संबोधन बदलेगा तो संवाद भी बदल जाएगा
साहित्य सबसे पहले एक संवाद है। लेखक का अपने पाठक, श्रोता या दर्शक से होने वाला संवाद। रचना को ध्यान से पढ़ें, तो उसमें दोनों परस्पर संवाद करते दिख जायेंगे और उन्हें सुनकर पता चल जाएगा कि लेखक क्या, क्यों और कैसे कह रहा है।
नन्द भारद्वाज का उपन्यास 'आगे खुलता रास्ता' पढ़ते हुए मुझे लगा कि जब यह उपन्यास राजस्थानी में लिखा गया था, तब यह राजस्थानी पाठक को संबोधित था और अब जब लेखक ने स्वयं इसका हिन्दी में "अनुवाद और पुनर्सृजन" किया है, इसका पाठक बदल गया है। यह आसान नहीं होता कि आप एक व्यक्ति से एक भाषा में कही गई बात दूसरे व्यक्ति से दूसरी भाषा में ज्यों की त्यों कह सकें। ऊपरी तौर पर लग सकता है--जैसा कि अनुवादकों को लगता है--कि एक भाषा में कही गई बात दूसरी भाषा में यथावत कह दी गई है, लेकिन मैं अंग्रेज़ी, गुजराती और पंजाबी से किए गए अनुवादों के अपने अनुभव से जानता हूँ कि हर अनुवाद एक "पुनर्सृजन" ही होता है, क्योंकि रचना मूलतः जिस पाठक को संबोधित होती है, उसके अनुवाद का पाठक उससे भिन्न होता है। अनूदित रचना में लेखक एक दुभाषिये के माध्यम से दूसरी भाषा के पाठक को संबोधित करता है। अब यह दुभाषिये पर निर्भर करता है कि वह लेखक की भाषा में कही हुई बात दूसरी भाषा के पाठक तक कैसे पहुंचाता है। वह उस बात को ज्यों की त्यों दूसरी भाषा में नहीं कह सकता, इसलिए अच्छे से अच्छा अनुवाद भी मूल का लगभग सही रूप ही होता है। अर्थात्, लगभग सदृश, ज्यों का त्यों नहीं। लेखक यदि स्वयं दूसरी भाषा में अनुवाद करता है, तो वह मूल लेखक होने के नाते अपनी रचना का "पुनर्सृजन" करने की--अर्थात् जहाँ ज़रूरत हो, वहाँ उसे फिर से या दूसरे रूप में लिखने की--छूट ले सकता है और अक्सर लेता ही है। नन्द भारद्वाज ने अपने राजस्थानी उपन्यास का हिन्दी अनुवाद करते समय यह छूट इस प्रकार ली है :
"जब इसके अनुवाद का काम हाथ में लिया, तो आरम्भ से ही यह अनुभव करने लगा कि इसके राजस्थानी पाठ में कुछ अंश ऐसे हैं, जिन्हें दुबारा से लिखने की ज़रूरत है। इसके आरम्भ और अंत से भी मैं संतुष्ट नहीं था। पाठ में कसावट की कमी बराबर खलती रही। इस पुनर्सृजन के दौरान मुझे यह भी लगा कि इसकी मूल भाषा और अनुवाद की भाषा की प्रकृति एक-सरीखी नहीं है। जो वाक्य अपनी मूल भाषा में बेहद व्यंजनापरक और असरदार लगता है, उसके यथावत शाब्दिक अनुवाद में वह सारी व्यंजना और चमक खो जाती है। ऐसी सूरत में उस प्रसंग के पूरे वाक्य-विन्यास और अभिव्यक्ति को हिन्दी की प्रकृति के अनुरूप रखने की दृष्टि से मुझे इसका पुनर्सृजन करना बेहतर लगा।"
यह पढ़ते हुए मुझे लगा कि साहित्य को देखने-परखने का एक अच्छा तरीका यह देखना हो सकता है कि रचना में लेखक किस प्रकार के पाठक को संबोधित कर रहा है। इससे लेखक का भाषा-व्यवहार ही नहीं, समाज और जीवन के प्रति उसका दृष्टिकोण भी सामने आ जाता है।
नन्द भारद्वाज ने जो कठिनाई महसूस की, उसका कारण यही था कि उपन्यास को राजस्थानी से हिन्दी में लाने की प्रक्रिया में उनका पाठक बदल गया। हिन्दी के पाठक को वे उसी तरह संबोधित नहीं कर सकते थे, जिस तरह उन्होंने राजस्थानी के पाठक को संबोधित किया था। संबोधन बदला, तो लेखक-पाठक संवाद की, अर्थात् रचना की प्रकृति भी बदल गई।
--रमेश उपाध्याय
बिलकुल सहमत हूं
ReplyDeleteअनुवाद करते समय मुझे भी चिंता उस भाषा के पाठक की रहती है जिसमे अनुवाद किया जा रहा है।
बहुत पते की बात है. पाठक कहिए या उस भाषा की प्रकृति कहिए, जिसमें हम अनुवाद कर रहे होते हैं. मैं हिमाचल मित्र में एक कालम पहाड़ी में लिखता हूं. सोचा कि इसका हिंदी में अनुवाद करुं. पर शब्द, अर्थ, ध्वनि का जो लावण्य और लालित्य पहाड़ी में पैदा होता है, वह हिंदी में आते ही गायब हो जाता है. तब लोक भाषा और खड्री बोली(प्रांजल भाषा?)का भेद समझ में आता है. अंग्रेजी से हिंदी में या पंजाबी से हिंदी में अनुवाद करते वक्त इतनी दूरी नहीं रहती.
ReplyDeleteरमेश जी ,नमस्कार । यह आपने बहुत अच्छा विषय उठाया है । अनुवादक के लिये ,जिस भाषा मे वह अनुवाद कर रहा है ,उस भाषा के पाठक को जानने का अर्थ ,भाषा की संस्क्रति परम्परा और परिवेश को जानना है । उस भाषा के तकनीकी ज्ञान मात्र से यह सम्भव नहीं होगा । ऐसी स्थिति मे अनुवाद केवल यांत्रिक होकर रह जायेगा । यह सम्बोधन पाठक के लिये भी ग्राह्य होगा । अनुवादक के लिये कठिनाई तब होती है जब पाठक का परिवेश नितांत भिन्न हो जैसे राजस्थानी से हिन्दी या उत्तर भारत की किसी भी भाषा मे अनुवाद में पाठक लगभग परिचित होता है लेकिन दक्षिण की किसी भाषा मे अनुवाद करना हो तब यह कठिनाई बढ जाती है । ऐसा ही किसी विदेशी भाषा के अनुवाद मे होता है । वैसे अनुवाद से इतर भी जब लेखक मूल रचना लिख रहा होता है उसमे शामिल पात्रों के परिवेश के अनुसार उसकी भाषा बदलती ही है ,लोक भी इसी तरह रचना मे शामिल होता है और व्यंजना भी बदलती है । सम्वाद की अनुपस्थिति में रचना सम्भव ही नहीं है ।
ReplyDeleteआ.रमेश जी,
ReplyDeleteमुझे तो लगता है कि हम जिस पाठक के लिए लिखते हैं वह सामने बैठा रहता है; और वही रचना बेहतर संप्रेषित होती है जिसे वह एप्रूव करता चलता है.
अनुवाद तो अनुवाद है ही ,मौलिक भी अनुवाद ही है....
''जिन्दगी के नाद पर
बजता हुआ
अनुनाद है;
कविता कहाँ
अनुवाद है!''
[ ' ताकि सनद रहे ' से]
हर अनुवाद एक "पुनर्सृजन" ही होता है, क्योंकि रचना मूलतः जिस पाठक को संबोधित होती है, उसके अनुवाद का पाठक उससे भिन्न होता है। अनूदित रचना में लेखक एक दुभाषिये के माध्यम से दूसरी भाषा के पाठक को संबोधित करता है। अब यह दुभाषिये पर निर्भर करता है कि वह लेखक की भाषा में कही हुई बात दूसरी भाषा के पाठक तक कैसे पहुंचाता है। वह उस बात को ज्यों की त्यों दूसरी भाषा में नहीं कह सकता, इसलिए अच्छे से अच्छा अनुवाद भी मूल का लगभग सही रूप ही होता है।
ReplyDeleteसही कहा आपने ....आपका यह वक्तव्य अनुवाद करते वक़्त काम आएगा ....शुक्रिया.....!!
अनुवाद की अपनी विशेषताए है और उसका आनंद भी . विश्व साहित्य इसी तरह हमारे पास पहुंचा है . मेरा ब्लॉग :नरेन्द्रनिर्मल.ब्लोग्पोस्त,इन " साहित्य संबोधन भी देखे ....नरेन्द्र निर्मल
ReplyDeleteअनुवाद की अपनी विशेषताए है और उसका आनंद भी . विश्व साहित्य इसी तरह हमारे पास पहुंचा है . मेरा ब्लॉग :नरेन्द्रनिर्मल.ब्लोग्पोस्त,इन " साहित्य संबोधन भी देखे ....नरेन्द्र निर्मल
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