Thursday, July 9, 2009

एक ताज़ा कविता


बुढ़ऊ का पाजामा

बुढ़ऊ का तकियाकलाम था--
"बैठा मत रह कुछ किया कर
पाजामा उधेड़कर सिया कर।"
औरों को उपदेश नहीं देते थे बुढ़ऊ
ख़ुद इसका पालन करते थे
जब से सेवा मुक्त हुए वे
बैठ गए पाजामा लेकर
रोज़ उधेड़ा करते उसको
रोज़ सिया करते थे उसको
लेकिन आख़िर बोर हो गए
लगे सोचने--
"बहुत हो गई दुनियादारी
कर लो चलने की तैयारी
यह सीना-उधेड़ना आख़िर
क्यूं और कब तक?
रोज़ सुबह उठने से बेहतर
एक रात सो जाएँ सदा को शांतिपूर्वक।"
लेकिन देखा--मृत्यु सामने खड़ी हुई है
उन्हें देख मुस्करा रही है
लिए हाथ में वह पाजामा
जो उधेड़कर बुढ़ऊ ने कल
फ़ेंक दिया था, सिया नहीं था
कहा मृत्यु ने--
"यह लो, बुढ़ऊ!
अभी नहीं मरना है तुमको
कई साल का जीवन बाकी बचा तुम्हारा
कर लो जो करना है तुमको
अपना काम अधूरा क्यों छोड़ो?
पूरा कर जाओ
यह उधडा पाजामा अपना सीकर जाओ।"

--रमेश उपाध्याय