'कथन'-79 (जुलाई-सितंबर, 2013) में प्रकाशित लेख
हिंदी साहित्य में, खास तौर से 1970 और 1980 के दशकों में, ‘‘प्रेमचंद की यथार्थवादी परंपरा’’ का जाप तो बहुत हुआ, लेकिन उसे समझने और आगे बढ़ाने के प्रयास कम ही हुए। यदि आधुनिकतावादी लेखकों तथा आलोचकों ने उसका मजाक उड़ाया, तो कई प्रगतिशील-जनवादी कहलाने वाले लेखकों तथा आलोचकों ने उस पर तरह-तरह के सवाल उठाकर उसे खारिज करने के प्रयास किये। मसलन, किसी ने कहा कि प्रेमचंद ग्रामीण यथार्थ के लेखक थे, आज के महानगरीय यथार्थ का चित्रण उनकी परंपरा में नहीं किया जा सकता; किसी ने कहा कि प्रेमचंद का समय और था, हमारा समय और है और इस बदले हुए समय में प्रेमचंद का आदर्शोन्मुख यथार्थवाद संभव नहीं है; तो किसी ने कहा कि प्रेमचंद आदर्शवादी थे, यथार्थवादी तो वे अपनी अंतिम कुछ रचनाओं में ही हुए थे!
दूसरी तरफ उत्तर-आधुनिकतावादियों ने अपने विखंडनवाद से यथार्थवाद के मूल आधार समग्रता का ही खंडन किया, तो जादुई यथार्थवादियों ने यथार्थवाद के सभी पुराने रूपों को वर्तमान समय के लिए बेकार हो चुका बताया और उत्तर-आधुनिकतावादियों के ‘‘मार्क्सवादोत्तर’’ और ‘‘यथार्थवादोत्तर’’ के नारों से उसका तालमेल बिठाकर वर्तमान में (अर्थात् सोवियत संघ के विघटन के बाद और पूँजीवादी भूमंडलीकरण के वर्तमान दौर में) उसी को एकमात्र सही और संभव यथार्थवाद बताया।
आश्चर्य की बात यह है कि हिंदी साहित्य में वामपंथी लेखकों और लेखक संगठनों की संख्या कम न होने पर भी यथार्थवाद पर कोई बड़ी बहस नहीं चली, जबकि उनको ही साहित्य में यथार्थवाद की जरूरत सबसे ज्यादा थी। उत्तर-आधुनिकतावाद के संदर्भ में फ्रेडरिक जेमेसन का नाम अवश्य लिया जाता रहा, लेकिन इस पर ध्यान नहीं दिया गया कि उन्होंने आज के पूँजीवाद के दौर में यथार्थवाद के नये रूपों के आविष्कार की जरूरत के बारे में क्या कुछ कहा था।
पश्चिम के साहित्य में यथार्थवाद का विरोध आधुनिकतावाद के दौर में ही होने लगा था। आधुनिकतावाद की यथार्थवाद-विरोधी प्रवृत्ति को उत्तर-आधुनिकतावाद ने विभिन्न प्रकार की नयी रणनीतियों से आगे बढ़ाया। उनमें सबसे बड़ी रणनीति थी समग्रता का विरोध, जिसे उत्तर-आधुनिकतावाद के जनक जैसे माने जाने वाले ल्योतार ने ‘‘वार अगेंस्ट टोटैलिटी’’ (समग्रता के विरुद्ध युद्ध) कहा। इस युद्ध में जिस ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया गया, वह था विखंडन।
लेकिन 1990 के बाद से ‘‘लेट कैपिटलिज्म’’ (आज के पूँजीवाद) ने भूमंडलीकरण के रूप में एक ऐसी आर्थिक-राजनीतिक प्रक्रिया शुरू की, जिससे एक नये ढंग के साम्राज्यवाद की वापसी हुई और उसके साथ ही एक नयी बात यह हुई कि सारी दुनिया को एक नये ढंग की गुलामी का अहसास होने लगा, जिससे वह एक नये रूप में मुक्ति के लिए छटपटाने लगी। इस छटपटाहट को व्यक्त करने वाली किताबें आने लगीं, जैसे डेविड हार्वी की ‘दि न्यू इंपीरियलिज्म’ (2003), गोपाल बालकृष्णन द्वारा संपादित ‘डिबेटिंग एंपायर’ (2003) और एलेक्स कोलिनिकॉस की ‘दि न्यू मैंडेरिंस ऑफ अमेरिकन पॉवर’ (2005)। उत्तर-आधुनिकतावाद ने मार्क्सवाद और यथार्थवाद के अंत की ही नहीं, इतिहास के अंत की भी घोषणा कर दी थी। मगर अब उन घोषणाओं को गलत साबित करने वाली किताबें भी आने लगीं, जैसे अंर्स्ट ब्रायसाख की ‘ऑन दि फ्यूचर ऑफ हिस्टरी: दि पोस्टमॉडर्न चैलेंज एंड इट्स आफ्टरमैथ’ (2003), डेविड हार्वी की ‘स्पेसेज ऑफ होप’ (2003), फ्रेडरिक जेमेसन की ‘आर्कियोलॉजीज ऑफ दि फ्यूचर: दि डिजायर कॉल्ड यूटोपिया एंड अदर साइंस फिक्शंस’ (2005), मैथ्यू ब्यूमोंट द्वारा संपादित ‘एडवेंचर्स इन रियलिज्म’ (2007) इत्यादि।
सोवियत संघ के विघटन और शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद पूँजीवाद की ओर से बड़ी विजयोल्लसित घोषणाएँ की गयीं कि पूँजीवाद जीत गया, समाजवाद हार गया, अब सारी दुनिया में और हमेशा पूँजीवाद ही चलेगा। उत्तर-आधुनिकतावादियों ने तो पहले ही कला, साहित्य और सौंदर्यशास्त्र में एक नये युग के आगमन की घोषणा कर रखी थी--मार्क्सवादोत्तर युग! यथार्थवादोत्तर युग!
एक यथार्थवादी लेखक के रूप में मुझे लगा कि अब एक नये यथार्थवाद के लिए संघर्ष करना जरूरी है। मैं एक रचनाकार के रूप में तो यह संघर्ष अपनी कहानियों में नये यथार्थ को नये यथार्थवादी रूपों में सामने लाकर कर ही रहा था, अब मैं एक लेखक, प्राध्यापक और पत्रकार के रूप में भी यह संघर्ष अपने लेखों, व्याख्यानों और अपनी पत्रिका ‘कथन’ के अंकों के जरिये करने लगा। मैंने कुछ नये प्रश्न उठाने शुरू किये, जैसे--यदि पूँजीवाद एक विश्व-व्यवस्था है, तो क्या समाजवाद भी एक विश्व-व्यवस्था नहीं है? यदि पूँजी का भूमंडलीकरण संभव है, तो श्रम का क्यों नहीं? जब पूँजीवादी भूमंडलीकरण हो सकता है, तो समाजवादी भूमंडलीकरण क्यों नहीं हो सकता?
इन प्रश्नों के उत्तर खोजते हुए मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि जब तक समाजवाद एक संभावना है, तब तक मार्क्सवाद भी जरूरी है, यथार्थवाद भी जरूरी है। अलबत्ता यह एक नया मार्क्सवाद होगा, एक नया यथार्थवाद होगा। ऐतिहासिक परिस्थितियों के बदलने के साथ-साथ इतिहास के नये बोध के साथ बदलता और विकसित होता मार्क्सवाद और यथार्थवाद।
और यह देखकर मैं बहुत प्रेरित तथा उत्साहित हुआ कि मैं ही नहीं, आज की दुनिया में बहुत-से लोग इसी तरह सोच रहे हैं। उस नये चिंतन को सामने लाने के लिए मैंने ‘कथन’ के अंकों को नये-नये विषयों पर केंद्रित करना शुरू किया, जैसे--‘नयेपन की अवधारणा’, ‘यूटोपिया की जरूरत’, ‘आशा के स्रोतों की तलाश’, ‘श्रम का भूमंडलीकरण’, ‘सांस्कृतिक साम्राज्यवाद’, ‘बाजारवाद और नयी सृजनशीलता’ इत्यादि। इसी क्रम में मैंने अंग्रेजी में प्रकाशित होने वाली सामग्री के अनुवादों के जरिये, जरूरी किताबों की विस्तृत चर्चाओं के जरिये, साक्षात्कारों और परिचर्चाओं के जरिये तथा हिंदी में मौलिक रूप से लिखे और लिखवाये गये लेखों के जरिये आज के भूमंडलीय यथार्थ को सामने लाते हुए उस पर विभिन्न विद्वानों (जैसे रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, एजाज अहमद, विपिन चंद्र, ज्याँ डेªज, उमा चक्रवर्ती, मैनेजर पांडेय, मनोरंजन महांति, गौहर रजा, गोपाल गुरु आदि) से विस्तृत बातचीत की और उन साक्षात्कारों का एक संकलन प्रकाशित किया ‘बेहतर दुनिया की तलाश में’ (2007)।
जेमेसन ने यह भी कहा था कि यथार्थवाद चीजों को समग्रता में देखता था, जबकि आधुनिकतावाद चीजों को विखंडित करके उन्हें ‘‘अपरिचित’’ बनाकर ‘‘नयी’’ बनाता था। मगर नयापन पैदा करने की यह आधुनिकतावादी तकनीक आज उपभोक्ताओं को पूँजीवाद से तालमेल बिठाकर चलना सिखाने की जानी-पहचानी तकनीक बन गयी है। उसमें कोई नयापन नहीं रहा। इसलिए अब नया कुछ करने के लिए विखंडन को भी ‘‘अपरिचित’’ बनाने का प्रयास किया जा रहा है। लगता है, अमूर्तन का एक चक्र पूरा हो चुका है और उसकी जगह यथार्थवाद की वापसी का समय आ गया है। मगर यथार्थवाद का भी ऐतिहासिक आधार संदिग्ध हो गया है, क्योंकि आधारभूत अंतर्विरोध स्वयं इतिहास के भीतर है और उसकी वास्तविकताओं को समझने के लिए हम जिन अवधारणाओं से काम लेते हैं, वे चिंतन के लिए एक पहेली बन जाती हैं। इससे जो संदेह पैदा होता है, बहुत मूल्यवान है। हमें उसी को पकड़ना चाहिए, क्योंकि उसी की संरचना में इतिहास का वह मर्म छिपा है, जिसे हम अभी तक समझ नहीं पाये हैं। जाहिर है, यह संदेह हमें यह नहीं बता सकता कि यथार्थवाद की हमारी अवधारणा क्या होनी चाहिए; फिर भी इसका अध्ययन हमारे ऊपर यह जिम्मेदारी अवश्य डालता है कि हम यथार्थवाद की एक नयी अवधारणा का आविष्कार करें। आज इस जिम्मेदारी को महसूस न करना असंभव है।
जेमेसन जिस नये यथार्थवाद की जरूरत पर जोर दे रहे थे, वह उनके विचार से उपभोक्ता समाज की उस शक्ति का प्रतिरोध करने वाला यथार्थवाद होना चाहिए था, जो मनुष्य और उसकी पूरी दुनिया को वस्तुओं में बदल देती है। उपभोक्ता समाज में यह शक्ति होती है कि वह मनुष्य के शारीरिक और मानसिक श्रम से उत्पन्न तमाम चीजों के साथ-साथ मनुष्य के विचारों, भावनाओं तथा संपूर्ण जड़ और चेतन जगत से उसके संबंधों को भी बेची और खरीदी जाने वाली चीजें बना दे। इस शक्ति का प्रतिरोध समग्रता में ही किया जा सकता है। आज के मानवीय जीवन तथा सामाजिक संगठन के सभी स्तरों पर चल रहे विखंडन को व्यवस्थित रूप से समाप्त करने के लिए चीजों को समग्रता में देखना और उन्हें समग्र रूप से बदलना आवश्यक है। नये यथार्थवाद की अवधारणा समग्रता की कोटि के आधार पर ही की जा सकती है; क्योंकि यही वह चीज है, जो वर्गों के बीच के संरचनात्मक संबंधों को सामने ला सकती है।
लगभग दो दशकों के बाद जेमेसन ने अपनी पुस्तक ‘अ सिंग्यूलर मॉडर्निटी : एस्से ऑन ओंटोलॉजी ऑफ प्रेजेंट’ (2002) में पुनः लिखा कि ‘‘प्रत्येक यथार्थवाद नया ही होता है...और यही कारण है कि समूचे आधुनिकतावादी युग में और उसके बाद भी दुनिया के कई हिस्सों तथा सामाजिक समग्रता के कई अंशों में नये और जीवंत यथार्थवादों की आहटें सुनायी पड़ती रही हैं, जिन्हें सुनना और पहचानना जरूरी रहा है। ...प्रत्येक नया यथार्थवाद न केवल अपने से पहले के यथार्थवादों की सीमाओं से असंतोष होने के कारण उत्पन्न होता है, बल्कि इस कारण भी, तथा अधिक आधारभूत रूप में इसी कारण से ही, उभरकर सामने आता है कि आम तौर पर यथार्थवाद स्वयं आधुनिकता की ठीक वही गतिशील नवीनता लिये रहता है, जिसे हम आधुनिकतावाद की अद्वितीय विशेषता मानते आये हैं।’’
इसके बाद ‘आर्कियोलॉजीज ऑफ दि फ्यूचर : दि डिजायर कॉल्ड यूटोपिया एंड अदर साइंस फिक्शंस’ (2005) में उन्होंने ‘‘भूमंडलीकरण के बाद के नयी पीढ़ी के तमाम वामपंथियों’’ को संबोधित करते हुए यथार्थवाद की उन समस्याओं को उठाया, जो नये सिरे से उठ खड़ी हुई थीं और जिन पर तुरंत ध्यान दिया जाना जरूरी था।
भूमंडलीकरण का वर्तमान दौर शुरू होते ही उत्तर-आधुनिकतावाद अपनी फैशनेबल चमक-दमक खोने लगा था और एक नये यथार्थवाद की जरूरत महसूस की जाने लगी थी। देखते-देखते यथार्थवाद संबंधी नयी पुस्तकें सामने आने लगीं, जैसे पीटर ब्रुक्स की ‘रियलिस्ट विजंस’ (2005) और मैथ्यू ब्यूमोंट द्वारा संपादित ‘एडवंेंचर्स इन रियलिज्म’ (2007)। यथार्थवाद की इस वापसी में समकालीन पूँजीवाद की बदलती संरचना से उत्पन्न समस्याओं का बड़ा हाथ था, जिन्होंने यथार्थ को समझने तथा उसे कला और साहित्य में चित्रित करने के नये तरीके निकालने के लिए एक तरफ चिंतकों तथा आलोचकों को और दूसरी तरफ कलाकारों और साहित्यकारों को प्रेरित किया। पूँजीवाद में आये बदलाव का ही शायद यह नतीजा था कि जहाँ पहले यथार्थवाद की चर्चा में इतिहास पर जोर दिया जाता था, अब राजनीतिक अर्थशास्त्र पर जोर दिया जाने लगा। भूमंडलीकरण ने इतिहास को नये ढंग से पढ़ना जरूरी बनाया, जिससे ‘‘इतिहास का भूमंडलीकरण’’ हुआ और ‘‘भूमंडलीकरण का इतिहास’’ सामने आया। इन दोनों चीजों का असर साहित्य पर और उसमें किये जाने वाले यथार्थ-चित्रण तथा आलोचनात्मक विवेचन पर पड़ना स्वाभाविक था।
उत्तर-आधुनिकतावादियों का सबसे ज्यादा जोर विखंडन पर रहा। उन्होंने जीवन, समाज और दुनिया को समग्रता में देखने, समझने और साहित्य में चित्रित करने के यथार्थवादी प्रयासों को इस आधार पर गलत, अनुचित और अवांछित बताया कि ऐसा करना असंभव है। उन्होंने कहा कि जीवन, समाज और दुनिया को ही नहीं, जिस कला और साहित्य में ये चित्रित या प्रतिबिंबित होते हैं, उसे भी विखंडन से या खंड-खंड करके ही समझा जा सकता है।
मार्क्सवादी रचनाकारों, आलोचकों तथा सिद्धांतकारों ने विखंडनवाद का खंडन करते हुए बार-बार कहा है कि द्वंद्ववाद के अनुसार एक समग्रता के भीतर जो अंतर्विरोध होते हैं, वे ही उस समग्रता को बनाते और बदलते हैं। मार्क्स ने समाज और विश्व की कल्पना एक ऐसी समग्रता के रूप में की थी, जिसमें मुख्य और ऐतिहासिक अंतर्विरोध शोषक और शोषित वर्गों के बीच है, इन वर्गों के बीच संघर्ष है और वह संघर्ष समाज और विश्व को बदल रहा है। अंततः यह बदलाव वहाँ तक जा सकता है, जहाँ समाज या विश्व नामक समग्रता में न वर्ग होंगे, न वर्ग-संघर्ष। फिर वह एक नयी ही समग्रता होगी, जिसके अपने नये अंतर्विरोध और संघर्ष हो सकते हैं, लेकिन वे वर्तमान पूँजीवादी विश्व-व्यवस्था के आमूलचूल बदल जाने के बाद के नये ही अंतर्विरोध और संघर्ष होंगे।
वर्तमान पूँजीवादी भूमंडलीकरण ने ज्यों ही यह संभावना दुनिया के लोगों के सामने रखी कि पूँजीवाद की ही तरह समाजवाद भी एक विश्व-व्यवस्था है और उसका भी भूमंडलीकरण हो सकता है, पूँजीवादी व्यवस्था के पैरोकारों ने एक तरफ समाजवाद के अंत, मार्क्सवाद के अंत, यथार्थवाद के अंत आदि की अलग-अलग घोषणाओं के साथ-साथ समग्र रूप में ‘‘इतिहास के अंत’’ की घोषणा कर दी, तो दूसरी तरफ समग्रता के विचार के ही विरुद्ध जंग छेड़ दी।
लेकिन 1990 के बाद से, जब से भूमंडलीकरण की प्रक्रिया और उसके आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि तमाम पक्षों पर ध्यान दिया जाने लगा, विभिन्न देशों के वामपंथी विद्वान भूमंडलीय यथार्थ को समग्रता में समझने की जरूरत पर जोर देने लगे। इससे पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के बारे में नया विचार-मंथन शुरू हुआ और एक ‘‘बेहतर दुनिया की तलाश’’ के प्रयासों के साथ-साथ यह आशाजनक नारा भी सामने आया कि ‘‘दूसरी और बेहतर दुनिया मुमकिन है’’। इससे यथार्थवाद को, जिसे उत्तर- आधुनिकतावादियों ने मृत घोषित कर दिया था, फिर से जीवंत और विचारणीय माना जाने लगा। यह विचार जोर पकड़ने लगा कि पूँजीवाद भूमंडलीय है, तो समाजवाद भी भूमंडलीय है। और अब ‘‘एक देश में समाजवाद’’ की जगह ‘‘संपूर्ण विश्व में समाजवाद’’ के बारे में सोचा जाना चाहिए तथा उसके लिए यथार्थवादी रणनीतियाँ बनायी जानी चाहिए।
आकस्मिक नहीं था कि मार्क्सवाद में लोगों की रुचि नये सिरे से पैदा होने लगी, सोवियत संघ के विघटन के संदर्भ में समाजवाद पर पुनर्विचार होने लगा, सोवियत समाजवाद की ऐतिहासिक भूलों और गलतियों से सबक लेते हुए सच्चे समाजवाद की दिशा में आगे बढ़ने की बातें होने लगीं और यथार्थवाद पुनः चर्चा का विषय बन गया।
उत्तर-आधुनिकतावाद ने साहित्य में यथार्थवाद के विरुद्ध विखंडन की जो रणनीति अपनायी, वह आलोचना के स्तर पर पाठ विश्लेषण की विखंडनवादी प्रवृत्ति के रूप में तथा रचना के स्तर पर अस्मितावादी राजनीति के रूप में काफी सफल रही। स्त्रियों, कालों, अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों आदि के लेखन को अलग और विशिष्ट बनाने के प्रयासों में एक तरफ अनुभववाद पर जोर देकर यथार्थवाद को, दूसरी तरफ भिन्नता पर जोर देकर समग्रता के विचार को और तीसरी तरफ स्थानीयता पर जोर देकर भूमंडलीयता के नये यथार्थ को खारिज किया गया। मगर अब रचना और आलोचना, दोनों स्तरों पर अपनायी गयी इस रणनीति की वास्तविकता इसके पीछे छिपे साम्राज्यवादी इरादों के साथ उघड़कर सामने आने लगी। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में कई वामपंथी भी यह समझने लगे थे कि उत्तर-संरचनावाद और विखंडनवाद उनके भी सरोकार हैं, अस्मितावादी राजनीति उनकी भी राजनीति है, लेकिन अब उनमें से कुछ महसूस करने लगे कि ये तो नव-उदार पूँजीवाद या बाजारवाद की भूमंडलीकरण से पहले की तैयारियों के उपक्रम थे।
कनाडाई पत्रकार नाओमी क्लाइन ने अपनी चर्चित पुस्तक ‘नो लोगो’ (2000) में व्यंग्यपूर्वक लिखा कि ‘‘हम दीवार पर प्रक्षेपित तस्वीरों का विश्लेषण करने में इतने व्यस्त थे कि खुद वह दीवार कब की बेची जा चुकी थी, यह देख ही नहीं पाये।’’ उत्तर-आधुनिकतावाद ने साहित्य, संस्कृति, विचार और राजनीति सभी स्तरों पर होने वाले प्रतिरोध को इस प्रकार विखंडित किया कि भूमंडलीय पूँजीवाद और अमरीकी साम्राज्यवाद के हौसलों का बुलंद हो जाना स्वाभाविक था। डेविड हार्वी ने ‘दि न्यू इंपीरियलिज्म’ (2003) में ‘न्यू यॉर्क टाइम्स’ के एक मुख्य समाचार का शीर्षक उद्धृत किया है--‘‘अमेरिकन एंपायर: गैट यूज्ड टु इट!’’ मानो अमरीका सारी दुनिया के लोगों से कह रहा हो कि हाँ, मैं हूँ अमरीकी साम्राज्यवाद! तुम मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते, इसलिए मेरे अधीन रहने की आदत डालो!
ऐसी स्थितियों के निर्माण में भूमंडलीकरण से पहले की उस शीतयुद्ध वाली राजनीति का भी बड़ा हाथ था, जिसके चलते यथार्थवाद और आधुनिकतावाद वैश्विक राजनीति की शतरंज के ऐसे घिसे-पिटे मोहरे बन गये थे कि उनके नाम पर साहित्य, कला और संस्कृति में कोई नवोन्मेष हो पाना असंभव हो गया था। पूँजीवादी खेमे में पश्चिम के यथार्थवादी लेखकों को भी आधुनिकतावादी घोषित किया जाता था, जबकि समाजवादी खेमे में पूर्व के आधुनिकतावादी लेखक भी यथार्थवादी माने जाते थे। फिर, वहाँ ‘समाजवादी यथार्थवाद’ का राजनीतिक इस्तेमाल तो किया गया (जैसे उसके समर्थक लेखकों को मान-सम्मान देना और उसके विरोधियों को दंडित करना), लेकिन रचना और आलोचना से उसका कोई सच्चा संबंध नहीं बनाया गया। अतः सोवियत संघ के विघटन के बाद ही यथार्थवाद का मार्क्सवादी विश्लेषण फिर से शुरू हो पाया और चूँकि यह वर्तमान भूमंडलीकरण के आरंभ होने का समय था, इसलिए यथार्थवादी लेखकों का ध्यान स्थानीय यथार्थ के साथ-साथ भूमंडलीय यथार्थ पर भी गया और जब यह स्पष्ट दिखने लगा कि स्थानीय यथार्थ भूमंडलीय यथार्थ का ही अंग है, तो समग्रता के विचार ने जोर पकड़ा और उत्तर-आधुनिकतावादी विखंडनवाद की मार्क्सवादी आलोचना ने उसकी सीमाएँ और असंगतियाँ उजाकर करना शुरू कर दिया।
समग्रता की अवधारणा में भी इस बीच काफी बदलाव और विकास हुआ था। हालाँकि मार्क्सवादी चिंतन में पूँजीवादी विश्व-व्यवस्था की जगह भविष्य की समाजवादी विश्व-व्यवस्था का विचार पहले से मौजूद था (जिसकी अभिव्यक्ति सर्वहारा अंतरराष्ट्रीयतावाद के सिद्धांत और ‘‘दुनिया के मजदूरो एक हो’’ के नारे में होती थी), लेकिन सोवियत शासन के दौरान ‘‘एक देश में समाजवाद’’ के विचार ने अंतरराष्ट्रीयतावाद की जगह राष्ट्रवाद पर अनावश्यक और ऐतिहासिक रूप से गलत जोर डालकर समग्रता की अवधारणा को सीमित कर दिया था। सोवियत संघ के विघटन और वर्तमान पूँजीवादी भूमंडलीकरण ने समग्रता की सीमित (राष्ट्रीय अथवा ‘स्थानीय’) अवधारणा को पुनः व्यापक (अंतरराष्ट्रीय अथवा ‘भूमंडलीय’) बना दिया। इस प्रकार यथार्थ को ‘स्थानीय’ से आगे बढ़ाकर ‘भूमंडलीय’ के रूप में देखना जरूरी और संभव हो गया।
इसका अर्थ यह हुआ कि पूँजीवादी भूमंडलीकरण ही यथार्थ नहीं है, एक संभावना के रूप में समाजवादी भूमंडलीकरण भी यथार्थ है। यथार्थवाद की इस समझ से साहित्य की रचना में ‘‘यथार्थवादी पद्धति’’ को ही अपनाना (अर्थात् यूटोपिया, डिस्टोपिया, रूपक, फैंटेसी वगैरह को यथार्थवादी रचना के लिए त्याज्य समझना) आवश्यक नहीं रहता और यथार्थवादी रचना उन रूपों में भी की जा सकती है, जो आधुनिकतावादी माने जाने के कारण यथार्थवादियों के लिए त्याज्य समझे जाते थे। जेमेसन ने ‘‘समकालीन विश्व के थके हुए यथार्थवाद’’ की तुलना में ‘साइंस फिक्शन’ (विज्ञान कथाओं) को ‘‘अधिक विश्वसनीय सूचना लौटाकर लाने वाला’’ बताकर रचना के रूप के स्तर पर नये यथार्थवाद की संभावनाओं की ओर संकेत किया। मगर इसका मतलब न तो यह था कि वर्तमान भूमंडलीकरण के दौर में यथार्थवाद के सभी पुराने रूप ‘‘थके हुए यथार्थवाद’’ के रूप हो चुके हैं और न यह कि आधुनिकतावादी सभी रूप यथार्थवादी रचना के लिए स्वीकार्य हो गये हैं। हाँ, इसका यह मतलब जरूर था कि भूमंडलीकरण के वर्तमान दौर में यथार्थवाद पुराने ढंग का यथार्थवाद नहीं, एक नये ही ढंग का यथार्थवाद होगा और होना भी चाहिए।
मार्क्सवादी आलोचना और सौंदर्यशास्त्र के सामने आज प्रश्न यह है कि इक्कीसवीं सदी के भूमंडलीकरण के सामने यथार्थवाद- विरोधी तमाम साहित्यिक प्रवृत्तियों के विरुद्ध यथार्थवाद की क्या भूमिका और क्या रणनीति होनी चाहिए। यथार्थवादी रचनाकार और मार्क्सवादी आलोचक आज इस प्रश्न का एक ही उत्तर देते दिखते हैं: यथार्थवाद में एक नवोन्मेष जरूरी है। यह नवोन्मेष कब और कैसे होगा, कहा नहीं जा सकता, लेकिन यह एक सतत प्रक्रिया है, जो यथार्थवाद के उदय से आज तक निरंतर जारी है।
टेरी ईगल्टन ने ‘मार्क्सिस्ट लिटरेरी थियरी’ (1996) में मार्क्सवादी आलोचना के चार परंपरागत क्षेत्र बताये थे--1. मानव- विज्ञानी आलोचना, 2. राजनीतिक आलोचना, 3. विचारधारात्मक आलोचना, और 4. आर्थिक आलोचना। इन सभी क्षेत्रों में काम करने वाले विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से यथार्थवादी चिंतन को आगे बढ़ाया है, लेकिन फ्रेडरिक जेमेसन शायद अकेले ऐसे विद्वान हैं, जिन्होंने यथार्थवाद की अपनी अवधारणा इन चारों क्षेत्रों में विकसित की गयी यथार्थवाद की समझ से निर्मित की है। उनके यथार्थवाद संबंधी चिंतन में मार्क्सवादी आलोचना के ये सभी रूप एक साथ शामिल हैं। इसीलिए उससे (1) यथार्थवाद के ऐतिहासिक प्रादुर्भाव, (2) यथार्थवाद की सौंदर्यशास्त्रीय तथा ज्ञानमीमांसात्मक शक्तियों, (3) यथार्थवाद के राजनीतिक उपयोगों तथा उनकी सीमाओं-संभावनाओं और (4) इतिहास के किसी खास दौर में उत्पादन के तरीके के अनुसार बनते-बदलते सांस्कृतिक परिदृश्य में यथार्थवाद की स्थिति और भूमिका से जुड़े सभी सवाल एक साथ सामने आते हैं, जिन पर विचार करना आज यथार्थवाद के विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है।
जेमेसन ने यथार्थवाद पर अलग से कोई विशेष अध्ययन प्रस्तुत नहीं किया, लेकिन लगभग तीन दशकों तक अपने लेखन में जगह-जगह यथार्थवाद से संबंधित सवालों से जूझते हुए उसकी नयी संभावनाओं का पता लगाया। इसके लिए वे बार-बार जॉर्ज लुकाच के पास गये, उनसे प्रेरित हुए, उनसे सीखा और उनसे टकराये भी; क्योंकि लुकाच ने साहित्य के रूपों और ऐतिहासिक शक्तियों के संबंध को समग्रता में देखा था और यथार्थवाद का एक सामान्य सिद्धांत निर्मित करने का प्रयास किया था। जेमेसन समग्रता की अवधारणा को जाँचने-परखने और विकसित करने के लिए रह-रहकर उसकी ओर लौटे और उन्होंने पाया कि समग्रता के आधार पर ही रचना और आलोचना में यथार्थवादी होना संभव है।
समग्रता का अर्थ यह नहीं है कि यथार्थ में जो कुछ है, या जितना दिखता है, वह सब चित्रित कर दिया जाये। यह असंभव है और आवश्यक भी नहीं। अतः समग्रता यथार्थवादी रचना के रूप या उसकी शैली (अथवा चित्रण की पद्धति) में नहीं, बल्कि रचनाकार की दृष्टि में होती है। वह यथार्थ का चाहे एक छोटा- सा अंश ही प्रस्तुत करे--जैसे किसी एक चरित्र के रूप में--लेकिन उसकी नजर उसे समग्रता में देखने वाली होनी चाहिए। अर्थात् रचना में चित्रित यथार्थ का एक अंश संपूर्ण यथार्थ के अंश के रूप में चित्रित होना चाहिए, न कि उस संपूर्णता को खंडित करके पाये गये उसके एक अंश को ही संपूर्ण मानकर।
उदाहरण के लिए, वर्तमान समाज या उसके किसी प्रातिनिधिक चरित्र को चित्रित करते समय रचनाकार उसके वर्तमान को तो देखता ही है, ऐतिहासिक दृष्टि से उसके अतीत और भविष्य को भी देखता है। आधुनिकतावादी तथा उत्तर-आधुनिकतावादी लोगों के लिए उस चरित्र के अतीत का कुछ अर्थ भले ही हो, उसके भविष्य का कोई अर्थ नहीं होता; क्योंकि उनके लिए भविष्य तो अनागत है और जो अभी आया ही नहीं है, जिसका अस्तित्व ही नहीं है, वह यथार्थ कैसे हो सकता है! भविष्य के बारे में सोचने, उसकी कल्पना करने, उसका कोई आदर्श सामने रखकर उसकी प्राप्ति के प्रयास करने या साहित्य में उसे चित्रित करने को वे एक ‘यूटोपिया’ (अयथार्थ, कल्पनालोक या असंभव आदर्श) मानते हैं। लेकिन लुकाच और जेमेसन दोनों यथार्थवाद को समग्रता में अर्थात् अतीत-वर्तमान-भविष्य को एक साथ ध्यान में रखने से बनी दृष्टि के रूप में देखते हैं। लुकाच ने यथार्थ के चित्रण में ‘‘समग्रता के प्रश्न की निर्णायक भूमिका’’ बतायी थी। जेमेसन ने उसमें एक नैतिक आयाम भी जोड़ा और ‘यूटोपिया’ को अयथार्थ नहीं, बल्कि यथार्थ ही मानते हुए ‘मार्क्सिज्म एंड फॉर्म’ में कहा :
‘‘मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य तो उस ‘यूटोपिया’ तक ही पहुँचना है, जहाँ जीवन और उसका अर्थ पुनः अविभाज्य हो जायेंगे, इसमें मनुष्य और विश्व एकमत हो जायेंगे। लेकिन यह भाषा अमूर्त है और ‘यूटोपिया’ कोई विचार नहीं, बल्कि एक ‘विजन’ (दृष्टि) है। अतः वह अमूर्त चिंतन नहीं, बल्कि स्वयं आख्यान ही है, जो समस्त ‘यूटोपियाई’ गतिविधि को प्रमाणित करने का आधार है, और महान उपन्यासकार ‘यूटोपिया’ की समस्याओं का ठोस निरूपण प्रस्तुत करते हैं।’’
लुकाच ने आख्यान और समग्रता के बीच का संबंध खोजा था। जेमेसन ने उस खोज को आगे बढ़ाते हुए ‘यूटोपिया’ को भावी समाजवादी विश्व-व्यवस्था के रूप में देखा और बताया कि आज जो ‘यूटोपिया’ अयथार्थ, कल्पनालोक या असंभव आदर्श लगता है, उसके भविष्य में साकार होने की संभावना को यथार्थ मानकर चलना यथार्थवादी लेखकों का एक राजनीतिक कार्यभार ही नहीं, बल्कि एक नैतिक दायित्व भी है।
जेमेसन ने काल की अवधारणा से जुड़े यथार्थवाद को ‘‘ऐतिहासिक यथार्थवाद’’ कहा है। इससे उनका आशय उन्नीसवीं सदी के बाल्जाक, स्कॉट, डिकेंस आदि के कथासाहित्य में पाये जाने वाले यथार्थवाद से है। जेमेसन के सामने ही नहीं, पश्चिम के प्रायः सभी मार्क्सवादी आलोचकों के सामने यह समस्या रही है कि बुर्जुआ वर्ग के सत्तारोहण के समय की क्रांतिकारी परिस्थिति में उदित हुए उस यथार्थवाद की परंपरा को वर्तमान समय में कैसे आगे बढ़ाया जाये। ‘‘ऐतिहासिक यथार्थवाद’’ के उदय के पहले तक यह माना जाता था कि सामाजिक यथार्थ का चित्रण करने वाले साहित्य का संबंध ज्ञानमीमांसा से तो है, किंतु सौंदर्यशास्त्र से नहीं। दूसरे शब्दों में, यथार्थवादी साहित्य ‘ज्ञान’ तो दे सकता है, ‘आनंद’ नहीं दे सकता। ‘‘ऐतिहासिक यथार्थवाद’’ ने दावा किया, जिसे बाल्जाक, स्कॉट, डिकेंस आदि के साहित्य ने सत्य भी सिद्ध किया कि वह निरा ज्ञानात्मक नहीं, सौंदर्यात्मक भी है।
हिंदी में प्रेमचंद ने आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की अवधारणा के जरिये तथा मुक्तिबोध ने ज्ञानात्मक संवेदन और संवेदनात्मक ज्ञान की अपनी कोटियों के जरिये यही दावा पेश किया था और अपनी रचनाओं में चरितार्थ भी किया था।
जेमेसन ने ‘दि पॉलिटिकल अनकांशस : नैरेटिव ऐज अ सोशली सिंबॉलिक एक्ट’ (2002) में यथार्थवाद की ज्ञानात्मक और सौंदर्यात्मक दोनों तरह की उपलब्धियों को देखा। यह मानते हुए भी कि उन्नीसवीं सदी का-सा ‘‘ऐतिहासिक यथार्थवाद’’ बीसवीं सदी के पूँजीवाद के अंतर्गत संभव नहीं है, उन्होंने उसकी परंपरा को नये रूप में आगे बढ़ाना संभव, उचित और आवश्यक बताया। परंपरा को आगे बढ़ाने का मतलब पुराने लेखकों की रचना-पद्धति या शैली की नकल करना नहीं है। वर्तमान परिस्थिति में यदि कोई ‘‘ऐतिहासिक यथार्थवाद’’ की माँग करता है, तो उसे ‘‘वल्गर लुकाचवादी’’ ही कहा जा सकता है। इस माँग का मजाक उड़ाते हुए ब्रेष्ट ने अपने लेख ‘ऑन दि फॉर्मलिस्टिक कैरेक्टर ऑफ दि थियरी ऑफ रियलिज्म’ में व्यंग्यपूर्वक कहा था--‘‘बाल्जाक जैसे बनो--मगर अपटूडेट बाल्जाक!’’ जेमेसन ने ‘‘लेट कैपिटलिज्म’’ के दौर में पुराने ‘‘ऐतिहासिक यथार्थवाद’’ की तुलना भाप के इंजन से करते हुए टर्बाइन के दौर में नये यथार्थवाद की जरूरत बतायी।
जेमेसन का यह ‘‘टर्बाइन का दौर’’ उत्तर-आधुनिकतावाद का दौर था। इस दौर के बारे में उन्होंने एक प्रकार की निराशा व्यक्त करते हुए कहा कि आज की दुनिया इतनी ‘केऑटिक’ (अस्तव्यस्त) हो गयी है कि उसे समग्रता में देखना और चित्रित करना असंभव हो गया है। लेकिन उन्होंने नये यथार्थवादों के पैदा होने की संभावना बताते हुए अपने आशावाद का परिचय तो दिया ही, उत्तर-आधुनिकतावादी विखंडन के विरुद्ध समग्रता की अवधारणा में विश्वास भी व्यक्त किया। उन्होंने नये यथार्थवादों की संभावना ही नहीं, आवश्यकता भी बतायी और कहा कि आज के पूँजीवादी भूमंडलीकरण के दौर में यथार्थवाद को एक राजनीतिक लक्ष्य और कार्यक्रम के रूप में देखा जाना चाहिए। इसके लिए उन्होंने यथार्थवाद के नवीनीकरण की बात की और कहा कि आज का यथार्थवाद अपनी पुरानी परंपरा से बहुत कुछ ग्रहण करते हुए भी एक नया यथार्थवाद होगा। बल्कि एक नहीं, अनेक यथार्थवाद होंगे, जिनका आविष्कार किया जाना है।
मगर कैसे? इस प्रश्न का उत्तर खोजते हुए जेमेसन उत्तर-आधुनिकतावाद के संदर्भ में भूमंडलीकरण की जाँच-पड़ताल करते हैं और यहाँ उन्हें उत्तर-आधुनिकतावादी विखंडन की काट करने वाली समग्रता दिखायी देती है। साथ ही दिखायी देते हैं ‘साइंस फिक्शन’ और ‘साइबर पंक’ में यथार्थवाद के नये रूप। विज्ञान कथाएँ उन्हें भूमंडलीकरण के समग्र रूप को सामने लाने में और कंप्यूटर के ज्ञान से अनोखे काम कर डालने की कहानियाँ ‘‘उभरते भूमंडलीकरण के सत्य की लगभग पूरी अभिव्यक्ति’’ करने में समर्थ लगती हैं।
लेकिन मेरे विचार से नये यथार्थवाद या यथार्थवादों का आविष्कार इतना आसान नहीं है। जेमेसन ने ‘साइंस फिक्शन’ और ‘साइबर पंक’ में, उदाहरण के तौर पर ही सही, उसकी जो संभावना व्यक्त की है, वह ज्यादा विश्वसनीय नहीं है; क्योंकि एक तो वह वर्तमान भूमंडलीय यथार्थ को बदलने की जरूरत और संभावना के आधार पर नहीं, बल्कि वह जैसा भी है, उसी में नये यथार्थ के आविष्कार की बात करती है; दूसरे, वह रचना के रूप तक ही सीमित है, उसके वस्तुतत्त्व की बात नहीं करती। ‘साइंस फिक्शन’ और ‘साइबर पंक’ के रूपों में यथार्थवादी ही नहीं, यथार्थवाद-विरोधी रचनाएँ भी बड़े मजे में की जा सकती हैं। उदाहरण के लिए नवीनतम तकनीक वाली विज्ञान कथाओं तथा अमरीकी फिल्मों को देखा जा सकता है। अतः नये यथार्थवाद के आविष्कार के प्रश्न को रचना के रूप तक सीमित करके नहीं, बल्कि उसके वस्तुतत्त्व और परिप्रेक्ष्य तक फैलाकर देखना जरूरी है।
मैंने भूमंडलीय यथार्थ के बारे में तभी से सोचना शुरू कर दिया था, जब अपनी पुस्तक ‘आज का पूँजीवाद और उसका उत्तर- आधुनिकतावाद’ (1999) में संकलित निबंध लिखे थे। उसके बाद लिखे गये मेरे निबंध जैसे ‘साहित्य में फैशन और नवोन्मेष’, ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की जरूरत’, ‘रूढ़ सोच के साँचों को तोड़ना जरूरी’, ‘आगे की कहानी’, ‘हिंदी में विज्ञान कथाएँ क्यों नहीं हैं?’ इत्यादि भूमंडलीय यथार्थ को ही ध्यान में रखकर लिखे गये थे। अंततः ‘भूमंडलीय यथार्थवाद’ नामक निबंध में भूमंडलीय यथार्थवाद की मेरी अवधारणा विकसित होकर सामने आयी। (ये सभी निबंध 2008 में प्रकाशित मेरे साहित्यिक निबंधों के संग्रह ‘साहित्य और भूमंडलीय यथार्थ’ में संकलित हैं।) भूमंडलीय यथार्थवाद की मेरी अवधारणा संक्षेप में यह है:
आज की दुनिया का सबसे अहम प्रश्न है: क्या पूँजीवाद की वैश्विक व्यवस्था की जगह कोई और वैश्विक किंतु बेहतर व्यवस्था संभव है? यदि हाँ, तो उसकी रूपरेखा क्या है और वह व्यवस्था किन आधारों पर, किन शक्तियों के द्वारा और किन तरीकों से बनायी जा सकती है? इस प्रश्न का उत्तर भूमंडलीय यथार्थवाद के आधार पर ही दिया जा सकता है, क्योंकि इसका उत्तर देने के लिए यह आवश्यक है कि आज की दुनिया के यथार्थ को भौगोलिक के साथ-साथ ऐतिहासिक दृष्टि से भी देखा जाये और ऐतिहासिक दृष्टि को केवल अतीत को देखने वाली दृष्टि नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य को भी देखने वाली ऐसी सर्जनात्मक दृष्टि मानकर चला जाये, जो आने वाले कल की बेहतर दुनिया बनाने के लिए हमें आज ही प्रेरित और सक्रिय कर सके।
हिंदी साहित्य में यह मान्यता न जाने कब से और क्यों चली आ रही है कि यथार्थ और कल्पना परस्पर-विरोधी हैं। मेरा कहना यह है कि यथार्थवाद कल्पना का निषेध नहीं करता। सृजनशील कल्पना तो यथार्थवादी रचना के लिए अपरिहार्य है, क्योंकि वह जिस ‘यूटोपिया’ अथवा भविष्य के स्वप्न को साकार करने के लिए की जाती है, वह सृजनशील कल्पना के बिना साकार हो ही नहीं सकता--न रचना में, न यथार्थ में। कारण यह है कि यथार्थवादी रचना के लिए इतिहास का बोध, वर्तमान का अनुभव और भविष्य का स्वप्न आवश्यक है। और आवश्यक है वह परिप्रेक्ष्य, जो इन तीनों के मेल से बनता है। जाहिर है कि ऐसा यथार्थवाद--रचनाकार के जाने या अनजाने, चाहे या अनचाहे--एक समाजवादी परियोजना है, क्योंकि भविष्य का स्वप्न पूँजीवादी व्यवस्था में समाजवाद ही हो सकता है। चाहे भविष्य में उसका नाम और रूप कुछ और ही हो जाये, आज वह पूँजीवाद का निषेध है और उसके परे जाने का प्रयत्न।
ठीक इसी कारण आज का पूँजीवाद यथार्थवाद का विरोधी है। यथार्थवाद के विकास को तरह-तरह से बाधित करना, उसे तरह-तरह से बदनाम करना, यथार्थवादियों को उपेक्षित या दंडित करना तथा तमाम प्रत्यक्ष और परोक्ष तरीकों से उनका दमन करना पूँजीवादी राजनीति का आवश्यक अंग है।
मगर यह राजनीति अक्सर अराजनीतिक प्रतीत होने वाले रूपों में की जाती है। मसलन, यथार्थवाद की जगह अनुभववाद पर जोर देना, यूटोपिया का मजाक उड़ाना, उसे असंभव बताकर खारिज करना, भविष्य के स्वप्न देखने-दिखाने वाले यथार्थवादियों को स्वप्नजीवी, आदर्शवादी या गैर-यथार्थवादी सिद्ध करना, साहित्य को ‘‘वादमुक्त’’ तथा ‘‘राजनीति से दूर’’ रखने की सलाहें देना इत्यादि। ये अराजनीति की राजनीति के विभिन्न रूप हैं। लेकिन इसके बावजूद आज दुनिया भर में जो साहित्य लिखा जा रहा है, वह अधिकांशतः यथार्थवादी है और नये-नये यथार्थवादी रूपों में लिखा जा रहा है।
कुछ लोग इसे ‘‘यथार्थवाद की वापसी’’ कह रहे हैं। लेकिन वह कहीं चला नहीं गया था। बस, यथार्थवाद-विरोध के शोर-शराबे में उसकी आवाज कुछ कम सुनायी पड़ रही थी। मगर अब जबकि वह शोर-शराबा कम हुआ है, उसकी आवाज साफ सुनायी पड़ रही है। हाँ, उसका रूप कुछ बदला-बदला और नया-नया-सा दिखता है, क्योंकि इस बीच बदलते रहे यथार्थ के मुताबिक उसका रूप भी बदलता रहा है।
--रमेश उपाध्याय
हिंदी साहित्य में, खास तौर से 1970 और 1980 के दशकों में, ‘‘प्रेमचंद की यथार्थवादी परंपरा’’ का जाप तो बहुत हुआ, लेकिन उसे समझने और आगे बढ़ाने के प्रयास कम ही हुए। यदि आधुनिकतावादी लेखकों तथा आलोचकों ने उसका मजाक उड़ाया, तो कई प्रगतिशील-जनवादी कहलाने वाले लेखकों तथा आलोचकों ने उस पर तरह-तरह के सवाल उठाकर उसे खारिज करने के प्रयास किये। मसलन, किसी ने कहा कि प्रेमचंद ग्रामीण यथार्थ के लेखक थे, आज के महानगरीय यथार्थ का चित्रण उनकी परंपरा में नहीं किया जा सकता; किसी ने कहा कि प्रेमचंद का समय और था, हमारा समय और है और इस बदले हुए समय में प्रेमचंद का आदर्शोन्मुख यथार्थवाद संभव नहीं है; तो किसी ने कहा कि प्रेमचंद आदर्शवादी थे, यथार्थवादी तो वे अपनी अंतिम कुछ रचनाओं में ही हुए थे!
दूसरी तरफ उत्तर-आधुनिकतावादियों ने अपने विखंडनवाद से यथार्थवाद के मूल आधार समग्रता का ही खंडन किया, तो जादुई यथार्थवादियों ने यथार्थवाद के सभी पुराने रूपों को वर्तमान समय के लिए बेकार हो चुका बताया और उत्तर-आधुनिकतावादियों के ‘‘मार्क्सवादोत्तर’’ और ‘‘यथार्थवादोत्तर’’ के नारों से उसका तालमेल बिठाकर वर्तमान में (अर्थात् सोवियत संघ के विघटन के बाद और पूँजीवादी भूमंडलीकरण के वर्तमान दौर में) उसी को एकमात्र सही और संभव यथार्थवाद बताया।
आश्चर्य की बात यह है कि हिंदी साहित्य में वामपंथी लेखकों और लेखक संगठनों की संख्या कम न होने पर भी यथार्थवाद पर कोई बड़ी बहस नहीं चली, जबकि उनको ही साहित्य में यथार्थवाद की जरूरत सबसे ज्यादा थी। उत्तर-आधुनिकतावाद के संदर्भ में फ्रेडरिक जेमेसन का नाम अवश्य लिया जाता रहा, लेकिन इस पर ध्यान नहीं दिया गया कि उन्होंने आज के पूँजीवाद के दौर में यथार्थवाद के नये रूपों के आविष्कार की जरूरत के बारे में क्या कुछ कहा था।
पश्चिम के साहित्य में यथार्थवाद का विरोध आधुनिकतावाद के दौर में ही होने लगा था। आधुनिकतावाद की यथार्थवाद-विरोधी प्रवृत्ति को उत्तर-आधुनिकतावाद ने विभिन्न प्रकार की नयी रणनीतियों से आगे बढ़ाया। उनमें सबसे बड़ी रणनीति थी समग्रता का विरोध, जिसे उत्तर-आधुनिकतावाद के जनक जैसे माने जाने वाले ल्योतार ने ‘‘वार अगेंस्ट टोटैलिटी’’ (समग्रता के विरुद्ध युद्ध) कहा। इस युद्ध में जिस ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया गया, वह था विखंडन।
लेकिन 1990 के बाद से ‘‘लेट कैपिटलिज्म’’ (आज के पूँजीवाद) ने भूमंडलीकरण के रूप में एक ऐसी आर्थिक-राजनीतिक प्रक्रिया शुरू की, जिससे एक नये ढंग के साम्राज्यवाद की वापसी हुई और उसके साथ ही एक नयी बात यह हुई कि सारी दुनिया को एक नये ढंग की गुलामी का अहसास होने लगा, जिससे वह एक नये रूप में मुक्ति के लिए छटपटाने लगी। इस छटपटाहट को व्यक्त करने वाली किताबें आने लगीं, जैसे डेविड हार्वी की ‘दि न्यू इंपीरियलिज्म’ (2003), गोपाल बालकृष्णन द्वारा संपादित ‘डिबेटिंग एंपायर’ (2003) और एलेक्स कोलिनिकॉस की ‘दि न्यू मैंडेरिंस ऑफ अमेरिकन पॉवर’ (2005)। उत्तर-आधुनिकतावाद ने मार्क्सवाद और यथार्थवाद के अंत की ही नहीं, इतिहास के अंत की भी घोषणा कर दी थी। मगर अब उन घोषणाओं को गलत साबित करने वाली किताबें भी आने लगीं, जैसे अंर्स्ट ब्रायसाख की ‘ऑन दि फ्यूचर ऑफ हिस्टरी: दि पोस्टमॉडर्न चैलेंज एंड इट्स आफ्टरमैथ’ (2003), डेविड हार्वी की ‘स्पेसेज ऑफ होप’ (2003), फ्रेडरिक जेमेसन की ‘आर्कियोलॉजीज ऑफ दि फ्यूचर: दि डिजायर कॉल्ड यूटोपिया एंड अदर साइंस फिक्शंस’ (2005), मैथ्यू ब्यूमोंट द्वारा संपादित ‘एडवेंचर्स इन रियलिज्म’ (2007) इत्यादि।
सोवियत संघ के विघटन और शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद पूँजीवाद की ओर से बड़ी विजयोल्लसित घोषणाएँ की गयीं कि पूँजीवाद जीत गया, समाजवाद हार गया, अब सारी दुनिया में और हमेशा पूँजीवाद ही चलेगा। उत्तर-आधुनिकतावादियों ने तो पहले ही कला, साहित्य और सौंदर्यशास्त्र में एक नये युग के आगमन की घोषणा कर रखी थी--मार्क्सवादोत्तर युग! यथार्थवादोत्तर युग!
एक यथार्थवादी लेखक के रूप में मुझे लगा कि अब एक नये यथार्थवाद के लिए संघर्ष करना जरूरी है। मैं एक रचनाकार के रूप में तो यह संघर्ष अपनी कहानियों में नये यथार्थ को नये यथार्थवादी रूपों में सामने लाकर कर ही रहा था, अब मैं एक लेखक, प्राध्यापक और पत्रकार के रूप में भी यह संघर्ष अपने लेखों, व्याख्यानों और अपनी पत्रिका ‘कथन’ के अंकों के जरिये करने लगा। मैंने कुछ नये प्रश्न उठाने शुरू किये, जैसे--यदि पूँजीवाद एक विश्व-व्यवस्था है, तो क्या समाजवाद भी एक विश्व-व्यवस्था नहीं है? यदि पूँजी का भूमंडलीकरण संभव है, तो श्रम का क्यों नहीं? जब पूँजीवादी भूमंडलीकरण हो सकता है, तो समाजवादी भूमंडलीकरण क्यों नहीं हो सकता?
इन प्रश्नों के उत्तर खोजते हुए मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि जब तक समाजवाद एक संभावना है, तब तक मार्क्सवाद भी जरूरी है, यथार्थवाद भी जरूरी है। अलबत्ता यह एक नया मार्क्सवाद होगा, एक नया यथार्थवाद होगा। ऐतिहासिक परिस्थितियों के बदलने के साथ-साथ इतिहास के नये बोध के साथ बदलता और विकसित होता मार्क्सवाद और यथार्थवाद।
और यह देखकर मैं बहुत प्रेरित तथा उत्साहित हुआ कि मैं ही नहीं, आज की दुनिया में बहुत-से लोग इसी तरह सोच रहे हैं। उस नये चिंतन को सामने लाने के लिए मैंने ‘कथन’ के अंकों को नये-नये विषयों पर केंद्रित करना शुरू किया, जैसे--‘नयेपन की अवधारणा’, ‘यूटोपिया की जरूरत’, ‘आशा के स्रोतों की तलाश’, ‘श्रम का भूमंडलीकरण’, ‘सांस्कृतिक साम्राज्यवाद’, ‘बाजारवाद और नयी सृजनशीलता’ इत्यादि। इसी क्रम में मैंने अंग्रेजी में प्रकाशित होने वाली सामग्री के अनुवादों के जरिये, जरूरी किताबों की विस्तृत चर्चाओं के जरिये, साक्षात्कारों और परिचर्चाओं के जरिये तथा हिंदी में मौलिक रूप से लिखे और लिखवाये गये लेखों के जरिये आज के भूमंडलीय यथार्थ को सामने लाते हुए उस पर विभिन्न विद्वानों (जैसे रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, एजाज अहमद, विपिन चंद्र, ज्याँ डेªज, उमा चक्रवर्ती, मैनेजर पांडेय, मनोरंजन महांति, गौहर रजा, गोपाल गुरु आदि) से विस्तृत बातचीत की और उन साक्षात्कारों का एक संकलन प्रकाशित किया ‘बेहतर दुनिया की तलाश में’ (2007)।
सोवियत संघ के विघटन और शीतयुद्ध की समाप्ति से पहले मार्क्सवाद और यथार्थवाद में बदलाव और विकास की बात करना गलत और खतरनाक माना जाता था। लेकिन इसके बाद यह बात खुलकर होने लगी। कई ऐसी चीजें सामने आने लगीं, जो दबी रह गयी थीं। उदाहरण के लिए, 1930 के दशक में जर्मनी में यथार्थवाद संबंधी एक ‘‘महान बहस’’ चली थी, जिसमें अंर्स्ट ब्लॉख, जॉर्ज लुकाच, बर्टोल्ट ब्रेष्ट, वाल्टर बेंजामिन और थियोडोर एडोर्नो ने भाग लिया था। यह बहस 1980 में ‘एस्थेटिक्स एंड पॉलिटिक्स’ नामक संकलन में प्रकाशित हुई थी। उसका ‘उपसंहार’ फ्रेडरिक जेमेसन ने लिखा था, जिसमें उन्होंने ‘‘उत्तर-मार्क्सवादों’’ की चर्चा करते हुए कहा था कि इतिहास की उपेक्षा करने वाले ही उसे दोहराने के लिए अभिशप्त नहीं होते, पिछले दिनों जो तरह-तरह के ‘‘उत्तर-मार्क्सवाद’’ सामने आये हैं, वे भी इसी सत्य को सामने लाते हैं। ‘‘मार्क्सवाद के परे’’ जाने के प्रयासों का अंत ‘‘मार्क्सवाद के पहले’’ की स्थितियों में लौट जाने के रूप में सामने आ रहा है। ‘‘दबा दी गयी चीजों की वापसी’’ का जैसा नाटकीय रूप यथार्थवाद और आधुनिकतावाद के झगड़े की वापसी के रूप में दिख रहा है, अन्यत्र कहीं नहीं दिखता। लेकिन उस झगड़े में पड़े बिना हम नहीं रह सकते, चाहे आज हमें उसमें शामिल दोनों पक्षों में से एक भी पूरी तरह स्वीकार्य न लगता हो।
जेमेसन ने यह भी कहा था कि यथार्थवाद चीजों को समग्रता में देखता था, जबकि आधुनिकतावाद चीजों को विखंडित करके उन्हें ‘‘अपरिचित’’ बनाकर ‘‘नयी’’ बनाता था। मगर नयापन पैदा करने की यह आधुनिकतावादी तकनीक आज उपभोक्ताओं को पूँजीवाद से तालमेल बिठाकर चलना सिखाने की जानी-पहचानी तकनीक बन गयी है। उसमें कोई नयापन नहीं रहा। इसलिए अब नया कुछ करने के लिए विखंडन को भी ‘‘अपरिचित’’ बनाने का प्रयास किया जा रहा है। लगता है, अमूर्तन का एक चक्र पूरा हो चुका है और उसकी जगह यथार्थवाद की वापसी का समय आ गया है। मगर यथार्थवाद का भी ऐतिहासिक आधार संदिग्ध हो गया है, क्योंकि आधारभूत अंतर्विरोध स्वयं इतिहास के भीतर है और उसकी वास्तविकताओं को समझने के लिए हम जिन अवधारणाओं से काम लेते हैं, वे चिंतन के लिए एक पहेली बन जाती हैं। इससे जो संदेह पैदा होता है, बहुत मूल्यवान है। हमें उसी को पकड़ना चाहिए, क्योंकि उसी की संरचना में इतिहास का वह मर्म छिपा है, जिसे हम अभी तक समझ नहीं पाये हैं। जाहिर है, यह संदेह हमें यह नहीं बता सकता कि यथार्थवाद की हमारी अवधारणा क्या होनी चाहिए; फिर भी इसका अध्ययन हमारे ऊपर यह जिम्मेदारी अवश्य डालता है कि हम यथार्थवाद की एक नयी अवधारणा का आविष्कार करें। आज इस जिम्मेदारी को महसूस न करना असंभव है।
जेमेसन जिस नये यथार्थवाद की जरूरत पर जोर दे रहे थे, वह उनके विचार से उपभोक्ता समाज की उस शक्ति का प्रतिरोध करने वाला यथार्थवाद होना चाहिए था, जो मनुष्य और उसकी पूरी दुनिया को वस्तुओं में बदल देती है। उपभोक्ता समाज में यह शक्ति होती है कि वह मनुष्य के शारीरिक और मानसिक श्रम से उत्पन्न तमाम चीजों के साथ-साथ मनुष्य के विचारों, भावनाओं तथा संपूर्ण जड़ और चेतन जगत से उसके संबंधों को भी बेची और खरीदी जाने वाली चीजें बना दे। इस शक्ति का प्रतिरोध समग्रता में ही किया जा सकता है। आज के मानवीय जीवन तथा सामाजिक संगठन के सभी स्तरों पर चल रहे विखंडन को व्यवस्थित रूप से समाप्त करने के लिए चीजों को समग्रता में देखना और उन्हें समग्र रूप से बदलना आवश्यक है। नये यथार्थवाद की अवधारणा समग्रता की कोटि के आधार पर ही की जा सकती है; क्योंकि यही वह चीज है, जो वर्गों के बीच के संरचनात्मक संबंधों को सामने ला सकती है।
लगभग दो दशकों के बाद जेमेसन ने अपनी पुस्तक ‘अ सिंग्यूलर मॉडर्निटी : एस्से ऑन ओंटोलॉजी ऑफ प्रेजेंट’ (2002) में पुनः लिखा कि ‘‘प्रत्येक यथार्थवाद नया ही होता है...और यही कारण है कि समूचे आधुनिकतावादी युग में और उसके बाद भी दुनिया के कई हिस्सों तथा सामाजिक समग्रता के कई अंशों में नये और जीवंत यथार्थवादों की आहटें सुनायी पड़ती रही हैं, जिन्हें सुनना और पहचानना जरूरी रहा है। ...प्रत्येक नया यथार्थवाद न केवल अपने से पहले के यथार्थवादों की सीमाओं से असंतोष होने के कारण उत्पन्न होता है, बल्कि इस कारण भी, तथा अधिक आधारभूत रूप में इसी कारण से ही, उभरकर सामने आता है कि आम तौर पर यथार्थवाद स्वयं आधुनिकता की ठीक वही गतिशील नवीनता लिये रहता है, जिसे हम आधुनिकतावाद की अद्वितीय विशेषता मानते आये हैं।’’
इसके बाद ‘आर्कियोलॉजीज ऑफ दि फ्यूचर : दि डिजायर कॉल्ड यूटोपिया एंड अदर साइंस फिक्शंस’ (2005) में उन्होंने ‘‘भूमंडलीकरण के बाद के नयी पीढ़ी के तमाम वामपंथियों’’ को संबोधित करते हुए यथार्थवाद की उन समस्याओं को उठाया, जो नये सिरे से उठ खड़ी हुई थीं और जिन पर तुरंत ध्यान दिया जाना जरूरी था।
भूमंडलीकरण का वर्तमान दौर शुरू होते ही उत्तर-आधुनिकतावाद अपनी फैशनेबल चमक-दमक खोने लगा था और एक नये यथार्थवाद की जरूरत महसूस की जाने लगी थी। देखते-देखते यथार्थवाद संबंधी नयी पुस्तकें सामने आने लगीं, जैसे पीटर ब्रुक्स की ‘रियलिस्ट विजंस’ (2005) और मैथ्यू ब्यूमोंट द्वारा संपादित ‘एडवंेंचर्स इन रियलिज्म’ (2007)। यथार्थवाद की इस वापसी में समकालीन पूँजीवाद की बदलती संरचना से उत्पन्न समस्याओं का बड़ा हाथ था, जिन्होंने यथार्थ को समझने तथा उसे कला और साहित्य में चित्रित करने के नये तरीके निकालने के लिए एक तरफ चिंतकों तथा आलोचकों को और दूसरी तरफ कलाकारों और साहित्यकारों को प्रेरित किया। पूँजीवाद में आये बदलाव का ही शायद यह नतीजा था कि जहाँ पहले यथार्थवाद की चर्चा में इतिहास पर जोर दिया जाता था, अब राजनीतिक अर्थशास्त्र पर जोर दिया जाने लगा। भूमंडलीकरण ने इतिहास को नये ढंग से पढ़ना जरूरी बनाया, जिससे ‘‘इतिहास का भूमंडलीकरण’’ हुआ और ‘‘भूमंडलीकरण का इतिहास’’ सामने आया। इन दोनों चीजों का असर साहित्य पर और उसमें किये जाने वाले यथार्थ-चित्रण तथा आलोचनात्मक विवेचन पर पड़ना स्वाभाविक था।
उत्तर-आधुनिकतावादियों का सबसे ज्यादा जोर विखंडन पर रहा। उन्होंने जीवन, समाज और दुनिया को समग्रता में देखने, समझने और साहित्य में चित्रित करने के यथार्थवादी प्रयासों को इस आधार पर गलत, अनुचित और अवांछित बताया कि ऐसा करना असंभव है। उन्होंने कहा कि जीवन, समाज और दुनिया को ही नहीं, जिस कला और साहित्य में ये चित्रित या प्रतिबिंबित होते हैं, उसे भी विखंडन से या खंड-खंड करके ही समझा जा सकता है।
मार्क्सवादी रचनाकारों, आलोचकों तथा सिद्धांतकारों ने विखंडनवाद का खंडन करते हुए बार-बार कहा है कि द्वंद्ववाद के अनुसार एक समग्रता के भीतर जो अंतर्विरोध होते हैं, वे ही उस समग्रता को बनाते और बदलते हैं। मार्क्स ने समाज और विश्व की कल्पना एक ऐसी समग्रता के रूप में की थी, जिसमें मुख्य और ऐतिहासिक अंतर्विरोध शोषक और शोषित वर्गों के बीच है, इन वर्गों के बीच संघर्ष है और वह संघर्ष समाज और विश्व को बदल रहा है। अंततः यह बदलाव वहाँ तक जा सकता है, जहाँ समाज या विश्व नामक समग्रता में न वर्ग होंगे, न वर्ग-संघर्ष। फिर वह एक नयी ही समग्रता होगी, जिसके अपने नये अंतर्विरोध और संघर्ष हो सकते हैं, लेकिन वे वर्तमान पूँजीवादी विश्व-व्यवस्था के आमूलचूल बदल जाने के बाद के नये ही अंतर्विरोध और संघर्ष होंगे।
वर्तमान पूँजीवादी भूमंडलीकरण ने ज्यों ही यह संभावना दुनिया के लोगों के सामने रखी कि पूँजीवाद की ही तरह समाजवाद भी एक विश्व-व्यवस्था है और उसका भी भूमंडलीकरण हो सकता है, पूँजीवादी व्यवस्था के पैरोकारों ने एक तरफ समाजवाद के अंत, मार्क्सवाद के अंत, यथार्थवाद के अंत आदि की अलग-अलग घोषणाओं के साथ-साथ समग्र रूप में ‘‘इतिहास के अंत’’ की घोषणा कर दी, तो दूसरी तरफ समग्रता के विचार के ही विरुद्ध जंग छेड़ दी।
लेकिन 1990 के बाद से, जब से भूमंडलीकरण की प्रक्रिया और उसके आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि तमाम पक्षों पर ध्यान दिया जाने लगा, विभिन्न देशों के वामपंथी विद्वान भूमंडलीय यथार्थ को समग्रता में समझने की जरूरत पर जोर देने लगे। इससे पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के बारे में नया विचार-मंथन शुरू हुआ और एक ‘‘बेहतर दुनिया की तलाश’’ के प्रयासों के साथ-साथ यह आशाजनक नारा भी सामने आया कि ‘‘दूसरी और बेहतर दुनिया मुमकिन है’’। इससे यथार्थवाद को, जिसे उत्तर- आधुनिकतावादियों ने मृत घोषित कर दिया था, फिर से जीवंत और विचारणीय माना जाने लगा। यह विचार जोर पकड़ने लगा कि पूँजीवाद भूमंडलीय है, तो समाजवाद भी भूमंडलीय है। और अब ‘‘एक देश में समाजवाद’’ की जगह ‘‘संपूर्ण विश्व में समाजवाद’’ के बारे में सोचा जाना चाहिए तथा उसके लिए यथार्थवादी रणनीतियाँ बनायी जानी चाहिए।
आकस्मिक नहीं था कि मार्क्सवाद में लोगों की रुचि नये सिरे से पैदा होने लगी, सोवियत संघ के विघटन के संदर्भ में समाजवाद पर पुनर्विचार होने लगा, सोवियत समाजवाद की ऐतिहासिक भूलों और गलतियों से सबक लेते हुए सच्चे समाजवाद की दिशा में आगे बढ़ने की बातें होने लगीं और यथार्थवाद पुनः चर्चा का विषय बन गया।
उत्तर-आधुनिकतावाद ने साहित्य में यथार्थवाद के विरुद्ध विखंडन की जो रणनीति अपनायी, वह आलोचना के स्तर पर पाठ विश्लेषण की विखंडनवादी प्रवृत्ति के रूप में तथा रचना के स्तर पर अस्मितावादी राजनीति के रूप में काफी सफल रही। स्त्रियों, कालों, अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों आदि के लेखन को अलग और विशिष्ट बनाने के प्रयासों में एक तरफ अनुभववाद पर जोर देकर यथार्थवाद को, दूसरी तरफ भिन्नता पर जोर देकर समग्रता के विचार को और तीसरी तरफ स्थानीयता पर जोर देकर भूमंडलीयता के नये यथार्थ को खारिज किया गया। मगर अब रचना और आलोचना, दोनों स्तरों पर अपनायी गयी इस रणनीति की वास्तविकता इसके पीछे छिपे साम्राज्यवादी इरादों के साथ उघड़कर सामने आने लगी। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में कई वामपंथी भी यह समझने लगे थे कि उत्तर-संरचनावाद और विखंडनवाद उनके भी सरोकार हैं, अस्मितावादी राजनीति उनकी भी राजनीति है, लेकिन अब उनमें से कुछ महसूस करने लगे कि ये तो नव-उदार पूँजीवाद या बाजारवाद की भूमंडलीकरण से पहले की तैयारियों के उपक्रम थे।
कनाडाई पत्रकार नाओमी क्लाइन ने अपनी चर्चित पुस्तक ‘नो लोगो’ (2000) में व्यंग्यपूर्वक लिखा कि ‘‘हम दीवार पर प्रक्षेपित तस्वीरों का विश्लेषण करने में इतने व्यस्त थे कि खुद वह दीवार कब की बेची जा चुकी थी, यह देख ही नहीं पाये।’’ उत्तर-आधुनिकतावाद ने साहित्य, संस्कृति, विचार और राजनीति सभी स्तरों पर होने वाले प्रतिरोध को इस प्रकार विखंडित किया कि भूमंडलीय पूँजीवाद और अमरीकी साम्राज्यवाद के हौसलों का बुलंद हो जाना स्वाभाविक था। डेविड हार्वी ने ‘दि न्यू इंपीरियलिज्म’ (2003) में ‘न्यू यॉर्क टाइम्स’ के एक मुख्य समाचार का शीर्षक उद्धृत किया है--‘‘अमेरिकन एंपायर: गैट यूज्ड टु इट!’’ मानो अमरीका सारी दुनिया के लोगों से कह रहा हो कि हाँ, मैं हूँ अमरीकी साम्राज्यवाद! तुम मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते, इसलिए मेरे अधीन रहने की आदत डालो!
ऐसी स्थितियों के निर्माण में भूमंडलीकरण से पहले की उस शीतयुद्ध वाली राजनीति का भी बड़ा हाथ था, जिसके चलते यथार्थवाद और आधुनिकतावाद वैश्विक राजनीति की शतरंज के ऐसे घिसे-पिटे मोहरे बन गये थे कि उनके नाम पर साहित्य, कला और संस्कृति में कोई नवोन्मेष हो पाना असंभव हो गया था। पूँजीवादी खेमे में पश्चिम के यथार्थवादी लेखकों को भी आधुनिकतावादी घोषित किया जाता था, जबकि समाजवादी खेमे में पूर्व के आधुनिकतावादी लेखक भी यथार्थवादी माने जाते थे। फिर, वहाँ ‘समाजवादी यथार्थवाद’ का राजनीतिक इस्तेमाल तो किया गया (जैसे उसके समर्थक लेखकों को मान-सम्मान देना और उसके विरोधियों को दंडित करना), लेकिन रचना और आलोचना से उसका कोई सच्चा संबंध नहीं बनाया गया। अतः सोवियत संघ के विघटन के बाद ही यथार्थवाद का मार्क्सवादी विश्लेषण फिर से शुरू हो पाया और चूँकि यह वर्तमान भूमंडलीकरण के आरंभ होने का समय था, इसलिए यथार्थवादी लेखकों का ध्यान स्थानीय यथार्थ के साथ-साथ भूमंडलीय यथार्थ पर भी गया और जब यह स्पष्ट दिखने लगा कि स्थानीय यथार्थ भूमंडलीय यथार्थ का ही अंग है, तो समग्रता के विचार ने जोर पकड़ा और उत्तर-आधुनिकतावादी विखंडनवाद की मार्क्सवादी आलोचना ने उसकी सीमाएँ और असंगतियाँ उजाकर करना शुरू कर दिया।
समग्रता की अवधारणा में भी इस बीच काफी बदलाव और विकास हुआ था। हालाँकि मार्क्सवादी चिंतन में पूँजीवादी विश्व-व्यवस्था की जगह भविष्य की समाजवादी विश्व-व्यवस्था का विचार पहले से मौजूद था (जिसकी अभिव्यक्ति सर्वहारा अंतरराष्ट्रीयतावाद के सिद्धांत और ‘‘दुनिया के मजदूरो एक हो’’ के नारे में होती थी), लेकिन सोवियत शासन के दौरान ‘‘एक देश में समाजवाद’’ के विचार ने अंतरराष्ट्रीयतावाद की जगह राष्ट्रवाद पर अनावश्यक और ऐतिहासिक रूप से गलत जोर डालकर समग्रता की अवधारणा को सीमित कर दिया था। सोवियत संघ के विघटन और वर्तमान पूँजीवादी भूमंडलीकरण ने समग्रता की सीमित (राष्ट्रीय अथवा ‘स्थानीय’) अवधारणा को पुनः व्यापक (अंतरराष्ट्रीय अथवा ‘भूमंडलीय’) बना दिया। इस प्रकार यथार्थ को ‘स्थानीय’ से आगे बढ़ाकर ‘भूमंडलीय’ के रूप में देखना जरूरी और संभव हो गया।
फ्रेडरिक जेमेसन ने समग्रता की ‘‘वापसी’’ के साथ-साथ यथार्थ की ‘‘व्याप्ति’’ का विचार भी फिर से प्रस्तुत किया, जिसे वे ‘मार्क्सिज्म एंड फॉर्म’ (1971) में पहले ही व्यक्त कर चुके थे। उनका कहना था कि ‘‘यथार्थवाद इतिहास के किसी खास क्षण में परिवर्तन की शक्तियों तक पहुँचने की संभावना पर निर्भर करता है।’’ हालाँकि वे भूमंडलीकरण को एक ऐसी स्थिति मानते हैं, जो इस संभावना को बाधित करती है, लेकिन उनके विचार से आज नहीं तो कल यह संभावना साकार हो सकती है।
इसका अर्थ यह हुआ कि पूँजीवादी भूमंडलीकरण ही यथार्थ नहीं है, एक संभावना के रूप में समाजवादी भूमंडलीकरण भी यथार्थ है। यथार्थवाद की इस समझ से साहित्य की रचना में ‘‘यथार्थवादी पद्धति’’ को ही अपनाना (अर्थात् यूटोपिया, डिस्टोपिया, रूपक, फैंटेसी वगैरह को यथार्थवादी रचना के लिए त्याज्य समझना) आवश्यक नहीं रहता और यथार्थवादी रचना उन रूपों में भी की जा सकती है, जो आधुनिकतावादी माने जाने के कारण यथार्थवादियों के लिए त्याज्य समझे जाते थे। जेमेसन ने ‘‘समकालीन विश्व के थके हुए यथार्थवाद’’ की तुलना में ‘साइंस फिक्शन’ (विज्ञान कथाओं) को ‘‘अधिक विश्वसनीय सूचना लौटाकर लाने वाला’’ बताकर रचना के रूप के स्तर पर नये यथार्थवाद की संभावनाओं की ओर संकेत किया। मगर इसका मतलब न तो यह था कि वर्तमान भूमंडलीकरण के दौर में यथार्थवाद के सभी पुराने रूप ‘‘थके हुए यथार्थवाद’’ के रूप हो चुके हैं और न यह कि आधुनिकतावादी सभी रूप यथार्थवादी रचना के लिए स्वीकार्य हो गये हैं। हाँ, इसका यह मतलब जरूर था कि भूमंडलीकरण के वर्तमान दौर में यथार्थवाद पुराने ढंग का यथार्थवाद नहीं, एक नये ही ढंग का यथार्थवाद होगा और होना भी चाहिए।
मार्क्सवादी आलोचना और सौंदर्यशास्त्र के सामने आज प्रश्न यह है कि इक्कीसवीं सदी के भूमंडलीकरण के सामने यथार्थवाद- विरोधी तमाम साहित्यिक प्रवृत्तियों के विरुद्ध यथार्थवाद की क्या भूमिका और क्या रणनीति होनी चाहिए। यथार्थवादी रचनाकार और मार्क्सवादी आलोचक आज इस प्रश्न का एक ही उत्तर देते दिखते हैं: यथार्थवाद में एक नवोन्मेष जरूरी है। यह नवोन्मेष कब और कैसे होगा, कहा नहीं जा सकता, लेकिन यह एक सतत प्रक्रिया है, जो यथार्थवाद के उदय से आज तक निरंतर जारी है।
टेरी ईगल्टन ने ‘मार्क्सिस्ट लिटरेरी थियरी’ (1996) में मार्क्सवादी आलोचना के चार परंपरागत क्षेत्र बताये थे--1. मानव- विज्ञानी आलोचना, 2. राजनीतिक आलोचना, 3. विचारधारात्मक आलोचना, और 4. आर्थिक आलोचना। इन सभी क्षेत्रों में काम करने वाले विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से यथार्थवादी चिंतन को आगे बढ़ाया है, लेकिन फ्रेडरिक जेमेसन शायद अकेले ऐसे विद्वान हैं, जिन्होंने यथार्थवाद की अपनी अवधारणा इन चारों क्षेत्रों में विकसित की गयी यथार्थवाद की समझ से निर्मित की है। उनके यथार्थवाद संबंधी चिंतन में मार्क्सवादी आलोचना के ये सभी रूप एक साथ शामिल हैं। इसीलिए उससे (1) यथार्थवाद के ऐतिहासिक प्रादुर्भाव, (2) यथार्थवाद की सौंदर्यशास्त्रीय तथा ज्ञानमीमांसात्मक शक्तियों, (3) यथार्थवाद के राजनीतिक उपयोगों तथा उनकी सीमाओं-संभावनाओं और (4) इतिहास के किसी खास दौर में उत्पादन के तरीके के अनुसार बनते-बदलते सांस्कृतिक परिदृश्य में यथार्थवाद की स्थिति और भूमिका से जुड़े सभी सवाल एक साथ सामने आते हैं, जिन पर विचार करना आज यथार्थवाद के विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है।
जेमेसन ने यथार्थवाद पर अलग से कोई विशेष अध्ययन प्रस्तुत नहीं किया, लेकिन लगभग तीन दशकों तक अपने लेखन में जगह-जगह यथार्थवाद से संबंधित सवालों से जूझते हुए उसकी नयी संभावनाओं का पता लगाया। इसके लिए वे बार-बार जॉर्ज लुकाच के पास गये, उनसे प्रेरित हुए, उनसे सीखा और उनसे टकराये भी; क्योंकि लुकाच ने साहित्य के रूपों और ऐतिहासिक शक्तियों के संबंध को समग्रता में देखा था और यथार्थवाद का एक सामान्य सिद्धांत निर्मित करने का प्रयास किया था। जेमेसन समग्रता की अवधारणा को जाँचने-परखने और विकसित करने के लिए रह-रहकर उसकी ओर लौटे और उन्होंने पाया कि समग्रता के आधार पर ही रचना और आलोचना में यथार्थवादी होना संभव है।
समग्रता का अर्थ यह नहीं है कि यथार्थ में जो कुछ है, या जितना दिखता है, वह सब चित्रित कर दिया जाये। यह असंभव है और आवश्यक भी नहीं। अतः समग्रता यथार्थवादी रचना के रूप या उसकी शैली (अथवा चित्रण की पद्धति) में नहीं, बल्कि रचनाकार की दृष्टि में होती है। वह यथार्थ का चाहे एक छोटा- सा अंश ही प्रस्तुत करे--जैसे किसी एक चरित्र के रूप में--लेकिन उसकी नजर उसे समग्रता में देखने वाली होनी चाहिए। अर्थात् रचना में चित्रित यथार्थ का एक अंश संपूर्ण यथार्थ के अंश के रूप में चित्रित होना चाहिए, न कि उस संपूर्णता को खंडित करके पाये गये उसके एक अंश को ही संपूर्ण मानकर।
उदाहरण के लिए, वर्तमान समाज या उसके किसी प्रातिनिधिक चरित्र को चित्रित करते समय रचनाकार उसके वर्तमान को तो देखता ही है, ऐतिहासिक दृष्टि से उसके अतीत और भविष्य को भी देखता है। आधुनिकतावादी तथा उत्तर-आधुनिकतावादी लोगों के लिए उस चरित्र के अतीत का कुछ अर्थ भले ही हो, उसके भविष्य का कोई अर्थ नहीं होता; क्योंकि उनके लिए भविष्य तो अनागत है और जो अभी आया ही नहीं है, जिसका अस्तित्व ही नहीं है, वह यथार्थ कैसे हो सकता है! भविष्य के बारे में सोचने, उसकी कल्पना करने, उसका कोई आदर्श सामने रखकर उसकी प्राप्ति के प्रयास करने या साहित्य में उसे चित्रित करने को वे एक ‘यूटोपिया’ (अयथार्थ, कल्पनालोक या असंभव आदर्श) मानते हैं। लेकिन लुकाच और जेमेसन दोनों यथार्थवाद को समग्रता में अर्थात् अतीत-वर्तमान-भविष्य को एक साथ ध्यान में रखने से बनी दृष्टि के रूप में देखते हैं। लुकाच ने यथार्थ के चित्रण में ‘‘समग्रता के प्रश्न की निर्णायक भूमिका’’ बतायी थी। जेमेसन ने उसमें एक नैतिक आयाम भी जोड़ा और ‘यूटोपिया’ को अयथार्थ नहीं, बल्कि यथार्थ ही मानते हुए ‘मार्क्सिज्म एंड फॉर्म’ में कहा :
‘‘मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य तो उस ‘यूटोपिया’ तक ही पहुँचना है, जहाँ जीवन और उसका अर्थ पुनः अविभाज्य हो जायेंगे, इसमें मनुष्य और विश्व एकमत हो जायेंगे। लेकिन यह भाषा अमूर्त है और ‘यूटोपिया’ कोई विचार नहीं, बल्कि एक ‘विजन’ (दृष्टि) है। अतः वह अमूर्त चिंतन नहीं, बल्कि स्वयं आख्यान ही है, जो समस्त ‘यूटोपियाई’ गतिविधि को प्रमाणित करने का आधार है, और महान उपन्यासकार ‘यूटोपिया’ की समस्याओं का ठोस निरूपण प्रस्तुत करते हैं।’’
लुकाच ने आख्यान और समग्रता के बीच का संबंध खोजा था। जेमेसन ने उस खोज को आगे बढ़ाते हुए ‘यूटोपिया’ को भावी समाजवादी विश्व-व्यवस्था के रूप में देखा और बताया कि आज जो ‘यूटोपिया’ अयथार्थ, कल्पनालोक या असंभव आदर्श लगता है, उसके भविष्य में साकार होने की संभावना को यथार्थ मानकर चलना यथार्थवादी लेखकों का एक राजनीतिक कार्यभार ही नहीं, बल्कि एक नैतिक दायित्व भी है।
जेमेसन ने काल की अवधारणा से जुड़े यथार्थवाद को ‘‘ऐतिहासिक यथार्थवाद’’ कहा है। इससे उनका आशय उन्नीसवीं सदी के बाल्जाक, स्कॉट, डिकेंस आदि के कथासाहित्य में पाये जाने वाले यथार्थवाद से है। जेमेसन के सामने ही नहीं, पश्चिम के प्रायः सभी मार्क्सवादी आलोचकों के सामने यह समस्या रही है कि बुर्जुआ वर्ग के सत्तारोहण के समय की क्रांतिकारी परिस्थिति में उदित हुए उस यथार्थवाद की परंपरा को वर्तमान समय में कैसे आगे बढ़ाया जाये। ‘‘ऐतिहासिक यथार्थवाद’’ के उदय के पहले तक यह माना जाता था कि सामाजिक यथार्थ का चित्रण करने वाले साहित्य का संबंध ज्ञानमीमांसा से तो है, किंतु सौंदर्यशास्त्र से नहीं। दूसरे शब्दों में, यथार्थवादी साहित्य ‘ज्ञान’ तो दे सकता है, ‘आनंद’ नहीं दे सकता। ‘‘ऐतिहासिक यथार्थवाद’’ ने दावा किया, जिसे बाल्जाक, स्कॉट, डिकेंस आदि के साहित्य ने सत्य भी सिद्ध किया कि वह निरा ज्ञानात्मक नहीं, सौंदर्यात्मक भी है।
हिंदी में प्रेमचंद ने आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की अवधारणा के जरिये तथा मुक्तिबोध ने ज्ञानात्मक संवेदन और संवेदनात्मक ज्ञान की अपनी कोटियों के जरिये यही दावा पेश किया था और अपनी रचनाओं में चरितार्थ भी किया था।
जेमेसन ने ‘दि पॉलिटिकल अनकांशस : नैरेटिव ऐज अ सोशली सिंबॉलिक एक्ट’ (2002) में यथार्थवाद की ज्ञानात्मक और सौंदर्यात्मक दोनों तरह की उपलब्धियों को देखा। यह मानते हुए भी कि उन्नीसवीं सदी का-सा ‘‘ऐतिहासिक यथार्थवाद’’ बीसवीं सदी के पूँजीवाद के अंतर्गत संभव नहीं है, उन्होंने उसकी परंपरा को नये रूप में आगे बढ़ाना संभव, उचित और आवश्यक बताया। परंपरा को आगे बढ़ाने का मतलब पुराने लेखकों की रचना-पद्धति या शैली की नकल करना नहीं है। वर्तमान परिस्थिति में यदि कोई ‘‘ऐतिहासिक यथार्थवाद’’ की माँग करता है, तो उसे ‘‘वल्गर लुकाचवादी’’ ही कहा जा सकता है। इस माँग का मजाक उड़ाते हुए ब्रेष्ट ने अपने लेख ‘ऑन दि फॉर्मलिस्टिक कैरेक्टर ऑफ दि थियरी ऑफ रियलिज्म’ में व्यंग्यपूर्वक कहा था--‘‘बाल्जाक जैसे बनो--मगर अपटूडेट बाल्जाक!’’ जेमेसन ने ‘‘लेट कैपिटलिज्म’’ के दौर में पुराने ‘‘ऐतिहासिक यथार्थवाद’’ की तुलना भाप के इंजन से करते हुए टर्बाइन के दौर में नये यथार्थवाद की जरूरत बतायी।
जेमेसन का यह ‘‘टर्बाइन का दौर’’ उत्तर-आधुनिकतावाद का दौर था। इस दौर के बारे में उन्होंने एक प्रकार की निराशा व्यक्त करते हुए कहा कि आज की दुनिया इतनी ‘केऑटिक’ (अस्तव्यस्त) हो गयी है कि उसे समग्रता में देखना और चित्रित करना असंभव हो गया है। लेकिन उन्होंने नये यथार्थवादों के पैदा होने की संभावना बताते हुए अपने आशावाद का परिचय तो दिया ही, उत्तर-आधुनिकतावादी विखंडन के विरुद्ध समग्रता की अवधारणा में विश्वास भी व्यक्त किया। उन्होंने नये यथार्थवादों की संभावना ही नहीं, आवश्यकता भी बतायी और कहा कि आज के पूँजीवादी भूमंडलीकरण के दौर में यथार्थवाद को एक राजनीतिक लक्ष्य और कार्यक्रम के रूप में देखा जाना चाहिए। इसके लिए उन्होंने यथार्थवाद के नवीनीकरण की बात की और कहा कि आज का यथार्थवाद अपनी पुरानी परंपरा से बहुत कुछ ग्रहण करते हुए भी एक नया यथार्थवाद होगा। बल्कि एक नहीं, अनेक यथार्थवाद होंगे, जिनका आविष्कार किया जाना है।
मगर कैसे? इस प्रश्न का उत्तर खोजते हुए जेमेसन उत्तर-आधुनिकतावाद के संदर्भ में भूमंडलीकरण की जाँच-पड़ताल करते हैं और यहाँ उन्हें उत्तर-आधुनिकतावादी विखंडन की काट करने वाली समग्रता दिखायी देती है। साथ ही दिखायी देते हैं ‘साइंस फिक्शन’ और ‘साइबर पंक’ में यथार्थवाद के नये रूप। विज्ञान कथाएँ उन्हें भूमंडलीकरण के समग्र रूप को सामने लाने में और कंप्यूटर के ज्ञान से अनोखे काम कर डालने की कहानियाँ ‘‘उभरते भूमंडलीकरण के सत्य की लगभग पूरी अभिव्यक्ति’’ करने में समर्थ लगती हैं।
लेकिन मेरे विचार से नये यथार्थवाद या यथार्थवादों का आविष्कार इतना आसान नहीं है। जेमेसन ने ‘साइंस फिक्शन’ और ‘साइबर पंक’ में, उदाहरण के तौर पर ही सही, उसकी जो संभावना व्यक्त की है, वह ज्यादा विश्वसनीय नहीं है; क्योंकि एक तो वह वर्तमान भूमंडलीय यथार्थ को बदलने की जरूरत और संभावना के आधार पर नहीं, बल्कि वह जैसा भी है, उसी में नये यथार्थ के आविष्कार की बात करती है; दूसरे, वह रचना के रूप तक ही सीमित है, उसके वस्तुतत्त्व की बात नहीं करती। ‘साइंस फिक्शन’ और ‘साइबर पंक’ के रूपों में यथार्थवादी ही नहीं, यथार्थवाद-विरोधी रचनाएँ भी बड़े मजे में की जा सकती हैं। उदाहरण के लिए नवीनतम तकनीक वाली विज्ञान कथाओं तथा अमरीकी फिल्मों को देखा जा सकता है। अतः नये यथार्थवाद के आविष्कार के प्रश्न को रचना के रूप तक सीमित करके नहीं, बल्कि उसके वस्तुतत्त्व और परिप्रेक्ष्य तक फैलाकर देखना जरूरी है।
मैंने भूमंडलीय यथार्थ के बारे में तभी से सोचना शुरू कर दिया था, जब अपनी पुस्तक ‘आज का पूँजीवाद और उसका उत्तर- आधुनिकतावाद’ (1999) में संकलित निबंध लिखे थे। उसके बाद लिखे गये मेरे निबंध जैसे ‘साहित्य में फैशन और नवोन्मेष’, ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की जरूरत’, ‘रूढ़ सोच के साँचों को तोड़ना जरूरी’, ‘आगे की कहानी’, ‘हिंदी में विज्ञान कथाएँ क्यों नहीं हैं?’ इत्यादि भूमंडलीय यथार्थ को ही ध्यान में रखकर लिखे गये थे। अंततः ‘भूमंडलीय यथार्थवाद’ नामक निबंध में भूमंडलीय यथार्थवाद की मेरी अवधारणा विकसित होकर सामने आयी। (ये सभी निबंध 2008 में प्रकाशित मेरे साहित्यिक निबंधों के संग्रह ‘साहित्य और भूमंडलीय यथार्थ’ में संकलित हैं।) भूमंडलीय यथार्थवाद की मेरी अवधारणा संक्षेप में यह है:
आज की दुनिया का सबसे अहम प्रश्न है: क्या पूँजीवाद की वैश्विक व्यवस्था की जगह कोई और वैश्विक किंतु बेहतर व्यवस्था संभव है? यदि हाँ, तो उसकी रूपरेखा क्या है और वह व्यवस्था किन आधारों पर, किन शक्तियों के द्वारा और किन तरीकों से बनायी जा सकती है? इस प्रश्न का उत्तर भूमंडलीय यथार्थवाद के आधार पर ही दिया जा सकता है, क्योंकि इसका उत्तर देने के लिए यह आवश्यक है कि आज की दुनिया के यथार्थ को भौगोलिक के साथ-साथ ऐतिहासिक दृष्टि से भी देखा जाये और ऐतिहासिक दृष्टि को केवल अतीत को देखने वाली दृष्टि नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य को भी देखने वाली ऐसी सर्जनात्मक दृष्टि मानकर चला जाये, जो आने वाले कल की बेहतर दुनिया बनाने के लिए हमें आज ही प्रेरित और सक्रिय कर सके।
हिंदी साहित्य में यह मान्यता न जाने कब से और क्यों चली आ रही है कि यथार्थ और कल्पना परस्पर-विरोधी हैं। मेरा कहना यह है कि यथार्थवाद कल्पना का निषेध नहीं करता। सृजनशील कल्पना तो यथार्थवादी रचना के लिए अपरिहार्य है, क्योंकि वह जिस ‘यूटोपिया’ अथवा भविष्य के स्वप्न को साकार करने के लिए की जाती है, वह सृजनशील कल्पना के बिना साकार हो ही नहीं सकता--न रचना में, न यथार्थ में। कारण यह है कि यथार्थवादी रचना के लिए इतिहास का बोध, वर्तमान का अनुभव और भविष्य का स्वप्न आवश्यक है। और आवश्यक है वह परिप्रेक्ष्य, जो इन तीनों के मेल से बनता है। जाहिर है कि ऐसा यथार्थवाद--रचनाकार के जाने या अनजाने, चाहे या अनचाहे--एक समाजवादी परियोजना है, क्योंकि भविष्य का स्वप्न पूँजीवादी व्यवस्था में समाजवाद ही हो सकता है। चाहे भविष्य में उसका नाम और रूप कुछ और ही हो जाये, आज वह पूँजीवाद का निषेध है और उसके परे जाने का प्रयत्न।
ठीक इसी कारण आज का पूँजीवाद यथार्थवाद का विरोधी है। यथार्थवाद के विकास को तरह-तरह से बाधित करना, उसे तरह-तरह से बदनाम करना, यथार्थवादियों को उपेक्षित या दंडित करना तथा तमाम प्रत्यक्ष और परोक्ष तरीकों से उनका दमन करना पूँजीवादी राजनीति का आवश्यक अंग है।
मगर यह राजनीति अक्सर अराजनीतिक प्रतीत होने वाले रूपों में की जाती है। मसलन, यथार्थवाद की जगह अनुभववाद पर जोर देना, यूटोपिया का मजाक उड़ाना, उसे असंभव बताकर खारिज करना, भविष्य के स्वप्न देखने-दिखाने वाले यथार्थवादियों को स्वप्नजीवी, आदर्शवादी या गैर-यथार्थवादी सिद्ध करना, साहित्य को ‘‘वादमुक्त’’ तथा ‘‘राजनीति से दूर’’ रखने की सलाहें देना इत्यादि। ये अराजनीति की राजनीति के विभिन्न रूप हैं। लेकिन इसके बावजूद आज दुनिया भर में जो साहित्य लिखा जा रहा है, वह अधिकांशतः यथार्थवादी है और नये-नये यथार्थवादी रूपों में लिखा जा रहा है।
कुछ लोग इसे ‘‘यथार्थवाद की वापसी’’ कह रहे हैं। लेकिन वह कहीं चला नहीं गया था। बस, यथार्थवाद-विरोध के शोर-शराबे में उसकी आवाज कुछ कम सुनायी पड़ रही थी। मगर अब जबकि वह शोर-शराबा कम हुआ है, उसकी आवाज साफ सुनायी पड़ रही है। हाँ, उसका रूप कुछ बदला-बदला और नया-नया-सा दिखता है, क्योंकि इस बीच बदलते रहे यथार्थ के मुताबिक उसका रूप भी बदलता रहा है।
--रमेश उपाध्याय
No comments:
Post a Comment