Saturday, September 25, 2010

कहाँ है जनता जनार्दन?

कल (24 सितंबर, 2010) के दैनिक ‘जनसत्ता’ में अरुण कुमार पानीबाबा का लेख छपा है, ‘खेल-कूद और नौकरशाह’, जिसमें बताया गया है कि दिल्ली में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में एक लाख करोड़ रुपये का घोटाला हो चुका है। लिखा है--‘‘आम सूचनाओं के मुताबिक 2002 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार ने खेल समारोह की स्वीकृति दी, तब 617.5 करोड़ रुपये खर्च का अनुमान था। 2004 से अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री ने मजबूत अर्थव्यवस्था के लिए महँगाई में दुगनी-तिगुनी वृद्धि की, तो लागत बढ़कर दो हजार करोड़ तक हो जाना लाजमी था। फिर पता चला कि 2008 में संशोधित अनुमान सात हजार करोड़ का हो गया था। अगले बरस 2009 में प्रमुख लेखाकार के हिसाब से तेरह हजार करोड़ रुपये का प्रावधान हो गया था। अब दो शोधकर्ताओं ने विभिन्न सूत्रों से विविध आँकड़े जुटाकर सत्तर हजार छह सौ आठ करोड़ का आँकड़ा नाप-तोलकर प्रस्तुत कर दिया।’’

आगे लिखा है--‘‘हमारे संकुचित विवेक की समस्या यह है कि इन आँकड़ों पर विश्वास कर लें, तो यह कैसे बूझें कि इतनी बड़ी रकम बिना ‘बजट’ आयी कहाँ से? और अगर प्रावधान करके खर्च की गयी है, तो क्या बजट सत्र में पूरी संसद सो रही थी? और किन्हीं अंतरराष्ट्रीय स्रोतों से ऋण लिया गया, तो यह काम गुपचुप कैसे होता रहा? यह विश्वास भी नहीं होता कि भारत सरकार ने सब कुछ अनधिकृत तौर पर कर लिया होगा।’’

इसके पहले एक जगह लिखा है--‘‘जनता दल (एकीकृत) के अध्यक्ष शरद यादव ने लोकसभा में डंके की चोट पर चुनौती दे दी कि खेल समारोह के नाम पर घोटाला एक लाख करोड़ रुपये का हो चुका है। हम हतप्रभ थे, चकित भाव से सोच रहे थे कि ‘अतिशयोक्ति’ पर नाप और नियंत्रण लागू होगा। मगर किसी सरकारी बाबू ने आज तक चूँ भी नहीं की।’’

लिखा है--‘‘भारत सरकार ने ‘आश्वासन’ दिया है कि पैसे-पैसे का हिसाब होगा और चोरों को कड़ी सजा दी जायेगी। लेकिन सभी जानते हैं, आम नागरिक भी अवगत है कि पिछले पाँच-छह दशक में जो शासन-प्रशासन विकसित हुआ है, उसमें भ्रष्ट नौकरशाह या नेता की धींगाधींगी को नियंत्रित करने का हाल-फिलहाल कोई तरीका नहीं है।’’ अतः ‘‘किसी के मन में कोई डर नहीं है। तमाम दोषी अफसर-नेता आश्वस्त हैं। प्रजातंत्र के फसाद में ऐसा कौन है, जिसके हाथ मल में नहीं सने, और मुख पर कालिख नहीं लगी है?’’

लेख के अंत में लिखा है--‘‘हमारी समझ से, प्रजातंत्र में जनता को स्वयं जनार्दन की भूमिका का निर्वहन करना होता है। क्या इस एक लाख करोड़ रुपये के घोटाले के बाद भी देश सोता रहेगा?’’

मेरा प्रश्न है: कहाँ है जनता जनार्दन?

--रमेश उपाध्याय

4 comments:

  1. सब चलता है लोकतंत्र में. लोग-लोग मार तमाम लोग लेकिन उम्मीद कोई नहीं. क्योंकि राजनीति के सारे प्रयोग जनता के लिए छलावे की तरह ही साबित हुए हैं. इसलिए लगता है उसने मान लिया है कि कुछ बदलाव नहीं होने वाला-
    बहार आए चली जाए फिर चली आए,
    मगर ये दर्द का मौसम नहीं बदलने का.

    ReplyDelete
  2. बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
    कहानी ऐसे बनी– 5, छोड़ झार मुझे डूबन दे !, राजभाषा हिन्दी पर करण समस्तीपुरी की प्रस्तुति, पधारें

    ReplyDelete
  3. बात गम्भीर है लेकिन गम्भीरता से ली कब जाती है? अब एक आलेख छप गया और एक प्रश्न भी उठ गया - कहाँ है जनता जनार्दन?

    पर जब जनता सवाल उठाती ही नहीं तो क्या किया जाए?

    ReplyDelete