Sunday, August 22, 2010

यह केवल लेखिकाओं की लड़ाई नहीं है

कभी-कभी ‘बाँटो और राज करो’ के सिद्धांत पर चलने वाली व्यवस्था के विरुद्ध जनतांत्रिक शक्तियों को एकजुट होने के अवसर अनायास मिल जाते हैं। लेकिन अपने ही भीतर की नासमझी के चलते वे उन अवसरों को गँवा देती हैं। राय-कालिया प्रसंग में कुछ ऐसी ही दुर्घटना घटित होती दिखायी पड़ रही है।

‘नया ज्ञानोदय’ में छपे विभूति नारायण राय के साक्षात्कार में लेखिकाओं के लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किये जाने से लेखिकाओं ने ही नहीं, बहुत-से लेखकों ने भी स्वयं को आहत-अपमानित अनुभव किया और राय के साथ-साथ संपादक रवींद्र कालिया के विरुद्ध भी आवाज उठायी। जबसे हिंदी में ‘स्त्री विमर्श’ चला है, कई लेखिकाएँ पुरुष मात्र को स्त्री-विरोधी या शत्रु मानने वाला स्त्रीवाद चलाती आ रही हैं, जिससे उन्हें साहित्य में एक पहचान मिली है, लेकिन स्त्रीवादी और आम जनवादी साहित्य कमजोर हुआ है। राय-कालिया प्रसंग में यह बात उभरकर सामने आयी कि पुरुष भी स्त्रीवादी हो सकते हैं और स्त्रियों के अपमान के विरोध में उनके साथ खड़े होकर न केवल स्त्री आंदोलन को, बल्कि जनवादी आंदोलन को भी मजबूत बनाने वाली एकजुटता कायम कर सकते हैं।

हम सभी को इस एकजुटता को बनाये रखने तथा बढ़ाने के प्रयास करने चाहिए। लेकिन ऐसा लगता है कि कुछ लेखिकाओं ने इस महत्त्वपूर्ण तथ्य पर ध्यान ही नहीं दिया है। ऐसा भी हो सकता है कि उन्होंने या तो इसका महत्त्व ही न समझा हो, या इससे अपने ‘स्त्री विमर्श’ और उसके कारण साहित्य में बनी अपनी विशिष्ट स्थिति को खतरे में पड़ते समझकर इसकी उपेक्षा करते हुए अपना पुरुष मात्र का विरोधी ‘‘एकला चलो रे’’ वाला राग अलापना शुरू कर दिया हो। 19 अगस्त के ‘दि हिंदू’ नामक अंग्रेजी दैनिक में मृणाल पांडे ने और 20 अगस्त के हिंदी दैनिक ‘जनसत्ता’ में अनामिका ने जो लिखा है, उससे ऐसा ही लगता है। दोनों के लेख पढ़कर लगता है कि जैसे उन्हें इस पूरे प्रकरण में पुरुष लेखकों की भूमिका का या तो पता ही नहीं है, या फिर वे उसे एकदम नगण्य और उपेक्षणीय मानकर चल रही हैं।

निंदनीय राय-कालिया प्रसंग में, मेरे विचार से, सबसे अच्छी बात यह हुई है कि लेखिकाओं के अपमान के विरुद्ध बहुत-से लेखकों ने भी आवाज उठायी। यह उस ‘स्त्री विमर्श’ से आगे की चीज है, जिसमें पुरुष मात्र को स्त्रियों का शत्रु माना जाता है। यह पितृसत्ता, राज्यसत्ता और पूंजी की सत्ता के विरुद्ध स्त्री-पुरुष एकजुटता की दिशा में उठा एक स्वागतयोग्य कदम है। अब हमारा प्रयास होना चाहिए कि यह एकजुटता बनी रहे और बढ़ती रहे।

--रमेश उपाध्याय

5 comments:

  1. पक्‍के तौर पर यह लड़ाई व्‍यक्ति विशेष के विरूद्ध एक सीमा तक ही लड़ी जा सकती है। सही मायने में तो यह मानसिकता की लड़ाई है। उसे आगे बढ़ाना चाहिए। निसंदेह राय-कालिया प्रसंग निदंनीय है।

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  2. स्त्री विमर्श यदि मनुष्य की मुक्ति की लड़ाई से अलग है तो उस का कोई अर्थ नहीं है। इसी तरह स्त्री-मुक्ति मनुष्य़ की मुक्ति का एक अनिवार्य अंग है।

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  3. आपने सही लिखा है. यह लड़ाई वास्तव साहित्य की मठाधीशी के खिलाफ भी है.

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  4. सर मैं आपकी बात से पूरा इत्तेफाक रखता हूँ. आपने कथन के अनेक अंकों में इससे पहले भी स्त्री मुक्ति की संकुचित अवधारणा का विरोध किया है . स्त्री मुक्ति को मात्र पुरुष से मुक्ति से आगे जा कर अनेक प्रकार के संकुचित दायरों से बाहर जाना होगा. वास्तव में राय - कालिया की जुगल जोड़ी ने मात्र उस विचार और अवधारणा के जीवित होने को रेखांकित किया है जिसके अनुसार स्त्री को गाली देना कोई बड़ा अपराध नहीं माना जाता . इस प्रकार की मानसिकता का विरोध करते हुए यह भी देखना चाहिए कि भारतीय सन्दर्भों में हमें अपने पूरे समाज के बारे में अनेक दृष्टिकोणों से देखना होगा

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  5. एकला चलो रे का राग अलाप कर कुछ लोग खुद की साख तो बटोर सकते हैं,पर बडे स्तर पर यह उस पूरे आंदोलन को क्षीण बनाने का काम करता है जिसका मकसद इस देश में नारी के प्रति पुरुषवादी मानसिकता में बदलाव लाना है।

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