29 सितंबर, 2012 को भोपाल में वनमाली सृजन पीठ की ओर से ‘कथन’ को प्रथम वनमाली साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान भारत भवन में आयोजित एक भव्य समारोह में दिया गया। प्रस्तुत है इस अवसर पर मेरे द्वारा दिये गये व्याख्यान का किंचित् संक्षिप्त रूप।--रमेश उपाध्याय
(चित्र में बायें से दायें : मुकेश वर्मा, संतोष चौबे, रमेश उपाध्याय, शशांक, ओम थानवी)
यह हिंदी की जनोन्मुख पत्रकारिता का सम्मान है
मित्रो, ‘वनमाली साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान’ ‘कथन’ को दिया जाना हिंदी की जनोन्मुख साहित्यिक पत्रकारिता का सम्मान है। यह भारतेंदु हरिश्चंद्र के समय से आज तक चली आ रही उस शानदार परंपरा का सम्मान है, जिसके अंतर्गत लघु पत्रिकाओं के जरिये बड़े साहित्य को पाठकों तक पहुँचाने के प्रयास प्रायः व्यक्तिगत स्तर पर किये जाते रहे हैं। यह हिंदी के लघु पत्रिका आंदोलन का भी सम्मान है, जिसके अंतर्गत विभिन्न उद्देश्यों से, विभिन्न रूपों में, विभिन्न प्रकार का साहित्य सामने लाने का एक ऐसा सामूहिक प्रयास किया जाता रहा है कि उसे स्वायत्तता के साथ सहयात्रा की अनूठी मिसाल कहा जा सकता है।
मित्रो, साहित्यिक पत्रकारिता से मेरा संबंध मेरे लेखन के आरंभ से ही है और पिछले पचास वर्षों में यह अटूट बना रहा है। यह सितंबर का महीना है और पचास साल पहले सितंबर के महीने में ही मेरी पहली कहानी प्रकाशित हुई थी। वह कहानी थी ‘एक घर की डायरी’, जो अजमेर से निकलने वाली साहित्यिक पत्रिका ‘लहर’ के सितंबर, 1962 के अंक में प्रकाशित हुई थी। ‘लहर’ उस समय की एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका थी, जिसका नाम आज भी उस समय की ‘कल्पना’, ‘कृति’, ‘वसुधा’, ‘बिंदु’, ‘वातायन’ और ‘माध्यम’ जैसी साहित्यिक पत्रिकाओं के साथ आदरपूर्वक लिया जाता है। ‘लहर’ के संपादकद्वय थे प्रकाश जैन और मनमोहिनी जी। उन्हें मैं अपने साहित्यिक जन्मदाताओं के रूप में याद करते हुए आज के दिन को अपने साहित्यिक जन्मदिन के रूप में देख रहा हूँ, जिसे यहाँ धूमधाम से मनाने का इंतजाम आप लोगों ने, अनजाने ही, आज के इस समारोह के रूप में कर रखा है।
आज ‘कथन’ के सम्मानित होने के अवसर पर मुझे अपनी ही एक बात याद आ रही है। जब राजस्थान साहित्य अकादमी की पत्रिका ‘मधुमती’ ने प्रकाश जैन स्मृति विशेषांक निकाला था, मैंने प्रकाश जी को श्रद्धांजलि देते हुए उसमें लिखा था कि उनके प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि यह होगी कि वे ‘लहर’ के माध्यम से जो काम कर रहे थे, उसे हम आगे बढ़ायें। आज मैं किंचित् संकोच किंतु संतोष के साथ कह सकता हूँ कि ‘कथन’ के जरिये मैंने उनके काम को कुछ तो आगे बढ़ाया ही है। शायद इसीलिए आज ‘कथन’ को यह सम्मान दिया जा रहा है। अतः यह सम्मान मैं, अपने साहित्यिक जन्मदाताओं की स्मृति को प्रणाम करते हुए, उन्हीं को समर्पित करता हूँ।
मित्रो, साहित्यिक पत्रकारिता क्या होती है, यह मैंने ‘लहर’ के संपादन और संचालन को निकट से देखकर ही जाना। ‘लहर’ व्यक्तिगत प्रयासों से निकलने वाली एक लघु पत्रिका ही थी, लेकिन उसके संपादकों की जिद थी कि मासिक है, तो मासिक के रूप में ही निकलनी चाहिए। हालाँकि आगे चलकर जब उसके दुर्दिन आये, तब वह मासिक से द्वैमासिक, त्रैमासिक और फिर अनियतकालीन भी हुई और अच्छी सामग्री जुटाना भी उसके लिए मुश्किल हो गया, लेकिन मैं उसके आरंभिक वर्षों में उसके साथ जुड़ा था और मैंने उसके संपादकों का वह जोश और जुनून अपनी आँखों से देखा था, जिसके बिना शायद कोई अच्छी साहित्यिक पत्रिका नहीं निकल सकती।
पत्रिका को निरंतर, नियत समय पर और सामग्री की गुणवत्ता से कोई समझौता किये बिना उत्तरोत्तर बेहतर रूप में निकालने की जिद तभी पूरी हो सकती है, जब आप साहित्यिक पत्रकारिता को एक मिशन मानकर चलें और उस मिशन को कामयाब बनाने का जोश और जुनून भी आपमें हो। इसी का दूसरा नाम प्रतिबद्धता है, जो आपको अपने मिशन के प्रति सच्चा और ईमानदार बनाती है; जो आपकी पत्रिका को सोद्देश्य और सार्थक बनाती है। अब इसमें आर्थिक, शारीरिक और मानसिक कष्ट हों तो हों; निजी समस्याएँ और पारिवारिक परेशानियाँ सामने आयें तो आयें; पत्रिका निरंतर, नियत समय पर और उत्तरोत्तर बेहतर रूप में निकलनी ही चाहिए। दि शो मस्ट गो ऑन!
‘लहर’ के संपादकों से साहित्यिक पत्रकारिता का यह पाठ पढ़ लेने का ही शायद यह परिणाम था कि व्यावसायिक पत्रकारिता से जुड़कर भी, बल्कि उसमें गहरे धँसकर भी, मेरे मन में साहित्यिक पत्रकारिता के प्रति सदा सम्मान का भाव बना रहा और मैं उससे जुड़ा रहा। मैं ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’, ‘सारिका’, ‘कादंबिनी’ आदि व्यावसायिक पत्र-पत्रिकाओं का एक जमाने में बड़ा लाडला लेखक रहा। मेरी कविताएँ, कहानियाँ, लेख, रिपोर्ताज, अनुवाद और उपन्यास तक उनमें छपे। दैनिक, साप्ताहिक और पाक्षिक अखबारों के लिए ही नहीं, मैंने रेडियो और टेलीविजन के लिए भी खूब लिखा। जब मैं बंबई में था, तो फिल्मों के लिए लिखने के भी कई ऑफर मुझे मिले, जो अच्छा ही हुआ कि मैंने ठुकरा दिये। मैंने आजीविका के लिए कई व्यावसायिक पत्र-पत्रिकाओं में काम भी किया। ‘सरिता’, ‘मुक्ता’ और ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में उप-संपादक रहा। ‘शंकर्स वीकली’ और ‘नवनीत’ में सहायक संपादक रहा। लेकिन यह सब करते हुए भी मैं पारिश्रमिक न देने वाली या बहुत कम देने वाली साहित्यिक पत्रिकाओं से जुड़ा रहा; उनमें बराबर लिखता रहा।
मित्रो, साहित्यिक पत्रकारिता का उद्देश्य साहित्य के जरिये मनुष्य और समाज को तथा स्वयं साहित्य और साहित्यिक गतिविधि को बेहतर बनाना होता है। केवल साहित्य-सृजन से यह उद्देश्य पूरा नहीं होता, इसीलिए साहित्यकारों को साहित्यिक पत्रिकाएँ निकालने की जरूरत पड़ती है। भारतेंदु हरिश्चंद्र हों या प्रेमचंद, पंत हों या निराला, यशपाल हों या अज्ञेय, धर्मवीर भारती हों या भैरवप्रसाद गुप्त, नामवर सिंह हों या रामविलास शर्मा, कमलेश्वर हों या राजेंद्र यादव, ज्ञानरंजन हों या राजेश जोशी, आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रत्येक काल में अनेक साहित्यकार साहित्यिक पत्रिकाएँ निकालते रहे हैं और आज भी निकाल रहे हैं।
साहित्यिक पत्रकारिता का संबंध एक तरफ सामाजिक आंदोलनों से होता है, तो दूसरी तरफ साहित्यिक आंदोलनों से; चाहे वह संबंध इन आंदोलनों के समर्थन का हो या इनके विरोध का। कभी-कभी किसी नये आंदोलन को जन्म देने या पुष्ट करने के लिए भी साहित्यिक पत्रिकाएँ निकाली जाती हैं। इसके लिए साहित्यिक पत्रकार का एक ही साथ आदर्शवादी और यथार्थवादी होना जरूरी है। साहित्यिक पत्रिका निकालना एक सर्जनात्मक और कठिन काम है, जो एक प्रकार के आदर्शवाद के साथ ही समर्पित भाव से किया जा सकता है। लेकिन यह काम किसी न किसी रूप में जनता की चेतना जगाने के लिए किया जाता है, इसलिए साहित्यिक पत्रकार के लिए आवश्यक है कि वह यथार्थवादी भी हो।
आजादी से पहले की हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं को देखें, तो उनका संबंध एक तरफ राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के मूल्यों तथा आदर्शों से था और दूसरी तरफ हिंदीभाषी जनता की चेतना तथा हिंदी भाषा और साहित्य के विकास की प्रक्रिया से। यही कारण था कि उस समय की साहित्यिक पत्रिकाओं की अंतर्वस्तु प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में राजनीतिक होती थी। उनकी सामग्री, प्रेमचंद का एक पद उधार लेकर कहें, तो आदर्शोन्मुख यथार्थवादी होती थी और उसकी प्रस्तुति साधारण पाठकों के लिए आकर्षक तथा सहज बोधगम्य। संक्षेप में, वह एक प्रकार की सोद्देश्य और जनोन्मुख पत्रकारिता थी और इसीलिए समाज में उसका आदर था। साहित्यिक पत्रिकाएँ बहुत छोटी पूँजी और बहुत बड़े श्रम से निकाली जाती थीं। इसलिए उनके संपादक आदर्शवादी, त्यागी, तपस्वी, देशभक्त और जनसेवक माने जाते थे तथा उनके द्वारा निकाली गयी पत्रिकाएँ पढ़ना अपनी एक सांस्कृतिक जरूरत को पूरा करना ही नहीं, बल्कि एक यज्ञ में आहुति डालने जैसा पुनीत कर्तव्य भी समझा जाता था। इसीलिए उस समय की साहित्यिक पत्रिकाएँ साहित्यिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होती थीं और व्यावसायिक दृष्टि से बहुत लाभदायक न होते हुए भी अपने लिए इतने साधन जुटा लेती थीं कि निरंतर निकलती रह सकें और अपने लेखकों को नाममात्र का ही सही, पारिश्रमिक भी दे सकें।
लेकिन आज से पचास साल पहले, जब मैंने लिखना शुरू किया था, हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता आदर्शवाद और यथार्थवाद के इस संबंध को ठीक ढंग से समझ न पाने के कारण एक संक्रमण के दौर से गुजर रही थी।
अब स्वाधीनता आंदोलन के मूल्यों तथा आदर्शों से प्रेरित और ‘सरस्वती’, ‘माधुरी’, ‘चाँद’, ‘मतवाला’, ‘रूपाभ’, ‘हंस’, ‘विप्लव’, ‘नया साहित्य’ आदि पत्रिकाओं की शानदार परंपरा में विकसित सोद्देश्य और जनोन्मुख पत्रकारिता कहीं-कहीं अपवादस्वरूप ही बची हुई थी; जबकि शीतयुद्ध की राजनीति से प्रेरित व्यक्तिवादी और कलावादी रुझानों वाली उस अभिजनोन्मुख साहित्यिक पत्रकारिता का बोलबाला था, जो ‘प्रतीक’, ‘निकष’, ‘नयी कविता’ आदि पत्रिकाओं के माध्यम से सामने आयी थी। वह कहीं साहित्य की ‘शुद्धता’ के नाम पर, कहीं ‘राजनीति से हुए मोहभंग’ के नाम पर, तो कहीं ‘क्षणवाद’ और ‘लघु मानववाद’ के नाम पर हर तरह के आदर्शवाद और यथार्थवाद को मिथ्या और व्यर्थ बता रही थी। दूसरी तरफ वह साहित्य की श्रेष्ठता की बात करते हुए यह कह रही थी कि साहित्य सबके काम की चीज नहीं, इसलिए उसको समझने वाले पाठक अगर कम भी हों, तो कोई हर्ज नहीं। उसने साहित्य की लोकप्रियता के विरुद्ध एक प्रकार का अभियान चलाया और साहित्यिक पत्रिकाओं में ऐसे साहित्य को तरजीह दी, जो साधारण पाठकों के काम का न होकर थोड़े-से ‘समझदार’ या ‘प्रबुद्ध’ पाठकों के ही मतलब का हो। इस प्रकार उसने एक तरफ प्रगतिशील-जनवादी राजनीति से और दूसरी तरफ आम जनता से साहित्य का संबंध समाप्त करने का प्रयास किया। हालाँकि वह इस काम में पूरी तरह सफल नहीं हो पायी, फिर भी उसका काफी असर हिंदी के लेखकों और संपादकों पर पड़ा। उनमें से कई जनोन्मुख लोकप्रिय साहित्य को उसी तरह घटिया समझने लगे, जिस तरह ‘नयी कविता’ के कवि कवि-सम्मेलनों के मंच और सिनेमा के जरिये आम जनता तक पहुँचने वाली छंदबद्ध कविता को। नतीजा यह हुआ कि साहित्यिक पत्रकारिता का संबंध साधारण पाठक से बहुत कम रह गया।
मैंने जब लिखना शुरू किया था, मैं राजस्थान में था। उस समय राजस्थान से हिंदी की कई अच्छी साहित्यिक पत्रिकाएँ संपादकों के व्यक्तिगत प्रयासों से निकल रही थीं, जैसे अजमेर से ‘लहर’, उदयपुर से ‘बिंदु’, जयपुर से ‘कविताएँ’ और बीकानेर से ‘वातायन’। बाद में राजस्थान से और भी कई अच्छी पत्रिकाएँ निकलीं, जैसे अलवर से ‘कविता’, भरतपुर से ‘ओर’, काँकरोली से ‘संबोधन’, उदयपुर से ‘रंगायन’, बीकानेर से ‘संकल्प’, भीनमाल से ‘क्यों’, कोटा से ‘अभिव्यक्ति’, जोधपुर से ‘शेष’ इत्यादि। अकेले जयपुर शहर से ही कई पत्रिकाएँ निकलीं, जिनमें से कुछ बंद हो गयीं और कुछ आज भी निकल रही हैं, जैसे ‘अकथ’, ‘अगली कविता’, ‘अर्थसत्ता’, ‘अहसास’, ‘कृतिओर’, ‘मधुमाधवी’, ‘लोक संपर्क’, ‘संप्रेषण’, ‘एक और अंतरीप’, ‘समय माजरा’, ‘अक्सर’ इत्यादि।
उस समय हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता कितनी समृद्ध थी, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उस समय एक तरफ देशव्यापी प्रसार वाली कई व्यावसायिक पत्रिकाएँ थीं, जैसे ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’, ‘सारिका’, ‘कहानी’, ‘नयी कहानियाँ’ इत्यादि, तो दूसरी तरफ हिंदी क्षेत्रों से ही नहीं, बल्कि अहिंदी क्षेत्रों से भी हिंदी में अनेक साहित्यिक पत्रिकाएँ निकलती थीं, जैसे पश्चिम बंगाल से ‘ज्ञानोदय’, आंध्र प्रदेश से ‘कल्पना’, तमिलनाडु से ‘अंकन’, केरल से ‘युग प्रभात’ इत्यादि। दिल्ली, इलाहाबाद, वाराणसी, कानपुर, लखनऊ, पटना, भोपाल, जबलपुर आदि से तो बहुत-सी साहित्यिक पत्रिकाएँ निकलती ही थीं, शिमला, चंडीगढ़, जालंधर, अंबाला, मुंबई, चेन्नई, हैदराबाद, कोलकाता आदि से भी हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाएँ निकलती थीं। बाद में एक समय तो ऐसा आया कि साहित्यिक पत्रिकाओं की बाढ़-सी आ गयी।
लेकिन साहित्यिक पत्रिकाओं की यह अचानक आयी बाढ़ साहित्यिक पत्रकारिता के विकास की कम, उसके ह्रास की सूचक अधिक थी। हुआ यह था कि 1960 के बाद लगभग एक दशक तक हिंदी में ‘अकविता’ और ‘अकहानी’ जैसे अल्पजीवी साहित्यिक आंदोलन चले और दिशाहीन विद्रोह, सर्वनकार, व्यर्थताबोध, अकेलेपन, अजनबीपन आदि के लेखन के रूप में बहुत-सा ऊलजलूल लेखन हुआ, जो लघु पत्रिकाओं के माध्यम से सामने आया। व्यावसायिकता का विरोध करने के नाम पर इन लघु पत्रिकाओं ने साहित्य को साधारण पाठकों तक पहुँचाने की अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया। लेखन और साहित्यिक पत्रिका का संपादन साधारण पाठकों के लिए न होकर लेखकों के लिए ही होने लगा। जिन्हें सामग्री को संपादित करना, प्रेस कॉपी बनाना और प्रूफ पढ़ना तो क्या, स्वयं अच्छी भाषा लिखना तक नहीं आता था, वे भी संपादक बन बैठे और भद्दे ढंग से छपने वाली, बेशुमार गलतियों वाली, अनियतकालिक रूप से कुछ समय चलकर बंद हो जाने वाली पत्रिकाएँ निकालने लगे। चूँकि साधारण पाठकों से उन्हें कोई लेना-देना नहीं था, इसलिए उनकी तथाकथित लघु पत्रिकाओं का आकार-प्रकार लघु से लघुतर होता गया। अनियतकालिक अठपेजी या चौपेजी परचों से लेकर अंतर्देशीय पत्र तथा पोस्टकार्ड तक के रूप में तथाकथित पत्रिकाएँ निकलीं। इस प्रकार साहित्यिक पत्रकारिता एक भद्दा मजाक बनकर रह गयी।
1960 के दशक के उत्तरार्द्ध में जब देश के जन-आंदोलनों में तेजी आयी, तो साहित्य में भी प्रगतिशील और जनवादी चेतना का एक नया उभार आया। तब हिंदी के लेखकों और साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादकों को फिर से उस आदर्शवाद और यथार्थवाद की जरूरत महसूस हुई, जो सोद्देश्य और जनोन्मुख साहित्यिक पत्रकारिता के लिए आवश्यक था। तब जनता से जुड़ने और जन-चेतना जगाने के उद्देश्य से कई नयी पत्रिकाएँ निकलीं। तभी यह बात भी स्पष्ट हुई कि साहित्यिक और व्यावसायिक पत्रिकाओं में केवल ‘छोटी’ और ‘बड़ी’ का सतही रूपगत फर्क नहीं, बल्कि अंतर्वस्तु संबंधी गहरा फर्क है और बाजार में बिकने भर से कोई पत्रिका व्यावसायिक नहीं हो जाती, जैसे कि बाजार में न बिकने या मुफ्त बँटने भर से कोई पत्रिका साहित्यिक नहीं हो जाती। देखा यह जाना चाहिए कि पत्रिका में प्रकाशित सामग्री क्या है, उसकी साहित्यिक गुणवत्ता क्या है, उसमें व्यक्त विचार किस वर्ग के हितसाधक हैं और उसका प्रकाशन जन-चेतना को जगाने के लिए किया जा रहा है या उसे कुंठित करके सुलाने के लिए।
इस प्रकार साहित्यिक पत्रकारिता की इस नयी समझ के साथ हिंदी में बहुत-सी नयी पत्रिकाएँ निकलीं। ‘अभिव्यक्ति’, ‘अर्थात्’, ‘इबारत’, ‘इसलिए’, ‘उत्कर्ष’, ‘उत्तरार्द्ध’, ‘ओर’, ‘कथन’, ‘कथा’, ‘कलम’, ‘क्यों’, ‘पक्षधर’, ‘पहल’, ‘पुरुष’, ‘बातचीत’, ‘भंगिमा’, ‘मतांतर’, ‘युग-परिबोध’, ‘वसुधा’, ‘वाम’, ‘समझ’, ‘सर्वनाम’, ‘सामयिक’, ‘साम्य’ आदि पत्रिकाओं ने अपनी अंतर्वस्तु और प्रस्तुति में आजादी से पहले की जनोन्मुख साहित्यिक पत्रकारिता की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए अनेक नवोन्मेष किये।
मित्रो, अब मैं कुछ अपनी और ‘कथन’ की बात करना चाहता हूँ। मैंने ‘कथन’ 1980 में निकालना शुरू किया था। तब तक लेखन करते हुए मुझे अठारह वर्ष हो चुके थे। साहित्य में मेरी एक जगह और पहचान बन चुकी थी। छोटी और बड़ी दोनों तरह की पत्रिकाएँ मेरी रचनाएँ सम्मान के साथ प्रकाशित करती थीं। मेरी कई पुस्तकें प्रकाशित और चर्चित हो चुकी थीं। मेरे नाटक और नुक्कड़ नाटक खूब खेले जाने लगे थे। मैं प्रिंट मीडिया में ही नहीं, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी सक्रिय था। साहित्यिक गोष्ठियों और सम्मेलनों के मंच भी मुझे उपलब्ध थे। इतना ही नहीं, 1973 में बाँदा में हुए प्रगतिशील-जनवादी लेखकों के सम्मेलन में सौंपी गयी जिम्मेदारी के तहत मैं दिल्ली में स्वयं एक मंच--जनवादी लेखक मंच--की स्थापना कर चुका था और उसकी ओर से कई महत्त्वपूर्ण गोष्ठियाँ आयोजित कर चुका था। एक द्वैमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘युग-परिबोध’ के प्रारंभिक छह अंकों का संपादन करके मैं साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में भी कुछ दखलंदाजी कर चुका था। अतः यह तो नहीं ही कहा जा सकता कि मैंने साहित्य में अपनी जगह या पहचान बनाने के लिए ‘कथन’ निकालकर घर फूँक तमाशा देखना शुरू किया होगा।
तो फिर क्या पड़ी थी मुझे ‘कथन’ निकालने की?
बात यह है कि जब साहित्य में आप कोई नया काम करने चलते हैं, तो उसके लिए किसी नये मंच और माध्यम की जरूरत होती ही है। और उस समय मैं दो नये कामों में लगा हुआ था। कुछ नये ढंग का जनोन्मुख लेखन करने में तथा जनवादी लेखकों का एक संगठन बनाने में। मेरे साथ के कई लेखक इन कामों में लगे हुए थे और एक ऐसी पत्रिका की जरूरत महसूस कर रहे थे, जो हमारे लेखन को अच्छे ढंग से सामने लाये और हमारे संगठन को संभव बनाये।
उस समय जनवादी लेखक संघ के निर्माण की प्रक्रिया चल रही थी और मैं उसमें पूरे जोशोखरोश के साथ शामिल था। जगह-जगह लेखकों की बैठकें और गोष्ठियाँ हो रही थीं। लेखक शिविर और सम्मेलन आयोजित किये जा रहे थे। उनमें बड़ी जरूरी और जोरदार बहसें हो रही थीं। लेखन और राजनीति, साहित्य और संगठन आदि से जुड़े बड़े महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर चर्चाएँ हो रही थीं। लेकिन ये तमाम गतिविधियाँ एक राजनीतिक दल विशेष के सदस्य और समर्थक लेखकों के बीच ही चल रही थीं, जबकि मेरे विचार से उन्हें व्यापक साहित्य जगत के बीच चलना चाहिए था। इसके लिए मैं एक ऐसी पत्रिका की जरूरत महसूस कर रहा था, जो नये ढंग के प्रगतिशील-जनवादी लेखन को सामने लाये, लेखक संगठन के निर्माण की उस प्रक्रिया से व्यापक लेखक-पाठक समुदाय को अवगत कराये, उसके अंतर्गत आयोजित गोष्ठियों और सम्मेलनों में चली बहसों का मतलब बताये और उन बहसों में उठे साहित्यिक, सांस्कृतिक, सामाजिक तथा राजनीतिक मुद्दों को रेखांकित करके उन पर खुली चर्चाएँ चलाये।
जनवादी लेखक संघ के निर्माण की प्रक्रिया से जुड़े लेखकों द्वारा उस समय जो पत्रिकाएँ निकाली जा रही थीं--जैसे ‘वाम’, ‘कथा’, ‘कलम’, ‘सामयिक’, ‘उत्तरार्द्ध’, ‘प्रारंभ’ आदि--वे यों तो बहुत अच्छी और महत्त्वपूर्ण पत्रिकाएँ थीं, लेकिन उनके संपादक एक दल विशेष से जुड़े होने के कारण शायद अपनी पत्रिकाओं को दलगत राजनीति के दायरे में तथा दलीय अनुशासन में रहकर ही निकाल सकते थे। दूसरे, वे प्रायः अनियतकालिक थीं और उनके संपादकों में भैरव प्रसाद गुप्त के अलावा शायद किसी को भी साहित्यिक पत्रकारिता का अनुभव नहीं था। मेरे पास पत्रकारिता का अनुभव था और मैं किसी राजनीतिक दल का सदस्य भी नहीं था। अतः मैंने एक ऐसी पत्रिका निकालने का फैसला किया, जो नये प्रगतिशील-जनवादी लेखन को दलगत राजनीति से अलग रहकर अच्छे ढंग से सामने लाये, उस पर चर्चा और बहस चलाये, उसमें से उभरकर आने वाली अच्छी रचनाओं को रेखांकित करे और गैर-प्रगतिशील, गैर-जनवादी लेखकों को जनवादी लेखन के आंदोलन तथा उसके संभावित संगठन के निकट लाये।
मैं ‘कथन’ को अव्यावसायिक किंतु जनोन्मुख साहित्यिक पत्रिका के रूप में निकालना चाहता था, इसलिए मैंने अपने लिए कुछ नियम बनाये, जो इस प्रकार थे :
पहला नियम : ‘कथन’ द्वैमासिक पत्रिका होगी और पुस्तक के रूप में नहीं, पत्रिका के ही आकार-प्रकार में निकलेगी तथा निरंतर, नियत समय पर निकलेगी।
दूसरा नियम : ‘कथन’ का कोई विशेषांक नहीं निकलेगा, ताकि नियमित अंकों की जगह संयुक्तांक न निकालने पड़ें, पृष्ठ संख्या और कीमत न बढ़ानी पड़े, पत्रिका के स्थायी स्तंभों का क्रम न टूटे और नियमित पत्रिका पढ़ना चाहने वाले पाठकों को पत्रिका के कई अंकों की जगह एक मोटा पोथा अधिक मूल्य पर न मिले, बल्कि साधारण अंक यथासमय मिलते रहें।
तीसरा नियम : ‘कथन’ साहित्यकारों के काम की पत्रिका होने के साथ-साथ सामान्य पाठकों के काम की पत्रिका भी होगी। इसके लिए सामग्री की स्तरीयता, उसके समुचित संपादन तथा उसकी सुरुचिपूर्ण प्रस्तुति के साथ-साथ उसकी भाषा पर भी विशेष ध्यान देना होगा।
चौथा नियम : ‘कथन’ हर तरह की कट्टरता और संकीर्णता के खिलाफ एक उदार और जनतांत्रिक पत्रिका होगी, लेकिन सामग्री की गुणवत्ता उसके लिए सर्वप्रमुख होगी। अतः वह नये से नये लेखक की अच्छी रचना सहर्ष प्रकाशित करेगी, लेकिन बड़े से बड़े लेखक की खराब रचना लौटा देने में कोई संकोच नहीं करेगी।
पाँचवाँ नियम : ‘कथन’ में दूसरी पत्रिकाओं की नकल सामग्री, साज-सज्जा या किसी भी स्तर पर नहीं की जायेगी। सादगी में ही सौंदर्य के नियम का पालन करते हुए ‘कथन’ में सामग्री की नवीनता, गुणवत्ता और प्रासंगिकता पर ध्यान केंद्रित किया जायेगा। और,
छठा नियम : ‘कथन’ किसी दल या संगठन की पत्रिका नहीं, बल्कि लेखकों और पाठकों के सहयोग से चलने वाली अव्यावसायिक पत्रिका होगी। वह राजनीति से परहेज नहीं करेगी, लेकिन दलगत राजनीति से ऊपर उठकर वर्गीय राजनीति, राष्ट्रीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में साहित्य और संस्कृति के सवालों पर विचार करने वाली पत्रिका होगी।
जाहिर है कि इन नियमों का पालन करना आसान काम नहीं था। फिर भी मैंने अपने ही बनाये नियमों का सख्ती से पालन किया। इसके चलते ‘कथन’ को शुरू से ही पत्रिकाओं की भीड़ में अपनी एक अलग छाप छोड़ने और अपनी एक अलग पहचान बनाने में सफलता प्राप्त हुई। इसे लेखकों और पाठकों का भरपूर सहयोग मिला। नये से नये और बड़े से बड़े लेखक ‘कथन’ से जुड़े। इस प्रकार ‘कथन’ ने अपने पहले बीस अंकों से ही एक प्रकार का इतिहास बना लिया था।
जनवादी लेखक संघ के निर्माण में ‘कथन’ ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। उसके प्रस्तावित घोषणापत्र को सबसे पहले ‘कथन’ ने ही प्रकाशित किया था और उसके स्थापना सम्मेलन से लेकर बाद के विभिन्न सम्मेलनों, संगोष्ठियों आदि के समाचार और विस्तृत विवरण ‘कथन’ में प्रकाशित हुए थे। फिर, मैं जनवादी लेखक संघ का संस्थापक सदस्य ही नहीं, उसकी केंद्रीय कार्यकारिणी का सदस्य भी था। इससे यह भ्रम फैला कि ‘कथन’ जनवादी लेखक संघ की पत्रिका है। ‘कथन’ से जुड़े कुछ मित्रों ने सुझाव दिया कि लोग जब ऐसा मान ही रहे हैं, तो क्यों न इसे बाकायदा संगठन की पत्रिका ही बना दिया जाये। लेकिन मैं अपने ही बनाये हुए इस नियम के विपरीत जाना नहीं चाहता था कि ‘कथन’ किसी दल या संगठन की पत्रिका नहीं, बल्कि लेखकों और पाठकों के सहयोग से चलने वाली अव्यावसायिक पत्रिका होगी। इस पर मित्रों से मतभेद होने लगे और ‘कथन’ की टीम टूटकर बिखरने लगी, तो मैंने ‘कथन’ का प्रकाशन स्थगित कर दिया। लेकिन मेरी जिद थी कि परिस्थितियाँ अनुकूल होने पर मैं इसे फिर से निकालूँगा जरूर।
लेकिन ‘कथन’ के स्थगित रहने के पंद्रह वर्षों के दौरान परिस्थितियाँ अनुकूल होने के बजाय उत्तरोत्तर अधिक प्रतिकूल ही होती गयी थीं। सोवियत संघ के विघटन के बाद पूँजीवादी भूमंडलीकरण का दौर शुरू हो गया था और नव-उदारवादी या बाजारवादी पूँजीवाद अपने असंख्य मुखों से कह रहा था कि शीतयुद्ध समाप्त हो गया है, उस युद्ध में समाजवाद हार गया है, पूँजीवाद जीत गया है, और इस प्रकार दुनिया दो ध्रुवों वाली न रहकर एकध्रुवीय हो गयी है। वह कह रहा था कि भूमंडलीकरण ने राष्ट्र-राज्यों को अप्रासंगिक बना दिया है, दुनिया को एक ग्लोबल गाँव बना दिया है, उस ग्लोबल गाँव के चौधरी जी-7 वाले सात या जी-20 वाले बीस देश हैं, और उन सबका मुखिया एक अमरीका ही है, जो ईश्वर की इच्छा से अखिल भूमंडल का स्वाभाविक शासक है। वह कह रहा था कि अब सारी दुनिया में और हमेशा पूँजीवाद ही चलेगा--निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों वाला नव-उदार पूँजीवाद--जिसका कोई विकल्प नहीं है।
मेरे विचार से इस सबका प्रतिवाद और प्रतिरोध किया जाना चाहिए था। लेकिन मैंने देखा कि प्रगतिशील और जनवादी साहित्य का आंदोलन समाप्त-सा हो गया है। नये लेखक नये भूमंडलीय यथार्थ और यथार्थवाद की ओर आकर्षित होने के बजाय नव-उदारवादी पूँजीवाद की विचारधारा उत्तर-आधुनिकतावाद को अपनाकर बाजारवादी और अवसरवादी बन रहेे थे। ज्यादातर लेखक समाज, देश, दुनिया और मानवता की बेहतरी के लिए जनोन्मुख लेखन करने के बजाय व्यक्तिगत सफलता और निजी उपलब्धियों के लिए बाजारोन्मुख लेखन कर रहे थे। ऐसी स्थिति में मुझे लगा कि जनोन्मुख पत्रकारिता की जरूरत पहले के किसी भी समय से ज्यादा आज है।
तब मैंने अपनी बेटी संज्ञा, कुछ पुराने मित्रों तथा कुछ नये उत्साही लेखकों को साथ लेकर ‘कथन’ को फिर से निकालना शुरू किया। और मुझे यह देखकर अत्यंत सुखद आश्चर्य हुआ कि बदलते हुए भूमंडलीय यथार्थ की चिंता करने वालों, उसका गंभीर अध्ययन करने वालों, उस पर चिंतन-मनन और लेखन करने वालों की कमी नहीं है। हिंदी में अभी ऐसे लोग कम हैं, लेकिन अंग्रेजी में कई लोग इससे संबंधित विषयों पर खूब लिख-बोल रहे हैं। विभिन्न देशों में पूँजीवादी भूमंडलीकरण के विरुद्ध अनेक प्रकार के आंदोलन चल रहे हैं। उनके बारे में लिखा जा रहा है और भूमंडलीय यथार्थ को सामने लाने वाली ढेरों पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं।
मुझे आश्चर्य हुआ कि जब हिंदी के लेखकों को लिखने के लिए नये विषय नहीं मिल रहे हैं, तब आज का भूमंडलीय यथार्थ सोचने-समझने और लिखने के लिए नित्य नये विषय प्रस्तुत कर रहा है। अतः ‘कथन’ में हमने भूमंडलीय यथार्थ के विभिन्न पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करना शुरू किया और हर अंक में एक नया विषय उठाकर उस पर विशेष सामग्री देने लगे। ‘कथन’ के लेखकों और पाठकों ने इस नयेपन का स्वागत किया और हमने नहीं, उन्हीं ने ‘कथन’ के लिए ‘‘हर बार कुछ नया: हर अंक एक विशेषांक’’ का नारा दिया।
इस प्रकार अत्यंत सीमित निजी संसाधनों के बावजूद ‘कथन’ के अंक निरंतर नियत समय पर तथा उत्तरोत्तर बेहतर रूप में निकलने लगे। ‘कथन’ को फिर से हिंदी के बड़े से बड़े और नये से नये लेखकों का सहयोग मिलने लगा। नये विषयों पर अंग्रेजी में लिखने वाले लेखकों, विशेषज्ञों तथा चिंतकों-विचारकों को भी हमने ‘कथन’ से जोड़ा और हमें ऐसे लोगों का भी भरपूर सहयोग मिला।
इसीलिए हम ‘कथन’ में ऐसे नये से नये विषयों पर केंद्रित अंकों का सिलसिला शुरू कर पाये, जो हिंदी में पहली बार उठाये गये थे। उदाहरण के लिए, ‘यूटोपिया की जरूरत’, ‘आशा के स्रोतों की तलाश’, ‘विकल्प की अवधारणा’, ‘श्रम का भूमंडलीकरण’, ‘नयी विश्व व्यवस्था की परिकल्पना’, ‘नयी संस्थाओं की जरूरत’, ‘सांस्कृतिक साम्राज्यवाद’, ‘भाषा और भूमंडलीकरण’, ‘शिक्षा और भूमंडलीकरण’, ‘दुनिया की बहुध्रुवीयता’, ‘बाजारवाद और नयी सृजनशीलता’, ‘उत्पादक श्रम और आवारा पूँजी’, ‘भूमंडलीय यथार्थवाद’, ‘वर्तमान संकट और दुनिया का भविष्य’ इत्यादि। और आज, जब ‘कथन’ के साठ अंक निकालने के बाद मैं उसका संपादन पूरी तरह संज्ञा को सौंप चुका हूँ और वह स्वतंत्र रूप से अपने संपादन में पंद्रह अंक और निकाल चुकी है, यह सिलसिला जारी है।
कई लोग मुझसे पूछते हैं कि मैंने ‘कथन’ के संपादन से संन्यास क्यों लिया। मैं इस प्रश्न का उत्तर यह कहकर देता हूँ कि प्रकृति में मनुष्येतर जितने भी प्राणी हैं, अपनी संतानों को अपने ही जैसा बनना सिखाते हैं और वे वैसे ही बने भी रहते हैं। यह मनुष्य ही है, जो अपनी संतान को अपने से भिन्न, बड़ा और आगे बढ़ता देख प्रसन्न होता है। संज्ञा को मैंने ‘कथन’ के संपादन का दायित्व यह सोचकर सौंपा है कि वह मुझसे आगे की और मुझसे बड़ी संपादक बने।
कुछ लोग मुझसे यह भी पूछते हैं कि ‘कथन’ निकालकर आपको क्या मिला? इसका उत्तर मैं कुछ प्रतिप्रश्नों से देता हूँ: ‘कथन’ का संपादन करते हुए मुझे जो नया पढ़ने, सुनने और जानने को मिला, क्या अन्यथा मिल सकता था? ‘कथन’ निकालने के लिए मैं जिन अच्छे साहित्यकारों, चिंतकों, विचारकों आदि से मिल सका, क्या अन्यथा मिल सकता था? एक लेखक के रूप में मेरा जो विकास हुआ, क्या अन्यथा हो पाता? क्या मैं ‘आज के सवाल’ शृंखला की अब तक प्रकाशित तीस पुस्तकें संपादित कर पाता? क्या मैं ‘बेहतर दुनिया की तलाश में’ तथा ‘साहित्य और भूमंडलीय यथार्थ’ जैसी पुस्तकें लिख पाता? क्या मैं ‘डॉक्यूड्रामा’, ‘प्रजा का तंत्र’, ‘ग्लोबल गाँव के अकेले’, ‘त्रासदी...माइ फुट!’ और ‘प्राइवेट पब्लिक’ जैसी कहानियाँ लिख पाता? और सबसे बड़ी बात यह कि क्या मैं नितांत प्रतिकूल परिस्थितियों में भी निरंतर उत्साही और आशावादी बना रह पाता?
मित्रो, साहित्यिक पत्रिका निकालने का प्रयास चाहे व्यक्तिगत ही हो, उसका निकलना और निकलते रहना एक सामूहिक प्रयास का ही परिणाम होता है। अतः ‘कथन’ का सम्मान केवल उसके संपादकों का सम्मान नहीं, बल्कि उन तमाम लेखकों, पाठकों, सहयोगियों और शुभचिंतकों का भी सम्मान है, जिन्होंने उसके संपादन और प्रकाशन को संभव तथा सार्थक बनाया है। ‘कथन’ की वर्तमान संपादक संज्ञा उपाध्याय तथा उन समस्त साथियों और सहयोगियों के निमित्त--जिनमें से कई इस समय इस समारोह में भी आयोजकों, संचालकों, वक्ताओं और श्रोताओं के रूप में उपस्थित हैं--इसे स्वीकार करते हुए मैं अपनी ओर से तथा उन सभी की ओर से हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ।
कथन को इस पुरस्कार के लिए बधाई! आप के इस भाषण से बहुत कुछ सीखने को मिला।
ReplyDeleteपत्रकारिता और उससे सम्बद्ध सभी बातों को आपने अपने भाषण में शामिल किया और एक नया दृष्टिकोण आपके इस लेख से हमें मिला ....इस लेख को सांझा करने के लिए आपका शुक्रिया .....कथन परिवार के सभी सदस्यों को हार्दिक बधाई ...!
ReplyDeleteबहुत बहुत शुभकामनायें..एक वृहद दृष्टिकोण..
ReplyDeleteकथन के कई अंक मैंने सहेज कर रखे हैं । काफी समय से नए अंक उपलब्ध नही कर पाई लेकिन जब भी मैं उन अंकों को पढती हूँ रचनाओं को विशिष्ट व स्तरीय पाती हूँ । कथन को सम्मान तो मिलना ही था । बहुत-बहुत बधाई
ReplyDeleteएक बार फिर से बधाई.
ReplyDeleteएक आग्रह है.
कथन की तमाम सामग्री यदि आपके पास डिजिटल रूप (पेजमेकर जैसे फार्मेट में)में मौजूद हो तो उसे जल्द से जल्द इंटरनेट पर लाने का प्रयास करें और यदि डिजिटल रूप में न हो तो स्कैन करवा कर या कंप्यूटर पर टाइप करवाकर इंटरनेट पर डालें ताकि यह सर्वत्र, सर्वसुलभ हो.
बधाई देने वाले सभी मित्रों को धन्यवाद.
ReplyDelete'कथन' का कोई अंक देखने का सौभाग्य तो नहीं मिल सका है, पर उसे सम्मानित होते देखना सुखद लग रहा है। शायद इसलिए कि जब मैं किशोर अवस्था में था तो श्रद्धेय रमेश उपाध्याय जी का एक धारावाहिक उपन्यास 'धर्मयुग' में पढ़ा जो उन्होंने एक किशोर वय के लड़के के मनोविज्ञान पर लिखा था। यह कहानी मुझसे मिलती-जुलती लगी ंंर मैं रमेश जी का फैन हो गया। हालांकि उनकी कोई दूसरी रचना पढ़ने को नहीं मिल सकी। खैर, पुरस्कार के लिए हार्दिक बधाई!
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