये रहते हैं और दूसरी
तरफ उन्हें असमर्थ हो जाने का या कूड़ा ही बनकर रह जाने का डर सताता रहता
है। इस विकट स्थिति से उत्पन्न उनका तनाव इतना बढ़ जाता कि वे एक दिन पागल
हो जाते और हँसने लगते–हा-हा-हा!
वे प्रायः सामूहिक रूप से हँसते थे। मसलन,
उनमें से कोई कहता, ‘‘सत्य।’’ और बाकी सब हँसने लगते, ‘‘हा-हा-हा!’’ कोई
कहता, ‘‘न्याय।’’ और बाकी सब हँसने लगते, ‘‘हा-हा-हा!’’ कोई कहता,
‘‘नैतिकता।’’ और बाकी सब हँसने लगते, ‘‘हा-हा-हा!’’ कोई कहता, ‘‘आजादी।’’
और बाकी सब हँसने लगते, ‘‘हा-हा-हा!’’ कोई कहता, ‘‘बराबरी।’’ और बाकी सब
हँसने लगते, ‘‘हा-हा-हा!’’ वे कहते कुछ नहीं थे, बस हँसते और हँसते ही चले
जाते, ‘‘हा-हा-हा!’’ स्पष्ट था कि वे मूल्य-अपराधी हैं, लेकिन उन्हें
मृत्युदंड नहीं दिया जा सकता था, क्योंकि वे समर्थों के काम के लोग थे।
डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, शिक्षक,
प्रशिक्षक, उद्योगों-व्यापारों के व्यवस्थापक आदि। उनके बिना समर्थों का
काम नहीं चल सकता था, इसलिए उन्हें मारा नहीं जाना था, उनके पागलपन का इलाज
ही किया जाना था।
समर्थों ने पागलों के इलाज के लिए
पागलखाने बना रखे थे। कोई पागल नजर आता, तो सरकारी कर्मचारी आते और उसे
पकड़कर पागलखाने में ले जाते। शुरू-शुरू में समर्थों ने उस पागलपन को मामूली
बीमारी समझा था, लेकिन वह पागलपन धीरे-धीरे छूत के रोग की तरह बढ़ने लगा और
फिर महामारी की तरह तेजी से फैलने लगा। कोई सोच भी नहीं सकता था कि अचानक
दुनिया में एक साथ इतने पागल पैदा हो जायेंगे। ऐसा लगता था, मानो जिसे वे
बहुत देर से समझ नहीं पा रहे थे, वह जोक, मजाक या चुटकुला अचानक उनकी समझ
में आ गया हो और उसे इतनी देर से समझ पाने पर वे उस पर कम और अपने-आप पर
ज्यादा हँस रहे हों। पहले वे धीरे से हँसते–हा-हा-हा! फिर जोर से–हा-हा-हा!
फिर और जोर से–हा-हा-हा!
जरा सोचिए, दुनिया के हर हिस्से में
हजारों-लाखों-करोड़ों लोग अचानक जोर-जोर से, पूरा गला फाड़कर हँसने लगे
होंगे, तो दुनिया का क्या हाल हुआ होगा!
हुआ यह कि समर्थों की नींद उड़ गयी। वे
अपनी सरकारों के भरोसे चैन से सोते थे। जागकर उन्होंने सरकारों से पूछा,
‘‘यह क्या हो रहा है?’’ लेकिन सरकारों की अपनी ही नींद उड़ी हुई थी। वे
पुलिस-थानों, अदालतों, जेलों, पागलखानों आदि की व्यवस्थाओं के भरोसे चैन से
सोती थीं। अब वे जागकर उन व्यवस्थाओं से पूछ रही थीं, ‘‘यह क्या हो रहा
है?’’ व्यवस्थाएँ भी, जो प्रायः सोती रहती थीं, अब जाग उठी थीं और सारी
दुनिया की एक-एक हलचल से निरंतर अवगत कराते रहने वाले भूमंडलीय खुफिया
तंत्र से पूछ रही थीं, ‘‘यह क्या हो रहा है?’’ और खुफिया तंत्र के लोग
नवीनतम तकनीकों से प्राप्त फुटेज खँगालते हुए तीव्रतम गति वाले कंप्यूटर
खटखटाकर एक-दूसरे से पूछ रहे थे, ‘‘यह क्या हो रहा है?’’
समर्थों की समझ में कुछ नहीं आ रहा था और
पागलों की संख्या और उनकी हँसी का शोर पल-प्रतिपल बढ़ता जा रहा था। असमर्थ
लोग भी चैन से नहीं सो पा रहे थे। वे लगातार बनी रहने वाली बेचैनी में
दुःस्वप्न देखते हुए सोते थे। अब उनकी दुःस्वप्नों वाली नींद भी हराम हो
गयी और वे अपने घरों से निकलकर सड़कों पर आ गये। देखते-देखते उनमें से भी कई
पागल होने लगे और उनमें भी पागलों की संख्या बढ़ने लगी।
समर्थों ने अपनी विश्व संसद की आपातकालीन
बैठक बुलायी और उसमें तय किया कि दिन-दूने और रात-चैगुने बढ़ते पागलों का
इलाज संभव नहीं है, अतः उन्हें नियंत्रित करने के लिए त्वरित कार्रवाई की
जाये।
पहली कार्रवाई हर देश में पुलिस की तरफ से
हुई। उसने बड़े पैमाने पर धावा बोलकर पागलों को गिरफ्तार किया, लेकिन पहली
बार यह देखा कि पागल न तो डरे, न गिरफ्तार होने से बचने के लिए भागे। वे
हँसते-हँसते, ठहाके लगाते हुए, ठाठ से गिरफ्तार हुए। यह देखकर पुलिस घबरा
गयी। उसे पता था कि पागलखानों में पहले ही जरूरत से ज्यादा पागल भरे हुए
हैं। नये पागलखाने तत्काल बनवाना संभव नहीं है और तब तक इतने सारे पागलों
को कहीं और रखना भी संभव नहीं है। उसने सोचा, गिरफ्तार पागल उसकी गिरफ्त से
छूटकर भागने की कोशिश करेंगे, तो वह उन्हें भाग जाने देगी। किसी-किसी देश
में तो पुलिस पागलों से प्रार्थना भी करती पायी गयी कि वे भाग जायें। लेकिन
पुलिस की इस प्रार्थना पर पागल इतने जोर से हँसे कि वह डर गयी। उसने
अपने-अपने देशों की सरकारों से पूछा, ‘‘पागल काबू में नहीं आ रहे हैं। क्या
किया जाये?’’ सरकारों ने समर्थों की विश्व संसद से पूछा, ‘‘पागल काबू में
नहीं आ रहे हैं। क्या किया जाये?’’
समर्थों की विश्व संसद ने समस्त सरकारों
को और सरकारों ने अपने-अपने देश की पुलिस को आदेश दिया, ‘‘पागलों को दूर
जंगल में ले जाकर छोड़ आओ।’’ पुलिस ने आदेश का पालन किया। लेकिन पागलों को
जंगलों में छोड़कर हर जगह की पुलिस अपनी गाड़ियों में वापस आयी, तो उसने देखा
कि पहले से भी ज्यादा पागल हाथ उठाकर हँसते हुए उसका स्वागत कर रहे हैं।
पुलिस हैरान रह गयी। इतनी दूर जंगल में छोड़े हुए पागल पैदल उससे पहले वापस
कैसे पहुँचे? सरकारों को बताया गया, तो उन्होंने कोई और उपाय न देख आदेश
दिया, ‘‘पागलों को फिर से गाड़ियों में भरकर फिर से दूर जंगल में छोड़कर
आओ।’’ पुलिस ने पुनः आदेश का पालन किया। लेकिन घोर आश्चर्य! जंगलों में
पहले छोड़े गये पागल वहाँ पहले से ही हाथ उठाकर अट्टहास करते हुए नये पागलों
के स्वागत में खड़े थे!
यह चमत्कार कैसे हुआ? न पुलिस की समझ में आया, न सरकारों की समझ में।
दरअसल किसी की भी समझ में कुछ नहीं आ रहा
था। दुनिया के हर शहर, हर गाँव में जोर-जोर से हँसने वाले नये-नये पागल
पैदा हो रहे थे और न जाने कब से वीरान-सुनसान पड़े जंगल उनसे आबाद हो रहे
थे। वे वहाँ अपनी बस्तियाँ बसा रहे थे और खेती, बागवानी, पशु पालन जैसे काम
करते हुए अपनी नयी जिंदगी शुरू कर रहे थे। दुनिया की सरकारों को लगा कि यह
तो भारी गड़बड़ है। इस तरह गाँव-गाँव और शहर-शहर असमर्थ लोग पागल होते रहे
और जंगलों में जाकर अपनी अलग दुनिया बसाकर अपने ढंग से जीने लगे, तो
समर्थों की व्यवस्था का क्या होगा? उनके खेतों और कारखानों में काम कौन
करेगा? उनके उद्योग और व्यापार कौन चलायेगा? उनके लिए भोजन-वस्त्र कौन
जुटायेगा? उनकी सुरक्षा के लिए पुलिस और फौज में भर्ती होने कौन आयेगा?
उनके दफ्तर, स्कूल, काॅलेज, अस्पताल वगैरह कौन चलायेगा?
पागलों की बढ़ती संख्या से सबसे पहले पुलिस
प्रभावित हुई। समर्थों के शासन में पुलिस वालों को वेतन बहुत कम दिया जाता
था, लेकिन असमर्थों को डरा-धमकाकर लूटने की पूरी छूट दी जाती थी। इसलिए
पुलिस की नौकरी में ‘ऊपर की कमाई’ असली कमाई मानी जाती थी। मगर ऊपर की कमाई
का कम-ज्यादा होना इस बात पर निर्भर करता था कि असमर्थ पुलिस से कम डरते
हैं या ज्यादा। ज्यादा कमाई के लिए पुलिस असमर्थों को ज्यादा से ज्यादा
डराकर रखती थी। वह पागलों को भी डराना चाहती थी, मगर पागल थे कि पुलिस से
डरते ही नहीं थे। वह उन्हें आधी रात उनके घरों से उठाकर ले जाये, थानों में
ले जाकर उनकी पिटाई करे, हवालात में उन्हें थर्ड डिग्री की यातनाएँ दे, या
उनका एनकाउंटर ही क्यों न कर दे, पागल उससे डरते ही नहीं थे। पुलिस द्वारा
दी जाने वाली हर धमकी, हर गाली, हर लाठी, हर गोली का जवाब वे गलाफाड़ हँसी
से देते।
पागलों के इस रवैये से पुलिस की ऊपर की
कमाई बहुत घट गयी। उसी अनुपात में पागलों को पकड़-धकड़कर जंगलों में छोड़ आने
के काम में उसकी रुचि भी घट गयी। होते-होते यह होने लगा कि सरकारें जब
पुलिस को पागलों से निपटने के आदेश देतीं, तो पुलिस उनसे निपटने की झूठी
रिपोर्टें सरकारों को देकर अपना कर्तव्य पूरा हुआ मान लेती। नतीजा यह हुआ
कि पुलिस नाकारा हो गयी और सभी देशों की सभी सरकारों के प्रशासन ठप्प हो
गये। पुलिस थाने बेकार हुए, तो अदालतें और जेलें भी बेकार हो गयीं। यह पूरा
तंत्र इतना बड़ा था कि उसके बेकार हो जाने से कई काम एक साथ हुए। एक तरफ
सरकारें, जो इसी तंत्र के बल पर टिकी थीं और इसी से लोगों को आतंकित रखकर
उन पर शासन करती थीं, अचानक बेहद कमजोर हो गयीं। दूसरी तरफ हर देश में
पुलिस के अफसर और सिपाही, अदालतों के जज और वकील, जेलों के जेलर और जल्लाद
एक साथ बेकार हो गये। करोड़ों-करोड़ लोग बेरोजगार हो गये।
अब इतने सारे बेरोजगार लोग करें तो क्या
करें? जायें तो कहाँ जायें? कोई और उपाय न देख वे पागलों के पास गये और
उनसे पूछा, ‘‘हम कहाँ जायें और क्या करें?’’
पागलों ने हँसकर उनसे कहा, ‘‘सत्ता के आसमान में बहुत उड़ लिये, अब श्रम की जमीन से जुड़ो। मेहनत करो और खुद कमाओ-खाओ।’’
‘‘कैसे?’’
‘‘जहाँ भी खाली जमीन मिले, वहाँ खेती और
बागवानी करके अन्न और फल पैदा करो। गाय, भैंस, भेड़, बकरी, मुर्गी, मछली आदि
पालकर दूध, मांस आदि पैदा करो। बेचने के लिए नहीं, खुद खाने और दूसरों को
खिलाने के लिए। खुद जीने के लिए और दूसरों को जिलाने के लिए।’’
मरता क्या न करता! थानों, अदालतों और
जेलों से मुक्त हुए लोगों ने जगह-जगह छोटी-छोटी देहाती बस्तियाँ बसायीं और
आत्मनिर्भर होकर जीना शुरू कर दिया। प्रशासन और न्याय व्यवस्था द्वारा बड़े
पैमाने पर किये जाने वाले काम उनकी पंचायतें छोटे पैमाने पर करने लगीं।
अपराध एकदम कम या खत्म ही हो गये थे। अदालतों और जेलों की जरूरत ही नहीं
रही थी, छोटे-मोटे झगड़े पंचायतों में ही निपटा लिये जाते।
तब सरकारों ने पागलों से निपटने का काम
फौजों को सौंपा। समर्थ-असमर्थ हर देश के पास अपनी फौज थी। फौजें अपने-अपने
देश की सीमाओं की सुरक्षा करती थीं, दूसरे देशों के हमलों को रोकती थीं और
कभी-कभी खुद भी दूसरे देशों पर हमले करती थीं। ज्यों ही पता चलता, किसी
असमर्थ देश में अशांति है, समर्थ देशों की फौजें शांति स्थापित करने पहुँच
जातीं और वहाँ मरघट की-सी शांति स्थापित कर देतीं। ज्यों ही पता चलता, किसी
असमर्थ देश में जनतंत्र खतरे में है, वे जनतंत्र की रक्षा करने पहुँच
जातीं और वहाँ निहायत सख्त और मजबूत तानाशाही वाला जनतंत्र स्थापित कर
देतीं। ज्यों ही पता चलता, कोई असमर्थ देश समर्थों की सेवा से मुक्त होकर
स्वतंत्र और स्वायत्त होना चाहता है, समर्थों की फौजें उसे समर्थ-भक्ति का
पाठ पढ़ाने पहुँच जातीं और वहाँ की सरकार को डरा-धमकाकर, या खुले बाजार में
खरीदकर, उसकी जगह समर्थों के लिए काम करने वाली कोई कमजोर-सी कठपुतली सरकार
बनाकर बिठा देतीं।
लेकिन पागलों से निपटने का मामला बड़ा टेढ़ा
था। वे न तो आजादी या अपने लिए अलग राज्य जैसी कोई माँग करते, न ऐसी किसी
माँग के लिए अहिंसक आंदोलन या हिंसक विद्रोह करते। वे बस इतना करते कि
समर्थों की सेवा करना छोड़ हँसने लगते। वे सिर्फ हँसते थे और समर्थों का
बताया हुआ कोई काम नहीं करते थे। उन्होंने खेतों और कारखानों, दुकानों और
दफ्तरों, स्कूलों और अस्पतालों आदि में काम करने जाना बंद कर दिया था। उनसे
काम करने को कहा जाता, तो वे हँसने लगते। भूखों मर जाने का डर दिखाया
जाता, तो हँसने लगते। जेलों और पागलखानों में भेजे जाने का डर दिखाया जाता,
तो हँसने लगते। उन्हें दूर जंगलों में छुड़वा दिया जाता, तो भी वे हँसते और
हँसते ही रहते।
आखिरकार समर्थों की विश्व संसद में एक
प्रस्ताव पास हुआ कि पागलों को मौत से डराया जाये, क्योंकि मौत से बड़ा डर
कोई नहीं होता। प्रस्ताव के अनुसार समर्थ और असमर्थ, सब देशों की सरकारों
ने अपनी फौजों को आदेश दिया कि वे जाकर अपने-अपने देश के पागलों को मौत से
डरायें। गाँव-गाँव, शहर-शहर, मुहल्ले-मुहल्ले और गली-गली में जायें,
इक्के-दुक्के पागलों को गोली से उड़ा दें और उनकी लाशें पेड़ों या खंभों पर
लटका दें, ताकि दूसरे पागल डरें और पागलपन छोड़कर काम पर लौटें। अगर कहीं एक
से अधिक पागल मिलें, तो उनमें से कुछ को गोली चलाकर खत्म कर दें। अगर
पागलों की भीड़ें मिलें, तो जरूरत के मुताबिक उन पर छोटे बम डालकर उनमें से
कुछ को मार डालें। पागलों को हर हाल में डराकर उनका हँसना बंद कराना है और
उन्हें काबू में लाकर काम पर लगाना है।
आदेश पाकर सभी देशों की फौजें अपने-अपने
देश के पागलों को पागलपन छोड़कर काम पर लौटने के लिए तैयार करने निकल पड़ीं।
मगर पागल इतने ज्यादा पागल हो चुके थे कि उन्हें मरने से डर ही नहीं लगता
था। गोली लगने पर वे चीखते नहीं थे, गला फाड़कर हँसते थे–हा-हा-हा! गोले
बरसाये जाने पर वे भागते नहीं थे, तोपों के सामने निहत्थे खड़े रहकर हँसते
थे–हा-हा-हा! ऊपर से बम बरसाये जाने पर जब उनकी लाशों के चिथड़े उड़ने लगते,
तब भी उनके सामूहिक ठहाके सुनायी पड़ते–हा-हा-हा! उन ठहाकों का ऐसा गगनभेदी
शोर उठता कि फौजियों के दिल दहल जाते। जंगलों में छोड़े गये पागलों पर जब
गोली-गोले बरसाये जाते, तब तो पागलों की हँसी में जंगल के पशु-पक्षियों,
पेड़-पौधों और नदी-नालों की आवाजें भी शामिल होकर उसे ऐसे विकट हास्य की
भयंकर गड़गड़ाहट में बदल देतीं कि हथियारों के बल पर स्वयं को परम शक्तिशाली
समझने वाले फौजी डरकर भाग खड़े होते।
एक बार मैं पागलों की रिपोर्टिंग के लिए
एक जंगल में गयी, तो मैंने देखा कि जंगल में छोड़ दिये गये हजारों पागल
जिंदा रहने की जुगत में लगे हैं। कोई जमीन खोद रहा है, कोई पेड़ पर चढ़कर फल
तोड़ रहा है, कोई आग जला रहा है, तो कोई उस पर कुछ भून रहा है। फौजियों को
आते देख वे इकट्ठे होकर सामने आये और हँसकर बोले, ‘‘मारोगे? मारो!’’ और
हँसने लगे, ‘‘हा-हा-हा!’’
फौजी हैरान होकर देखते रह गये कि सामने
मौत देखकर भी ये लोग हँस रहे हैं। उन्होंने ऐसे लोग पहले कभी नहीं देखे थे,
जो मारे जाने से डरते न हों, बल्कि हँसते हों। फौजियों को लगा, यह तो लड़ाई
नहीं, निर्दोष निहत्थे लोगों की हत्या है। सामूहिक हत्या। जनसंहार।
फौजी भी आखिर थे तो मनुष्य ही। उन्होंने
हथियार फेंक दिये और घुटनों के बल बैठकर, हाथों में चेहरे छिपाकर,
फूट-फूटकर रोने लगे। उन्हें रोते देख पागल आगे बढ़े, उनके पास पहुँचे, उनके
गले मिले और वे भी रोने लगे।
फौजियों ने रोते-रोते कहा, ‘‘हम कितने
पागल थे, जो तुम को पागल समझते थे! असली पागल तो हम हैं, जो मरने और मारने
की वह नौकरी करते हैं, जिसने हमें इंसान से हैवान और शैतान बना दिया है!’’
‘‘तो समझ लो कि आज से तुम्हारी मरने और
मारने वाली नौकरी खत्म, जीने और जिलाने वाली जिंदगी शुरू! तुम्हें इंसान से
हैवान और शैतान बनाने वाले हैं ये हथियार। इनको दुनिया से विदा करो।’’
‘‘मगर कैसे?’’
‘‘यह तुम खुद सोचो। लेकिन यह समझ लो कि जब तक हथियारों का बनना और बिकना बंद नहीं होगा, लोग डरते रहेंगे और पागल भी होते रहेंगे।’’
फौजियों ने पागलों को गौर से देखा, फिर आपस में एक-दूसरे को देखा, मुस्कराये और पागलों से बोले, ‘‘हम समझ गये।’’
‘‘तो आज की रात तुम हमारे मेहमान रहो। मिलकर जंगल में मंगल करते हैं।’’
और उस रात जंगल में जो जश्न पागलों और
फौजियों ने मिलकर मनाया, उसमें उन्होंने मुझे भी शामिल किया। ऐसा जश्न
मैंने पहले कभी नहीं देखा था।
अगले दिन मैंने इस घटना की विस्तृत
रिपोर्टिंग की और वह सभूस (समर्थों की भूमंडलीय समाचारसेवा) के जरिये एक
बड़ी खबर बनकर सारी दुनिया में प्रकाशित और प्रसारित हुई। इस खबर से समर्थों
की हालत खराब हो गयी। उन्होंने झटपट समर्थों की विश्व संसद की एक
आपातकालीन बैठक बुलायी और उसमें आनन-फानन यह फैसला किया कि पागलों को खत्म
करने के लिए भेजी गयी फौजें वापस बुला ली जायें और पागलों के प्रतिनिधियों
को बातचीत के लिए बुलाया जाये।
फैसले के मुताबिक तुरंत सारी दुनिया के
पागलों को अपने प्रतिनिधि चुनकर भेजने के संदेश और फौजियों को अपने ठिकानों
पर वापस लौटने के आदेश भेजे गये। लेकिन पागलों तक यह संदेश और फौजियों तक
यह आदेश पहुँचा, तो पागल और फौजी दोनों एक साथ हँसे। दोनों की सम्मिलित
हँसी दुनिया भर में ऐसी गूँजी कि जैसे दुनिया भर के पूरे आसमान में छाये
घने बादल गड़गड़ा उठे हों। उस गड़गड़ाहट में बिजली-से चमकते और तड़तड़ाते कुछ
समवेत शब्द भी थे :
‘‘मरेंगे और मारेंगे नहीं, जियेंगे और जिलायेंगे।’’
‘‘डरेंगे और डरायेंगे नहीं, हँसेंगे और हँसायेंगे।’’
अब, यह उस सम्मिलित हँसी का असर रहा हो या
उन समवेत शब्दों का, दुनिया भर में तमाम असमर्थ हँसने लगे। जो असमर्थ पागल
और फौजी नहीं थे, वे भी हँसने लगे। और उसी विश्वव्यापी समवेत हँसी के बीच
वह घटना घटी, जो दुनिया में न तो पहले कभी घटी थी और न आगे कभी घटेगी।
फौजियों ने अपने भूमंडलीय संचार-तंत्र के
जरिये न जाने कैसे सारी दुनिया की सारी फौजों के बीच एक सहमति बनायी और एक
दिन प्रत्येक देश की फौज ने अपने देश के हथियार-कारखानों और आयुध-भंडारों
पर कब्जा कर लिया। उन्होंने अपने पास के तथा आयुध-भंडारों में भरे सब
छोटे-बड़े अस्त्रों-शस्त्रों और परम विनाशकारी बमों के साथ-साथ उन्हें बनाने
वाली मशीनों को भी ले जाकर गहरे महासागरों में डुबो दिया। हथियार बनाने के
कारखानों की जगहों पर उन्होंने सस्ते खाद्य पदार्थों, पोषक आहारों,
औषधियों और चिकित्सा संबंधी उपकरण आदि बनाने के कारखाने खुलवा दिये।
दुनिया भर के हथियारों के कारखाने बंद हो
गये, तो हथियारों का भूमंडलीय बाजार और व्यापार भी खत्म हो गया। पुलिस,
दूसरे सशस्त्र बलों और आतंकी संगठनों के पास जो हथियार थे, वे भी कुछ दिन
बाद गोला-बारूद न मिलने से बेकार हो गये। इस प्रकार दुनिया भर के लोग
हथियारों द्वारा पैदा किये जाने वाले भय और आतंक से मुक्त हो गये। इसके साथ
ही भय और आतंक के सहारे अनंत काल तक अखिल भूमंडल पर शासन करने के लिए
समर्थों द्वारा बनायी गयी संस्थाएँ और व्यवस्थाएँ भी बेकार हो गयीं।
समर्थों की वह विश्व-संसद, जिसने हजारों साल आगे की सोचकर अपना नया संवत्
चलाया था, वह भी नहीं रही।
मेरा और दूसरे बहुत-से लोगों का खयाल था
कि अब पागल लोग समर्थों की बनायी विश्व संसद पर कब्जा करेंगे और उसमें
बैठकर समर्थों की भाँति ही अखिल भूमंडल पर शासन करेंगे। लेकिन उन्होंने ऐसा
कुछ नहीं किया। किया सिर्फ यह कि विश्व संसद की इमारत को ऐतिहासिक वस्तुओं
का संग्रहालय बनाकर उसे हमेशा के लिए ‘इतिहास की वस्तु’ बना दिया।
हथियारों के कारखाने नष्ट हो जाने के बाद
फौजों का भी कोई काम नहीं रहा। सो फौजियों ने यह किया कि जिन सीमाओं की
सुरक्षा वे किया करते थे, उन्होंने हँसते-हँसते मिटा दीं और यह काम सीमाओं
के इस पार और उस पार के फौजियों ने, जो पहले एक-दूसरे के दुश्मन हुआ करते
थे, दोस्त बनकर साथ-साथ किया। सीमाएँ मिटा देने के बाद फौजियों ने अपनी
वर्दियाँ उतारकर सादा कपड़े पहने, वर्दियों के ढेर लगाये, उनकी होलियाँ
जलायीं और एक-दूसरे के गले मिले। देशों और दिलों को बाँटने वाली सीमाओं से
दुनिया को मुक्त करने की खुशी में वे पागलों की तरह हँसे। उन्होंने जमकर
जाम छलकाये, मुक्ति के गीत गाये, जी भरकर नाचे और एक-दूसरे से विदा लेकर
पागलों के पास यह पूछने गये कि अब वे क्या करें। पागलों ने उनसे कहा,
‘‘तुमने मरने और मारने का काम छोड़कर जीने और जिलाने का काम करने की कसम
खायी थी। अब उस काम को कर दिखाने का समय आ गया है। लोगों के बीच जाओ और
भूख, कुपोषण, बीमारी और बेरोजगारी के कारण मर रहे उन मनुष्यों को जिलाओ, जो
समर्थों की विश्व व्यवस्था द्वारा मानव कूड़ा और जैविक कूड़ा बना दिये गये
हैं। इसके लिए उत्पादन और वितरण की एक नयी व्यवस्था बनाओ, जिसका मूल मंत्र
हो–अपना उत्पादन और अपना उपभोग। बड़े-बड़े शहरों में केंद्रित बड़े-बड़े
उद्योगों की बड़ी-बड़ी मशीनों वाली उत्पादन प्रणाली को बदलकर छोटी-छोटी
ग्रामीण बस्तियों में विकेंद्रित छोटे-छोटे उद्योगों और हाथ से या हवा,
पानी, धूप, भाप और पशुओं की शक्ति से चलने वाली छोटी-छोटी मशीनों वाली
उत्पादन प्रणाली शुरू करो।’’
भूतपूर्व फौजियों में एक नयी जिंदगी शुरू
करने और एक नयी व्यवस्था बनाने का उत्साह पैदा हुआ, तो वे मुक्त मन, स्वस्थ
तन और सुंदर भावनाओं और योजनाओं के साथ दुनिया भर में फैल गये। उन्होंने
सबसे पहले उन ऊँची इमारतों, बड़े कारखानों, बड़े बाजारों, मॉलों, मनोरंजन
केंद्रों आदि को बंद किया, जिनमें नाहक ही ऊर्जा की भारी फिजूलखर्ची होती
थी। उनमें लगने वाली ऊर्जा को उन्होंने ग्रामीण बस्तियों की ओर मोड़ा, जहाँ
खेती-बाड़ी और उससे जुड़े छोटे-छोटे उद्योगों के लिए तथा घरों, स्कूलों,
अस्पतालों आदि के लिए उसकी जरूरत थी। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी
छूमंतर हो गयी और वहाँ रोजगार इतने बढ़ गये कि शहरों के बेरोजगार वहाँ जाकर
अपना उत्पादन और अपना उपभोग करने लगे। मनुष्यों को कूड़ा बनाने वाली
व्यवस्था को अतीत की वस्तु बनाकर वे मनुष्यता का भविष्य बनाने लगे।
पहले के लोग गाँवों से शहरों की ओर भागते
थे, अब उलटा होने लगा। शहर खाली होने लगे। ऊँची-ऊँची इमारतें बेकार हो
गयीं। बड़े-बड़े कारखाने या तो बंद हो गये, या बेहद जरूरी चीजों का उत्पादन
करने लगे। बाजारों में विज्ञापन के बल पर गैर-जरूरी चीजों का बिकना बंद हो
गया। दुनिया की पूरी व्यवस्था ही बदलती नजर आने लगी।
अब कुछ और तरह के पागलों ने एक चमत्कार
किया। एक दिन दुनिया भर के अर्थशास्त्री, वित्त विशेषज्ञ, मुद्रा विशेषज्ञ,
बैंकिंग विशेषज्ञ, सट्टा बाजार विशेषज्ञ और दुनिया भर की वित्त व्यवस्था
से जुड़े कंप्यूटरों के विशेषज्ञ मिले, जो अपने-अपने काम करते हुए ही किसी
दिन हँस पड़े थे और पागल हो गये थे। उन्होंने एक-दूसरे से कहा, ‘‘मनुष्यों
को पागल बनाने वाली दो चीजें हैं–भय और लालच। फौजी पागलों ने दुनिया को भय
से मुक्त कर दिया है, अब लालच से मुक्त करने की बारी हमारी है। भय से
मुक्ति के लिए उन्होंने हथियारों को दफ्नाया और सीमाओं को मिटाया, लालच से
मुक्ति के लिए हम दुनिया से धन का सफाया करेंगे।’’
‘‘कैसे?’’
इस प्रश्न पर उनके बीच लंबी बहस हुई और एक
योजना बनी, जिसके अनुसार एक दिन बैंकों और दूसरे वित्तीय संस्थानों की
भूमंडलीय संचार-व्यवस्था एकदम ठप्प हो गयी। दुनिया भर के बैंकों और दूसरे
वित्तीय संस्थानों के कंप्यूटर खराब हो गये। उनमें पल-पल में अरबों-खरबों
का जो धन दुनिया में इधर से उधर होता रहता था, उसका आना-जाना बंद हो गया।
दुनिया भर के बैंक अकाउंट बंद हो गये। बैंकों में जितने भी खाते थे, उन सब
में जमा राशियाँ शून्य हो गयीं।
इससे दुनिया में ऐसी खलबली मची, जैसी
हथियारों के दफ्नाये जाने और सीमाओं के मिटाये जाने के समय भी नहीं मची थी।
कल तक जो धनी और महाधनी थे, रातोंरात धनहीन हो गये। जिन लोगों के घरों,
दुकानों और दफ्तरों में लाखों-करोड़ों की नकदी रखी हुई थी, वह सब बेकार हो
गयी। सट्टा बाजार सहित सारा बाजार और व्यापार ठप्प हो गया। सिक्के धातुओं
के और नोट कागजों के बेकार टुकड़े होकर रह गये।
पहले लोग हँसते-हँसते पागल हुए थे, इस बार बहुत-से लोग रोते-रोते पागल हुए।
अगला कदम कुछ और पागलों ने उठाया। दुनिया
के हर देश में लोगों की आबादी, जनसंख्या के घनत्व और नगर-नियोजन आदि का
हिसाब रखने से संबंधित विभागों में काम करने वाले जो विशेषज्ञ हँसते-हँसते
पागल हुए थे, उन्होंने मिलकर हिसाब लगाया कि दुनिया में कहाँ आबादी बहुत कम
है और कहाँ बहुत ज्यादा। हालाँकि दुनिया से धन का सफाया हो जाने के बाद
धनी-निर्धन जैसे भेद खत्म हो गये थे, फिर भी कहीं अधिकांश लोग अब भी बेघर
थे और कहीं बहुत थोड़े लोग अब भी बहुत बड़ी-बड़ी जगहों में रहते थे। कहीं
लोगों के पास खाने-पहनने की चीजों के भंडार भरे हुए थे और कहीं बहुत-से लोग
भूखे-नंगे घूम रहे थे। पागलों ने घनी आबादी वाले इलाकों के बेघर, बेरोजगार
और भूखे-नंगे लोगों से कहा, ‘‘यह पृथ्वी उन थोड़े-से लोगों की बपौती नहीं
है, जो इस पर इतनी बड़ी-बड़ी जगहें घेरकर बैठे हुए हैं। यह पृथ्वी सबकी है और
इस पर सबको आराम से रहने-बसने का हक है। जाओ, जहाँ बहुत ज्यादा जगह में
थोड़े-से लोग रहते हों, वहाँ जाकर रहो और जो लोग जरूरत से ज्यादा खाते-पहनते
हों, उनके साथ मिल-बाँटकर खाओ-पहनो।’’
भय और आतंक तो अब दुनिया में रह ही नहीं
गया था, सीमाएँ मिट जाने से अब लोग वीजा और पासपोर्ट के बिना दुनिया में
कहीं भी आ-जा सकते थे। समर्थों की विश्व व्यवस्था में लोग दूसरे देशों में
नौकरी करने या शरण लेने के लिए दीन-हीन होकर जाया करते थे। अब वे
अधिकारपूर्वक रहने-बसने के लिए जाने लगे। इससे बहुत बड़ी-बड़ी जगहों में रहने
वाले और जरूरत से ज्यादा खाने-पहनने वाले थोड़े-से लोगों को थोड़ी तकलीफ
हुई, लेकिन बहुत छोटी-छोटी जगहों में बहुत बड़ी संख्या में रहने वाले और
खाने-पहनने को बहुत कम पाने वाले बहुत-से लोगों को बहुत राहत मिली।
इसके बाद वे साहित्यकार, कलाकार, शिक्षक
और अन्य संवेदनशील लोग सक्रिय हुए, जो अपने-अपने समाजों में ऊँच-नीच के भेद
और उनके आधार पर किये जाने वाले अन्याय-अत्याचार देखकर पागल हुए थे।
हालाँकि अब काफी आजादी और बराबरी हो गयी थी, जिससे अमीर-गरीब, मर्द-औरत,
गोरा-काला, सवर्ण-शूद्र, बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक जैसे भेदों के आधार पर किये
जाने वाले अन्याय-अत्याचार काफी कम हो गये थे, फिर भी पुरानी आदतों और
मान्यताओं के चलते इस प्रकार के कुछ अन्याय-अत्याचार अब भी होते थे। यह
देखकर उन पागलों ने औरतों से कहा कि वे मर्दों को घेरें, कालों से कहा कि
वे गोरों को घेरें, शूद्रों से कहा कि वे सवर्णों को घेरें और अल्पसंख्यकों
से कहा कि वे उन बहुसंख्यकों को घेरें, जो लैंगिक, नस्ली, धार्मिक,
सांप्रदायिक और खान-पान, वेश-भूषा, रहन-सहन आदि के भेदों के आधार पर उनके
प्रति अन्याय और अत्याचार करते हैं। पागलों ने उनसे कहा कि उन लोगों को
घेरकर मारना-पीटना नहीं है, बस उन्हें घेरकर उन पर हँसना है और तब तक हँसते
रहना है, जब तक वे शर्मिंदा होकर मनुष्यों को मनुष्य न समझने की अपनी भूल
स्वीकार करके उसे सुधार न लें।
इस तरह दुनिया भर में सामाजिक अन्याय के विरुद्ध हँसी के हथियार से लड़ाई लड़ी गयी और जीती गयी।
हाँ, मैं अपने बारे में बताना तो भूल ही
गयी। मैं अब भी पत्रकार थी, मगर अब मैं ‘सभूस’ (समर्थों की भूमंडलीय
समाचारसेवा) की नहीं, बल्कि उसे बदलकर बनायी गयी ‘अभूस’ (अखिल भूमंडलीय
समाचारसेवा) की पत्रकार थी। अब मेरा काम दुनिया में हो रहे नये बदलावों की
रिपोर्टिंग करना था। दुनिया में इतने बड़े-बड़े बदलाव इतनी तेजी के साथ हो
रहे थे कि मैं उनकी रिपोर्टिंग के लिए दिन-रात यहाँ से वहाँ भागती रहती थी।
इधर मेरी रुचि प्रकृति और पर्यावरण से संबंधित बदलावों में अनायास बढ़ गयी
थी।
अपने काम के साथ-साथ मैं अपने माता-पिता,
भाई-बहन और दूसरे सगे-संबंधियों की तलाश भी करती रहती थी। मगर उनमें से कोई
भी मुझे कहीं भी नहीं मिला। हाँ, एक बार जब मैं दुनिया भर में घूम-घूमकर
पागलों द्वारा शुरू की गयी नये ढंग की सामूहिक खेती-बाड़ी, बागवानी और खाने
योग्य पशुओं, पक्षियों, मछलियों आदि के उत्पादन के साथ-साथ पर्यावरण की
रक्षा से संबंधित कार्यक्रमों की रिपोर्टिंग कर रही थी, तब मुझे एक
पर्यावरण सम्मेलन में एक पागल दिखा, जो मुझे अपने बड़े भाई जैसा लगा। लेकिन
मुझे अपने परिवार से बिछुड़े इतना लंबा अरसा हो चुका था और वह जिस देश में
मुझे दिखा था, वह मेरे देश से इतनी दूरी पर था कि वहाँ मुझे अपने भाई का
होना संभव नहीं लगा। फिर भी मैंने उससे मिलकर उसके अतीत के बारे में जानना
चाहा। लेकिन वह हँस दिया। मैं समझ गयी, यदि वह मेरा भाई होता, तो अवश्य ही
मुझे पहचान लेता।
लेकिन उस पागल से मिलने के बाद मैंने
सोचा, कम से कम एक बार मुझे उस देश में अवश्य जाना चाहिए, जो कभी मेरा देश
था और जिसे कभी समर्थों ने धूल में मिला दिया था। दुनिया में इतने बड़े-बड़े
परिवर्तन हो गये हैं, क्या पता वहाँ जाकर मुझे अपने परिवार के लोगों के
बारे में कुछ पता चले या शायद वहाँ कोई मुझे मिल ही जाये।
और एक दिन मैं वहाँ पहुँच गयी, जहाँ मेरा
शहर हुआ करता था। उस जगह का नाम तो वही था, लेकिन मेरा जाना-पहचाना वह शहर
वहाँ नहीं था, जो नदी के दोनों किनारों पर घनी बस्तियों, बहुमंजिली
ऊँची-ऊँची इमारतों और बड़े-बड़े उद्योगों वाला एक बड़ा शहर था। नदी अब भी वहाँ
थी, लेकिन उसके दोनों तरफ घनी बस्तियों की जगह हरी-भरी खेतियाँ थीं।
बहुमंजिली इमारतों की जगह इकमंजिले मकान थे। दिन में धूप और रात में चाँदनी
के लिए खुले-खुले मकान। बड़ी-बड़ी मशीनों वाले बड़े कारखानों की जगह
छोटे-छोटे कारखाने थे, जिनमें हाथ से या छोटी मशीनों से रोजमर्रा के काम की
चीजें बनायी जा रही थीं। जहाँ फौजी छावनी हुआ करती थी, वहाँ स्कूल, काॅलेज
और अस्पताल बन गये थे। परेड मैदानों को खेल के मैदानों में बदल दिया गया
था। हथियार बनाने का कारखाना दवाइयाँ बनाने का कारखाना बन गया था।
आयुध-भंडार खाद्य सुरक्षा के लिए बनाया गया अन्न भंडार बन गया था। रेलवे
स्टेशन था, लेकिन पहले जितना बड़ा, बंद और भीड़भाड़ वाला नहीं, बल्कि छोटा-सा
खुला हुआ और शांत। पेट्रोल और डीजल से चलने वाले वाहन जब सारी दुनिया में
ही चलने बंद हो गये थे, तो पहले की तरह उनसे घिरी सड़कें अब मुझे वहाँ कहाँ
दिखतीं? उनकी जगह मुझे वे वाहन दिखे, जो मैंने बचपन में शहरों से दूर
गाँव-देहात में चलते देखे थे–बैलगाड़ी, भैंसागाड़ी, घोड़ागाड़ी, ऊँटगाड़ी। लोग
ज्यादातर पैदल चल रहे थे या साइकिलों पर।
मैं संवाददाता वाली जिज्ञासा के साथ लोगों
से पूछताछ करती, अपने बदले हुए शहर के बारे में नयी जानकारियाँ जुटाती घूम
रही थी और साथ-साथ उस जगह का पता भी लगा रही थी, जहाँ कभी मेरा घर था। बड़ी
देर बाद मुझे एक बूढ़ा आदमी मिला, जिसे मैं पहचान गयी। उसने भी मेरे
माता-पिता के नाम से मुझे पहचान लिया। मैंने उससे अपने घर के बारे में
पूछा, तो वह मुझे एक टीले पर ले गया और वहाँ से नदी किनारे के हरे-भरे
खेतों के बीच बने खूबसूरत मकानों वाली छोटी-सी बस्ती की तरफ इशारा करते हुए
बोला, ‘‘वहाँ है तुम्हारा घर।’’
मेरे पूछने पर उसने बताया कि युद्ध के
दिनों में जब शहर पर भारी बम बरसाये जा रहे थे, दूसरे लोगों की तरह मेरे
परिवार के लोग भी जान बचाने के लिए भागे थे। वे कहाँ-कहाँ गये, कहाँ-कहाँ
रहे, उसे मालूम नहीं था। कब और कैसे लौटे, यह भी वह नहीं बता सका। मगर उससे
मुझे यह मालूम हो गया कि लौटने वालों में मेरी माँ थीं, मेरे पिता नहीं
थे। मेरी छोटी बहन नहीं थी, पर मेरे बड़े भाई थे। माँ और बड़े भाई ने दूसरे
लोगों के साथ मिलकर नदी के किनारे खाली पड़ी जमीन को सामुदायिक खेती के लायक
बनाया, खेतों के बीच सामूहिक श्रम से मकान बनाये, जो सुंदर थे और एक जैसे
नहीं थे। उनमें से ही एक मकान में मेरी माँ मेरे भाई, मेरी भाभी और मेरी
एक भतीजी के साथ सुख से रहती हैं।
विदा लेते समय मैंने शुक्रिया कहा, तो उस भले बूढ़े ने मेरा सिर थपथपाकर आशीर्वाद दिया, ‘‘खुश रहो। जाओ, मिलो अपने लोगों से।’’
मुद्दतों बाद मुझसे मिलकर माँ और भाई तो
खुश हुए ही, पहली बार मिली भाभी और भतीजी भी बहुत खुश हुईं। भतीजी को देखकर
मुझे लगा कि जैसे मैं उसमें अपनी किशोरावस्था देख रही हूँ।
मैं शाम को घर पहुँची थी। शाम से देर रात
तक खाना-पीना चलता रहा और दुनिया भर की बातें होती रहीं। बातों ही बातों
में मुझे पता चला कि माँ, भाई और भाभी तीनों मिलकर सामुदायिक खेती और
बागवानी करते हैं और मेरी भतीजी स्कूल में पढ़ती है। मगर इसके अलावा चारों
सार्वजनिक जीवन में भी खूब सक्रिय रहते हैं। माँ की रुचि शुरू से ही संगीत
में थी, सो वे एक संगीतशाला में बच्चों को संगीत सिखाती हैं। भाई को बचपन
से ही चित्रकला में रुचि थी और अब वे एक अच्छे चित्रकार बन गये हैं। भाभी
की रुचि इतिहास लेखन में है और वे एक पुस्तक लिख रही हैं–‘पागलों ने दुनिया
बदल दी’। भतीजी की रुचि तैराकी में है और उसने तैराकी की कई प्रतियोगिताओं
में पदक प्राप्त किये हैं।
अगले दिन सुबह सबने मुझे पूरा घर दिखाया,
अपने पड़ोसियों से मिलवाया और अपने सामुदायिक खेतों और बागों में घुमाया।
वहाँ से नदी पास ही थी। भाई ने मुझसे कहा, ‘‘आओ, नदी पर चलते हैं।’’
‘‘नहीं, नदी पर नहीं।’’ सहसा मेरे मुँह से निकल गया।
‘‘क्यों? नदी पर क्यों नहीं?’’ भाई को
आश्चर्य हुआ, लेकिन अगले ही क्षण उन्होंने मेरी तरफ देखा और हँस पड़े,
‘‘डरती हो कि फिसलकर उसमें गिर न पड़ो?’’
मैं शरमा गयी। मुझे बचपन की वह घटना याद
थी, जब मैं माता-पिता और भाई-बहन के साथ एक बार नदी पर घूमने आयी थी और
किनारे पर से फिसलकर नदी में गिर गयी थी। नदी शहर की गंदगी और कारखानों से
निकलने वाले काले गंधाते पानी के मिलने से बदबूदार गंदे नाले जैसी हो गयी
थी और गहरी होने के बावजूद बड़ी मंथर गति से बहती थी। मैं उसमें गिरकर डूबने
लगी, तो पिता उसमें कूद पड़े और उन्होंने मेरे बाल पकड़कर मुझे पानी में से
निकाला। पिता और मैं नदी में से निकलकर आये, तो काले बदबूदार पानी में भीगे
हुए थे और उसमें बहते सड़े-गले खर-पतवार के तिनके हमारे बालों में, मुँह और
हाथ-पैरों पर चिपके हुए थे। हमें इस हालत में देखकर मेरे भाई-बहन ही नहीं,
माँ भी खूब हँसी थीं।
मुझे शरमाते देख भाई ने कहा, ‘‘डरो नहीं, दूसरी तमाम चीजों की तरह हमारी नदी भी बहुत बदल गयी है।’’
और मैंने पास जाकर नदी को देखा, तो देखती
ही रह गयी। काले बदबूदार पानी वाली और मंथर गति से बहने वाले गंदे नाले-सी
नदी अब एकदम स्वच्छ जल और तेज बहाव वाली सुंदर नदी बन गयी थी।
उसमें कुछ ऐसा आकर्षण और आमंत्रण था कि
मैंने कहा, ‘‘मैं नहाऊँगी।’’ और जो कपड़े मैं पहने हुए थी, उन्हीं को
पहने-पहने मैंने छलाँग लगा दी। मुझे मालूम नहीं था कि पानी का बहाव इतना
तेज होगा। तैरना जानते हुए भी मैं नदी की तेज धार में बह चली और डूबने लगी।
यह देखकर मेरी भतीजी नदी में कूदी, तेजी से तैरती हुई मेरे पास आयी और
मुझे बाहर निकाल लायी।
‘‘याद है, माँ, जब यह बचपन में फिसलकर नदी में गिर गयी थी और पिता इसे निकालकर लाये थे?’’ भाई ने मुस्कराते हुए कहा।
‘‘हाँ, याद है। तब यह कैसी भूतनी बनकर निकली थी!’’ माँ हँस पड़ीं।
उनको हँसते देख मेरी भी हँसी छूट गयी और मैं खूब हँसी। बहुत दिनों बाद इतना हँसी।
हँसते-हँसते मैंने नदी की ओर देखा। स्वच्छ
जल की वेगवती धारा के उस पार खड़े घने दरख्तों के ऊपर उठते सुबह के सूरज को
देखा। पीछे मुड़कर हरे-भरे खेतों के एक तरफ फलदार पेड़ों के बागों को और
दूसरी तरफ बने सुंदर इकमंजिले मकानों को देखा। फिर मैंने अपने परिवार को
देखा और सभी कुछ मुझे इतना सुंदर लगा, इतना सुंदर लगा कि बता नहीं सकती!