Wednesday, July 13, 2011

याद रहेगी वह लाल मुस्कान


चंद्रबली जी के साथ बातचीत करने, घूमने-फिरने, यात्रा करने और काम करने का अपना एक अलग ही सुख होता था। पान खाते हुए अपनी लाल मुस्कान के साथ बातचीत करने और गंभीर से गंभीर विषय पर चर्चा करते समय भी उन्मुक्त भाव से हँसने का उनका एक खास आत्मीय अंदाज था, जिसके कारण वे मुझे अपने बुजुर्ग साथी कम और हमदम दोस्त ज्यादा लगते थे। किसी भी विषय पर और किसी भी अवसर पर उनके साथ दिल खोलकर बातें की जा सकती थीं। आज वे नहीं हैं, लेकिन मुझे हमेशा याद रहेगी वह लाल मुस्कान।

उनसे मेरा परिचय 1980 में ‘कथन’ का प्रकाशन प्रारंभ होने के समय हुआ था, जो जनवादी लेखक संघ (जलेस) की निर्माण प्रक्रिया के दौरान उनके साथ की गयी साहित्यिक यात्राओं में गाढ़ा हुआ और जल्दी ही एक आत्मीय पारिवारिक संबंध में बदल गया। शिमला में हुए जलेस के एक सम्मेलन में मेरी दोनों बेटियाँ प्रज्ञा और संज्ञा भी मेरे साथ गयी थीं, जो तब बच्चियाँ ही थीं। उन्हें सबसे अधिक प्यार चंद्रबली जी से ही मिला। वे कई बार दिल्ली में मेरे घर आये--एक बार तो कई दिन हमारे साथ रहे--और मैं जब भी बनारस गया, उन्हीं के यहाँ ठहरा। वे ‘कथन’ के सलाहकार मंडल में भी थे। हम जलेस के संस्थापक सदस्य थे तथा बाद में उसकी केंद्रीय कार्यकारिणी में भी साथ-साथ सक्रिय रहे।

चंद्रबली जी को लोग प्रायः आलोचक तथा अनुवादक के रूप में जानते हैं। वे कैसे आलोचक थे, इसका कुछ अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि जब उन्होंने आलोचना लिखना बंद कर दिया, तो उनसे पुनः लिखना शुरू करने का आग्रह करने वालों में अन्य अनेक साहित्यकारों के अलावा उनके घनिष्ठ मित्र रामविलास शर्मा भी थे। एक बार रामविलास जी ने अपनी एक पुस्तक उन्हें भेंट करते हुए उन्हें उत्तेजित-उत्प्रेरित करने के लिए उस पर लिखा, ‘‘भूतपूर्व आलोचक चंद्रबली सिंह के लिए’’ और पुस्तक उन्हें देते हुए कहा, ‘‘जब तुम फिर से लिखना शुरू कर दोगे, तो लिखूँगा--अभूतपूर्व आलोचक चंद्रबली सिंह के लिए।’’

लेकिन बहुत कम लोग जानते होंगे कि चंद्रबली जी मूलतः कवि थे। एक बार उन्होंने मुझे बताया था कि उन्होंने 1947 के आसपास कविताएँ लिखना शुरू किया था। वैसे साहित्य में उनकी रुचि विद्यार्थी जीवन से ही थी और यशपाल, राहुल सांकृत्यायन आदि की किताबें पढ़कर समाजवादी विचारों की तरफ उनका झुकाव भी हो गया था, लेकिन सर्वप्रथम वे कवि थे, कवि के नाते ही प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) से जुड़े और फिर कम्युनिस्ट पार्टी से। उन्होंने मुझे बताया, ‘‘वह बड़ा भयानक दौर था। खास तौर से 1948 के बाद। भारत का विभाजन, कश्मीर पर हमला, कम्युनिस्टों का दमन--इन सब घटनाओं का असर आदमी के दिल और दिमाग पर उस वक्त बहुत पड़ता था। उस जमाने में मैंने इन्हीं विषयों पर कविताएँ लिखीं।’’

मैंने पूछा, ‘‘उस समय आपकी उम्र क्या थी?’’ तो हँसकर बोले, ‘‘अपने बाप की लिखायी हुई उम्र बताऊँ या असली उम्र बताऊँ? असली उम्र का पता नहीं, पिता के द्वारा लिखायी गयी उम्र के अनुसार मैं उस समय तेईस बरस का था। तो उस समय की परिस्थितियाँ मुझे बहुत उद्वेलित करती थीं और मैं हर सप्ताह कई कविताएँ लिख लेता था। रतलाम से ‘जनमत’ नाम की साप्ताहिक पत्रिका निकलती थी। शायद ही कोई सप्ताह जाता हो कि उसके कवर पर मेरी कविता न जाती हो।’’

लेकिन अपने लेखन को पुस्तकाकार प्रकाशित कराने में उनकी बहुत रुचि नहीं थी। मैंने पूछा, ‘‘कोई संकलन निकला आपका?’’ तो बोले, ‘‘कोई संकलन नहीं। अब तो शायद लोग मेरी कविताओं को भूल भी गये होंगे। जो मेरे उस जमाने के दोस्त हैं, वे ही जानते हैं। डॉक्टर रामविलास शर्मा मजाक करते हैं कि एक बार वे भोपाल या कहीं गये, तो वहाँ एक मजदूर उनसे पूछता है कि चंद्रबली सिंह की कविताएँ आजकल देखने को नहीं मिल रही हैं। बाद में प्रगतिशील आंदोलन में जो बिखराव आया, उसमें मेरा कविता लिखना छूटा और अपनी शक्ति का इस्तेमाल मैंने आलोचना लिखने में करना शुरू किया। लेकिन कविता से मेरा प्रेम समाप्त नहीं हुआ। उस जमाने में मैंने वॉल्ट व्हिटमैन की बहुत-सी कविताओं का अनुवाद किया, जो पत्र-पत्रिकाओं में छपीं। बाद में दूसरे कवियों की भी बहुत-सी कविताओं के अनुवाद किये।’’

लेकिन अपने आलोचनात्मक लेखन को संकलित करने के प्रति वे उदासीन रहे। उनसे जब मेरा परिचय हुआ, तब तक उनकी एक ही पुस्तक छपी थी ‘लोक दृष्टि और हिंदी साहित्य’। बाद में एक और छपी ‘साहित्य का जनपक्ष’। उनके अनुवादों के संकलन और भी बाद में छपे।
एक बार देवकीनंदन खत्री के बारे में बात हो रही थी। चंद्रबली जी ने बताया कि देवकीनंदन खत्री पर पहला गंभीर आलोचनात्मक लेख उन्होंने ही लिखा था। उन्होंने कहा, ‘‘उसमें मैंने बताया था कि खत्री के लेखन में सामंतवाद-विरोधी प्रगतिशील दृष्टि है। उसमें सामंती समाज में नारी की स्थिति के प्रति विरोध का भाव है। उद्यम के महत्त्व को बताया गया है। तर्क और युक्ति पर जोर दिया गया है। अंग्रेजों द्वारा पैदा की जा रही हिंदू-मुस्लिम फूट की नीति का विरोध है। इन सब चीजों का उल्लेख पहले किसी ने नहीं किया था। शुक्ल जी ने भी अपने इतिहास में यह काम नहीं किया था।’’

चंद्रबली जी प्रलेस से जुड़ने के बाद कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े थे। इसके बारे में उन्होंने मुझे बताया, ‘‘आगरे में रहते समय मैं जिन लोगों के संपर्क में आया, वे मुझे बहुत अच्छे और लगन वाले आदमी मालूम हुए। इसका मुझ पर बड़ा अच्छा असर पड़ा। लेकिन जुलाई, 1950 तक--जब तक मैं आगरे में रहा--मैं कम्युनिस्ट पार्टी का मेंबर नहीं था। मेंबर बना उसके बाद बनारस जाने पर। आगरे से बनारस पहुँचकर मैंने वहाँ प्रलेस की स्थापना की। लेकिन उस समय तक पार्टी की नीति को लेकर उसके अंदर मतभेद शुरू हो गये थे और इस चीज का असर प्रलेस पर भी पड़ रहा था। नामवर सिंह उस समय बनारस में ही थे और पंत को लेकर मुझसे बहुत बहस किया करते थे। उन्होंने उसी समय लिखना शुरू किया था। प्रकाशचंद्र गुप्त वगैरह मुझसे और डॉक्टर शर्मा से उस समय बहुत कुपित थे और हम लोगों को संकीर्णतावादी कहा करते थे।’’

चंद्रबली जी मानते थे कि प्रलेस में एक विसर्जनवादी प्रवृत्ति मौजूद थी--कि आजादी के बाद उसकी कोई जरूरत नहीं रह गयी है, उसे विसर्जित कर देना चाहिए। इस प्रवृत्ति के बारे में उनका कहना था, ‘‘उसमें विसर्जनवादी प्रवृत्ति पहले से मौजूद थी, लेकिन बड़े पैमाने पर वह सामने आयी 1953 में, जब दिल्ली में प्रलेस का राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ। कुछ लोगों को ऐसा महसूस हुआ था कि इस संगठन को खत्म करके एक नया संगठन बनाया जाये। यानी लेखकों के कार्यभार नये दौर में क्या हो सकते हैं, इसको फिर से डिफाइन किया जाये और पिछली गलतियों की आलोचना करते हुए एक नये घोषणापत्र के साथ एक नया संगठन बनाया जाये। लेकिन पुरानी चीज के साथ लोगों का एक भावनात्मक रिश्ता भी होता है। फिर, उस जमाने में प्रगतिशील लेखकों का काफी दमन हुआ था। इसलिए यह तय हुआ कि प्रलेस चलेगा। लेकिन जो नया नेतृत्व आया, वह अति-उदारतावादी था। डॉक्टर रामविलास शर्मा की जगह पर कृश्नचंदर महासचिव चुने गये और इन लोगों की समझ यह थी कि बहुत ज्यादा मिर्चा खा लिया है, अब चीनी फाँक लो!’’

यह कहते हुए चंद्रबली जी जोर से हँसे। लेकिन तुरंत ही गंभीर होकर बोले, ‘‘अफसोस की बात यह है कि पुरानी गलतियों को सुधारने के नाम पर यह जो अति-उदारतावाद अपनाया गया, इसका विश्लेषण कभी नहीं किया गया। आप कह सकते हैं कि यह और भी बड़ी गलती थी। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि इन गलतियों के कारण प्रलेस डूबा। मैं समझता हूँ कि गलतियाँ किसी से भी हो सकती हैं। और यदि कोई संगठन अपनी गलतियों का सही विश्लेषण करके उन्हें सुधारता चलता है, तो वह जिंदा रह सकता है। लेकिन प्रलेस के नये नेतृत्व ने अपनी गलती को सुधारना तो दूर, उसको समझने तक की कोशिश नहीं की।’’

मैंने पूछा, ‘‘आप लोगों ने इस चीज के खिलाफ संघर्ष नहीं चलाया?’’

उत्तर में चंद्रबली जी ने कहा, ‘‘संघर्ष तो हमने चलाया। ‘स्वाधीनता’ वगैरह में उस समय हमारे जो लेख निकले, वे उन लोगों की समझ के खिलाफ थे। और उनमें उस समझ के कुछ संकेत आपको मिल सकते हैं, जो अब आकर हमारे जनवादी लेखक संघ के घोषणापत्र में व्यक्त हुई है। लेकिन वह संघर्ष संगठित रूप से नहीं चल पाया। आजादी के बाद जो परिवर्तन हुआ था, शासक वर्ग ने जो भ्रम फैलाये थे, साम्राज्यवादी संस्कृति का जो आक्रमण हमारी संस्कृति पर हो रहा था, साहित्य में ‘नयी कविता’ और प्रयोगवाद के नाम पर जो घातक प्रवृत्तियाँ आ रही थीं, उनके खिलाफ प्रगतिशील लेखकों को वैचारिक संघर्ष करना चाहिए था। कुछ लोगों ने किया भी। जैसे मैंने ‘नयी कविता’ के वैचारिक आधार अस्तित्ववाद पर आक्रमण किया। ‘नयी कविता’ और अस्तित्ववाद का यह संबंध मैंने ही पहली बार दिखाया था। लेकिन यह संघर्ष संगठित नहीं था।’’

1982 में जब जलेस की स्थापना हुई, लेखक और संगठन तथा साहित्य और विचारधारा से संबंधित प्रश्नों पर तीखी बहसें हुईं, जिनमें विभिन्न लेखक संगठनों में शामिल तथा उनसे बाहर के लेखकों ने भी भाग लिया। उस समय मैंने चंद्रबली जी का एक लंबा इंटरव्यू लिया और ‘कथन’ के मार्च-अप्रैल, 1983 के अंक में ‘साहित्य और जनवाद’ शीर्षक से प्रकाशित किया। उसमें मेरा एक प्रश्न था, ‘‘कुछ लेखक, चंद्रबली जी, ऐसे भी हैं, जो संगठन की आवश्यकता को ही नकारते हैं। वे मानते हैं कि लेखन एक व्यक्तिगत कर्म है, संगठन उसमें कोई मदद नहीं कर सकता। ऐसे लेखकों के बारे में आप क्या कहते हैं?’’

चंद्रबली जी ने उत्तर दिया, ‘‘वही कहता हूँ, जो मैंने जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय सम्मेलन में श्रीमती मन्नू भंडारी का वक्तव्य सुनने के बाद कहा था। ऐसे लेखकों से यह पूछना चाहिए कि क्या आज प्रतिक्रियावादी ताकतें बड़े ही योजनाबद्ध और संगठित तरीके से हमारे ऊपर तरह-तरह के आक्रमण नहीं कर रही हैं? क्या आज कलम की आजादी पर शासक वर्ग की ओर से संगठित आक्रमण नहीं हो रहा है? क्या इस आक्रमण का मुकाबला लेखक अलग-थलग और अकेला रहकर कर सकता है? हम इस सचाई से इनकार नहीं करते कि रचना-कर्म एक वैयक्तिक कर्म है, लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि वह एक सामाजिक कार्य भी है। रचना को दूसरों तक पहुँचना है और समाज की संपूर्ण व्यवस्था में से गुजरकर पहुँचना है। और मौजूदा व्यवस्था में लेखक के आर्थिक हित ही खतरे में नहीं पड़ते, उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी खतरे में है। फिर, जनवादी लेखक एक खास तरह के लेखक हैं। वे सामाजिक परिवर्तन के लिए लड़ने वाले लेखक हैं और वे संगठित होकर ही सामाजिक परिवर्तन में अपनी भूमिका निभा सकते हैं, ताकि साहित्य के माध्यम से समाज को बदलने की लड़ाई जनता के हित में लड़ सकें।’’

कुछ देर सोचने के बाद उन्होंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘एक बात और: लेखकों को अपनी शक्ति को कम करके नहीं आँकना चाहिए। यह उनकी शक्ति का ही प्रमाण है कि व्यवस्था तरह-तरह के प्रलोभन देकर या भय दिखाकर उन्हें अपने पक्ष में करने की कोशिश करती है। इसीलिए जो लेखक उसके पक्ष में नहीं हैं, उन्हें वह संगठित होने से रोकने के प्रयास करती है, ताकि उन्हें अलग-अलग पीट सके। इसलिए हमें उन लेखकों को, जो जनवाद की लड़ाई लड़ने के लिए तो तैयार हैं, लेकिन संगठन के महत्त्व को नहीं समझते, बड़ी सहिष्णुता के साथ यह समझाने की कोशिश करनी चाहिए कि अलग-थलग रहने और संगठन का विरोध करने के लिए प्रेरित करने वाली उनकी व्यक्तिवादी विचारधारा दरअसल शासक वर्ग की विचारधारा है, जिसके विरुद्ध उन्हें संघर्ष करना है। इसके लिए हमें ऐसे लेखकों से वैचारिक संघर्ष चलाना चाहिए और उनके मन में बैठे हुए या बिठाये गये ऐसे भ्रमों को दूर करने की कोशिश करनी चाहिए कि संगठन सब लेखकों से एक तरह का लिखने की माँग करता है या उन्हें निर्देशों पर लिखने के लिए मजबूर करता है। हमने तो अपने घोषणापत्र में लेखकों के लिए विषय, वस्तु, रूप और शिल्प संबंधी तमाम विविधताओं को स्वीकार किया है और लेखकों को कलात्मक अभिव्यक्ति के मामले में पूरी स्वतंत्रता देने की बात कही है।’’

लेखक संगठनों के संदर्भ में विचारधारा का प्रश्न हमेशा एक मुख्य प्रश्न रहा है। इस पर चली बहसों, उनके दौरान सामने आये वैचारिक मतभेदों और उन्हें दूर करने के लिए किये गये प्रयासों के बावजूद इस प्रश्न पर अस्पष्टता बनी रही है। चंद्रबली जी मार्क्सवादी थे, लेकिन व्यक्तिगत रूप से तो क्या, जनवादी लेखक संघ का नेतृत्व करते हुए भी किसी पर अपनी विचारधारा थोपने की कोशिश नहीं करते थे। उनका मानना था कि लेखक संगठन एक संयुक्त मोर्चा होता है और संयुक्त मोर्चे में नेतृत्व कौन-सी विचारधारा करे, इस सवाल पर यांत्रिक तरीके से विचार नहीं करना चाहिए।

उनका कहना था, ‘‘हम न तो किसी लेखक पर अपनी विचारधारा थोप सकते हैं, न उसको मानने की शर्त लगा सकते हैं। शर्त तो केवल जनवाद की रक्षा और विस्तार की लड़ाई में साथ आने की है। इसके बाद किस विचारधारा का नेतृत्व लोग मानेंगे, यह इस पर निर्भर करेगा कि कौन-सी विचारधारा उन्हें सबसे ज्यादा सही और अच्छी लगती है। मार्क्सवादी विचारधारा का नेतृत्व लेखक कब मानेंगे? जब मार्क्सवादी लेखक हमारी जनता के जीवन के यथार्थ-चित्रण के सर्वोत्कृष्ट नमूने प्रस्तुत करेंगे। यानी सबसे ज्यादा सुंदर, कलात्मक, उत्कृष्ट रचनाएँ मार्क्सवादी लेखकों की होंगी, और जनता के संघर्षों को आगे बढ़ाने में मार्क्सवादी लेखक सबसे ज्यादा आगे बढ़कर काम करेंगे, सबसे ज्यादा त्याग करेंगे। तब दूसरे लोग अपने-आप यह महसूस करेंगे कि नेतृत्व मार्क्सवादी विचारधारा कर रही है।’’

काश, निरे नेतृत्वकामी ‘मार्क्सवादियों’ ने इस सच्चे मार्क्सवादी को सुना और गुना होता!

--रमेश उपाध्याय