Monday, July 12, 2010

सोशल नेटवर्किंग

आभासी दुनिया का रिश्ता वास्तविक दुनिया से कैसे जोड़ें?

चंद रोज़ ही हुए हैं मुझे फेसबुक पर आये हुए, मगर लगता है कि हम जो यह सोशल नेटवर्किंग कर रहे हैं, शायद इस मुगालते में कर रहे हैं कि इससे हमारी दुनिया बड़ी हो रही है; जबकि वास्तव में वह सिकुड़ रही है या सिकुड़ चुकी है। हम वास्तविक दुनिया से, जीते-जागते लोगों से और प्रकृति में सर्वत्र व्याप्त जीवन की धड़कनों से दूर एक आभासी दुनिया में कैद हो गये हैं। और हम कर क्या रहे हैं? अभी हाल ही में मैंने कहीं पढ़ा कि social networking is "the intersection of narcissism, attention deficit disorder and stalking"

क्या हम इस माध्यम का उपयोग वास्तविक दुनिया के उन जीते-जागते लोगों तक पहुँचने के लिए कर सकते हैं, जिनके पास जाकर हम उनसे हाथ मिला सकें, गले मिल सकें, आमने-सामने बैठकर चाय-कॉफी पीते हुए बातचीत कर सकें, हँसी-मज़ाक और धौल-धप्पा कर सकें, लड़-झगड़ सकें और मिल-जुलकर कोई सार्थक काम करने की सोच सकें?

--रमेश उपाध्याय

2 comments:

  1. बहुत गम्भीर सवाल है।
    मुझे कथादेश में छ्पी अपनी एक ग़ज़ल का शेर याद आता है
    -


    सिमटने लगीं दूरियाँ जब
    फ़ासले तमाम लिखता हूँ

    ये सोशल नेटवर्किंग भी कुछ ऐसी ही है - आभासी दुनिया के रिश्तों में दूरियाँ घट रहीं हैँ और वास्तविक दुनिया के रिश्तो में फ़ासले बढ रहे हैं यहाँ तक कि खून के रिश्तों में भी...। यह विचारणीय है।

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  2. yaksh prashn
    har maadhyan ke saath kuchh n kuchh buraiyaan judi hi rahti hai. prashan yah hai ki kis prakar se iski achaaiyon ko samne laaya jae aur iski buraiyaan se logon ko door kiya jae. kyonki yah ek beemari bhi hai, jismein aap lagatar ek aisi duniya mein jeene ko baadhy hote jate hai joki aapki vaastvij duniya nahi hai.
    saath hi iske maadhyam, se aap bahut hi saarthak samvaad bhi kar sakte hai, usse auro ko bhi jod sakte hai. kisi bhi mahatti suchna ko ek saath saajhi kar sakte hai.
    pranaam.

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